वर्ष २०१४, भैलवा के...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१४, भैलवा के सरभंग!

63 Posts
2 Users
4 Likes
1,218 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब तनिक यथार्थ का चिंतन-मनन! भगवद गीता, एक पवित्र हिन्दू ग्रंथ है! सबसे पहले तो ये शब्द, हिन्दू! इसका मूल क्या है? दरअसल हिन्दू शब्द का कोई मायने ही नहीं! ये शब्द सिंधु का अपभृंश है और कुछ भी नहीं! अर्थात, ये शब्द, भारतीय भी नहीं और लेखनी का भी नहीं, ये मात्र बोली का ही शब्द है! मैं वैदिक-धर्म ही लिखता आ रहा हूं हिन्दू-धर्म नहीं! प्राचीन समय में, तिजारती अरबी लोग, फ़ारसी लोग अबीसीनियाई लोग, एवं आदि लोगों की भारत में आवाजाही रही! सबसे अधिक भारत में ये अरबी लोग ही आये, ये सिंधु शब्द का उच्चारण सिंधु न बोल, हिन्दू कहा करते थे, अर्थात वो स्थान जो सिंधु के पार है! अर्थात भारत देश! उस समय तक, अरबी भाषा में स शब्द, ह से ही मिलता जुलता था, अरबी, संस्कृत की तरह से ही महत्वपूर्ण, प्राचीन, स्पष्ट मंतव्य वाली एक बेहद ही प्यारी भाषा है! अरबी ने हमारे संस्कृत शब्दों को भी अपने में स्थान दिया और और हमने भी संस्कृत के कुछ शब्द उन्हीं से लिए हैं! ये कभी बाद में! हां तो बात चल रही थी गीता की! आज के इस युग में, एक भारतीय जो नास्तिक न हो, गीता को अपना एक पवित्र ग्रंथ मानता है, गीता को, एक जीवन-पद्धति मानता है! परन्तु, अफ़सोस ये, कि गीता का भावार्थ बहुत ही कम लोगों ने जाना है या अभी तक जान पाए हैं या, अभी भी लगे हुए हैं! मित्रगण! तर्क तभी तक टिकता है जब तक उसको उचित एवं सटीक निर्णय द्वारा बींध नहीं दिया जाता! जब तर्क इस सीमा से बाहर हो जाए तो ये वाद का रूप ले लेता है! जैसे द्वैतवाद, अद्वैतवाद आदि आदि! अरे हां, मैंने एक विषय के बारे में लिखा और भूल गया, मैंने लिखा था कि हरिदास उदासीन वैष्णव थे, ये उदासीन तो पारिभाषित हुआ, परन्तु ये वैष्णव क्या हुआ? इस से क्या अर्थ निकला? क्या विष्णु जी से संबंधित? सोच कर अवश्य ही बताएं!
नव-दुर्गा, अर्थात नौ प्रधान देवियों का पूजन, नवरात्र में होता रहा है, लेकिन ये वैष्णवी देवी हैं कौन? तब क्या ये क्रम से दसवीं हुईं? दसवीं हुईं, मान लिया तब इनका नवरात्र क्यों नहीं?
और फिर, आप सभी जानते हैं कि किसी भी देवी के रूप का सृजन, एक उद्देश्य के निमित्त हुआ करता है, भारतीय-वैदिकता तो यही कहती है, तब वैष्णवी का सृजन क्यों और उद्देश्य? क्या मात्र श्री राम जी से विवाह ही?
एक बात और, आपने देखा होगा, ये सभी देवियाँ, जो सात्विकता धारण करती हैं, सभी के वाहन, मांसाहारी सिंह हैं! स्वयं लक्ष्मी जी का वाहन उल्लू है! वो भी मांसाहारी है! अब माँ कालरात्रि को देखिये, उनका वाहन, गधा? शाकाहारी गधा? क्या प्रयोजन? अब कुछ न कुछ तो होगा ही?
वो देवियाँ जो सिंह को वाहन बनाती हैं, वे जानबूझकर, ऐसा दिखाई जाती रही हैं! कारण, सिंह मांसाहारी है, अर्थात सात्विक अमुक देवी ने तामसिक महाशक्ति को, सिंह यहां तामसिक महाशक्ति का प्रतीकात्मक रूप ही है, दास बना लिया! अर्थात सात्विकता ऊंची सिद्ध हुई या हो रही है तामसिकता पर! इसी कारण से, शिव जी का वाहन, शाकाहारी नंदी सांड हैं! ये सब बाद के हैं! सब के सब! अब उल्लू! उल्लू रात्रिचर है, निशाचर है, रात में ही शिकार करता है, रात को उभयचरी कहा गया है, तमाम तमस के कार्य रात्रि में होते हैं, ये प्रबल तामसिकता है! धन की देवी लक्ष्मी जी और वाहन उल्लू? कोई तो अर्थ होगा ही, कि जी लक्ष्मी का आगमन रात्रि समय होता है अतः वाहन उल्लू है उनका! अरे मित्रो! क्या देवताओं को भी धन की कमी रहती है? क्या वे भी धन के प्रति चिंता किया करते हैं? यदि हां, तब वे कैसे देवता? और फिर धन का सूचक क्या स्वर्ण-मुद्रा ही हैं? धन से आप क्या प्राप्त कर सकते हो? मात्र भौतिक-सुख! बस! और कुछ नहीं! तब, लक्ष्मी जी कैसे भौतिकता की देवी? दरअसल, लक्ष्मी जी धन की नहीं, सुख की देवी हैं! अब इस सुख को, कैसे पारिभाषित किया जाए? जो जन जन तक पहुंचे! हर तबके में पहुंचे! किसको धन नहीं चाहिए? है कोई ऐसा? क्या राजा और क्या महाराजा! यहां तक कि असुरराज रावण के साथ तो स्वर्ण की बनी लंका ही चिपका दी! जैसे रावण से बड़ा कोई लालची था ही नहीं! लक्ष्मी जी भगवान धन्वंतरि जी की कनिष्ठा हैं! ऐसा, लक्ष्मी ही के बारे में बताया जाता है! लेकिन, सच्चाई तो ये है ही नहीं?
अब गीता के विषय में! एक प्रकरण है, कि जब अर्जुन ने अपनी असमर्थता जतलाई के हर तरफ मेरे ही बंधु-बांधव हैं, तात श्री हैं, गुरुजन हैं, मैं कैसे धनुष उठाऊं? तब कृष्ण जी कहते हैं, कि तब अच्छा है कि किसी और ईश्वर की शरण में चले जाओ! मुझ से पृथक अर्थात! अब बहुत ही बड़ा, विशाल पर्वत सा एक प्रश्न! दूसरा ईश्वर? वो कौन है भला? और स्वयं श्री कृष्ण जी क्यों झूठ बोलेंगे? वो भी उस समय? गीता, अध्याय १८, श्लोक ६२, ये देखिये आप!
गीता, अध्याय १३, श्लोक ११ से २८, ३०,३१,३४ में वे कहते हैं, ये समस्त शरीर, देह एक क्षेत्रा है, और जो इस देह को जानता है वो क्षेत्राज्ञ होता है, अतः मैं क्षेत्राज्ञ हूं! अब यहां द्वि-अर्थी संवाद! कहीं तो वे कहते हैं, कि आत्मा प्रधान है और कहीं वे कहते हैं कि ये देह प्रधान है! फिर वे कहते हैं, कि जो इन दोनों को जानता है वो तत्व-ज्ञानी होता है! किसको जानना? क्षेत्रा? मान लिया, कि देह! क्षेत्राज्ञ? इस से क्या अर्थ? क्या स्वयं श्री कृष्ण को जानना?
अब आप ये भी देखिये! वे कहते हैं, गीता, अध्याय १३, श्लोक १० में वे कहते हैं कि मेरी भक्ति अव्यभिचारिणी होनी चाहिए! अर्थात किसी और की पूजा नहीं की जा सकती! चूंकि मैं ही ब्रह्म हूं! ये कैसा संवाद? ये क्या है? शिक्षा या कोई छिपी हुई सी चेतावनी! या कोई दिशा-निर्देश! कोई संकेत! वे कहते हैं, एक पतिव्रता स्त्री की भांति उनकी भक्ति की जाए, एकांत में की जाए, सब के साथ पूजा करना, भक्ति करना पूर्ण रूप से व्यर्थ है! भक्ति एवं मुक्ति के लिए ज्ञान समझें और वक्त बनने के लिए ज्ञान सुनना घोर अज्ञान है!
तो मित्रगण! ये सब इतना जटिल है कि एक बार में, दो बार में तो समझ आये नहीं! बार बार साधिये! तब जाकर कुछ हाथ लगे! जो ऊपर लिखा वो गीता के अंश हैं, मैंने अपने विचार नहीं लिखे हैं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब कुछ रीत! ये सब मैं गीता के अनुसार ही बताऊंगा! प्रयास करूंगा मेरा अर्थ है! सबसे बड़ा प्रश्न और जंजाल! इस प्रश्न से मैं सदैव ही जूझता रहता था, परन्तु, जब गुरु-आशीष प्राप्त हुआ तब इसका निदान भी हो गया! प्रश्न ये, कि क्या व्रत या उपवास रखना आवश्क्य है? क्या इस से प्रभु के और निकट जाता है व्यक्ति? या इस से अमुक देवी या देवता का ध्यान अपनी ओर अक्स्र्षित हो जाता है? या भविष्य में इसके कोई फल मिलते हैं? या इस से कोई अर्थ, काम, भूमि, वाहन सुखादि प्राप्त होता है? ऐसे अनेकों प्रश्न! एक विशेष बात, गीता में ब्रह्मदेव को रजोगुणी, विष्णु जी को सतोगुणी और शिव को तमोगुणी बताया गया है! ये आप जान लें!
तो अब गीता क्या कहती है, या स्वयं 'ब्रह्म' श्री कृष्ण क्या कहते हैं! गीता, अध्याय ६, श्लोक १६,  के अनुसार, ये भक्ति, योग, न तो अधिक ही खाने वालों का, न ही बिलकुल खाने वालों का और न ही अधिक सोने वालों का, न ही कम सोने वालों की सफल होती है! कुल मिलाकर, व्रत नहीं रखना चाहिए! आगे आप स्वयं समझदार हैं!
अब, पिंड-दान या श्राद्ध-कर्म, गीता क्या कहती है इस विषय में? गीता अध्याय ९, श्लोक २५ में वे स्पष्ट करते हैं कि भूतों की पूजा करने वाले, स्वयं ही बहुत योनि प्राप्त करते हैं! अर्थात ये व्यर्थ है, श्राद्ध-कर्म नहीं करना चाहिए! इस विषय में ऋषि रौच्य के जन्म का एक वृत्तांत भी आता है कि किस प्रकार, रौच्य ऋषि को पाप का भागी बना दिया गया!
अब एक और रोचक तथ्य! वो है साक्षात भगवान विष्णु के विषय में! यदि श्री कृष्ण स्वयं ही विष्णु के अवतार हैं तो ऐसा क्यों कहते हैं कि, गीता, अध्याय २, श्लोक ४६ में, श्री कृष्ण एक उदाहरण देते हैं कि जब बड़ा जलाशय समीप हो तो छोटे जलाशय की क्या आवश्यकता? मैं तो स्वयं ही ब्रह्म-जलाशय हूं! फिर छोटे जलाशय अर्थात विष्णु की क्या आवश्यकता? ये सब व्यर्थ है! कारण, विष्णु जी तो स्वयं अविनाशी नहीं! तो वे आत्मा को मोक्ष कैसे प्रदान करेंगे?
अब स्वयं शिव जी के बारे में, वे क्या कहते हैं? गीता, अध्याय ७, श्लोक १२ से २५ तक, कि जो भूत, प्रेत, यक्ष, मसान, श्री भैरव व् हनुमान जी आदि का पूजन करता है, उसकी पूजा निष्फल होती है! वो मोक्ष प्राप्त नहीं किया करता! चूंकि मैं ही सबसे बड़ा हूं अतः न तो ब्रह्मदेव की, न विष्णु जी की और न ही शिव की भक्ति, मोक्ष प्रदान करने वाली है! जो इस विधि की भक्ति के अलावा जो अकर्तृत्व भी नहीं, वो भक्ति मुझे मान्य है! अब ये तो वो ही जानें कि ये कौन सी भक्ति है!
इसीलिए सच पूछें तो तंत्र में गीता को एक भ्रामक-आवरण कहा जाता है! जो जनसाधारण को सत्य से दूर ले जाता है, कर्तव्य से विमुख करता है, मात्र यही 'ब्रह्म' है जिसने, जिसके अनुसार, सभी का सृजन किया है! न एक उस से ऊपर है, और न एक उस से नीचे! आप भक्ति कर, कितने भी श्रेष्ठ हो जाएं, रहेंगे उनके दास ही! चूंकि आपने दासता में ही जन्म लिया है! तंत्र, इसी स्थान से, पृथक हो जाता है और एक अलग ही राह प्रदान करता है! यही है शिव का अघोर!
कौरव और पांडव! इनका युद्ध होना था, अब प्रश्न था भूमि का, कि भूमि कैसी हो? तब उन्होंने अपने गणों को, सेवकों को दूर दूर भेजा, हंडक नाम के एक पार्षद ने बताया कि कुरुक्षेत्र एक ऐसी भूमि है जहां पाप, गज गज पर है! चूंकि, उसने देखा, खेत में पानी के लिए दो भाइयों में आपसी विवाद हुआ, तो विवाद इतना बढ़ा कि एक भाई ने दूसरे को मार कर पानी का निकास बंद कर दिया! कृष्ण जी प्रसन्न हो उठे! यही भूमि होनी चाहिए, क्योंकि नाश तो दोनों पक्षों का ही होगा! इसका अर्थ ये हुआ, कि भूमि में कुछ गुणों का समावेश हुआ करता है! ये गुण भी हो सकते हैं और दुर्गुण भी!
तो बस! गीता को यहीं छोड़ देता हूं और अपनी घटना पर ही आगे बढ़ता हूं! अब घटना...
एक के आसपास का समय हो चला था और अभी तक कोई खबर भी नहीं थी, ऊंघ आने लगी थी सो अलग! कई तो ढेर हो चले थे, कुछ साधिकाओं और मलोटन संग, लोटनबाजी करने लगे थे!
"गजनाथ?" बोला मैं,
"आदेश?" बोला वो,
"चल यार, कहीं लेटा जाए?" कहा मैंने,
"आओ!" बोलै वो,
और हम चल पड़े एक तरफ, वो एक जगह ले गया, यहां ज़मीन पर दरी सी बिछीं थीं, जगह ठीक थी!
"ये ठीक?'' बोला वो,
"हां!" कहा मैंने बैठते हुए!
लेट जाओ!" बोला वो लेटते हुए!
"बहुत देर हो गयी?" कहा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"न आया तो?" पूछा मैंने,
"तब देखते हैं!" कहा उसने,
"मैं नहीं आने वाला कल!" कहा मैंने,
"देखते हैं!" बोला वो,
कुछ ही देर में आँखें झपकने लगीं और मैं तो आराम से हाथ-पांव पसार सो गया! अब कोई आये तो ठीक न आये तो ठीक! ज़रा सी नज़र हटी तो गजनाथ भी घुटने चौड़ाये सो रहा था!
करीब डेढ़ घंटे बाद, मुझे लगा कोई आवाज़ दे रहा है, आंखें खोलीं तो एक अधेड़ सा था सामने!
"आ जाओ?" बोला वो,
मैंने गजनाथ को जगाया तभी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

गजनाथ भी हड़बड़ा कर उठ गया था! वो जो बुलाने आया था वो चला भी गया था, शायद ऐसे ही सभी को जगाने के लिए निकला था!
"आ गए शायद!" कहा मैंने,
"हां, हो सकता है!" बोला वो,
"ढाई बज गया!" बोला मैं घड़ी देखते हुए!
"बहुत टाइम लगा दिया!" बोला वो,
"आ, देखते हैं!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
और हम चल पड़े वहां से, बाबा वेगनाथ की तरफ, अब वहां भीड़ इकट्ठी होने लगी थी, कुल पच्चीस लोग तो रहे ही होंगे! हमने वहां जाने से पहले, हाथ-मुंह धोये अपने और फिर आगे चले, बाबा वेगनाथ वहीं भूमि पर बैठे थे, कुछ बतिया रहे थे, हम भी जा बैठे, जो समझ आया वो ये कि आज का समय तो बीत चला, अब कल रात आठ बजे से ये आयोजन अपने उद्देश्य को प्राप्त करेगा, कोई कहीं बाहर नहीं जाएगा, यहीं, इसी स्थान पर ही रहना होगा, भोजन आदि का समुचित प्रबंध करवा दिया गया है! इतना जैसे ही बोले वो कि मायूसी सी छा गयी! खैर, अब हो भी क्या सकता था! अब कल का ही इंतज़ार करना था! और कोई तरीक़ा था नहीं!
"चल भाई!" कहा मैंने,
"चलो यार!" कहा उसने,
और हम चल पड़े वापिस!
"** क रख दी!" बोला वो,
मुझे हंसी आने लगी! इस लहजे से बोला था कि सच में ही कुछ घटित हुआ हो!
"अरे पहले ही कह देता?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कि आज ज़्यादा ** बहा लिया?" बोला वो,
अब तो मैं हंसते हुए रुक ही गया! वो भी हंसने लगा!
"अबे कम से कम उम्र तो देख ले!" कहा मैंने,
"उमर? अभी भी ढोल फोड़ दे जो ** से एक थाप दे दे!" बोला वो,
मुझे तो बैठना पड़ गया अब! पता नहीं कहां कहां से नयी 'लोकोत्तियाँ' ले आया था! ज़रा ढोल की सोचिये तो!
"झूठ न बोली मैंने!" बोला वो,
"पता है!" कहा मैंने बड़ी मुश्किल से,
"आओ!" बोला वो,
"चल!" कहा मैंने और फिर चलने लगे! और आ गए एक जगह, जहां हमें हम रात बितानी थी, रात क्या कल का दिन भी तो यहीं काटना था! तीन दिन बाद शहरयार यहां आ जाने वाले थे, उनका आरक्षण था, उस हिसाब से तो अभी कोई चिंता नहीं थी!
"कुछ भूख तो न लगी?" बोला वो,
"सच पूछे तो लगी है!" कहा मैंने,
"देखूं हंडिया में क्या है!" बोला वो,
और चल दिया एक तरफ से बाहर! वहां कुछ सधुक्कड़ से आ जा रहे थे, कोई हंसता था कोई एक दूसरे से जीवा-जोड़ी सी करता था! करीब पंद्रह मिनट में आया वो और साथ में दो कटोरे, एक फट्टे पर रख लाया, साथ में कपड़े से ढका हुआ कुछ और!
"लो, पकड़ो?" बोला वो,
"ला!" कहा मैंने,
और रख लिया नीचे!
"पानी लाता हूं!" बोला वो,
"ले आ!" बोला मैं,
तो वो पानी
 भी ले आया और रख दिया!
"क्या ले आया?" पूछा मैंने,
"अभी तो बन ही रहा है!" बोला वो,
"ये बना है?'' पूछा मैंने,
"हां, ले आया हूं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये रोटी हैं!" कहा उसने कपड़े में से निकालते हुए रोटियों को!
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"खाओ!" बोला वो,
हम खाने लगे, भूख लगी थी, मोटे मोटे गस्से बनाये और सब का सब पेट में, फिर पानी पिया और तब, एक चिलम के दो घूंट खींचे, गजनाथ बड़ा ही शौक़ीन है सुट्टे का! माल भी पहली धार का ही रखता है पास!
"अब कल!" कहा मैंने,
"क्या करें!" बोला वो,
"तू तो बैठेगा?' पूछा मैंने,
"बैठ लेंगे!" बोला वो,
फिर मैंने सिगरेट सुलगायी, ये कैप्सटन की सिगरेट थी, यहां ये ही मिलती है, तो भागते भूत की लंगोटी भली!
"तू आया कहां से?" पूछा मैंने,
"अरे कहां यार!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"नहीं गया कहीं!" कहा उसने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"खबर मिली थी, तू जा रहा है?'' पूछा मैंने,
"जाना था, नहीं जा पाया!" बोला वो,
"और वो ठीक है तेरी, क्या नाम है उसका?" पूछा मैंने,
"रेश्मी?" बोला वो,
"हां! वो ही!" कहा मैंने,
"हां, ठीक है!" बोला वो,
"और रुद्रनाथ आया?" पूछा मैंने,
''वो तो आता रहता है!" बोला वो, 
"कैसा है?" पूछा मैंने,
"भला-चंगा है!" बोला वो,
"ब्याह हुआ उसका?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"आदमी थोड़ा अलमस्त है!" कहा मैंने,
"पूरा ही अलमस्त है!" बोला वो,
फिर टेक लगा ली मैंने, अब नींद नहीं आ रही थी, शायद अब बाद में आये या न भी आये!
"और हां?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तू दादू के पास कैसे पहुंचा?'' पूछा मैंने,
"दादू तो ठीक ही आदमी है!" बोला वो,
"फिर, पहुंचा कैसे?" पूछा मैंने,
"अरे बहुत हैं ऐसे!" बोला वो,
"बदल गए?" पूछा मैंने,
"क्या कहें!" बोला वो,
"चल अपनी बता?" बोला वो,
"कोई छह महीने पहले गया था मैं!" बोला वो,
"उसके बसेरे?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"कोई काम था!" बोला वो,
"तो तुझे उसी से काम पड़ा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"चल सुबह बात करते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
और मैंने करवट बदल ली अपनी, नींद आ गयी! अब भले ही कच्ची रही हो, लेकिन इतना भी बहुत ही रहा!
सुबह हुई और मैं फारिग हुआ, ये जगह वाक़ई में बढ़िया है, ये तो सुबह ही पता चला! रिहाइश कोई ख़ास नहीं आसपास, बीहड़ सा क्षेत्र, इक्का-दुक्का कोई भटक के आ जाए तो अलग बात!
चाय आ गयी हमारे पास...आयी क्या, वो ही लेकर आया था वो! पानीमार, दूधहार चाय थी वो! मीठी न हो तो पता ही न चले कि चाय है, लगे कोई देसी काढ़ा ही है! खैर, आज का दिन तो काटना ही था, अब जैसे मर्ज़ी काटो, अय्याश लोगों को तो कोई कमी नहीं, वे सब के सब अपना समय 'काट' ही रहे थे, हम ही बस इधर से उधर और उधर से इधर हांड रहे थे!
दिन में करीब ग्यारह बजे...
"सुनो?" बोला वो,
"बोल?" बोला मैं,
"यहां कोई फायदा नहीं!" बोला वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"बाहर चलें?" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"समय बीत जाएगा और क्या!" बोला वो,
तभी बाहर से हंसी-ठिठोली की सी आवाज़ें आयीं! औरतों की हंसी की आवाज़ थी! शायद अपने अपने कामों में लगी थीं!
"नहीं यार!" कहा मैंने,
"मर गए!" बोला वो,
"बारह बजने वाले हैं, खा-पी सो जाएंगे!" कहा मैंने,
"आपकी मर्ज़ी!" बोला वो,
तो मित्रगण, खींच ही दिया दिन आखिर! सात बजे करीब हम तैयार भी हो गए! था क्या कि उस स्थान पर बाबा वेगनाथ ही सर्वेसर्वा थे, आज्ञा उन्हीं की होती तभी कुछ होता! और वो किसी और स्थान से आते थे, यहां रहते नहीं थे!
आठ बजे करीब दीप प्रज्ज्वलित कर दिए गए, पूजा-अर्चना आरम्भ हो गयी थी! मैं और वो, अपने स्थान के लिए चल पड़े थे! वहां आये तो सुनीता भी मिल गयी! हम बैठे तो वो भी नमस्कार कर संग ही बैठ गयी!
"तू यहीं ठहरी है?" पूछा उसने,
"नहीं!" बोली वो,
"तभी नहीं दिखी!" बोला वो,
"अच्छा हुआ या बुरा?'' पूछा उसने हंसकर!
तभी मैंने उधर कुछ देखा, चुपचाप देखने लगा और उठ गया....!!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

चलिए! एक और मस्तिष्क-पहेली बूझ रहा हूं! सभी को पता है कि सबसे पहले सृष्टि में, इस प्रकृति का ही जन्म हुआ और उसके बाद, शेष रचनाएं हुईं! इन्हीं रचनाओं में से नुष्य भी एक सर्वोत्तम रचना है, ऐसा शास्त्र भी कहते हैं! शास्त्र? शास्त्रों को क्या हम अंतिम जांच-कसौटी मान सकते हैं? अब यहां पर नास्तिकवाद सामने आता है, कुछ ऐसे तथ्य जिन्हें मुनि चार्वाक ने बहुत पहले ही उठा दिया था! अब आप देखिये, मुनि चार्वाक का वो 'साहित्य' अब कहीं उपलब्ध नहीं, कहीं है भी तो वो मात्र टीकाओं में, या कहीं षेषांशों में ही मिलता है! नास्तिकता से क्या अभिप्राय है? क्या ईश्वर का न होना? या उसके अस्तित्व को नकार देना? दोनों एक से ही प्रश्न लगे हैं, परन्तु दोनों में ही एक अंतर् भी है, यदि कोई कहे कि ईश्वर है ही नहीं, तब इसका अर्थ हुआ कि इस संसार में, कोई भी कार्य, कारण, निदान, प्रतिनिदान, उपनिदान, उत्तर, प्रत्युत्तर स्वतः ही उत्पन्न हो जाते हैं, आधुनिक वैज्ञानिक भी इसी तर्क का समर्थन करते हैं, प्रखरतम मस्तिष्क, आइंस्टाइन ने भी समर्थन किया है, निकोला टेस्ला भी इसी समूह-विशेष में खड़े से दीखते हैं! अब दूसरा ये कि उसके अस्तित्व को नकार देना, इसका अर्थ? इसका अर्थ है, कि इस संसार में ऐसा कोई पैमाना नहीं जी से उस सर्वोच्च सत्ता का कुछ पता चला सके! परन्तु, नास्तिकता में एक अंश ऐसा भी है तो इसको नहीं नकारता, और न ही कोई प्रश्न ही खड़ा करे यदि उसका प्रमाण ही मिले, अर्थात आप मुझे प्रमाण दो, मैं परखूंगा, यदि सटीक हुआ तो मैं ये सहर्ष ही स्वीकार कर लूंगा कि इस संसार में ईश्वर का अस्तित्व है!
एक सरल सा प्रश्न उठ आता है मस्तिष्क में, कि आखिर और वास्तव में, इस ईश्वर की क्या परिभाषा है? क्या विष्णु जी, शिव जी, हनुमान जी, ब्रह्मदेव आदि देवी-देवता, ईश्वर हैं? यदि हम विचार करें तो समझ आता है कि ईश्वर मात्र एक ही होना चाहिए, तब हमें इस ईश्वर के इतने खंड-प्रखंड क्यों मिलते हैं?
अब इसका उत्तर अत्यंत ही सरल है! सरल इस लिए कि ये सब, आस्तिकवाद का चक्र, इस नास्तिकवाद को मात्र ढांपने के लिए ही तो बनाया गया है! आस्तिकता का अर्थ है,क्या? कि जो भी धर्म-ग्रंथ कहें उसको आंखें मूंद कर, मस्तिष्क को शून्य कर जहां इस विवेक का कोई स्थान नहीं, विश्वास कर लिया जाए! और आज हैरत है, कि यही सब तो हुए जा रहा है! आज प्रत्येक के जीवन के कुछ खंड कर दिए गए हैं, उनके अधिष्ठाता बना दिए गए हैं, उनका अधिकार एक देवी या देवता को दे दिया गया है! और इसके लिए आवश्यक है एक ऐसा समाज जो इसको आगे बढ़ाता जाए, अपना उल्लू भी सीधा करे और चूंकि बात आस्था की है तब कोई प्रश्न भी न करे! भारत एक ही देश है, तब अलग अलग ही संस्कृतियां यहां फली-फूली हैं! उनके रीत, विधान अलग ही रहे हैं! उनको समरूपता मिले, तो एक ऐसी सत्ता को जन्म देना आवश्यक हुआ जिस को सभी मानयता दें! जैसे अग्नि, जल, वायु, वर्षा, भूमि, सुख, वैभव, संतान, आत्मा आदि आदि!
अब जहां पर आकर कुछ उलझे, तो श्राप या वरदान का नाम दे दो! ये कैसे ब्रह्मदेव हैं जो असुर ताड़कासुर को देव-विजय का वर देते हैं और फिर अपने वर का तोड़ भी दे देते हैं, क्या वे नहीं जानते कि ताड़कासुर ने किस प्रयोजन हेतु ये वर मांग लिया है? क्या हंसी नहीं आ जाती! अब अगर मैं ये कहूं कि ताड़कासुर का सृजन ही कार्तिकेय के जन्म का सृजन-सूत्र था और है तो क्या गलत है? एक बात और, यदि ताड़कासुर ने ये वर मांगा कि उसकी मृत्यु मात्र शिव से उत्पन्न उनके पुत्र द्वारा ही हो तब भी कार्तिकेय, उनसे उत्पन्न कहां हुआ? अब यदि योगमाया से ही उत्पन्न किया जाना था तब ये सारा प्रपंच ही क्यों?
सागर-मंथन को लीजिये आप! इस समय तक मनुष्यों की सृष्टि नहीं हुई थी, अन्यथा उन्हें भी मंथन में हिस्सेदारी देनी ही पड़ती! ये ये 'मोहिनि' कौन थीं? क्या कोई आसुरिक काम-कन्या या कोई काम-देवी? असुरों को कैसे इसका भान नहीं हुआ? यदि, अमृत-कलश उस मंथन से प्राप्त हुआ तब, देवता अमर न रहे होंगे! अमर ही रहते तो अमृत-पान की क्या आवश्यकता भला?
तो साहब! न ही मंथन होता, न ही अमृत-कलश निकलता और न ही फिर से डासुर संग्राम ही होता इस कलश को लेकर, और न ही असुरराज बलि से वो भूमि पर छिटकता और तब ये कुम्भ-स्नान या मेला, या आयोजन ही होता! इस आयोजन से, भले ही देवताओं को कोई लाभ मिले न मिले, असुरों को लाभ मिले न मिले परन्तु, समाज के 'प्रबुद्ध' कुछ लोगों को लाभ, आज तक मिलता ही चला आ रहा है! न मेला भरने वाले ही कम और न भरवाने वाले ही कम!
बड़े ही हैरत की बात है, गणेश पूजन तो सभी करते हैं परन्तु कार्तिकेय पूजन नहीं होता! उसकी न तो विधि ही ज्ञात है न विधान ही! जबकि, लेखन अनुसार वे शिव की प्रथम संतान हैं! आज कि अमरनाथ गुफा का श्रेय, उन्हीं के जन्म को जाता है! अब अमरनाथ से क्या लाभ हो रहा है? वो भी एक विशेष समुदाय को ही! बपौती सी बना कर रखा गया है!
और अब, हर जगह यही है! न तो चरक की बताई हुई जानकारियां ही सम्पूर्ण, न सुश्रुत की, न जीवक की और न ही धन्वंतरि का चिकित्सा-योग! कुछ शेष नहीं आज, कुछ है तो लोगों को निरंतर उलझाए रखो इन्हीं सब फेरों में, चक्कर में! गंगोत्री को लोप करें तो गंगा जी कहां ठहरें! अब गंगोत्री को जटाजूट में स्थान दिया महादेव ने या स्वयं गंगा जी को ही? कोई उत्तर ही नहीं! बस आप यूँ समझ लें, कि इस भारत-भूमि पर जितनी भी नदियां हैं वे सब श्रापवश ही इस भूमि पर हैं, स्वतः ही नहीं, अपनी इच्छा से नहीं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

आप सभी जानते ही होंगे कि सभी देवी-देवताओं को शंख से जल चढ़ाया जाता है! परन्तु औघड़ी शिव को नहीं! जानते हो क्यों? कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा! आपने कृष्ण जी के परम भक्त एवं परम मित्र सुदामा जी के विषय में अवश्य ही पढ़ा होगा, और ये भी कि उनसे सम्भवतः गरीब कोई नहीं! आज भी तो कहा ही जाता है ऐसा! एक बात का स्मरण रहे, जब किसी भी भवन की बुनियाद कच्ची रहती है तो कोई भी भवन अधिक समय तक जीवित नहीं रहता, ठहर नहीं सकता! ऐसे ही कोई वृक्ष, जड़ कमज़ोर तो ध्वस्त और ऐसे ही किवदंतियां! किवदंतियां इसीलिए शेष रह जाती हैं कि उनमे बदलाव, आंशिक रूप से होता ही रहता है! हां, सबसे पहली बात, राधा कोई देवी नहीं, न उन्हें किसी देवत्व में ही स्थान प्राप्त है! अपनी पटरानी के होते हुए भी किसी अपनी उम्र से बड़ी विवाहित स्त्री के संग रंग-रैलियां मनाना उस समय अवश्य ही गर्व करने वाला रहा हो, परन्तु आज का समजा इसे व्यभिचार की दृष्टि से देखता है और इस से समाज में स्त्री की दशा शोचनीय हो जाती है, कोई शंका नहीं! राधा से उन्हें मात्र दैहिक-सुख के और क्या लालसा रहती, कोई समझाये तो मैं अपनी त्रुटि स्वीकार कर लूंगा!
हां, तो जी, वर्णन है कि एक बार कृष्ण जी और राधा जी के बीच में सुदामा जी आ धमके! राधा जी ने उन्हें मना किया और फौरन ही वहां से चले जाने को कहा, लेकिन सुदामा नहीं डिगे और वहीं बने रहे! फलस्वरूप, क्रोधवश राधा जी ने उन्हें श्राप दे दिया कि वे, अपनी आगामी योनि में असुर वंश में उत्पन्न होंगे! कृष्ण जी, अवश्य ही 'काम-ग्रसित' रहे होंगे जो इतनी बड़ी घटना उनकी आंखों के सामने घट गयी और एक शब्द नहीं निकल पाया उनके मुख से!
अब, मुनि कश्यप के वंशज विप्रचति, उनकी कोई संतान नहीं, ये बड़े ही हैरत की बात है कि बड़े से बड़े ऋषि, मनीषि, राजा आदि को कोई भी संतान सहजता से प्राप्त ही नहीं हुई! और जो हुई भी वो मात्र पुत्र संतान ही हुई, स्त्री संतान नहीं! यदि इक्का-दुक्का प्रकरण छोड़ दें जहां कोई पहले से ही भूमिका बांधी जा रही हो! तो विप्रचति को अथक प्रयासों द्वारा किये जाने पर, एक पुत्र दम्भा प्राप्त हुआ, अब दम्भा असुर था! अब यहां वो कैसे असुर हो गया ये भी समझ से बाहर ही है! अब फिर से वही! दम्भा जी के भी कोई संतान नहीं हुई, लाख जतन किये गए! तब उन्होंने ब्रह्मदेव की उपासना की, कहां? जहां ब्रह्मदेव का एक मात्र ही मंदिर है और वो है पुष्कर! जबकि पुष्कर में माँ गायत्री ही फलदायी हैं, अन्य कोई देवी या देवता नहीं! अब दम्भा जी को एक मार्ग मिला, कि विष्णु भक्ति द्वारा पुत्र प्राप्ति सम्भव है! वही किया गया और इस प्रकार सहस्त्र वर्षों की साधना के पश्चात एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम शंखचूड़ था! इसी शंखचूड़ को शिवांश जालंधर भी कहा गया है, हालांकि, अलग अलग पुराण उसके जन्म की कथा और रहस्य अलग अलग ही बताते हैं! ये शंखचूड़ ही सुदामा था, जो कि श्रापवश असुर योनि में जन्मा! जन्म से ही शंखचूड़ के पास एक सुरक्षा-कवच था जो कि स्वयं श्री कृष्ण ने उसे प्रदान किया था! अब क्यों किया? किस कारण से किया? ये तो मात्र कृष्ण जी ही जानें!
अब इस शंखचूड़ ने ब्रह्मदेव को प्रसन्न किया और अजेय होने का वरदान प्राप्त कर लिया! अब शंखचूड़ ने सभी लोकों में त्राहि त्राहि मचा दी! परन्तु उसकी प्रजा अत्यंत ही संतोष एवं अपने राजा का मान करने वाली रही! दैत्यगुरु शुक्राचार्य के निर्देशानुसार, तुलसी, वृंदा भी नाम है, निधिवन में रहने वाली एक पतिव्रता स्त्री से उसने विवाह किया! शखचूड ने, सभी देवताओं को भयंकर पीड़ित किया, राज-पाट, धन आदि सब छीन लिया और अपनी प्रजा में बांट दिया! अब चूंकि ये धन-सम्पदा स्वयं सागर से निकली थी, अतः उस पर पृथ्वी पर ही बसने वालों का मूल अधिकार था, जिस प्रकार देवताओं ने हड़प लिया, शंखचूड़ भी हड़प लाया!
अब देवताओं ने गुहार लगाई, मंत्रणा हुई और पता चला कि शंखचूड़ का वध मात्र शिव ही कर सकते हैं! अब शिव-सेना ने एक काम किया, उसके पास, चित्ररथ गांधर्व को भेजा कि वो सब कुछ वापिस कर दे, उसने मना कर दिया, कहीं कहीं ये भी लिखा है कि एक प्रधान शिवगण शंखदत्त गया था समझाने! कोई परिणाम न निकला और शिव से युद्ध होना निश्चित हो गया!
और फिर हुआ युद्ध! सोलह सहत्र वर्षों तक शंखचूड़ युद्धरत रहा, देवताओं का नाश करता रहा, देवताओं को शिव नवजीवन देते और उधर शुक्राचार्य संजीवनी प्रदान करते असुरों को! आखिर में, कोई परिणाम न निकला! तब ब्रह्मदेव ने बताया कि जब तक शंखचूड़ की पतिव्रता स्त्री का पतिव्रत-भंग नहीं होगा, उस शंखचूड़ का कवच नहीं टूटेगा उसका हारना लगभग असम्भव ही है! विष्णु जी ने ब्राह्मण वेश धारण किया, असुर अपने वचन के दृढ-प्रतिज्ञ थे, दान में मांगने पर, विष्णु जी को पहचानने के बाद भी सुरक्षा-कवच उसने दान दे दिया! उसके बाद भी कोई अस्त्र, कोई शस्त्र उस तक नहीं पहुंचा सका!
अब मात्र एक ही युक्ति थी, और वही किया! अपने को परम सतोगुणी और जगतपालक कहे जाने वाले  विष्णु जी ने, शंखचूड़ का रूप धरा और, जब वृंदा को लगा कि उसके पतिदेव युद्ध जीत कर लौट आये हैं, स्त्रीपालन किया, इस से उसका पतिव्रत-धर्म, भंग हो गया! शंखचूड़ ने अट्ठहास किया और उसी क्षण  सब मंशा जान गया, अस्त्र रख दिए और इस प्रकार उसका वध किया गया! उसी अस्थियों से शंख लोगों की उत्पत्ति हुई, आज शंख जाती इस पृथ्वी पर कहीं नहीं दीखती, हां उनके अस्त-अंश, समुद्री शंख ही प्राप्त होते हैं, कहते हैं, शंख लोगों ने कालकेय असुरों के साथ सागर के पाताल में वास करना चुना! और शिव को कभी भी शंख से जल नहीं दिया जाए, ये श्राप भी दिया, इसीलिए उसी दिन से शिव को शंख से जल नहीं दिया जाता!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उचित है! अब मैं सरभंग-सम्प्रदाय के विषय में लिखता हूं! प्राचीन काल से ही तीन सम्प्रदाय अस्तित्व में रहे हैं! पहला अघोरपंथ, दूसरा सरभंग और तीसरा घुरे, अघोरपंथ में कई सम्प्रदाय आये और गए, कुछ रुक गए, जो रुक गए वे औघड़ हुए या कहलाये! औघड़ों में नियमों की प्रधानता है, और एक निश्चित नियम-परिपाटी पर चलते हैं! और दूसरे हैं सरभंग, ये औघड़ों से अलग हुए हैं और अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं! इनके नियम आदि औघड़ों से पृथक है, यदि औघड़ किसी लघु-मार्ग पर चलता है तब ये सरभंग, अतिलघु-मार्ग पर चलते हैं! और तीसरे हैं घुरे! ये घुरे आज गुप्त सम्प्रदाय है! ऐसा नहीं कि ये नहीं हैं, हैं और इनके प्रधान अधिष्ठाता पाशुपात या पाशुपत या पशुपति नाथ हैं! ये दोनों सम्प्रदायों से अलग ही रहते हैं, अतः इनके बारे में जानकारी कम ही बाहर आती है! अब औघड़ों में कौला, कापालिक ये दो मुख्य शाखाएं निकली हैं! और इन्हीं दोनों में से श्रेष्ठ का चुनाव कर, गुरु गोरखनाथ जी ने नाथ सम्प्रदाय बनाया ये प्रबल एवं मृदु, दोनों ही स्वभाव के हैं! इनके मुख्य अधिष्ठाता, स्वयं श्री शिव हैं! सरभंग अपने आपको, श्री दत्तात्रेय से भी मुख्य रूप से जोड़ते हैं, श्री दत्तात्रेय का जन्म मदाकलश के साथ ही हुआ था, इनके अनुसार इस मदाकलश के एकमात्र अधिकारी यही सरभंग ही हैं! इनके अनुसार, नेत्र बंद कर श्री दत्तात्रेय जी का ध्यान कर जो भी समक्ष आ जाए वो भोज्य-पदार्थ ही माना जाता है! इसीलिए ये सरभंग सब कुछ खाने वाले, निर्दयी, नरबलि चढ़ाने वाले, मनुष्य-मांस का सेवन करने वाले होते हैं! पुरुष शव में ये लिंग-स्थान का और स्त्री-शव में ये वक्ष-स्थल का अत्यधिक सेवन करते हैं! इनकी बलि सीधी नहीं होती, अर्थात बकरे के उदाहरण अनुसार जहां एक औघड़ बकरे पर खड़ा प्रकार करता है, उसकी गर्दन पर, एक ही बार में सर को धड़ से अलग कर देता है! वहीं ये सरभंग इसकी गर्दन को आड़े प्रकार से काटते हैं! अर्थात कंधे की तरफ से वार!
सरभंग और औघड़ों की कुछ प्रबल महाशक्तियां एक समान सी, और कुछ विपरीत हैं! इनकी विधियां छोटी और सरल हैं! मंत्र भी स्पष्ट एवं छोटे हैं, दर्हन प्रकार के हैं, अर्थात जैसे एक ही शब्द को इक्कीस बार जप लिया जाए बस, उसकी ध्वनि घटती और बढ़ती जाए!
ये सरभंग शव-साधना में स्त्री शव का प्रयोग करते हैं, उसके साथ संसर्ग आम सी बात है! वहीं औघड़, नर-शव का प्रयोग शव-साधना में किया करते हैं, संसर्ग का प्रश्न ही नहीं, हां सोलह प्रकार की शव-साधना ऐसी हैं जिनमे से बारह में स्त्री-शव और चार में नपुंसक-शव का प्रयोग करते हैं! यदि पिशाच-बस्ती को अभिभूत करना हो, बस में करना हो तो स्त्री-शव का प्रयोग होता है, यदि भोडार, हल्लाट, खोगा आदि युग्म शक्तियों को बस में करना हो तब नपुंसक-शव प्रयोग में लाया जाता है! ये कुछ साधना के गूढ़ रहस्य हैं!
अब उस रात की घटना....
हमने अपने अपने स्थान ग्रहण कर लिए थे और अब इंतज़ार था तो बाबा वेगनाथ का कि वो आएं और दिशा-निर्देश करें! अभी कुछ समय शेष था!
"गजनाथ?" बोलै मैं,
"आदेश!" बोला वो,
"साधिका तो पहुंची नहीं?" पूछा मैंने,
"कल पता करता हूं!" बोला वो,
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"ऋतु!" बोला वो,
"कहां से है?" पूछा मैंने,
"यहीं से" बोला वो,
"ठीक है?" पूछा मैंने,
"हां, ठीक ही है!" बोला वो,
"उम्र?" पूछा मैंने,
"चौबीस-पच्चीस?" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां तो बहुत हैं?" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"**आ!" बोला वो,
मुझे हल्की सी हंसी आयी!
"बाबा देख लेंगे!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"और वो जगह कहां है?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोला वो,
इशारा किया था, पीछे की तरफ!
"अंधेरे में?" बोला मैं,
"देख लेना!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"मुझ पर छोड़ो!" बोला वो,
"छोड़ दिया, चल!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और ठीक नौ बजे करीब बाबा वेगनाथ जी का आना हुआ उधर! सभी ने उनका अभिनंदन किया और चरण छुए! तंत्र में गुरु-महिमा का एक अलग ही स्थान है, गुरु से बढ़ कर कोई नहीं, यही माना जाता है! चूंकि गुरु, एक सीढ़ी ऊपर ले जाता है अतः उसका मान, सम्मान, आदर सदैव ही बना रहता है! अब चाहे साधक कितनी ही ऊंचाइयों को छू ले, अपने गुरु जनों को कभी हे दृष्टि से नहीं देखता! इसी कारण से आज तक ये प्रणाली जीवित रही है!
करीब आधे घंटे तक उन्होंने दिशा-निर्देशन किया और सब आवश्यक कार्य, रीत आदि से अवगत करवा दिया! अब चूंकि ये एक महाकिन्नरी साधना का आयोजन था, अतः साधिका का संग रहना आवश्यक था, मेरी साधिका को आज आना था, लेकिन वो नहीं आयी थी, यहां का समस्त प्रबंध गजनाथ ने ही किया था, मैं तो उसी के भरोसे था यहां पर!
दिशा-निर्देशन उपरान्त वे चले गए, अब कल, उक्त समय पर वे आते और किन्नरी-पूजन आरम्भ होता, इसके लिए सभी आवश्यक वस्तुएं या तो लायी ही गयी थीं या कल तक सभी आ जानी थी, ताज़ी सामग्री में, कुछ वनौषधियां, फूल, फल आदि ही लाने थे, पीले रंग की प्रधानता है, अतः कनेर के फूलों का विशेष रूप से प्रबंध किया गया था, यहां गेंदे के पीले फूल नहीं चला करते!
मैं और वो एक जगह आ बैठे, संग में अभी कोई नहीं था, खान-पीन का प्रबंध यही करने वाला था, सो वो लेने चला गया था मैंने अपने माल उतार कर रख लिए थे, अब उनकी कोई आवश्कयकता फिलहाल में नहीं थी!!
वो सामान ले आया था, तरीदार भेड़ का मांस था, भेड़ के मांस में चर्बी अधिक रहती है, लहसुन का अर्क, यदि भेड़ की चर्बी में पकाया जाया और शीतल कर, गठिया बाए के दर्द के लिए मालिश की जाए तो अचूक लाभ देता है! भेड़ की चर्बी में नीम का तेल मिला लिया जाए और जलाया जाए तो घर से सारी बुरी बलाएं, बाधाएं भाग खड़ी होती हैं!
"साथ में क्या लाया?" पूछा मैंने,
"आपका ही माल है!" बोला वो,
"अंग्रेजी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ये ठीक किया!" कहा मैंने,
"है भी बढ़िया!" बोला वो,
और हम शुरू हो गए, तभी पीछे से कुछ लड़ने-झगड़ने की आवाज़ें सी आयीं, शायद दो गुट आपस में ही भिड़ गए थे! इस प्रकार के आयोजनों में ऐसा होना कोई नयी बात नहीं, अक्सर ही सर-फुटावल होती ही रहती है!
"कौन कौन हैं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"तुझे नहीं पता?" पूछा मैंने,
"होंगे यहीं के!" बोला वो,
खैर हम तो अपने में ही मस्त रहे! हमें क्या मतलब, मरना है मरो, बैठना है बैठो!
"सालों से झिलती है नहीं!" बोला वो,
''सो ही तो!" कहा मैंने,
"अब देख लो!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कर रहे हैं एक दूसरे की माँ-बहन!" बोला वो,
"जाने दो!" कहा मैंने,
हम फिर से अपने में मस्त हो गए!
"अरे?" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो!
"एक तेरा दोस्त था, क्या नाम था, हां, जोगी!" कहा मैंने,
"मर गया वो!" बोला वो,
"मर गया?" मैंने पूछा,
"हां!" कहा उसने,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"पेड़ गिर गया था ऊपर!" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"साल हो गया!" बोला वो,
"लड़का तो अच्छा था?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तभी कहूं दीख ही नहीं रहा!" कहा मैंने,
"उसकी बीवी भी मर गयी!" बोला वो,
"हैं?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"बीमार थी!" बोला वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"बता?" बोला मैं,
उसने गिलास ख़तम किया अपना, एक टुकड़ा उठाया उस बर्तन से, उसे काटा और चबाने लगा, चबाते चबाते वो रुका..
"श्रीचंद को जानते हो?" बोला वो,
"कौन श्रीचंद?" पूछा मैंने,
"वो, बाबा नौरतन वाला?" बोला वो,
"हां! याद आया!" बोला वो,
"उसी श्रीचंद ने बताया था!" बोला वो,
"और ये श्रीचंद कहां है?" पूछा मैंने,
"वो तो वहीं है!" बोला वो,
"उसको पकड़?" कहा मैंने,
"पकड़ा था!" बोला वो,
"फिर?" बोला मैं,
"उसे एक क्षेत्र ही मालूम है, सटीक का नहीं!" बोला वो,
"मतलब, उसे वो जगह नहीं मालूम?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"उसने कोशिश की?" पूछा मैंने,
"बहुत बार!" बोला वो,
"तब, जोगी ने किसी को नहीं बताया! ये भी एक कहानी है!" कहा मैंने,
"पता नहीं!" कहा उसने,
"या फिर ये बता नहीं रहा!" बोला मैं,
"नहीं नहीं!" बोला वो,
"क्या नहीं?" पूछा मैंने,
"उसे पता होता तो मुझे ज़रूर बताता!" बोला वो,
"यक़ीन है?" पूछा मैंने,
"एकदम!" बोला वो,
"चल छोड़ यार!" कहा मैंने,
"ले चलूंगा!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"उस जगह!" कहा उसने,
"अब पक्की तो पता नहीं?" बोला मैं,
"नज़र मार लेना!" बोला वो,
"ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"हो सकता है कुछ लग ही जाए हाथ?" बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"और क्या!" कहा उसने,
"प्रणाम!" आयी आवाज़!
मैंने बाएं देखा, सुनीता थी ये!
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"बैठ जाऊं?" पूछा उसने,
"बैठ जा!" कहा मैंने,
बैठ गयी वो, आलती-पालती मार कर!
"ये झगड़ा किसका हुआ?" पूछा मैंने,
"बाहर के हैं!" बोली वो,
"तेरी तरह कितनी हैं?" पूछ लिया गजनाथ ने,
"चार-पांच?" बोली वो,
"कल रुक रही है?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पोला की तो तबीयत खराब हो गयी!" बोली वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"उठा ही नहीं जा रहा!" बोली वो,
"तब तेरा कोई फायदा नहीं!" कहा मैंने,
"यही तो?" बोली वो,
"आप तो रुकोगे?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई है?'' पूछा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"यहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ओ! आएगी!" बोली वो,
"लाएंगे!" कहा मैंने,
"दो की एक?" बोली वो,
"पागल है क्या?'' बोला मैं,
"इसकी?" बोली वो,
"ये नहीं बैठेगा!" बोला मैं,
"अच्छा! समझी!" बोली वो,
"और सुना?'' बोला गजनाथ!
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"हो सकता है वो ठीक हो जाए?" बोला मैं,
"देखते हैं!" बोली वो,
"देख ले!" कहा मैंने,
"गजनाथ जी?" बोली वो,
"जी?" बोला हंसते हुए!
"हां!" बोली वो,
"काम बोल?" बोला वो,
"इधर आओ?" बोली वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वे दोनों उठ कर, एक तरफ चले गए, सुनीता ने क्या बात करनी थी ये वो जाने और वो गजनाथ जाने! न मुझे कोई मतलब ही था उनसे, देखा जाए तो दोनों ही स्थानीय थे, अब क्या बात हो, ये वो ही जानें! करीब आठ या दस मिनट में गजनाथ लौटा और वो, चली गयी थी, आया और बैठ गया नीचे!
"अजीब ही है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये जाना चाहती है!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"अलग ही!" बोला वो,
"कोई और ले जा रहा है?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोला वो,
"भाड़ में जाने दे?" कहा मैंने,
"मैंने भी यही कहा!" कहा उसने,
"** *** दे इसको!" कहा मैंने,
"और क्या!" बोला वो,
"ऐसी न जाने कितनी हैं, लाख समझा लो, समझती हैं कि अपना ही उल्लू सीधा कर रहा है सामने वाला, तो अच्छा ये है, की चुप ही रहो!" कहा मैंने,
"सही बोल रहे हो!" बोला वो,
"चल इस को रहने दे अकेले!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
अचानक से मुझे कुछ याद हो आया!
"अरे हां?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"दादू!" कहा मैंने,
"हां?" कहा उसने,
"तू गया कैसे वहां?" पूछा मैंने,
"किसी के साथ!" बोला वो,
"काम?" पूछा मैंने,
"अब सत्तर काम हैं!" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"होगी कोई?'' पूछा मैंने,
"उनमे से?" बोला वो,
"तेरा क्या भरोसा?" बोला मैं,
"नाहीं जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"ज़मीन का मामला है एक!" बोला वो,
"उन सरभंगों से?" पूछा मैंने,
"एक में से!" बोला वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"उलझा हुआ मामला है!" बोला वो,
"कोई विवाद है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सुलझा नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
अब मुझे कुछ सूझा! कुछ अजीब सा ही, कि सुना तो बहुत, देखा भी, लेकिन इतना नहीं!
"कौन है तेरा वहां?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं!" बोला वो,
"किसके साथ गया था?" पूछा मैंने,
"यहीं के हैं!" बोला वो,
"तेरी जानकारी अच्छी है उस से?" पूछा मैंने,
"गांव के ही हैं!" बोला वो,
"मतलब पहुंच है!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"फिर ठीक!" कहा मैंने,
"क्या है दिमाग में?'' बोला वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"मिलना है किसी से?"
"मिलवाएगा?" पूछा मैंने,
"किस से?" पूछा उसने,
"तू बता तो सही?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"कोई झगड़ा तो नहीं होगा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"देख लेना!" कहा मैंने,
"नहीं होगा!" बोला वो,
"फिर तो ठीक!" कहा मैंने,
"बता देना यार!" बोला वो,
"चढ़ने लगी?" पूछा मैंने,
"चढ़ने वाली चीज़ चढ़ेगी ही!" बोला वो,
"ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"वैसे काम किस से है वहां?" बोला वो,
"किसी से नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"तेरी अंदर तक पकड़ है न?" बोला मैं,
"हां, है!" बोला वो,
"तो बस!" कहा मैंने,
"बता देना चलो!" बोला वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 

तो देर रात तक हमारी बातें होती रहीं! गजनाथ एक सुलझा हुआ और सम्भले दिमाग का आदमी है, बस इतना ज़रूर है कि थोड़ा सा फ़िसलू है! मतलब, बहती गंगा में हाथ धोने वाला! रात गए हम वापिस लौट आये और सो गए!
अगली सुबह से ही रौनक सी लगी थी, नहा-धोकर हम ज़रा बाहर के लिए निकले तभी मेरी नज़र एक लड़की पर पड़ी! ये लड़की इस डेरे की तो क्या, किसी भी डेरे की नहीं थी, उसने आधुनिक-परिवेश धारण किया हुआ था, जींस में थी और ऊपर एक शर्ट, नीले रंग की, उंगली में, चाबी का छल्ला घुमाये जा रही थी! वो उस बड़े से दरवाज़े के बाहर खड़ी थी, न जाने कौन हो, तो हटा ली नज़रें और हम अपने काम पर चल पड़े! हम वहां पहुंचे जहां वो साधिका ऋतु आनी थी, हम पहुंचे तो खबर लग गयी कि वो बस आधे घंटे में आ ही जायेगी!
यहां हमारी मुलाक़ात, जगदीश नाम के एक सेवक से हुई, आयु में बड़ा था और वो बस आदेश सा देता था दूसरे सेवकों को! बाहर की तरफ एक लोक-धर्मशाला बनी थी, उसका संचालन यही डेरा करता था! कुछ आमदनी हो जाती होगी, अब ज़्यादातर डेरे भी यही करने लगे हैं, शादी-ब्याह आदि के कार्य, प्रवचन या धर्म-चर्चा आदि के लिए भूमि प्रदान कर दिया करते हैं!
कुछ के पास गौ-शाला हैं, दुग्ध-उत्पादन कर, आमदनी करते हैं तो अब कुछ बदलाव आने लगा है, ज़रूरतें बढ़ने लगी हैं और धन की मांग भी! इसीलिए ऐसा करना भी खैर, कोई गलत कार्य नहीं!
ऐसे ही एक डेरे में हम थे, यहां भी गौ-शाला थी, काफी बड़ी, बड़ी मात्रा में गाय थीं यहां!
"केशी कहां है?" पूछा गजनाथ ने,
"पीछे होगा?" बोला वो,
"बुला लो?" बोला वो,
"कोई है ही नहीं!" बोला वो,
"हम देख लें?" बोला वो,
"देख आओ!" बोला वो,
"आओ!" कहा गजनाथ ने,
"चलो!" कहा मैंने,
हम पीछे की तरफ चल पड़े! एक से एक शानदार पेड़ और पौधे लगे थे यहां, कुछ छोटी बालिकाएं फूल इकठ्ठा कर रही थीं! एक जगह हम पहुंचे, यहां दो-तीन छोटे छोटे से कक्ष बने थे! एक सहायक को रोक कर उस से पूछा!
"केशी?" बोला वो,
"हां?" कहा उसने,
"उधर है!" बोला वो,
"अच्छा!" चल पड़े हम ये कह कर!
और केशी मिल गया हमें उधर ही, अखबार पढ़ रहा था, हमें देख खड़ा हो गया, मुझे तो  पहचान न सका लेकिन गजनाथ से मिला और मुझ से प्रणाम हुई!
"क्या हुआ?" पूछा गजनाथ ने,
"बस अभी!" बोला वो,
"कल भी नहीं आया तू?" बोला वो,
"कल था ही नहीं!" बोला वो,
"फ़ोन कर देता?" कहा उसने,
"भूल ही गया!" बोला वो,
खैर, हम उसके साथ चले, एक जगह बिठा दिया गया, चाय-पानी दिया गया और कुछ बातें हुईं!
"देख आऊं!" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"आता हूं!" बोला वो,
दस मिनट बाद आया! बैठ गया!
"नहीं आएगी!" बोला वो,
"नहीं?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"अब मरवा दिया ना?" बोला वो,
''क्या करूं?" बोला वो,
"कोई और नहीं?" पूछा उसने,
"यहां कोई नहीं!" बोला वो,
''अब?" बोला वो,
"होगी तो बताऊंगा!" बोला वो,
फ़ोन साफ़ करते हुए!
"चल?" कहा मैंने,
"चलो" बोला वो,
और हम उठ कर बाहर चले!
"अब?" पूछा मैंने,
"करता हूं कुछ!" बोला वो,
"जल्दी कर?" कहा मैंने,
"कुछ पीते हैं आओ!" बोला वो,
और बाहर आ कर, दो ठंडे ले लिए, पीने लगे!
"क्या यार!" बोला मैं,
"मुझे उम्मीद नहीं थी!" बोला वो,
"पक्का करना था न?" बोला मैं,
"ये आदमी ठीक ही है!" बोला वो,
"देख लिया!" कहा मैंने,
''रुको!" बोला वो,
"रुका ही हूं!" कहा मैंने,
"ज़रा पता करता हूं!" बोला वो,
"कर?" कहा मैंने,
"अभी!" बोला वो,
और घुमाने लगा फ़ोन! शायद कहीं बात बन ही जाए, नहीं तो बाहर ही बैठना पड़ता, हिस्सा नहीं मिल सकता था!
 

   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

इस तरह से बज गए एक, अब तक कुछ न हुआ, और अब होना भी नहीं था, हो भी जाता तो इतना समय नहीं था कि उसको तैयार किया जा सके, इसका अर्थ ये था कि अब इसे निश्चित ही मानिए कि अब हम साधना का हिस्सा नहीं बन सकते थे! मुझे गुस्सा तो इतना आया कि इस साले गजनाथ को ऐसी जगह ले जाकर मारूं जहां ये पानी मांगे तो पानी न हो और ** टिकाने को ढूंढे तो गड्ढे हों! उसके खूब मक्खनबाजी की, लेकिन भारी भारी गालियों से नहीं बच सका! खूब लताड़ा मैंने उसे और वो, किसी ऐसे श्वान की तरह से मुस्काये जाए जिसे ये मालूम तो हो कि नुक्सान तो हुआ लेकिन कितना, अंदाजा न लगा सके!
फिर सोचा, यही होना था शायद, बंदूक अपने कंधे पर ही रख कर चलानी चाहिए, गलती उसकी नहीं मेरी ही थी, कम से कम मैं ही कोई प्रबंध करके रखता! लेकिन अब क्या करें, तीर चला कमान से लौट नहीं सकता! अब इस गजनाथ की मैं कोई भी हालत करूं, कुछ भी करूं, हो तो कुछ नहीं सकता था!
"भाई गलती मान ली!" बोला वो,
"सो तो ठीक है!" कहा मैंने,
"अब डराओ मत!" उसने कहा,
"नहीं डरा रहा!" कहा मैंने,
"बार बार हाथी के ** दिखा देते हो!" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! उसने बड़ी ही उपहास से भरी बात कही थी!
"तेरी वजह से देख ले तू...क्या हो गया!" कहा मैंने,
"मान रहा हूं!" बोला वो,
"तेरे ऐसे हैं ये आदमी?" पूछा मैंने,
"ऐसे तो नहीं हैं!" बोला वो,
"देख लिया, कौन था वो बहन का ** हां? हां! केशी! इसकी.............!" बोलता चला गया मैं,
वो भी खिन-खिन हंसता रहा!
"अब क्या फायदा वहां जाने से?" बोला मैं,
"सामान क्या उसकी बीवी के जंवाई को देना है?" बोला वो,
"चल सामान ले आते हैं!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"उसके बाद?" कहा मैंने,
"चलो मेरे पास!" कहा मैंने,
"तेरे बसेरे?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कोई फायदा?" बोला मैं,
"जो कहो!" कहा उसने,
"पहले सामान लाते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोला वो,
हम लौट पड़े, हालांकि गुस्सा अभी भी था, लेकिन वही बात...........किया क्या जाए!
तो इस तरह से हम सामान ले आये अपना और उसके बसेरे पहुंच गए! छोटा सा बसेरा था वो, नदी के किनारे! ले आया अपने कमरे में, कमरा क्या था, एक हॉल सा था, वहीं लेटने का इंतज़ाम भर था!
"यहां रहता है तू?" पूछा मैंने,
"नहीं भाई!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कहीं और!" कहा उसने,
"तो ये?" पूछा मैंने,
"यहां रुका था आ कर!" बोला वो,
''अच्छा, समझा!" कहा मैंने,
"चाय पिलवाता हूं!" बोला वो,
"बड़ी मेहरबानी!" कहा मैंने,
वो चला गया बाहर, मैं वहीं रह गया! आसपास देखता रहा, मुझे तो लगता था कि कोई पुरानी सी फैक्ट्री रही हो ये! ताम-झाम भी ऐसे ही लगे! तभी वो लौट आया! और बैठ गया, बल्ब जला दिया!
"यहां से निकल यार!" कहा मैंने,
"हां, चलते हैं!" बोला वो,
"तो यहां क्यों आया?" पूछा मैंने,
"बताने!" बोला वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"डेरे वालों को!" कहा उसने,
"ये डेरा है?" पूछा मैंने,
"आगे है!" बोला वो,
"और तेरे वाला?" पूछा मैंने,
"घंटे भर में पहुंच जाएंगे!" बोला वो,
"फिर ठीक!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कंचा-कंचा कब से नहीं खेला?" बोला वो, हंसते हुए!
"क्यों?" पूछा मैंने भी हंसते हुए!
"खेलोगे?" बोला वो,
"ना!" कहा मैंने,
"खेल लो, तानाफड्डी!!" बोला वो,
"तू खेल ये फड्डी चड्डी!" कहा मैंने,
"रसभरी है!" बोला वो,
"ना!" कहा मैंने,
"फुरफुरी सी आ जायेगी!" बोला वो,
"फुरफुरी आये, झुरझुरी आये!" बोला मैं,
"चलो, खुद देख लेना!" बोला वो,
"नहीं ज़रूरत!" कहा मैंने,
"मान लिया करो?" बोला वो,
"आज मान गया हूं! बस भाई!" कहा मैंने हाथ जोड़ते हुए! 


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

एक लड़का चाय ले आया था, हम अब बाहर बैठ गए थे, लड़के से कुछ मंगवाया था उसने, कोई सामान था शायद, तो चाय पीने के बाद हम निकल लिए वहां से, अब हमें जाना था इस गजनाथ के डेरे! और हम निकल लिए वहां से! हमें बघेली टोला के पास से जाना था, मैं तो कभी गया नहीं था, इसने घंटे भर बोला था, सो देखना था कब पहुंचा जा सकता था! चार से कुछ पहले हम निकले थे वहां से, और सवारी ले, चल पड़े थे! आसपास बड़ी ही शानदार जगह थी, पुराने से स्थल और पुरानी सी जगहें! खैर दिक्क्त तो कोई नहीं हुई और हम करीब सवा घंटे में वहां जा पहुंचे, हम यहां से आगे और जाना था सो फिर से सवारी ली, ये भी एक पुरानी सी जगह थी, छिटपुट सी ही बसावट दीखती थी उस समय तक, अब का पता नहीं! कुछ आश्रम हैं वहां, बहुत पुराने, कुछ डेरे भी और कुछ अलग सी जगह भी!
आखिर छह बजे हम उसकी जगह पर जा पहुंचे, ये जगह बड़ी ही शानदार थी, हवा में सीरक थी और पेड़ काफी बड़े बड़े थे यहां!
"आ जाओ!" बोला वो,
"चल!" कहा मैंने,
अंदर चले तो एक पुराना सा भैरव-मंदिर पड़ा, कोई न बताये तो पता ही न चले, काले रंग के डोरे बंधे थे और काले ही झंडे लगे थे वहां! अंदर चलते हुए हम उसके कक्ष में आ गए, ये कक्ष बढ़िया था, कुछ कुछ आधुनिक सा, छत पर ओरिएंट का पंखा, खिड़की पर प्लास्टिक का सा पर्दा और नीचे बिछी एक दरी, कोने में पड़ा एक तखत, उसके साथ एक टेबल रखी हुई और बांस के बने दो मूढ़े, बाकी कुछ ट्रंक आदि और कुछ सामान सा रखा था! उसने बत्ती जलाई, ये सी.ऍफ़.एल. थी, रौशनी फ़ैल गयी!
"पानी मंगवाऊं!" बोला वो,
और उठ कर बाहर चला, जग लेता गया था साथ में, मैं आसपास कमरे में नज़रें मारने लगा, खिड़की तक चला और पर्दा उठाकर बाहर देखा, बाहर एक झोंपड़ी सी बनी थी, भैंस दिखाई दीं बंधी हुईं वहां! बकरियां भी थीं, चारा खाये जा रही थी! दो भूरे से श्वान वहीं बैठे ऊंघ रहे थे!
"लो!" बोला वो,
मेरे पास तक चला आया था!
"ला!" कहा मैंने,
और पानी पिया, दो गिलास! पानी ठंडा था, शायद फ्रिज रहा होगा वहां, आजकल तो सबकुछ मिलने लगा है ऐसे डेरों में!
"भूख लगी होगी?" बोला वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और हम बाहर चले फिर, कमरे का दरवाज़ा लगा दिया गया था बाहर से!
"ये किसकी जगह है?" पूछा मैंने,
"जिसकी है वो रहते नहीं यहां!" बोला वो,
"फिर कहां?" पूछा मैंने,
"शहर में!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बेटा वहीं है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"इस जगह का भी सौदा हो जाएगा!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वहीं रहेंगे वे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
सौदा? ज़मीन? कुछ याद आया!
"गजनाथ?" बोला मैं,
"हां?" बोला वो,
एक जगह आ कर, खटिया पर बैठ गए थे हम अब!
"दादू के पास जाया जा सकता है?" पूछा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"मुझे कुछ देखना है!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"विधान उनका!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"गंदे आदमी हैं!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"करता हूं बात!" बोला वो,
"हां कर!" कहा मैंने,
"कर लूंगा!" बोला वो,
"मैं आया ज़रा!" बोला वो,
"हो आ!" कहा मैंने,
वो चला गया और करीब पंद्रह मिनट में आया वापिस, पानी आदि लेकर! उसने तौलिया बिछाया वहां और रख दिया सामान सब वहीं!
"ये चलेगा?" बोला वो,
"सलाद?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"क्यों नहीं!" बोला मैं,
"मिलेगी तो मछली, थोड़ी देर में!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"खोलो फिर!" बोला वो,
मैंने बोतल खोल दी, कुछ भोग दिया और गिलास बना लिए, एक एक बिना सलाद के ले लिया, इस से ज़रा ज़ायक़ा बना सा रहता है!
"दादू तो ठीक आदमी हैं?" कहा मैंने,
"वो तो है, दूसरे माँ के *** हैं!" बोला वो,
"तू बात कर लेना?" बोला वो,
"वो तो सब करूंगा!" कहा उसने,
और....


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"मुझे इनका क्रिया-विधान देखना है!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"देख ले, कोई झगड़ा न हो!" कहा मैंने,
"होना तो नहीं चाहिए!" बोला वो,
"हुआ तो बुरा हाल करेंगे ये!" कहा मैंने,
"इसका इंतज़ाम कर लेंगे!" बोला वो,
"पता कर!" कहा मैंने,
"कर लेता हूं!'' बोला वो,
हम फिर से खाने में लग गए, एक दो श्वान वहीं मंडराने लगे थे, दमदार श्वान थे, भारी-भरकम से! लेकिन उनका सर, सपाट और बड़ा था, जबड़े से दोगुना, ऐसा श्वान हो तो वो शांत स्वभाव वाला, बेहद ही वफादार, समझदार और उचित गुणों वाला होता है! सर चौड़ा हो, और जबड़ा संकरा, अर्थात ३ बटे १ तब श्वान किसी का सगा नहीं होता, वो मौकापरस्त और भीरु होता है! कान लटके हों और पंजों के मध्य केश हों और सर बड़ा हो तो श्वान संत समान सीधा होता है! पंजे मज़बूत, सर छोटा और जबड़े के नीचे खाली जगह हो, तो लम्पट, घर में बाधाएं लाने वाला होता है!
कुछ और रोचक तथ्य बताता हूं उनके बारे में, परन्तु ये मात्र तंत्र से ही संबंधित हैं, अतः विचार करें तो इसी कोण से!
एक बात का स्मरण रखिये, संकर श्वान, हाइब्रिड, सदैव किसी न किसी रोग से, कमी से ग्रसित होता है, अर्थात देह तो विशाल परन्तु जीवट मूषक समान रहेगा! ये घरों में मात्र एक शो-पीस की तरह से ही रखे जा सकते हैं, गुणों के लिए नहीं, जगत जानता है कि श्वान का काटना सदैव गंभीर होता है, इसीलिए उसको घरों में जगह मिलती है! इसीलिए इस विचार में इन संकर, प्रजाति के श्वान नहीं गिने जाते!
श्वान सदैव देसी ही होना चाहिए, वो अनुकूलन से पूर्ण, देसी भोज्य-पदार्थ को खाने वाला और यहीं का रचा-बसा होता है! मौसम की प्रतिकूलता अथवा अनुकूलता का कोई प्रभाव नहीं रहता!
मालिक यदि घर से बाहर जाए, श्वान लेटा ही रहे, तब कार्य-सिद्ध नहीं होगा! उदर ऊपर कर लेट जाए तब भी कार्य नहीं होगा और मालिक को दुर्घटना का भी सामना करना पड़ सकता है! यदि अपना मुख भूमि से स्पर्श करता रहे तब कार्य अवश्य ही सिद्ध होगा! बाहर जाने से पहले श्वान उछले, कूदे तब, किसी का कल्याण होता है, कोई कार्य सिद्ध होता है अथवा किसी को रोग से निजात मिलती है!
रात को श्वान रोये, घर का, तब घर पर कोई संकट आता है, परन्तु वो बीच में भौंके भी तब वो संकट नहीं आता! घर में बचा हुआ खाना श्वान को कदापि नहीं डालिये, बराबर का, साथ का, या पहले ही निकाला हुआ भोजन उसे दीजिये! इस से घर में सदैव बरकत बनी रहेगी, बाद में दिए गए, बचे भोजन से घर में दरिद्रता का वास होता चला जाता है! श्वाना को कभी भी बांध कर न रखिये, इस से वो चिढ़चिढ़ा और गुस्सैल भी हो सकता है! पशु ही है, यदि वो आपका कहना मानता है ये उसकी प्रकृति नहीं, वो या तो भय से या लालच से ऐसा करने को विवश होता है! श्वान का उचित समय पर, उसकी मादा से संसर्ग आवश्यक है, ये ही प्रकृति है और उचित भी!
श्वान जो भगाते समय, कदापि कुवाणी का प्रयोग नहीं करें, उसे मारें नहीं, दुत्कारें नहीं, सोया हो, तो उठायें नहीं, भोजन कर रहा हो, तो प्रतीक्षा करें! खदेड़ें नहीं, इस से दोष लगता है! और वृद्धावस्था में कष्ट उठाना पड़ता है! बूढ़े श्वान की सेवा करने से, दोषों का निवारण हो जाता है!
यदि श्वान-मादा हो और उसके स्तन, छोटे हों तब वो परम भाग्यशाली होती है, भारी स्तन, कलहकारक होते हैं, स्तन दुरंगे हों तो वंशवृद्धि में सहायक और यदि दो से अधिक रंग के हों तब, आपसी कलह का सूचक होती है! हरा, लाल और दुरंगा, रंग हो किसी भी श्वान का तो अक्खड़ मिज़ाज, परन्तु वफादार होता है! एक रंग का हो, तो शालीनता से भरा, कम भौंकने वाला और डरपोक होता है! काला रंग हो, तो महाभाग्यशाली होता है!
खैर,
"अभी आया!" बोला वो,
"कहां चला?" पूछा मैंने,
"मछली देखूं!" बोला वो,
"जा!" कहा मैंने,
और चला गया और पांच मिनट में ही, एक पत्तल पट ले आया मछली के टुकड़े, बड़े बड़े से! ये तली गयी मछली थी, लहसुन के अर्क की ज़ायक़ेदार ख़ुश्बू उड़ रही थी! रंग हल्का सा लाल हुआ, हुआ था! साथ में, हरी चटनी भी थी, दही मिलाई हुई! पुदीने की चटनी भी मिली थी उसमे, पुदीना तो वैसे ही शानदार लगता है!
"वाह यार!" कहा मैंने,
"है न मज़ेदार!" बोला वो,
"शानदार!" कहा मैंने,
"रूपचंद है ये!" बोला वो,
"अच्छा! बढ़िया मछली है!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
मैंने एक टुकड़ा लिया, तोड़ा और चटनी के संग लगा, मुंह में रख लिया! मछली की गर्माहट ने तो क्या ज़ोर मारा, मिर्च की झल्लाहट ने रोम रोम झिंझोड़ दिया!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अब जैसे तैसे वो टुकड़ा, हलक़ की कुइयां में ढकेला! और ठंडा पानी पिया फिर! नाक पर पसीने आ गए थे!
"अबे कौन सी कलंदरिया मिर्च हैं ये?" पूछा मैंने,
"यहीं की हैं!" बोला वो,
"ऐसी **फाड़?'' बोला मैं,
"कुछ भी नहीं ये तो!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"और क्या?" बोला वो,
"मुझे तो सीतापुरिया सी लगीं?" बोला मैं,
"नहीं जी!" बोला वो,
"कुछ होये तो ना?" बोला मैं,
"ना!" बोला वो,
और हम फिर से आनंद लेने लगे, हालांकि मिर्चें बड़ी ही तीखी थीं, लेकिन तीखापन भी तो बहुत ज़रूरी होता है! कम से कम ज़िंदगी में तो!
"एक बात सुनो?" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"यहां एक साधिका है!" बोला वो,
"साधिका?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पूर्ण है?" पूछा मैंने,
"पूर्ण ही तो नहीं है!" बोला वो,
"तब कैसी साधिका?" पूछा मैंने,
"भग्गज!" बोला वो,
मैं तो चौंक ही पड़ा! हैं? मैंने सिर्फ एक बार एक साधिका देखी थी, जिसमे ये भग्गज गुण थे! तंत्र में तो ये यूं मानिए कि एक नक्शा और अमल ही सारा आपके हाथ लग जाए! ऐसी साधिका संग हो तो क्या कैटभी, वेताल, शौलान्ग सब का मार्ग सरल, और सरल! भग्गज का अर्थ हुआ, एक ऐसी साधिका जिसका भग, शून्य-समान ही रहे, अर्थात स्पर्श करने पर भी आभास न हो, ये एक प्राकृतिक सरंचना ही है, किसी किसी स्त्री को ही ये गुण मिलते हैं! कहते है, कि ऐसी स्त्री, स्वयं रति की अनुचरी हुआ करती है! मैंने मात्र एक ही ऐसी साधिका देखी थी, वो भी मात्र देखी ही थी, किसी क्रिया आदि में कदापि नहीं बैठ पाया था, ऐसी साधिका का 'मोल' ही बहुत हुआ करता है! बहुमूल्य हुआ करती है!
"कौन है?' पूछा मैंने,
"यहीं है!" बोला वो,
"कौन जानता है?'' बोला वो,
"हैं कुछ!" बोला वो,
"एक मैं अब?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"उम्र क्या है?" पूछा मैंने,
"बीस-बाइस!" बोला वो,
"कहां की है?" पूछा मैंने,
"यहीं की!" बोला वो,
"स्थानीय?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"किसी ने बूझी?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"तूने देखी?' कहा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"मतलब साधिका?" पूछा मैंने,
"लो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो कोई ले ही जाएगा!" बोला मैं,
"क्या कहें!" बोला वो,
"तुझे किसने बताई?" पूछा मैंने,
"गोमती ने!" बोला वो,
"ये कौन?" पूछा मैंने,
"माई!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बांधे में रख उसे!" कहा मैंने,
"कोशिश है!" बोला वो,
"कभी तो काम पड़ेगा ही?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"उसिलिये कहा!" कहा मैंने,
"खुद हो जाए फुर्र?" बोला वो,
"तब कुछ न हो!" कहा मैंने,
"तो ही तो!" बोला वो,
"नाम क्या है?" पूछा मैंने,
"प्रिया!" बोली वो,
"नाम भी अच्छा है!" कहा मैंने,
"पूरी ही अच्छी है!" बोला वो,
"तुझसे और उम्मीद भी क्या!" कहा मैंने,
तभी मेरा फ़ोन बजा, मैंने उठाया, देखा तो शहरयार जी का फ़ोन था ये, मैं खड़ा हुआ और फ़ोन ऑन किया!


   
ReplyQuote
Page 2 / 5
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top