सरभंग! अपने आप में ही एक विचित्र सा, अजीब सा शब्द लगता है! सुनने में भी और जानने में तो है ही! मैंने यहां इस स्थान का नाम लिखा है भैलवा, ये नहीं बताऊंगा कि ये स्थान है कहां, हां ये स्थान विचित्र ही है! यहां सरभंगों की तीन शाखाएं वास करती आ रही हैं! ये तीन अपने आपको श्रेष्ठ मानते हैं एक दूसरे से! स्मरण ये, औघड़ और सरभंग में ठीक वैसा ही अंतर है जैसे दिन और रात में, काले और सफेद में, सच और झूठ में! तंत्र में एक समुदाय है कौलव या कौल समुदाय, ये समुदाय अपने आपको सबसे प्राचीन मानता आया है! और देखा जाए तो है भी, लेकिन तंत्र इतना सरल नहीं, ये मार्ग इतना सरल नहीं जितना इसकी विधियां, रीतियां या मंत्र प्रतीत होते हैं! जिस प्रकार से ये प्राचीन समुदाय आगे बढ़ता रहा, इनके श्रेष्ठों में, अनेक अनेक अपने अपने मतानुसार बदलाव होते चले गए! ऐसी ही एक शाखा ये सरभंग है! सरभंग के लिए इस संसार में कुछ भी ऐसा नहीं जो गाह्य न हो! स्व-विष्ठा, स्व-मूत्र, स्व-मेद, स्व-मांस आदि का कोई विचार नहीं किया जाता, कुछ भी त्याज्य नहीं! मानव-बलि, आदि प्रथा के पीछे इसी शाखा का हाथ रहा है! सरभंग को आप एक अतिलघु-मार्ग कह सकते हैं, परन्तु इनमे कोई सिद्ध हुआ हो, मुझे तो ज्ञात नहीं, न ही मैंने अपने किसी गुरुजन से ऐसा कभी सुना ही! सरभंग, भारत के मध्य में, उत्तर में, पूर्व में और दक्षिण में आज भी हैं! आज छिपकर रहते हैं! औघड़ों से इनका छत्तीस का आंकड़ा रहता है! औघड़ से दूरी बना कर रखते हैं ये! और औघड़, इन्हें बिन पीते, बिन मारे यहां तक कि इनकी हत्या किये बिना भी नहीं छोड़ते यदि ये सम्मुख आ जाएं तो! सरभंग गले में, तिव-माल धारण करते हैं, अर्थात खोखली अस्थियां! नाभि को, काले रंग से रंग कर रखते हैं! भुजबंध में केश के बने धागे से पहनते हैं! बस, यही कुछ पहचान है! या सम्बोधन में, औघड़, आदेश सम्बोधित करता है और ये, अहोम का सम्बोधन करते हैं! शिव का नटरूप, नट रूप में बिंधी हुई चौरासी महाशक्तियां इनकी आराध्या हैं! शिव भी कहीं कहीं सरभंग रूप धारण करते हैं, ये रूप ही इनका मुख्य ईंधन है!
शिव-देह में समस्त शक्तियां, आगम-निगम, आव-भाव, सृष्टि, दृष्टि, पुंजक, वित्य, देव-शक्ति, दुराह-शक्ति, आसुरिक-शक्ति एवम प्रकृति-शक्ति का वास होता है! शिव मूलरूप से अघोर तत्व वाले परन्तु त्रि-गुण संधि से युक्त हैं! तंत्र के अनुसार, शिव की मूर्ति, तस्वीर, पिंडी, लिंगम, सांकेतिक-चिन्ह आदि किसी भी घर में स्थान नहीं प्राप्त कर सकते! शिव मरघटी हैं! दृष्टि उनकी मरघटी है! कलाप उनके मरघटी हैं! सभी मद्यों में, शिव का अंश है! सभी मांस में शिव का अंश है! ये सुग्राह्य है! एक औघड़ शिव के इस रूप में जीता है, शक्ति-संचरण करता है, शिव-सादृश्य होना ही प्रथम उद्देश्य है! शिव आवश्यकता से कोसों दूर हैं! वे आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करते! चूंकि उनको कोई आवश्यकता है ही नहीं! शिव-पूजन, सात्विक नहीं है, सत्व के किसी भी रूप में शिव पूजित नहीं! मात्र तामसिकता में ही पूजित हैं! मेरा उद्देश्य यहां मेरे सात्विक मित्रगणों को कोई सलाह देना नहीं है! ये आस्था है, आस्था सबसे सच्चा भाव है! चूंकि इस संसार में कुछ भी पूर्ण नहीं अतः कोई वाद भी कभी पूर्ण नहीं होता! आस्था का चरम आस्था रखने वाला ही जानता है! कोई और ये न ही समझ सका है, और न ही समझ सकता है!
तो वो, अष्टमी की स्याह रात थी, स्याह इसलिए कि उस रोज आकाश में बदली बनी हुई थी, चंद्र कभी नीचे झांकते तो शीशे सी चमक उस बदली के किनारों पर होती!
"ये भलस्व(आंत मेढ़े की) ठीक है?" पूछा गजनाथ ने!
"नीचे रख?" कहा मैंने,
उसने नीचे रखी वो प्रात, हल्के से भूरे रंग में थी वो आंत, ठीक थी, ताज़ा भी थी! शायद, जल्दी ही उस मेढ़े को बलि चढ़ाया गया था!
"इसका अस्व(मेद) निचोड़ा?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"हींगजी(नमक) लगा दी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सुनवी को बुला?'' बोला मैं,
"अभी!" बोला वो,
और चल पड़ा, जब आया तो एक उन्नीस या बीस बरस की लड़की रही होगी वो, उसको, उसके उभारित एवम पूर्ण-उन्नत वक्ष-स्थल के कारण ही, कोई साधक उड़ा लाया था किसी डेरे से! नाम सुनीता था लेकिन सुनवी नाम से जानी जाती है! वो बालिग़ थी, स्वेच्छा से यहां थी, तो कोई नियम भंग नहीं हुआ था!
"कैसी है?" पूछा मैंने,
"ठीक! परम!" बोली वो,
"और वो पोला?" पूछा मैंने,
"वो भी!" कहा उसने,
"ब्याह करेगी तू?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"पोले से?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"तू संगी कब हुई?" पूछा मैंने,
"इसी बरस" बोली वो,
"कहां की है?'' पूछा मैंने,
"जिला मिर्ज़ापुर!" बोली वो,
"ये पोले कहां मिला?'' पूछा मैंने,
"डेरे पर!" बोली वो,
"किसके?'' पूछा मैंने,
"वो संजन नहीं हैं?" बोली वो,
"अच्छा, इलाहबादी?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"क्या करै थी वहां?" पूछा मैंने,
"मेरी बहन है वहां!" बताया उसने,
"माँ-बाप?" पूछा मैंने,
"वहीं हैं" कहा उसने,
"तू यहां भाग आयी?" पूछा मैंने,
"भागी कहां?" बोली वो,
"राजी से आयी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"सावनी!" बोली वो,
"ये करवाएगा?" पूछा मैंने,
"हां, अपने गुरु जी से!" बोली वो,
"गुरु जी से?'' मैंने पूछा,
"हां!" बोली वो,
"कहां है वो?" पूछा मैंने,
"काशी" बताया उसने,
"एक बात कहूं?" बोला मैं,
"हां?" बोली वो,
"चली जा वापिस!" बोला मैं,
"क्यों?" बोली वो,
"तेरी खाल काली पड़ जायेगी!" कहा मैंने,
"नहीं तो!" बोली वो,
"आगे तेरी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"सो ली?" बोला गजनाथ,
चुप हो गयी वो! मैं समझ गया था!
"सही कह रहा है ये!" कहा मैंने,
"क्या करूं!" बोली वो,
"अब तू अपनी माँ **!!" बोला गजनाथ,
मैं हंस पड़ा! हंसा इसलिए, कि ये तो उसे अब सुनना ही था, कहीं भी जाए! कोई नहीं छोड़ता! आजकल कौन है ऐसा! और ये पोले, ये तो साला है ही कुत्ता! ये न नातेदारी देखे, न पड़ोसी और न ही रिश्ता!
"पता नहीं क्यों अपनी ** ***** आ जाती हो तुम? झांसे में? अकल घास करने चली जाती है क्या?" बोला मैं गुस्से से!
"नाह जी! ज़ोर! ज़ोर मारे है भट्टी!" बोला गजनाथ!
"तू पच्चीस तक आते आते ख़तम!" कहा मैंने,
चुपचाप सुनती रही वो! क्या बोलती! अब जो होना था हो ही गया था, सत्तर डेरे, सत्तर खटिया!
"जा, शराब ले आ!" कहा मैंने,
"आया अभी!" बोला वो गजनाथ और उठ कर चलता बना!
"सुन?" बोला मैं उस सुनीता से,
"जी?" बोली वो,
"संग पा लिया?" पूछा मैंने,
"हां" कहा उसने,
"पोले के संग?" पूछा मैंने,
"दादू के संग!" बोली वो,
"वो सरभंग?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"जूठन हो गयी तू तो?" बोला मैं,
"वो नहीं!" बोली वो,
"सच?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
गजनाथ ले आया था बोतल, गिलास और एक घड़े में पानी, रख दिया था वहीं उसे, थोड़ा सा पानी ले, मैंने मुंह साफ़ किया, कुल्ला किया!
"हां? चखेगी?" पूछा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"मोल?" बोला मैं,
"आदेश!" बोली वो,
"मोल तो चुकाना पड़ता है!" बोला गजनाथ!
"हां, बोलो?" बोली वो,
"समझती है न?" पूछा मैंने,
"हां, पोले से पूछ लो!" बोली वो,
"उसकी बहन की **! तू हां बोल?" बोला मैं,
"तैयार हूं!" बोली वो,
ये! ये होता है खेल! जो ज़्यादातर खेला जाता रहा है! ये सब का सब, हर जगह, हर जगह चलता आ रहा है! और ऐसी लड़कियां, पता नहीं किस लालच में, किस एवज में ऐसा काम करती हैं!
"एक बात सुन ले!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"चौंखन सुना है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"वही हो गयी है तू अब!" बोला मैं,
"आदेश!" बोली वो,
"चल छोड़ तू, ले! ये ले!" कहा मैंने और गिलास दे दिया उसे भर कर! फिर हम तीनों ने ही हलक से नीचे उतार लिया! उसके पीने के तरीके से मैं ये तो जान ही गया था कि वो अब अभ्यस्त हो चुकी है!
"सुनो?" बोला एक मलंग सा, पीछे से खड़ा हो कर! हम तीनों ने उसको देखा! वो हड्डी चबा रहा था, खींच खींच कर!
"बोलने दे!" कहा मैंने,
"कौन है ये?" पूछा गजनाथ ने,
"यही का होगा!" कहा मैंने,
"साले ऐसे भी आये हैं?" बोला वो,
"ऐसे ही आये हैं!" कहा मैंने,
उस सुनीता ने ऐसे अपनी बगल में खुजली की कि उसका एक स्तन बाहर आ गया उस ढीले से ब्लाउज से, गजनाथ ने फौरन ही पकड़ लिया मैंने झिड़का उसे! और मेरे संग, हद में रहने को ही कह दिया! कारण ये था कि ये लड़की चिपक जाती फिर और ढोते रहते इसे साथ! फिर खर्चे मांगती और पता नहीं क्या क्या! पोले कोई साधक नहीं था, मदारी था! जमूरा ही भर दादू सरभंग का! यहां कोई सरभंग नहीं था, ये जमूरा भी इसीलिए यहां था कि ये भी सरभंग नहीं था, और दादू सरभंग आयु में करीब सत्तर बरस का रहा होगा, अपने लिंग में छल्ला चढ़ा कर रखता था, कहते हैं वो बैठता नहीं था, पेड़ या दीवार संग ही खड़े खड़े सो जाता था!
"कोई और भी है संग तेरे?" पूछा मैंने उस सुनीता से,
"नहीं!" बोली वो,
"पहले इसे ठीक कर!" कहा मैंने,
उसके ब्लाउज को ढीला देख मैंने टोक दिया था उसे, देखने में तो ठीक-ठाक ही थी वो, गेंहुए से रंग की, मांसल सी और थोड़े से भारी जिस्म की, इसीलिए उसको आते जाते भेड़िये मलंग 'खुजली' सी कर देखते चले जाते थे!
"गजनाथ?" बोला मैं,
"हां जी?" बोला वो,
"कुछ चपर तो ले आ?" बोला मैं,
चपर मायने हड्डी से लगा कड़ा सा मांस!
"अभी!" बोला वो, और चला गया!
"चल तू भी जा अब!" कहा मैंने,
"कब आऊं?" बोली वो,
"कोई ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोली वो,
"जा भी?" मैंने उसे धमकाते हुए कहा!
वो उठी और अपने कपड़े झाड़ने लगी, मैंने उसे एक तरफ कर दिया, उसने मेरे घुटने छुए और चली गयी!
"लो जी!" बोला गजनाथ!
"रख दे!" कहा मैंने,
"कहां गयी छप्प्ना?" बोला वो,
"भगा दी!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"वो दे?" कहा मैंने,
उसने बोतल दे दी मुझे! और मैंने गिलास बनाना शुरू कर दिया!
मित्रगण! ये अवसर था एक अलग ही प्रकार की साधना का! एक ऐसी साधना जिसके बारे में मैंने कभी नहीं लिखा, आज पहली बार ही लिख रहा हूं! ये है किन्नरी-साधना! आपको पता होगा, कि किन्नर का वर्तमान में अर्थ, नपुंसक होता है! और एक प्रकार से ये ठीक भी है! किन्नर और किन्नरी! अब तनिक मैं ऐसे महापुरुषों से पूछना चाहूंगा कि वे किन्नर-साधना, किन्नरी साधना आदि के विषय में लिखते रहे हैं! अक्सर आपको ऐसा इन्टरनेट, पुस्तकों इत्यादि में मिल जाएगा! यदि ये नपुंसक हैं है तो इनमे दो लिंग क्यों? किन्नर एवम किन्नरी? मैं, मनुष्यों की बात नहीं कर रहा, वहां इसका अर्थ एक समुदाय से है! इनसे नहीं! उस समुदाय को मान-सम्मान देने हेतु ही इस शब्द का प्रयोग होता है! उच्चतर योनि में, किन्नर(पु) अति क्रूर, वीभत्स एवम तामसिक प्रकृति के होते हैं! इनको देव-भाट, यति-भाट आदि शब्दों से जाना जाता है! इनका कार्य, लोक-गमन होता है! अर्थात आप इन्हें सन्देशवाहक भी कह सकते हैं! ये भिन्न भिन्न लोकों में बी-रोकटोक आवागमन किया करते हैं! इस प्रकार ये किन्नर, शिव-गण का स्थान प्राप्त करते हैं! ये सन्तान को उत्पन्न नहीं कर सकते! इसी कारण से ये किन्नर कहलाये जाते हैं! कुल किनार एवम किन्नरियों की संख्या, तन्त्रोक्त-ज्ञान के अनुसार, दस सहस्त्र मानी गयी है! उसमे से भी तीन चौथाई, आधिपत्य किन्नरी(स्त्री) का ही होता है! जितना क्रूर ये किन्नर होते हैं उतनी ही मृदु, सुंदर, कामुक ये किन्नरी हुआ करती हैं! जिनकी साधना का विधान है, वे कुल चौंसठ हैं! ये चौंसठ की चौंसठ, चौंसठ योगिनियों की प्रधान सहायिकाएं, सहोदरियां हैं! इन चौंसठ में से, कुल सोलह इस भूमंडल पर प्रकट होने का सामर्थ्य रखती हैं शेष नहीं, शेष का लोक, किन्नर-लोक अथवा पायुष-लोक है! किन्नरी होने के बावजूद भी ये नृत्यांगना नहीं हुआ करतीं! इस समस्त भूमंडल पर यदि कोई प्राणी इन्हें देख सकता है, बिन तंत्र-साधना के तो वो मात्र वराह ही है! अन्य कोई नहीं! अब हम जिस किन्नरी की साधना करने जा रहे थे, उसको पुषलव्य, पुष्पा, पुष्पवती, पुष्पांगना और पारुषी है! ये समस्त प्रकार के सुख-वैभव प्रदान करने वाली होती है! परन्तु इसकी साधना में लिए गए वरों के कारण, साधक का क्षेत्र सीमित रह जाता है! अतः, तंत्र में इस किन्नरी से मात्र, सफलता ही मांगी जाती है, किसी सिद्धि की सफलता का वर या आशीर्वाद! इसका आह्वान करते समय इसको कलांगी नाम से पुकारा जाता है!
"एकादशी की तैयारी हो गयी!" बोला वो,
"हां, पता चला मुझे!" कहा मैंने,
"और साधिका भी कल आ ही जायेगी!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"दूध है दूध!" बोला वो,
"कहां की है?" पूछा मैंने,
"नेपाल की!" बोला वो,
"नेपाल?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"अबे यार!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"चल, देखते हैं!" कहा मैंने,
"शुरू से नेपाल की नहीं है!" कहा उसने,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"सिलीगुड़ी!" बताया उसने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और हम फिर से आनंद लेने लगे मदिरा का!
"ओहो!" आया एक हमारे पास!
"आ भाई!" बोला वो,
"आ गया!" कहा उसने,
"ये हरेन है!" बताया गजनाथ ने,
"अच्छा!" बोला मैं,
"हां जी!" बोला हरेन!
"काम का आदमी है!" बोला गजनाथ!
"तेरे काम जानता हूं मैं!" कहा मैंने,
एक कपट भरी सी हंसी हंसा वो!
"कहां से?" पूछा मैंने,
"कुशीनगर!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"हां जी, सिद्धार्थ!" बोला वो,
"हां, समझ गया!" कहा मैंने,
"गए हो?" पूछा उसने,
"कई बार!" बोला मैं,
"अब तो रौनक है!" कहा उसने,
"ले! ये ले!" बोला गजनाथ और दिया गिलास उसे, और तभी.....!!
उसने जैसे ही गिलास लिया, एकदम ही गटक गया! खिलाड़ी आदमी था वो! मुझे देख कर ऐसा तो नहीं लगा उसे कि वो माहिर हो या किसी भी क्षेत्र में प्रवीण हो, उसने यहां तक पकड़ अवश्य ही बना ली थी, अन्यथा रात्रि के इस समय में, वो भी मरघट में, कोई सामान्य व्यक्ति तो वैसे भी प्रवेश न करे और उसको प्रवेश करने ही न दिया जाए! अब वो यहां था तो इसका मतलब किसी का चेला-चपाटा रहा होगा! इस क्षेत्र में चेलों की कोई कमी नहीं! ये वे लोग हैं जो थोड़ा सा भी सीख गए तो बाहर, शहर में जाकर, एक 'ऑफिस' खोल लेते हैं और समस्याओं का निराकरण करते रहते हैं! अब निराकरण हो या नहीं ये तो वो ही जाने! बस इतना है कि ऐसे ही लोग स्त्री-शोषण किया करते हैं, डरा कर, भय दिखा कर, ललचा कर आदि आदि रूप से! तंत्र इसकी मनाही करता है! तंत्र में किसी को भी बाध्य नहीं किया जा सकता, न ही ललचाया जा सकता है!
"अभी वेगनाथ नहीं आये?" पूछा हरेन ने,
"नहीं!" बोलै गजनाथ,
"उन्हीं का इंतज़ार है!" बोलै वो,
"हां!" कहा उसने,
"चलो, आता हूं फिर बाद में!" बोला वो!
वो गया तो जिसने ओहो बोला था, वो चली आयी! वो रुक गयी थी उधर ही, हरेन उसको इंतज़ार करते देख ही चला गया था वहां से!
"आ!" कहा मैंने,
ये बबीता थी! बबीता करीब चालीस की रही होगी, एक हाथ से अब लाचार ही थी! यहां सामान आदि लाया करती थी, कभी उसकी मदद की थी मैंने, तभी से मानती है बहुत!
"प्रणाम जी!" बोली वो,
"प्रणाम! कैसी है!" कहा मैंने,
"जैसे थी!" बोली वो,
"तेरा हाथ ठीक नहीं हुआ?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
उसका हाथ किसी तेज विद्युत्-प्रवाह से झुलस गया था, इलाज करवाया लेकिन उसमे फिर संचार नहीं हो पाया! उस बाएं हाथ की दो उंगलियां काटनी पड़ी थीं!
"कहां रह रही है?" पूछा मैंने,
"वहीं!" बोली वो,
"और तेरा आदमी?" पूछा मैंने,
"कैसा आदमी!" बोली वो,
"नहीं लौटा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"लड़का?" पूछा मैंने,
"यहीं है!" बताया उसने,
"पढ़ रहा है?" पूछा मैंने,
"हां, बहन के पास!" बोली वो,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
"और आप?" बोली वो,
"सब बढ़िया!" कहा मैंने,
"वैसे ही बने हो!" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ज़ोर है?" बोली हंसते हुए!
"मैं क्या जानूँ!" कहा मैंने,
"बहुत ज़ोर है!" बोली वो,
"पता चल गया तुझे?' पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तू नहीं मानी!" कहा मैंने,
"क्या मानना!" बोली वो,
"बबीता?' बोला गजनाथ,
"हां?" कहा उसने,
"कोई चवन्नी है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अठन्नी?" बोला वो,
"हां!" कहा उसने,
"अबे ओ गज्जू?" कहा मैंने,
"रहन दो यार तुम भी!" बोला वो,
"ये खरीज गिननी हो तो इसके संग चला जा!" बोला मैं,
"मज़ाक़ कर रहा हूं!" बोला वो,
"देख लो! सूख गया है, पता नहीं क्या बचा होगा, लेकिन ये नहीं माना!" बोली वो,
अब मैं हंस दिया! गजनाथ भी खिसियानी हंसी हंसने लगा!
"कुछ चाहिए तो नहीं?" बोली वो,
"तू देवे कहां है?" बोला गजनाथ!
"लेगा?" बोली वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"बोल तो?" बोली वो,
"अब तू तो जानती ही है!" बोला वो,
"कहीं मर-मरा गया तो?" बोली वो,
"साले को वहीं लकड़ियों में लगा देना!" कहा मैंने,
अब हम तीनों ही हंस पड़े!
"कुछ चाहिए हो तो बताना!" बोली वो, और उठ गयी!
"हां!" कहा मैंने, और वो चली फिर वहां से!
"जवानी में तो गुब्बारा रही होगी!" बोला वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"अभी देख लो!" बोला वो,
"तू ही देखता रह!" कहा मैंने,
"कमाल है यार! देखने देते हो नहीं!" बोला वो,
"जिस काम के लिए आया वो कर! क्यों बेकार में हल्का होता है?'' कहा मैंने!
मित्रगण! सत्य, सत्य सदैव कड़वा ही रहता है! सत्य का सामना प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता! और जो कर भी सकता है, वो शीघ्रता से उस पर विश्वास नहीं करता! एक उदाहरण आपको देता हूं, क्षमा चाहूंगा, मैं किसी की भी भावना या आस्था को कोई चोट नहीं पहुंचाना चाहता! अतः विवेक से प्रश्न पढ़ें! तर्क-वितर्क का सदैव स्वागत है! प्रश्न है, भगवान श्री कृष्ण की प्रेयसी राधा! राधा कौन थीं? क्या वो बरसाने में रहती थीं? क्या वो श्री कृष्ण से आयु में बड़ी थीं? क्या वो, कृष्ण जी की सच में ही कोई प्रेयसी थीं? या रही थीं? मैं जानता हूं, अधिकाँश का उत्तर होगा कि हां! सत्यभामा, रुक्मणि से भी अधिक थीं प्रिय श्री कृष्ण जी को राधा जी! यही उत्तर होगा! आखिर में, श्री कृष्ण जी का सम्पूर्ण 'वांग्मय' राधा जी पर ही तो आधारित है! कैसी कैसी रचनाएं, भजन आदि आदि! गोपियां, राधा की सखियां, राधा जी का विरह, श्री कृष्ण जी की लीलाएं राधा जी के संग! निधि-वन आदि आदि! समझ सकते हैं कि जिस प्रकार श्री कृष्ण का स्थान है, सात्विकता में, उसी प्रकार, उसी मात्रा में राधा जी का भी स्थान है!
परन्तु ये सब असत्य है! राधा नाम की कोई स्त्री कभी नहीं रही श्री कृष्ण से जुड़ी हुई! कोई बरसाना नहीं! कोई लीला नहीं, कोई विरह नहीं, कोई निधिवन नहीं कोई भी किसी भी प्रकार का संबंध नहीं! ये सब एक सात्विक प्रपंच रहा है! सच कहूं तो कह रहा हूं, कि राधा नाम के इस चरित्र का समावेश, श्री कृष्ण के साथ हद से हद, ग्यारह सौ वर्ष पहले ही हुआ है! इस पात्र को रचने का श्रेय, मात्र एक ही कवि, महाकवि कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, जयदेव को ही जाता है! जयदेव. ओड़िशा में, भुवनेश्वर से थोड़ा दूर बसे एक ग्राम, केन्दुबिल्व के निवासी थे! ओड़िशा के अंतिम सेन वंश के राजा लक्ष्मणसेन के आश्रित कवि थे! उनकी महान रचना, गीत गोविन्द में ही सर्वपर्थम राधा नाम के इस पात्र या चरित्र का समावेश हुआ है! कोई भी इस से प्राचीन धर्म-लेख राधा नाम की इस पात्र का उल्लेख नहीं करता! १११६-१७ ईसवी के एक शिला-लेख से जयदेव और उनके द्वारा रचित गीत गोविन्द की पुष्टि होती है! गीत गोविन्द इतना प्रभावशाली है कि इसकी कोई और समकालीन या बाद में भी आलोचना ही नहीं हुई कभी! इसके समान और कोई काव्य-लेख लिखा ही नहीं गया! ये कई और विभिन्न भाषाओं में अनुवादित होता रहा, मंदिरों में, स्थान प्राप्त करता रहा!
ये सभी तथ्य आप, थोड़ा सा परिश्रम कर, ज्ञात कर सकते हैं! ईश्वर ने मनुष्य को ज्ञान दिया है, विवेक दिया है, और भगवान गौतम बुद्ध की ये शिक्षा कितनी सटीक लगती है, और है भी कि किसी भी तथ्य को मात्र इसीलिए नहीं मान लो, अंगीकार कर लो कि वो शास्त्र में लिखी गयी है, या वेद उसका समर्थन करते हैं, या किसी सिद्ध मनुष्य द्वारा कही गयी है, उसे अपने ऊपर अनुभव कर के देखो! सत्य लगे तो रख लो, नहीं तो आगे बढ़ चलो, अपने लिए स्थान ढूंढो!
इस प्रकार, आज के इस सात्विक-धर्म में, ऐसे न जाने कितने ही उदाहरण हैं, जो सत्य के करीब भी नहीं! स्मरण रखिये, फूल देखने में सुंदर, सुगंध में भीना और कांटा, सदैव जी कष्टकारी होता है! परन्तु फूल सूखने पर मृत हो किसी कार्य का नहीं, और कांटा सूखने पश्चात भी कई कार्य करने योग्य रहा करता है! तंत्र, यही सूखा कांटा है! दाह-संस्कार कहां होता है? मरघट में, मरघट किसका सूचक है? तंत्र का, तामसिकता का, मसान का, मसान के आधिपत्य का! मरघट में शिव-संगी के अतिरिक्त सभी देवी-देवता प्रभावहीन रहते हैं, क्यों? अंतिम समय में मनुष्य का स्थान मरघट ही क्यों? कभी समय मिले तो अवश्य ही विचार कीजिये! पुस्तकों में लिखा, पूर्ण ही होता या गीता का ज्ञान ही पूर्ण होता अर्जुन के लिए, तब कर्ण निहत्था न प्राण गंवाता! गीता का प्रभाव होता तो बर्बरीक जैसा बालक अपने प्राण नहीं गंवाता! मैं ये नहीं कह रहा कि गीता असत्य है या उसको परखा जाए या जो लिखा उसमे, वही किया जाए ऐसा भी नहीं! बिन जले, आग का ताप महसूस नहीं होता! बिन गीले हुए जल की शीतलता का कोई महत्व नहीं, बिन प्यास लगे जल का महत्व नहीं समझ आता! अर्थ ये हुआ, कि इस संसार में आप, अकेले ही हैं! आपका मार्ग भी अलग है, चलना भी आपको ही है, विश्राम भी आपको करना है, श्रम भी आपको करना है, जलना आपने है, सूखना आपने है! इस संसार में सुख की कामना? कौन मूर्ख करे, या, फिर मूर्ख ही करे! क्या भगवान राम के जन्म के पश्चात उनके पिता दशरथ जी को कोई सुख प्राप्त हुआ? या उनके जीवन का सबसे कटु-अनुभव ही था कोई? क्या कैकेयी नहीं जानती थीं कि उनका पुत्र भरत, शासन करने से, राजा का पद नहीं लेगा? क्या ये ज्ञात नहीं था कि नियम के अनुसार, राजा राम ही होंगे? यदि नहीं भी पता था, तब, दशरथ जी क्या अपने कर्तव्य से विमुख नहीं हुए थे? उन्होंने कैसे कैकेयी को हां कह दी? वर का मान रखना था तो प्राण क्यों नहीं त्याग दिए? क्यों, इसी प्रकरण से अलग, जब दशरथ जी, जनक जी से प्रथम बार, राम-सीता विवाह पश्चात मिले तब, जनक के पांव क्यों छुए? यदि रघुकुल की रीत यही है कि किसी भी स्त्री पर अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग नहीं होगा, तब क्यों शूपर्णखा के अंग-भंग? क्यों स्त्री ताड़का का वध? और क्यों परम महावीर हनुमान जी द्वारा, लंकनी, एक राक्षसी स्त्री का वध? यदि वध किया ही उन्होंने, तब सुरसा का क्यों नहीं? क्यों? कोई तो कारण रहा ही होगा? ढूंढो तो रेत से स्वर्ण निकलता है, न ढूंढो तो पांवो तले स्वर्ण भी कुचला जाता है!
खैर! मेले में कौन नहीं हिस्सा लेना चाहेगा! एक परिपाटी है! चली आ रही है, चलती रहेगी! मथुरा तो सभी को ज्ञात है, वृन्दावन सभी को ज्ञात है लेकिन आगरे का शिंगणा गांव? ज्ञात है? क्या महत्व है? कोई महत्व है भी या नहीं? ये गांव कोई है भी या नहीं? गांव भी है, महत्व भी है, पौराणिक ही सही! तनिक जानिये और बताइये, फिर मैं बता दूंगा! बताऊंगा वही जो ज्ञाता है, न अधिक ही न कम ही! वही सब जो जाना, पाया!
गंगा! जमुना! सरयू! क्या हैं? नदियां? हां जी, सिर्फ नदियां! क्या सिर्फ बहने के लिए? हां? पता नहीं! क्या गंगा जी इतनी पवित्र और गंडक, कोसी, सोन ये नहीं? नहीं पता जी! खैर छोड़िये!
एक बात और जोड़ना चाहूंगा! देवता, देव या देवी शब्द सुना है सभी ने! ये सभी देवत्व प्राप्त हैं! प्रश्न ये, कि देवत्व है क्या?
देव कौन? देवियां कौन? क्या देवियों को भी, देवों को भी, हम तुच्छ मनुष्यों समान, सामाजिक रूप से मान्यता मिले, विवाह की आवश्यकता है? जैसे, विष्णु जी और लक्ष्मी जी! शिव जी और पार्वती जी! कृष्ण जी और सोलह हज़ार पत्नियां! है कोई आवश्यकता? यहां तक कि ब्रह्मदेव को भी आवश्यकता? ये भी अवश्य ही बताएं!
विवाह किसलिए? अर्थात, क्या उद्देश्य? मात्र संतान-प्राप्ति, वंश आगे बढ़े, इसीलिए ही तो! या कोई कामुक दृष्टिकोण भी है? होगा या फिर नहीं भी होगा! अब यदि संतान-प्राप्ति ही तब तो विष्णु जी की, लक्ष्मी जी के गर्भ से कोई संतान? या ब्रह्मदेव की? या फिर अपने भोले-भंडारी शिव की ही! है कोई?
नहीं! कोई नहीं! उनकी अपनी तो कदापि नहीं! यदि मैं ही गलत होऊं तो अवश्य ही बताएं! मित्रगण! कहते हैं, तंत्र में, बस वही ही बता सकता हूं, जो मनुष्य विवेक का प्रयोग नहीं करता वो पशु समान होता है! पशु में विवेक नहीं! हां, अनुभव अवश्य ही एकत्रित करता है वो! चलिए, एक तथ्य और बताता हूं आपको! आपने सुना है, जाना है और उनकी शक्ति, महाशक्ति, प्रभुत्व आदि के विषय में कोई दूसरा नहीं उन जैसा, ये भी जानते हैं! मैं त्रिदेव की बात कर रहा हूं! ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश! क्या ऐसा भी कोई है जिसने अकेले ही इन त्रिदेव को युद्ध में परास्त कर दिया हो? यदि कोई हुआ, तो वो कौन? क्या वो मन्त्रज्ञ, तंत्रज्ञ, योद्धा, महावीर न रहा होगा? एक विचारक नीत्से ने कहा की गरीब को यदि अपना कल्याण ही देखना है, पूर्ण आयु जीनी है, भोजन प्राप्त करना है तो उसे अमीर की दासता कर लेनी चाहिए! अर्थात, ऊंट भी शेर से बलशाली है यदि रेगिस्तान ही हो तो! अर्थात, पूर्ण तो कुछ नहीं! सिंह नृप है तो मात्र जंगल का, मरुभूमि का नहीं, रेगिस्तान का नहीं! इसीलिए तो प्रकृति ने सिंह को हरे-भरे मैदानों में ही रखा है! ये एक दिन में सम्भव नहीं! प्रकृति, अपने चलन में, पुरानी अनुपयोगी वस्तुएं, प्राणी निकाल बाहर फेंकती है! जैसे, हमारी पूंछ! स्थान आज भी है, परन्तु उपयोग नहीं तो लोप हो गयी! हां, तो बात त्रिदेव की! वो कौन था जिसने इन त्रिदेवों की सम्मिलित शक्ति, सेना का न केवल नाश ही किया, अपितु इन्हें जीवनदान भी दिया! वो था असुरराज रम्भ का पुत्र महिषासुर! कहते हैं, रम्भ को जल में रहने वाली एक भैंस से प्रेम हो गया! अब जल में कौन सी भैंस रहती है, ये तो मैं नहीं जानता, शायद कोई और ही जीव रहा हो, जो अब नहीं है! तो विवाह हुआ और इस प्रकार महिषासुर का जन्म हुआ! महिषासुर, कभी मनुष्य, कभी असुर तो कभी भैंसे का रूप लेने की सक्षमता रखता था! उसने आदि-ब्रह्म से, ब्रह्मदेव से नहीं, स्मरण रहे, अब ये आदि-ब्रह्म कौन हैं? कोई नहीं बताता! आदि-ब्रह्म से ये वरदान प्राप्त किया कि उसका नाश न देव ही कर सकेंगे न असुर ही और न ही कोई अन्य प्राणी ही! सत्ता पास हो तो कोई भी उसका दम्भ भरने लगता है! सो ही हुआ! इन्द्रादि देवताओं को हराकर, बंदी बना कर, स्वर्ग से निष्कासित कर दिया गया! एक तथ्य और! बैकुंठ और इंद्र का स्वर्ग, ये दो स्थान हैं, एक नहीं! शुभ कर्म करने के पश्चात आत्मा, इंद्र के स्वर्ग नहीं जाया करती! कहाँ जाया करती है, ये एक पृथक विषय है! हां, तो तब क्या हुआ? तब देवता आदि अत्यंत दुखी हो, फिर से त्रिदेव के पास पहुंचे, त्रिदेव जानते थे कि महिषासुर का वध इतना सरल नहीं! तब एक शक्ति का सृजन किया गया, इसे नंदिनी कहते हैं, जिस देवी ने महिषासुर का वध किया वो वध से पहले तक नंदिनी, और वध पश्चात, दुर्गा के नाम से जानी गयीं! अब यदि वध हुआ, तब वरदान का क्या हुआ? क्या वरदान खोखला चला गया? अब इस पर कोई बहस नहीं करेगा! कोई नहीं चर्चा करेगा! कहीं कुछ लिखित प्रमाण नहीं! शक्ति का सृजन हुआ, नंदिनी के रूप में, नंदिनी एक स्त्री थीं, अब स्त्री के हाथों वध? क्यों? एक बात बताइये, क्या हत्या से प्रेम फैलता है? क्या धर्म की स्थापना रक्त से होती है? धर्म-ग्लानि हो तो क्या हत्या ही अंतिम विकल्प है? यदि हां, तो क्रूरता क्या होती है, इसका कोई और भी अर्थ है क्या? नौ रात, नौ दिन भयंकर युद्ध हुआ और दसवें दिन महिषासुर का वध हुआ! इसीलिए ये विजयादशमी कहलाता है! अब प्रश्न एक और! यदि नंदिनी ने ही वध किया, अकेले, नौ दिन, नौ रात लड़कर, तब, ब्रह्मचारिणी, चद्रघण्टा, सिद्धिदात्री, कालिका आदि का इन नवरात्र में पूजन क्यों? क्या देवी के नौ ही रूप है? या कुल देवियों की संख्या मात्र नौ ही है? मुझे उत्तर अवश्य ही दें!
अब फिर से मैं श्री कृष्ण पर चला आता हूं! ब्रह्मवैवर्त पुराण के विषय में आप जानते होंगे! ये दसवां पुराण है! एक स्तम्भ है! इसमें कृष्ण एवं राधा की लीलाओं का उल्लेख है! क्या मैं इस पुराण को प्राचीन मान लूं? या फिर गीत गोविन्द के बाद रचा गया कोई धर्म-लेख? हां, इतना अवश्य ही बता दूँ, इसमें जो विशेष है वो कृष्ण एवं राधा जी की काम-क्रीड़ा के विषय में विस्तृत वर्णन है! जिसका उदाहरण आप खजुराहो के मंदिरों में देख सकते हैं! कई सात्विक मित्र इस तथ्य को नकार देंगे! कोई बात नहीं, मैंने बताया न? ये आस्था का परिचायक है, और किसी की भी आस्था असत्य नहीं हुआ करती! भाव से भव और भव से भुवन और भुवन से? बताएं क्या? एक सबसे बड़ा दुर्गुण हम सभी में है और वो है, सत्य को नकार देना! अब चाहे कोई भी हो! मान्यताएं ऐसे ही नष्ट नहीं हुआ करतीं! भूतकाल की कोई रीति आज की दुर्नीति भी हो सकती है! जैसे सती-प्रथा, विधवा-पुनर्विवाह प्रथा, अवयस्क-विवाह आदि आदि! कहने का अर्थ ये है की कोई भी मान्यता, नीति, धर्म, काल और परिस्थिति के अनुरूप ढाली जा सकती है! जैसे, अर्जुन ने, पितामह कि वो देह बाणों से छलनी कि जिस देह की गोद में वो सोया करता था, धूप से बचने के लिए! भीम ने अपने प्रपौत्र का सर काटना भी देखा! हनुमान जी के सर्वपर्थम गुरु श्री श्री सूर्यदेव की शिक्षाओं को पूर्ण रूप से समावेशित करने हेतु उनकी ही पुत्री से विवाह भी किया! अब कौन कहता है कि हनुमान जी अविवाहित हैं! कौन कहता है कि मकरध्वज उनके पुत्र नहीं! अब मकरध्वज कैसे जन्मे, इसका उल्लेख बस यही कि पसीने की बून्द एक मीन ने ग्रहण की और यथा उनका जन्म हुआ! जबकि यथार्थ इसका उलट ही है!
चलिए जाने दीजिये!
अब ये बताएं की प्रद्युम्न श्री कृष्ण के पुत्र थे, उनकी माता कौन थीं? सभी कहेंगे कि रुक्मणि! ठीक! यही तो बताया गया! यही तो लिखा भी है, या लिखवाया गया! प्रद्युम्न साक्षात कामदेव के अवतार थे, ये कहीं लिखा? किसी ने बताया? अब कामदेव ही क्यों? कोई और देव क्यों नहीं? इसका भी उत्तर है! बस ढूंढने से मिल जाएगा! अब रुक्मणि तो रूप हैं लक्ष्मी जी का, तो लक्ष्मी जी ने कामदेव को क्यों जन्म दिया? ये भीष्मक पुत्री हैं! अब भीष्मक एक प्रतापी राजा हुए! जो हरिद्वार के आसपास राज किया करते थे! यहां तक, अयोध्या का कोई उल्लेख नहीं! भला क्यों?
भीष्मक, बिमसिमक नाम के एक क्षत्रप राजा से मिलता जुलता सा नाम है! ये क्षत्रप, सीथियन था! कभी जानिये इस विषय में!
मित्रगण! कांटा! कांटे से ही कुरेदी जाती है ज़मीन! फूल से नहीं! कुरेदने से ही छह इंद्रियां कार्य करती हैं! तो कांटा सदैव संग रखिये! इंद्री-दमन से कोई लाभ नहीं! ये ऐसे ही मिथ्या है जैसे कुण्डलिनि-जागरण का विषय!
चलिए! आपको एक जगह लेकर चलता हूं! ये जगह है, मसान-स्थान! स्थल है मरघट, विशेषता, ये ब्रह्म-श्मशान है! इस ब्रह्म-श्मशान में, आठ प्रहर नहीं होते, चार होते हैं! इन चारों में, भिन्न भिन्न सत्ताओं का आवागमन होता रहता है! सबसे निम्नतर सेवक होते हैं! इन सेवकों की, कुल तीन सौ की मंडली का एक सरदार होता है, जिसे डार कहते हैं! अब इस स्थल में एक सौ चालीस छोटे झोंपड़े होते हैं, इन छोटे झोंपड़ों में एक बार में हद से हद चार लोग ही विश्राम कर सकते हैं, इन छोटे झनपड़ों को, इनकी एक सौ चालीस की संख्य को, केत कहा जाता है, इस प्रकार, एक ब्रह्म-श्मशान में कुल नौ सौ केत होते हैं! एक एक झोंपड़े का प्रहरी, एक बुलटी होती हे, ये बुलटी, कानों में मुंड धारण करती है, रूप भयावह होता है इसका! वस्त्र नहीं धारण करती और वर्ण इसका भक्क काला होता है, हाथों में मुगदर संभालती है लोहे का! अब श्मशान में, चालीस दिनों तक, कोई भी आत्मा मानस रूप में ही वास करती है! मैं आपको इन्हीं चालीस दिनों के शेष तेरह दिन के बारे में बताता हूं! ऐसा भी नहीं कि ये दिन शेष में तेरह ही रहें, अवधि बढ़ अवश्य ही सकती है, परन्तु कम नहीं हो सकती!
एक बड़ा सा भवन! भव में चारों तरफ से बंद दीवारें, दीवारों में, ऊपर की तरफ, दो दो छिद्र, इन छिद्रों में से निरंतर धुंआ निकलता है! ये धुआं चिता का होता है! इस दीवार की ऊंचाई, छत तक करीब पचास फ़ीट के आसपास हो सकती है! अधिक भी और कम भी! उन दीवरों के पास, चार गड्ढे होते हैं, इन गड्ढों पर अस्थि-आसन बिछे रहते हैं, जिन पर चार कुंवारी कन्याएं विराजमान रहती हैं! इनकी भाषा कोई नहीं जानता, कोई तांत्रिक भी नहीं, मात्र इनकी अधिष्ठात्री जिसे महामसानी कहा जाता है! प्रत्येक आत्मा को इस महामसानी की सेवकाई करनी आवश्यक है, अन्यथा वो दंड का भागी होता है, जैसे भटकाव की स्थिति! या अपने अगले जन्म में, कोई विकृति, अपंगता, नेत्रहीनता, संतानहीनता आदि आदि! ये जो कन्याएं हैं, ये कारु कही जाती हैं, ये उन गड्ढों की रक्षक हैं जिनमे से होकर, चार मार्ग जाते हैं, ये मार्ग नीचे जाकर, एक हो जाते हैं और वहां एक बड़ा सा कक्ष मिलता है! इस कक्ष के बीच में हवा में, बीच में जलती हुई अग्नि होती है और उधर ही अस्थियों से बना एक आसन और एक शयन-स्थल होता है! यहीं इस महामसानी का वास है! यहां निरंतर अंधेरा रहता है! ठीक सामने ही आत्मा की पेशी करवाई जाती है! दाह-संस्कार के समय जो मंत्र बोले जाते हैं वो इसी स्थल पर, या ऐसे स्थलों पर आत्मा न रुके, बोले जाते हैं! मृत्यु-भोज का मूल उद्देश्य यही है! यदि मंत्रोच्चार गलत हो या कोई त्रुटि रह जाए, तब अस्थियों को किसी पवित्र स्थान में बहाया जाता है! कोनो ऐसा विश्वास है कि बिन एक भी कण अपना प्राप्त किये, पंचभूत को समर्पित किये बिना, उधार चुकाए बिना, न मसान और न महामसानी ही उसे दास बना पाते हैं! जबकि ऐसा नहीं है! जब भी किसी की मृत्यु होती है तब मसान के सेवक, जिन्हें यमदूत कहा जाता है, उसके सिरहाने आ खड़े होते हैं! व्यक्ति को, अपनी देह नहीं दिखाई देती! इसीलिए वो स्पर्श का सहारा लेता है! मरते हुए पीड़ा नहीं होती, बस श्वास-नलिका में छिद्र, या फट जाती है! या संकुचित हो जाती है!
हां, तो पेशी के समय, व्यक्ति का नाम नहीं लिया जाता, मात्र संकेत से ही समझ जाता है वो! यहां कुछ और ही प्रकार की इंद्रियां उस रूप में सक्रिय हो जाती हैं! पेशी के समय तीन प्रश्न होते हैं! कहां से आये, कहां जाओगे और जो चुना गया इन दोनों उत्तर के बाद, वो स्वीकार है या नहीं! इसी प्रकार के प्रश्न होते हैं ये! यहां एक समुचित व्यवस्था रहती है, नियम रहते हैं उन्हीं के अनुसार सारा कार्य होता है! स्मरण रहे, ये तंत्रोक्त ज्ञान है! अब चूंकि इस पृथ्वी पर शुभता कहीं नहीं! सत्व का अंश भी शेष नहीं अतः व्यक्ति की आत्मा अपने संग शुभ-कर्म-संचय नहीं ले जा सकता! जब शुभ-कर्म-संचय नहीं तब पाप-कर्म-संचय? नहीं! वास्तविकता तो ये है, कि जिसे हम शुभ मानते हैं वो किस रूप में अशुभ है, ये हमें भान ही नहीं होता! और क्या पाप-कर्म है ये भी भान नहीं होता! जब दूध निकला जाता है किसी गाय या भैंस से, तब उसका मनुष्य से कोई लेना-देना नहीं होता! मनुष्य ने गाय या भैंस को दास रखा! उसकी प्राकृतिक स्वंत्रता छीन ली! उसने दूध अपने स्तनों में बनाया, किसके लिए? अपने बछड़े के लिए! हमने क्या किया? सभी जानते हैं! तो क्या ये शुभ-कर्म है? हमने दूध छीना उस पशु से, जो कि उसके बछड़े के लिए था! तब हमने क्या किया? किसके प्रति शुभ हुए और किसके प्रति अशुभ? अपने भूखे शिशु को वही दूध दिया तो शुभ हुआ, किसी बछड़े के भाग का दूध छीना तो ये अशुभ हुआ! अंतर ये कि पहला कर्म क्या हुआ? पहला कर्म हमारा अशुभ ही था! अब इसके बाद चाहो आप तो सैंकड़ों बालकों को दूध पिलाओ, मूर्तियां नहलाओ, दान करो आदि आदि! सब का सब अशुभ ही है! ये और भयानक अशुभ हुआ चूंकि, हमने सच्चाई जाने हुए भी ऐसा निरंतर किये रखा! दूध देने वाले पशु को कभी दूध पिलाया? या फिर सस्ता, कामचलाऊ, ताकि वो जीवित ही रहे, उसको चारा दिया! आपने एक भूखे मनुष्य का पेट भरा, बहुत अच्छा किया! परन्तु भूखा क्या मात्र एक ही मनुष्य है? या कोई और प्राणी नहीं? कोई श्वान, बिल्ली, चूहा, पक्षी, कीड़ा, मकौड़ा आदि? आपने भूमि जोती! भूमि का मर्दन किया, खाद डाला, यूरिया डाला, बीज डाले और फसल काट ली! लेकिन वो करोड़ों कीड़े-मकौड़े? पक्षी? जानवर? आज फसल काटी, सियार के बच्चे मिले, मार दिए! या भगा दिए! ये शुभता हुई? मित्रगण! मेरे कंधे पर भार है तो आपके भी है! हम सब एक धागे से जुड़े हैं! ये प्रकृति सभी को जोड़े है! मत सोचिये कि घर से एक चुहिया भागते हुए या मारते हुए आपको तसल्ली हुई कि जान छूटी! उसके बच्चे? या वो गर्भवती हुई तो?
तब किया क्या जाए?
उत्तर तो सरल है, परन्तु क्रियान्वन बेहद ही मुश्किल! इसीलिए ये विषय फिर कभी बाद में! पहले वो महामसानी का स्थल! अब प्रश्न ये, कि क्या ये मसान मात्र वैदिक धर्म में ही है? उत्तर है नहीं! जलाने से, दफनाने से अर्थ यही है कि पंचभूत में मिश्रण हो जाए! जैसे पानी को जल, नीर आदि कहते हैं उसी प्रकार से ये मसान भी अलग अलग नाम से ही जाना जाता है!
एक घटना बताता हूं...कोई दो वर्ष हुए हैं...
हुआ यूं कि दो वर्ष पहले, एक व्यक्ति की मृत्यु अस्पताल में हो गयी, समय था सुबह चार बजे के आसपास का, वो व्यक्ति मसान के स्थान पर लाया गया, मसान ने उस से कुछ पूछा और फिर उसे कुछ दिया खाने को, क्या था वो, ये नहीं पता उसे, न फल था, न कोई औषधि, न मीठा ही, न कड़वा ही, न नमकीन ही और न फीका ही, कुछ अजीब सा ही स्वाद था उसका! मसान ने कहा, अपने सेवकों से, कि मुझे ये आदमी भला लगता है, इसे छोड़ आओ, बाद में इसको बुला लेंगे! और हो गया चमत्कार! वो आदमी, ज़िंदा हो गया! दिल की धड़कनें चलने लगीं! और वो उठ कर खड़ा हो गया! बस फ़र्क़ इतना कि उसकी जीभ पर उस समय, नीला, जामुनी सा रंग लगा था, जो कुल्ला करते ही ठीक हो गया! उस व्यक्ति के अनुसार, उसे ये नहीं पता कि उसको कहां से, किस मार्ग से ले जाया गया, वहाँ उजाला ही था, हर तरफ, सेवक दो थे, जिन्होंने दो लोहे के डंडे से पकड़े थे और उन पर, किसी के हाथ की छाप सी लगी थी! मृत्यु समय उसको वे नज़र नहीं आये थे, न ही उसे ये ज्ञात था कि उसकी मृत्यु हो गयी है, उसकी जिव्हा को शूल लग गया था, देह हल्की थी, जैसे कोई फूंक मार दे तो उड़ जाए! वहाँ उसने उस समय बहुत से लोगों को देखा, सभी के पांवों में ज़ंजीर सी बंधी थी, जिनमे कांटे लगे थे! वहां कम से कम दो सौ लोग थे और तब भी सन्नाटा पसरा हुआ था! अच्छा, स्त्री एक भी न थी, ये कमाल की बात बताई उसने! बालक थे, कुछ जवान थे, कुछ वृद्ध भी थे! वाहन उस जगह, कोई निर्माण-स्थल भी नहीं था न ही कोई भवन आदि ही था! वो एक खुला सा मैदान था और उधर के वृक्ष पीले रंग के थे! नीचे ज़मीन पर, जल पड़ा था, उसका रंग हल्का सा नीला था, बीच बीच में जल शीशे सा साफ़ था, उसी जल के ऊपर, एक सिंहासन सा था, उस सिंहासन का ऊपर का हिस्सा कोई नहीं देख सकता था, लगता था, आकाश से लटक रहा हो! जब उसको लाया गया तो निम्न प्रश्न हुए!
प्रश्न- अपनी परिचय जानते हो?
उत्तर- नहीं!
प्रश्न- समय का भान है?
उत्तर- नहीं!
प्रश्न- किसी से मिलना है?
उत्तर- पोती से!
बस! यही था वो उत्तर जिसकी वजह से वो लौट पड़ा! मसान मुस्कुराया और उसको कुछ खिलाया, वो वापिस हो गया! अब रही पोती की बात! उसके तीन पुत्र हैं, एक शादी शुदा है, परन्तु उसको दो पुत्र संतान हैं! अब पोती कब हो, किस पुत्र द्वारा हो, ये मात्र वो मसान ही जानता है!
एक मुख्य बात और! मसान की आवाज़ कैसी थी, जब ये पूछा गया तो उस व्यक्ति ने बताया कि मसान की आवाज़ खुद उसकी ही थी, अर्थात उस व्यक्ति की ही! ठीक! चूंकि वहां पर मनुष्य अपने 'कर्म' आदि का उत्तर स्वयं ही देता जाता है, वहां कोई बस नहीं रहता!
मसान में वापिस भेजने का सामर्थ्य है, होता है, ये तो पता है! पर क्या, उसमे किसी को बुलाने का भी सामर्थ्य होता है? ये अभी जानना है! मुझे कुछ पता है, लेकिन कुछ कुछ! मसान को जानना ऐसा ही है जैसे अंधेरे में से, एक सुईं उठा लेना!
तो मित्रगण! ये था कुछ सार का अंश जो आपके साथ मैंने बांटा, कौन इसको कैसे ले, किस प्रकार से ग्रहण करे, ये उस पर ही निर्भर करता है!
अब ये घटना!
"गजनाथ?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोलै वो,
"ये दादू कहां से है?" पूछा मैंने,
"भैलवा!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"सरभंग-गढ़ी!" बताया उसने,
"समझ गया हूं!" कहा मैंने,
"क्या विचार है?" बोला वो,
"अभी तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"चल सकते हैं!" बोला वो,
"है कोई?" पूछा मैंने,
"हां, है!" बोला वो,
"चल, बताता हूं!" कहा मैंने,
"जब मर्ज़ी!" बोला वो,
"आ ज़रा मेरे साथ!" कहा मैंने,
"कहां?" बोला वो,
"सवाल नहीं!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और हम उठे, उधर ही सामान रख दिया था हमने और चले आये एक तरफ, कुछ सीमा से बाहर, कुछ पढ़ा और फिर लघु-शंका मिटाई!
"ये जगह तो बढ़िया है!" कहा मैंने,
"खुली है!" कहा उसने,
"बहुत खुली!" बताया मैंने,
"उधर क्या है?" पूछा मैंने,
"यहां डेरे ही हैं!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नदी?" पूछा मैंने,
"अभी तो पानी नहीं!" कहा उसने,
"कहां है?" पूछा मैंने,
"कोई आधा किलोमीटर?" बोला वो,
मित्रगण! कल के इस राधा प्रकरण से अवश्य ही मेरे सात्विक मित्रों को असहजता महसूस हुई होगी! मानता हूं, क्षमा भी मांग ली थी पहले ही! आप और अधिक जानिये, जो मैंने लिखा, वो ही पूर्ण नहीं, आगे भी है! जानिये, स्वतः ही जानेंगे तो और अधिक सशक्त हो जाएंगे!
अब इसी प्रकरण में मैं मीरा को रखता हूं! यदि मीरा को एक कवियत्री तक ही रखा जाए तो वो एक प्रखर, उच्च-कोटि की कवियत्री रही हैं, ये असत्य नहीं! परन्तु कृष्ण-दर्शन, कृष्ण-विवाह और कृष्ण की ही मूर्ति में समा जाने वाले किस्से, बस किस्से भर ही हैं! अतिश्योक्ति करना ही भारतीय कला रहा है! कैसे कैसे महान और उच्च-कोटि की रचनाएँ लिखी गयीं हैं! रामायण, एक महाकाव्य है, है या नहीं? महाभारत एक महा-गाथा है, है या नहीं?
मैं ये नहीं कहता कि वो असत्य हैं, नहीं! कोई भी असत्य अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकता! उसको सत्य से सदैव ही पराजय मिलती है! रामायण का विशुद्ध रूप, ऋषि वाल्मीकि की रामायण ही है! तुलसीकृत रामचरित मानस उसकी टीका अवश्य ही हो सकती है! वाल्मीकि एवं तुलसीकृत रामायण में मूलरूप से कई अंतर् हैं! कहा जाए, तो वाल्मीकि ने किसी भी तथ्य से मुंह नहीं फेरा और वही लिखा जो उस समय के समाज में प्रचलित था! लेकिन इसका 'विशुद्धीकरण' तुलसी द्वारा किया गया, ये भी अध्ययन हेतु आवश्यक है! उदाहरण के तौर पर, सीता जी, राजा जनक को कृषि-उत्सव में, एक खेत से, एक घड़े के रूप में प्राप्त हुई थीं! इस से पहले, राजा जनक जी के कोई संतान नहीं थी! अब उठता है एक प्रश्न! उस घड़े से, मात्र सीता जी ही कन्य रूप में प्रकट हुई थीं या अन्य कोई और भी? यदि नहीं, एकमात्र वही, तो फिर उर्मिला की वो सगी बड़ी बहन कैसे हो गयीं? फिर मांडवी और श्रुतकीर्ति? वे चचेरी हैं, ऐसा लिखित है! अब मित्रगण! क्या सीता जी का नाम, सच में सीता जी ही था? सीता का अर्थ क्या होता है? सीता का अर्थ होता है कुंड!
सीता, पौराणिक ऋग्वेद में, एक देवी का नाम है, वो देवी जो उर्वरकता एवं पृथ्वी की सृजन शक्ति की प्रधान देवी हैं! उन्हें, देवी का सम्मान प्राप्त है, और उनके पहले पति का नाम पर्जन्य(बारिश के देवता) और द्वितीय पति का नाम इंद्र है! या इन दोनों को एक ही माना जाए तो उचित ही लगता है! पर्जन्य, वर्षा में, कड़कती हुई दामिनि के देवता हैं! पर्जन्य की पत्नी का नाम, भूमि है! और द्वितीय पत्नी का नाम वसा नामक गौ है! पर्जन्य की और भी कई पत्नियां बताई गयी हैं! पांचवे मन्वन्तर में वे सप्तऋषि-मंडल में से एक, बारह आदित्यों में से एक, विष्णु-पुराण में वे कार्तिक माह के सरंक्षक, और हरिवंश-पुराण में वे एक गांधर्व और ऋषि भी हैं! सीता, देवी, इन्हीं पर्जन्य देव की पत्नी रही हैं! सम्भवतः, इन्हीं के नाम पर, वैदेही का नाम सीता पड़ा है!
अब शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार, विदेह नाम के राज्य में ईसा से(समय मान आधुनिक कालानुसार) सातवीं शताब्दी पहले एक राजा जनक हुए! अब आप तनिक गणना कीजिये! कि महाभारत अधिक प्राचीन अथवा रामायण! अब जनक जी के छोटे भाई कुशध्वज जी का समय मान कुछ और ही बताया जाता है! जबकि मांडवी एवं श्रुतकीर्ति इन्हीं की पुत्री थीं!
अब आगे चलते हैं! तुलसीकृत रामायण, आरम्भ से अंत तक, मात्र सात्विकता से ही भरी पड़ी है! राम जी का खान-पीन आदि सब सात्विक ही रहा है, ऐसे ही हनुमान जी, और सब, मात्र मांसाहारी राक्षसों के सिवाय! अब आप तनिक ध्यान देंगे? किसी भी सात्विक देवता को जब भोग चढ़ाया जाता है, भले ही पंचामृत आदि हो, फल-फूल हों, मिठाई हो आदि, सब में कुछ न कुछ भोज्य-पर्दार्थ अवश्य ही रखा जाता है! है या नहीं? गणेश जी के लिए मोदक! कृष्ण जी के लिए पेड़े! आदि आदि! अब मेरे सात्विक मित्रो! है मेरे मित्रो वे, जो शिव को सात्विक रूप में पूजते हैं, तनिक बतलायें शिव को कौन सा भोज्य-पदार्थ आप रखा करते हैं? क्या भांग खाएंगे वो? या बिल्व-पत्र? या धतूरा? नहीं ये तो घोटन है उनका! पार्वती जी से जब मिले तो सबसे पहले यही कहा, कि तेरे बस कि मुझे 'उठाना' नहीं! तब माँ पार्वती ने कहा कि मैं रोज, नित्य, दिन में चार बार, खरल में, घोटा, घोटा करूंगी!
अब बताएं! क्या चढ़ाते हैं आप? बिल्व-पत्र! जानते हैं, बिल्व-पत्र नाम का पेड़, कहां से आया है भारत? इसे बेल-पत्थर कहा जाता है! बिल्व नाम क्या आपको भारतीय या वैदिक लगता है?
तब? तब मोटा मोटा आंकलन ये है कि शिव का भारतीयकरण हटाया जाए और उन्हें त्रिपुंडधारी देव की उपाधि दी जाए! क्या पश्चिम जगत में आपने ऐसा कोई औज़ार देखा है तो शिव के त्रिशूल की तरह ही दीखता हो? है ऐसा! अब काम क्या है उस औज़ार का? साफ़-सफाई! समझे आप! हड़प्पा और मोहेन-जोदड़ो में जो मूर्तियां प्राप्त हुईं हैं उनमे शिव ही प्रधान हैं! अन्य कोई देवता नहीं! शिव का वर्ण नील रखा गया! जब काला रंग अधिकता में हो तब, नीली आभायुक्त सा दीखता है, जैसे नाग! नाग दिया गया है गले में धारण करने हेतु उन्हें! जो चर्म वो धारण करते हैं, अफ़सोस है उसे व्याघ्र-चर्म में बदला गया असल में रीछ-चर्म है! जिसका रंग काला है! क्या डमरू कोई वाद्य-यंत्र है? नहीं ये, जानवरों को दूर भगाने वाला वाद्य है, जिसे, पश्चिमी चीन, मंगोलिया आदि के मूल-निवासी रखा करते थे!
शिव, मूलरूप से भारतीय हैं! शिव से संबंधित स्थल आज भी गुप्त हैं, बदले गए हैं, छिपा दिए गए हैं! क्यों? ये अब का खेल नहीं! अब तो सभी लकीर के फ़कीर हैं!
लकीर के फ़कीर! सच ही तो कहा मैंने! मुझे कोई खेद नहीं ऐसा लिखने में! जो धर्म आज आप, हम सब देखते हैं, सुन रहे हैं, बांच रहे हैं, ये सब सत्ताओं का खेल है! सत्ता, अर्थात, जिसकी लाठी उसकी भैंस! लाठी बलात भी हो तो भी ठीक, विद्या की हो, तो भी ठीक! अब ज़रा अपने कुछ सात्विक मित्रों से प्रश्न! जगत जानता है, सभी जानते हैं, एक सामान्य सा बुद्धि वाला भी जानता है कि भगवान बुद्ध श्री राम जी के बहुत बाद में हुए! और वाल्मीकि रामायण बहुत पहले ही लिखी गयी! जिसमे धर्म की परिभाषा है, वचन का मोल है, एक जीवन-पद्धति है, मर्यादा है!
तब? ये क्या है?
जरा वाल्मीकि रामायण के इन श्लोकों को देखें –
यहाँ बुद्ध, चार्वाक, नास्तिक, नास्तिकता एवं जाबालि (जो खुद एक नास्तिक था) का जिक्र है-
पूरा पढ़ें और विचार अवश्य ही करें!
(1) अयोध्या-कांड , सर्ग – 109, श्लोक – 34.
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध |
स्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि |
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् |
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात् २-१०९-३४.
अर्थ :- (सबसे पहले बुद्ध को देखिये) राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसे मनुष्य को वही दंड दे, जो चोर को दिया जाता है । और जो इनको दंड देने में असमर्थ हो, उन समझदारों या विद्वानों को ऐसे नास्तिकों से बातचीत भी नहीं करनी चाहिए।
(2) अयोध्या-कांड , सर्ग – 109, श्लोक – 33
निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं त |
द्यस्त्वामगृह्णाद्विषमस्थबुद्धिम् |
बुद्ध्यानयैवंविधया चरन्तं |
सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम् || २-१०९-३३.
अर्थ :- हे जाबालि ! मैं अपने पिता के इस कार्य की निन्दा करता हूँ, कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युक्त नास्तिक को अपने यहाँ रखा । क्योंकि चार्वाकादि नास्तिक मत का जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा फिरा करते हैं, वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
(3) अयोध्या-कांड , सर्ग – 109, श्लोक – 30
अमृष्यमाणः पुनरुग्रतेजा |
निशम्य तं नास्तिकवाक्यहेतुम् |
अथाब्रवीत्तं नृपतेस्तनूजो |
विगर्हमाणो वचानानि तस्य || २-१०९-३०
अर्थ :- उग्र तेज वाले न्रपनन्दन श्रीरामचन्द्र जाबालि के नास्तिकता से भरे वचन सुन, उनको सहन ना कर सके और उन वचनों की निन्दा करते हुए उनसे फिर बोले ।.
(4) अयोध्या-कांड , सर्ग – 109, श्लोक – 38
न नास्तिकानां वचनम् ब्रवीम्यहं |
न नास्तिकोऽहं न च नास्ति किंचन |
समीक्ष्य कालं पुनरास्तिकोऽभवं |
भवेय काले पुनरेव नास्तिकः || २-१०९-३८.
अर्थ :- हे श्रीरामचन्द्र ! मैं नास्तिकों जैसी बातें नहीं करता और न मैं स्वयं नास्तिक हूं, मेरे कहने का ना यह अभिप्राय ही है कि परलोकादि कुछ भी नहीं है। परन्तु समय के प्रभाव में पड़ अथवा समय की आवश्यकतानुसार मैं आस्तिक अथवा नास्तिक हो जाता हूं!
क्या है ये सब? कहां से घुसेड़ दिए गए? ये एक प्रपंच नहीं तो इसे क्या नाम दिया जाए? क्यों आम जनता का को जानबूझकर, ऐसे भरमाया जाता है? विशुद्ध सात्विकता के नाम पर!
खैर, आप स्वयं ही सोचें और विचार करें! बस विवेक को आगे रखें! आस्था में कोई भंग न पड़े!
हम वही लोग हैं, यो एक मर्यादा पुरुषोत्तम पुरुष श्री राम को रामायण में पाते हैं! महाभारत में कर्तव्य-बोध और गीता का सूक्ष्म ज्ञान एकत्रित करते हैं और हम वो भी हैं जो मुनि वात्स्यायन द्वारा रचित काम-सूत्र में वर्णित काम-शास्त्र को भी अपना मानते हैं! परन्तु आप जानते हैं कि काम का आरम्भ कहां से हुआ? क्या कामदेव से? नहीं! ये एक असुर मल्लनाग द्वारा सबसे पहले अस्तित्व में आया! भगवान शिव के निर्देशानुसार इसको नंदी महाराज ने एक सहस्त्र छंदों में परिवर्तित किया!
मित्रगण! सबकुछ यहीं है! बस खोजने वाला ही चाहिए! ऐसे बहुत से विषय है, जो हैं कुछ और और दिखाए गए हैं कुछ और! समझाये गए हैं कुछ और! कोई उत्तर देगा? विष्णु जी की पत्नी पृथ्वी, सत्यभामा का पुत्र असुर क्यों हुआ उत्पन्न? प्राग्ज्योतिषपुर का राजा नरकासुर! क्यों? देव का पुत्र असुर क्यों? है कोई उत्तर?
ऐसे ही शिव हैं! हैं कुछ और! दर्शाये जा रहे हैं कुछ और! पढ़ाये जा रहे हैं कुछ और, शिव-परिवार आदि के दर्शन! तस्वीरें, मूर्तियां, लिंगम आदि आदि! और अज्ञानी उन्हें घरों में स्थान दे रहे हैं! यही दोष-ग्रहण करना होता है! यही उलटी दिशा में जाने जैसा होता है! यही भटकना होता है!
चलिए मित्रगण! अब घटना का वर्णन! मैं समय समय पर इस प्रकार के विषय उठाता रहूंगा! एक बात और मित्रगण! मैंने देखा है, इंटरनेट पर, पत्रिकाओं में, किताबों में, अक्सर शाबर मंत्रों की बाढ़ सी आयी हुई है! वे मंत्र, ऐसा नहीं कि सभी ही गलत हैं, लेकिन त्रुटि अवश्य ही है उनमे! सबसे पहले उच्चारण! उच्चारण सही न हो तो कुछ भी सही नहीं होगा! जो व्यक्ति ज और ज़ में अंतर् न कर सके, वो मंत्र जाप न करे! यहां उद्देश्य शाब्दिक नहीं, श्वास-नियंत्रण का है! श्वास चार प्रकार की हैं! वेगमान, जो अक्सर तीव्र होती हैं, शिथिल जो सुप्त-मुद्रा में होती हैं, औत्सुक्य अर्थात तेज तेज, एक बार में अधिक से अधिक दो, और लघु श्वास, अर्थात, दो से भी कम, घुटी घुटी सी! वेगमान में शाबर नहीं पढ़े जाते, इसमें, मारण, अभिचार और हरण, विद्वेषण, उच्चाटन कर्म होते हैं! इनमे, माला, अस्थियों से बनी होती है! शिथिल में, मोहन, स्तम्भन आदि कर्म होते हैं, और मालाएं बीजों की बनी हुई होती हैं, जैसे कौंच के बीज, कटहल के बीज आदि! औत्सुक्य में, कल्याणकारी, लाभान्वन आदि कर्म होते हैं और मालाएं, मृतिका की बनी होती हैं, ये मृतिका, नदी किनारे की, बरगद के नीचे की और कुम्हार के चाक से शेष से बनी होती हैं! और चतुर्थ! इसमें स्व-रक्षण होता है! इसी में नेत्र बंद किये जाते हैं और मालाएं मांस के टुकड़ों की बनी होती है! अब ये कोई नहीं बताता! और मंत्र-साधना, निष्फल हो जाती है! सबसे पहले, पंटर को पढ़ते ही, इसका अनुमान लगा लेना चाहिए कि ये मंत्र किस कर्म हेतु है! मंत्र की प्रकृति, उसके अधिष्ठाता की प्रकृति और 'नैवैद्य' क्या है! मंत्र पढ़ते वक़्त हाथ का स्थान, स्थिति आवश्यक है! जैसे, मारण आदि कर्म में, हाथ माथे के पास, कल्याण में, छाती के पास, मोहन में, नाभि से नीचे और रक्षण में सर से ऊपर होती है! अब आप इस से ये अनुमान लगा सकते हैं कि माला का आकार कितना हो! ये बताने की आवश्यकता शेष नहीं! तंत्र में सामग्री इत्यादि बाएं रखी जाती है, सम्मुख नहीं, त्रिशूल यदि बाएं गड़ा हो तो उद्देश्य में लीन , दाएं हो तो परिपालन का भाव होता है! अब भूमि, स्थल या जगह! मारण में श्मशान, मोहन में शैय्या समान आसन, कल्याण में लीपी हुई भूमि और रक्षण में नर-मुंड से सिद्ध होते हैं मंत्र! एक बार सिद्ध हो जाने पर, वे त्वरित कार्य किया करते हैं, फिर ये सब नहीं देखा जाता!
अब एक विशेष बात! प्रत्येक मंत्र की एक सीमा होती है, शक्ति होती है! ऐसा नहीं कि आपने सर्प-बंधक विद्या सिद्ध की तो आप नेवला भी, छिपकली भी, मछली भी, उसी मंत्र से पकड़ लेंगे! भूमि के सर्प ही पकड़ सकते हैं जल के भी नहीं! सर्पविष-हरणी से सर्प का ही विष उतरेगा, बिच्छू का नहीं! उसका अलग मन्त्र है! कानखजूरे का नहीं आदि! चूँकि मंत्र प्रकृति पर कार्य करते हैं! स्त्री-मोहन के तीन भाग हैं, षोडश, वयु एवं शेषाद्रि! षोडश में मोहन का प्रकार पृथक होगा, वयु में पृथक और शेषाद्रि में पृथक! एक ही मंत्र प्रत्येक स्त्री को मोहन-पाश में नहीं बांध सकता! षोडशी में, वो कन्या जिसने संसर्ग न किया हो, बंधेगी, यदि रजस्वला है तो नहीं बंधेगी! वयु में, विवाहित ही और शेषाद्रि में, इन दोनों से अलग! अब समय...मोहन में संध्या समय, कल्याण में, प्रातःकाल, मारण आदि में रात्रि और विषम तिथियां प्रयोग में लायी जाती हैं! शाबर का अर्थ है, श्मशान में सिद्ध! अतः ये मंत्र घर में सिद्ध नहीं होंगे, हो भी गए तो घर मरघट समान होने लगेगा!
अब संकल्प! किसी भी मंत्र को सिद्ध करने से पहले, उसके अधिष्ठाता या अधिष्ठात्री से संकल्प लिया जाता है, जैसे मसानी का संकल्प लिया, अब ये नहीं कि मंत्र-सिद्धि के बीच ही कृष्ण जी का भी भजन गा लिया या प्रसाद खा लिया या पूजन ही करने बैठ गए! तब आप पर भयंकर विपत्ति टूट पड़ेगी, और आप बताने योग्य भी नहीं रहेंगे!
अब अधिष्ठाता या अधिष्ठात्री, सबसे पहले जानें, वो किसके द्वारा सेवित है, पहले उनका पूजन और अनुनय! इस प्रकार क्रम से आगे बढ़ते जाते हैं! स्मरण रहे, कोई अदना सा प्रेत भी ये कभी नहीं चाहेगा कि वो किसी और की इच्छा से कार्य करे! अतः आपकी परीक्षा होगी, देह टूटेगी, सबकुछ दिखाया जाएगा! मिथ्या को सच बना दिया जाएगा! जब एक अदना सा प्रेत ये करेगा तो आप सोचिये कोई अधिष्ठाता या अधिष्ठात्री कैसे बस में होय! तंत्र में हठ-योग प्रभावी है! हठ, शठ का अनुज है! और शठ फट्ट का! इसीलिए फट्ट पर मंत्र समाप्त हो जाते हैं! तंत्र में चुराया जाता है, लूटा जाता है, दमन किया जाता है, विवश किया जाता है, तोड़ दिया जाता है और अपना कार्य सिद्ध करवा लिया जाता है! आमतौर पर, यही फलसफा ये ओझे, गुनिया , भोपे, भगत आदि करते हैं! अघोर में, प्रसन्न करना ही सर्वोपरि माना जाता है! और किसी को प्रसन्न करना, उतना ही असम्भव है जितना हिमालय में मार्ग काटना!
तब? तब अनेक व्यवहार हैं, इनकी सूचि है, अनेक भोग हैं, अन्य और वस्तुएं हैं! वे प्रयोग में लायी जाती हैं! अब आप समझ सकते हैं कि मैं, लिखित के, पढ़े हुए, इंटरनेट के, पत्रिकाओं के, मंत्रादि से दूर रहने को क्यों कहता हूं! समर्थ-गुरु ये सब करवाने में सक्षम होता है!
अतः, किसी गुरु को सम्मुख रख, ये साधनाएं की जाती हैं! तभी ये फलदायी होती हैं, सिद्ध होती हैं! लोगों को तो सत्व की भी जानकारी नहीं! तंत्र तो जटिल है बहुत! ज़रा सी चूक, पता नहीं क्या से क्या कर दे! ये वो विद्युत् है जो दूसरा अवसर नहीं प्रदान किया करती!
चलिए...अब ये घटना!
"गजनाथ?" कहा मैंने,
"जी?" बोलै वो,
"क्या देर?" पूछा मैंने,
"देख कर आता हूं!" बोलै वो,
और उठ कर चल पड़ा पीछे!
कुछ देर बाद आया वो, और बैठ गया, इस बार कुक्कड़ ले आया था, वही रख दिया सामने उसने! और बैठ गया!
"अभी कोई पता नहीं!" बोलै वो,
"कोई नहीं आया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोलै वो,
"कोई खबर?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने!
इसका मतलब अभी और इंतज़ार करना था! कोई बात नहीं, होगा कुछ काम, इसीलिए देर हो गयी होगी!
हां, तो कल हम महामसानी के स्थल पर थे! मैंने आपको बताया था कि एक और होती है बूढ़ी मसानी! ये सिर्फ रक्षक ही है उस श्मशान की! एक लम्बे कानों वाली बुढ़िया वहां के पेड़ों में वास करती है, ये बहरी सी ही होती है! लेकिन उसको देखा, क्रिया के समय ही सम्भव है!
तो आखिर के तेरहवें दिन, व्यक्ति मसान के सामने फिर से पेश होता है और तब ये अधिपति मसान उसका योनि निर्धारण किया करता है! इस सब की बागडोर इसी मसान के हाथों में रहती है!
अब आप समझिये, स्वर्ग और नरक, मात्र एक कल्पना ही हैं! इस संसार में ही व्यक्ति नरक भी भोगता है और स्वर्ग भी! स्वर्ग का अर्थ, सुख, वैभव, सम्पदा, दुःख न होना आदि आदि ही तो बताया गया है! इन्द्र का स्वर्ग अलग है, इसका चलन और मान अलग है ये एक लोक है जहां देवता वास करते हैं जहां कोई मनुष्य या उसकी आत्मा भी नहीं फटक सकती! तो स्वर्ग को क्यों इस प्रकार पेश किया जाता है? समझ से बाहर है! कृष्ण जी कहते हैं, आत्मा का न जन्म होता है, न मरण, न ये घायल ही होती है न मरती है, न पीड़ा का ही अनुभव करती है, न सूख सकती है, न गीली हो सकती है! तब गरुड़-पुराण असत्य ही लगता है कि कड़ाहे में तल दिया जाएगा! ज़ंजीरों में बांध दिया जाएगा, तरह तरह के कष्ट दिए जाएंगे! ऐसा कुछ नहीं!
अब आपके सामने, आपके लिए ही एक और भ्रम दूर करना चाहूंगा! ये है कर्म, पूरा वैदिक-धर्म ही इस कर्म-सिद्धांत पर टिका है! गीता के अनुसार, तू कर्म कर और फल की चिंता न कर! सच बताइये, इसमें कोई सच्चाई है? यदि इसे ही मान लिया जाए तो फिर सतकर्म करने की कोई आवश्यकता ही नहीं! लघु-मार्ग किसको पसंद नहीं? देह की राख हो जानी है, फिर क्या पता कौन कहां गया और नहीं गया! कर्म के मूल रूप से दो कर्म बताये गए हैं, शुभ एवं अशुभ! शुभ से सभी अर्थ समझते हैं और अशुभ से भी! गढ़ने वालों ने कितनी सटीकता दिखाई कि देवत्व प्राप्त देवता आदि कर्मों से दूर हैं! अब या तो मनुष्यों को मूर्ख ही समझा गया, या दास या फिर बोलने वाले मूक प्राणी! यदि वे दूर ही हैं, तब इंद्र के पुत्र जयंत को गधा क्यों बनना पड़ा? कारण क्या था? कारण था कि जयंत रीझ गया था एक अप्सरा पर, जो कि इंद्र की अप्सरा थी, जयंत ने उस अप्सरा को क़ैद कर लिया, जब किसी ने नहीं बताया तब दिव्य-ज्ञान की मदद लेनी पड़ी और तब, जयंत का कृत्य समझ में आया! जयंत श्रापित हुआ और गधे के रूप में जन्म लिया! जयंत बहुत दुखी हुआ और तब भगवान शिव ने उसके इस श्राप को कम कर दिया एक शर्त के अनुसार! खैर, इसी गधे के पुत्र वेताल-पच्चीसी के राजा वीर विक्र्माद्वितीय हुए! इसी कारण से विक्रम में दिव्यता थी! जब श्राप टूट गया तब, उस राजकुमारी का क्या हुआ जिस से जयंत का पुत्र हुआ? और जयंती? जयंत की वास्तविक पत्नी? वो कैसे अनभिज्ञ रही? कोई प्रकाश नहीं पड़ता इस विषय पर, चूंकि, कोई लाभ नहीं!
कालांतर में उसी राज्य में भूकंप आया और नगर समाप्त हो गया, आज का कैम्बे, गुजरात का, उसी नगर से निकल कर बाहर आया है! अब ये भी सिद्ध करता है कि कर्म का कुछ न कुछ फल तो पड़ता ही है! बस अन्यत्र इतना है कि देवता आदि इस फल को अपने मन मुताबिक़, शर्तों का पालन कर, निबाह लेते हैं! लेकिन हम मनुष्य कहां जाएं! वो मनुष्य, जिसे ईश्वर की सर्वोत्तम कृति कहा जाता है! यही जयंत, एक कौवा बना रामायण में, और ब्रह्मास्त्र द्वारा, घायल होने पर, इसकी एक ही आंख रह गयी! लेकिन! जयंत का और भी कई जगह उल्लेख है, इसमें सब गड्डमड्ड है! समझ से बाहर! ऐसा इसलिए कि इनको समय समय पर निरंतर रूप से बदला जाता रहा है! जैसे कि वर्तमान की गीता प्रेस! धर्म का स्वरुप ही विकृत और एक ही दिशा में मोड़ दिया गया इसके द्वारा! हालांकि इन्होने संशोधन भी किये है, कई बार कानून की फटकार भी लगी! इनका गीत-गोविन्द पढ़ लिए, सब समझ जाएंगे! महाभारत में कब कैसे छिपाना है, क्यों छिपाना है सब का सब उजागर हो जाएगा! सूर्य के सारथि कौन? और उनके पुत्र कौन? तनिक बताएं! जरा नाम का बहेलिया कौन? जिसने कृष्ण जी के पांव के अंगूठे में तीर मारा! अभिमन्यु कौन? बोलेंगे कि अभिमन्यु, चंद्र के पुत्र हैं! और मैं कहूं कि कालयवन की आत्मा ही थी उनके अंदर, तब?
वशिष्ठ मुनि राक्षस-युद्ध में, असुरों द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुए! सत्य या नहीं? पाराशर ने अपनी माता जी के कहने पर राक्षस-सत्र यज्ञ किया और क्या हुआ फिर? जानते हैं? भले ही ये सब पौराणिक रहे हों, हों, लेकिन ये ही बुनियाद है! सच्चा कहता हूं, कृष्ण जी के भक्त ही कृष्ण जी को नहीं जानते! यशोदा कौन थीं? योगमाया के साथ उनका क्या संबंध था? योगमाया विन्ध्यवासिनि कैसे बन गयीं?
खोजिये! सब मिलेगा यहीं के यहीं! सिर्फ ढोल पीटने से ही संगीत उठता तो प्रशिक्षण की आवश्यकत ही न रही होती!
थोड़ा सा और लिखना चाहूंगा! सात्विक, राजसिक एवं तामसिक! ये हैं क्या? कभी विचार किया है? या फिर सात्विक का अर्थ हुआ, मांस-मदिरा से दूर! राजसिक हुआ राजा के समान और तामसिक हुआ मांस-मदिरा सहित! क्या यही! सबसे पहले मांस-मदिरा! इसका अर्थ क्या? मानवता का कल्याण हो, सभी को अन्न मिले, मेरे हिस्से का भी, तो चलो मांस खा लेता हूं! ऐसा मैंने कइयों का कहते सुना है! सो लिख दिया! शिशु को, बालक को, दूध मिले, ज़रूरतमंद को दूध मिले, तो चलो मदिरा ही पी लूं! ऐसा ही करते हैं शिव! अब आप बताएं, किसका 'भाव' भला? शिकार का, चुराया हुआ, उठाया हुआ, बिन मोल का, कोई भोग मान्य नहीं तंत्र में! जो देना चाहे तो उसकी इच्छा! अब बलि-कर्म, बलि चढ़ाई जाती है, कारण मुख्य नौ हैं! मुख्य बताता हूं, अधिष्ठात्री या अधिष्ठाता का मूल भोग! किसी भी संकट में पड़ी प्रजाति का भोग मान्य नहीं! मांसाहारी जीवों का भोग मान्य नहीं! चूंकि, शाकाहारियों का गर्भ-काल छोटा होता है, मांसाहारी जीवों से! शाकाहारी जीवों के पास जीने के बहुत अवसर हैं, प्रकृति में उनका आहार सर्वत्र उपलब्ध है, भोजन हेतु कोई चेष्टा नहीं, चोट लगने का भय नहीं! परन्तु मांसाहारी जीवों का गर्भ-काल अधिक लम्बा, कोई बच्चा उनका जिए या नहीं ये भी औसत कम! भोजन की कमी के कारण भी समस्या! देह मज़बूत न रहे तब और समस्या! जैसे सियार, सिंह, भेड़िये आदि! इसीलिए मुर्गा, बकरा, मछली का भोग ही सबसे अधिक चलन में रहता है! बकरी का नहीं! मुर्गी का नहीं! अब दूसरा तथ्य! अपने अधिष्ठाता को विशुद्ध भोग ही लगे इसीलिए भी मांस! चूंकि मांस में कोई मिश्रण नहीं हो सकता! मदिरा को आप शहद में डालो, अपना गुण नहीं त्यागेगी! भले ही शहद कड़वा हो जाए! जब ये भी उपलब्ध न हो तो साधक स्वयं का रक्त, भोग के रूप में देता है! तंत्र की कई शाखाएं बनीं और कई लुप्त हो गयीं! कई आगे तक बची रहीं और कई आज भी गुप्त रूप से सुचारु हैं! तंत्र तो गुरु मछेन्द्र नाथ से भी प्राचीन है! भगवान श्री दत्तात्रेय द्वारा इस धरा पर दिया गया है! दत्तात्रेय भगवान में तीनों ही गुणों का समावेश रहा है! मछेन्द्र नाथ एवं गुरु गोरख नाथ जी ने, और भी कई सिद्ध नाथों ने कई कल्याणकारी मंत्रों की रचना की, उनमे प्राण सृजित किये! परन्तु, साथ ही साथ वे कीलित भी कर दिए गए! कीलन ग्यारह प्रकार का है! कीलन अत्यंत प्रभावशाली होता है यदि उचित प्रकार से कोई भी वस्तु, भूमि या भवन कील दिया जाए! जब तक अमुक कीलन नहीं हटेगा, कोई भी मंत्र कार्य नहीं करेगा!
अब सात्विकता! ये सात्विकता आखिर में है क्या? सत्व में चौदह गुणों का समावेश है! और ये भी गुप्त ही रखे गए हैं! यदि दिन को इन्हीं गुणमान में नापा जाए, दस दस घटी के मान लगते हैं! सूर्योदय से पूर्व की कुछ वेला, ब्रह्म-वेला कहलाती है, यहां से सात्विकता का आरम्भ होता है और सूर्योदय पश्चात तक, कुछ समय तक रहता है! फिर राजसिक समय होता है और फिर तामसिक समय! रात्रि, त्रिचर है, अर्थात तम भाव की प्रधानता रहती है! इसी कारण से रात में पूजन मात्र तामसिक देवी व् देवताओं का ही होता है! अब प्रश्न ये, कि कौन से देवी या देवता तामसिक, राजसिक और सात्विक? जो अस्त्र धारण करे वो राजसिक, जो अस्त्र धारण करे पर मुकुटरहित हो, तो तामसिक और जो अस्त्र धारण न करे वो सात्विक! शिव मुकुट नहीं धारण करते! श्री भैरव नाथ जी भी नहीं! महाकाली भी नहीं, अतः ये प्रबल तामसिक शक्तियां हैं! विष्णु जी राजसिक हैं, उच्च-कुल, उच्च-योनि एवं उच्च-कार्य हेतु ही अवतार लिया करते हैं!
क्या आप जानते हैं? विष्णु जी के सौ पुत्र थे जिनका वध स्वयं शिव ने किया? क्या आप जानते हैं कि कुम्भकरण का पुत्र कौन था? जिसने शिव से ही अपना वध करने को कहा? उस ज्योतिर्लिंग को भीमाशंकर कहते हैं! उस असुर, का नाम भीम था! जिसने समस्त देवताओं को एक ही दिन में, परास्त कर दिया था!
क्या आप जानते हैं कि असुरगण, शिव का ही ध्यान क्यों करते हैं? क्यों उन्हीं से वर प्राप्त किया करते थे?
क्या आप जानते हैं, कि आज धर्म का जो स्वरुप हम सब देख रहे हैं, मूलरूप से वो नहीं है, कभी नहीं था!
हनुमान जी! बहुत हैं भक्तगण इनके! ये कौन हैं? क्या अंजनी के पुत्र? पवन देव के पुत्र? या केसरी के पुत्र? हनुमान जी, राम जी के पहले मिलने से, कहां थे? क्यों उनका वर्णन नहीं? और क्या हनुमान जी ब्रह्मचारी हैं?
वाल्मीकि रामायण के हनुमान जी और तुलसी के हनुमान जी, दोनों में अंतर क्यों है? क्या हनुमान चालीसा सिद्ध भी होता है? क्या हनुमान चालीसा कार्य करता है? यदि हनुमान जी नित्य ही श्री राम जी के समक्ष रहते हैं तब, वे चिरंजीवी ही क्यों हैं? क्यों उन्हें ऐसा वरदान दिया गया? क्या लाभ हुआ उस से? क्या आज के युग में पाप नहीं? बढ़ता नहीं जा रहा? क्या मर्यादाएं भंग नहीं हो रहीं? क्या अपराध नहीं बढ़ रहे? क्या पृथ्वी पर आतंकवाद नहीं बढ़ रहा? या फिर, हनुमान जी मात्र भारत के लिए ही कार्य करेंगे! इस पाप को रोकने के लिए अब हनुमान जी कहां हैं? चिरंजीवी होने के पीछे तो यही कारण था!
एक बात का स्मरण रखिये! ईश्वर कभी सम्मुख नहीं आएगा! कभी भी नहीं! न आपको कुछ करने से रोकेगा ही! न अच्छा करने से और न बुरा करने से! न आपको बैकुंठ का मार्ग ही बताएगा! न व्रत ही बचाएंगे, न उपवास ही!
बहुलवाद पर न जाइये! अधिकांश पर न जाइये! यदि सौ में से एक भी परेशान है तो वो राम-राज्य कदापि नहीं!
तब किया क्या जाए? क्या अपनाया जाए, क्या छोड़ दिया जाए? कहां जाएं, कहां नहीं?
नमस्कार मित्रगण! तो आज फिर से कुछ नया ही प्रस्तुत करूंगा! सबसे पहले गुज़ारिश है कि ऐसा नहीं मान लें कि जो मैंने कहा या लिखा वो अंतिम है, कुछ कम भी सम्भव है और कुछ अधिक भी, परन्तु जो लिख रहा हूँ वो खरा है, ये अवश्य ही सत्य है! बहुत से भ्रम और भ्रांतियां फैली हुई हैं! धर्म का आज आर्थिक-करण हो चुका है! यहां तक कि जो लोग, सेवा-सुश्रुता में लगे हैं वे भी अछूते नहीं!
क्या आपने गुरु हरिदास या स्वामी हरिदास का नाम सुना है? ये संगीतज्ञ तानसेन के गुरु रहे हैं और कई सम्राट आदि भी इनसे मिलने आये, ऐसा भी बताया जाता है, जो कि एक अतिश्योक्ति भर से अधिक कुछ नहीं! हरिदास जी का नाम निधिवन से संबंधित है! कहने के मुताबिक़, मेरा ध्यान जो है, और जो दिलाना चाहता हूं, उसका केंद्र-बिंदु बांके-बिहारी मंदिर की तरफ है! क्या कोई ये बताएगा कि ये मंदिर कब स्थापित हुआ? बताते हैं कि इन्हीं हरिदास जी के वंशजों में से ही आगे किसी ने इस मंदिर की नींव रखी! उनका नाम भी हरिदास जी ही था! वे उदासीन वैष्णव थे! अब प्रश्न ये, कि उदासीन से क्या अर्थ लिया जाता है? और वैष्णव से? उदासीन से अर्थ हुआ कि ऐसा सम्प्रदाय जो उदासीन-मार्ग शाखा से निकला हो! ये उदास रहने वाला सम्प्रदाय नहीं! उदासीन का अर्थ है उत+आसीन अर्थात, ब्रह्म में आसक्त पूर्णतय लीन! इस प्रकार, सम्वत १८६४ में इस मंदिर की स्थापना हुई! वो भी हरिदास जी द्वारा! तो हमारे पास अब दो हरिदास जी हो गए! जब इस मंदिर की स्थापना ही १८६४ ईस्वी में हुई, तो कौन से सम्राट? अकबर? जहांगीर? समझे आप मेरा आशय! चलिए, तब तक भी ठीक है कि मंदिर की स्थापना हो गयी, लेकिन वर्तमान स्वरुप में ये राजपुताना शैली में बना, राजस्थानी शैली में बना एक मंदिर है! ये पूर्ण रूप से मंदिर तो सम्वत १९२१-१९२४ में ही कहलाया! तो ये प्राचीन नहीं है! स्पष्ट है! मान लिया जाए, तो सम्वत १५३६ में स्वामी हरिदास जी का जन्म हुआ, वृन्दावन के एक गांव में, इनके गुरु हुए श्री आशुधीर देव जी, आशुधीर देव जी ने इन्हें देखते ही पहचान लिए कि वे. 'अवतार' हैं सखी ललिता जी के! कमाल है, अवतार और श्राप, खूब खुल कर और पूरी छूट से हुए हैं! अब ये रसनिधि सखी का अवतार कहे गए हैं! स्मरण रहे, सखी ललिता जी एवं, सखी रसनिधि जी! कालांतर में, स्वामी हरिदास जी के मार्ग में कुछ बदलाव लाये गए और निम्बार्क सम्प्रदाय बना! और इसी निम्बार्क सम्प्रदाय से स्वतंत्र, ध्यान रखें, स्वतंत्र हो कर, सखीभाव सम्प्रदाय बना! आज बांके-बिहारी मंदिर में जो भी क्रिया-कलाप होते हेम वो इसी सखीभाव सम्प्रदाय द्वारा ही निर्देशित दिशाओं एवं नियम से होते हैं! अर्थात, हरिदास जी द्वारा बताये गए नियम और दिशाएँ अब कहीं नहीं हैं! दूसरी बात, कहा जाता है कि स्वयं बांके बिहारी जी ने स्वप्न में आकर, हरिदास जी को कहा कि निकुंज-वन में उनका स्थान है, वे एक मूर्ति में वास कर रहे हैं, अतः वो मूर्ति निकाल ली जाए! तो जी मूर्ति निकाल ली गयी! और आज बांके बिहारी में रखी, पूजित मूर्ति वही है ऐसा कहा गया है, जबकि ये भी सत्य नहीं! सम्प्रदायों की आपसी द्वंदता एवं बैर-भाव के कारण वे असल मूर्ति कहां है, कोई नहीं जानता!
हां! तो मित्रगण! इस से पहले बांके बिहारी, श्री कृष्ण जी कहां थे? मथुरा में? या वृन्दावन में? या राधा जी के संग, बरसाने में? ये कोई उपहास नहीं, सरल सा प्रश्न है! इस पूरे प्रकरण में यमुना जी का कोई उल्लेख नहीं! बस इतना कि इस मंदिर में, मंगला आरती नहीं होती, मात्र जन्माष्टमी के अलावा! कारण, निधिवन से श्री बांके बिहारी जी रास-लीला रच के आते हैं, और यहां आ सो जाते हैं, अतः प्रातःकाल उनकी नींद में कोई खलल न हो, मंगला आरती का कोई विधान नहीं! अब न तो यहां श्री बलदाऊ जी हैं, न ही कोई देवकी जी, न वसुदेव और न ही कोई अन्य पात्र! चलिए जी, मान लेते हैं कि सम्भवतः हम ही गलत हैं, शायद समझ नहीं या फिर हमारे पास कोई अन्य विधि नहीं 'ईश्वर -साक्षात्कार' की! यूनानी यात्री एवं इतिहासकार स्ट्राबो के अनुसार, यमुना एक सहायक नदी हुआ करती थी, और उसका स्थान यहां से एकदम अलग था! मथुरा कभी भी एक वैदिक केंद्र नहीं रहा था! मथुरा नगर एक महाक्षत्रप राजुबुल द्वारा ही बसाया गया था इसके प्रमाण उपलब्ध हैं! उस जैसे महान क्षत्रपों ने यहां राज किया है, कुमुई अथवा कम्बोजिका उसकी पत्नी थी, जिसने यहां के कुछ जैन साधुओं को गांव और बौद्ध भिक्षुओं को भी भूमि प्रदान की थी! ये भी वर्णित है कि भगवान गौतम बुद्ध के अवशेषों पर, मथुरा के समीप सप्तऋषि पर्वत पर, विहार बनाये गए थे, वे अब ज़मीन के अंदर हैं, भूकंप आदि, भूमि-स्खलन के कारण, मथुरा के मांट गांव से, क्षत्रपों के सिक्के आदि प्राप्त हुए हैं, कनिष्क की मूर्ति, कैडफाइसिस, विम तक्षक आदि कुषाणों के कई प्रमाण यहां मिले हैं! लेकिन कोई मंदिर नहीं! हैरत की बात तो ये है कि जिस मथुरा के गोकर्ण मंदिर में जिस मूर्ति की पूजा निरंतर हुए जा रही है, वो कनिष्क पुत्र, हुविष्क की मूर्ति है!
अंध-श्रद्धा, सदैव विवेक की हत्या किया करती है! अंधेरे में सीधा तो चला जा सकता है, यदि मार्ग समतल हो, अन्यथा, एक समझदार मनुष्य, उजाला होने तक का इंतज़ार करेगा! कौन सा उजाला? सब जानते हैं! सदैव याद रखिये, हम मनुष्य अवश्य ही हैं, परन्तु पैदा होते ही न बोल सकते हैं, न चल ही सकते हैं और न बैठ, खा-पी ही सकते हैं! बिन माँ-बाप या सहायता के तो कदापि नहीं!
तो ये कहना, कि सबकुछ मैंने जान लिया, न जानने बराबर ही है! अब अपने तर्कों को सही बताने के लिए, जताने के लिए एक शब्द बहुत ही कारगर रहा है, वो है नास्तिक कहलाना! कोई बात नहीं! समझ लें, मित्र तो कोई भी नहीं आपका, न आपका हृदय ही, न श्वास ही, कब साथ छोड़ जाएं कोई पैमाना भी नहीं!
स्वामी हरिदास जी ने जीवन लगा दिया राधा-अष्टमी में, राधा जी के दर्शन करने के लिए! लेकिन राधा होय तो आय! अब ये तो हरिदास जी ही जाने, कौन सखी संग कान्हा जी रास-रंग किया करते हैं! निधिवन में तो कुछ नहीं! कोई आधिकारिक-पुष्टि भी नहीं! बेहिचक जाइये वहां कोई नहीं आने वाला, मात्र कुछ मौकापरस्त चोर-उच्चक्के, उठाईगिरे एवं स्थानीय असामाजिक तत्वों के सिवाय!