"इसीलिए कह रहा हूं, मेरे पास वक़्त नहीं ज़्यादा!" बोला वो,
''नहीं राखा! तुमने तो वक़्त को भी हरा दिया!" कहा मैंने,
"आओ! आओ!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"मिलवा दूं, कहीं मुझे कुछ हो जाए! तुम परदेसी हो, जानता हूं, लेकिन ज़िम्मेवारी समझते हो, फ़र्ज़ के मायने समझते हो, मैं चैन से निबटना चाहता हूं, सुकून से!" बोला वो,
"दुल्हन के पास?" बोला मैं,
"हां, पहचान लो!" बोला वो,
और वो बेचारा, लंगड़ाता हुआ, टूटे कंधों को बराबर करता सा हुआ, टांग को ज़बरन उठाता तो झुक जाता, हाथ से आगे बढ़ाता था, उसका लट्ठ अब, खूब साथ निभा रहा था उसका, उसकी टांग बनकर!
हम आगे चले, वो हमे ले गया एक झुरमुटे के पास, और रोक दिया, वहीँ खड़े रहने को कहा!
"बेटी?" आवाज़ दी उसने,
दौड़ती हुई, झाड़ी से बाहर आयी एक सुंदर सी, लेकिन घबराई हुई सी लड़की, जैसे ही हमें देखा, सकुचा गयी और, उस राखा के पीछे खड़ी हो गयी जा कर, उसके पीछे पीछे उसकी सहेली भी!
वक़्त ठहर गया! वक़्त के पैने पंजे, भोथरे हो गए! वक़्त के पांवो में, गोखरू पड़ गए! वो भी ठहर गया देखने को कि अब आगे क्या होगा! वक़्त ने खूब संजो कर रखा था उनको अभी तक, अब उनसे विदा लेने का वक़्त मिला था खुद वक़्त को! वक़्त भी, अपने फ़र्ज़ में क़ैद था, जैसे राखा क़ैद था! वक़्त ने खूब साथ निभाया उनका, अब वो आगे बढ़ने वाला था, यही चलन उसकी गति है, यही गति उसकी पहचान और यही पहचान वो हमेशा से, आदि से, आज तक भी और अनंत तक भी बनाये ही रहेगा!
"बेटी, ये परदेसी हैं!" बोला वो,
पीछे खड़ी खड़ी, आंखें झुकाये हुए, वो वहीँ बनी थी!
"कहा न था? कोई न कोई तो आएगा! आ गए!" बोला वो,
"अब न फ़िक़्र करो!" कहा मैंने,
"ये, जा रहे हैं, सुलेमान आएगा अभी!" बोला वो,
"हां, हम लाएंगे!" कहा मैंने,
"दुखियारी है बेचारी!" बोला राखा,
कमाल है! वो खुद इतना दुःख झेल रहा था! अपना दुःख, उसे कोई दुःख नहीं लग रहा था, अभी भी, वो उसे ही दुखियारी कह रहा था! हैरत की बात है! सोचते हुए भी एक अजब सी ख़ुशी होती है, फख्र होता है, सोच, सोचने को विवश होती है, कि हमारे पूर्वज ऐसे भी थे! ऐसा जीवट! ऐसी ताक़त! ऐसे उसूल और फ़र्ज़-अदाएगी के लिए हमेशा जान न्यौछावर करने वाले!
"परदेसी!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अपने जीते जी बेटी को छूने नहीं दिया मैंने किसी को भी!" बोला वो,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"तुमसे भी यही उम्मीद है!" बोला वो,
''उम्मीद न टूटेगी!" कहा मैंने,
"बस राम! तेरा दिया तुझे सौंप दूं, ये बेटी अपने घर की हो जाए!" बोला वो,
"क्यों नहीं राखा!" कहा मैंने,
'मेरी सांस, टूट रही है!" बोला वो,
''नहीं टूटेगी!" कहा मैंने,
"सुलेमान से कहना, राखा ने भेजा!" बोला वो,
''बोल दूंगा!" कहा मैंने,
"नेकदिल इंसान है वो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"गरीब-गुरबा का लिहाज़ करता है!" बोला वो,
"और बहू-बेटी का तो बहुत ही!" बोला वो,
"समझ गया राखा!" कहा मैंने,
"लो?" बोला वो,
और अपनी कमर के नीचे ककी धोती की गांठ से बंधा कुछ निकाला उसने, और खोला, ये एक लोहे का खंजर था, एक हथियार, बीच में से पतला और मुंह पर चौड़ा, मूठ पर गोल, लकड़ी में कसा हुआ, लकड़ी में, खांचे से बने थे, पकड़ के लिए, लकड़ी के ऊपर, पतला सा, लोहे का एक पतरा सा लगा था, लोहा था या पीतल, जो वक़्त के साथ काला पड़ गया था, नहीं कह सकता, ये पतरा, उस खंजर से बहते हुए खून को, नीचे एक जगह बहाने के लिए था, ताकि, मूठ पर, खून लग, चिकनी न हो सके!
"ये रख लो!" बोला वो,
और बैठ गया, टांग मुड़ गयी, खूब टपकने लगा! जैसे ही वो बैठा कि वो दुल्हन चीखती सी, बुक्कल फाड़ रट हुए सी, फिर से झाड़ी में जा छिपी!
राखा मुस्कुराया!
"कैसे देखेगी!" बोला वो,
"क्या राखा?" पूछा मैंने,
"मेरी मरी देह!" बोला वो,
"मरी?" बोला मैं,
"हां, वक़्त अब करीब है!" बोला वो,
"राखा! कोई वक़्त नहीं करीब!" कहा मैंने,
उसने मुझे मुस्कुराते हुए देखा!
"सांच की जांच? भला कैसे?" बोला वो,
"बताता हूं राखा!" कहा मैंने,
"राखा!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो, थोड़ी सी सांस बटोरते हुए!
"कुछ लोग, मर कर भी नहीं मरते!" कहा मैंने,
उसने चुपचाप सुना! चुपचाप!
"और कुछ लोग, जो मर जाते हैं, वो मरते ही अमर होने के लिए हैं!" कहा मैंने,
उसने मेरे शब्दों पर ध्यान दिया!
"तुम्हारी फ़र्ज़-अदाएगी!" कहा मैंने,
"मैंने वचन दिया था!" बोला वो,
"वही, उस वचन का क़ौल!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"उसका क़ौल का कोई मोल नहीं राखा!" कहा मैंने,
"नहीं समझा!" बोला मुस्कुराते हुए,
"समझ गए हो, बता नहीं रहे!" कहा मैंने,
"सुनो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"कोई पीछे से आ जाए तो?" बोला वो,
"कोई नहीं आने वाला!" कहा मैंने,
"कोई नहीं?" बोला वो हैरानी से,
"हां, कोई नहीं आएगा!" कहा मैंने,
''ऐसा कैसे कह सकते हो?" बोला वो,
"जानता हूं इसीलिए कह रहा हूं!" कहा मैंने,
"क्या जानते हो?" बोला वो,
"राखा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"तुम्हारे एक बालक है?" पूछा मैंने,
"हां? तुम्हें कैसे पता? किसने बताया?" बोला वो,
"सोचो!" कहा मैंने,
"अच्छा! समझ गया!" बोला वो,
"क्या, बताओ?" पूछा मैंने,
"दो भले आदमी मिले थे, उनसे बात हुई थी, उन्होंने अपना खाना दिया था, राम लम्बी उम्र देवे उन्हें, मैंने उन्हें बताया था, उन्होंने ही बताया होगा?" बोला वो,
"हां, उन्होंने ही बताया!" कहा मैंने,
"कुशल से तो हैं वे दोनों?" बोला वो,
"हां, दोनों ही! चाचा-भतीजा!" कहा मैंने,
''अरे हां! वो ही थे! और...!" बोला वो,
''और क्या?" पूछा मैंने,
उसने एक लम्बी सी सांस भरी,
"और उस लड़के ने, मुझे फूट दी थीं अपने झोले में!" बोला वो,
"सब याद है?" पूछा मैंने,
"हां, भले को कौन भूलता है?" बोला वो,
"उन्होंने ही हमें बताया!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोला वो,
''हां, तभी तो आये हम?" कहा मैंने,
"और किशनपुर?" बोला वो,
'जाना है!" कहा मैंने,
'मैंने सुना नहीं?" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"मेरे बाद इस दुल्हन का ख्याल रखना!" बोला वो,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"मैं अब जाऊंगा!" बोला वो,
''नहीं जाओगे!" कहा मैंने,
"अब वक़्त आ गया है!" बोला वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे कुछ कहना है!" बोला वो,
"क्या राखा?" पूछा मैंने,
"मेरा बालक...पता नहीं कहां है...मां ले गयी थी उसे!" बोला वो,
"वो जहां भी होगा, ठीक होगा!" कहा मैंने,
''उसके लिए कुछ जोड़ा है मैंने!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
''वो मिलेगा उसको?" बोला वो,
"उसके लिए है तो मिलेगा राखा!" कहा मैंने,
"तुम से आज बात आकर मुझे राहत मिली!" बोला वो,
"और हमें भी!" कहा मैंने,
"मैं किसी के काम आया, मुझे कोई ग़म नहीं मौत का!" कहा उसने,
"जानता हूं!" कहा मैंने,
"देख लो!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इंसानी जून!" बोला वो,
"जून!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"खूब खेल खिलाया इस जून ने!" बोला वो,
"बाबा?" आवाज़ दी उस दुल्हन ने उसे!
"हां बेटी?" बोला वो,
अब वो, बोल आकर चुप हो गयी! मैं सब समझ गया कि क्यों चुप हो गयी थी वो! बस जानने को, कि वो मौत से परे के लोग , प्रेत, अभी भी इंतज़ार में थे, मौत के! जानने को, कि उनको हिफाज़त देने वाला, वो राखा, खुद, हिफाज़त से है कि नहीं!
"हां राखा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
मैं थोड़ा करीब आया उसके, उसको नीचे देखा और झुक कर बैठ गया.............
मैं मुस्कुरा पड़ा! कैसा इंसान था वो! क्या मिला उसे! जान से गया! आज का इंसान होता तो मुखबरी का हिस्सा ले जाता! नमक-हरामी करता और न जाने क्या क्या मिल जाता उसे! काणा की नज़रों में, वो भी लूट-पाट करता, धन जोड़ता, कोठरी बनवाता, ऐश-ओ-आराम से रहता! बीवी, बच्चे सब के सब! डकैती कोई अनोखी बात थोड़े ही थी! पड़ा ही करती होंगी! एक ये भी सही! लड़की ही तो मरती? तो क्या हुआ! उसे क्या! क्यों वो इस जंगल में आ प्राण गंवाता, क्यों, बिन बात का किसी से लोहा लेता! क्यों उन लड़कियों को छिपाता, क्यों ही खबर भेजने की ज़हमत उठाता! क्यों उसके कंधे टूटते, क्यों पसलियां टूटतीं और क्यों एक टांग से ही जाता वो! क्या पड़ी थी उसे भी! और बदले में मिला क्या? मौत! अनजान जगह पर, अनजानी मौत!
लेकिन नहीं! वो ऐसा इंसान नहीं था, जिस थाली में खाये, उसी में छेद कर दे! जिसका नमक खाये उसके साथ ही नमक-हरामी कर दे! वो सेठ की बेटी थी, तो उसकी भी बेटी बराबर ही थी! अपनी जान की परवाह न करते हुए वो ले चला था उसको हिफाज़त से छोड़ने! डकैत उसके पीछे लगे थे, उसे खबर थी कि ये किसका किया-धरा है! काणा के लिए, उस राखा का मरना अहमियत रखता था! राखा मरता, लूट होती, जेवर मिलते, लड़कियां मिलतीं, लेकिन ये राखा? ये बीच में आ गया!
"राखा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो, सांस सी बटोरते हुए!
"तुम भाग क्यों नहीं गए?" कहा मैंने,
"कहां से?" पूछा उसने,
"सेठ के घर से?" पूछा मैंने,
"कैसे भागता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"एक बाप पर क्या गुजर रही थी, सेठ-सेठानी थर थर कांप रहे थे! मैंने उन मां-बाप के चेहरों पर, डर तो देखा था, लेकिन वो डर उनकी जान का नहीं, अपनी बेटी की जान का था.....कैसे जाता? उन्होंने आस लगाई थी मुझ से....मैं ही ले गया था....क्या ये? इतना सम्मान, एक मुलाज़िम के लिए कम है?" बोला वो,
"हरगिज़ नहीं! एक मुलाज़िम के लिए हरगिज़ नहीं! लेकिन उस इंसान के लिए तो मुमक़िन था, जिसका परिवार था, एक छोटा बालक था, बीवी थी?" पूछा मैंने,
"उन्होंने भी सेठ का ही खाया था न?" बोला वो,
"हां! इस से अच्छा कोई जवाब नहीं!" कहा मैंने,
"राखा? तुमने लड़कियों को लिया, यहां छोड़ा और फिर यहीं रहे?" बोला मैं,
"नहीं, मैंने यहां छोड़ा, मेरे आदमी यहीं थे, वे भी बीस के करीब, मैं फिर से लौटा, लेकिन तब तक, सब ख़तम हो चुका था, सेठ का घर आग के हवाले कर दिया गया था, कोई नहीं था वहां, वो वेदि(विवाह-मंडप) जल चुका था! मैं फिर से लौटा! आया यहां तो रुम्मा के साथी भिड़े थे, मेरा खून खौला और मेरे साथियों ने, उस रुम्मा के दो टुकड़े कर दिए!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हम आठ ही बचे!" बोला वो,
"मैं, दुल्हन, वो लड़की, एक मैं और एक सल्लन! चार और भी थे!" बोला वो,
"सल्लन को भेज दिया था तुमने?" कहा मैंने,
"हां, वो दौड़ पड़ा था, घायल था, उसका एक हाथ कट गया था, राम जाने क्या हुआ उसका, मैंने इंतज़ार किया, नहीं लौटा और फिर...." बोला वो,
"क्या?"
"फिर, पूरब की तरफ आती हुईं टापें सुनाई दीं!" बोला वो,
"घोड़ों की टापें?" कहा मैंने,
''हां, आंधी की तरह!" बोला वो,
"ये काणा था?" पूछा मैंने,
"हां! काणा! उसके साथी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने तभी दुल्हन को, उस लड़की को,यहां से थोड़ा दूर, जा कर छिपा दिया!" बोला वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"अपने घोड़ों पर हम सवार हुए, और बढ़ चले काणा की तरफ!" बोला वो,
"कुल छह?" पूछा मैंने,
"हां, हम छह!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आधा ही चले कि सामना हुआ!" बोला वो,
"देखते ही भिड़े?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हमको घेर लिया गया!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"काणा ने पूछा, दुल्हन कहां है? उसका तमाम जेवर कहां है? मैं अगर बता दूं, तो मुझे और मेरे साथियों को बख्श दिया जाएगा, बदले में कुछ मिलेगा भी बतौर इनाम!" बोला वो,
"और तुम लोगों ने मरना बेहतर समझा!" कहा मैंने,
"लानत से बढ़कर है!" बोला वो,
"बेशक! बेशक है!" कहा मैंने,
"और कोई रास्ता नहीं था!" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"हमारी मौत ही उनकी ज़िंदगी थी!" बोला वो,
"ताकि उनका पता न चले!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"और फिर यही हुआ!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"भिड़ गए सभी!" कहा मैंने,
"पचासों के आगे हमारी क्या चलती! लेकिन, यही कि बस, अब मुंह बंद हो हमारा!" बोला वो,
"समझ गया हूं!" कहा मैंने,
''और इसके बाद? कुछ याद है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कुछ देर बाद?" पूछा मैंने,
"पता नहीं कितनी देर बाद!" बोला वो,
"क्या देखा?" कहा मैंने,
"न जाने मैं कैसे बच गया था?" बोला वो,
मैं मुस्कुराया!
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने देखा, वहां कुछ लोग कटे हुए थे, सब के सब पड़े हुए थे!" बोला वो,
"तुम?" पूछा मैंने,
"मैं?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"मैं तो ज़िंदा था!" बोला वो,
"फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मुझे अचानक से याद आया! वो दुल्हन! वो लड़की!" बोला वो,
"मिल गए?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"वहीँ?" पूछा मैंने,
"हां, वहीँ!" बोला वो,
"और फिर शुरू हुआ इंतज़ार?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सल्लन का?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"नहीं लौटा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कहीं हाथ तो नहीं लग गया किसी के?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"राखा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कब तक इंतज़ार?" पूछा मैंने,
"जानते हो!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
''दूल्हे को आना चाहिए था!" बोला वो,
"नहीं आ पाया!" कहा मैंने,
"पता नहीं क्या बात हुई!" बोला वो,
"मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"अब मदद करो तुम!" बोला वो,
"तभी तो आया!" कहा मैंने,
"बताओ फिर?" बोला वो,
"राखा?" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"कितना वक़्त हुआ?'' पूछा मैंने,
"रात न बीती!" बोला वो,
"सुबह नहीं आयी?" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"अब आ गयी!" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
'कई सुबह आयीं और कई सुबह गयीं!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"मतलब यही कि, न तुम, न वो दोनों लड़कियां ही अब ज़िंदा हैं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
वो खड़ा हो गया, घबराता हुआ!
"ये क्या कह रहे हो?" बोला वो,
"हां! सच ही कह रहा हूं!" कहा मैंने,
"नहीं, झूठ!" बोला वो,
"झूठ में तो तुम हो राखा!" कहा मैंने,
"नहीं!" उसका अब सारा वजूद हिला!
"नब्बे साल हुए! ज़माना बीत गया राखा! अब कोई ज़िंदा नहीं! होगा तो कोई पीढ़ी में किसी की! तुम्हारे संगी-साथी, कोई जीवित नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे यक़ीन नहीं!" बोला वो,
"यक़ीन ही दिलाने आया हूं!" कहा मैंने,
और तब मैंने भ्रामरी का संधान किया! घेराबंदी खिंच गयी! वे क़ैद थे, अब वहीँ क़ैद हो गए!
"राखा?" कहा मैंने,
"बोलो?" बोला वो,
''ज़रा दुल्हन को आवाज़ दो?" कहा मैंने,
उसने एक बार मुझे देखा और फिर उस झुरमुट को!
"बेटी? बेटी?" चीखा वो,
प्रेत-मंडल कट गया था! कोई किसी से नहीं जुड़ा था अब! कोई किसी को न देख पता और न ही कोई सुन ही पाता!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"क्या किया तुमने?" बोला वो,
"कुछ नहीं?" कहा मैंने,
वो गुस्से में भरा! जैसे मैंने गद्दारी की हो, उसने हाथ उठाया अपना मुझे पकड़ने के लिए और वहीँ, शिथिल हो गया! हाथ नीचे हुए, नेत्र बंद से होने लगे! मैं आगे बढ़ा और उसे छुआ! ठंडा पड़ा था, कपड़ों से धूल झड़ चली, कपड़े, चीथड़े हो गए छूते ही!
"अब आगे बढ़ो राखा! तुम सदैव ही याद रखे जाओगे! वचन देता हूं, अहित नहीं करूंगा! बोलो? क्या चाहिए? इंतज़ार? सुकून? या फिर से खबर भेजने वाला? खबर किसको? न चौकी ही है और न चौकीदार अब! बोलो? क्या चाहिए?" बोला मैं,
"सुकून?" पूछा मैंने,
"बेहद!" बोला वो,
"कोई पीड़ा?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या मांगते हो?" बोला मैं,
"सुकून!" अब नेत्र खोले उसने!
मैं मुस्कुरा पड़ा! वो समझ गया था!
"आवाज़ दो!" कहा मैंने,
"बेटी!" बोला वो,
और उन झाड़ियों के पीछे से वे दोनों निकल कर बाहर आ गयीं! कभी मुझे देखें और कभी राखा को!
"चल बेटी!" बोला वो,
और मेरे सामने से पीछे हटा!
"राखा!" कहा मैंने,
"मैं नहीं चाहता ये इंतज़ार और ज़्यादा हो! इन्हें समझा दो और तैयार हो जाओ!" कहा मैंने,
उस रात्रि कुछ समय भी ठीक था, भोर से पहले उनको रवाना कर देना था, अब आगे उनकी, वो जानें! बहुत लम्बा हुआ इंतज़ार उनका!
"ये मेरे साथ ही हैं!" बोला वो,
"कोई इच्छा?" पूछा मैंने,
"नहीं, बाकी नहीं!" बोला वो,
मैं पीछे हटा! और एक खाली सी जगह देखी! उस स्थान पर सामान-सामग्री रखी, दीया जलाया! और एक एक करके, उन्हें, उस दीये से आगे जाने को कहा! राखा से पहले, वे दोनों आगे गयीं, आह सी निकली और वे, मुक्त हो गयीं!
"राखा!" कहा मैंने, और इशारा किया!
"अब तक कहां थे?" बोला वो,
और रो पड़ा! बुरी तरह से रोया वो, मेरा कलेजा भी फट ही पड़ता! ठीक तीन बजकर, चौवालीस मिनट पर, वो भी मुक्त हो गया!
अब न राखा ही रहा और न वो दुल्हन और न उसकी वो सखी ही! वे सब, तीनों परली पार लग चुके थे, मैंने भूमि-शुद्धि की और उन सभी प्रेतात्माओं को सत्गति मिले, विनती की!
रामपाल जी को बता दिया, उन्होंने भोज के लिए आमंत्रित किया, हम भी गए! फिर कभी किसी को कोई बाधा नहीं मिली!
राखा तो चला गया अपने फ़र्ज़ में बंधे हुए! लेकिन अभी बहुत से राखा हैं, जिनके बारे में किसी को ज्ञात ही नहीं! अपने वक़्त के क़ैदी!
खेकड़ा आज तहसील है, और इसके भीतर कई गांव हैं! लेकिन, गिनती के भी नहीं ज़िंदा लोग कि यहां क्या हुआ था! कौन था राखा और कौन सी दुल्हन!
साधुवाद!
प्रभु ने सबके हिससे के कार्य निर्धारित कर रखे है, पहले ही,
कौन कैसे ईमानदारी से कर रहा,बस ये याद रखा जाएगा।
प्रभु, आंखे और हृदय भर उठे, क्या और कैसा था राखा,, सच मे ऐसे इंसान होते हैँ क्या,,, कई बार मन द्रवित और आँखों मे पानी भर आया
मनुष्य और मनुष्यता को दर्पण मे दिखाता है प्रभुश्री का ये संस्मरण, और हमको एक ना भूलने वाली शिक्षा देता है, कोटिशः नमन प्रभुश्री आपको, दंडवत प्रणाम प्रभुजी