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वर्ष २०१४ बागपत जिला, तहसील खेकड़ा की दुल्हन!

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श्रीशः उपदंडक
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 पूनम की साफ़ रात थी, दो दिन पहले बारिश हुई थी, बारिश की छुअन पा, पेड़ पौधों में हरियाली का नवजीन संचारित सा हो गया था! झाड़ियों में फंसे जुगनुओं की लुपक-लुपक, रात को जैसे और गाढ़ापन दे देती थी! हवा में कुछ ठंडक थी और कुछ नमी भी! कीड़े मकौड़ों के तो जैसे दिन ही फिर गए थे! बड़ा छोटे हो और छोटा अपने से छोटे हो धमकाए फिर रहा था! झींगुरों के मेले लगे थे! उनकी टुकड़ियां, कौन सी बेहतर, इसी जद्दोजहद में लगी थीं! चन्द्रमा भी आज पूर्ण यौवन पर थे! उनकी शर्मीली सी चांदनी, घूंघट ओढ़े, बस उनका ही इंतज़ार कर रही थी! भाटों की तरफ से, सभासद वे तारागण आज, दरबार से अवकाश प्राप्त कर, सभी रास-रंग में लिप्त थे! किसी ने हरा और किसी ने लाल, किसी ने नीला और किसी ने सफेद सा वस्त्र ओढ़ा था! कुछ एक टिमटिमा भी रहे थे! रात खामोश तो थी, लेकिन खामोशी में भी उसकी एक आवाज़ हर तरफ मौजूद रहा करती है! तभी तो प्राणीगण, दिन की अपेक्षा रात्रि में अधिक सक्रिय हो जाते हैं! हम मानवों में भी, कुछ जाग रहे थे, तो अपनी प्रेयसी को, बहाना कर सोते हुए, कुछ एक, जगा भी रहे थे! कुछ जा रहे थे और कुछ लौट रहे थे! रात्रि थी और फिर ऊपर से गाड़ी भी देरी से पहुंची थी, जब पहुंची तब, श्मशान सा पड़ा वो स्टेशन जाग सा पड़ा था, सवारियां आने लगी थीं यात्रीगण, कुछ उनींदा थे तो कुछ जल्दी में! ये समा कुछ देखते ही बनता है! किसी की भट्टी जल पड़ी थी और कुछ एक अंडे वाले, अभी तक अपना भगोना खटकाये जा रहे थे! कुछ शौक़ीन लोग, अब उनके मेहमान थे, मदिरापान किये हुए थे तो अंडे भी खूब ही चलते हैं, सो चल ही रहे थे! रात्रि की नींद का त्याग करते हुए ये त्यागी श्वान, ऐसी ही ठेलियों के इर्द-गिर्द बैठे थें गर्दन उचकाए हुए, अपने कटे-फ़टे कणों को सचेत रख, नज़र बनाये हुए! कुछ मादा-श्वानों के थनों में, उनके बच्चे, जिनके मुंह में अभी भी थनों में अग्रभाग फंसे थे, रड़के चले आ रहे थे! कुछ सवारियां आ रही थीं और कुछ जा रही थीं, रंग-बिरंगी बत्तियों से सजे उनके वाहन, दौड़े चले जा रहे थे अब! ये बागपत जिले का रेलवे स्टेशन था!
"आज देर हो गयी?" बोला मुकेश,
"गाड़ी देर से चली!" बोले रामपाल,
जीप में सामान रखा और आगे बैठ गए! पीछे जीप में कुछ बंधा रखा था, 
रामपाल, चंडीगढ़ के पास सरकारी नौकर थे, आज वापिस हुई थी उनकी, मुकेश उनके बड़े भाई का बड़ा लड़का था!
"पीछे क्या हे?'' बोले वो,
"खली है!" बोला वो,
"घर से नहीं आया?" बोले वो,
"ना!" बोला वो,
"कहां गया था?'' बोले वो,
"शाम से ही ननिया के साथ था!" बोला वो,
"ननिया की बीवी ठीक है?'' पूछा उन्होंने,
"हां, पहले से सही है!" कहा उसने,
"अच्छा है!" बोले वो,
अब दो-तीन सेल्फ मारे, जीप स्टार्ट ही न हो!
"कोई दिक्क्त है क्या?" पूछा उन्होंने,
"हां, थोड़ी सी!" बोला वो,
"ठीक नहीं करवाई?" पूछा उन्होंने,
"कल देखूंगा!" बोला वो,
और इंजन स्टार्ट हो गया!
"चल!" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
और गाड़ी आगे बढ़ने लगी, कुछ लोग हाथ दिए जा रहे थे, लेकिन वे रुके नहीं और गाड़ी अपने रास्ते पर डाल दी!
और इस तरह वे पहुंच गए, खेकड़ा तहसील! अब यहां से गांव जाना था, रास्ता सुनसान और बीयाबान, कोई नहीं दीखने को! बस दो चार वाहन!
"गर्मी से तो राहत है!" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
"मास्टर कैसा है?" पूछा उन्होंने,
"कल ही गया!" बोला वो,
"ठीक है?" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"तेरा क्या रहा?'' पूछा उन्होंने,
"पेपर दिया है!" बोला वो,
"कैसा रहा?'' पूछा उन्होंने,
"अब जानो तो हो आप!" बोला वो,
"दुबारा तैयारी कर?" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
और गाड़ी सर्राटे से आगे चलती चली!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"खाना तो खाया नहीं होगा?" पूछा मुकेश ने,
"अरे कहां!" बोले वो,
"तैय्यार है!" बोला वो,
"अच्छा!" बोले वो,
"और बिंदु सही है?'' बोला मुकेश,
"हां, सही है, पढ़ाई भी ठीक है!" बोले वो,
"और अमित?" बोला वो,
"वो भी, ठीक ही है!" बोले वो,
तभी सामने देखा, गाड़ी धीरे की उन्होंने, एक आदमी था, साथ में एक औरत और दो बालक! उसने हाथ जोड़, कैसे न कैसे करके गाड़ी रुकवा ली!
"हां?" बोला मुकेश,
"छोड़ दोगे जी आगे तक?" बोला वो आदमी,
"कहां तक?" पूछा उसने,
अब नाम बताया जगह का,
"हां, बैठ जाओ!" बोला मुकेश,
"भगवान भली करें!" बोला वो,
पहले बालकों को और फिर उस औरत को, और फिर खुद चढ़ गया! मुकेश ने गाड़ी आगे बढ़ा दी!
"इतनी रात को?'' बोले रामपाल,
"ज़रूरी है जी!" बोला वो आदमी,
"किस गांव से हो?" पूछा रामपाल ने,
उस आदमी ने नाम बता दिया उस गांव का!
"तो अब कहां? गांव?" बोला मुकेश,
"हां जी!" बोला वो आदमी,
"कोई सवारी ही न मिली, दूध का टैंकर यहां तक छोड़ गया, सोचा ट्रक-फरक मिल जाएगा, सो ही चले जाएंगे!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" बोले रामपाल,
तो बातचीत चलती रहीं और उनके गांव का रास्ता आ गया! उस आदमी ने भाड़े की पूछी तो मुकेश ने मना कर दिया, आदमी ने आशीर्वाद खोल दिए! और गाड़ी आगे बढ़ गयी!
"ठीक किया!" बोले रामपाल,
"हां जी, कहां जाता बेचारा, रात का वक़्त!" बोला वो,
"सही बात है!" बोले रामपाल,
अब गाड़ी कुछ किलोमीटर चली और गांव के रास्ते पर मुड़ गयी, जैसे ही मुड़ी, उन्हें सड़क के बीच में एक लठैत सा आदमी दिखा! आदमी काफी लम्बा और सुतवां बदन का सा लगता था, सफेद से कपड़े पहने थे और दाढ़ी थी, पकी हुई, कानों में बालियां पहने था शायद! वो सड़क के बीचोंबीच लट्ठ को ठुड्डी पर लगाए खड़ा था, उनकी गाड़ी की तरफ देखते हुए!
एक बार को आदमी डर ही जाता है, सो वो भी उछल गए, गाड़ी में दबा कर ब्रेक लगाए!
"ये कौन है?" बोले रामपाल डरते हुए,
"पता नहीं?" बोला वो,
"कोई बाधा तो नहीं?" बोले वो,
"आज तक तो हुई नहीं?" बोला वो,
"कौन है?" बोला मुकेश, सर बाहर निकालते हुए!
उस लठैत पर कोई असर नहीं पड़ा, वो जस का तस खड़ा ही रहा!
"हट जा?" बोला मुकेश,
वो हटे भी नहीं! ऐसा लगे वो उन्हें देख ही नहीं पा रहा था!
"मैं देखूं?" बोला मुकेश,
"ना!" बोले वो,
"कौन है भाई?" बोले रामपाल,
तब उस आदमी की जैसे नीम-बेहोशी सी टूटी, अब बत्ती से बचने के लिए, हाथ रखा आंखों पर और लंगड़ाता हुआ, उनकी तरफ आने लगा!
"आ रहा है!" बोले रामपाल,
"हां!" बोला वो,
वो आदमी आ गया, झुक कर मुकेश को देखा, फिर रामपाल को, और घूम कर रामपाल की तरफ चला आया!
"कोई आ रहा है?'' बोला वो,
"कौन?'' पूछा रामपाल ने,
"सल्लन कहां है?" पूछा उसने,
"कौन सल्लन?" पूछा उसने,
"कैथा वाले हो?" बोला वो आदमी,
"कैथा?'' बोला मुकेश,
"ना हो?" बोला वो,
"नहीं!" बोले रामपाल,
"कोई मिला?" बोला वो,
''कौन?" पूछा मुकेश ने,
"जानते नहीं हो?" बोला वो,
"नहीं!" बोले रामपाल,
"कहां से आये हो?" बोला वो,
"शहर से!" बोला वो,
"कहां जाओगे?" पूछा उसने,
"गांव अपने?" बोले वो,
"रहतू से मिलोगे?" बोला वो,
"नहीं!" बोले वो,
"सुनो, कोई दुखियारी है, मदद कर दो!" बोला वो,
"दुखियारी? कौन?" बोले रामपाल,
"आओ!" बोला वो,
"कहां?" बोले वो,
और वो आदमी पलटा और.......


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"आओ, खुद ही देख लो, झूठ तो बोलता नहीं मैं!" बोला वो आदमी,
अब रात का वक़्त, खुला आसमान, बीहड़ सा रास्ता और जगह, अचानक से एक लठैत का सड़क के बीचोंबीच खड़े हो, किसी का इंतज़ार करना, ऊपर से उसका अजीब सा व्यवहार, परदेसी जैसा आदमी और अनजान से, अनसुने नाम! कोई क्या समझे फिर? यही न कि कोई अला-बला तो नहीं? कोई बाधा तो नहीं? कहीं कोई भूत-प्रेत का मामला तो नहीं?
"आ जाओ!" बोला वो,
अब वो आगे चला, जैसे ही चला लंगड़ा कर कि उन दोनों की नज़र उस आदमी की टांग पर गयी, बायीं टांग तो जैसे बस पेशी के एक धागे से ही बंधी थी देह से, वो रगड़ रही थी ज़मीन पर, खून से सना था उसका पांव! हिम्मत की बात ये, कि ये आदमी किसी की, मदद करने के लिए, अपनी जान ही जोखिम में डाले, उनसे गुहार लगाने आया था!
"आ जाओ!" बोला वो,
और अब वे दोनों चल दिए उसके पीछे, पीछे, वो आदमी बार बार उनको पीछे मुड़ मुड़ कर देखा और फिर आगे चल पड़ता, एक खेत की मेंढ़ सी थी, थोड़ी चौड़ी, पीछे बरगद के विशाल पेड़ लगे थे, यहां एक देवी का मंदिर था, मंदिर गांव के बाहर था, और कोई तीज-त्यौहार के रोज ही वहां आये तो आये, इसीलिए वहां भी कोई नहीं था! वो आदमी नीचे उतर गया, उनको इशारा करते हुए, वे रुक गए, एक दूसरे को देखा और चल दिए फिर, शायद किसी की मदद हो जाए!
अब वे नीचे आये, जैसे ही आये कि वो आदमी उन्हें बड़ी ही दूर खड़ा दिखाई दिया! कमाल था, एक टांग से वो कैसे इतनी दूर तक जा सकता था भला?
"रुक मुकेश?" बोले रामपाल,
मुकेश झट से रुक गया वहीँ! 
"कहां गया वो?" पूछा उन्होंने,
"वहीँ था, शायद उन पेड़ों के बीच?" बोला वो,
"चल?" बोले वो,
''चलो!" बोला वो,
पूनम की चटख चांदनी वाली रात थी, दीख तो रहा ही था सब, अब भले ही थोड़ा कम ही सही!
"रुक?" बोले रामपाल,
"क्या हुआ?'' पूछा मुकेश ने,
"वो क्या है?" बोले वो,
"हैं?" उसने मुंह से निकला,
"क्या है?" पूछा उन्होंने,
"ये तो कोई इंसान लगते हैं?" बोला वो,
"देखें?" बोले वो,
"चलो?" बोला वो,
वे चलकर आगे आये! और जो देखा, उसको देख, पांवों तले ज़मीन खिसक गयी! वहां दो आदमी कटे पड़े थे, दोनों के सर, दूर पड़े थे, औंधे!
"वो देखो?" बोला मुकेश,
"हे भगवान?" निकला मुंह से उनके,
वहां आसपास ऐसे लोग कटे पड़े थे, जैसे किसी ने हमला कर काट दिया हो उन्हें, बड़ी ही बेरहमी से उनके सर, धड़ से अलग कर दिए गए थे!
"भाग!" बोले रामपाल,
"भागो!" बोला मुकेश,
और दोनों लौट लिए, आव देखा न ताव! दौड़े चले गए, और हांफते हुए, अपनी जीप तक चले आये, जैसे ही आये कि वो ही लठैत उन्हें वहीँ मिला खड़ा हुआ! अब तो देह में उनकी बिच्छू से काट गए! पसीना ऐसा कि जूते बस अब निकलें और अब निकलें! गला सूख गया, आंखें, पलकें झपकना ही भूल गयीं!
"बहुत काट मारे!" बोला लठैत,
उनकी बंधी घिग्घी!
"कम से कम बीस तो यहीं!" बोला वो,
हां! इतने ही, कम से कम वहां पड़े थे!
"ये सब, काणा का काम है!" बोला वो,
वे तो वहीँ पत्थर बन गए खड़े खड़े!
"काणा! उसी का गिरोह आया था, किसी ने सुरागरसी की, और किसी ने मुखबरी, खबर लग गयी काणा को, आदमी आये उसके, और यहां खूब काट मची!" बोला वो,
काट मची? कहां? यही सोचें वहां खड़े खड़े!
"आप भी लौट आये?" बोला वो,
और आगे आया उनके,
"देखा भी नहीं?" बोला वो,
देखा! सब देखा!
"मुझे खबर बाद में लगी!" बोला वो,
और अपनी जेब में हाथ डाला!
"पहले आता तो ऐसा नहीं होने देता!" बोला वो,
जेब से एक थैली निकाल ली उसने,
"मदद करनी चाहिए कि नहीं?" बोला वो,
और थैली, खोलने से पहले ही अपने हाथ में पकड़ ली दुबारा से!
"बोलो?" बोला वो,
"हां!" बोला मुकेश,
"करनी चाहिए न?" बोला वो,
"हां!" कहा मुकेश ने,
"तो देख लेते?" बोला वो,
"किसी को ले आएं?" बोला मुकेश,
"किसको?" बोला वो,
"मदद के लिए?" बोला वो,
"कोई नहीं लौटता!" बोला वो,
"हम लौटेंगे!" बोला वो,
"लौट आओ, तो अच्छा है, बेचारी को मदद मिले!" बोला वो,
और इस बार थैली खोलने के लिए उसने दोनों हाथ इस्तेमाल किये, लट्ठ अपनी सीधी बगल के अंदर लगा लिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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थैली खोलने के लिए, उसने एक डोरी खींची! और जब खोल ली तो कुछ निकाल आकर अपनी हथेली पर रखा, थैली की डोरी को, मुंह से खींच कर बंद किया, और फिर से वापिस अपनी जेब में खोंस ली! कैसा गज़ब का इंसान था! घायल था, टांग टूट गयी थी और अब तम्बाकू का लुत्फ़ लेने वाला था! पीछे से कहीं, शायद किसी कोल्हू से, एक जनरेटर की आवाज़ रह रह कर गूंज रही थी, बत्ती तो थी नहीं, और बी जैसे लगता था हवा भी उसी का साथ देने लगी है! श्वान भी भौंकते या पास ही होते तो एक बार को तो लगने ही लगता है कोई गांव पास ही है या फिर न भी हो, तो भी कोई इंसान तो दीख ही पड़ जाता! कानों में न हवा का ही शोर था और न ही आसपास का! हां, झींगुर, मंझीरे अभी तक डटे हुए थे! कणों पर बहता पसीन ठंडा हो चला था, भले ही गर्मी या उमस रही हो उस दिन, बारिश हुई थी दो तीन दिन पहले, तो कुछ नमी ज़रूर थी!
तो उस आदमी ने तम्बाकू को हाथ में रख, उछाला, और दो चार बार हल्के से फूंक मारी, बुरादा सा उड़ गया और जो बचा, वो सामान-ए-लुत्फ़ था! सीधे मुंह के अंदर! निचले होंठ के नीचे जीभ गयी तो उभार बना, जो दाने तम्बाकू के बचे, सो थूक कर बाहर निकाल दिए गए, जो लार से भीग गए थे, उन्हें उंगली से निकाल, उछाल फेंका गया!
"तो गांव जाओगे अपने?" बोला वो,
"हां!" इस बार बोले रामपाल,
मन ही मन में हनुमान-चालीसा का न जाने कितनी बार जाप कर लिया था, मन ने, न जाने कितनी बार भाषा एवं मात्रा-शुद्धि कर डाली थी, आज तो चंद्र-बिंदु और अंग की मात्राएं भी ठीक से बोली गयी थीं!
"रात हो रही है!" बोला वो,
"हां, रात तो है!" बोले वो,
"कहीं दूर से आये हो?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"खिवैय्ये लौट आये?" बोला वो,
"अ...हां! लौट आये!" बोले वो,
खिवैय्ये? ये कौन हैं? कहां गए थे जो लौट आये?
"कुछ खाने को है?" पूछा उसने,
सहसा ही याद आया कि रामपाल दोपहर से पहले जब निकले थे तब कुल आठ परांठे घर से बनवा कर लाये थे, अब तक छह खा लिए थे, सूखी आलू की सब्जी तो निबट गयी थी, हां, आम का अचार, उसकी दो फांकें ज़रूर बची थीं!
"हां, है!" बोले वो,
"दे दो!" बोला वो, हाथ जोड़ते हुए से!
"हां हां! अरे क्यों नहीं!" कहा रामपाल ने,
और वे दौड़ कर, गए गाड़ी तक, अपना सामान निकाला और उसमे से फॉयल-पेपर में लिपटे दो परांठे ले आये, अचार था अभी, ये हाथ से दबा कर देख लिया था!
"लो! खाओ!" बोले वो,
"भला हो! भला हो!" बोला वो और उनके हाथ से वो फॉयल-पेपर ले लिया! रामपाल ने देखा और तब फॉयल-पेपर, छील कर अलग कर दिया!
"बस दो ही हैं!" बोले वो,
"कोई बात नहीं! मैं तो रह लूंगा भूखा!" बोला वो,
"आप? खाओ न?" बोले रामपाल,
"एक दुल्हन के लिए है और और एक उसकी सहेली के लिए!" बोला वो,
"वो दो हैं, और हैं?" बोले वो,
''हां, उधर, उस पेड़ के पीछे!" बोला वो इशारा करते हुए,
"मुकेश?" बोले वो,
"हां?" कहा उसने,
"कुछ और है खाने को?" बोले वो,
"खाने को?" बोला वो,
"हां, ये तीन हैं!" बोले वो,
"थे तो बहुत, बचा न कोई!" बोला वो,
"हां है!" बोला मुकेश,
"क्या है?" बोले वो,
"अरे खेत से आज ननिया के, फूट लाया था!" बोला वो,
"अच्छा! दे दे!" बोले वो,
तभी लपका मुकेश और गाड़ी की तरफ गया, पीछे की तरफ!
'ये लड़का है आपका?" पूछा उस आदमी ने,
"भतीजा है!" बोले वो,
"बेटा ही हुआ!" बोले वो,
''हां, बेटा ही है!" बोले वो,
मुकेश एक सफेद से रंग का थैला ले आया, फूटों की महक़ इतनी तेज थी कि किसी का भी जी ललचा जाए उन्हें खाने का!
"ला!" बोले रामपाल,
"लो!" बोला वो,
उन्होंने थैला ले लिया!
"ये लो जी!" उसको देते हुए बोले वो,
"भली करें भगवान!" बोला वो आदमी,
और झोले में से कुछ फूट निकालने लगा!
"रख लो सारी?" बोले रामपाल,
"झोला?" बोला वो,
"वो भी!" कहा उन्होंने,
"अच्छा जी!" बोला वो,
"अब हम चलें?" पूछा रामपाल ने,
"हां, लेकिन एक काम करोगे?'' बोला वो,
''बताओ?" बोले वो,
"खबर पहुंचा दोगे?" बोला वो,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"बताऊं?" बोला वो,
''बेहिचक!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हां!" बोला मुकेश भी,
"सुनो!" बोला वो,
"हां?" बोले वो,
"ज़रा आगे आओ?" बोला वो,
"हां?" आगे आते हुए बोले वो,
"यहां से आगे जो चौकी है न?" बोला वो,
"चौकी?" बोले वो,
"हां, है नहीं?" बोला वो,
"हां! हां! है!" बोला मुकेश,
"वहां तुम्हें...." बोला वो,
आसपास निगाह मारते हुए कि कोई है तो नहीं!
"हां, वहां मिलेगा सुलेमान चौकीदार!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"हां, कौन भला?" बोला वो,
"सुलेमान चौकीदार!" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
"अच्छा जी, मिल गया!" बोले वो,
"उस से कहना कि काट मची थी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"क्या मची थी?" बोला वो,
"काट!" कहा उन्होंने,
"हां, काट!" कहा उसने,
"तो?" बोला मुकेश,
"तुम्हं कोई नहीं जानेगा!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा उन्होंने,
"हां, परदेसी हो न!" बताया उसने,
"ठीक!" कहा रामपाल ने!
"हां, काट मची थी, रहतू को भेजा था!" बोला वो,
"रहतू!" बोले वो,
"हां, रहतू!" कहा उसने,
"और?" बोला मुकेश,
"और काणा ने हमला किया!" बोला वो,
"अच्छा!" बोले वो,
"भला किसने?" पूछा उसने,
"काणा ने!" कहा उसने,
"हां!" बोला वो,
"और?" बोला मुकेश,
"कहना, मंदिर के पास खड़ा है राखा!" बोला वो,
"राखा!" बोला मुकेश,
"हां, मेरा नाम राखा है!" कहा उसने,
"ठीक!" बोले रामपाल,
"कहना, चल नहीं सकता वो!" बोला वो,
"अच्छा!" बोला मुकेश,
"टांग में बल्लम लगा!" बोला वो,
''बल्लम लगा!" कहा मुकेश ने,
"सारे मारे गए!" कहा उसने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"और चल दे वहां से!" बोला वो,
''अच्छा!" बोला मुकेश,
"वो चल देगा!" बोला वो,
"ठीक!" कहा उसने,
"आदमी भला है वो!" कहा उसने,
"कह देंगे!" बोला वो,
"और ये भी, कि सुबह होते ही जाना होगा!" बोला वो,
'किसको?" पूछा रामपाल ने,
"हमको!" बोला वो,
"मतल, आप तीनों को?" बोला मुकेश,
"हां!" कहा उसने,
"अच्छा!" बोला वो,
''जगह बदलनी पड़ेगी, काणा आ गया तो छोड़ेगा नहीं!" बोला वो,
''अब क्यों आएगा?" पूछा रामपाल ने,
''वो आता है!" बोला वो,
"देखने?" पूछा उसने,
"हां!" कहा उसने,
"खतरनाक है वो!" बोले रामपाल,
"बहुत!" बोला वो,
''कह देंगे!" कहा रामपाल ने,
'और सबसे बड़ी बात!" बोला वो,
"क्या?" पूछा रामपाल ने,
"बोलना, गौना वाले की लुगाई ने मुखबरी कर दी!" बोला वो,
"कौन?" बोला मुकेश,
"गौना गांव का है न?" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"भोजा नाम का?" बोला वो,
"क्या करता है ये?" पूछा उसने,
"नशा-फंकी का काम!" कहा उसने,
"ठीक!" बोले रामपाल,
"वक़्त ज़्यादा नहीं है, समझी?" बोले वो,
"खूब समझ गए!" बोले रामपाल,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"और अभी मुझे है काम बहुत!" बोला वो,
"काम?" पूछा मुकेश ने,
"हां, बेटे!" बोला वो,
"कैसा काम?" पूछा रामपाल ने,
"एक तो दुल्हन अपने घर चली जाए!" बोला वो,
"अच्छा!" बोले वो,
''और दूसरा, मैं भी चलूं!" बोला वो,
"वैसे दुल्हन ने जाना कहां है?" पूछा उन्होंने,
"जायेगी तो दूर ही!" बोला वो,
"कोई आने वाला है लेने?'' बोला मुकेश,
"कोई लिवाल ही आ जाए?'' बोला वो,
''हां!" कहा मुकेश ने,
अब तक वे समझ चुके थे, वो भले ही कोई भी हो, उसका भरोसा किया जा सकता था, वो सच ही बोल रहा था, झूठ नहीं बोला था, उन्हें कोई खतरा भी नहीं था, और साहब, ये देहाती लोग हैं! आजकल के लोगों की तरह से नहीं!
"बेटा बहुत प्यारा होता है!" बोला वो,
''सो तो है ही जी!" बोले रामपाल,
"मेरा तो गया, लौटा ही नहीं!" बोला वो,
''ओह! कहां गया था?" पूछा उन्होंने,
"खबर देने!" बोला वो,
''चौकीदार को?" बोला वो,
"नहीं!" कहा उसने,
"फिर?" पूछा मुकेश ने,
"उसकी माँ दूर थी, तो बताने गया था, मैं पास ही रहता हूं!" बोला वो,
'अच्छा!" बोले रामपाल,
"अच्छा जी, आप भी चलो, मैं भी!" बोला वो,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"राम राम जी!" बोला वो,
"राम राम जी!" बोले वे दोनों,
और वो आदमी लंगड़ाता हुआ, चला गया, एक जगह उतरा और फिर नज़र नहीं आया! वे दोनों हतप्रभ से खड़े थे!
"ये कोई प्रेत था?" पूछा मुकेश ने,
"मुझे नहीं लगता!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"खाना क्यों मांगता?" बोले वो,
''अरे हां!" बोला वो,
"आदमी भला है!" बोला वो,
"हां!" बोला वो,
"चल अब!" बोले वो,
"चलो!" बोला वो,
आये गाड़ी में, और स्टार्ट किया इंजन, फिर से गड़बड़ सी हुई, लेकिन चालू हो गयी! बत्तियां जल गयीं! और वे आगे बढ़ चले!
"ये मंदिर याद रखियो!" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
"कल आते हैं!" बोले वो,
"कल?" बोला वो,
"हां!" बोले वो,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"देखें!" बोले वो,
"अजी रहने दो!" बोला वो,
और बातें करते करते वे चले गए वहां से! जा पहुंचे अपने गांव, लेकिन नींद अब आंखों से दूर रही! कैसे आती नींद!
सुबह हुई, फारिग हुए और फिर, करीब ग्यारह बजे चाचा के पास आ गया मुकेश, सुबह ही कह आये थे उसको!
"चल भई!" बोले वो,
"सोच लो?" बोला वो,
''क्या?" पूछा उन्होंने,
"कोई बला न लग जाये पीछे!" बोला वो,
''चल हट!" बोले वो,
"गाड़ी ठीक करवा लूं?" बोला वो,
''सारे काम आज ही होंगे?" बोले वो,
''अच्छा जी!" बोला वो,
तो गाड़ी फिर से उसी रास्ते पर लौटी! चलने लगे वे, अब उस रास्ते पर, कुछ और भी लोग नज़र आ रहे थे!
"राजस्थानी था!" बोले वो,
"लगता था!" बोला वो,
"बोली भी!" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
गाड़ी आगे चली और एक जगह रुक गयी! रुकवा दी उन्होंने!
"अरे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"रात को ये मंदिर.......??" बोले वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"रात को ये मदिर तो नहीं था?" बोले वो,
"था तो?" बोला वो,
"और वो?" बोले वो,
"वो आगे है!" बताया उसने,
"ओहो! बोले वो,
"नया बना लिया है!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी फिर से आगे बढ़ी! रास्ता ठीक था नहीं, पिछले दिनों ही बरसात ने और उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया था, बेचारे रास्ते पर जगह जगह सूजन चढ़ गयी थी! कहीं गड्ढा तो कहीं मिट्टी इकट्ठी हो चली थी!
"क्या नाम बताया था?" पूछा उन्होंने,
"राखा!" बोला वो,
"अरे नहीं!" बोले वो,
"यही तो?" बोला वो,
"अरे उस चौकीदार का?" पूछा उन्होंने,
"सुलेमान!" बोला वो,
"हां, सुलेमान!" बोले वो,
"लेकिन चौकी तो यहां पुलिस की है?" बोला मुकेश,
"हां, है तो!" बोले वो,
"मानो न मानो वो हवा ही थी!" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"लेकिन था तो भला आदमी!" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा उन्होंने,
"पता नहीं क्या क्या बता रहा था!" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
तभी वो मंदिर आगे दिखाई पड़ा!
"आ लिए!" बोला मुकेश,
"अंदर चल सकते हैं क्या?" पूछा उन्होंने,
"कीच न हो?" बोला वो,
"देखूं?" बोले वो,
"मैं देखता हूं!" बोला मुकेश,
और गाड़ी रोल न्यूट्रल लगा, उतर गया नीचे, एक जगह खड़ा हुआ, रास्ता दिखा, पथरीला सा था, जीप जा सकती थी वहां से! सो लौट आया!
"है क्या?" पूछा उन्होंने,
"हां!" बोला वो,
''चल फिर!" बोले वो,
अब गाड़ी काट ली उधर, गाड़ी ने हिचकोले खाये, धुआं उड़ा एकदम काला साइलेंसर से, दम लगाया था गाड़ी ने, और चलने लगे आगे, मंदिर उनके बाएं था, आसपास कुछ नहीं था, भूड़ ही भूड़ थी, दूर कहीं आम के पेड़ दीखते थे, खेत भी नहीं थे यहां, एक जगह कुछ पानी इकठ्ठा हो गया था, बगुले बैठे थे उधर!
"वहां कहां से?" बोले वो,
''देखता हूं!" बोला वो,
दो तीन जगह गाड़ी काटने के लिए जगह देखी, नहीं दिखी, तो एक पास की जगह ही रोक ली, और इंजन बंद कर दिया तब!
"आओ जी!" बोला मुकेश,
"आता हूं!" बोले वो,
और उतर आये दोनों, उतारते ही रामपाल जी ने अपनी पैंट सरकायी ऊपर, जूते को खड़काया और बालों में हाथ फेरा!
"रात वहां से आये थे?" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
''चल देखें!" बोले वो,
"चलो!" बोला वो,
वे दोनों चल दिए उधर की तरफ, और एक जगह एक पेड़ के पास, नज़र गयी उस मुकेश की!
"चाचा?" बोला वो,
''हां?" कहा उन्होंने,
"वो देखना?" बोला वो,
"क्या है?" बोले वो,
"देखो, उधर!" बोला वो,
"आ?" बोले वो,
वे दोनों लपक कर उधर गए! देखा उन्होंने, ये एक पेड़ था, मेहंदी का, उस पेड़ पर कुछ लटका था, यही देखने आये थे!
"ये तो झोला है तेरा?" बोले वो,
"हां, फूट वाला!" बोला वो,
"फूट ख़त्म!" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"इसका मतलब यहां थे वो!" बोले वो,
"सच बोलता था!" कहा मुकेश ने,
"हां, सच!" बोले वो,
"क्या करूं?" बोला वो,
"क्या?" बोले वो,
"झोला ले लूं?" बोला वो,
"ले ले!" बोले धीरे से,
मुकेश ने पेड़ से झोला ले लिया और रख लिया मोड़-माड़ के हाथ में! 
"आ!" बोले वो,
"चलो!" बोला वो,
और वे उस मंदिर की तरफ बढ़े फिर, बीच बीच में चूना सा पड़ा था, अक्सर खेतों में ये रेह सी हो जाती है, बंजर ज़मीन में, जहां नमक अधिक होता है, जम कर, चूने सी लगने लगती है!
"बंजर ही है!" बोले वो,
''हां, बरसों से!" बोला वो,
"हमारे ज़माने से!" बोले वो,
''सही कहो!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चाचा?" बोला मुकेश,
"बोल?" बोले वो,
"मंदिर आ लिया!" बोला वो,
"आ फिर!" बोले वो,
"वो कह रहा था कि दुल्हन है कोई साथ?" बोला वो,
"हां, और उसकी कोई सहेली भी!" बोले वो,
"हां, यहीं, इन्हीं पेड़ों के पीछे!" बोला वो,
"अरे ठहर?" बोले वो,
"हां?" बोला वो,
"याद है कल हमने यहां कटे-फ़टे लोग देखे थे?" बोले वो,
"हां, याद है!" बोला वो,
"अब कोई नहीं है!" बोले वो,
"हां, ये सारी लीला ही थी!" बोला वो,
"इसका मतलब जानता है?" बोले वो,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"वो कुछ बताना चाहता है!" बोले वो,
"रात बता तो रहा था?'' बोले वो,
"नहीं बावले!" बोले वो,
"फिर चाचा?" बोला वो,
"वो चाहता है कि दुल्हन की मुसीबत खत्म हो!" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
"इसका मतलब?" बोले वो,
"क्या?" पूछा उसने,
"मतलब ये सारी कहानी ही उस दुल्हन के बारे में है!" बोले वो,
"अब ये तो है ही?" बोला वो,
"लेकिन हमने तो देखी नहीं दुल्हन?" बोले वो,
"कल तो हम भाग न लिए थे?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"क्या करते?" बोला वो,
"वैसे देखना चाहिए था!" बोले वो,
"अब न तो किसी का नाम ही सुना, न ही किसी को देखा, कौन सी चौकी और कौन सा वो चौकीदार सुलेमान?" बोला वो,
"और एक गांव का नाम बताया था न उसने?'' बोले वो,
"नाम? गांव का?" बोला वो, सोचते हुए,
"तभी तो पेपर पास नहीं कर पाता!" बोले वो,
"नाम कौन सा?'' बोला झेंपते हुए,
"हां, गौना!" बोला वो,
"अच्छा! हां!" कहा उसने,
"उसने बताया था कि किसी भोजा? हां! भोजा की लुगाई ने मुखबरी की थी, ये भोजा उसी गांव का है!" बोले वो,
"हां, अब याद आया!" बोला वो,
"ये गौना गांव...?" बोले वो,
''है तो, ये तो सुना है!" बोला वो,
"है न?" बोले वो,
"हां, है!" बोला वो,
"चल ज़रा!" बोले वो,
"कहां?" पूछा उसने,
"गौना?" बोले वो,
''वहां कौन मिले?" बोला वो,
"अरे खाली खोपड़ी!" बोले वो,
मुकेश मुस्कुरा पड़ा! चाचा ने उसे सर पर हाथ मारते हुए कहा था!
"सुन? किसी ने ये नाम तो सुना होगा? कोई तो जानता होगा?" बोले वो,
"जानता तो होगा?'' बोला वो,
"क्या पता मिल ही जाए?'' बोले वो,
"उस से फायदा?" बोला वो,
"पहले चल तू!" बोले वो,
"चलो!" बोला वो,
और दोनों फिर, उलटे पांव लौट लिए! आ गए अपनी गाड़ी तक, गाड़ी में बैठे, स्टार्ट की, गाड़ी ने दिक्कत की स्टार्ट होने में!
"बेटे, तेरे हाथ में कुछ भी दे दो, यही होता है!" बोले वो,
"अब मेरी क्या गलती?" बोला वो,
"ब्याह बाद, जाने बीवी का क्या करेगा!" बोले वो,
"है चाचा!" बोला वो,
"उसे तो ढंग से रखेगा?" बोले वो,
"है!!" बोला वो,
"और हां, माँ से ढंग से बोला कर, समझा? बड़ी हैं, हमारे कान भी उमेठ दें!" बोले वो,
"हां चाचा! लेकिन दो दो बार बताना पड़े है माँ को!" बोला वो,
और गाड़ी स्टार्ट हो गयी! चल दी आगे, आगे से घुमा ली वापिस, और आ गए रास्ते पर, फिर बाहर जाने वाली बड़ी सड़क की तरफ चल पड़े!
"चाहे सौ बार क्यों न बताना पड़े?" बोले वो,
''ठीक!" बोला वो,
"नौ महीने पेट में दबाये रखी तुझे! समझा?'' बोले वो,
"समझ गया!" बोला वो,
"कुछ नहीं समझा! बीटा जब तक अपनी औलाद न हो जाए तब तक पता ही नहीं चलता! काले मूढ़ वाली सारा भाव बता दे फिर! कि कै सेर लकड़ी, कै सेर नून!" बोले वो,
और गाड़ी मुख्य सड़क पर आ गयी और तब, मुकेश ने दौड़ा दी गाड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अरे हां?" बोले रामपाल,
"क्या?" बोला वो,
"उसने कहा था खिवैय्ये लौट आये?" बोले वो,
"हां, लेकिन ये होता क्या है?" बोला वो,
"तू नहीं जानता?" बोले वो,
"न?" बोला वो,
''सुना भी नहीं?" बोले वो,
"न!" बोला वो,
"अक़्ल कहां हैं तेरी?" बोले वो,
"बताओ चाचा?" बोला वो,
"मैं तो बता दूंगा! ये बता तू हिंदुस्तान में रहवे है के अमरीका में?" बोले वो,
"यहीं, देश में, गांव में!" बोला वो,
"खिवैय्ये मायने, नाव खेने वाले!" बोले वो,
"हैं?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"अब यहां कहां से आये वे?" बोला वो,
"जाने कहां से आये?" बोले वो,
"नाव तो नदी में चले हैं!" बोला मुकेश,
"अरे हां!" बोले वो,
''क्या?" बोला वो,
"नदी, यमुना!" बोले वो,
''अच्छा! लेकिन खिवैय्ये कहां हैं वहां?" बोला वो,
"हां, ये बात तो है!" बोले वो,
"तब कौन से खिवैय्ये?' बोला वो,
"चल, ये भी देखेंगे!" बोले वो,
दोनों ही चुप हुए, एक छोटा सा क़स्बा आया, उस कस्बे के बीच में, एक जगह रुक गए वे दोनों, ये एक मेकेनिक की दुकान थी, सोचा गाड़ी ही ठीक करवा लें, कहीं फिर से धोखा न दे जाए! तो बात की और करीब घंटे भर में, कसा-कसी के बाद, गाड़ी ठीक हो गयी, शायद बैटरी में दिक्कत थी या कुछ और! वे फिर से आगे चल पड़े!
"अरे रोक?" बोले वो,
"बोलो?" बोला मुकेश,
"वो उधर से, भुट्टा ले आ!" बोले वो,
"अभी लाया!" बोला वो,
"और बोल देना, भुट्टे पर रगड़ के ताज़ा नीम्बू लगाए, कहीं छिलका ही न रगड़ दे!" बोले वो,
"ठीक है!" बोला वो,
और चल दिया, एक जगह, एक बूढ़ा आदमी भुट्टे भून रहा था, उसकी मदद शायद उसकी पोती कर रही थी, मुकेश ने बात की और दो भुट्टे छील दिए, दे दिए, बता दिया निम्बू के बारे में! एक टूटी सी छतरी थी, चार या पांच जगह पैबंद लगे थे सूती, सबसे ऊपर एक पन्नी बंधी थी, हैंडल पर, जंग लगी थी, बूढ़े बाबा की बूढ़ी थी छतरी भी! बाबा के हाथों की फूली हुई नसों ने बता दिया था कि कितना खून उन्होंने दौड़ाया था बरसों से उन हाथों में! हाथों में ठीकरे पड़े थे, मेहनती हाथ था, क्या नसीब था बाबा का भी, ज़िंदगी भर मेहनत और अब बुढ़ापे में भी मेहनत, अब भले ही बैठा रहना पड़ता हो, लेकिन बुढ़ापे में बैठना भी किसी मेहनत से कम तो नहीं!
तो जी, दो भुट्टे ले लिए और चल दिया वापिस, एक भुट्टा दिया चाचा को और एक खुद ने ले लिया, आ बैठा अंदर!
"अच्छा लाया!" बोले वो,
"छीले मैंने ही थे!" बोला वो,
"बड़ी मेहनत की!" बोले वो,
हंस पड़ा मुकेश! चाचा-भतीजे में बड़ा ही प्यार था, वे दोनों बाप-बेटे भी थे और दोस्त भी, इसीलिए ज़्यादा बनती थी दोनों की!
"गौना पता है तुझे?" बोले वो,
"चौराहे से पता चल जाएगा!" बोला वो,
''हां, ठीक!" बोले वो,
तो इस तरह भुट्टे का आनंद लिया गया, हाथ पोंछे, मुंह साफ़ किया गाड़ी आगे चली तो बजरंग बली जी का मंदिर आया एक छोटा सा, हाथ जोड़े, सर पर हाथ फेरा अपने और चल दिए वहां से!
चौराहे पहुंचे, वहां से पता किया और चल पड़े! अब तक मौसम करवट ले चुका था, मरी सी धूप के अब प्राण बस निकलने को ही थे, काली-अंधियारी कब घिर आये, पता नहीं था!
"अबे?" बोले वो,
"क्या?" बोला वो,
''मौसम खराब हो गया!" बोले वो,
"बताओ फिर?'' बोला वो,
"वापिस लूं?" बोला वो,
"पागल है?'' बोले वो,
"न जी, पागल तो ना हूं!" बोला वो,
"अभी तेज ना है मेह, चलता जा जहां तक चले, फिर रुक जाएंगे ज़्यादा बढ़ी तो!" बोले वो,
"ठीक है चाचा!" बोला वो,
तो मुकेश ने गाड़ी दबा ली थोड़ा तेज! तभी अचानक एक पेड़ के नीचे उन्हें कोई दिखाई दिया, गाड़ी तेजी से निकल गयी वहां से, रामपाल ने पीछे मुड़कर  देखा, और देखते रहे!
'रुक! रुक!" बोले वो,
मुकेश ने धीरे से गाड़ी रोक दी! और खुद भी पीछे देखने लगा!
"क्या हुआ चाचा?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या देखा?" बोला वो,
"एक मिनट?" बोले वो,
"मोडूं?" पूछा उसने,
"हां, चल ज़रा?" बोले वो,
अब मुकेश ने गाड़ी मोड़ ली और धीरे धीरे चलने लगा! वो भी लगातार वहीँ देखे जा रहा था!
"क्या देख लिया?" बोला वो,
"तुझे याद है? गाड़ी रोक?" बोले वो,
"क्या याद?" बोला वो और गाड़ी उस पेड़ से थोड़ा पहले रोक दी,
"कल किसी को छोड़ा था गाड़ी से, दो बालक थे, एक औरत और एक मर्द?" बोले वो,
"हां, याद है!" बोला वो,
"मैंने वही देखे!" बोले वो,
"तो इसमें क्या नयी बात?" बोला वो,
"है न बात!" बोले वो,
"भला क्या?" पूछा उसने,
"वही कपड़े थे उसके, रात वाले, लगता है जैसे रात भर यहां से वहां भटकता फिरा है अपने परिवार संग!" बोले वो,
"ये तो कोई बात नहीं हुई चाचा, आदमी गरीब था, जा रहा था, सवारी मिल नहीं रही थी, हमको मिला, छोड़ दिया, बताया था उसने कि कुछ ज़रूरतें होती हैं पूरी करने को! तो कौन सी नयी बात जो वो ही कपड़े?" बोला मुकेश,
"कोई नयी बात नहीं! लेकिन अब वो वहां नहीं है!" बोले वो,
"चला गया होगा?" बोला वो,
"कोई बस या सवारी नहीं रुकी!" बोले वो,
"तो रास्ते पर चला गया होगा?" बोला वो,
"ये देख, रास्ता सामने है! पीछे नहीं!" बोले वो,
"क्या मतलब?" बोला वो,
"ये कि, कोई सवारी रूकती या फिर सड़क पार करके सामने जाता, तो मैं लगातार देख रहा था उसे, वो कहीं नहीं गया उधर से, और वो अब वहां भी नहीं है!" बोले वो,
"तो क्या वो भी प्रेत थे? प्रेत घूम रहे हैं यहां?" बोला मुकेश,
"आगे चल!" बोले वो,
"अच्छा!" बोला वो,
और गाड़ी आगे ले गए, उस पेड़ के पास जा रुके, पेड़ के पास एक नाई बैठा था, पन्नी की तिरपाल सी बना रखी थी उसने, रस्सी बंट रहा था, अकेला ही था और कोई नहीं!
"ओ भाई?" बोले रामपाल,
उस नाई ने, गर्दन आगे करते हुए, देखा उन्हें,
"हां जी?" बोला वो,
"एक बात बताओ?" बोले वो,
गाड़ी में से बैठे बैठे ही बातें कर रहे थे रामपाल!
"हां जी?" बोला नाई,
"अभी यहां एक आदमी खड़ा था, उसके संग दो बालक और उसकी बीवी थी, कहां गए वो?" बोले रामपाल,
नयी बड़ा ही भौंचक्का सा रहा गया ये सुनकर! रस्सी एक तरफ रख दी, और तिरपाल से बाहर आया, एक बार आसमान को देखा और फिर रामपाल के सामने चला आया!
"क्या कह रहे थे जी?" बोला वो,
रामपाल ने सब दोहरा दिया!
वो नाई थोड़ा सा उहापोह में पड़ा!
"मैं यहां घंटे भर से तो हूं, यहां कोई भी ऐसा तो न आया ही, और न ही गया कोई! अब तो मौसम भी खराब है, कोई आये तो मौसम खुलने के बाद ही, बोहनी-बट्टा भी तभी होगा जी!" बोला वो नाई,
अब ये सुन, वे शशोपंज में पड़े!
"कोई नहीं आया?" बोले वो,
"नहीं जी! सड़क साफ़ दीखती है यहां से, दो बजे बस आती है, आज आयी नहीं, उधर गांव से दूध की गाड़ियां भी शाम तक आएंगी!" बोला वो,
"कोई ट्रक ही रुका हो?" बोले वो,
"नहीं जी, कोई नहीं रुका!" बोला वो,
"कमाल है!" बोले वो,
"आपको कोई मुग़ालता हो गया है जी!" बोला वो,
"चलो भाई! ठीक है!" बोले वो,
"अच्छा जी, राम राम!" बोला नाई, और लौट गया तिरपाल के भीतर ही!
"चलूं?" बोला मुकेश,
''और क्या?" बोले वो,
गाड़ी मोड़ी फिर, और फिर से गौना की तरफ चल दिए!
"मुग़ालता ही हुआ होगा!" बोला मुकेश,
''अरे ना यार!" बोले वो,
"तो कहां गया वो?" बोला मुकेश,
"पता नहीं!" बोले वो,
गाड़ी अब फिर से दौड़ पड़ी, उसी रास्ते पर, मौसम भी अभी खुला नहीं था, कब बरस जाए, कुछ पता नहीं!
"रात से दिमाग की बत्ती जल-बुझ रही है!" बोले रामपाल,
"पता ही नहीं!" बोला मुकेश,
"ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, हम बालक से बूढ़े होने को आये!" बोले वो,
"किसी और कोई भी मिले या नहीं, पता नहीं!" बोला वो,
''अब कैसे पता करें?" बोले वो,
"गांव चल रहे हैं, क्या नाम है? भोजा! हां, पता चला जाए उसका!" बोला वो,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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तो अब गाड़ी भाग ली गांव गौना की तरफ! रास्ता ठीक-ठाक ही था, अंधियारी बनी तो हुई थी लेकिन अभी बारिश तेज न थी, हल्की सी कभी-कभार ही पड़ती थी! इस बारिश से कोई प्रभाव पड़ने वाला नहीं था, यातायात आराम से चल ही रहा था, बीच बीच में चारा ले जाने वाली बुग्घियां मिल जाती थीं, तो यातायात थोड़ा धीमे हो जाता था, या कहीं कहीं कोई ट्रक्टर, जो चारा या भूसा ले जा रहा होता, सामने की पूरी सड़क ही घेर लेता था, तभी रास्ता मिलता और वे आगे बढ़ते!
और फिर गौना जाने वाला एक रास्ता दिखा, उस रास्ते के बाहर कुछ दुकानें बनी थीं, यहां रोक ली गाड़ी और तब गाड़ी एक तरफ, जा लगाई!
"चाय पियेगा?" बोले वो,
"पी लूंगा!" बोला वो,
"बोल दे फिर!" बोले वो,
"अभी बोलता हूं!" बोला वो,
''और सुन?" बोले वो,
''हां?" बोला वो झुकते हुए,
"वो क्या रखा है, ब्रेड-पकौड़ा? पूछ लियो, पकौड़ी हैं क्या? हों तो दो सौ ग्राम ले लियो! भूख सी लग आयी!" बोले वो,
"ठीक है! और कुछ?" बोला वो,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
चला गया था मुकेश, और इधर, रामपाल को लघु-शंका सी लगी,निवारण हेतु वो भी एक तरफ चले गए! एक सुनसान सी जगह जा पहुंचे और निपटारा किया! लौटने से पहले कुछ सुनाई दिया उन्हें, वे रुक गए! पीछे देखा! पीछे देखा तो कुछ समझ ही नहीं आया! लगा पीछे लगे पॉपुलर पेड़ों के बीच से कहीं घोड़े से दौड़ते जा रहे हैं! वे आगे चले, झुक कर देखा, तो कोई नहीं! कुछ देर तक देखने के बाद वापिस हुए, और जब पहुंचे तो फिर से जैसे, गुजरे हुए घोड़े वापिस आ रहे हों! उनकी टाप साफ़ सुनाई दे रही थीं! वे रुक गए, फिर से देखा! था तो कोई नहीं, लेकिन जहां से वो आवाज़ आयी थी, वहां के छोटे पेड़ ज़रूर हिल गए थे! कुछ टहनियां और पत्ते टूट कर गिर गए थे!
कुछ समझ नहीं आया तो वहम सा लगा, कल के बाद से बड़ी अजीब सी चीज़ें होने लगी थीं! जो था वो दिख नहीं रहा था, जो नहीं था वो दीख रहा था! वे लौट आये इसी उहापोह में! आये गाड़ी तक पहुंचे तो एक नलका दिखा, नलके पर एक साधू सा आदमी खड़ा था, पानी चला कर अपने पांव धो रहा था, वो वहां तक गए और पानी ले, हाथ साफ़ किये और फिर कुल्ला कर लिया! वो साधू कोई भजन सा गुनगुना रहा था! उन्हें देख वो मुस्कुराया!
"आल्हा-उदल?" बोला साधू,
"आल्हा-उदल?" बोले वो,
"हां, सुना है?" बोला वो,
"हां, सुना है!" बोले वो,
"वो ही गा रहा हूं!" बोला साधू,
"गाओ बाबा!" बोला वो,
"ब्याह से लौटा हूं आज ही!" बोला साधू,
''अच्छा जी!" बोले वो,
"क्या गज़ब का स्वांग भरा!" बोला वो,
और अपनी चप्पलें उठा, साफ कर, पहन कर,कंधे पर अंगोछा रखते हुए, चला गया आगे!
"स्वांग?" बोले अपने आप से ही रामपाल!
तभी मुकेश ने आवाज़ दी, उन्होंने इशारा किया कि आता हूं!
"स्वांग? अब कौन भरता है स्वांग? इन्हें गए तो ज़माना हो गया!" बोले वो खुद से ही, और तुरंत सामने देखा! न साधू और न साधू जैसा ही कोई! खूब देखा, आसपास देखा, दाएं-बाएं देखा, पीछे देखा! कहीं कोई साधू नहीं!
"चाचा?'' बोला मुकेश,
"हां?" बोले वो,
''आ जाओ?" बोला वो,
''आता हूं!" कहा उन्होंने और लौटे!
अब गए वहां, बैठे, पकौड़ी ली, चटनी से लगाई, खायी और चाय की चुस्की भरी! और मुकेश को अभी तक जो हुआ, बता दिया!
"वो सफेद सी दाढ़ी वाला? गले में शंख सी माला पहन रखी थी?" बोला मुकेश,
"हां! तूने देखा?" बोले वो,
''चाय की दुकान पर था!" बोला वो,
"नहीं यार? नलके पर था!" बोले वो,
"चाचा? मानो!" बोला वो,
"अरे मुझे बताया कि गज़ब का स्वांग भरा, ब्याह से लौटा है आज ही?" बोले वो,
"हैं?" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"मुझे बोल रहा था कि गौना जाओगे?" बोला वो,
''फिर?" पूछा उन्होंने,
"मैंने बोला कि हां!" बोला वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"बोला दूसरे रास्ते से जाओ, ये तो खराब है!" बोला वो,
"अच्छा?" बोले वो,
"हां!" कहा उसने,
और एक आलू की पकौड़ी उठा ली!
"कहां गया फिर?" बोले वो,
"उधर!" बोला वो,
"उधर?" बोले वो,
चौंक गए थे! हड़बड़ा गए थे!
"हां? उधर!" बोला वो,
"कि इधर?'' बोले वो,
"चाचा, उधर, उधर की तरफ, पूरब की!" बोला वो,
"अरे न यार! इधर, इधर पछां की तरफ!" बोले वो,
''क्या कहते हो चाचा?" बोला मुकेश,
"झूठ नहीं बोल रहा!" कहा मैंने,
"मैंने कब कही?" बोला वो,
तभी एक......................................!!


   
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तभी एक जगह से गाजे-बाजे से सुनाई दिए! दोनों के सर घूमे और देखने लगे उधर ही! न जाने क्या था!
"तूने सुनी?" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
"क्या?" पूछा,
"गाजे-बाजे!" बोला वो,
"चल, आगे चल!" बोले वो,
अब गाड़ी स्टार्ट की और चल दिए, देखा उधर तो पीछे से बरात चढ़ रही थी किसी की, वो घोड़े की बग्घी में आ रहा था दूल्हा, आसपास उसके उसके यार-दोस्त नाच-गाना आदि के आनंद में डूबे थे!
"मैंने तो सोची....!" बोले वो,
"कि कहीं ये भी कोई भूतिया आवाज़ तो नहीं! क्यों चाचा!" बोला वो,
"हां यार!" बोले वो,
"अब चलें?" बोला वो,
"हां, चल!" बोले वो,
अब गाड़ी चल पड़ी और वे भी एक संकरा सा रास्ता था लेकिन था पक्का ही, कहीं कहीं गड्ढे तो थे, लेकिन गाड़ी भी मज़बूत ही थी उनकी!
"आसपास तो पानी सा भरा है!" बोले वो,
"सही से बरसा है इधर!" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"वो गांव है कोई" बोले दायीं तरफ इशारा करते हुए,
"हां!" कहा उसने,
"अभी भी तरक्की रास्ते तक ही सीमित है!" बोले वो,
"ये भी हो गया बहुत है!" बोला वो,
"हां, सही कहा!" बोले वो,
तभी सामने से एक ट्रक गुजरा, गाड़ी धीरे हुई तो मुकेश ने ड्राइवर को रोका, और पूछ उस से उस गांव गौना का रास्ता!
"रास्ता खराब है!" बोला ड्राइवर,
"जीप न निकलेगी?" बोला वो,
"निकल जायेगी!" बोला वो,
"कोई और रास्ता?" बोला वो,
"आगे से बाएं हो जाना, एक नहर है, पुल पार कर लेना, फिर सीधे हाथ पर घूमेगी, यहीं आ जाओगे!" बोला वो,
"भला हो भाई!" बोले वो,
और दोनों अपने अपने रास्ते हो लिए! करीब बीस मिनट चले और तब उन्हें एक नहर डीकगायी थी, वे बाएं हुए, पुल मिला, पुल पार किया और फिर सीधे, और फिर दाएं, यही रास्ता आ जुड़ा, कम से कम तीन किलोमीटर बच गए!
"अब यहां से दो हो गए रास्ते!" बोला मुकेश,
"थम जा!" बोले वो,
और इंतज़ार करने लगे, तभी एक साइकिल वाला गुजरा उस से पूछा तो सीधे, बाएं जाने को कहा, उन्होंने अब बायां रास्ता पकड़ा और चल दिए!
गाड़ी एक जगह रोकी, और एक आदमी दिखा, बकरियां चरा रहा था, उसी से पूछ ली,
"गौना?" बोला वो,
''सामने न दीख रहा?" बोला वो,
"गौना है?" बोला वो,
"और?" बोला वो,
"ठीक है!" बोला मुकेश,
"गुस्से में है!" बोले वो,
''बीवी ने भगा दिया होगा घर से!" बोला मुकेश,
दोनों ही हंस पड़े! और इस तरह वे गांव आ गए, अब यहां उन्हें एक बड़ी सड़क दिखाई दी, ये शायद शहर की तरफ जाती होगी, सोच!
तो जी दिखाई दी एक दुकान, दुकान पर रुके, मौसम खुल सा गया था, अब बारिश नहीं थी!
"दो ठंडे ले आ!" बोले वो,
'लाया!" बोला वो,
"और सुन?" बोले वो,
"हां?" बोला वो,
"पूछ लियो!" बोले वो,
"भोजा?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"अच्छा!" कहा उसने,
और चला गया दुकान, दुकान पर, मालिक, बीड़ी फूंक रहा था, बाहर एक बेंच बिछा था, बेंच की अब उम्र पूरी हो चुकी थी और अब दीमक भी उसने छोड़ चली हों, ऐसा लगता था! तो दो पेप्सी ले लीं, और पूछने लगा भोजा के बारे में!
"कहां से आये हो?" बोला दुकानदार,
"यहीं से हैं!" बोला वो,
"बैठो!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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''वो गाड़ी में बाबू जी बैठे हैं!" बोला वो,
"अरे! तो बुला लो उन्हें भी, लो! कुर्सी देता हूं!" बोला वो,
और अंदर से ही, एक कुर्सी पकड़ा दी, कुर्सी बिछा दी मुकेश ने उधर ही! कुर्सी पर ही दोनों पेप्सी रखीं और चला बुलाने उनको, बात हुई और वे उतर आये!
"राम राम बाबू जी!" बोला दुकानदार,
"राम राम जी!" बोले वो,
"बैठो जी!" बोला वो,
"जी धन्यवाद!" बोले वो,
और बैठ गए, मुकेश ने एक पेप्सी उन्हें पकड़ा दी, उन्होंने ले ली, रुमाल निकाला, और उस बोतल का मुंह साफ़ किया!
"हां जी, क्या बूझ रहे थे?" बोला वो,
"भोजा! कोई है या था इस गांव में?" बोले वो,
"भोजा?" बोला वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"मेरी सुरत में तो....कोई न है?" बोला वो,
"देखो, कोई रहता हो, अब न हो, या चला गया हो या गुज़र गया हो?" बोले वो,
"मैं बुलाऊं बाबा को, हो सकता है बता दें?" बोला वो,
''उन्हें तो मालूम ही होगी?" बोले वो,
"कोई होगा, या रहा होगा, तो बता सकें!" बोला वो,
वो दुकानदार अंदर गया, और एक बड़े ही बुज़ुर्ग को ले आया, उन्हें बिठाया, राम राम हुई, बुज़ुर्ग की उम्र नब्बे से कम तो खैर, क्या ही रही होगी!
अब दुकानदार ने सवाल पूछा, बाबा ने खोपड़ी की टोपी सही की, और ध्यान सा लगाने लगे!
"भोजा?" बोले बुज़ुर्ग, अपने पोपले से मुंह से,
"हां!" बोला दुकानदार!
"भोजा तो कोई न रहा?" बोले वो,
"याद करो, कभी बहुत पहले?" बोले वो,
याद करी, और सोच कुछ, फिर मूंछों पर हाथ फेरा, थूक गटका ज़बरदस्ती से जैसे बाबा ने!
"हां, था!" बोले वो,
अब तो वे दोनों ही चौंके!
"कौन था?" बोले वो,
जल्दी से गटक कर बोतल खतम कर दी, रख दी कुर्सी के पास ही!
"बहुत पुरानी बात है जी!" बोले बाबा,
अब उनके शब्द उलझ जाते थे दुकानदार आदि था तो वो ही बता रहा था, वो न होता तो कुछ समझ ही न आता!
"था, ठठेरा था!" बोले वो,
"ठठेरा?" बोले वो,
"हां जी, कुछ नशे का काम भी करता था!" बोले बाबा,
बांछें खिल उठीं उनकी तो!
"इसी गांव का था?" बोले वो,
"हां, मैं कोई चौदह-पंद्रह बरस का रहा होऊंगा! या कुछ कम!" बोले वो,
"गांव में अब कोई है उसके परिवार का?" पूछा उन्होंने,
"ना जी!" बोले वो,
"चले गए?'' बोले वो,
''कोई औलाद न थी, पता नहीं क्या हुआ था, उसकी औरत ही बची, उसका पता नहीं क्या हुआ फिर, मुझे याद नहीं!" बोले वो,
"अच्छा?" बोले वो,
"हां जी!" बोलवे वो,
"गांव में कहां था घर?" पूछा उन्होंने,
"बाहर की तरफ!" कहा उन्होंने,
"कितने घर होंगे उस समय?" पूछा उन्होंने,
"ज़्यादा नहीं?" बोले वो,
"और कोई राखा?" बोले वो,
''राखा?'' बोले बाबा,
"हां!" बोले वो,
"नहीं पता जी!" बोले वो,
"कोई सल्ल्न?" पूछा उन्होंने,
"सल्लन?" बोले बाबा,
"हां!" कहा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"तो ये आज़ादी से पहले की बात होगी?" बोले वो,
"हां जी!" बोले वो,
"तब तो माहौल अलग ही होगा?" बोले वो,
"हां जी!" बोले वो,
"तब क्या डकैती भी पड़ती थी?" बोले वो,
"खूब!" बोले बाबा,
"कोई मशहूर डकैत था?" पूछा उन्होंने,
"कई थे!" बोले वो,
"कोई एक याद है?" बोले वो,
"बिरसा, धबिया, मंगू और एक था राजस्थानी!" बोले बाबा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"राजस्थानी?" पूछा हैरत से उन्होंने,
"हां! राजस्थानी!" बोले बाबा,
"क्या नाम था? याद है?" पूछा उन्होंने,
"अस्सी साल हो गए!" बोले बाबा,
"जानता हूं बाबा!" बोले वो,
"नाम नहीं याद!" बोले वो,
"याद करो बाबा?" बोले वो,
"वो दो भाई थे!" बोले वो,
''दो भाई?" बोले वो,
"क्या नाम था उनका?" बोले वो,
"एक नाम जन बाणा था, बाणा? हां! बाणा!" बोले वो,
"और दूसरा कहीं काणा तो नहीं?" बोले वो,
बाबा चौंक पड़े, बूढ़ी आंखें फ़ैल गयीं अचानक ही!
"हां! काणा ही था! बाणा और काणा!" बोले वो,
"दोनों ही डकैत?" बोले वो,
"हां, बाणा बड़ा था!" बोले वो,
''और काणा छोटा!" बोले वो,
"हां जी! लेकिन तुम्हें कैसे पता?" पूछा उन्होंने,
"बताया था किसी ने, आप जैसे ने!" बोले वो,
''अच्छा!" बोले वो,
"बाबा! बहुत मदद की! बहुत ज़्यादा!" बोले वो,
"जो याद था बता दिया!" बोले वो,
"मुकेश, पैसे दो?" बोला मुकेश,
"कैसे पैसे बाबू जी!" बोला दुकानदार!
"अरे ना!" बोले वो,
"रोज रोज थोड़े ही आते हो?" बोला वो,
"नहीं जी, दुकान है!" बोले वो,
"और कमा लेंगे!" बोला वो,
"नहीं!" बोले वो,
और ज़बरन पैसे चुका दिए! निकल पड़े वहां से, दोनों ही हैरत में पड़े! अचरज से भरे!
"चाचा?" बोला मुकेश,
"हम्म?" बोले वो,
"अब?" बोला वो,
"अब क्या?" पूछा उन्होंने,
"अब क्या करोगे?" पूछा उसने,
"पता नहीं?" बोले वो,
"गांव पता करना था, कर लिया, काणा के बारे में पता चल गया, भोजा का भी पता चल गया! अब?" बोला वो,
"यही सोच रहा हूं!" बोले वो,
"अब इसमें जितना डूबोगे, उतना ही अलग हो जाओगे!" बोला वो,
"क्या करें?" पूछा उन्होंने,
"चाचा, जो हुआ सो हुआ!" बोला वो,
"लेकिन.....?" बोले वो,
"राखा?" बोला वो,
"दुल्हन?" बोले वो,
"अब तक कुछ हुआ?'' बोला वो,
"क्या पता अब हो?" बोले वो,
"हमारे से?" बोला वो,
"हां?" बोले वो,
"कहीं कोई ऊंच-नीच हुई तो?" बोला वो,
"कैसी?" पूछा उन्होंने,
"कोई बात बन गयी तो?" बोला वो,
''क्या बात?" बोले वो,
"चलो राखा अच्छा है, कोई दूसरा आया तो?" बोला वो,
"मतलब?" बोले वो,
''कोई दूसरा आ जाए और लपेट दे हमें?" बोला वो,
"बात तो सही है!" बोले वो,
"छोड़ो अब!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा उन्होंने,
"इस मामले को?" बोला वो,
"कैसे छोड़ दूं?" बोले वो,
"बताऊं?" बोला वो,
"हां?" बोले वो,
"अभी पड़ेगा ठेका! लो बीयर या माल!" बोला वो,
"चल बे!" बोले वो,
''क्यों?" पूछा उसने,
"दिमाग नहीं खराब!" बोले वो,
"इस से ज़्यादा क्या होगा?'' बोला वो,
"तू चलता चल बस!" बोले वो,
"वापिस?" बोला वो,
कोई जवाब नहीं दिया उन्होंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो वे दोनों जा पहुंचे घर! लेकिन रामपाल का जी न लगे! अब तक जो हुआ था, वो सब अजीब ही था, कोई यक़ीन ही नहीं करता उनकी बातों का तो ज़्यादा तूल ही नहीं दिया और बात अपने तक ही सीमित रखी! अब अगर वो बता देते तो कोई न कोई खुराफाती, टेढ़े दिमाग का, जा पहुंचता वहां, कोई न मिलता तो हंसी-मखौल उड़ाया जाता! वजह कई थीं सो बताया ही नहीं!
अगली सुबह की बात है, कि गांव में कुछ उड़ी उड़ी सी खबर मिली! खबर ये, कि गत रात्रि को दो लड़कों की किसी लठैत ने देह भांज दी थी! अब दोनों ही अस्पताल में थे! देह की कोई हड्डी ऐसी नहीं थी जो हाथ न जोड़ रही हो! अब रामपाल जी को थोड़ी चिंता हुई, मुकेश को कह बुला लिया, मुकेश आ गया, खबर निकालने को कहा गया, मुकेश ने कहा कि पूछेगा कि आखिर हुआ क्या था? कौन लठैत था वो और कहां मिला था?
और जो निकल कर सामने आया कि ये हो न हो, वो ही लठैत था, राखा! जसिने उन दोनों लड़कों की देह भांज दी थी! हुआ कुछ यूं था कि.......
पिछली रात, करीब ग्यारह बजे...दोनों ही मुर्गा और दारु उड़ा कर गांव लौट रहे थे, मोटरसाइकिल पास थी! नशे की झोंक और पास में तमंचा हो तो फिर क्या! शेर भी आ जाए तो कुत्ता ही समझें उसे! ये दो लड़के, जिनका नाम उदय और प्रवेश था जब लौट रहे थे तो...
"प्रवेश?" बोला उदय,
"हां?" कहा उदय ने,
अब मोटरसाइकिल चला रहा था प्रवेश, पहलवानी का शौक़ था, तो टौर अलग ही थे, उदय जो था, उसके पिता की कपड़े की दुकान थी, वो वहीँ से अपने दोस्त प्रवेश के साथ, खा-पी कर चले थे!
"देखियो? कोई खड़ा है क्या उधर?'' बोला प्रवेश,
"पास चल ज़रा?" बोला वो,
और वे पास चले, सड़क के बीचोंबीच वही लठैत खड़ा था, उसने उन्हें देख कर भी दरकिनार कर दिया था! मतलब यही, कि वे बस अपने रास्ते निकल जाएं चुपचाप! लेकिन नहीं! मोटरसाइकिल ठीक उसके पास ही रोक दी!
"कैसे खड़े हो साहब?" बोला उदय,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
''बताओ?" बोला वो,
"बाट जोह रहा हूं!" बोला वो आदमी,
"किसकी?" पूछा उसने,
"किसी की!" बोला वो,
"अपनी लुगाई की? भग गयी क्या?'' बोले हंसते हुए दोनों ही!
उसने फिर भी कोई जवाब नहीं दिया!
"अरे बताओ? मदद कर देंगे!" बोला प्रवेश,
"कोई आने वाला है!" बोला वो आदमी,
"कौन?" बोला उदय,
"कोई!" कहा उस आदमी ने,
"नाम तो होगा?" बोला वो,
"है!" बोला वो,
"किस काम से?" बोला वो,
"वो, वो जो पेड़ है न? वहां दुल्हन है, संग उसके एक सहेली भी है, उनको ले जाने के लिए!" बोला वो,
अब दो है! वो भी लड़कियां! शराबियों की तो बुझी हुई जवानी भड़क गयी! रही इस लंगड़े की, तो इसे तो निबटा ही देंगे, आधा तो वैसे ही मरा हुआ है! दोनों के जी में आयी!
"तू क्या दलाल है उनका?" बोला उदय,
कुछ नहीं बोला वो,
''अरे चलाता है क्या उन्हें?" बोला प्रवेश,
"कितने लेता है?" बोला उदय,
"अरे बोल?" बोला प्रवेश,
अब तक दोनों ही उतर चुके थे मोटरसाइकिल से, और खड़ी कर दी थी!
"नहीं जवाब देगा?" बोला पहलवान,
"मार साले के भेजे में!" बोला उदय,
और निकाल लिया तमंचा तब प्रवेश ने, किया लोड!
"अब ले कर चल?" बोला उदय,
"दिखा? माल कैसा है?" बोला प्रवेश,
उस आदमी ने एक नज़र उस तमंचे पर डाली और एक नज़र उन दोनों पर, चेहरा कस गया उसका, तम्बाकू का थूक बाहर थूका और थोड़ा आगे आया!
"जहां जाते हो जाओ!" बोला वो,
"अच्छा?" बोला उदय,
"हां!" कहा उस आदमी ने,
"अबे ओ? माल दिखा? गिनती मत गिन?' बोला पहलवान!
वो आदमी अभी भी संयत खड़ा था!
"बड़ी मोटी चमड़ी है तेरी? कम सुनता है क्या?" बोला उदय,
अब बढ़ा पहलवान आगे और तमंचा किया आगे! उस आदमी ने, उस तमंचे को देखा और फिर पहलवान को, तभी पहलवान ने, एक हाथ से उस आदमी का गिरेबान पकड़ लिया और तब...


   
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