"नयना?" बोला मैं,
उसने देखा मुझे, फिर से गुहार सी, उन प्यारी, सुंदर आँखों में!
"समय आ गया नयना!" बोला मैं,
"मैं जानती हूँ!" बोली वो,
"आओ, खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,,
वो खड़ी हो गयी!
"नयना?" बोला मैं,
"हाँ, बोल?" बोली वो,
"कोई इच्छा शेष है?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई इच्छा नहीं!" बोली वो,
"कोई हो, तो बताओ, मैं पूर्ण करूंगा उसे!" कहा मैंने,
"करेगा?" पूछा उसने,
"हाँ, करूंगा!" बोला मैं,
"मेरा तर्पण करेगा?" पूछा उसने,
मैं मुस्कुराया!
"अवश्य नयना!" बोला मैं,
"मेरे बेटे!" बोली वो,
और लगा लिया फिर से सीने से उसने!
"चलो, अब और देर नहीं!" कहा मैंने,
अब ले आया उसे नदी तक,
नदी का जल लिया, अभिमंत्रण किया उसका, और उस स्थान को स्वच्छ किया! मैंने नमन किया! मैं उसे एक अलग ही क्रिया से मुक्त करना चाहता था, वही करने वाला था मैं!
"नयना, यहां आओ!" कहा मैंने,
वो आ गयी उस स्थान पर!
"शीतल! शीतलता!" बोली वो,
"बस नयना! भटकाव समाप्त! जाओ, पार जाओ अब!" कहा मैंने,
अब आरम्भ की क्रिया मैंने, मुझे करीब आधा घंटा लगा! उसके बाद, प्रकाश के कण फूटे! और मुस्कुराहट आई नयना के चेहरे पर!
"जाओ, आगे बढ़ जाओ!" कहा मैंने,
"मेरे पगले! मेरे बेटे! मैं नहीं भूलूंगी तझे! कभी नहीं!" बोली वो,
"मैं भी नहीं नयना!" कहा मैंने,
उसको असीम आनंद की अनुभूति हो रही थी, बस कुछ ही क्षणों में, उसको विलीन हो जाना था उन कणों में!
"जाओ नयना! पार जाओ!" कहा मैंने,
प्रकाश के कणों धीरे धीरे, मुझे देखती हुई वो, विलीन हो गयी उनमे!
और मैं, धम्म से गिरा ज़मीन पर!
खुल के रोया अब मैं!
उस अभागन की दशा पर, खुल के रोया मैं!
चली गयी नयना!
सदा सदा के लिए!
हे मेरे परमेश्वर, नयना को यहां तो न्याय नहीं मिला, विनती है मेरी, उसको न्याय अवश्य ही प्रदान करना! बस! बस!
तो मित्रगण!
नयना लग गयी पार!
सरिता आज सरकारी नौकरी पर है, घर में सब ठीक है!
इतना समय गुजर जाने पर भी, आज भी, मुझे उसके वो गुस्से वाले शब्द याद आते हैं!
पगले! चुप! आदि आदि!
खुश रहो नयना! जहां भी रहो आप! खुश रहो!
साधुवाद!
