वर्ष २०१४ पुष्कर, र...
 
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वर्ष २०१४ पुष्कर, राजस्थान, के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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कहते है, कि बिरहा में तड़पते हृदय की अगन, सिर्फ वही जाने जो बिरहा की अगन में सुलगा हो...वेदल, सुलग चुकी थी अब, अब सुलग नहीं रही थी, बल्कि सुलग चुकी थी, बस, राख न हुई थी अभी तक, राख होने में अभी देर थी शायद,
वो बैठी रही, ठुड्डी के नीचे, बारी बारी से अपने हाथ बदलते हुए, देखती रही सामने, नज़रें, वो तो पहले से ही पथरा गयी थीं, बस अब कुछ ठानने वाली थी वो.......ये स्थिति, नहीं होती किसी के भी हाथ में, इसके, मात्र हृदय का अश्व ही दौड़ता है, वो भी बेलग़ाम!
साँझ ढलने में, अभी थोड़ी ही देर थी, सूरज की तपन, न डिगा सकी थी उसे, बदन, ज़ोर के ताप से जलने लगा था, उसको लू की चपेट लग चुकी थी, भूखी, प्यासी, प्रतीक्षारत! देह में ज्वर बन चुका था, वेदल! ये क्या से क्या हो गया! काश चंदन रहा होता, काश, तो ये गाथा कुछ और ही होती!
वो हुई खड़ी! आज न रोई! अब कोई फायदा नहीं था रोने से! वो फिर कहा जाता है न, जब ग़म, हद से ज़्यादा बढ़ जाता है, तो होंठों पर मुस्कान आ जाती है! तो मुस्काई वो! हंसने लगी! झूम झूम के हंसने लगी! रास्ते को देखती, और हंसने लगती! बातें करती किसी से! उसका मस्तिष्क, उसे ज़िंदा रखने के लिए, हर तिकड़म लड़ा रहा था! वो अक्स दिखाता चंदन का उसे! वो जैसे भागती पकड़ने को उसे! और चंदन, जैसे खेल रहा था उस से, वो उस तक आती, तो दूसरी जगह पहुँच जाता वो अक्स! वो हँसे जाए! सारे पेड़, पौधे, और उस लूनी माँ के मंदिर में लगी वो एक छोटी सी मूर्ति, जैसे तिरछी निगाह से देखे उसे! वो हंसती, उस रास्ते को देखती! चली वहां से, रुकी उसी रास्ते के मुहाने पर, और अगले ही पल........आँखों से फिर पानी बह निकला, मस्तिष्क का तिकड़म, दिल के हाथों मज़बूर हो गया!
चल पड़ी, सुन्न सी! आंसू बहाये, अब साँझ ढलने लगी थी, हवा में गर्मी और बढ़ गयी थी, वो, लड़खड़ाते हुए पांवों से, बढ़ने लगी घर की ओर, कुछ और भी गाँव वाले मिलते, लेकिन वो न देखती किसी को, अब वो किसी को नहीं पहचानती थी, पहचानती थी, तो बस चंदन को, जो अब, था ही नहीं............काश कोई खबर ही कर देता उसे, सुकून तो मिल जाता अपने हश्र का उसे...............
वो रुकी, पल भर के लिए पीछे देखा, मुस्कुराई, और ठान लिया कुछ! ठान ही लिया! अब तेज क़दमों से, चल पड़ी घर! ज्वर था, लेकिन किसे चिंता! स्नान किया, और फिर अपने कमरे में जा श्रृंगार किया! संध्या बाद, माँ ने बहुत पुकारा, न सुनी एक भी, पिता ने पुकारा, न सुनी उनकी भी, अब तो, उसे उसके हाल पर छोड़ना ही उचित था!
उस संध्या बाद, भोजन न किया था उसने, न सुबह ही, न दोपहर को ही, और न अब, भूखी प्यासी बेचारी वेदल, कुछ ठान लिया था उसने! बस, अब उसी का इंतज़ार था उसे!
रात्रि का समय,
करीब ग्यारह बजे होंगे, या इसी के आसपास,
घुप्प अन्धकार था, सन्नाटा नाच रहा था बाहर!
सभी सो रहे थे, लेकिन वेदल, वो न सो रही थी, वो मुस्कुरा रही थी, पगली ने, फिर से कोई उम्मीद पाल ली थी दिल में! और यही उम्मीद अब उसे, ज़िंदा रखे थी!
बाहर श्वान भौंक रहे थे, रात्रि के प्रहरी थे वो,
निकले एक छोटी सी संदूकची, डाला उसमे, चंदन का लाया हुआ सामान!
एक पोटली कसी, भरे उसमे, चंदन के लाये हुए वस्त्र!
वो संतरी वस्त्र, जो बहुत प्रेम से लाया था चंदन उसके लिए,
अफ़सोस वो उसको पहने न देख सका, और वो उसको पहन दिखा न सकी.........कैसे घोर विडंबना....
बाहर झाँका, सब ओर, घुप्प अँधेरा,
जानती थी, एक आहट और सब खतम, जूतियां, हाथ में पकड़ लीं, धीरे से अपने कमरे की सांकल खोली, संदूकची बगल में, और पोटली सर पर!
चली धीरे से, धीरे धीरे, जहां मवेशी रखे थे वहां, वहाँ से जाना आसान था, रौशनी क्या, बस चाँद की चांदनी, चाँद की वो चांदनी, उस रात सच में बहुत रोई थी.........मुझे लगता है कुछ ऐसा ही...
पहुंची वहां, बाड़े से, बाहर जाने के लिए, एक बाड़ थी, एक कंटीली बाड़, उसने आहिस्ता से खोली वो बाड़, आ गयी बाहर, जूतियां आराम से पहन लीं उसने, और वो प्रेम-बावरी चल पड़ी! चल पड़ी, अनजान दुनिया में! वो दुनिया, जिस से उसका कोई साबका नहीं पड़ा था, शहर देखा नहीं था, कुछ उंच है और क्या नीच, कभी नहीं जाना था, क्या होता है, क्या नहीं होता, कुछ न जाना उसने! अरे! जानती भी कैसे, वो खुद से अनजान थी और दुनिया, दुनिया जानने के लिए एक उम्र चाहिए, और उसकी उम्र? कच्ची उम्र थी, अठारह या उन्नीस, बा-मुश्किल!
पकड़ ली राह!
चल पड़ी आगे!
जा पहुंची, लूनी माँ के मंदिर तक!
वो मंदिर, बस वो मंदिर ही उसका उस जगह अपना था! और कोई नहीं!
और देखा फिर चेहरा घुमा कर आगे!
वो राह, जहां उसका चदन, दौड़ा चला आता था अपना घोड़ा लेकर!
पचास कोस! कोई बात नहीं, सौ भी होता तो भी पाँव पीछे न हटते!
वो बावरी! वो बावरी, जो चंदन के लिए, गागर ले जाती थी पानी का,
अपने लिए एक कपड़ा भी भिगो के न लायी थी!
उसने क्या ठाना था?
कहाँ जाना था उसे?
धरणा!
धरणा थी उसकी मंजिल!
वो पूछ लेगी चंदन का पता!
कोई भी बता देगा! सैनिक है! रुतबा होता है एक अलग ही!
चंदन!
चंदन से तो बहुत लड़ना है!
सैनिक है तो क्या हुआ?
क्यों सुलगाया उसे?
क्यों जीते जी मारा उसे?
क्यों प्रीत बढ़ाई आगे?
उसकी क्या गलती है?
न आना था, तो बता ही देता?
पत्थर ही रख लेती बाँध कर कलेजे से?
बोले जाए, और आंसू भी जाएँ!
गाँव से संग आये, श्वान, एक दूरी पर आ ठहर गए! उनकी सरहद बस यहीं तक थी! और वेदल! बढ़ती जा रही थी आगे! भूखी, प्यासी, ज्वरग्रस्त!
रास्ते में रूकती, आसपास देखती!
बीहड़, अट्ठहास करता सन्नाटा!
जंगल से आतीं, सियार और भेड़ियों की आवाज़ें!
कोई डर न था उसे! ना! कोई डर न!
दिल में एक उम्मीद थी, और बहुत से सवाल!
वेदल, बढ़ती जा रही थी!
रास्ते में, कोई न मिला, कहीं कहीं, बीहड़, ऐसा, कि पाँव न रखा जाए!
इतना पैदल कभी न चली थी वो!
चार जगह! चार जगह रुकी! आसपास देखा! कि नहीं था! कहाँ जा रही थी? धरणा! रास्ता कौन सा है? पता नहीं, कोई मिलेगा, तो बूझ लूंगी!
अँधेरी रात!
बियाबान!
और उसके क़दम! बढ़े चले जा रहे थे!
थक जाती, तो रुक जाती! प्यास सताती लेकिन अंदरूनी प्यास के आगे, वो प्यास कहाँ ठहरती?
बढ़ती आगे!
पसीना! प्यास! भूख!
कोई चिंता नहीं!
बस एक बार, पहुँच जाए चंदन के पास!
फिर चाहे, प्राण निकल जाएँ!
निकल जाएँ प्राण!
कोई चिंता नहीं!
बस एक बार!
बस एक बार, चंदन मिल जाए उसे!
बढ़ती चली गयी!
लड़खड़ाती हुई!
कई बार गिरी वो, उस बीहड़ में!
गिरती, तो रेत सहारा देती! चोट न लगने देती!
वेदल!
ये रेत, साथी नहीं! दुश्मन है! तेरे हर बार गिरने पर, तेरे बदन की नमी सोख लेती है ये! लौट जा! लौट जा वेदल! जा! लौट जा!
ना! दिल बोले न! जी बोले ना!
बस एक बार पहुँच जाऊं!
भोर से पहले का वक़्त! और उसका बदन, बिन जल के, सूख चले! अब तो एक एक क़दम भी भारी पड़े! लेकिन, वो प्रेम-बावरी, कहाँ माने हार! चलती गयी! चलती गयी, एक अनजान राह पर! एक अनजान रास्ते पर! एक अनजान मंजिल के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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भोर हुई, और तब तक, वेदल, बेजान हुई, उसको बैठना पड़ा, एक पेड़ के पास, नागफनी के सहारे, अब उसमे, चलने का साहस नहीं बचा था, बेदम, और निढाल! भोर की वो शीतल हवा, बस उसे उतना ही सहारा दे कि वो, खोल सके अपनी आँखें, और ढूंढ सके उस धरणा का रास्ता!
साँसें अब टूट चली थीं, वो सुंदर, मुस्कुराते होंठ  अब झुलस से चुके थे, वो सुंदर बड़ी बड़ी आँखें, अब अपनी पलकों का बोझ भी न संभाल पा रही थीं!
न कोई आ रहा था, न कोई जा रहा था, पानी का कोई स्थान नहीं था, देह में पानी की कमी हुए जा रही थी, वो पल पल, घटे जा रही थी! लेकिन उसके दिल में पल रही वो उम्मीद, जैसे अभी तक लौ बन, उसे उठने का साहस दे रही थी! नागफनी के खिलते लाल फूल, उसकी वो दशा देख, सिहर से गए थे! वो उठी, एक बार और! उठी हिम्मत बंटोर कर! संदूकची, बगल में दबाई और पोटली सर पर रखी! बढ़ चली फिर से, लड़खड़ाते हुए!
बीहड़! बियाबान! सन्नाटा और आकाश में मंडराते गिद्ध और चीलें! उन्हें आभास हो चला था कुछ! वेदल! उसके क़दम बढ़ चले! चली थोड़ा सा, आगे बढ़ी, हुई बेदम! बैठ गयी घुटनों पर! ज्वर ने लहू सुखा रहा था जला जला कर! पानी न था लहू में, तो गाढ़ा हो चला था लहू! अब होने शुरू हुए दृष्टि-भ्रम उसे! श्रवण-भ्रम उसे! घोड़े की टापों की आवाज़ आने लगी उसे! हर तरफ से! आगे, पीछे, दायें, बाएं! अक्स दिखाई दें उसे! जैसे दूर से, कोई बुक्कल मारे, आ रहा है, घोड़े को एड लगाए! संदूकची गिर पड़ी! पोटली गिर पड़ी! वो खुद, बैठ चली! और धम्म से पीछे गिरी! एक एक सांस, साथ छोड़ने लगी उसका! एक एक पल, वो जा करीब हो अपनी मौत के!
आँखें, बंद हुईं, और नज़र आने लगे उसे कुछ दृश्य! वो चेहरा! चंदन का! वो सबसे पहली नज़र! जो चंदन से जा मिली थी! वो इंतज़ार! वो बे-सब्री! वो बे-चैनी! होंठों पर, हल्की सी मुस्कराहट आई, तो सूखे, पथराए होंठ, फट चले, बचा-खुचा लहू, झाँकने लगा बाहर! लेकिन दर्द नहीं था! उसे दर्द नहीं हुआ! उसी पल, आँखें खुलीं, और फिर..........................
वो खुली आँखें, खुली ही रह गयीं................
कोई बंद करने वाला नहीं था उन्हें........
साँसें छोड़ गयीं साथ,
वो अंतिम सांस, वो अंतिम सांस भी, नाम कर दी चंदन के उसने........
हुआ क़िस्सा खत्म उस सैनिक चंद और इस प्रेम-बावरी वेदल का!
वो बीहड़, वो रेगिस्तान, लील गया इस क़िस्से को, हमेशा, हमेशा के लिए............
एक थी वेदल, और एक था चंदन..............
वेदल की मिट्टी तो फ़ना हो गयी उस रेगिस्तान, उस बीहड़ में...........लेकिन...........उम्मीद लगाए हुए, वो उम्मीद दिल में पाले हुए, एक इच्छा बांधे................उसकी रूह.............भटकती रही, पूरे दो सौ नौ साल!
दो सौ नौ साल..............
इतना लम्बा भटकाव............ऐसी वक़्त की क़ैद...........अकेले............उम्मीद लगाए,  जाना था उसे धरणा..........जहां वो, कभी न पहुँच सकी.....................
आई दया! आई, उस आसमान थामने वाले को आई दया!
उस शाम, भूपेश जी के रूप में, एक मुक्ति की आस बंधी!
मित्रगण!
वो भोली-भाली वेदल, वो बड़ी बड़ी आँखों में कजरा सजाये वेदल, उस सैनिक की वो प्रेम-बावरी वेदल, वो संतरी वस्त्रों में संवरती वेदल, सलोनी सूरत वाली वेदल, वो साज-श्रृंगार किये हुए वेदल, वो धरणा का रास्ता पूछने वाली वेदल, वो पानी को तरसती वेदल, मैं कभी न भूल सका! और अपनी अंतिम सांस तक कभी भूल भी नहीं सकूंगा!
उम्मीद करता हूँ, वो वेदल और वो सैनिक, आप भी न भूल सकेंगी कभी.........अब कभी रेगिस्तान को देखता हूँ.....तो याद आ ही जाती यही वो पोटली उठाये, वो संदूकची दबाये..........वो भोली, बावरी वेदल!
वो दीपावली की रात थी! उस रात, मैंने मुक्ति-क्रिया की उस वेदल के लिए! उसको यक़ीन दिलाना बहुत मुश्किल था, वो धरणा ही जाना चाहती थी.......मैंने झूठ बोला उस से, कहा, यहां से धरणा का रास्ता सीधा है......हड़बड़ाहट में, वो दौड़ पड़ी थी.........वो मुक्त हुई............रह गया कुछ .....तो वो संदूकची और वो पोटली........जिसे देखने का साहस, अभी तक नहीं जुटा पाया मैं दुबारा!
भूपेश जी को खबर कर दी गयी, उन्होंने शान्ति-कर्म करवा दिया!
लेकिन एक बात सच है..........इस प्रेम-बावरी ने...........बहुत भारी किया हम सभी का दिल! हे मेरे ईश्वर! कुछ संचित पुण्य हों, या कभी संचित कर सकूँ.........तो इस बदल में,  इन प्रेमियों को अवश्य ही मिलाना! अवश्य ही!
साधुवाद!

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