वर्ष २०१४ नॉएडा की ...
 
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वर्ष २०१४ नॉएडा की एक घटना, एक अजब सी दुविधा!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैं चाल देता तो आगे बढ़ जाती! ये एक अजीब सी बात थी, वो तो घूम रही थी! मैंने फिर से चाल दी! तो इस बार वो उछली और बिखर गयी! फिर कोई हरकत नहीं हुई! बस इतना पता चल सका कि किसी की आमद हुई थी, और वो जा चुका! ये आमद उसी ऋचा की होगी! मैंने अनुमान लगाया, इसके पीछे वजह थी!
"आओ!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
और हम ऊपर चढ़ते चले गए! ऊपर आये तो मयंक नहीं था कमरे में, आसपास देखा तो भी कहीं नहीं!
"छत?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
और हम लपकते हुए ऊपर की तरफ चले! जैसे ही पहुंचे, वो हवा में उठा हुआ था, लटका हुआ, कुछ एक या दो इंच ऊपर! जैसे किसी के साथ आलिंगनबद्ध हो! हमारी नज़रें जैसे ही उस पर गयीं वो नीचे टिका दिया गया!
उसने हमें देखा! गंभीर सा हो कर! जबड़ा फड़का उसका! और गुस्से में, दौड़ता हुआ चला आया मेरी तरफ! उसने अपना हाथ उठाना चाहा मुझ पर, मैंने पकड़ लिया, गुत्थम-गुत्था सी होने लगी! वो मुझे अपने हल्के से हाथों से, कमर के पीछे घूंसे मारने लगा! छटपटाने लगा था! रोता जा रहा था! शहरयार जी ने उसे, उसके कंधे से पकड़ कर अलग किया और जैसे ही अलग किया उसकी आंखें बंद हो गयीं! वो ढीला पड़ गया!
"बेचारा!" कहा मैंने,
"अफ़सोस!" बोले वो,
और हमने उसे उठा कर, नीचे लाना शुरू किया! नीचे ले आये और उसे उसके बिस्तर पर लिटा दिया! उसकी बायीं मुट्ठी बंद थी, मैंने खोली तो उसमे से एक कागज़ का तिकोना सा टुकड़ा और एक दो, लम्बे लम्बे बाल निकले! कागज़ पर कुछ न लिखा था! अचानक ही ऊपर की एक अलमारी खुली और एक सूखा सा बुके मेरे मुंह से आ कर टकराया! टकराते ही बिखर गया! उसके बिस्तर की चादर, सिरहाने से ऊपर उठा गयी! मैं आगे हो गया!
"रुको!" चीखा मैं,
चादर, भम्म से नीचे गिरी!
दूसरी अलमारी एक दरवाज़ा खुला, उसमे से सामान नीचे गिरने लगा! गिरता और टूट जाता! अचानक मेरी नज़र एक शीशी पर गयी! मैंने दौड़ कर वो उठा ली, इसी बीच एक किताब उछली और शहरयार के सीने से जा टकराई!
"मैंने कहा रुको?" कहा मैंने,
सब शांत पड़ गया! सब का सब!
"तुम कोई भी हो, शांत हो जाओ!" कहा मैंने,
अचानक से, उस कमरे का दरवाज़ा भड़ाक से बंद हुआ! आवाज़ ऐसी तेज कि दरवाज़े पर टंगा पर्दा भी नीचे गिर गया! नीचे से दौड़ शुरू हुई! और तब, निपुण और मधु दौड़ कर चले आये उधर! मैंने दरवाज़ा खोला तभी! उन्होंने अंदर देखा, तो कलेजा मुंह को आ गया! वे दौड़कर, चले आये मयंक के पास! और ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगे उसे!
"मयंक?" बोले वो,
हिलाते जाते!
"मयंक?" चीखे, उसको, कंधों से हिलाया!
"कुछ नहीं हुआ!" कहा मैंने,
"ये...ये कैसे?'' शब्द न निकले मुंह से उनके!
"आप, ज़रा बाहर जाएं!" बोले शहरयार!
"डॉक्टर! डॉक्टर को बुलाता हूं!" बोले, पलते और भागने लगे!
"नहीं!" बोले शहरयार!
वे हैरत से देखने लगे!
"घबराइए नहीं!" कहा मैंने,
"इसे हुआ क्या?" बोले वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"इसे जगाओ? प्लीज़!" गिड़गिड़ाने लगे!
"आप न डरिये!" कहा उन्होंने,
और समझा-बुझा, बाहर भेज दिया!
"बंद कर दो!" कहा मैंने,
दरवाज़ा बंद कर दिया!
अब मेरे हाथ में जो शीशी थी, वो देखी मैंने, बेल्ले'डी ओपियम!
"ये देखो!" कहा मैंने,
उन्होंने हाथ में ली! देखा उसे!
"ये तो बंद है?" बोले वो,
"होगी!" कहा मैंने,
"यही ख़ुश्बू आयी थी?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ऋचा!" बोले वो,
"वो ही है!" कहा मैंने,
"ये?'' बोले वो,
"अभी उठ जाएगा!" कहा मैंने,
"एक बात नहीं आयी समझ?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"अगर ऋचा चाहती है, कि उसके बारे में जानें तो ये हमला क्यों?" बोले वो,
"पता नहीं!" बोला मैं,
"कोई और तो नहीं?" बोले वो,
"सम्भव है!" बोले वो,
"अब?" बोले वो,
"अब?" कहा मैंने,
"हां, अब?" बोले वो,
"आ गया वक़्त!" कहा मैंने,
"वक़्त?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
तभी मयंक ने आंखें खोलीं! आसपास देखा उसने! फिर हमको!
"कैसे हो?" बोला मैं,
"सो गया था?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"ऋचा आयी थी?" पूछा शहरयार ने!
बड़ी ही जल्दी सवाल कर दिया था उन्होंने!
"ऋचा?" बोला वो,
"हां?" बोले वो,
और वो शीशी उसे दे दी, उसने शीशी ली और अपने हाथों में कस के पकड़ ली!
"बताओ?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"बताओ मयंक?" पूछा मैंने,
उसने सोचा थोड़ा, और फिर मुझे देखा,
"हां" बोला वो,
"क्या कहा उसने?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोला वो,
"कोई और भी है साथ?" पूछा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"ऋचा के साथ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या कहती है?" बोला मैं,
"नहीं ले जाती!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"मुझे!" बोला वो,
"तुम्हें नहीं ले जाती?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तुम कहते हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"मना करती है!" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मना कर देती है!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मना ही करती है!" बोला वो,
"मयंक?" कहा मैंने कड़क कर अब!
"क्यों मना करती है?" पूछा मैंने,
"प्यार करती है, कहती है!" बोला वो,
"प्यार?" बोला मैं,
"हां, पहले जैसे ही!" बोला वो,
"प्यार करती है!" कहा मैंने,
"बहुत!" बोला वो,
"तो साथ ले जाए?'' बोला मैं,
"मना कर देती है!" बोला वो,
"तुम्हें प्यार करती है, साथ ले नहीं जाती, तुम कहते हो, फिर भी नहीं!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कहां ले जायेगी?" बोला मैं,
"नहीं पता!" बोला वो,
"क्या बताया उसने?" मैंने पूछा,
"मना करती है!" बोला वो,
"बताती नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"अब कब आएगी?" पूछा मैंने,
"रात को!" बोला वो,
"क्या करने?" पूछा मैंने,
"रोज आती है!" बोला वो,
"रोज?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब कहां है?" पूछा मैंने,
"बाहर!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"गली में!" बोला वो,
"नीचे?" कहा मैंने,
"हां!" बताया उसने,
"दिखा सकते हो?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
और बिस्तर से उतर कर नीचे आया!
"दरवाज़ा खोलो!" कहा मैंने,
उसने दरवाज़ा खोला,
"चलो!" कहा मैंने,
वो चुपचाप सा चला और उस मंज़िल की मुंडेर पर आ गया, आसपास देखा, ढूंढ रहा था वो उसे!
''वो रही!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"वो!" बोला वो,
मैंने देखा, कुछ नहीं!
तब मैंने कलुष का संधान किया और अपने नेत्र पोषित कर लिए! नेत्र खोले और उधर देखा!
"कहां है?'' पूछा मैंने,
"पीछे देखो!" बोला वो,
मैं घूमा! और पीछे देखा! नीचे फर्श पर, ठीक सामने कोई लेटा था! चादर ओढ़े!
"शहरयार!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"इसे संभालना!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
और मैं आगे चला! कोई तो था उस चादर के अंदर! मैं थोड़ा सा ही दूर खड़ा हुआ और गौर से देखा!
"ऋचा?" कहा मैंने,
गायब!
पल में ही गायब!
"ऋचा?" कहा मैंने,
कोई नहीं था!
"नीचे!" बोला वो,
मैं दौड़ कर गया! नीचे देखा, नीचे, सड़क के कोने पर! ठीक वैसे ही लेटे हुए!
"बुलाओ?" कहा मैंने,
"ऋचा?'' बोला धीरे से,
नहीं! कोई जवाब नहीं!
"ऋचा?" बोला वो,
और तभी..............कुछ देखा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैंने देखा कि उस चादर के नीचे जो भी था, वो जब यहां होता था तब वो घुटने मोड़ कर रखता था, और जब नीचे होता था, तो पांव सीधे रखता था! इसका क्या मतलब था? और अगर ऋचा आएगी तो इस तरह से क्यों आएगी? और फिर, कोई सुगंध भी नहीं? कहीं ये कोई और तो नहीं?
वो फिर से गायब हुआ! मैंने इंतज़ार किया! और फिर से गायब!
"ऋचा?" धीरे से बोलै मयंक!
वो फिर से दिखाई दिया! लेकिन इस बार कुछ अलग! वो चादर अब जगह जगह से खून से भीगी थी!
खून?
वो खून किसलिए?
मैं कुछ कर पता, उस से पहले ही वो गायब हो गया! कुछ देर इंतज़ार किय, और फिर नहीं लौटा वो, न ऊपर ही और न नीचे ही!
"मयंक?" कहा मैंने,
"हां?'' बोला वो,
"क्या ऐसा ही होता है?" पूछा मैंने,
"आपने देखा?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"देखा?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ऋचा नहीं है वो!" बोला मयंक!
ये ही तो मुझे हुआ था शक! तो कौन था वो?
"ये अक्सर आता है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"आज ही आया?" बोला मैं,
"हां!" कहा उसने,
"और ऋचा कब आएगी?" पूछा मैंने,
"रात को!" बोला वो,
"ये भी आता है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"क्या मुझे मिलवा सकते हो?'' पूछा मैंने,
"ऋचा से?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो नहीं मानी तो?'' बोला वो,
"तुम्हारी पत्नी है न?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"तब क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"पूछूंगा!" बोला वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हमने उसे उसके कमरे में छोड़ दिया! निकले हम नीचे के लिए, निपुण जी से बात की और निकल आये!
"क्या बात है?'' बोले वो,
"गंभीर!" कहा मैंने,
"क्या गंभीर?'' बोले वो,
"कोई मर रहा है किसी को ज़िंदा रखने के लिए!" कहा मैंने,
"क्या? मतलब?" बोले वो,
"बताता हूं!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"स्टार्ट करो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े वहां से!
"कहां?" बोले वो,
"अपने स्थान!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोले वो,
"हां, सामान लेना है कुछ!" कहा मैंने,
"ले लेते हैं!" बोले वो,
"बॉर्डर से ही ले लेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक! अरे हां?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"आप कह रहे थे कि?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"वक़्त आ गया!" बोले वो,
"हां, आ गया वक़्त!" कहा मैंने,
"कैसा वक़्त?" बोले वो,
"समझे नहीं?" बोले वो,
"नहीं?" बोले वो,
"क्या यार!" बोला मैं,
"स्थान, सामान...?? कहीं..??" बोले वो!
मैं मुस्कुराया!
"समझ गया! आ गया वक़्त!" बोले वो,
"हां! अब जाएगा वो!" कहा मैंने,
"समझा!! समझा!!" बोले वो,
बत्ती हरी हुई, और हम आगे बढ़े फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हमने रास्ते से सामान ले लिया! और चल पड़े अपने स्थान के लिए! यहां से मुझे अब रवाना करना था अपना शाहबाज़ खिलाड़ी इबु! इबु का तब मैंने बहुत दिनों के बाद किसी काम के लिए बुलाया था! मैंने कपड़े बदले, कुछ तांत्रिक-आभूषण धारण किये, सामग्री ली और चल पड़ा!
और तब मैंने शाही-रुक्का पढ़ा इबु का! झर्राते वो हाज़िर हुआ! उसके आभूषणों की खनक गूंज उठी! यही है माहिर मुवक़्क़िल जिस से बड़े बड़े ख़लीफ़ा भी पानी मांग जाएं! पुराना है, इसीलिए बेपनाह ताक़त रखता है!
मैंने उसे तब उद्देश्य बताया, बताया कि किसे लाना है और किसे छोड़ देना है! और वो उड़ चला! मैं वहीं बैठ गया! इंतज़ार किया और कोई छह या सात मिनट में ही वो लौट आया, उसी चादर में लपेटे हुए उस शय को! तभी उसने सामने किया उसे और वो, खुलते हुए हाज़िर हुआ! मैंने फौरन ही उसे 'डकून' में क़ैद कर लिया! इबु की तारीफ़ की और भोग दे दिया! एक क्षण में ही भोग स्वीकारा गया और वो, लोप हुआ! मेरा आधा काम तो हो गया था, अब बाकी था वो, मयंक और उस ऋचा का काम!
उसी रात में उसके खोला, और हाज़िर करवाया, दो संचि-प्रेतों ने उसे हाज़िर कर दिया! वो घबराया हुआ तो नहीं लगा रहा था, वो, नाटे से क़द का, गोरे रंग वाला, भारी जिस्म का करीब चालीस बरस की उम्र का होगा, उसके हाथ और माथा, लाल थे, वो अब एक महाप्रेत की श्रेणी में था! वो बलशाली था, इसमें कोई शक नहीं!
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
"तू कौन?" बोला वो,
"तू बता?'' कहा मैंने,
"तेरा गुलाम हूं?'' चीख कर बोला वो,
"नहीं, लेकिन बना लूंगा!" कहा मैंने,
"तेरे ** के बस में भी नहीं!" बोला वो,
"अकड़ ज़्यादा है क्या?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं जानता?" बोला वो,
"तुझे उठवाया है न?'' कहा मैंने,
"बंधा था न?" बोला वो,
"खोल दूं?" कहा मैंने,
"खोल के तो देख?" बोला वो,
"क्या करेगा?" पूछा मैंने,
"तुझे फाड़ दूंगा!" बोला वो,
''और न करे ऐसा तो?" बोला मैं,
"खोल?" बोला वो,
संचि-प्रेत लौट चुके थे, उनका और कोई काम भी नहीं होता, वो बस 'डकून' से ही लाया, ले जाया करते हैं किसी भी रूह को या फिर महाप्रेत या पिशाच को!
"अगर कुछ न कर पाया तो तेरा क्या हाल करूं, तू सोच ले!" कहा मैंने,
"अरे जा!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और भस्म को पढ़ते हुए फेंक मारा उस पर, भस्म में से पतंगे उठे और वो पाश से मुक्त हो गया! लेकिन हिल नहीं पाया!
"और कोशिश कर?" बोला मैं,
"कौन है तू?" बोला वो,
"कोशिश कर ले!" कहा मैंने,
उसने अब पता नहीं क्या क्या बका! क्या क्या बोला! मेरे प्रियजनों को गाली-गलौज की, उन्हें मार डालने की धमकी भी दी!
उसने लाख कोशिशें कीं, लेकिन कुछ न हुआ! कुछ भी नहीं!
"अब बता?" बोला मैं,
"क्या?" बोला अब शांत हो कर!
"क्या नाम है तेरा?" पूछा मैंने,
"गजिंदर" बोला वो,
"कहां का है?" पूछा मैंने,
"सांखली!" बोला वो,
"जोजा कब बांधा?" पूछा मैंने,
"तीस साल हुए!" कहा उसने,
"क्या करता था?" बोला मैं,
"फ़ौज में था!" बोला वो,
"घर कहां है?" बोला मैं,
"सांखली!" बोला वो,
"जाजल कैसे हुआ?" पूछा मैंने,
"ज़हरखुरानी से!" बोला वो,
"किसने दिया?" पूछा मैंने,
"मेरी औरत ने!" कहा उसने,
"ज़िंदा है?" पूछा मैंने,
"मार दी!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"जला कर!" बोला वो,
"यहां कैसे?'' पूछा मैंने,
"इस औरत की वजह से!" बोला वो,
"कहां है वो औरत?" पूछा मैंने,
"पहाड़ पर!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं ले गया!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ले गया?" कहा मैंने,
"हां! मैं ले गया!" बोला वो,
"क्यों ले गया?" पूछा मैंने,
"मुझे बहुत अच्छी लगी वो औरत!" बोला वो,
"लगी या लगती है?" पूछा मैंने,
"लगती है!" बोला वो,
"तुझे कैसे मिली वो?" पूछा मैंने,
"मैंने ढूंढा उसे!" बोला वो,
"ढूंढा?'' बोला मैं,
"हां, वो जा रही थी!" कहा उसने,
"रुक?" कहा मैंने,
"जो पूछूं, साफ़ साफ़ बता!" कहा मैंने,
"पूछ!" बोला वो,
"जब वो सही थी, तूने तब ढूंढा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जब उसका आदमी उसे ले जा रहा था!" बोला वो,
"समझ गया! तो तू रास्ते से लगा?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उसने,
"कहां से?" पूछा मैंने,
"कुएं से, डोलचा से!" बोला वो,
"लेकिन तब वो जोजा के करीब न थी?" बोला मैं,
"वो होगी, जानता था!" बोला वो,
"कहीं तूने तो कुछ नहीं किया?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
मैंने तभी भस्म ली और अभिमंत्रित कर उसकी तरफ फेंका! वो उछला और चिल्लाया, गिड़गिड़ाने लगा! हाथ जोड़ने लगा!
"सच कहता हूं! सच कहता हूं!" बोला वो,
"सच बोल?" कहा मैंने,
"सच बोल रहा हूं!" बोला कराहते हुए!
"नहीं बोल रहा!" कहा मैंने,
और फिर से कोड़ा तोड़ दिया उस पर! वो उछले, भागने को हो! रोये! कराहे! मुझ से गुहार लगाए!
"मान लिया! तो तूने उसे क़ैद किया?'' कहा मैंने,
"करना पड़ा!" बोला वो,
"तूने नहीं छोड़ा उसे?" बोला मैं,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तू पहले पहल पकड़ में कैसे नहीं आया?" बोला मैं,
"कौन पकड़ता!" बोला वो,
"आये तो थे?'' कहा मैंने,
"भगा दिए, धमका कर!" बोला वो,
"एक बात और? वो मान गयी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
वो हंसने लगा! खिलखिला कर!
"बता?" बोला मैं,
"बता रहा हूं!" बोला वो,
"बता?" कहा मैंने,
"उसका आदमी!" बोला वो,
"कौन? मयंक?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब समझ गया! तू तो बड़ा ही ** ** है???" कहा मैंने गुस्से से और फिर से कोड़ा तोड़ दिया उस पर! हाय-हाय चिल्लाने लगा! गुस्सा तो ऐसा आया कि इसे ज़मीन में गाड़ दूं कोड़े के साथ ही!
"तूने उसको डराया? है न? तूने कहा कि मान जा, नहीं तो उसका आदमी मरेगा?" कहा मैंने,
"हां! हां! यही! रुको! रुको!" बोला वो,
"तेरा क्या हाल करूं?" कहा मैंने,
"छोड़ दो!" कहा मैंने,
"ताकि फिर से यही करे?'' पूछा मैंने,
"नहीं करूंगा! आग! आग!" बोला वो,
"तू ऐसे ही जलेगा अब!" कहा मैंने,
"माफ़ कर दो! माफ़ कर दो, गुनाह हुआ!" बोला वो,
"तूने किसी की मुक्ति रोकी, उठा लिया, उस भले आदमी को पागल बनाया! उसे तड़पा तड़पा, तूने राजी हांसिल की उस बेचारी मज़बूर औरत की!" कहा मैंने,
"गलती हो गयी! गलती हो गयी!" बोला और चीखा बुरी तरह!
"वो अपने आदमी को ठीक करने के लिए, बचाने के लिए, मर कर भी मरती रही? लानत है तुझ पर!" कहा मैंने और गुस्से से मैंने, बिच्छू-मंत्र छोड़ दिया! अब उसका वो हाल कि तड़प तड़प वो नाचने लगा! उसे मैंने कम से कम आधा घंटा फटकारा उस मंत्र से!
अब वो हुआ निढाल!
"वो औरत कहां है?'' पूछा मैंने,
"नीमच!" बोला वो,
"नीमच?" कहा मैंने,
उसने सर हिलाया अपना!
"किसके पास?" पूछा मैंने,
"कुएं में!" कहा मैंने,
"किसने रखा?" पूछा मैंने,
"मैंने!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नीमच! शायद बहुत ही कम लोग ये जानते होंगे कि नीमच का अर्थ होता क्या है! नीमच का अर्थ होता है, कुछ भी स्थिर नहीं रहने वाला! अर्थात यहां कुछ भी स्थिर नहीं रहता! ये खागल है, खागल, अर्थात, प्रेतों का दाह-स्थल!
"वहां क्यों?" पूछा मैंने,
"मैं वहीं रहता हूं!" बोला वो,
"किसने भेजा?" पूछा मैंने,
"छज्जू ने!" बोला वो,
"कौन छज्जू?" पूछा मैंने,
"अब नहीं है!" बोला वो,
"मर गया?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तो उसे लाएगा कौन?" पूछा मैंने,
"उस औरत को?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मैं ले आऊंगा!" बोला वो
"तुझ पर यक़ीन नहीं!" कहा मैंने,
"करो यक़ीन!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सुनो?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"क्या चाहिए?" बोला वो,
"क्या देगा?" कहा मैंने,
"जो मांगे!" बोला वो,
"धन?" कहा मैंने,
"जितना चाहो!" बोला वो,
"औरत!" कहा मैंने,
"जब तक चाहो!" बोला वो,
मैं हंस पड़ा! वो थोड़ा सा झेंप गया!
"तू है नहीं, और ऐसे ही, वो सब भी नहीं!" कहा मैंने,
"क्या फ़र्क़ पड़ता है?" बोला वो,
"बहुत!" कहा मैंने,
"औरत दूंगा!" बोला वो,
"कैसे?'' बोला मैं,
"जैसे चाहूं!" बोला वो,
"तेरा अब और ज़्यादा घूमना ठीक नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोला वो,
"तुझे नहीं छोडूंगा!" कहा मैंने,
"रहम!" बोला वो,
"बस इतना कि अब आखिरी बार घूम ले!" बोला मैं,
"नहीं!" बोला वो,
"मेरा एक रक्खू तेरे साथ जाएगा!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' बोला वो,
"उस औरत को छुड़ाने!" कहा मैंने,
"मैं ले आऊंगा!" बोला वो,
"नहीं! ऐसा नहीं!" बोला वो,
और मैं हुआ खड़ा तब! और खोल दी मांदलिया! सट्ट से अंदर खींच लिया गया वो! मैंने अब कुछ और क्रिया की, बाहर चला आया तब, आ कर स्नान किया और फिर अपने कमरे में जा पहुंचा!
"चल गया पता?" बोले वो,
अब मैंने सारी बात उन्हें बता दी! वे बहुत गुस्से में आ गए!
"इसको तो आधा कर दो!" बोले वो,
"इसका देखो!" कहा मैंने,
"सड़ा दो कालखाने में!" बोले वो,
"वो भी कम है!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"बताओ?" बोला मैं,
"निकाल लो बेचारी को!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बहुत कष्ट में है!" बोले वो,
"गुलामी कर रही है!" बोला मैं,
"सब इस **** के कारण!" बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
"और मयंक?" बोले वो,
"वो ठीक हो जाएगा!" कहा मैंने,
"यही चाहता हूं!" बोले वो,
"मैं भी!" कहा मैंने,
"ना जाएं तो पता ही न चले?'' बोले वो,
"कभी भी नहीं!" कहा मैंने,
"मयंक मर ही जाता!" बोले वो,
"उम्र पर!" कहा मैंने,
"बोझ बन!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"चलो! सब लीला!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! मैंने उसी रात उस गजिंदर को पेश किया, उसको एक और महाप्रेत कंटक के संग भेज दिया! कुछ ही पल लगे और ऋचा उस क़ैद से छूट गयी! मैं जानता था कि वो उस वक़्त, कहां जायेगी! लेकिन वो गयी नहीं! शायद, डरी हुई थी! इबु वहां जाने में असमर्थ था, वो नहीं जा सकता था, इसीलिए कंटक को रक्खू बना मैंने भेज दिया था!
अब इंतज़ार था तो बस आज की रात कटने का! कल के दिन ये खेल ही सब समाप्त हो जाता! मुझे तो यही लगता था!
लेकिन.........
अगला दिन, और हम वहां जा पहुंचे, निपुण जी को सब बता दिया गया था, उनके अनुसार, उस रात करीब ढाई बजे के बाद मयंक ने जो रोना शुरू किया था, अब तक नहीं चुप हो सका था, उसने ऋचा की एक एक वस्तु सामने रखी थी, दरवाज़ा बंद कर लिया था अंदर से, तस्वीरों में ही खोया हुआ था!
हां, उन्होंने जो बात मुझे बताई थी, जो गौर करने वाली थी, वो ये, कि मयंक में बदलाव आ गया था, वो पहले सा ही संजीदा और चुप रहने वाला सा बन गया था! जब उसने दरवाज़ा नहीं खोला था तब उसने यही कहा था कि वो स्वयं ही बाहर आ जाएगा! और अब वो बिलकुल ठीक था!
ये तो बड़े ही सुकून की बात थी! वो इस तरह से ठीक हो जाएगा, ये तो मैंने भी नहीं सोचा था! खैर, हम उसके कमरे तक पहुंचे और मैंने दरवाज़ा देखा! दरवाज़े पर पर्दा लटका था बाहर से ही, ज़बरदस्ती बंद कर दिया था उसने, अंदर सांकल भी चढ़ा दी थी!
"मयंक?" कहा मैंने,
"कौन?" बोला वो,
"मैं!" कहा मैंने,
'वो ही?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"अब क्या फायदा?" बोला वो,
''दरवाज़ा खोलो!" कहा मैंने,
 दरवाज़ा खोल दिया उसने, वो अब आंखों में आंखें डाल बात कर रहा था, हमें देखा... और पीछे हट गया!
"आइये!" बोला वो,
हम अंदर आ गए, बैठ गए!
"मुझे पहचानते हो?" पूछा मैंने,
"नहीं, लेकिन जानता हूं!" बोला वो,
"ऋचा ने बताया?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब कहां है?" पूछा मैंने,
मैंने पूछा और उसकी रुलाई फूट पड़ी!
"मयंक!" कहा मैंने,
"कहिये?'' बोला वो,
"ऋचा कहां है?" पूछा मैंने, 
"वो चली गयी" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"नहीं बताया" बोला वो,
"क्यों गयी?" पूछा मैंने,
"मर गयी वो! मर गयी वो!" रोते हुए...चिल्लाते हुए बोला वो!
"कुछ कहा उसने?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तुमने कहा?" पूछा मैंने,
"हां" बोला वो,
"क्या?' पूछा मैंने,
"मुझे ले जाओ" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने मना कर दिया" बोला वो,
"क्या चाहती थी?" पूछा मैंने,
"उसे मत भूलना" बोला वो,
"नहीं भूलोगे!" कहा मैंने,
"मैं क्यों जियूं?" बोला वो,
"अपने लिए!" कहा मैंने,
"किसलिए?' पूछा उसने,
"उसने चाहा!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"मैं नहीं जियूंगा" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"उसे प्यार करते हो?" बोला मैं,
"हां" बोला फिर से रोते हुए,
"उसकी बात नहीं मानोगे?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"उसे बुरा लगेगा!" कहा मैंने,
"नहीं लगेगा!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"साथ ले जाती?" बोला वो,
"ये सम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"सब है!" बोला वो,
"नहीं मयंक!" कहा मैंने,
और.............!!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

उसके बाद, मयंक की रुलाई फूटी और बिस्तर पर ढेर हो गया! इस समय उस से कुछ कहना, न ही हितकर था और न ही शोभनीय, अतः हम बाहर चले आये! मेरा भी मन ठीक न था, मुझे फिर से कुछ और याद आया था, वो ये, कि मयंक सामने था, वो गजिंदर भी, बाकी सब, लेकिन वो, ऋचा कहां है? कहीं और दखल न पड़ जाए, कहीं कोई और हाथ न डाल दे कहीं और ही क़ैद न हो जाए, सौ डर और उत्तर एक!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"जल्दी चलो ज़रा!" कहा मैंने,
"चलिए!" कहा मैंने,
हम बिन कुछ कहे वहां, फौरन ही बाहर चले आये! अब मुझे एक शांत सी, खुली जगह चाहिए थी, जहां मैं फिर से इबु को हाज़िर करूं और इस बार उस ऋचा को पेश करुं! अफ़सोस, कोई भी उचित स्थान न मिला! अतः सामान ले कर हम वापिस अपने ही स्थान पर लौट आये, मैंने अब देर न की! और इबु का शाही-रुक्का पढ़ दिया!
इबु ने देर न लगाई और...............उत्तर दे, लोप हो गया!
उत्तर! क्या उत्तर!
अब आपसे पूछता हूं! तनिक विचार कर ही उत्तर दें!
वो ले आया था उसे! लेकिन मैंने पेश नहीं करवाया उसको! कम से कम उस दिन तो! हां, रात में उसको मैंने पेश करवाया! डरी-सहमी सी वो पेश हुई थी! लेकिन वो कैसी दीखती होगी, मैं अंदाजा लगा सकता था! 
अब वक़्त जाया नहीं करना था, एक एक पल कीमती था!
"ऋचा?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"जो हुआ, उसका गुनाहगार मैं नहीं!" कहा मैंने,
"जानती हूं!" बोली वो,
"जिसने भी ये किया, उसका भी मैं यही हाल करूंगा!" कहा मैंने,
कुछ नहीं बोली वो...
"मयंक को प्यार करती हो?" बोलै मैं,
अब भी कुछ न बोली,
"बोलो?" कहा मैंने,
नहीं बोली...
"ऋचा?" कहा मैंने,
"कोई शब्द नहीं!" बोली वो,
अर्थात, शब्दों में नहीं बताया जा सकता! मैंने अंदर ही अंदर एक, अजीब सी शर्म महसूस की उसी क्षण, उसका जवाब मिलते ही!
''ऋचा?" कहा मैंने,
''हां!" बोली वो,
"वो मर जाएगा!" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं!" बोली वो,
"तुम्हारे बिना!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं होना चाहिए.." कहा उसने,
"उसे समझाया?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"उसे बचा लूं?" कहा मैंने,
"हां! हां!" बोली वो,
"तब तुम्हें जाना होगा!" कहा मैंने,
"जानती हूं!" बोली वो,
"सब?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"आज ही?" बोलै मैं,
"हां, तैयार हूं!" कहा मैंने,
"कोई इच्छा?" पूछा मैंने,
"पूर्ण हुई!" बोली वो,
मैं अवाक था! अवाक!
खैर, उसी रात मैंने उसके लिए क्रिया की और उसे आगे बढ़ा दिया! वो खुश थी या नहीं, ये मेरा विषय नहीं! वो आगे बढ़ गयी! ऋचा, अब कहीं नहीं थी!
सबकुछ निबट गया!
सबकुछ, लगा तो मुझे यही था, लेकिन चार दिन बाद एक खबर आयी, मयंक की हृदय-गति रुकने से, रात को, सम्भवतः, मृत्यु हो गयी....
अब मैं, एक ग्लानि-भाव से ग्रसित सा हो उठा....लगा...सब मेरे कारण ही...
अब प्रश्न ये कि क्या मैंने उचित किया था उसे मुक्त कर?
या फिर, ऐसे ही चलने देता?
मयंक की मृत्यु का ज़िम्मेदार कौन है?
और रहा वो गजिंदर! उसे मैंने वो सजा दी कि कभी मुक्त हुआ भी, तो सोचेगा भी नहीं! उसे, श्री भैरव नाथ जी के मंदिर में, भूमि में, भंग-विद्या से पीड़ित कर, दफना दिया था!

साधुवाद!


   
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