वर्ष २०१४ नॉएडा की ...
 
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वर्ष २०१४ नॉएडा की एक घटना, एक अजब सी दुविधा!

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श्रीशः उपदंडक
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  ये है तो एक आम सा ही वाक़या! एक आम ही घटना, साधारण सी, परन्तु कुछ है ऐसा जो कहीं न कहीं इंसान के दिल को, रूह को अंदर ही अंदर सालता रहता है! तो आप सभी मित्रों से मैं ये एक विनम्र विनती करूंगा, कि इस विषय पर, घटना पर, किये गए निर्णय पर अपनी राय अवश्य ही रखें! इस घटना में आपको जुड़ना ही होगा और आप सम्भवतः जुड़ ही जाएं, स्वतः ही, उम्मीद भी है! यहां की जो प्रबुद्ध पाठिकाएं हैं, वे इस घटना को मात्र एक घटना ही समझें, ये भी प्रार्थना करूंगा! प्रयास मेरा और निर्णय आपका!
चलिए अब घटना!
जब मैं उस रोज, शहरयार जी के साथ, उस घर पर पहुंचा तो घर की शान देख, बिन कुछ कहे रह न सका! घर आलीशान बना था, लाल-रंग के पत्थर लगाए गए थे और घर की मुंडेरों को मुग़ल शैली की तरह से तराशा गया था, ये तीन मंज़िल घर था, करीब पंद्रह सौ गज में बना हुआ! आसपास भी कई घर बने थे, वे भी कम अज कम ऐसे ही बने थे, कुल मिलाकर, सभ्रांत एवं धनाढ्य परिवार यहां रहते थे, पता चलता था! नीचे वाली मुंडेर के पास बड़े बड़े गमले रखे थे, ऐसे ही दो गमलों में से पीले रंग की बिगुल-बेलिया की बेलें निकली थीं जिन्होंने उस मुंडेर को, लगभग जकड़ कर कब्ज़ा ही कर लिया था! उनके निकले पीले से, संतरी से फूल जब अपनी शाख समेत सर हिलाते तो लगता था कि हम सब जैसे एक ही धागे से, इस क़ुदरत के, से बंधे हैं! नीचे पीतल के अक्षरों वाली एक नेम-प्लेट लगी थी, आखिरी नाम में ये जैन थी, अर्थात इस परिवार में एक जैन परिवार रहता था! जहां हम अपनी गाड़ी में बैठे उस घर को देख रहे थे, वो गली भी बेहद ही साफ़ और सुथरी थी, घास आदि काट दी गयी थी, कोई पोस्टर आदि नहीं था, कोई दुकान नहीं, कोई खोखा नहीं, कोई खोमचा भी नहीं! 
हां, सामने से एक फेरीवाला, सब्जीवाला अपनी रेहड़ी लिए चला आ रहा था, उसके साथ एक औरत थी, शायद उसकी पत्नी हो, या फिर नहीं भी, चूंकि उस औरत ने सर पर जो पोटली रखी थी, उसमे कुछ चौकोर सा सामान बंधा था, शायद इस्त्री के कपड़े रहे हों! वो रेहड़ीवाला बीड़ी खींचता धीरे धीरे आगे चला आ रहा था! और वो औरत, अपने पल्लू से अपने खुले तन को ढकती, पसीना भी संग ही पोंछ लेती थी! क्या कमाल की बात है! ऐसे भारी-भरकम, अट्टालिकाओं वाले, आलीशान घरों में रहने वाले लोग, इस तरह से मसरूफ़ हैं कि उनके पास वक़्त ही नहीं अपने कपड़े खुद ही इस्त्री करने का!
तो वो सब्जी वाला निकल गया, घीए नज़र आये, पालक भी और बैंगन भी! कुछ प्लास्टिक की टोकरियां भी, शायद टमाटर आदि के लिए हों वो!
तभी फ़ोन बजा शहरयार जी का, फ़ोन उठाया उन्होंने,
"हां?" बोले वो,
"घर में हो?" बोला कोई,
"बाहर!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
''आप आ रहे हो ना?" बोले वो,
"हां, दस मिनट बस!" बोला कोई,
"आ जाओ!" बोले वो,
"किसी को बाहर भेजूं?" बोला वो,
"आ जाओ पहले!" कहा मैंने,
"अच्छा! ठीक!" बोला कोई और कट गया फ़ोन!
"आ रहे हैं!" बोले वो,
"कहां हैं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं बताया!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"दस मिनट?'' बोले वो,
"आते होंगे फिर!" बोला मैं,
"पूछ रहे थे, बुलाऊं किसी को?'' बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"मैंने भी मना कर दिया था!" बोले वो,
"ठीक किया!" कहा मैंने,
तभी सामने से एक गाड़ी आयी, एक कम-उम्र की लड़की गाड़ी चला रही थी, दो बार हॉर्न मारा उसने, मैंने आगे जाने का इशारा किया, उसने बाहर झांका और मुझे देखा, गाड़ी धीरे की और आहिस्ता से निकाल ली आगे!
"लड़की इतनी छोटी और गाड़ी इतनी बड़ी!" बोले वो,
"बड़े बाप की बड़ी बेटी!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"कोरोला थी गाड़ी!" बोले वो,
"होगी!" कहा मैंने,
"हमारी तो ये ही ठीक!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! ये ही तो आदमियत है! अपनी वस्तु हमेशा हल्की ही लगती है, जब तक कि हो ही नहीं अपने पास!
"सभी माल वाले हैं यहां!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"व्यापारी, ऑफिसर्स!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये नहीं देखे आपने?" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"ये, निपुण जैन?" बोले वो,
"देखे हों!" बोला मैं,
"ये एक्साइज अफसर हैं!" बोले वो,
"ओहो! ये बात!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"अब आया समझ!" कहा मैंने,
"वही तो आ रहे हैं!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"ठीक!" कहा मैंने,
उन्होंने सिगरेट निकाल ली और मैंने भी उसमे से दो कश खींच लिए! फिर दो-चार बातें इस घर के बारे में होती रहीं! हमें कम से कम बीस मिनट हुए, न कोई आया ही, न कोई गया ही, न इस गली में ही! कमाल है, इस से तो गांव-देहात अच्छे! कोई परे से मार ही जाओ, पता ही न चले, कौन आया और कौन गया!
फिर पास ही उस घर के, एक बड़ी सी गाड़ी आ खड़ी हुई! उसमे से निपुण जैन बाहर निकले, साथ में कोई और भी था, अधेड़ सी उम्र का, हम भी बाहर आ गए और दरवाज़ा भेड़ दिया!
हाल-चाल पूछा गया, सलामती और वही कुछ जो अक्सर ही चलता है! फिर मेरा परिचय करवाया, मैं नहीं जानता था उन्हें!
"आइये!" बोले वो,
और घर की घंटी बजायी!
"अंदर ही बैठ जाते?'' बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
इलेक्ट्रॉनिक-लॉक था, खुल गया और हम अंदर चले! जैसे ही अंदर आये कि ठंडी हवा का झोंका टकराया, ए.सी. चल रहा था! राहत मिली और हमें ड्राविंग-रूम में बिठा दिया गया! और खुद उसकी बगल से निकलते रास्ते में चले गए, वो अधेड़ अंदर नहीं आये थे अभी तक!
कमरे में दो बड़े से झूमर लगे थे, नीले रंग की आभा बड़ी ही शानदार थी, छत पट कारीगरी की गयी थी, बत्तियां दीवार के पीछे से आ रही हों, ऐसे लगाई गयी थीं! बाएं हाथ पर ऊपर, एक पेंटिंग लगी थी, उसमे तीर्थांकर के चित्र बने थे, पेंटिंग मूल्यवान थी, सोने का काम झलक रहा था! दीवारों पर, स्टाइलिश-पेंट किया गया था, दो दीवारें एक सी और दो अलग रंग की! पर्दे, काफी बड़े और बेहद ही शानदार थे, राजस्थानी शैली के! नीचे नीला कालीन बिछा थम एक कांच की बड़ी सी टेबल और एक छोटी सी, जिस पर कुछ धार्मिक किताबें रखी थीं, रखी हुई थी! उसी ड्राइंग-रम से, दायीं तरफ, एक और दरवाज़ा था, उसका पर्दा हिलता तो सीढ़ियां दिखाई देती थीं, ऊपर जाने के लिए! चार पंखे लगे थे, गहरे लाल से रंग के, उन पर सुनहरी सा चित्रण किया हुआ था, कम्पनी का नाम नहीं दिख रहा था, उनमे बत्ती भी लगी थी, कुल मिलाकर ये एक धनाढ्य परिवार है, झलकता था!
बायां पर्दा हटा और निपुण जी आये, साथ में एक लड़की भी जिसने शर्बत के गिलास आदि रखे थे तश्तरी में, वो हमारे सामने रख दिए! इसमें, बादामी से रंग का शर्बत था, और जो फल आये थे वो भी विदेशी ही लगे, ब्लू-बेरीज़, कीवी-फ्रूट और काले मोटे मोटे अंगूर! वाह रे हिंदुस्तान! न हिन्दुतान ही रहा अब और न फिरंगिस्तान ही!
"माफ़ कीजिये, कपड़े बदले में देर हुई!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"लीजिये?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
और वो गिलास उठा लिया, बकबका सा स्वाद उसका, मीठा न होता तो छोड़ ही देता मैं उसे!
"हां जी, अब बताएं!" कहा मैंने,
"आपको बताया तो होगा?" बोले वो,
"हां?" कहा मैंने,
"क्या बताएं!" बोले वो,
"जो चाहें!" कहा मैंने,
वे थोड़ा पीछे हुए! और फिर आगे!
"हम तीन भाई हैं, मैं बड़ा हूं, एक बाहर है! और एक यहीं रहता है!" बोले वो,
"यहीं मतलब, यहां?" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और बाहर कौन?'' बोले शहरयार,
"बीच वाला!" बोले वो,
"बाहर, कहां?" पूछा उन्होंने,
"कनाडा!" बोले वो,
"परिवार?" पूछा मैंने,
"वहीं है!" बोले वो,
''आपका?'' पूछा मैंने,
"यहीं!" बोले वो,
"कौन कौन हैं?" पूछा मैंने,
"एक बेटी, श्रवि और एक बेटा, सौरभ!" बोले वो,
"उम्र?" पूछा मैंने,
"बेटी चौबीस की है, बेटा बीस का!" बोले वो,
"अच्छा, और आपकी धर्मपत्नी?" पूछा मैंने,
"यहीं हैं, मधु!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''और छोटा भाई?" बोले शहरयार,
"मयंक!" बोले वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"मयंक!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"होना न होना बराबर ही है!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"समझ ही नहीं आता?" बोले वो,
"ऐसी क्या बात?" पूछा मैंने,
"लो, ये तो लिए नहीं आपने?" बोले वो,
फलों की तरफ इशारा करते हुए!
"हां!" कहा मैंने और एक अंगूर उठा लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अंगूर मुंह में रखा और चबाया, अंगूर मीठा तो था, लेकिन उसका छिलका बड़ा ही कड़ा था, मैंने निकाल दिया बाहर! अब मुझे कुछ समझ आने लगा था कि शहरयार जी ने मुझे जिस विषय के बारे में बताया था, उसका लेना देना इसी मयंक से है! मुझे बताया गया था कि वो गत दो वर्षों से बेसुध सी हालत में है, जैसे वो खुद खुद ही नहीं, हालांकि वो जानता सभी को है, पहचानता भी सभी को है, उसे कोई शारीरिक दोष भी नहीं कोई रोग भी नहीं, कोई दिमागी हालत का पेंच है जिसे शायद अभी समझा नहीं गया है! उसका व्यवहार पल में कुछ और पल में कुछ हो जाता है! यही सबकुछ मुझे बताया गया था, शेष जानने और कुछ हो सके तो, करता, यदि सम्भव हो पता, इसीलिए यहां चला आया था!
"जी हां मयंक! सबसे छोटा भाई है मेरा! हम सभी का लाडला, अपनी दोनों भाभियों का चाहता, अपने भतीजों और भतीजी का प्यारा और प्यारा करने वाला चाचा!" बोले वो,
"तो समस्या कहां है?" पूछा मैंने,
"वो ऐसा ही था!" बोले वो,
"था?" पूछा मैंने,
"मतलब, इस प्रकार का था!" बोले वो,
"और अब?" पूछा मैंने,
"खोया खोया सा, ग़मग़ीन मिजाज़ और अपने आप में ही जैसे घुट रहा हो!" बोले वो,
"ऐसा कब से?" पूछा मैंने,
"दो सालों से!" बोले वो,
"दो साल पहले सब ठीक था, आपका मतलब!" कहा मैंने,
"जी हां, ऋचा की मौत के बाद से सब बदल गया!" बोले वो,
"ऋचा? ये कौन?" पूछा मैंने,
"उसकी पत्नी!" बोले वो,
"ओह! कोई बाल-बच्चा?" पूछा मैंने,
"नहीं! लेकिन वो तब, तीन महीने के गर्भ से थी...." बोले वो,
"बहुत ही दुःख हुआ जानकर.." कहा मैंने,
"और ऋचा की मौत कैसे हुई?" पूछा मैंने,
"उसको संक्रमण हुआ था" बोले वो,
"कैसा? पेट का?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"फ़ूड-पोइज़निंग मतलब?" पूछा मैंने,
"हां, यही" बोले वो,
"यहीं?" पूछा मैंने,
"हां, यहीं" बोले वो,
"बचाया न जा सका?" पूछा मैंने,
"नहीं, समझ सकते हैं, कोई कमी नहीं है, उसके बाद भी...कुछ न हुआ..." बोले वो,
"होनी को जो मंज़ूर!" बोले शहरयार!
"जी" बोले वो,
मैंने शर्बत का गिलास उठाया और घूंट भरा, एक साथ ही मुंह से हटाना पड़ा! उसका स्वाद, नमकीन था! ऐसा कैसे? मैंने फिर से पिया, इस बार फिर से मीठा! ये मेरा वहम नहीं था, ये कुछ तो था! कुछ...मेरे लिए तो, जैसे धुंध सी छाने लगी थी!
"ऋचा कहां की थी?" पूछा मैंने,
"पंचकूला!" बोले वो,
"जैन?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"पंजाबी?" कहा मैंने,
"हां, मल्होत्रा!" बोले वो,
"वही, शादी सभी को मंज़ूर रही?" पूछा मैंने,
"होनी ही थी!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"ये उसकी पसंद थी!" बोले वो,
"हम्म! आपके माता-पिता?" पूछा मैंने,
"यहीं हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
तभी उनकी पत्नी आ गयीं वहां, नमस्कार हुई उनसे और वे भी बैठ गयीं, शांत स्वभाव की, एक गृहणी ही लगती थीं, उनको देख कर अनुमान लगाया जा सकता था कि उनका पालन-पोषण भी धनाढ्य ही परिवार से हुआ है! सोना, भारी मात्र में पहना था उन्होंने!
"मधु?" बोले वो,
"जी?" बोलीं वो,
"ज़रा एल्बम लाना?" बोले वो,
"अभी लायी!" बोलीं वो, और दूसरी तरफ चली गयीं!
"मयंक क्या करता था?" पूछा मैंने,
"उसने फार्मेसी की थी!" बोलै वो,
"समझा! इसी बीच ऋचा से मुलाक़ात हुई होगी!" कहा मैंने,
"हां, वहीं, पंजाब में!" बोले वो,
"ऋचा का परिवार, मेरा मतलब माता-पिता?" पूछा मैंने,
"पंजाब में ही हैं! भाई हैं दो, वो कनाडा में ही रहते हैं, अपने अपने काम हैं उनके!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
वो एल्बम ले आयीं, मुझे दे दिया, एल्बम बड़ा ही भारी था, पीले रंग के शनील के कपड़े में बंधा था, अब खुला हुआ था, खोल दिया गया था, लाते लाते!
"वो देखिये!" बोले वो,
मैंने पहला पेज खोला उसका, एक लड़की! बेहद ही प्यारी सी! मुस्कुराती हुई, मोटी मोटी आंखें और छोटी सी एक सुतवां नाक! जवानी के रंग में डूबी, लाल चेहरा था उसका! उसकी भवन, काली, बेहद ही घुमावदार! भवें, तीखी, तलवारनुमा! पलकें, जैसे चम्पा का ताज़ा हरा पत्ता और उस जैसी ही चमक! सच कहूं तो मयंक, बहुत ही भाग्यशाली था, उस वक़्त था, जब तक होनी आड़े न आ गयी....
"ये मयंक!" बोले वो,
अगले ही पेज पर, मैरून रंग के कोट में था वो! गोरा-चिट्टा, एक सामान्य सा ही युवक! लेकिन देह में अच्छा और ऋचा से उन्नीस नहीं, सत्रह ही! मैंने फिर से गिलास उठाया, बचा शर्बत खत्म करने को, लगाया मुंह और फिर से नमकीन! इस बार मैंने उसे गौर से देखा! सब ठीक ही था! उसी सतह पर, कुछ जमता नहीं था जो नमक बन जाए! मैंने हल्का सा पिया और रख दिया फिर से नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर कुछ और तस्वीरें देखीं, घर के दूसरे सदस्यों के साथ भी और कुछ ऋचा के रिश्तेदारों की भी! परिवारों में खुशहाली थी, पता चलता था, ऋचा की शादीशुदा बड़ी बहन भी उस जैसी ही लगती थी, बस बदन में ज़रा भारी थी! मैंने और भी कई तस्वीरें देखीं, तो सब वैसी ही वैसी रहीं, कुछ अलग या ख़ास नहीं था उनमे!
"आपके अनुसार, दो वर्ष हुए ऋचा को?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"देखा जाए तो दो साल और ढाई महीने बीत गए..." बताया उन्होंने,
"दो साल ढाई महीने?" बोलै मैं,
"हां" बोले वो,
"ये फ़ूड-पोइज़निंग उसे हुई कैसे?" पूछा मैंने,
''मयंक और ऋचा, नैनीताल गए थे, घूमने, करीब चार दिनों के लिए, खबर मिली की ऋचा को उलटी और पेचिश की शिकायत हो गयी थी वहां, वहां के अस्पताल में दिखाया था और उनके अनुसार उसको दिल्ली ले जाना ही बेहतर था..." बोले वो,
"तो उसे दिल्ली ले आये?" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"दाखिल करवाया होगा?" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कितने दिन यहां ज़िंदा रही?" पूछा मैंने,
"दो दिन" बोले वो,
"कुछ गलत खाया होगा उसने, जिस से से अब हुआ!" बोले शहरयार,
"यही वजह होती है अमूमन!" कहा मैंने,
"यही हुआ था, उन्होंने उस दिन, कुछ सलाद, फ्रूट-सलाद और खाना खाया था, उसी रात से उसको पेट में दर्द हुआ, और बुखार, पेचिश, हालत बिगड़ती ही चली गयी..." बोले वो,
"मयंक कहां है?" पूछा मैंने,
"अपने कमरे में" बोले वो,
"अभी भी?" पूछा मैंने,
"वहीं रहता है" बोले वो,
"कहीं आता जाता नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"कैसे काटता है समय?'' पूछा मैंने,
"जागता ही रहता है, बे-से-पैर की बातें करता है!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"कोई सदमा?" बोले शहरयार!
"डॉक्टर तो यही कहते हैं!" बोले वो,
मैंने इस बार गिलास को देखा, शर्बत को देखा, न कुछ बदला ही था, न कुछ सतह पर जमा ही था, मैंने घूंट भरा उसे उठाकर, इस बार नमकीन नहीं लगा! तब लगा कि शायद मेरा वहम ही रहा हो!
मैंने गिलास रख दिया नीचे, बस एक घूंट ही बाकी था, मैंने हाथ हटाया तो वो एल्बम सरक गया, टेबल से नीचे गिरा और कुछ तस्वीरें बाहर आ गिरीं! मैं झुका उन्हें उठाने के लिए कि मधु जी लपकीं और तस्वीरें उठाने लगीं, एक तस्वीर में ऋचा का, कुछ ऐसा लगा, एक, क्या कहूं, तरीक़ा या फिर, जैसे तस्वीर ज़िंदा हो, मुझे देखा हो, पलकें झपकायीं हों! वो तस्वीर उठा ली गयी थी, मैंने हाथ बढ़ाकर, उस तस्वीर को ले लिया और देखा गौर से उस तस्वीर में नज़रें गढ़ा कर!
इस तस्वीर में उसने नीले रंग की झालरदार सी एक चुन्नी पहनी थी, और नीचे नीला ही कुरता था, खादी का सा, नीचे शायद जींस थी, नीले ही रंग की, सबकुछ तो सही था, लेकिन कुछ गड़बड़ था उसमे! कुछ न कुछ तो! मेरा दिमाग ज़रा सा गरम हुआ! क्या गड़बड़ है इसमें?
"ये कौन सी जगह है?" पूछा मैंने,
उन्हें तस्वीर दिखाई मैंने,
"ये हमारी रसोई के बाहर की जगह है!" बोले वो,
"इसी घर की?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"तब से कुछ बदला है वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"दीवार का पेण्ट ही बस" बोलीं मधु!
"बाकी सब वैसा ही है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोलीं वो,
"ज़रा दिखाइए?" कहा मैंने,
"ये जगह?'' उन्होंने पूछा,
"हां, ये ही जगह!" कहा मैंने,
''आइये!" बोले मियां-बीवी दोनों ही!
"आओ!" कहा मैंने शहरयार से,
"हां!" बोले वो,
और हम उस जगह तक चले आये! मैंने अब गौर से उस तस्वीर को देखा, उसमे ऋचा की आंखें, जैसे कुछ बताना चाहती थीं, जैसे कुछ कहना चाहती हों!
"ऋचा यहां है?" कहा मैंने उस जगह खड़े हो कर,
"हां, यहीं!" बोले वे दोनों,
"और उधर, ये खिड़की!" कहा मैंने,
"ये रही!" बोले वो,
"और ये, ऊपर लगी, दीवार-घड़ी!" कहा मैंने,
"घड़ी?" मैंने मुंह से निकला तभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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घड़ी? हां? घड़ी? यही! यही तो गड़बड़ थी! अब आया समझ! क्यों मुझे ये तस्वीर कुछ अटपटी सी लगी थी! अब आया था समझ! हालांकि अभी तक ये मेरी अटकलबाज़ी ही थी, लकिन जो कुछ भी था, वो किसी की भी रूह को कंपकंपा देता! झुरझुरी सी आ जाती! तो मैंने ऐसा क्या देखा था?
"यहां, आपको यक़ीन है, कुछ नहीं बदला?'' पूछा मैंने,
"हां, नहीं बदला!" बोलीं मधु,
"पक्का यक़ीन है?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं? दिन में पता नहीं कितनी बार रसोई में आना जाना होता है!" बोली वो,
"अच्छा! रुकिए!" कहा मैंने,
और तब उस तस्वीर को देखा, आसपास का जायज़ा लिया! जहां एक घड़ी लगी थी, एक बड़ी सी दीवार घड़ी, ये किसी मैक्स कम्पनी की थी, सफेद डायल था उसका और काला फ्रेम! सुइयां उसकी, सुनहरी थीं, घड़ी बेहद ही सुंदर थी! पुराने ज़माने की सी लगती थी! घर में रखने लायक़ एक बेजोड़ नमूना! 
उसी घड़ी के सामने एक दीवार थी, इस दीवार पर कुछ नहीं लगा था, नीचे पत्थर लगा था, स्लेटी रंग का और बाकी सारी दीवार खाली थी! जैसे मैंने इस तस्वीर को देखा था, मुआयना किया था, कुछ बताता हूँ, जैसे कि आप किसी कमरे से, एक दूसरे कमरे में जाएं, सीधे हाथ पर, तब वहां, सामने सीढ़ियां हों, ये सीढ़ियां घुमावदार वाली थीं, शानदार पत्थर लगा था उन पर, और पीतल की रेलिंग भी थी! बीच बीच में, टीक की लकड़ी भी लगी थीं! कुल मिलाकर, देखा जाए तो सीढ़ियां भी कम नहीं थीं! तो अब इन सीढ़ियों से आप बिन चढ़े, बाएं चलें, बाएं चलते हुए, एक तरफ, सीधी तरफ, एक आलीशान सी रसोई हो, उस रसोई के साथ एक बंद कमरा भी था, और उसके साथ आगे तक जाती एक दीवार, जिसका मैंने ज़िक्र अभी किया! अब इस रसोई के सामने की डीआर पर एक घड़ी लगी हो, जो मैंने बताई! इस घड़ी से करीब आठ फ़ीट आगे, एक बंद कमरा और उस से आगे उस कमरे की खिड़की! जो कि इस समय दोनों ही बन थे! अब जिसने वो तस्वीर कैमरे में ज़ब्त की होगी, वो इस सीढ़ियों के शुरू में ही खड़ा होगा, इसमें वो दीवार भी थी, जिस पर यही घड़ी लगी थी और जिसमे वक़्त हुआ था शाम के साढ़े पांच बजे से थोड़ा ज़्यादा! तब इसमें क्या असामान्य? क्या रूह कंपाने वाला? बताता हूं!
उनके मुताबिक़ उस जगह पर कोई बदलाव नहीं किया गया था, सबकुछ ठीक वैसा ही था, जैसा अब था, बस पेण्ट दोबारा, करवाया गया था और कुछ नहीं! यहां तक ठीक!
लेकिन, जिस से मुझे झटका लगा था वो ये, कि उस रसोई के साथ जो कमरा था, जो अभी बंद था, उस कमरे की चौखट के ऊपर, एक चौरस फ्रेम वाली घड़ी लगी थी! इस जगह, और दो घड़ियां? चलो मान लिया कि हो सकती हेम लेकिन एक में साढ़े पांच से थोड़ा ज़्यादा वक़्त और उस चौखट के ऊपर लगी घड़ी में वक़्त हुआ था ढाई! वक़्त अलग क्यों? ये दिन का ढाई था या रात का? अगर कोई घड़ी थी, तो बताया क्यों नहीं?
मैं उसी कमरे की चौखट तक गया, ऊपर देखा, तस्वीर देखी, दूरी का जायज़ा लिया और गौर से देखा, न उस चौखट के ऊपर कोई कील, कोई स्टैंड और न ही कोई डबल-टेप!
"क्या यहां कोई घड़ी थी?" पूछा मैंने,
"घड़ी?" बोले वे दोनों!
"हां!" कहा मैंने,
"कैसी घड़ी?" बोले वो,
"सफेद और काली!" कहा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"कभी नहीं?" पूछा मैंने,
"थी ही नहीं?" बोले वो,
"तब ये?" अब मैंने तस्वीर उनकी तरफ बढ़ाते हुए कहा! शहरयार जी लपक कर उधर आये! सभी बार बार दीवार को देखें और कभी तस्वीर को!
"नहीं जी, ऐसी घड़ी तो पूरे घर में नहीं!" बोले वो,
"क्या ऋचा ने लगाई हो?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोलीं मधु,
"या आपकी बेटी या बेटे ने?" पूछा मैंने,
"नहीं, वे क्यों लगाएंगे?'' बोले वो,
''ये कमरा किसका है?" मैंने पूछा, उनसे, उस बंद पड़े कमरे की तरफ देखते हुए!
"ऋचा का!" बोले वो,
"उनका बेड-रूम?" पूछा मैंने,
वे तो अभी तक घड़ी में खोये थे, बदहवासी छाने लगी थी उनके चेहरे पर, दोनों के ही!
"बेड-रूम?" पूछा मैंने,
"न....मेक-अप रूम" बोलीं मधु,
"मेक-अप?" पूछा मैंने,
"ह...हां...अपने कपड़े आदि भी यहीं रखती थी वो..." बोलीं वो,
"समझा! आइये!" कहा मैंने,
और हम कमरे में वापिस आ गए! मैंने कई बार उस तस्वीर को देखा, कि कहीं और कुछ असंगत तो नहीं? लेकिन और कुछ नहीं था!
वे भी बैठ गए और हम भी, मैंने शर्बत का गिलास उठाना चाहा! जैसे ही चाहा, मेरा हाथ रुक गया! मेरे गिलास में एक घूंट शर्बत बचा था, ये आधा गिलास कैसे हो गया? शहरयार जी का भी एक ही घूंट था, अभी भी है, ऐसा कैसे?
मैंने किसी को नहीं जतलाया, न ही कुछ कहा ही! मैंने गिलास उठाया और एक घूंट भरा! शर्बत, अभी भी ठंडा था! मैंने इस बार, ख़तम ही कर दिया, एक छोटी सी डकार आ गयी!
"वो घड़ी?" बोले मधु जी से वो,
"मुझे नहीं पता?" बोलीं वो,
"न ही मैंने कभी देखा?" बोले वो,
"मैंने भी आज ही देखी?" बोलीं वो,
"मयंक, कहां है?'' पूछा मैंने,
"यहीं है" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या हम मिल सकते हैं?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?' बोले वो,
और उठ खड़े हुए,
"मैं आता हूं देख कर!" बोले वो,
और चल पड़े उस सीढ़ी वाले रास्ते के लिए, कुछ देर बीती, और वे वापिस आ गए!
"आइये!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
और हम, उस कमरे से बाहर निकल, उधर ही चले, वे आगे आगे चढ़े और हम पीछे पीछे उनके! वे हमें वहां से एक दूसरी जगह ले आये, यहां भी नीचे जैसा ही ड्रॉईंग-रूम बना था, लेकिन यहां की रौनक, वैसी नहीं थी, ये कुछ कुछ, ध्यान न दिए जाने वाली सी जगह थी, मिट्टी कहीं कहीं जम गयी थी, शायद काम वाली भी कम ही आती हो इधर, शायद!
"इधर!" बोले वो,
और एक चौड़ी सी गैलरी में ले आये, यहां से एक कमरे के सामने आ कर खड़े हुए! हम भी आ गए वहां!
"ये है कमरा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आइये!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
दरवाज़ा खोला और हम अंदर चले! जैसे ही अंदर आये कि एक भीनी सी सुंगंध उस कमरे में फैली मिली! ये सुगंध, ओपियम परफ्यूम जैसी थी! बेहद ही भीनी भीनी और, मदहोश करने वाली सी!
"बैठिये!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
और हम बैठ गए उधर, सोफे पर!
"कहां है मयंक?" पूछा मैंने,
"अभी देखता हूं!" बोले वो,
और बाहर चले गए!
"कोई सुगंध आयी?" पूछा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"कमरे में आते हुए?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?'' बोले वो,
"हम्म्म!" कहा मैंने,
"आपको?" पूछा उन्होंने,
"तभी तो पूछा!" कहा मैंने,
"कैसी है?'' बोले वो,
"ओपियम-परफ्यूम की सी!" कहा मैंने,
"नहीं, मुझे नहीं आयी!" बोले वो,
तभी कमरे का दरवाज़ा खुला और एक युवक सा अंदर आया, पीछे पीछे निपुण जी भी, उस युवक की दाढ़ी बढ़ी हुई थी, कुरता पहन रखा था, नीचे पायजामा था, चप्पलें बढ़िया वाली!
"नमस्ते!" बोलै मयंक!
"नमस्ते!" कहा मैंने,
"नमस्ते!" बोलै वो शहरयार जी से,
"नमस्ते!" बोले वो भी!
उसने अभी तक हाथ जोड़े हुए थे, निपुण जी ने ही उसको हाथ खोलने के लिए कहा, और उसने तुरंत ही हाथ खोल दिए!
''कैसे हो मयंक?" पूछा शहरयार जी ने,
"आ गया हूं!" बोला वो,
बड़ा ही अजीब सा जवाब था उसका? अजीब इसलिए भी कि उसने जैसे हमें जवाब न देकर, किसी और को जवाब दिया था!
"कहां से मयंक?" पूछा मैंने,
"वो, पेड़!" बोला बाहर इशारा करते हुए! खिड़की से बाहर!
"पेड़?" कहा मैंने,
"हां, वो, पेड़!" बोला वो,
मुझे एक बार को लगा कि वो सदमाग्रस्त ही है, अपने आप में नहीं है, बेचारा मयंक...मुझे उस पर तरस आ गया उसी क्षण....क्या क्या सहता है इंसान भी! कैसे कैसे पल और कैसी कैसी टुकड़ों में बंधी ये ज़िंदगी!
मैं उठ गया और मयंक के पास चला, मुझ से पहले वो उठा और खिड़की की तरफ चला, खिड़की पर चारों तरफ से जाल लगा दिया गया था, समझ ही गया था मैं कि किसलिए!
"पेड़!" बोला वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"वो! वो रहा!" बोला वो,
मैंने बाहर झांका, कोई पेड़ नहीं था वहां, कोई भी, एक था भी गुलमोहर का लेकिन वो छोटा था अभी, और अगर थे, तो दूर थे, आसपास तो सिर्फ मकान और उनकी छतों पर रखे गमले थे!
"भाई?" बोला वो निपुण की तरफ होते हुए,
"हां?" बोले वो,
"आया?" बोला वो,
"नहीं!" बोले वो,
उनके इस जवाब से शायद वो खिन्न सा हो गया था, खिड़की से पेट लगा, खड़ा हो गया वहीं!
"कौन आया?" पूछा मैंने, निपुण से,
"बताता हूं" बोले वो, और आगे आये, उस मयंक को हटाने लगे उस खिड़की से! मयंक ने ज़ोर से पकड़ा था वो जाल, आराम से नहीं छोड़ा उसने!
"बैठ उधर?" बोले वो,
"नहीं" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बैठ?" बोले वो, थोड़ा गुस्सा सा दिखाते हुए!
बेचारा मयंक, डरा हुआ सा, बैठ गया वहीं बिस्तर पर, अपने कुर्ते के कोने को अपनी टांग के नीचे से निकालते हुए, और जांघ पर रखते हुए!
"इलाज चल रहा होगा?'' पूछा मैंने,
"कोई कमी नहीं जी!" बोले वो,
"समझ सकता हूं!" कहा मैंने,
"कभी कभी मन बहुत खराब हो जाता है, एक आदमी इसके लिए चाहिए, ये रुकने ही नहीं देता!" बोले वो,
"रुकने?" पूछा मैंने,
"अब तक दो रखे, दोनों को इसमें पीट दिया, कौन किसकी सुनता है, चले गए!" बोले वो,
मैंने एक बात पर गौर किया, जैसे, मयंक, अंदर ही अंदर, डर रहा था निपुण से, तो मैंने एक युक्ति खेली!
"मैं ज़रा अकेले में बात कर लूं?'' कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
और चले गए बाहर, मैंने इशारा किया शहरयार जी को, कि दरवाज़ा बंद कर दें, उन्होंने बंद कर दिया और वापिस आ बैठे!
तभी, अचानक ,मेरा हाथ पकड़ा उस मयंक ने, और मेरी घड़ी की तरफ से घुमाया, जैसे समय देख रहा हो!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ढाई बज गया?" बोला वो,
क्या? मैं तो चौंक पड़ा! उछल ही पड़ा! शहरयार जी की गरदन की स्प्रिंग फेल सी हो गयी मयंक के मुंह से ये सुन कर!
"हैं?" बोला वो,
"दिन के या रात के?'' पूछा मैंने,
"रात के!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बचा लूंगा!" बोला वो,
और हंसने लगा!
"किसे?" पूछा मैंने,
"उसे!" बताया उसने,
"कौन?" पूछा मैंने,
"ऋचा!" बोला वो,
"बचा लूंगा?'' कहा मैंने,
"हां, बचा लूंगा!" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
अब वो चुप हो गया...खड़ा हुआ, और आंखों में पानी भर लाया! मैं खड़ा हुआ, उसको छुआ, तो पूरा कांप रहा था!
"किस से?" पूछा मैंने,
"वो सो गयी!" बोला वो,
"ऋचा?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"सो गयी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"अब कहां है?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"कभी देखा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"कभी आयी वो?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तब बचा कर क्या करोगे?" पूछा मैंने,
"वापिस!" बोला वो,
"वापिस? कहां?" पूछा मैंने,
"पीछे!" बोला वो,
"पीछे? मयंक?" कहा मैंने,
"सुनो!" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"पीछे, वहां!" बोला वो,
वहां का मतलब बाहर, खिड़की से!
"लेकिन पीछे क्यों?" पूछा मैंने,
"उसे, सोने नहीं दूंगा!" बोला वो,
ओह.....उसके इस लहजे ने मेरे दिल को झिंझोड़ के रख दिया.........मेरी पकड़, उस से ढीली हो गयी और मेरा हाथ झूल गया नीचे.......
"नहीं सोने दूंगा.........." बोला वो,
और चढ़ गया बिस्तर पर, जल्दी में हो बहुत, ऐसे इधर और उधर! खोली उसने अलमारी, कुछ फेंकता चलागया नीचे, इलाज के कागज़ात, कुछ रुमाल से और कुछ सूखे हुए से फूल... और तब उसने कुछ निकाला बाहर वहां से! अपने आसपास देखा! और धीरे से नीचे उतर आया, सीधा भागा आया मेरे पास, ये एक रजिस्टर था! पुराना सा, मेरी तरफ बढ़ा दिया उसने!
"लो, ले जाना इसे!" बोला वो,
मैंने रजिस्टर ले लिए, उसको खोल के देखा............एक भी अक्षर नहीं था उसमे...लिखा हुआ एक भी अक्षर नहीं! मैंने उसके पृष्ठों को फांक कर देखा, कुछ न निकला! कुछ भी नहीं!
"रख लो! यहां! यहां!" बोला वो, इशारा करते हुए, कमीज़ के नीचे रख लूं, फंसा कर, ऐसा जताते हुए, मैंने वो रजिस्टर शहरयार जी को पकड़ाया और.


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने वो रजिस्टर, वैसे ही छाती से खोंस लिया, कमीज़ के अंदर! ये देख तो मयंक की ख़ुशी ही अजब सी बन गयी थी! वो मुस्कुरा रहा था! उसने मेरा हाथ पकड़ा और ले चला बाहर की तरफ दरवाज़ा खोल कर! मैं चल पड़ा, उसने ऊपर का रास्ता पकड़ा और छत पर आ गया, और दूर की तरफ, कुछ पेड़ों को देखते हुए मुझे देखा!
"पेड़!" कहा उसने,
"हां!" कहा मैंने,
"पेड़ बहुत!" बोला वो,
"हां, बहुत हैं!" बोला वो,
"आवाज़ आती है मुझे!" बोला वो,
अब एकदम से सहज हो गया था! पल में कभी कुछ अजीब सा और पल में ही गंभीर और सहज!
"आवाज़?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो, कानों को दबाते हुए,
"किसकी आवाज़?" पूछा मैंने,
"ऋचा!" बोला वो,
"क्या आवाज़?" पूछा मैंने,
"ऋचा की आवाज़!" बोला वो,
"क्या कहती है?" बोला मैं,
"कुछ नहीं" बोला वो,
"कुछ नहीं?" बोला मैं,
"हां, कुछ नहीं!" बोला वो,
"फिर आवाज़?" पूछा मैंने,
"मेरा नाम!" बोला वो,
"ओह! ऋचा तुम्हारा नाम लेती है! यही न?" बोला मैं,
"हां! हां! मेरा नाम!" बोला वो,
"लेकिन सामने नहीं आती, यही?" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
तभी ऊपर निपुण आ गए! उन्हें देख मयंक फिर से असहज हो गया और मेरे साथ आ खड़ा हुआ!
"कुछ पता चला?" बोले वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"मयंक क्या बता रहा था?" बोले वो,
"वो ही, पुरानी बातें!" कहा मैंने,
"यही करता है ये!" बोले वो,
"गहरा सदमा है!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"मयंक?" बोले निपुण,
मयंक ने उन्हें देखा और आगे हुए,
"जाओ, कुछ खा लो नीचे जा कर, जाओ!" बोले वो,
मयंक, चुपचाप चला गया नीचे!
"निपुण जी?" बोले शहरयार,
"जी?" बोले वो,
"आपने दवा तो करवाई, कोई ऊपरी इलाज?" बोले वो,
"वो भी करवाया!" बोले वो,
"क्या रहा?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं पता चला!" बोले वो,
"कहां से करवाया था?" पूछा मैंने,
"जिसने जहां बताया जी!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"नीचे बैठें?" बोले वो,
"हां, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
नीचे चले आये हम, मयंक नज़र ही नहीं आया, नीचे आये तो वहीं बैठ गए, जहां पहले बैठे थे! मैंने पानी मंगवाया और पानी पिया!
"अच्छा निपुण जी, अब चलेंगे हम!" कहा मैंने,
"खाना बन रहा है?" बोले वो,
"खाना फिर कभी सही!" कहा मैंने,
"ये तो कोई बात नहीं हुई!" बोले वो,
"मना नहीं किया!" कहा मैंने,
"आपको पता नहीं कब फुरसत मिले!" बोले वो,
"बता देंगे!" कहा मैंने,
"आपको क्या लगता है इस मयंक का?" पूछा मैंने,
"दिमागी सदमा ही है!" कहा मैंने,
"कोई उम्मीद है?" बोले वो,
"उम्मीद तो है!" कहा मैंने,
"ठीक हो जाए!" बोले वो,
"हो जाएगा!" कहा मैंने,
"वो बीच वाले का रो रो के हाल खराब हो जाता है मयंक को लेकर!" बोले वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"लाडला रहा है!" बोले वो,
"तो बीच वाले बाहर ही ले जाएं इलाज करवाने?" कहा मैंने,
"ये नहीं जाता!" बोले वो,
"मना करता है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"समझता हूं!" कहा मैंने,
"ठीक हो, तो कुछ सोचें फिर!" बोले वो,
"आप अपने बड़े का फ़र्ज़ निभाइये!" कहा मैंने,
"निभा रहा हूं!" बोले वो,
"इस से अधिक और कुछ सुकून नहीं देने वाला!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर हम उठ खड़े हुए, चले आये बाहर तक, उनसे मिलना हुआ, गाड़ी स्टार्ट हुई और हम अगले मोड़ से वापिस हो गए! शाम होने वाली थी थोड़ी देर में ही, और दिमाग ज़रा गरम हो चला था, ईंधन चाहिए था उसको शांत करने के लिए, खैर, कार्यक्रम हमारा यही था कि दिल्ली पहुंच कर सामान खरीदें और एक शांत सी जगह जाकर, ठिया लें, थोड़ा इसी विषय पर बातें करें!
"बाहर से ही ले लूं?" बोले वो, और वो रजिस्टर जो सीट पर रखा था, पीछे रख दिया था!
"हां!" कहा मैंने,
हमें एक घंटा लग गया इसी इंतज़ाम में, भीड़ ही इतनी होती है, उसके बाद अपनी एक जगह पर चले गए, यहां शांति से जा बैठे, खाने के लिए साथ में कुछ तीखा सा आर्डर दे दिया था, ग्रीन-सलाद की प्लेट आ गयी थी, सो निम्बू निचोड़ और काला नमक डाल और कड़क सा कर लिया था उसे!
"क्या लगता है?" बोले वो,
"मामला अजीब ही है!" कहा मैंने,
"ये तो देखा!" बोले वो,
"कुछ मुझे लगा कि...छिपाया भी जा रहा है!" कहा मैंने,
"मसलन?" बोले वो,
"कि ऋचा की मौत हुई, चलो मान लिया फ़ूड-पोइज़निंग से हुई, दिल्ली आ कर, वो एक बार गिरी तो सम्भली नहीं, मानता हूं, यहां तक ठीक है!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"लाडला! याद है?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
तो उस लाडले की पत्नी उधर नैनीताल में दाखिल हुई, शायद रात भर रही भी, तब यहां से उस लाडले को देखने, कम से कम हिम्मत बढ़ाने के लिए कोई नहीं गया?" पूछा मैंने,
"हो सकता है, वे यहां इंतज़ाम कर रहे हों?'' बोले वो,
"चलो, ऐसा ही मानते हैं! और ये भी मानता हूं कि ऋचा के घर में सभी को इत्तिला दे ही दी गयी होगी?" कहा मैंने,
"लाजमी है!" बोले वो,
"ठीक, चलो, यहां तक भी ठीक!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
तब मैंने उन्हें, उस शरबत के बारे में बताया, वे चौंक पड़े! उनको नमक जैसा तो कुछ नहीं लगा था, वो शर्बत मीठा ही था, कोई बदलाव भी नहीं था और ये भी कि एक घूंट का आधा गिलास कैसे हो गया ये भी अजीब सी बात थी, और फिर वो तस्वीर का गिरना, मुझ से आँखें सी मिलाना और वो घड़ी! घड़ी में बजते ढाई! ये सब मैंने बताया था उन्हें!
"इस ढाई बजे से कोई ताल्लुक़ लगता है!" बोले वो,
"कैसा ताल्लुक़?" बोला मैं,
"कुछ रहस्य!" बोले वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
गिलास में आइस-क्यूब गिरी तो बड़ी प्यारी सी खनकने की आवाज़ आयी! मेरी नज़र फौरन ही उस पर चली गयी थी!
"एक बात! ऐसा कौन चाहेगा?" बोले वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"ये सब बताना?" बोले वो,
"कौन है नज़र में?" बोला मैं,
"नज़र में तो कोई नहीं?" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"क्या फिर? ऋचा? हैं??" बोले वो चौंक कर!
अब मैंने उन्हें देखा! मुस्कुराया!
"क्या आपको वहां किसी की मौजूदगी के बारे में पता चला?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई भी नहीं?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब वो सुगंध?" बोले वो,
"सम्भवतः...वही परफ्यूम लगाती हो ऋचा भी?'' कहा मैंने,
"ये हो सकता है!" बोले वो,
तभी वो लड़का, प्लेट में, टिक्के ले आया, भुनवाये थे मैंने, मक्खन और निम्बू के रस में मिलवा कर! टूथ-पिक धंसी हुई थीं उनमें!
उन्होंने तभी सिगरेट निकाली और सुलगा ली!
"पेड़!" कहा मैंने,
"अरे हां!" बोले वो,
"पेड़, वो, वहां!" कहा मैंने,
"इसका क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"बताऊंगा!" कहा मैंने,
"बताइये!" बोले वो,
"रुको अभी!" कहा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"क्या छत की मुंडेर पर, जाल लगा है उधर? या दीवार कुछ ऊंची हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"जाल नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं?" बोले वो,
"मुंडेर ऊंची नहीं?" बोला मैं,
"नहीं?" बोले वो,
"तब मयंक के कमरे की खिड़की पर ही जाल क्यों? क्या हुआ था? क्या कभी उसने कोशिश की थी कूदने की नीचे? आत्महत्या का प्रयास किया था?" बोला मैं,
"अरे हां?" बोले वो,
"यदि हां, तो बताया क्यों नहीं हमें?" बोला मैं,
मैंने अपना गिलास उठाया और कुछ छींटे नीचे गिराए, और आधा खाली कर दिया, बाकी रख दिया टेबल पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक बात तो साफ़ है, उधर, कोई नहीं, मतलब, साफ़ साफ़ कहा जाए तो कोई रूह नहीं, ऋचा की तो हरगिज़ ही नहीं!" कहा मैंने,
''चलिए, इस पहलू को अलग रखते हैं!" बोले वो,
"ठीक, रख देते हैं!" कहा मैंने,
"निपुण के अनुसार, वे दोनों नैनीताल गए थे, दो दिन घूमे भी, शायद यही बताया था, और फिर कुछ गड़बड़ हुई पेट में, कुछ उलट-सीधा खा लिया, तबीयत बिग गयी, नतीजतन, अस्पताल ले जाया गया और फिर यहां लाया गया...यहां आ कर कोई लाभ न हुआ..उसी वजह से मौत हो गयी..!" बोले वो,
"हां, ऐसा ही हुआ!" कहा मैंने,
"तो अब एक एक करके इस पर गौर करते हैं!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सबसे पहले वो शर्बत!" बोले वो,
"उसकी हैरानी है मुझे!" कहा मैंने,
"आपको नमकीन लगता था, और मुझे कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"इसका मतलब क्या हुआ? यही न कि कोई ध्यान बंटाना चाहता है? या इंगित करना चाहता है या हम ज़रा और गहराई से जांच करें, ये ही न? मतलब?'' बोले वो,
"हां, ये ही!" कहा मैंने,
"अब वहां कोई है नहीं! ठीक?" बोले वो,
"हां, कोई नहीं!" कहा मैंने,
"तब कौन करेगा ऐसा?" बोले वो,
"तभी तो हैरानी है मुझे?" कहा मैंने,
"इसमें कोई पीछे से खेल तो नहीं खेल रहा?" बोले वो,
"ये हो सकता है!" कहा मैंने,
"ये हुई न बात!" बोले वो,
"नहीं हुई!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"जो खेल खेलेगा भी, वो क्यों जतलायेगा?" बोला मैं,
"अरे हां? सही बात?" बोले वो,
"चलो छोडो, अब वो घड़ी!" कहा मैंने,
''हां!" बोले वो,
"अब समझा आ रहा है, घड़ी भी केवल एक इशारा ही है!" कहा मैंने,
"ढाई बजे का!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये ढाई क्या हो सकता है?'' बोले वो,
"रुको...रुको!!!" कहा मैंने,
और उठ खड़ा हुआ, सिगरेट ली, दो बढ़िया से कश खींचे! कुछ आया समझ! बैठ गया!
"एक फ़ोन करो?" कहा मैंने,
"किसे?'' बोले वो,
"निपुण को!" कहा मैंने,
"क्या कहना है?" बोले वो,
"ऋचा की मौत का समय!" कहा मैंने,
"ओ!" उनके मुंह से निकला अचानक ही!
"करो!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो, और डायल किया नंबर, उठा और बातें शुरू हुईं, तब उन्होंने अहम् सवाल पूछा! और! उत्तर वही जिसका मुझे अंदेशा था!
"ढाई बजे! हहै ईश्वर!" बोले वो,
"रात के?'' बोला मैं,
"दिन के!" बोले वो,
"अब आया समझ मुझे!" कहा मैंने,
"ये तो पहेली है!" बोले वो,
"दो सुलझ गयीं!" कहा मैंने,
"अब एक!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ये मयंक!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"उसने पूछा, ढाई बज गए?" बोला मैं,
"बिलकुल!" बोले वो,
"अब इस ढाई बजे से उसका क्या ताल्लुक़?" पूछा मैंने,
"जब मौत हुई होगी, तब मयंक तो पास ही होगा?'' बोला मैं,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
"क्यों?" बोले वो,
"वे बाहर होंगे, शायद, उसको इंटेंसिव केयर यूनिट में रखा गया होगा, ऋचा को!" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"तो ये बाहर ही होंगे!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"उनको सूचित किया गया होगा!" बोले वो,
"रुको! रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"हां! हां!" कहा मैंने,
मैंने कुछ सोचा! और हल्का सा मुस्कुराया!
"शहरयार जी!" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ऋचा की मौत ढाई से पहले, कुछ ही समय पहले हुई होगी!" कहा मैंने,
"कुछ ही समय? मतलब? कितना समय?" बोले वो,
"जितना, ऋचा ने उस से बात की होगी!" कहा मैंने,
"बात? किस से?" बोले वो, अब बेचैन हो उठे थे, सवाल ही सवाल!
"मयंक से!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ओह! ये तो सब का सब उलझा हुआ है!" बोले वो,
"हां, है तो!" बोला मैं,
"तो अब क्या किया जाए?" बोले वो,
"इसमें गहरी जांच की ज़रूरत है!" कहा मैंने,
"निपुण और उसके परिवार को कहां जगह दूं?" बोले वो,
"ये कही आपने सटीक बात!" बोला मैं,
"एक चीज़ तो साफ़ है!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"निपुण और मयंक, इनमे से एक आदमी झूठ बोल रहा है!" बोले वो,
"बिलकुल सही!" कहा मैंने,
"तो आपको क्या लगता है, कौन ठीक है?" बोले वो,
"प्रथमदृष्ट्या मुझे लगता है कि निपुण ठीक है!" कहा मैंने,
"निपुण?'' बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"सो कैसे?" बोले वो,
"सो ऐसे कि ये तो मानना ही होगा कि मयंक की इस समय मानसिक स्थिति ठीक नहीं?" कहा मैंने,
"अब ये तो है ही?" बोले वो,
"और ये शुरू, एक ही झटके में हुई हो, ऐसा भी नहीं?" बोला मैं,
"हां?" बोले वो,
"तब तक तो मयंक ठीक ही होगा?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"मानसिक-स्थिति एक साथ नहीं बिगड़ती, ये धीरे धीरे, गफलत में खोते जाने से होती है!" कहा मैंने,
"और सदमा?" बोले वो,
"सदमा एक साथ हो सकता है!" कहा मैंने,
"तो इसे सदमा माना जाए?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
''सदमे में वो वैसा बर्ताव नहीं करता जैसा कर रहा है!" बोला मैं,
"कैसा?" बोले वो,
"छिपा रहा है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"एक वक़्त!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"मतलब भी पता चल जाएगा!" कहा मैंने,
"जल्दी ही लगे!" बोले वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"वो रजिस्टर?" कहा मैंने,
"वो, गाड़ी में है!" बोले वो,
"लाओ ज़रा!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोले वो,
उठे, और चल पड़े, मुझे सिगरेट थमा गए थे! कुछ ही देर में वो ले आये वो रजिस्टर, बैठे सीट पर,
"ये लो!" बोले वो,
मैंने लिया अपने हाथों में, और उसे देखा गौर से, ये ज़्यादा पुराना भी नहीं था, दो या तीन साल पुराना रहा होगा!
"कुछ है क्या?" पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
''खाली है?" बोले वो,
"लगता तो है!" कहा मैंने,
"तो हमें क्यों दिया?" बोले वो,
"कोई तो वजह होगी?" कहा मैंने,
"कहीं दूसरा तो नहीं दे दिया?" बोले वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"एक मिनट!" बोले वो,
और ले लिया मुझ से वो रजिस्टर, उलट-पलट के देखा, कुछ भी नहीं था! हां, पीछे की तरफ कुछ पेड़ बने थे!
पेड़?
"दिखाना ज़रा?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं है!" बोले वो,
मैंने ले लिया, वो पेड़ देखे, ये ये बड़े बड़े से, देवदार के से पेड़ थे, या फिर चीड़ के रहे होंगे, कुल मिलाकर, पहाड़ी पर्यावरण के पेड़!
"क्या हुआ?" बोले वो,
"पेड़!" कहा मैंने,
"ये?" बोले वो देखते हुए,
"हां!" कहा मैंने,
"ये तो आम बात है!" बोले वो,
"हां, है तो!" बोला मैं,
"कुछ ख़ास है क्या इनमें?" बोले वो,
"पता नहीं!" बोले वो,
"ये तो चीड़ से हैं!" बोले वो,
"हां, पहाड़ी!" कहा मैंने,
"पहा............!!" बोलते बोलते रुके वो,
"क्या हुआ?' पूछा मैंने,
"पहाड़ी पेड़!" बोले वो,
"नैनीताल के, हैं ना!" कहा मैंने,
"बिलकुल!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"लेकिन?" बोले वो,
"क्या?'' बोला मैं,
"नैनीताल से क्या लेना?" बोले वो,
"लेना तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"मैंने सिर्फ पेड़ ही तो दिखाए?" कहा मैंने,
"हम्म!" बोले वो,
वो लड़का आया और इस बार, टंगड़ी दे गया, ये था कुछ चबाने के लिए बढ़िया चीज़! मैंने उठायी और एक मोटा सा टुकड़ा काट लिया! मजा सा आ गया! और अगर बढ़िया ही मजा लेना हो, तो, देसी मुर्गा लो! और खुद ही टंगड़ी या तो फ्राई करो या फिर भून लो भट्टी में या तंदूर में, माइक्रोवेव के लिए मसाला अलग लगता है और मजा नहीं आता उसमे!
खैर!
"अच्छा, अब कब चलना है?" बोले वो,
"इस इतवार को? क्यों?" बोला मैं,
"आज हुआ बुध?" कहा उन्होंने,
"हां!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
"बता देना उनको!" कहा मैंने,
"हां, बता दूंगा!" बोले वो,
तो उसके बाद, खा-पी हम वापिस हुए! दो दिन तक किसी और ही मामले में उलझे रहे! ये मामला भी अजीब सा ही था, तब तक सुलट नहीं पाया था, उसमे पूरा एक महीना लग गया था!
फिर हुआ शनिवार, बात हो गयी थी और हमको इतवार वाले दिन ग्यारह बजे वहां पहुंचना था! ये ठीक था, तब मयंक से खुल कर बात हो जाती! और निपुण का क्या कहना था, ये भी पता चल जाता!
अब बात रही, वहां किसी की मौजूदगी की, तो उसके लिए कुछ तैयारी ज़रूरी थी, और वो भी मैंने निबटा ली थी, कुछ गले में धारण भी कर लिया था, इस से मुझे शर्तिया ही मदद मिल जाती, यदि कोई ओट में भी था तब भी!
और फिर आया इतवार, हम जा पहुंचे उधर! वही ड्राइंग-रूम और वही विषय, कुछ रिपोर्ट्स आयी थीं मयंक की, सब पहले जैसी ही, उसका रक्त-चाप घटता और बढ़ता था, ऐसा पता चला!
"क्या वो कमरा खोला जा सकता है" बोला मैं,
"वो, ऋचा वाला?" बोले निपुण जी,
"हां!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
और मधु जी से कह दिया, उन्होंने जा कर दरवाज़ा खोल दिया और हमें बुला लिया, जैसे ही मैं कमरे में घुसा, मुझे फिर से वही उसी परफ्यूम की ख़ुश्बू आयी! भीनी भीनी सी! अब ये पक्का था, कि ऋचा ही वो परफ्यूम लगाया करती थी! और हो न हो, इस सब के पीछे वही है! लेकिन सामने क्यों नहीं आती? टुकड़ों में क्यों इशारे करती है?
"वो कौन सा परफ्यूम लगाती थी?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
"कोई तस्वीर है यहां की?" पूछा मैंने,
"नहीं!" वो बोले,
वहां अब सामान जो रखा था, वो अब, फिलहाल का ही था, कुछ कपड़े थे, पता नहीं किसके, शायद निपुण के घर-परिवार के ही रहे हों!
"ज़रा मैं मयंक से मिलना चाहूंगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
हम ऊपर चले और उसी कमरे में आ गए, मयंक बैठ हुआ था, बाहर देखते हुए, खिड़की से! शहरयार साहब ने, निपुण को बाहर ही रहने को कह दिया!
"मयंक?'' कहा मैंने,
उसने सर घुमाया, खड़ा हुआ!
"नमस्ते!" बोला वो,
"नमस्ते!" कहा मैंने,
"नमस्ते!" बोला वो, उन से,
"नमस्ते!" वे भी बोले!
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
वो बैठ गया नीचे बिस्तर पर!
"मयंक?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ऋचा को नैनीताल से कौन लाया था?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोला वो,
"और कोई नहीं था?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तब वो बातें कर रही थी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या कर रही थी?" पूछा मैंने,
"सो रही थी, उसका पेट दुखता था!" बोला वो,
"तो यहां अस्पताल लाये?" बोला मैं,
"हां! हंसराज में!" बोला वो,
"हंसराज?" बोला मैं,
"हां!" बोला वो,
"दिल्ली या नॉएडा?" पूछा मैंने,
"दिल्ली" बोला वो,
"सीधा वहीं?" मैंने दोबारा टटोला!
"हां!" बोला वो,
"कौन मिला था?" पूछा मैंने,
"भाई साहब, भाभी जी!" बोला वो,
"और कोई?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं ये देख हैरान था कि ये, मयंक, मनोरोगी, किस तरह से सिलसिलेवार, उस सारे सिलसिले को बयान किये जा रहा था! इस समय तो वो पूरे होशोहवास में लग रहा था, मुझे रत्ती भर भी शुबहा या किसी और को भी, न रहता कि उसका इलाज चल रहा है! या फिर ऐसा भी हो सकता है, ये मस्तिष्क की वो स्थिति है जहां पर वो सबसे ज़्यादा सक्रिय रहा करता है! 
"और कोई भी नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"ये दिन की बात है?'' पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"दिन? याद है?'' कहा मैंने,
"हां, दिन ही!" बोला वो,
"तुम उसको कितने बजे ले कर चले थे नैनीताल से?" पूछा मैंने,
"रात को!" बोला वो,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"दस बजे के आसपास!" बोला वो,
"तुम्हारी बात हुई थी ऋचा से?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"डॉक्टर ने क्या कहा था?" पूछा मैंने,
"वहां?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"यही कि उसकी तबीयत ज़्यादा खराब है, या तो कहीं और ले जाओ या फिर दिल्ली ही सबसे बेहतर!" बोला वो,
"तो तुम दिल्ली लाये?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"तुमने इत्तिला की थी बड़े भाई साहब को?" पूछा मैंने,
"बार बार बताता आ रहा था!" बोला वो,
"कैसे लाये थे?'' पूछा मैंने,
"एम्बुलेंस में!" बोला वो,
"क्या अपनी गाड़ी ले गए थे?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"समझा!" बोला मैं,
"आखिरी बार ऋचा से कब बात हुई थी?" पूछा मैंने,
"उस शाम ही!" बोला वो,
"क्या बात?" पूछा मैंने,
"तबीयत के बारे में!" बोला वो,
"तब वो सोई नहीं थी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"एम्बुलेंस में कोई बात नहीं हुई?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
अब मैं भी चुप हो गया था! कुछ हाथ न लगा! कोई जानकारी नहीं! कुछ भी ऐसा नहीं जिस से ये कुछ पता चलता कि यहां ऐसा कुछ हो भी रहा है या नहीं?
"एक बात पूछूं?" बोला मैं,
"हां??" बोला वो,
"ऋचा कहां है?" पूछा मैंने,
"यहीं!" बोला वो,
और ये हुआ धमाका! अब जो मुझे सुनना था, वो सुन लिया! मयंक, पागल नहीं था! मयंक पर जूनून चढ़ गया था. क्या कहूं? बिछोह का! और यहीं वो पागल हुआ था! जो उसके बस में नहीं था! 
"ये और कौन जानता है?" पूछा मैंने,
"सभी?" बोला वो,
"कौन सभी?" पूछा मैंने,
"मम्मी-पापा, भाई साहब और भाभी जी?" बोला वो,
"वो जानते हैं?" पूछा मैंने,
"हां?" बोला वो,
"किसी ने देखा है ऋचा को?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तुमने?'' पूछा मैंने,
वो मुस्कुराया! और उठा, मुझे देखा!
"हां!" बोला वो,
"अब कहां है ऋचा?" मैंने समय नहीं गंवाया, पूछ लिया फौरन!
"वहां!" बोला वो,
"वहां?" मैंने पूछा, बाहर देखते हुए!
"हां!" बोला वो,
"वहीं से आती है?" बोला वो,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"कहीं से भी!" बोला वो,
"बैठो!" बोला मैं,
वो बैठ गया!
"मयंक?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ढाई बजे क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"आपको कैसे पता?" बोला वो, बेचैन सा हो कर!
"सब पता है!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोला वो,
"पता है मयंक!" बोला मैं,
उसे विश्वास में लेना बेहद ज़रूरी था मेरे लिए! तभी बात बनती!
"बताओ मयंक?'' बोले शहरयार,
"ढाई बजे?" बोला वो,
"हां?" कहा मैंने,
"ऋचा का वायदा है!" बोला वो,
"वायदा?" ये बोलते हुए मुझे अजीब सी सिहरन सी हो चली थी! मैंने और शहरयार जी ने एक दूसरे को देखा तभी!
"क्या वायदा?" बोला मैं,
"उसने मना किया था लेकिन?" बोला वो,
"बता सकते हो!" कहा मैंने,
"पूछ लूं?'' बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"ऋचा से!" बोला वो,
एक और घर्राट!
"ऋचा से?'' कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कहां है ऋचा?" पूछा मैंने,
"ढाई बजे आ जायेगी?" बोला वो,
"यहां??" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"पूछ लो!" कहा मैंने,
"मयंक?" बोले शहरयार,
"जी?" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो फिर से बाहर देखने लगा! मैंने शहरयार जी को इशारा किया और हम भी खड़े हो गए, मयंक को बता ही दिया था कि वो पूछ ले, तो हम तीन बजे करीब दोबारा आ जाते मामलूम करने! तो हम बाहर आये, इस बार ज़रा सरसरी सी निगाह दौड़ाई मैंने उधर, सब ठीक ही था! और फिर हम नीचे आ गए! नीचे आये तो चाय का प्रबंध किया गया, चाय पी, अभी हमारे पास डेढ़ घंटा था, मैं वहां रुकना नहीं चाहता था, मेरी टोह से नहीं आती वो उधर! मेरे पास कुछ था ऐसा ही सामान, जो गले में पहना था! निपुण जी को बता दिया कि हम करीब डेढ़ घंटे बाद पुनः आ जाएंगे! हालांकि उन्होंने कहा कि हम वहीं रुक जाएं, कैसे भी कर के इस मामले को ख़तम करें बस, इस से उनके बेटे और बेटी को भी समस्या ही है, वे अब कहीं नहीं जाते, एक तरह से घर में आ कर, क़ैद से ही हो जाते हैं!
अब सवाल है कि क्यों? इसका मतलब उन्हें भी कहीं न कहीं अंदेशा तो है ही कि घर में कुछ न कुछ तो गड़बड़ है ही! जिसके वजह से उन्होंने बच्चों को ताक़ीद दी है! अभी उनसे भी बातें करनी थीं, खैर वो अब बाद में ही सही!
तो हम बाहर आ गए! वे हमें छोड़ने आये, हमने बताया कि आते हैं बस डेढ़ घंटे में, किसी के पास से हो कर आएं ज़रा! तो गाड़ी स्टार्ट की और हम निकले वहां से!
"अब?" बोले वो,
"नहर पर!" कहा मैंने,
"किसके पास?" बोले वो,
"याद नहीं क्या यार?" कहा मैंने,
"अच्छा, समझा!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"रौशन के पास?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
रौशन एक गुनिया है, नहर किनारे एक देहाती सिवाना है, अब सरकार ने वो हटा दिया है, लेकिन गरीब-गुरबा आज भी वहीं संस्कार कर देते हैं, वहीं से कुछ बचे-खुचे अवशेष आदि, और जो मुझे चाहिए था वो थी मुर्दे की राख! वो उस रौशन से मिल जाती! रौशन करीब साठ साल का है, पकड़-जकड़ तो पता नहीं लेकिन हां, उतारा-उतारी करवा लेता है!
मित्रगण! अक्सर क्या होता है, कि कुछ रहें, किसी जगह पर, पेड़ पर वास न कर, छिपे कुओं या गड्ढों या कोई ऐसी ही जगह पर वास करती हैं! इन पर, शालुष-विद्या कार्य नहीं कर पाती, ये विद्या ज़मीन में नहीं धंस पाती और कोई भी ऐसी ही रूह इस जद से बाहर छूट जाती है! कहीं घर में ऐसा ही न हो, मुझे कुछ कुछ शक ही था! ये रहें बड़ी ही शातिर हुआ करती हैं, इन्हें गोताली कहा जाता है! सिद्धि या साधना समय इसी कारण से, साधक के चारों तरफ की भूमि, कंगाल ली जाती है! या उनका मार्ग ही बांध दिया जाता है! देहली-आगरा राज्य-मार्ग पर, ऐसे दो स्थान हैं, जहां पता नहीं कितनी संख्या में ये गोताली हैं! आप देखें इधर, इस तरफ तो आपको रास्ते में, आसपास कई जगह छोटे-छोटे हनुमान-मंदिर बने दिखाई देंगे! कारण यही है! इस राख को साधक कमर में बांध, पोटली में, चिता के चारों ओर चौरासी परिक्रमा काटते हैं, नग्न-रूप में, ऐसा तीन रात करते हैं, चौथी रात, चार पत्तल बिछा, तीन पर गोश्त रख, एक पर स्वयं बैठ, साधक, अपने हाथ के अंगूठे का रक्त चाटता है! पांचवीं रात ये राख सिद्ध हो उड़ने लगती है! अब जब भी कुछ गोताली की जांच करनी हो, कोई भी राख, मुर्दे की, उस ज़मीन पर डाल दीजिये, झाड़ू लगाइये, जिस तरफ वो बढ़े, वहीं लगाते रहिये, जहां गोताली-वास होगा, ये ढेरी बना लेगी! बस, इसी जगह पर स्थान होगा उस रूह का! अब आगे का कार्य, दूसरी विद्या का आरम्भ होता है! तो मेरा भी उद्देश्य यही था!
तो हम रौशन के गांव के पास पहुंचे, गांव से कुछ पहले ही, त्रिशूल-चिमटा गड़ा एक स्थान है, दो छोटे से कमरे, रस्से, ज़ंजीरें पड़ी हुईं, ज़मीन में, खम्भे से गड़े हुए, पेड़ लगे हुए और एक महाकाली का बलि-स्थल बना है! ये ही जगह है उसकी! यहां हम आ कर रुके, एक बड़ी सी गाड़ी खड़ी थी, कोई आया था उसके पास शायद, हमने गाड़ी लगाई तो एक औरत दिखाई दी, झाड़ू लगाते हुए, उसने हमें देखा!
"अरी? रौशन है?" बोले वो,
उसने अंदर को इशारा किया!
"आओ!" कहा मैंने,
हम आये तो कमरे में बैठे हुए रौशन की नज़र हम पर पड़ी! फौरन ही तौलिया उछाल फेंकी नीचे और उठ, दौड़ता हुआ आ गया!
"आदेश महाराज!" बोला वो,
"कैसा है रौशन?" बोले वो,
"सब राजी तिहारी खैर सै!" बोला वो,
उसने मेरा हाथ पकड़ा और एक जगह ले आया, चारपाई बिछाई उस औरत को पानी लाने को कहा और फौरन दूसरे कमरे में दौड़ गया! कुछ बताया होगा उसके पास आये लोगों को और लौट आया!
"आज कैसे?" बोला वो,
"यहीं आये थे!" बोला मैं,
"नॉएडा?" बोला वो,
''हां!" कहा मैंने,
"काम सु?" बोला वो,
''और क्या!" कहा मैंने,
पानी आया, पानी पिया हमने, खारा सा पानी था! इस तरफ का पानी ठीक ही नहीं!
उसने औरत को कहा कुछ और तब बैठ गया! सिगरेट जेब से निकाल रख दी चारपाई पर!
"सुन?" बोले वो,
"आदेश!" बोला वो,
"राख दे!" बोले वो,
"अभी लाया!" बोला वो,
और दौड़ पड़ा! ले आया, पन्नी में भर कर! दे दी उन्हें!
"खाना?" बोला वो,
"बाद में!" कहा मैंने,
"फिर न आओ!" बोला वो,
"ऐसा नहीं है!" कहा मैंने,
"छोरा गया हा! मंडी! मछरी लाया हा!" बोला वो,
"कोई बात न!" कहा मैंने,
"रन्धी पड़ी है!" बोला वो,
"चल, चखा दे!" बोला मैं,
"अभी लो, अभी!" बोला वो,
गया वो और चला एक तरफ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो जब लौटा तो एक बड़े से डोंगे में मछली ले आया था! ये रौशन बहुत इज़्ज़त करता है! और हम भी इसकी! एक अहसान है जो मानता आ रहा है! बस, और कुछ नहीं! हम कभी आ जाएं तो भरसक कोशिश करता है कि हमें कोई कष्ट न हो बस! तो उसने डोंगा नीचे रखा! चूल्हे पर बनी मछली थी, इसका स्वाद ही चौगुना हो जाता है धुआं लग कर ही! उसने जेब से चम्मच निकालीं और दे दीं हमें!
"लो जी!" कहा मैंने,
"कम करवा लो!" बोले वो,
"कम कर ले रौशन?" बोले वो,
"बहुत है!" बोला वो,
"चलो फिर! हो जाओ शुरू!" कहा मैंने,
और हमने खाने शुरू की वो मछली! मैंने जैसे ही तोड़ा उसका टुकड़ा, पहचान गया! ये बाम या कउआ मछली थी! ये बड़ी होती है बहुत, सुतवां सी, सांप सी! बेहद ही चपल, अगर पानी में हो, और छूकर चली जाए तो दुनिया का कोई भी डॉक्टर टांके नहीं लगा सकता उस कटे में! वो फिर बर्नर से जलता ही है और तब इलाज होता है उसका! इस मछली की चाल सतिया होती है, अर्थात ये चलते वक़्त ऐसे मुड़ती है कि पानी में जैसे सतिया बन रहा हो! तब सिर्फ जाल से ही इसको पकड़ा जा सकता है, ये छह छह फ़ीट की हो जाती है, बीस किलो तक की! इस मछली के कुछ तांत्रिक-प्रयोग भी हैं, जैसे जिसके संतान न होती हो, या फालिज पड़ा हो, या घर में संतान न बचती हो, या खेती से लाभ न हो, या क़र्ज़ अधिक बढ़ गया हो, तब इसके कुछ प्रयोग अवश्य ही शत प्रतिशत कार्य करते हैं!
चलो जी!
तो हमने वो खाना शुरू किया, छोटी छोटी लहसुन की गांठें साबुत ही डाल दी गयी थीं, मजा सा ही आ गया! तो हमें निबटा लिया वो सब और वहां से निकल पड़े! कुछ पूछा-पाछा था उसने सो बता दिया था, हमारा डेढ़ घंटा पूरा हो गया था, अब वापिस चले फिर से मयंक से मिलने!
वहाँ पहुंचे! इस बार अचानक ही मुझे लगा कि पूरा का पूरा घर, सफेद रंग के फूलों की झालरों से सजा दिया गया हो! सिर्फ आधे सेकंड में दिख गया था मुझे! ऐसी तीखी महक उठ रही थी उस परफ्यूम की कि खांसी ही उठ जाए! घंटी बजायी तो दरवाज़ा खुला, हम अंदर चले गए, निपुण बैठे थे, शायद मधु जी रसोई में थीं!
अब वक़्त जाया न किया! और सीधा ही सवाल पूछने शुरू कर दिए मैंने!
"निपुण जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"मयंक ने बताया कि दिन में मौत हुई थी?" बोला मैं,
"रात में!" बोले वो,
"यहीं गड़बड़ है!" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोले वो,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"क्या ऋचा के कारण ही है ये?" बोले वो,
"आप नहीं जानते?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले चौंक कर,
"कि हां?" कहा मैंने,
"मैंने ध्यान नहीं दिया कभी!" बोले वो,
"क्यों?'' बोला मैं,
"जो हो न सके तो?" बोले वो,
"मयंक ने क्या बताया है?'' बोला मैं,
"कब?" बोले वो,
"ऋचा के बारे में?'' कहा मैंने,
"यही कि उसे नज़र आती है!" बोले वो,
''आपको यक़ीन नहीं हुआ?'' पूछा मैंने,
''कैसे होता?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"उसकी मानसिक हालत, देखी न आपने?" बोले वो,
"कब से है?" पूछा मैंने,
"तभी से?" बोले वो,
"तब कोई इशारा?" कहा मैंने,
"हमें नज़र क्यों नहीं आयी?" बोले वो,
"आयी होगी?" कहा मैंने,
"ना?" बोले वो,
"कभी?" पूछा मैंने,
"ना?" बोले वो,
"मधु जी को?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"बेटे को?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"नहीं?" बोला मैं,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
मैं चुप हुआ, पानी पिया!
"आप की इजाज़त हो तो कुछ करना चाहूंगा!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"झाड़ू?" कहा मैंने,
"चाहिए?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"लाया!" बोले वो,
वे उठे और चले बाहर!
"निकालो राख!" कहा मैंने,
"ये रही?" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम सीढ़ियों के पास आ गए!
"लीजिये!" निपुण जी झाड़ू ले आये, दे दी मुझे!
मैंने राख की एक चुटकी, मंत्र पढ़, नीचे डाल दी! और लगाई झाड़ू! दो तरफ वो बढ़ी, दो तरफ नहीं!
दो तरफ?
मैंने फिर से मंत्र पढ़ा और फिर से संकेरा! अब एक तरफ!
"इधर!" बोले शहरयार!
"हां!" कहा मैंने,
और फिर से संकेरा! अब रुक गयी एक जगह! मैंने चाल दी, आगे बढ़ गयी! फिर चाल दी, फिर आगे बढ़ी!


   
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