"बाबू जी?" बोला नन्नू!
"हाँ?" पूछा मैंने,
"लो, पकड़ो!" बोला वो,
एक झोला दिया था उसने मुझे,
"क्या ले आया?" पूछा मैंने,
"या में, ककड़ी हैं, खीरा हैं, जामुन भी डाल लायो!" बोला वो,
"ककड़ी, खीरा तो ठीक, जामुन कहाँ से लाया?" पूछा मैंने,
"खूब ठाड़ी हैं, बाग़ में!" बोला नन्नू!
"और कहा!" बोला एक और, रहीम नाम है उसका,
"हैं रे? छील च्यों न दै?" बोला नन्नू रहीम से!
"ओ रे, ओ हरिया?" चिल्लाया रहीम,
"हाँ? कहा है गयी?" बोला हरिया,
न्यार काट रहा था, मशीन में, न्यार काटने वाली मशीन में, उसकी बीवी, लम्बा सा घूंघट काढ़े, मदद कर रही थी हरिया की!
"छोराये भेज, चाक़ू-फ़ाक़ू भेज दै, हाथ वाके!" बोला रहीम!
"दलीप? ओ रे दलीप?...........रे कहाँ मर गौ?" बोला हरिया!
"आरौ हूँ? कहा है गयी?" आया दलीप, लड़का था हरिया का,
"कहा कर रौ है? चल, चाक़ू दै रहीमैं?" बोला हरिया!
"अर्राये च्यों रे हो? दै तो रौ हूँ?" बोला दलीप!
मेरी हंसी छूटी!
क्या लज़ीज़ बृज-भाषा है वो!
अर्रा, मायने चिल्लाना, खाली-पीली चिल्लाना! अब वो लड़का, जो मुश्किल-बा-मुश्किल चौदह का होगा, उसके चेहरे के भाव देखे मैंने, विद्रोही भाव थे!
"ज़ुबानै हलक़ में ही रहन दै? साड़े! काट दऊँगौ!" बोला हरिया!
मैं हंस हंस कर दुल्लर हो गया!
शर्मा जी ने मारा ठहाका!
चला गया पाँव पटकते हुए लड़का, ले आया एक चाक़ू अंदर से, लाया हमारे पास, दिया रहीम को!
"कैसे गुस्सा कर रहा है यार?" पूछा मैंने,
"है? इनकी तो है बकवे की!" बोला वो,
और मेरी हंसी निकली!
बकवे की! अर्थात, बकवास करने की!
चला गया वापिस वो लड़का, न माँ को देखा, न बाप को! अपनी ही रौ में था!
"रे रहीम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ बाबू जी?" बोला वो,
"वो, दरशू कब आएगा?" पूछा उन्होंने,
"आय रौ होगो!" बोला वो,
"सात बज गए यार!" बोले वो,
मित्रगण!
ये एक गाँव है!
गाँव जमना जी के साथ ही पड़ता है,
मथुरा से आगे है ये गाँव, अब गाँवों में सुविधाएं तो हैं, लेकिन रोज़मर्रा की ज़िंदगी और उनकी भाषा, बोली, सच में बहुत लज़ीज़ है! और बृज-भाषा का तो कोई तोड़ है ही नहीं! कोई सानी नहीं इसका! सरल से शब्द, सरल सी भाषा!
मैं यहां आया था!
लेकिन क्यों?
दरअसल, मेरे घर में, काम हुआ था बिजली का, तो जो बिजली-मास्टर था, उस से ज़रा यारी हो गयी अपनी! अब औघड़ हूँ तो जल्दी ही बह जाता हूँ! उस से बातें हुईं, तो मुझे वो आदमी बड़ा अच्छा लगा, ईमानदार! भले ही आठ से ज़्यादा नहीं पढ़ा था वो, अब गरीबी है साहब, कैसे पढ़े कोई, तो काम सीख लिया बिजली का, हाथ साफ़ हुआ, तो चले साहब दिल्ली! दिल्ली में, एक जगह, मिली ठेकेदारी! और फिर, आदमी ईमानदार हो, तो काम मिलता ही रहता है! तो सरफ़राज़ को भी काम मिला! तो ऐसे ही, उसके मालिक, वरुण जी से, अपना याराना है, तब आया था ये सरफ़राज़!
अब उसने दो-तीन दिन में, एक कहानी सुनाई!
उसने सुनाई, मैंने सुनी!
कहानी भी ऐसी, कि यक़ीन न हो!
लेकिन वो झूठ नहीं बोलता! इतना यक़ीन है उस पर मुझे!
उस रोज,
शाम सात बजकर, इक्कीस मिनट,
मैं और शर्मा जी, सरफ़राज़ और उसका एक कारीगर,
हम साथ बैठे थे!
"फिरंगी है जी वो!" बोला सरफ़राज़!
"फिरंगी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! फिरंगी!" बोला वो,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"हमारे पिता जी ने देखा, बड़े भाई ने देखा! गाँव के, कई लोगों ने देखा!" बोला वो,
"और तूने?" पुछा शर्मा जी ने,
"ना! ना देखा!" बोला,
"दिखा नहीं या तू गया नहीं?" पूछा शर्मा जी ने,
"गया नहीं जी!" बोला वो,
"क्या दिखा?" पूछा मैंने,
"लाल कपड़ों में हैं, एक बग्घी हांकता है, दो घोड़े जुटे हैं उसमे!" बोला वो,
"अकेले?" पूछा मैंने,
"न!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बग्घी में औरत हैं जी चार, दो लड़के हैं, छोटे छोटे!" बोला वो,
"सब फिरंगी?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"किसने देखा?" पूछा मैंने,
"भाई ने देखा, चचा ने देखा, गाँव में कइयों ने देखा!" बोला वो,
"अच्छा सुन!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"वो बग्घी दौड़ाता है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" कहा उसने,
"किसी ने, करीब से देखा?' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"एक प्रजापत है!" बोला वो,
प्रजापति,
मायने कुम्हार!
"तेरा जानकार है?" पूछा, शर्मा जी ने,
"हाँ, क्रिकेट खेले है वो!" बोला वो,
"उस से कैसे मिलें?" पूछा मैंने,
"गाँव जाना पड़ेगा!" बताया उसने,
"कब ले जाएगा?" पूछा मैंने,
अब लगाया उसने हिसाब!
"दो महीने मानो!" बोला वो,
"अबे साले ठंड में?" बोले शर्मा जी,
"ना!" बोला वो,
"फिर?" पूछा,
"ईद पर!" बोला वो,
"अच्छा सुन, तेरे गाँव में हिन्दू और मुसलमान कितने?" पूछा उन्होंने,
"बराबर है जी!" बोला वो,
"कोई लफड़ा-पंगा?" पूछा,
"अजी कदि न!" बोला वो,
"बस!" बोले वो,
"तो चलो फिर?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बकरा रंधवा दूंगा!" बोला वो,
"क्या बात है!" बोला मैं,
"सच्ची!" बोला वो!
और उस हम, हुई ज़बरदस्त दावत!
सारा सामान जो लाया था वो, बदल दिया!
अब बढ़िया लगाने वाला था वो!
ये होती है मुहब्बत!
दो दिन बाद, उसके बड़े भाई का फ़ोन आया,
सरफ़राज़ ने, फ़ौरन मुझ से बात करवाई!
अब जो उसने मुझे बताया, समझ लो आप, नाक से पानी टपकने लगा!
जो जो उसने कहा,
ऐसा था कि,
उसके साथ ही घटा हो!
जैसे, आज, अभी, इसी पल की बात हो!
वाह!
एक फिरंगी!
एक अंग्रेजी बग्घी!
दो घोड़े जुटे हुए उसमे!
चार औरतें!
दो बालक उसमे!
उनको, हांके जा रहा था वो फिरंगी!
लेकिन, ये बेचारा, फिरंगी, है कौन?
क्यों? क्यों बेचारा, अटका हुआ है? क्या कारण है? क्या विवशता है उसकी? बस, यही जानना था! इसीलिए, मैं, उस गाँव में आया था!
ज़ारी है............कल!
खीरा और ककड़ी, काटे जा रहे थे, साथ में, शहर से लायी हुई मदिरा भी थी, रहीम, काटे जा रहा था खीरा और ककड़ी, जामुन, हम खाए जा रहे थे, ताज़ा जामुन थीं, बड़ी मीठी! ऐसी जामुन नहीं मिला करतीं शहर में! मिलती हैं, तो वो पुरानी हो जाती हैं! साथ में नमक था, उसी के संग लगा लगा कर हम जामुन खा रहे थे! दाना एकदम मोटा और गुठली, छोटी गोल! गूदा ज़्यादा था! जामुन, प्रकृति की एक निहायती कारगर औषधि है! सौ ग्राम जामुन की गुठली इकट्ठी कर लीजिये, सुखा लीजिये, जब सूख जाए तो पीस लीजिये, चूर्ण बना लीजिये, अब सुबह-शाम एक एक चुटकी, गुनगुने, फीके दूध के साथ लें, एक माह तक, मधुमेह पूर्ण नियंत्रण में आ जाएगा, मधुमेह से उभरे फोड़े-फुंसी, दाने आदि, सब समाप्त हो जाएंगे! यदि यही चूर्ण, सुबह-शाम सिरके के साथ एक एक चुटकी चाटा जाए, तो पेट का अलसर समाप्त हो जाएगा! इस चूर्ण में, यदि अजवाइन मिला ली जाए भून कर, करीब पांच ग्राम, और उसका सेवन किया जाए, सुबह-शाम, तो बवासीर, भगंदर का रोग समाप्त हो जाएगा! अनानास या गाजर के जूस के साथ इसको पिया जाए, एक चुटकी, तो स्त्री में मासिक की अनियमिता, प्रदर-रोग, मासिक के समय होने वाला दर्द आदि से छुटकारा मिल जाएगा! चेहरे पर झाईं हों, कील-मुहांसे हों, और चेहरा बुझ-बुझा सा हो, तो दही के पानी में, दो चुटकी ये चूर्ण मिला लें, रात को, पूरे चेहरे पर मल लें, सुबह, हल्के गुनगुने पानी से चेहरा धो लें, चेहरे पर तेज और कील-मुहांसे आदि समाप्त हो जाएंगे! पेट में, यदि अपच रहती हो, खट्टी डकारें आतीं हों, या मंदाग्नि से पीड़ित हों, क्षारता(एसिडिटी) से पीड़ित हों, तो इस चूर्ण में, पांच ग्राम बन्धनी हींग, भुनी हुई, पांच ग्राम, भुनी अजवाइन, पांच ग्राम, भुनी हुई कलौंजी और दस ग्राम, काला नमक मिला लें, भोजन के पश्चात पानी के साथ, फंकी लगा लें! ऐसे सभी रोगों से छुटकारा मिल जाएगा!
पौरुष-वृद्धि के लिए, इसकी गुठलियों को उबाल लें, आधा लीटर पानी में, जब पानी सौ ग्राम रह जाए, तो उतार लें, ठंडा कर लें, अब इसको किसी शीशी में भर लें, रोज रात को, शहद मिलाएं इसमें, आधा चम्मच और पानी लें दो चम्मच, पी जाएँ, दस दिनों में ही देह में जान पड़ जायेगी, पौरुष में वृद्धि हो जायेगी! ध्यान रखें, सिरका बाज़ार वाला न हो, सिर्क, या तो गन्ने का या फिर जामुन का ही हो, वो भी शुद्ध देसी! बाज़ार वाला तो इस मिश्रण को ही संदूषित कर देगा! तो ये हैं जामुन के फायदे! इस प्रकृति शीतल होती है, जामुन का पन्ना, शरबत, देह में ताज़गी और ठंडक पहुंचाते हैं!
बजे पौने सात!
"ले आयौ!" बोला नन्नू!
मैंने देखा पीछे, दरशू चला आ रहा था, साथ में, रहीम का छोटा भाई, अरशद था, दरशू को घर से ले आया था वो!
"राम राम जी!" हाथ जोड़ के बोला दरशू!
"राम राम जी!" कहा मैंने,
बैठ गया, वहीँ नीचे, मुंडेर पर, चेहरा पोंछा अपना, अंगोछे से!
"अवेर कैसै भई?'' पूछा नन्नू ने,
"रे वो बिट** बैल बिफर गौ!" बोला वो,
"किन्गै?" पूछा,
"जया पै!" बोला दरशू!
"सब भली?" पूछा रहीम ने!
"हाँ, सब भली!" बोला दरशू!
अब ज़रा उन देहातियों में, चली इधर-उधर की बात! और उस से कही गयी, कि कब देखा था उसने वो फिरंगी!
"कब देखा था उसे?" पूछा मैंने,
"है गए जी पांच-छह महीना!" बोला वो,
"दिन में या रात में?" पूछा मैंने,
"रातै!" बोला वो,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"एक-डेढ़ बज रौ होयगौ!" बोला वो,
"एक-डेढ़ बजे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"तुम क्या कर रहे थे इतने बजे?" पूछा मैंने,
"बरात सै आरौ मै, मै और परताप!" बोला वो,
"कैसे आ रहे थे?" पूछा मैंने,
"सकूटर पै हे हम जी!" बोला वो,
स्कूटर पर, उसका मतलब!
अब उसने जो बताया वो ये कि, रात के करीब डेढ़ बजे, वो और गाँव का ही एक और युवक प्रताप, बारात से वापिस आ रहे थे, प्रताप स्कूटर चला रहा था, जब वो क़स्बे से चले अपने गाँव की तरफ, तो रास्ता तो खराब था ही, आराम आराम से आ रहे थे वो दोनों, रास्ते में, बीच में, दरशू ने स्कूटर रुकवाया, उसको लघु-शंका त्याग करनी थी, वो चला एक झुरमुटे के पास, झाड़ियों के, झाड़ियों से थोड़ा स आगे, एक सरकारी खम्भा लगा था, वो उसे ही देख रहा था, उसमे एक बल्ब लगा था, पतंगों ने, जीना हराम कर रखा था उस बल्ब का! तभी उसे, खरड़-खरड़ की आवाज़ आई! जैसे कोई ज़मीन में, घसीट रहा हो कुछ! उसने कान लगाये, आवाज़ दी उसे प्रताप ने, उसने प्रताप को भी बुला लिया वहाँ! आ गया प्रताप उसके पास!
"क्या है?" पूछा प्रताप ने,
"श्ह्ह्! सुन!" बोला दरशू!
कान लगाए प्रताप ने, उधर!
"यु कहा है?" फुसफुसाया प्रताप!
"मोये कहा पतौ?" फुसफुसाया दरशू!
"कोई रगड़ रौ है कछु!" बोला प्रताप!
आवाज़ पास आती गयी, और पास!
और ठीक सामने से, गुजरी एक बग्घी! बग्घी में बैठीं थीं कुछ औरतें, और दो बालक भी! जो कोचवान था, वो फौजी सा लगता था, अंग्रेजी फौजी, बग्घी में दो घोड़े जुटे थे! कोचवान, अंग्रेजी में कुछ कहता जा रहा था, उन्हें समझ ही नहीं आया! घोड़े हिनहिना रहे थे! कोचवान की जाँघों पर, तलवार लटक रही थी! सर पर एक टोप था, और वो बड़ी तेजी से गुजरा था वहाँ से!
अब उनकी तो हुई सिट्टी-पिट्टी गुम!
"भूत दीखै!" बोला प्रताप,
और ये सुन, दोनों काँप गए!
देखें एक-दूसरे को!
"भाग!" बोला दरशू,
और अब भागे दोनों, स्कूटर किया स्टार्ट! घबराहट ऐसी कि पूछो मत! फिर न देखा पीछे मुड़कर! सीधा गाँव में जाकर ही सांस लिया उन दोनों ने फिर!
अगले दिन सुबह, जो उन्होंने देखा था रात को, बताई सभी को! कई बुज़ुर्ग ऐसे मिले, जो जानते थे इस बात को! उन्होंने बता दिया कि कैसी बग्घी है, कैसा वो कोचवान और कहाँ से आता-जाता है वो! इसका मतलब, और भी कई लोगों ने देखा था उसको!
"क्या पहनता है वो?" पूछा मैंने,
"अजी लाल सौ एक कोट दीखै, वा में ऐसे ऐसे मोटे बटन लग रहे हैं!" बोला वो, मोटे, मतलब कि एक लीची के बराबर!
"और टोप कैसा है?" पूछा मैंने,
"इतनो तो ऊंचौ है, ऐसो चौड़ौ है!" बोला वो,
मतलब करीब एक फ़ीट ऊंचा, और डेढ़ फ़ीट चौड़ा!
"घोड़े?" पूछा मैंने,
"क़तई लाल हैं!" बोला वो,
"और बग्घी?" पूछा मैंने,
"कारी, औरत बैठी कांय वा में, दो बालकन संग!" बोला वो,
काली बग्घी!
"रंग क्या है?" पूछा मैंने,
"कारौ है जी!" बोला वो,
मतलब काला रंग है बग्घी का!
"पहिये कैसे हैं उसके?" पूछा मैंने,
"ऐसे ऊंचे! सुफेद!" बोला वो,
मतलब की छह फ़ीट के पहिये! सफेद रंग के!
"और वो कोचवान कैसा है दिखने में?" पूछा मैंने,
"ऐसी देह है वाकी! पहलवान सौ है!" बोला वो,
मतलब कि, साढ़े छह या सात फ़ीट का है वो, मजबूत देह वाला!
अब तो इच्छा जागने लगी!
उस कोचवान को देखने की!
क्या कहानी है उसकी! ऐसी कौन सी यात्रा है उसकी, जो आज तक ज़ारी है! वो है कौन? कैसे अटक गया यहां पर, वो औरतें कौन हैं? और वो दो बालक!
दरशू ने और कुछ भी बताया,
"और किसी ने देखा है?" पूछा मैंने उस से,
"हाँ!" बोला वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"बेगू ने!" बोला वो,
"कौन बेगू?" पूछा मैंने,
"बेगू बाबा ने!" बोला वो,
कोई बुज़ुर्ग थे गाँव के, हिन्दू-मुस्लिम आबादी है, अब नाम बोली के ही हैं उनके!
"बेगू बाबा से कब हो सकती है मुलाक़ात?" पूछा मैंने,
"हाल ही लो, पतौ करवाऊं?" बोला रहीम,
"हाँ, करवाओ!" बोला मै,
"आयौ भाल ही!" बोला वो,
वो था और चला पड़ा, बेगू बाबा के पास गया था, अगर जाग रहे होंगे, तो बात हो जायेगी उनसे, जल्दी से ही कुछ और जानकारी मिल जाए, तो इस से बढ़िया और क्या!
कुछ देर बाद आ गया वो!
"जानौ पड़ैगौ!" बोला वो,
"तो चलो!" कहा मैंने, उठते हुए,
"दलीपै बुलाय लै, कटवाय देगौ!" बोला रहीम, नन्नू से!
"चलो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े बाबा बेगू के पास!
उनके घर पहुंचे, घर की औरतों ने, घूंघट काढ़े,
"ईयहाँ!" बोला रहीम,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम, एक बैठक में जा घुसे! बाबा बेगू, हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे! राम राम हुई हमारी उनसे!
"आओ जी, बैठो!" बोले बाबा,
हम बैठ गए, देहाती कमरा था, छत लकड़ी की कड़ियों से बनी थी, पत्थर की पटिया लगी थीं उसमे! दीवार पर, क़ाबा की एक तस्वीर लगी थी, शायद कैलेंडर से काटी गयी थी, और दो तस्वीरें लगी थीं दूसरी दीवार पर, पुरानी तस्वीरें थीं!
अब उनसे बातें हुईं हमारी, उसी विषय पर,
यहां लिखता हूँ वो बातचीत!
करीब पैंतीस साल पहले, बाबा बेगू अपने पिता जी के संग आ रहे थे, उस समय रात के दस बजे थे, गाँव तक, कोई सवारी नहीं मिली थी, बस उस दिन चली ही नहीं थी, हाँ, एक ट्रक मिल गया था, उसको भाड़ा दिया और क़स्बे तक उतर गए थे, उस दिन मौसम भी खराब था, कोई तांगा या बुग्घी भी न मिल सकती थी उन्हें, इसीलिए ख़रामा-ख़रामा चलते हुए, वो बढ़ रहे थे अपने गाँव की तरफ! जब वो उस बंजर ज़मीन, भूड़ में पहुंचे, तो बारिश होने लगी थी, उधर पास में ही, एक पुराना सा खंडहर भी था, यहां पास में ही था, उनके पिता जी और वो, दौड़ के पहुंचे वहाँ! छत मिली तो भीगना बंद हुआ उनका, और बारिश ऐसी, कि दम ही न ले! गाव अभी भी कोई पांच किलोमीटर दूर था!
वे करीब पौना घंटा रुके वहां, कीड़े मकौड़े उड़ रहे थे, उनसे भी आ टकराते, उन्होंने कपड़ा लपेट लिया था मुंह पर, तभी सामने से, उन्हें कोई बग्घी आती दिखी, उन्होंने सोचा, कि अगर रुक जाए तो गाँव तक का रास्ता हो जाएगा पार, बेगू बाबा के पिता जी, चले उस तरफ! और जब देखा बग्घी वाले को, तो दौड़ के आये वापिस! बेटे को चुप रहने को कहा!
तब बेगू बाबा ने देखा उन्हें! वो एक बड़ी सी बग्घी थी, आगे वाले पहिये छोटे थे और पीछे वाले काफी बड़े! कीचड़ में वो बग्घी हिचकोले खाते हुए जा रही थी! उसको एक कोचवान हाँक रहा था, वो फिरंगी था, तलवार लटकाये थे, बग्घी में कुछ औरतें भी थीं, उनकी आवाज़ें आ रही थीं, दो बालक भी थे, जिन्हें, उन औरतों ने अपने घुटनों के बीच छिपाया हुआ था! उनकी तो साँसें थम गयीं! बेगू बाबा के पिता जी इस बग्घी वाले के बारे में सुनते तो आ रहे थे, लेकिन देखा उस रात पहली बार ही था! जब वो बग्घी आँखों से ओझल हुई, तो वे दोनों भाग लिए, बारिश में ही! कीचड़-काचड़ फैली थी, लेकिन चिंता किसे? वे भागते रहे, और गाँव में आकर ही, दम लिया! उस दिन के बाद से, बेगू बाबा ने कभी नहीं देखा उस कोचवान को!
बेगू बाबा ने कहानी बनायी हो, ऐसा नहीं था! उनका विवरण ठीक वैसा ही था, जैसा उस दरशू ने बताया था! इसका मतलब था कि उस भूड़ में, आज भी एक बग्घी को हांक रहा है वो फिरंगी! लेकिन किसलिए? किस वजह से? ये जानना ज़रूरी था!
तो हम, उठ आये वहां से, चाय ज़रूर पी ली थी!
तो हम, वापिस आ गए वहाँ से,
बैठे उधर, सामान तैयार था, सबकुछ!
"हरिया?" कहा मैंने,
"किसी और ने देखा है?" पूछा मैंने,
"मटरू है घर?' पूछा हरिया ने,
"पतौ न!" बोला रहीम!
"नन्नू? पताय करियो?" बोला हरिया,
"अभाल लो!" बोला नन्नू, और चला देखने!
"मटरू ने देखा कुछ?" पूछा मैंने,
"वाके चाचा ने देखौ!" बोला वो,
"और चाचा कहाँ है?" पूछा मैंने,
"गुजर गौ, बीमार रैहवै हौ!" बोला वो,
"अच्छा, कोई बात नहीं, आने दो मटरू को!" बोला मै,
कोई पांच मिनट में, नन्नू ले आया एक पतले-दुबले से युवक को!
"राधे राधे!" बोला वो,
"राधे राधे!" कहा मैंने,
"इललंगै बैठा जा!" बोला हरिया,
बैठ गया मटरू नीचे! मुंडेर पर,
अब हरिया ने पूछा उस से, कि जो कुछ उसके चाचा ने बताया था वो बताये हमें! मटरू सुनता रहा और फिर उसने वैसा ही सबकुछ बताया, लेकिन इस बार एक नयी बात पता चली! इस बार वो बग्घी रुकी हुई थी! चल नहीं रही थी!
मेरे हुए कान खड़े!
आँखों में आई चमक!
"रुकी हुई थी?" पूछा मैंने,
अब यहां मै अपनी भाषा ही लिखूंगा,
"हाँ जी!" बोला वो,
"वो कोचवान कहाँ था?" पूछा मैंने,
"वो बग्घी के पीछे खड़ा था, जैसे किसी का इंतज़ार कर रहा हो!" बोला वो,
"दिन का वक़्त था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दोपहर का!" बोला वो,
नयी बात!
वो दिन में भी नज़र आता है! ये बढ़िया हुआ!
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने बात की वापिस आकर!" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"उन औरतों से, जो बग्घी में थीं!" बोला वो,
"बग्घी में छत थी क्या?" पूछा मैंने,
"न, खुली थी!" बोला वो,
तो बग्घी खुली है उसकी!
और वो, इंतज़ार करता है किसी का!
"कोई हथियार?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"तलवार!" बोला वो,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"सीधी!" बोला वो,
"अंग्रेजी तलवार!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"और कपड़े कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"चुस्त पैंट है, काला, गला-बंद कोट है!" बोला वो,
"और टोप?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, खाक़ी रंग का है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बड़ा सा है!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मै,
अब तक सामान तैयार था तो, हुए हम शुरू!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या कहते हो?" पूछा मैंने,
"कर लो कोशिश!" बोले वो,
"हाँ, करनी होगी!" कहा मैंने,
"वो दिल्ली वाले हैं न?" बोले वो,
"हाँ, सब्जी-मंडी वाले!" कहा मैंने,
"हाँ वही!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"देखते हैं, क्या माजरा है!" बोले वो,
तो जी, रात बीत गयी, खाया-पिया और सो गए! मच्छर बहुत थे, कोइल जला ली थी, नहीं तो सारी रात, नाम, अता-पता पूछते रहते! उठा के ही ले जाते! खारे पानी के मच्छर हैं वहां, काटता है तो जलन हो जाती है, ददौड़े पड़ जाते हैं!
सुबह हुई, फारिग हुए, दूध पिया, नाश्ता भी कर लिया! सुबह का मौसम बढ़िया था, चौमासे आने में अभी पंद्रह दिन थे, लेकिन बारिश के बादल मुआयना कर ही लेते थे आसमान का!
"रहीम?" बोला मै,
"हाँ जी?" बोला वो,
"चल ज़रा, वो भूड़ दिखा!" कहा मैंने,
"चलो, मगर खाना?" बोला वो,
"खा लेंगे, अभी तो नाश्ता किया है!" बोला मै,
"चलो फिर!" बोला वो,
और हम चल दिए, गाँव से बाहर आये, तो एक नहर पड़ी, नहर पार की, नहर का वो पुल संकरा था बहुत, पुरानी लखौरी ईंटों से बना था, ईंटें, अभी तक टिकी हुई थीं! पुल के नीचे, परिंदों ने घरौंदे बनाये हुए थे! उनका शोर ऐसा था जैसे समुद्री पक्षियों का होता है!
"पन-कौवे हैं जी ये!" बोला रहीम!
"हाँ!" कहा मैंने,
"सारा दिन चिल्लाते रहते हैं, पटके मारते रहते हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
पटके, मायने, मछलियों के छोटे छोटे बच्चे!
हम करीब तीन किलोमीटर चले पैदल पैदल! मिट्टी थी, थका दिया था उसने हमें!
"रहीम?" बोला मै,
"जी?" रुका वो,
"उस पेड़ के नीचे बैठते हैं!" कहा मैंने,
"आ जाओ!" बोला वो,
वो पहुंचा, छाया थी उधर, पत्ते हटा दिए उसने, अंगोछा बिछा दिया अपना!
"बैठ जाओ जी!" बोला वो,
मैंने तो खोले अपने जूते, और लेट गया! आराम से! शर्मा जी भी लेट गए!
"कितनी शान्ति है यहां!" बोले शर्मा जी,
"हाँ! मेरी तो आँखें भारी हो रही हैं!" बोला मै,
"तो ले लो झपकी?" बोला रहीम!
"सही कहा!" कहा मैंने,
बदली करवट और कर ली आँखें बंद! ठंडी हवा, ठंडी छाया, और असीम सी शान्ति! मै तो सो ही गया! शर्मा जी भी सो गए, रहीम बैठा रहा! वो गाँव का पका हुआ पट्ठा है! हम ठहरे शहरी लोग, खोखले लोग! करीब एक घंटा सोया मै, बदन खुल गया था मेरा तो! और अब लगी थी प्यास!
रहीम बैठा हुआ था, और शर्मा जी भी जाग गए थे!
"रहीम?" बोला मै,
"हाँ जी?" पूछा उसने,
"पानी कहाँ मिलेगा?" पूछा मैंने,
"वहां, मंदिर है एक, कुआँ है उधर, वहाँ मिल जाएगा!" बोला वो,
"चलो फिर!" बोला मै,
और ले चला हमें वो!
हम चलते रहे उसके पीछे पीछे!
पहुँच गए मंदिर!
पुराना मंदिर था ये! पत्थरों से बना!
"काफी पुराना लगता है?" कहा मैंने,
"हाँ जी, हमारे बाप-दादा बताये करे, ये बहुत पुराना है!" बोला वो,
"हाँ, है तो पुराना, अब तो ज़मीन में धंस रहा है शायद!" बोले शर्मा जी,
"आ जाओ!" बोला वो,
"चलो!" बोले शर्मा जी,
अंदर गए, कुँए तक पहुंचे, बाल्टी बंधी थी, बाल्टी साफ़ की, और रहीम ने, खींचा पानी!
"लो जी!" बोला वो,
मैंने ओख बनाई हाथ की, और पिया पानी!
ठंडा पानी! मीठा पानी! ताज़गी देने वाला पानी!
शर्मा जी ने भी पिया, और फिर रहीम ने भी!
"क्या बढ़िया पानी है!" बोला मै, हाथ पोंछते हुए!
"कुँए का पानी है!" बोले शर्मा जी,
"वाक़ई!" बोला मै,
"मिनरल-वाटर फेल!" बोले वो,
''सच में!" कहा मैंने,
"अभी आया!" बोला रहीम, और चला गया मंदिर के पीछे!
आया थोड़ी देर में, हाथों में बेर लिए!
"लो जी!" बोला वो,
"अरे वाह, गोला बेर!" बोला मै,
"हाँ जी!" बोला वो,
बेर बहुत मीठा था, गुड की तरह! हमने खाए बेर!
"और कितनी दूर है भूड़?" पूछा मैंने,
"आधा किलोमीटर" बोला वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"आ जाओ!" बोला वो,
और हम चल पड़े भूड़ के लिए!
वहां पहुंचे,
बियाबान!
वीराना! बंजर ज़मीन!
उजाड़ नज़ारा!
न आदम न आदमी की जात!
आदमी तो छोडो, एक परिंदा नहीं!
खजूर के पेड़ ही पेड़! बया का एक भी घोंसला नहीं!
जब बीहड़ में, बया का एक भी घोंसला न हो, तो समझ जाओ फौरन!
समझ जाओ, कि वहाँ पानी है ही नहीं! कहीं भी नहीं!
सिर्फ मिट्टी ही मिट्टी!
कुशा की घास!
कीकर के पेड़!
और कुछ नहीं! दूर दूर तक!
"यही रास्ता होगा पहले!" कहा मैंने,
"हाँ, पुराना रास्ता!" बोले शर्मा जी,
"वहाँ को आ जाओ!" बोला रहीम,
कीकर का झुरमुट था वहां, छाँव आ रही थी उधर!
"इस लू से तो बचेंगे!" बोला वो,
"हाँ रहीम!" कहा मैंने,
"रहीम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यहीं से जाता है वो?" पूछा उस से,
"हाँ जी!" बोला वो,
"कोई ख़ास दिन है?" पूछा उस से,
"ये नहीं पता जी!" कहा उसने,
"और वो खंडहर कहाँ है?" पूछा मैंने,
"उधर, दो कोस होगा, चलें?" बोला वो,
"दो कोस?" कहा मैंने,
"चल पड़ेंगे!" बोला वो,
"हाँ?" पूछा मैंने शर्मा जी से,
"देख लो!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
हवा चली! धूल-धक्क्ड़ उड़ी!
"कोई गाँव है रास्ते में?" पूछा मैंने,
"उधर है जी, ईमामपुर!" बोला वो,
"कितना है?" पूछा मैंने,
"होगा कोई नौ-दस कोस!" बोला वो,
"बहुत दूर है!" कहा मैंने,
"हाँ जी! दूर तो है!" बोला वो,
और हम, चलते रहे, चलते रहे, ऐसा वीराना, कि अकेला आदमी तो अपनी परछाईं से ही डर जाए! ऐसा सन्नाटा कि रूह तक काँप जाए!
एक एक क़दम चलना दूभर हो रहा था! एक तो गर्मी, पानी था नहीं, ऊपर से चटक धूप! देह में जैसे पानी की कमी होने लगी थी!
"रहीम?" बोला मै,
"हाँ जी?" बोला वो,
"पानी मिलेगा कहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, आगे है एक बम्बा, वहाँ मिल जाएगा!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और तभी पीछे देखा रहीम ने,
"थम जाओ!" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो देखो!" बोला वो,
एक बुग्घी आ रही थी, बैल-गाड़ी थी वो!
"ये बढ़िया हुआ!" बोला मै,
बुग्घी करीब आती गयी, और करीब!
अब हाथ दिया रहीम ने, उस बुग्घी को! रुक गयी बुग्घी!
बात की कुछ बुग्घी वाले से,
"आ जाओ जी!" बोला वो,
ओहो! कैसी राहत मिली!
हम लपक के चढ़ गए बुग्घी में!
"पानी राखौ है?" पूछा रहीम ने,
"हाँ, पाछै राखौ है!" बोला बुग्घी वाला!
एक सुराही थी, फिर क्या था! पानी पिया हमने! बहुत राहत पड़ी!
"और पी लो?" बोला बुग्घी वाला,
"बस भैय्या!" कहा मैंने,
पानी बढ़िया था, जान में जान आ गयी!
बुग्घी हिचकोले खाती रही, चलती रही!
बैल के गले में पड़ा बड़ा सा घुंघरू बजता रहा!
और जा पहुंचे हम वहाँ, बुग्घी वाले को धन्यवाद कहा हमने!
वो आगे चल पड़ा, राम राम हुई और हम जाते हुए देखते रहे उसे!
"आओ जी!" बोला रहीम,
और हम चल पड़े, पानी की नमी सी महसूस हुई!
"कोई जोहड़ है क्या यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, पोखरा है, आओ!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम, उस भूड़ में से, आगे चलते रहे!
आई पक्षियों की आवाज़ें! जल-क्रीड़ा में मग्न थे वो!
सामने का दृश्य बड़ा ही सुंदर था! कमल के फूल खिले थे उस पानी में, पानी में जल-सोख लगी थी कहीं कहीं, छोटी वाली! कुमुदनी भी लगी थी!
"बड़ी सुंदर जगह है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, मछली मार लेवे हैं यहां से!" बोला वो,
"कौन सी मछली है इसमें?" पूछा मैंने,
"इसमें? रोहू है, सींगी है, पोलू है, सौल है, और लांची है! है तो बछुआ भी और खग्गा भी, पर वो कम मिले है!" बोला वो,
"कांटे से पकड़ते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, आराम से पकड़ लेवे हैं!" बोला वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"देखो जी!" बोला वो,
ठीक सामने, एक खंडहर था! पुराना सा खंडहर! टूटा-फूटा, काई सी जमी थी उस पर हरे रंग की, इमारत, अंग्रेजी शैली की थी!
"ये था क्या?" पूछा मैंने,
"कोई डाक-बंगला बतावै, कोई डाक-घर, कोई पटवार-घर!" बोला वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
हम चल पड़े, उस इमारत में, चढ़े सीढ़ियां! आये ऊपर,
"ये तो घोड़े बाँधने की जगह होगी!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोला वो,
"और उधर, कमरा है, आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
हम अंदर चले, इमारत भले ही पुरानी थी, खंडहर थी, लेकिन दीवारें तीन तीन फ़ीट मोटी थीं उसकी! मजबूत थी, इसीलिए खड़ी थी आज तक वहाँ!
तभी मेरी नज़र एक जगह पड़ी!
यहां कुण्ड से बने थे, चिकने थे कुण्ड!
अब आया समझ में मेरे!
"ये कहा हैं?" पूछा रहीम ने,
"ये कुण्ड हैं!" बोला मै,
"नहावे के?" पूछा उसने,
"ना!" बोला मै,
"फेर?" पूछा उसने,
"यहां नील बनाया जाता था!" कहा मैंने,
"नील? कपड़न कायीं?" पूछा उसने,
"हाँ, कपड़ों वाला नील!" बोला मै,
"वो कैसे बने हौ?" पूछा उसने,
"खेती होती थी नील की!" कहा मैंने,
"पौधा?" हैरत से पूछा उसने,
"हाँ, पौधा!" कहा मैंने,
"तो फैक्ट्री ही ये!" बोला वो,
"हाँ, कह सकते हैं!" कहा मैंने,
"वो बिकै करै हो?" पूछा उसने!
"हाँ, यूरोप के कई देशों में मांग थी उसकी, अंग्रेजों को बहुत फायदा होता था इसके उत्पादन से! यहां किसान दुखी हो जाते थे, क्योंकि नील का पौधा, ज़मीन को, बंजर बना देता है! धीरे धीरे!" कहा मैंने,
"अच्छा! आई समझ में बात!" बोला वो,
"क्या समझे?" पूछा मैंने,
"तबहि ये भूड़ दीखै! बंजर!" बोला वो,
"हाँ, हो भी सकता है!" कहा मैंने,
"राज था उनका!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"कोई बोलता भी कैसे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैने,
"विद्रोह होता था नील की खेती से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां की ज़मीन में, नील कपड़ा, दोगुना हो जाता था!" बोले वो,
"हाँ, और इसीलिए उन्होंने नहरें बनवायीं!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोला रहीम!
"हाँ रहीम!" कहा मैने,
"ऐसे नील-कुण्ड बहुत हैं!" बोले वो,
"हाँ, अक्सर दिख जाते हैं गाँवों के पास!" बोला मै,
"हाँ जी, एक और है, वो दूर पड़ै है!" बोला वो,
"ऐसा ही है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"इसका मतलब, उत्पादन बहुत था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"और वही नील, यहां चार गुना दाम पर बिकता था, 'सभ्रांत' लोग खरीदा करते थे उसे!" कहा मैंने,
"पैसे वाले थे!" बोले वो,
"अंग्रेजों के टट्टू थे ऐसे लोग! चाटुकार!" बोला मै,
"हाँ! तभी तो राज कर गए!" बोले वो,
"हाँ, दिमाग तो था!" कहा मैंने,
"प्रशासन, आज का, उनका ही है!" बोले वो,
"ये बात तो है!" बोला मै,
"आओ, और देखें!" कहा मैंने,
"आओ, यहां आओ!" बोले शर्मा जी!
"यहां तो पोखर है!" कहा मैंने,
"हाँ, और कुछ नहीं!" शर्मा जी बोले,
"चलो फिर, वापिस चलें!" कहा मैंने,
"वो देखना?" बोले शर्मा जी,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"पानी में देखो?" बोले वो,
"क्या है?" हम दोनों देखने लगे, रहीम भी!
"ये क्या है?" बोले शर्मा जी,
"अरे! कछुआ है! धांधल!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन ये है कैसा?" बोले वो,
"कभी देखा नहीं?" पूछा मैंने,
"कछुए तो बहुत देखे, ऐसा नहीं!" बोले वो,
"अमूमन, कछुए पर, षट्कोण या अष्टकोण बना होता है, हैं न?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"लेकिन, धांधल, धूसरी, पम्पन्, युमैला जैसे कछुओं पर बस खोल होता है, कोई कोण या चित्रण सा नहीं होता! ये कछुए, आदिम हैं, और इन कछुओं में, सबसे अधिक खतरनाक!" बोला मै,
"खतरनाक?" बोले वो,
"हाँ, ये कछुआ, धांधल, मांस के टुकड़े काट लेता है नहर, नदी या पोखर में! जहां ये काटता है, वहां का खून नहीं जमता, वो लोहे या लकड़ी से दागना पड़ता हैं, आग में तपाकर!" बोला मै,
"अरे बाप रे!" बोले वो,
"हाँ जी, ये धांधल तो बहुत खतरनाक होवै!" बोला रहीम!
"हाँ, इसको अक्सर मार दिया जाता है, गाय-भैंस, बकरी, ढोर, काट लिए जाते हैं इनके द्वारा!" बोला मै,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ, एक बात बताऊँ?" कहा मैंने,
"बताइये?" बोले वो,
"यदि आधुनिक चिकित्सा-शास्त्र ये कहे, कि फलां आदमी को कैंसर है, अर्बुद-कोशिकाएं हैं, और जियेगा नहीं, तो इस धांधल का मांस, यही मात्र तीन दिन खाया जाए, तो कैसा भी कैंसर हो, नाश हो जाएगा उसका!" कहा मैंने,
"अरे वाह!" बोले वो,
"हाँ! इसके रक्त में ऐसे गुण हैं जो अद्भुत और आश्चर्यजनक हैं!" कहा मैंने,
तभी वो धांधल हिली, और चली दूसरी तरफ!
"आओ!" कहा मैंने,
दरअसल, धांधल की आँखें, मनुष्यों से मिलती हैं, इसीलिए वो बड़ा डरावना सा लगता है देखने में! शर्मा जी, तभी सोच में पड़ गए थे!
"चलो अब!" कहा मैंने,
और हम हुए वापिस अब!
धूप ऐसी, कि पूछिए ही मत!
खाल-छीला! चमड़ी-उतार!
अब तो पैदल-पैदल बढ़ते रहे हम!
रहीम तो पट्ठा है, गीत गाते, राधा-कृष्ण के, चला जा रहा था!
उसको देख, पता चलता था, गंगा-जमनी तहज़ीब का!
रुकते-रूकाते,
बतियाते,
हम आ गए गाँव में!
आये, तो आराम किया, पानी पिया!
कुछ देर बाद, भोजन तैयार हो गया, भोजन किया और उसके बाद, आराम से सोये!
हुई शाम!
बने जाम!
हुए इंतज़ाम!
किया काम!
लेकिन, नींद हराम!
सवाल ये,
कि कैसे मिले हमें वो कोचवान?
अब है, तो है कहाँ?
कब आता है? कब जाता है?
कहाँ से आता है, कहाँ को जाता है?
कैसे दिखे?
कुआं गहरा! तल, दिखे न!
धूल में लाठी, भांजी न जाए! तो?
कैसे किया जाए काम?
अब, एक ही विकल्प शेष था! वो ये, कि इबु को किया जाए हाज़िर!
अब वो ही कुछ बताये! ख़बीस है, बे-इंतहा ताक़त का मालिक है!
अगर वो फिरंगी, वहीँ है, आसपास, तो पकड़ लाएगा इबु!
बस, यही था विकल्प मेरे पास!
मित्रगण!
इबु!
मेरा दिल-अज़ीज़ इबु!
अगर न होता, तो मै आज अधूरा होता उसके बिना!
उसके पीले नेत्र! मजबूत भुजाएं! ग़ैबी ताक़त! सच में, ताक़त का भंडार है वो!
जिन्नात, ठहर नहीं सकते उसके सामने!
म'रीद, क़'रीन, आफ़सूल, नुहद्दा, वाईज़ा, कोई भी नहीं! बस, बस, इफरित, और कोई नहीं! किसी की औक़ात नहीं!
मैंने, शाम को ही, रहीम से कह दिया था, कि कलेजा चाहिए, बकरे का, पूरा, रहीम ने कर लिया था जुगाड़! ठीक नौ बजे, ले आया था कलेजा वो! हाँ, बकरे का न था वो, हिन्न अर्थात, हिरण का था वो! वो भी ठीक था, कलेजा, हल्के हरे से रंग का था! लेकिन था चिकना! ताज़ा और बेहतरीन!
रात!
कोई बारह बजे,
एकांत जगह,
एक कमरा!
मैंने पढ़ा शाही-रुक्का!
और हुआ हाज़िर मेरा सिपहसालार इबु!
वो मेरे सामने हो, तो मै डरता नहीं फिर किसी से!
"हुक्म!" बोला वो!
क्या आवाज़ है उसकी!
कोई सुन ले, तो दिल,
पसलियां फाड़, आ जाए हाथ में!
"इबु?" बोला मै,
"अलग़ज़!" बोला वो,
अर्थात, हुक्म!
और मैंने, बता दिया उसे! दिया सारा ब्यौरा!
इबु!
उड़ चला!
उड़ चला मेरा निगाहबाज़!
मेरा, अव्वत-उल-अल-फ़राज़!
जान लड़ा दे, अपनी हैसियत भिड़ा दे! अपनी ताक़त कर दे सामने!
मैंने, किया इन्तंजार!
दो मिनट!
पांच मिनट!
दस मिनट!
और हुआ हाज़िर!
लाया हाथ में, कुछ पत्ते!
दिए मुझे, बोला कुछ नही!
भोग लिया, और लोप!
वो पत्ते?
सूखे पत्ते?
कौन से?
देखा, रगें देखीं उनकी! जांचा,
ये, ये तो हवेलिया के पत्ते हैं! रसूखदार लोगों के घरों के शान का प्रतीक! ये पौधा, फिरंगी है! फिरंगिस्तान से आया है! हवेलिया नाम है इसका! आप इसको गूगल करें, तो मिल जाएगा!
लेकिन?
मुझे क्यों दिए?
अब, यही देखना था!
हवेलिया? वहां शायद ही कहीं लगा हो हवेलिया! वहां तो कीकर महाराज का एकछत्र शासन है! या भटकटैया झाड़ियों का! ज़मीन पर, गोखरू का फ़र्श बिछा है! हवेलिया तो नहीं लगता कि कहीं लगा हो! और कहीं लगा भी हो, तो उसका अर्थ क्या हुआ? मुझे पता बताया था हवेलिया के पत्ते ला कर उसने! इबु के इशारे समझने पड़ते हैं, वो महाखोजी तो है ही, अक़्लमंद भी है! उसका अर्थ यही होगा कि वो फिरंगी उस वक़्त जहां रहता होगा, वहां हेवलिया के पौधे लगे होंगे! हो सकता है आज भी कहीं लगे हों उधर, क्योंकि, भारत सरकार आज भी ऐसी कुछ पुरानी इमारतों से ही सरकार चलाया करती है! दिल्ली को ही लो, राष्ट्रपति-भवन, संसद-भवन, सुप्रीम-कोर्ट, नार्थ-ब्लॉक, साउथ-ब्लॉक, दिल्ली विधान-सभा, आदि आदि, बहुत जगह हैं ऐसी! अंग्रेजी इमारतें आज भी ज़िंदा हैं! तो हो सकता है, ऐसी ही कोई इमारत रही हो, जहां ये हवेलिया लगा हो!
कोई मदद नहीं मिली! गाड़ी वहीँ खड़ी थी, चली भी नहीं थी, ये भी नहीं पता था कि वो कब आता है और कब जाता है, वो दिन में भी दीखता है और रात को भी, लेकिन किस खास दिन, ये नहीं पता! अब ये तो धूल में लट्ठ भांजने जैसी बात हो गयी! दो-चार दिन तो ठहरा जा सकता था, लेकिन वो न आया दो-चार दिन में, तो फिर तो कोई चारा नहीं था बाकी, यही कि वापिस ही लौटा जाए!
"क्या किया जाए?" पूछा मैंने शर्मा जी से,
"ऐसे तो नज़र आने वाला नहीं!" बोले वो,
"यही तो?" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?" बोले वो,
"हाँ, कहो?" कहा मैंने,
"वो खंडहर है न?" बोले वो,
"हाँ?" बोला मैं,
"क्यों न एक आद रात काटी जाए वहाँ?" बोले वो,
उन्होंने तो दिया सुझाव!
और मुझे मच्छर आये याद! उनके डंक की जलन! भयानक खुजली! पास में ही वो पोखर भी था! और फिर, सांप-बिच्छू! उड़ने वाले कीड़े-मकौड़े! वो उसने वाले बर्रे, अगिया-पतंगा! खतरा था वहाँ रुकने में तो! वहां बड़ी बड़ी मकड़ियाँ थीं! काट लें तो समझो अम्मा ही अम्मा याद आये!
"अरे वहां नहीं यार!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
अब बताया मैंने खतरा!
"आग जला लेंगे?" बोले वो,
"ना जी ना!" कहा मैंने,
"तो क्या बीच भूड़ में चारपाई डालोगे?" बोले हँसते हुए!
मैं भी हंस पड़ा!
"रात में कुत्ते और सियार आ कर, मूतते रहेंगे पायों पर चारपाइयों के!" बोले वो,
हंसी आई!
"हाँ! ये तो है!" कहा मैंने,
"तो फिर कैसे होगी?" बोले वो,
"रहीम को बुलाओ!" कहा मैंने,
उन्होंने आवाज़ दी रहीम को,
रहीम ने चिल्ला कर कहा कि आ रहा हूँ अभी!
और जब आया, तो दो गिलास लाया था, लस्सी के, नमकीन लस्सी! हींग-ज़ीरे की धुंगार वाली! उसकी तो ख़ुश्बू से ही, पेट में आंतें कुलबुला उठीं!
"वाह वाह!" कहा मैंने, दो-तीन घूँट पीते हुए!
"मसारौ ठीक है?" पूछा रहीम ने!
"अरे बहुत बढ़िया!" बोले शर्मा जी!
ऐसी गाढ़ी लस्सी! ऐसा स्वाद! मक्खन के टुकड़े से आएं मुंह में!
"यार शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"यार, क्या रखा है शहर में?" कहा मैंने,
"बात तो सही है!" बोले वो,
"ये लस्सी देखो, मिलेगी कहीं?" बोला मैं,
"अजी सवाल ही नहीं!" बोले वो,
"लो जी!" बोला रहीम, डोलची ले आया था लस्सी की!
"लाओ!" कहा मैंने,
भर दिया मेरा गिलास!
और मैं झट से पीने लगा उसे!
हमने करीब डेढ़ लीटर लस्सी फांक दी! पेट भरा, डकार आई! लस्सी पीकर, ज़रा देह में भारीपन सा आने लगता है, मेरे भी आया तो मैंने पाँव सीधे किये अपने, लेट गया चारपाई पर! शर्मा जी भी लेट गए! रहीम गिलास उठा रहा था!
"कै ढोर हैं रहीम?" पूछा शर्मा जी ने,
"चार हैं जी!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया यार!" बोले वो,
गिलास रखने चला गया रहीम!
"दूध-घी के तो मजे हैं यहां!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आ गया रहीम, बैठ गया,
"रहीम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"एक बात बता?" बोले वो,
"हाँ?" बोला वो,
"रात कहाँ बिताएं, भूड़ में?" बोले शर्मा जी,
"भूड़ में?' चौंका वो,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा रहीम ने,
"अबे, उस कोचवान के लिए!" बोले वो,
"अच्छा! भूड़ में तो कहीं भी लोट जाओ!" बोला वो,
"कहीं भी?" बोले वो,
"हाँ, चारपाई ले जांगे, आगै पजार लंगे!" बोला वो,
"कोई रोक-टोक?" कहा मैंने,
"अजी न! कोई न!" बोला वो,
"जानवर कोई?" पूछा मैंने,
"ना जी! गिदड़ा हैं, वो कहा कहंगे!" बोला वो,
"तो चलें आज रात?" बोला मैं,
"च्यों न!" बोला वो,
"किसी और को ले चलना है?" पूछा मैंने,
"कहा ज़रूरत?" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ठीक है फिर!" बोला वो,
"चलेंगे कैसे?" पूछा मैंने,
"बुग्घी ले लंगे!" बोला वो,
"हाँ, ये ठीक है!" कहा मैंने,
बदल ली थी करवट मैंने, बदन ढीला पड़ गया था!
"आराम करो जी!" बोला वो, और चल पड़ा,
"ठीक है?" बोला मैं,
"हाँ" बोले वो,
नशा चढ़ा था लस्सी का!
"मारो झपकी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हव चल रही थी, नीम का पेड़ था ऊपर! भयानक सुस्ती चढ़ी थी!
"जागो तो जगा देना!" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं आया!
पलट के देखा, सर पर कोहनी रखे, सो गए थे वो तो!
अब मैंने भी आँखें बंद कर लीं!
फिर हुई शाम! शाम के कुछ देर बाद ही, भोजन भी कर लिया, कुछ देर आराम किया, फिर रहीम ने, जोड़ ली बुग्घी, डाला समान उसमे, एक चारपाई, एक फोल्डिंग-पलंग, खेस और बिस्तर! जलावन के लिए थोड़ी लकड़ियाँ भी! इतनी, जो जलती रहतीं रात भर! सुबह तो जल्दी ही उठ, वापिस होना था! तो हम वहां करीब नौ बजे पहुंचे थे, अँधेरा ऐसा कि पूछो ही मत! हाथ को हाथ न दिखाई दे! टोर्च ले आये थे, टोर्च के रौशनी में, कीड़े-मकौड़े आदि झुण्ड बना कर हमला कर रहे थे उस पर! दूर दूर तक अँधेरा! और कुछ नहीं!
"बहन**! कहाँ से आ गए ये इतने सारे?" बोले शर्मा जी,
"यहीं, झाड़ियों से!" कहा मैंने,
"ये तो बहन के ** उड़ा के ले जाना चाहते हैं!" बोले वो,
"हा! हा! हा!" मैं हंसा!
"रहीम, जल्दी जला यार, घुस गए गलत जगह ये साले!" बोले वो,
सच में, गले से टकराते, और घुस जाते नीचे कमीज में!
मैं भी हटा रहा था और वो भी!
रहीम ले आया सूखी सी घास, लगा दी आग उसमे!
फिर लकड़ियाँ रख दीं, उजाला हो गया! तब जाकर, चैन पड़ा!
बिछा ली खाट, और बिछा लिया फोल्डिंग-पलंग!
लगा लिया बिस्तर!
"वाह रे कोचवान! सुलवा दिया जंगल में, भूड़ में!" बोले शर्मा जी!
"क्या करें!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोले शर्मा जी,
बजे दस, ग्यारह, बारह, एक!
अब लगे ऊँघने हम!
"लेट जाओ!" बोले शर्मा जी,
लेट गए हम, रहीम जागा ही रहा!
मेरी आँख लगी, और मैं तो खेस ओढ़, सोया फिर!
सुबह हुई, कोई न मिला, कुछ भी ना!
इस तरह चार रातें हम वहाँ ठहरे!
कुछ न मिला, कोचवान तो छोड़ो, एक कुत्ता भी नहीं! एक सियार भी नहीं!
हिम्मत देने लगी जवाब! अब क्या करें?
चलें वापिस? ऐसे तो नज़र न आये!
लगता है, हमारे लिए तो वो, एक क़िस्सा-कहानी ही बना रहेगा!
एक दिन,
दोपहर की बात है,
चौपाल में बैठे थे हम, ताश में, सीप खेल रहे थे, वही एक खेल था, जिसमे हम अपना समय काट रहे थे वहाँ!
"अरे आ भाई मंगू!" बोला हरिया!
एक अधेड़ सा आदमी था वो, रौबदार मूंछें थीं उसकी!
बैठ गया मंगू, पानी माँगा उसने, तो पानी दिया उसे!
"कहाँ से आ रौ है?" पूछा हरिया ने,
"बिलसन गयौ मैं!" बोला वो,
"कहा करवे?" पूछा हरिया ने,
"काम हौ एक!" बोला वो,
"तेरे तो काम ही रहवैं!" बोला हरिया!
बातचात चलती रही, पता चला, मंगू भगत है! भगताई करता है! अब उस के संग हुई बातचीत! आया ज़िक्र उस कोचवान का!
अब मंगू से, पता चली एक काम की बात!
वो ये, कि वो कोचवान, तेरस और चौदस की रात को अक्सर नज़र आता है, मंगू ने भी देखा है उसे! ओहो! बांछें खिल गयीं हमारी तो! दिन का हिसाब लगाया तो अभी चार दिन थे!
"चार तो औरत हैं जी, दो बालक है, संग वाके!" बोला वो मंगू!
"बात हुई है?" पूछा मैंने,
"ना जी! पटर-पटर जन कहा बोलै है!" बोला वो,
अंग्रेजी! अंग्रेजी बोलता है वो!
"किसी से बात हुई है?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"तो सुना कैसे, वो पटर-पटर?" पूछा मैंने,
"बग्घी भगावै है तो बोलै जाय!" बोला वो,
चलो! कुछ तो पता चला!
अब चार दिन कैसे काटे हमने, हम ही जानें!
दो दिन तो मच्छी पकड़ीं!
एक दिन, मथुरा घूमे!
और पांचवें दिन, मंगू भी हो लिया साथ हमारे!
मंगू, प्रेतों से बात कर लेता है,
ले-दे के, करवा लेता है काम अपना!
जैसा ग्राहक, वैसी कमाई, ऐसा काम करता है!
तो हुई रात!
हम हुए साथ!
लिया सामान हमने!
लादा बुग्घी में!
और चल पड़े हम अब भूड़ के लिए! मंगू ने एक जगह बताई, वहां अक्सर नज़र आता था वो कोचवान! यही बताया था मंगू ने!
तो लगा लिया सामान, एक पेड़ों का झुरमुट था, वहीँ लगा लिया सामान, बिछा ली चारपाई, लगा लिया बिस्तर, और लेट गए हम! आग जला ही ली थी! अब मंगू ने, अपने बारे में बताना किया शुरू! उसने ये काम, जब वो सत्रह का था, तब से सीखना शुरू किया था, उसके गुरु ने, सबकुछ दे दिया था उसे, अब मंगू का बेटा भी ये काम सीख रहा था!
मंगू ने बताया कि एक बार एक जिन्न ने कैसा फेंटा था उसे, हड्डियां बुरेक दी थीं उसकी! जिन्न खेडिया था वो, तरस आ गया था उसे, जब खूनम-खान हो गया था मंगू! उसी जिन्न ने, ठीक भी किया था उसे!
और एक बार, कैसे बहुति चुड़ैल ने छकाया था उसे! बारह दिन, देख न सका था वो! आँखें बाँध दी थीं उसकी! लेकिन मंगू अड़ा ही रहा! आखिर एम हरा दिया चुड़ैल को उसने!
आदमी तो जीवट वाला था मंगू!
"क्या समय हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"दस बजे हैं!" कहा मैंने,
"बस, नैक और!" बोला मंगू!
अब लगा दी नज़रें रास्ते पर!
ज़रा सी भी आहट हो, सब देखने लगें!
बजे ग्यारह!
फिर बारह!
कोई न आया!
एक बजे, हम औंधे गिरे बिस्तर पर!
आ गयी नींद! सो गए!
अगला दिन काटा किसी तरह!
और रात में, फिर से आ डटे!
उस रात बहुत उम्मीद थी, टूट गयी उम्मीद सुबह होने पर!
अगली रात फिर से आ डटे!
बज गए दस!
और अचानक ही!
मंगू हुआ खड़ा!
गया रास्ते के पास!
और लौट आया!
चारपाई कर दी खड़ी!
"आ रौ है सायद!" बोला मंगू!
दिल धड़के हमारे सब के!
कान लग गए किसी भी आवाज़ को पकड़ने के लिए!
पल पल धड़कनें बढ़ती जा रही थीं! कोई आ तो रहा था, लेकिन अँधेरा ऐसा था कि कुछ दीख नहीं रहा था सामने! कुछ खरड़-खरड़ की आवाज़ें तो आ रही थीं, और जो कोई आ रहा था, बहुत तेज चला आ रहा था! आँखें वहीँ लगी थीं! आवाज़ें बढ़ती गयीं! अँधेरे को चीरता कोई आ रहा था! बग्घी अब देख रही थी! साँसें थामे हम वहीँ देख रहे थे! धूल-धक्क्ड़ फ़ैल गयी थी! हमारी साँसों में भी उतरने लगी थी वो धूल! मुंह ढक लिए थे हमने! और फिर आई आवाज़ किसी के चीखने की! बहुत जल्दी में था वो! बहुत जल्दी में! उसके घोड़े दौड़े चले आ रहे थे! दो घोड़े थे उसके! बग्घी का जुआ, काफी बड़ा था! वो गुजरा ठीक सामने से, चिल्लाता हुआ उन घोड़ों पर! घोड़ों के खुरों की टापें बहुत तेज सुनाई दे रही थीं!
"कीप रनिंग! कीप रनिंग स्टड्स! कीप रनिंग!" चिल्लाता हुआ, वो धड़धड़ाते हुए चला गया! जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से चला भी गया था! न उसने हमें देखा, न हमने उसे देखा, तलवार भी नहीं देखी थी, वो शायद, बायीं तरफ थी उसके, बग्घी की दीवारें भी काफी ऊंची थीं, कौन बैठा था और कौन नहीं, ये भी नहीं पता चला सका!
सभी की साँसें रुक गयीं!
मैं तो अचम्भित था बहुत!
शर्मा जी, अभी भी उसी ओर देख रहे थे!
रहीम, छाती पकड़े, मुंह पर हाथ रखे, वहीँ देखे जा रहा था!
मंगू, जो तम्बाकू उसने निचले होंठ के नीचे लगाया था, अब उसको दाढ़ों के बीच चबाने लगा था! वक़्त गुजरा था हमारे सामने से! वक़्त का एक कैदी! अपने साथ, छह और कैदियों के लिए! उसको ठीक तरह से देख नहीं पाये थे हम, धूल इतनी ज़्यादा उठी थी कि जैसे कोहरा फैला हो!
"देखौ जी?" बोला मंगू!
मैंने सर हिलाया, हाँ में, धीरे धीरे!
"हाँ, ये सच है!" कहा मैंने,
आये शर्मा जी पास मेरे,
"कमाल है, सच में ही कमाल है!" बोले वो,
"हाँ! कमाल है!" बोला मैं,
"जन कहा बोल रहयो?" बोला मंगू!
"दौड़ते रहो, घोड़ो! दौड़ते रहो!" बोला मैं,
"अच्छा! दौड़ते रहो! तबहि घोड़ा दौड़ाय फिरै, जे बात!" बोला मंगू!
"अब कहा कन्नौ है?" बोला मंगू!
"इस कोचवान से बात!" कहा मैंने,
मंगू ने ऐसे देखा मुझे, जैसे भी कोई भूत हूँ! मुंह फटा रह गया उसका तो!
"मार ना डारै कदि?" बोला वो,
"नहीं! नहीं मारेगा वो!" कहा मैंने,
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये लौटेगा तो ज़रूर?" पूछा मैंने,
"हाँ, शायद!" बोले वो,
"तो आज रात, जाग कर काटेंगे हम!" बोला मैं,
"नींद तो अब वैसे भी न आवै!" बोला रहीम!
"आना ज़रा?" कहा शर्मा जी से मैंने,
"बोलो?" बोले वो,
"टोर्च लो ज़रा?" कहा मैंने,
ले ली टोर्च उन्होंने,
"लो!" बोले वो,
जलायी टोर्च, और मैं चला उस रास्ते पर, जहां से वो अभी अभी गुजरा था! वहाँ पहुंचा, निशान थे पहियों के वहां, मैंने उनकी दूरी देखी, करीब छह या साढ़े छह फ़ीट रही होगी, उसकी बग्घी बड़ी थी काफी! उसको दो घोड़े खींचते थे!
"विक्टोरिया लगती है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, उस समय तो शाही रही होगी!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई बिरला ही बैठे!" बोले वो,
"हाँ, सही बात है!" कहा मैंने,
"एक बात देखी?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कितनी जल्दी में था वो?" बोले वो,
"हाँ, जैसे कोई पीछे लगा हो उनके!" कहा मैंने,
"हाँ, या उसको कहीं बहुत ही जल्द पहुंचना हो!" कहा उन्होंने,
"हाँ, वो सांटा लहरा रहा था अपना! देखा था?" बोले वो,
"हाँ, देखा था!" कहा मैंने,
"और बोल भी रहा था, कीप रनिंग!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब तो वो ही जाने कि वजह क्या है!" बोले वो,
"जानेंगे! हम भी जानेंगे!" कहा मैंने,
हम, लगाते रहे अटकलें!
रात भर जागे, लेकिन वो नहीं लौटा!
सुबह हम वापिस हो गए! सारा दिन काटा!
और फिर से आ डटे वहाँ!
वो रात, ग्यारह बजे के बाद गुजरा था,
आज रात मैं तैयार था, रहीम और मंगू, वही ठहरने वाले थे, मैं और शर्मा जी, उस रास्ते पर ही जा खड़े हुए!
बजे ग्यारह!
उस तरफ देखा हमने!
कोई आवाज़ नहीं!
बस, हवा चल रही थी, बावरी सी हवा! उस समय, हवा ठंडी थी!
"कल वाला वक़्त हो गया है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, इंतज़ार है!" बोला मैं,
एक घंटा और खिसक गया! न आया वो!
इस तरह, वो पूरी रात गुजर गयी! नहीं आया!
तीसरी रात,
रात ग्यारह बजे,
हम वहीँ जा खड़े हुए!
थोड़ा आगे चले थे, टोर्च जलाये!
कि तभी आई आवाज़, खरड़-खरड़ की!
अब दिल धड़के हमारे!
हम उस रास्ते के किनारे ही खड़े थे!
टोर्च बंद कर ली थी मैंने! कहीं वो, लोप ही न हो जाए! इसलिए! इतने वर्षों में, प्रेत-योनि में रहने से, उनकी नैसर्गिक-शक्ति में वृद्धि होना कोई बड़ी बात नहीं थी! अब पता नहीं कब से वो इस योनि में भटक रहे थे!
घोड़े की टापें सुनाई देने लगीं!
हम, रास्ते के दायें खड़े हो गए थे!
उसकी आवाज़ आने लगी थी!
"कीप रनिंग! कीप रनिंग अहेड! स्टड्स! कीप रनिंग!" वो चिल्लाता आ रहा था!
"आने वाला है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, आओ!" कहा मैंने,
और हम अब जा खड़े हुए बीच रास्ते में! वो धूल-धक्कड़ फैलाता हुआ, बढ़ा चला आ रहा था! बहुत गति थी उसके घोड़ों की! बग्घी उछलने सी लगती थी!
उसने उठाया अपना सांटा, और फटकारा हवा में! सांय की सी आवाज़ आई!
"ये नहीं रुकेगा! ये नहीं रुकेगा!" बोले शर्मा जी!
और वो हम दोनों के बीच में से होता, दौड़ता चला गया! उसने देखा ही नहीं हमें! हम न हटते तो चढ़ा ही देता अपनी बग्घी हम पर!
"कोच-मैन?" चिल्लाया मैं!
कोई असर नहीं!
"कोच-मैन?" मैं फिर से चिल्लाया!
कोई असर नहीं! बग्घी दौड़ाता हुआ, वो बढ़ता चला गया आगे! कोई असर नहीं पड़ा था उसे! बड़ा ही निर्भीक था वो! लेकिन..............
और वो, कोचवान, हो गया ओझल! ये सब इतनी तेज हुआ था की अंदाजा भी न लगा सका था! लेकिन एक बात हुई थी! इस बार मैंने उसको देख लिया था! वो साढ़े छह या सात फ़ीट का रहा होगा! कसा हुआ जिस्म था उसका, छरहरा! उसकी ठुड्डी उभरी हुई थी, अपने टोप की फीत कसे, वो जो उसकी ठुड्डी के पास से जाती थी, सैनिक सा लगता था, उसके हाथों में दस्ताने थे, सफेद रंग के, जो कि, कोहनी तक जाते थे! उसके कंधों पर, झालरें लगी थीं, पीले रंग की, शायद, सुनहरी हों! उसने चुस्त पैन्ट पहनी थी, लाल रंग की रही होगी! हमें काली दीख रही थी! जैसे लाल रंग दीखता है, अँधेरे में, उसे ही ध्यान में रख कर, मैंने लाल रंग का अंदाजा लगाया था, उसने जो कोट सा पहना था, वो भी लाल रंग का ही होगा! कमर में बंधा था वो, एक बड़ी सी फीत से! और तलवार लटकी थी, सीधी तलवार, अंग्रेजी तलवार! उसकी आवाज़ बहुत कड़क थी! आवाज़ के लहजे से लगता था की वो या तो आर्मी में था या फिर कोई सैनिक, या गार्ड रहा हो! उसका टोप, सिलेटी रंग का था! काफी बड़ा था, हेलमेट जैसा! फुर्तीला था बहुत! अपना सांटा ऐसे लहराता था जैसे घुड़सवारी में माहिर हो! सांय-सांय की आवाज़ आती थी उसके सांटा लहराने से!
"ये ऐसे नहीं रुकने वाला!" बोले शर्मा जी,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
"जुगत भिड़ानी होगी कुछ!" बोले वो,
"हाँ, दरअसल मैं नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो!" कहा मैंने,
"और कोई हल हो तो बताओ?" बोले वो,
"हाँ, हल तो नहीं!" कहा मैंने,
"इसीलिए कहा मैंने!" बोले वो,
"एक बार और देख लो?" कहा मैंने,
"देख लो!" बोले वो,
रात वहीँ काटी जी, सारी रात, उसके सांटे की सांय-सांय मुझे मेरे दिमाग में बजती रही! उसके हाँफते घोड़े, उसका चिल्लाते जाना! सब दिमाग में चलता रहा!
सुबह हुई, और हम चले वापिस,
उसी रात फिर से पहुंचे,
नहीं आया वो!
चार रात और कट गयीं, नहीं आया!
मुझे, न जाने क्यों, उस फिरंगी कोचवान से, एक लगाव सा होने लगा था, कौन है बेचारा! वो औरतें कौन हैं? वो बालक कौन हैं? कब से घूम रहा है इस वीराने में? क्या वजह रही होगी? क्या हुआ था वैसा?
सवाल इतने थे, कि गुब्बारे की तरफ से बार बार फूटते थे दिमाग में! उत्तर उनके, उस कोचवान के पास ही थे!
और कोचवान!
कोच अपनी ही रौ में था!
ऐसे घोड़े दौड़ाता था कि जैसे जान पर बनी हो!
अब हो भी सकता है कि जान पर ही बनी हो!
लेकिन वो तो सुनता ही नहीं?
सुनना तो छोडो, देखता भी नहीं!
तो कैसे बने बात?
पकडूँ? तो मामला हो सकता है खराब!
न पकडूँ, तो मेरी गरदन पकड़े मेरा मन! उत्कंठा, दम घोंट दे!
बहुत सोचा-विचारा जी हमने!
खूब मंत्रणा की साहब!
और निकला अब नतीजा ये, कि साम, दाम, दंड, भेद! कैसे भी, कैसे भी, उसको रोका जाए! बात की जाए, और आगे, उसकी इच्छा!
उसी रात जा पहुंचे हम! उसी समय! उसी जगह! वैसी ही उम्मीद लिए! उस रात नहीं आया वो! क्या करते? अपना सा मुंह लटका, आ जाते वापिस!
तीन रातें और बीत गयीं! नहीं आया वो! चौथी रात, रहीम अपने चाचा की मोटरसाइकिल ले आया था! ये काम तो बढ़िया किया था उसने! अब अगर वो कोचवान भागता भी तो, हम भी दौड़ पड़ते उसके पीछे पीछे! मोटरसाइकिल की जांच कर ली थी, सबकुछ ठीक काम कर रहा था! वैसे तो पुरानी थी, लेकिन जान अभी बाकी थी उसमे!
उस रात, मैं और शर्मा जी, उस जगह से, दूर चले गए, वहाँ, जहां से वो आता था, और जा खड़े हुए! मोटरसाइकिल, लगा दी एक तरफ! और उम्मीद में, वहीँ बैठ गए, उसी मोटरसाइकिल पर! एक घंटा, दो घंटे बीत गए! नहीं आया वो कोचवान!
उसी रात, ठीक बारह बजकर पचास मिनट पर, आई आवाज़! खरड़-खरड़ की! वो आ रहा था अपनी बग्घी भगाते हुए! हम हुए मुस्तैद! हो गए रास्ते में खड़े! वो आ रहा था! अब उसकी आवाज़ें आयीं!
"कीप रनिंग! कीप रनिंग स्टड्स! कीप रनिंग!" चिल्लाता आ रहा था वो!
हम तैयार थे! उसका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे हम! वो आता गया, आता गया, और जैसे ही हमारे सामने से गुजरा, उसकी नज़रें पड़ीं हम पर!
"कोच-मैन? मिस्टर कोच-मैन?" चिल्लाया मैं!
बग्घी आगे बढ़ी! और फिर लग़ाम खिंचीं बग्घी की! भररन-भररन जैसे आवाज़ हुई! और रुक गयी बग्घी! हमारे दिल मुंह को आये! हम बढ़ चले उस बग्घी की तरफ! धीरे धीरे! बग्घी, रास्ते के बाचोंबीच खड़ी थी!
हम रुके, बग्घी, करीब पंद्रह-बीस फ़ीट आगे रुकी थी! घोड़ों के नथुनों से, हांफने की आवाज़ आ रही थी!
धप्प!
धप्प से वो कूदा उस बग्घी से! और रुका, देखा हमें, आसपास देखा, पीछे देखा, और बात की उसने, बग्घी में बैठे हुओं से!
और चल पड़ा हमारी तरफ! भारी बूट पहने थे उसने! तलवार, नीचे पिंडलियों तक लटकी थी! बूटों की आवाज़ गूँज गयी! पत्थर-कंकड़ दबने लगे बूटों के नीचे! वो आ रहा था, सम्भल कर, तलवार की मूठ पर हाथ रख कर!
वो रुक गया, चार फ़ीट दूर!
अब देखा उसे हमने साफ़ साफ़!
छरहरा बदन था उसका! कसा हुआ जिस्म! गले तक, मफलर बाँधा था! कोट काफी बड़ा था उसका, कंधों पर फीत लगी थीं! एक निशान था बना हुआ, उस टोप पर, दो शेर बने थे, एक दूसरे से लड़ते हुए! अपने दोनों आगे के पाँव उठाये हुए! मुंह खुला था उनका, उनके बीच, दो तलवारें, बनी थीं, एक दूसरे को काटते हुए! उसका खुद का कद, करीब सात फीट रहा होगा! भरा हुआ चेहरा, और भारी मूंछें! कानों से नीचे आती हुईं कलमें! जो गालों पर आ, चौड़ी हो रही थीं! बाल उसके सुनहरी थे! लाल से सुनहरी!
उसने हमें गौर से देखा!
"व्हू आर यू?" एक रौबदार आवाज़ में उसने पूछा!
"वी लिव इन आ विलेज नियरबाए!" बोला मैं,
"व्हाट डू यू वांट?" पूछा उसने,
उसके बोलने का लहजा, बड़ा ही शानदार था! ये पुरानी अंग्रेजी थी! जिसमे ट और ड की आवाज़, भारी हुआ करती है! पुरानी ब्रिटिश अंग्रेजी!
"नथिंग सर! वी जस्ट सॉ यू एंड, एंड......हियर इट इज़!" कहा मैंने,
"यू गॉट एनी वेपन?" पूछा उसने,
"नो सर! नोट इवन आ स्टिक!" बोला मैं,
"ओके!" बोला वो,
"मे आई आस्क समथिंग, सर?" पूछा मैंने,
"गो ओन, यस!" बोला वो,
"वेयर आर यू अपटू?" पूछा मैंने,
"आई एम ऑफ तो आ कैंटोनमेंट, राइट देयर!" वो आगे की ओर इशारा करते हुए बोला,
वहाँ तो कोई कैंटोनमेंट है नहीं, शायद, मथुरा कैंट हो! सम्भव है! सम्भव है कि वो उनको साथ लेकर जा रहा हो कैंटोनमेंट!
"थैंक यू सर! मे आई बी ऑफ़ सम हेल्प?" पूछा मैंने,
"योर इंग्लिश इज़ प्रिटी फाइन!" बोला वो, मुस्कुराते हुए!
"माय प्लेज़र सर!" बोला मैं,
"वेल...." बोला वो,
"यू सीम तो बी इन हरी सर!" कहा मैंने,
"यस, सो मच टू डू, सो लैस टाइम, आई हैव!" बोला वो,
"एनीथिंग फॉर मी सर?" मैंने ज़रा तन्मयता बधाई!
"नो नो! नथिंग!" बोला वो,
"इज़ देयर एनीवन बिसाइड यू, इन दैट कोच सर?" पूछा मैंने,
"यस, हम्म, आई विल कम बैक, टुमारो, मीट मी!" बोला वो,
"ऐट, राइट दिस प्लेस सर?" पूछा मैंने,
"यस, हियर! राइट हियर!" बोला वो,
"आई विल सर!" बोला मैं,
"यू आर आ काइंड पर्सन!" बोला वो,
"माय प्लेज़र, अगेन सर!" बोला मैं,
"ओके! आई एम ऑफ नाउ!" बोला वो,
"ओके सर!" बोला मैं,
उसने हाथ बढ़ाया अपना आगे, मैंने भी बढ़ा दिया, और हाथ मिलाया मैंने उस से! बर्फ सा सर्द हाथ था उसका! शर्मा जी से भी हाथ मिलाया उसने!
वो हुआ वापिस, हाथ हिलाया, टोप ठीक किया, और चढ़ गया बग्घी में! लहराया सांटा अपना, और बग्घी बढ़ चली आगे!
वो हो गया ओझल! चला गया था वहाँ से! लेकिन हमें उठा ले गया था अपने वक़्त में! यही तो होता है, जब भूतकाल, वर्त्तमान काल से मिलता है!
"बेचारा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, बेचारा!" बोला मैं,
"तो ये कैंटोनमेंट जा रहा होगा, उन औरतों और बालकों को ले कर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उसने कहा कि काम बहुत है उसके पास करने को, लेकिन समय बहुत कम है!" बोले वो,
"हाँ, शायद, और भी होंगे, जिन्हें उसका इंतज़ार होगा!" बोला मैं,
"हाँ, हो सकता है!" बोले वो,
"लेकिन आदमी जीदार लगा मुझे!" बोला मैं,
"हाँ, है तो जीदार ही!" बोले वो,
"कोई गार्ड लगता है मुझे तो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"चलो, कल बात करेंगे इस से!" बोला मैं,
"वो आएगा?" पूछा उन्होंने,
"उम्मीद तो है!" कहा मैंने,
सही पूछा था उन्होंने!
उसे नहीं पता, आज कल और बीता हुआ कल!
वो तो उस काल-खंड में अटका है, जो अंतिम क्षण होंगे उसके!
"याद है आपको?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"वो सरोज?" बोले वो,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"उसका कल नहीं आया आज तक!" बोले वो,
"हाँ, वो बेचारी, पता नहीं कहाँ है, पकड़ी गयी, आगे चली गयी, क्या हुआ उसका, कुछ नहीं पता, बेचारी!" कहा मैंने,
सरोज, एक लड़की थी, अठारह बरस की, एक नदी में डूब कर उसकी मौत हो गयी थी, उसके हाथ में उस समय, एक कंगन था, उसकी माँ का दिया हुआ, वो कभी न मिला कंगन, उसी कंगन के मोह में, वो रोज आती थी उस नदी के पास, ढूँढा करती थी वो कंगन, मुझ से मदद मांगी थी, लेकिन उस कंगन को तो, नदी कभी का कहीं से कहीं बहा ले गयी होगी, या वो नदी के तल में, कहीं गहरा दब गया होगा! वो कंगन ढूंढते वक़्त रोया करती थी! जब उसको वाक़िफ़ करवाया हक़ीक़त से, तो भी समझ नहीं पायी, वो बस अपना कंगन पाना चाहती थी, कैसे भी! उसने भी एक ऐसा ही वायदा किया था, कि वो कल आएगी और वही करेगी जो मैंने कहा था, वो कभी नहीं लौटी उसके बाद! उसका कल, कभी नहीं आया! वो कंगन ढूंढने भी नहीं आई उसके बाद! मुझे याद है वो सरोज!
हम लौटे वापिस फिर गाँव, एक बात और, इस बार रहीम और मंगू ने, किसी भी कोचवान को नहीं देखा था वहाँ से जाते हुए! अब ये तो वो ही जाने, कि क्यों नज़र नहीं आया था वो कोचवान उस बग्घी के साथ!
अगली रात,
वही जगह,
वही वक़्त!
आ रहा था वो धूल उड़ाता हुआ! तेजी से दौड़ा चला आ रहा था! हम खड़े हो गए थे! उसकी बग्घी धीमे हुई, और आई हमारे पास तक, रुक गयी! उसने देखा हमें! मुस्कुराया और उतर आया नीचे! हाथ मिलाया उसने!
"हाउ आर यू सर?" पूछा मैंने,
"ओ परफेक्ट! थैंक यू, एंड यू, बोथ?" बोला वो,
"परफेक्ट वी आर सर!" कहा मैंने,
"दैट इज़ परफेक्ट!" बोला वो,
"अगेन, टू दा कैंटोनमेंट?" पूछा मैंने,
"अगेन? व्हाट डू यू मीन?" पूछा उसने, उसे हैरत हुई, सवाल के आखिर में, मुस्कुरा पड़ा था वो!
"ओ सॉरी सर!" मैंने बात संभाली!
"इट्स ओके, नोट आ बिग इशू!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
"व्हाट'स योर गुड नेम?" पूछा उसने,
"जॉर्ज सर!" बोला मैं,
"एंड ही?" पूछा इशारा करके शर्मा जी की तरफ!
"टॉम सर!" जल्दबाजी में, टॉम नाम निकल गया मुंह से!
"वोंट यू बोदर तो आस्क माइन?" बोला मुस्कुरा कर!
"ओ सॉरी सर! यस! प्लीज़!" कहा मैंने,
"मौरिस ओ' रिओरडैन!" बोला वो, बड़े ही सलीक़े से!
रिओरडैन! ओ' रिओरडैन! इसका मतलब, वो आयरिश मूल का था!
"पार्डन मी सर, आयरिश आर यू?" पूछा मैंने,
"यस! प्रिटी क्लेवर मैन यू आर! उम्म्म! आई एम इम्प्रेस'ड!" बोला वो,
"दा सोल प्लेज़र इज़ माइन सर!" बोला मैं, झुकते हुए!
"ओके मिस्टर जॉर्ज, आई विल लीव नाउ! मीट यू लेटर! यू बोथ आर वेरी नाइस पर्सन्स! प्लीज़'ड टू मीट यू!" बोला वो,
"थैंक्स सर!" बोला मैं,
"उम्, वन मिनट!" बोला वो,
उसने डाला अपनी जेब में हाथ, और निकाला एक पेन, पेन ही था वो!
"कीप इट!" बोला वो,
"ओ थैंक्स सर! सो मेनी थैंक्स!" बोला मैं, पेन लेते हुए!
"फ्रेंड टू आ फ्रेंड! गुडबाय!" बोला वो,
हाथ मिलाया उसने, कंधे पर थपथपाया उसने! मुड़ा, हाथ उठाया, चला बग्घी की तरफ! बैठा और देखा हमें! हमने हाथ हिलाये, उसने भी और वो, चल पड़ा आगे!
हम देखते रहे उसे जाते हुए!
हो गयी ओझल उसकी बग्घी!
"टोर्च जलाइए?" बोला मैं,
जला दी टोर्च, हुआ उजाला,
अब पेन देखा मैंने,
"ये क्या लिखा है?" पूछा मैंने,
"एक मिनट, दिखाइए?" बोले वो,
मैंने दिया पेन उन्हें,
"इस पर.......मिट्टी लगी है!" बोले वो,
"खुरचो?" कहा मैंने,
"अभी, आराम से करना पड़ेगा!" बोले वो,
कभी नाख़ून से, कभी रुमाल से वो मिट्टी खुरची!
और एक नाम आया उभर कर! वाटरमैन!
मैंने तो इस कंपनी का नाम भी नहीं सुना था! कहाँ की है, ये भी नहीं पता! वो दरअसल एक डिप-पेन है! स्याही में डुबाओ, और लिखो! उसकी लेखनी, पेन की कम, कैलीग्राफी की ज़्यादा लगती है! लेकिन मेरे लिए तो वो, एक नायाब तोहफा है! "फ्रेंड टू आ फ्रेंड!" यही बोला था उसने!
जब बाद में खोजबीन की, तो पता चला कि ये वाटरमैन कंपनी अमेरिका की है, और दुनिया में आज भी, बेहतरीन पेन बनाती है!
उस पेन का रंग ऐसा है, कैसे लाल रंग की सागवान लकड़ी! चमक आज भी वैसी ही है! उसकी निब, वाटरमैन कंपनी की ही है! देखने में तो साधारण ही लगती है, लेकिन अनमोल है! वाटरमैन कंपनी सन अठारह सौ चौरासी में आई अस्तित्व में!
इसका क्या अर्थ हुआ?
इसका अर्थ ये हुए कि, जैसा मुझे लगा था कि शायद ग़दर के वक़्त, विद्रोही सेना ने, जिस तरह से उस समय, अंग्रेजों का संहार किया था, ये उनमे से ही न हों! लेकिन ऐसा नहीं निकला, ग़दर अठारह सौ सत्तावन में हुआ था, और ये पेन, अठारह सौ चौरासी के बाद बना होगा!
तो ऐसा क्या कारण रहा होगा?
लेकिन!
मुझे अब कोई चिंता नहीं थी!
मेरे पास नाम था उसका, और सबसे बड़ी बात, उसके द्वारा दिया गया पेन था! अब इबु साहब, उसको, कहीं से भी पकड़ सकते थे! उन सभी प्रेतों के साथ!
"अब तो काम बन गया?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
'एक बात कहूँ?" बोले वो,
"बोलो?" कहा मैंने,
"इस पेन का आप क्या करोगे?" पूछा उन्होंने!
मैं समझ गया उनका आशय! वो अक्सर, ऐसी पुरानी यादगार के स्मृति-चिन्ह, वस्तुओं को बहुत सहेज कर रखते हैं! शायद, मैं भी न रख सकूँ!
"ये लो!" कहा मैंने,
उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी वो पेन ले लिया!
"ये इतिहास है, जीता-जागता!" कहा मैंने,
"हाँ! सच!" बोले वो, रखते हुए पेन को, पहले रुमाल में लपेटा, और फिर अपनी जेब में खोंस लिया!
"आओ, चलें अब!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम, निकल पड़े वहाँ से, अब सारा काम पूरा हो चुका था, अब बस, जाना था तो अपने शहर! बहुत लील लिया था गाँव का भोजन! अब फिर से, बनावटी भोजन ही खाना था!
हम अब वापिस हो गए थे! गाँव आ गए थे वापिस, कमाल की बात ये, कि इस बार भी, वो कोचवान नहीं नज़र आया था उन्हें! अब हमारा काम यहां का खतम हो गया था! इबु की मदद से, मैं अब उन्हें कहीं भी हाज़िर कर सकता था! इबु के लिए ये काम कोई मुश्किल नहीं था! वो कहीं भी हों, इबु उनको पकड़ ही लाता! अब मेरे पास पेन था, सबसे अहम चीज़ यही थी! नाम मुझे मालूम चल ही गया था उसका! अब उन सभी का बंधन काटना था मुझे! उनकी क्या रजा है, ये भी मालूम करना था! मैं कोई अनुकूल समय, दिन, रात देख रहा था कि कब ऐसा अवसर मिले!
और ऐसा वस्र, मिल गया मुझे! वो शनिवार का दिन था, उस दिन, चन्द्र अपने उच्चांश में गमन करने वाले थे! वो समय सटीक था बिलकुल!
रात करीब, एक बजे,
मैं अपने क्रिया-स्थल में गया, भोग सजाया इबु का, अब सबकुछ इस सिपाहसालार पर ही निर्भर करता था, वो पेन रखा मैंने थाल में, और पढ़ा इबु का शाही-रुक्का! झिलमिलाते हुए, इबु हाज़िर हुआ! आँखें संक उठी थीं उसकी! वो मुस्कुराया, मैंने भोग दिया उसे, और उसके बाद, अपना उद्देश्य जाना उसने, उनसे उस पेन से, गंध ली, मैंने नाम भी बताया उसे!
अपना उद्देश्य जान, इबु हुआ झम्म से लोप! उड़ चला वो सिपाहसालार अपने मक़सद को साधने! इबु के वजूद में, उसकी जाती ताक़तें मौजूद हैं! अच्छे से अच्छे खिलाड़ी और कारीगरों को कई घूँट पिलाने की हैसियत रखता है! जब वो चलता है, तो प्रेत, जिन्न मैदान छोड़ भागने लगे हैं! कोई आड़े नहीं आता उसके, और जो आया, समझो उसका अंजाम भला न हुआ!
करीब आधा घंटे बीता,
और पीला रंग बिखेरता, इबु हाज़िर हुआ!
मैं उठ बैठा!
उसको देखा,
वो मुस्कुराया, और कर दिया हाथ आगे अपना! आगे किया, तो काँपता हुआ वो मौरिस भी पेश कर दिया उसने! बाकियों को, मैंने उसके पास ही रहने दिया! उसके बाद, इबु, लोप हो गया! अपना काम बखूबी कर लाया था मेरा इबु!
अब वहां, मौरिस और मैं थे, मौरिस ने मुझे देखा, हैरत से, वो डर रहा था, इतने सालों में शायद, पहली बार उसकी न चली थी! मुझे भी हैरत से देख रहा था वो, मैं जानता था, उसको सदमा पहुंचा है, और जब मुझे देखा होगा, तो क्या गुजरी होगी उस पर!
"हाउ आर यू सर?" पूछा मैंने,
"आई डॉन'ट गेट इट? व्हाट;स थिस मैटर एंड व्होल अबाउट?" पूछा उसने,
लाजमी था, लाजमी था उसका ये पूछा!
"आंसर मी? वेयर आई एम?" पूछा उसने,
"वेयर-एवर यू आर, यू आर पर्फेक्ट्ली सेफ! नीड नोट बोदर, अलोंग-विद द अदर वन्स!" कहा मैंने,
"आई डॉन'ट अंडरस्टैंड? हु वाज़ ही? व्हाई डिड ही फेच अस आल हियर?" पूछा उसने,
"फॉर योर सेफ्टी सर!" बोला मैं,
"व्हाट रब्बिश? सेफ्टी? व्हाट आर यू टॉकिंग अबाउट?" बोला वो, अंग्रेजी लहजे में, वही रौब अभी तक क़ायम था उसका!
"ईच डे! ईच नाईट! यू कैरी दैम अवे तो योर कैंटोनमेंट! डॉन'ट यू सर?" पूछा मैंने,
"ईच डे? नाईट? आर यू आउट ऑफ़ योर विट्स?" पूछा उसने,
बेचारा! क्या जाने वो! इतना ही जानता, तो आज यूँ ही भटक न रहा होता!
"यस सर! यू डू! यू हैव बीन वांडरिंग इन दोज़ वुड्स!" कहा मैंने,
"वेट! वो! वो! वेट! व्हाट डू यू मीन, वांडरिंग?" पूछा उसने,
"यू वोन'ट अंडरस्टैंड!" कहा मैंने,
"दैन कन्विंस मी, मिस्टर जॉर्ज!" बोला वो,
बस!
यही समझाना सबसे मुश्किल काम है! जो भी समझाओ, वो समझ ही नहीं पाते! चाहे आप, कुछ भी सबूत दे दो! नहीं समझेंगे वो!
"ओके सर!" कहा मैंने,
"श्योर!" बोला वो,
"डू यू नो सर?" बोला मैं,
"व्हाट?" बोला वो,
"यू एंड दे, आर नोट...............लिविंग एनीमोर!" बोला मैं,
"व्हाट?" बोला वो,
"यस!" कहा मैंने,
वो हंसने लगा! हंसने लगा जैसे मैंने कोई मजाक किया हो!
"यू मैट में देयर, ओके?" पूछा उसने,
"यस! आई डिड!" कहा मैंने,
"आई गेव यू अ पेन? ओके?" बोला वो,
"यस! हियर इट इज़!" कहा मैंने,
दिखाया उसे मैंने वही पेन!
"यस! दिस वन!" बोला वो,
"यस सर!" कहा मैंने,
"एंड यू आर सेइंग दैट, वी डॉन'ट लिव?" बोला वो,
"ऐब्सोल्युटली सर!" कहा मैंने,
उसने अपने होंठ भींचे, भौंहें ऊपर कीं, और मुझे देखा फिर!
"वेट!" कहा मैंने,
मैं गया एक कोने में, लाया भस्म, अभिमंत्रित भस्म!
"इफ यू आर अलाइव सर, दैन, यू वुड टच इट, इफ यू कांट, दैन, बिलीव मी, एंड बिलीव दैट आई एम नोट लाइंग! ओके सर?" पूछा मैंने,
"व्हाई नोट! गिव मी दैट!" बोला वो,
"हियर इट इज़! टच इट!" कहा मैंने,
अब जैसे ही उसने छुआ, एक झटका खाया! हटा पीछे, काँप गया! आँखें बंद कर लीं, उस पर, पहाड़ तोड़ दिया था मैंने!
अब हुआ वो ग़मगीन, और मुझे आई दया उस पर!
बहुत सी बातें हुईं मेरी उस से, उसके बारे में, बताया उसने मुझे अपना इतिहास! उसने कर लिया था मेरा यक़ीन, जैसे रो रहा हो, ऐसा हो गया था, उसको बहुत भारी सदमा पहुंचा था, बहुत भारी! वो सुबका, अंदर ही अंदर रोया वो, मैं भांप गया था, इसीलिए कुछ देर कुछ न कहा उस से, हाँ, एक बात, मैंने उसे अन्य कई बातों से ये जतला दिया कि मैं सच कह रहा हूँ, उसको यक़ीन करना पड़ा........कोई चारा नहीं था उसके पास.....
"आई हैव माय लविंग मदर, अ यंग सिस्टर, कैथी, माय ओल्ड फादर..............." बोला वो,
"यस, यू, वन्स हैड............" कहा मैंने,
"ओ गॉड! ओ गॉड! व्हाई डिड यू डू आल दिस विद मी? ओ गॉड! माय व्होल वर्ल्ड हैज़ कम तो दिस वर्स्ट एंड! ओ गॉड!" बोला वो,
मैं चुप ही रहा,
कुछ न बोला,
वो अपने दुःख में लिपटा था, मैं जीने दे रहा था उसको उसका वो दुःख!
बहुत देर हुई,
उसे सभी से ऐसे बातें कीं, जैसे उसके सामने खड़े हों उसके अपने, अपनी बहन का जब नाम लेता था, तो बुरी तरह से दुःख होता था उसे, वो अपने घुटने पकड़, झुक कर, सुबकता था, बार बार............
"सर?" बोला मैं,
उसने आँखें बंद कर रखी थीं अपनी,
"सर?" बोला मैं, दुबारा,
उसने देखा मुझे, मायूस हो गया था वो बहुत, एक पल में ही वजूद ख़त्म जो हो गया था! और फिर उसने मुझे अपने अंतिम क्षणों के बारे में बताया! जो मैं नीचे लिख रहा हूँ!
उसका नाम मौरिस ओ' रिओरडैन था, मौरिस का परिवार ब्रितानिया में, आज के मिडिलसेक्स में रहता था, पिता पहले उसके, पानी के जहाज में नौकरी किया करते थे, मौरिस की माँ, एक अस्पताल में नर्स थीं,
छोटी बहन कैथी पढ़ाई कर रही थी, वो कला की छात्रा थी, मौरिस को ओकरी मिली, वो भी पानी के जहाज पर, नाविक का बेटा था, तो नौकरी मिल गयी थी उसे, उस समय, कुछ समय नए रंगरूटों को, भारत में भेजा जाता था! इसी सिलसिले में, मौरिस को भारत आना पड़ा, जिस समय वो भारत आया था, उसकी उम्र चौबीस बरस की थी, उसने भारत में कई जगह नौकरी की, उसको कभी कानपुर, कभी मिर्ज़ापुर, कभी बंगाल आदि में भेजा गया था, और जन उसकी नौकरी मथुरा में लगी, तो उस समय के पुलिस अधिकारी, उस क्षेत्र के, कोई श्रीमान जेम्स थे, मौरिस को उनके आवास पर, रखा गया था! मौरिस दबंग और कार्यकुशल नौजवान था! अपने अधिकारियों का चहेता बन गया था! ये वाक़या सन उन्नीस सौ अट्ठाइस का है! जिस समय साइमन-कमीशन भारत आया था, इसमें कुछ संवैधानिक-सुधार आदि का कार्य था, जिसमे कुल सात सदस्य थे, ब्रितान्वी संसद की, जिसकी अगुवाई, सर जॉन साइमन कर रहे थे, उन्ही के नाम पर इस कमीशन का नाम रखा गया था! इन सदस्यों में, एक क्लीमेंट एटली भी थे, जो बाद में ब्रितान्वी प्रधान मंत्री भी बने! दरअसल इसकी नींव सन उन्नीस सौ उन्नीस में ही पड़ गयी थी, जब ब्रितान्वी संसद ने द्वैध-शासन प्रणाली, भारत में थोपी! उसी को, पुनः, नए रूप में, साइमन-कमीशन के रूप में लाया गया था!
उन दिनों भारत में माहौल बदल रहा था, लोग, फिरंगियों के खिलाफ होने लगे थे, गोरिल्ला-युद्ध आदि में, फिरंगियों का क़त्ल हो रहा था! कुछ शान्ति-प्रिय लोग, अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर, आज़ादी की मांग कर रहे थे! उस वक़्त में, अज्ञात लोगों के खिलाफ हज़ारों लोगों के मुक़द्दमे, अदालतों में, लम्बित पड़े थे! ये मुक़द्दमे, ब्रिटेन की सभी अदालतों में लगे मुक़द्दमों से दोगुने थे!
और उन दिनों, भारत में, ठग, चोर, डकैत सब बढ़ चले थे! डकैतों को, गाँव की जनता से समर्थन मिलता था, वे या तो अंग्रेजों के यहां डकैती डाला करते थे, याफिर उनके, जो इन अंग्रेजो की चापलूसी किया करते थे!
इस घटना में भी एक डकैती ही पड़ी थी! उस पुलिस अधिकारी के यहां, जहां मौरिस के साथ, बारह और लोग तैनात थे! डकैती डालने वाले गिरोह का सरगना, हिम्मत सिंह था, जिसे हेमू कहा जाता था! उसका गिरोह, अक्सर ही सक्रिय रहा करता था! उनका डकैती का क्षेत्र भी बहुत बड़ा था! उनके क्षेत्र में, कोई और, अन्य डकैत, डकैती नहीं डाल सकता था! ये उस वक़्त डकैतों के नियम थे! तीज-त्यौहार, मृत्यु हुई हो किसी घर में, हारी-बीमारी हुई हो, वहां डकैती नहीं पड़ती थी! हेमू, उन निर्धनों की भी मदद करता था जो असहाय होते थे, बेगार किया करते थे, बंधुआ-मजदूर होते थे, ज़मींदारों के सताए हुआ करते थे! तो लोगों में पैठ थी उसकी! इसी कारण से, कभी भी उनकी कोई मुखबरी नहीं किया करता था, बल्ककी डकैत ही मुखबिर रखा करते थे गाँवों में! एक ऐसा भी युग रहा है हमारे भारत में!
बकौल मौरिस,
वो रात का वक़्त था,
उस समय जेम्स नहीं थी घर में, उनको आगरा जाना पड़ा था किसी काम से, उस रोज, बारिश भी रुक रुक कर पड़ रही थी, एक कमरे में, वो कमरा बाहर बना था, काफी बड़ा रहा होगा, मैंने देखा था वो स्थान, जहां जेम्स का परिवार रहा करता था! हाँ, तो वो कमरा आकफी बड़ा था, वो इमारत दो-मजिला है, आज तो खैर, छतों में भी छेद हैं उसमे! वक़्त की दीमक, कुछ नहीं छोड़ा करती, तो वो इमारत भी कोई अपवाद नहीं!
उस रात करीब नौ बजे,
मौरिस के साथ उस कमरे में, चार और लोग भी थे, दो आदमी, अपने अपने हथियारों की जांच कर रहे थे, उनके पास खबर तो थी कि उस क्षेत्र में, हेमू का गिरोह आया हुआ है, हेमू उस समय, आगरा से आया था, वापिस, अब सर जेम्स थे नहीं, तो ज़िम्मेवारी उस समय वहाँ मौजूद गार्ड्स की ही थी, एक वरिष्ठ अधिकारी, जेम्स की अनुमति से, अपने कुछ आदमियों के साथ, सुरक्षा में मुस्तैद था! बीस-बाइस आदमी हों, हथियारबंद, तो लोहा लिया जा सकता है!
"व्हाट अबाउट एडवर्ड?" पूछा स्टैनले ने, स्टैनले, उसकी कमरे में मौजूद था!
"ही'ज़ बीन आउट फॉर लॉन्ग!" बोला मौरिस,
"यस, नो न्यूज़ आफ्टरवर्ड्स!" बोला स्टैनले,
"मेबी, आउट ओन टूर!" बोला मौरिस,
"टूर? आई डॉन'ट थिंक सो? दिस इज़्न'ट अ फेयर टाइम तो गो ओन अ टूर!" बोला स्टैनले,
"नोट श्योर आई एम!" बोला मौरिस,
"एडवर्ड्स?" अब तीसरा बोला,
"यस, एडवर्ड्स!" बोला स्टैनले!
"ही'ज़ बीन पोस्टेड ऐट हेड-ऑफिस!" बोला डेविड!
"हाउ डू यू नो?" पूछा मौरिस ने,
"हिज़ फ्रेंड टोल्ड मी दैट!" बोला वो,
"स्ट्रेंज!" बोला स्टैनले,
हंस पड़ा डेविड! करने लगा नाल साफ़ बंदूक की!
"स्टैनले?" पूछा मौरिस,
"यस माय फ्रेंड!" बोला स्टैनले,
"एनी न्यूज़ ऑफ़ विवियन?" पूछा मौरिस ने,
"यस, गॉट अ लेटर!" बोला वो,
"दैट'ज़ गुड!" बोला वो,
हंस पड़ा था मौरिस ये बोलते हुए!
"सो, व्हेन गोइंग बैक?" पूछा मौरिस ने,
"कांट बी श्योर!" बोला वो,
"अप्लाई फॉर सम नॉट्स!" बोला मौरिस,
नॉट्स! उस वक़्त की सरकारी छुट्टी को कहते थे वे लोग!
"डॉन'ट नो! मे नोट बी!" बोला कंधे उचकाते हुए स्टैनले!
दरअसल, प्रेमिका थी विवियन, स्टैनले की! ब्रिटेन में ही रहती थी!
"एंड यू?" बोला स्टैनले,
"व्हाट मी स्टैनले?" बोला मौरिस!
''स्टिल अ................नो?" पूछा स्टैनले ने!
"यस! इट्ज़ स्टैंपेड! नो!" बोला मौरिस,
अपने हाथ पर, जैसे मोहर लगाई हो उसने, ऐसे बताया!
"कम ऑन! यू आर द मैन!" बोला स्टैनले!
"जस्ट किलिंग द आवर्स! विश टू विज़िट माय होम! मिसिंग माय लवली सिस्टर कैथी!" बोला मौरिस!
"आई डू अंडरस्टैंड!" बोला स्टैनले,
कंधे पर हाथ रखते हुए!
"हाउ लॉन्ग सिन्स यू हैव बीन तेरे मौरिस?" पूछा स्टैनले ने,
"ऑलमोस्ट टू इयर्स!" बोला वो,
"ओ! इट्ज़ अ लॉन्ग लॉन्ग टाइम!" बोला स्टैनले,
"उम्म्म, प्लान टू विज़िट इन दिस अक्टूबर!" बोला मौरिस!
"यू मस्ट, माय फ्रेंड!" बोला स्टैनले,
और तभी कमरे में, एक अर्दली ने प्रवेश किया, चाय और कुछ बिस्कुट लाया था वो! रख दिए थे उसने टेबल पर, और बनाने लगा था चाय!
"बैडरी(बदरी)?" बोला मौरिस,
"जी सर?" बोला बदरी!
"बार्रिश(बारिश) पड़ रा हे?" पूछा मौरिस ने,
"नो सर!" बोला बदरी!
"गुड!" बोला मौरिस, चाय का कप उठाते हुए!
दोनों ही आदमी, अपनी अपनी जगह संभालने को कह रहे थे, बाहर अभी भी गोली-बारी हो रही थी, दो तरह की आवाज़ें गूँज रही थीं! डकैतों के पास, किसी निशानची के हाथों में, विकर्स-बर्थिएर राइफल थी, इसकी आवाज़ काफी तीखी सी, पैनी थी! ये एक साथ कई फायर करने में सक्षम थी! और जो इन गार्ड्स के पास थी, वो एम-थॉम्पसन राइफल थी! एम-थॉम्पसन के कारतूस बड़े थे, एक ही कारतूस बहुत था किसी की भी जान लेने को! अक्सर शिकार आदि के समय यही इस्तेमाल हो रही थी! मैंने तो ये नाम भी पहली बार ही सुने थे! कारतूस उस समय, बैंगलोर में बनने लगे थे, नहीं तो उनकी आमद, ब्रिटेन से ही होती थी! जब मौरिस ने ये बताया, तो मैं भी जैसे उसके संग, उस रात, उस मुठभेड़ में शामिल हो गया था!
विकर्स के शॉट गूंजे, और चीख निकली, कोई गिरा था नीचे, दूसरी मंजिल से, नीचे गिरा था कोई गार्ड! मौरिस, ट्रिगर पर अपनी ऊँगली रखे, दीवार के साथ चिपका था! कि तभी एक आदमी आया उसके सामने, जैसे ही उसने अपना हथियार तानने की कोशिश की, उसकी आँतों को चीरती हुई गोली, बाएं से घुसी और दायें से निकल, दीवार से जा टकराई! मौरिस की राइफल के लैच-हुक से, बारूद का धुआं उड़ा! सामने की जगह हुई खाली, तो दौड़ पड़ा वो! सामने भागता रहा, उसने गैलरी में देखा, गार्ड्स की लाशें बिछी थीं! वो भाग कर आगे गया!
रुका, अब नीचे जाने का रास्ता था, उसने ओट से देखा, सीढ़ियां खाली थीं, पीछे से गोलीबारी की आवाज़ आयीं, पीछे देखा, कोई नहीं था, बारिश अब भी पड़ रही थी! वो सीढ़ियों पर उतरा, आहिस्ता से! कुछ आवाज़ें आयीं! वो रुका, सुना, और फिर उतरा नीचे!
एक एक सीधी आराम से उतरने लगा वो, बूट भारी थे, इसीलिए, आराम से उतर रहा था, जैसे ही उतरा वो, ठीक कोने पर एक और आदमी दिखा उसे! रुका वो, ओट ली, और किया राइफल को सामने, और चला नीचे, जैसे ही वो आमदी पलटा, उसने की फायरिंग! छिपा वो, सीधी की दीवार के पास, मिला मौका, देखा सम्भल कर उसने, और कर दिया फायर! गोली उस आदमी की गरदन को फाड़ती हुई, अपने संग आधा हिस्सा लिए गरदन का ले चली! उस आदमी का जिस्म तड़पा! आँखें बाहर निकल आयीं और मौरिस, उसको फांद भाग पड़ा आगे!
धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था वो!
"हे? हे?" बोला कोई, फुसफुसाया कोई!
मौरिस ने वहीँ देखा, एक चबूतरे के पीछे, लेटा था एक गार्ड, मौरिस पहचान गया उसे, वो जोसफ था, उसकी उस रोज वहीं ड्यूटी लगी थी, नीचे के तल पर! दौड़ के गया वो जोसफ के पास, और ले ली पोजीशन!
"दिस इज़ हेमू?" पूछ मौरिस ने,
"डॉन'ट नो, बट प्लेंटी ऑफ़ दोज़" बोला जोसफ,
"वेयर इज़ रिचर्ड?" पूछा मौरिस ने,
"डिडन'ट सी हिम हियर" बोला जोसफ!
तभी विकर्स की आवाज़ गूंजी! इस बार काफी लम्बी!
"दे हैव सोफिस्टिकेटेड वेपन्स, सी?" बोला जोसफ,
"यस!" बोला मौरिस,
"इट वाज़ आल प्लांड, इट सीम्स!" बोला जोसफ!
"यस, गॉट इट!" बोला मौरिस!
तभी और गोलीबारी हुई, सामने, मुठभेड़ ज़ारी थी, बारिश पड़ने के कारण, मुसीबत बढ़ती जा रही थी, लेकिन उस वक़्त, किया भी क्या जा सकता था!
"यू गॉट सम शॉट्स?" पूछा मौरिस ने,
"यस, हैव दैम, इन द बॉक्स!" बोला वो,
कर दिया था एक लोहे का बॉक्स उसने आगे उसकी तरफ, मौरिस ने खोला, और अपनी राइफल में कर लिए लोड!
"जोसफ?" बोला मौरिस,
"ऊं?" बोला जोसफ,
"द लेडीज़ एंड द किड्ज़?" पूछा मौरिस ने,
"इन थे स्टोर-रूम!" बोला जोसफ,
"हैव तो कीप दैम सेफ, एनीवन अराउंड देयर?" पूछा मौरिस ने,
"नो, दे आर लॉक्ड!" बोला वो,
"आल अलोन?" पूछा मौरिस ने,
"यस!" बोला जोसफ!
तभी सामने गैलरी में नज़र आया कोई, जोसफ ने साधा निशाना और दाग दी गोली! जो निशाने पर था, वो बच निकला, और अब वहां से होनी शुरू हुई गोलीबारी!
"डैम! मिस्ड इट!" बोला जोसफ,
"यू स्टे हियर, आई चैक थे स्टोर-रूम, ओके?" बोला मौरिस,
"यस, बैटर गो, आई स्टे हियर!" बोला जोसफ,
"स्टे सेफ!" बोला मौरिस,
"गो! आई स्टे!" बोला वो,
मौरिस, सम्भल के उठा, और झुकते झुकते, अँधेरे का फायदा उठा, दौड़ पड़ा स्टोर-रूम की तरफ!
खट-खट! खट-खट!
दरवाज़ा न खुले!
"मैडम क्लैरिस? इट्ज़ मी, मौरिस, द गार्ड!" बोला मौरिस,
"मौरिस?" आई दरवाज़े के पीछे से आवाज़!
"यस मैडम, ओपन इट!" बोला वो,
दरवाज़ा खुला,और एक झटके से मौरिस अंदर गया, अंदर मैडम क्लैरिस समेत छह लोग थे, चार औरतें और दो बालक, कोई आठ या नौ साल के!
सबकी हालत खराब!
सभी घबराये हुए,
बालकों को छिपा रखा था उन्होंने!
"प्लीज़, गेट अस आउट ऑफ़ हियर, प्लीज़!" बोली एक,
"यस मैडम, यू आर सेफ!" बोला वो,
"आर दे डैकोइट्स?" पूछा एक महिला ने,
"यस मैडम!" बोला वो,
"ओ गॉड! ओ गॉड हैव मर्सी! सेव अस! सेव अस आल!" बोली एक और महिला,
वे चार औरतें थीं, मैडम क्लैरिस, जो कि पत्नी थीं, सर जेम्स की, एक उनकी छोटी बहन, मार्गरेट, एक उनकी भतीजी, जोएन और एक और महिला, मार्टिना!
वो जो दो बालक थे, वे थे एक अलेक्स और दूसरा वॉरेन! ये दोनों बालक, सर जेम्स की संतान थे!
"इज़ंट देयर एनी वे आउट?" पूछा मार्टिना ने,
"देयर इज़, बट, लेट में सी द सिचुएशन फर्स्ट!" बोला वो,
"प्लीज़! डू समथिंग! फेच मोर पर्सनल्स, प्लीज़!" बोलीं मैडम क्लैरिस!
और बाहर हो रही घनघोर बारिश!
एक तो पानी की,
और एक गोलीबारी की!
खिड़की तक गया मौरिस,
हुआ एक तरफ खड़ा, अपनी राइफल में भरी और गोलियां,
आगे की राइफल, हटाया पर्दा थोड़ा सा!
झाँका बाहर, अँधेरा ही अँधेरा!
बिजली कड़की!
हुआ उजाला!
और नज़र पड़ी उसकी, एक बग्घी पर!
"आर द स्टड्स देयर?" पूछा उसने,
"यस, दैट इज़ स्टेबल देयर!" बोलीं मैडम क्लैरिस!
अब दौड़ाया दिमाग उसने!
क्यों न, सबसे पहले इन औरतों और बालकों को, किसी सुरक्षित जगह पहुंचाया जाए? बीच में एक है डाक-बंगला, वहां खबर की जाए? अगर मदद मिली, तो सब ठीक!
फिर से झाँका बाहर उसने, जहां अस्तबल था, वहीँ देखा, अब अँधेरा था, जाया जा सकता था उधर, नज़र बचा कर, किसी की भी!
मौरिस ने जो सोचा था, वो सही सोचा था, न जाने कब वे डकैत वहां आ पहुंचें, और सभी को गोली मार दें, वो कोई ज़िंदा गवाह नही छोड़ते थे, और इसी वजह से वो सफल भी रहते थे, उनके बारे में कोई जान ही नहीं पाता था! वे खतरनाक थे, इसमें कोई शक नहीं था!
"वेट! लेट में चैक इफ इट्ज़ आल क्लियर!" बोला वो,
"प्लीज़ हरी!" बोली मार्टिना,
तलवार लटकी ही हुई थी, अगर उसका भी मौक़ा मिलता, जौहर दिखाने का, तो मौरिस पीछे न हटता, उसने खिड़की से बाहर झाँका, सबकुछ ठीक लगा, दूसरे गार्ड्स अपनी जान की बाजी लगाकर, लोहा ले रहे थे उन डकैतों से, डकैत कितने थे, कितनी संख्या थी, नहीं पता था किसी को भी! बेहतर तो यही था कि अँधेरे का फायदा उठाया जाए और उनको ले जाया जाए वहाँ से!
पर्दा गिराया उसने, और बढ़ा दरवाज़े की तरफ, हल्का सा खोला, बाहर गोलियां चल रही थीं, जगह जगह, उनका उजाला सा फ़ैल जाता था!
"कम! वन बाय वन, किड्स फर्स्ट!" बोला वो,
अब बालक चले पहले, उनके हाथ पकड़े वे औरतें,
मौरिस आगे आगे और वो पीछे पीछे!
आया गैलरी में, रास्ता साफ़ था,
"दिस वे! डाउन-स्टेअर्स, फॉलो मी एंड मेक नो नॉइज़!" बोला वो,
अब वो उतरने लगा नीचे, एक एक क़दम साध कर, झुक कर देखता, जब कोई खतरा न होता तो चलता आगे,
"कम! हियर!" बोला वो,
पहली कतार, सीढ़ियों की, पार कर ली, वहाँ खिड़की थी! कौंधी बिजली! वो झुक गया, बाकी लोग भी झुक गए, लेकिन वो बालक न झुक सके! और इसी का लाभ उन डकैतों को मिल गया होगा, शायद!
वो रुका, बाहर झाँका, सब ठीक लगा उसे,
"मूव! मूव अलोंग! फॉलो मी!" बोला वो,
और इस तरह से, दूसरी कतार भी पार कर ली उन्होंने,
"वेट! वेट! लेट मी चैक! हे किड्स? स्टे बैक! राइट हियर!" बोला वो, उन्हें अपने पीछे करते हुए!
उसने देखा, सर आगे करके, राइफल की नाल सामने करते हुए!
दायें, बाएं, सामने, सब ठीक था, कोई नहीं था, अब बस, मुड़ना ही था, दरवाज़ा था वहाँ और वहाँ से, बाहर अस्तबल था, बग्घी खड़ी ही थी, बस, इतनी ही दूरी थी!
कांपती हुई औरतें, घबराये हुए वो दोनों छोटे छोटे बालक, मौरिस के कहे अनुसार, चलने लगे थे उसके साथ!
"कम! क्विक! क्विक!" बोला वो,
आ गए दरवाज़े तक, बाहर झाँका मौरिस ने, वो दरवाज़ा खोलते हुए, उसकी झिरी से, कोई नहीं था वहाँ! मौरिस ने खोला दरवाज़ा, झाँका बाहर, बारिश पड़ ही रही थी! कोई न था वहां! मौरिस आया बाहर, देखा आसपास! कोई न था!
"लिसेन! लिसेन! नो बॉडी मस्ट लीव द अदर, स्टे पुट एंड इंटैक्ट! एनफोल्ड योर हैंड्स एंड फॉलो मी! राइट?" बोला वो,
सभी ने अपने सर हाँ में हिलाये, और एक दूसरे के हाथ पकड़ लिए! मौरिस ने एक बार फिर बाहर झाँका, सब साफ़ था, कोई न था! मौरिस चल पड़ा, अपनी राइफल लिए, और जैसे ही वो बीच में आये, भीगते हुए, विकर्स की आवाज़ गूंजी! और तड़ातड़ गोलियों की बौछार हो गयी उन पर!
देह छलनी हो गयी सभी की, सभी, उसी क्षण, एक दूसरे को देखते हुए, नीचे गिरते चले गए, हतः अभी भी पकड़े हुए थे सभी ने, और मौरिस, उन दो बालकों को ओट देते हुए, नीचे गिर पड़ा था, हाथ से राइफल दूर जा पड़ी थी!
ये क्षण था वो, जब मौरिस और वे छह लोग, इस संसार से रुख़सत हो गए!
लेकिन देह से ही! रूह से नहीं हो पाये!
उनकी रूह, उस बग्घी तक भागीं, घोड़े जोड़े, बालकों को उठा कर बिठाया उसने, औरतों को चढ़ाया, और खुद, कोचवान बन गया!
उसका, हो गया था सफर शुरू, एक अंतहीन सफर! एक ऐसा सफर! जिसको वो मौरिस, वे छह लोग, रोज जीते थे! रोज! क्या दिन और क्या रात!
मौरिस, कभी उस डाक-बंगले तक न पहुँच पाया! न उस छावनी तक, वो छावनी तो बहुत दूर थी वहाँ से! वे सब के सब, अटक गए! अटक गए उस कालखण्ड में!
इमारत ढह गयी!
वो रास्ता, कब का दफन हो गया!
लेकिन मौरिस और उसकी बग्घी, उन छह को ले, दौड़ती रही! दौड़ती रही! दौड़ती रही, हमारे आने तक! बस! अब और नहीं! ये वक़्त के क़ैदी हैं! इस से बड़ी कोई सजा नहीं! मेरा जी भर आया था उस मौरिस, जीदार मौरिस की कहने सुनकर!
मौरिस तो रोया ही, लेकिन मेरा दिल भी भारी कर गया! मेरी आँखों में भी नमी आ गयी! कहने को, तो ये घटना सत्तासी साल पहले घटी थी, लेकिन संवेदनाएं तो संवेदनाएं हैं! वे क्या जानें समय और काल, कालखण्ड!
मैंने मौरिस को सब समझा दिया था, और मौरिस ने, उन औरतों को, उन्हें भी यक़ीन नहीं हुआ था, हाँ, मार्टिना ने मेरा धन्यवाद आवश्य किया था! वो समझ गयी थी!
और फिर आया वो समय, वो महूर्त जब उन्हें मुक्त करना था! वो भले ही क्रिस्चियन थे, लेकिन इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, हाँ इतना, कि उनके नाम की एक प्रार्थना अवश्य ही की जाए, उनके मुक्त होने पर, वो सभी मेथोडिस्ट-क्रिस्चियन थे, अतः प्रार्थना भी किसी मेथोडिस्ट पास्टर से ही करवानी थी! और यही मैंने किया था, फूल चढ़ाये थे मैंने!
वो लम्हा! आज तक याद है!
जाने से पहले, उसने मुझे अपना पता दिया था, और मुझसे गले भी लगा था, सबसे पहले वो बालक, फिर वो चार औरतें और अंत में वो मौरिस!
उसके वो शब्द, आज तक याद हैं मुझे!
"में गॉड बी विद यू ऑल्वेज़ माय फ्रेंड! इट्ज़ गॉड'स ग्रेस, दैट यू हैपन'ड तो मीट अस! अदरवाइज, इट वाज़ नो रिटर्न! हियर एंड्स आवर जर्नी! प्रे फॉर अस! एंड वन मोर थिंग! कीप रेमेम्बरिंग दिस, आई, मौरिस ओ' रिओरडैन, अ प्रिज़नर ऑफ़ टाइम, व्हेनसोएवर यू हैव अ स्पेयर मिनट और टू!" बोला वो,
मैं कुछ न बोल सका!
मेरा दिल भारी हो गया था!
जुबां, कांपने लगी थी!
मैंने बस अपना सर हिलाया!
"गुडबाय माय फ्रेंड!" बोला वो,
और हुआ लोप! चला गया उजाले में, हमेशा के लिए!
जब मैं, प्रार्थना के वक़्त फूल चढ़ा रहा था, उस समय मुझे उसके वो सभी शब्द याद आये, और तब भी एक आद आंसू, पलकों की सरहद को लांघ ही गया!
चला गया मौरिस! चले गए वो छह लोग!
मैंने बाद में वो इमारत देखी थी, आज खंडहर है, लकिन वो अस्तबल, वो टूटे कमरे, वो चबूतरा, वो स्टोर-रूम, मेरी आँखों में, शाब्दिक-चित्रण से जीवित हो उठे थे!
गुडबाय मौरिस! माय फ्रेंड!
साधुवाद!
