वर्ष २०१४ जिला टोंक...
 
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वर्ष २०१४ जिला टोंक राजस्थान की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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तो दोस्तों!
हमें उस जगह मिला वो वासदेव! हरदेव! उनसे बातचीत हुई! और उसके बाद हम, सवार हो गए बग्घी पर! इस बार हरदेव नहीं आ सका था, उसको दूसरे मेहमानों को लेकर आना था, दरअसल यही तो जिम्मेवारी थी उसकी! उसी का ज़िम्मा था ये सब! तो उसने, हमें सवार करवा दिया था वास देव की बग्घी पर!
"चलें साहब? बैठ गए इत्मीनान से आप?" पूछा वासदेव ने, सांकल लगाते हुए उस दरवाज़े की!
"हाँ वासदेव! चलो!" बोला मैं,
"जी!" बोला वो,
अपने सांटे को, दो बार फटकारा उसने, और तब अपनी गद्दी पर बैठ गया, उसकी भी गद्दी थी साहब! जैसे आजकल के वाहनों में, चालक की हुआ करती है! ठीक हमारी ही तरह! सांटा ठिकाने के लिए बाक़ायदा एक जगह बनी हुई थी, साथ में ही, एक अलमारी सी लगी थी, जिसे मैं डिग्गी कहूँ, तो कोई बुरा न होगा! शायद उसमे कुछ औजार रखे जाते होंगे, कुछ कपड़े या कुछ घोड़ों से लेकर, चीज़ें जो आम ज़रूरत की हों! जैसे कभी-कभार घोड़े की नाल तक़लीफ़ देने लगती है, तो उसको ठीक किया जाता है! कभी-कभार घोड़े की मुंह की नाल खराब होने लगती है, टेढ़ी हो जाती है, या घोड़े का कभी पाँव फिसल जाता है वग़ैरह वग़ैरह!
अब हम जहां से गुज़र रहे थे, वो था तो सुनसान ही इलाक़ा! आसपास, जंगल ही जंगल था! प्रकाश था, तो एक दूसरी तरफ, जहां से वो बारात जा रही थी! गाजे-बाजे के साथ! और कोई दूसरा उजाला था वो वो चाँद का! जो चुपचाप ऊपर बैठे, अपना चेहरा थामे, नीचे जाती बारता का लुत्फ़ उठाये जा रहे थे!
दोस्तों!
आज भी ऐसी बहुत सी जगह हैं! बहुत सी जगह! जहाँ आज भी महफिलें सजती हैं, शादी-ब्याह हुआ करते हैं! क़त्ल-ए-आम हुआ करते हैं, जंग हुआ करती हैं! विजयनाद गूंजते हैं! क़ुरआन की पाक आयतें गूंजती हैं! भजन गूंजा करते हैं! आरतियाँ हुआ करती हैं! वो जगह, आज भी आबाद हैं! आज भी! है न अजब-गज़ब दुनिया!
राजस्थान में ऐसा बहुत होता है! बहुत! ये राजस्थान का इतिहास है! इसका इतिहास, दोहराता है अपने आपको! ऐसी ही एक जगह है, जहां एक पहाड़ी है, उस पहाड़ी पर एक मंदिर है, माँ चामुण्डा का!
वहां आज भी, आज भी लौ जल उठती है! हवन-कुण्ड दहकने लगता है! बलि-कर्म होता है पशुओं का! रक्त की धाराएं फूट फूट कर, उनका खप्पर भर दिया करती हैं! माँ चामुण्डा का गुणगान होता है! साधारण मनुष्य या फिर कोई सात्विक, नहीं देख सकता वो समय वहां का! दीवारों पर पड़ता रक्त! मांस के हवा में उड़ते लोथड़े! दीवारों से टकराते हुए रक्त-रंजित पुष्प! और माँ के ज्वलंत, लाल-पीले उग्र नेत्र! उनका खड्ग अपने आप रक्त-रंजित हो जाता है! ये सब, रात्रि समय, दो बज कर, इक्कीस मिनट पर होता है! कोई मंत्र, कोई तंत्र और यंत्र यहां क्षीण हो जाता है! मैं आपको इसका पता नहीं बता सकता! ये प्राणहारी स्थान है! सर्प, बिलाव, विषैले कीड़े-मकौड़े आदि सब का वास है यहां! यहां चूहे मांस खाते हैं! मांस के लोथड़े, जगह जगह पड़े होते हैं! चीख-पुकार मची रहती है! पुराने समय में, शायद यहां शत्रुओं की नर-बलि चढ़ाई जाती होगी! क्रंदन, स्त्रियों का रूदन, बालकों की चीत्कार, सब सुनाई देने लगता है! हाड़ को राख बना देने वाली गर्मी पड़ती है यहां दिन में और रात को, खून जमा देने वाली सर्दी! मंदिर में, अलाव जल उठते हैं! कहते हैं, एक यायःसिद्ध का पूजन-स्थल है ये! उन यायःसिद्ध का नाम बाबा हक्कड़ भोहड़ा है! बस, यही जान सका! देखा, परन्तु दूर से! अभी योग्यता नहीं!
कोटपुतली!
एक हवेली है मार्ग से थोड़ा सा हटकर, ये मार्ग अजमेर जाता है, यहां, दो पीर बाबा हैं! जिन्नात ख़िदमत करते हैं उनकी! उस हवेली में, कभी धूल नहीं घुसती! आंधी की हवा, वहाँ नहीं चलती! कीचड़ कभी नहीं बनती! और, देखने वालों ने कहा है कि, पूनम की रात को, गुलाब की पंखुड़ियों की जैसे बरसात हुआ करती है वहां! वहां दो पीर बाबा हैं, एक बाप और एक बेटा उनका! वहां भी नहीं जा पाया! बस, सलाम ज़रूर करता आ रहा हूँ उस तरफ!
खैर, जाने दीजिये! ज़िंदगी छोटी है और खोज बहुत लम्बी!
हम अब करीब एक कोस या डेढ़ कोस आ चुके थे आगे, बग्घी सरपट दौड़े जा रही थी, वासदेव कोई लोक-गीत सा गुनगुना रहा था! समझ में न आ सका! शायद, पुरानी राजस्थानी रही हो! लेकिन वो जो भी गुनगुना रहा था, बेहद ही लुभावना था! रागिनी जैसा! कभी तेज और कभी धीमे!
"अब और कितना है?' पूछा शर्मा जी ने,
"बस जी, डेढ़ कोस!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
हम चल ही रहे थे, मैं धचकियों का मजा ले रहा था! आज पहली बार धचकियां अच्छी लग रही थीं! घुंघरू खनकते तो घोड़ों की चाल का एहसास होता, कि अब तेज और अब धीरे!
"वो देखो जी?''  बोला वो,
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"मंदिर है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और सच में, हमें कोई मंदिर नहीं दिखा! बस, एक खंडहर सा, जो स्याह अँधेरे में कहीं खड़ा था! खूब तलाश किया आँखों से, नहीं मिला! वो देख सकता था, हम नहीं! जानता था! क्यों नहीं दिखा! और अगर दिन में देखूं उसे, तो कुछ न होगा! कलुष से देखूं, तो नींव ही दिखेगी ज़मीन के अंदर ही!
वो फिर से गुनगुनाने लगा!
"क्या गा रहे हो वासदेव?" पूछा शर्मा जी ने,
"मीरा देई!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा शर्मा जी ने,
"अच्छा गाते हो!" बोले कमल जी,
"कहाँ साहब!" बोला वो, हँसते हुए!
फिर से गाने लगा, इस बार ज़रा तेज!
"वो देख रहे हो आप साहब?" बोला वो, अपना सांटा उधर करते हुए,
"हाँ, जहां रौशनी है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"क्या है वहां?" पूछा मैंने,
"बारात आ रही है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
वो जगह दूर थी, करीब आधा किलोमीटर! रौशनी भी कम ही थी, लेकिन चमक ज़रूर रही थी! अँधेरे का सीना फाड़ ही दिया करती है एक हल्की सी रौशनी भी! ये वही था!
तभी, एक छोटी सी इमारत पड़ी! छोटी सी, जैसे प्याऊ! हमने उसे पार किया, उस प्याऊ में, अंदर, रौशनी जल रही थी!
"ये क्या है?'' पूछा मैंने,
"वो?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो जी नाका है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब कोई आएगा नहीं तो बंद है!" बोला वो,
"रात की वजह से!" कहा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"वासदेव?" पूछा मैंने,
"जी?'' बोला वो,
"यहां आबादी नहीं है?'' पूछा मैंने,
"है जी, आने वाली है! दो बड़े गाँव हैं, देखना आप!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
मैं वही सोचूं, कि दो कोस से ज़्यादा आ गए, गाँव एक पड़ा नहीं, जा कहाँ रहे हैं हम? अब बताया उसने, कि दो बड़े गाँव पड़ेंगे अब बीच में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम धीरे धीरे से आगे चल रहे थे अब! ये एक संकरा सा रास्ता बन गया था, इतना भी संकरा नहीं, बस ज़मीन से कुछ ऊपर उठा हुआ, जैसे ताज़ा ही बनाया हो, शायद बारात के लिए, घोड़े भी धीमे पड़ गए थे, फिर एक ढलान सी आई, घोड़ों के खुर जमे और वे धीरे धीरे चलते रहे आगे, उसके कुछ ही देर बाद, फिर से हल्की सी चढ़ाई पड़ी! वासदेव ने कुछ शब्द निकाले उन घोड़ों के लिए, और हांकता रहा उन्हें! एक जगह, वो उतर गया, बग्घी का जुआ पकड़ लिया और पैदल पैदल ही चलने लगा! अभी तक तो मैं वही देख रहा था, कि अचानक ही मेरे आँखों के जैसे एक सौ साठ डिग्री अंश पर कोई रौशनी सी चमकी! फिर दूसरी, फिर तीसरी! और फिर चौथी, पांचवीं और सर उठा लिया अब मैंने! उस सड़क के दोनों तरफ ही, दो गाँव बसे थे, ये दीखता था! लेकिन सबसे ख़ास और अहम बात ये कि उन गाँव वालों ने जैसे अपने घरों की छतों पर, बांस के सहारे हंडे जला लिए थे! असंख्य हंडे! पीले रंग की रौशनी छोड़ते हुए! सड़क के दोनों ही तरफ! क्या नज़ारा था वो! जैसे, मैं किसी सागर के बीच होऊं! दूर दूर तक बस पानी ही पानी! हर दिशा में पानी! बीच में मेरी नाव! और मैं रुक गया होऊं! मेरे चारों तरफ, रात की अंधियारी में, सागर के वो जलीय जीव जो रात में प्रदीप्ति छोड़ा करते हैं, पानी के तल पर आ गए हों! सैंकड़ों, हज़ारों की संख्या में! जहां तक नज़र दौड़ाऊँ, वहां तक! ऐसा ही था ये सबकुछ! दोनों तरफ हंडे ही हंडे! हवा चलती तो कुछ हिल पड़ते और बड़े वाले, वहीँ बने रहते! जैसे मैं किसी बड़े से किसी चाइनीज़-गाँव में से हो कर गुजर रहा होऊं! वो हंडे, ऐसे ही थे! मेरी आँखें वो सब देख रही थीं जो मुझे दिखाया जा रहा था! शर्मा जी, कमल जी, मुंह फाड़े, सब देख रहे थे! बग्घी, चर्र-चर्र की सी आवाज़ बांधे जा रही थी, घुंघरुओं की आवाज़ अपनी ताल लगभग भुला चुकी थी! घोड़े अपने दुम फटकार रहे थे! फिर बग्घी ऊपर चढ़ने लगी, उस ऊंचाई की तरफ, हल्की सी ऊंचाई थी वो! सामने, रास्ते के दोनों ओर जो पेड़ लगे थे, उन पर भी हंडे सजा दिए गए थे! रंग-बिरंगे कपड़ों से बने थे वो हंडे! मद्धम सी रौशनी हमारे शरीर से खिलवाड़ करने लगी थी! मेरे हाथों में बंधे मेरे धागे, उनमे पिरोये हुए मनके, सब चमक उठे थे! शर्मा जी के चश्मे का फ्रेम, चमकने लगा था, कमल जी की अंगूठियां चमकने लगी थीं! ये हंडे, दूर तलक चले गए थे! हम चलते रहे! और एक जगह, वासदेव चढ़ बैठा बग्घी पर! और थोड़ा दूर जाते ही, एक और रास्ता दिखने लगा! हल्की हल्की सी आवाज़ें आने लगीं! ये आवाज़ें, नगाड़े, ढोल-ताशे, स्वांग और गाने-बजाने की थीं!
"साहब?'' बोला वासदेव!
"हाँ वासदेव?" बोले शर्मा जी,
"वो देखो, आ रही है बारात!" बोला वो, खुश होते हुए!
"हाँ! देख लिया!" कहा उन्होंने,
"अब यहां से कहाँ और कितना?'' पूछा मैंने,
"अब कोई चौथाई कोस बस! आ ही लिए हम!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
बग्घी अब धीरे धीरे आगे बढ़ती चली गयी! हम ही उसमे बैठे बैठे उस बारात को देखने लगे थे जो अब नज़दीक ही आने लगी थी! कैसा शोर था वहां! जैसे शून्य का एक एक अंश भेद दिया गया हो उस शोर से! जैसे शून्य, स्वयं ही, नियंत्रण खो, अब नाचने-गाने लगा हो साथ उन्हीं के!
वासदेव ने बग्घी एक जगह रोक ली, शायद, बारात का इंतज़ार कर रहा था, बारात अभी ज़रा थोड़े पीछे ही थी, बाराती रोक लिया करते थे दूल्हे को बीच बीच में, उसकी घोड़ी की लग़ाम पकड़ कर शायद! इसी वजह से देर हो रही थी!
मैंने घड़ी देखी, एक बज कर बत्तीस मिनट हो चुके थे! दो बजने में कुछ ही समय शेष था! समय कैसे भाग रहा था, पता ही नहीं चल रहा था!
और कुछ समय बाद, वासदेव चढ़ा बग्घी पर, एक बार हम सभी को देखा, और चल पड़ा आगे! बग्घी धीमे धीमे आगे बढ़ चली!
और तब, तब हमारा वो रास्ता, आ मिला उस बड़े से रास्ते से, जिस पर दायें से, बारात आ रही थी! उस रास्ते पर, फ़ौज के सिपाही, क़तार बनाये खड़े थे! मुस्तैद! अपनी बड़ी सी बंदूकें लिए! तलवारें खोंसे!
"बस अभी आये!" बोला वासदेव!
"हाँ, अब देर नहीं!" कहा मैंने,
ढोल-ताशे और नगाड़ों ने तो, एक एक को जगा दिया था जैसे! कीट-समाज में तो हड़कम्प मचा गया था! कभी कोई कीट और कभी कोई कीट, उस रास्ते हो पार करे! क्या छिपकली, क्या गोह और क्या सांप! सभी के सभी जैसे, उस रौशनी या ध्वनि से अपना नियंत्रण खोये जा रहे थे! हवा में उड़ रहे चमगाड्ग जैसे, इन नए चमगादड़ों को देखने के लिए, अपनी जान की बाजी लगाये, उनके ऊपर से उड़ान भर रहे थे! एक आद उल्लू भी, किसी शाख पर बैठ, अपनी आँखें फाड़, गर्दन मटका जायज़ा ले रहा था! इसका उसे फायदा भी मिल रहा था! उसकी नज़रों में मूषक-जाति के जीव आ जाते थे, और वो, हो जाता था तैयार उन्हें ग्रास बनाने को!
कुछ ही मिनट बीते, की बारात आई करीब! क्या शानदार बारात थी! और क्या शानदार बाराती! बीच में, घोड़ी की लग़ाम थामे, बैठा था वचन सिंह! बिशन सिंह खाखोड़ का बेटा! आसपास उसे, उसके जानकारों ने, रिश्तेदारों ने, और कई लोगों ने घर रखा था! साथ ही सतह, एक फौजी दस्ता आगे तैनात था और एक शायद पीछे!
"वो!" बोला वासदेव!
"क्या वासदेव?" पूछा शर्मा जी ने,
"वो रहे हरदेव साहब!" बोला वो,
"अच्छा! आने दो!" कहा मैंने,
बारात सामने से गुजरती रही! हुज़ूम! काफी बड़ा हुज़ूम! मुझे तो हैरत हुई! सच में ही हैरत! ये कैसी विराट प्रेत-लीला है! कैसे ये सारा ताना-बाना बना गया है! हैरत हुई थी मुझे ये सब देख कर! हैरत उनके सामर्थ्य पर! हैरत उनके इस सापेक्ष में चले संसार पर! हैरत उनकी कुशाग्रता पर!
वो रौशनियाँ! वो चमकदार और शानदार पोशाकें! वो लम्बे-चौड़े इंसान! वो दूल्हा! वो नाचते-गाते लोग! सब, सब के सब! सभी जैसे सामने ही था मेरे! सबकुछ मेरे सामने! सबकुछ हो रहा था! सबकुछ! मैं, एक संसार में, दूसरा संसार देख रहा था! कैसे विचित्र परन्तु सत्य!
वासदेव उतर गया था, सांटा खोंस दिया था अपनी जगह ही,
"आता हूँ अभी साहिब!" बोला वो,
"हाँ, कोई बात नहीं!" बोले शर्मा जी!
चला गया वो, हरदेव के पास जाने के लिए!
"कैसी बारात है?" पूछा शर्मा जी ने कमल जी से,
"अब क्या कहूँ?" बोले कमल जी,
"बताइये तो?" पूछा उन्होंने,
"पूरी ज़िंदगी में ऐसी बारात का तो कभी सपना भी नहीं आया!" बोले वो,
"देख भी नहीं पाओगे!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, जानता हूँ!" बोले वो,
"बताओ, हम क्या थे उस वक़्त!" बोले वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
"ये शान-ओ-शौक़त, भला अब कहाँ?" बोले शर्मा जी,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
तभी सामने से, वासदेव आता दिखा, साथ हरदेव को लाते हुए!
वे आये, तो हमने सांकल खोल नीचे जाने का मन बनाया, उतर आये नीचे,
मुस्कुरा कर मिला हरदेव!
"कोई दिक़्क़त-परेशानी तो ना हुई जनाब को?" पूछा उसने,
"अजी ना साहब!" बोले शर्मा जी,
"उम्मीद यही थी!" बोला वो,
और जेब से एक छोटी सी डिबिया निकाल कर दे दी, शर्मा जी को, शर्मा जी ने खोली, ये तो नसवार सी थी! अब शर्मा जी हरफ़नमौला हैं! कर ली इस्तेमाल ज़रा सी! मुझे दी, मैंने ही आजमाई! ओहो! आँखों में आया पानी, और गला हुआ ठंडा! और छींक! एक छींक आये, दूसरी का हाथ पकड़े लाये! हालत पतली हो गयी लेकिन बदन हल्का! पता नहीं कैसी जानदार नसवार थी वो!
"यहां से बस थोड़ा ही!" बोला हरदेव,
मैं नाक पोंछता रहा बार बार!
"कोई बात नहीं!" बोले शर्मा जी,
"वासदेव?" बोला हरदेव,
"जी, हुक्म?" बोला वो,
"ले चलो आगे?' बोला वो,
"अच्छा!" बोला वो,
"आप चलें, मिलते हैं वहीँ!" बोला हरदेव!
"हाँ, मिलते हैं!" कहा मैंने,
और हम, चले बग्घी की तरफ! फिर से एक ज़बरदस्त छींक आई मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बैठिये साहब!" बोला वासदेव!
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
उसने सांकल खोली, और खोल दिया दरवाज़ा! हम एक एक करके उसमे चढ़ गए! सांकल बंद हुई और दरवाज़ा भी बंद हो गया ऐसे!
गया वासदेव अपनी गद्दी तक, निकाला सांटा अपनी जगह से, अपने कपड़े से पोंछा उसे, अपने गले में पड़ी, उस चमड़े की पट्टी को भी पोंछ लिया, उसके बाद, जुए को पोंछा, और कपड़ा अपनी जगह खोंस दिया!
"चलें साहब?" पूछा उसने,
"हाँ वासदेव!" बोले शर्मा जी,
"बस, यहां से दायें और फिर करीब है!" बोला वो,
"कोई बात नहीं, चलो!" बोला मैं,
बग्घी हिली, एक झटका खाया, और हम चल पड़े आगे! बग्घी में लगे घुंघरू थिरके! एक ताल से बजी! इस से हमें चलने का निरंतर पता चलता रहता था!
हमारे ठीक ऊपर ही, टटाटेटरी पक्षी उड़ रहे थे! ये पक्षी मात्र रात में ही बहार निकलता है! रात में ही अक्सर शिकार किया करता है जल-जीवों का! छोटी मछलियाँ, घोंघे, केंकड़े, झींगे आदि का! इसकी आवाज़ यदि आये तो समझ लेना चाहिए कि आसपास, या तो कोई पोखर है, या कोई तालाब या कहीं ठहरा हुआ पानी, जैसे जोहड़ आदि!
"कोई तालाब है पास में शायद?" पूछा मैंने,
"एक बड़ा सा कुण्ड है जी, अब तो झील सा बन गया है!" बोला वो,
मेरा अंदाजा सही निकला था! पानी का कोई बड़ा स्रोत ही था! दो सावन यदि कहीं पानी ठहर जाए तो उसमे मछलियाँ पड़ने लगती हैं! बारिश उनके अण्डों को ले आती हैं और इस से उनका विकास होने लगता है! कुछ देसी मछलियाँ सभी तरह के पानी में रह लेती हैं, खारा या मीठा हो चाहे! इनमे रोहू, खग्गा, मलैट, कटेर, मल्ली आदि हैं! और फिर हिन्दुस्तान के पानी में ये सिफ़त है, कि कहीं भी ठहरे पानी, मछलियाँ पड़ने ही लग जाती हैं!
खैर, हम चल रहे थे, रास्ते में, आवाज़ आई पीछे से, कोई दौड़ा हुआ आ रहा था, पीछे मुड़ कर देखा तो ये करीब दस घुड़सवार थे! घोड़ों को एड़ लगाते हुए सरपट दौड़े जा रहे थे! ऐसी भागमभाग कि जैसे किसी का पीछा कर रहे हों! वे जिस गति से आये थे, उसी गति से गुजर गए!
"ये कौन हैं?'' पूछा मैंने,
"टुकड़ी है!" बोला वो,
"कहाँ दौड़े जा रही है?'' पूछा मैंने,
"आगे, चौकी पर!" बोला वो,
"अच्छा! आगे भी चौकी है?'' पूछा मैंने
"हाँ, दखनी-चौकी!" बोला वो,
बग्घी मुड़ने लगी, अब दायें चलने लगी! ठीक सामने एक बड़ी सी हवेली थी शायद वो! पूरी हवेली सजी थी! आजकल की बिजली भी क्या सजाएगी वैसी हवेली! शायद, वो भी हंडे ही थे, ज़ोरदार चमकते हुए! पूरा रास्ता साफ़ करवा दिया था! एक कंकड़ तक न था! पेड़ों की शाखें छंटवा दी थी! हंडे ही हंडे लटके थे, देखने में, कोई अंग्रेजी बाग़ सा लगता था! वो रास्ता करीब अस्सी फ़ीट चौड़ा था! पीछे पीछे और आवाज़ें आने लगीं! बग्घियों में लगी लालटेनें चमक रही थीं, एक, दो, तीन, कम से कम पंद्रह-बीस बग्घियां आ रही थीं उसी रास्ते पर हमारे पीछे पीछे!
क्या समा था वो!
एक खूबसूरत सा रास्ता!
आसपास के पेड़, समाकार और छंटे हुए!
पेड़ों पर, हर जगह हंडे लटके हुए!
ठीक सामने, वो बड़ी सी हवेली!
पीछे पीछे आतीं, शाही सी बग्घियां!
ये सच ही था न?
या कोई सपना?
कहीं सपना तो नहीं?
बार बार दिल ये सवाल पूछे!
शर्मा जी ने, मेरे कंधे से हाथ टिकाया! मुझे देखा, मैंने उन्हें!
"अब मुंह में ज़ुबान नहीं बची!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आप न होते, तो ये कहाँ होता!" बोले वो,
"मैं भला क्यों न होता!" कहा मैंने,
"मैं तो चूक जाता ज़िंदगी!" बोले वो,
"छोड़ो साहब! आ गए हैं हम!" बोला मैं,
"कमल साहब?" मैंने पुकारा उन्हें!
और कमल साहब! कमल साहब का कमल तो कहीं और खिला हुआ था! वो तो बरबस उस हवेली को देखे ही जा रहे थे सामने! न कोई सुध, न कोई होश! जैसे कमल साहब भी, प्रेत बन, विचरण करने लगे हों वहाँ का! उस बग्घी में बस, उनकी देह ही शेष रह गयी हो!
"कमल साहब?" मैंने फिर से आवाज़ दी!
न सुना!
"अरे? कमल साहब?" कहा मैंने फिर से,
न सुना इस बार भी!
अब तक बग्घी, बाएं रुक चुकी थी! वासदेव, सामने अपने घोड़ों का मुआयना करने चला गया था! वो वहीँ व्यस्त था!
"बुलाना इन्हें?" कहा मैंने,
अब झिंझोड़ा कमल साहब को!
एक बार! दो बार!
"कमल?" बोले शर्मा जी,
कोई जवाब नहीं! आँखें खुलीं और सामने ही देखें!
"कमल? ओ कमल?'' बोले शर्मा जी,
"ह.........ह...............!!" हड़बड़ाए कमल जी!
शर्मा जी ने पकड़ लिया उनका हाथ!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"क.....कुछ नहीं....कुछ नहीं!" बोले वो,
"बताओ?" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ कमल जी?" पूछा मैंने,
"मैं...मैं....जैसे कहीं खोने लगा था!" बोले वो, थूक निगलते हुए!
"फिर?" पूछा मैंने,
"कोई जैसे मुझे उड़ाए ले जा रहा था अपने साथ!" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
"आदमी या औरत?'' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
मामला गंभीर होने को था! ये असरात थे, जो उनके स्थूल को अब जलाने लगे थे! इसीलिए मैं पसंद नहीं करता किसी नौसिखिये को अपने साथ लाना, लेने के देने पड़ सकते हैं! वो तो जीवट था उनमे, सम्भल भी जाते, नहीं तो कोई भी चीख मार कर, हो जाता बेहोश! और जब उठता, होश में आता और अपने आप से जाया हुआ मिलता!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आप इनके कान में, कर्णव फूंको!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"कमल?'; बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले कमल जी,
"यहां आओ?'' बुलाया समीप अपने,
"कान लाओ इधर!" बोले वो,
किया कान आगे, और तब, शर्मा जी ने, तीन बार सिद्ध-कर्णव फूंक दिया!
उनको उठी खांसी!
आया दौड़ा हुआ वासदेव!
"पानी लाऊँ?" बोला वो
"मिल जाएगा?'' पूछा मैंने,
'हाँ!" बोला वो,
वो गया बग्घी के पीछे, और एक सुराही ले आया, दे दी मुझे, मैंने पानी पिला दिया कमल जी को, तब जाकर, चैन पड़ा उन्हें!
कर दी सुराही वापिस!
"आपने नहीं पिया?" पूछा उसने,
"प्यास नहीं है!" कहा मैंने,
"आप साहब?" पूछा शर्मा जी से,
"नहीं वासदेव!" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोला वो,
और चला गया पीछे!
बारात का शोर आया करीब अब! बस बारात आने को ही थी पास में, कुछ ही देर बाकी थी तब!
"यहीं उतरना है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं, आगे!" बोला वो,
"वो पास ही तो है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, लेकिन आने दीजिये आप हरदेव जी को!" बोला वो,
"अच्छा!" बोले शर्मा जी,
पीछे देखा, सभी बग्घियां थम गयी थीं!
"आने ही वाले हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, आ ही गए सब!" कहा मैंने,
और साहब, तब हुई आतिशबाजी शुरू! कान फोड़ के रख दिए हमारे तो! ऐसे धमाके कि जैसे तोप के गोले फट रहे हों! खोपड़ा भनभना गया हमारा! कानों पर रख लिए हाथ अपने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब बारात आ पहुंची थी, बग्घियां अब आगे बढ़ने लगी थी! हमारी बग्घी अभी वहीँ खड़ी थी, हमें इंतज़ार था हरदेव का! वो आता तो पता चलता कि जाना कहाँ है हमें! बग्घियां आगे बढ़े जा रही थीं! और वो आतिशबाजी? बाप रे बाप! देसी बारूद था वो! लाल और नीली रौशनी निकलती थी उनमे से! नाल ले रखी थीं बजाने वालों ने! आसमान की तरफ फेंक देते थे वो गोले! और जो धमाका होता, तो जैसे जूतों पर लगी मिट्टी भी झड़ जाती! अब हमने ऐसे धमाके कहाँ सुने थे? हम तो एक निश्चित, सरकार द्वारा बनाये गए डैसीबल दायरे में ही सुनने के आदि हैं! वो आवाज़ तो कान ही फाड़े दे रही थी! क्या कान थे साहब उनके! आदमियों को तो छोड़िये आप, घोड़ों को भी असर न हो रहा था! अजिसे आदि ही हों वो ऐसी आवाज़ों के!
"वो आ लिए!" बोला वासदेव!
सांटा एक तरफ रखते हुए बोला वो!
हमने सर घुमा कर देखा, तेज क़दमों से, हरदेव चले आ रहा था हमारे पास ही! तब वासदेव ने, सांकल खोलीं हमारी! हरदेव आया, और वासदेव से मुख़ातिब हुआ!
"वासदेव?" बोला वो,
"हुक्म?'' बोला वो,
"मेहमानखाने में ले जाओ इन्हें, मैं आता हूँ अभी!" बोला वो,
"अच्छा जी!" कहा वासदेव ने!
"मुआफ़ी चाहूंगा साहब! मेहमान बहुत हैं, आप चलें, मैं हाज़िर होता हूँ अभी!" बोला वो,
"कोई बात नहीं हरदेव जी! इत्मीनान से निबटाएँ आप अपना काम!" कहा मैंने,
"शुक्रिया साहिबान!" बोला वो,
पलटा और दौड़ लिया वापिस, उन बारातियों की तरफ ही!
"चलें साहब?" पूछा वासदेव ने,
"हाँ भाई! चलो!" बोले शर्मा जी,
बग्घी आगे चल पड़ी! और संग हम!
"यहीं जाना है न?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, सामने!" बोला वो,
"ठीक!" बोले शर्मा जी,
तो दोस्तों!
हम धीरे धीरे, उस हवेली की तरफ बढ़ चले! हमसे पहले वहां बग्घियां आ पहुंची थीं, इसमें दूल्हे के रिश्तेदार, जानकार आदि सभी थे! सभी का ज़ोरदार स्वागत हो रहा था! मुझे याद है, प्रवेश-द्वार बनाये गए थे, उनकी संख्या चार थी! सुंदर सुंदर स्त्रियां, पूरे साज-ओ-सिंगार में लिप्त, बारातियों का स्वागत कर रही थीं! मालाएं पहनाई जा रही थीं! टीका किया जा रहा था उन्हें! और साथ में ही, एक एक पोटली भी दी जा रही थी! शहनाई सी बज रही थी! चारों ओर उधर रौनक ही रौनक थी! कोई ऐसा नहीं था जो कहीं मशग़ूल न हो! हमारी बारी भी आई और सभी की तरह, हमारा भी स्वागत हुआ! हमें भी पोटली दी गयी! मैंने जेब में उडेस ली, शर्मा जी ने भी, कमल जी ने भी! आगे ही, वासदेव मिल गया! आतिशबाजी फिर से ज़ोर पकड़ने लगी! उनके रंग, हर किसी के चेहरे पर बिखरने लगे! लाल, नीले, पीले, चांदी के रंग के, सुनहरे! फूलों की तो जैसे बरसात हो रही थी! ऊपर, क़नातों के ऊपर, स्थान बनाये गए थे, जहां बैठीं युवतियां, फूल बिखेरे जा रही थीं! हंसी-ठिठोली का सा माहौल था! जैसे होली पर रहता होगा! तब इत्र, गुलाल-फुलेल, अबीर बरसाया जाता होगा!
कैसा शानदार स्वागत था!
कैसा शानदार माहौल था!
कैसा शानदार मौक़ा था!
यक़ीन से अलग! इस दुनिया से अलग!
"आएं!" बोला वो,
और हम उसके पीछे पीछे चल पड़े! अब जा घुसे एक हवेली में! उसका द्वार ऐसे सजाया हुआ था जैसे कि स्वयं किसी देवता का मंदिर हो वो! फूल ही फूल! इत्र ही इत्र! हंडे ही हंडे! शानदार सजावट! शानदार बनावट!
"वाह!" बोले शर्मा जी,
"वाह!" कहा मैंने भी,
कालीन बिछे हुए थे अंदर तो! पीले रंग के कालीन! काले रंग की रेखाएं थीं उनमें! सर्पाकार जैसी! आसपास बड़े बड़े गमले!
अहाता!
शामियाना!
अलाव!
"आएं!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम अहाता छोड़, एक बारामदे में आये, यहां से दो सीढ़ियां जाती थी, एक बायीं तरफ और एक  दायीं तरफ!
"इधर से!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
सीढ़ियां चढ़ी हमें फिर! इस हवेली की तो सीढ़ियां ही करीब डेढ़ डेढ़ फ़ीट चौड़ी थीं! एक मंजिल ऐसी ऊंची जैसे हमारी आज की दो मंजिलें! पत्थर से बनी थी वो हवेली! लाल पत्थर लगाया गया था, सीढ़ियों का रास्ता बेहद चौड़ा था, एक बार में तीन इंसान उतरें और तीन ही चढ़ जाएँ!
"आइये, इधर है!" बोला वो,
और चल पड़ा आगे, हम पीछे पीछे उसके!
एक कमरे के सामने से गुजरे, तो बड़ी ही तेज सी महक उठी! शायद तैयारी हो रही थी वहाँ, बारात में शामिल होने की! आगे बढ़े, तो वासदेव रुक गया!
"इधर, ऊपर!" बोला वो,
फिर से सीढ़ी?
बाप रे! अबकी दम फूलेगा पक्का!
"आइये!" वो बोला वो चढ़ा खटखट!
और हम! अपने शरीर का बोझ उठाये, चढ़ने लगे जी ऊपर! अभी बा-मुश्किल चार ही चढ़े होने कि याद आया पानी! हलक़ सूखे! जूते काटें! दीवार से टेक लें! क्या करें! सीढ़ियां ही ऐसी थीं, कि दो बार ऊपर नीचे चढ़ लें तो या तो नीचे ही कमरे में आराम करें, या ऊपर ही किसी कोने में दुबक कर बैठ जाएँ, सांस बनने तक!
"अरे मर गया रे!" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सांस फूल गयी!" बोले वो,
"मेरी भी!" कहा मैंने,
कमल जी भी साँसें छोड़ रहे थे तेज तेज!
और इस तरह, आये हम ऊपर! साँसें तेज! हलक सूखा!
"पानी पीना है वासदेव!" बोले शर्मा जी,
"मिल जाएगा! आइये!" बोला वो,
और हम फिर से चल पड़े उसके साथ!
एक कमरे के सामने हुए खड़े हम! यहीं रुकना था हमें शायद!
"आइये! आप बैठिये, मैं लाता हूँ पानी!" बोला वो,
"भाई शुक्रिया!" बोले शर्मा जी!
और खट्ट से अपने जूते उतारे! अंदर गए, और नीचे बिछे कालीन पर, जा बैठे! मसनद की कमर के नीचे! और लेट गए टेक लगा कर!
तब तक हम भी आ गए अंदर!
"सीढ़ियां हैं या पत्थर की पटिया?" बोले वो,
"अब अपने हिसाब की है इनके!" कहा मैंने,
और हमने भी अपनी जगह संभाल ली! लगा ली मसनद मैंने भी, कमल जी ने भी!
"अरे?" बोले शर्मा जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"अरे?" मेरे मुंह से भी निकला!
वो एक पेन था! एक पेन! शर्मा जी ने उठाया उसे! वो अंग्रेजी पेन था एक! काफी पुराना, उसमे लकड़ी का इस्तेमाल हुआ था, वो पेन, शर्मा जी के घुटने के पास पड़ा हुआ था! उन्होंने उसे अटोल-टटोल के देखा! उसमे निब नहीं थी, कुछ पंख जैसा था! निब की जगह!
"अच्छा!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
वो पेन लेते हुए अपने हाथों में!
"ये शायद फाउंटेन-पेन है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसे डुबाओ स्याही में, और लिखो!" बोले वो,
"हाँ, यही है!" कहा मैंने,
अब कमल जी ने हाथ बढ़ाया, तो दे दिया मैंने उन्हें, वे भी देखने लगे उसे!
वो कमरा काफी बड़ा था, कम से कम तीस गुणा तीस का तो रहा ही होगा! फ़ीट में बता रहा हूँ आपको! अंदर, सफेद रंग से पुताई की गयी थी उस पर! लोहे के गार्टर लगे थे उसमे, छत के पत्थरों को टिकाया गया था उस से!
"ये ऊंचाई कम से कम पंद्रह फ़ीट तो होगी?" पूछा मैंने,
"हाँ, कम से कम!" बोले शर्मा जी,
अब पेन वापिस किया मुझे, मैंने लिया और दिया शर्मा जी को, शर्मा जी ने वहीँ रख दिया उसे! जस का तस!
"मेहमानखाना है, कोई भूल गया होगा! निकल गया होगा जेब से!" बोले कमल जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी आया अंदर वासदेव! साथ में एक और नौकर आया था, पानी दिया गया हमें, हमने पानी पिया फिर! दो दो गिलास!
"अब चलूँगा साहब!" बोला वासदेव!
"हाँ, कोई बात नहीं!" बोले शर्मा जी,
"मिलता हूँ, बाद में!" बोला वो,
और हाथ जोड़, चला गया बाहर! रह गए अब हम उधर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हम कमरे में तीनों ही थे, मुझे अब कमल जी कुछ कुछ, सम्भले से लगने लगे थे, कर्णव-मंत्र एक शाबर मंत्र होता है, ये असरात को बंद कर देता है, जब तक कि व्यक्ति, मल-त्याग न करे! तब तक असरात नहीं असर करेंगे, हाँ, बाद में कुछ हो सकता है, इसको जांचना भी पड़ता है! आपको एक विधि बताता हूँ, अत्यंत ही सरल विधि है ये जानने की कि फलां इंसान भूत-बाधित अथवा प्रेत-बाधित है या नहीं! एक बात स्मरण रखिये, भूत हो या प्रेत! वो अपने चारों ओर दृष्टि रखता है! कह सकते हाँ, तीन सौ साठ अंश तक! अर्थात, जैसा वो सामने देखने में समर्थ है, वैसा ही पीछे देखने में भी! भूत व्यक्ति से नहीं लिपटता, ये मात्र उसे नज़र आता है, डराता है, उसको भयभीत करता है! परन्तु उस व्यक्ति में सवार होने की कोई शक्ति उसमे नहीं होती! ये मात्र एक प्रेत ही कर सकता है! और दूसरी अहम बात, भूत या प्रेत, सभी पर एक जैसी निगाह रखते हैं, अर्थात, जैसे सामने बैठा व्यक्ति दीखता है, कोने में बैठा भी, पीछे बैठा भी! सभी पर नज़र समान ही रहती है! हाँ, उसे भूत एवं भिवष्य का ज्ञान होने लगता है! आपकी जेब में क्या है, आपने क्या खाया है, क्या छिपाया है, क्या हुआ है, सब जानता है! और अपनी पहचान किसी को नहीं बताता! मज़बूर हो, तो उस व्यक्ति के किसी मृतक रिश्तेदार, मित्र आदि का ही नाम लेता है! इसे ही बरगलाना कहते हैं! ये बरगलाते हैं! भटकाते हैं! और ये व्यक्ति के अंदर कई बरसों तक, शांत ही बैठे रह सकते हैं! उन्हें भोजन भी मिलता है, शैय्या-सुख भी, स्त्री-सुख भी और अन्य सुख भी! और उसे क्या चाहिए! तो, अब पहचान कैसे की जाए? यही विधि आपको बताता हूँ! एक झाड़ू ले लीजिये! इसको ऐसे रखिये, कि इसका मुंह आसमान या छत की तरफ रहे! अर्थात, जहाँ से बाँधी जाती है, वहाँ वो स्थान नीचे ही रहे, ज़मीन की तरफ! और उसकी तीलियाँ या सींकें ऊपर, आसमान की तरफ, या छत की तरफ! जिसमे भी प्रेत का वास होगा, सवार होगा वो व्यक्ति, सर टेढ़ा कर, उस झाड़ू को सीधा देखने की कोशिश करेगा! मना करने पर भी नहीं मानेगा! उस झाड़ू को, सीधा करने की ज़िद करेगा! अगर वो ऐसा करता है तो उसे अपनी खुद की ही आवाज़ बोलनी पड़ेगी! उस व्यक्ति की आवाज़ में नहीं बोल सकेगा! आप फौरन ही समझ जाएँ, कि ये व्यक्ति, भूत अथवा प्रेत बाधा से पीड़ित है! इनका सबसे बड़ा हथियार है, डराना, भयभीत करना! अब चूंकि वो जानते हैं कि आपको सबसे अधिक भी किस से लगता है, अथवा आपके किस प्रिय का अहित आपको तोड़ कर रख सकता है, ये उसका सहारा लेते हैं! आप कोई रिस्क नहीं लें, किसी अच्छे तांत्रिक से सम्पर्क करें, वो इस प्रेत को हटा देगा! अगर स्थिति ज़्यादा ही खराब हो, तो आप कुछ एक उपाय कर सकते हैं, ये तुरंत ही पेन-किलर की तरह से कारगर हुआ करते हैं! न हनुमान-चालीसा काम आएगा, न अन्य कोई चालीसा! बल्कि इसको वो भी साथ साथ ही पढ़ता जाएगा! मेरी बात का बुरा न मानें, जो सत्य है, बता रहा हूँ! ये तो मंदिर तक में अपना शिकार ढूंढ लेते हैं, इनको कोई भय नहीं होता! अब एक भ्रम है आग का, कि प्रेत आग से डरते हैं! या नंगा हो जाओ तो कुछ नहीं करेंगे! ऐसा भी नहीं है! एक बात और, जब प्रेत समक्ष हो, तो कोई भी उपाय नहीं कर सकते जब तक कि आपका भय न दूर हो जाए! भागने आपको वो देगा नहीं, बैठने वो आपको देगा नहीं, बोलने आपको वो देगा नहीं, हिलने आपको वो देगा नहीं! तो, क्या करेंगे आप?
अब कुछ एक विधियां, जो किसी प्रेत-बाधित व्यक्ति के लिए पेन-किलर का काम करती हैं! पहला, साबुत हल्दी भून लीजिये! इसको एक लोटे पानी में डाल दीजिये! अब एक मंत्र पढ़िए, ग्यारह बार! लोटे को हाथ में लिए हुए ही, सात्विक ये मंत्र नहीं पढ़ सकते, कारगर ही नहीं होगा! मंत्र है, "ठः ठः ठः कपालसुंदरी हुम्म फट्ट!" जब ग्यारह बार पढ़ लें, तो इस जल के छींटे उस बाधित व्यक्ति पर छिड़क दें! फौरन ही प्रेत भाग जाएगा! अब वो लोटा, उस बाधित व्यक्ति के कक्ष में कहीं रख दें, ताकि उसे दीखता रहे! प्रेत भले ही वहीँ हो, अब अहित नहीं कर सकेगा किसी का भी! दूसरी विधि, झाड़ू से उस बाधित व्यक्ति के ऊपर, सर से लेकर पाँव तक सात बार काटा खींच दें, अर्थात काट दें, अब एक तीली या सींक निकाल लें, इसको, उस बाधित के सामने ही, ये मंत्र पढ़ते हुए, किसी उपले या कंडे के ऊपर या कपूर के ऊपर रख कर, जला दें, सींक के टुकड़े कर ले, मंत्र है, "खम खम हुम्म बेड़िया हुम्म फट्ट!" ऐसा करते ही, प्रेत चीख मार भाग जाएगा! भूत भाग खड़ा होगा! अब वो राख, चाहें तो उस बाधित की बाजू पर, काले रंग के कपड़े में रख कर, बाँध दें! तो ये सरल से उपाय हैं, जब पीड़ित ठीक हो जाए, तो उसके हाथों से, ढाई सौ ग्राम मांस बकरे का और एक अद्धा शराब का, चढ़वा दें अथवा किसी को दे दें!
अब कुछ उपाय, जो सहायता प्रदान किया करते हैं इन भूत-प्रेत बाधाओं से! सबसे पहले, एक गोमती-चक्र ले आएं, गोमती-चक्र एक सीपी जैसा पत्थर सा होता है, नदी से प्राप्त होता है, और इस पर भंवर का चिन्ह हुआ करता है! जब लाएं तो ये बातें अवश्य ही देख लें, कि वो टूटा या खंडित न हो, दुरंगा न हो, भंवर का केंद्र उठा न हो, और कोई अन्य रंग न हो उस पर, ये सफेद हो या अन्य कोई भी रंग! परन्तु एक! अब आप इस गोमती-चक्र को घर ले आएं, एक बूँद शराब से साफ़ करें, मांस के ऊपर रखें, और ये मंत्र पढ़ें, इक्यावन बार, "ठः ठः जमकपालिनी ऐम फट्ट!" अब इस चक्र को, या तो भुजा में बाँध लें, अथवा ताबीज़ में मढ़वा लें अथवा चांदी में मढ़वा लें और धारण कर लें! भूत एवं प्रेत बाधा दूर रहेगी! दूसरी विधि है, अमावस वाले दिन, रात्रि-समय, किसी भी बहती नदी के किनारे मेसे, हाथ डालकर, एक मुट्ठी रेत निकाल लें, कपड़े में रखें, और लौट आएं घर! इसको नौ दिनों तक सूखने दें! दसवें दिन, रात में, एक तश्तरी में रखें, इसमें एक अगरबत्ती लगाएं, एक गुलाब का फूल रखें, और इक्कीस बार इस मंत्र का जाप करें, कुल्ला कर लें, पाँव में चप्पल न हो, कपड़े साफ़ हों, चमड़े की पेटी न पहनी हो! मंत्र है, "अल हाफ़िज़, अल हाफ़िज़!" अब इस रेत को, किसी ताम्बे के ताबीज़ में मढ़वा लें, ये रेत, इसके कण जहाँ बिखेर देंगे, वहां से कोई भी बला हो, दूर भाग जायेगी! रेत सारी नहीं लेनी है, बस एक चुटकी! शेष आप अपने मित्रगण अथवा रिश्तेदारों को भी दे सकते हैं! अकेले-दुकेले कहीं भी आएं जाएँ, कोई बला आपके सामने नहीं आ सकती!
अब महाप्रेत! ये तो खैर अलग ही हैं! इनसे तो लड़ना ही पड़ता है! वैसे महाप्रेत कभी सवार नहीं हुआ करते! तंग नहीं किया करते! इनसे बैर बेहद महंगा पड़ता है! ये एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को भी ग्रसित रखा करते हैं! तो इनकी श्रेणी के लिए, तंत्र में अलग ही विधान हैं!
हाँ, तो अब घटना!
तो हम कमरे में तीनों ही थे अकेले, बहार तो धूमधाम मची थी! आतिशबाजी छोड़ी जा रही थी! खिड़कियों ओर झरोखों से अंदर आ रही थीं रौशनियाँ!
"क्या शान है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सो तो है ही!" कहा मैंने,
"आखिर में, अधिकारी के बेटे का ब्याह जो ठहरा!" बोले वो,
"हाँ! ये तो है!" कहा मैंने,
बाहर, आवाजाही चल रही थी! कभी-कभार, बारूद की गंध आ जाती थी, पर्दे से होकर अंदर! ओर कभी महक़! शानदार माहौल था उस रात!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आतिशबाजी की धुआंधाड़ और शोर से, सारा माहौल जैसे भनभनाया हुआ था! रह रह कर धमाकों की आवाज़ें आ रही थीं! पल भर में ही, कमरा जगमगा उठता और फिर से सामान्य हो उठता था! उस कमरे में और कुछ ख़ास नहीं था, कालीन बिछे थे, आठ मसनदें रखी थीं, चार बड़े बड़े तकिये रखे थे, एक कोने में, एक कालीन तह लगा रखा था! फानूस टंगे थे जिनसे रौशनी बाहर आ रही थी! अब कहने को, बरात आन पहुंची थी, मेहमानों का भव्य स्वागत हो रहा था नीचे! अचानक से मुझे उस पोटली का ध्यान हो आया जो हमें नीचे मिली थी! मैंने जेब से निकाला उसे, वो हरे रंग के चमकदार कपड़े की बनी थी! उसकी डोरी लाल रंग की थी, मैंने डोरी खींची, और खोली वो पोटली, उसमे डाली उंगलियां, तो मेरे हाथ में कुछ सिक्के आये! इसके दो सिक्के सोने के थे, जिन पर, एक पूर्ण प्रदीप्त सूर्य और दो सर्प बने थे अगल-बग़ल! और पांच सिक्के चांदी के थे, जिन पर लक्ष्मी जी बनी थीं, पीछे की तरफ ॐ और स्वास्तिक बने थे! सिक्के बड़ी ही खूबसूरती से ढाले थे ढालने वाले ने! कोई भी कमोबेशी आप देख ही नहीं सकते थे! हालांकि वजन में ये ज़्यादा भारी नहीं थे, लेकिन अपने मान में उनका कोई मोल नहीं था वो अनमोल थे! वधु-पक्ष, धौलपुर से था, इसीलिए वहां ग्वालियर राजघराने का आधिपत्य रहा हो, मुझे पूर्ण तो ज्ञात नहीं, परन्तु वो सूर्य और वो सर्प, मैंने ग्वालियर राजघराने से संबंधित वस्तुओं सिक्कों पर अवश्य ही देखे थे! समय समय पर, भिन्न भिन्न शासक इन मोहरों में शायद, बदलाव कराते रहे थे, ये भी उन्हीं में से एक था! अब कमल जी और शर्मा जी ने भी अपनी पोटलियाँ खोलीं, उनमे भी यही सब सिक्के थे, एक जैसे ही! सोना करीब डेढ़ तोले के आसपास और चांदी करीब पांच तोले बराबर रही होगी, ये अंदाजा ही है, क्योंकि बाद में, कभी वजन नहीं किया और न ही करवाया हमने उनका! ये हमारे लिए सम्मान के सूचक हैं, कोई धन-दायक नहीं! अतः वे जस के तस ही हैं!
"क्या सिक्का ढाला है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, अंग्रेजी-मिंट का सा लगता है!" कहा मैंने,
"शायद ढलवाया ही हो?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"लेकिन हैं गज़ब!" बोले वो,
"हाँ, इसमें कोई शक़ नहीं!" कहा मैंने,
तभी पर्दा हटा सामने से, ये हरदेव था, साथ में था कोई उसके, सर पर टोपी पहने, टोपी में, फुलतरू लगाये, टोपी सुनहरी रंग की, गला-बंद अचकन सी पहने, अचकन पर रत्नों की मालाएं पहने, नीचे चुस्त-पाजामी, हाथ में एक सोटा सा, सोटे पर मुलम्मा चढ़ा हुआ था चांदी का! कद-काठी बड़ी ही मज़बूत! चौड़ी घनी मूंछें जो कि कलमों तक को घेर रही थीं! चेहरे पर मुस्कुराहट और शान-ओ-शौक़त से लबरेज़ खड़े होने का तरीक़ा!
वे अंदर चले आये, उस नए आदमी से हमारी नमस्कार हुई! वो स्वभाव से हंसमुख और ज़िंदादिल लगा!
"ये नौहल गिरी तावड़े हैं!" बोला हरदेव!
नाम से यो वो मराठी ही लगा था और उसकी पोशाक़ भी यही कहती थी! उस समय तक, कई मराठे वहां रह रहे थे, वे उच्च प्रशासकीय क्षेत्र संभालते थे, मराठे इस समय तक वैसे तो छिन्न-भिन्न हो चुके थे, कहीं कहीं ही उनका आधिपत्य था, और फिर, मुग़लों का भी पतन हो ही चुका था! मराठों को सबसे बड़ा धक्का तो अहमद शाह अब्दाली या दुर्रानी ने पहुंचाया था, इस से मराठों का वर्चस्व लगभग सिमट सा ही गया था!
"ये वधु-पक्ष से हैं, मेरे मित्र हैं!" बोला हरदेव!
"प्रसन्नता हुई आपसे मिलकर तावड़े साहब!" कहा मैंने,
"धन्यवाद आपका! मुझे भी!" बोला वो,
"हमें हुई साहब!" बोले शर्मा जी,
वे दोनों हंस पड़े!
"आइये, कुछ 'सलधल' के इंतज़ामात हैं! आइये!" बोला हरदेव!
सलधल! बहुत पुराना सा मौखिक शब्द है! अब प्रायः लुप्त है! अब कोई प्रयोग नहीं करता इसका! पहले प्रयोग हुआ करता था, आज तो इसका अर्थ ही पता नहीं किसी को! सलधल का मतलब होता है, ऐश-ओ-शौक़! मौज-मस्ती! खाना-पीना और ऐश करना! पहले ख़ेमे के फौजी, फ़ौज में यही बोला करते थे! ये मौखिक है, बोला ही जाता था अतः संदर्भ भी नहीं मिलता इसका! हारे हुए शत्रु की हर वस्तु जीतने वाले की हो जाया करती थी! मुग़लों ने इसका कड़ा ऐतराज़ किया था, औरतों, बालकों, कन्याओं को जीत की वस्तु-क्षेत्र से पृथक कर दिया था उन्होंने! मुग़लों के बारे में जो भी कुछ लिखा गया, वो तोड़ा-मरोड़ा गया है! 'हिस्ट्री-री-रिटेन' यहां चरितार्थ होती है! खैर, ये विषय नहीं है अभी, फिलहाल में तो!
तो सलधल के इंतज़ामात थे! चलिए! वो भी देखें जाएँ! कोई भी चीज़, छूटे नहीं! यही तो हम चाहते भी थे! ज़्यादा से ज़्यादा जानना!
"जी! चलिए!" कहा मैंने, उठते हुए,
मैं उठा, तो वो दोनों भी उठ गए, शर्मा जी और कमल जी भी!
पहने जूते और निकले उनके साथ! गलियारे में दूर तलक चले गए, लोग मिलते और वे नमस्कार आदि करते चले जाते! एक गलियारे से, दूसरे गलियारे में पहुंचे! यहां आयी घुंघरुओं की क़दमों से थिरकती आवाज़ें! हम चलते गए! और एक जगह, एक चौड़ी सी चौखट के सामने आ गए! उन दोनों ने अपनी जूतियां उतारीं और हमने अपने जूते!
"आइये, आइये!" बोला हरदेव!
पर्दा हटाया गया!
और मैंने जो देखा, तो सन्न!
ये क्या है?
शीश-महल?
ऐसा, रक़्क़ाशख़ाना?
पूरी छत, शीशों से भरी थी! छोटे छोटे शीशे! बीच में, एक बड़ा सा शीशा! रंग-बिरंगे शीशे! उनके बीच चित्रण! सुनहरा, लाल, पीला, नीला रंग! गुंथा हुआ एक-दूसरे से! क्या बेहतरीन कारीगरी थी वो! दीवारों पर, चित्रण! कोने में रखीं, स्त्री-सौंदर्य को दर्शाती मूर्तियां! सभी की अलग अलग भाव-भंगिमाएं! झाड़-फानूस! रंग-बिरंगा प्रकाश! फूल ही फूल बिखरे हुए! बीच में सफेद, चिट्टा फर्श! और आसपास बिछे कालीन! कालेन पर, शाही-मसनदें! और उन पर विराजे, कुछ शाही-मेहमान! कुल बारह या चौदह रहे होंगे!
"आएं!" बोला हरदेव!
"जी!" कहा मैंने,
और हमने अपने अपने स्थान संभाले!
मैं रोक नहीं पा रहा था उस शानदार कमरे को निहारते हुए! हरदेव और तावड़े साहब ने ही अपने अपने स्थान संभाले! शेष सभी मेहमानों ने, हाथ जोड़कर, अभिवादन सा किया हमारा! हमने भी हाथ जोड़कर, अभिवादन स्वीकार किया उनका!
"कमाल है!" बोले शर्मा जी!
"हूँ!" कहा मैंने,
चौखट को सजाया गया था! फूल लादे गए थे हर जगह!
अभी हम आ कर बैठे ही थे, कि एक सुंदर सी स्त्री, आई, हाथों में तश्तरी लिए हुए, उसमे आठ गिलास रखे थे, मैं तो उस स्त्री के मादक-सौंदर्य को देख कर ही हैरान था! कोई विशेष साज-सिंगार नहीं किया था, ये तो कुदरती ही था, उसका सौंदर्य! वो एक कनीज़ थी!
उसने नीचे घुटने टिका कर, वो तश्तरी आगे की,
मैंने उठाया एक गिलास, वो मुस्कुराई, सुरमयी से आँखों में, एक अजब सी खुशनुमायी देखने को मिली! इस तरह, सभी ने एक एक गिलास उठा लिया!
मैंने मुंह लगाया गिलास को!
जैसे ही ज़ुबान से छुआ, वो पानी नहीं था! वो शायद, गुलाब से बना कोई मद्य-पेय था! न मैंने कभी पिया, न कभी सुना, चखा, पहली बार तब ही!
"हरदेव जी?" पूछा मैंने,
"जी?" पूछा उसने,
"ये कौन सा पेय है?" पूछा मैंने,
"पुष्यँग!" बोले वो,
ये भला कौन सा पेय है? कभी नहीं सुना? एक घूँट और भरा, कुछ जाना-पहचाना सा स्वाद आया, हल्का सा घूँट और भरा, और याद आया! अच्छा! ये तो शायद खसखस की ख़ुश्बू है! ये मद्य-पेय नहीं है! ये तो पौरुष-पेय है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खसखस, मूल रूप से अफ़ग़ानिस्तान की पैदाइश है! वहां से ये हर जगह फैला है! मैंने बताया था कि मुग़लों को बागों से, पेड़, पौधों से, फूलों से बेहद लगाव था, उनके बाग़ हमेशा फूलों से लदे रहते थे, हरियाली बहुत भाती थी उन्हें! उन्होंने कई वनस्पतियाँ बाहर से मंगवा कर, यहां हिंदुस्तान में लगवायी थीं! ये खसखस का श्रेय भी उन्हीं हो जाता है! खसखस मूल रूप से ठंडा और पौरुष को बढ़ाने वाला होता है, इसमें सुगंध होती है, शरबत का सार होता है ये खसखस! जच्चा का खसखस का हलवा खिलाया जाए तो कभी परेशानी नहीं होती, दूध कभी नहीं जठराता स्तनों में, बेहद फायदेमंद होता है! पुरुषों में ये वाजीकारक का कार्य करता है! यहां हमें खसखस का वो पेय जो गुलाब के अर्क के साथ मिलाकर, पिलाया गया था, उसका उद्देश्य क्या था, पता नहीं! लेकिन उस से थकावट अवश्य ही खत्म हो जाती है! उनींदापन भी दूर हो जाता है! देह में ताज़गी, चुस्ती-स्फूर्ति भर आती है! जो गिलास हमने पिया था वो कम से कम साढ़े तीन सौ मिलीग्राम तो रहा ही होगा! और इतनी खसखस तो किसी घोड़े को भी जगा दे!
जब जब छत पर लगे उन शीशों पर निगाह पड़ती, तब तब हमें कमरे का हर हिस्सा सा दीख पड़ता था! लगता था, कि जैसे शीशों में जान पड़ गयी है! वे हमें देख, हँसे जा रहे हैं! या फिर हम तीन, हम तीन यहां क़ैद हो गए हैं! इसन शीशों भरी छत और दीवारों के बीच! क़ैद भी कैसी प्यारी! जी करे, ख़तम ही न हो! न आये वो सुबह जो सब बहा ले जाए!
तभी बाहर आहट सी हुई! पायजेब खनकने लगीं! कुछ ही क्षणों में, आवाज़, पायज़ेबों की, बंद! और हम सभी, वहां बैठे, हुए मुस्तैद से! तैयार से! देखें, क्या सलधल है!
और तब अंदर आये, कुछ लोग! अपने वाद्य-यंत्र लिए! वीणा, मैं पहचान गया, तबला, पहचान गया, सितार था शायद वो, पहचान गया! शेष नहीं पहचान पाया! क्या थे वो! अब तो देखे भी नहीं! वे आये, और अपनी अपनी जगह ले ली! ये मुझे कोई मंडली सी लगती थी, लेकिन इस समय ये घराने हुआ करते थे, अपने अपने काम में माहिर! हिंदुस्तान में इन घरानों ने ही, मध्य-भारत की संगीत-विधा को आगे बढ़ाया, इनका बहुत ही बड़ा हाथ है इसमें! श्रेय इन्हीं को जाता है, और श्रेय, उन शासकों को, जिन्होंने इन्हें फलने-फूलने दिया! इनको समर्थन दिया!
वे अंदर आये, अपने पाने वाद्य-यंत्र संभाले, कुछ एक टेढ़ी-मेढ़ी सी धुंए निकलीं, ये शायद जांच थीं, उन वाद्यों की डोरियाँ खींची गयीं, कसा गया, ढीला किया गया! दरअसल, वे कमरे में गूंजती संगीत-लहर और गूँज के अनुसार ढाला करते थे अपने अपने वाद्य-यंत्र को!
और हुई एक ताल शुरू! एक राग शुरू! कुछ ही पल बीते और मैंने उस राग की नब्ज़ टटोली! जायज़ा लिया! ये भले ही जांच थी, लेकिन ये था राग केदार! मध्य-रात्रि का राग! आनंद का राग! उन्माद का राग! ये वही राग था! मेरे होंठों पर मुस्कुराहट दौड़ आई!
कुछ ही देर में, राग बंद हुआ, और उन्होंने, इजाज़त मांगी! सभी ने वाह वाह कर, इजाज़त दे दी! अजी हम भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, हमने भी अपने ही तरीक़े से हाँ, हाँ कही! ताल बजी! तबले की मधुर, हल्की सी आवाज़, तैर चली उस कमरे में, बाहर जा पहुंची, जैसे ये बुलावा था! और तब, कमरे में तीन बला की खूबसूरत बुत-ए-हुस्न अंदर आयीं! उनको देख कर ही, दिल की चूलें हिल उठीं! चर्र-चर्र की सी आवाज़ें निकल पड़ीं! क्या हुस्न-ओ-आलाईश था साहब! जैसे खुद माह के महल से चुरा लिया गया हो उन्हें! हुस्न था, गज़ब का हुस्न था! लेकिन, हयापोशीदा! गला बंद उनका पैरहन! घुटनों से कुछ ही ऊपर वो गला-बंद पैरहन अपना बदन ख़तम कर लेता था! बाजू-बंद उनका वही पैरहन! चुस्त, कसा हुआ, हाथों में, कलाइयों में, तमाम तरह के सामाँ-ए-साज-ओ-सिंगार! उनका वो पिरहन, बदन से ऐसे चिपका था, जैसे उनके बदन का ही हिस्सा हो वो! रुखसार ऐसा, कि एक बार पेश-ए-नज़र हो जाए, तो बेरूख़ी-ओ-तस्क़ीन-ए-आमिल भी ज़िंदा हो उठे! एक लम्हा न लगाये! उनके वो लहरदार गेसू, वो चमकदार, काले बाल, बालों में सजी ज़रात की लड़ें, उनके रत्न ऐसे चमकें जैसे आसमान ले सितारों ने आ कर पनाह ले ली हो! उनका बदन, जैसे बिजली जकड़े बैठा हो! उनकी देह का गठन, जैसे किसी ने खूब तबीयत-ओ-अबद-ए-अल के साथ तराशा हो!
ज़बीं कहूँ?
न! कम न आंक ए ख़ब्स-ए-ज़ाहिल!
सितारा कहूँ?
न! इतनी भी ज़िल्लत न कीजै!
चांदनी कहूँ?
न! इम्तियाज़ के पैमाने पढ़ पहले!
क़यामत कह डालूं?
न! इफ़रात से, शायद अनजान है तू!
तो फिर क्या कहूँ?
रहने दे! चारासाज़ अल्फ़ाज़ों से दूर रह बस!
तो ये थी उस लम्हे दिमाग़ के ज़द्दोज़हद!
अब करते भी क्या! खैर, देख रहे थे, सो देखते रहे! देखना ही ठीक था, कम अज कम, उस दर-ए-लम्हात!
उन्होंने कोर्निश की! सुरमयी, क़ज़ा भरी आँखों से इजाज़त ली, औ जी हमने तो झंडे लहरा के इजाज़त पेश की!
और जो छिड़ा!
छिड़ा जो इस क़दर वो मदहोश रात का  राग केदार!
समझो हो गए हम तो इस दीन-ओ-दुनिया से बाहर!
अब न होश कमरे की!
और न होश खुद ही की!
न शर्मा जी ही दिखें!
न कमल जी ही नज़र हों!
राग केदार! न जानो कि क्या हाल हुआ,
बस यूँ मानो कि चैन-ओ-दिल बेहाल हुआ!
करूँ जो आँखें बंद, तो 'लालच' जगा दें,
खोलूं जो आँखें, तो बदन में आग लगा दे!
अब न जल कर चैन!
और न आँखें बन कर चैन!
ऊपर से ताल! वो थिरकती हुई उंगलियां उन फ़नकारों की! उनकी छेड़ी हुई ताल! कभी शास्त्री-गायन ऐसा भी हो सकता है, ये तो मैंने ख़्वाब में भी कभी तस्सव्वुर में ना लाया था! भूल हुई थी साहब! आज मिला मौक़ा तो सुधार ली भूल! अब वो इंसान ही क्या जो भूल न सुधारे! किस से भूल नहीं होती, हम सब ही से! कोई पूर्ण नहीं! कोई भी! बस, एक ही सम्पूर्ण! बस एक!
"सुभान-अल्लाह!" कहा एक ने!
"फ़ना! दिल-ओ-जान फ़ना!" आई दूसरी आवाज़!
"माशा-अल्लाह!" आई एक और आवाज़!
"वाह! वाह निस्ब्त! वाह!" बोला एक और!
निसबत!
तो ये नाम था उन तीनों में से एक का! अब भला किसका? मुझे तो तीनों ही निसबत नज़र आएं! सच में, क्या खूबसूरती थी उनकी इस निसबत-ए-तशरीफ़ में!
एक कनीज़ आई हमारे पास, ये पान थे, मैंने झट से एक पान उठा लिया! अब तम्बाकू हो, सो हो! अमा अब तम्बाकू ही क्या बिगाड़ेगा? नशा ही क्या करेगा? प्यालों से क्या नशा होता है? बोतल से क्या नशा होता है? सागर से क्या नशा होता है? नशा होता है तबीयत से! शराब में क्या नशा होता है? नशा होता है खुदी से! नहीं तो प्याला न नाचता? बोतल न नाचती? सागर न नाचता? और फिर, ज़रूरत-ए-साक़ी ही क्यों पेश आती? क्यों जी? है न नशा खुदी में! है न नशा तबीयत में!
पान रखा मुंह में! लगा चबाने बेतहाशा! न पता चले कि तम्बाकू है या नहीं! अब तो बस, चलने दे! दौड़ने दे! भागने दे! आवाज़ न दे! रवानगी है, दौड़ रहा हूँ! रोक नहीं! हाथ न थाम! रोड़े न अटका! दौड़ने दे! बस, दौड़ने दे अब तो!
केदार हल्का सा थमा! और एक नया सा राग पकड़ा गया! और जब समझ में आया! तो! तो मैं तो! जैसे खड़ा हो, नाचने ही लगता! भूल जाता कि कौन हूँ मैं!
ये था, जादुई राग जोग!


   
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श्रीशः उपदंडक
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राग केदार का जलवा बहाल था! हम सभी उसी राग केदार में चुए(रिसते) जा रहे थे, न अपनी ही सुध थी, खुदी की, न अपनी देह की ही! कब हाथ थिरक जाएँ, पता नहीं, कब देह थिरक जाए, पता नहीं! कब मुंह से कुछ निकल जाए, पता नहीं! कब हम, बोसा उछाल फेंकें, पता नहीं! नज़रें तो बंधी थीं उनकी थिरकती टांगों पर, कमर के नीचे, जब जांघ से वो लाल रंग का कपड़ा हिलोर भर उठता था! सर, जैसे अपने आप ही झुकता चला जाता था! वो थिरकतीं, हम बिखरते! हम समेटते, वो बिखरा देतीं! ऊपर से वो संगीत! जैसे, गरम सलाख भोंकी जा रही हो सीने में! और हम, उस थिरकते हुस्न के ठंडे पानी से, तीमारदारी किये जा रहे हों अपने ज़ख्मों की!
लालसा और लालच!
जानते हैं, दोनों में क्या फ़र्क़ है?
है एक बड़ा फ़र्क़!
बहुत ही बड़ा फ़र्क़!
लालसा किसी को पाने की होती है, कोई हमदम, हमनवां, हमराही! कोई दूसरी चीज़ भी लालसा पैदा किया कर देती है अक्सर! जैसे धन-दौलत, शौहरत! वग़ैरह वग़ैरह! तो लालसा, एक मुक़ाम हांसिल होए पर, या तो घटने लगती है, या फिर ख़त्म हो जाती है, इस से आगे तो लालसा, रूप बदल लेती है, वो अति का रूप धारण कर लिया करती है!
और अब लालच! लालच! लालच कभी नहीं थमता! न कभी बूढ़ा हो होता, न कभी ठंडा ही होता! न कभी पूरा ही होता! अब भले ही, आपकी चाह पूरी हो जाए, लेकिन लालच, तब दोगुने वेग से और उकसाने लगता है! लालच बड़ा ही भयानक होता है! इसका अंत तो, ख़ाकनशीं हो कर ही होता है!
अब भला मैं लालसा और लालच क्यों ले आया इस ज़र्रो-ज़ारी के माहौल में! ले कर आना पड़ा! आना ही पड़ा!
हुआ ये, कि, यहां, लालसा और लालच, दोनों ने कर ली थी दोस्ती, मिला लिए थे हाथ! अब सोचिये आप! एक तरफ हाथ थामे लालसा! और एक तरफ हाथ थामे, वो लालच! खींचे ले जाए! विवेक, पांवों में बेड़ियां न डाल सके! वो गिड़गिड़ाए! अपना आखिरी हथियार ही इस्तेमाल करे! लेकिन! कहा चले उसकी! लालसा और लालच, अपने तूफानों में, कुछ नज़र ही न आने दे! अजी, हिलाये कांधों से उठाकर पूरा जिस्म ही! झुला दे! आगे धकियाए! अजी मैं किसी की न जानूँ! बस अपनी ही जानूँ और अपनी ही लिखूं! भला मैं क्यों कबाब में हड्डी आने दूँ?
लालसा ये कि ये ख़तम ही न हो! न सुन सकूंगा ये राग केदार! न देख सकूंगा ये नुमाइश-ए-हुस्न कहीं दुबारा! न देख सकूंगा ये थिरकन! लालसा, कि ये, चलती ही रहे! रात! कभी न बीते!
लालच! वो तो आप खुद ही समझ सकते हैं! कि, ऐसा बे-पनाह हुस्न! बे-नज़ीर हुस्न! क्या कीजै? आग सुलगती रहने दीजै? क्या कीजै?
अरे?
अरे? जाम लाओ? जाम लाओ! अभी! गला ख़ुश्क़ है! सांस लेने में तक़लीफ़ है! आब-ए-आब के तलबग़ार हो गए हैं अब हम! ऐसा ज़ुल्म न कीजै? पेश किये जाएँ अब तो! किये जाएँ पेश! ना! ना! और नही! जाम! कहाँ हैं जाम!
मुहब्बत से ख़तरनाक़ है उलफ़त!
और उलफ़त से ख़तरनाक़ रहमत!
रहमत! मतलब जान लीजै हुज़ूर! इल्तज़ा-ओ-गुज़ारिश है इस बन्दे की!
जान ही लीजै! कैसी रहमत! क्या रहमत!
अब तो रहम कीजै!
अब तो रहम कीजै??
और जैसे किसी ने मेरी सुनी!
किसी ने! पता नहीं किस ने! लेकिन किसी ने!
दो कनीज़ आयीं कमरे में! एक जाम लिए! एक सागर उठाये! उनको जैसे ही देखा, तश्नगी ने ने हलक़ में जैसे कांटे उपजाए! खखारा भी न जाए! तो तो दवा है! दवा! आतिश-ए-जिगर की बेहतरीन दवा! यूँ कहूँ कि, हर मर्ज़ की दवा है ये! ज़रा हलक़ तो तर कीजिये साहिब! फिर जानिये!
"भर दीजै!" कहा मैंने,
जोश भरा था! होश था नहीं!
व कनीज़, मुस्कुराई! जाम में पड़ती हुई शराब, अपना नूर-ए-हुस्न-ए-बूद-ए-ख़ाम से इठलाती हुई, अपना जिस्म लहराते हुए, महक़ बिखरते हुए, क़ैद होने लगी जाम में! मेरी नज़रें न हटीं! उस शोख़ हसीना के नश्त्री जिस्म से न हटीं नज़रें! हसीना कौन? जाम में क़ैद वो ज़ालिम, क़ातिल फ़रोश-ए-बाह'ज़्ज़ हसीना!
आगे बढ़ी कनीज़!
भरे जाम, शर्मा जी और कमल जी के! मैं खिसक के पीछे हुआ! उस पल, संगीत बंद हो गया! वो रक़्काशाएं, कोर्निश कर, लौट गयीं बाहर! उनके तेजी से ऊपर-नीचे होते हुए वो, गले में पड़े जवाहरातों को मैं देखता रहा!
शायद, कुछ देर के लिए आराम बख्शा गया था उन्हें!
आराम!
हाँ! और जी सच पूछो तो तो हमें कितना आराम पड़ा, मैं तो चिल्ला कर सर-ए-बाम, आराम! आराम! चीखता ही रहता!
सीने में धौंकनी कुछ शांत पड़ी!
आये शर्मा जी के पास, खिसकते हुए!
"अमा कैसे मिजान हैं?" पूछा मैंने,
"बहुत बुरे!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! तेज, खिलखिलाकर!
"कुछ अहम वजूहात?'' पूछा मैंने,
"इंतज़ामात!" बोले वो,
"इंतज़ामात?" कहा मैंने, चौंक कर!
"यहां रात बहक गयी है और आपको इंतज़ामात की पड़ी है?" पूछा मैंने,
"अरे!!" बोले वो,
"अरे?" पूछा मैंने,
"क़त्ल के तमाम इंतज़ामात!" बोले वो,
"ओ!! अच्छा!" बोल, मैं फिर से हंस पड़ा!
और तब लिया एक घूँट अंदर! उन्ह्ह!! गले में जैसे ठंडक पड़ी! जैसे मरते में जान आई! जैसे बेहोशी टूटी!
"ये है ख़ालिस अंगूरी!" बोला मैं, जाम चूमते हुए!
"हाँ! बा'ज़'हम-ए-नूरी!" बोले!
"अरे वाह! वाह! जो मैं भूले जा रहा था, पूरा कर दिया आपने!" कहा मैंने, उनके कंधे को जकड़ते हुए!
"अब इतना तो असर-ए-सोहबत आ ही जाता है!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"कमल?" बोले शर्मा जी!
"हाँ?" बोले वो,
"ठीक हो?'' पूछा शर्मा जी ने!
"बिलकुल!" बोले वो,
"ठीक ही रहो!" कहा उन्होंने,
"वैसे एक बात कहूँ?" बोले शर्मा जी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"संगीत की जान, यहां दिखी!" बोले वो,
"सो तो है ही!" बोला मैं,
"और एक बात!" बोले वो,
"बताइये?" कहा मैंने,
"उनके बदन को लय मैं कैसे ढाला गया है, क़ाबिल-ए-तारीफ़ है!" बोले वो,
"हाँ! रियाज़ करते हैं!" कहा मैंने,
"ये होता है जश्न! जिसे कहते हैं जश्न!" बोले वो,
"सच कहा आपने!" बोला मैं,
"कमाल है साहब!" बोले शर्मा जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो अब महफ़िल जवान हो चली थी! बाहर आतिशबाजी भी छिटपुट ही हो रही थी! हाँ, शोर, ढोल-ताशे, नगाड़े अभी तक बज रहे थे! बैठे बैठे वैसे हम भी ठोस अलसा से गए थे! सोचा बहार ही जा खड़े हो जाएँ, लेकिन जा नहीं पाये! हरदेव ने रोक लिया था, कुछ और मेहमान भी आने वाले ही थे, फिर से नाच-गाना होता और फिर कुछ खान-पान! हालांकि, अन्य बाराती खान-पीन से निबट चुके होंगे या अभी भी कुछ रमढ़ रहे होंगे! हम बैठे गए थे फिर! और तब, कुछ खाना-पीना लाया गया! हालांकि ये हल्का-फुल्का ही था, कुछ मीठे रसगुल्ले थे, बर्फी थी, रसमलाई थी, रबड़ी थी और कुछ अन्य मिठाइयां! मैंने बर्फी ली, एक बड़ा सा टुकड़ा, बर्फी ऐसी मुलायम थी, कि उठे ही न! पिस्तो से भरी पड़ी थी! स्वाद वाक़ई गज़ब था उसका! सभी ने थोड़ा बहुत खाया और फिर हाथ धो, बैठ गए वहीँ! इस बार कुछ नए मेहमान आ गए थे! करीब पांच के करीब! सभी शराब के उधारिया थे! लेकिन सभी, काबू में किये हुए थे अपने आप को! सिर्फ यही कमरा नहीं था जहाँ ऐसी महफ़िल सजी थी, बल्कि वहाँ तो और भी कमरे थे, आसपास से गीता-गाना बजती हुई आवाज़ें आ रही थीं!
"आइए?" बोला हरदेव! उठते हुए!
हम उठे तब, हरदेव के साथ ही रहना ठीक लगता था, जवाबदेही में वही जवाब दे दिया करता था, हमें तक़लीफ़ नहीं हुआ करती थी!
तावड़े साहब, किसी और के साथ मशग़ूल हो गए थे, उन्होंने हमें जाते देख, देखा तो था, हाथ हिलाकर, जैसे कहा भी था नमस्कार, और फिर हम जूते पहन, आ गए थे बाहर!
"कहाँ चल रहे हैं हरदेव जी?" पूछा मैंने,
"अरे साहब, खाना खा लीजिये, ये महफ़िल तो चलती ही रहेगी!" बोला वो,
बात तो सही थी! और अब भूख भी लगी थी! भले ही खाना प्रेतों का हो, लेकिन था तो उस वक़्त असली ही! उत्तर-प्रदेश में, जिला बदायूं में, एक ऐसी ही हवेली है, जो रात को जवान रहती है, आसपास के गांववाले ये जानते हैं, वे हवेली के प्रेत, भले हैं, शरीफ हैं, कोई भटका हुआ हो, तो रात गुजारने का अच्छा-खास इंतज़ाम करते हैं वो! यहां पर एक सरदार हैं, एक टोली के सरदार, निज़ाम शाह नाम है उनका, बेहद ही भले हैं! गाँव वाले उनका आदर किया करते हैं, ब्याह-शादी में, हवेली न्यौती जाती है पूरी! वहां भी ऐसा ही ज़ायकेदार खाना मिलता है! मैं वहां गया तो नहीं हूँ, लेकिन सुना है, जिनसे सुना है, वो क़ाबिल-ए-ऐतबार इंसान हैं!
तो जी, हम उनके साथ चले, वहां तो भीड़ लगी थी! लोग आ जा रहे थे, एक बात और, कोई औरत यहां नहीं दिख रही थी, शायद उनका इंतज़ाम कहीं और किया गया था! और ये अच्छा भी था! कम से कम इत्मीनान से सब बातें तो कर रहे थे, जा छलकाए जा रहे थे! दोस्त से दोस्त मिल रहा था, कुछ नए और कुछ पुराने! कुछ नए रिश्ते बन रहे थे, कुछ कारोबारी तो कुछ करीबी! कुछ की जानकारी में इज़ाफ़ा हो रहा था और कुछ का मक़सद पूरा हो रहा था!
"आइये!" बोला वो,
और हम जगह बनाते हुए, एक जगह चले, आया एक बरामदा, बड़ा सा, उसको पार किया, और ठीक सामने, एक चौड़ी सी जगह आई! इस जगह पर, मेजें बिछी थीं! लोगबाग खाना खा रहे थे, कुछ खा चुके थे, वे उठ रहे थे, कुछ हमारी तरह थे, जो अब आये थे! खाली बर्तन उठाये जा रहे थे, नौकर-चाकर, दौड़-भाग में लगे थे!
"यहां, यहां बैठिये इत्मीनान से!" कहा हरदेव ने!
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
और हम, वहीं बिछाई हुई कुर्सियों पर बैठ गए! हम बड़ी ही मस्त चल रही थी! ठंडी हवा! कमाल की बात ये, कि असल में वो सर्दी का मौसम था, लेकिन यहां सर्दी जैसे थी ही नहीं! यहां तो जैसे, कातिक का महीना हो, कुछ ऐसा मौसम था!
हम बैठे, तो नौकर-चाकर, हाथ धुलवाने के लिए, बर्तन ले आएं बड़े बड़े थाल दे, कटोरेनुमा बड़े बड़े से थाल, ये थाल मुग़लिया क़िस्म के से लगते थे, चांदी के चमकदार थाल से! हमने हाथ साफ़ किये अपने, एक नया सूती कपड़ा सा दिया गया, काले रंग का, उस से हाथ पोंछे, सभी को नया ही दिया गया था! ये एक ख़ास बात लगी मुझे! हाथ धो लिए तो नौकर-चाकर हट गए वहां से, और कुछ ही देर में, वहां और नौकर आ गए! एक अंगीठी सी लेकर, एक थाल सा लेकर, अंगीठी रखी गयी और साहब उस पर होने लगे सींक-कबाब तैयार! स ताज़ा ही था, मसाला कैसा हो, ज़्याका कैसा हो वग़ैरह वग़ैरह पूछा गया! हमने अपने हिसाब से बता दिया! और कुछ ही देर में, एक बड़ा सा थाल रख दिया गया, थाल में, एक बड़ा सा पत्तल रखा गया! ये पत्तल ढाक के पत्तों से बनाया गया था, पत्तल ताज़े पत्तों का था, बांस की खप्पचियां उनको बांधे हुई थीं एक चौकोर रूप में! अर्थात तीन फ़ीट चौड़ा और तीन फ़ीट लम्बा! बांस की खपच्चियों में पत्ते ऐसे फंसाये गए थे कि ये एक बड़ा सा थाल का रूप ले लेता था! अब रखी गयी कटोरियाँ उधर, सभी के लिए अलग अलग! उनमे परोसी गयी चटनियाँ! अलग अलग क़िस्म की चटनियाँ! साथ एम, प्याज के महीन टुकड़े, चुकंदर के, मूली के लच्छे, गाजर के टुकड़े, टमाटर और बड़े बड़े कागज़ी नीम्बू! कटे हुए!
अब अंगीठी में से, ख़ुश्बू ऐसी उड़े, कि अंगीठी में से ही उठा खाऊँ!इंतज़ार ही न हो! क्या बड़े बड़े टिक्के और क्या बड़े बड़े कबाब! आज के जो कबाब मिला करते हैं, वो तो शायद उनका मिनी, मिनी रूप भी नहीं! आज के दस-बारह कबाबों का एक कबाब! टिक्के ऐसे, कि जैसे कोई बड़ा पनीर का टुकड़ा! पनीर की छाजन लपेटी हुई थी उन पर! और जब दिए गए, तो दही के पानी में डुबोकर दिए गए! और जब ज़ायक़ा चखा! तो ओह हो!!
कहाँ स एलाउॅं उस स्वाद की उपमा!
कहाँ और कैसे करूँ तुलना उसकी!
मसाला कौन सा था, पता नहीं!
शायद आज कहीं नहीं मिलता!
ऐसा मसाला, कि स्वाद ऐसा, कि कब पत्तल भी चबा जाऊं, पता भी न चले! मुंह तो खुलने का नाम ही न ले! अदरक और लहसुन का स्वाद आ रहा था कबाबों में! जायफल और भुनी हुई अजवाईन का स्वाद भी पहचान गया मैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ बचा था, काली-मिर्च भी पकड़ में आ गयी, दखनी भी! दालचीनी और सराही-पीपली भी! लेकिन अभी भी पूरा नहीं समझ पाया था मैं! टिक्के ऐसे शानदार कि जैसे कड़ा मक्खन! उनका गोश्त पहले अच्छी तरह से तैयार कर दिया गया था, जिसे आज हम 'मैरीनेट' करना कहते हैं, ठीक वैसे ही! एक कबाब खत्म न होता कि दूसरा लग जाता! सींकें लग जातीं! साथ में ही, सुराही भी रखी थी, पानी के गिलास भी थे, मैं पानी पीता था एक दो घूँट और फिर से मढ़ जाता था!
"हरदेव जी!" कहा मैंने,
"जी, फ़रमायें?" बोला वो, सर आगे करते हुए!
"कबाब तो बहुत खाए!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"लेकिन ऐसे कहीं नहीं!" कहा मैंने,
"ज़र्रानवाज़ी है जी आपकी!" बोला वो, मुस्कुराते हुए!
"सच कह रहा हूँ!" कहा मैंने,
"ये रूहेल-सदीफ़ -कबाब हैं जनाब!" बोला वो,
"बेहतरीन!" कहा मैंने,
''लाजवाब! बस लाजवाब!" बोले शर्मा जी,
"दुम्बा है जी ये!" बोला वो,
"ओहो! तभी मैं कहूँ!" बोले शर्मा जी!
"जी!" बोला वो,
"हे? अहरोज़ा, ख़ुमास?" बोला हरदेव, एक नौकर से!
"हुक्म!" बोला वो,
और सर पर, टोपी कसे, दौड़ लिया वो एक तरफ!
"ये क्या मतलब हुआ, इसका मेरा मतलब?" पूछा मैंने,
"ये बात की मैंने, ये जो हैं न, ये कैशी लोग हैं!" बोले वो,
कैशी लोग?
मैंने तो न सुने कभी?
कहाँ होते हैं ये सब?
तब बाद में पता चला, ये जूनागढ़ के क़बायली लोग हुआ करते थे, अब कहीं नहीं यहीं, सब भेंट चढ़ गए बीमारियों की, बाद में, फिरंगियों के आने से, दूसरे लोगों के आने से! एक आता है, और दूसरा जाता है, फिर पहला कभी नहीं आता! यही दस्तूर है! दुःख होता है, ये चंद लोग थे, एक अलग ही संस्कृति! अब लुप्त! कहीं नहीं हैं अब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कबाब और टिक्के अपने मसाले के साथ खूब ज़ायक़ा बांधे हुए थे! जी नहीं भर रहा था! लेकिन फिर भी, बस कहना पड़ा! हालांकि, हरदेव ने और कहा कि और हो जाएँ, लेकिन अब बस! और उसके बाद, शामी-कबाब, दक्खन-कबाब, इमली-कबाब, शाही-कबाब वग़ैरह भ परोस दिए गए थे, अब हमने तीन जगह नहीं, एक ही जगह लिए वो! अब क्या करते हम भी! ये तो वही बात थी, कि शेर को मुलायम छौने का मांस दिखाया जाए और सामने से हटा लिया जाए! अब भाई वो शेर है, भले ही पेट भर जाए, नीयत से तो भूखा ही रहता है! अब हम शेर कहाँ, नीयत से तो भूखे थे ही, लेकिन अब फ़ितरत से भी भूखे हो गए थे! अपनी खूब हाह ले ली थी हमने फ़ितरत की!
तभी, वो कैशी नौजवान आया दौड़ा दौड़ा, इस बार एक बड़े से बरतन में, और जी, बरतन देखकर ही लगता था कि ये किसी अय्याशख़ाने से लाया गया है! बर्तन पर एक औरत बनी थी! उसी के मुंह से, शराब निकलती थी जामों में! मैं तो वो बर्तन देख कर ही हैरान हो गया था! अय्याशी की भी हद थी साहब वो तो! ये ज़रूर माना कि अय्याशी का कुछ क़तरा हमारे अंदर मौजूद था, लेकिन उस बरतन को देख, ये जाना जा सकता था कि ये तो अव्वल-दर्ज़ा अय्याशी थी! उस बरतन को उस औरत की कमर से पकड़ा जाता था, औरत के जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था, बस उसके जिस्म के कटाव-उठाव आदि ही थे, जिन्हें पकड़, वो बरतन पकड़ा जाता था! शर्मा जी तो बाक़ायदा हाथों में पकड़ कर, उस बरतन को उलट-पलट कर देखने लगे थे! हरदेव साहब, कबाब से जूझने में लगे थे! उनकी नज़र न थी हम पर! मैं जाम खींचे जा रहा था! कमल जी, जाम लिए जा रहे थे लेकिन नज़रें बरतन पर बनी थीं!
फिर शर्मा जी हँसे! रोक न सके अपनी हंसी! वो हँसे तो मेरी रुकी हुई हंसी भी कूद के बाहर आ गयी मुंह से, होंठों पर निशान छोड़ गयी थी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बनाने वाले ने भी क्या खूब बनाया है इसे!" बोले वो,
"हाँ! लेकिन देखने का तो है, दिखाने का नहीं!" कहा मैंने,
"अरे आज तो कोई भी उठा के ले जाएगा इसे!" बोले वो,
"हाँ! ये बात तो है!" कहा मैंने,
और अपना खाली जाम, फिर से भरा मैंने,
शर्मा जी ने भी भर लिया और कमल जी ने भी! शराब का खुमार चढ़ता तो था लेकिन टक्कर नहीं लग रही थी! अब हम ठहरे टक्कर से पहचान करने वाले! इसीलिए, चढ़ाये जा रहे थे जाम पर जाम!
और हमने, चार चार जाम खींचे, लगी ज़रा सी टक्कर! बस, इतना ही बढ़िया था, अब खाना हो जाए तो देखा जाए आगे!
"हो गए फ़ारिग!" बोले शर्मा जी,
"अभी कहाँ से! आइये ज़रा!" बोला हरदेव!
"चलिए साहब!" बोले शर्मा जी, उठते हुए!
हरदेव आगे आगे चलता रहा और हम उसके पीछे पीछे! कबाबों का स्वाद अभी तलक मुंह में आ रहा था! वो टिक्के अपनी लज़्ज़त बनाये हुए थे मुंह में! ज़ायक़ा अभी तक बाकी था!
और हरदेव, हमने ले आया एक ख़ास कमरे में, यहां, कोई मेज़ नहीं थी, यहां क़ालीन बिछे थे, इक्का-दुक्का लोग बैठे खा रहे थे वहां! नीचे ही साफ़-सुथरे दस्तरख्वान बिछे थे!
"आएं, तशरीफ़ रखें!" बोला हरदेव!
हमने एक ऐसे ही बड़े से, दस्तरख्वान के पास अपना डेरा, जा जमाया! बैठ गए! बैठ गया हरदेव भी!
"लगता है, सभी लोग फ़ारिग हो लिए!" कहा मैंने,
"ऐसा नही है, ये तुश-ए-ख़ास है साहब!" बोला वो,
अच्छा, अब समझ गया! ये जगह कुछ चुनिंदा ही मेहमानों के लिए थी! यहां जो भी आएगा वो ख़ास ही मेहमान होगा! हमारे तो सीने चौड़े होने लगे! पसलियां कन्धों से भी आगे को बढ़ने लगीं! चेहरा ऐसा हो गया जैसे हम सूबेदार हों कहीं के और हमारा उस वक़्त के दौर में, एक ख़ास ही मुक़ाम हो!
और फिर परोसा जाने लगा खाना! ऐसा खाना! ऐसा खाना तो कहीं देखा ही नहीं था! क्या क्या नहीं था उसमे! दही, आचार, चटनियाँ, सलाद, मक्खन, कई तरह का, आलू की सब्जियां, तरी वाले, सूखे वाले, दुरंगे, दम-आलू, बैंगन! कई तरह के, बुलबुली उड़द की दाल! अरहर की दाल, हलीम-बिरयानी, रोगन-क़ोरमा, भुना, दगीना-गोश्त, गोश्त-याखन, गोश्त-ययन! गोश्त-जालीशा, हरूज़-सालन-गोश्त! ज़र्दा, कौफलीना-बिरयानी! सादा चावल, लौंगी-चावल, बग़ाह-नूरानी-गोश्त! चाकस्त-कलेजी, कलेजी-सौंफी, गुर्द-ए-मर्ग़ू, खीरी-ज़ि'आलपोशी, सालन-ताब, रूह-ए-अफ़ग़ानी, कैजर-सीरी, फ़ु'आला पाये! खबूस रोटियां, रुमाली रोटियां, ज़ियाकर्ज़ई रोटियां, अफ़ग़ारी रोटियां! कश्मीरी रोटियां! और भी न जाने क्या क्या! हमारी तो आँखें ही घूम गयीं! एक आद ही पहचान पाये! क्या सालन साहब! और क्या गोश्त! ज़ायक़ा-ए-ज़नहुद! लाजवाबा! बेहतरीन! शानदार! ख़ुश्बू ऐसी, की आसमान में उड़ता परिंदा भी ज़मीन की तरफ रुख़ कर ले मुंह खोले! पेट भरा भी हो, तो फाटक खोल दे अपने! एक एक टुकड़ा भी खाओ, तो पता नहीं कितना ही जीम लो! गोश्त की ऐसी क़िस्में मैंने बस यहीं देखीं! बुलबुली दाल! साबुत उड़द! देसी घी और मक्खन से लबरेज़! उसमे पता नहीं कौन कौन से मेवे! मुनक्के! पता नहीं कौन सी हरी-पत्तियां! अरहर दाल ऐसी, की जुबां पर रख लो तो मुंद जाएँ आँखें! दही ऐसी, तीन तरह की! एक सफेद, चिट्टी! एक पीली और एक, मसाले वाली! वाह! सभी देग़ से बनाई गयी थीं! हिन्दुस्तान की ये विरासत तो शायद आज ख़तम हो चली है! तब समझ आया, की महलों और हवेलियों में, एक अलग ही ख़ास बावर्चीखाना काहे हुआ करता था! काहे बावर्ची रखा जाता था! काहे खानसामा इतना मशहूर हुआ करता था! हमें तो हरदेव बताता गया की फलां चीज़ ये है, और फलां चीज़ ये! नहीं तो हम, फ़क़त अंगूठाटेक ही थे वहां पर!
"हरदेव जी!" बोले शर्मा जी!
"जी!" बोला वो,
"भाई ऐसा खाना नहीं हुआ कभी नसीब!" कहा शर्मा जी ने,
"शुक्रिया साहब!" बोला वो,
"एक एक चीज़ नायाब है हमारे लिए तो!" बोले शर्मा जी,
"ऐसा न कहें हुज़ूर! आपकी ख़िदमत में, ये तमाम आजुफ़्त मौजूद है! हुक्म करें हुज़ूर!" बोला वो,
"आज तो अहसान कर दिया आपने हम पर!" बोले शर्मा जी,
"अरे नहीं साहब!" बोला वो,
"सच कहता हूँ भाई!" बोले शर्मा जी, एक बोटी चबाते हुए!
"यक़ीन करें हरदेव!" कहा मैंने,
"आप मेहमान बने हमारे! हम तो तभी क़ायल हो लिए थे आपके!" बोला वो,
"इस से बेहतरीन मेहमान-नवाजी नहीं की जा सकती हरदेव!" बोले शर्मा जी,
"ये तो आपका बड़प्पन है! नहीं तो हमारी बिसात क्या!" बोला वो,
"अरे नहीं! ऐसा न सोचें आप!" कहा मैंने,
तभी साथ में ही कोई आ खड़ा हुआ!
उसे देखा, वो कातिक था! मुस्कुराता हुआ! हाथों में, जाम थामे हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जी भर के खाया था हमने! भुक्खड़ों की तरह से लीला था सबकुछ! अब भले ही थोड़ा थोड़ा ही खाया हो, लेकिन खाया था ज़रूर ही! हाथ अपने आप ही चला जाता था चीज़ों पर! खबूस को कच्चे दूध से गूंदा गया था, ऐसी नरम रोटियां थीं कि मुंह में रखो तो घुलें!
खा-पी कर, हुए हम तो फ़ारिग़! अब डकारों का दौर हुआ शुरू! भई पूछिए मत, कितना जमकर खाया हमने! और तब, तब पान दिए गए हमें! क़िस्म क़िस्म के पान! हाज़मे के लिए, ठंडेपन के लिए, जाज़म-पान, बिलौरी-पान, अल-ख़ास-पान वग़ैरह! मैंने तो एक बीड़ा लिया और सट्ट से सरका लिया मुंह के कोने में! शर्मा जी ने गुलुकंदी-पान खाया तो कमल साहब ने, जाज़मी-पान!
"आएं हुज़ूर, इधर आएं!" बोला वो,
वो खड़ा हो गया था पहले से ही,
हमने तब अपने जूते पहने, डकारों ने, पेट का कोना कोना नगाड़ा बना दिया था! एक ख़तम हो तो दूसरी चालू हो जाए!
पहने जी जूते हमने, और किसी तरह से अपने को काबू में रखते हुए, चल पड़े साथ हरदेव के! रौनक़ अभी तलक क़ायम थी वहां! लगता था कि जैसे गाँव के गाँव भी न्यौत दिए गए हों! दूसरे खाने में, एक जगह, सभी तबक़े के लोगों को खाना खिलाया जा रहा था! सभी के सभी खुश थे! शोर ऐसा मचा था जैसे कि मेला सजा हो! हम उस तरफ से न निकल कर, दूसरी तरफ से चले थे! सामने ही एक छुपाल सी पड़ती थी, उसमे घुसे, पहले सीढ़ियां चढ़े, और फिर, सीढ़ियां उतरे! एक दालान में आ पहुंचे, यहां चार जगह छोटे छोटे से मंदिर से बने थे, दीये जल रहे थे उनमें!
"आइये!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हमने वो दालान पार किया, वो दालान सुनसान सा पड़ा था, वहां कोई न था, कोई भी यही, न कोई बाल-बच्चा आदि ही! जगह साफ़-सुथरी और एकांत में थी! हाँ, एक नीम का पेड़ ज़रूर था, जिस पर, एक नीले से रंग का हण्डा जला रहा था, अब अपनी उम्र के चौथेपन में था वो, सारी जवानी रात को निसार कर दी थी उसने भी! फड़फड़ाता और कभी सुस्त पड़ जाता! कभी जैसे अपनी बची-खुची ताक़त से, गरदन उठा लेता था! हम उसी हंडे की मद्धम रौशनी में आगे बढ़ते जा रहे थे!
"हरदेव?" कहा शर्मा जी ने,
"जी, साहब?" बोला वो,
"ये कौन सी हवेली है?" पूछा शर्मा जी ने,
"सेठ छज्जू मल की रुतबी हवेली!" बोला वो,
"रुतबी हवेली! वाह जी! जैसा नाम, वैसी ही है!" बोले शर्मा जी,
सच में, सच में ही वो रुतबी हवेली ही थी! अपने शान-ओ-शौक़त में किसी महल से तो कम न थी! ख़ूबसूरत ज़मीन उसकी! ख़ूबसूरत फ़िज़ा उसकी! पेड़, पौधे! घास और मैदान वो, जहां हमने खाना खाया था!
"नवाब साहब का आना न होगा?" पूछा मैंने,
"जी वो तो लौट-फिर गए!" बोला वो,
"अरे? कब?" पूछा मैंने,
"वो बग्घियां रास्ता बदले थीं न? इसीलिए!" बोला वो!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
अब आया समझ! वही मैं सोचूं कि हमारा रास्ता अलग और वो रास्ता अलग क्यों! अब आया समझ में! और वैसे भी वो तो नवाब साहब थे! कर गए लौट-फेर! उन्हें क्या कमी थी साहब! उनके यहां तो ऐसी ही देगें रोज चढ़ा करती होंगी! उनके मुलाज़िमात आये थे सभी, तो शिरक़त की उन्होंने! मैंने यही सोचा था उस वक़्त तो!
लेकिन! लेकिन, क्या ऐसा ही था?
नहीं! ऐसा नहीं था!
भला, ऐसा क्यों नहीं था?
बताता हूँ! ये भी बताता हूँ! ये भी एक गूढ़ रहस्य है इन प्रेतों का! जानते हैं जब व्यक्ति प्रेत बनता है, तो उसको पूर्व-जन्म की विस्मृति-दोष लगा जाता है! ये दोष मेरा अपना ही शब्द है, मात्र समझाने के लिए! अब नवाब साहब आये, या नहीं आये! मुझे यही जानना था तो, इसका मतलब क्या था? मतलब था, नवाब साहब आये होंगे! पक्का आये होंगे! लेकिन, न हरदेव ने देखे थे, न ही देख पाया था! तो क्या नवाब साहब भी प्रेत थे? जी नहीं! वे नहीं थे! वे मुक्त थे? निःसंदेह! वे मुक्त थे! नहीं तो, वे अवश्य ही नज़र आते! अवश्य ही! ताने-बाने का हर मनका, हमारी आँखों के सामने से गुज़ारना, यही तो मक़सद था असल! तो ये मक़सद किसका था? कौन लिए घूम रहा था ये ताना-बाना?
बताइये?
क्या बता सकते हैं?
सिर्फ एक! सिर्फ एक ही! और वो, बस हरदेव!
ये हरदेव ही था जो मिला था रौशन को! जिसमे उसको पश्मीना शॉल दिया था निशानी के तौर पर! वो चाहता था कि रौशन उसका मेहमान बने! लेकिन नहीं! मैंने नहीं बनने दिया! तो क्या हरदेव ये नहीं जानता था?
नहीं! वो सब जानता था! सब! शुरू से लेकर, आखिर तक!
और शुरू तो सब हो ही गया था! अब हम, पौन की स्थिति में थे, शेष अब किसके हाथ में था? स्वयं हरदेव के! इस पौन के बाद का शेष वो कैसे समाप्त करता है, अब मुझे इसका इंतज़ार था! तो हम, उसकी काट नहीं करते थे, उस से प्रश्न सिर्फ वही करते थे, जो वो जानता था, वो नहीं, जो वो नहीं जानता था! वो उन सभी के साथ क्या हुआ, ये भी जानता था, क्यों हुआ, ये भी जानता था, कब अंदेशा था, ये भी जानता था! नहीं जानता था वो तो ये, कि उसको ये भान ही नहीं था, कि अठारह सौ सतत्तर में, ग्यारह अगस्त की रात के बाद, कितना वक़्त गुज़र गया था! बस, वो ये नही जानता था! क्या मैं समझा नहीं सकता था> समझा सकता था, क्या वो समझ नहीं सकता था?
हाँ!
हाँ, वो नहीं समझ सकता था! उसको यक़ीन ही नहीं होता! हम इंसानों में एक बहुत ही कच्ची सी बात ये है, कि हम, अपनी आँखों से प्राप्त की हुई जानकारी को, पुष्ट एवं अंतिम मान लिया करते हैं! उसी समानावस्था के कारण, हमारा मस्तिष्क, उसी जानकारी के आधार पर, विश्लेषण कर दिया करता है! उदाहरण के तौर पर,
दाह-संस्कार में, लकड़ियाँ ही क्यों प्रयोग हुआ करती हैं, जबकि कोयला पर्याप्त मात्र में उपलब्ध है? सस्ता भी पड़ता है? फिर क्या कारण है?
है! एक बड़ा कारण है! और वो ये,
कि कोयले की आग, लकड़ी की आग से शीतल हुआ करती है! कोयला समताप पर जलता है, अर्थात, कोयले के जलने के मानक को, घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता! चाहे आप कितना ही और कृत्रिम ईंधन झोंक लीजिये! परन्तु लकड़ी, उसका मानक घटाया या बढ़ाया जा सकता है! ईंधन झोंका जाता है! घी, सामग्री आदि आदि! लकड़ी में, प्राकृतिक तेल मिलता है, कोयले में नहीं, कोयला विषैला होता है, लकड़ी नहीं!
परन्तु मस्तिष्क?
मस्तिष्क दोनों ही प्रकार की आगों को, एक समान ही मानता है! कारण? कारण ये, कि दोनों ही जलाते हैं! पीड़ा पहुंचाते हैं! क्या सूर्य का ताप नहीं जलाता? क्या गरम पानी नहीं जलाता, पीड़ा नहीं पहुंचाता?
मस्तिष्क!
ये ही तो खेलता है हमसे!
होता कुछ और है, ये समझता कुछ और है!
देखता कुछ और है, दिखाता कुछ और है!
ये सूक्ष्म ज्ञान है, तत्व-ज्ञान का कुछ अंश!
"आएं इधर, इधर से!" बोला हरदेव!
"चलिए!" कहा मैंने,
"हाँ, यहां सीढ़ियां हैं, आराम से चढ़ें! आएं!" बोला वो,
वो सीढ़ियां चढ़ पड़ा, और हम भी, पीछे पीछे उसके!
ऊपर आये, ऊपर आये तो वहाँ, कुछ लोगबाग बैठे थे, आराम कर रहे थे, कुछ बतिया रहे थे, हल्का सा प्रकाश था वहां!
"आएं, इधर!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वो फिर से सीढ़ियां चढ़ा, हम भी चढ़े!
यहां भी एक दालान सा आया! आसपास, खाली जगह थी, मेहराबदार जालियां लगी थीं! वहां से दूर गाँवों का नज़ारा दीख रहा था! हम शायद हवेली के पीछे थे, ठीक पीछे!
"उधर!" बोला वो,
और हम चल पड़े, उस दालान से को पार करते हुए, आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसको पार किया, तो एक कमरा आया, कमरे के बाहर, एक हण्डा जला था, अभी भी, एक गोल से चबूतरे पर, उसकी रौशनी भले ही मद्धम हो चली थी, लेकिन कुछ जान बाकी थी उसमे, वो कक्ष ऐसा था कुछ, एक बड़ा सा कक्ष, जिसमे घुसने के लिए दो बड़ी सी चौखटें थीं, चौखटों के बीच में पर्दे लगे थे, पर्दे में रस्सियाँ बाँधी गयी थीं, वो उनसे ही हटता और बंद हो जाता था, एक चौखट का पर्दा बंद था एक एक का हल्का सा खुला, हम यहीं तक आये थे!
बाहर, दो आदमी खड़े थे, उनके साथ ही, दो मूढ़े भी रखे थे, वे शायद बैठ जाते हों उन पर,
"आइये, अंदर आइये!" बोला वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
और हम अंदर चले, अंदर आये तो दो पलंग पड़े थे उसमे, पलंगों पर, बाक़ायदा बिस्तर बिछा था, नीले रंग की चादरें पड़ी थीं उन पर, ऊपर की तरफ, लकड़ियों से बना एक चौखंटा सा था, शायद उस पर मच्छरदानी डाली जाती हो, लेकिन अब नहीं थी वहां, कमरे में, दो बढ़िया सी लालटेनें जली थीं, लटकी हुईं थीं, खूंटियों से, हल्की रौशनी में जल रही थीं वो!
"आये, अब आराम करें!" बोला वो,
वैसे आराम की ज़रूरत तो थी, बैठे बैठे हम थक गए थे, थोड़ी कमर सीधी हो जाती तो कुछ आराम पड़ जाता! मैं बैठ गया पलंग पर, जूते खोल दिए, शर्मा जी भी बैठे और कमल जी ने, साथ वाले पलंग पर टेक लगा दी!
"कोई ज़रूरत हो, तो बता दीजियेगा!" बोला वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
और तब हरदेव, सुस्ताई सी चाल से, बाहर के लिए लौट पड़ा! जाने से पहले वो रुका, मुझे देखा, नहीं मुस्कुराया, ग़मगीन सा लगा था! और फिर, सर एक तरफ कर, गया बाहर, बाहर जाते ही, आसमान को देखा, और लौट पड़ा वापिस!
सब समझा गया था मुझे!
वो हरदेव! सब समझा गया था!
मैंने घड़ी भी नहीं देखी तब!
जानता था, अब बस कुछ ही देर और!
कुछ ही देर का खेल नुमाया है सामने, इन आँखों के!
ये तो, रोज का दस्तूर है यहां! रोज का!
रोज महफ़िल सजती है! रोज बरात निकलती है! रोज देगें चढ़ा करती हैं! बस, मेहमान ही कम आते हैं! या फिर, शायद हम ही अलग क़िस्म के से मेहमान थे उस रात! शायद, ऐसा ही था!
आँखों में मेरे नींद नहीं थी! शर्मा जी और कमल साहब, सर के नीचे, कोहनी रख, इत्मीनान से सो रहे थे, उनींदा भी हों तो होश क़ाबिज़ नहीं थे उनके! एक मैं, मैं ही जाएगा था! मैं अनजान नहीं था कि क्या होने वाला है! पर्दा-ए-सहर, बस कुछ ही देर में, पड़ने वाला था और ये सारी किरदारी, खेल, सब ख़तम हो जाता! स्याह अंधेरों में लौट जाते थे सभी बाराती और घराती! न कोई फ़रमाईश ही बाकी थी, न कोई चाह! जैसे, इसी को अपना मुस्तक़बिल समझ बैठे थे ये सभी! न हरदेव ने ही कुछ बताया था और न ही किसी और ने! मेरी और किसी से वाक़फ़ियत थी नहीं! कोई और, यक़ीन इतनी जल्द, न जाने करता भी या नहीं मुझ पर!
दूर, पूर्वी क्षितिज पर, बस कोई एक आद घंटे में, सूर्यदेव प्रकट हो जाते! ये सारी, क़ायनात, इस रात की क़ायनात लौट जाती वापिस अंधेरों में! रह जाते तो कुछ बेज़ुबान पत्थर, कुछ मिट्टी के ढेले और बियाबान! और कुछ नहीं!
मैं उठा, दोनों को देखा, कमरे में दक्षिण की ओर क्ला, एक खिड़की थी, पल्ला आधा ढका था उसका, सलाखों में से उंगलियां डालकर, उसको बाहर खिसकाया, चूं की आवाज़ करता हुआ, वो बाहर की पर सरक गया! मैंने नज़र भरी बाहर! स्याह अँधेरा था, हाँ, कुछ ढोले-ताशे बज रहे थे अभी भी, लेकिन अब जैसे वो, फीके, लम्हा दर लम्हा, फीके हुए जा रहे थे! उनकी जान जैसे, सूखे जा रही थी!
मेरी नज़रें, बाहर जैसे कुछ टटोल रही थीं, आसपास, बड़े बड़े से पेड़, पेड़, जो उस स्याह अँधेरे के दोस्त थे, राज़दार थे, जैसे मुझे ही देख रहे थे, देख रहे थे, कि शायद बरसों में पहली बार ऊपर, इस मंजिल पर, कोई खिड़की खुली है, मेरा अक्स, भले ही स्याह दीख रहा हो उन्हें, दीख तो रहा था, खिड़की से बाहर रौशनी, आज उसका दायरा बढ़ गया था! आज वो, खिड़की से बाहर जा कूदी थी! जहाँ तक जान थी, नज़र में भर, कुछ दिखा ही रही थी, जहां कमज़ोर थी, वहीँ घुटने टेक दिए थे उसने! मैं ज़मीन नहीं देख पा रहा था, वो काली पड़ी थी बिलकुल! यकबयक,एक सर्द जा झोंका आया, और खिड़की के रास्ते अंदर घुसा, मैं बीच में आ गया था, मुझे अपने आग़ोश में लपेटता हुआ पीछे निकल चला! मैंने पीछे देखा, लालटेनों की बत्तियां लपलपा उठी थीं!
मैंने फिर से नज़रें नीचे लगा दीं अपनी!
कुछ नज़र आया! कोई टहलता हुआ!
मैंने ग़ौर से देखा, कोई चहलक़दमी कर रहा था!
कौन है वो?
क्या मैं जानता हूँ उसे?
क्या वो मुझे जानता है?
कौन है?
उस टहलने वाले ने, खुद को रोका और उस खिड़की के नीचे से मुझे देखा! एक लम्हे भर के लिए वो चेहरा चमका!
हरदेव!
वो हरदेव था! शांतचित्त सा! परन्तु उदास! देह से मज़बूत लेकिन अंदर से टूटा हुआ जिस्म! मुस्कुराहट, जैसे भूल चुके थे उसके होंठ! मैं पलटा! जूते पहने झट से, और चला बाहर! उतरा सीढ़ियां, नीचे उतरा, दालान में आया, रास्ता दिखा, घुसा, सीढ़ियां आयीं, उतरा, वो बियाबान आया नज़र! मैंने ऊपर देखा, खिड़की अभी बाएं थी! रौशनी निशानदेही कर रही थी उस जगह की, मैं दौड़ सा पड़ा उधर के लिए! आया उधर, कोई दिखा मुझे, एक पेड़ के नीचे! मैं चल पड़ा उधर!
और उसको देख, रुक गया!
ये...?
ये हरदेव है?
जिगर की जगह, एक बड़ा सा छेद.........ज़ख्म......खून रिसता हुआ..........ज़ख्म अब..............काला पड़ चुका था..........
उसके सर पर, अब वो भव्य सी.......टोपी नहीं थी...........हाथ में तलवार भी नहीं.............न कमरबंद में, कोई खंजर ही....!
बाल बिखरे हुए थे..........
बाएं कंधे पर, एक गहरा ज़ख्म था, हड्डी दीख रही थी उसकी...........
तभी.........
तभी मेरे कानों में, ढोल-ताशे की आवाज़ गूंजी...........
इस बार, इस आवाज़ ने, जैसे मेरा सीना फाड़ दिया...........
मैं आगे बढ़ा, कुछ क़दम और रुका..............
बाएं से, कोई आया,
ये कौन?
खून से नहाया हुआ, बालों से एक आँख और नाक ढकी हुई..............कोई हथियार नहीं हाथों में, बस.......एक...सांटा.........
"वासदेव............." मेरे मुंह से अनायास ही निकला,
अचानक ही,
धमाका हुआ!
वो जगह, न पड़ी रौशनी में, उस रौशनी में, पीछे, हरदेव के पीछे और भी दिखे मुझे...........शायद.......कातिक और वो चंद...........मुलाज़िम...........जिनसे मेरा साबक़ा पड़ा था...........उस रात.............बारात के रात.....
जी मिचला सा गया मेरा........
उबकाई आने लगी...............ये.............?.............क्या है..........क्या हुआ था?.......क्या?


   
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श्रीशः उपदंडक
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वक़्त थम सा गया था, जैसे गुबार के पीछे से सब नज़र आ गया था! मैं सभी को एकटक देखे जा रहा था, उन पर जो बीती थी, वो बेहद ही नृशंस रही होगी, अंदाजा लगाया जा सकता था, लेकिन ऐसे शांत मौके पर, ऐसे विवाह के मौके पर, ऐसा क्या हुआ था जिसकी वजह से, ऐसा सबकुछ हो गया? मेरी तो पूछने की हिम्मत भी न पड़ रही थी, न जाने क्या क़हर बरपा था उन पर, लगता था कि जैसे किसी को नहीं छोड़ा गया हो, लेकिन........फिर भी एक बात, जो दिमाग़ में घुल नहीं रही थी और पेट में पच नहीं रही थी, यहां हमने, फौजी टुकड़ियां देखी थीं, मुस्तैद, हथियारबंद, चुस्त और हुक्म बजाने को तैयार, तो ऐसा फिर क्या हो गया था? क्या कोई डकैती पड़ी थी? इसकी भी उम्मीद न के बराबर ही थी, डकैती ऐसी जगह पड़ना, नहीं, हलक़ से नीचे न उतरने वाली बात थी, किसी भी डकैत की इतनी हिम्मत तो नहीं पड़ती कि उस डकैती का ऐसा ख़ौफ़नाक अंजाम हो, बंजारे आदि का भी मामला नहीं लगता था, अब भले ही पूरा टोला का टोला ही क्यों न टूट पड़ता? तो डकैती का ख़याल और अंदेशा, मैंने दरकिनार कर दिया था फौरन ही, ऐसा तो हरगिज़ नहीं होता! और हो भी नहीं सकता था!
तो फिर?
क्या कोई विद्रोह था? कोई बग़ावत?
इसकी उम्मीद भी कम ही थी, नहीं, ऐसा होता अगर, तो ऐसा नहीं है, कि इसकी कुछ भी ख़बर अंदरूनी मामलात के वज़ीर साहब को मालूम न हो, कम से कम, वो और भी फ़ौज तैनात कर सकते थे? इतना तो तय था ही? और फिर, ये ब्याह किसी मामूली इंसान के बेटे का नहीं था, वो ख़ारज़ा मामलात के एक ऊंचे ओहदेदार का था, एक रसूखदार का, तो इसकी भी गुंजाइश, न के बराबर ही पेश आ रही थी! अगर गिनती की जाए, मोटे टाऊट पर, तो कम से कम उन टुकड़ियों में, डेढ़ सौ से दो सौ सिपाही तो होंगे ही, और यहां कोई ऐसा भी नहीं दीखता था, जो तलवारबाजी के हुनर से अलहैदा ही हो? तो उन दो सौ सिपाहियों को हलाक़ करना, इतना आसान भी न था!
तो आखिर, वजह क्या रही होगी?
तो क्या कोई धमाका?
या असलहा-बारूद में चिंगारी भड़की थी?
मान भी लिया जाए कि हाँ, तो वो असलहा-बारूद तो यहां था ही नहीं?
क़त्ल-ओ-ग़ारत कहाँ हुई थी? यहां? हाँ, यहां!
वहां तक तो, सब सलामत ही थे? हम सभी ने देखा था! सभी हंसी-ख़ुशी से थे, नाच-कूद रहे थे, जश्न मना रहे थे! हो-हुल्ला,शोर-गुल्ला, सब मचा था, तो यहीं हुई वो रात काली! ठीक इसी जगह! इसी जगह हलाक़ किये गए थे ये सब के सब! हाँ! अब साफ़ था! ये तो सरासर दीगर हवाल था, जो पता चलता था! जो कुछ भी हुआ था, वो यहीं हुआ था! ठीक इसी रुतबी हवेली में!
अब, जब, सवालात उपजते हैं दिमाग़ में, तो उनकी नयी नयी पौध भी साथ साथ उपजने लगती है! सवालात भी ऐसे, जो बाल की खाल ही मांगे! न मिले तो जबड़ा भींचो! हाथ रगड़ो या बाल खींचो! या तो मिल जाएंगे जवाब या फिर, खड़े रह जाओगे, अँधेरे में ढूंढते हुए उनके जवाब!
मेरा दिमाग़ उस वक़्त, कलाबाजियां खाता हुआ, आगे आगे भागा जा रहा था! कि मिल जाए कुछ ऐसा पुख़्ता, जो दे सके जवाब!
तभी सबसे अहम सवाल दिमाग़ में आगे आया!
दिमाग़ में आया तो सीधा, ज़ुबान पर दर-आमद हुई उसकी!
और हलक़ की आवाज़ के साथ, पेश हुआ मेरा सवाल!
"वचन सिंह?" पूछा मैंने,
दबी दबी सी आवाज़ में,
"नहीं.....!" सभी ने एक साथ कहा!
आवाज़ गूँज उठी थी उनकी! नहीं बोलते हुए! मेरे तो गरदन के रोएँ भी सिहर उठे थे उनकी वो ज़र्द और सर्द सी नहीं सुन कर!
"जनाब, खाखोड़?" पूछा मैंने,
"नहीं.....!" फिर से सभी की एक ही आवाज़!
इस बार मैं काँप सा गया! कितनी कड़वाहट थी जवाब में उनके!
कड़वाहट, तो ज़रूर थी, लेकिन, उसमे, एहसास था, एक हार का! हार! शायद जो हार वो हार गए थे! वो हार, जिस से वो हारे, उसी हार की बची हरारत लिपटी हुई थी उनकी इस बार की नहीं में!
लेकिन!
अभी तक, मुझे बू नहीं आई!
ज़रा सी भी!
ना! कोई बू नहीं! तब तक, कोई बू नहीं आई!
बू, उस वजह की! वजह उस वजह की, जिसकी वजह से ऐसा सब हो गया! नहीं आई थी अभी तक वो बू! कौन हो सकता था? किस वजह से हुआ? क्यों हुआ? नहीं पता था अभी तक मुझे!
"हरदेव?" कहा मैंने,
"सिसौदिया!" बोला वो,
लहजा बदल गया था उसका!
ना! कड़वा नहीं कहूँगा! नहीं! कड़वा लहजा हरगिज़ नहीं था! बस कुछ, जतला रहा था वो! कुछ ऐसा, जो नहीं जतला सका था आज तलक किसी से भी! शायद, हम पहले थे! पहले, उनकी उस रात के, बारात के कुछ ख़ास मेहमान!
:हाँ, हरदेव सिसौदिया!" कहा मैंने,
"जी.........." बोला वो, और इस बार!
इस बार, पहली बार उसकी आवाज़ में लरज आई!
पहली बार मैंने उस जैसे इंसान को, टूटते हुए देखा!
देखा उसका खोखलापन!
देखा उसका बोदापन!
और सुनी, रुंधे हुए गले से निकली हुई आवाज़!
सुनी, एक रौबदार आवाज़, कैसे, जान से जुदा हो जाती है!
जाना, जाना कि अंदर से, आंसू, कैसे पिघला दिया करते हैं एक मज़बूत इंसान को भी!
आंसू! हाँ, आंसू!
वो मज़बूत था! बेहद मज़बूत!
क्यों कह रहा हूँ उसे मज़बूत?
कह रहा हूँ! बे-वजह तो हरगिज़ नहीं!
आवाज़ में उसकी, लरज थी!
लरज, शायद मज़बूरी की!
लरज शायद, अपनों से अलहैदा होने की!
लरज, शायद, पहली बार!
पहली बार किसी को अपनी दास्तान सुनाने की!
लेकिन!
फिर भी!
हरदेव सिसौदिया! वो सरकारी मुलाज़िम! वो ज़िम्मेवार मुलाज़िम! जज़्ब कर गया अपने आंसू! कर गया जज़्ब! अब इसे, मज़बूत न कहूँ तो क्या कहूँ?
क्या मैं हूँ ऐसा मज़बूत?
या, क्या आप?
मुमक़िन है, आप हों! ये मुमक़िन है!
मुझे, अपने पर ज़रा शक़ है! कुछ है शुबहा!
कह नहीं सकता, पक्का तो नहीं! कि मैं हूँ मज़बूत! उस, उस हरदेव सिसौदिया के मानिंद!
उस रात!
उस पहर!
न जाने क्यों! पता नहीं, न जाने क्यों?
हवा का रुख़, मेरी जानिब हो चला था! मुझसे, टकराये जा रही थी वो हवा! पेड़ों के पत्ते, हिलने लगे थे, आंधी आएगी, आसार तो लग रहे थे! लेकिन एक आंधी, उस रात तो ज़रूर आई थी! आई थी, जिसे मैंने इन सफ़ों पर उतारने की कोशिश की! आई थी आंधी उस रात!
"जी?" वो फिर से बोला,
इस बार उसके, उस 'जी' ने, मेरा जी चाक़ कर दिया! वो, हरदेव, हरदेव सिसौदिया! अभी भी, अदब के डोरे से बंधा पड़ा था! मेरा दिल, धक-धक! तेज, तेज! और तेज! होंठ सूखने लगे थे! आँखें, जैसे जम गयीं थीं उसके ऊपर! उफ़...कैसे लिखूं..............


   
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श्रीशः उपदंडक
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हवा में कांटे भी हुआ करते हैं, ये तो पहली बार जान रहा था मैं! हवा  के वो झोंके, चुभ रहे थे, वो हवा किसी हक़ीक़त को अपने आग़ोश में क़ैद किये जैसे मज़बूर किये जा रही हो, कुछ सवालों के अंधेरों से उजाले में लाने के लिए! पेड़ों के पत्ते, सांय-सांय सी उस हवा में, कल-कल करके, जैसे उकसा रहे थे! पीपल के पत्ते, खरल-खरल कर, जैसे अपनी ही एक ज़ुबान में, सवाल पर सवाल दाग़े जा रहे हों! पलकें मूंदने से सूरज नहीं छिप जाता! ठीक वैसे ही, वो सवाल दिल में जैसे सब्बल पर सब्बल बजाए जा रहे थे! सवालों के सब्बल, हक़ीक़त को कब उजागर करें, बस, यही तो इंतज़ार था! एक यही इंतज़ार अब बाकी था! मैंने सर घुमाकर, पीछे देखा, ऊपर दूसरी मंजिल की वो खिड़की खुली थी अभी, हवे ने उसको नहीं डसा था, वो तो जैसे उस वक़्त, दो आयामों के बीच की सुरंग बनी थी! एक आयाम, जिसमे मैं खड़ा था और वक आयाम जिसमे वो खड़े थे! फ़र्क़ इतना था, मेरे पास धड़कता दिल था, वो रगें थीं जिनमे मेरा लहू बह रहा था, वो जिसमे था जो अभी मौत के उस फाटक से नहीं गुजरा था, जहां से सारा हिसाब बराबर हो जाता है! मैं तो अपने आयाम में, मौजूद था! इस आयाम से उस आयाम के बीच, जैसे झूल रहा था! मैं सभी को देख रहा था, और सभी मुझे! फिर भी, ना-उम्मीदी, मेरे संग ही लगी थी! हरदेव ने क्यों कुछ नहीं कहा था? क्यों नहीं कहा था या पूछा था कि बस, हम थक चुके हैं, थक चुके हैं इस डगर पर रोज क़दम डालने से, क्यों वे एक डगर को नापे जा रहे हैं, ढाई सौ सालों से? बे-मक़सद? किस वजह से?
"जी?'' उसकी, फिर से, टीस से भरी, वो आवाज़ गूँज पड़ी!
"हरदेव?" बोला मैं,
"जी?'' फिर से बोला वो,
"उस सहर का इंतज़ार है?" पूछा मैंने,
चुप वो!
चुप सभी!
जैसे मैंने, उनके अस्तित्व को खतम करने वाला सवाल ही दाग़ दिया हो!
"बताओ? है इंतज़ार उस सहर का?'' पूछा मैंने,
चुप! कोई प्रतिक्रिया नहीं, किसी की भी!
"हरदेव! रोजाना की तरह बस सहर होने को है! फिर से वही डगर! फिर से वही सफ़र! सोच लो हरदेव!" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
अब मैंने और नहीं पूछा!
अब उनकी इच्छा, मैं ज़बरदस्ती करने वाला कौन? कोई नहीं! वे नहीं जाना चाहते, उनकी मर्ज़ी! मैं नहीं कहूँगा!
मैं आगे बढ़ा, उनको पार करता हुआ, चला हरदेव के पास, कुछ पहले ही खड़ा हो गया, जानने को, वो वजह, जिसकी वजह से ऐसा हुआ था! ये सब, कैदी बनकर रह गए थे!
मेरी बातें उस से शुरू हुईं! और मुझे पता चला एक राज़! एक वजह! जिसकी वजह से, इन सभी का ये हश्र हुआ था!
और उसका मूल कारण वही था, सत्ता! सत्ता का लोभ, संवरण एवं लालच! ये कारण, न जाने कब से ऐसी हत्याकांडों का कारण रहा है! ये हर युग में, हर संस्कृति में, सदैव ही विद्यमान रहा है!
और कुछ ऐसा ही कारण यहां भी था!
मनसबदारी! चूंकि, ये तो मुग़लों की ही देन थी, काफी समय तक व्याप्त रही! लेकिन मुग़लों के पतन के साथ साथ, इसका पतन पूर्णतया न हो सका! एक मनसबदार को आप आज, एक आई.ए.एस. कह सकते हैं! इनकी नियुक्ति सीधा दरबार से ही की जाती थी, ये मनसबदार, कहने को तो, सीधा ही दरबार के लिए जवाबदेह थे, लेकिन सामंतवादी रुख इन्होने अपना लिया था! ये अपनी जागीर को, ठीक वैसे ही चलाया करते थे जैसे कि स्वयं कोई मनसबदार न होकर, स्वायत्त शासन के हक़दार हों! ये मनसबदार, शासन की सबसे अहम कड़ी हुआ करते थे! हाँ, चापलूसी आदि से भी मनसबदारी हांसिल की जाती थी, एवज भी दिया जाता था! ऐसा हर शासन में होता रहा है, आज भी है, इसमें कोई नयी बात नहीं! मैं इसको मनसबदारी शब्द से पारिभाषित कर रहा हूँ, उस समय इसके लिए कोई अलग मानक हो, तो वो क्या था, पता नहीं, मुझे जो बताया गया, समझाया गया, वही बता रहा हूँ!
कदम्म, जो कि उस वक़्त सिंधिया राज में, एक ऊंचे पद पर पदासीन थे, प्रशासन में, उनकी तीन पुत्रियां थीं, कदम्म मूल रूप से मराठा थे, कोई पुत्र नहीं था, इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था, परन्तु, उनका मान-सम्मान बहुत था, उनकी ज्येष्ठ पुत्री जया का विवाह, श्याम सिंह खाखोड़ के पुत्र वचन सिंह खाखोड़ से तय हुआ था, अब! अब था एक मलाल! मलाल, कुम्भा सिंह को! कुम्भा भी प्रशासकीय विभाग में एक ऊंचे ही पद पर था, और एक जागीर, जो, उसकी निगाहों में थी, बरसों से, जिसकी जागीरदारी चाहता था वो, अपने पुत्र के लिए, उसमे सबसे बड़ा रोड़ा था वचन सिंह! वजह आप समझ ही सकते हैं! खूब इंतज़ामात किये गए थे, उस खेल को खेलने के लिए! आगे की कहानी भी आप जान ही गए होंगे! सत्ता-लोभ ने, ऐसा जघन्य हत्या-काण्ड रच दिया! कोई नहीं बचा! स्वयं वचन सिंह भी! अठारह सौ सतत्तर के विषय में कहीं कुछ नहीं लिखा गया, कोई वृत्तांत नहीं मिलता, कुम्भा का क्या हुआ? इसका वृत्तांत भी नहीं मिलता! आगे क्या हुआ, ये सब इतिहास के गर्भ में ही दफन रह गया! जान पाया तो एक बारात, जो पहुंची तो अपने मुक़ाम पर, लेकिन, लौट कभी न सकी!
वो बारात, वो बाराती, आज भी, उसी राह पर भटक रहे हैं! आज भी! मैंने हरदेव से पूछा भी था, कोई इच्छा नहीं थी उसकी, उसने जैसे, सब स्वीकार कर लिया था! जैसे, वे सब, अब वही जी रहे थे, जो उनका भाग्य था!
तो फिर? हमें क्यों न्यौता गया था?
किस कारण से?
शायद, एक सफ़ा, बँचवाने के लिए, कि कोई जाने, कि क्या हुआ था उस रात! क्यों वो रात आज भी ज़िंदा है! आज भी एक बारात, गाजे-बाजे के साथ, राह पर चले जा रही है! कुछ बाराती आज भी ऐसे हैं, जिन्होंने खोले थे कुछ राज़! कुछ, मुंह सीले आज भी, रोज की तरह, बाराती बन, कैदी बन गए हैं उसी बारात के!पेड़ों की पुंगियों पर, गौरैय्या पक्षी चहचहाने लगे थे अब तक! पूर्वी क्षितिज अब लाल हो चला था! सहर हो चुकी थी! और उस रात का अंत, कुछ अल्फ़ाज़ों के साथ हुआ!
"मुआफ़ी चाहूंगा, ग़र, ख़ता पेश हुई हो..............." एक टूटी सी आवाज़!
एक आवाज़, रुख़सती की आवाज़!
और मेरे देखते ही देखते, वो सारे साये, फ़ना होते चले गए! सभी, एक साथ ही!
अब कुछ न बचा था! कुछ ही नहीं!
अब बागडोर, वर्तमान के हाथों में थी!
मैं सब समझता था, सब जानता था!
पीछे देखा, न कोई खिड़की थी, न कोई सलाखें! न कोई रौशनी! मैंने एक लम्हा, आगे देखा, और लौट चला वापिस! दालान तक आया, सीढ़ियों का नामोनिशां तक नहीं था! बस, पत्थरों की एक ढेरी! उसे पार किया, वो रुतबी हवेली, जो कुछ लम्हात पहले जवान थी, अब खिज्र से ढक चुकी थी! ऊपर की सीढ़ियां ज़रूर थीं, लेकिन कब धसक जाएँ, पता नहीं, हिम्मत कर, ऊपर चढ़ा, आया वहां, खंडहर था वहां! एक डरावना सा खंडहर! उस खंडहर के कई मुंह बन गए थे, खुले हुए मुंह! ऐसे ही एक मुंह से मैंने, उन दोनों को, ज़मीन पर, सोते हुए देखा! मैं चला उस तरफ! घुसने से पहले, मेरी कमर पर, धूप का ताप पड़ा, पल भर के लिए देखा उधर, सूरज, बढ़े चले आ रहे थे!
मैंने जगा दिया उन्हें!
वे, जाग गए, शर्मा जी कुछ हैरान थे, लेकिन कमल जी, जैसे सकते में थे! उन्होंने कपड़े झाड़े अपने! मुझे देखा,
"आओ! चलने का वक़्त हुआ!" कहा मैंने,
और हम, लौट चले वापिस!
वो हवेली, वीरान, उजाड़, उदास और ग़मगीन थी! जैसे, अपने मेहमानों के जाने से क़तई खुश न हो! मैंने रास्ता चलते हुए, वो सब उन्हें बताया जो मैंने जाना था! न जाने क्यों, पल पल ये लगता था कि अभी ढोल-ताशे बजेंगे! अभी नगाड़े बजेंगे! अभी कुछ लोग, दिखाई देंगे!
दोस्तों!
उस रात हम, उस जगह से, जिस जगह बादल जी, शील जी और रौशन थे, उनत्तीस किलोमीटर दूर थे! न कोई फ़ोन था, न कोई दूसरी चीज़, जिस से सम्पर्क हो सके! हाँ, दस किलोमीटर चलने के बाद, एक दूध ले जाने वाली टुकटुक ज़रूर मिली, वो हैरान था, कि हम उस वीराने में आखिर कर क्या रहे थे! उस टुकटुक वाले ने, हमें दो किलोमीटर पहले छोड़ा, रास्ते में, वो खंडहर, नाके, चौकी वो आरामगाह, सब दिखाई दिए, जो कल रात, जवान थे! और जवान होते ही रहेंगे! पता नहीं कब तक! पता नहीं!
मैं उसके बाद, कभी नहीं गया वहां!
कुछ लोग, उस बारात के, आज ही याद हैं मुझे! और जो सबसे पहले आता है, वो है हरदेव सिसौदिया! कमल जी को उसी दिन से, संजीदगी ने घेर रखा है, कहते हैं, कई बार चले जाते हैं वो अकेले ही उन जगहों तक, जहां वो कभी मेहमान बने थे!
वो बारात, आज भी गुज़र रही है! आज भी!
क्या आपको, सुनाई दे रहे हैं, ज़रा ग़ौर से सुनिए, ध्यान लगाइये, ढोल-ताशे? नगाड़े? हो-हुल्ला? शोर-गुल्ला? स्वांग की आवाज़ें? सुनाई दे रही हैं? हल्की हल्की!
साधुवाद!


   
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(@satishasankhla)
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@1008 ये राजस्थान का इतिहास है, ना जाने ऐसी किस्से कहानियां और राज समय में कैद है, जो समय-समय पर अपने आप को उजागर करता है


   
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