वर्ष २०१४ जिला टोंक...
 
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वर्ष २०१४ जिला टोंक राजस्थान की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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अब रौशन के अंदर जो था, वो सट्ट रह गया! ये क्या हो गया? वो उल्टा कैसे लटका दिया गया? उसकी बोलती बंद हो गयी! कंपकंपी छूट गयी! ऑंखें फाड़ फाड़ देखे! कभी नीचे और कभी ऊपर! और तब उसे मछली की तरह हिलाया इबु ने! वो तो उसको हड्डियां ही जोड़ों से खुल जातीं, अगर मैं न मना करता! मेरे कहने पर सीधा किया उसे, और छोड़ दिया नीचे! वो नीचे गिरा! और देखने लगा इबु को! बस! तब मैंने इबु का रुक्का पढ़ा और उसको वापिस किया! उम्मीद थी, अब तक वो समझ गया होगा, ये भी कि अगर अब वो न बाज आया तो उसका क्या हाल होने वाला है!
वो अब नीचे बैठा था, पाँव मोड़, उकडू!
"हाँ?" कहा मैंने,
उसने देखा मुझे, काँप उठा!
भीगे पिल्ले के तरह से काँप उठा!
"अब बता, कहाँ से लगा इसके साथ?" पूछा मैंने,
"उसी जगह से" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"इसके वापिस आते क़वट" बोला वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"मैं उस रोज ही आया था वापिस" बोला वो,
वापिस, यानि कि उसको कहीं और से भी भगाया गया था, तब वो वहीँ वापिस आ गया था और बदक़िस्मती से, रौशन वहाँ से लौट रहा था, ले लिया लपेट में और इस तरह, व्यवहार बदलने लगा था रौशन का! उस कुंदन धोबी की मौत का कारण उसकी बीवी थी, अतः रौशन का मिजाज़ भी उसने बदला था, इसीलिए वो उस से नफ़रत करने लगा था! अब ये बाद न तो कमल जी ने बतायी थी हमें और न ही किसी और न, या शायद उनको पता ही न हो, शायद उसके बड़े भाई यही चेताने आये हों उसको!
"हाँ, अब क्या करूँ तेरा?" पूछा मैंने,
"छोड़ दो?'' बोला वो, शरीफ सा बनकर, जैसे उस से शरीफ और कोई न हो!
"ताकि किसी और को शिकार बनाये अपना?' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो, अपना सर, मेरे पांवों में रख कर!
"तू तो कह रहा था कि ये मरेगा?" पूछा मैंने,
"नही, झूठ कह रहा था मैं!" बोला वो,
"अब इसका रास्ता तो नहीं काटेगा?" पूछा मैंने,
"कभी नहीं!" बोला वो,
"आड़े तो नहीं आएगा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"किसी और को तंग तो नहीं करेगा?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"छोड़ दूँ तुझे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"चल, जा!" कहा मैंने,
रौशन ने खाया झटका एक, कमर हुई टेढ़ी, मुंह खुला उसका, चौड़ा हुआ, दुर्गन्ध सी फैली और हुआ रौशन ठीक! एक झटका खाया और बेहोश हो गया!
मैं आ बैठा सोफे पर, शर्मा जी के साथ,
"बुला लो सभी को!" कहा मैंने,
"लाता हूँ!" बोले वो,
वो नीचे चले गए, उलाने सभी को, और थोड़ी देर में ही, सभी आ गए, उसके भाई दौड़े, माँ दौड़ी, रमा किसी के साथ डॉक्टर के पास गयी थी, वो भी आने को ही थी! अब शर्मा जी ने सब समझा दिया उन्हें कि अब रौशन बिलकुल ठीक है, दर्जनों सवाल किये गए, और एक ही उत्तर, कि अब जो हुआ सो हुआ, अब ठीक है वो, अब न होगी कोई दिक्कत!
जैसे ही होश आया रौशन को, रमा को ढूंढें वो! रमा, रमा पुकारे! उसको बताया गया कि रमा आ रही है अभी! उसको ठीक देख, अब सभी खुश थे! कमल जी ले गए मुझे एक तरफ! जहां बादल और शील जी खड़े थे! बता दिया था उन्हें कि लड़का ठीक है अब! अब कोई समस्या नहीं है!
करीब एक घंटे के बाद हम चाय आदि ले, वहां से निकल पड़े! अब कल आना था हमें यहां, मुझे एक बार और जांच करनी थी रौशन की, कि कहीं वो धूर्त प्रेत फिर से तो नहीं आ गया! अब यदि मिल जाता तो उसको मैं सजा देता, उसको बाँध देता कहीं बियाबान में, जहाँ इंसान तो क्या, एक कीड़ा भी नहीं नज़र आता!
उसी शाम, अपने उसी स्थान पर, जहां हम ठहरे थे, हम सभी बैठे थे, महफ़िल बस सजने को ही थी! सभी तैयारियां हो ही चुकी थीं! कुछ ही देर में, अपनी अपनी जगह संभाल ली थीं हमने!
सारा मामला तो मैं सभी को पहले ही समझा चुका था लेकिन अभी भी कुछ प्रश्न थे, जो शील जैसे व्यक्ति, बादल जैसे व्यक्ति जानना चाहते थे, ऐसे ही एक सवाल पूछा मुझ से शील जी ने,
"भूत और प्रेत में क्या अंतर है?'' पूछा उन्होंने,
"मान लिए, कोई व्यक्ति है, जीवित, अब मान कर चलिए कि उसकी आयु निर्धारित है अस्सी वर्ष, लेकिन यदि वो तीस वर्ष की आयु में ही, अकाल-मृत्यु का ग्रास बन जाता है, तो वो दो प्रकार के भूतों में से एक बनता है! शेष आयु भोग, वो आत्मा, भूत बन कर करती है!" कहा मैंने,
"ये दो प्रकार कौन से हैं?" पूछा उन्होंने,
"एक जो इच्छा रखते हैं, इच्छा से भूत योनि में आते हैं, दो जो जानते हैं कि वे मृत्यु को प्राप्त हैं, और अब उनका जीवितों से कोई सम्पर्क नहीं, कोई औचित्य भी नहीं!" बताया मैंने,
"पहले में, क्या वो नहीं जानते कि उनकी मृत्यु हुई?" पूछा शील जी ने,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"अच्छा! अब आया समझ!" बोले वो,
"भूत और प्रेत में कुछ उसकी नैसर्गिक शक्तियां होती हैं, ये योनिगत प्रदत्त शक्तियां हैं!" बताया मैंने,
"ना समझ आयौ मोय क़तई भी, नैक सौ सौ भी!" बोले बादल जी,
"समझाता हूँ! एक प्रेत में ये शक्ति हुआ करती है कि वो किसी भी स्थूल-तत्व पर, एक क्षण के अरबवें खंड में ही, कब्ज़ा कर सकताहै, उस स्थूल-तत्व की समस्त प्रणाली अब उसके संचालन में होती है! भूत में ये सामर्थ्य नहीं होता! वो आपको नज़र आ सकता है, डरा सकता है, हमला कर सकता है, लेकिन आपके अंदर प्रविष्ट होने की शक्ति नहीं रखता!" कहा मैंने,
"उरा?? और कहा है?" पूछा बादल जी ने,
"प्रेत, माया रचने में समर्थ है, दिग्भ्रमित करने में समर्थ है, धन का पता बताने में समर्थ है, परन्तु भूत
 नहीं! जहां प्रेत वास करते हैं या करता है, वहाँ भूत वास नहीं करता!" कहा मैंने,
"अजी! अजी कहा पतौ चलै? सामने आव जावै तो वैसे ई सासु की *** चार टुकरे हो जाय!!" बोले बादल साहब!
बात हंसने की थी, मेरे और शर्मा जी के अलावा कोई नहीं हंसा! सभी संजीदा थे!
"और जी?" बोले बादल जी!
"और जानोगे?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, कौन बतावै?" बोले वो,
"प्रेत के कई अन्य प्रकार हैं!" कहा मैंने,
"वा मैं भी? मार डारे? जन कहा कहा बनायौ है वाइनै!" बोले वो,
"हाँ! पहले प्रेत, बता चुका हूँ उसके बारे में, फिर महाप्रेत! जो प्रेत योनि में पांच सौ वर्ष काट लेता है, वो महाप्रेत बनता है! इसमें विशेष शक्तियां होती हैं! ये माया रच सकता है, धन उत्पन्न कर सकता है, बीमार को भला-चंगा कर सकता है! वर भी दे सकता है! ये महा-भीषण और विकट होता है!" कहा मैंने,
"उरा तेरी त्तो!! उरा तेरी!!" बोले बादल जी!
"और जी?" पूछा शील जी ने,
"फिर, चंड-प्रेत! ये प्रेत वैसे तो महाप्रेत ही होते हैं, परन्तु अपने से उच्चस्थ शक्तियों के सेवक हुआ करते हैं! शक्तियों में इनका कोई सानी नहीं! इनकी साधना नहीं हुआ करती, अपितु इनकी सरपरस्त की साधना का विधान है, उसके सिद्ध होते ही, ये महाप्रेत स्वतः ही सिद्ध हो जाया करते हैं!" कहा मैंने,
"और जी ये मसान?" पूछा कमल जी ने,
"ये मसान एक प्रकार का महाप्रेत है! इसको कार्यभार सौंपा गया है!" कहा मैंने,
"कैसा कार्यभार?" पूछा उन्होंने,
"आत्माओं के गणन का!" कहा मैंने,
"क्या?" चौंक पड़े कमल जी!
"कहा?" बोले कमल जी,
"ज़रा बताइये?" बोले शील जी,
मैंने उठाया अपना गिलास, नौ बूँदें भूमि पर टपकाईं! कुछ बुदबुदाया, और खींच गया सारा गिलास!
सभी, मेरे खाली होते गिलास को ही देखें!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने गिलास रखा नीचे, प्याज का एक टुकड़ा उठाया, चटनी से छुआ कर, मुंह में रख लिया! सभी मुझे ही देख रहे थे, हाँ, शर्मा जी का फ़ोन आया था, वो फ़ोन पर बातें करने लगे थे, थोड़ा दूर जाकर!
"हाँ जी? मसान कहा करै करै?" बोले बादल जी,
"गणना! गिनती!" कहा मैंने,
"गिनती? मिर'सासु की( मेरी सास की, ये मथुरा वालों की सबसे पसंदीदा गालियों में से एक है!) वहां भी गिनती?" बोले वो,
"गिनती कैसी?" बोले शील जी,
"होती है गिनती!" कहा मैंने,
"बताओ आप?'' बोले कमल जी,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
मैंने शर्मा जी को देखा, आ रहे थे अब, आये, और बैठे!
"देखिये, चार प्रकार के श्मशान हैं!" कहा मैंने,
"चार?" उछले शील जी!
"चार?" चौंक पड़े कमल साहब!
"चार?" बोले बादल जी,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"वो कौन कौन से?" पूछा शील जी ने,
"सबसे पहले ये बताएं, श्मशान होता क्या है?" पूछा मैंने, सभी से,
"जहां शवों का दाह-संस्कार किया जाता है!" बोले शील जी,
"मुर्दा फूंके जाएँ वा में!" बोले वो,
"हाँ, जहाँ दाह-संस्कार होता है?" बोले कमल जी,
"हाँ, मोटे शब्दों में वही! लेकिन, श्मशान की कुछ विशेष पहचान हैं!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले शील जी!
"पहचान? वा में भी?" बोले बादल जी,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"उरा!" बोले बादल जी!
"पहला, श्मशान नदी किनारे ही होता है! दूसरा, श्मशान में चारदीवारी नहीं होती! तीसरा, श्मशान नगर, कस्बे या शहर के मध्य न हो, सदैव पश्चिम में ही हो!" कहा मैंने,
"अजी ऐसा कौन ध्यान रखै है आजकर?" बोले बादल जी,
"हाँ! सही कहा!" बोला मैं,
"पैसा कूटैं आजकर तौ! मरनौ भी महंगौ परै!" बोले बादल जी!
"ये श्मशान, दाह-श्मशान है!" कहा मैंने,
"दूजौ?" पूछा बादल जी ने,
"चांडाल-श्मशान! जिस श्मशान में, चांडाल का आवास होता है!" बोला मैं,
"डोम?" बोले शील जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अंतर?" बोले वो,
"दाह में सबसे बड़ा दान डोम का दान माना गया है! डोम श्री महाऔघड़ का सेवक होता है! जो आत्मा का संबंध रथापित्त करता है आगे से, और इस संसार से मुक्त करता है! ये मात्र उसी का संस्कार है!" कहा मैंने,
"ओहो! आयौ समझ!" बोले बादल जी!
"इसीलिए डोम-श्मशान में, कतारें लगती हैं शव-दाह की! पर्चियां मिला करती हैं! यहां, धन का उपयोग होता है! प्रत्येक संस्कार पर धन-प्रयोग!" कहा मैंने,
"डोम के यहां भी?" पूछा कमल जी ने,
"अब के डोम वो डोम नहीं कमल जी! अथाह-सम्पत्ति के मालिक हैं!" कहा मैंने,
"ये तो सच है!" बोले शील जी!
"हाँ जी!" बोले कमल जी!
"तीसरा?" बोले शील जी!
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"तीसरा है, शम्भ-श्मशान!" बोले शर्मा जी!
"शम्भ?" चौंके शील जी,
"हाँ, शम्भ!" कहा उन्होंने,
"ये कैसौ होवै है जी?" पूछा बादल जी ने,
"होता इसमें दाह-संस्कार ही है, परन्तु ये श्मशान शहर से दूर, जंगलों में स्थित होता है, इसके आसपास, शैव-मार्गियों का वास रहता है! इसमें मौनक, करुक, तीनिया, कौलव और कापालिक साधक रहा करते हैं! इस श्मशान में, साधनाएं सम्भव हैं, परन्तु इस श्मशान को जगाना पड़ता है!" कहा शर्मा जी ने,
"जगानौ?" बोले बादल जी,
"हाँ, जगाना!" बोले शर्मा जी,
"वो कैसे?" पूछा शील जी ने,
"कुछ क्रियाएँ हैं! उनसे!" कहा शर्मा जी ने,
"अच्छा जी!" बोले बादल जी!
"हाँ जी!" कहा शर्मा जी ने,
"वैसे ऐसे श्मशान हैं?" पूछा कमल जी ने,
"हाँ, हैं!" बोले वो,
"कोई यहां है?" पूछा कमल जी ने,
"नहीं, यहां का पता नहीं!" बोले वो,
"और जी चौथा?" पूछा शील जी ने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
सिगरेट बुझाते हुए, मैंने कहा,
"ये होता है ब्रह्म-श्मशान!" कहा मैंने,
"ब्रह्मा? श्मशान?" चौंकते हुए बोले बादल जी!
मैं हंस पड़ा! शर्मा जी भी! उन्होंने पूछा ही ऐसे था!
"ब्रह्मा नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले झेंपते हुए बादल जी!
"ब्रह्म का अर्थ है, सदैव जागृत!" कहा मैंने,
"हमेशा?" बोले शील जी,
"हाँ, हमेशा!" कहा मैंने,
"वा में कहा ख़ास है जी?" बोले बादल जी,
"मसान का वास!" कहा मैंने,
"जे बात!" बोले बादल जी!
'अच्छा जी!" बोले शील जी!
"ये ही वो श्मशान है, जहां साधनाएं हुआ करती हैं! अन्य श्मशानों में साधनाएं दग्ध रूप में रहती हैं! कीलन रूप में, मात्र शम्भ में साधनाएं की जा सकती हैं, परन्तु जागृत करने के पश्चात!" कहा मैंने,
"और जो किताबन में जो मंतर लिखे रहवै हैं ओ कहा? कहा....कहा......हाँ! साबर मंतर वो?" बोले बादल जी!
"बड़ी ही गलत धारणा है!" कहा मैंने,
"क्या जी?" पूछा कमल जी ने,
"कि शाबर मंत्र कहीं भी सिद्ध किये जा सकते हैं!" कहा मैंने,
"किताबों में तो यही लिखा होता है!" बोले शील जी,
"नहीं तो बिकेंगी कैसे?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोले वो,
"अब जो मंत्र, श्मशान में ही बने! उत्पन्न किये गए, वो भला कहीं और क्यों सिद्ध होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"प्रत्येक मंत्र का एक ईष्ट होता है, एक अधिष्ठाता! वो न आपका और न मेरा ज़र-ख़रीद ग़ुलाम है जो मात्र पढ़ने से ही फल दे देगा! उसको प्रसन्न करना होता है! उसका आशीर्वाद चाहिए होता है, उसको उसका 'प्रसाद' देना होता है, ये तामसिक-मंत्र हैं, तामसिक ही प्रसाद होता है उनका!" कहा मैंने,
"हाँ! समझा मैं!" बोले कमल जी!
"हाँ जी! देनौ तो कछु परै है!" बोले बादल जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सभी गौर से सुन रहे थे! ये वो ज्ञान है, जो कहीं नहीं मिलता! जिसके पास है, बताता ही नहीं! छिपाकर रखता है! बताएगा तो कूट-भाषा में, समझ ही नहीं आएगा! सात्विक-विधान में तो इसका उल्लेख है ही नहीं, कोई जानता ही हो, तो श्मशान एक ऐसा विषय ही जिसके बारे में अधिक बात नहीं की जाती!
"शील जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"एक बात बताएं?" पूछा मैंने,
"पूछें?' बोले वो,
"पितृ क्या हैं?" पूछा मैंने,
"देवता हैं!" कहा उन्होंने,
"कौन से देवता?" पूछा मैंने,
"पूर्वजों के देवता!" बोले वो,
"पूर्वज या उनके देवता?" पूछा मैंने,
थोड़ा रुके, कुछ सोचा, बादल जी तो जैसे हार मान गए थे, कमल जी बोले नहीं कुछ भी!
"आप उनका श्राद्ध करते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"श्राद्धों में अक्सर शुभ-कर्म नहीं होते, है न?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कारण क्या?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी?" बोले वो,
"क्योंकि, पितृ देवता नहीं, प्रेत हैं!" कहा मैंने,
"क्या?" चौंके सभी!
"हाँ, पितृ-योनि में गए हुए प्रेत!" कहा मैंने,
"अच्छा जी?" बोले वो,
"हाँ, वो भी वो, जो मुक्त नहीं हो सके!" कहा मैंने,
"क्या?' चौंके वो,
"हाँ! नहीं हो सके, समस्त विधि-विधान के बाद भी!" कहा मैंने,
"ऐसा क्यों?" पूछा उन्होंने,
"मसान!" कहा मैंने,
"मसान?" बोले वो,
"हाँ! मसान!" कहा मैंने,
"नहीं समझा मैं!" बोले कमल जी!
"अब बताता हूँ!" कहा मैंने,
सभी हो गए मुस्तैद! ऐसे, विद्यार्थी किसी अध्यापक के कक्षा में प्रवेश करते ही, मुस्तैद हो जाया करते हैं, वैसे!
"ये चालीस दिनों का विधान है! इस पृथ्वी पर!" कहा मैंने,
''अच्छा जी!" बोले कमल जी,
"फलां चालीसा, फलां चालीसा आदि आदि आपने सुना होगा?" कहा मैंने,
"हाँ जी! हनुमान चालीसा जैसे?' बोले वो,
"हाँ, तो वे उनतालीस या इकतालीस क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"ये तो कभी गौर ही नहीं किया?" बोले शील जी!
"अब कर लो!" बोले शर्मा जी,
"जी!" बोले वो,
"मृत्योपरांत भी आत्मा, देह में, आत्माराम में, चेतनाहीन हुए सी क़ैद रहती है! कपाल-क्रिया द्वारा मुक्त होती है और मसान सेवकों द्वारा पकड़ ली जाती है! अन्यथा वो मोहवश किसी को नुकसान आदि भी पहुंचा सकती है, अपने हत्यारों का नाश कर सकती है, जिसने कारण पैदा किया हो उस मृत्यु का, उसका नाश कर सकती यही, तो ये उत्तर है कि व्यक्ति मरने के बाद अपने हत्यारों से बदला क्यों नहीं लेता!" बोला मैं,
"ओहो! जे है सगरौ मामरौ!!" बोले बादल जी!
"हाँ, समझ गए होंगे आप!" कहा मैंने,
"फिर जी?" बोले शील जी,
"बारह दिवस तक, वो मसान द्वारा दी हुई एक झोंपड़ी में वास करती है, यही कारण है, कि दाह के एक दिन बाद, नदी किनारे, निर्जन स्थान पर उस मृतक के लिए नए कपड़े, या पुराने कपड़े, रख दिए जाते हैं, इसमें जूते भी हो सकते हैं चप्पल भी! यदि वो मदिरा-मांस का शौक़ीन हो, तो वो भी रखा जाता है, कहीं कहीं अपवाद भी हैं, अपने अपने रिवाजों के अनुसार! अब थी तेरहवें दिन, उसको उसके घर लाया जाता है, अंतिम बार, जिसको देखना हो, देख ले, मोह का अंतिम क्षण होता है ये! कुछ आते हैं और कुछ नहीं! इसी कारण से, तेरहवीं का विधान है! और अंतिम विधान, चालीसवाँ है!" इन तेरह दिनों तक, वो सेवकाई करता है मसान की! ऐसा मान लें!" कहा मैंने,
"उरा! बहन** बतावै च्यौं न है कोई?" बोले खीझ कर बादल जी!
"पता हो तो बताये?" बोले शर्मा जी,
"अब, तेरह दिन बीत जाने पर, सत्ताईस दिन वो मसानी के सेवा में भेज दिया जाता है! ये चालीस दिन पूर्ण होते ही, उस आत्मा को, मसान, अपनी राजी से आगे भेज देता है! कि भूत बनना है, या सीधे ही प्रेत योनि में, या अन्य किसी योनि में! योनियों के छत्तीस प्रकार हैं! ये एक विस्तृत विषय है! कभी बाद में बताऊंगा!" कहा मैंने,
''अच्छा! और ये यमदूत?" बोले कमल जी,
"मसान के सेवक!" कहा मैंने,
"जीते जी आते हैं?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या लेने आते हैं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मान लो, अगर कोई गुमनामी में, मर गया, समझे न आप? लाश का भी पता न चला, तो कैसी कपाल-क्रिया? तब? तब क्या होता है?" पूछा कमल जी ने,
"ये समान की ज़िम्मेवारी है, देह से उसको लेना-देना कुछ नहीं, वो आत्मा से सरोकार रखता है, एक मसान के, चौरासी सहस्त्र सेवक भी हो सकते हैं! अब आप समझे?" कहा मैंने,
"समझ गया!" कहा शील जी ने,
"लेकिन अन्य धर्म?" बोले वो,
"अन्य धर्म?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"अन्य धर्म, मृतक के जीवन के अंतिम क्षण तक उस से संबंध रखते हैं, शेष, क़यामत का दिन तय है, इसमें विश्वास रखते हैं! परन्तु, कुछ बातें वहां भी ऐसी हैं, जिनका जवाब, कट्टरवादी कभी नहीं देते! अब धर्म के ठेकेदार सब धर्मों में हैं! मसुलिम में, है एक शब-ए-बारात, इसका क्या अर्थ है, ये आप जानें किसी प्रकांड मुस्लिम धर्मज्ञ से! वे स्पष्ट बता देंगे! क्रिस्चियन धर्म में, डे ऑफ़ द डैड है, वे भी बता देंगे! छिपाने से लाभ नहीं होता! मैं किसी भी धर्म पर आक्षेप-पटाक्षेप नहीं लगा रहा, मेरी कोई हैसियत नहीं! न ये ही कह रहा कि मेरा धर्म ही सबसे अधिक महान है, नहीं! सभी धर्म महान हैं! मंजिल एक ही है! रास्ते अलग अलग ज़रूर हो सकते हैं!" कहा मैंने,
"बहुत खूब कहा आपने!" बोले कमल जी,
"बस वही जो जाना!" कहा मैंने,
"और वैसे भी!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोले बादल जी,
"सबसे बड़ा धर्म है मानवता!" कहा मैंने,
"ये तो है!" बोले कमल जी!
"उस से बड़ा कुछ नहीं!" बोले शील जी!
"जब उपरवाला फ़र्क़ नहीं करता, तो हमारी क्या बिसात!" बोले शर्मा जी,
"सही कहा जी!" बोले कमल जी!
और तब हुआ हमारा दूसरा दौर शुरू!
सामान गरमागरम था, कहीं ठंडा न हो जाए, ये भी देखना था!
"डालो!" कहा मैंने,
शर्मा जी ने गिलास भरा!
"बादल जी को भी!" कहा मैंने,
"ज़रूर!" बोले शर्मा जी,
बादल जी ने बढ़ाया गिलास आगे अपना!


   
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"और साहब ये अस्थि-प्रवाह?" बोले शील जी,
"बहुत अच्छा प्रश्न किया है आपने!" कहा मैंने,
मैंने सलाद का एक टुकड़ा खाते हुए कहा!
"इसका सबसे पहला वर्णन मिलता है रामायण में, जहां मुनि विश्वामित्र भगवान श्री राम को एक कथा सुनाते हैं, कथा के अनुसार, श्री राम के पूर्वजों में एक राजा सगर हुए, मैं आपको ये कथा संक्षेप में सुना रहा हूँ, ये नहीं तो एक विस्तृत कथा है, राजा सगर के दो पत्नियां थीं, प्रथम पत्नी केशनि से उन्हें असमञ्ज नाम के पुत्र की प्राप्ति हुई! दूसरी पत्नी सुमति से उन्हें साठ हज़ार पुत्रों की प्राप्ति हुई! गरुड़ देव से संबंधित हैं सुमति, सुमति राजा अरिष्टनेमि की पुत्री हैं, संक्षेप में इतना जानिये आप! असमञ्ज अत्यंत ही दुराचारी पुत्र था! अतः राजा सगर ने उसको निष्कासित कर दिया, हाँ, असमञ्ज का पुत्र अंशुमान, एक सदाचारी और सत्यनिष्ठ प्रपौत्र था राजा सगर का! कालांतर में, राजा सगर ने, अश्वमेध यज्ञ करवाया, इसमें जो घोड़ा छोड़ा गया, उसको इंद्र ने एक राक्षस का रूप धर पकड़ लिया और पाताल में स्थित, समाधिलीन मुनि कपिल के आश्रम में बाँध दिया! जिस राक्षस का रूप धरा गया था, वो अजेय कालकेय राक्षस थे! खैर, मुनि कपिल को दुर्वचन सुनाये उन पुत्रों ने, और इस प्रकार क्रोधवश वे सभी भस्म हुए मुनि कपिल के दृष्टिपात से, चूंकि उनकी समाधि खंडित हो गयी थी! जब अंशुमान वहां पहुंचे, तो उन्हें अपने चाचाओं के मामा गरुड़ वहां मिले, उन्होंने ही उन्हें सबकुछ बताया! यज्ञ का घोड़ा ले आये अंशुमान, सारा वृत्तांत सगर को सुनाया, सगर ने लाख जतन किये गंगा जी को पृथ्वी पर लाने के लिए, उन्हें अवतरित करने के लिए, अंशुमान ने लाख जतन किये, लेकिन कोई सफलता नहीं मिली उन्हें! राजा सगर का देहांत हुआ, अंशुमान राजा बने, अंशुमान के पुत्र राजा दिलीप हुए और दिलीप के पुत्र हुए भगीरथ! भगीरथ को ये सब बताया था राजा दिलीप ने, अतः, भगीरथ ने ये प्रतिज्ञा ली की वे श्री गंगा जी को भूमि पर अवतरित करेंगे और तर्पण करेंगे उन साठ हज़ार सगर पुत्रों का! भगीरथ ने कठिन तपस्या कर, ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया, और माँगा, कि वे साठ हज़ार सगर पुत्रों का तर्पण करना चाहते हैं, वे सफल हों इसका वर दें और इक्ष्वाकु वंश कदापि नष्ट न हो, ये भी वंश दें, पुत्र का वर शीघ्र ही फलीभूत होने को था, हाँ, गंगा जी को अवतरित कराने में, उनके वेग को संभालने में, उनके क्रोध और मदांधता को नियंत्रित करने में, इस सृष्टि में मात्र एक ही है जो ऐसा कर सकता है, और वे थे श्री महाऔघड़! अब भगीरथ ने उन्हें प्रसन्न किया! तब श्री महाऔघड़ ने, भगीरथ को ये वर दिया कि वो, अपनी जटाओं में गंगा को स्थित कर लेंगे! जब गंगा श्री को ये पता चला तो उन्होंने श्री शिव को पाठ सिखाने के लिए और वेग प्रबल किया! अब श्री महाऔघड़ से ये बात कहाँ छिपती! जैसे ही गंगा जी अवतरित हुईं, श्री महाऔघड़ ने उन्हें अपनी जटाओं में क़ैद कर लिया! गंगा जी ने सैंकड़ो जतन किये! प्रलय जैसा रूप धारण किया परन्तु जटाओं में से रास्ता न बना सकीं वो! तब भगीरथ ने, पुनः प्राथना की श्री महाऔघड़ से, और तब, उन्होंने बिन्दुसर नामक स्थान पर उनको मुक्त किया! यहां से गंगा जी की सात धाराएं हो गयीं, तीन ह्वादिनी, पावनि और नलिनि पूर्व की ओर बह निकलीं! सुचक्षु, सीता और सिंधु, ये पश्चिम की ओर बह निकलीं! शेष एक, मुनि भगीरथ के पीछे पीछे चल पड़ीं! मार्ग में जो आता, नाश करती जातीं वहां का! तब एक असुर-ऋषि( अब इन्हें ऋषि माना जाता है, मुख्यधारा में, असुर नहीं)  जह्नु के आश्रम को लीलने के लिए आगे बढ़ीं तो उन्होंने गंगा जी का वेग था, समस्त जल पी लिया! भगीरथ ने प्रार्थना की उनसे, तब, जह्नु ने उन्हें मुक्त कर दिया, तभी से गंगाजी का नाम जाह्नवी हुआ! महगीरथ के पीछे पीछे चल वे समुद्र तक गयीं, और वहां से पाताल तक, तब तर्पण सम्भव हो सका उन सगर पुत्रों का! यहां से ही गंगा जी के दो नाम और विख्यात हुए, त्रिपथगा और भागीरथी!" कहा मैंने,
"हे भगवान!" बोले कमल जी!
"अद्भुत!" बोले शील जी!
"जे तो बतायौ ही न काई नै? हम तो गंगा ही जानै करे?" बोले बादल जी, चौंक कर!
"ये सर्वप्रथम अस्थि-विसर्जन हुआ!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले कमल जी,
"जी!" बोले बादल साहब!
"सो तो है!" बोले वो,
"अब देखिये आप! गंगा जी का अवतरण क्यों हुआ?" पूछा मैंने,
"वो साठ हज़ार सगर पुत्रों के लिए!" बोले कमल जी,
"वाके मारै ही तो?" बोले बादल जी,
"क्यों शील जी?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" बोले वो,
"अब देखिये आप, गौर कीजिये! गंगा जी जिस उद्देश्य से पृथ्वी पर अवतरित हुईं, वो उद्देश्य हुआ पूर्ण! बस! यहीं तक है गंगा जा का महत्व! है या नहीं? अर्थात, क्या राजा सगर, क्या अंशुमान क्या राजा दिलीप, क्या अन्य स्वर्ग-प्राप्ति से वंचित रह गए थे? क्या उनका भी अस्थि-प्रवाह हुआ था? नहीं! बिलकुल भी नहीं! अब हुआ क्या? पाखंड आरम्भ हुआ! गंगा जी व्यवसाय का केंद्र बन गयीं! गंगा जी अपनी दिव्यता तो तभी समाप्त कर चुकी थीं, उस तर्पण के पश्चात ही! चूंकि उद्देश्य पूर्ण हो चुका था! शेष रहा जल! सो, जल को इस आडंबर और पाखंड ने ढक दिया है! ऐसा कहीं वर्णित नहीं कि अस्थि-प्रवाह किया जाए! वर्णित है तो तब से, जब इसमें बदलाव किये गए! एक बात स्मरण रहे, हम न तो सगर पुत्र ही हैं और न ही गंगा जी के स्पर्श के योग्य! हमने आज गंगा जी का क्या हाल किया है, ये सब जानते हैं! ये किसी से छिपा नहीं! विश्व में सबसे अधिक प्रदूषित नदियों में से एक है! आज, गंगा जी भी आंसू बहाती होंगी अपने दुर्भाग्य पर!" कहा मैंने,
"क़तई नाला है रई है गंगा जी तौ, बास मारै है पानी में!" बोले बादल जी,
"नदी की कई, मीन-प्रजाति नष्ट हो गयी हैं! अन्य जल-जीव नष्ट हो गए हैं! आसपास की औषधियां, वन-क्षेत्र आदि का नाश हो गया है! नाले, सीवेज आदि ने स्वरुप ही बिगाड़ दिया है गंगा का! इस से तो कई लाख गुना साफ़ और स्वच्छ ब्रह्मपुत्र हैं! जबकि वो, चीन से आते हैं! उनके जल का प्रदूषण माप लीजिये! कारण, चीन जल में प्रदूषण नहीं फैलने देता! नदी, प्राणदायिनी होती है! और हमारे यहां, नदियां खांस खांस कर दम तोड़े जा रही हैं! तोड़े जा रही हैं! क्या फ़र्क़ पड़ता है!" कहा मैंने,
"प्रकृति फिर बदला भी तो लेती है?" बोले कमल जी,
"हाँ, वो तो लेगी ही!" कहा मैंने,
"इसका आरम्भ हमने किया!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोले शील जी,
"अस्थि प्रवाहित नहीं हुआ करतीं! वो तल में बैठ जाती हैं, धाराओं में वो प्रवाह शेष नहीं! बाँध बने हुए हैं हर नदी पर! बाँध दी गयी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शील जी,
"तो, गंगा अब वो गंगा नहीं!" कहा मैंने,
"तो अस्थियों का क्या करें?" बोले कमल जी,
"माटी है, माटी में दबा दो!" कहा मैंने,
"लोग ऐसा नहीं करेंगे!" बोले वो,
"तो एक न एक दिन खामियाजा भुगतेंगे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शील जी,
बाहर टपर-टपर हुई!
"बारिश है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ शायद!" बोले कमल जी,
उठ कर गए, देखा, बारिश ही थी!
"तेज है क्या?" पूछा मैंने,
"लग तो रही है!" बोले वो,
"यहां बैठो यार आप!" बोले शील जी!
"होने दो!" कहा मैंने,
"शर्मा जी?" बोले बादल जी,
"हाँ जी?" जवाब दिया उन्होंने,
"भरो याय!" बोले वो,
अपना गिलास सरकाते हुए आगे!
"अजी लो सरकार!" बोले शर्मा जी,
"आओ?" बोले शर्मा जी, कमल जी से,
वे आये, और बैठ गए,
"माल ठंडा हो गया? गरम करवा दूँ?" पूछा कमल जी ने,
"हाँ, अच्छा रहेगा!" बोला मैं,
"मैं लाता हूँ!" बोले वो,
और सामान उठा, ले चले बाहर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थोड़ी ही देर में कमल साहब लौट आये, सामान गरम करवा दिया था उन्होंने, तो हम फिर से शुरू हो गए, अब बात हुई कल के विषय पर, कल हमें करीब ग्यारह बजे जाना था रौशन से मिलने, देखने कि अब घर में क्या माहौल है और रौशन की तबीयत कैसी है! सबसे पहला काम तो यही था हमारा! तो जी हमने खाना खाया और निबट गए, रात में सर्दी बहुत ज़ोर की पड़ने लगी थी, हवाएँ तेज चल रही थीं, खिड़कियाँ भन्ना जाती थीं! बाहर लगी बत्तियों की रौशनी से, कमरे के रौशनदानों से अंदर आतीं उनकी परछाईयाँ साफ़ बता रही थीं कि पेड़, पौधे कैसे जूझ रहे थे उन हवाओं से! सर्दी ज़्यादा थी, तो रजाई-कंबल में गुड्ड-मुड्ड हो, लिपट कर बिस्तर से, हम तो सो गए! नीदं फिर सुबह करीब आठ बजे ही खुली! फ़ारिग हुए, नहाये धोये, कपड़े बदले, नए गरम कपड़े पहन लिए! शर्मा जी की दी हुई एक गरम टोपी थी मेरे पास, वो पहन ली, और फिर हम नीचे चले, बैठक में!
बैठक में आने वाले पहले हम ही थे, और एक नौकर था, जिसने बेहद सलीक़े से नमस्कार की थी, वो अपने हाथ में, हिंदी और अंग्रेजी के अखबार ले आया था, सामने मेज़ पर रख दिए थे, हमने उठा लिए अखबार और पलटने लगे पृष्ठ उनके! छोटी-मोटी, अंदरूनी और बाहर की, मसालेदार और तीखी, देसी और विदेशी सभी तरह की खबरें थीं उसमे! कुछ तड़कती-भड़कती तस्वीरें भी थीं, हैडलाइन तो बहुत बड़ी होती लेकिन मजमून काफी संक्षिप्त सा!
वहाँ सबसे पहले कमल जी आए, उनसे नमस्कार हुई, एक लड़का आया था उनके साथ, हाथों में रूम-हीटर लिए, वो एक जगह रखवाया, चालू करवाया और आ बैठे हमारे साथ!
"सर्दी बेहद ज़बरदस्त है आज!" बोले कमल जी,
"रात से ही ऐसा लग रहा था!" कहा मैंने,
"हाँ, शायद बारिश हुई है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सुबह के वक़्त!" बोले वो,
"तभी सर्दी है!" बोले शर्मा जी,
कुछ ही देर बाद, शील जी और बादल जी भी आ पहुंचे! सर्दीसेबचने के लिए पुख्ता इंतज़ाम किये थे उन्होंने!बड़ी बड़ी सी टोपियां और बड़े बड़े से मफलर! लगता था कि जैसे अभी पर्वतारोहण से आ रहे हों! वे आये और बैठ गए साथ हमारे!
"क्या बात है!" कहा मैंने,
"क्या हुआ जी?" बोले शील जी!
"कहाँ से आ रहे हो? कोई पहाड़ चढ़े हो या चढ़ना है!" कहा मैंने,
"सर्दी देखो आज!" बोले शील जी!
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"हाथ-पाँव ऐसे हो रए हैं जैसे सुन्न!" बोले बादल जी!
"चाय पियो!" कहा मैंने,
चाय आ गयी थी, चाय पीने लगे, साथ में गरमागरम कचौड़ियां भी थीं, खाने लगे, अब ऐसी सर्दी में तो क्या जवाब चाय का, कचौरी का! पकौड़ों का!
"रात भर मुझे तो श्मशान के ही सपने आते रहे!" बोले शील जी!
"अरे? वो क्यों?'' पूछा मैंने,
"वो जो आपने बताया था, वही गूंजता रहा रात भर!" बोले वो,
"मतलब अब पक्का आपके दिमाग  में छप गया ये!" कहा मैंने,
"हाँ जी! चिपक गया!" बोले वो,
"और बादल साहब आप?" पूछा मैंने,
"कहा बताऊँ? दिमाग हाल रयो है!" बोले वो,
"हाल च्यौं रया है?" पूछा शर्मा जी ने,
"अब छोरो!" बोले वो, और घूँट भर लिया चाय का!
उसके बाद हम बातें करते रहे, कभी कहीं की और कभी कहीं की! और इस तरह, दस बजा दिए हमने! हुए तैयार जाने को!
"चलें जी?" बोले कमल जी,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
"आओ फिर?" कहा उन्होंने,
"नैक थम जाओ!" बोले बादल साहब,
"क्या हुआ?" पूछा कमल जी ने,
"हरकौ है आऊं!" बोले वो,
"जाते समय ही याद आता है आपको भी!" बोले शील जी!
"अब ये हाथन में धरौ है?" पूछा बादल जी ने,
"कछु और तो धरौ है? कै न?'' बोले शर्मा जी!
हम सब दहाड़ मार के हँसे!
"दैउऊँगौ या कौ जवाब भी, आयौ अभाल!" बोले बादल जी और दौड़ लिए अंदर!
"कुछ भी कहो! आदमी लाजवाब हैं!" बोले शर्मा जी,
"हाँ नंबर वन आदमी हैं!" बोले कमल जी,
आये वो बादल जी, कुछ देर बाद!
"हरकौ है आये?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ! अब परौ चैन!" बोले वो,
"आओ, बैठो!" बोले कमल जी!
"चलो!" बोले शर्मा जी,
और हम चल पड़े फिर!
 "हाँ जी, शर्मा जी?" बोले बादल जी,
"जी, बड़े भाई!" बोले शर्मा जी,
"कहा कह रहए, कहा धरौ है हाथन में?" पूछा बादल जी ने,
"कछु और! कहि मैंने तो!" बोले शर्मा जी,
"एक बातै बताओ?" बोले बादल जी,
"जी!" बोले शर्मा जी,
"ऐसी ठंड में कहा आयगौ हाथन में?" बोले बादल जी, संजीदा से होकर!
और कार में, बवाल सा मचा! हंस हंस के दुल्लर हो चले सभी के सभी!
"कछु नाय धरौ!" बोले बादल जी,
रास्ते में एक जगह मिली भीड़ से, गाड़ी धीमी कर ली,
"कहा हैगौ?" पूछा बादल जी ने
"कोई एक्सीडेंट है शायद?" बोले शील जी,
"अरे रे!" बोले बादल जी,
कुछ देर हुई,
ताँका-झांकी हुई,
"ना, एक्सीडेंट नहीं हुआ, ट्रक फंस गया है!" बोले शील जी,
"अच्छा!" कहा मैंने,
हमें लगा आधा घंटा, ऐसे फंसे थे हम वहां! जब खुला तो आगे बढ़े!
"चाय पीनी है?" बोले शर्मा जी,
"ज़रूर!" कहा मैंने,
"कमल जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, लगाता हूँ!" बोले वो,
गाड़ी लगा ली एक जगह, उतरे और चले अंदर ढाबे के! जा बैठे!
"अहा हा हा हा!" बोले हाथ रगड़ते हुए बादल जी,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"सर्दी!" बोले वो,
"आप तो मजे ले रहे हो!" बोले शर्मा जी!
"मजे? सूख के क़तई भूसा सौ है गयी है!" बोले वो!
और ठहाके!
वहां बैठे हुए, हमें देखने लगे!
"आज तो जन सूरज दिखेगौ जन ना!" बोले बादल जी,
"कम ही आसार हैं!" कहा मैंने,
"जानलेवा ठंड है!" बोले शर्मा जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम चाय आदि से भी फ़ारिग हुए! हमने काफी देर हो गयी थी, एक तो सर्दी का प्रकोप था, सूरज ने दर्शन नहीं दिए थे, हवाएँ बेहद तेज थीं, कोहरा भी अभी सुरागरसी कर रहा था! गाड़ी में बैठे तो चैन मिला!
"बाहर तो ऐसा लग रहा है जैसे बर्फ के तूफ़ान में घिर गए हों!" बोले कमल जी,
"हाँ जी!" बोले शील साहब,
"अर्रा के पर रही है ठंड साहब!" बोले बादल जी!
"आपको भी ठंड लग रही है बादल साहब?" बोले शर्मा जी,
"मैंने कहा भट्टी पजार राखी है पेटू में!" बोले बादल जी! हँसते हुए!
"खेस तो ऐसे ही लपेट रखा है!" बोले शर्मा जी,
"खेसु में कहाँ रुकै है ठंड?'' बोले बादल जी,
"हमें तो न लग रहई इतनी?" बोले शर्मा जी,
"अजी तम्मनै पुरानौ खानौ खायौ है! हम डारडा पर परै हैं!" बोले बादल साहब!
उनके इस जवाब से हंसी छूटी सभी की!
शर्मा जी इसीलिए छेड़ रहे थे उन्हें!
बतियाते बतियाते आखिर हम आ पहुंचे घर रौशन के! एक जगह गाड़ी लगा दी, एक सब्जी वाला ठेला लगाए हुए था वहां, उस भाई से ज़रा रास्ता देने को कहा, दे दिया रास्ता उसने! ऐसी सर्दी में, पेट की ख़ातिर, अपने बाल-बच्चों की ख़ातिर, निकला हुआ था फेरी पर! इस गरीबी का मान करना चाहिए, इसमें फ़र्ज़ और मेहनत दोनों ही हुआ करती हैं! मैं रिक्शे वालों को कभी हॉर्न नहीं देता, वे बेचारे अपने आप ही जगह दे दिया करते हैं, क्या नसीब है बेचारों का, इंसान, इंसान को खींचता है!
खैर, हम घर में गए, बैठे, पानी पीना तो ऐसा था जैसे बर्फ का पीना! फिर भी, पानी पिया हमने! घर का माहौल अच्छा लगा रहा था, पहले के मुकाबले, घर में हल्कापन महसूस किया जा सकता था, फिर आना हुआ रमा का,  उसकी चोट भी अब ठीक थी, उसके चेहरे से झलकता था कि अब घर में शान्ति है! मैंने तब रौशन से मिलने की इच्छा जताई, रमा मुझे और शर्मा जी को ले चली ऊपर, अपने कमरे में गयी और फिर हमें बुला लिया! रौशन बाहर आ गया था, गर्मजोशी से मिला वो! नमस्कार हुई, उसका व्यवहार शांत और अच्छा लगा था! हमें अंदर ले आया, बिठाया उसने! हम बैठ गए!
"और रौशन, कैसे हो!" पूछा मैंने,
"बिलकुल ठीक, आप कैसे हैं!" पूछा उसने,
"अच्छे हैं!" कहा मैंने,
"आपने जो किया, मुझे बताया गया, आपका बहुत बड़ा एहसान है!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"मेरा परिवार सब भुगत रहा था, मैं कुछ जानता नहीं था!" बोला वो,
अब संजीदा हो कर बातें कर रहा था! इसका मतलब अब कोई परेशानी नहीं थी उसके साथ!
"चलो, बुरा सपना जान, भूल जाओ अब!" कहा मैंने,
"जैसे आप कहें!" बोला रौशन!
उठा और बाहर चला गया, कुछ देर बाद आया, चाय लेकर, साथ में कुछ नमकीन, मिठाई आदि लेकर!
"लीजिये!" बोला वो,
हमने चाय पी, नमकीन ली, कुछ मिठाई भी!
"रौशन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"क्या उस जगह ले जा सकते हो हमें, जहां से आवाज़ आई थी?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, ले जा सकता हूँ" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"जब भी आप कहें?'' बोला वो,
"कल चलें?" पूछा मैंने,
"चलिए!" बोला वो,
तो इस तरह हमारा कल का कार्यक्रम हो गया निर्धारित! अब कुछ शेष था तो कुछ छोटी-मोटी सी तैयारियां! वो मैं कर ही लेता! उसमे कोई समस्या नहीं थी!
तो वो शाम बीती फिर रात हुई, रात में आवश्यक तैयारियां कर लीं, कल दिन में देखना था कि क्या किया जा सकता है, क्या वो आवाज़ें हमें भी आती हैं या नहीं, या फिर हमें खाली हाथ ही लौटना पड़ेगा, रौशन की जो समस्या थी, वो तो अब समाप्त हो चली थी, वो अब बिलकुल ठीक था, उसका काम तो समझो खत्म ही हो गया था, बस मन में जो अब लालसा थी वो उस बारात की थी, जो वहाँ से गुजरती थी! कल रौशन से मिलकर दिनों का हिसाब भी लगाना था कि वो किस दिन और कब, कितने बजे वहाँ पहुंचा था, अक्सर प्रेत एक ही निश्चित समय और स्थान पर ऐसा किया करते हैं, यही उनका नियम बन जाता है!
तो अगले दिन, हम करीब ग्यारह बजे वहां पहुंच गए, चाय-नाश्ता किया और फिर रौशन से मुलाक़ात की, उस के साथ ही बैठे थे हम उस रोज!
"रौशन, उस रोज क्या दिन था?" पूछा मैंने,
"शनिवार, उस दिन मैं जल्दी ही निकल पड़ा था!" बोला वो,
"और अभी शनिवार आने में दो दिन हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कोई बात नहीं, देख लेते हैं!" कहा मैंने,
"ज़रूर!" बोला वो,
"तो ठीक है, कब निकलें?" पूछा मैंने,
"घंटे भर में निकल चलते हैं?" कहा उसने,
"ठीक है!" मैंने कहा,
घंटा भर वहीँ बिता दिया, खूब बातें हुईं हमारी शहर के बारे में, अन्य मामलों पर, अरविन्द जी से, रौशन के भाई से, आदि आदि! और इस तरह, घंटे भर से पहले ही हम निकल पड़े थे वहाँ के लिए!
"बस, यहीं!" बोला रौशन!
"अच्छा!" कहा मैंने,
और हम उतर गए वहां!
वो जगह एकदम सुनसान थी! बीहड़ थी! उजाड़ और एकदम अलग-थलग! सर्दी थी, और हवा चल रही थी, ओंस की बूंदों से, फूसों की घासगीली हुई पड़ी थी! रात के सर्दी का कहर साफ़ देखा जा सकता था, ज़मीन में रेह सी लगी दीख रही थी! बियाबान!
"रौशन?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"यही जगह है?" पूछा मैंने,'
"हाँ!" बोला वो,
"आवाज़ कहाँ आई थी?" पूछा मैंने,
"उधर से!" बोला वो, इशारे से,
वो जगह कोई पश्चिम में थी, कोई रास्ता नहीं था वहां, हम एक रास्ते पर खड़े थे, रास्ता इतना अच्छा तो नहीं था लेकिन हिन्दुस्तान में जहां से गुजरना हो जाए, उसे ठीक ही माना जाता है, सो ही था!
"यहां तो बीहड़ है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रौशन?" पूछा शर्मा जी ने,
"जी?" बोला वो,
"वो जो आदमी मिले थे, वो कहाँ मिले थे?" पूछा उन्होंने,
"यहीं!" कहा उसने,
"इस जगह?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" कहा उसने,
अब मैंने हर जगह देखा, दूसरी तो कोई जगह थी नहीं आसपास! दूर दूर तक बस फूस और कंटीली झाड़ियाँ! और कुछ नहीं!
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले शर्मा जी,
"रौशन, आओ?" कहा मैंने,
वो भी आ गया साथ में हमारे फिर!
"ज़रा अंदर देखते हैं!" कहा मैंने,
"इधर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
अब हम, उस जगह के पार तक आ गये, खड़े हो कर देखा, कुछ नहीं था!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"आओ!" बोला मैं,
और हम लौट पड़े फिर!
गाड़ी तक आये, तो शील जी और बादल जी भी बाहर आ खड़े हुए थे!
"कुछ दिखा?" पूछा शील जी ने,
"न!" बोला मैं,
"फिर?" बोले वो,
"आगे चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले शील जी,
गाड़ी में बैठे, गाड़ी चालू हुई, और आगे बढ़े हम!
तभी मेरी निगाह एक टूटे से खंडहर पर पड़ी!
"रुको!" कहा मैंने,
गाड़ी में लगे ब्रेक! और मैं उतरा नीचे!
"आना शर्मा जी?" कहा मैंने,
"आता हूँ!" बोले वो, और उतर आये नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ, सड़क किनारे, एक खंडहर सा बना था, लाल रंग का खंडहर, लखौरी ईंटों का सा, ये कोई बड़ी इमारत नहीं थी, दीवारें काफी बड़ी थीं, रही होंगी, अब तो ज़मीन से बातें कर रही थीं वे दीवारें भी, बस नींव ही बची होंगी ठीक, शेष पर, झाड़-झंखाड़ उग आया था,  इमारते करीब चौदह या सोलह फ़ीट चौड़ी होगी, लेकिन वो था क्या? न कुआँ, न सराय और न ही कोई चौकी आदि, ये था क्या?
"ये है क्या?" पूछा मैंने,
"पता नहीं?" बोले शर्मा जी,
अब तक सभी नीचे उतर आये थे, उनको भी सवाल दिया गया यही, सभी अपने अपने हिसाब से अटकलें लगाने लगे!
"जन कोई प्याऊ तो न दीखै?" बोले बादल जी,
"न! पानी वाला क्या छत पर बैठता होगा?" बोले शील जी, हँसते हुए!
हमें भी हंसी आ गयी! छत पे!
"पाइप ले कर तो नहीं बैठता होगा बादल जी?" बोले कमल जी, मज़ाक करते हुए!
"मज़ाक च्यौं बनावौ हो मिर'यार!" बोले बादल जी!
"न बना रहे मज़ाक!" बोले शर्मा जी,
"कोई महसूल-चौकी तो नहीं?" बोले शील जी,
"न! इतनी छोटी?" बोले शर्मा जी,
"तौ है का मेरु सासु की?" बोले बादल जी!
"समझ गया!" कहा मैंने,
अब सभी ने देखा मुझे एक झटके से!
"कहा?" बोले बादल जी,
"क्या है ये?" बोले कमल जी,
"ये द्वार है, प्रवेश-द्वार! यहां से रास्ता जाता होगा अंदर!" कहा मैंने,
"उरे हाँ!" बोले बादल जी,
"हाँ! वही है!" बोले शील जी!
"हाँ, ये ठीक कहा! सही पहचाने!" बोले शर्मा जी,
"गाँवन में होते काय!" बोले बादल जी!
"हाँ जी, वही है!" कहा मैंने,
"रासतौ तो दीखै न कोई?" बोले बादल जी,
"अरे! ये कल थोड़े ही बनी है?" बोले शर्मा जी,
"जे बात! तभई नाय दीख रौ!" बोले बादल जी!
फिर से हंसी का गुब्बारा फटा! सभी हंस पड़े!
"इसका मतलब, यहाँ कभी रास्ता रहा होगा, ये द्वार होगा, यहां से अंदर दाखिल हुआ जाता होगा! और इसका मतलब हुआ, कि ये अवश्य ही कोई महत्वपूर्ण जगह रही होगी! या, कोई विशेष गाँव, या किसी विशेष व्यक्ति की रिहाइश!" कहा मैंने!
"हाँ यही होगा!" बोले शील जी!
खैर, हम वहां पर घंटा भर और रहे, कुछ न मिला और, न कोई आवाज़ ही आई, बात स्पष्ट थी, अभी समय नहीं था कि वो यहां आते! तो हम लौट आये फिर, रौशन को घर छोड़ दिया, और खुद वापिस हो गए अपने ठहरने की जगह!
तो अब हमारे पास दो दिन थे, हम उन दो दिनों में आसपास घूमे, आगे सवाई माधोपुर तक गए, एक परिचित हैं शर्मा जी के, उनसे मिले, दावत हुई और फिर वापिस हुए! शुक्रवार की रात की बात है, हम आराम से, ठंड का लुत्फ़ उठा रहे थे, मदिरा के जाम उड़ेले जा रहे थे! उस रोज, मिलिट्री वाली रम ले आये थे कमल जी! बस, उस रोज हमसे बड़ा अफ़सर और कोई न था!
"एक बात पूछनी है!" बोले शील जी,
"पूछें?" कहा मैंने,
"ये प्रेत एक ही समय पर क्यों दीखते हैं?" पूछा उन्होंने,
"ये समय का वो खंड है, जो उनके लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है! कोई ऐसा कार्य, जो वो जीते जी न कर सके! या फिर अच्छा ही रह गयी उनकी! वो उसी निश्चित समय को, प्रेत बनकर, पूर्ण करते हैं!" बोला मैं!
"और शेष समय? तब कहाँ रहते हैं वो?" पूछा उन्होंने,
"वहीँ!" कहा मैंने,
"वहीँ?'' पूछा शील जी ने चौंक कर!
"हाँ! वहीँ!" बोला मैं,
"तो नज़र क्यों नहीं आते?" पूछा उन्होंने,
"वे अपनी निराःस्थिति में होते हैं तब!" कहा मैंने,
"ये कौन सी स्थिति है?" पूछा कमल जी ने,
"आप, सुप्तावस्था मान लो इसे!" कहा मैंने,
"बढ़ा ही गूढ़ है!" बोले कमल जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बादल जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"बोलते क्यों न हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"कहा बोलूं?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"कछु समझ ही नाय आ रौ!" बोले वो,
"क्या नहीं आ रहा समझ?" पूछा उनसे,
"जन कौन सी तिथि?" बोले वो,
ऐसा ज़ोरदार ठहाका मार सबने, कि बादल साहब भी न रुक सके बिना हँसे!
"तिथि या स्थिति?" बोले शर्मा जी,
"अब मोय कहा मालूम?" बोले वो!
"निराःस्थिति!" बोले शर्मा जी,
"रहिन दो!" बोले वो,
"च्यौं?" बोले शर्मा जी,
"बस!" बोले बादल जी,
"बताओ तो सही?" बोले शर्मा जी,
"परेत बन कै समझ में परै तो परै!" बोले वो,
"अजी रहिन दो!" बोले शर्मा जी,
"इरे तुम गिलासै भरो!" बोले वो,
भरा शर्मा जी ने गिलास!
एक झटके में खलास!
"है! क्या बात!" बोले शर्मा जी,
"अब कै फूटी गर्माइस सी!" बोले बादल जी!
"आया मजा?" पोछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोले मूंछों पर ताव देते हुए!
"लाओ!" कहा मैंने,
भरा मेरा भी गिलास और दिया मुझे!
"शील जी?'' बोले शर्मा जी,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
दे दिया गिलास भर के उन्हें भी!
"बारात में जानौ है!" बोले बादल जी!
मेरी हंसी निकली तब!
"कहा करोगे?'' पूछा शर्मा जी ने,
"लै? कहा करै करैं?" बोले बादल जी,
"तीमन?'' बोले शर्मा जी,
"हाँ! और पुरानी शराब!" बोले वो,
"ओहो!" बोले शर्मा जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो साहब, हमारी महफ़िल जवान रही! तक़रीबन साढ़े ग्यारह बजे, बाहर से टपर-टपर की आवाज़ आई! साफ़ था कि बाहर बारिश पड़ने वाली है! ये बारिश से पहले की संदेसा-बूँद थीं! वही मोटी-मोटी बूदें! और यही हुआ! ऐसी तेज बारिश कि पूछिए ही मत! झमाझम बारिश! कमरे में बढ़ी सर्दी! हीटर तेज कर दिया गया! जितना किया जा सकता था! पर उस से वही कमरा थोड़ा गरम हुआ था, नहीं तो सर्दी ऐसी भयानक पड़ रही थी कि बाहर जाओ तो ख़ून रगों में ही जम जाए!
"उरा बहन**! आज तौ बहा ले जातौ दीखै! कैसौ टूट कै बरस रौ है!" बोले बादल जी! अपना खेस अपने से लपेटते हुए!
"भई ज़ोर के पर रौ है!" बोले शर्मा जी! बादल साहब को देख के!
"और मैं कहा फ़ारसी मैं बोल रौ हूँ?" बोले बादल साहब!
"अजी न सरकार!" बोले शर्मा जी,
"ज़्यादा तेज है?" पूछा मैंने,
"आकर देखो तो सही?" बोले शर्मा जी,
मैं गया वहां तक, धुंधले से शीशे में से देखा बाहर, सामने सफेदे के पेड़ झूम रहे थे खड़े खड़े! उनके पीछे बत्तियां जल रही थीं और बारिश झमाझम पड़ रही थी!
आ गए बादल साहब भी वहां! अब तो सर भी लपेट लिया था उन्होंने अपने खेस में! बुक्कल सी मार ली थी!
"आंधी चल री काय?" पूछा बादल जी ने,
"ना! हवा तेज है!" कहा मैंने,
"मोय तौ आंधी सी लगै?" बोले बादल जी,
"ना!" कहा मैंने,
"आज फारतौ दीखै है छतन नै!" बोले बादल जी,
"आ जाओ! ठंड लग जायेगी बादल जी?" बोले शर्मा जी,
"च्यौं जी?" बोले बादल जी, शर्मा जी से,
"बोलो सरकार!" बोले शर्मा जी,
"ठंड मेरी सासु की मोये येयी लगेगी, अकेरे?" पूछा बादल जी ने!
मेरी हंसी छूटी! रोके न रुके! शर्मा जी हँसे खूब! बादल जी भी हंसें!
"आओ अब! सोने का वक़्त है!" कहा मैंने,
बादल जी के कंधे पर हाथ रखते हुए, शर्मा जी ले आये उन्हें! और फिर हम, अपने अपने कमरे में चले गए! ठंड बहुत ज़्यादा थी! ऐसा लगता था कि जैसे किसी बर्फीली पहाड़ी की चोटी पर वो हवेली बनी हो! बस, इतना शुक्र था कि हवा नहीं आ रही थी अंदर कहीं से!
लाइट बंद की, मद्धम रौशनी वाला नाईट-लैंप जला लिया, और हमने अपने अपने बिस्तर पकड़े! पाँव ऐसे हो रहे थे कि जैसे बर्फ में भाग कर आये हों! सुन्नाहट में बस ज़रा कम! मैं लेट गए, मेरे पीछे की दीवार में एक रौशनदान था, उसमे हरे रंग का कांच लगा था, उसमे से परछाइयाँ अंदर आतीं तो अलग अलग आकृतियाँ बनातीं! कभी टिड्डे की, कभी छिपकली की, कभी कोई चेहरा और कभी कुछ और कभी कुछ! बाहर बादल गरज रहे थे, वैसी सर्दीली रात, और वैसा अँधेरा! बारह का समय और बादलों का गरजना! तेज बारिश! पूरी कायनात को जैसे काठ मार गया था! सभी दुबके पड़े थे अपनी अपनी जगह! शर्मा जी को नींद आ गयी थी, बस मैं भी किसी भी पल, आँखें बंद करता और नींद की वादियों में विचरण करता! फिर भी, आधा घंटा लग गया! और तब मैं सोया!
सुबह नींद मेरी ज़रा देर से खुली, मैं साढ़े आठ बजे जागा! शर्मा जी स्नान-ध्यान से निबट चुके थे और अपने जूते साफ़ कर रहे थे बैठे बैठे!
नमस्कार हुई उनसे!
"बारिश हो रही है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"रात से?" पूछा मैंने,
"रुक रुक कर पड़े जा रही है!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"देखो बाहर ज़रा! कीचड़-काचड़ हो गया है!" बोले वो,
"हो गया होगा!" कहा मैंने,
"सभी उठ गए?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कोई भी नहीं?'' पूछा मैंने,
"कमल जी बस, नाश्ता लेने गए हैं शायद, शायद!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
फिर मैं उठ कर, निबटा-निबटी कर आया! तब तक शर्मा जी के पास खबर आ चुकी थी कि नाश्ता लग गया है, मैंने कपड़े पहने और चल पड़ा उनके साथ नीचे! आ गए हम वहां! शील जी नहीं उठे थे, हाँ, बादल जी आ गए थे और बैठे थे, उनसे नमस्कार हुई, कमल जी नाश्ता परोस रहे थे!
"मेरी सासु की बंद ही न हुई?" बोले बादल जी!
"बारिश?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ना! दो बजे बंद थी, ये सुबह पड़ी है फिर से!" बोले कमल जी,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
थोड़ी देर बाद शील भी आ गए, नमस्कार हुई, और हम नाश्ता करने लगे! गरम गरम कचौरियां ऐसा आनंद दे रही थीं कि जैसे उस से बढ़िया और बेहतर कुछ हो ही न! चाय का तो कहना ही क्या! चाय तो अमृत समान लग रही थी! गरम गरम चाय!
"ऐसे में कैसे जाएंगे?" पूछा कमल जी ने,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, हो गयी बंद, तो चल लेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले शील जी,
"मेह कहा बोल रौ है?" पूछा बादल जी ने,
"बोल रौ है, बादल जी संग तो हर चीज़ में रंग!" बोले शर्मा जी, छेड़ते हुए उन्हें!
"अजी कैसौ रंग! बेढंग हुए परे हैं!" बोले वो,
"क्या बात हुई सरकार?" बोले शर्मा जी,
"पेट में दद्द सौ है रौ है!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पचौ ना दीखै कल मुर्गा!" बोले बादल जी,
"हो सकै है!" बोले शर्मा जी,
"गोली लोगे?" पूछा मैंने,
"है गोरी धौरै?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वाह भई!" बोले बादल जी!
"अभी दे देंगे आपको!" कहा मैंने,
तभी बाहर बादल गरजे!
ऐसी तेज रौशनी उठी कि आँखें चुंधिया गयीं!
और बत्ती गोल!
इन्वर्टर चल पड़ा तभी! लेकिन हीटर बंद हो गया!
"फट तौ न परौ कहीं?" बोले बादल जी,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"कैसौ अर्रायौ तेज!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये न होवै बंद आज!" बोले शर्मा जी,
"लेट मारो जी आज तो!" बोले कमल जी!
"सही बात है!" कहा मैंने,
चाय-नाश्ता चलता रहा हमारा!
और बारिश ने बाहर, ज़ोर पकड़ा फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बारिश तो कहर ढाने को आमादा थी! बादल गरज गरज के जैसे आग में घी का काम कर रहे थे! बारिश बोले ज़मीन से कि आज ढा दूँगी तुझे और ज़मीन बोले जितना बस चले, चला के देख ले! इस बस के चक्कर में हम अबस ही बे-तलब हुए जा रहे थे! कई दिनों से ख़्वाब पाले हुए थे कि बस चंद रोज बाद एक नया खुलासा होगा! कुछ नया जानने को मिलेगा! कुछ पामाल हम होंगे और कुछ पामाल शायद वो भी हों! लेकिन इस बारिश ने तो काम ऐसा बिगाड़ा था कि ख्वाब तो छोड़िए, बरसते मेह को देखना ही टीस सी भर देता था जिगर में!
"ये काम सही नहीं हो रहा!" बोले शर्मा जी,
"अब करें भी तो क्या?" पूछा मैंने,
"चौमासे कायिन बरस रौ है जे तौ!" बोले बादल जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब इंतज़ार के अलावा और कुछ न हो!" बोले शर्मा जी,
"सही कह रहे हो!" बोले कमल जी,
बातें करते रहे हम वहीँ बैठे बैठे, अब हीटर भी काम नहीं कर रहा था, और सर्दी घुसने लगी थी कमरे में! हालांकि सर्दी से बचने के पूरे इंतजामात कर रखे थे लेकिन कहीं न कहीं से तो सर्दी दस्तक दे ही देती थी! और उसकी ये दस्तक ऐसा काँटा सा चुभोती कि आँखों से आंसू टपक जाएँ! रोएँ खड़े हो जाएँ!
तक़रीबन बारह बजे, बारिश ने सांस ली, मैंने बाहर झाँका, छिटपुट बारिश तो थी, बंद ही न हुई थी! हां, बस इतना कि आसमान अब खुलने लगा था! कुछ देर और इंतज़ार किया, इतने में खाना भी खा लिया! अरहर की दाल, साबुत मिर्च का अचार, पनीर-भुजिया, दही और सलाद, चिपड़ी हुई रोटियां देसी घी से! ऐसा बढ़िया स्वाद कि हम तो लीलते ही चले गए! जब तक डकार पर डकार न आ गयीं, तब तक घुटने नहीं टेके! दाल में भी देसी घी का तड़का लगा था और ऊपर से, कच्चा आम भी डाला गया था, अरहर की दाल में कच्चा आम पड़ा हो, तो भला उसका क्या मुक़ाबला साहब! पनीर-भुजिया ऐसी लाजवाब कि पूछिए ही मत! उसमे हरी मिर्च और प्याज के टुकड़े आते तो रोटियों का कौर अपने आप ही बड़ा हो जाता था! नूनी-मक्खन के साथ तो साहब, स्वाद चार गुना
 बढ़ जाया करता है! तो, खाना खा के हो गए संट! बाद में एक बड़ा गिलास मट्ठे का और पी लिया!
अब एस अखना, देवराज को भी न मिलता होगा! हमें तो मिला! तो नाज तो करना ही होगा अपनी क़िस्मत पर!
उस वक़्त तक, एक बज चला था, एक अच्छी बात ये सुनने को मिली कि बारिश थम गयी थी! मौसम खुल गया था और बाहर, लोगों की आवा-जाही शुरू हो चली थी! सुबह से बिस्तरों में चिपके थे लोग! अब पाँव सीधे किये थे उन्होंने! बाहर, भाजी-तरकारी वाले, ठेले वाले, अपने अपने घर के लिए सामान लाते लोग, अब दीखने लगे थे! कुछ ठहराव के बाद, ज़िंदगी अपने उसी ढर्रे पर लौट आई थी!
"कमल साहब?'' बोला मैं,
"जी?" बोले कमल जी, मुझे देखते हुए,
"खाना लाजवाब बना था!" कहा मैंने,
"कोई शक नहीं!" बोले शर्मा जी,
"धन्यवाद!" बोले कमल जी!
"बारिश बंद है न?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"यहां पानी तो नहीं भरता?" पूछा मैंने,
"भराव हो जाता है जी!" बोले वो,
"और वहाँ?" पूछा मैंने,
"वो उजाड़ है, वहां नहीं भरेगा!" बोले वो,
"चलो ये अच्छा है!" कहा मैंने,
"आधा घंटा और देख लो?" बोले कमल जी,
"हाँ, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
तब मैं तो टेक लगा कर बैठ गया था आराम से! शर्मा जी ने भी टेक ढूंढ ही ली थी!
आधा घंटा और बीता! कमल जी तैयार हो गए थे! बस कुछ सामान रख रहे थे बैग में, कुछ ज़रूरी सामान था उनका,
"बादल जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले बादल जी,
"अब तौ न पर रयी बारिश?" बोले शर्मा जी,
"अब तौ चुप सौ बैठौ है!" बोले वो,
"बस, चुप सौ ही बिठालो याय!" बोले शर्मा जी,
"मेरे कहा हाथन में धरौ है?" बोले बादल जी,
"कैसे न धरौ?" बोले शर्मा जी,
"कैसे धरौ है?" पूछा बादल जी ने,
"याय डाँट मारो?" बोले शर्मा जी,
"ले जायगौ बहा कै!" बोले वो,
"अजी न!" कहा शर्मा जी ने,
"मानै च्यौं न हो?" बोले बादल जी,
"अजी मान गए सरकार!" बोले शर्मा जी,
"आओ जी!" बोले कमल जी,
"चलो!" कहा मैंने,
और जी हम, निकल पड़े फिर वहां के लिए! बाहर तो बड़ा बुरा हाल था, जगह जगह पानी भर गया था, लोगों ने ईंट, पत्थर डाल दिए थे जगह जगह, रास्ते में, उनको पार करने के लिए! हॉर्न पर हॉर्न! बड़ा बुरा हाल था! पीछे दो सरकारी ट्रक थे, पता नहीं रेल के इंजिन का हॉर्न लगवा रखा था उन्होंने तो! जब बजता तो कपड़े ही फटने को हो जाते!
आखिर पौने घंटे की मशक़्क़त के बाद, हम खुले से रास्ते पर आये! यहां पकड़ी रफ़्तार! और चल पड़े, रौशन के घर के लिए, रौशन को फ़ोन कर ही दिया था हमने! वो तैयार बैठा था!
"चाय?" पूछा कमल जी ने,
"पक्का!" बोले शर्मा जी,
"अभी लगाता हूँ!" बोले कमल जी,
और गाड़ी लगा दी एक तरफ!
साथ ही ढाबा था, वहीँ चाय के भगौने में, चाय खौल रही थी! हम अंदर जा बैठे! चाय के लिए कहा, और एक एक मट्ठी भी मंगवा ली!
तो साहब, यहां चाय पी, दरअसल, रौशन को बाहर ही मिलना था, उसी रास्ते पर, जहां से हमने उसको लेना था साथ अपने! और फिर हम चल पड़े आगे के लिए!
"वैसे बारिश की मार देखो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पानी तो नहीं खड़ा कहीं?" बोले शर्मा जी,
"यहां की ज़मीन सोख लेती है जल्दी ही!" बोले कमल जी,
"यही बात है!" कहा मैंने,
दूर से, कोई खड़ा दिखा, सामने, हाथ दे रहा था!
"रौशन!" बोले कमल जी,
"हाँ!" बोला मैं,
गाड़ी रोक ली उसके पास ही, और बिठा लिया साथ अपने, सभी से नमस्ते हुई उसकी, हमने भी की!
"और रौशन?" बोला मैं,
"सब ठीक जी!" बोला वो,
"घर में?" पूछा मैंने,
"सब बढ़िया!" बोला वो,
"चलो ठीक!" कहा मैंने,
"रात भर बारिश पड़ी!" बोले शील जी,
"हाँ जी!" बोला रौशन!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम उस डगर पर चल पड़े थे अब! बारिश का असर तो साफ़ दीख पड़ता था! कहीं कहीं सड़क पर, सड़क के आसपास, पानी खड़ा हो गया था, अब कहाँ गड्ढा है और कहाँ नहीं, ये सब राम-भरोसे था! कहीं पर आराम से निकल जाते, और कहीं कहीं पर खोपड़ा  फूटते-फूटते बचता!
"सड़क तो खुल के सामने आ गयी!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, मिट्टी बह गयी!" बोले कमल जी,
एक जगह तो ऐसा गड्ढा आया कि उसको देखते ही हड्डियां काँप कर रह गयीं! सड़क किनारे बीच में!
"उरा! बिट**!! पाताल कौ सौ रास्ता दीखै!" बोले बादल जी,
हमारी हंसी छूटी! पाताल का रास्ता! सड़क के बीचोंबीच!
"गड्ढे बन गए हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, वो भी हाड़तोड़!" बोले शर्मा जी,
इस से गाड़ी की रफ़्तार पर असर पड़ा था, रफ़्तार ऐसी थी कि हमसे आगे तो एक ऊँट-गाड़ी निकल जाती!
"कहाँ रह गयी आज जगह?" बोले शर्मा जी,
"बस, कोई दो किलोमीटर और!" कहा रौशन ने!
"बारिश ने तो आबरू तार तार कर दी सड़क की!" बोले शर्मा जी,'
"हाँ!" कहा मैंने,
"समय क्या हुआ?" पूछा शील जी ने,
"ढाई बजा है!" बोले शर्मा जी, मोबाइल में देखते हुए,
"रौशन?" बोले कमल जी,
"हाँ जी?" बोला रौशन,
"उस दिन क्या समय था?" पूछा उन्होंने,
"ऐसा ही समय था!" बोला रौशन,
"इसके आसपास का ही?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"दिल बैठौ जाय!" बोले बादल जी,
"अरे? क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"कदि बासतौ ही न परौ भूतन ते!" बोले बादल जी,
"हम हैं न?" कहा मैंने,
"सो तो भली, पर दिल बवराय जा रयौ है!" बोले वो,
"कुछ देर और बस!" कहा मैंने,
"अरे रछा कीजौ मेरे बंसरी वारे आज!" बोले बादल जी!
हंसी दौड़ पड़ी गाड़ी में! रौशन भी हंस पड़ा!
बादल जी, दोनों हाथ जोड़, प्रार्थना कर रहे थे!
"अरे कुछ नहीं होगा!" बोले शर्मा जी,
"जन काई ने पकर लये हाथ, तो परान पै बनी!" बोले वो,
"ऐसे कौन पकड़ लेगा?" पूछा मैंने,
"मोय नज़रन में ही बांधै रीजौ!" बोले बादल जी!
"साथ बिठाएंगे!" कहा शर्मा जी ने!
"आ गयी जगह!" बोला रौशन!
और हम सब उतरे फिर गाड़ी से, एक तरफ आ खड़े हुए!
सामने से, एक ऊँट-गाड़ी आ रही थी, कुछ लोग बैठे थे उसमे, पास में से गुजरे तो कमल जी से बातें हुईं उनकी!
"पूछ रहे थे, रास्ता ठीक है आगे?" बोले कमल जी,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रौशन?" बोले कमल जी,
"हाँ?" पास आकर बोला वो,
"यहीं?'' पूछा कमल जी ने,
"हाँ!" कहा उसने,
"तो ठीक है! सब बज़र रखो फिर! कान खोल लो अपने!" कहा शर्मा जी ने,
"सब कुछ खुलौ है, सगरौ!" बोले बादल जी,
फिर से हंसी का फव्वारा छूटा! बात ही ऐसी करते थे बादल जी!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, सड़क पार कर, एक तरफ हो गए!
आधा घंटा बीत गया, लेकिन कुछ न सुनाई दिया! कुछ न दिखाई दिया! वापिस आये और गाड़ी में आ बैठे, पानी पिया थोड़ा सा! बादल जी और शील जी, सड़क के दूसरी तरफ खड़े थे, कान लगाये हुए! बाहर झाँका हमने, तो उन्होंने हाथों से मन कर दिया! कुछ न सुनाई दिया था उन्हें!
थोड़ी देर बाद, वो भी लौट आये हमारे पास, आ बैठे!
"कुछ सुनाई दिया?" पूछा शर्मा जी ने,
"कुत्ता भी न भौंक रहे जी!" बोले बादल जी,
"थोड़ा और इंतज़ार कर लो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
अब गाड़ी में थी गर्माइश!
हवा लगे ही नहीं, बाहर तो जैसे, पैन्ट भी गीली लगने लगी थी! अब कमर टिका ली, कम टिकाई, और जम्हाईयां आएं! देह खुलने को हो! जितनी ज़्यादा टेक मिले, उतनी और सुस्ती आये! मेरा नहीं, सभी का यही हाल था! रौशन सबसे पीछे बैठा था, पीछे देखता हुआ!
कमल जी, स्टेयरिंग पकड़े, ऊँघने लगे थे!
शील जी, टांगें फैला पीछे लेट गए थे!
शर्मा जी, गाड़ी की छत की ओर मुंह कर, सो चले थे!
बादल जी, बीच वाली सीट पर, आँखें बंद किये सो गए थे!
और मैं, ड्राइवर की साथ वाली सीट पर, टेक लगा, कभी सामने देखता, कभी खर्राटे सुनता शर्मा जी के, कभी आँखें मूँद लेता!
समय, काटे न कट रहा था!
और इस तरह, ढाई घंटा और बीत गया! बज गए साढ़े चार! रौशन भी, टेक लगा, पाँव हिलाते हुए, पीछे लेट गया था!
ऊँघने में ही समय काटा हमने, एक घंटा और बीत गया!
और अचानक!
अचानक से, मैंने पीछे देखा!
रौशन भी जाग कर, पीछे देखने लगा था!
"कुछ सुना आपने?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"नगाड़ा सा!आए' कहा मैंने,
"हाँ! आइये नीचे!" बोला वो,
मैं जैसे ही उतरा, आवाज़ हुई, सभी जाग गए! सकते से बाहर आये जैसे! और उतर गए सभी नीचे! बादल जी भी झट से खड़े हो गए थे!
"कुछ दिखा?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं! सुना!" कहा मैंने,
"क्या?" हैरत से पूछा उन्होंने,
"नगाड़ा!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ से सुना?" पूछा उन्होंने,
"उधर से!" कहा मैंने,
"पीछे से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तभी फिर से एक ताल सी बजी!
और इस बार!
इस बार तो सभी के कान हुए खड़े!
आवाज़, आई थी कहीं दूर से!
"लेकिन कहाँ से आई आवाज़?" पूछा शील जी ने,
"शायद वहाँ से!" बोले कमल जी,
"जंगल से?" पूछा शील जी ने,
"हाँ, शायद!" बोले वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
कुछ ताल से फिर बजी! और बंद हुई!
सभी एक तरफ ही देखने लगे! आँखें फाड़े और कान लगाये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो आवाज़ कभी तो गूँज जाती थी और कभी ऐसा लगता, कि जैसे किसी दूर गाँव-देहात में कोई बारात आई हो! नगाड़ों की आवाज़ बड़ी ही कंपी कंपी सी आ रही थी, ऐसा लगता था कि जैसे, हमारे कानों में, सभी को अलग अलग दिशा से वो आवाज़ आ रही हो!
"वहाँ से आ रही है ये आवाज़!" बोले शील जी,
"नहीं, उधर से!" बोला रौशन!
और तब, आवाज़ बंद हो गयी! अब कहीं से नहीं आ रही थी वो आवाज़! हमने खूब ही इंतज़ार किया, लेकिन नहीं आई फिर कोई आवाज़!
"लौट गयी दीखै?" बोले बादल जी,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कछु तो बोल न रौ!" बोले वो,
मैंने घड़ी देखी, छह बजने को थे अब तो! अँधेरा छाने लगा था, और उस धुंधलके में, कुछ नज़र न आये! हमारी गाड़ी की बत्ती ही जले बस!
"लो! या की और कसर रह गयी ही!" बोले बादल जी,
बारिश! फिर से बारिश पड़ने लगी थी! हालांकि, ज़्यादा तो नहीं थी, लेकिन भिगोने लायक तो काफी थी! सर्दी में ऐसी बारिश पड़ जाए बदन पर तो, सर्दी-खांसी, ज़ुक़ाम और नजला पकड़ लेता है! हम सभी झट से गाड़ी में जा घुसे!
"ये सही नहीं हुआ!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा शील जी ने,
बाहर, ज़ोर की बारिश पड़ने लगी! अब न सामने नज़र आये कुछ और न ही पीछे नज़र आये कुछ! हम तो जैसे फंस के रह गए थे वहाँ!
"क्या कहते हैं?'' बोले शर्मा जी,
"अब चलो फिर?" कहा मैंने,
"ऐसी बारिश में दिक़्क़त हो जायेगी!" बोले कमल जी,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"और क्या?" बोले कमल जी,
अब गाड़ी की जली बत्तियां! और उनकी रौशनी में, बारिश ही बारिश! कुछ न सूझे!
"चला लोगे?'' पूछा शर्मा जी ने कमल जी से,
"हाँ, आराम से!" बोले वो,
"ठीक!" बोले वो,
तो गाड़ी मोड़ ली गयी, और धीरे धीरे हम लौट पड़े वापिस, गड्ढे अब बराबर से दीख रहे थे, इसीलिए अब आराम आराम से चल रहे थे हम! चुपचाप और अपने अपने में खोये हुए से! आज बारिश ने काम खराब कर दिया था, क्या सोच कर आये थे और क्या हुआ था! खैर, सभी चीज़ें इतनी आसान नहीं होतीं कि झट से हाथ बढ़ाया और पका हुआ फल तोड़ लिया! अभी फल पका नहीं था!
तो हम, अपना सा मुंह लिए लौट रहे थे, गाड़ी धचकियां खाए जा रही थी, बाहर, पानी के बौछारें हमें डरा रही थीं! गाड़ी कभी बायीं करवट झुके और कभी दायीं! उसके संग के, हमारे धड़ पर थमी गर्दनें भी ही जाएँ!
अचानक!
अचानक से तेजी से ब्रेक लगे!
गाड़ी रुकी और मैंने सामने देखा!
सामने तो झिलमिलाती हुई रौशनियाँ दीख रही थीं! दिमाग सन्न! ऐसी बरसात में, ऐसी रौशनियाँ? कहाँ से? कैसे?
सभी की आँखें खुली रह गयीं! कुछ समझ ही ना आये किसी को!
"ये क्या है?" पूछा शर्मा जी ने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"ये बत्तियां?" चौंक के पूछा उन्होंने,
रंग-बिरंगी बत्तियां थीं वो! लाल, पीली, नीली बत्तियां! लेकिन शोर कुछ नहीं!
"काफी बड़ा सा क़ाफ़िला है?" बोले शर्मा जी,
"लेकिन ये है क्या?" पूछा शील जी ने,
"हाँ? हिल भी नाय रौ?" बोले बादल जी,
"ज़रा आगे चलना?" कहा मैंने कमल जी से,
गाड़ी बढ़ाई आगे, थोड़ा आगे गए,
"बत्तियां बुझाइए?" कहा मैंने,
बत्तियां कीं बंद!
और तब कुछ दिखा हमने!
दूर करीब कोई पचास मीटर पर, हाथी खड़े थे! उन पर छतरियाँ भी लगी थीं, उन बत्तियों के प्रकाश के उन पर पड़ने से वे चमक जाती थीं कभी-कभार! ऊँट थे, सजे-धजे! घोड़े और पैदल से लोग! सभी खड़े थे!
"कहीं ये बारात तो नहीं?" बोला मैं,
"अरे हाँ!" बोले शर्मा जी,
"छतरी है क्या कोई?" पूछा मैंने,
"नहीं!" हल्की सी आवाज़ में बोले कमल जी,
घूर रहे थे बाहर, उन बत्तियों को!
सभी के सभी, बाहर झाँक रहे थे, हवाइयां उड़ रही थीं सभी के चेहरों पर!
"रै कमल?" फुसफुसाए बादल जी,
"हाँ?" बोले कमल जी,
"मोड़ो या गाड़ी यै?" बोले फुसफुसा कर बादल जी!
"रुको?'' कहा मैंने,
बादल जी झुक गए नीचे!
रौशन, शीशे के साथ चिपक कर देखे बाहर!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"नीचे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं,
"बारिश?" बोले वो,
"आओ तो सही?" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
"सुनो, सुनो?" बोले कमल जी,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"एक रेन-कोट है मेरे बैग में!" बोले वो,
"लाओ, जल्दी!" कहा मैंने,
पीछे से रौशन ने उठाया, दिया मुझे! मैंने पहन लिया!
"सुनो शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"आप यहीं रुको, मैं आता हूँ!" कहा मैंने,
"चलता हूँ मैं भी?" बोले वो,
"नहीं, नीचे नहीं उतरना कोई भी!" कहा मैंने,
और मैं तब बाहर चल पड़ा!
बढ़ चला आगे!
पानी भरा था, सम्भल सम्भल के चला उधर के लिए!
जा पहुंचा!
लेकिन!
वहां कोई नहीं था!
कोई नहीं, बस वो हाथी, घोड़े और ऊँट! बत्तियां नीचे रखी थीं, कांच के गोल लैंप से में क़ैद थी लपटें आग की, कांच रंग-बिरंगा था! इसी की चमक पड़ रही थी! मैंने आसपास देखा, कोई नहीं था, न ही कोई दूल्हा और न ही कोई बाराती!
एक बात और!
उन जानवरों में से, कोई भी नहीं भीग रहा था! कोई भी नहीं! हाथी दुम हिला रहे थे, कुल छह हाथी थे वो! बारह घोड़े और आठ ऊँट!
मैंने आसपास बहुत देखा, कोई नहीं दिखा! हाँ, उन हाथियों की कमर पर, कुछ सामान ज़रूर बंधा था, लेकिन वो बहुत ऊँचा था, मैं देख नहीं सकता था वो सामान!
ऊँट सजे-धजे खड़े थे!
घोड़े भी ऐसे ही सजे-धजे!
लेकिन?
बाराती?
वो कहाँ हैं?
क्या हुआ उन्हें?
सभी कहाँ चले गए, एक साथ ही?


   
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श्रीशः उपदंडक
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बारात को देखकर लगता था कि वो किसी अच्छे, रसूखदार इंसान की बारात है, जिसका अवाम में कुछ ख़ास मुक़ाम हुआ करता है! हाथी, घोड़े और ऊँट भी हर एक के बसकी बात नहीं हुआ करती थी! यहां तो उस बारात की शान-ओ-शौक़त को देख यही अंदाजा लगाया जा सकता था! लेकिन, वे सब बाराती गए तो गए कहाँ? न आसपास कोई इमारत ही थी, न कोई शामियाना ही, फिर कहाँ गए वो सब? मैंने तो हर जगह टटोल लिया था, न आसपास ही कोई था और न ही कोई नामोनिशान ही था! मैं वापिस हुआ, और चला गाड़ी की तरफ, गाड़ी में से हर आँख मुझे ही देख रही थी! मैं आया उधर, रुमाल से पानी साफ़ किया, तब तक शर्मा जी ने एक अंगोछा दे दिया था मुझे, मैं आया अंदर, और रेन-कोट उतारने लगा, रख दिया वापिस बैग में, बाल आदि झाड़कर साफ़ किये, चेहरा पोंछा अपना!
"कुछ दिखा?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाथी घोड़े तो हैं, लेकिन और कोई नहीं है!" कहा मैंने,
"सब कहाँ गए?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, जैसे सब आये ही नहीं, बारात जैसे बिना बाराती और दूल्हे के आ रही हो!" कहा मैंने,
"ऐसा कैसे हो सकता है?" पूछा उन्होंने,
"यही तो समझ नहीं आ रहा?'' कहा मैंने,
"एक मिनट?'' बोला रौशन,
"क्या?' पूछा मैंने,
"आगे चलो ज़रा?" बोला वो,
"उस से क्या होगा?" पूछा शर्मा जी ने,
"लगता है वो पीछे हों?" बोला वो,
"देख लेते हैं!" कहा कमल जी ने,
उन्होंने गाड़ी की स्टार्ट, जलाईं बत्तियां और आहिस्ता से गाड़ी आगे बढ़ा दी! धीरे धीरे आगे बढ़ने लगे हम, और उस बारात के करीब से गुजरे! ठीक वैसा ही था सबकुछ जैसा मैंने बताया था उन्हें! मारे भय के और हैरत के, सभी अपने आप में सिकुड़ गए थे!
"बारात तो लम्बी-चौड़ी है!" बोले शर्मा जी,
किसी ने जवाब नहीं दिया! खौफ ने सभी को अपनी नोंक घोंप रखी थी, इसीलिए! पलकें बंद न हों और आँखें चौड़ी ही रह जाएँ!
गाड़ी रोक दी ठीक उस बारात के सामने!
अब तो घिग्घी बंधी सभी की! बस मैं और शर्मा जी कुछ सहज से लगे! रौशन भी आँखें फाड़, बाहर देख रहा था! बादल जी ने, पूरा चेहरा ढक लिया था, शील जी, खिड़की के साथ लगे थे, ओट में, कि जैसे कोई देख न ले उनको!
"आगे जाकर, रोक दो गाड़ी!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और गाड़ी करीब पच्चीस मीटर आगे ले जाकर, रोक दी उन्होंने, क़िस्मत की बात कि बारिश ने भी बरसना कम कर दिया था, वो हल्की हो गयी थी अब! अब साफ़ सा नज़र आने लगा था पीछे!
हम क़रीब वहाँ घंटे भर रुके, लेकिन कोई नहीं आया उस वक़्त तक, न जाने कहाँ थे सभी के सभी!
"क्या करें?" पूछा कमल जी ने,
"चलो वापिस!" कहा मैंने,
"और ये?" पूछा उन्होंने, बारात की तरफ इशारा करते हुए,
"न आये सारी रात तो?" बोला मैं,
"हाँ, ये बात भी है!" बोले कमल जी,
"ले चलो, कल देखते हैं!" कहा मैंने,
अब गाड़ी आगे बढ़ा ली उन्होंने!
पीछे वही बारात अब धीरे धीरे धूमिल सी पड़ती चली गयी! और फिर हो गयी ओझल! आज बारिश ने कम खराब कर दिया था, चलो, वहां बने रहते तो कुछ बात बन सकती थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया! अब कल देखते हम!
तो सबसे पहले, रौशन को छोड़ा, वहाँ चाय पी, पकौड़े आदि लिए, थोड़ा आराम किया और फिर हम चल पड़े वापिस!
रास्ते में,
"बादल जी?'' बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?'' बोले वो,
"कैसे?" पूछा शर्मा जी ने,
"पूछो मति!" बोले वो,
"बात क्या हुई?'' पूछा मैंने,
"मैं न आऊं अब!" बोले वो,
और मुंह फेर के, फिर से बैठ गए!
"कैसे, डर गए हो क्या?" पूछा मैंने,
"बहुत" बोले वो,
बादल जी, सच में ही डर गए थे, अब नहीं आते संग हमारे वो! चलो ठीक ही था, यदि मन में भय शेष रहे, तो ऐसे मामलों से दूर ही रहना चाहिए!
शाम बीती, रात हुई!
और रात को दौर-ए-जाम चले!
फिर खाया-पिया, फिर आराम किया! बारिश पड़ती ही जा रही थी! बारिश ने सच में रोड़े अटका दिए थे हमारे सामने! आ गए अपने कमरे में!
"कल न पड़े बारिश बस!" बोले शर्मा जी,
"हाँ यार!" कहा मैंने,
"आज नहीं तो काम हो जाता!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे?" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"बारात गयी कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"ये नहीं पता!" कहा मैंने,
"कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हुई?'' बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"कल मिलेंगे वो?" पूछा उन्होंने,
"उम्मीद तो है!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
उसके बाद, सो गए हम!
सुबह उठे, मौसम खुला था! बारिश का कोई निशान नहीं था! ये बढ़िया हुआ था!
"आज है मौसम!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
नीचे आये हम, चाय-नाश्ता किया!
"शील जी?" पूछा मैंने,
"जी?'; बोले वो,
"आप चलोगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोले वो,
"और बादल जी?'' पूछा मैंने,
"हौला बैठ गयौ है!" बोले वो,
"डर गए हो!" कहा मैंने,
"चलूँ मैं?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"रछा करियो किरसन जी!" बोले वो,
दोपहर में भोजन किया!
और फिर कुछ आराम!
करीब दो बजे, फिर से निकल पड़े हम! रास्ते में चाय पी, और चल पड़े! रौशन से सम्पर्क साधा, वो रास्ते में मिला, उसको लिया और फिर से वहीँ चल पड़े हम!
"आज मौसम ठीक है!" कहा शील जी ने,
"हाँ! कल भी ऐसा ही रहता तो अच्छा था!" बोले शर्मा जी,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
पानी फेंकती, गाड़ी आगे बढ़ती रही! और हम चलते रहे आगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बारिश नहीं थी, और इसका निश्चित रूप से लाभ ही मिलना था हमें! कम से कम भीगते तो नहीं! उस मौसम में भीगना बड़ा ही दुखदायी पड़ता!अब पता नहीं इस दफ़ा भी हमें बारात में बाराती मिलते या नहीं, उम्मीद के सहारे हम बढ़ते जा रहे थे आगे! अभी उजाला था सामने, इतना अँधेरा भी नहीं था की कुछ दिखे ही नहीं!

"हाँ! यहीं!" बोला रौशन!
"यहां?'' पूछा मैंने,
ये जगह कुछ पहले ही पड़ती थी उस जगह से!
"हाँ, वो है वो पेड़!" बोला वो,
कमाल है! पहले क्यों नहीं बताया था! मुझे अजीब सा लगा, पहले बताना चाहिए था उसको! या कहीं बताया भी हो, और हमने ही ध्यान न दिया हो! खैर, हम उतर गए वहां! पेड़ के पास पानी ठहरा हुआ था, उसके नीचे जाना तो सम्भव न था, पेड़ भी शीशम का था, अब बेचारा ठूंठ बनता जा रहा था, न जाने कब से इस रास्ते पर पहरा दे रहा था! अब पूर्ण होने को था उसका जीवन! कोई तेज आंधी या तूफ़ान उसका अब, इस ज़मीन से नाता ही खत्म कर देती! और कहीं बच भी गया तो कट-कुट जाता, आ जाता कहीं काम, यही है इन पेड़ों का जीवन! इनकी मज़बूती ही इनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है! खैर, फिलहाल में तो वो पेड़ ही हमारा अहम मरक़ज़ बना हुआ था! ध्यान का केंद्र कहा जाए इसे!
"इसी पेड़ पर चढ़ कर मैंने टोह ली थी उनकी!" बोला रौशन,
"कुछ दिखा था?'' पूछा शर्मा जी ने,
"दिखा तो नहीं, लेकिन मैंने स्वांग की आवाज़ें सुनी थीं!" बोला वो,
अचानक से, मेरे दिमाग में, कुछ कौंधा!
ये बारात जायेगी कहाँ?
कोई तो जगह होगी ही?
क्या उस चौकी से, उस प्रवेश-द्वार से हो कर?
या कहीं आगे?
क्यों न आगे जा कर देखा जाए?
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो, पास आते हुए,
अब उन्हें पूरी बात बतायी मैंने, वे भी राजी थे, ज़रा देख लिया जाए आगे! इसमें कोई हर्ज़ा नहीं था!
शर्मा जी आगे जा बैठे, बाहर खड़े कमल जी को बुलाया और कहा उनसे कि ज़रा आगे चला जाए, देखें की क्या कुछ मिलता है वहाँ?
हम सब बैठ गए गाड़ी में, गाड़ी स्टार्ट हुई और हम धीरे धीरे आगे बढ़ चले, नज़रें मारते हुए आसपास! करीब दो किलोमीटर गए होंगे कि हमारे सीधे हाथ पर कुछ दिखा हमें!
"एक मिनट! रुको!" कहा मैंने,
गाड़ी में ब्रेक लगे, और मैं उतरा नीचे! शर्मा जी साथ में ही उतरे मेरे!
"आओ?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
हम आये एक जगह, रुके उधर, उधर, पत्थर से बिछे थे, हालांकि अब उखड़ चुके थे वो पत्थर, और ढेरियों के रूप में पड़े थे इधर उधर!
"ये खरंजा सा लगता है, है न?" पूछा मैंने,
"वही है!" बोले वो,
"अब एक बात नहीं समझ आ रही मेरे?" बोला मैं,
"वो क्या?'' पूछा उन्होंने,
"ये रास्ते कौन से हैं? एक प्रवेश-द्वार, एक ये?" पूछा मैंने,
"इसका एक ही उत्तर है, ये पहले रियासत होगी, ये तब के रास्ते हैं, वक़्त के साथ सब बदल जाया करता है, ये भी बदल गए हैं, ये रास्ते, जो कभी अपनी शान-ओ-शौक़त से लबरेज़ रहते होंगे, आज उजाड़, वीरान पड़े हैं! कोई नहीं आता-जाता इन पर, बस, कुछ वे लोग, जो आते जाते होंगे इस पर, जैसे कि ये बारात!" बोले वो,
"हाँ! ये ही बात है!" बोला मैं,
"एक बात कहूँ?" बोले वो,
"बोलिए?'' कहा मैंने,
"इनको दूर ही रखिये इस मामले से!" बोले वो,
"इन सभी को?" पूछा मैंने,
"हाँ, कहीं लेने के देने न पड़ जाएँ!" बोले वो,
बात में दम था उनकी! उनको साथ नहीं रखना चाहिए! कहीं कोई उंच-नीच हो गयी तो ज़िंदगी भर कि अलामत गले पड़ने में देर नहीं लगाएगी!
"ज़्यादा से ज़्यादा कमल जी को रख लो, वे समझदार और स्थिर-बुद्धि वाले हैं!" बोले वो,
"तो समझाएं कैसे?'' पूछा मैंने,
"वो मुझ पर छोड़ दीजिये!" बोले वो,
"तब ठीक है!" बोले वो,
"अब ज़रा वही करना जैसा मैं कहूँ!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"आओ ज़रा!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
वो पहले पहुंचे गाड़ी तक, कुछ बातें कीं, मुझे देखा, हाथ हिलाया, बुलाया उन्होंने हाथ हिलाकर अपना!
मैं ज़रा तेजी से चल कर पहुंचा वहाँ,
"बैठिये!" बोले वो,
मैं बैठ गया, बीच वाली कतार में,
शर्मा जी ने गाड़ी मुड़वा ली, चले वापसी कि ओर, उस पेड़ तक, आ कर रुके, आसमान में फिर से बादल से उमड़ने-घुमड़ने लगे थे, अब उनकी चिंता सताने लगी! दुआ कर रहे थे हम कि बस बारिश ही न हो! नहीं तो फिर से इंतज़ार करना पड़ता!
हम पेड़ के नीचे ही खड़े थे, कि अचानक से, स्वांग भरने कि एक ज़ोरदार आवाज़ गूंजी! सभी के कान लग गए उस तरफ! वो हमारी बायीं तरफ से आई थी!
"सुना? सुना?" बोला रौशन! उछलते हुए!
"कहाँ से आई ये आवाज़?" पूछा मैंने शर्मा जी से,
"ये, अंदर से, शायद!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
और हम दोनों भाग लिए सड़क पार करते हुए! सड़क पार की और देखा सामने! सामने दूर, दूर सामने जंगल के बीच रौशनियाँ चमक रही थीं! वहां गाना-बजाना चल रहा होगा, लेकिन आवाज़ नहीं गूँज रही थी! शायद, हवा का रुख उल्टा था!
अब चूंकि रौशन भी हमारे साथ ही आ गया था, शर्मा जी ने उसको वापिस जाने को कहा, उसने तो ज़िद ही पकड़ ली! न तैयार हो! तब शर्मा जी ने भरोसा दिया कि जो भी बात होगी, बता दी जायेगी! और वे रौशन को ले, चल पड़े वापिस, गाड़ी में सवार सभी को समझाया कुछ और तब, वे कमल जी के साथ आ गए हमारे पास!
"कमल जी?'' बोले शर्मा जी,
"कुछ कहना नहीं, न कोई जवाब ही देना!" बोले शर्मा जी,
"जी!" बोले वो,
"कुछ भी हो, हमारे साथ ही बने रहना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"और, घबराना नहीं! हम हैं साथ में!" बोले शर्मा जी,
और तब मैंने, अपने एक कंठ-माल, उनके गले में पहना दिया! इस से उनको मानसिक-बल मिलता और रही-सही कमी भी दूर हो जाती, कमी यानि कि डर!
"तैयार?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"शर्मा जी, मेरे पीछे नहीं रहना!" कहा मैंने,
"हाँ! जानता हूँ!" बोले वो,
और हम, तीनों, बढ़ लिए उस रास्ते पर, वहां के लिए, जहां वो रौशनियाँ झिलमिला रही थीं!

   
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श्रीशः उपदंडक
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अब, मंजिल सामने थी, मंजिल, जिसके लिए हम अभी तक परेशान थे, और अपने शहर को छोड़, यहां आये थे! एक बात तो तय है, ये प्रेत जो भी थे, मुझे शरीफ़ ही लगे, नहीं तो रौशन के साथ का वो तज़ुर्बा कुछ और ही बयां करता! आज बारिश थी नहीं, आकाश में कुछ जो बादल छाए भी थे, वो छंटने से लगे थे, आज ख़ुदा मेहराबन था हम पर! और जब ख़ुदा मेहरबान हो तो फिर क्या रह जाता है! फिर तो एक से एक नेमत साथ देने लगती है! मुझे पूरी उम्मीद थी कि हम लोग, जिस मक़सद से यहां आये हैं, आज शायद वो पूरा हो ही जाए!
"सभी तैयार हो न?" पूछा दुबारा से मैंने!
"हाँ!" बोले वो,
"कोई भय तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
पूछना मेरा फ़र्ज़ था, मैंने पूरा किया पूछकर!
"तो आओ!" कहा मैंने,
वहाँ झाड़-झंखाड़ उगे थे, कहीं छोटे और कहीं बड़े! एक और हैरत की बात! वहां चूहे भी थे, जबकि वहां न खेत ही थे, न खलिहान और न ही कोई कृषि का क्षेत्र! शायद, वहीँ की जंगली घास के बीजों पर पल रहे हों!
चूहों के बारे में लोग बहुत कुछ उल्टा-सीधा सोचा करते हैं! गंदे, मैले-कुचैले, रोग-वाहक और नुक़सान करने वाले शरारती जीव! लेकिन ऐसा नहीं है! रोग-वाहक वे अपने भोज्य-पदार्थ के कारण हुआ करते हैं! वे जो सड़ा-गला मिलता है, उस पर बसर कर लिया करते हैं! इसी से रोगाणु उनकी आंत में पैदा हो जाते हैं, इस से उनका भी नाश हो जाता है! तंत्र में इनका महत्व है! एक बात और, चूहा, कॉकरोच और मच्छर, ये तीनों ही आदिम जीव हैं! इनकी जीवन-प्रणाली भी आदिम ही है! तीनों ही रोग-वाहक हुआ करते हैं! और तीनों ही, किसी भी एक बड़े, मनुष्य-समूह को समूल नाश तक पहुंचाने में समर्थ भी हैं! ये आदिम थे, हैं और जब मनुष्य इस धरती पर नहीं होगा, तब ये बचे रहेंगे! कारण है, इनका अपने को ढाल लेना! ये परिस्थिति के अनुसार अपने आपको ढालने में समर्थ हैं! ये हमारे आधुनिक विज्ञान को भी ठेंगा दिखाते आ रहे हैं!
हाँ, तो मैं आपको चूहों के तांत्रिक प्रयोगों के विषय में बता रहा था, चूहा, संस्कृति का परिचायक है! जहाँ चूहा हो, समझ लेना चाहिए कि मनुष्य समीप ही वास करता है! जिस घर में चूहे हों, वहां लक्ष्मी जी का वास मानना चाहिए! चूहा वहीँ वास करेगा जहां उसे अन्न मिलेगा! लोग सोचते हैं कि चूहा अन्न का संग्रह करता है, ऐसा नहीं है! चूहा भूख मिटने के पश्चात अपने बिल में लौट जाता है! जब भी चूहा, अपने बिल में गया हो, तो हाथ में, एक चुटकी बाजरा लेकर, अपनी मनोवांछित कामना बोलें! कामना, सर्वहितकारी ही हो, किसी का अहित न करती हो! वो कामना पूर्ण होगी! पूर्ण होने के बाद, एक मुट्ठी बाजरा चूहों को खिला दें!
कोई व्यक्ति, अचानक से लापता हो गया हो, कुछ पता न चल रहा हो, कुछ अनहोनी का अंदेशा हो, तो चूहे के बिल के समीप उस व्यक्ति के किसी वस्त्र का टुकड़ा रखकर, उस पर, एक मोतीचूर का लड्डू रख दें, उस व्यक्ति के विषय में प्रश्न करें, तीन दिवस में सूचना प्राप्त हो जायेगी!
स्त्री के स्तनों में दूध न उतर रहा हो, तो वो स्त्री अपने हाथ से, पचास ग्राम दूध, समा के पच्चीस ग्राम चावल, पच्चीस ग्राम मिश्री और सूखी नारियल की गिरी से खीर बनाये, मिटटी के पात्र में, चूहे के बिल के समीप, ठंडा होने पर रख दे, ये कार्य उसका पति भी कर सकता है, पात्र रखने का, दूध उतर आएगा!
बालक को पेट का दर्द हो, पेचिश, अतिसार अथवा दस्त आदि से परेशान हो, तो बालक का एक वस्त्र लें, एक टुकड़ा, इसको किन्हीं भी तीन रंग के धागों से लपेटें, बालक पर पेट से, इक्कीस बार छुआ दें, बाद में, इसे गुड के पानी में भिगो कर, चूहे के बिल के समीप रख दें! चूहे के, धागे के स्पर्श में आते ही, बालक ठीक हो जाएगा!
स्थानांतरण न हो रहा हो, समस्या आ जाती हो, तो देखें, घूस(चूहे की श्रेणी, परन्तु कुछ अलग और बड़ी होती है) के बिल कहाँ हैं! बस! दिन में तीन बार, मीठी रोटी के टुकड़े डाल आएं, अवसर शीघ्र ही प्राप्त हो जाएगा!
पति-पत्नी के संबंध मधुर न रहें, कड़वाहट घुली रहे, तो कोई भी एक उनमे से, ये प्रयोग करे! मीठे चावल बना लें, पचास ग्राम! एक चुटकी सिन्दूर और एक बताशा, उसमे रख दें, चूहे के बिल पर रख आएं, दिन शनिवार का न हो बस! कमाल देखें!
संतान न होती हो, या हो कर मर जाती हो, या अपंगता का शिकार हो, तो ये प्रयोग करें! वो स्त्री नेत्र बंद कर, चार खजूर छील ले, नौ मूंगफली और एक फल, मीठा, कोई भी! मदद पति भी कर सकता है! अब नेत्र खोल लें, इनको ढाक के पत्ते पर रख कर, दोनों ही किसी चूहे के बिल के पास रख दें! संतान हृष्ट-पुष्ट होगी! संतान जब एक वर्ष की हो जाए, तो मूषकराज के लिए, दूध से खीर बना, बिलों के पास, यथासम्भव रख दें!
तो ये कुछ सरल प्रयोग हैं! कोई भी कर सकता है!
हाँ, तो अब घटना!
हम आगे बढ़ते चले!
"रुको!" कहा मैंने,
रुक गए हम सभी!
"सामने देखो?'' कहा मैंने,
"ये कौन हैं?'' पूछा शर्मा जी ने,
"सैनिक से नहीं लगते?'' पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले शर्मा जी,
"ये तो बहुत से हैं?'' बोले कमल जी,
"हाँ, रुके रहो!" कहा मैंने,
करीब बीस मिनट बीत गए! और तब, तब एक बग्घी आई! बग्घी में कौन था, ये नहीं नज़र आया! हाँ, इतना कि कई लोग तो बैठे थे उसमे!
"आओ!" कहा मैंने,
आराम आराम से, क़दम साधते हुए आगे बढ़े हम!
ठंडी ठंडी हवा चली! और हवा अपने साथ, ख़ुश्बू बहा के ले आई! गुलाब की महक! केवड़े की महक! बहुत ही भीनी भीनी!
"ये सुगंध?'' बोले कमल जी,
"वहीँ से आ रही है!" कहा मैंने,
ये वैसी ही सुगंध थी, जैसी रौशन को आई थी, हमें आई थी वहां!
"आओ!" कहा मैंने,
फांसला हुआ कम!
पचास मीटर!
तीस मीटर!
और फिर बीस मीटर!
अब आया कुछ साफ़ साफ़ नज़र!
ये तो सच में ही एक बड़ी, भव्य बारात थी! तभी बग्घी आगे सरकी! रुकी, कुछ ने बातें कीं, कुल पांच मिनट के करीब और वे बड़े बड़े, सफेद घोड़े या घोड़ियाँ उसको ले चले आगे!
"वे सैनिक नहीं हैं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा शर्मा जी ने,
"ये घराती लगते हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा! खबर देने के लिए!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बारात तो शानदार है!" बोले कमल जी!
कमल जी, भरपूर साथ दे रहे थे! कोई डर नहीं था चेहरे पर! न कोई शिकन ही!
"रुको!" कहा मैंने,
हम सभी रुके!
दो सैनिक से, आसपास टोह ले रहे थे! उनके घोड़े अपने पाँव उठा रहे थे, और वो, उन्हें काबू में किये, आसपास नज़रें दौड़ा रहे थे!
"ये हैं सैनिक!" कहा मैंने,
"कैसे पता?" पूछा कमल जी ने,
"इनकी पोशाक़ देखिये!" कहा मैंने,
"अरे हाँ! एक जैसी हैं!" बोले वो,
वो सैनिक आगे बढ़े, बाराती पीछे ही थे अभी!
और तभी बजे नगाड़े! बड़ी ज़ोर से आवाज़ गूंजी उनकी!
फिर छिड़ी स्वांग की सी धुन! बड़ी ही मस्त सी! लगा जैसे, बचपन में, गाँव में, लोग शाम के वक़्त जैसे, अपने अपने रेडियो पर स्वांग सुना करते थे, लख्मीचंद के! ठीक वैसी ही धुन! बेहद ही मधुर! क्या संस्कृति रही है मेरे देश की! गर्व होता है! बहुत गर्व!
तभी, बारातियों का एक समूह आगे बढ़ा! शानदार वेषभूषाएं थीं उनकी! और लोग भी, सभी पहलवानों जैसी देहों वाले! मज़बूत, बलिष्ठ और डील-डौल वाले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमारा फांसला अब न के बराबर ही रह गया था! कोई उस सड़क पर उचक कर देखता अगर, मद्दे-नज़र-ए-एहतियात तो बखूबी हमे धर ही लेता! लेकिन वो जो सैनिक थे, शायद ये नहीं चाहते थे, उनका काम था या फिर चाहते कि कोई गड़बड़ पेश न आये उस बारात में! वो एक बड़ा सा पीपल का पेड़ था, दीखता तो पीपल का ही था, लेकिन अगर पिलखन का सा भी हो, तो एक तो अँधेरा और ऊपर से पड़तीं वो रौशनियों से बनती परछाइयाँ, और उस पर कमर झुकाये हुए हम, दीख नहीं पड़ रहा था! हम तो बस, एक झाड़ी के पीछे अब खड़े से थे, बारात आगे बढ़ने लगी थी, कुछ इक्का-दुक्का लोग थे, जो पीछे छूट गए थे या इत्तिफ़ाक़न पीछे रह गए हों, वो अब आगे बढ़ने लगे थे! वो झाड़ी हमें पूरा नहीं ढक पा रही थी, हमारे बदन, पोशाकें, आराम से नुमायां थीं!
खैर, अब यहां तक आ ही गए थे तो पीछे मुड़ने का कोई सवाल ही नहीं था! तभी सामने से एक और बड़ी सी बग्घी गुजरी! उसमे भी चार घोड़े जुड़े थे! बड़े-बड़े, लम्बे-चौड़े घोड़े! सफेद रंग के! उनके पांवों में लगी नालें एक जैसी ही आवाज़ पैदा कर रही थीं! कानों को सुकून देती सी लगती थीं! उन घोड़ों को खूब सजाया गया था! लाल और सफेद रंग की फुलेरें सजाई गयीं थीं! उनके कंधे, गला, कमर, पूँछ और उनका बड़ा सा सर, सब का सब सजाया गया था! ऐसे खूबसूरत घोड़े, मैंने कभी नहीं देखे थे! उस बग्घी को दो नौजवान हाँक रहे थे! वे भी शानदार पोशाक़ पहने हुए थे! सर पर तिरछी सी टोपियां थीं, ये टोपियां राजपूताना रुतबे की पहचान करा रही थीं! उनकी पोशाकें भी, लश्कारे छोड़ दिया करती थीं कभी कभी!
उस बग्घी में, पीछे चार लोग बैठे थे, चारों ने ही, एक जैसी ही पोशाक़ पहनी थीं! बादामी रंग की अचकन सी! गले में बादामी रंग का चमकदार सा पट्टा या मफ़लर सा, जो गले में लपेटा गया था! उन्होंने भी टोपियां पहन रखी थीं! टोपियों पर, जैसे रत्न जड़े थे, चमक पड़ती तो रत्न जैसे चमक कर हंस पड़ते! वे मुझे कुछ ऊंचे ओहदे के सरकारी मुलाज़िम से लगे! उनकी शान-ओ-शौक़त के सामने, हमारी आज की शान-ओ-शौक़त कैसी फीकी है, साफ़ जान पड़ता था! उनके चेहरे ज़िंदादिल थे, ज़िंदगी के सुर्ख़रू जलाल को क़ैद किये हुए! कद्दावर जिस्म! चौड़े चौड़े सीने! साढ़े छह या सात सात फ़ीट के वो लोग! चौड़ी चौड़ी कलाइयां, बड़े बड़े हाथ और मज़बूत बाजू! चौड़ी और सपाट गरदनें, कंधे ऐसे चौड़े जैसे आज के एक भरे-पूरे नौजवान के दोनों कंधे हुआ करते हैं! वे हँसते तो चेहरे पर लकीरें पड़ने लगतीं! ये चेहरे की मांसपेशियों की कसावट होती है! आजकल कम ही ऐसा दीखता है! या तो गाल पिचके हुए, गड्ढे पड़े हुए होंगे या फिर गोल-मटोल, और उन गोल-मटोल चेहरों का बदन, चार गुना गोल-मटोल! इंसान होते हुए भी धकेलू इंसान!
चलिए साहब! आगे बढ़ें!
हम जस का तस वहीँ रुके थे, सामने से आते जाते लोगों पर नज़र रखे हुए! उस बारात में कम से कम दो सौ के आसपास लोग रहे होंगे! कम से कम इतने तो रहे ही होंगे!
"कौन हैं आप लोग?" आई एक भारी सी मर्दाना आवाज़!
हमने आसपास देखा फ़ौरन, तो दायें, एक सैनिक सा खड़ा था, उसके हाथ में एक भाला था, भाले के फाल के नीचे पीले रंग का एक झंडा सा लगा था, ये तिकोने आकार का, रुमाल भर का रहा होगा! उस सैनिक का कद मेरे से कहीं अधिक था, कद में, मैं उसके कंधे तक पहुँच रहा था! उस बदन पहलवानी था! भरा-भरा और मांसल! उसने जैसे उस भाले को पकड़ रखा था, शायद मुझे दोनों हाथों से पकड़ना पड़ता वो भाला! उसकी दाढ़ी थी, घुमावदार दाढ़ी, दो हिस्सों में बंटी हुई, एक एक हिसा, ऊपर मूंछों से मिला था और मूंछें बड़ी बड़ी कलमों से मिली थीं! चेहरा गोल और रंग गोरा था! कानों में बालियां पहने था, सर पर, टोपी थी, बांकुरी सी टोपी और माथे पर एक छोटा सा गोल निशान, सशायद तिलक था वो, चंदन का! पहले-पहल, दीखने में वो एक मराठा सा सैनिक लगता था, लेकिन था कौन, नहीं मालूम पड़ा! हाँ, इतना ज़रूर था, उसने बड़ी अदब के साथ हमसे सवाल किया था! उसके चेहरे पर मुस्कुराहट और मिठास देखी जा सकती थी! इसी से आगे का निर्णय हो चला था कि मुझे अब कहना क्या है!
"हम परदेशी हैं दीवान साहब!" कहा मैंने,
वो एक छोटी सी हंसी हंसा, भाला, हाथ से ले, अपने कंधे पर लगा लिया!
"दीवान साहब तो आगे चले गए हैं, मैं तो एक अरदली हूँ महज़!" बोला वो,
"हमारे लिए तो आप भी दीवान साहब से कम नहीं!" कहा मैंने,
"खैर, रात का वक़्त है, आइये मेरे साथ आइये, बे-ख़ौफ़ आइये!" बोलकर, मुड़ा वो! फिर क्या था! जैसे रस्सी का एक सिर हाथ में आया हमारे!
लेकिन एक बात!
अजीब तो नहीं, लेकिन सोचने के क़ाबिल!
उसने कहा कि 'बे-ख़ौफ़' आइये!
इसका मतलब था, वो हमारे वजूद में झाँक चुका था! जान चुका था मेरा मतलब है! वैसे, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता इस से! उसने अदब दिखाई, हमें साथ में चलने को कहा, अपने साथ, अब इस से बड़ी अदबी, उस रात के वक़त, वीराने में, उस बारात में, और क्या हो सकती थी भला!
"आइये!" बोला वो, रुक कर, हाथ से इशारा करते हुए!
ओहो! अब देखा सामने!
एक खुली जगह, एक छोटा सा शामियाना खड़ा था! बीच में से ऊंचा और आसपास से गोल! मुझे तो इतिहास के, अपने विद्यार्थी जीवन के पलों में से, कुछ पृष्ठ और तस्वीरें नज़र आ गयीं! ऐसा शामियां मैंने उन्हीं तस्वीरों में देखा था! ऐसा शामियाना, मंगोल बनाया करते थे! उनके शामियां, आठ की कतार से शुरू होते थे, अंदर बढ़ते वक़्त, दो दो का इजाफा होता जाता था! और आखिर में, फिर से आठ! बीच में, ये शामियाने चौंसठ, बहत्तर आदि आदि से बढ़ते जाते थे! एक जगह, बीच में, उनके सेनापति का शामियां हुआ करता था! जिसमे चार मुहाने हुआ करते थे! ये शामियां, ठीक वैसा ही था! ठीक वैसा ही!
वो शामियां, दो रंगों के कपड़ों या किसी विशेष दर्ज़े के कपड़े से बना था, एक का रंग पीला, चटखदार और दूसरे का, सफेद था! ऊपर, बीच में, काले रग का एक झंडा फहर रहा था, उस पर, दो तलवारें और शायद त्रिशूल बना था, त्रिशूल था या अन्य कोई हथियार, स्पष्ट नहीं दीख रहा था!
उसके ठीक सामने,  करीब छह फ़ीट दूर, एक बड़ा सा अलाव जल रहा था, अलाव, एक बड़े से पत्थर में काटे गए बर्तन या गड्ढे में जल रहा था!
उसके मुंह के सामने, शामियाने के, दायें और बाएं, दो और अलाव जले थे, ठीक वैसे ही! बांस या बड़े बड़े से डंडे गाड़, उन पर मालाएं लटक रही थीं! मालाएं, फूलों की! रंग-बिरंगे फूल! ऊपर नज़र गयी, तो कुछ घड़े से टंगे थे! उन घड़ों में, सुगन्धियाँ भरी गयीं थीं! हवा बहती, तो सुगन्धि को उड़ा ले जाती अपने संग! यही सुगन्धि हमें भी आई थी! अब कहाँ से आई थी, चल गया था पता!
"आइये, अंदर आइये!" बोला वो, पर्दा उठाकर,
हम अंदर आये, अंदर आये तो देखा अंदर!
कालीन! बेशक़ीमती कालीन!
बड़े बड़े सागर!
बड़े बड़े पैमाने! प्याले!
बड़ी बड़ी मसनदें!
कोनों में टंगी हुईं इत्र की महक से लबरेज़ गोटेदार चुन्नियाँ सी! जिनमे, गांठें बंधी हुई थीं! एक एक गाँठ से शायद अलग अलग ही महक आ रही थी!
"बैठें! यहां बैठें! मैं पानी का इंतज़ाम करवाता हूँ!" बोला वो, और चला बाहर, पर्दा, फिर से ढुलक गया!
वो पर्दा!
उसे देखता रह गया मैं!
हाथ का काम था उस पर!
पुष्प इकट्ठी करती हुई कोई राजकुमारी थी वो!
उसकी डलिया! जैसे सच के फूलों से भरी थी! असली से फूल!
और वो राजकुमारी, हमें देखती हुई, मुस्कुराती हुई!
जैसे, अभी चुप्पी तोड़ देगी! बोल पड़ेगी अभी, किसी भी लम्हे!


   
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