साँझ हो चली थी अब तक! पांच बजे के आसपास ही, सूर्यदेव अस्तांचल में प्रवेश कर चुके थे! इस मौसम में, अक्सर, बादल, सूर्यदेव के चाटुकार हो जाया करते हैं, इसी कारण से बार बार उनके सामने, ईद-गिर्द आ प्रकट होते थे! सर्दी का समय था, धूप तो ऐसी थी उस मौसम में, जैसे सोना, जिसको मिले, भर भर लूटता! लेकिन सोना बरस नहीं रहा था, सूर्यदेव दैहिक-दुर्बलता एवं तापहीनता से पीड़ित लगते थे, अतः उनका वो अनमोल सोना मिल नहीं पा रहा था! या तो था ही नहीं या फिर अल्प-मात्र में ही प्राप्त हुआ करता था! आज दिन भर बड़ी बुरी हालत हुई थी, तीन गाड़ियां छोड़नी पड़ी थीं, लोग ऐसे भरे थे उनमे, कि जैसे आज के बाद, भारत सरकार का रेल-मंत्रालय सारी गाड़ियां रद्द कर देगा, यहां तक कि, रेल की पटरियां भी उखड़ने वाली हों! आदमी के ऊपर आदमी चढ़ा था! अंदर जाना तो दूर, उनमे चढ़ पाना ही अपने आप में एक कला और महान कार्य होता! एक बजे, दोपहर के बाद से, अब ये गाड़ी मिली थी, पांच बजे की, किसी तरह, हील-हुज्जत कर, स्लीपर-कोच में जुगाड़ बिठा लिया था! वो तो सर्दियां थीं, इसलिए पता नहीं चल रहा था, गर्मियां होतीं तो सच में कैसा हाल होता ये सोच कर ही कंपकंपी छूट जाए! हम मुग़लसराय से बैठे थे, कुछ कार्यक्रम था वहाँ, विवाह था किसी जानकारी के पुत्र का, उसी उपलक्ष्य में आये थे हम, आ तो गए थे आराम से, वापिस भेजने की ज़िम्मेवारी हमारे जानकार की ही थी, खैर, संत भला तो सब भला! वे बेचारे भी एक बजे के आये, पांच बजे तक संग ही रहे हमारे! हमने तो उन्हें कहा था कि वे लौट जाएँ, लेकिन नहीं माने, बिठा के ही जाएंगे, इस ज़िद पर अड़े ही रहे! खैर, ये गाड़ी मिल गयी थी, थी तो थकी-मांदी, पीछे से ही सांस फूला हुआ था उसका, चार घंटे की देरी से चल रही थी, और तो और, जब गाड़ी चालीस मिनट से अधिक खड़ी रही, तब पता चला कि गाड़ी के इंजिन में खराबी थी, इंजिन मंगवाया गया था और कुछ ही देर में, शंटिंग हो, आगे बढ़ जाती!
हमारे कूपे का हाल देखिये, कहने को तो आरक्षित कूपा था, लेकिन देखकर कोई कह नहीं सकता था, यही लगता कि शायद जनरल-सिटींग वाले कोच का आधुनिकीकरण हो गया है! टॉयलेट तक लोग अटे पड़े थे, मुंह से ही कहना पड़ता था कि भाई हटना ज़रा, प्रेशर बहुत है! और तो और, कई कई भाई लोग तो टॉयलेट में ही शरण लिए हुए थे! वे जब उठते, उठना पड़ता, तो मन ही मन, डेढ़ हज़ार गालियां देते होंगे! उनके चेहरे यही बताते थे!
तो हम, अपनी अपनी सीट पर बैठे थे, बाहर ताकते हुए, कम से कम, वहीँ कुछ हिलता-डुलता नज़र आता था, अंदर तो लोगों ने लबादे पहने थे, जैसे हमने जैकेट पहनी थीं अपनी! गले में मफलर और सर पर टोपी! सके बाद भी हवा का कोई न कोई झोंका आ कर, धमका ही जाता था!
"कहाँ से लेट है जी ये?' पूछा मैंने,
"पीछे से ही, सुबह से ही!" बोले एक साहब,
"इंजिन खराब था?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, हर जगह रुकते हुए आ रही है, आधा आधा घंटा!" बोले वो,
तभी खिड़की पर आवाज़ गूंजी, 'हाँ जी? चाय?'
"हाँ, दे दे यार!" बोले शर्मा जी,
ली चाय, दिए पैसे, कुछ आपसे वापसी हुए, और गाड़ी ने खाया एक झटका!
"चली अब!" बोले वो साहब!
"हाँ जी!" कहा मैंने,
गाड़ी ने बजाया हॉर्न और गति पकड़ी, अभी तो एक किलोमीटर भी न चली होगी, कि लगे ब्रेक! झटके से खा, खड़ी हो गयी!
"बस, ऐसा ही करते आ रही है ये!" बोले वो,
"झारखंड-दिल्ली आनंद विहार स्वर्ण जयंती है ये गाड़ी? है न?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अब एक दूसरे साहब!
"नाम तो ऐसा है जैसे सुपरफास्ट!" बोले शर्मा जी,
"सुपरफास्ट ही है जी!" बोले वो साहब,
"आज तो फ़ास्ट-पैसेंजर बन गयी है!" कहा मैंने,
"आज बड़ा बुरा हाल है इसका!" बोले पहले वाले साहब!
चाय पी ली थी हमने, गिलास, खिड़की से बाहर ही फेंक दिए शर्मा जी ने, और दस्ताने पहन बैठ गए!
गाड़ी ने बजाया हॉर्न, और चल पड़ी!
"बस, खींच ले भाई अब!" बोले शर्मा जी,
और वाक़ई, गाड़ी ने पकड़ी रफ़्तार! खिड़की से आई ठंडी हवा अंदर! शर्मा जी उठे, और बंद कर दी खिड़की फिर!
तब कुछ राहत पड़ी!
सात बजे करीब, पैंट्री वाला आर्डर ले गया खाने का, क्या करते, वो सड़ा-भुसा खाना ही खाना पड़ता, और कोई प्रबंध था नहीं, नहीं तो, मैं और शर्मा जी, अक्सर खाया ही नहीं करते वो खाना, अध-पका और बे-स्वाद सा खाना! रोटियां ऐसी, कि फूंक मारो तो उड़ जाएँ! चावल नाम मात्र को, कहने को कि चावल हैं! दाल, सब्जी सब बे-स्वाद! जैसे उबाल कर, मसाला छिड़क दिया गया हो! लेकिन करते भी क्या! आज वो ही सही! हमने नॉन-वेज ही मंगाया था, वही थोड़ा बहुत ठीक होता है, हालांकि उसमे भी वजन देखो, तो कुछ नहीं!
करीब साढ़े सात बजे, मैं और शर्मा जी, चढ़ आये थे ऊपर की बर्थ पर, मेरा तो सर टकराता रहता है उसमे, मेरे लिए किसी सजा से कम नहीं वो! पानी पिया ही नहीं जाता मुझ से, कम से कम बोतल से, लेटना पड़ता है, कंधे उठाते हुए, तब पानी पी पाता हूँ! हम आये थे यहां जुगाड़ करने! रात को नींद कैसे आती फिर? शर्मा जी ने जल्दी जल्दी किया जुगाड़, और आराम आराम से हमने चुस्कियां भरीं! साथ में खाने को, नमकीन फुले हुए चने ले लिए थे, और तो कुछ मिला नहीं! क्वाटर-क्वाटर हलक से नीचे उतार लिया था! अब जो बची थी, उस पर भी एहसान करना था! हमारे ठीक सामने लेटे हुए थे दो लड़के, हमें देख, मुस्कुराने लगते थे!
"ये बढ़िया है अंकल!" बोला एक शर्मा जी से,
"हाँ बेटा!" बोले वो,
"हमें पता होता कि ऐसे भी हो सकता है, तो हम भी पकड़ लाते!" बोला वो,
"मन है?" बोले वो,
"हाँ अंकल!" बोला वो लड़का,
शर्मा जी ने, निकाली एक बोतल, स्प्राइट की बोतल थी, आधा लीटर वाली, और पकड़ा दी उन्हें!
"लो! वाइट-रम है ये!" बोले वो,
"अरे वाह अंकल!" बोला वो,
"किसी को पता भी नहीं चलेगा! ये नीम्बू और रख लो!" बोले वो,
"थैंक्स अंकल!" बोला वो,
"कोई बात नहीं, ठंड का टाइम है, नींद आ जायेगी!" बोले शर्मा जी,
"आपको कम तो नहीं पड़ेगी?" पूछा लड़के ने,
"अरे नहीं बेटे!" बोले वो,
लड़के खुश! हो गए जुगाड़ करने के लिए तैयार! एक उतरा नीचे, चला पैंट्री की तरफ, कुछ ही देर में, वेफर्स के दो पैकेट और दो गिलास, पानी आदि ले आया! ख़ुशी देखते ही बनती थी उनकी! चढ़ गया वो ऊपर!
"दिल्ली में रहते हैं अंकल आप?" पूछा एक लड़के ने,
"हाँ बेटे, और आप?" पूछा शर्मा जी ने,
"हम, जमशेदपुर में रहते हैं, किसी काम से जा रहे हैं दिल्ली!" बोला एक,
"अच्छा! बढ़िया!" बोले शर्मा जी,
हम भी जाम से जाम लड़ाते रहे, और वे लड़के भी! वे हमें भी वेफर्स दे देते, हम उन्हें चने पकड़ा देते! सभी खुश!
"कभी आइये अंकल जमशेदपुर?" बोला एक लड़का,
"ज़रूर बेटे!" बोले वो,
"ये रख लीजिये, कार्ड है!" बोला वो,
जेब से कार्ड निकाल कर दे दिया था शर्मा जी को, शर्मा जी ने पढ़ा, वो लड़का सॉफ्टवेयर से संबंधित काम किया करता था वहीँ!
"ज़रूर! आएंगे, तो बताएंगे!" बोले शर्मा जी,
"जी अंकल!" बोला वो लड़का,
हम आनंद उठाते रहे, वे लड़के भी! वाइट-रम शायद पहली बार पी थी उन्होंने, पता चल रहा था, घूँट बड़े बड़े खींच रहे थे वो, अच्छी लगी थी उन्हें!
"पुलिस आ जाए तो?" पूछा एक ने,
"मैं बात कर लूँगा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा लड़के ने,
कुछ देर बाद ही, खाना भी आ गया, खाना ले लिया, खाने लगे, मदिरा समाप्त हुई, भोजन भी कर लिया, उन लड़कों से, गुड-नाईट भी हो गयी! और उसके बाद, हमने अपने अपने बर्थ पकड़ लिए! मैंने अपना कम्बल निकाल लिया और शर्मा जी को उनका दे दिया!
मदिरा से, पूरे बदन में, गरमी छायी थी! ऐसे में नींद आ जाए तो समझो सुबह ही खुले! फिर कैसी सर्दी और मक्खी-मच्छर! वही हुआ, थोड़ी ही देर में आँखें झपकने लगीं हमारी!
"अब तो सही चल रही है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब बढ़िया! सुबह देखो कहाँ लगाता है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आई नींद, और हम सो गए फिर!
सुबह, बैरन नींद, जल्दी ही खुल गयी! ओहो! जैसे कूपे में सारी रात सर्दी पहरा दे कर गयी हो! क्या खिड़की और क्या खिड़की के संगीदार वो सरिये! सभी सर्दी के मारे बूढ़े हो चले थे! बाहर तो ऐसा कोहरा छाया था कि जैसे बादल कई टुकड़ों में आ, ज़मीन से टकरा गए हों! अँधेरा छाया था, बाहर लगी बत्तियां भी, कोहरे का घूंघट ओढ़े, लरजा रही थीं! घुटनों की तरफ से कंबल भी सारी रात सर्दी से लड़ते लड़ते जैसे हांफ चला था, अब सर्दी ने पैठ बना ली थी वहाँ! अब घुटने मोडूं, तो मोडूं कहाँ? जहाँ छू जाएँ, कुछ ही देर में, वो लकड़ी की दीवार, वो लोहे के पाइप जो स्लीपर को थामे हुए थे, गाली-गलौज कर, धकिया दें वापिस! हाथ टोटल-टटाल कर घड़ी देखी! पांच बजे थे! तभी शर्मा जी ने करवट बदली अपने स्लीपर पर,
मुझे मिला मौक़ा!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"हूँ?" बोले वो, मिमियानी सी आवाज़ में!
"उठो यार?" कहा मैंने,
"हूँ?" कह कर, टाल गए!
"उठो?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" ऐसे बोले जैसे मनो बोझ तले दबे हों!
"अरे नौ बज गए!" कहा मैंने,
"नौ?" बोले वो,
हटाया कंबल, बाहर देखा खिड़की को, हैरान से हुए!
"बारिश पड़ रही है?" बोले वो,
"हाँ, रात से ही!" कहा मैंने,
कंबल ओढ़ लिया फिर से, ढक लिया मुंह अपना!
मुझे हंसी आई!
"उठो यार?" कहा मैंने,
"सो जाओ!" बोले वो,
"नींद नहीं आ रही अब!" कहा मैंने,
अब कुछ न बोले!
"उठो?" कहा मैंने,
नहीं उठे वो! न कंबल हटाया!
"अरे? नौ बज गए, साढ़े नौ का टाइम है पहुँचने का? उठो?" कहा मैंने,
"मत तंग करो यार!" बोले फिर से, मिमियाती आवाज़ में!
मेरी हंसी छूटी!
"क्यों? उठो?" कहा मैंने,
"बूढ़ों को और बालकों को ठंड ज़्यादा लगती है, तरस खाओ यार इस बूढ़े पर!" बोले वो,
मेरी हंसी और तेज हुई! दबा गया मैं!
"यार? नौ बज चुके हैं?" कहा मैंने,
"बजने दो!" बोले बेपरवाह से वो!
"अरे? स्टेशन आने वाला है?" कहा मैंने,
"वहीँ उठ जाऊँगा!" बोले वो,
"अभी उठो?" कहा मैंने,
"क्यों ठंड में मार रहे हो? बारिश और पड़ रही है!" बोले वो,
"हाँ, और तेज हो गयी है!" कहा मैंने,
अब हटाया कंबल! उबासी ली, सभी को देखा आसपास, अजब-गज़ब में डूबे! सोचा, सभी तो सो रहे हैं? अपना मोबाइल निकाला जेब से, टाइम देखा!
"सवा पांच?" बोले वो,
"टाइम गलत है मोबाइल का!" कहा मैंने!
कुछ समझे वो! मुझे देखा! मुस्कुराये! और कंबल लपेटा आसपास!
"लाला! मैं सब जानूँ! पांच बजे से मेरी गुल्लक में छैनी घुसेड़ रहे हो, सवा पांच ही बजे हैं!" बोले वो,
और मेरी हंसी निकली! इस बार न दबी!
उठे, खिड़की खोल बाहर देखा, बाहर घना कोहरा था, गाड़ी खड़ी थी कहीं, कोहरे की वजह से शायद!
"मुझे कह रहे हो बारिश हो रही है! लो जी, बंद करवा दी बारिश!" बोले वो, और आ बैठे!
"अकेला परेशान हो रहा था!" कहा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
"वैसे नींद तो बढ़िया आई?" पूछा मैंने,
"हाँ! क़तई बढ़िया!" बोले वो,
"आओ, कुल्ला कर आएं?" पूछा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
जैकेट पहनीं हमने और चल पड़े! टॉयलेट पकड़ना मुश्किल हो गया! ऐसे लेटे थे लोग! टॉयलेट के पास तो ऐसा हाल था, जैसे मेला जोट के आ रहे हों लोग! मुंह से बोल बोल कर हटाना पड़ा उन्हें!
और इस तरह, फारिग हो, कुल्ला-दातुन कर, लौटे अपनी सीट पर! आते ही, कंबल खींच लिए अपने अपने! ठंड के मारे हाथ सुन्न पड़ गए थे!
"कहाँ खड़े हैं?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, शायद कानपुर से आगे हैं!" कहा मैंने,
"बस?" बोले वो,
"हाँ, बस!" कहा मैंने,
"लौंडे सैट कर दिए आपने कल रात!" कहा मैंने,
"हाँ, लेटे हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, गुड्ड-मुड्ड!" कहा मैंने,
"सोने दो! सर्दी तो बहन** फ़र्राट पड़ रही है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब पता नहीं चाय वाला कब आएगा?" बोले वो,
''आ ही जाएगा!" कहा मैंने,
"वो भी घुसा होगा कहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सात बजे आएंगे ये!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम बातें करते रहे, क्या करते! वो लड़के जाग गए थे, नमस्कार हुई उनसे!
ठीक छह बजे ही, चाय वाला आ गया!
ले लीं हमने चाय उस से! कड़कड़ाती सर्दी में चाय मिल जाए, वो भी सुबह सुबह, तो क्या बात!
घूँट भरा हमने!
"इनकी बहन की **! बोले वो,
मैं हंसा!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये बहन की ** चाय है? या मीठा पानी?" बोले वो,
"अब पी लो यार! एक तो सर्दी में पानी मिल गया गरम!" कहा मैंने,
"कैसा बकबका स्वाद है!" बोले वो,
"क्या करें फिर?" पूछा मैंने,
"आने दो इस बहन के ** को!" बोले वो,
मुझे पता था, आज वो चाय वाला, ज़रूर कुछ न कुछ सूक्ति-संदेश सुनने वाला है! और कल से, कुछ न कुछ बदलाव तो करेगा ही!
कुछ ही देर में आ गया चाय वाला, आवाज़ देता हुआ!
"रुक भाई!" बोले शर्मा जी,
"जी!" बोला वो,
"रात की चाय के बर्तन मांज कर, उसमे चीनी डाल के लाया है क्या?" पूछा उन्होंने,
"अरे नहीं!" बोला वो हँसते हुए!
"तो दूध कहाँ छोड़ आया, ससुराल? बौहरिया मैके में है?" पूछा उन्होंने,
चाय वाला हंसा! अपना बक्सा नीचे रख दिया! और हँसता रहा!
"बौहरिया तो मैके में ही है, जा रही है आजकल!" बोला वो,
"तभी चाय में दूध नहीं है! वहां भेज रहा है, है न?" बोले वो,
''अरे ना बाबू जी!" बोला वो,
"तो पाउडर डालता है?" पूछा उन्होंने,
"क्या करें, हाँ जी!" बोला वो,
"तो एक एक और डाल इनमे!" बोले वो,
"अभी लो!" बोला वो,
और पट्ठे ने, एक एक पाउच, पाउडर डाल दिया, भर भी दिया पानी से!
"अच्छा जी!" बोला वो, और बक्सा उठा, चल पड़ा आगे!
"वाह!" कहा मैंने,
"देखा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हुआ न पानी गाढ़ा?" बोले वो हँसते हुए!
"हाँ, अब आया ज़ायक़ा सा!" कहा मैंने,
तो साहब!
हमने चाय पी ली, फिर से घुस गए कंबल में!
करीब दो बजे, हम पहुंचे दिल्ली! ठंड का प्रकोप था यहां तो!
"अरे रे!" बोले वो,
"ठंड है आर बहुत!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
तो हम फिर, उसके बाद, आ गए अपने अपने निवास-स्थान पर, शाम को मिलना था, जाना था कहीं, किसी के पास, वहीँ सजनी थी महफ़िल!
तो शाम के बाद, हम, उन जानकार के पास, चल पड़े!
साँझ ढल चुकी थी, और वैसे भी सर्दी में अक्सर साँझ जल्दी ही ढल जाया करती है! उस रोज भी सर्दी का यौवन निखरा हुआ था, वो इठला रही थी और हम कुड़कुड़ा रहे थे! ज़रा सी हवा चलती तो पूरे बदन में फुरफुरी सी दौड़ जाती! उस साँझ, कोहरा भी आ धमका था, सर्दी के साथ तो गहरा याराना है कोहरे का! हाथों में हाथ डाल टहलते ही रहते हैं! हमारे जानकार भी हमारा इंतज़ार कर रहे थे, तो हम उनके घर पहुंचे, उनसे मुलाक़ात हुई, चंद लोग और भी थे, उनसे भी मुलाक़ात हुई, और फिर उनके कमरे में जा बैठे! यहां राहत मिली, ब्लोअर चल रहा था, बाहर के मुक़ाबले यहां सर्दी नहीं थी! हम भी बैठ गए वहीँ! खाने-पीने का मौक़ा था ये! हमारे इन जानकार का नाम शील है, अपना व्यवसाय है, बड़े भाई के साथ, व्यवसाय ठीक-ठाक ही चलता है, वैसे घर-परिवार में मौज है!
"शील साहब, और सुनाएँ!" बोले शर्मा जी,
"बस शर्मा जी, आशीर्वाद है!" बोले वो,
"बढ़िया है!" बोले शर्मा जी, वो, पीली वाली गाजर का एक टुकड़ा उठाते हुए,
"और सुनाएँ, कब आये वापिस?" पूछा शील साहब ने,
"आज ही आना हुआ!" बोले शर्मा जी,
"अच्छा! अब तो कोहरे की वजह से गाड़ियां देर से चल रही होंगी? ये तो हर साल का नियम है हमारे रेल का!" बोले शील जी!
"हाँ जी, पूरे छह घंटे देरी से थी!" बोले वो,
"अरे वसीम? वो निकाल लो यार?" बोले शील जी, वसीम से, वसीम उनके दफ्तर में, मैनेजर के ओहदे पर काम करता है, लखनऊ का रहने वाला है और दिलखुश इंसान है! हंसमुख!
"कैसा है भाई वसीम?" पूछा शर्मा जी ने,
"ख़ैरियत है शर्मा जी, आप सुनाएँ!" बोला वसीम, मेज़ पर, एक बोतल रखते हुए,
"घर-परिवार में सब बढ़िया?'' पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, सब बढ़िया, अब्बू को शिक़ायत हुई थी अभी, लेकिन ईलाज के बाद अब सेहतमंद हैं!" बोला वसीम,
"चलो, सब बढ़िया!" बोले वो,
एक और साहब बैठे थे पास में, उनका परिचय कमल के नाम से करवाया गया था, वे रहते तो थे जयपुर में, लेकिन कारोबारी संबंध थे उनके शील साहब से, तो अक्सर आना-जाना लगा रहता था उनका शील साहब के पास, कमल जी, करीब पचास की आयु के, दरम्याने जिस्म के, और मुझे ज़रा अपने आप तक ही सीमित रहने वाले से लगे! जब कमल साहब को शील जी ने, हमारे बारे में बताया, तो वे चौंक से पड़े थे! फिर मैंने गौर किया कि वे हमसे बातें करने के इच्छुक हो चले थे, लेकिन हम लोगों की गुफ़्तगू कुछ ऐसी हो रही थी, कि कभी राजनीति की, कभी कूटनीति की, कभी बाढ़ की, कभी मौसम की, और कभी कभी कुछ सवालों की, जवाबों की! जाम पर जाम उड़ेले जा रहे थे, जाम खत्म होते, भर दिए जाते! सर्दी से राहत मिली, तो हलक़ में सिकुड़ी जीभ भी बाहर आने लगी! अब खूब बातें होने लगीं हमारी, कमल साहब भी अब पोसीदगी से बाहर आ, खुल कर अपनी बातें रख रहे थे! और वैसे भी ज़रा कुछ घूँट अंदर हों अंगूरी के तो हिचकिचाहट दूर होने ही लगती है!
"गुरु जी, शर्मा जी?" बोले कमल,
"हाँ जी, बताएं?" बोले शर्मा जी,
"एक बात पूछ सकता हूँ?" बोले वो,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोले वो,
"जी वो ये, कि लोग कहते हैं कि फलां हवेली आवाद है, फलां कोठी आबाद है, रात को जश्न होता है, लोग-बाग़ आते हैं, क्या ऐसा सच में होता है?" पूछा उन्होंने,
शर्मा जी ने बीड़ी बुझाई अपनी, एक टांग, सोफे के ऊपर रखी, टांग पर पड़ी, बीड़ी की राख, साफ़ की, कमल जी को देखा,
"हाँ, सच सुना है!" बोले वो,
मुझे लगा था कि जवाब सुनकर, कमल जी चौंक पड़ेंगे, चेहरे पर विस्मय के भाव दीखेंगे, जैसे हैरत में जा अटके हों, ऐसा कुछ मिलेगा देखने को, लेकिन ऐसा कुछ भी न हुआ! बल्कि वो संजीदा हो उठे, हाथ में उठायी हुई बोटी, नीचे तश्तरी में रख दी, साफ़ पानी के दो घूँट पिए, रुमाल से मूंछें और मुंह पोंछा अपना और देखा शर्म जी को!
"क्यों? क्या आपक साथ ऐसा बीता या किसी और के साथ?'' पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं, मेरे साथ तो नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
सोच में डूबे वो, जैसे असमंजस में हों, कि बताऊँ, न बताऊँ! हाथ बढ़ा कर, अपनी जलती सिगरेट उठायी, ऎश-ट्रे से और भरा एक क़श! छोड़ा धुंआ, काफी गहरा क़श छोड़ा था, साफ़ दीख पड़ता था कि वे किसी दुविधा में फंसे हैं!
"बात क्या है, ज़रा खुल कर बताएं?" बोले शर्मा जी,
दुविधा से दूर करने की कोशिश की थी उन्होंने कमल जी को!
"बताता हूँ शर्मा जी!" बोले वो,
"बताइये, पहले इन जामों को पार लगा दीजिये, जाम में पड़ी पड़ी शराब, गालियां देते देते उकता गयी है!" बोले शर्मा जी,
सभी हंस पड़े और अपने अपने जाम खतम कर लिए तभी के तभी! खाने का इंतज़ाम वसीम ने किया था, उसने ही लखनवी-ज़ायक़ा बनाया था! सबकुछ बेहतरीन था! मुझे तो शामी-कबाब बेहद पसंद आये! ऐसा मसाला तो कम ही मिलता है यहां! और फिर, कीमा-करेला! लाजवाब! कहते हैं न, कि हिंदुस्तान में, हर साठ किलोमीटर पर भाषा या बोली, पानी और ज़ायक़ा बदल जाया करता है! और ये है भी सच! ऐसा ही है! और फिर वसीम के बड़े भाई हैदराबाद के एक बड़े होटल में शेफ भी हैं! तो वसीम का भी हाथ रंगा हुआ है उन मसालों में!
"ये लीजिये साहब! ये है मुर्ग-नूरजहानी!" बोला वसीम!
परोस दिया था एक तश्तरी में, केसर जैसा रंग और देसी घी में पकाया हुआ, मक्खन से लबरेज़! मैंने चम्मच से खाया शोरबा, वाह! बेहतरीन!
"लाजवाब है, भाई वसीम!" कहा मैंने,
"ज़र्रानवाज़ी है जनाब की!" बोला वसीम!
शर्मा जी ने भी लिया ज़ायक़ा!
"क्या बात है! ये है असली मुग़लई!" बोले वो,
"हाँ जी! मुग़लई ही है!" बोला वसीम!
"आपने कहा न अभी किसी को?" बोले कमल साहब,
"हाँ!" बोले शर्मा जी,
"हमारा दामाद ही है! बड़े भाई साहब का छोटा दामाद, रौशन नाम है उसका!" बोले वो,
"क्या रौशन ने देखा है?" पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ!" बोले वो,
अब बात, ग़ैबी हुई, तो हुआ माहौल संजीदा! वसीम भी आ बैठा वहीँ! इंतज़ार करें हम कि कुछ बताएं अब कमल साहब इस बारे में!
"जी पहले अपने बारे में बता दूँ!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" बोले शर्मा जी,
"जी हमारा परिवार, शुरू से ही जयपुर में ही रहा है, पिता जी सरकारी मुलाज़िम रहे, जितना बन सका, उन्होंने पढ़ाया, लिखाया, तीन बेटियां भी ब्याहीं, पुश्तैनी मकान था, तो गुजारा हो गया, बाद में, बड़े भाई, सरकारी मुलाज़िम हो गए, उनका तबादला अलग अलग जिलों में होता रहा लेकिन हम भाइयों का, घर कुनबे का हमेशा ही अच्छा संबंध रहा है! बड़े भाई साहब ने भी अपनी दो बेटियां ब्याह दी हैं, छोटी वाली, जिला टोंक में ब्याही है, टोंक में ही छोटा दामाद, अच्छे सरकारी ओहदे पर है, लेकिन आजकल, परेशान हैं वहां सारे, उस लड़की को देख, यहां हम परेशान!" बोले वो,
"परेशान? वो क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"जी ये भी एक कहानी है!" बोले वो,
"सुनाएँ?" बोले शर्मा जी,
"रौशन का परिवार, जिला टोंक में ही रहता है, घर में दो बड़े भाई हैं, दोनों ही घर-परिवारवाले हैं, एक भाई उदयपुर में हैं, बीच वाला, चेन्नई में है, घर में अब माँ है, छोटा परिवार है, गाँव छोड़, अब शहर में ही रहते हैं, रौशन सरल और सच्चे दिल का लड़का है, ईमानदार है!" बोले वो,
"शादी को कितना अरसा हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"दो साल!" बोले वो,
"अच्छा! कोई बाल-बच्चा?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
"हाँ, तो आगे बताएं?" कहा मैंने,
"करीब साल भर पहले की बात है ये!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"गरमी के दिन थे, आप तो जानते ही हो गरमी में क्या हाल होता है राजस्थान का, तपता है भट्टी की तरह, तो तब गरमी का ऐसा ही वक़्त था!" बोले वो,
"हूँ, फिर?" बोले शर्मा जी,
अब तक, शील जी ने, जाम भर दिए थे, हाथ से इशारा किया कि हम उठायें, तो हमने उठा लिए, लेकिन अभी मुंह तक नहीं ले गए थे,
"तो उस दिन दोपहर में......." बोलते बोलते रुके कमल जी,
"जी!" बोले शर्मा जी,
"तो वो भी एक ऐसा ही गरम दिन था, उस दिन हाफ-डे था दफ्तर में, तो रौशन ने सोचा, ढाई-तीन बजे तक घर पहुँच जायंगे, और फिर चिलचिलाती धूप में, कोई काम तो और था नहीं, तो उन्होंने, अपनी मोटरसाइकिल निकाल ली, तभी बजा उसका फ़ोन, किसी जानकार का फ़ोन था, उसने बुलाया था रौशन को घर पर, अब उसके जानकार का घर भी, रास्ते में ही पड़ता था, करीब, तीन या चार किलोमीटर दूर, मुख्य रास्ते, तो सोचा कि, होते हुए ही चला जाएगा, मान भी रह जाएगा कि आया था और कोई मौक़ा भी नहीं मिलेगा कि आया नहीं!" बोले वो,
"हाँ जी, यारी-दोस्ती का तो यही रिवाज है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, वही तो बात थी!" बोले कमल जी,
तभी बाहर, टपर टपर की सी आवाज़ हुई, सभी ने खिड़की को देखा, वसीम उठा और गया खिड़की की तरफ, हाथों की ओट ले, बाहर झाँका, और पलटा!
"क्या हुआ वसीम?" पूछा शील जी ने,
"बारिश पड़ रही है, तेज!" बोला वसीम!
"बस, इसी की कमी थी!" बोले शील जी!
"इस मौसम में तो बरस ही जाती है, कम से कम इस कोहरे से तो निजात मिलेगी!" कहा मैंने,
"सो तो है, लेकिन ठंड ऐसी पड़ेगी अब कि खून जमा दे!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले शील जी,
जाम बनाये गए, कबाब परोसे गए, जाम उठाये गए, और ले लिए हाथों में!
"हाँ तो कमल जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, तो दोपहर का वक़्त, सर पर बाँध तौलिया, चल पड़ा जी रौशन वहाँ से, बाहर तो लू ऐसी चलें कि या तो तू गिर या मुझे गिरा!" बोले वो,
"हाँ, सूखी ज़मीन वैसे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
दो घूँट भरे, हमने भी,
"हां जी, फिर?" बोले शर्मा जी,
अब ज़रा उस बढ़िया रम ने अंदर खुलना शुरू कर दिया था, सर्दियों में रम जैसा और कुछ नहीं! स्वाद भी बढ़िया, गरमी ऐसी कि पूछो मत, सुबह पेट में बढ़िया! चाहे कुछ भी खाया हो, सब साफ़! बदन को गरम रखा करती है रम! औरजो हम पी रहे थे, वो तो मिलिट्री कोटे की थी, दमदार! घोड़ापछाड़!
"तो जी, करीब पौने तीन बजे वो उस रास्ते पर पहुँच गए, जहाँ से उनको, अब अपने जानकार के घर जाना था, ये रास्त खराब तो था, लेकिन मिट्टी पर चलें तो कोई दिक्कत नहीं होती थी, पानी रख ही लाये थे साथ, तो एक पेड़ के नीचे आ, खड़े हो, पानी पिया, अपने जानकार को फ़ोन किया, और चल पड़े उस रास्ते पर मुड़कर!" बोले वो,
अब बादल गरजे बाहर! साफ़ पता चला, कि आज तो गज़ब ढाएगी बारिश! घर जाना भी मुश्किल हो जाएगा, खैर, ठहरने की कोई समस्या नहीं थी, आराम से रात काटते हम इधर! तभी बिजली ने मारी झपकी, गुल हुई बत्ती और रौशनी की कमान, अब इन्वर्टर ने संभाली!
"अच्छा, तो रास्ते पर मुड़ गया रौशन, फिर?"
"हाँ जी, वो मुड़ गया, आगे चला, कोई दो किलोमीटर! तभी उसे कुछ सुनाई दिया!" बोले वो,
अपना चश्मा उतारते हुए, जेब से रुमाल निकाला और पोंछने लगे चश्मा,
अब तक सिगरेट मुझ तक आई, मैंने भी उड़ा डाले दो तीन क़श उसके!
"हाँ जी फिर? क्या सुना?" पूछा शर्मा जी ने,
कमल साहब ने लगाया चश्मा अपना, खखार कर, गला साफ़ किया अपना, रुमाल से नाक पोंछी, रुमाल, पैंट की जेब में खोंसा और उठा लिया खीरे का एक टुकड़ा!
"वो रुक गया था, रुक के पीछे देखा, आवाज़ वहीँ से आ रही थी!" बोले वो,
"कैसे आवाज़?" पूछा उन्होंने,
"ढोल-ताशे बज रहे हों जैसे, नगाड़े पीटे जा रहे हों जैसे!" बोले वो,
"ढोल-ताशे?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" बोले वो,
"फिर?" अब कि पूछा शील जी ने!
खिसक के पास आ गए थे, जल्दबाजी में, पूरा जाम खाली कर दिया था!
"पीछे देखा तो कोई नहीं था!" बोले वो,
"अरे? तो आवाज़?" बोले शील जी,
"आवाज़ ही आ रही थी, कोई था नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"खूब देखा, मोटरसाइकिल खड़े भी कर दी, एक पत्थर पर चढ़ कर देखा भी, अब कोई हो तो दिखे?" बोले वो,
"हाँ! ये तो है ही!" बोला वसीम तब!
"उसके बाद?" पूछा शील जी ने,
"उसके बाद, आवाज़ बंद हुई, कुछ देर बाद, उसने, मोटरसाइकिल की स्टार्ट, और चला पड़ा आगे!" बोले वो,
"आवाज़ बंद?" बोला वसीम,
"हाँ! कोई आवाज़ नहीं!" बोले वो,
"अरे?" बोला वसीम,
"फिर?" पूछा शील जी ने,
"अभी कोई दस मीटर चला होगा वो, कि नगाड़े बज उठे! इस बार, जैसे पीछे ही, पास में बजे हों!" बोले वो,
"ये तो कोई भूत-बाधा रही? हैं जी?" बोले शील जी,
"बताऊंगा!" बोले कमल जी,
"वसीम?" बोल शील जी,
"जी?" बोला वो,
"माल डाल यार!" बोले वो,
"अभी!" बोला वसीम, पीछे तक गया, लाया डोंगे, माल डाला, और एक और बोतल निकाल कर, रख दी मेज़ पर!
"बताओ?" बोले शील जी,
मुझे हंसी आई!
शर्मा जी भी हंस पड़े!
शील जी की उत्सुकता अब नाचने लगी थी! जैसे वो, उसी मंजर में मुब्तिला हो गए हों उस लम्हे!
"अब फिर से रुका रौशन! पीछे देखा, तो अब भी कोई नहीं?" बोले वो,
"अरे?" बोले शील जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
"दिल वाला लड़का है रौशन, मैं होता तो या तो बेहोश हो जाता या भाग ही खड़ा होता चालीसा पढ़ते पढ़ते!" बोले शील जी,
हम सभी हंस पड़े!
"ऐसे वक़्त में, चालीसा नहीं पढ़ा जाता! शब्द उखड़ने लगते हैं!" बोले शर्मा जी,
"हैं जी?" पूछा मुझसे अब शील जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अरे बाप रे! फिर कैसे बचे जी जान?" पूछा मुझसे,
"भाग लो फिर तो!" कहा मैंने,
"और जो कोई पकड़ ले तो?" बोले वो,
"तब आप क्या करोगे, वही करेगा फिर!" बोला मैं,
"जय मेरा हनुमान रखवाला, तुझे दिया कोठा और ताला!" बोले हाथ जोड़ते हुए शील जी!
मैं हंसा! शर्मा जी हँसे! कमल जी भी!
"ये औघड़ी मंत्र कहाँ से पढ़ा?" पूछा शर्मा जी ने,
"किताबों में मिला!" बोले वो,
"इसे पढ़ भी मत लेना!" बोले शर्मा जी,
"हैं?? हैं???" चौंक पड़े वो!
"हाँ! गलत है ये मंत्र!" बोले वो,
"सच में? सही क्या है फिर?" पूछा उन्होंने,
"जय वीर हनुमान रखवाला, सौंपूँ तोय पिंड और ताला!" बोले शर्मा जी!
"अरे बाप रे!" बोले शील जी!
"और ये ऐसे काम नहीं करता, ये औघड़ी मंत्र है, श्मशान में सिद्ध किया जाता है, ग्यारह मालाएं जपने से सिद्ध हो जाता है!" बोले वो,
"अब श्मशान कौन जाए? मेरे तो प्राण ही निकल जाएँ! रात में?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, अमावस की रात को, तीसरे चौघड़िया में!" बोले वो,
"अब बताओ, कोई कैसे बचे?" बोले वो,
"वो हम बता देंगे! आप जाम बनाओ!" बोले वो,
जा बना दिए गए, बढ़ा दिए गए सभी के सामने, सभी ने उठा भी लिए, उठाया मैंने कबाब का टुकड़ा, लिया मुंह में, घूँट भरे और आधा किया जाम!
"हाँ, तो कमल जी, फिर क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने!
"हाँ हाँ कमल जी! फिर क्या हुआ, ये बताओ!" बोले शील जी, आलती-पालती मारते हुए!
"हाँ जी, फिर क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"तो जी, नगाड़े बज रहे थे, तड़ातड़! लेकिन न तो बजाने वाला ही दीखे न बजवाने वाले ही! क्यों बज रहे थे, कौन बजा रहा था? कुछ नहीं दिखा रहा था!" बोले वो,
"ऐसे में तो पागल हो जाए आदमी!" बोले शील जी!
"सो तो है ही!" बोला वसीम!
''और वो भी तब, जब साला कोई दिखाई ही न दे! बाप रे! सोचो तो!" बोले शील जी!
हमारी हंसी छूटी! सभी हंस पड़े उनकी प्रतिक्रिया पर!
"आप की बात अलग है, हम जैसे तो बेहोश हो जाएँ! हमारा भूत ही जाए और ढूंढें कि आखिर में ये ढोल-ताशे बजा कौन रहा है!" बोले वो,
इस बार ठहका गूंजा सभी का!
"हाँ, तो फिर क्या हुआ कमल जी?" पूछा शील जी ने,
"हाँ तो रौशन उतर गया मोटरसाइकिल से, पानी की बोतल निकाली, पानी गरम हो चला था, लेकिन हलक़ को तर रखना भी ज़रूरी होता है, तो दो घूँट भरे पानी के, और फिर से पीछे देखा, फिर भी कोई न दिखा, अब उसने सोचा शायद कान बज रहे हैं उसके, भ्रम हो रहा है, ऐसे बियाबान में ऐसा होना, कोई नयी बात नहीं, विज्ञान का विद्यार्थी रहा है तो सोचा ही नहीं कि ये कोई भूत-बाधा भी हो सकती है!" कहा उन्होंने,
"तभी तो मारे जाते हैं? बिट** विज्ञान में घुसे रहते हैं, और जब सामने आ जाता है कोई, तो फाट के चित्तौड़गढ़ हो जाती है ***!!" बोले ताली मारते हुए शील जी!
अब कि तो ऐसी हंसी हँसे हम, कि शायद पड़ोसियों को भी पता चल गया होगा कि आज तो रम में रमे हैं रमली सब!
खुद भी हंस पड़े! हमें भी हंसा रहे थे!
"वसीम?" बोले शील जी,
"हाँ जी?" बोला वसीम उठते हुए,
"डाल दे यार!" बोले वो,
वसीम ने, डोंगा खोला और परोस दिया कीमा-करेला!
"वैसे यार वसीम, तू शेफ होता तो मोटा नोट कमाता! कहाँ फंस गया तू भी!" बोले शील जी,
"अजी यही ठीक हूँ मैं!" बोला वसीम!
"हाँ, ठीक भी है! तेरे बिना मेरा मन भी नहीं लगता यार! और किसी पर यक़ीन करता नहीं मैं!" बोले शील जी!
सच में, वसीम उनका कर्मचारी कम, दोस्त ज़्यादा है, राज़दार है हमारे शील साहब का वो, सबसे बड़ा!
तभी दरवाज़े पर हुई दस्तक! घड़ी देखी! नौ बजने वाले थे!
"मैं देखता हूँ!" बोला वसीम, और खोला दरवाज़ा! सामने एक अधेड़ खड़े थे, शील जी उन्हें देख हुए खड़े, खुश हुए! ले आये अंदर, परिचय हुआ, वे साढू साहब थे शील जी के, मथुरा में कपड़े का व्यवसाय था उनका, उनकी बोली से ही साफ़ पता चल गया था, और ये भी, कि वो देहाती से सरल इंसान हैं! आन-जान की बातें हुईं और उनके लिए भी जाम बनवा लिया गया! नाम उनका बादल है,
"हाँ जी, कमल जी?" बोले शर्मा जी, मुझे एक टंगड़ी देते हुए!
"तो साहब, फिर से आगे चला रौशन, फिर से कोई पांच मीटर गया होगा, कि लोगों की जोशभरी सी आवाज़ आई! नगाड़ों ने, आसमान सर पर उठा लिया, मोटरसाइकिल फिर से रोक दी, पीछे देखा, तो बियाबान! कुछ नहीं था पीछे!" बोले वो,
"अरे! भाड में जाने देता नगाड़े, सीधा जाता अपने दोस्त के यहां?" बोले शील जी,
"अब सुनो तो सही?" बोले कमल जी,
"सुनाओ जी!" बोले शील जी,
"इस बार दिमाग घूम गया था रौशन का! कौन बजा रहा है? आवाज़ कैसी है? कौन है पीछे? ये जानने के लिए उसने मोड़ ली अपनी मोटरसाइकिल!" बोले कमल जी,
"हैं? ये क्या किया? डर नहीं लगा?" पूछा शील जी ने, हैरत से!
"अब हर आदमी शील थोड़े ही है!" बोले कमल जी!
हंसी छूट पड़ी सभी की, शील जी भी न छिपा सके!
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर? फिर लौट पड़ा वो, देखने कि है कौन पीछे!" बोले वो,
"कोई दिखा कमल जी?" पूछा शील जी ने,
"वो कम से कम एक किलोमीटर लौटा होगा, लेकिन कोई नहीं मिला!" बोले कमल जी,
"उरा? भूतन कौ खेर दीखै?" बोले बादल जी अब! अब तक सुन रहे थे, अब बोल भी पड़े, ठेठ ब्रिज-भाषा में!
"हाँ जी! भूतन कौ ही खेर है!" बोले शर्मा जी!
जाम और बने, परोसे गए, और दौर आगे बढ़ा!
"फिर साहब?" बोला वसीम,
"हाँ, तो जब कोई न मिला तो दिमाग़ में मची खलबली! पहली बार उसके दिमाग़ में चढ़ा बुखार! कहीं कोई भूत-बाधा तो नहीं? सुना है ऐसा कई बार, वही तो नहीं यही? अरे नहीं! ऐसा थोड़े ही होता है! वहम होगा, चलो, देर हो रही है, कहाँ वहम में पड़ गया यार! चल वापिस, फिर घर भी तो जाना है? यही सोचा रौशन ने!" बोले वो,
"भई कहो कुछ भी, लड़के में हिम्मत है!" बोले कबाब खाते हुए शील जी!
"हाँ, हिम्मत वाला तो है!" बोले कमल जी,
"फिर?" पूछा शर्मा जी ने,
"तो वो लौट पड़ा वापिस, अपने दोस्त के यहां जाने के लिए, आया वहीँ वापिस, जिस जगह था वो, रुका, पीछे देखा, कोई नहीं, आगे बढ़ चला फिर!" बोले वो,
"इस बार कुछ नहीं हुआ?" पूछा शील जी ने,
"कोई आवाज़ नहीं आई?" पूछा वसीम ने,
"कछु न भयौ? मतबल, कोई आवाज़ ना?" पूछा बादल जी ने,
"न जी! कोई आवाज़ नहीं! कुछ नहीं हुआ!" बोले कमल जी,
"छूट गौ पीछौ, भली जानो!" बोले बादल जी,
"कहाँ छूटा पीछा?" बोले कमल जी!
उन्होंने जो ये कहा!
तो क्या शील जी, क्या बादल जी और क्या वसीम जी! तीनों ही जैसे कुँए से एक साथ उछल कर बाहर आ गए मेंढक की तरह! हक्केबक्के! हैरतज़दा!
"फेर कहा भयौ?" पूछा बादल जी ने,
"हाँ? क्या हुआ फिर?" बोले शील जी,
"बताएं फिर?" पूछा वसीम ने!
"वो आगे चला, करीब सौ मीटर! तो जैसे कोई स्वांग भरा जा रहा हो, ऐसी आवाज़ आई!" बोले वो,
"सांग? वा जंगल में?" बोले बादल जी, आँखें चौड़ी करते हुए!
"हाँ जी!"बोले कमल जी,
"कोई गा रहा था कुछ?" पूछा शील जी ने,
"हाँ, स्वांग!" बोले वो,
"उरा! मर गए भाई!" बोले बादल जी! पूरा गिलास खाली कर गए फिर तो!
"फिर क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"अब कि, फिर रुका वो! फिर देखा पीछे, अब भी कोई न!" कहा उन्होंने,
"धी के ** सामने च्यौं न आ रये?" बोले बादल जी, जोश में!
"सुन तो लो!" बोले शील जी उनसे!
"फिर?" पूछा मैंने,
"स्वांग बंद! नगाड़े बज उठे! तेज तेज! ढोल-ताशे, अपनी अपनी धुन पर! लोगों के नाचने-कूदने की आवाज़ें आएं! सिक्कों के खनखनाने की आवाज़ें आएं!" बोले वो,
"अरे रे!" बोले शील जी,
"हाँ जी!" बोले कमल साहब,
"वसीम?" बोले शील जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यार बनइयो गिलास!" बोले वो,
"लो!" बोला वसीम! बना दिया गिलास!
"आपको?" पूछा मुझसे,
"हाँ!" कहा मैंने,
बाहर कड़की बिजली!
और बादल साहब कांपे!
मुझे आई हंसी! शील साहब भी हंस पड़े! कमल साहब भी मुस्कुराये!
"वसीम, याय भी भर दै!" बोले बादल जी,
गिलास भर दिए गए सभी के! औरहम अपने अपने गिलास, उठा, कमर लगा, बैठ गए सोफे से!
"ये लीजिये!" बोला वसीम,
"सींक-टिक्के!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोला वसीम!
और मैंने भी ले लिए दो टुकड़े! टिक्कों का एक अलग ही मजा होता है! वो भी कड़कड़ाती सर्दी में, रम के साथ!
जाम खतम कर लिए गए अपने अपने! आज तो कुछ बात ही अलग थी! मटन-टिक्के लाया था वसीम अब, गर्मागर्म! और जब ऊपर से, हरी चटनी और धनिये के पत्ते बुरके, तो समझो चार चाँद और जड़ दिए उसने! ग़ज़ब की ख़ुश्बू थी! वसीम सच में ही बढ़िया बनाता था मुग़लई ज़ायकेदार मुर्ग वग़ैरह! अब जाना मैंने तो!
"वसीम?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"भाई बहुत बढ़िया! क्या ज़ायक़ा है!" कहा मैंने,
"ज़ाफ़रान है साहब! और आपकी इनायत!" बोला वो, अपने लखनवी अंदाज़ में! तहज़ीब की जुबां है उर्दू! इसमें कोई शक़-ओ-शुबह नहीं! चाशनी सी लपेट देती है अल्फ़ाज़ों में! उर्दूदां, मायने, उर्दू बोलने वाला, जानने वाले का लहज़ा बेहद ही नाज़ुक हो जाता है इसको बोलते हुए! उर्दू की शर्तें हैं कुछ, पहली, बोलते वक़्त, आपके मुंह की हवा, किसी दूसरे से न छुए! दो, आपका थूक या उसकी बूँदें, किसी और पर न पड़ें! इसीलिए अरबी ज़ुबान में, महाप्राण अलफ़ाज़ रखे ही नहीं गए!
"अरे कमल जी?" बोले शील जी,
"हाँ जी?" जवाब दिया कमल जी ने,
"फिर क्या हुआ? वो स्वांग?" बोले वो,
"हाँ! मामला टेढ़ौ सौ लग रौ है, भूतन कौ खेर हो रौ है!!" बोले बादल साहब!
"खेर तो है ही?" बोले शर्मा जी,
"तो भाज च्यौं न लै वहाँ तै?" बोले बादल साहब!
"अब बताने तो दो?" कहा शर्मा जी ने,
"हाँ जी, आगे कहा भयौ?" बोले बादल साहब!
अब बादल साहब जा पहुंचे थे, उस स्थान पर, जहां वो रौशन भटक रहा था! ढूंढ रहा था उन नगाड़ा बजाने वालों को!
"कमल जी? बताओ?" बोला मैं,
"तो साहब वो रुक गया फिर से, इस बार फिर से देखा, और एक पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ! सोचा, देख लूँ कि हैं कौन ये? बार बार शोर मचाते हैं, इस बियाबान में?" बोले वो,
"पेड़ नीचे? रै मरैगौ कहा?" बोले बादल साहब!
मेरी हंसी छूट गयी तभी के तभी!
"फिर?" बोले शील साहब,
"दस मिनट बीत गए, कोई न आया!" बोले कमल साहब,
"आना ही न हौ? अजी ऐसे आ रहे हैं परेत?" बोले बादल साहब!
"जाम बनाओ यार आप!" बोले शर्मा जी, बादल जी से,
बादल जी ने बोतल खोली, कमल साहब को देखते हुए, उड़ेलने लगे शराब गिलास में, और भर लिया गिलास, पानी के लिए बस दो इंच जगह बची!
डाला पानी, और खेंच मारा गिलास! एक ही बार में!
"खिलाड़ी हो साहब आप!" बोले शर्मा जी,
"यहां भूत डोर रये काएं, कहा पतौ चलै नेक सी सी कौ?" बोले बादल साहब!
मैं हंस अब! क्या कहा था उन्होंने! उनकी भआषा ने तो मजा बाँध दिया था! सभी हंस पड़े थे! उनका मतलब था कि यहां भूत घूम रहे हैं, इतनी थोड़ी सी का क्या पता चलेगा!
हँसते हँसते हाल खराब हो गया सभी का!
"बताओ! भूतन से मिलवे खड़ौ है लाला!" बोले वो,
फिर से आई हंसी हमें! सभी हंस पड़े!
उनका मतलब था कि लो, और ये लड़का, भूतों से मिलने के लिए खड़ा है!
"बादल साहब?" बोले शर्मा जी,
बादल साहब का चेहरा लाल भभक उठा था!
खारिश कर रहे थे बार बार, अपनी टोपी के अंदर! ऊनी टोपी पहनी थी उन्होंने!
"लै! लै मेरी सासु की, लै!" बोले बादल साहब!
और मारी फेंक के टोपी सामने दरवाज़े के पास!
ये जैसे ही हमने देखा, मेरे मुंह में बंद मुंह का घूँट अटका! न नीचे ही जाए और न बाहर ही निकले! सभी का बुरा हाल था हंस हंस कर! सभी कमर सोफे से लगा, हंस हंस के दुल्लर हो गए थे! उन्होंने अपनी खुजली की खीझ, जो रम की गरमी के कारण थी, अपनी टोपी फेंक मारी थी! ठेठ ब्रिज-भाषा थी, हंसी तो छूटनी ही थी!
"वहाँ लाला फँसौ परौ है पेड़ ताईं, औउर कहा!!" बोले वो,
"बस यार बस! बोले शील साहब उनसे!
"नशा तो नहीं चढ़ गया आपको?" बोले शर्मा जी,
"अजी ना! हाँ जी, फिर कहा भयौ?" पूछा बादल साहब ने,
हंसी की काबू हमने!
बचा हुआ गिलास भी ख़त्म कर लिया!
"हाँ कमल जी?" बोले शर्मा जी,
"तो कोई नहीं आया! हाँ, इस बार नगाड़ा बजा! बजा पीछे से ही, वो चढ़ा गया पेड़ पर! देखने के लिए, कि कौन है? जो इस दोपहरी में स्वांग भर रहा है? ढोल-ताशे, नगाड़े बजवा रहा है? लेकिन कोई न दिखा!" बोले वो,
"पेड़ पै चढ़गौ? हिरे मेरे भगवान!" बोले बादल साहब!
"हाँ! पेड़ पर चढ़ गया, और दिखा फिर भी कुछ नहीं!" बोले वो,
"लाला पागर तौ ना है?" पूछा बादल साहब ने!
कमल जी, ये सुन कर हँसे!
"न! न जी, पागल न है!" बोले कमल जी,
"तो पेड़ पै च्यौं चढ़ौ?" पूछा बादल साहब ने,
"देखने, कि कोई है तो नहीं, है तो कहाँ है?" बोले कमल जी,
"यूँ कहो जी, मरवे की ठान राखी वाने तो?'' बोले बादल साहब!
खुजलाते हुए अपने सर को! खारिश तंग कर रही थी उन्हें बहुत!
"कुछ न दिखा फिर भी!" बोले वो,
"नीचे उतरौ या ना?" पूछा बादल साहब ने!
हम फिर से हँसे सब!
कैसे कैसे सवाल पूछ रहे थे बादल साहब भी! एक से एक!
"अब चढ़ेगा तो उतरेगा तो ज़रूर!" बोले शर्मा जी,
"ना! कदि चिपक गयौ हौ? के आज तो देख कै ही जाऊँगौ!! पागर छोरा!!" बोले बादल साहब!
उनका ये जवाब सुन कर, फिर से हंसी छूटी!
"लो, गिलास आगे करो!" बोले शर्मा जी,
"लो जी!" बोले बादल साहब,
बताओ कितना भरूं?" पूछा शर्मा जी ने,"
"चलन दीजौ आज तौ!" बोले वो,
अब शायद नशा घेरने लगा था उन्हें, इस बार भी एक बड़ा सा पैग भरवाया उन्होंने!
"वसीम?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"सलाद है?" पूछा शर्मा जी ने,
"है न साहब!" बोला वो,
उठा, एक बड़ा सा थाल उठाया, और उसमे से, तश्तरी में डाल दी सलाद!
"शील?" बोले बादल साहब,
"हाँ?" बोले शील जी, कमर हटाते हुए सोफे से,
"मूत मारनौ है!" बोले बादल साहब,
"वो, सामने, चले जाओ!" बोले वो,
"आयौ अभाल ही!" बोले बादल साहब, और चल पड़े गुसलखाने की ओर!
"बड़े मस्त आदमी हैं ये तो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सरल आदमी हैं!" बोले शील जी,
"मजा आ गया इनके साथ तो!" बोले शर्मा जी,
"कभी चलना घर इनके! फिर देखना!" बोले वो,
"ज़रूर!" कहा उन्होंने,
कुछ देर में, आ गए वो वापिस, आ बैठे वहीँ!
"पानी ऐसौ हो रो है के बरफ कूट राखी हो!" बोले बादल जी,
"बारिश भी तो है!" बोले शर्मा जी,
अपना गिलास उठाया सभी ने फिर, लगा ली कमर सोफे से!
"कमल जी?" बोले बादल जी,
"जी?" बोले कमल साहब,
"आगे च्यौं न बताओ?" बोले बादल साहब!
"हाँ जी!" कहा कमल साहब ने,
और अपना गिलास, आधा कर, रख दिया मेज़ पर! बाहर बिजली कड़की! बारिश अभी भी तेज़ हो रही थी!
वसीम फिर से खिड़की की तरफ गया देखने, झाका बाहर पर्दा हटा कर, अभी भी बारिश थी, उसके चेहरे के हाव-भाव से पता चल गया था! वो आया वापिस, और बैठ गया फिर से,
"है बारिश?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, तेज है काफी!" बोला वो,
मैं तब तक, गुसलखाने से वापिस हो आया था, वापिस आ बैठा था अपनी जगह, वसीम से माइक्रोवेव में कबाब-टिक्के आदि गर्म करने रख दिए थे, तो वो वहीँ चला गया था उठ कर, देख रहा था उसी को, कमल जी ने पानी पिया, और सिगरेट लगा ली, पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिया, मैंने भी एक सिगरेट निकाल ली, और जला ली, लिया एक ज़ोरदार सा क़श और छोड़ा धुँआ, तब कुछ देर बाद ही, तश्तरियों में परोस कर, वसीम सामान ले आया था, रख दिया था और फिर से पैग बनने शुरू हो गए थे!
"हाँ जी, कमल जी, फिर क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"रौशन ने जो बताया और जो पता चला, वही बता रहा हूँ आपको, तो उसने बताया कि, वो जब पेड़ से उतरा, तो कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, न अब नगाड़ों की और न ही तब कोई स्वांग भर रहा था, स्वांग भरते समय, ढपली की आवाज़ आती थी, ज़ोर का हारमोनियम बजने लगता था, वैसे देखा जाए तो ढपली तो आये समझ, लेकिन हारमोनियम की आवा ऐसी तेज कैसे गूँज रही थी? जैसे कोई टेप चला रहा हो?'' बोले कमल जी!
"च्यौं न हो सकै? सब कर सकैं परेत!" बोले बादल साहब,
बात तो सही ही कही थी उन्होंने, ये भूत-प्रेत सब करने में माहिर हैं! हर रूप रचने में, हर जगह अपनी बनाने में, इन्हें क्षण नहीं लगेगा! लेकिन बात सही थी कमल साहब की भी, हारमोनियम की आवाज़ इतनी तेज़ नहीं हो सकती थी! और फिर, रौशन ने ये बात भी बाद में ही सोची होगी, उस समय नहीं! ऐसा ही होता है, उस समय कुछ याद ही नहीं रहता, दिमाग जैसे एक तरफ ही बहे चला जाता है, कुछ छोटी-मोटी साधारण सी बातें भी याद नहीं रहतीं!
"हाँ, बात तो सही है आपकी!" कहा मैंने,
"अच्छा जी, फिर?" बोले शील जी,
''साहब, हुआ क्या कि रौशन ने सोची, अब कोई ज़रूरत नहीं वहां रुकने की, वैसे ही देर-सवेर हो रही थी और फायदा तो कुछ था नहीं, जल्दी से दोस्त के यहां पहुंचे, मिले, जो काम है, निबटाए, और चल पड़े वापिस! और यही सोचा उसने!" बोले कमल जी!
"जे हुई न बात!" बोले बादल जी!
"तो वो चल पड़ा दोस्त के पास?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ जी!" बोले कमल जी,
"अब कोई आवाज़ नहीं?" बोले शर्मा जी,
"अजी खूब! लेकिन सुनी नहीं, बढ़ता ही गया रौशन आगे!" बोले वो,
"ये बहुत अच्छा किया रौशन ने! अब अपनी ** *** ये भूत-प्रेत!" बोले शील जी!
"अच्छा, फिर? बात खत्म?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं, बात ही तो खत्म नहीं हुई!" बोले कमल जी!
अब ये सुन, सभी चौंके!
अब क्या हुआ उसके बाद?
कोई नुक़सान तो नहीं पहुंचा दिया?
कुछ हुआ तो नहीं?
सवाल कूद पड़े आ कर बीच में! कई सारे!
"कछु गड़बड़ है गयी?" पूछा बादल जी ने,
"हाँ जी!" बोले कमल साहब,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"रौशन सीधा अपने दोस्त के यहां गया, कुछ काम था, निबटा दिया, एक घंटा लग गया, जब वापिस हुआ, तो चार बज रहे थे, धूप अभी भी जान लेने पर आमादा थी, लू चल रही थीं, पानी पीकर चला था, और शरबत भी, तो कुछ राहत पड़ी थी उसे, अब घर पहुँचने की जल्दी थी, तो तभी चल पड़ा था!" बोले वो,
"फेर?" पूछा बादल साहब ने,
"कमल साहब, आगे क्या हुआ?" पूछा वसीम ने,
"हुआ क्या इसके बाद?" पूछा शील जी ने,
उन्होंने हमारी तरफ देखा, एक टुकड़ा उठाया टिक्के का, मुंह में रखा, चबाया और अपना बचा गिलास, खाली कर लिया, रख दिया मेज़ पर, रुमाल से मुंह पोंछा अपना,
"वो अपनी मोटरसाइकिल दौड़ाते हुए, लौट रहा था, बियाबान, एक इंसान भी नहीं, न कोई आसपास और न कोई बुग्घी-बाघी! मिट्टी उड़ी जाए और वो सरपट भागे! करीब दो किलोमीटर चला होगा, कि उसे पीछे से आवाज़ आई, जैसे कई घोड़े एक साथ मिलकर हिन्-हिनाये हों!" बोले कमल साहब!
"कहा? घोरा? कई सारे?" बोले बादल साहब, आँखें फाड़े!
हम सभी हैरान!
"हाँ, एक साथ, कई घोड़े!" बोले वो,
"वाई जगह?" पूछा बादल साहब ने,
"हाँ, उसी जगह!" बोले कमल जी,
"उरा तेरी त्तो! हो गयौ काम! मोय दीखै!" बोले वो,
झट से, एक टंगड़ी उठा ली उन्होंने, और आनन-फानन में उधेड़ डाली!
"कमल साहब? फिर क्या हुआ?" पूछा शील जी ने,
"उसने रोक दी मोटरसाइकिल अपनी, एक तरफ लगाई, सोचा, घोड़े आ रहे होंगे, और जब पीछे देखा उसने, तो कोई नहीं!" बोले वो,
"हिरे? पहरे ढोल-तासे, फेर नगारा, फेर सांग, फेर जे घोरा! बिकट लीला दीखै!" बोले बादल जी!
"बिकट तो है जी!" बोले शर्मा जी,
"फेर?" बोले बादल साहब!
"अभी बताता हूँ!" बोले वो,
"बता दो, नींद नहीं आएगी आज!" बोले शील जी,
"नींद क्यों न आएगी?" पूछा शर्मा जी ने,
"ढोल-तासे बाजेंगे! घोरा अर्राये पड़ंगे रात सगरी!" बोले बादल जी!
हंसी का फव्वारा फूटा!
सभी हंसने लगे! क्या बात कही थी उन्होंने!
कमल साहब ने ज़रा अपनी बेल्ट ढीली की थी, ताकि बैठ सकें आराम से, और फिर, बैठ गए वो!
"हां कमल जी?" बोले शर्मा जी,
"हाँ तो पीछे कोई नहीं दिखा! अब दिमाग घूमने लगा उसका! आव देखा न ताव! अब भगा ली मोटरसाइकिल आगे! अब एक बात बड़ी हैरत की हुई जी!" बोले वो,
"वो कहा भई?" पूछा बादल जी ने,
"हाँ, क्या हुआ?" पूछा शील जी ने,
"वो ये, कि जैसे जैसे वो आगे बढ़ता जाए, आवाज़ और आती जाएँ पास!" बोले वो,
"उरा बहन**! छोराय तो मारते दीखैं??' बोले बादल साहब!
"बड़ी अजीब बात है?" कहा मैंने,
"अरे बाप रे! फंस गया लड़का!" बोले शील जी,
"कमल साहब, आगे बताओ?" बोला वसीम!
"हाँ, बताओ आप?" बोला मैं,
"अचानक से एक आदमी की आवाज़ आई! जैसे किसी ने रोक हो उसे! उसने झट से मारे ब्रेक! कहीं कोई जानने वाला न हो?" बोले वो,
"आवाज़? किसने दी?" उछल के बैठ गए शील जी तो!
"कहा? आवाज़?" चौंक पड़े बादल जी!
"कैसी आवाज़?" पूछा शर्मा जी ने,
"आवाज़!" बोले कमल जी,
खड़े हो गए थे, सिगरेट उठा ली थी, और जला ली थी!
"बोलोगे भी कछु? या डण्डिय फेंको?" बोले वो,
मुझे हंसी आई! उनके सवाल पर!
सिगरेट को कह रहे थे कि इस डंडी को फेंको, और बताओ कुछ!
"आवाज़ थी कि, आ जाओ!" बोले वो,
"आ जाओ?" बोले विस्मय से शील जी!
"आ जाओ? काहे? आ जाओ! मिल जाओ हम्मैं, हो जावो एक, हमसे!!" बोले बादल जी, झुंझला कर!
"और आवाज़ किसने दी?" पूछा मैंने,
"हाँ, वो नज़र आया या नहीं?" पूछा मैंने,
"आया जी नज़र!" बोले कमल जी, अब बैठते हुए!
अब सभी चौंके!
सभी की नज़र, गरदनें उन्हीं की तरफ घूम गयीं! बदल जी, चश्मे से तो देखें नहीं, चश्मे के फ्रेम के बीच की जगह से देखें कमल जी को!
"वसीम?" कहा मैंने,
"हाँ जनाब?" बोला वो,
"यार, माल निकालो ज़रा?" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोला वो,
दौड़ता गया बाहर, और एक ही मिनट में, ले आया एक और बोतल!
"लो जी, इसमें डालो पहले!" बोले शील जी!
"पहले क्यों!" पूछा मैंने,
"आज रात नहीं आये नींद!" बोले वो,
"मौकू भी, जी घबरा सौ रॉ है!" बोले बादल जी,
"जी क्यों घबरा रहा है?" पूछा शर्मा जी ने,
"जन कौन है? आदमी है के जन परेत है, या मारे!" बोले वो!
बादल साहब बेचारे, बेहद ही परेशान हो उठे थे, इंसान के चेहरे के हाव-भाव सब बता दिया करते हैं, हालांकि उन्होंने कभी रौशन को देखा नहीं था, लेकिन फिर भी उसके लिए परेशान हो उठे थे! अपने अंदाज़ में, मीठी और रसीली बृज-भाषा में वो सवाल-जवाब कर रहे थे! वैसे भी, बृज-भाषा में ऐसा रस है कि ग़मगीन माहौल में भी हास्य का पुट डाल दे! अभी उन्होंने कहा था, कि पता नही किसने आवाज़ दी है, आदमी है कि कोई प्रेत!
"हाँ, कमल साहब? किसने आवाज़ दी थी?" पूछा शर्मा जी ने,
शील जी, अपनी छाती पर अपना हाथ मसले जा रहे थे, जैसे बेचारे खुद ही वहां खड़े हों और कहीं किसी करवट या ओट से देख रहे हों सबकुछ, लेकिन बोल ही ना पा रहे हों कुछ! वसीम, दोनों हाथ बांधे, सीने में बाजू धँसाये, सब सुन रहा था, और बादल साहब, चेहरे पर, भयमिश्रित भाव लिए, चबा रहे थे कुछ मुंह में, निगला न जा रहा हो, ऐसा लग रहा था, उनकी सफेद और काली मूंछें भी बेतरतीबी से हरक़त कर रही थीं उनके होंठों के साथ!
"अब रोको मति? जी डरप रहौ है? आगे कहा भयौ?" बोले बादल साहब,
बिना तश्तरी को देखे, उसमे से, गाजर या खीरे का टुकड़ा लेना चाहते थे, लेकिन हाथ में आई मूली, छूकर देखा, गोल टुकड़ा था, टुकड़े को दबा कर देखा, बीज नहीं थे, अब गाजर में बीज कहाँ से आते, एक नज़र भर के देखा, और वो मूली का टुकड़ा छोड़, गाजर का टुकड़ा उठा लिया, लिया मुंह में और चबा लिया!
"जिसने आवाज़ दी थी, वो एक मर्द था, उसके साथ एक घोड़ा भी था, घोड़े का रंग काल और सफेद था, लम्बा ऊंचा-ठाड़ा घोड़ा था उसका, जीन और रक़ाब कसी हुई थीं, वो घोड़े से उतरा हुआ था, उसके घोड़े की लग़ाम, किसी और आदमी ने पकड़ी हुई थी, जिसने पकड़ी हुई थी, वो भी रौशन को ही देख रहा था!" बोले वो,
"उरा! बिट**! घोरावारे?" आश्चर्य से पूछा बादल साहब ने!
शील जी तो इन छोड़, गुड्ड-मुड्ड हो, तकिया अपने घुटनो पर रख, सर आगे करते हुए, कमल जी की तरफ देखने लगे थे!
हम सब जैसे, उस मंजर के बीच में ही खड़े थे, जैसे वे तीनों और वो घोड़ा, सामने ही खड़ा हो हमारे!
"कौन था वो आदमी? कुछ कहा उसने?" पूछा शर्मा जी ने,
कमल साहब ने गिलास भरा अपना,
"एक मिनट, कमल साहब, उस आदमी की वेश-भूषा बताई रौशन ने?' मैंने शर्मा जी का सवाल काटा था,
"हाँ जी, बतायी थी!" बोले कमल जी,
शील जी ने रखा दिया तकिया!
बादल साहब ने, झट से चश्मा साफ़ किया अपना,
वसीम ने गरदन आगे कर ली,
शर्मा जी ने, एक कबाब से टुकड़ा तोड़, देखा उन्हें,
मैंने गिलास, हाथ में ही थाम लिया अपना!
"कहा पहन राखौ हौ वा घोरावारे नै?" पूछा बादल साहब ने, चश्मा पहनते हुए!
"बता रहा हूँ बादल साहब!" बोले कमल जी,
अपना गिलास उठाया कमल साहब ने, दो घूँट भरे, रख दिया नीचे, कबाब का टुकड़ा लिया और चबाने लगे, फिर खीरे का एक टुकड़ा भी ले लिया,
"जिसने आवाज़ दी थी, वो तो कोई पहलवान सा लगता था, लम्बा-चौड़ा, बांका सा जवान! गोरा-चिट्टा, शरीर कसा हुआ था उसका, सर पर एक चमकीली सी टोपी पहने था, टोपी में से कई कत्तरें से निकली थीं, वो कमर पर गिरी हुई थीं, कमरे में, एक चुनरी सी बंधी थी लाल रंग की, उसी में, एक लम्बी सी तलवार, खुँसी थी, म्यान के साथ, उसने नीचे एक खुली सी सलवार और ऊपर, चुस्त सी कमीज़ पहनी थी, गला-बंद और बाजू- बंद!" बोले कमल जी,
"तलवार? उरा? सिपाही सौ लगै?" बोले बादल जी,
"खतरनाक आदमी है भाई ये तो!" बोले शील जी!
"पुराने हैं ये तो?" बोले शर्मा जी, मुझे देखते हुए,
मैंने सर हिला हाँ कही,
"हाँ, तो फिर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोले शील जी,
"वो आदमी, चल कर आया रौशन के पास, मुस्कुराया, सर झुकाया अपना, और बोला, कि वो चाहें तो चले उनके साथ, बारात जा रही है, वो भी मेहमान बनें! और उसने ऐसा कई बार कहा!" बोले कमल जी,
"अरा! बहन**! न! न! लाला, जाइयो मति! जाइयो मति!" बोले बादल साहब, जैसे रौशन सामने ही खड़ा हो, हाथ की ऊँगली को न के अंदाजा में हिलाते हुए कह रहे थे वो!
"बारात में बुला रहा है? आदमी तो भला लगता है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, सर भी झुका रहा है ये तो?" बोले शील जी,
"न! न लाला न!" बोले बादल जी!
"आया अभी मैं ज़रा!" कह कर चले कमल जी गुसलखाने,
"बारात में बुरा रौ है, मारेगौ! मार डारेगौ!" बोले बादल जी,
"ऐसे नहीं मारेगा!" कहा मैंने,
"च्यौं भला?" पूछा बादल जी ने,
"जब तक, रौशन कोई नुकसान नहीं पहुंचाता उन्हें, सोचता भी नहीं नुकसान पहुंचाने की, तब तक रौशन समझो महफ़ूज़ है वहां!" कहा मैंने,
"ऐसा होता है?" बोले शील जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब भूतन कौ कहा भरौसौ?" बोले बादल जी,
"मान लिया, लेकिन ये भूत ऐसे नहीं है, वो तो बाक़ायदा इज़्ज़त से मेहमान बनने के लिए कह रहा है! ऐसा क्यों करेगा अपने मेहमान के साथ!" बोले शर्मा जी,
"सगरे मिर के मार डारेंगे, नोच लंगे बोटी बोटी!" बोले बादल जी,
"नहीं, ऐसा नहीं होता!" कहा शर्मा जी ने,
"छोरा तो घिर गौ!" बोले बादल जी, सर हिलाते हुए,
"अभी कमल जी बताएंगे और, सुन लेना!" कहा शर्मा जी ने,
"गावन में सुना करे हम, चाचा बताबै करे, उन्हें मिलौ एक, पहरवान सौ! ऐसे मारये चाचा वाने, ऐसा मारये चाचा, देह ही बखेर डारी!" बोले बादल जी!
"छलावा होगा वो!" कहा मैंने,
"हाँ! छरावा ही हौ! ठीक!" बोले बादल जी!
"जन जन कहा कहा बिखरौ परौ है! जन कहा कहा!" बोले बादल जी!
"ऐसा तो हमने भी सुना जी, हमारे ताऊ को मिला था एक ऐसा ही, सुबह की बात होगी, ताऊ से बोला, मेरी बुग्घी का पहिया फंस गया है, मदद कर दो, ताऊ ने की मदद, निकलवा दिया पहिया, उस आदमी ने, बारह सिक्के दिए उन्हें, बोला, किसी को बताना मत, दिवाली के बाद खोलना ये, ऐसा ही किया उन्होंने, दिवाली के बाद खोला, तो उसमे सोना था, बारह सिक्के, एक एक सिक्का पच्ची ग्राम का, उस वक़्त में, दो तोला!" बोले शील जी!
"हाँ, होता है ऐसा!" बोले शर्मा जी,
और बाहर बिजली कड़की!
चमकदार रौशनी हमारे कमरे में हुई दाखिल!
सभी ने देखा खिड़की को!
"आज तो मेह भी अर्रारौ है!" बोले बादल जी,
"शाम से ही बरस रहा है!" कहा मैंने,
"ठंड ने ** ** राखी है!" बोले वो, बादल जी,
"शील जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"कहाँ खो गए?'' पूछा मैंने,
"घोड़ा! वो आदमी!" बोले वो,
"वहीँ हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" कहा उन्होंने, छत को देखते हुए!
"कहा है रौ है ताईं?" पूछा बादल जी ने,
"बारात जा रही है!" बोले वो,
"दुल्हौ दिख रौ है?" पूछा बादल जी ने,
"ना!" बोले वो,
"फेर?" पूछा बादल जी ने,
"बाराती!" बोले शील जी!
मैं हंस पड़ा! शर्मा जी भी!
"ये लीजिये!" बोला वसीम,
"क्या ले आये?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, मुर्ग-मुसल्ल्म ही है, गर्म किया है!" बोले वो,
"वाह!" कहा मैंने,
और अपना आधा बचा गिलास खत्म कर डाला!
"तुम भी तो लो वसीम?" बोले शर्मा जी,
"आप लें पहले!" बोला वो,
और तब, कमल जी भी आ गए!
बैठे, रुमाल से हाथ साफ़ किये थे, और रुमाल जेब में रख लिया था!
"कमल साहब?" बोला वसीम,
"हाँ वसीम?" बोले कमल जी,
"और बनाऊँ?" पूछा वसीम ने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोले कमल जी,
तब वसीम ने, भर दिया उनका गिलास! बिजली फिर से कड़की, मैंने घड़ी पर नज़र डाली, दस से ऊपर बज गए थे!
"हाँ जी कमल साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, तो मैं कहाँ था?" पूछा उन्होंने,
"उसने मेहमान बनने को कहा था!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, हाँ तो उसने कहा कि बारात जा रही है, आप मेहमान बनें, चलें हमारे साथ ही!" बोले कमल जी,
"अच्छा!" कहा शर्मा जी ने,
"रौशन का दिमाग चकराया! जान न पहचान, और मेहमान?" बोले वो,
"चकरायेगा भी, किसी का भी चकरा जाएगा दिमाग ऐसे में!" बोले शील जी,
"हमसौ तौ परान ही छौर देतौ!" बोले बादल जी!
"फिर क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"अब जैसे उस आदमी ने, ज़िद सी पकड़ ली, बार बार बोले कि चलो, चलो, मेहमान बनो, लेकिन रौशन न माना! रौशन ने कहा कि उसको घर जाना है, जल्दी है बहुत, काम हैं बहुत, रुके पड़े हैं, तो वो आदमी बोला कि काम नहीं रुकेगा कोई भी, चलो बस संग उसके, वो छोड़ देगा यहीं के यहीं, दावत के बाद!" बोले कमल जी,
"हिरे? पीछे ही परगौ? तौय ही मुबारक दावत तेरी!" बोले बादल साहब!
"फिर?" पूछा मैंने,
"जब बात नहीं बनी, और नहीं माना रौशन तब उस आदमी ने हंसकर कहा कि कोई बात नहीं, अब मेहमान आप बन नहीं रहे तो कुछ देता हूँ रख लो!" बोले कमल जी!
सभी उछल गए जैसे!
सभी की नज़रें टिक गयीं कमल साहब पर!
भला क्या दिया उसे?
वो क्या चीज़ थी?
"कहा देगौ?" पूछा मरी मरी सी आवाज़ में उन्होंने,
"क्या दिया?" पूछा शील जी ने,
"हाँ, क्या दे गया?" पूछा शर्मा जी ने,
"एक शॉल सा था वो!" बोले वो,
"शॉल, मतलब दुशाला?" बोले शील जी,
"हाँ, ऐसा ही कुछ!" बोले वो,
"हिरे मिर-राम(मेरे-राम)!" बोले बादल जी!
"क्या वो शॉल है अभी?" पूछा मैंने,
"बताया तो था, लेकिन मैंने देखी नहीं खुद!" बोले वो,
"अच्छा जी?" बोले शील!
"है अभाल धोरै?" बोले बादल जी,
"होगी, घर में ही होगी!" बोले वो,
"अच्छा, फिर क्या हुआ? वे लौट गए?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, वो घोड़े पर बैठा फिर, दूसरे आदमी ने घोड़ा घुमाया और चल पड़े!" बोले वो,
"और वो स्वांग, ढोल-ताशे?" पूछा शर्मा जी ने,
"वो बजते रहे, आवाज़ें आती रहीं!" बोले वो,
"देखा और किसी को?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, पूरी बारात जा रही थी!" बोले वो,
"इसका मतलब सभी को देखा!" कहा मैंने,
"हाँ, सभी को!" बोले वो,
"इसके बाद घर वापिस रौशन?" पूछा मैंने,
"हाँ, और जब लौटा घर, तो बुखार बड़ी तेज, उलटी-दस्त, हालत खराब!" बोले वो,
"और मिल लै? ले लै दुशालायै? गाँठ लै यारी?" बोले बादल जी!
"फिर?'' पूछा शील जी ने,
"अस्पताल में कराया भर्ती, और उसके बाद..............आज तक!" बोले वो,
"कहा?" पूछा बादल जी ने,
"आज तक ठीक नहीं हुआ वो, पागल जैसा हो गया है, बार बार जाना चाहता है उधर, वहीँ, बोलता है, मेरा इंतज़ार कर रहे हैं वो, बारात जा रही है, मेरे लिए रुके हैं!" बोले कमल जी,
"अजी च्यौं न! तू ही तौ बनेगौ दूरहौ?" बोले बादल जी, खिसिया कर!
लेकिन मामला गंभीर था, भांपा मैंने,
ये असरात थे, एक सीधे-सच्चे से इंसान पर, उसकी सोच ही बोझा बन, उसको दबाये जा रही थी, दरअसल वो दो पल्लों के बीच झूल रहा था, पल्ले, एक तराजू के, एक पल्ला यक़ीन का और एक पल्ला ना-यक़ीनी का! इसी वजह से, ये हाल हुआ था उसका!
"अब कैसौ है लल्ला?" पूछा बादल जी ने,
"वही हाल हैं!" बोले कमल जी,
"हाँ जी, कहा हो सकै है लल्ला कौ?" पूछा अब मुझ से उन्होंने,
"इलाज करवाया उसका?" पूछा मैंने,
"बहुत, दिल्ली तक ले गए, डॉक्टर्स ने कहा कि सदमा लगा है कोई, दवाएं दे दीं, अब खाता है या नहीं, पता नहीं" बोले वो,
"कोई ऊपरी इलाज?" पूछा मैंने,
"कई करवाये, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, कोई कुछ कहे, और कोई कुछ, ठीक ही नहीं हुआ, वैसे आप बात करोगे तो लगेगा नहीं कि पागल सा है, लेकिन बीच बीच में, ऐसी बातें कह देगा कि आप समझ जाओगे कि ये ठीक नहीं दिमागी तौर पर!" बोले वो,
"समझ सकता हूँ मैं!" कहा मैंने,
"बेचारा!" बोले शील जी,
"लल्ला, बेचारौ!" बोले बादल जी,
"डालूं और?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ! च्यौं न!" बोले बादल जी,
भर दिया गया उनका गिलास,
शील जी ने मना कर दिया, उनको एक के तीन दिखने लगे थे अब!
"आपको?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
भर दिया मेरा भी गिलास!
"कोई नाम, पता बताया था उस आदमी ने?" पूछा मैंने,
"ना जी!" बोले वो,
"कोई जगह?" पूछा मैंने,
"ना साहब!" बोले वो,
"बारात कहाँ से आ रही है, कहाँ को जा रही है, कुछ ऐसा?" पूछा मैंने,
"न जी!" बोले वो,
"इसका मतलब, रौशन ख़ौफ़ज़दा था!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"हम्म्म!" कहा मैंने,
"वसीम?" बोला मैं,
"हाँ जी?" जवाब दिया उसने,
"टिक्के हैं क्या?' पूछा मैंने,
"हैं जी, लाता हूँ!" बोला वो,
गया माइक्रोवेव तक, गरम किये, और चटनी डाल, ले आया!
"लीजिये!" रखते हुए बोला,
"थोड़ा सलाद और देना!" बोले शर्मा जी,
"अभी!" बोला वो,
ले आया सलाद, रख दी, पास ही आ बैठा!
"अभी कैसा है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"कल पता कर लो?" पूछा शर्मा जी ने,
"कर लेता हूँ!" बोले वो,
"उम्र क्या है उसकी?" पूछा मैंने,
"कोई सत्ताईस या अट्ठाइस?" बोले कमल जी,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कछु हो सकै है?" पूछा मुझ से बादल जी ने,
"कल बात हो जाए, तो बताऊँ!" कहा मैंने,
"कल कर लूंगा बात!" बोले कमल जी,
एक एक जाम और खाली किया हमने!
"ठीक हो जावै तो, भरौ काम है!" बोले बादल जी,
"हाँ, हो जाएगा ठीक!" कहा मैंने,
"राधे-राधे!" बोले वो!
तो हम खा-पीकर फ़ारिग हुए! बाद में रुमाली रोटी खायी थीं, खाना तो बढ़िया था ही, जमकर खाया! लज़ीज़ खाना था, अब शील जी तो जा पहुंचे थे निन्द्रालोक में, हम भी आ गए थे एक कमरे में, वापिस जा नहीं सकते थे, बारिश घनघोर थी! लिए अपने अपने कंबल और पाँव पसार, आराम से सो गए!
सुबह आराम से ही उठे, आठ बज चुके थे, बारिश ने रहम खाया था, और बारिश की वजह से कोहरा भी नहीं छाया था आज, हाथ-मुंह धोये, सभी से मिले, चाय-नाश्ता किया और उसके बाद, वापिस हो गए हम! कमल जी हमें बताने वाले थे शाम तक, बात हो जाने के बाद ही!
न शाम को ही फ़ोन आया और न हमारी बात ही हुई, दो दिन और बीत गए ऐसे ही, मेरे मन से भी बात आई गयी हो चली, शर्मा जी ने भी कोई ज़िक्र नहीं किया!
इस तरह से दो दिन और बीते और उस शाम से पहले, फ़ोन आया कमल जी का, उनके अनुसार उन्हें जयपुर जाना पड़ गया था, जिसके कारण वे नहीं बात कर सके थे हमसे भी और अपनी बड़े भाई से भी उनके छोटे जंवाई के विषय में, तो उस सुबह ही उनकी बात हुई थी, रौशन अभी भी ठीक नहीं था, जस का तस ही था, उसके घर में सभी परेशान थे, जो जहां बताता, वहां ले जाते, लेकिन कोई असर नहीं, कोई कहता कि बिलकुल ठीक है और कोई कहता कि मामला बिगड़ गया है बहुत, सम्भलने में देर लगेगी, या फिर अब कुछ नहीं हो सकता! कुल मिलाकर, परेशान तो थे सभी, और कमल जी के बड़े भाई और खुद कमल जी, ये चाहते थे कि एक बार हम भी उस लड़के रौशन को देख लें, नज़रों से निकाल लें, तो बढ़िया होगा! और जैसा हम कहें, वे आने जाने की सारी व्यवस्था आदि करवा देंगे, एक बार देख लें बस!
सी दिन शाम को ही, शील जी का फ़ोन भी आ गया था, उन्होंने भी इच्छा जताई थी कि एक बार देखने में कोई हर्ज़ा नहीं, और कोई समस्या होने नहीं देंगे, आगे जैसा हम चाहें!
बात तो सही थी, मुझे अभी तक ये महज़ प्रेतों का ही खेल लगता था, खेल भी क्या, वे सब के सब अटके हुए थे, समय के एक अंश पर, जो न आगे बढ़ रहा था और न पीछे ही खिसकता था!
शर्मा जी से मेरी इस विषय पर बात हुई, उनके अनुसार भी, यदि कुछ किया जा सकता है तो किया ही जाना चाहिए, किसी का प्रविार बचता हो, तो इसमें कोई हर्ज़ा नहीं, और यदि कोई दूसरी ही बात हुई, तो भगवान की जैसी राजी!
"वैसे मामला क्या लगता है आपको?" उन्होंने पूछा,
"मामला तो साफ़ है!" कहा मैंने,
"प्रेत ही तो होंगे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, वही हैं!" कहा मैंने,
"तो कह दूँ?' बोले वो,
"हाँ, कह दो फिर!" कहा मैंने,
"समय?" बोले वो,
मैंने समय निकाल कर, उन्हें दिन बता दिए, दिन के गणना में, क्रिया कब की जा सकती है, इसका भी ध्यान रखना ज़रूरी होता है, इसीलिए मैंने समय बताया था उन्हें, ये समय, उस दिन से चार दिन बाद का था!
"तो मैं कह देता हूँ!" बोले वो,
"हाँ, कह दो!" कहा मैंने,
उन्होंने तभी, शील जी से बात कर ली, सभी बातें हुईं, सामान आदि की आवश्यकता होगी, तो वो, वहीँ से मिल जाएगा, इसमें कोई समस्या नही थी! शील जी अपनी गाड़ी से ही ले जा रहे थे हमें भी, सफर हालांकि इतना लम्बा नहीं था, देहली से टोंक तीन सौ पचास किलोमीटर है, आराम से पहुँच जाते हम, सर्दी का टाइम था, जल्दी निकलना और समय से पहुंचना ये मायने रखता है! हम जयपुर हो कर जाते, वहाँ से, कमल जी और उनके बड़े भी को भी साथ लेना था, इसीलिए, हो सकता था कि रात को वहीँ ठहरना पड़ जाता! ये मौसम पर निर्भर करता था!
और ठीक चार दिन बाद, हम सुबह जा पहुंचे शील जी के घर! वहां पहुँचने पर पता चला कि बादल जी एक रात पहले ही आ गए थे! उनको वहां देख तो जैसे आनंद ही आनंद मिला! सबसेपहले उनसे राधे-राधे हुई और फिर कुछ बातें! चाय-नाश्ता फिर से कर लिया, इस बार ज़रा भारी, वसीम नहीं चल रहा था, उसे यहीं पर रह कर, काम देखना था!
और इस तरह, करीब नौ बजे के आसपास, हम निकल पड़े, मौसम साफ़ था, हाँ हवा तो तेज थी, लेकिन हम भी जैकेट आदि पहन, टोपी पहन, तैयार हो गए थे! रास्ते के लिए, शील जी ने, कुछ पकौड़े, नमकीन और एक फ्लास्क में चाय भरवा ली थी! ये बढ़िया किया था, रास्ते में बढ़िया चाय, कहीं कहीं ही मिला करती है!
सड़क पर यातायात बहुत था, इस रास्ते पर, अक्सर भीड़ ही मिलती है, जय हाईवे तो ऐसा ही रहता है, पहले गुड़गांव की भीड़, फिर आगे की भीड़! देखा जाए तो चार घंटे में आराम से, अच्छी रफ़्तार पर, सीधा जयपुर पहुंचा जा सकता है, लेकिन भीड़ होने की वजह से, अक्सर सात-आठ घंटे लग ही जाया करते हैं, ट्रकों का जाम होता है, पूरा काफिला! रोडवेज की बस! बड़े बड़े कंटेनर! बुरा हाल! तो हम मानेसर जा पहंचे थे, यहां चाय पी थी हमने रुक कर, पकौड़े भी खाए थे, घर के बने पकौड़े थे, बढ़िया बनाये गए थे!
उसके बाद हम फिर चल पड़े! और इस तरह, बातें करते करते हम करीब छह बजे से पहले वहां पहुँच गए थे, रास्ते का बड़ा बुरा हाल था, कोई दुर्घटना हो गयी थी, एक-डेढ़ घंटा वहां लग गया था, जितना समय बचाया था हमने, सब यहीं निचुड़ गया था!
कहिर पहंचे हम एक जगह, यहां से हमको कमल जी लेने वाले थे, अपने भतीजे के साथ कमल जी बस दस मिनट में ही आ पहुंचे, दिलखुश इंसान हैं, बहुत गर्मजोशी से मिले! सफर के बारे में पूछा और बादल जी से तो लिपट ही गए!
"अच्छा हुआ आप भी आ गए!" बोले कमल जी,
"आता च्यौं ना! आना हौ!" बोले वो,
हम को हंसी आई! उनके बोलने का लहजा ही ऐसा है!
"आइये, चलें अब!" बोले कमल जी,
और अपनी गाड़ी आगे रखते हुए, वे चल पड़े, हम भी उनके पीछे चल पड़े, करीब बीस मिनट के बाद, एक जगह हम रुके, पुराना सा घर था वो, हवेली जैसा! आसपास उसके बड़ी हरियाली थी, कनेर के पेड़ लगे थे, पीले पीले फूलों ने ढका हुआ था उन्हें! बेहद सुंदर जगह थी वो!
हमको एक जगह लाया गया, ये एक बड़ा सा कमरा था, बिठाल दिया गया, पानी मंगवाया, पानी पिया हमने, हाथ-मुंह धोये, कुल्ला आदि किया!
और हम, अपनी अपनी जगह जा बैठे!
"कम से कम डेढ़-दो सौ साल पुरानी तो होगी ये हवेली?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ जी, पुश्तैनी है, सवा दो सौ साल मान लो!" बोले कमल जी,
"कमाल है!" बोले शर्मा जी,
"मज़बूत है, देखो!" बोले शील जी!
"हाँ, मज़बूत तो बहुत है!" कहा मैंने,
"पत्थर ही पत्थर है!" बोले शील जी,
"हाँ! और छत देखो!" कहा मैंने,
"बताओ, दस फ़ीट पर है छत!" बोले वो,
"बारह फ़ीट!" बोले कमल जी,
और तभी चाय आ गयी! कचौड़ी और जलेबियाँ!
मैंने चाय ली, कचौड़ी ली!
सभी रम गए फिर चाय में!
चाय खतम हुई, औरकमल जी आये मेरे पास,
"प्रोग्राम यहीं कर लें?" पूछा उन्होंने,
"जैसी आपकी इच्छा!" कहा मैंने,
"शील जी?" बोले वो,
"हाँ जी?" कहा शील जी ने,
"यहीं कर लें प्रोग्राम?" बोले कमल जी,
"अरे क्यों नहीं!" बोले वो,
"ठीक है!" बोले वो,
और चले नीचे, कुछ देर बाद आये वापिस!
"खिड़की बंद करूँ?" बोले कमल जी,
"रहने दो!" बोले शर्मा जी,
कमल जी ने जेब से, सिगरेट निकाल कर रख दीं, शर्मा जी के लिए बीड़ियां!
"लो जी!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने!
तो साहब, हमारी महफ़िल सज गयी! कमल साहब ने कोई क़सर न छोड़ी, क्या पनीर, क्या सलाद, क्या ग़ोश्त और क्या ज़ायक़ा! यहां भी उन्होंने अपने एक बचपन के लंग़ोटिये दोस्त एजाज़ की मदद ली थी, एजाज़ साहब ने ही कड़ाही चढ़वायी थी! दिल्ली में जहां मुग़लई का मजा लिया था, यहाँ जयपुरी मसाले का अपना ही मजा था! अब 'खाने-पीने' वाला आदमी कहीं भी आराम से दोस्ती बना ही लेता है! एजाज़ साहब दिलखुश और नेक-नीयत इंसान हैं, सरकारी मुलाज़िम हैं और हर लफ़्ज़, तोल के बोलते हैं, कभी आपकी बात नहीं काटेंगे, पूरा सुनेंगे और फिर आपसे इज़ाज़त ले तब कुछ कहेंगे!
बादल साहब तो मढ़े हुए थे बोटी में, जाम वैसे ही बड़े बड़े लिया करते हैं वो, जब तक वो कुछ बोल न लें, चैन सा नहीं पड़ता! उनके तो सामान्य से कुछ कहने में ही होंठों पर हंसी आ जाए!
"अरे बादल साहब? कुछ कहो क्यों न हो?'' बोले शर्मा जी,
"मोय न कहनौ कछु भी!" बोले वो, और जूझते रहे बोटी से!
"ऐसा थोरे ही होवै, बोलना तो परेगौ?" बोले शर्मा जी,
"डट जाओ, नेकु!" बोले वो,
और फिर से जूझने लगे बोटी से!
वो लड़ रहे थे जैसे उस बोटी से, जाम रखा हुआ था, आखिर में जब बोटी से हार मान गए तो तश्तरी में रख दी वापिस, उठाया खीरे का एक टुकड़ा और चबा लिया, झट से उठाकर, जाम भी आधा कर दिया!
"आप ये लो बादल जी!" बोले कमल जी, उन्हें एक मुलायम सी बोटी देते हुए बोले कमल साहब!
"वा तै तो पार न पर रई!" बोले पहले वाली बोटी की तरफ इशारा करते हुए!
पार! हम सभी हंस पड़े! पार न पर रई! मतलब, काबू में नहीं आ रही! जंग ज़ारी है! कमल जी नहीं आमने और दे दी एक मुलायम सी बोटी, अब उसको रख, जाम से घूँट लेने लगे!
"कमल जी?' बोले शर्मा जी,
"हाँ शर्मा जी?" जवाब दिया कमल जी ने,
"आपके बड़े भाई कहाँ हैं?'' पूछा शर्मा जी ने,
"यहीं हैं, जयपुर में, सुबह आएंगे, बता दी थी उन्हें!" बोले कमल जी,
"आ जाते?" बोले वो,
"वो परहेजी आदमी हैं!" बोले वो,
"अच्छा! फिर तो ठीक है!" बोले शर्मा जी,
दौर आगे बढ़ता रहा, जाम पर जाम चलते रहे, खाना-पीना भी हो गया, निबट गए हम, एजाज़ साहब ने सभी से मिलकर, विदा ली, और ये भी कहा, कि टोंक से वापिस आ कर, वो इंतज़ार करेंगे कि हम उनके मेहमान बनें! हंसी-ख़ुशी स्वीकार कर लिया हमने! और उसके बाद, हाथ-मुंह धो, अपने अपने कमरों में, जहां इंतज़ामात किये गए थे, हम चले गए, नींद आई और सोये आराम से!
सुबह उठे, नहाये धोये, चाय-नाश्ता आ गया! जयपुर का नाश्ता वैसे भी ज़रा भारी हुआ करता है! जयपुर का ही नहीं, राजस्थान का ही मानो! बेहतरीन और बढ़िया! हमने तो डट कर किया नाश्ता! चाय भी दो दो बार पी! पेट भर गया हमारा तो!
करीब दस बजे, कमल जी के बड़े भाई साहब आ गए, उनका नाम है, जसराज सिंह, बेहद ही शांत और सरल स्वभाव के व्यक्ति हैं! उनसे फिर से इस विषय में बातें हुईं, उन्होंने भी वैसा ही बताया जैसा कमल जी बता चुके थे, रौशन का हाल ठीक नहीं था, दफ्तर में भी अक्सर ये चर्चा चलती रहती थी कि उनका दिमागी इलाज ज़रूरी है, लोग भी दूरी बना कर रखने लगे थे, और घर के अड़ोस-पड़ोस में भी यही हाल था, कुल मिलाकर परिवार परेशान था बहुत और हल कुछ निकल नहीं रहा था, अगर कुछ हो सके, तो बड़ा भारी एहसान होगा हमारा उन पर, ऐसा बोले, लेकिन, सबसे पहले हमारा मिलना ज़रूरी था रौशन से, मैं, असरात, किस हद तक हैं, ये जानना चाहता था, उसके अनुसार ही कुछ निर्णय ले सकता था!
तो इस तरह, हम सभी निकल पड़े थे वहां से, कोई साढ़े ग्यारह बजे टोंक के लिए, टोंक वहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है, कि एक सौ नौ या दस किलोमीटर पड़ता है, सही से चलो तो आराम से दो घंटे में पहुंचा जा सकता है! अब यूँ तो टोंक में ठहरने के इंतज़ामात तो थे, लेकिन हमने एक अलग ही जगह ठहरने को कहा था, तो इसका इंतज़ाम भी कमल जी ने ही करवा दिया था, उनके जानकारों में से ही एक का ऐसा स्थान था अपना, तो अब हम वहीँ जा रहे थे! रास्ते में एक जगह रुके हम, चाय पी थी हमने वहाँ, सर्दी का समय था, चाय भी बढ़िया बनाई थी, तो हमें कुछ देर धूप भी सेंकी और चाय भी दो बार पी!
और इस तरह हम फिर पहुँच गए टोंक! सीधा उसी जगह जहां हमारे सभी का इंतज़ाम था ठहरने का, बड़ा ही बेहतरीन स्थान था वो! पेड़, पौधे, फूल, लताएँ! बेहतरीन नज़ारा था वहाँ का! शांत जगह थी! कोई शोर नहीं, कोई बवाल नहीं! शहरी आपाधापी से एकदम उलट जगह!
टोंक!
एक पुराना शहर! एक अदब वाला शहर! हिन्दू-मुस्लिम एकता की बुनियाद पर खड़ा एक शहर! टोंक को, राजस्थान का लखनऊ भी कहा जाता है, लखनवी अदब पूरे देश में मशहूर है, टोंक भी इसी अदब के लिए जाना जाता है! एक अलग सी ही संस्कृति बसती है टोंक में! टोंक का इतिहास भी काफी पुराना है! ये बैराठ संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा हुआ है! टोंक को, अदब का गुलशन, मीठे खरबूजों का शहर, उर्दू के अज़ीम शायर अख़्तर शीरानी का शहर है ये टोंक! इसी की वजह से टोंक, राजस्थान के इतिहास में एक अलग ही, अपना स्थान बनाये दीखता है!
यूँ तो इसका इतिहास अकबर के समय से शुरू होता है, लेकिन टोंक को स्थापित किया था मुहम्मद आमिर खान ने, जो कि एक रोहिल्ला थे, पठान, अफ़ग़ानिस्तान के! आमिर खान ने सन अठारह सौ छह में टोंक को, बलवंत राव होल्कर से जीत कर छीन लिया था! बाद में, ब्रिटिश सरकार में, टोंक को अपने कब्ज़े में ले लिया था, लेकिन अठारह सौ छह में की गयी एक संधि का उल्लंघन था ये, अतः ब्रिटिश सरकार को, टोंक नवाब मुहमद आमिर खान को सौंपना पड़ा! नवाब मुहम्मद आमिर खान एक क़ाबिल नवाब थे, उन्होंने अपनी रियाया में सुख-समृद्धि का विकास किया, दो अलग अलग संस्कृतियों को करीब लाये, कुछ रिवाज उनके बनाये हुए आज तक क़ायम हैं! सन अठारह सौ चौंतीस में नवम आमिर खान साहब इंतकाल फ़रमा गए और तब उनके बेटे मुहम्मद वज़ीर खान, नवाब बने! सबसे आखिर में, जब भारत का बंटवारा हुआ, तब उस वक़्त के नवाब मुहम्मद स'आदत अली खान ने टोंक का राज्य, आज़ाद हिंदुस्तान में देने का निर्णय लिया! इस तरह टोंक राजस्थान का जिला बना! टोंक के कुछ क्षेत्र, मध्य-प्रदेश में शामिल हुए! इतिहास की नज़र से, टोंक का इतिहास अनूठा है, यहां की इमारतें, हिन्दू-मुस्लिम कलाओं का बेजोड़ नमूना हैं! ये एक अनूठा ही ऐतिहासिक क्षेत्र है!
हाँ, तो हम पहुँच गए थे, कुछ देर आराम किया था हमने, रौशन के घर तक इत्तिला कर ही गयी थी, आज शाम हमें यहीं ठहरना था और कल, सुबह हमें रौशन से मिलने जाना था, रौशन का घर वहाँ से, सत्रह-अठारह किलोमीटर दूर पड़ता था!
शाम का वक़्त था और महफ़िल जवान थी! हम सभी आराम से खाने पीने का लुत्फ़ उठा रहे थे! शाम तक, मौसम ने करवट बदल ली थी, हवा बेहद तेज और कंपकंपी छुड़ा देने वाली थी! कमरे में बंद हो, मदिरा की गरमाई का मजा उठाते हुए, हम उस सर्दी का हर तंज लहजा बर्दाश्त किये जा रहे थे!
"कल कितने बजे?" पूछा मैंने,
"करीब दस बजे?" बोले कमल जी,
"मौसम ठीक रहे बस!" कहा मैंने,
"हाँ, वैसे बारिश तो नहीं है!" बोले वो,
"हो भी नहीं!" बोले शील जी,
"हाँ, सर्दी बढ़ जायेगी नहीं तो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, आज आसार वैसे ही हैं!" कहा मैंने,
"बादल जी?'' बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" दिया जवाब उन्होंने,
"तुम बोले क्यों न हो?" बोले शर्मा जी, मज़ाक में!
"कहा बोरुं?" बोले वो,
"शीत कैसी पर रई है?" पूछा शर्मा जी ने,
"बहुत बुरी है जी!" बोले वो,
"शराब च्यौं न पियो?'' बोले शर्मा जी,
"पी तौ रहौ हूँ? और न तौ मुंह ते लगा लूँ बोतलै?" बोले बादल जी!
सभी हंस पड़े!
इसीलिए तो छेड़ा था उन्हें!
"ये हुई न बात!" कहा शर्मा जी ने,
"और डारुं?" बोले शर्मा जी, बोतल उठाते हुए, खत्म कर दिया था बादल जी ने गिलास अपना!
"डट जाओ?" बोले बादल जी,
"डट गए जी!" बोले शर्मा जी,
मैंने भी अपना गिलास उठा, खाली किया!
उस शाम मौसम के मिजाज़ कुछ बिगड़ से गए थे, रात में जब हम खा-पी कर फारिग हो गए थे, तब बाहर देखने पर, बादल से बनते दिखाई दिए, इसका मतलब था कि कल का दिन बेहद ही ठंडा होगा! खैर, अब होगा तो होगा, येतो कल ही पता चलता! तो जी हमने, अपने अपने बिस्तर संभाल लिए! घुस गए बिस्तरों में! कब नींद आई पता नहीं चला! सर्दियों में वैसे भी नींद ज़रा गाढ़ी ही आया करती है!
सुबह हुई, सुबह, जैसा, कल अंदेशा लगाया था, आज बेहद सर्दी थी, बारिश तो नहीं थी लेकिन हवा ऐसी सर्द थी कि कुछ देर हवा में रहा जाए तो हवा ही निकल जाए! नाक बहने लगे! और सर्दी में अगर नाक बही, तो समझो आफत दुगनी हुई!
"आज तो भयंकर सर्दी है!" कहा मैंने,
"हाँ, आज तो कड़ाके की सर्दी है!" बोले शर्मा जी,
खैर, हुए तैयार हम, और चले नीचे, बादल जी आ गए थे, बैठे थे, अखबार पढ़ रहे थे, शील जी भी आ गए थे, एक लम्बा सा कोट पहनकर! हम सभी आ बैठे थे वहाँ पर,
चाय-नाश्ता किया, भरपेट, चाय कहाँ जा रही थी, पता ही नहीं चल रहा था! फिर से दो दो चाय पी हम लोगों ने! जसराज जी भी आ गए थे, वे भी चाय पी रहे थे साथ में, उन्होंने टोंक के विषय में और बताया हमें! बताया कि टोंक में ही उनका खानदान रहता था पहले, उनके दादा जी जयपुर आ कर बस गए थे, टोंक में उनकी रिश्तेदारी आज भी है, लेकिन आना-जाना कम ही है! और वैसे भी, आजकल, लोगों के पास वक़्त ही कहाँ है, अपना ही पोत पूरा हो जाए तो ग़नीमत मानो!
तो इस तरह, ठीक साढ़े दस बजे, हम निकल लिए रौशन के घर के लिए, उस दिन रविवार था, छुट्टी का दिन था, रौशन के भाई, रिश्तेदार घर पर ही मिलने वाले थे, ये भी ठीक ही था, तो हम करीब चालीस मिनट में पहुँच गए थे घर उनके!
उनके घर पहुंचे हम, सभी मिले, घर भी नया ही बनाया हुआ लगता था, जैसे दो-तीन साल ही हुए हों अभी, घरवाले बेहद ही सुसंकृत, समझदार और शालीन लगे, चाय मंगवाई गयी, चाय पी और साथ में कुछ हल्का-फुल्का भी खाया, उसके बाद, घर में, रसुहं की माता जी ने भी वही सब बताया जो सुन चुके थे हम, रौशन के चाचा जी भी आये, उनसे भी बात हुई, वही बातें, दोहरा दी गयीं, जसराज जी की बिटिया से भी बातें हुईं, वे भी दुखी लगी बहुत, किस से कहे, वाली स्थिति थी उसके सामने तो!
"रौशन कहाँ है?" पूछा मैंने,
"ऊपर अपने कमरे में" बोले चाचा जी उसके, नाम अरविन्द है उनका,
"बातें हो सकती हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, क्यों नहीं!" बोले वो,
"तो ले चलिए!" कहा मैंने,
"आओ जी!" बोले वो,
हम चल पड़े, मैं, शर्मा जी और अरविन्द जी, बाकी नीचे ही रहे!
छत पर आये, छत पर गमले रखे थे, फूल खिले थे गुलाब आदि के, उनमे पानी दिया गया था, पानी अभी भी बह रहा था उन गमलों से, हाल ही में दिया गया होगा!
वे ले आये कमरे तक रौशन के, अंदर गए, हमें बुलाया, हम भी अंदर चले आये, रौशन उठ कर बैठा हुआ था,चेहरे पर हवाइयां उड़ी हुई थीं, देह भी दरम्याना हो चली थी, दाढ़ी-मूंछें बढ़ा ली थीं, जैसे बहुत ही परेशान सा रहा हो और अभी भी चल रहा हो परेशान! उसने नमस्ते की हमसे, दोनों हाथ जोड़कर! हमने भी की और बैठ गए वहीँ सोफे पर,
"चाचा?" बोला रौशन,
"हाँ?" पूछा अरविन्द जी ने,
"पानी ले आओ?" बोला रौशन,
"आ रहा है!" बोले वो,
तभी रौशन के भाई पानी ले आये, रखा उन्होंने, हमने गिलास उठाये, पानी पिया फिर,
"रौशन?" बोले उनके भाई,
"हाँ?" बोला वो,
"ये दूर से आये हैं साहब, आराम से बात करना, समझे?'' बोले वो, चेताते हुए,
"हाँ, जानता हूँ!" बोला रौशन,
"कोई बात सुन न लूँ?'' बोले वो,
"चिंता न करो आप!" हँसते हुए बोला रौशन,
उसके बाद, वे चले गए, अरविन्द को भी ले गए साथ में, अब, हम तीन रह गए थे उस कमरे में!
"रौशन?" बोला मैं,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"कैसे हो?" पूछा मैंने,
"ठीक हूँ!" कहा उसने,
"तो बारात में नहीं गए?" पूछा मैंने, सीधे ही!
"कौन सी बारात?" पूछा उसने, चौंकते हुए!
"उसी रास्ते पर? वो घोड़े वाले नहीं मिले थे?'' पूछा मैंने,
वो अब चौंका! घबरा गया! सकते में आ गया!
"बताओ?" कहा मैंने,
थूक गटका उसने!
"बोलो यार?" बोले शर्मा जी,
"अ....आप कैसे जानते हो?'' पूछा उसने,
"बताया मुझे!" कहा मैंने,
"किसने?'' पूछा उसने,
"अब ये छोड़ो!" कहा मैंने,
"बताओ तो?" बोला वो,
"तुम बताओ?" कहा मैंने,
"नहीं, नहीं गया था!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मेरी मर्जी?" बोला वो,
"या डर गया था?" बोले शर्मा जी,
"तो?" बोला वो,
लहज़ा सख्त हुआ उसका थोड़ा अब!
"नीची आवाज़ में बात कर पहले, समझा?' बोले शर्मा जी,
खड़ा हो गया वो! गुस्से में देखा शर्मा जी को उसने!
मैंने समझा-बुझा, बिठा दिया उसे,
"कौन हो तुम? कहाँ से आये हो?" पूछा उसने,
"दिल्ली से आये हैं!" बोले शर्मा जी,
"तो जाओ वापिस?" बोला वो,
"अकड़ किसको दिखा रहा है तू? हैं?" हुए शर्मा जी सख़्त!
अब थोड़ा सा झेंपा वो!
"हाँ, डर लगा गया था क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"घर आना था?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"और वो शॉल कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"कौन सी शॉल?'' चौंक के पूछा उसने,
"वही?" कहा मैंने,
"कौन सी?" पूछा उसने,
"जो दी थी?" कहा मैंने,
"किसने?'' पूछा उसने,
"जो मेहमान बनाने के लिए आया था?" पूछा मैंने,
वो फिर से खड़ा हुआ!
और एक झटके से बाहर निकल गया!
"लाऊँ इसे?'' बोले वो,
"ना! आएगा अभी! खुद ही आएगा!" कहा मैंने,
कुछ ही देर बाद, वो आ गया कमरे में! एक झोला लाया था अपने संग! झोला रखा उसने बिस्तर पर, बैठा और खोलने लगा! गुलाब की तज सी महक उठी उस लम्हे! बस, एक दो लम्हों के लिए! ये महक मुझे आई थी, शर्मा जी को भी, महक बेहद तेज थी, जैसे गुलाब के इत्र की कोई शीशी टूट कर गिर गयी हो नीचे! फिर उसने, कुछ निकाला बाहर, ये अखबार में लिपटा था, हमें देखा और देने के लिए हाथ बढ़ाये अपने आगे!
"ये लो!" बोला वो,
मैंने हाथ में लिया उसे,
"क्या है ये?'' पूछा मैंने,
"वो शॉल!" बोला वो,
शॉल?
वो शॉल ले आया था? इतनी आराम से? मुझे तो जैसे यक़ीन ही नहीं हुआ! मेरे तो हाथ ही कांपने लगे थे उसे हाथों में लेते हुए! शर्मा जी का तो मुंह ही खुला रह गया! कभी उस अखबार को देखें और कभी उस रौशन को! कमाल था! ऐसे कैसे मान गया वो!
"एक बात पूछूं रौशन?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"तुमने किसी और को दिखाई थी ये?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"तो हमें क्यों?" पूछा मैंने,
"अंदर से जैसे आवाज़ आई!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा! शर्मा जी भी!
"रौशन?" बोले शर्मा जी,
"हां?" बोला वो,
"नौकरी कहाँ करते हो आप?" पूछा उन्होंने,
"कृषि-विभाग में!" बोला वो,
सच कहूँ मित्रगण!
वो किसी भी हाल से, किसी भी रुख से, ऐसा नहीं लगता था कि वो मानसिक रूप से परेशान हो! बिलकुल ही नहीं! उसका गुस्सा करना जायज़ था, उसने किया भी, लेकिन बाद में महसूस भी किया!
"तूने देखी है ये शॉल?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, आप देख लो?'' बोला वो,
तब मैंने अख़बार फाड़ा, मज़बूती से बाँधा गया था उसे! कई अखबार लपेट दिए गए थे उसके इर्द-गिर्द!
और जो निकला बाहर!
वो कारीगरी का नायाब और बेहतरीन नमूना था!
ये हाथों से बनी एक पश्मीना शॉल थी! लाजवाब! मेहरून और नीले रंग के धागों से बनी हुई! पश्मीना! बीच बीच में पीले रंग के धागे से बने बेल-बूटे! एक विशेष हिरण के बालों के धागे से बनायी जाती है! इसीलिए बेहद गरम हुआ करती है! अब पश्मीना की नकलें बनायी जाती हैं, असली तो बहुत ही कम मिला करती हैं, और वो भी हाथों से बनी, बहुत मुश्किल! न अब ऐसे कारीगर रहे और न ही ऐसी कारीगरी, अब जो बचे हैं, उन्हें बीच के दलालों ने मार दिया है, नयी पीढ़ी देखती आई है अपने बुज़ुर्गों को फ़ाक़े में रहते हुए, तो अब वो, वो काम नहीं करते! न ही करना चाहते हैं, हाँ, एक-आद जगह, ज़रूर मिल जाएंगे, जहाँ जीविका का और कोई साधन नहीं होता! मज़बूरी ने हर जगह पाँव पसार दिए हैं, और वैसे भी, न गरमी, न सर्दी, न बाढ़ न आंधी और न तूफ़ान, अमीरों का कुछ बिगाड़ पाते, मरता बस गरीब ही है! ये सब उसी के लिए हैं, फलां जगह बाढ़ आई, भूकम्प आया, इतने मरे, इतने बचाये, ये महज़ खबरें हैं हमारे लिए! इधर सुनीं और उधर भूले! अख़बार का पृष्ठ पलटा और नयी खबर! मरा सिर्फ गरीब! उजड़ा सिर्फ गरीब! पैसे वाला कभी नहीं मरता! कभी नहीं उजड़ता!
खैर,
मैंने और शर्मा जी ने उस पश्मीना शॉल को खोला! उसका तो आकार ही बहुत बड़ा था, मैं और शर्मा जी, दोनों ही उसमे लिपट सकते थे! तब भी जगह कहीं बच ही जाती!
"ये शॉल है या डबल-बैड-शीट?" बोले वो,
"हाँ, ऐसी ही लगती है!" कहा मैंने,
"और वजन में बिलकुल हल्की!" बोले वो,
"हाँ! कमाल है!" कहा मैंने,
"कारीगरी तो देखो!" बोले वो,
"अब ये तो कमाल है ही!" बोला मैं,
"सुनिए?" बोला रौशन!
हम तो उसे भूल ही बैठे थे!
"हाँ रौशन?" कहा मैंने,
"एक बात बताऊँ?'' बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उंसके पास और भी सामान था, ये मुझे उसने दी थी बहुत सा सामान था, वो ज़िद कर रहा था, लेकिन मेरे मना करने पर भी, उसने ये पकड़ा ही दी मुझे!" बोला वो,
"अच्छा? और क्या क्या सामान था?" पूछा मैंने,
"कपड़े ही थे शायद!" बोला वो,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"जब उस दूसरे आदमी ने निकाले थे, तो सभी कपड़े ही थे!" बोला वो,
"बैठो!" कहा मैंने,
मैं बैठ गया था,
"रौशन?" बोले शर्मा जी,
"हाँ?" बोला वो,
"बैठो तो?' बोले वो,
रौशन बैठ गया तब,
"वो आदमी कैसा था?" पूछा मैंने,
"कौन सा?" पूछा उसने,
"जिसने आवाज़ दी थी?" पूछा मैंने,
"कपड़े?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उसके कपड़े वैसे तो अजीब से थे, चुस्त सी कमीज़ और खुली सी सलवार, जैसे स्वांग वाला हो कोई!"बोला वो,
"और रंग रूप में?'' पूछा मैंने,
"भरा-पूरा!" बोला वो,
"जैसे?'' पूछा मैंने,
"कद उसका, यहां तक होगा!" बोला वो, खड़ा होकर,
यानि कि सात फ़ीट!
"और जिस्म सुतवां! मज़बूत! दाढ़ी-मूंछें!" बोला वो,
"रंग?" पूछा मैंने,
"गेंहुआ सा था!" बोला वो,
"कोई हथियार?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक बड़ी सी तलवार, और कमर में खुँसा हुआ शायद कोई खंजर!" बोला वो,
"उम्र?" पूछा मैंने,
"करीब तीस?" बोला वो,
"दूसरा आदमी?" पूछा मैंने,
"वो थोड़ा मोटा था!" बोला वो,
"उम्र?' पूछा मैंने,
"करीब पच्चीस?" बोला वो,
"उसके कपड़े?" पूछा मैंने,
"वैसे ही थे!" बोला वो,
"टोपी?" पूछा मैंने,
"दोनों ने पहनीं थीं!" बोला वो,
"कैसी थीं?" पूछा मैंने,
"एक की लाल और एक की काली सी!" बोला वो,
"लाल किसकी?" पूछा मैंने,
"उस सुतवां वाले की!" बोला वो,
"और बात करने का लहजा?' पूछा मैंने,
"मुलायम सा!" बोला वो,
मुस्कुराते हुए!
"तो वो उसके बाद चले गए थे?" मैंने पूछा,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं लौट पड़ा था!" बोला वो,
'एक बात और?" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उसने,
"कोई महक?" पूछा मैंने,
"हाँ, तेज गुलाब सी!" कहा उसने,
"इत्र जैसी?" कहा मैंने,
"बिलकुल!" बोला वो!
महक ठीक वैसी ही होगी जैसे अभी हमें आई थी, तेज, भड़ाकेदार! गुलाब के अर्क़ जैसी, गुलाब के इत्र जैसी! लेकिन उस समय, रौशन को नहीं आई थी! इसकी वजह? क्या वजह हो सकती थी? महक, शर्मा जी को भी आई थी, लेकिन रौशन को क्यों नहीं आई? कोई तो कारण था! ज़रूर ही कोई कारण!
"रौशन?" बोला मैंने,
"जी?" बोला वो,
"क्या वो जगह जानते हो आप?'' पूछा मैंने,
"कौन सी?" बोला वो,
"वही, जहां वो मिले थे?' पूछा मैंने,
"हाँ, जानता हूँ!" बोला वो,
"कभी दुबारा गए वहां?" पूछा मैंने,
"कई बार!" बोला वो,
"कोई आवाज़?'' पूछा मैंने,
"नही!" बोला वो,
"कोई दूसरी आवाज़?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"कोई ढोल-ताशे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" साफ़ मना किया उसने,
"स्वांग?" शर्मा जी ने पूछा,
"नहीं जी!" बोला वो,
इसी बीच अरविन्द जी आ गए, शर्मा जी उठे, और उनको ले बाहर चले गए,
और फिर, आ बैठे पास में ही,
"पानी ही मंगा लो?" कहा मैंने,
"मैं लाता हूँ!" बोला रौशन और चला पानी लेने!
लाया पानी, रखा सामने, गिलास में पानी भरा, दिया हमें!
मैंने जैसे ही मुंह लगाया पानी को, पानी में से फिर से एक तेज महक आई! गुलाब की तेज सी महक! मैंने झट से शर्मा जी को देखा, उन्हें भी आई थी वो महक! उन्होंने मुझे देखा ठीक!
इतनी देर में, क्या छुआ था किसी गुलाब को रौशन ने?
क्या कोई इत्र उठाया था उसने, या खोली थी कोई शीशी?
या कोई गुलाब जल?
सवाल उपज गए ज़मीन में दिमाग की! उसी लम्हे!
"रौशन?" पूछा शर्मा जी ने,
"जी?" बोला वो,
"पानी कहाँ से लाये हो?" पूछा शर्मा जी ने,
"क्या कुछ है पानी में?" पूछा उसने,
"नहीं यार, लाये कहाँ से हो?" पूछा उन्होंने,
"साथ वाले कमरे से?'' बोला वो,
"क्या इस बीच गुलाबजल पकड़ा था?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं तो?" बोला वो,
"क्या कोई इत्र गुलाब का?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं जी?" बोला वो,
"कोई फूल गुलाब का?'' पूछा,
"नहीं तो, हुआ क्या?" पूछा उसने,
"नहीं, कुछ नहीं!" बोले वो,
और हमने पानी पी लिया फिर, महक, अचानक से बंद हो गयी!
अब कुछ न कुछ तो था, कहीं कोई है तो नहीं वहां? कोई हो?
लेकिन कोई होता, तो मुझे आभास हो जाता, वो भी नहीं हुआ? फिर?
"अच्छा, कितनी बार गए हो तुम वहां?" पूछा मैंने,
"जी, कहाँ?" पूछा उसने,
"उस जगह, जहां वो मिले थे?" पूछा मैंने,
"कोई तेरह-चौदह बार?" बोला वो,
"कोई नहीं मिला?' पूछा मैंने,
"नहीं जी!" कहा उसने,
"अच्छा, वो कौन हो सकते हैं?" पूछा मैंने,
"वो?" बोला वो,
"हाँ, वो?" कहा मैंने,
"वो प्रेत हैं!" बोला वो,
हम चौंके! कुर्सी से उछल ही पड़े ये सुनकर तो!
"तुम्हें कैसे पता?" पूछा मैंने,
"और कौन हो सकता है?' पूछा उसने,
"तुम्हें बाद में पता चला?'' पूछा मैंने,
वो हुआ चुप!
एकदम चुप!
सर लटका लिया अपना!
आगे पीछे हिलने लगा!
सर नीचे झुलकाये ही!
और पढ़ने लगा कुछ!
धीरे धीरे! पहले बोला अपने दादा का नाम! फिर अपने पिता जी का! फिर एक एक करके, सभी का नाम लेने लगा! मुट्ठी की बंद, किया हाथ आगे अपना! सर झुकाये ही!
"तुम्हारा नाम बताऊँ?" बोला मुझ से!
"हाँ, बताओ?" पूछा मैंने,
उसने बता दिया, हंसने लगा!
"इनका नाम बताऊँ?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
बता दिया उसने!
"किसलिए आये हो, बताऊँ?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"मुझे ले जाने!" कहा उसने,
कमाल था! ये तो सच में ही कमाल था!
"बारात में जाओगे, है न?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मुझे ले जाओगे, है न?'' बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
वो हुआ खड़ा अचानक से!
आँखें बंद!
हुआ पीछे!
चला आँखें बंद किये, कमरे की दीवार की तरफ!
दीवार से जा लगा! और खोली आँखें!
लाल आँखें! भयानक आँखें!
दीवार से टेक ले, बैठता चला गया!
मैं उठा तब!
पढ़ा एक मंत्र! कंधे फूंके अपने! और चला उसकी तरफ! शर्मा जी साथ चले मेरे!
"कमरा बंद कर दो!" कहा मैंने,
"नहीं होगा!" बोला वो, आवाज़, किसी बूढ़े से आदमी की!
शर्मा जी गए, किया दरवाज़ा बंद, जैसे ही लौटे, दरवाज़ा चरमरा के खुल गया! सांकल ऐसी खुली, जैसे रबर की बनी हो!
"रहने दो!" कहा मैंने,
वे आ गए मेरे पास तब!
मैं झुका! बैठा, उसको देखा, वो गुस्से से देखे मुझे! गरदन मटकाए! नथुने फुलाये! हाथ ऐंठे! अपनी एड़ियों से, ज़मीन खुरचे!
मैंने एक झटके से उसके बाल पकड़ लिए! किया पीछे चेहरा उसका! वो मेरे हाथ को देखे! जीभ निकाले, चाटने को करे! जान लगाये! ज़ोर-आजमाइश करे!
"कौन हेतु?" पूछा मैंने,
"मैं?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मुझ से पूछ रहा है?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं?" बोला वो,
"हाँ??" मैं चिल्ला कर बोला तब!
"नहीं बताऊँ तो?" बोला वो,
जीभ से खूब कोशिश करे वो! मेरा हाथ चाटने की! और मैं, उसको पीछे धकेलूं! हाथ उमेठे अपने! कुत्ते के पंजों सा बनाये उन्हें!
"बता?" मैंने चिल्ला के पूछा!
उसने लगाया ज़ोर! और एक टांग खेंच के मारनी चाही मुझे, लेकिन मार नहीं पाया! शर्म अजी ने बीच में ही रोक दिया, उसने शर्मा जी को एक गाली दी, और उस गाली को दोहराता रहा! शर्मा जी ने आव देखा न ताव, एक लात पसली में जड़ दी उसके! वो कराह पड़ा! कराहट ऐसी तेज कि नीचे तक जा पहुंची! अब पहुंची तो नीचे से सभी दौड़े ऊपर के लिए!
कमरा खुलता, सभी के सभी भदभदा के ऊपर आ गए! उसका बदला रूप देख कर, सभी को डंक मारा जैसे! उसकी माता जी को बाहर भेजा! रमा को बाहर भेजना चाहा लेकिन उसकी रुलाई फूटी! वो न गयी! न जाने को तैयार वो! वहीँ जम गयी! रमा, पत्नी है रौशन की, आंसू बहाये, बुक्का फाड़ फाड़ रोये! सभी ने समझाया लेकिन न समझी, भाग आई पास हमारे, बैठी नीचे और जैसे ही बैठी, रौशन चिल्लाया और रौशन ने एक लात उसके चेहरे पर जमा दी! बेचारी पछाड़ सी खा गयी रोते रोते! लात नाक पर लगी थी, नकसीर छूट गयी और खून बह निकला! चीखी वो, और रौशन हँसे! हँसता ही जाए! हँसता ही जाए! गुस्सा तो मुझे इतना, कि पीट पीट कर उसकी हड्डियां तोड़ दूँ! शर्मा जी और दूसरे लोगों ने उठाया रमा को, ले गए बाहर उसे, पकड़ कर!
"अब नहीं आना! अब नहीं आना! खज्जो! अब नहीं आना!" बोला वो,
खज्जो? इसके मायने हुए घर में क्लेश करने वाली औरत!
लेकिन ये बोला कौन था? रौशन या कोई और?
हालिया-हाल तो बयान करता था कि ये रौशन नहीं था, जो उसके अंदर था, वो बोला था! लेकिन वो था कौन? अब ये जानना बेहद ज़रूरी था!
शील जी कांपें! बादल जी, ओट लें शील जी की! अरविन्द जी का मुंह खुला रह गया था! कांपने लगे थे घबरा कर वो, रौशन के बड़े भाई, डरते हुए, खड़े खड़े सहमें!
"एक डंडा लाओ, जल्दी?" कहा मैंने,
रौशन के भाई भागे बाहर, और ले आये एक सोटा, दिया मुझे!
"हाँ? अब बता कौन है तू?" मैंने सोटा दिखाते हुए उसे बोला,
अब उसने देखा सोटा!
और सिमटा अपने आप में!
"बता? नहीं तो हड्डियां बिखेर दूंगा तेरी!" बोला मैं,
"मैं?" बोला वो,
"हाँ, बोल?" कहा मैंने,
"मैं?" फिर से बोला, सोटा देखते हुए!
"मारना नही! मारना नहीं!" बोले रौशन के बड़े भाई, आँखों में डर लिए!
मैंने तभी शर्मा जी को देखा! वे समझे मेरा इशारा! ले चले बाहर उसके बड़े भाई को!
"मारना नहीं! हाथ जोड़ता हूँ! हाथ जोडूं! मारना नहीं!" अब रुलाई फूट पड़ी उनकी जाते जाते!
"हाँ, बता?" पूछा मैंने,
"मैं? मैं ना?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ईईईईईए!!" लगाया ज़ोर ये चिल्लाते चिल्लाते!
और मैंने एक सोटा दिया खींच कर उसके कंधे पर! खींच कर! बाल छोड़ दिए थे उसके मैंने! मैंने सोटा मारा जैसे ही, उसने रगड़ा कंधा! आँखें बंद कर लीं अपनी!
"फू! फू! फू!" बोला वो,
"नहीं मानेगा?" पूछा मैंने,
"आह! आह, मर गया!" बोला वो,
"तो बोल?" पूछा मैंने,
न बोले कुछ, कसमसाए जाए!
"मत मारो! मत मारो!" बोला वो,
मैं थोड़ा छुपा हुआ, सोटा नीचे रख लिया अब!
"हाँ, बता?" पूछा मैंने,
"बताता हूँ!" बोला वो,
हुआ खड़ा, और खड़े होते ही, शर्माजी पर मारा झपट्टा! शर्मा जी का संतुलन बिगड़ा! और नीचे गिरे! मैंने एक झटके से रौशन की टांगें खींच लीं! वो गाली-गलौज पर उतर आया! फिर क्या था! मैंने लिया सोटा! और ताबड़तोड़, ताबड़तोड़ बजा दिया सोटा उस रौशन पर!
हाय! हाय! चिल्लाने लगा वो! शर्मा जी को चोट ली थी ठुड्डी पर, खून निकल आया था! मैंने हटाया उन्हें, और गिरे हुए रौशन के पास गया! पढ़ा एक मंत्र! और थूक दिया उस पर!
अब ऐंठा बदन उसका!
गरदन और सर, एक साथ मिला लिए!
रोने लगा! छटपटाने लगा!
माफ़ी की गुहार लगाने लगा!
बता दूंगा! बता दूंगा! चिल्लाने लगा!
अब आये शर्मा जी!
उठाया गिरेबान से पकड़ कर उसे!
"बहन के **! तू बताता है या तेरी उतारूँ खाल अब?" बोले गुस्से से!
"बताता हूँ! मुझे जलाओ मत! जलाओ मत!" चीखा वो,
एक दिया झापड़ कान पर उसको! झन्ना दिया उसको!
"बता हराम** के? बता?" बोले गुस्से से!
"बताता हूँ! बताता हूँ!" बोला वो,
"अभी बता?" चीखे वो!
रोये! झिल्लाये! टांगों का संतुलन खोये!
दिया शर्मा जी ने एक और खींच कर कान पर! भड्ड से गिरा नीचे!
"माफ़ कर दो! माफ़ कर दो!" चीखा वो!
"जल्दी बता?" पूछा उन्होंने,
"आग बुझाओ! आग बुझाओ?" बोला वो, रोते रोते!
मैंने पढ़ा मंत्र, जला दिया एक कागज़! उसके बाल से लगाया और मार दी फूंक! आग बंद!
"आह! आह! मर गया! मर गया!" चीखा वो!
"अब बता?" चीख कर पूछा उन्होंने,
"कुंदन! कुंदन नाम है मेरा!" बोला वो!
"कहाँ रहता है?" पूछा उस से,
"सौलतपुरा!" बोला वो,
"क्या करता है?" पूछा उस से,
"धोबी हूँ!" बोला वो,
"ये कहाँ मिला तुझे?" पूछा उस से,
अब चुप वो!
सर फिर किया नीचे!
"बता?" पूछा मैंने,
"हा हा हा हा हा हा हा हा हा!" हंसा वो, बड़ी तेज! बड़ी तेज!
"ये! ये तो आज मरेगा!" बोला वो, खड़े होते हुए!
उसने शर्मा जी की तरफ इशारा किया था!
"इसकी ***! इसकी ** **! ये मरेगा!" बोला वो, हाथ बढ़ाते हुए अपना!
बस!
फिर क्या था!
मैंने रोका शर्मा जी को!
और बढ़ा आगे, उसके पास तक गया! वो पीछे हुए!
"ये मरेगा?" पूछा मैंने दांत भींचते हुए!
"हाँ! ये मरेगा आज!" बोला वो,
"कौन मारेगा?" पूछा मैंने,
"मैं! मैं मारूंगा!" बोला वो,
"तो तू बाज नहीं आएगा?" पूछा मैंने,
"चल हट? बहुत देखे तेरे जैसे!" बोला वो,
"नहीं आएगा बाज?" पूछा मैंने गुस्से से!
"अरे जा! जा ** * ****!!" बोला वो!
अब मैंने सभी को बाहर भेजा! बस शर्मा जी को रोक लिया अंदर ही, बिठा दिया सामने कुर्सी पर! और कहा उनसे, कि अब आप बैठे बैठे, खेल देखो ज़रा! वो बैठ गए!
मैं आया आगे! अपने आस्तीन ऊपर किये! हाथ मिलाये, वो, रौशन, देखे मुझे! गौर से! हँसता जाए! हँसता जाए! तालियां मारे!
तो साहब!
अब उसको सबक सिखाना था बहुत ज़रूरी! चाहता तो किसी और को पेश कर, उसकी तबीयत निखार देता! लेकिन नहीं! मैंने बुलाना चाहता था, अपना सिपाहसालार! इबु! मैंने तब पढ़ा रुक्का! घर्र की सी आवाज़ हुई! वो रौशन! कभी ऊपर देखे! कभी नीचे! कभी दायें! कभी बाएं!
और तब, दहाड़ता हुआ इबु, हुआ हाज़िर! कंगन खनखना उठे उसके! मुझ से नहीं जाना उद्देश्य उसने! चला कदम साध कर आगे! वो आगे बढ़े और रौशन कांपे! थर-थर कांपे! दीवार में घुसता जाए!
और अगले ही पल!
पलकें झपकने से पहले ही! रौशन का सर नीचे और पाँव छत तक! कर दिया उल्टा! लटका दिया! हुंकार की सी आवाज़ हो! और अगले ही पल!!