"आओ, बैठो!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और वे भी बैठ गए!
"एक बात कहूँ?" बोले वो,
"आपको भी पूछने की आवश्यकता?'' पूछा मैंने,
"नहीं, ऐसा नहीं! फिर भी!" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
"कैसा लगता है, कड़ी बनकर?" पूछा उन्होंने,
मै मुस्कुराया! और मेरी मुस्कुराहट, हंसी बन कर उभर गयी!
"कैसी कड़ी?" पूछा मैंने,
"ऐसी, ऐसी कड़ी!" बोले वो,
"कोई कड़ी नहीं!" कहा मैंने,
"जवाब तो दो?" बोले वो,
"शर्मा जी, कोई कड़ी नहीं होता! इंसान से इंसान जुड़ता है! और एक कड़ी बनती है! ऐसा नहीं कि कोई विशेष नहीं, सभी विशेष हैं! सभी! सभी, जो इस संसार में हैं! सभी माननीय हैं! यही है कड़ी!" कहा मैंने,
"हाँ! ये तो है!" बोले वो,
"अब क्या पता था, कि यहां क्या उद्देश्य है!" कहा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कब जाना कि यहां भी आना है?" पूछा मैंने,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
पानी पिया मैंने फिर! कुछ गुड़सल परिंदे, मस्ती में लगे थे! घास के कीड़ों का शिकार कर रहे थे! प्रकृति ने क्या तानाबाना बुना है! सब, सब ऐसा, कि समझ से बाहर! समझने को, शायद पूरा जीवन ही चला जाए! एक दृष्टांत बताता हूँ, समय अवश्य ही लूंगा आपका, काफी दिन हुए, मै एक गाँव में था, सुबह का वक़्त था, जंगल घूमने के बाद, एक हौदी पर बैठा था मै, तो एक मुर्गा था वहां, और चार मुर्गियां, मुर्गे को, कुछ मजेदार मिलता तो ज़ोर से बांग देता, और उसकी 'पटरानी' दौड़ी चली आती! ऐसा बार बार होता! मैंने सोचा, शायद, ये मुर्गी ही बढ़िया अंडा देती होगी! जब पता चला कि ये मुर्गी अंडा नहीं देती! बूढ़ी है! बल्कि, मुर्गे को यहां रहने में मदद करती है! नहीं तो ये मुर्गा है हरामी! कब कहाँ मुंह मारे, पता नहीं! हँसते हँसते हाल खराब! तब समझ आया कि सब प्रकृति का खेल है! अब इसका अर्थ कौन क्या निकाले, यही प्रश्न है मेरा!
खैर,
''आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम खड़े हुए, और चले आगे, एक सीढ़ी थी चढ़े उस पर! और तभी, सामने से, दीवार पर से, एक टुकड़ा सा टूटा! टिक! आवाज़ हुई ऐसी!
मैंने और शर्मा जी ने, देखा तभी एक दूसरे को!
"उठाओ!" कहा मैंने,
"आप!" बोले वो,
"आप!" कहा मैंने,
"मै इस लायक कहाँ!" बोले वो,
"नहीं आप!" कहा मैंने,
"मानिए!" बोले वो,
"नहीं, उठाइये!" कहा मैंने,
"कैसे अलमस्त औघड़ हो आप!" बोले वो,
मै हंस पड़ा! तेज!
"अरे!! कुछ नहीं! उठाइये!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
और उठा लिया वो टुकड़ा! पकी मिट्टी से बना था वो टुकड़ा! लाल रंग का! चांदी का सा अभ्रक, चमक रहा था कणों में उसके भीतर!
"ये लीजिये!" बोले वो,
"आप रखिये!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उन्होंने,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
और तभी!
तभी के तभी!
वो हुए चौकन्ने!
चुप हो गए! कान लगा लिए अपने शून्य से!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
हाथ के इशारे से ना कहा उन्होंने!
मै समझ गया! समझ गया कि क्या सुनाई दिया है!
"हुलारा?" पूछा मैंने,
"हाँ, कुछ वैसा ही!" बोले वो,
"अच्छा!" मै भी अचम्भित हुआ!
कुछ पल!!
कुछ पल, आनंद के! आँखें बंद!
"करियो रे! करियो रे!" फूटा उनके मुख से!
"वाह!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"अब जाने?" कहा मैंने,
"रुको!" बोले वो,
मै रुक गया! रुकना ही था! बड़े साहब जो ठहरे!
और हुलारा बंद!
"ओह!" बोले वो,
"अब कहो?" कहा मैंने,
"दैविक!" बोले वो,
"मै न कहता था?" कहा मैंने,
"ऐसा मधुर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और वो, ढाम ढाम?" बोले वो,
''वो भारी सा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"वज्र-घंटाल!" कहा मैंने,
"ओह! कोई सुन ले, तो ये, दुनिया ही छोड़ दे!" बोले वो,
"मन से?" पूछा मैंने,
"हाँ, मन से!" कहा मैंने,
"क्या बन जाए?" पूछा मैंने,
''वो, अ....अ..अब .....हाँ! बाबा धूनी!" बोले वो!
हाँ!!!! हां!!!! बाबा धूनी! बाबा धूनी!!
"जय बाबा की!" बोले वो,
"जय हो!" कहा मैंने,
"बाबा?" बोले वो,
"परमधाम!" कहा मैंने,
"हे भगवान!" बोले वो!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"और वो, वो यहां?" बोले वो,
"हाँ! वो यहां!" कहा मैंने,
"हमारे लिए?" पूछा उन्होंने,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"जय जय!" बोले वो!
''शर्मा जी!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"समस्त अन्तः जब कटते हैं, तब, सन्तः बनते हैं!" कहा मैंने!
"अवश्य! अवश्य!" बोले वो!
"संत कहने से, संत नहीं बना जा सकता!" कहा मैंने,
"सच!" बोले वो,
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोले पूरे जोश से!
तो हमने वो टुकड़ा अब रख लिया था अपने संग! और अब चलना था वापिस! हुलारा बंद हो चला था और वज्र-घंटाल भी घनघना, अब शांत हो चुका था! अब शेष था तो बस यही कि यहां से चला जाए, और फिर, सम्पर्क साधा जाए उस महापिशाच से! स्थान उसका अब देख ही लिया था, शेष जो जानकारियां थी, अब वो ही बताता! हमसे जो कहा गया था करने को, हमने कर दिया था! अब हम पहले ऊपर चढ़े, और फिर वहां से ढलान पार कर, नीचे की ओर चले! समय तो लगा था लेकिन उद्देश्य पूर्ण हो चुका था! इसीलिए, समय की अब कोई चिंता नहीं थी! वो टुकड़ा मैंने अपने रुमाल में बाँध लिया था! इस तरह हम नीचे आ गए! हमारा पानी खत्म हो चुका था, तो सबसे पहले पानी पिया, वे दोनों, शायद सो कर उठे थे, चलो अच्छा था, सो कर आराम कर लिया था उन्होंने! हमने यहां पर, ढाई घंटे के करीब का समय तो लगा ही था!
"मिल गया जी?" पूछा मनोज जी ने,
"हाँ, सब ठीक रहा!" बोला मैं,
"ये बहुत अच्छा रहा!" बोले वो,
"हाँ, जिस कार्य हेतु आये थे, वो पूर्ण हुआ!" कहा मैंने,
"जय हो!" बोले वो,
"चलते हे फिर?" बोले प्रदीप जी,
"हाँ, अब यहां कोई कार्य नहीं!" कहा मैंने,
और इस तरह, हम चल दिए वहां से वापिस! पहुंचे हम चोमू, यहां चाय पी, थोड़ा बहुत खाया भी, और फिर से चले, अब नहीं रुकना था कहीं! अब सीधा घर ही चलना था! तो अब गाड़ी दौड़ चली वापिस!
संध्य समय, करीब सात बजे हम वापिस पहुंच गए, वो टुकड़ा मैंने, अपने सामान में रखा! स्नान किया, और फिर आराम! आज तो जाने की हिम्मत शेष न थी वहां, सो, कल का ही निर्णय लिया! रात को भोजन कर, जल्दी ही सो गए थे! जल्दी ही सोये, तो जल्दी ही उठ भी गए! अल-सुबह ही स्नान कर लिए, चाय-नाश्ता भी तैयार कर लिया था उन्होंने, तो चाय-नाश्ता भी कर ही लिया!
फिर दोपहर के समय, चलने की तैयारी की! उस दिन मौसम बहुत बढ़िया था! आज तेज धूप न थी! आकाश में बदली थी, बारिश कब हो जाए, पता नहीं था, कहा भी नहीं जा सकता था! हवा में भी ठंडक थी!
और इस तरह करीब डेढ़ बजे, हम वहां के लिए चल पड़े! थोड़ी ही देर में हम वहां आ पहुंचे!
"आप यहीं रहिये!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
मैंने पानी पिया, हाथ धो लिए, वो रुमाल लिया संग, और सड़क पार कर, चल दिया उस तरफ! जब पहली बार आया था, तो ख़ौफ़ज़दा था, वो दिन भी याद आया, और आज का दिन भी! आज की खौफ नहीं! जैसे मैं भी इस घटना की एक कड़ी ही बना था! शायद इसीलिए चुना भी गया था मुझे! मैं उन पेड़ों के मध्य पहुंचा! मैंने मन ही मन उस स्थानीय-देव को प्रणाम किया! मैंने जैसे ही प्रणाम किया, हुलारा बज उठा! दूर से कहीं उस वज्र-घंटाल के घनघनाने की आवाज़ आने लगी!
मेरे सामने एक बड़ा ही दैविक सा दृश्य घटित हुआ! मैंने देखा, मेरे सामने, करीब पंद्रह फ़ीट आगे, केसरिया रंग के फूल जैसे, आकाश से गिरे, एक एक करके! अभ्रक जैसे चमक रह थे वो! वे फूल भूमि पर गिरने से पहले ही लोप हो जाते! भीनी भीनी सी, चम्पा के फूलों जैसी महक हर तरफ फ़ैल गयी थी! बड़ा ही पावन सा माहौल बन गया था! महापिशाच वैसे भी, कई कई, दैविक श्रेणी में आया करते हैं! आकि देवी-देवताओं के सहायक भी हैं, कई सहोदरियों एवं उपसहोदरियों के सहायक एवं सेवकगण भी हैं! माँ शीतला के चौदह महासेवक यही महापिशाच हैं! माँ मेखला, बेड़ला, भागा आदि देवियों के सहायक भी हैं! प्रेतोपचार में यही मदद किया करते हैं! मसान वीर के सहायक यही हैं! फूल गिरने बंद हुए, और हुलारा भी शांत हुआ! मेरी निगाहें बरबस ही, सामने जा टिकीं! मैंने अपनी जेब से वो टुकड़ा निकाल लिया! जैसे ही अपने हाथों में रखा, वो सुगंन्धित होने लगा, गौ-घृत की सी महक आने लगी थी! वहां एकांत था, सन्नाटे का साम्राज्य! हुलारा गूंजा, और प्रकाश के आवरण में से, सूक्ष्म प्रकाश प्रकट होने लगा! जैसे प्रकाश के सूक्ष्म से कण संघनित हो, इकट्ठे होने लगे हों! बड़ा ही विलक्षणकारी सा दृश्य था वो! उनमे रंग से खिलते थे, लाल, सफेद, बैंगनी, संतरी, पीले और चटख सा प्याजी!
कई लोगों ने, दूर, जंगलों में, एकांत में, प्राचीन स्थलों में, ऐसा प्रकाश देखने की बात कही है! ऐसी खबरें अक्सर, नदी किनारे बने मंदिरों में से आती हैं! इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है, वैज्ञानिकों के अनुसार, भूमि में क़ैद, कभी कभी मीथेन गैस के भूमि से रिसने के कारण, और ऑक्सीजन के सम्पर्क में आने के कारण ऐसा होता है! कारण अब कुछ भी हो, ऐसा प्रकाश देखा अवश्य ही गया है! कई प्राचीन गुफाओं में, उनकी दीवारों में कुछ रंग से खिले मिलते हैं, यही कारण हो सकता है! पत्थरों को, इन्हीं गैसों के कारण अपना रंग मिलता है! नीलम पत्थर में, जो नीला रंग होता है, वो, ऐलुमिनियम ऑक्साइड से आता है! पुखराज में फेल्सपार आदि से! ये सब प्राकृतिक संरचनाएँ हैं, इन्हें बनने में न जाने कितने वर्षों का समय लगता है!
खैर, यहां,
एक दिव्य सा अट्ठहास गूँज उठा! मैं चौकन्ना हो गया! वो कण आपस में गुंथ गए और तब एक दिव्य सी आकृति प्रकट होने लगी! आकृति पूर्ण स्पष्ट नहीं थी, शायद, मेरे नेत्र उसका प्रकाश, चमक आदि नहीं सहन कर सकते थे, यही कारण रहा होगा! हमारे नेत्र तो करोड़ों किलोमीटर दूर स्थित सूर्य को नहीं देख पाते, ये तो दिव्य-प्रकाश हुआ करता है! बिना मंत्रों के तो देखना सम्भव ही नहीं! मंत्रों से ही वो शक्ति प्राप्त हुआ करती है! अब ये सामर्थ्य ऐसी ही कोई सत्ता भी आपको, बना मंत्र साधे भी प्रदान कर सकती है!
"प्रणाम!" कहा मैंने,
प्रणाम का उत्तर मिला!
"मेरा उद्देश्य पूर्ण हुआ!" कहा मैंने,
"जानता हूँ! प्रसन्न हूँ!" गूंजी आवाज़!
"ये, ये ले आया हूँ!" कहा मैंने,
और दोनों हाथ आगे किये!
हैरत हुई! मेरे रुमाल में से, जैसे वायु की तरह से, वो रिसता चला गया! और लोप हो गए! मेरे रुमाल में कुछ न बचा!
पल भर के लिए वो लोप हुआ! और फिर से प्रकट!
"अब मैं मुक्त हुआ!" बोला वो,
मैं मुस्कुरा उठा!
और तब, वो पूर्ण देह सहित प्रकट हुआ! उसकी देह की कान्ति, देखी न जाए! नेत्रों में समायी न जाए! मुझे नेत्र, खींचने पड़े उस पर से!
"अब आप मुझे मेरे प्रश्नों के उत्तर दें!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोला वो!
"आपका स्थल, देवठाला है, आप यहां कैसे?" पूछा मैंने,
"पौष पंचमी को स्थान-परिवर्तन था!" बोला वो,
"स्थान-परिवर्तन?" पूछा मैंने,
"हाँ, मुझे मुक्त किया जाना था!" बोला वो,
"मुक्त? अर्थात?" पूछा मैंने,
"बाबा धूनी ने देह त्याग दी थी, नौ दिवस पहले!" बोला वो,
"तो कौन परिवर्तन हेतु आपको ले जा रहा था?" पूछा मैंने,
"बाबा धूनी का ज्येष्ठ पुत्र!" बोला वो,
"क्या नाम है उनका?'' पूछा मैंने,
"गजेश!" बोला वो,
''और, भला कहाँ?" पूछा मैंने,
"कुल-सरिता!" बोला वो,
कुल-सरिता! अर्थात गंगा!
''अच्छा, समझा!" कहा मैंने,
"गंगा जी?" कहा मैंने,
"हाँ, बाबा धूनी, वहीँ थे!" बोला वो,
"वहीँ थे?" पूछा मैंने,
"हाँ, सारितोदय!" बोला वो,
"सारितोदय?'' पूछा मैंने,
"हाँ, मैं वचन में था!" बोला वो,
"ओह! अर्थात आपका पूजन किया, प्रसन्न किया, आपने मृत्योपरांत तक वचन निभाया! मृत्योपरांत आपको, उनके वचनानुसार, पुनः, सारितोदय तक ले जाना था! उपचारोपरांत!" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" कहा उसने,
सारिताोदय, एक स्थल है, मनीषियों का, आजकल तो ये एक टूरिस्ट-स्थल है, सम्भवतः, प्राचीन समय में, या दो सौ, तीन सौ वर्ष पहले ऐसा हुआ हो! ये अभी तक मेरा ही मानना था!
"तो क्या गजेश नहीं पहुंचे?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"नहीं? क्यों?" पूछा मैंने,
वो चुप!
"बताइये?'' पूछा मैंने,
"मैं परास्त हुआ था!" बोला वो,
''असम्भव!" कहा मैंने,
मैंने यही कहा था! असम्भव!
''आप परास्त नहीं, वचन के भार तले दबे थे!" कहा मैंने,
अब रहस्योद्घाटन किया मैंने!
"यही है न? हे महापिशाच! आप और परास्त! नहीं! ये तो असम्भव है!" कहा मैंने,
"यही सत्य है!" बोला वो,
"नहीं! भार ने दबाया आपको!" कहा मैंने,
"नहीं! मैं परास्त हुआ!" बोला वो,
"मैं नहीं मान सकता!" कहा मैंने,
"मानना ही होगा!" कहा मैंने,
"नहीं, आपने वचन दिया था बाबा धूनी को!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"उसकी संतान को सरंक्षण भी दिया होगा!" बोला मैं,
ले आया था उसको उस स्थान पर, जो सत्य था! भला एक महापिशाच किस प्रकार एक मनुष्य से यूँ ही परास्त होता!
"दिया था न?" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"तो गजेश कौन सा अलग रहा होगा?" कहा मैंने,
"निःसंदेह!" बोला वो,
"तो कारण क्या था?" पूछा मैंने,
"कौन सा कारण?'' पूछा उसने,
"सब जानते हुए भी, मेरा बौद्धिक परीक्षण क्यों करते हो आप!" कहा मैंने,
अट्ठहास खींचा उसने!
"अब बताइये, परास्त? या वचनबद्धता?' कहा मैंने,
"उत्तर तो स्वयं दे दिया तुमने?" बोला वो,
"हाँ, तो वचनबद्धता!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"अब मैं बताता हुआ!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोला वो,
"हुआ यूँ होगा कि गजेश नहीं चाहते होगे कि आप वापिस लौटो, या मुक्त हो जाओ, या वापिस सारितोदय जाओ! यही प्रस्ताव आपके समक्ष आया होगा, आपने मना किया होगा, और तब, आपको यहीं कील कर, बाँध दिया होगा! समयावधि पूर्ण हुई होगी, तब आपने इच्छा ज़ाहिर की वापिस लौटने की! अब प्रश्न ये, कि ले कौन जाए? और वो कीलन परिसीमन तक आप उसी के अंदर, यूँ कहें कि कारावास में हो! सारितोदय की प्रबल इच्छा है! यही न?" कहा मैंने,
"अक्षरक्षः!" बोला वो,
"परन्तु?" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"गजेश कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"न वे रहे न कोई संतान!" बोला वो,
"ओह....." कहा मैंने,
"और आप? आप यहां कब से हो?" पूछा मैंने,
"एक सौ बीस वर्ष एवं उन्नीस दिन से!" बोला वो!
"ये अच्छा हुआ! अन्यथा, आप कभी मुक्त ही न होते!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"गजेश जैसे साधक, क्या क्या करते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
धूनी बाबा का जब तक वंश रहता, वंशबेल, गजेश से, तब तक, ये अवधि, कभी समाप्त न होती! चूँकि, बाबा धूनी के वंश चलने तक, ये महापिशाच कभी, मुक्त होने का प्रश्न ही नहीं कर सकता था! बाबा धूनी ने तो मुक्त किया था अपने वचन से! परन्तु, महापिशाच अपने वचन से मुक्त न हुआ था! जब तक कि स्वयं गजेश ही मुक्त न कर दें उसे! क्यों आज भी ऐसे स्थान हैं? जहाँ कहते हैं कि पहले मन्नतें पूर्ण हुआ करती थीं, अब नहीं होतीं! कारण यही है! समयावधि!
"अब आप मुक्त हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, अब मुक्त हूँ!" कहा उसने!
"तो विलम्ब क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई विलम्ब नहीं!" बोला वो,
"कूच करें!" कहा मैंने,
"साधक!" बोला वो,
"जी!" कहा मैंने,
"सरल न बनो!" बोला वो,
"कैसे सरल?" पूछा मैंने,
"मैं समर्थ हूँ!" बोला वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मांगो कुछ!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कारण?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कारण?" फिर से पूछा,
"मुझे सेवा ही करने दें!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"नहीं, मूल्य न चुकाएँ!" कहा मैंने,
एक प्रबल सा अट्ठहास! ये अट्ठहास, सच में, मुक्त होने की मोहर थी! वो कुछ दी चाहता था मुझे! और मिल भी जाता! परन्तु, जो वस्तु, स्व-अर्जित न हो, न उसका कोई मोल होता न महत्व! अतः न सेवा का मोल लेना चाहिए, न कर्तव्य का परि-कर्तव्य, न दया की अपेक्षा करनी चाहिए, जिस प्रकार, गुरु समर्थ भी हो, ज्ञानवान भी हो, तब भी श्रम साधना पड़ता है, ज्ञान अर्जित करना पड़ता है, स्व-अर्जित वस्तु ही फलदायी हुआ करती है! मोल ली हुई, चुराई हुई, दान की वस्तु, कभी अपनी नहीं समझनी चाहिए!
"नहीं!" मने पुनः कहा,
"अवश्य ही मांगो!" बोला वो,
"आवश्यकता नहीं!" कहा मैंने,
"हठ न करो!" बोला वो,
"ये हठ नहीं!" कहा मैंने,
"मैं सहर्ष दूंगा!" बोला वो,
"मैं नहीं लूंगा!" कहा मैंने,
"साधक, ये भार होगा मुझ पर!" कहा उसने,
"नहीं, मेरा ऐसा आशय नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं??" बोला वो,
"नही!" कहा मैंने,
"वाह साधक!" बोला वो,
"मेरा अहोभाग्य!" कहा मैंने,
"सारितोदय!" बोला वो,
"कूच कीजिये!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"साधक!" बोला वो,
"जी?" कहा मैंने,
और कुछ बताया उसने! मैं सुन कर, प्रसन्न हो गया! ये एक लघु-मार्ग था! ये मार्ग, अत्यंत ही दुष्कर मार्ग है! परन्तु, दुष्कर ही इसी कुछ न हो, तो सरलता का स्वाद भी चखा नहीं जा सकता! उसी प्रकार ठीक, जिस प्रकार, बिना कड़वा चखे, मीठे के स्वाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती!
"मैं, मुक्त हुआ!" बोला वो!
"हाँ, अब कोई वचनबद्धता नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ! भारहीन!" कहा उसने!
"कूच कीजिये!" कहा मैंने,
और मैंने, हाथ जोड़ लिए अपने! कूच करते हुए, किसी को, इस प्रकार, कभी देखा नहीं था! आज ये भी पूर्ण होने को था!
मित्रगण! वो सम्मुख ही प्रकट हुआ! पीछे देखा, मैंने भी देखा! हुजूम था उधर, प्रेतगण का! ये सभी प्रेत, बाबा के सिद्ध-प्रेत रहे होंगे! कुछ स्त्रियां, बालक-बालिकाएं! अब सभी मुक्ति की कगार पर थे! धूनी की सुगंध फ़ैल उठी थी उधर! मैंने उस महापिशाच का रूप देखा! गहरे नेत्र! देव -सरीखा रूप! ऐसा महाभट्ट योद्धा सा कि सम्मुख आ खड़ा हो, तो व्यक्ति ही सूख जाए अपने आप! इसी विषय में तंत्र-महाशास्त्र बताता आया है! इसी विषय में दक्षिण-पंथ एवं वाम-पंथ अलग अलग हो गए थे! एक ने मान दिया इन्हें और एक ने दासता! एक ने विधियों को क्लिष्ट बनाया, किया एक ने अत्यंत ही सरल!
खैर, अब वे मुक्त थे! अब उनका गंतव्य था सारितोदय! यहीं से, वे सभी मुक्त हो जाने थे! वचनबद्धता समाप्त हुई थी उस महापिशाच की!
"समय हो चला!" बोला वो, मुस्कुराकर!
"कूच कीजिये!" कहा मैंने,
"हाँ! अवश्य ही!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"प्रणाम!" आई आवाज़!
इसके बाद, न देख सका मैं कुछ! श्वेत प्रकाश फूट पड़ा था! आखें चुंधिया चली थीं! शून्य में जैसे मार्ग बन गया था! मैं तो बैठता चला गया था! वहां की भूमि जैसे उठ गयी थी! कीलन भेद दिया था उसने!
और जब मेरे नेत्र अभ्यस्त हुए, तो कुछ शेष न था! कुछ भी! वही भू-दृश्य! वही, ठीक वैसा ही! जैसा, मैंने देखा था, पहले रोज! मैं जैसे इन चार-पांच दिनों तक इस संसार से कटा रहा था! जैसे किसी शून्य में समाधिलीन था! अब जैसे होश आया था! जैसे अब, वर्तमान में ला पटका था मुझे पुनः!
वे चले गए! सभी के सभी! हाँ, उनके अक्स, वो स्थान, वो देवठाला, सदा के लिए अंकित हो गए मेरे हृदय-पटल में! सदा के लिए!
क्या मैं इसके बाद, सारितोदय गया? नहीं! कभी नहीं! नहीं जा सका!
क्या देवठाला गया? नहीं, अब भला क्या औचित्य!
पुनः उस गाँव? नहीं, कभी नहीं जा सका!
क्या मैंने कुछ किया? नहीं! कुछ नहीं! बस बोध हुआ, कर्तव्यपरायणता का! क्या मैं सफल रहा? हाँ! ये तो मैं कह सकता हूँ! कि हाँ! सफल रहा! क्या इसमें उस महापिशाच की भूमिका रही? हाँ! आरम्भ से ही! अन्यथा, ऐसा करना मेरे सामर्थ्य के बाहर था! पल पल उसकी देख रही! पल पल मेरे क़दम कहाँ रखे जाने हैं, उसकी देख में रहे!
और हाँ, अब सबसे अहम प्रश्न!
क्या मुझे कुछ मिला?
हाँ! असीम शान्ति, सुकून! जिसका कोई मोल नहीं! एक ऐसी दुर्लभ शान्ति, जो सम्भवतः किसी किसी को ही नसीब होती हो!
एक था महापिशाच! वो महापिशाच! जो आज भी कहीं, विद्यमान है, अपनी दैविकता के साथ, सारितोदय नामक एक छोटे से, पावन-स्थान में!
आज भी! कम से कम, मुझे तो, ऐसा ही लगता है!
साधुवाद!
