"बहुत छका लिया इसने!" कहा मैंने,
'हाँ ये तो है!" बोले वो,
"क्या करें?" पूछा मैंने,
"कोई जंतर भिड़ाओ अब!" बोले वो,
"कल ही सम्भव है!" कहा मैंने,
''सामान चाहिए?" बोले वो,
''हाँ, ज़रूरी!" कहा मैंने,
"तो अब, चलें?" बोले वो,
"हाँ, क्या करें फिर?" पूछा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
गाड़ी मोड़ी फिर, आगे तक गए, रोकी, आसपास देखा, यातायात भी, तभी मोड़ना सुरक्षित भी था, और डाल ली सड़क पर! आये मोड़ तक! कि सामने हमारे, बड़े बड़े मिटटी के ढेले ऐसे उड़ते चले गए रास्ते पर जैसे रुई के फाये! झटाक से ब्रेक खींचे!
"रुको!" कहा मैंने,
और झाँका बाहर!
ढेले भी जा रहे थे सड़क पर! जैसे कोई फूंक मारे जा रहा हो उन पर! कुछ पलों तक, हम ऐसे ही देखते रहे उनको! वो कागज़ की गेंदों की तरह से सड़क के पार चलते चले जा रहे थे! उछलते उछलते! कमाल की बात ये, कि मिट्टी से बने होने के बाद भी, वो फूट नहीं रहे थे!
"ये क्या हो रहा है?" बोले वो,
"गज़ब का खेल!" कहा मैंने,
"इसका मतलब क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जाने देना चाहता!" बोला मैं,
''फिर?" बोले वो,
"रुक जाओ!" कहा मैंने,
और फिर सब शांत! सड़क पर, अब मिट्टी ही मिट्टी हो गयी!
"ये कोई जिन्नाती इल्मात तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई इफराति?'' बोले वो,
"वो यहां क्यों आएगा?" पूछा मैंने,
"क्या करें?" बोले वो,
"आप आगे लो!" कहा मैंने,
''आगे कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"सड़क के पार!" कहा मैंने,
"जहाँ पहले थे?" बोले वो,
"नहीं, उधर!" कहा मैंने, जगह दिखाते हुए!
"ठीक" बोले वो,
देखा दायें बाएं, और ले ली सीधी!
"बस, रुक जाओ!" कहा मैंने,
"ठीक, रुक गया!" बोले वो,
"यहीं बैठो!" बोला मैं,
और आ गया बाहर! इस बार अपना सामान उठा लाया था साथ में! थोड़ा आगे गया, तो ठोकर सी लगी, नीचे देखा, तो पत्थर पड़े हुए थे, गौर से देखा, तो ये ढेले थे मिट्टी के! वही, जो नाचे हुए ज़मीन पर, यहां तक चले आये थे! मैं और आगे गया! रुका!
"तूने रोका, मैं रुक गया!" कहा मैंने,
उत्तर में, कोई उत्तर नहीं!
"क्या चाहता है?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
"बता? क्या मंशा है?'' पूछा मैंने,
अनुत्तरित!
"भय खाता है?" चीखा मैं!
और आई एक हुंकार! भयानक सी हुंकार! मेरे तो देह में कम्पन्न सी मच गयी! जैसे कई सिंह एक साथ ही मिलकर, नाद कर बैठे हों! होओओओओम की सी हुंकार थी ये! स्वर में कम थी, वजन में भारी! कोई पशु होता तो दुम दबा के भाग ही छूटा होता वो तो!
ऐसी हुंकार किसकी हो सकती है? किसी महाप्रेत की? या फिर किसी ख़बीस की? ख़बीस की भी हुंकार कुछ ऐसी ही होती है! ख़बीस की मौजूदगी से मैं इंकार कर सकता था! पहला ये, कि वो धूनी क्यों सुंघवायेगा, पंगत सी लगवा कर? दूसरा ये, कि हुलारा क्यों गायेगा? इसीलिए ये ख़बीस तो नहीं था! महाप्रेत सम्भव था! इस स्थान पर आ गया हो, या कोई बाँध गया हो, लांघ के भीतर क़ैद हो, ये हो सकता था!
"कापणी है तू?" पूछा मैंने,
मैंने तो कहा कापणी और फिर से गूंजी दहाड़ भरी हुंकार! जिसलिए बोला था, वो सफल हुआ था! यही जानना चाहता था मैं!
कापणी मायने डरपोक प्रेत! डामरी का शब्द है! कई मंत्रो में भी इसका प्रयोग होता है! बाबा फ़रीद के गुप्त मंत्रों में भी उल्लेखित है! पढ़ने वाले, जो इस नाम से वाक़िफ़ होंगे, 'रहे-अलेह' या जो यहां रहते होंगे, वे जान गए होंगे! इनके यहां पेशी में भी, कापणी मार-भगाए जाते हैं! हज़रत रहे-अलेह की नज़र-ए-इनायत बरक़रार रहे सभी पर!
"तो बता? कौन है तू?" पूछा मैंने,
फिर से कोई जवाब नहीं!
"तू कापणी ही है!" कहा मैंने,
मैं कहा! और मुझे कंधों से पकड़ कर, टिका दिया गया नीचे! मैं होता चला गया अपने आप! नहीं तो रीढ़ की हड्डी से पसलियां ही खोल देता वो मेरी! मैं झुका और फिर से उठ गया! कंधों पर, मनों वजन आ गिरा हूँ, ऐसा लगा था उस पल! ऐसा, हर आलिम के साथ होता है! यही तो है शय और मात का खेल!
"कापणी? छिप कर वार करता है? अजालिया?" चीखा मैं!
और तब! तब सुना मैंने अट्ठहास! एक भारी अट्ठहास! ठीक सामने से! मेरे सामने से, जैसे अँधेरे का पर्दा फटा! पर्दा फटा तो कुछ दिखा! दिखा तो होश उड़े! पंगत लगी थी! पंगत! कतार में लोग बैठे थे! सफेद कपड़ों में! सामने, धूनी जल रही थी सभी के! और सभी, धूनी सूंघ, जैसे बावरे हो रहे थे! एक दूसरे के कंधों से टकरा रहे थे! लेकिन वो कहाँ था? वो? जो हाँक रहा था इन्हें? ये प्रेत थे सभी! सभी के सभी दास प्रेत! ऐसे प्रेतों को दास कौन बनाएगा? कौन? दिमाग चलने लगा तेज! दो! हाँ दो! या तो कोई महाप्रेत या फिर कोई पिशाच!
महाप्रेत, इन प्रेतों से सेवा करवाते हैं! कार्य करवाते हैं! और पिशाच, कार्य-सिद्धि करवाते हैं! वो एकत्रित करते हैं ऐसे प्रेतों को! ये प्रेत, जुझारू, युद्ध में खेत आये हुए होते हैं! सभी को नहीं उठाते ये!
मैं आगे बढ़ा! कुछ और आगे! तेज गंध उठने लगी थी! गंध, मुसेंगन(बकरी या भेड़ की विष्ठा) की! जली हुई मुसेंगन की सी! वे सभी, उकडू बैठ, धूनी ले रहे थे! जैसे सब ने मद्यपान कर रखा हो!
"आ! अब आ सामने!" कहा मैंने,
नहीं! कोई नहीं आया!
अट्ठहास फिर से गूंजा! और अट्ठहास के साथ ही, वे सभी प्रेत, गायब हो गए! सामर्थ्य दिखा रहा था मुझे अपना वो बार बार!
"तू कौन है?" पूछा मैंने,
ज़ोरदार अट्ठहास!
"बता?" बोला मैं चीख कर!
अट्ठहास! ज़बरदस्त अट्ठहास दुबारा!
प्रेत फिर से प्रकट हुए!
पंगत में बिठाए हुए! धूनी सूंघते हुए! गर्दनें हिलाते हुए! आधे लेटे हुए, आधे टिके हुए!
"बता? परिचय दे?" पूछा मैंने,
हुंकार सी बाज गयी चारों तरफ!
प्रेतगण, फिर से गायब!
यही तो समग्र माया है इनकी!
"बता???" मैंने फिर से चीख कर पूछा!
हुंकार फिर से बाजी!
"बता???" मैंने पूछना ज़ारी रखा! जान बूझ कर! कुपित करने के लिए!
प्रेत लोप हो गए थे! समय बड़ी ही तेजी से भागे जा रहा था आगे! और ये, अपने आपको हाज़िर नहीं कर रहा था! न जाने क्या कारण था! शायद, मुझे भी तोल रहा हो वो, जैसे मैंने भांपा था उसका सामर्थ्य!
"हाज़िर हो?" कहा मैंने,
कुछ नहीं!
"सामने आ?" कहा मैंने,
और नहीं आया फिर वो!
मैंने करीब आधे घंटे तक, लगातार बांग देता रहा! लेकिन उस पर कोई असर ही नहीं पड़ा! अब ढाई से ज़्यादा का वक़्त हो चला था, अब लौटना ही ठीक था, अब जो हो, तो दोपहर में ही होना सम्भव था! इसीलिए मैं लौट पड़ा वापिस! आया गाड़ी तक, बैठा और हम चल पड़े! अब कोई रोक नहीं! मुझे लगा था, शायद कोई अड़चन दुबारा से आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ! न कोई आवाज़, न कोई हुलारा! आधे घंटे में ही हम जा पहुंचे घर तक, सभी सो गए थे, बत्ती जली थी, दरवाज़ा खटखटाया तो खुला, ये मनोज थे, हमने हाथ-मुंह धोये और फिर सीधा अपने कमरे में चले गए! घुसे बिस्तर में और सो गए अपनी अपनी चारपाई पर!
सुबह नींद देर से खुली, सो तो खुलनी ही थी, फारिग-फुरिग हुए हम, चाय-नाश्ता भी कर लिया! और दोपहर से पहले भोजन भी कर लिया था! मुझे कुछ सामान चाहिए थे, इसीलिए मनोज जी के संग हम एक कस्बे तक गए, सामान लिया और फिर से वापिस हुए घर के लिए! अब यहां से सामान उठाया अपना, और चल पड़े फिर हम दोनों ही उस जगह के लिए!
वहाँ पहुंचे, उस दिन मौसम का मिजाज़ कुछ बिगड़ा सा हुआ था, हालांकि बारिश तो नहीं होनी थी, लेकिन फिर भी अंधियारी छा जाती थी थोड़ी थोड़ी देर में! उस वक़्त भी सन्नाटा ही पसरा था! आवाजाही वहां होती नहीं थी, कोई रास्ता था नहीं, गाँव समीप था नहीं कोई, कोई ज़िंदा थी चीज़, तो बस ये सड़क! और सड़क पर दौड़े चले जाते कुछ वाहन!
"लाओ, सामान दो" कहा मैंने,
"ये लो" बोले वो,
''आओ मेरे साथ" कहा मैंने,
"चलो, ये मैं ले लूंगा!" बोले वो,
और दूसरा छोटा बैग ले लिया उन्होंने!
"उधर चलो!" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
हम एक पेड़ के नीचे चले आये! उस पेड़ के नीचे कुछ मिट्टी खोदी मैंने एक लकड़ी से, और कुछ सामग्री उस में रख दी, ढांप दिया मिट्टी से फिर!
"एक काम करो, वहाँ तीन जगह, ये सामान रख दो!" कहा मैंने,
"दबा दूँ?" बोले वो,
"हाँ, दबाना ही है!" कहा मैंने,
"ठीक, अभी!" बोले वो,
वो चले गए, लकड़ी से खोदते और सामग्री रख देते! मैं उनसे थोड़ा दूर रहकर, ऐसा कर रहा था, कुल ग्यारह जगह मैंने ऐसा किया! आये वो मेरे पास!
"एक काम करो?" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"गाड़ी में जा बैठो!" कहा मैंने,
''अच्छा, ठीक!" बोले वो,
और चले गए! अब रह गया मैं! अब काम शुरू करना था मुझे! उखाड़ लाना था जो छिपा था वहां! अब ये बराबर की ही टक्कर थी! मैंने तब, कौरिक-मंत्र का जाप किया! ये मंत्र अमावस से आरम्भ कर, पंचमी तक एक निश्चित समय पर ध्यानिकृत किया जाता है! तद्स्वरूप ये सिद्ध हो जाता है! अक्सर, भूमि के गर्भ में छिपी कोई वस्तु आदि की पकड़ हेतु प्रयोग होता है, पूर्ण स्वरुप तो नहीं दिखाता, हाँ कुछ झलक अवश्य ही नेत्रों में पहुंचा देता है! अथवा ध्यान में उस वस्तु का कुछ स्वरुप अवश्य ही पता चल जाएगा, हाँ, यदि वो रूकल-मंत्र अथवा काली-विद्या से ढाँपी या गाड़ी गयी हो, तो झलक नहीं मिलेगी, उसके लिए आपकी इस काली-विद्या को काटना होगा! कौरिक मैं क्यों प्रयोग में लाना चाहता था?
देखने के लिए, कि कहीं भूमि के गर्भ में ही तो कोई न्यास नहीं? कोई घट स्वतः ही तो नहीं खंडित हो गया जिसमे ये शक्ति क़ैद हो? ओर-छोर, आर-डार सभी की जांच आवश्यक रहती है, नहीं तो एक ही चूक में नाश अवश्य ही हो जाएगा!
मैंने संधान किया! और कौरिक ने भूमि नापी! और! कुछ न मिला! वहां कोई न्यास, भवन, बावड़ी आदि, भूमि के नीचे नहीं थी!
अचानक से हुलारा गूँज उठा! और वो सामग्री, भूमि से बाहर निकल, फ़ैल गयी! भंजन कर दिया उस सामग्री का किसी ने!
कौरिक, विफल हो गया!
सामग्री का, भंजन हो गया!
अब कोई और होता, तो शायद, मैदान छोड़, भाग लिया होता! परन्तु, अभी तो आरम्भ था ये! और तभी अट्ठहास गूँज उठा! जैसे मेरी खिल्ली उड़ाई हो उसने! मेरे होंठों पर भी मुस्कान खेल आई! ये प्रतियोगी, सच में ही टक्कर का था!
"तू सामने नहीं आएगा?" पूछा मैंने,
अट्ठहास, ज़बरदस्त सा अट्ठहास!
"नहीं आएगा?" पूछा मैंने,
हुलारा, तेज बजने लगा! कानफोड़, ढामरी बज उठी!
"पुनः अवसर देता हूँ तुझे!" कहा मैंने,
पेड़ भरभरा उठे हो जैसे! मुझे ऐसा ही लगा!
अब झुका मैं नीचे, उठायी मिट्टी! उसमे थूका और अब उसका उत्तर, मुझे इस काली-विद्या से ही देना था! माथे पर किया छरण उस मिट्टी का! आगे गया! और फेंक मारी मिट्टी! सन्नाटा! जैसे संघनित सा हो, केंद्रीकृत हो उठा! कुछ होने को था! कुछ तो........अवश्य ही! मेरे दिल की धड़कन, मुझे ही सुनाई देने लगी!
और तब, हाड़ कंपा देने वाला स्वर गूंजा कानों में मेरे! फुसफुसाहट भरा! जैसे धौंकनी सी चलने लगी हो!
"प्राण बचा!" आई आवाज़, फुसफुसाहट भरी!
"मैं?" बोला मैं,
"हाँ!" आई आवाज़!
"समक्ष क्यों नहीं आता?" पूछा मैंने,
"आया तो प्राण न शेष रहेंगे!" आई आवाज़!
"आ कर तो देख?" कहा मैंने,
"जा! चला जा!" आई आवाज़!
"नहीं!" कहा मैंने,
"तुझे भान नहीं, कौन हूँ मैं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"जा! अब नहीं लौटना!" बोला वो,
"ऐसे नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने,
"पुनः नहीं चेताऊँगा!" बोला वो,
मामला हुआ गंभीर!
फुसफुसाहट ही ऐसी थी, जैसे बड़े बड़े पाषाण बोल रहे हों!
"लौट जा! जा!" बोला वो,
"नहीं! समक्ष तो आ?" कहा मैंने,
"जा, जा!" फिर से बोला वो!
और गले ही पल, जैसे भूमि निगलने को चली मुझे! लगा, भूमि बीच में से धसक जायेगी नीचे! गड्ढा हो जाएगा! मैं धसक जाऊँगा! लील लेगी भूमि मुझे! मैं लड़खड़ा गया! पीछे हटा! ये मात्र मैं ही महसूस कर रहा था!
अचानक से भूमि थम गयी हो जैसे!
अट्ठहास गूंजा! हर तरफ से!
"जाआआआआ!! धीमे से आई आवाज़!
मैं पीछे हटा! कुछ सोच कर!
"लौट जाआआआ!" आई आवाज़!
और मैं, उस पल, लौट ही पड़ा! इस से, इस प्रकार नहीं भिड़ा जा सकता था! ये स्थान उसका था, उस स्थान का अब वो अधिष्ठाता था! मेरी न चलती! इसीलिए, लौटा मैं!
मैं आया वापिस गाड़ी तक! झट से गाड़ी में बैठा! सामान रखा पीछे, पानी की बोतल ली, और पानी पिया!
"कुछ हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"यहां से निकलो!" कहा मैंने,
"क्या?'' उन्हें बड़ी ही हैरत हुई!
"हाँ, निकलो अभी!" कहा मैंने,
फिर न की देर! और हम कुछ ही देर में, वापसी के रास्ते पर थे!
"हुआ क्या?'' पूछा उन्होंने,
"ये बहुत ताक़तवर है, ऐसे नहीं आएगा लपेटे में!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले वो,
"हाँ, अब कुछ करना ही होगा!" कहा मैंने,
"ठीक, घर पर बात करते हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम जल्दी से पहुंचे घर! मैंने हाथ-मुंह धोये, और फिर चाय के लिए कह दिया! किस भयानक लहजे में धमकाया था उसने मुझे! मुझे अभी तक उसकी वो फुसफुसाहट याद थी! जैसे पत्थर फट पड़े हों बड़े बड़े! जैसे कोई प्राचीर ढह गयी हो! लेकिन अफ़सोस ये था कि अभी तक मैं ये न जाना सका था कि ये कौन सी सत्ता है? किसके मुंह में हाथ डाला है मैंने!
"हुआ क्या था?" पूछा शर्मा जी ने,
अब मैंने सबकुछ बताया उन्हें! वो सुनते रहे और अचरज से भरते रहे!
"ये है कौन?" पूछा उन्होंने,
"कुछ नहीं पता!" कहा मैंने,
"तो सबसे पहले पता लगाया जाए!" बोले वो,
"हाँ, पता लगाना ही होगा!" कहा मैंने,
"भला कैसे?'' बोले वो,
"मुझे एकांत चाहिए होगा आज रात!" कहा मैंने,
"हाँ, मनोज जी?" पूछा उन्होंने,
"कैसा एकांत? बताइये?" बोले वो,
"जहाँ कोई आता जाता न हो, रोक-टोक न हो?" कहा मैंने,
"फिर भी?" पूछा उन्होंने,
"सिवाने कहाँ हैं?" पूछा शर्मा जी ने,
"गाँव के बाहर ही" बोले वो,
"जा सकते हैं?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं, कोई नहीं होता वहां" बोले वो,
"तो ये ठीक है!" बोले शर्मा जी,
"कब चलना है?" पूछा मनोज जी ने,
"नौ बजे करीब चल लो?" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
"खाना लगवाऊँ?" पूछा उन्होंने,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"खा लो?" बोले वो,
"अब शाम को!" कहा मैंने,
"जी ठीक है!" बोले वो,
और फिर मैंने किया आराम! आज सिवाने में, कुछ जागृत करना था, तब जाकर, मैं इस शय से आमने सामने हो सकता था! मुश्किल तो ये थी कि हमें उसके स्थान पर ही जाना पड़ता था! नहीं तो ला पटकता उसे किसी में भी! इसको लाना खतरनाक था, ये तो माध्यम के ही चीथड़े उड़ा कर रख देता! क़ैद के नाम पर, भड़क जाता और फिर हालात और बदतर हो जाते! इसीलिए, मैं पूरी तरह से चाक-चौबंद होना चाहता था! मैं, एक अस्थि को ढाल बनाना चाहता था! ये ढाल मुझे सुरक्षित रखती और साथ ही साथ, मैं उसको उसी के तरीके से जवाब भी दे सकता था! मैं दुबारा वहां जाता, तो निःसंदेह इस बार स्थिति पलट जाने वाली थी! उसने चेताया था, कि अब दुबारा न लौटूं! लौटता तो अवश्य ही इस बार वो क्रोध में कुछ न कुछ करता ही! वो कुछ कर न पाये, इसीलिए इस अस्थि को ढाल बनाना आवश्यक था, साथ ही साथ, कुछ मंत्र एवं विद्याएँ भी संचरित करनी थीं, ताकि त्वरित संधान हो सके और अभीष्ट प्राप्त हो! ऐसी अस्थि को हाँकनि कहा जाता है! बड़े से बड़ा महाप्रेत भी एक बार को ख़ौफ़ज़दा हो ही जाता है! मुझे अभी तक तो, यही भान हुआ था कि ये भी कोई महाप्रेत है!
तो मित्रगण!
रात निकलते निकलते, साढ़े नौ बजे हम सिवाने पहुंचे! इंसान तो इंसान, एक श्वान तक तक न था यहां! कुछ ही दूरी पर, एक बाल-श्मशान था, पत्थर रखे हुए थे उधर, शायद बालकों को दफन किया जाता होगा उधर! या अन्य कोई और प्रयोजन हो, कह नहीं सकता! पेड़ वहां के अवश्य ही भुतहा थे! बड़े से बड़ा जीवट वाला भी यहां आ कर पसीना चाटने लगता! घुप्प अँधेरा और भयावह शान्ति! भूमि में, धंसते हुए पाँव, और संतुलन खराब करते! पेड़ों के मध्य ही, एक कुण्ड सा बना था, छोटा सा, शायद मुर्दों को अंतिम स्नान कराने हेतु! और एक छोटी सी पिंडी गड़ी थी, ये शायद स्थानीय देवता थे! उनके साथ ही, भोले नाथ जी का, त्रिशूल गड़ा था! शायद, सिवाने में ही किसी बाबा आदि ने गाड़ा हो!
"जगह?" बोले शर्मा जी,
मनोज जी की सिट्टी-पिट्टी गम थी! वो ये नहीं देख रहे थे कि हम क्या कर रहे हैं, बल्कि ये कि कहीं कोई आ तो नहीं रहा वहां!
"लाओ, सामान दो!" कहा मैंने,
"ये लो! इसी में है वो कपड़ा भी!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"और कुछ?" पूछा उन्होंने,
"माचिस?" कहा मैंने,
"सामान में ही है!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"टोर्च?" बोले वो,
"रुको ज़रा, पहले दिया जला लूँ!" कहा मैंने,
"हां ठीक!" बोले वो,
मैंने तेल डाला दीये में, बाती लगाई और जला लिया! रख दिया सम्मुख!
"अब आप, कुण्ड के पास बैठ जाओ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और मैं निकालने लगा सामान बाहर! वे दोनों, चले गए वापिस!
ईंधन निकला, स्थान-कीलन किया, आज्ञा ली, वंदना की! स्थानाधीश से विनती की, और एक अलख-नाद किया! और फिर..........!
आरम्भ किया मैंने क्रिया-कलाप अपना! मंत्र ध्वनि से पूरा सिवाना जाग उठा! जलती हुई अग्नि, बावरी सी हो, मचलने लगी! मैं एक एक मंत्र जपता चला गया! और तब निकाली अस्थि! रखी पान के पत्ते पर! जोड़े हाथ! मदिरा की छींटे चढायीं! मांस के टुकड़े सजाये! और आरम्भ किया अभिमंत्रण!
मैं आगे बढ़ता रहा! संचरण करता रहा! और फिर........!
मुझे करीब एक घंटा लगा उधर, वो सब निबटाने में! अस्थि को अभिमंत्रित कर लिया था और अपनी कुछ आवश्यक विद्याएँ, जागृत कर ली थीं! इनके सहारे मैं अब उस शय से आमने सामने हो सकता था! निबटाने के बाद, अलख शांत की मैंने, और रेत से ढांप दिया! गाँव-देहात का मामला था, कोई चिंगारी-पतंगा भी शेष रहे, तो कहीं भूड़ ही न आग पकड़ ले! इसीलिए आग तो बुझा ही दी थी मैंने! मांस के टुकड़े, किसी पशु आदि के खाने के लिए, वहीँ, एक जगह रख दिए थे, किसी का पेट भी भर जाता उनसे, हाँ, जो दीया था, वो स्वतः ही मंगल होना था, इसीलिए मैं उसको उठा लाया था, शर्मा जी और मनोज जी जहां बैठे थे, वहीँ पिंडी के समक्ष रख दिया था, हाथ जोड़ लिए थे, स्थानीय देवता से भी विनती कर ली थी! तदोपरांत हम निकले वहां से!
"अब गुरु जी?" बोले मनोज जी,
"अब सीधे वहीँ चलो!" कहा मैंने,
"उधर ही?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, कोई डर है तो घर चले जाओ, मैं और ये चले जाएंगे?" कहा मैंने,
"आपके रहते डर नहीं, पर कभी ऐसा देखा नहीं जी, तो मन में पता नहीं क्या क्या चलता रहता है!" बोले वो,
"तो आप घर चले जाओ!" कहा मैंने,
"जी, क्षमा चाहूंगा!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, बल्कि इस से हमें ही मदद मिलेगी!" कहा मैंने,
तो उनको घर छोड़ा और हम वहां से, पानी आदि लेकर, चल दिए उस स्थान के लिए! अब पता नहीं क्या प्रतिक्रिया हो उसकी! इसीलिए, अब से, इसी क्षण से, एक एक कदम फूंक-फांक के ही रखना था!
हम वहां पहुंच गए, इस बार गाड़ी मैंने पेड़ों के बीच नहीं लगवायी, बल्कि सड़क से पहले ही, मोड़ पर ही लगवा दी थी, थे तो यहां भी पेड़ ही, लेकिन सघन नहीं थे! सघन पेड़ों के बीच समस्या हो सकती थी!
"आप यहीं रहना, और सावधान!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक! समझ गया!" बोले वो,
"ये माल, और माला, मेरे जाते ही धारण कर लेना!" कहा मैंने,
"हाँ, कर लूंगा!" कहा उन्होंने,
"चाहे कितनी भी आवाज़ आये, जाना नहीं बाहर!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"अब मैं चलता हूँ उधर!" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो,
और मैं, वो सामान लिए, चला वहाँ से फिर! यातायात चल रहा था, तो अकेलेपन में कुछ तो छेद दीख ही रहा था! अब डूबते को तिनके का सहारा ही बहुत होता है! सन्नाटा असहय ही पाँव पसार, लम्बी तान ले रहा था! मेरे जाने से, अवश्य ही खलल पड़ती, टोर्च की रौशनी के सहारे ही, मैंने सड़क पार की, वो अस्थि अब, गले में लटका ली! माल में लपेट कर! मन ही मन, एक विद्या का जाप करता रहा! और तब, आ खड़ा हुआ उधर ही! वहां आते ही, मुझे ये आभास होने लगा था कि यहां किसी की सत्ता विद्यमान है! कोई विशेष ही सत्ता!
मैं अवलोकन करने लगा आसपास का! कभी दायें और कभी बाएं! ज़रा सी भी हरकत होती, तो फौरन ही टोर्च की रौशनी वहीँ मार देता! आज वैसे चांदनी भी खिली हुई थी, अँधेरा तो था, परन्तु आँखें अभ्यस्त हो जाया करती हैं शीघ्र ही! और अँधेरे से भी मित्रता कर ही लिया करती हैं! मैं अभी बस खड़ा ही हुआ था कि, कुछ मंद मंद सी आवाज़ आई! मंद मंद! जैसे कोई भूमि को संकेर रहा हो! ये आवाज़, आ कहाँ से रही थी? और भला रात के इस वक़्त किसी ज़रूरत आन पड़ी संकेरने की! ये आवाज़, धीरे धीरे तेज, और तेज, और तेज होने लगी! कानों में पड़ने लगी तेज तेज! हर तरफ से! हर तरफ से ही!
"सामने आ!" कहा मैंने,
आवाज़, बंद!
और हुलारा, फिर से गया जाने लगा! अब तक तो मुझे ये पता चल ही गया था, कि जब भी उसकी आमद हुआ करती है, तभी ये हुलारा सा बजने लगता है! अब मैं मुस्तैद था! और, तत्क्षण ही तैयार! हम कुछ भी विलम्ब करना, अपना अहित करना ही था! इसीलिए, मैं पूरी तरह से, चाक-चौबंद था!
"सामने आ!" कहा मैंने,
अभी तक तो कोई नहीं आया!
मैं ज़रा सी भी हरकत पर, नज़र रखे हुआ था! पता नहीं, कब कोई शाख ही टूट पड़े! पता नहीं, कब पांवों के नीचे, गड्ढा ही बन जाए! वो अस्थि, हालांकि मुझे उसके उन प्रहारों से ढाल की तरह से बचाती, लेकिन वो भी जब तक, जब तक वो मेरे गले में पड़ी थी! यदि वही टूट जाती और गिर जाती, तब तो बड़ी ही भारी मुसीबत आ पड़ती!
"सामने आ! आ सामने?" इस बार चीख कर बोला मैं!
और तभी कुछ रौशनी सी जगमगाईं!
ठीक सामने, कोई पचास फ़ीट दूर! मेरी नज़रें वहीं टिक गयीं! ये रौशनियां, प्रेताग्नि थीं! श्वेत! दूधिया जैसी! ऐसी ही होती हैं ये प्रेताग्नि! प्रेतों में से, रात्रि-समय ऐसी ही श्वेताग्नि सी निकलती प्रतीत हुआ करती हैं! दरअसल, ये हमें ही ऐसी दिखाई देती हैं! आसपास के वातावरण से, प्रकाश के कण अवशोषित कर लिया करती हैं उनकी नैसर्गिकता! ये एक अजब ही संसार है! एक अजब ही! एक समानांतर संसार! जो हमारे संसार के साथ साथ आगे बढ़ता चला जाता है!
हाँ, तो वो प्रेताग्नि सामने ही, नाच रही थीं! अधिकाँश लोग, इन्हें, खासतौर पर, आधुनिक विज्ञान, इनको प्रकाश-पिंड, फायर-बॉल्स कहता है! कई लोगों ने इन्हें देखा है! पश्चिम-बंगाल की एक झील है, जहाँ ये प्रकाश-पिंड देखे जा सकते हैं, हवा में तैरते हुए! विज्ञान इन्हें, विषैली गैसों से निकलती ऊष्मा कहता है, जो जल से निकल कर, फूट कर, हमारे वातावरण या ऑक्सीजन के सम्पर्क में आते ही, धधक उठते हैं! विज्ञान की दृष्टि से ये सम्भव है! ऐसा होता भी है! मीथेन, एवं मस्टर्ड गैस के कारण ऐसा होना सम्भव है! परन्तु इस विषय पर विज्ञान कुछ नहीं कहता कि उनका आकार, गोल ही क्यों होता है? फिर, वे प्रकाश-पिंड, झील के एक कोने से, दूसरे कोने से, बिना नष्ट हुए, कैसे यात्रा कर लिया करते हैं? कुछ स्थानीय किवदंतियां हैं वहाँ! किवदंतियां रातोंरात नहीं बना करतीं! कुछ आधार अवश्य ही होता है उनमे! कुछ ऐसा, जो मानवीय-समझ से या तो परे होता है अथवा जिसका विश्लेषण नहीं किया जा सका होगा! तो किवदंतियां ये है, कि वो झील मुहाना है किसी और लोक का, मुख्यतः, सम्भवतः पाताल लोक का! दूसरी ये, कि यहां कई सारी अभिशप्त आत्माएं क़ैद हैं! तीसरी ये कि यहां किसी देवी का श्राप है, ये झील, झील न होकर कभी, कोई ग्राम था, देवी ने कुपित हो कर, यहां सभी को अभिशप्त कर दिया! फलस्वरूप आत्माएं यहां क़ैद हो गयीं हैं! खैर स्पष्टीकरण कुछ भी हो! विज्ञान को कभी भी दरकिनार नहीं करना चाहिए! यदि विज्ञान किसी प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है, अभी, तो सम्भवतः किसी और दिन, किसी और समय इसका उत्तर भी मिल ही जाएगा! विज्ञान, कारण और पर्याय के नियम पर कार्य करता है! पृथ्वी पर पाये जाने वाले नियम, ब्रह्माण्ड में बदल जाते हैं! आज भी विज्ञान सृष्टि के समय और कारण हो, नहीं समझ सका है! यदि गुरुत्व है, तो कुछ और भी सापेक्षिक शक्ति है जो इसको, फैलने या घटने से रोकती होगी!या स्थायित्व प्रदान करती होगी! इसी कारण से, सौरमंडल के गृह, अपनी अपनी कक्षा में, सूर्य की परिक्रमा करते हैं! तो वो सापेक्षिक शक्ति है क्या? विज्ञान एवं वैज्ञानिक इसी को, डार्क-मैटर कहते हैं! और हैरत की बात ये, कि इसी शक्ति के विषय में, हमारे प्राचीन ज्ञान भंडारों में उल्लेख भी है! कोलकाता के समीप ढाकुना झील भी कुछ ऐसी ही जगह है! खैर साहब, ये संसार अजब-गज़ब है! यहां अनजान से ताने-बाने हैं! कुछ खुलते हैं, कुछ बंद होते हैं! कुछ, कुछ समय के लिए दृश्यमान होते हैं, और कुछ सदा के लिए रहस्य के गर्भ में जा छिपे हैं!
चलिए, अब घटना!
तो वे प्रेताग्नियाँ अब आकृति का रूप ली लगी थीं! रूप लिया, तो ये सब वही प्रेत थे! वही सब, जो धूनी सूंघा करते थे! अब समझ में आया मुझे! ये शक्ति, जो भी थी, ये इनको संग ही लायी थी! ये शक्ति, राजसिक होने का सा आभास देती थी मुझे! राजसिक श्रेणी में, ब्रह्मपिशाच, महापिशाच, ब्रह्म-राक्षस, आद्य-राक्षस, कपो-राक्षस, श्रृंग-शाकिनि आती हैं! ये परम राजसिक हुआ करती हैं! यक्ष, गान्धर्व भी परम-राजसिक श्रेणी में आते हैं! ये महाभीषण, वर देने में समर्थ एवं प्रत्येक विद्या में निपुणता को प्राप्त हुए, हुए होते हैं! भारत में, कई स्थानीय देवी देवताओं में इन्हीं का ही स्वरुप मिलता है! ये साधना द्वारा भी सिद्ध किये जाते हैं! सिद्ध करने का अर्थ ये नहीं वे वे आपके दास हुए, अपितु किस अमुक कार्य-साधन आपने इनका आह्वान किया, वो कार्य आपका सफल हो, यही सिद्धि प्राप्त होती है!
अचानक से, वो प्रेताग्नि लोप हो गयी! हुलारा भी बंद हो गया! और सामने से, ठीक ऐसी आवाज़ें आने लगीं जैसे दूर कहीं किसी पहाड़ी पर स्थिति, किसी मंदिर से, वज्र-घंटाल के बजने की आवाज़ आ रही हो! जिस बड़े घंटे में, दो-तरफा रस्सी हुआ करती है, फलक में, लोलक में उसके, ये विपरीत दिशाओं में खींचने से बजाया जाता है, उसे वज्र-घंटाल कहते हैं! पहले ये भारत में भी थे, अब नाम-मात्र के शेष हैं! ये कुछ सिक्किम, भूटान, तिब्बत के बौद्ध-मठों में बजाए जाते हैं! इनकी आवाज़, बड़ी ही भारी और दूर तक पहुंचने वाली होती है! दक्षिण भारत के शिवालयों में ये आज भी देखे जा सकते हैं, परन्तु अब प्रयोग में नहीं हैं! तो यहां जो आवाज़ आई थी, आ रही थी कानों में, वो निःसंदेह वज्र-घंटाल की ही थी! इसकी आवृति समान, और पुनरावृति भी समान ही थी! या तो ये दैविक था या फिर मायावी!
मैं जस का तस, वहीँ खड़ा रहा! और फिर, मुझे कुछ ऐसी आवाज़ें सुनाई दी, जैसे कोई विशाल सा वृष, नथुने फफकार रहा हो अपने! मैं, एक पल को ठिठक गया! कहीं ये वृष, टक्कर ही न मार दे! कहीं द्रुत वेग से, टकरा ही न जाए! मानवीय-सोच में, उसकी देह को संचालित करने वाला मस्तिष्क, अपने हिसाब से आंकलन किया करता है! सोच में, दो-फाड़ से होने लगते हैं! मैं वहीँ खड़ा था! एक स्याह सी, गहरी स्याह सी, आकृति सम्मुख प्रकट हुई! करीब दस फ़ीट आगे! घंटाल-ध्वनि, शुष्क पड़ गयी! हुलारा गूँज उठा! और उसके साथ ही, प्रकट हुआ एक भीषण कायाधारी! वज्र समान देह! कांधों पर, कंधशूलि रखे! वक्ष पर, घोर-आभूषण सा धारण किये! देखने में तो ऐसा लगे जैसे कोई यक्ष या गान्धर्व सा! हाँ, चेहरा नहीं दिख रहा था, वो स्याह ही था, स्याह तो वो भी था, परन्तु जो कुछ झलक रहा था, वही बता रहा हूँ! ऐसी विशाल देह या तो किसी महाप्रेत की होगी या फिर किसी ब्रह्म-राक्षस की! आद्य-राक्षस भी स्याह हुआ करते हैं! छायापुरुष-सिद्धि में इसी आद्य-राक्षस का ही आह्वान हुआ करता है! ये अत्यंत ही भीमकाट, उन्मत्त एवं वृषभ समान, बली हुआ करते हैं! जो शब्द अक्सर मंत्रों में, पूजन में, आता है, वीर, उनका अर्थ यही होता है! इन्हें ही वीर की संज्ञा प्राप्त है! ये वीर, देवी के, देवताओं के आदि के रूप में उनकी सेवा में सदैव उपस्थित रहते हैं! कैसे अजीब सी बात है न? सोचिये! श्री हनुमान जी के वीर हैं मसान वीर! दोनों की प्रवृति अलग! प्रकृति अलग! पूजा अलग, विधान अलग! है या नहीं? श्री हनुमान जी का नाम लेने से क्यों भूत-प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है? कारण यही है, मसान वीर! मसान वीर, अपने वचन में बंधे हैं श्री हनुमान जी से! और तंत्र में तो श्री हनुमान जी, स्वयं ही देवी श्री के महावीरों में से एक हैं! जैसे कालिया या कालू वीर! लालिया या लाल वीर! नाहर सिंह वीर! अग्गन वीर! आदि आदि!
"तू नहीं लौटा?" बोला वो, गरज कर!
"नहीं!" कहा मैंने,
"जा! लौट जा!" बोला वो,
"नहीं, अपना परिचय तो दे?" कहा मैंने,
''लौट जा! जा?" पूछा उसने,
"ऐसे नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने,
"प्राण शेष न रहेंगे!" बोला वो,
"ऐसा भी नहीं!" कहा मैंने,
"पुनः अवसर देता हूँ, जा!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तेरा हठ, लाभप्रद नहीं!" बोला वो,
"देखूं तो?" कहा मैंने,
"तू नहीं जाना मैं कौन हूँ?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं सर्वांग हूँ!" बोला वो,
"सभी कहते हैं!" जवाब दिया मैंने,
उसने, मेरा जवाब सुन कर, ज़ोरदार अट्ठहास खींचा! ऐसा भीषण अट्ठहास था, कि यदि मैं मंत्रों में न बंधा होता, तो शायद देह में छिद्रण ही हो जाता!
"तू भाग्यशाली है!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"अभी तक जीवित है!" बोला वो,
"ये मेरा भाग्य नहीं!" कहा मैंने,
उसे अचरज हुआ! कुछ झुका वो!
"हाँ, ये मेरा भाग्य नहीं, तेरा दुर्भाग्य है!" कहा मैंने,
एक और अट्ठहास! खुल कर! गाल बजाता हुआ!
"प्रसन्न हुआ मैं!" बोला वो,
"दुर्भाग्य पर?" पूछा मैंने,
"तेरी मूढ़ता पर!" बोला वो,
"अब बता? कौन है तू?" पूछा मैंने,
"जान ले!" बोला वो,
"बता दे?' कहा मैंने,
"सर्वांग हूँ!" बोला वो,
"कौन सर्वांग?" पूछा उसने,
"मूर्ख!" चीखा वो!
"बता फिर?" कहा मैंने,
"क्या समझता है?" बोला वो,
"कापणी!" कहा मैंने,
एक और अट्ठहास! अट्ठहास में श्वास अधिक, स्वर कम!
"समर्थ है?" बोला वो,
''परीक्षण कर!" कहा मैंने,
"डटा है अभी तक!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''सुन?" बोला वो, हाथ आगे बढ़ाकर!
मेरे परिजनों का विलाप! ये सब तो होता ही है! एक एक आवाज़ सुनाई दे रही थी मुझे! एक एक आवाज़ उनकी! जो हैं, उनकी भी, जो नहीं, उनकी भी!
"मुक्ति ही अ हो तो?" बोला वो,
"तुझसे कहाँ सम्भव!" कहा मैंने,
मुस्कुराया वो, कुछ श्वास छोड़ते हुए!
"जा!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तू दया का पात्र है!" बोला वो,
"तेरी दया?'' पूछा मैंने,
"हाँ, सर्वांग प्रसन्न हुआ!" बोला वो,
"मेरा अहोभाग्य!" कहा मैंने,
"स्वीकार कर!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"जो इच्छा!" बोला वो,
दम्भ से भरा था! कूट कूट कर! परन्तु, मुझे भान था! लालच में आ कर, उसका ग्रास ही बन जाना होता है! इतनी सरलता से ये यदि प्रसन्न हो जाएँ, तो हर तीसरा व्यक्ति, महातांत्रिक ही हो जाए संसार का!
"बता?'' बोला मैं,
"सम्पत्ति?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"धन?" बोला वो, हाथ घुमाते हुए!
और हर तरफ, स्वर्ण का भंडार! अथाह धन! नेत्रों में धन की चमक!
"ले ले!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"स्वप्सिका?" बोला वो,
ओह! कितना ही प्राचीन एवं गूढ़ शब्द बोला था वो! ऐसा सुख, जिसकी बस कल्पना ही हो सके, और चुटकी बजाते ही, वो आपके सम्मुख हो! स्वप्सिका! कहते हैं, श्री बाबा बालक नाथ जी ने, अनेकों महा-स्वप्सिकाएँ त्याग की थीं!
तो मुझे यहां पर कच्चा, एकदम कच्चा लालच दिया जा रहा था! मैं सब जानता था, ये जितने भी हैं, इसी प्रकार प्रलोभन दिया करते हैं! यदि मैं हां कहता, तो भी क्या मुझे ये प्राप्त होता? नहीं! कदापि नहीं! ये मेरी हार ही होती और फिर अंत निकट ही था! इसीलिए ये कच्चा लालच कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए!
"बोल? स्वप्सिका?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कारण?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला मैं,
"मिथ्या है?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब तू मूर्ख है!" बोला वो,
"हाँ, मूर्ख हूँ!" कहा मैंने,
"मैं असत्य नहीं कहता!" बोला वो,
"मैंने भी नहीं कहा!" कहा मैंने,
"तो मैं, स्वीकार, मानूं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"स्वीकार नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"स्पष्ट?? बोला वो,
"हाँ, स्पष्ट!" कहा मैंने,
"ऐसा अवसर, नहीं मिलता!" बोला वो,
"नहीं चाहिए!" कहा मैंने,
फिर से एक अट्ठहास! इस बार, ज़रा हल्का सा, परन्तु स्पष्ट रूप से, उपहास भरा!
"ये मूर्त है?' बोला वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"मैं नहीं!" बोला वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"परन्तु, क्या मैं सबल नहीं?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"रचित है?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"न हो?'' पूछा उसने,
"सम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"कुशल है!" बोला वो,
"माना!" कहा मैंने,
"परन्तु!!! मूढ़ भी!" बोला वो,
"हाँ, हूँ!" कहा मैंने,
"मैं प्रसन्न हूँ!" बोला वो,
"अभी भी?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तो परिचय दो?" कहा मैंने,
"परिचय?" पूछा उसने,
"हाँ, परिचय!" कहा मैंने,
"सर्वांग ही, पर्याप्त नहीं?'' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"उत्तम!" बोला वो,
"तब परिचय!" कहा मैंने,
"यथमेव!" बोला वो,
"परिचय?" कहा मैंने,
"नहीं भान हुआ?'' बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हुआ?'' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्रित्रेश यथमेव!" बोला वो,
"नहीं!" बोला मैं,
अट्ठहास! इस बार प्रबल अट्ठहास!
"वर्षों व्यतीत हुए!" बोला वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"वर्षों!" बोला वो,
"कारण?" पूछा मैंने,
"मैं?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"मैं!" बोला वो,
"तू? कारण?" पूछा मैंने,
"हाँ, मैं!" बोला वो!
अब यहां मैं अवरोधित हुआ! कारण? किस भाव में कारण?
"हाँ! मैं!" बोला वो,
"स्पष्ट कहो?" कहा मैंने,
"मैं ही हूँ कारण!" बोला वो,
"वर्षों व्यतीत हुए, तुम्हारे कारण?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
नहीं आया समझ! कोई गहरी ही बात थी!
"मैं नहीं जान सका?'' कहा मैंने,
"मूढ़!" बोला वो,
"हाँ, तभी तो?" कहा मैंने,
"मूर्त!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लघुत्तऱ!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कारण, मैं ही हूँ!" बोला वो,
"आज्ञा हो, तो मैं पूछूं?" कहा मैंने,
"प्रसन्न! प्रसन्न!" बोल वो,
"तुम कौन हो?" पूछा मैंने,
"सर्वांग!" बोला वो,
"वो तो सभी कहते हैं!" कहा मैंने,
"मात्र मैं ही हूँ!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"प्रश्न नहीं!" बोला दहाड़ कर!
नहीं आया पसंद मेरा ये कुटिल सा प्रश्न उसे!
"कौन हो?" पूछा मैंने,
"सर्वांग!" दहाड़ा वो!
"नहीं!" कहा मैंने,
"तू कौन?" बोला वो,
"सर्वांग!" कहा मैंने,
दहाड़ पड़ा! फट पड़ता अट्ठहास में ही! लेकिन, वाक्-चातुर्य का धनी था ये! अत्यंत ही धनी!
"तू?" बोला वो,
"हाँ, सर्वांग!" कहा मैंने,
और लोप! अगले ही क्षण लोप! पता नहीं क्यों! घंटाल बजा! हुलारा उठने लगा! और कुछ अजीब से स्वर! जैसे, कई लो, एक साथ, हामी भर रहे हों! हूँ! हूँ! करते हुए!
वो लोप हो गया था! वैसे मैंने किसी बात पर खिन्न नहीं किया था उसे! न ही मेरी ऐसी कोई मंशा ही थी! लेकिन एक बात? जो मुझे अभी तक समझ नहीं आ रही थी! वो ये, की ये अपना परिचय क्यों नहीं दे रहा था? ऐसी क्या विवशता थी? या ऐसा कौन सा कारण था? वो अपने आपको, सर्वांग की संज्ञा दे रहा था! सर्वांग की संज्ञा तो ये अशरीरी, सभी देते हैं! इसमें कोई विशेष बात तो थी ही नहीं?
"अपना परिचय दो?" कहा मैंने,
अब वो चुप! मूर्ति सा बना, देखे मुझे!
''दो, अपना परिचय दो!" कहा मैंने,
नज़रों से बींधे मुझे! आँखें ऐसी, जैसे काजल लपेटा हो इर्द-गिर्द उनके!
"दो? परिचय दो?" कहा मैंने,
कुछ पल शान्ति!
और फिर!
"परिचय?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हेतु?'' पूछा उसने,
"जानना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
"हेतु?" पूछा उसने,
"जाना चाहता हूँ!" कहा मैंने,
एक हल्का सा अट्ठहास! भूमि तक को सिहरा गया!
"मैं, महापिशाच हूँ!" बोला वो!
मेरे पांवों के नीचे की ज़मी जैसे दहली! मेरी सभी तैयारियां, पूर्ण रूप से पर्याप्त नहीं थीं! और वो, ये जानता ही होगा! परन्तु उसने न कोई चेष्टा ही ही! न कोई क्षति ही पहुंचाई! महापिशाच तो, अतुलनीय शक्ति के धारक हुआ करते हैं! उप-उप-देव में कई स्थान पर पूज्य हैं!
"तुम इस स्थान पर, इस शोचनीय स्थान पर, क्या कर रहे हो?" पूछा मैंने,
"जानना चाहते हो?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"देवठाला में वास है मेरा!" बोला वो,
"है?" पूछा मैंने,
"हाँ, है!" बोला वो,
"अभी भी है?" पूछा मैंने,
"हाँ, है!" बोला वो,
देवठाला, कोई स्थान होगा, शायद, पहले का कोई, अब तो ये नाम मैंने सुना भी नहीं! और कम से कम, न आसपास में ही रहा होगा, न उसके आसपास ही! शायद.....शायद, क्या वही, जो सोच रहा था मैं? हाँ, मैंने बाद में जांच की थी, जयपुर जिले की चोमू तहसील में एक स्थान पड़ता है, बाध-देवठाला! यही था वो स्थान! ये प्राचीन स्थान रहा होगा! यहीं इसी स्थान पर, इस महापिशाच का वास रहा होगा!
"अच्छा, बताओ?" कहा मैंने,
एक बार को वो गरजा! बहुत ही तेज! और अगले ही क्षण! लोप! मैं प्रतीक्षारत ही रहा! परन्तु नहीं हुआ वो प्रकट! बहुत देर हुई! अब तो मैं खड़ा भी न हो पा रहा था! घड़ी में समय देखा, चार का समय बस होने को ही था! उक्त-बेल तो निकल चुकी थी! आह्वान कर नहीं सकता था! अब लौटना ही उचित था! कुछ तो समझ आया था, परन्तु कारण समझ नहीं आया था!
तो मैं वापिस लौट आया! गाड़ी सड़क पार ही खड़ी थी, मैं गया वहां तक, अंदर, शर्मा जी, टेक लगाये सो गए थे! खटखटाया शीशा, खुली नींद! मुझ देखा और झट से दरवाज़ा खोल दिया!
मैं आ गया अंदर! अंदर आया तो सीट की टेक मिली! टेक मिली तो राहत हुई! और तब मैंने पानी पिया! हलक सूख गया था मेरा!
"कुछ पता चला?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ! अच्छा!" बोले वो,
''चल गया पता!" कहा मैंने,
"कौन है?" पूछा उन्होंने,
"कभी सोच भी नहीं सकते!" कहा मैंने,
"अच्छा? क्या है?" बोले वो,
"महापिशाच!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो, हैरत से, पेशानी खुजा ली अपनी उन्होंने!
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां?" बोले वो,
"हाँ, यहीं!" कहा मैंने,
"यहां कैसे आया?'' पूछा उन्होंने,
"यही न जान पाया!" बोला मैं!
"अरे? क्यों?" पूछा उन्होंने,
"शायद समय-संधि आन पहुंची थी!" कहा मैंने,
"यहीं है आरम्भ से?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"किसी देवठाला में वास है उसका!" बोला मैं,
"ये क्या है?'' पूछा उन्होंने,
"मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"कोई जगह ही होगी?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"कल पता करते हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब चलें?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
अब गाड़ी की स्टार्ट, और चल पड़े वापिस!
"कुछ टेढ़ा पेंच लगता है इसमें!" बोले वो,
"मुझे भी!" कहा मैंने,
"देवठाला मैं वास है, तो यहां कैसे?" पूछा उन्होंने,
"यही तो!" कहा मैंने,
मुझे जम्हाइयां आने लगी थीं अब!
"चलो, कल करते हैं पता!" बोले वो,
"हाँ, अब सीधा घर ले लो!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोले वो,
मैंने कीं आँखें बंद, और लगा लिया सर पीछे! और चलते रहे वापिस!
तो हम आ गए थे वापिस! आते ही हाथ-मुंह धोये, पानी पिया, सामान रखा, और फिर चारपाई पकड़ी! आज छत पर चारपाई लगाई गयी थी, दरअसल मैंने ही कहा था! अंदर कमरे में भभका सा हो उठता था, और बिजली रानी का तो कुछ पता ही नहीं होता था कि कब आये और कब जाए! पंखा बेचारा कभी कभी ही अपनी गर्दन हिलाता था! इन्वर्टर भी क्या करे! तो मैंने बाहर ही लगवायी थी चारपाई, कम से कम ठंडक तो थी वहाँ! तो हम आराम और इत्मीनान से सो गए थे!
सुबह, सूरज महाराज की धूप ने गाली-गलौज कर हमें उठा दिया, अंदर भागे, और फिर जा सोये! नींद की खुमारी थी! लेटते ही, फिर से नींद आ गयी! कुछ ही देर में खर्राटे बज उठे होंगे!
तो हमारी नींद खुली करीब साढ़े ग्यारह बजे! तब हुई जाकर, देह सीधी! नहाये-धोये, और फारिग हो, आराम से चाय का मजा लिया! और फिर से आराम किया! आज शाम, गाँव में ही एक दावत थी, हमे भी बुलाया गया था! गाँव का भोजन अब कौन छोड़े! वैसे एक बात है, अब गाँव, वैसे गाँव नहीं रह गए! अब वे भी शहरी हो गए हैं! अब वो पहले वाली बात न रही! वो आलू और काशीफल का साग, वो पूरियां, वो रायता, वो दही और वो बड़े बड़े लड्डू! सब इस आधुनिकता की भेंट चढ़ गए! जो पुराने कारीगर थे, हलवाई आदि थे, अब रहे नहीं! उनके पुत्रादि भी किसी और व्यवसाय में चले गए! बहुत देखा था अपने पिता को, आलू छिलवाते हुए! सो अब जो बचे हैं, वो अब कैटरिंग की तरफ दौड़ चले! इस आधुनिकता ने, सच में हमारी संस्कृति का बेडा ग़र्क़ कर ही दिया है! खैर, अब क्या किया जाए!
दोपहर में भोजन किया! बढ़िया, चूल्हे वाली अरहर की दाल! आम का आचार, हरी मिर्च, प्याज और चूल्हे की पानी वाली रोटियां! सिल पर पीसी हुई लाल मिर्च की चटनी! साथ में मूली-मूंग दाल की भुजिया! बहुत ही बढ़िया रहा हमारा भोजन!
दोपहर बाद, मुझे याद आया कुछ! मैंने शर्मा जी से ही पूछा, शर्मा जी ने, मनोज जी को बुला लिया था, आज प्रदीप जी भी घर में थे, शर्मा जी ने उन्हें, अब तक की सारी कहानी सुना ही दी थी! उन्हें बड़ी ही हैरत हुई थी, कि ऐसा महाभट्ट यहां कैसे आ पहुंचा? कोई छोड़ तो नहीं गया? आदि आदि सवाल!
"प्रदीप जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"देवठाला, नाम सुना है?" पूछा मैंने,
"देवठाला?'' बोले वो,
"हाँ जी?' कहा मैंने,
"नहीं सुना जी" बोले वो,
"कोई गाँव है?" पूछा मनोज जी ने,
"गाँव ही होगा?" कहा शर्मा जी ने,
"अजी यहां सैंकड़ों गाँव हैं, न जाने कौन सा हो?" बोले वो,
"तो कैसे पता करें?" पूछा मैंने,
"मोबाइल पर देखता हूँ" बोले वो,
और हुआ कमाल!
मिल गया ये स्थान!
ये स्थान, जयपुर जिले की चोमू तहसील में पड़ता है! भिवाड़ी से यहां तक की दूरी करीब एक सौ अस्सी किलोमीटर बैठती है! मुझे ऐसी ही उम्मीद थी!
"कमाल है! है ये जगह!" बोले मनोज जी!
"मैंने तो नाम ही पहली बार सुना!" कहा मैंने,
"मैंने भी जी!" बोले वो,
"अब करना क्या है?" पूछा शर्मा जी ने,
"अभी तो कुछ नहीं, लेकिन हो सकता है, ज़रूरत पड़े!" कहा मैंने,
"तो कोई बात नहीं जी!" बोले प्रदीप!
"चल लेंगे!" बोले मनोज जी!
"ठीक!" कहा मैंने,
शाम के समय दावत में गए! खाना खाया, कुछ बातें हुईं, और एक आदमी से मुलाक़ात करवाई मनोज जी ने! इस आदमी के साथ भी कुछ हुआ था! ये आदमी कोई, पचास बरस का, सरकारी नौकरी करता है जयपुर में!
"क्या देखा था जी आपने?'' पूछा मैंने,
"उस दिन मैं शाम को चला था गाँव के लिए, करीब आठ से पहले!" बोला वो,
'अच्छा, जयपुर से?" पूछा मैंने,
"हाँ, थोड़ा पहले से ही" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अकेले ही थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"जब मैं उस मोड़ तक आया, तो सामने कुछ देखा मैंने!" बोला वो,
"क्या बजा होगा?' पूछा मैंने,
"बारह बजे होंगे" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो, और लगा ली बीड़ी! छोड़ा एक कश!
"फिर?" पूछा मैंने,
"यहां तो ऐसा था जैसे कई लोग, जात लगाने जा रहे हो!" बोला वो,
"अच्छा! पैदल?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"सारे पुरुष ही थे?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जनानी, बाल बच्चे भी थे!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" कहा उसने,
"कितने होंगे?" पूछा मैंने,
"कोई चालीस-पचास!" बोला वो,
"चालीस-पचास?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"किसी ने कुछ कहा नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, भजन सा गए रहे थे!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"तो सब चले गए?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, सारे!" बोला वो,
"कुछ अजीब सा लगा?" पूछा मैंने,
"हाँ! लगा!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कई कई लोग, बीच में बैठ जाते थे!" बोला वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"सड़क पर!" बोला वो,
"बीच में?" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
''तो?" पूछा मैंने,
"फिर उठते, और फिर चले जाते!" बोला वो,
"तो अजीब क्या?" पूछा मैंने,
"ये कि वो, आते जाते वाहनों से टकराते न थे!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
''तो क्या किया फिर?" पूछा मैंने,
"सीधा गाँव! सोचा, आज तो बला लगी पीछे!" बोला वो,
अजीब सी बात थी! चालीस-पचास लोग????
चालीस-पचास लोग? अब ये कौन हो सकते हैं? कहीं कोई जत्था ही तो नहीं देख लिया था उसने? रात का समय था, उसके मुताबिक़, और जत्था रात में तो नहीं जाने वाला, वो भी जब, जब साथ में औरतें और बाल-बच्चे हों! तो ये सब कौन थे? मान लिया प्रेत थे, वो फिर वो धूनी वाले? वे भी तो हैं? इसका मतलब क्या हुआ? यही ना, कि ये सभी, या तो उसके कैदी हैं और या.......या........फिर? मुरीद? आस्था रखने वाले?
दिमाग होने लगा गरम! देवठाला! उसका स्थान! उसका वास! क्या मतलब हुआ इसका? क्या ये कोई, स्थानीय देवता है? कोई स्थानीय शक्ति? अगर मान लिया कि हाँ, तो इसको यहां तक कौन ले आया? किसलिए ले आया?
ओह! अब समझा! कारण! उसने कहा था न, कि मैं ही कारण! हाँ! अब आ रहा है समझ! कारण वो खुद ही! क्या यही?
"क्या सोचने लगे?'' पूछा शर्मा जी ने,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' बोले वो,
"रुको ज़रा?" कहा मैंने,
मैं अपने आप में ही खोया हुआ था! समझ नहीं आ रहा था कि इसका अर्थ क्या हुआ? इस आदमी के अनुसार वे सभी ऐसे थे, जैसे जात लगाने जा रहे हों, जात, जैसे श्री गोगा वीर जी की लगती है! ठीक वैसी ही!
अब उत्तर कहाँ से मिले?
कहाँ से मिले?
सोच हुई गहरी! क्या इस महापिशाच से ही पूछा जाए? सबसे सरल तो यही प्रतीत होता है कि इसी से पता किया जाए कि आखिर ऐसा ही है क्या? कोई 'ठा के लाया उसे या वो स्वयं ही यहां आया?
हम आये वापिस! अब मुझे इतना तो समझ आ ही गया था, कि मेरा अहित वो नहीं करेगा! मेरा क्या, किसी का भी नहीं किया था अहित उसने! और तो और, उसने अभी तक, ये स्थान भी नहीं छोड़ा था! इसका तो साफ़ मतलब यही था, कि वो किसी विवशतावश ही यहां है, अब वो यहां क़ैद है, या वचन से बंधा है, ये ही जानना था! और हाँ, क्या मुझे उस पर, यक़ीन कर लेना चाहिए? ये से बड़ा सवाल!
उस रात करीब नौ बजे हम वहां पहुंचे! अब मुझे भय नहीं था, न जाने क्यों! न जाने! तो इसीलिए मैंने न तो कोई सामान ही लिया था संग अपने और न ही कोई कंठ-माल! आज कुछ प्रश्न थे, उत्तर मिल जाए तो तब कुछ विचार किया जाए! देवठाला और यहां तक की दूरी करीब एक सौ अस्सी किलोमीटर के आसपास ही बैठती है! यदि उत्तर देवठाला मे ही हैं, तो वहाँ जाना ही होगा! और कोई विकल्प नहीं है शेष!
तो मैं उस स्थान तक चला आया जिस स्थान पर कल था! सन्नाटा, हमेशा की तरह से पसरा था, हाँ, आज हवा ज़रूर चल रही थी, मंद मंद!
मैं खड़ा हुआ एक जगह! शांत सा! जैसे इंतज़ार हो और कोई मेरी ही प्रतीक्षा में हो! कुछ पल बीते! और तब, हुलारा सुनाई देने लगा! आज तो हुलारा सुनाई जैसे ही दिया, मेरे होंठों पर मुस्कान आ गयी!
कुछ शांत से पल गुजरे!
और तब, समक्ष, धूम्रवर्णी वही, स्याह सी आकृति उभरी! मैं मुस्तैद हो गया! आज तो, भीनी भीनी सुगन्धि भी फैलने लगी थी!
"पुनः?" गूंजी आवाज़,
"हाँ, पुनः!" कहा मैंने,
"प्रयोजन?'' आई आवाज़,
"कुछ प्रश्न!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" आई आवाज़!
"उत्तर का अभिलाषी हूँ!" कहा मैंने,
"प्रसन्न हूँ मैं!" गूंजी आवाज़!
''आज सच में, मेरा अहोभाग्य!" कहा मैंने,
हल्का सा अट्ठहास!
"पूछो!" बोला वो,
"देवठाला स्थान है आपका?" पूछा मैंने,
"हाँ, वास!" बोला वो,
"स्थापन हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसने?" कहा मैंने,
"सेंगर ने!" बोला वो,
"कौन सेंगर?" पूछा मैंने,
"धूनी बाबा!" बोला वो,
"धूनी बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"और आप?'' पूछा मैंने,
"प्रसन्न हुआ था!" बोला वो,
"ओह! साधना?" पूछा मैंने,
"हाँ, वचन!" बोला वो,
"आपका?" पूछा फिर मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"सेंगर थे वो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तो यहाँ?" पूछा मैंने,
"मैं ही हूँ कारण!" बोला वो,
"समझाइये?" पूछा मैंने,
"सरल नहीं!" बोला वो,
''अवसर?" कहा मैंने,
"नहीं, कुछ चाहिए!" बोला वो,
"चाहिए?' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"प्रस्तर-खंड!" बोला वो,
"प्रस्तर-खंड?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कैसा प्रस्तर-खंड?' पूछा मई,
"स्थान का!" बोला वो,
"वास-स्थल का?'' पूछा मैंने,
"निःसंन्देह वही!" कहा उसने,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"वहीँ!" बोला वो,
"देवठाला?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"परन्तु.....?" कहा मैंने,
"क्या परन्तु?" बोला वो,
ये सरल मानवीकरण था उसका! मेरे प्रत्येक शब्द से वे पहले से ही उसका अर्थ जान लेता था! ये उसका सामर्थ्य ही है! फिर भी, उसने पूछा मुझ से!
"परन्तु, देवठाला में कहाँ?" पूछा मैंने,
''साधनम् वश्यतु!" बोला वो,
मैं मुस्कुराया! समझ गया था मैं! सम्भवतः, ये भी एक परीक्षा थी!
"मैं सरल सा मनुष्य हूँ!" कहा मैंने,
"अभिभूत हूँ!" बोला वो,
"आशीष रखियेगा!" बोला मैंने,
और तभी!
तभी अपने देवरूपी रूप में पूर्ण प्रकट हो गया वो!
मित्रगण!
कैसा लगे कि आपसे दोगुना, कोई, अपने राजसिक से लिबास में, आपके समक्ष आ खड़ा हो! ऐसा, जैसा आपने कभी कल्पना भी न की हो! वो महापिशाच था! हाँ, अवश्य ही था! और ये, बड़ी ही गलत अवधारणा है कि पिशाच रक्तपिपासु होते हैं! रक्त का भोग, देह का भोग, अवश्य ही लगता था इनको! लोग अपने शत्रुओं की बलि चढ़ा देते थे इनको भेंट स्वरुप! सभी पिशाच रक्तपिपासु नहीं हुआ करते! कुछ मीठा मांगते हैं, कुछ खट्टा पदार्थ! और कुछ मांस-मदिरा! जो रक्त मांगते हैं, वे दुर्दांत हुआ करते हैं! क्षुद्र श्रेणी के हुआ करते हैं! ये तो कोई स्थानीय-देव था! पता नहीं, किस विवशता के वश में आ , यहां तक आ पहुंचा था!
"अवश्य!" गूंजा उसका नाद!
बज उठा वज्र-घंटाल!
मित्रगण! मन में दुर्भावना न हो, तो आप किसी से भी सम्मुख हो सकते हैं! भय से भाव बदल जाते हैं! दूर रहना ही अच्छा लगता है! परन्तु, ये संसार भय का नहीं! भय किसके लिए? प्राणो के लिए? स्मरण रहे! बिना ईश्वर की इच्छा के, कोई प्राण-हरण नहीं कर सकता! हाँ, ईश्वर होनी रचता है! और होनी अपने आप ही बुला लेती है अपने पास! आप सत्यनिष्ठ हो कर अपने मार्ग पर चलते रहे! सच कहता हूँ, विषैले कीड़े-मकौड़े काट भी लें, तो वे जहां विषहीन होंगे, वहीँ आप दोगुने सार्थ्यवान्!
मैंने प्रणाम किया उसे! और मन ही मन जैसे आज्ञा भी ले ली! और लौट पड़ा! वापिस आया, गाड़ी में बैठा! मन, प्रसन्न था!
खैर, अब जाना था हमें देवठाला!
"क्या रहा?" पूछा उन्होंने,
"जैसा मैंने सोचा था!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा मुझ से!
"कल देवठाला चलना है!" कहा मैंने,
"देवठाला?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"किस कारण से? वही?" बोले वो,
"हाँ, कोई प्रस्तर-खंड है वहां!" बोला मैं,
"तो?'' बोले वो,
"लाना है!" बोले वो,
"क्या?" बोले वो अचरज से!
"आप चलना, समझ जाओगे!" कहा मैंने,
"पहेली सी है!" बोले वो,
"मुझे भी यही लगा था!" बोला मैं,
"तो अब?" बोले वो,
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"कहिये?" बोले वो,
"वो एक स्थानीय-देव है!" कहा मैंने,
"हैं?" अवाक रह गए वो!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये क्या कह रहे हो?" बोले वो,
"सच!" कहा मैंने,
"स्थानीय-देव, और यहां?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यहां इस बीहड़ में?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई वास है?'' बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"एक मिनट! एक मिनट!" बोले वो,
"सोच लो!" कहा मैंने,
"स्थानीय-देव है! माना!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब यहां कैसे?" बोले वो,
"कोई लाया होगा?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"हाँ, कोई ले आया होगा!" कहा मैंने,
"हह? इतना सरल है क्या?' बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"स्थानीय-देवता को उठा कर लाना!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कहीं कोई चाल तो नहीं?'' पूछा मैंने,
मैं सकते में आ गया ये उत्तर सुन कर!
"अरे वाह शर्मा जी!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' बोले वो,
"मिल गया उत्तर!" कहा मैंने,
"कैसा उत्तर?'' बोले वो,
"एक सवाल का! जो मन में था मेरे!" कहा मैंने,
"क्या था भला वो सवाल?" बोले वो,
"यही कि आज ही क्यों नहीं बता दिया?" कहा मैंने,
"उसने?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मेरी समझ से बाहर है!" बोले वो,
और कर दिया इंजिन स्टार्ट!
"लेकिन मैं समझ गया!" कहा मैंने,
"तो समझाओ?" बोले वो,
किया इंजिन बंद फिर!
"यही कि कहीं चाल ही न हो! कहीं असत्य ही न हो! तो ऐसा क्या? जाकर देख लो, कि मैं सत्य कह रहा हूँ या असत्य! अब समझे आप?" कहा मैंने,
"हे भगवान!" बोले वो,
"समझे?'' बोला मैं,
"हाँ! हां समझा अब!" बोले वो,
और हम वहां से वापिस हुए फिर! अब हमारा गंतव्य था देवठाला! मैंने तो नामा ही जीवन में पहली बार सुना था इस जगह का! जाना तो दूर! ये स्थान, बाध-देवठाला कहलाता है, ये एक छोटा सा क़स्बा मान लीजिये, ऐसा है, चोमू तहसील के अंतर्गत आता है, जयपुर से तीस किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है! चोमू की इमारतें वर्ल्ड-हेरिटेज में हैं, और ये स्थान यात्रियों के लिए भी घूमने लायक है! समय बदल चुका है, स्थान वहीँ हैं, हाँ रूप बदल गया है! परन्तु, कुछ स्थान आज भी जीवित हैं! जिनको या तो स्थापित किया गया या वो वास ही रहे! राजस्थान में तो वैसे भी कई स्थानीय देवी-देवता आदि के वास-स्थल हैं! जो मुख्य-धारा से जुड़े रहे, वे आज तक सुरक्षित हैं जो नहीं जुड़ पाये या लोगों ने जहाँ से पलायन कर दिया, वे सब वहीँ के वहीँ रह गए! शायद, इस महापिशाच का स्थान भी ऐसा ही हो! मन तो हिलोरें उठ रही थीं कि ऐसा भाग्य कहाँ नसीब होता है हर किसी को! और एक तरफ ये भी चिंता थी, कि पता नहीं, वो स्थान अब है भी या नहीं शेष? कहीं कोई नव-निर्माण ही न हो गया हो, कही शेष भी है या नहीं! अब ये तो वहीँ जा कर पता चल सकता था! इसमें अपना खोजी, ही मदद करता! सुजान! सबसे पहले तो जयपुर जाना था, वहां से, चोमू की तरफ! और वहां से पूछताछ करनी थी!
"तो कब निकलें गुरु जी?" बोले मनोज जी,
"जब भी सम्भव हो?" कहा मैंने,
"कल सुबह ही निकल लें?'' बोले वो,
"ये भी अच्छा है!" कहा मैंने,
"तो फिर तय रही!" बोले वो,
मनोज जी, चले गए, भोजन की पूछी थी, लेकिन भूख नहीं लगी थी! अब तो भूख कुछ अलग ही थी!
"सोचिये!" बोले शर्मा जी,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"ऐसा भी होता है!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"कोई सोच भी नहीं सकता!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात?'' बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"जो उसको लाया होगा?'' बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो भी तो कुछ होगा ही!" बोले वो,
"हाँ, होगा!" कहा मैंने,
"कैसा धींगरा रहा होगा!" बोले वो,
"और कुछ नहीं सोचा?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"कि इसने, वचन भरा हो?'' बोला मैं,
"ओह...हाँ!" बोले वो,
"फिर वही, छल-कपट?" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"क्योंकि वो कहता है, कारण मैं ही हूँ!" बोला मैं,
"अरे हाँ!" बोले वो,
"तो यही हुआ होगा!" बोले वो,
"मुझे भी यही लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो, कौन पार पायेगा इस से?" बोले वो,
"यही तो?'' कहा मैंने,
"अभी भी धुंधला है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और ये प्रस्तर-खंड?" बोले वो,
"हाँ?'' कहा मैंने,
"ये भला क्या होता है?'' बोले वो,
"दो मायने हैं!" कहा मैंने,
"क्या क्या?'' बोले वो,
"पहला, कि जहां वो स्थल है, उसके द्वार का कोई खंड!" कहा मैंने,
"खंड? पत्थर?'' बोले वो,
"हाँ, हो सकता है!" कहा मैंने,
''और दूसरा?'' बोले वो,
"यदि द्वार न हो, तो भूमि के पत्थर का कोई खंड!" कहा मैंने,
"अच्छा!!" बोले वो,
"हाँ, समझे?" कहा मैंने,
"परन्तु?" बोले वो,
"क्या??" पूछा मैंने,
"उसका क्या औचित्य?" पूछा उन्होंने,
"मेरे लिए कुछ नहीं, न आपके लिए, उसके लिए क्या, पता नहीं!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"तो उस स्थाल का प्रस्तर-खंड?" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"टेढ़ी खीर है!" बोले वो,
"तभी तो मिली!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है ही!" कहा उन्होंने,
"कल चल रहे हैं न!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो कुछ तो मिलेगा!" कहा मैंने,
"ढूंढ ही लेंगे!" बोले वो,
"और क्या चाहिए!" बोला मैं,
"देख लो!" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"ये सूत्र! इस सूत्र में एक गाण्ठ आपके नाम की भी है!" बोले वो,
"हम सभी की!" कहा मैंने,
"हाँ! वाह रे उपरवाले!" बोले वो,
"सब उसी का खेल है!" कहा मैंने,
"निराले हैं उसके खेल!" बोले वो,
"सो तो हैं ही!" बोला मैं,
तभी मनोज जी आये! चाय ले आये थे! बैठे! चाय डाली और दे दी हमें!
"कभी गए हो उधर?" पूछा शर्मा जी ने उनसे!
"नहीं जी!" बोले वो,
"हम भी नहीं!" बोले वो,
"अब लिखा था जाना!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
"कल देखते हैं!" कहा मैंने,
"सुबह ही, अपना नाश्ता कर, निकल चलेंगे!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो जी, कुछ भला हो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन सोच सकता है!" बोले वो,
"ये तो सही कहा!" बोले शर्मा जी!
"ये लो!" बोले वो,
"नहीं और चाय नहीं!" कहा मैंने,
"आप ले लो शर्मा जी?" बोले वो,
"लाओ यार!" बोले वो,
और फिर चले गए वो! मैंने चाय पी ली थी, और लेट गया था! कैसा होगा वो स्थल? कैसा रहा होगा कभी? सेंगर राजपूतों का रहा होगा! संभव है!
"अच्छा जी!" बोले शर्मा जी,
"ठीक!" कहा मैंने,
और फिर हम, दोनों ही, अपने अपने बिस्तर पर लेने लगे करवटें! कल क्या हो, क्या पता चले, ये तो कल ही देखना था अब!
तो साहब! हुई सुबह! हम उठे! नींद ही कहाँ लगी थी! नींद तो बस जैसे, देवठाला गाँव या स्थल या उस वास-स्थल में लगी थी! बार बार नज़र, कलाई पर जाती, कलाई पर बंधी घड़ी, आज शरमा रही थी! आज निहार रहा था मैं उसे बार बार! घड़ी के कांटे, आज तो बातें कर रहे थे मुझ से! छोटी, पतली सी, सेकण्ड्स की सुईं, आज जैसे सुस्त ही पड़ गयी थी! आज लगा था कि पांच सेकण्ड्स का समय भी कितना बड़ा होता है! तो मैं बार बार, निहारता था उसे! मेरी कलाई पर बंधा धागा भी दिखा आज तो! उसमे, चार गांठें लगी हैं, आज ही देख पाया! उसके सिरे मैंने अंदर उड़ेसे!
"हाँ, शर्मा जी?" बोला मैं, बैठते हुए!
"हूँ?" बोले वो,
"उठो यार?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" मरी सी आवाज़ निकाली, कहते हुए ये!
"सुबह हो गयी भाई?" कहा मैंने,
"रोज होती है!" बोले वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोले वो,
"चलना नहीं हैं?" बोला मैं!
अब खोली आँखें! आसपास देखा, अभी अँधेरा था थोड़ा सा!
"क्या बज गया?" बोले वो,
"पौने पांच!" कहा मैंने,
"अभी तो वक़त है?' बोले वो,
"फिर न उतरै नींद, न सुस्ती!" कहा मैंने,
"उठवाओगे ही?'' बोले वो,
"हाँ, उठो?" कहा मैंने,
"अच्छा जी, उठ गए!" बोले वो,
और मैं चला बाहर, हाथ-मुंह धोये, कुल्लादि, दातुन किया! कीकर की दातुन तोड़ लाये थे हम घूमते-घामते, वही चल रही थी आजकल जम कर!
''आ जाओ?" बोला मैं,
"अरे आ रहा हूँ!" बोले वो,
"बुढ़ापा आ गया यार, लगता है!" कहा मैंने,
"और क्या गुद्दे फूटेंगे अब?'' बोले वो,
"देह साथ न दे अब!" कहा मैंने,
"कह लो जी, वक़त वक़त की बात है!" बोले वो,
"चलो आओ! ये रखा पानी, दातुन!" कहा मैंने,
"आया!" बोले वो,
उसके बाद, हम दोनों ही फारिग हो लिए, स्नान भी कर लिया था! साढ़े पांच बज चुके थे, शर्मा जी, चादर ओढ़, भजन गाने में लगे थे मन ही मन! और मैं अपना सामान रखा रहा था बैग में!
"आ गए मनोज जी?'' पूछा मैंने,
वे आ गए थे, साथ में चाय-नाश्ता भी ले आये थे!
"तंग कर दिया बच्चों को सुबह सुबह!" बोले शर्मा जी!
"अजी कैसे तंग!" बोले वो,
"अरे वाह! दही परांठे!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"यार मनोज!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"चीनी मिलेगी?" बोले वो,
"चीनी लोगे?'' कहा मैंने,
"हाँ, मीठी दही!" बोले वो,
"ओहो! समझा!" कहा मैंने,
"चीनी ही लाऊँ या शक़्कर चलेगी?" बोले मनोज जी,
"शक़्कर है तो वही लाओ! क्या बात!" बोले वो,
"अभी लाया!" बोले वो, और नीचे चले गए!
तो जी हमने जम कर किया नाश्ता! पेट ही भर गया! अब दोपहर की देखी जायेगी! करीब छह बजे, प्रदीप जी भी आ गए! फ्लास्क में चाय भरवा लाये थे! और इस तरह, करीब पौने सात बजे, हम निकल लिए! वहाँ से!
हम आये उसी मोड़ पर!
"रुको!" कहा मैंने,
अब तो सभी ने हाथ जोड़े! मैं उतरा, और चला एक तरफ! म ही मन, अपना उद्देश्य कहा, कहा कि सफल हो कर लौटें हम सभी! हुलारा बज उठा! और मेरे होंठों पर, मुस्कान तैर आई! मैं आया वापिस! बैठा गाड़ी में!
"चलो!" कहा मैंने,
चल पड़ी गाड़ी! मैं पीछे बैठा हुआ बाहर झाँक रहा था! सोचा रहा था कि कैसा होगा वो स्थल! क्या विशेष होगा! और कुछ आशंकाएं भी थीं!
कि अचानक!
सड़क के बीचों बीच!
सड़क के बीचोंबीच, भेड़ें दिखाई दीं! काली सफेद! जैसे, सभी हमे ही देख रही हों! गाड़ी आगे बढ़ी, तो रास्ता बनता चला गया! कमाल की बात ये, कि भेड़ों को हांकने वाला, या कोई चरवाहा, नहीं था! स्पष्ट था! दृष्टि में हैं हम!
"वही है न?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हमारा सौभाग्य!" बोले प्रदीप जी!
"सच में!" बोले मनोज जी!
"एक बात और!" बोले प्रदीप जी!
"क्या?" पूछा मैंने,
"पत्नी भी ठीक हो गयी है!" बोले वो,
"अरे वाह!" बोले शर्मा जी,
"आशीष मिल गया जी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"नहीं तो ऑपरेशन की कह दी थी! जयपुर जाना पड़ता!" बोले वो,
"ये अच्छी खबर सुनाई!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
हम चलते रहे, आराम आराम से!
"जयपुर सीधे?" बोले मनोज जी!
"हाँ!" कहा मैंने,
"चोमू जाना है न?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक, है एक रास्ता!" बोले वो,
"सिटी से?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, पास से, पहले से!" बोले वो,
"ये तो बढ़िया है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ समय बचेगा!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
और इस तरह, बातें करते करते, हम उस रास्ते तक आ गए! रुके वहाँ! पानी पिया! चाय पी साथ में लायी हुई! और फिर से आगे बढ़ चले!
"ये है वो रास्ता!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
तो हम उस रास्ते से कट लिए! अब हमें करीब तीस या पैंतीस किलोमीटर जाना था, चोमू, और चोमू से फिर देवठाला, इतिहास ने जैसे करवट ली थी पुनः! जैसे उसकी नींद खुल गयी थी! उसकी दवात में रखी वक़्त की स्याही अभी सूखी नहीं थी! कुछ किरदारों के नाम के वो क़लम फिर से आगे बढ़ी थी! तारींख के सफ़े पर, एक बार फिर से, इस क़लम ने आगे लिखना शुरू कर दिया था! अब कुल फांसला कितना था, नहीं मालूम था मुझे, मैं तो अभी एक अदना सा कारिंदा था जो एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर तक, हलकार के मानिंद, कुछ दस्तावेज़ पेश-ए-नाज़िल करने आया था! इसे मेरा फ़र्ज़ कहिये या वक़्त की हसरत, जो बाकी थी!
सड़क से हो कर हम गुजरते रहे, कुछ भीड़-भाड़ सी मिले जा रही थी, रास्ता था तो ठीक, लेकिन बहुत से लोग थे जो हमारी तरह ही, दूसरी भीड़-भाड़ से बचने के लिए, यहां भीड़ लगा बैठे थे! आसपास की ज़मीन जैसे, उठ उठ कर, वो सब जाने जा रही थी, जिसके लिए हम यहां से गुजर रहे थे! वहां के बड़े बड़े से पुराने दरख्त, सर उठा कर ऊंचे अपने, झांके जा रहे थे, उस भीड़ में, कुछ लोगों को, और वो लोग हम ही थे! कुछ बेहद ही पुरानी सी इमारतें तो अब वजूहात-ए-ज़ौफ़, अपनी उम्र के आखिरी दौर में थीं, कुछ साँसे बटोर कर, जैसे हमें देख रही थीं, अपनी खोखली टांगों से, खोखली टांगें वे बुनियाद जो बाकी थीं! बाकी बदन तो उनका वक़्त के थपेड़ों ने लहूलुहान पहले ही कर दिया था! बदन में छेद थे, छेद जिनमे से अब बदलते वक़्त की हवाएँ, गुजर जाया करती थीं उनका मज़ाक उड़ाते हुए! इस ज़माने से तो वो अब अलहैदा ही थीं! अलग-थलग! न इस ज़माने की बोली ही उन्हें आती थीं, न ज़ुबान और न ही अब कोई पहचान ही बची थी उनकी! महज़ कुछ परिंदों और सांप, बिच्छूओं ने बसेरे डाले हों, उनके दामन में, यही बाकी बचा हो!
''चाय ही डाल लो?" बोले शर्मा जी,
"सुस्ता गए क्या?" पूछा मैंने,
"ऐसी भीड़-भाड़ में और क्या करें?" बोले वो,
"रुको, मैं लगाता हूँ गाड़ी एक तरफ!" बोले प्रदीप जी!
"हाँ ठीक है, हल्का भी हो जाएंगे!" बोले वो,
आधा रास्ता करीब हम, तय कर चुके थे! और अब इतना ही शायद बाकी बचा हो! एक साफ़ सी जगह देख कर, गाड़ी रोक ली उन्होंने! हम लोग हल्का भी हो आये और फिर गाड़ी में आ बैठे! मौसम तो अच्छा था, न गर्मी ही थी, न सर्दी ही!
"डालो जी!" बोले शर्मा जी,
मनोज जी ने चाय डाली! मुझे दी, अब चाय की गर्माइश भी दम तोड़ने लगी थी! हाँ, अदरक का स्वाद बचा था, वही बढ़िया होता है! तो पीने लगे हम!
"ये रास्ता पुराना सा ही लगता है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले मनोज जी,
"ये सब फौजी रास्ते हैं साहब!" बोले प्रदीप जी,
"हाँ, रसद और फ़ौज के लिए!" कहा मैंने,
"जी, रियासतों का दौर था जब, तब ऐसे रास्ते बने थे!" बोले वो,
"सही बात है!" बोले शर्मा जी,
"वो ज़माना भी क्या ज़माना रहा होगा!" बोले मनोज जी,
"बेशक!" कहा मैंने,
"और वैसे भी, यहां तो चप्पे चप्पे पर इतिहास लिखा है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये तो है ही!" कहा मैंने,
"वो देखो!" बोले वो,
"किला सा है कोई!" कहा मैंने,
"हाँ, देखो उस ज़माने में, बिना मशीनों के बना दिया लोगों ने, आज बनाने लगो, तो बने ही न!" बोले वो!
"ये ही तो कमाल है!" कहा मैंने,
"पहाड़ी के ऊपर!" बोले वो,
"हाँ, देख लो!" कहा मैंने,
"कैसे तो पानी का इंतज़ाम किया होगा! कैसे खाने-पीने का! कमाल है! सोच के ही पसीना छूट जाए!" बोले वो,
"ये तो है!" बोले प्रदीप जी!
"मज़बूत लोग थे! पहलवान लोग! ऐसी ही जीवट वाली औरतें! अब देख लो, सौ में से पिचानवें बीमार!" बोले वो,
"यही तो नया ज़माना है साहब!" कहा मैंने,
"पहले हलकारे होते थे! अब सेल-फ़ोन!" बोले वो,
"हाँ, ये सब वक़्त की बात है!" कहा मैंने,
"जब से फ़ोन आये, लोग झूठ बोलना सीख गए!" बोले वो,
अब सभी हंस पड़े! बात तो सटीक ही कही थी!
"ये तो सही कहा आपने!" बोले मनोज जी!
"झूठ से ही दिन शुरू, झूठ पर ही खत्म! कर लो पूजा-पाठ!" बोले वो,
"लाख पते की बात!" कहा प्रदीप जी ने!
कुछ पल बैठे रहे हम! इधर उधर की बातें!
"चलें जी?" बोले प्रदीप जी,
"हाँ चलो!" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो,
और हम फिर, चल पड़े आगे के लिए! शान्ति से चले जा रहे थे! लोगबाग गुजर रहे थे आसपास से! कुछ देखते कुछ अपने ही ख्यालों में वाबस्ता हो, मंजिल पर पहुँचने की ज़द्दोज़हद के शिकार हो, बढ़े चले जा रहे थे आगे!
आगे जाकर, क़स्बा सा आया एक, यहां से पता पूछा, जगह के बारे में, बता दिया गया, और हम फिर से आगे बढ़ चले!
चोमू! जयपुर जिले का शायद सबसे बड़ा क़स्बा कहिये इसे! तहसील है! सारे साल, अच्छी फसल हुआ करती है, फल-फ्रूट्स शानदार हैं! लोग खुशहाल से प्रतीत होते हैं! शांत शहर है! अपने राजसी महल के लिए प्रसिद्ध है! पास में ही समोदे या समोद जगह यही, वहां भी राजसिक महल है! वर्ष भर यात्री आते हैं इधर! मूंगफली की फसल के लिए भी प्रसिद्ध है चोमू! हर शहर का अपना एक इतिहास होता है! कुछ भुला दिया जाता है, कुछ आगे बढ़ता चला जाता है! इसका भी अपना एक इतिहास है!
हम यहां रुके एक जगह! थोड़ा आराम किया, और फिर एक जगह भोजन किया! अब वहां से, बाढ़ या बाध देवठाला जाना था हमें! भोजन करने के करीब आधे घंटे के बाद, हम उस तरफ के लिए बढ़ लिए! जैसे जैसे शहर पीछे छूटता रहा, आबादी भी कम होती चली गयी! लेकिन यहां का भू-दृश्य बेहद ही शानदार था! खुली सी जगह! ऊपर खुला आसमान! असल में, असल शान्ति!
"कैसी शानदार जगह है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, शांत!'' कहा मैंने,
"ऐसे में ही बना लो एक मकान!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और क्या, क्या धक्का-मुक्की, क्या आपाधापी! **** ज़िंदगी खराब!" बोले वो,
हंस पड़े हम सब!
हम चलते रहे मार्ग पर, करीब एक घंटा होने को आया और तब, दो रास्ते फ़टे, एक बाएं के लिए, एक दायें के लिए! अब था कोई नहीं वहां, जिस से पूछ सकें! अब? अब क्या किया जाए? तो अब काम शुरू होता था यहां से, खोजी कारिंदे, सुजान का! वही कुछ सुझाए! बहुत दिनों के बाद आज सुजान की मदद लेनी पड़ रही थी! खैर, इसी काम के लिए ही तो है वो! और सबसे पहले एक खोजी रखना ही तो ज़रूरी रहता है!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"मैं आया अभी!" कहा मैंने,
"खोजी?'' बोले वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"ठीक, तो हम आगे चलें थोड़ा?" बोले वो,
"हाँ, ठीक रहेगा!" कहा मैंने,
ठीक भी था, सुजान ऐसे हर जगह नहीं आया करता! और बुलाया भी नहीं जाता! सुजान जैसे खिलाड़ियों के सौ दुश्मन!
वे आगे गए और मैं ज़रा एकांत में! एक साफ़-सुथरी सी जगह ढूंढी! मिल गयी और तब, मैंने दोनों हाथ बाँध कर, सुजान का रुक्का पढ़ा! और रुक्का खत्म होते ही, सुजान हाज़िर हुआ! अब सुजान से अपना उद्देश्य कह, सुजान उठ चला ऊपर और लोप! कुछ पल बीते, और सुजान की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी! कुछ रास्ते की निशानियाँ और कुछ पहुँच! पढ़कर तो बताता नहीं वो! निशानियाँ ही देता है! और सुजान वापिस! मैं चला वापिस फिर, सड़क पर आया! गाड़ी थोड़ी दूर खड़ी थी, पास में से, ए.एम.डी. कंपनी का एक शानदार सा ट्रक गुजरा! शायद निर्माण-कार्य का सामान भरा था उसमे! ट्रक बड़ा ही अच्छा था, अशोक-लीलैंड और टाटा से एकदम अलग! अच्छा ट्रक था! कोई नयी ही कंपनी आई है, मैंने दिल्ली में ये ट्रक नहीं देखा था! ट्रक गुजरा तो मैं आगे चला, आया गाड़ी तक! दरवाज़ा खोला गया, और मैं बैठ गया!
"चलें?" बोले प्रदीप जी,
"पानी देना ज़रा!" कहा मैंने,
पानी दिया मुझे तो पानी पिया मैंने, कुल्ला करने के बाद! धूल-धक्कड़ मचाई थी उस ट्रक ने! इसीलिए! मैंने पानी की बोतल वापिस की तब!
''चलो!" कहा मैंने,
"इधर, या उधर?" पूछा उन्होंने,
"इधर, बाएं!" कहा मैंने,
और हम चल दिए! ये था देहाती रास्ता! मजा ही आ गया हिलते-डुलते! खाना-पीना सब हज़म हो जाता अब तो! मैंने एक एक निशानी पर नज़र भरता, और आगे चल पड़ते हम! करीब चालीस मिनट चले और आखिरी निशानी भी आ गयी! दिखी एक जगह मुझे! झाड़-झंखाड़ लगा था वहां! लगता था, लोग तो जैसे भूल ही बैठे हैं उस जगह को! कोई रास्ता नहीं, कोई आवाजाही नहीं! सुनसान! बियाबान!
"रुको!" कहा मैंने,
गाड़ी रुक गयी!
मैं उतरा! नीचे उतरा! संग शर्मा जी भी!
"यही जगह है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, वो, उधर!" कहा मैंने,
"वो बुर्ज सी?" बोले वो,
"उस से नीचे!" कहा मैंने,
"ये तो जंगल सा है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका मतलब, क़िस्सा बेहद पुराना है!" बोले वो,
"अब मुझे भी लगता है!" कहा मैंने,
"चलें, देखें?" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
वे लौटे पीछे, और उन दोनों से बात की उन्होंने, पानी की बोतल भी ले आये!
''आओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम चल दिए ऊपर की तरफ! पत्थर ही पत्थर! जैसे किसी ज़लज़ले ने, ज़मीन को नेस्तनाबूद करने की ठानी हो कभी! ठीक ऐसा ही मंज़र था यहां!
"आराम से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कांटे हैं यहां!" बोला मैं,
"बहुत हैं!" बोले वो,
हम आराम आराम से आगे चलते रहे!
"रुको!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने फिर,
वे आये मेरे पास!
"ये मकड़ी हैं न?" बोले वो,
"हाँ, घरौंदे हैं उनके!" बोला मैं,
"ये तो हर जगह हैं!" बोले वो,
"हाँ, यहीं भी लाखों के संख्या में!" कहा मैंने,
''अब?" बोले वो,
"इन्हें छेड़ना ठीक नहीं!" कहा मैंने,
"लेकिन इनकी तो पूरी बस्ती सी है?' बोले वो,
"हाँ, देखो कोई रास्ता?" कहा मैंने,
"इधर, उधर ढलान है!" बोले वो,
"कोई रास्ता नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब तो करना ही पड़ेगा!" कहा मैंने,
''आग?" बोले वो,
"हाँ, लकड़ी देखो कोई!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
तब हमने लकड़ी पर लगाई आग, और छुआ दिया जले को! सरसरी सी मच गयी, मकड़ियाँ भाग छूटीं! जाल भी जल गया! जाल तो ठीक कर हे लेती वो, लेकिन हमें रास्ता मिल गया!
''आओ!" कहा मैंने,
और चढ़ चले फिर से,
"अभी तो दूर है?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नीचे से तो लगता था, ये रहा?" बोले वो,
''सूरज सर पर है न!!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोले वो,
"तो नज़र धोखा खायेगी ही!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
और आखिर में, हम आ पहुंचे वहां! टूटा-फूटा सा खंडहर! प्रस्तर तो छोड़िये, पत्थर ऐसे की मुंह की खाएं अगर गलत पाँव रखा जाए तो! हिल रहे थे पत्थर!
"बड़ा खतरनाक है!" बोले वो,
"हाथ पकड़ लो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हमने हाथ पकड़ लिए, और सहारा ले, चलते चले आगे!
"खायी रही होगी कभी इधर!"" बोले वो,
"हाँ, अब धसक गयी लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ, देखो तो?" बोले वो,
"हाँ, बड़े बड़े पत्थर कैसे गिरे होंगे फिर!" कहा मैंने,
"हाँ! सही कहा!" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
अब आसपास देखा, बीहड़ ही बीहड़! स्थल तो क्या, ज़मीन देखना मुश्किल! जंगल ही जंगल वो भी सूखा सा! हवा भी गरमी भरी!
"पानी पियो!" बोले वो,
''लाओ!" मैंने लिया पानी, और कहा!
पानी पिया मैंने! सच में, पानी बड़ा ही अच्छा लगा! स्वाद वाला! शायद, गला ख़ुश्क़ हो गया था इसीलिए! कभी-कभार आम सी चीज़ें बेहद ही लज़ीज़ हो उठती हैं! तो पानी इस वक़्त मेरे लिए ऐसा ही था!
"लो, आप पियो!" कहा मैंने,
उन्होंने भी खूब पानी डकोस लिया! तो गलत मैं ही नहीं था! सच में पानी की ज़रूरत थी! मैंने एक बार फिर से सरसरी नज़र डाली आसपास! सामने ही एक बुर्जी थी, और ढही हुई सी प्राचीर!
"शायद, वहीँ जाना है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"घुटने खुल जाएंगे!" बोले वो,
"अब क्या करें!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
तो हम हिलते-डुलते पत्थरों पर, डगमगाते हुए, ऊपर चढ़ते चले! ऊपर पेड़ लगे थे, कीकर सी लगती थी वो श्रृंखला! कुछ और जंगली पेड़ भी थे, ये रमास के से लगते थे! बिन पानी कैसे रहना है, ओंस से कैसे प्यास बुझाने है, कोई इनसे सीखे! इस कड़वे, रूखे, मतलबी सन्सार में, कैसे डटे रहना है, कोई इनसे सीखे! कौन बतियाता होगा इनसे! कौन पुकारता होगा इन्हें! कौन सा चरवाहा, छाया में सुस्ताता होगा इनकी! बस परिंदे! और कुछ नहीं! फिर भी फल-फूल रहे हैं! ये है ज़िंदगी का सबसे बढ़िया उदाहरण! थोड़े में बहुत और बहुत को थोड़ा करना, अब ये बखूबी जानते थे!
"यहां तो ठीक है!" बोले वो,
"हाँ, यहां पत्थर जमे से लगते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम चलते रहे, अब तो गाड़ी भी छोटी सी लगने लगी थी! आसपास का दृश्य ऐसा था जैसे पता नहीं कौन से शिखर पर जा चढ़े हों हम!
"मनुष्य तो है नहीं यहां!" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"खेती भी नहीं है आसपास!" बोले वो,
"होंगे, शायद दीख ही नहीं पड़ते!" बोला मैं,
और फिर से चले हम! इस तरह उस बुर्जी तक आ पहुंचे हम!
"लो जी!" बोले वो,
"आ ही गए!" कहा मैंने,
"सब थोड़ा सुस्ता लें!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं भी टिक गया एक जगह!
''अरे? वो देखो?" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वो, नीचे?" बोले वो,
मैंने देखा सामने, और मन प्रफुल्लित हो उठा! ये तो एक छोटा सा मंदिर लगता था! अधिक बड़ा नहीं, छोटा था, ज़्यादा ऊंचा भी नहीं, या फिर हमें ऐसा दीख रहा था!
"ये ही तो नहीं?" बोले वो,
''अवश्य यही है!" कहा मैंने,
"धन्यभाग!" बोले वो,
"हाँ, सच में!" कहा मैंने,
और तभी!
तभी वज्र-घंटाल बज उठा! मैं उठ खड़ा हुआ! वो आवाज़! वो आवाज़, वहीँ से आ रही थी! उसी मंदिर से! उसी के भग्नावशेष से!
"उठो?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' बोले वो,
"उठो अभी!" कहा मैंने,
"कुछ दिखा क्या?" पूछा उन्होंने,
"सुनाई दिया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने उठते हुए, पैन्ट अपनी, झाड़ते हुए!
"वज्र-घंटाल!" कहा मैंने,
''अच्छा?" बोले वो,
"हाँ! यही है वो!" कहा मैंने,
अब हम दोनों उठ खड़े हुए, नीचे देखने लगे!
"लगता है, कोई तालाब रहा होगा उधर!" बोले वो,
"हाँ, ढलान से तो यही लगता है!" कहा मैंने,
"देखो, वो बड़ा सा गड्ढा!" बोले वो,
"हाँ, लगता है!" कहा मैंने,
"तो यही है वो स्थान!" बोले वो,
"हाँ, सच हुई ये बात!" कहा मैंने,
"तो देर कैसी?" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
एक संकरे से रास्ते से, नीचे उतरे हम! रास्ता नहीं था वो, कह दिया, बनाया था खुद ही हमने!
''आराम से!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम नीचे उतरे तब! चले सीधे! जैसे जैसे करीब आता गया वो मंदिर, दिल की धड़कनें तेज हों! दिल बाहर को निकले! जैसे, खुद ही झांकना चाह रहा हो बाहर!
"नायाब!" बोले वो,
अब हम ज़मीन पर खड़े थे, दोनों ही, सामने देख रहे थे, उस मंदिर को! हमसे करीब डेढ़ सौ फ़ीट दूर रहा होगा वो! पत्थर की शिलाओं पर खड़ा!
"हाँ, नायाब!" कहा मैंने,
"इतिहास, ज़िंदा हो गया!" बोले वो,
"हाँ, पुनः!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम तेज क़दमों से बढ़ चले आगे! सौ फ़ीट, अस्सी, पचास, तीस, दस और! सामने खड़े थे! लाल पत्थरों में बना, एक छोटा सा मंदिर! साधारण सा! कोई बनावट नहीं! कमाल ये की कोई गर्भ-गृह नहीं! आरपार! हाँ, एक पत्थरों का चौखंड सा बना था! अब शायद वहां से, पत्थर हटा लिए गए थे, या टूट-फाट चुके थे! हमने गौर से देखा! आगे पीछे! अब वैसे तो खंडहर ही था वो! लेकिन, लगे कि ज़िंदा है अभी!
"प्रणाम!" बोले शर्मा जी,
"प्रणाम!" मैंने भी कहा!
"यही है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''अब वो प्रस्तर!" बोले वो,
"हाँ, अंदर चलो!" कहा मैंने,
हम चढ़े ऊपर, चले अंदर! दो आले दिखे!
"ये दीप-स्थान!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''और ये, स्थल!" बोले वो,
"हाँ, यही है!" मैंने कहा!
और तभी!
बजा उठा हुलारा!
तेज! कोई ख़ुशी में गा रहा था वो हुलारा! मेरी तो आँखें बंद होने लगीं! कैसा आनंद था उस हुलारे में!
"हुलारा?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वाह!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
एक छत के नीचे आये हम! बेल-बूटे! पत्थरों के! सांप जैसी लकीरें! बड़े बड़े स्तम्भ!
''वो, वो है प्रस्तर-खंड!" बोले वो,
"हाँ! वही है!" कहा मैंने,
और हम,.दौड़ लिए उधर के लिए! ये, खजाने से भी बड़ी दौलत थी! उस से भी बड़ी!
"सच! सच में! सब वैसा ही! सब का सब!" बोले वो,
और मैं, बैठ गया, एक दीवार से, कमर लगाते हुए!
