और इस तरह, वो सभी जा पहुंचे अपने स्थान पर! कोल्या एक ऊँचे से पत्थर पर खड़ा था, उसको सभी ने हाथ जोड़, प्रणाम किया! उतरा नीचे कोल्या! और चला अपने कक्ष की ओर! और तब, वो रम्मा आगे बढ़ा, चला कक्ष की ओर! कोल्या घुसा, बैठा और रम्मा को बुला लिया अंदर! आया रम्मा अंदर! और बता दी सारी बात उसे! कोल्या के होंठों पर, मुस्कान खेल गयी!
"शाबास रम्मा!" बोला कंधा थपथपाते हुए उसका!
"जैसे आपने कहा था, वैसा ही बोल दिया!" बोला रम्मा!
"हम्म्म! एक काम करो, सारे अब, तैयार रहो! वो अधंग नहीं बाज आने वाले अपनी हरकतों से! नज़र रखो, खोजबीन, लगातार फैलाते रहो!" बोला कोल्या,
"जी!" बोला रम्मा!
"अब आराम करो सब!" बोला कोल्या,
रम्मा उठा, प्रणाम किया, और चला गया बाहर!
और तब, उठा कोल्या! गया कक्ष में रखी एक बड़ी सी लकड़ी से बनी, संदूकची तक! उस पर रखा सामान उठाकर रखा उसने! और खोली संदूकची! टटोला कुछ! और जो निकाला! वो एक बड़ा सा खड्ग था! दुधारी खड्ग! उसके बीच में, बैंटा फंसता था! निकाल लिया बाहर! उँगलियों से उसकी धार परखी! और चला कोल्या कक्ष से बाहर! पहुंचा ओसारे में! चकमक पत्थर पड़े थे वहाँ! पत्थरों पर निशान बने थे, धार लगाने के लिए इस्तेमाल हुआ करते थे वो पत्थर!
सकोरा उठाया, और लिया उसमे पानी, और जा बैठा एक बड़े से पत्थर के पास! अब लगानी शुरू की धार उसमे! उस खड्ग के फाल का वजन, कम से कम पच्चीस-तीस किलो तो होगा ही! दो घंटे लग गए! और जब पानी से निखार उसे, तो चमक उठा वो खड्ग! अब लगाया उसमे, एक बैंटा! एल मजबूत लकड़ी का! ये खड्ग कम से कम, पांच फ़ीट का बन गया था! ऐसी ही तो देह थी उसकी! किसी के सर में बिठा दे वो खड्ग, तो अपने वजन से ही, कपड़े की तरह से फाड़ते हुए, किसी भी शरीर के दो टुकड़े कर दे!
ले गया उस खड्ग को अपनी आराध्या के पास! किया उसका पूजन! और, सजा कर रख दिया अपना खड्ग उसने, उसी स्थान पर!
दो दिन के बाद............
उस दोपहर, दो व्यक्ति मिलने आये थे कोल्या से, एक तो दीवान साहब थे, किसी अच्छे ओहदेदार के दीवान साहब थे वो! साथ में, उनका सहायक था, वे दो मेढ़े भी लाये थे, भेंट करने के लिए! काम वही था, एक जगह जाना था, वहां किसी का अभिमंत्रण भंग करना था! जो प्राप्त होता, उसका दसवां हिस्सा, कोल्या का होता! रम्मा ने सारी बात सुनी, और कोल्या से बात की, कोल्या ने हामी भर दी, काम, उस दिन से, ठीक आठवें दिन होना था! कोल्या, स्वयं किसी से नहीं मिला करता था, ये ज़िम्मेवारी रम्मा की थी, रम्मा को जंचा तो ठीक, नहीं तो वहीँ से मना कर दिया करता था! दीवान साहब और उनका सहायक, बहुत कुछ सामान लाये थे, वो रखवा दिया गया था! ऐसे ही भेंट के सामान से, कोल्या के यहां की रसोई चला करती थी!
अब काम तो हाथ में ले लिया था, लेकिन उस से पहले, खोजबीन करनी थी, चार आदमी, इस काम पर लगा दिए गए! जब खबर पक्की निकली, कि इसमें कोई षड्यंत्र नहीं है, काम होने पर, मुहर लग गयी कोल्या की!
आठवाँ दिन..............
कोल्या और उसके दस साथी, पाव फटते ही निकल लिए थे! सभी के घोड़े द्रुत गति से दौड़ते हुए, दोपहर तक, उस स्थान पर जा पहुंचे थे, सारा सामान और सामग्री आदि, सब उपलब्ध कर दी गयी थी! रम्मा ने सारे सामान की जांच स्वयं की थी, वो स्वयं ही ये काम किया करता था!
अब उस स्थान की जांच हुई!
देख लड़ाई कोल्या ने, और चल गया पता! उस जगह, माल दबा था! ये लूट का माल था, दीवान साहब के ओहदेदार को, ये बात, किसी बाबा ने बतायी थी, उन्होंने ही, इसकी पुष्टि करवाई थी! हाँ, उस स्थान पर, जो सामान था, वो कुचिक्रा-विद्या से बंधा था!
इस विद्या के बारे में बताता हूँ आपको! ये पहाड़ी विद्या है! जैसे, भूमि में, दस फ़ीट नीचे कोई सामान गड़ा है, और उसको खोदा जाए, तो वो सामान, हमेशा, उस खुदाई से, दस फ़ीट नीचे ही रहेगा! जितना आप खोदोगे, उतना ही नीचे चलता जाएगा! यदि ज़बरदस्ती की गयी, तो वो अगर, नीचे होते हुए, जल से टकराया, तो सारा सामान कोयला बन जाएगा, और उस गड्ढे से धुंआ ही निकलेगा, कोई माल नहीं! अब ये अधंग जो थे, ये इस विद्या का ही प्रयोग किया करते थे! स्पष्ट था, ये सामान भी ऐसे ही किसी अधंग-साधक ने ही वहां सुरक्षित किया था!
"रम्मा?" बोला कोल्या,
"हाँ जी?" आया रम्मा,
"काला मेढ़ा मंगवा!" बोला कोल्या,
"अभी कहता हूँ" बोला वो, और दौड़ पड़ा,
आया वापिस,
"बस आने ही वाला है!" बोला वो,
"हम्म्म!" बोला कोल्या,
और तब कोल्या ने, शुरू की अपनी विद्या लड़ानी! वो ज़मीन, बार बार हिलती! जैसे झटके मारती! कैसे नीचे का जल, हिलोरें मार रहा हो!
"त्रिभंग अष्टितिका व्योमक्षिकृत हुम्म फट्ट!" बोला कोल्या!
मार फेंक के सामने राई का दाना!
ज़मीन हिलना हुई बंद!
मेढ़ा ले आया था रम्मा! कुचिक्रा मैय्या को प्रसन्न करना था, अन्यथा, धन का एक टुकड़ा भी नसीब न होता! और यही तो किया करते थे ये कोल्या!
बैठा नीचे वो!
पढ़े मंत्र!
हुआ खड़ा, ली तलवार! काढ़ा एक वृत्त उस भूमि पर! आया पीछे! बैठा नीचे, कमर की सीधी! आँखें कीं बंद! और जब खोलीं, तो आँखें एकदम पीली!
आवाज़ बदल गयी!
बदन में, कम्पन्न शुरू हो गया!
उठा वो! और करने लगा डम-नृत्य!
गया भूमि तक! नाचते नाचते!
दी कई थाप वहाँ!
झुका नीचे, घुसेड़े हाथ दोनों मिटटी में! खींचा कुछ! ये एक कपाल था! फिर से डाले हाथ नीचे! एक और कपाल! अस्थियां! ये बलि-कर्म था उन अधंगों का!
उठा, चीखते हुए! ली तलवार! और एक ही वार से, मेढ़े की गरदन, धड़ से अलग! उठाया कटा हुआ मेढ़ा और नहला दिया उस भूमि को उसके रक्त से! फव्वारे छूट रहे थे! ये फव्वारे, उसके चेहरे पर गिरते और वो नृत्य करता हुआ, नहलाता जाता ज़मीन को!
मेढ़ा हुआ शांत!
रख दिया एक तरफ!
पढ़ा माँ कुचिक्रा का मंत्र!
और अगले ही पल!
नौ बड़े बड़े से कलश! आ गए भूमि से बाहर! कर दिया था अभिमंत्रण का नाश उसने!
हुआ शांत! रम्मा ने संभाला उसे! ले गया एक तरफ!
और वो सामान! घेर लिया गया उस कोल्या के साथियों ने!
इस तरह, कोल्या ने, वो धन निकाल दिया था! अब धन का हिस्सा आदि, टेपा के ज़िम्मे था! कोल्या धन का आधा भाग, दान चढ़ा दिया करता था! और आधा, रख दिया करता था! लेकिन ये सामान जी निकाला था, ये सामान उन अधंगों का था! शायद, जानबूझकर, उसने इस काम को अंजाम दिया था! वो जानता था कि इस से वो अधंग जान जाएंगे कोल्या की ताक़त के बारे में! और हो सकता है, चेत ही जाएँ!
मित्रगण! न ऐसा होना था, और न ऐसा हुआ!
कोल्या को खबर ही नहीं थी, कि जिस ओहदेदार का माल उसने निकाला था उसको उसके परिवार सहित क़त्ल कर दिया गया था, दस दिनों के भीतर ही, माल लूटा जा चुका था उनसे! उस दीवान का भी क़त्ल कर दिया गया था और किसने माल निकाला था, इसका पता भी निकाल लिया गया था! ये कोल्या था! अब तो कोल्या उनकी आँख की किरकरी नहीं, पत्थर बन गया था!
इस प्रकार, कोल्या को हमेशा के लिए खत्म करने, उसको हमेशा के लिए रास्ते से हटाने के लिए, अब योजना को भी अंजाम दे दिया गया था!
और उन अधंगों ने, और अधंग बुला लिए थे! वो खतरनाक, हत्यारे और खूंखार थे, उनको बस, मरना और मारना ही आता था! कुल मिलाकर, उनकी संख्या सौ से अधिक थी! कोल्या का दल, कुल मिलाकर, पच्चीस या और मिलाया जाए तो भी, चालीस से ज़्यादा नहीं था!
उन अधंगों ने एक चाल चली! ये चाल पूरी होती ही! चाल ये, कि उन्होंने, एक सभ्रांत से व्यक्ति को, भेजा कोल्या के पास! कुछ सामान निकालना था, रम्मा ने खुद जांच की थी! जाल कुछ ऐसा बना गया था, जिसमे एक बार जो फंसे, वो बाहर ही न निकले! और यहीं की खोजबीन में, अपने जीवन में पहली बार, रम्मा से चूक हो गयी!
वो दिन निर्धारित हो गया था!
दिन, वो अंतिम दिन, उस कोल्या का अंतिम दिन!
जैसे, कोल्या ने खुद अपनी ही मौत के दतावेज़ पर दस्तख़त कर दिए थे! कोल्या, उन अधंगों का अहित चाहता था, अतः, बुद्धि को जैसे काठ मार गया था उसकी!
वो दशमी का दिन था!
शाम का वक़्त!
...................................
कोल्या चुप हो गया!
चुप! चुप ही खड़ा रहा वो!
और मैं, मैं उसको ही देखता रहा!
उसकी देह, मैंने पहली बार शिथिल देखी!
पहली बार उस कोल्या को, मैंने मज़बूर सा देखा!
उसने आँखें बन कर ली थीं.........चुप खड़ा था वो, छाती पर, हाथ बांधे दोनों!
"कोल्या?" मैंने आवाज़ दी उसे,
उसने देखा मुझे, एक अजीब सी नज़र से,
थका-थका, टूटा-टूटा कोल्या!
"आगे क्या हुआ कोल्या?" पूछा मैंने,
मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे उसके!
वो महाभीषण प्रेत, उस समय, विवश, हारा-थका और बुझा-बुझा सा दीख रहा था!
मैंने कुछ समय लिया,
बाहर, शायद कोई ट्यूबवेल चल रहा था, कहीं दूर, उसकी ठुक-ठुक की आवाज़ आ रही थी, और यहां, मेरे कानों में, तेज दौड़ते हुए घोड़ों के खुरों की टाप, बढ़ती जा रही थी!
"कोल्या?" मैंने फिर से आवाज़ दी!
............................................
और फिर, कोल्या ने कहना शुरू किया, सीने में, बहुत कुछ दबाते हुए, एक सौ उनहत्तर साल का वो दर्द! वो भूल! वो चूक! और वो मनहूस रात!
वो साँझ का समय था! दस घोड़े, अपने पूरी रफ़्तार से आगे बढ़ते जा रहे थे! जहाँ उन्हें जाना था, वहाँ एक बड़ा सा मंदिर था, वही पहचान थी उस जगह की, वहीँ वो सभ्रांत सा आदमी मिलना था उन्हें! वो करीब ढाई घंटे में वहाँ जा पहुंचे! ये जगह, वहां से उत्तर में पड़ती है!
"वो, वो रहा मंदिर!" बोला रम्मा!
आगे, एक जगह मंदिर था, दीये प्रज्ज्वलित हुए हुए थे उसमे!
"हम्म्म! चलो!" बोला कोल्या,
और सभी चल पड़े, अब भाग नहीं रहे थे, बस चहलकदमी सी कर रहे थे घोड़े!
वो सभ्रांत सा व्यक्ति मिला उन्हें, उस आदमी का नाम, सुनन्द था!
वो सुनन्द, उन्हें और आगे ले गया, काम, दूर एक जंगल के पास था!
"कितना दूर?" पूछा रम्मा ने,
"कोई दो कोस, बस!" बोला वो,
"हम्म्म! चलो!" बोला रम्मा!
सुनन्द ने भी अपना घोडा लिया, और चल पड़ा आगे आगे!
"ये जगह ही बताई थी?" पूछा टेपा ने!
"हाँ!" कहा रूंगड़ ने,
जंगल गहरा होता गया!
उस रोज, हवा जैसे क़ैद से भाग छूटी थी!
हवा का शोर जैसे, कोल्या को रोके! उसको पीछे धकेले! अब होनी को कौन टाले! होनी बड़ी बलवान!
"और कितना?" पूछा रूंगड़ ने,
"वो सामने है!" बोला वो आदमी,
"तेज चलो!" बोला टेपा,
और घोड़े दौड़ चले!
अचानक से, कोल्या ने रोका सभी को! सभी रुक गए!
आया टेपा पास उसके,
"क्या हुआ?" पूछा टेपा ने,
"ज़रा पीछे चलो?" बोला कोल्या,
"चलो!" बोले सभी,
घोड़े मुड़े, और आगे इस बार कोल्या!
रुका एक जगह! उतरा घोड़े से नीचे, देखा एक जगह!
"क्या हुआ?" पूछा रम्मा ने,
"वो देखो? क्या है वो?" बोला कोल्या, एक तरफ इशारा करते हुए!
अब जैसे ही देखा रम्मा ने, झट से तलवार निकाल ली म्यान से! उसने निकाली, तो सभी ने निकाल ली! अफ़सोस! अपना खड्ग नहीं ला पाया था कोल्या!
"हम घिर चुके हैं!" बोला कोल्या,
"हाँ, वो अधंगों का जगह है!" बोला रम्मा,
"वो आदमी कहाँ है?" चीखा कोल्या,
मची ढुंढेर! लेकिन, वो आदमी, अब न था वहां! कर गया था अपना काम!
"हो जाओ तैयार!" बोला रम्मा!
अपनी आराध्या का नाम लेते हुए, सभी हुए सवार अपने घोड़ों पर और..............!!
वे सब अपने घोड़ों पर सवार हो चुके थे! अपनी अपनी तलवारें, निकाल ली थीं म्यान से बाहर! वे सब जानते थे इसका हश्र! लेकिन ऐसे ही हथियार नहीं डालना चाहते थे वो ज़िंदादिल और बेजोड़ लड़ाके! टेपा, रूंगड, थरुआ और रम्मा, इन्होने घेर लिया था कोल्या को बीच में, और बढ़ रहे थे वापसी की ओर! सहसा जैसे जंगल जागा! और जंगल में से कई बुक्कल मारे, हत्यारे बाहर आये, भाले, खड्ग और तलवारें लिए! वो दस थे, और वो हत्यारे, करीब पचास! टूट पड़े उन पर! वे अपने घोड़ो पर सवार हुए ही, उनसे मुक़ाबला करने लगे! चीख-पुकार मच गयी! उन हत्यारों के सर, कट कट के नीचे गिरने लगे! किसी का हाथ कटता और कोई अपने सर से जाता! अपनी आराध्या का नाम जपते हुए वे दस, उन्हें कसाई की तरह से काट रहे थे! कोल्या के सामने जो आता, वो आधा ही रह जाता! कटे धड़, खून के फव्वारे छोड़ रहे होते! उनके हाथ और पाँव, नीचे गिरे भी, वार कर रहे होते! शोर हुआ, और, और निकल आये जंगल में से! कोहराम सा मच गया!
तभी, बाएं लड़ रहा टेपा, झूल गया आगे! एक भाला, उसकी पसलियों में दायें से होकर, बाएं निकल गया था! आँखें बंद होने लगीं टेपा की, और जैसे ही टेपा ने, उस भारी को पकड़ा, उसका सर, कट कर, नीचे जा गिरा! टेपा, अपने कोल्या के लिए खेत रहा था! दायें, रम्मा की गरदन में से एक भाला गुजरा, पीछे से, रम्मा ने आँखें खोले रखीं! देखता रहा वो कोल्या को! हाथ में तलवार पकड़े रहा, और उसका सर, दो भागों में, कट चला! उस पर पीछे से वार हुआ था!
बायीं तरफ पहाड़ी थी एक, कोल्या की नज़र पड़ी, और कोल्या, अपने तीन साथियों के साथ, उस पहाड़ी पर दौड़ पड़ा! रात भयानक थी वो, उसके पीछे कम से कम पचास ह्यारे पीछे पड़े थे! नीचे, थरुआ और जमवा, अपनी तलवार का जौहर दिखा रहे थे! वे खुश थे उस समय! कोल्या बच निकले, तो उनकी मौत का बदला, अवश्य ही चुकाया जाता! थरुआ के सामने जो आता, समझो अपने प्राण अपने हाथों में ले कर आता! थरुआ, अपनी तलवार से, एक साथ, चार चार आदमियों से लोहा ले रहा था! जमवा, थरुआ से पीठ सटाये, शत्रु की रूहों को, उनके जिस्म की क़ैद से आज़ाद कर रहा था! खूब लड़े वो जंगबाज लड़ाके! तभी पीछे से वार हुआ, थरुआ का बायां कंधा, उसका सर थामे, झूलता चला गया नीचे! उन हत्यारों ने, टुकड़े टुकड़े कर दिए उसके! जमवा डटा रहा! वो अकेला, और कहाँ तीस तीस लोग! उसका शरीर, बींध डाला भालों से! जब तक जमवा ने सांस रही, उसने तलवार न छोड़ी! और जब तलवार छूटी, तो उस से पहले उसके प्राण छूटे! लाशें बिखर गयी थीं! खून-खच्चर मचा था! हाथ, पाँव, सर, चेहरे और कपड़े, खून से नहा चुके थे!
उधर पहाड़ी पर, वो चार थे, कोल्या, और उसके तीन साथी, कोल्या बच जाए, इसीलिए दो रुक गए, और चीख चीख कर कोल्या को आगे जाने को कहा, और खुद, पीछे पलट गए! उन दोनों ने, आते हुए हत्यारों को, ऐसी चोट पहुंचाई के वे आधे से ही रह गए थे! रूंगड तो जैसे जल्लाद बन चुका था! एक एक साथी का नाम ले, ऐसी मारकाट मचाई उसने, कि एक बार को तो सेनझा के भी पाँव उखड़ बैठे! और उसी कधन, रूंगड के पेट में, भाला आ घुसा, दो, तीन, चार! चार भालों ने, बींध डाला था उसको! क्या करता! पलट कर, पहाड़ी को देखा, और अगले ही पल, सर के दो टुकड़े हो गए उसके! उसका दूसरा साथी, वो भी मार डाला गया, उसकी छाती में वार हुए थे! वो क्रूर हत्यारे, दौड़ पड़े पहाड़ी पर चढ़ने के लिए!
हत्यारों ने, एक तरफ से घेरना शुरू किया उन्हें! आज नहीं ज़िंदा छोड़ने वाले थे वो उनको! क्योंकि, अगर कोल्या अब बच जाता, तो वो, बदला लेता! बदला भी ऐसा, कि जिस से अधंग शायद ही बच पाते! सेनझा ने आदेश दिया, चार टुकड़ियां बन गयीं, मची ढुंढेर!
काली पहाड़ी, और फूलै सांस, ज्यों गिरौ, कौवा नौंचे मांस!!
ये ढुंढेर, रात से सुबह तक चली! और छिपे हुए वे दोनों, पकड़ लिए गए! उनको, वहीँ काट डाला गया! और कोल्या का सर, एक थैले में भर कर, ले जाय गया उस अधंग बाबा जाफ़न के पास! जाफ़न जानता था! जानता था कि, जितना कोली ज़िंदा रह कर खतरनाक है, उस से ज़्यादा , मर कर!
जाफ़न ने, एक महा-क्रिया की! और तीन दिन में, वो कोल्या की रूह को पकड़ पाया! उसके बाद, जाफ़न जानता था कि क्या करना है! कोल्या को, एक सौ पचास सालों तक क़ैद कर दिया गया! क़ैद किया गया, एक कलश में, एक पेड़ के नीचे, वो कलश दबाया गया, कालांतर में, वो कलश, बाढ़ के कारण पानी में बहा और जब किसी ने देखा होगा, तो उसको खोल दिया गया, कलश में तो कुछ नहीं मिला, लेकिन कोल्या आज़ाद हो गया! कोल्या को सब याद था, सब याद! वो बदले की आग में सुलग रहा था! अब वो एक भीषण प्रेत था, मसान के समान शक्तिशाली था! वो लौटा, उस जगह, जहां वो कभी ज़िंदा हो, रहा करता था! अब वहाँ कुछ न था! न कोई साथी, न वो जगह! न वो अधंग और न उनका वो स्थान!
हतप्रभ सा, लेकिन क्रोध लिए, वो भटकने लगा था, वो एक रोज, दो बच्चों के प्रेतों को खिला रहा था, कि और औरत कविता का पाँव, इसकी छाती पर पड़ गया, और उसके बाद, क्या हुआ, आप ये सब जानते हैं!
कोल्या, अब अकेला था!
अकेला, असहाय! मुक्ति-रहित!
एक भटकता प्रेत!
कोई प्रबल तांत्रिक उसको पकड़ लेता, तो वो हमेशा, दास बना ही रहता!
अब कोल्या एक महाप्रेत था, भले ही था, इसको कोई दो राय नहीं!
लेकिन, वो कभी एक इंसान भी था! अब इंसान को क्या करना चाहिए, ये मुझे निर्धारित करना था!
........................................
"कोल्या?" कहा मैंने,
टूटा सा था वो, मुझे देखा उसने,
"कोई साथी नहीं मिला?" पूछा मैंने,
"नहीं, कोई नहीं" बोला वो,
"अकेले हो?" पूछा मैंने,
"हाँ! अकेला!" बोला हँसते हुए!
उस हंसी में, असहायता भरी पड़ी थी!
"कोल्या?" बोला मैं,
देखा मुझे उसने,
"तैयार हो?" पूछा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"इस भव-बंधन से मुक्त होने को?" बोला मैं,
और तब!
तब उस महाभीषण महाप्रेत और एक वक़्त के कोल्या में, मैंने एक असहाय बालक सा देखा! वो चीख चीख के रोया!
दया आई मुझे उस पर...........
मुझ से देखा ही न गया........
मैंने बंधाया ढांढस,
वो दिन, शुभ था, एक मुहूर्त लगा था उस दिन............
उसी रात, बाबा आद्य के साथ, मैंने एक क्रिया आरम्भ की, एक नदी के पास, कोल्या हाज़िर हुआ, उस समय, मैं नज़रों में, उस कोल्या को जितना भर सका, भर लिया!
ठीक एक बज कर, चालीस मिनट पर, भव-बंधन कट गया! कोल्या का रूप सफेद हो उठा! वो गले लगा मेरे! भरा मुझे आलिंगन में! और...........कुछ ही क्षणों में, वो कोल्या, मुक्त हो गया! मुक्ति का एक चरम-सुख हुआ करता है, कोल्या के चेहरे पर वो सुख, विद्यमान रहा!
करीब तीन माह बाद, मेरा जाना हुआ उधर, मैं गया वहाँ, उस स्थान पर, पर अब वहाँ, एक पशु-शाला है, अब खूब आबादी है वहाँ! कोई नहीं जानता कि कोल्या कौन होते हैं उस जगह! उनके गाँव में, थोड़ा दूर, एक कोल्या था, आज कोई नहीं जानता! कोल्या का नाम, वहाँ के इतिहास में दर्ज़ नहीं! जैसे वो कभी था ही नहीं!
वो पहाड़ी, आज भी है वहाँ! वो आखिरी जगह थी उसकी!
उन अधंगों का स्थान तो है आज भी, लेकिन अब खंडहर ही हैं! अब वहां कोई नहीं जाता, बस बकरियां और मवेशी ही चरा करते हैं!
इतिहास ने भुला दिया वो कोल्या!
वो चीमल थारु!
वो रम्मा! वो जमवा! वो रूंगड! वो टेपा! वो थरुआ! सभी को भुला दिया गया!
मित्रगण!
मैं नहीं भूला उस कोल्या को!
उस महा-भीषण कोल्या को!
उम्मीद करता हूँ,
कभी न कभी,
आप भी, याद कर ही लोगे उस कोल्या को,
कभी पहाड़ी देख कर कोई!
शायद, कभी याद आ जाए वो कोल्या!
साधुवाद!
