वर्ष २०१४ ज़ेवर उत्त...
 
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वर्ष २०१४ ज़ेवर उत्तर प्रदेश की एक घटना, लाखी का इंतज़ार!

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श्रीशः उपदंडक
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वो सिसकियाँ ही थी, अब सिसकियाँ तो थीं, लेकिन कहाँ से आ रही थीं, किसकी थीं, ये बताना ज़रा मुश्किल ही था! अंदाजा नहीं लग पा रहा था, एक तो बीहड़, और फिर अँधेरा! आँखों से सिर्फ वहीं तलक दीखता, जहां तक, टोर्च की रौशनी ही जाती थी! उसी हद में जितना दीख रहा था, सो देख रहे थे!
सिसकियाँ फिर से उठीं!
"औरत है कोई!" बोले वो,
"इस बार तो मुझे भी लगा!" कहा मैंने,
"हाँ, औरत ही है!" बोले वो,
"तो ये पक्का है कि यहां ज़रूर कुछ न कुछ तो है!" बोला मैं,
"यक़ीनन!" बोले वो,
"अब है कौन?" कहा मैंने,
"यही तो ना मालूम पड़ रहा?'' बोले वो,
"पड़ेगा!" कहा मैंने,
"कलुष?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"एक बार जगह मालूम पड़े बस!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
जगह, मतलब, दिशा, पता तो चले कि है किस दिशा में! जब सिसकियाँ उठती थीं तो लगता था कि जैसे हमारे चारों ओर कोई रो रहा है!
"उठो ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम उठ गए दोनों ही,
अब गौर से कान भिड़ाए अपने!
"यहां आवृत्ति ज़्यादा है?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, टोर्च की रौशनी के सहारे, आगे बढ़ते चले गए!
"थम जाओ!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?' बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
रुके वो,
"सुनो?" बोला मैं,
कुछ पल, अँधेरे में लगाए कान!
"रघबीरो? ओ रघबीरो?" गूंजी एक आवाज़! मरी मरी सी! थकी थकी सी! जैसे जान ही जाने वाली हो पुकारने वाले की!
"ओ री रघबीरो?" आई फिर से आवाज़!
"ओह..." बोले शर्मा जी,
"क्या?" फुसफुसाया मैं,
"सच कहा था उन्होंने" बोले वो,
"हाँ, लेकिन इस आवाज़ में तो दर्द है....." कहा मैंने, धीरे से,
"हाँ, कोई थक गया है शायद" बोले वो,
"हाँ, थक-हार गया है, टूट गया है!" कहा मैंने,
"कौन है वो अभागन? बेचारी?" बोले वो, हल्के से,
"यही तो देखने आये हैं" कहा मैंने,
"रघबीरो?" आई फिर से आवाज़,
हम चुप्प!
जैसे, डाँट कर, बिठा दिए गए हों वहीं पर!
"ओ री?" आई आवाज़,
"ओ रघबीरो?" आई फिर से आवाज़,
"सुन लै री?" आई फिर से एक ज़ोरदार आवाज़,
"ओह....." बोले शर्मा जी,
"बहुत दर्द में लगती है" कहा मैंने,
"अरी, सुन लै.....रघबीरो? ओ रघबीरो?" आई फिर से आवाज़!
सोचिये मित्रगण! ये अभागन, न जाने कब से, किस आस में, किस लौ की खोज में, किस लिए, क्यों, कब, कितने बरस पहले, निकली होगी! क्या उद्देश्य रहा होगा? किस वजह से? कब से भटक रही थी बेचारी! क्यों न कलेजा मोम हो? क्यों न काँप जाएँ पाँव ज़मीन पर?
"चलो उसी तरफ?" बोले वो,
"रुक जाओ" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"रुको अभी?" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोले वो,
"क्या पता, कोई आये?" बोला मैं,
"कौन?" बोले वो,
"शायद, रघबीरो?" बोले वो,
"हैं?" अचरज से पूछा उन्होंने!
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं लगता!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"क्यों आएगा कोई?" बोले थके थके से,
"क्यों? प्रेत-लीला से वाक़िफ़ नहीं आप?" कहा मैंने,
"हूँ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"नहीं लगता जी!" बोले वो,
दरअसल, वो परेशान हो उठे थे उस दर्द भरी आवाज़ के बार बार आने से, ये मैं भांप रहा था, बार बार!
"नहीं सहा जा रहा?" बोला मैं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बात सहने की नहीं" बोले वो,
"तो फिर, क्या?'' पूछा मैंने,
"इस अभागन की सिसकियाँ सुन कर जी खराब सा होता है!" बोले वो,
"किसी का भी होगा!" कहा मैंने,
"अरी, रघबीरो?" आई फिर से आवाज़,
"आओ, अब देखते हैं!" कहा मैंने,
"टोर्च?" बोले वो,
"बंद कर दो!" कहा मैंने,
तेज हवा सी चली! मिट्टी का गुबार सा उड़ा! जाँघों से गरम हवा टकराई, टांगों के बीच से गुजरी, छलकता हुआ पसीना दौड़ने लगा बचने को! भले ही गरम था, लेकिन हवा गरम हो, तो भी सीरी ही जान पड़ती है पसीने पर! ठीक वैसा ही हुआ! माथे से, चिपकी हुई मिट्टी निकाली, आँखें पोंछीं! सामने देखा, न कोई दीया, न कोई बाती, न बत्ती ही और न उजाला ही! कुछ नहीं! अँधेरे का चौरस राज, हर जगह! कौन लड़े! कौन भिड़े! यहां, दिन के कुछ नियम, उलटे हो जाते हैं! सो हुए थे, होते जा रहे थे!
"सुन लै री.....सुन लै...." आई फिर से एक टूटती हुई सी आवाज़!
"आओ, चलो सामने ही!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
मिट्टी झाड़ते हुए, बे-आवाज़, हम आगे बढ़ते चले, आवाज़ कुछ पास सी आने लगी!
"रुको?" बोला मैं, और हाथ से पकड़ लिया उनको! रुक गए वो!
"ओ रघबीरो? रघबीरो री, ओ री रघबीरो......" इस बार, एक ही लय में आवाज़ आई!
"अब पास ही है!" कहा मैंने,
"किस तरफ?'' बोले वो,
"बाएं" बोला मैं,
हम इस बार आहिस्ता आहिस्ता से आगे बढ़े! क़दमों की आवाज़ से, कहीं चौंक ही न पड़े वो, इस का ध्यान रख रहे थे हम! लेकिन सूखी टहनियाँ, पत्ते, जो पांवों के नीचे आ जाते थे, चरर्म-चर का सा शोर मचा रहे थे! आवाज़, ज़्यादा होती, तो रुक जाते, और फिर आगे बढ़ जाते हम!
"नाय बचूंगी....नाय.....रघबीरो? ओ रघबीरो? नाय बचूंगी....नाय....." लगाई उस बूढी औरत ने हाय सी.....
उफ्फ्फ.....दिल झनझना के रह गया हमारा तो! कौन है ये अम्मा, ये बूढी औरत? कौन? कहाँ से आई है? कहाँ को जाना है? काश.............पहुंच ही जाती!
आगे बढ़ते बढ़ते.अचानक से, शर्मा जी के पाँव से कोई बिल टूटा, पाँव धंसा और धम्म से गिर पड़े वो, मुंह के बल! मैंने झट से झुक कर, उनको पकड़ा!
"रघबीरो? ओ रघबीरो? लाली? आ गई? आ गई तू?" आई आवाज़!
इतने तक, शर्मा जी उठ चुके थे और कोई, आ रहा था हमारी तरफ, अँधेरे में से, हमारी तरफ, बढ़ता हुआ! हम, जस के तस, वहीं खड़े रहे!
खन्न, खड्ड-खड्ड! ऐसी आवाज़ें! शायद, पांवों में मोटे मोटे हाँसोले पहने होंगे उसने, चांदी की सी आवाज़ थी! चांदी के बजने की आवाज़, ज़मीन की तरफ जाती है, सोने की, आसमान की तरफ! आजमाना कभी!
"लाली? रघबीरो? आ ली तू?" आई आवाज़,
और तब, हमारे पास से, एक बूढी औरत, गुजर गई, दोनों हाथ, आगे बढ़ाए, आगे, जैसे, कुछ पकड़ना चाहती हो!
इसका क्या मतलब हुआ?
क्या उसने देखा नहीं हमें?
क्यों? क्यों नहीं देखा उसने?
"रघबीरो? लाली??" पुकारी वो औरत, आगे बढ़ते हुए, रुक गई, पलटी, लेकिन हमारी तरफ, नज़र न उठायी! क्यों???
"लाली?" अब रो पड़ी वो अम्मा!
सिसक उठी, बूढी छाती में, ढक्कन से खुल गए, जैसे, हवा निकल भागी हो उनमे से! ओह....ऐसी सिसकियाँ?
"रघबीरो? ओ रघबीरो?" बोली बेचारी वो औरत!
रुक गई, थम गई, किये हाथ नीचे, सर पर रखी पोटली, रख दी नीचे, काली सी कमीज़, कत्तर सी लटकी थीं उस पर, गले में, हंसली, हाथों में, चांदी के कड़े, नंगे पाँव, कोई साठ-पैंसठ की रही होगी वो औरत! वो...बूढी औरत!
"अम्मा?'' बोला मैं,
न रहा गया, उसका अकेलापन, उसको मज़बूरी, बींध गई हृदय मेरा! अब जो हो, सो हो!
"भैय्या? ओ भैय्या?" बोली वो,
"हाँ अम्मा?" बोला मैं,
"लाली है इत ताईं?" बोली वो,
"न अम्मा, कोई ना?" बोला मैं,
"लाली न है?" बोली वो,
"ना" बोला मैं,
"कित  डिगर गई? भूल तौ ना गई?" बोली वो, लाचार सी!
"कौन है लाली?" पूछा मैंने,
"लाली?" चीखी वो, चीख, एक खांसी पर रुकी!
"अम्मा?" बोला मैं,
न सुनी उसने! ढूंढे, हाथों से अपने!
"अम्मा?" बोला मैं,
"भैय्या?'' बोली वो,
"अम्मा, दीखै न है तोय?" पूछा शर्मा जी ने,
"बहिय्या, रतियारी है मोय....रात में ना दीखै...." बोली वो,
रतियारी, मायने, रतौंधी!
ये सुनकर तो, ज़मीन ही हिल गई मेरी! रात! अँधेरा! और ये, रतौंधी से पीड़ित, बूढी औरत! मोतिया पका होगा आँखों का उसके, बेचारी! बेचारी अम्मा!
''लाली कौन है अम्मा?'' पूछा मैंने,
"धेवती" बोली वो,
"साथ लायी तुम?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कहाँ भेजी ही?" बोले शर्मा जी,
"पानी" बोली वो,
"पानी लेवे?" बोले वो,
"हाँ, बहिय्या...जन कित गई...." बोली वो,
"आती होगी!" बोला मैं,
"हाँ" बोली वो,
"अम्मा?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"कहाँ जाओगी?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अम्मा कुछ भी न बोली! बस चुप! चुप ही रही! रतियारी वाली आँखों में, सुबह का इंतज़ार लिए! या फिर, अपने गंतव्य का ही! लेकिन, फिलहाल में तो उसको, अपनी उस धेवती, रघबीरो का बेसब्री से इंतजजार था! जो शायद, पानी लेने गई थी उस अम्मा के लिए, और शायद, फिर न लौटी थी, या जब तलक लौटी, अम्मा लौट चुकी थी इस देह से! शायद, यही हुआ था, या कुछ ऐसा ही, अभी ये मेरा अंदाजा भर ही था, और कुछ तज़ुर्बा भी, कि ऐसा ही तो होता है अक्सर! ज़्यादातर बानगी तो मैंने, यही देखी है!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कहाँ तक जाओगी?" पूछा मैंने,
अब अम्मा फिर से चुप!
"बताओ तो सही अम्मा, हो सकता है, कुछ मदद कर दें हम आपकी? हम भी आगे तक ही जा रहे हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"वो, कोट से होकर, आगे तक" कहा मैंने,
"खैर तक?" बोली वो,
"हाँ, आगे तक" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"है कोई उधर, वहीं जाना है" कहा मैंने,
"रास्ता खूटऔ है?" बोली वो,
"हाँ, खूट गौ दीखै!" बोले शर्मा जी,
"दिन ढल चुकऔ है" बोली वो,
"हाँ अम्मा" कहा मैंने,
"रातन ताईं भली ना?" बोली वो,
"हम हैं ना संग?" बोल मै,
"छोरी आ लै पहरे" बोली वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
ओ अम्मा! अब न आवे छोरी! अब न आवे! छूट गई छोरी तो बहुत पीछे! बहुत ही पीछे! पता नहीं, अब तो, कहाँ है, है भी, या नहीं! तू किसी को याद भी है, पता नहीं! याद है, तो बस इस बीहड़ को! ये बीहड़, जो तेरे लिए, खोल देता है तमाम रास्ते! तू तो, न जाने कितनी पुरानी मेहमान है इस बीहड़ की! इसी बीहड़ की! अब तो, जैसे, तेरा हक़ हो चला है इस बीहड़ पर! और देख अम्मा! ये बीहड़! कैसा खुश है! कैसा खुश! तुझे, पनाह देकर! दीन-दुनिया से दूर! बे-खबर! न आवे कोई, न जावे कोई! न रुके कोई, न ठहरे कोई! बस, सूरज तले, गुजर जाते हैं कुछ मुसाफिर! दूर, देहात के लिए! अपने अपने, ठौर-ठिकाने के लिए! तू किसे याद है? ना! अम्मा! किसी को भी न! जो जाने है तुझे, तो बस, ये बीहड़, ये मिट्टी, ये रेत, और कुछ बूढ़े पेड़, ठूंठ, तेरी तरह! बस! यही है पता तेरा! न लौटेगी छोरी! अम्मा, तेरी धेवती, वो रघबीरो, न लौटेगी!
"रघबीरो नाम है धेवती का?'' पूछा मैंने,
"हाँ, भैय्या" बोली वो,
"अच्छा अम्मा!" बोला मै,
"पानी पियोगी?" पूछा मैंने,
"है?" बोली वो,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"पिरा दै भैया, प्राण जाए हैं!" बोली वो,
"हाँ अम्मा, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"शर्मा जी, पानी पिलाओ अम्मा को!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
अम्मा के लिए, पानी की बोतल खोली, पके मोतिया वाली आँखें, पिटीं कुछ और अम्मा ने, ओख बना ली, सीधे हाथ की! पानी छलका हाथ में! कुछ हलक़ में उतरा और कुछ बह चला नीचे, जिसे, उस प्यासी मिट्टी ने, लपक कर सोख लिया!
ओख खोल दी अपनी, चेहरा रगड़ा, काँधे से रखे अंगोछे से, हाथ पोंछा अपना!
"और पी लो?" कहा मैंने,
"बस भैय्या!" बोली वो,
"प्यास लगी हो, तो पी लो!" कहा मैंने,
"ना, छोरी पीवेगी!" बोली वो,
"उसके लिए भी है!" कहा मैंने,
"आन दो" बोली अम्मा!
"ठीक!" कहा मैंने,
आना किसी ने नहीं था! कोई भी नहीं!
"किसके पास जाओगी अम्मा?'' पूछा मैंने,
"सोमा के" बोली वो,
"कौन है सोमा?" पूछा मैंने,
"सोमा" बोली वो,
"कौन सोमा?" पूछा मैंने,
"जंवाई है" बोली वो,
"अच्छा, लड़की ब्याही है उधर!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तो घर जा रही हो सोमा के?" बोला मै,
"हाँ!" कहा अम्मा ने,
"तो कोई छोड़ ही आता तुझे?" बोला मै,
"कौन?" बोली वो,
"लड़का कोई तेरा?" बोला मै,
"लड़का?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"गुजर गौ" बोली वो,
"गुज...र.." बोलते बोलते, रुक गया मै! उसी पल!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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गुजर गया था, उसका लड़का गुजर गया था, इसीलिए, ये शब्द सुनकर, मेरे मुंह में मेरे ही शब्द, अटक कर रह गए थे! ये कैसा खेल है तेरा ओ मेरे ईश्वर! कहीं तू अम्बार लगा देता है और कहीं ज़मीन ही उखाड़ देता है! तेरे खेल तू ही जाने, हम, भला क्या समझें और क्या जानें! वो तो भाई, बिरले ही होंगे जो कहते हैं, दम भरते हैं, कि तुझे जान लिया, तुझे पा लिया! सच्चाई में, हमें तो नहीं लगता! हम तेरे खेल ही नहीं समझे, तुझे क्या समझेंगे! तेरे खेल तू ही जाने!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"बड़ा लड़का था?" पूछा मैंने,
"एक ही था" बोली वो,
(अब समझने वाली ही बोली में लिख रहा हूँ)
"ओह, एक?" बोला मै,
"हाँ, वो भी गुजर गया" बोली अम्मा,
"कैसे अम्मा?'' पूछा मैंने,
"बीमार हुआ था, उठा न गया फिर" बोली अम्मा,
"ओह, उसका कोई बाल बच्चा?" पूछा मैंने,
"ज़िंदा न पैदा हुआ कोई" बोली वो,
ओह! पैदा तो हुए, लेकिन बचा न कोई, पहले कौन सी मेडिकल-फैसिलिटीज उपलब्ध हुआ करती थीं, आज की तरह, न जाने कितने ही थे ऐसे!
"कै बरस बीते लड़के को?" पूछा शर्मा जी ने,
"दो बरस भैय्या" बोली अम्मा,
"और लड़की कै हैं?'' पूछा शर्मा जी ने,
"दो" बोली वो,
"ब्याह दईं?" बोले वो,
"हाँ" बोली वो,
"तो तुम अब लड़की धोरै जा रही हो?" बोले वो,
"हाँ भैय्या" बोली वो,
"किसलिए अम्मा?" पूछा मैंने,
"रघबीरो कह रई, जी न लगै?" बोली अम्मा,
"लड़की ने छोड़ी तुम्हारे धोरै?" बोले वो,
"हाँ" बोली अम्मा,
"अच्छा, तो तुम छोड़ने जा रही हो, रघबीरो को, अपनी लड़की के घर, है न अम्मा?" पूछा मैंने,
"हाँ भैय्या" बोली वो,
"और पानी लेके आये हुए, कितनी देर हुई?" पूछा मैंने,
"जन पतौ ही ना?" बोली वो,
"रात ढल गई अम्मा!" कहा मैंने,
"जानूं हूँ" बोली वो,
"समझ गया मै शर्मा जी" कहा मैंने,
"मै भी" बोले वो,
"ये अम्मा ला रही होगी, उसे छोड़ने के लिए, उसके गाँव, अपनी लड़की के गाँव, रास्ते में लगी होगी प्यास अम्मा को, कुछ ज़्यादा ही, लड़की बेचारी गई होगी पानी का इंतज़ाम करने, भगवान जाने, पानी मिला या नहीं, वो लौटी या नहीं, अम्मा के साथ..................अब आप जानते ही हो..." कहा मैंने,
"हाँ, यही मसला है" बोले वो,
"लेकिन, इतनी रात?' बोला मै,
समझ न आया, पहले लोग दिन अँधेरे तक, पहुंच लेते थे, दूर का मसला ही हो, तो तड़के निकल जाया करते थे, फिर, इन्होने भी ऐसा ही किया होगा, अम्मा कोई बालपन में तो थी नहीं, तज़ुर्बा था पूरी ज़िंदगी का उन्हें, फिर भी ऐसी गलती? कैसे हो गई भला? साथ में, वो लाली, रघबीरो, न जाने क्या उम्र रही होगी लाली की?
"अम्मा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"रघबीरो की उम्र क्या है?" पूछा मैंने,
"छह, सात?" बोली वो,
"ओहो!" निकला मुंह से मेरे,
कहीं बच्ची भटक तो नहीं गई? कहीं किसी जानवर का शिकार तो नहीं हो गई? करीब बीस-तीस साल पहले तक, यहां भेड़िये भी थे, और लक्कड़बग्घे भी भटका करते थे, कहीं कोई अनहोनी तो न हो गयी उस बच्ची के साथ?
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"गाँव कौन सा है तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"यहां से कोई तीन कोस" बोली वो,
"तीन कोस?" पूछा मैंने,
"हाँ, तीन" बोली वो,
"और जहां जाना है, वो कितना है और?" पूछा मैंने,
"कोट से, चार कोस" बोली वो,
"सात कोस?'' मेरे मुंह से निकला,
"हाँ" बोली अम्मा,
"ओह" कहा मैंने,
एक बूढी और एक बच्ची! एक के थके, कांपते बूढ़े पाँव, और एक के छोटे छोटे पाँव! बीच में ये बीहड़!
"कै बजे चली हीं?" पूछा शर्मा जी ने,
"कहा?" बोली वो,
"मतलब, कब निकलीं घर से?" कहा मैंने,
"निकले तो जरदी ही, मेह परगौ" बोली वो,
बारिश पड़ गई थी! और इसी वजह से शायद देर हो गई! यही वजह रही होगी! अब समझ आया कि क्यों उन्हें देर हुई!
"मेह से देर हुई?' पूछा मैंने,
"हाँ" बोली अम्मा,
"समझ गया अम्मा" बोला मैं,
"कीचम-काच है गई ही" बोली अम्मा,
"हाँ, समझ गया" कहा मैंने,
मैं, उस दृश्य में देखने लगा, न जाने कब का वाक़या था ये, लेकिन, अम्मा, एक एक बात बताए जा रही थी! और यही तो मुझे जानना भी था!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"तो तुम रघबीरो को छोड़ कर, वापिस लौट आओगी?" पूछा मैंने,
"दसहरा बाद" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अम्मा?" बोले शर्मा जी,
"हाँ भैय्या?'' बोलीं अम्मा,
"कब है दसहरा? पूछा उन्होंने,
क्या सवाल पूछा था शर्मा जी ने भी! इस से समय का भान हो जाता हमको! कि कौन सा माह रहा होगा उस समय! कम से कम, कुछ तो पता चलता ही!
"आगे माह में" बोली अम्मा,
इसका मतलब, अक्टूबर या फिर ज़ोर दो, तो नवंबर! इतना फ़र्क़ हो सकता था! चलो, ये तो पता चला ही!
"अच्छा अम्मा!" बोल मैं,
"पानी है धोरै और?" पूछा अम्मा ने,
"हाँ अम्मा! रेज कौ!" बोले शर्मा जी,
"पिरा दो मोय?" बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा, क्यों नहीं?" बोला मैं,
"लो अम्मा" बोले शर्मा जी, पानी देते हुए अम्मा को, अम्मा ने, फिर से ओख बनाई और पानी पीने लगी, घूँट भरने से ही पता चलता था, कि बहुत ही प्यासी है वो अम्मा, पानी की प्यास ने, क्या वक़्त दिखा दिया था अम्मा को!
"परदेसी दीखे हो?" बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा" बोला मैं,
:हाँ" बोली अम्मा,
"बस, तुमको देखा तो रुक गए" बोला मैं,
"हाँ" बोली वो,
"छोरी न लौटी?" बोली अम्मा,
"लौट आएगी" कहा मैंने,
"अवेर है गई भोत" बोली अम्मा,
"अवेर तो है ही गई" बोले शर्मा जी,
"ज़िद पकड़ लई" बोली अम्मा,
"किसने?" पूछा मैंने,
"छोरी ने" बोली वो,
"बालक है" कहा मैंने,
"मानी ही न?" बोली वो,
"कोई बात ना" कहा मैंने,
"मिने कही, सरदेई लिवा लेगी, ना, ना!" बोली गर्दन झिड़कते हुए,
"सरदेई कौन अम्मा?" पूछा मैंने,
"बड़ी लाली" बोली अम्मा,
"अच्छा, रघबीरो की माँ?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली अम्मा,
"देखियो?" बोली अम्मा,
"क्या अम्मा?" बोला मैं,
"लौटी के ना?" बोली अम्मा,
"आती होगी!" कहा मैंने,
"अम्मा?" बोला मैं,
"हाँ?" बोली वो,
"एक बात पूछूं?" बोला मैं,
"च्यौं न?" बोली वो,
"बुरा तो न मान जाओ?" पूछा मैंने,
"तुम्मने कहा बिगाड़ो है मेरौ?" बोली,
"ना, कदि मान जाओ बुरा?" बोले शर्मा जी,
"ना, भईय्या, पूछो?" बोली वो,
"नाम क्या है तुम्हारा अम्मा?" पूछा मैंने,
"लाखी" बोली वो,
"लाखी अम्मा!" कहा मैंने,
"हाँ भैय्या!" बोली वो,
तो अम्मा का नाम था लाखी! लाखी! भटकती हुई लाखी! उस बीयाबान में! अकेले! इंतज़ार में! एक इंतज़ार, जिसका कोई अंत न हुआ था अभी तक! और शायद, अब, हम वो, ज़रिया थे, कि लाखी का इंतज़ार, अब खत्म हो, कैसे भी! बहुत भटक ली लाखी! बहुत! और पता नहीं, कितना भटकती! कितना और! पता न! कोई थाह नहीं! थाह, उसके इंतज़ार की तरह!
"तो अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"इंतज़ार में हो?" बोला मैं,
"हाँ" बोली वो,
"रघबीरो के?" बोला मैं,
इस से पहले, कुछ कहता, हवा का झोंका उड़ा, फिर से, गुबार लिए, रेत का! रेत के कण, शायद मेरे ही कण थे! मेरे ही आत्मविश्वास के से कण! जो, इस लाखी को, सच्चाई से अवगत कराने के लिए, चूर चूर हो, बिखरने लगे थे!
"अरी आ जा री" एक लय में बोली लाखी!
ना आएगी अब वो!
"आ जा री, आ जा री! रघबीरो? बेटी? आ जा?" बोली वो,
कलेजे में फफोले से पड़ गए उसका दुःख देख कर! किसे पुकार रही थी वो? किसे? कहाँ? किसको? कौन आएगा? लाखी, मान! कोई नहीं आने वाला!
"अरी आ जा री!" धीरे से बोली लाखी!
मुझे, कोहनी मारी शर्मा जी ने! मैंने झट से देखा उन्हें!
"कह दो." बोले मुंह फेरते हुए,
"कैसे?" कहा मैंने,
"जानते नहीं हो?" बोले वो,
"रघबीरो? मत ना छोड़ मोय? मत ना छोड़! आ जा! आ जा लाली............" बोल उठी लाखी!
और मेरे, गले में जैसे, फंदा सा पड़ने लगा! कैसे कह दूँ? कैसे? कैसे डगमगा दूँ विश्वास इस असहाय, बूढी, लाखी का? कैसे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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किसी के साथ, धोखा करना आसान है, आँखों में धूल झोंकना आसान है, किसी को बरगलाना, शब्दजाल में फंसाना, आसान है, परन्तु ऐसी असहाय, अडिग, सरल और वृद्ध अम्मा के इस इंतज़ार को खत्म करना ठीक वैसे ही कठिन है कि मुख में मिट्टी रखी जाए और वो किरकिरी भरी न हो! उसका इंतज़ार, अब तलक तो उसकी ताक़त ही बन चुका था, ताक़त, जिसके सहारे, इस बीहड़ में वो खुद को क़ैद ही कर बैठी थी! प्यास से तड़पती, इंतज़ार में तड़पती, उसके इस बूढ़े विश्वास को मैं कैसे दो-फाड़ करूँ? कहाँ से लाऊँ वो शब्द, और कहाँ से लाऊँ वो हिम्म्त, जो अब तक तो रिसती ही जा रही थी मेरे लहू से, मेरे दिल में जा, इकट्ठी हुए जा रही थी, इकट्ठी भी कैसे कहूं? कहीं छिप ही तो नहीं रही थी, मुझ से ही? शायद यही बात थी, अब शायद भी क्यों कहूं? बात यही ही थी! जब शर्मा जी जैसे, अनुभवी, उम्र के तीसरेपन में आये हुए जैसे इंसान ही मुंह फेरने लगें, तो मैं कहाँ जाऊं? वापिस ही लौट जाऊं? नहीं, ये तो फ़र्ज़ से मुंह छिपाना हुआ, ठीक वैसा कि सामने वाला, अबोध सा बालक, ज़हरीला फल खाये और हम रोके भी नहीं उसे, ठीक कुछ वैसा ही! और फिर, एक बालक, एक वृद्ध में फर्क ही क्या? समझ तो एक जैसी ही होती है! ज़्यादा बोल नहीं सकते, नहीं तो सुनो वृद्ध से दो की चार! और बालक, दुबारा कभी आपके समीप ही न आये!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"कैसे?" कहा मैंने,
"बताना तो होगा?" बोले वो,
"हाँ, लेकिन कैसे?" पूछा मैंने,
"बन जाओ पत्थर?" बोले वो,
"कैसे?" कहा मैंने,
"बखूबी जानते हैं" बोले वो,
साफ़ था, वे तो कन्नी काट रहे थे, मामला कुछ और होता, तो शायद निकल भी लिए होते वहाँ से अभी तक, लेकिन वो, रुके हुए थे, अंजाम देखने को, इंतज़ार में! ठीक मेरी ही तरह! बस, इस अंजाम का चाबुक मेरे हाथों में था, हांक मैं रहा था इस अंजाम की बुग्गी! सवार तो हम तीन, कब के हो ही चुके थे उसमे!
अब क्या करूँ?
तो फिर, कुछ सोच, कुछ और सोच, ये कर, वो न कर, वो कर, ये न कर, कुछ सोचा, सोचा, इंसानी जज़्बात तो भड़का ही करते हैं! खौल पड़ते हैं, और फ़र्ज़ ठंडा ही रहता है! वो नहीं खौलता! फ़र्ज़ के पानी में, ठंडे पानी में तो, सर्दी हो लम्हे की या फिर गर्मी उसकी, भीगना तो पड़ता ही है! तो भीगना ही था! दरकिनार कर देने थे इंसानी जज़्बात! ज़हनी जज़्बात! जुटा लेनी थी हिम्म्त! निकाल बाहर खींचना था उस हिम्मत को, अपने दिल की खाई से! तभी कुछ हो सकता था, नहीं तो, ऐसी लाखी, हज़ारों होंगी! हज़ारों! आग बुझाओगे तो हाथ जलेंगे भी! पानी पिलाओगे तो गीला भी होना होगा! खाना खिलाओगे तो उँगलियों में, नमक का स्वाद तो ज़रूर ही आएगा! ना! नहीं बचा जा सकता! ऐसा भी हो जाए और वैसा भी न हो, ऐसा तो हरगिज़ मुमकिन ही नहीं!
"लाली? मेरी लाली?" आई आवाज़ अम्मा की!
पल भर को, मेरे कोट की दीवार जा हिली!
"आ जा लाली? आ जा?" बोली अम्मा, इस बार खड़ी हो गई! पहले, उकड़ू सी बैठी थी! एक झोली पकड़े!
नज़र भरी मैंने आपकी कलाई पर, घड़ी देखी, बारह से ऊपर का वक़्त हो चला था, देखा मैंने, मेरी घड़ी जैसे हंसी हो! जैसे आज कह रही हो, देख! कैसे भगाती हूँ वक़्त को आज मैं! मेरी घड़ी में सेकण्ड्स ऐसे भागे जा रहे थे कि जैसे आज आग ही जा लगी हो उनमे तो! वक़्त चुए जा रहा था मेरे हाथों से! कुछ न कुछ तो करना ही था, कुछ न कुछ!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"लौटना कब है?" पूछा मैंने,
अम्मा न समझ सकी! भोली-भाली अम्मा! मेरे शब्द, मकड़जाल से लगे अम्मा को! वो सीधी-सादी अम्मा, ऐसे शब्दों को सुनने की आदि न थी! मैं चूक गया! पहली ही बार मैं! खाली चला गया मेरा अपना वार ही!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ भैय्या?'' बोली वो,
"सोमा भी आ सकता था ना?" पूछा मैंने,
"ना आ सकै हां......." बोली अम्मा,
"क्यों अम्मा?" पूछा मैंने,
"खबर आई ही" बोली अम्मा,
"सोमा की?" पूछा मैंने,
"हम्बै" बोली अम्मा,
"कैसी खबर?" पूछा मैंने,
"न आ सकै...." बोली अम्मा,
सोमा न आ सकता था, खबर आ पहुंची थी उसकी, आया होगा गाँव में कोई उस ओर से, तभी जान सकी होगी अम्मा!
"रघबीरो?" बोली अम्मा,
और मैं, जानकर भी, न रोक सका अम्मा को!
"अरी आ जा...." बोली अम्मा,
आधे शब्द, बाहर, आधे शब्द, गले में ही जा रुके!
अम्मा, जाने को हुई, एक तरफ! मैं आगे बढ़ा तभी, फौरन के फौरन!
"कहाँ अम्मा?" पूछा मैंने,
"देख कै लाऊँ वाय...." बोली अम्मा,
"बैठो, आती होगी?" कहा मैंने,
अम्मा रुक गई, और, वहीँ, घुटनों पर बैठ गई, अपनी वो झोली, अपनी गोद के बीच में फंसा कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै एकटक उस अम्मा को बैठे हुए देख रहा था! कभी हँसता, मुस्कुराता और कभी ग़मगीन हो उठता! हँसता, मुस्कुराता कि अब, लाखी का इंतज़ार खत्म होने को है, और ग़मगीन इसलिए, कि अभी उसको बताना भी है, हक़ीक़त से वाक़िफ़ भी करवाना है! और यही तो सबसे मुश्किल है! लाखी अम्मा, बार बार, सर घुमा, आसपास, देखने की कोशिश करती थी, रतौंधी थी, दीख पड़ता नहीं था! अंधेपन से पीड़ित थी रात के! कैसी मज़बूरी में आ फंसी थी बेचारी लाखी!
"रे कित डिगर गई लाली?" हल्के से बोली वो,  
आवाज़ में, मज़बूरी, इस बार तो, साफ़ घुली मिली! मज़बूरी, जो, साथ ही न छोड़ रही थी इस बुढ़िया का! तरस ही न आ रहा था उसकी इस हालत पर उसे!
एक गुबार उठा इस दफा! तेज सा गुबार! मिट्टी को अपने आग़ोश में लपेटे हुए, मेरी भौंहों के बीच में, एक सूखा सा तिनका आ फंसा, अपने हाथ की ऊँगली से उस हटाया मैंने, होंठों के किनारे और, मिट्टी आ जमी! नथुनों में, सूखी, गरम मिट्टी की खुशबू आ समाई! बालों में, मिट्टी ने आ, पनाह ली! पसीने फिर से इधर उधर दौड़ने लगे! कुछ फ़ना हो गए और कुछ नीचे की ओर बह निकले! मेरी गर्दन पर, पीछे की तरफ, गीली हुई कमीज, पसीने के नमक की वजह से, कड़क होने लगी थी, सूती कपड़े ने, सोंख लिया था उसे! मेरा हाथ, खुद-ब-खुद, करीब चला गया वहाँ! कुछ खारिश सी उठी, और खुजा लिया मैंने उधर! कुछ ध्यान बंटा मेरा, लेकिन, नज़र, उसी बूढ़ी लाखी पर जमी रही!
"अम्मा?" बोला मैं,
"हाँ" बोली वो,
"चल, आगे चल अब!" कहा मैंने,
उसने फिर से अनुसना कर दिया मुझे! मैं मुस्कुरा पड़ा!
"अम्मा?'' कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
टटोलते हुए, मेरी आवाज़ को, कि आई कहाँ से है मेरी वो आवाज़! लाखी, सिर्फ हमें सुन ही रही थी, देख नहीं रही थी, देख नहीं पा रही थी! हाँ, इतना ज़रूर था, कि शायद, हम पहले थे, जिन्होंने उसको पानी पिलाया था! शायद ही पहले!
"अम्मा?'' कहा मैंने फिर से,
इस बार, फेंकी रस्सी, खाली नहीं खींचना चाहता था मैं! इस बार उसमे, कुछ फंसना ही चाहिए था! और अब तक, मैं उसकी दयनीयता देख देख, पत्थर सा भी हो चला था! पत्थर सा, जिस पर असर न पड़ना चाहिए था, मनोभावों का!
"अम्मा?" कहा मैंने फिर से,
"हाँ?" बोली वो,
"चल अब!" कहा मैंने,
"कि.................." अम्मा कहते कहते रुकी!
"हाँ, चल अब आगे!" कहा मैंने,
"ना! ना!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो छोरी!" बोली अम्मा,
"कौन सी छोरी?" पूछा मैंने,
"धेवती?" बोली वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"मेरी?" बोली वो,
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
अम्मा चुप्प! झोली, और अंदर, उडेस ली, अपनी गोदी में!
"हाँ, अम्मा?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"क्या नाम है धेवती का?'' पूछा मैंने,
"रघबीरो" बोली वो,
"कहाँ भेजा उसे?' पूछा मैंने,
"न भेजा, खुद गई ही!" बोली अम्मा, घबरा कर,
"किसलिए?' पूछा मैंने,
"पानी" बोली वो,
"किसे पीना था?'' पूछा मैंने,
"वाय" बोली वो,
"और तोय?' बोले शर्मा जी,
"हाँ, मोय भी" बोली वो,
"अम्मा?" कहा मैंने,
अम्मा कुछ न बोली, बस, सर उठाकर, देखा हमें, कोशिश की देखने की! देखती कहाँ से बेचारी लाखी!
"खड़ी हो अम्मा?" कहा मैंने,
"च्यौं?" पूछा उसने,
"चल अब!" कहा मैंने,
"कित?" बोली वो,
"जहां जाना है तुझे?" कहा मैंने,
"सोमा धोरै?" बोली वो,
"ना!" कहा मैंने,
"फेर?" बोलते हुए, हुई खड़ी अम्मा!
"अम्मा?" कहा मैंने, और अब, आगे चला, उसके पास, पहुंचा, कुछ दूर, जा रुका, अब गौर से देखा उसे! गले में पड़ी चांदी, हल्की सी चमक रही थी, चाँद की रौशनी को, पलटाते हुए!
"अम्मा?'' कहा मैंने,
न बोली कुछ, बस सुने ही अब तो!
"अम्मा?" कहा मैंने,
अम्मा कुछ न बोली इस बार भी!
"सुन, सुन अम्मा?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"जो कहन, ध्यान से सुन अम्मा!" कहा मैंने,
"कहा?" बोली वो,
"सुन तो लै अम्मा?" बोले शर्मा जी,
"कहा?" पूछा उसने,
"बता रहा हूँ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अम्मा, चल!" कहा मैंने,
"चल?" बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा! चल!" कहा मैंने,
"कित?" पूछा अम्मा ने,
"अब इंतज़ार खत्म अम्मा!" कहा मैंने,
"आ ली छोरी?" बोली अम्मा,
खड़े होते हुए, ज़ोर लगाते हुए, साधते हुए अपने शरीर को, बूढ़े शरीर को! देखने को, लेकिन आँखें, कैसे देखें उसकी!
"अम्मा, अब न आएगा कोई!" कहा मैंने,
"कहा?" हुआ अचरज! समझ न आया! जो कहा मैंने, नहीं आया समझ अम्मा को! इसीलिए झट से बोल पड़ी अम्मा!
"कौन न आवेगा भैय्या?" पूछा अम्मा ने,
"कोई भी!" कहा मैंने,
"नाय समझी?" बोली अम्मा,
"कोई भी अम्मा!" कहा मैंने,
"छोरी तो आवेगी?" बोली अम्मा,
"छोरी होगी, तो आवेगी अम्मा?" बोला मै,
न आया समझ! कुछ समझ न आया उसे! मुझे तो लगा था, या तो अम्मा टूट जायेगी, या फिर, हैरत से, हमसे ही भिड़ पड़ेगी! लेकिन अम्मा को तो जैसे, कुछ समझ ही न आया! ऐसी सरल थी अम्मा! वो लाखी! वो बूढ़ी लाखी!
"आम?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"न आया समझ?" पूछा मैंने,
"कहा?" बोली वो,
"छोरी, अब न आवेगी!" कहा मैंने,
"का??" अब सुना उसने! अब लिया संज्ञान?
चली हमारी तरफ! हाथ बढ़ाते हुए अपना! और आ गई शर्मा जी के पास, पकड़ ली बाजू उनकी! कमीज़, मुड़ गई उनकी! कंधे से, ढलने को हो गई!
"कहा बोरो?" बोली वो,
"हाँ अम्मा!" बोले शर्मा जी,
"कहा?" बोली वो,
"हाँ! अब न आवेगी!" बोले वो,
अम्मा ने छोड़ा उनका हाथ! छोड़ी कलाई! और वहीँ, जा बैठी! अब मारी दहाड़ उसने! बूढ़ी छाती फटने को हुई!
"रघबीरो री, मेरी रघबीरो री!" बोली अम्मा,
"चुप हो जा म्मा!" बोले शर्मा जी,
न हो चुप! हाय-हाय मचाए! सर हिलाये, छाती में, घूंसे मारे! जाँघों में कलाइयां मारे! मैंने भी न रोका! फटने दो! बहने! रिस जाने दो! झड़ने दो, वक़्त की वो गर्द जो, न जाने कब से जमी हुई थी उसके इंतज़ार की चादर में! झड़ ही जाए तो अच्छा! छन ही जाए जितना, तो अच्छा! लेकिन एक बात की ख़ुशी हुई मुझे! बेहद ख़ुशी! ख़ुशी कि अम्मा को, यकीन हो चला था हमारे शब्दों पर!
"रे मोय च्यौं मौत न आई रे??" चिल्लाई वो!
हम चुप्प!
करें इंतज़ार! इंतज़ार, कि इशारा हो, और इस मंजर पर, बस अब आखिरी पर्दा पड़े! जो, फिर न उठे!
"कैसी अभागन हूँ रे?" बोली अम्मा, रोते रोते!
अब मुझे, मुस्कुराना आ ही गया! उस पल! उस बूढ़ी औरत पर! हाँ! पत्थर हूँ मै? पता नहीं! हूँ क्या? पता ही नहीं!
"कैसी गलती है गई रे?'' चीखी लाखी!
हंसी तो नहीं आई, लेकिन होंठ चौड़े हो चले! कैसा सुकून मिला! कैसा सुकून! मै ही जानूं बस!
"भैय्या?" सम्भाले होश लाखी ने!
और बढ़ाया हाथ अपना! और मैंने!! मैंने, अम्मा कहते हुए, हाथ जा थामा अम्मा का! लगा, उसका अपना ही हूँ मै कोई! उसका अपना! तभी तो हाथ बढ़ाया था लाखी ने!
"हाँ अम्मा?" कहा मैंने,
और उठा लिया लाखी को! अब देखा उसको! बूढ़ी आँखें, सफेद पड़ी थीं! झुर्रियों से शायद, उम्र में, बहुत पहले ही, मित्रता हो गई थी लाखी की! उम्र ने, जो सफेद किये थे उसके बाल, चमकदार, बता रहे थे उसकी आपबीती! जीवन भर, जैसे पिसती ही रही थी लाखी! और बी, जब इंसान, मिट्टी में मिल, चैन की बंसी बजाता है, ये इस बेज़ार बीहड़ में, अकेली भटक रही थी! उफ़! कैसा दर्द! कैसा इंतज़ार! कैसा वक़्त!
"हाँ अम्मा?'' बोला मै,
"कहा रह्यो?" बोली, बिफरते हुए!
"अम्मा?" कहा मैंने,
हाँ भी नहीं कहा अम्मा ने इस बार तो! जब हाँ कहती थी, तो बड़ा ही सुकून सा मिलता था जी को!
"अम्मा, बख्त बीत गया, कोई रही होगी रघबीरो!" कहा मैंने,
"नाय समझी भईय्या?" बोली वो,
"समझाता हूँ!" कहा मैंने,
और पकड़ा उसको काँधे से!
"आ अम्मा, बैठ!" कहा मैंने,
अम्मा, उकड़ू बैठ गई, नीचे! और साथ में, मै भी!
"अम्मा, खूब बख्त बीत गया!" कहा मैंने,
"कैसौ?" बोली अम्मा,
"रघबीरो गए!" कहा मैंने,
अम्मा ने सुना, और फिर से बुक्का फाड़, ज़ार ज़ार रोने लगी!
"मतना रो!" कहा मैंने,
"हाँ अम्मा, अब नाय रो!" बोले शर्मा जी, नीचे बैठते हुए, संग मेरे!
"भैय्या? भैय्या?" बोली लाखी, तेज सी साँसों में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ अम्मा? अम्मा?" पूछा मैंने,
अम्मा, अब ज़ोर ज़ोर, सांस ले! जैसे, सांस, अटके जा रही हों! जैसे, बड़ी ही मुश्किल से, मुंह से बाहर आ रही हों!
"क्या हुआ अम्मा?" पूछा मैंने,
"छोरी, मेरी छोरी, छोरी!" बोली अम्मा, एक ही सांस में, सांस, जब तलक, टूट ही न गई! बहुत दया आई! बहुत ही दया! लेकिन, अब तो हवा थी वो! हवा, बस हवा!
"छोरी नहीं लौटेगी अम्मा!" कहा मैंने,
"मना कर रही वा ते! खूब मना की, नाय मानी, नाई मानी री मेरी रघबीरो!" बोली अम्मा, बूढे हाथ की, खुरदुरी सी खाल, महसूस की मैंने अपने हाथ की पुश्त पर! पकड़, पकड़ उस बुढ़िया के हाथों की!
"भैय्या?'' बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा? बोल?" बोला मैं,
"मोए छोड़ि आओ, छोड़ि आओ!" बोली अम्मा, गर्राते हुए, गिड़गिड़ाना नहीं लिख सकता, जी नहीं मानता ये लिखने को!
"कहाँ अम्मा?" पूछा मैंने,
"सोमा धोरै, सोम धोरै, सरदेई धोरै रे...........सरदेई....धोरै....हाय......" फिर से बिफरी लाखी!
"मि कैसे कहूंगी रे...कैसे कूंगी रे, लाली, ओ लाली, आ जा, रघबीरो?" चिल्ला के बोली वो नाम!
"किस से कहोगी अम्मा?" कहा मैंने,
"सोमा, सरदेई से रे....हाय..." बोली अम्मा, रोते रोते!
"अम्मा?" बोला मैं,
अम्मा, न सुने!
रोये ही रोये! उठ उठने को हो! और मैं रोकूं उसे! बूढी है, कहीं चोट ही न लग जाए! दिमाग खेले खेल! भूले, बार बार, वो जीती-जागती इंसान नहीं, अब तो हवा है! प्रेत है! प्रेत बस! एक इंतज़ार करता प्रेत!
"तो सै तो मि मर जाती रे......मि मर जाती....." बोली अम्मा,
"अम्मा?" कहा मैंने,
"मोए च्यौं मौत नाय आई रे......च्यौं न आई रे...." बोली अम्मा,
"अम्मा? सुन, सुन तो?" कहा मैंने,
"मोतै कहा गरती है गई रे, मिर राम रे...." बोली अम्मा,
ओह! अब जी फटा! फटा जी मेरा! गुहार लगा रही थी राम जी से, कि उस से क्या गलती हो गई जो उसके प्राण नहीं लिए उस लड़की के बदले!
अब कौन सा पत्थर, न दरके! कौन सा बीहड़, न रोये! कौन सी मिट्टी, रूह को उसके, पनाह न दे? कौन सा पेड़, कौन सा पौध, अंजान बन, नज़र फेर ले उस से? कौन सा आसमान, न बांधे उसको नज़र में? कौन ही हवा, न गिने उसके कदम? कदम, जो वो रोज भरती थी! गिनती के कदम!
"मोय छोड़ि आओ रे, छोड़ि आओ?" बोली अम्मा, सर हिलाते हुए!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"छोड़ि आओ रे!" बोली वो,
"अम्मा?" कहा मैंने,
"मोए मारि डारो रे, मारि डारो मिर राम??" बोली अम्मा,
"अम्मा? सुन तो सही?" कहा मैंने,
"मोय च्यौं छोड़ि दियौ रे.....च्यौं छोड़ि दियौ रे, च्यौं पाथर बन गयौ रे.......मोपै कछु भी दया न आई रे.........मिर...राम...." बोली अम्मा,
ओह..ऐसा रुदन?
किसका जी न मितला जाए?
"अम्मा? सुन?" बोला मैं,
अम्मा, न सुने! क़तई न सुने!
"सोमा कहा कहैगौ? सरदेई? सरदेई? मीने न खायी? मीने ने खायी छोरी?? सरदेई? मीने नाह खायी छोरी..." बोली अम्मा,
"अम्मा?'' बोले शर्मा जी,
"भैय्या?'' बोली वो,
"सोमा धोरै जानौ है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ मिर भैय्या!" बोली वो,
"चल, हो तैयार!" बोले शर्मा जी,
उठी अम्मा, झोली पकड़ते हुए अपनी!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"भैय्या?" बोली वो,
"रुक?" बोला मैं,
"अब नाय रोक भैय्या...अब नाय रोक.." बोली अम्मा,
"नहीं रोक रहा!" कहा मैंने,
"चल, छोड़ि आ मोय?" बोली अम्मा,
"हाँ अम्मा!" कहा मैंने,
"छोड़ने ही आये हैं!" कहा शर्मा जी ने,
"चलो?" बोली अम्मा,
"हाँ, एक बात पूछूं?" बोला मैं,
अब देखा मेरी तरफ, सर घुमाया अपना, बाल, लटक चले थे नीचे, झड़ते बाल, पतली हो गई लटें, छाती पर झूल चली थीं उसके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अम्मा चुप! शायद, आज पहली बार उसको, कुछ पता चला था, ऐसा नहीं कि उसने रास्ते की मालूमात नहीं की थी, की थी, कुछ लोगों को वो मिली भी थी, लेकिन उस जगह से वो तब तक न गयी थी जब तलक, उसकी धेवती वो, रघबीरो, उसे न मिल जाती! आज उसे सच्चाई से अवगत करवा दिया था, बूढ़ी औरत का वो इंतज़ार अब बस, चुकने को ही था! ये जितना जल्द होता, उतना ही सही भी था!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली अब, बोली कम, घैं-घैं ज़्यादा की उसने, शब्द, अटक गए थे उसके गले में!
"अम्मा, अब न सोमा है, न ही सरदेई, और तो और अम्मा, तेरा भी कोई निशाँ नहीं बचा है!" कहा मैंने,
अम्मा ने ये सुना, और उसके हाथ से, वो झोली छूट पड़ी नीचे! प्रेत-नैसर्गिकता बस अब जागने को ही थी, उसे, संज्ञान अब होने को ही था! एक बार संज्ञान हो उठता, तो वो जान जाती! जान जाती, तो राह फिर, आसान ही जो न हो जाती! लेकिन मित्रगण! कभी कभी आसान भी, बड़ा ही मुश्किल हो पड़ता है! जैसे, मिट्टी की एक किरकिरी आँखों में पड़ जाए तो कैसी तकलीफ दिया करती है! और कभी कभी, दरिया में डूबने के बाद भी, बाहर आ जाया जाता है! यहां किरकिरी भी थी, और उस दरिया में, मैं डूब भी गया था, बस, अब देर थी तो इतनी कि बाहर कैसे निकला जाए! इसी इंतज़ार में, साँसें एक से दो, दो से चार और चार से सोलह हुए जा रही थीं! खैर...
"अम्मा, तू न जाने कब से, इस बीहड़ में, इस बियाबान में, रास्ता फटके जा रही है! कोई फायदा नहीं अम्मा! आ! अब वक़्त आ गया है! आ, आ संग हमारे!" कहा मैंने,
अम्मा, हमें सीए महसूस करें, जैसे, हम जमदूत हों! लेने आये हों उसे! जगाने आये हों उसे! कि चल, अब रात बीत गई, भोर हुई! चल अब! चल, इंतज़ार खत्म अब तेरा! चल अम्मा! चल!
अम्मा, पीछे हुई, उलटे पाँव! भागा जाता नहीं उस से! यकीन भी करें, तो कैसे! न करें तो क्यों और कैसे!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"रुक, जा कहाँ रही है?" बोले शर्मा जी,
"कहा है रौ है...मोय न समझ में रौ?" बोली अम्मा,
"अम्मा, अब कहीं नहीं जा सकती  तू! कहीं नहीं!" कहा मैंने, इस बार, हंसी निकल गई मेरी! ये खोखली हंसी नहीं थी, उसकी दयनीयता पर हंसा हूँ, कुछ ऐसी ही हंसी थी! हंसना भी तो बनता था, आखिर, उसका इंतज़ार भी तो खत्म करना था!
"भैय्या?" बोली अम्मा,
"हाँ, अम्मा, बोल?" कहा मैंने,
"मोय छोड़ि जो आओ?" बोली वो,
मित्रगण!
अम्मा, मानने को न तैयार हुई! उसे यकीन दिल न सके हम! अब क्या किया जाए? कैसे समझाऊं? घड़ी देखी, तीन के आसपास का वक़्त हो चला था, आँखों में ही, इतना वक़्त बीत चला था, बीते ही जा रहा था! अब और नहीं, बर्ह्म-वेला लग जायेगी, और प्रेत-संध, समाप्त हो जाएगा! तब? तब दूसरी रात्रि? नहीं! ऐसा सम्भव नहीं! अब नहीं चूकना! अब चाहे कुछ भी जो करना पड़े! कुछ भी!
"अम्मा, लाखी!" कहा मैंने,
अम्मा, ने ज़ोर दिया कुछ कहने पर, न कह सकी! कुछ भी न!
"शर्म जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"बस अब!" कहा मैंने,
"हाँ, बस!" कहा उन्होंने!
"अम्मा?' कहा मैंने,
अम्मा, गिरने को तैयार!
न समझ आये उसे अब कुछ भी!
ये कौन हैं? कहाँ से मिल गए आज? कौन हैं? क्या कहे जा रहे हैं? क्या हुआ है आज? क्या?
"ओ लाखी?" कहा मैंने,
"ह....आ.....भ....या..." बोली लाखी, डर कर! अब डर गई थी वो! डरना ही था, कुचंग-विद्या, प्रेषित जो हो गई थी! कर ही दी थी मैंने प्रेषित! अब, न भाग ही सकती थी, न लॉप ही हो सकती थी लाखी! अब, जैसे, वही करती वो, कठपुतली की तरह! जैसा, मैं चाहता!
"लाखी!" कहा मैंने,
अम्मा समझी अब! तन कर हुई खड़ी! कर ली स्वीकार उसने, असलियत! ये, संज्ञान उभरा था! प्रेत-संज्ञान! कुचंग, अभी ही हाथ लगी थी मुझे! किसी वृद्ध साधक का आशीर्वाद मिला था!
"लाखी?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"भूल जा!" कहा मैंने,
अब, लाखी, ज़रा सी, नादोल( आराम की मुद्रा में, चिंता-मुक्त सा, भयहीन सा) हुई! और फिर...तब मैंने......


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अम्मा! चल, अब वक़्त हुआ!" कहा मैंने,
अब अम्मा संयत सी हो चली थी! बेचारी, करती भी क्या! कुछ भी नहीं! बस, उसी पल को, आखिरी बार जी रही थी वो! सच्चाई का सुख, सबसे बड़ा होता है, इस से बड़ा सुख, कोई नहीं! ये सच, अकेला ही, बेडा पार लगा सकता है! बाकी कुछ नहीं ठहरता इसके! मानता हूँ, पंगु है, लंगड़ा है, मूक है, सुनाई भी कम देता है इसे, देखता भी कम है, लेकिन, जीतता तो यही है! तो अम्मा ने, अब, क़ुबूल कर लिया था वो सच!
मित्रगण!
ठीक, रात, तीन बजकर, अठारह मिनट पर, लाखी ने, वो झोली मुझे पकड़ाई! और मैंने
 वो झोली, शर्मा जी को, वजन न था उसमे, जैसे रीती(खाली, खोखली) ही पड़ी हो वो! सूती कपड़े की थी वो झोली, उसमे, उप्र, पकड़ने के लिए, कुछ भी न था, एक कोने से ही थाम रखी थी, जब मेरे हाथों में आई, तो मुझे एक तेज गंध सी उठती सी सूंघ में आई थी, शायद, देसी घी रहा होगा, वो अब नहीं था, क्या हुआ होगा, पता नहीं, शायद, रिस गया हो, शायद, छूट ही गया हो, कपड़े ने सोख ली थी गंध!
मेरे मित्रो!
ठीक, तीन बजकर, इक्कीस मिनट पर, लाखी, छूट गई! छूट गई इस बे-मुरव्वत जहां से! चली गई, आगे के सफर पर! जितनी मेरी हैसियत थी, मैंने निभायी थी, जितना कर सकता था, किया था! और फिर, कौन किसी के लिए करता है! ये तो ताना-बाना है! तेरा कुछ देना है, तो तुझे दूंगा! तुझसे कुछ लेना है, तो कैसे भी करके, लूंगा ही! लाखी के कर्जदार थे हम, सो चुका दिया लाखी का, आप भी कर्जदार रहे होंगे उसके, सुनने को, जानने को, उस लाखी के बारे में! सो जान गए!
लाखी, सन उन्नीस सौ तैंतीस में, निकली थी, तड़के ही, अपनी धेवती संग, मिट्टी के घर से, रघबीरो, लाखी के सबसे बड़ी लड़की की बड़ी लड़की थी, अम्मा, नानी लाखी, बीमार थी, सो, रख छोड़ा था, देख-रख को! अब छह-सात बरस की उम्र क्या हो! पकड़ ली ज़िद, घर जाने की, और इस तरह, लाखी, उसको छोड़ने को, निकल पड़ी! निकली ऐसी, कि कभी न पहुंच सकी! उस रघबीरो का क्या हुआ? क्या बीता, नहीं जान सका मैं!
लाखी, उस बीहड़ में, भटकती रही! रोज! रोज प्यास मिटाने को! उसकी धेवती रघबीरो, पानी लेने जो गई थी उसके लिए! कभी न लौटी, और लाखी, प्यास में, खांसी के धंसके में, गंवा बैठी अपने प्राण! प्राण तो गंवाए, लेकिन इच्छा नहीं, चिंता नहीं! दोनों ही, उसकी रघबीरो की!
उस पोटली में, कुछ न निकला, सोने की तीन गिन्नियां, चांदी के पांच सिक्के, फूटी हुई मिट्टी के ढेले, शायद, मिट्टी के खिलौनों के हों, शायद, रघबीरो के छोटे भाई, या बहन के लिए, ले जा रही हो उन्हें, वो लाखी!
हाथ काँप उठे मेरे! कैसे उठाऊं सिक्के? किसको दूँ? क्या करूँ? और तब, सुझाया शर्मा जी ने, लाखी के शान्ति-कर्म में लगा दिए जाएँ! और ऐसा ही किया गया! लगा दिए! एक अंजान सा बोझ, उतार दिया!
आज भी, किसी बीहड़ को देखता हूँ, तो...कभी कभी...आ जाती है याद उस लाखी की! और होंठों पर..शब्द उसके और...उसकी "हां!" याद आती है! "भैय्या?" याद आती है! और, आती है, हंसी एक! तब, याद आता है...........एक थी लाखी! अम्मा! लाखी!
साधुवाद!


   
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