वर्ष २०१४ ज़ेवर उत्त...
 
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वर्ष २०१४ ज़ेवर उत्तर प्रदेश की एक घटना, लाखी का इंतज़ार!

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श्रीशः उपदंडक
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"ये पुल?'' पूछा मैंने,
"बहुत पुराना है जी!" बोले लाला जी,
"दिख रहा है!" कहा मैंने,
"अंग्रेजी मानो आप!" बोले वो,
"हाँ, तभी संकरा हो गया है!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"बाढ़ नहीं आती?" पूछा मैंने,
"पहले आती थी" बोले वो,
"अब?" पूछा मैंने,
"अब पीछे पानी बाँध दिया है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और ये रास्ता?" पूछा मैंने,
"हुमायुँपुर गाँव को जाता है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"तो आपने देखा था कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"केशव ने!" बोले वो,
"कहाँ है केशव?" पूछा मैंने,
"शहर गया है" बोले वो,
"शाम को आएगा फिर?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"किसी और ने?" पूछा मैंने,
"ऐसे तो बहुत से लोगों इ देखा है!" बोले वो,
"कौन है वो?" ,पूछा मैंने,
"कोई वृद्धा है जी!" बोले वो,
"वृद्धा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"क्या उम्र होगी?" पूछा मैंने,
"करीब अस्सी के आसपास" बोले वो,
"अस्सी साल?'' पूछा मैंने,
"थोड़ा कम या ज़्यादा?" बोले वो,
"साथ कोई होता है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"अक्सर कब दीखती है?" पूछा मैंने,
"ऐसे तो कोई ख़ास समय नहीं?" बोले वो,
"हम्म, कुछ कहती है?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मकन के धोरे जाना है" बोले वो,
"मकन?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, मकन" बोले वो,
"किसी कोई कोई नुकसान?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"सिर्फ पता ही पूछती है?" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"इसी रास्ते पर?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कोई और भी गाँव है?" पूछा मैंने,
"बहुत हैं जी" बोले वो,
"आसपास?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, चारों तरफ" बोले वो,
"इसका मतलब की ख़ास गाँव नहीं?" कहा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"केशव से भी यही पूछा था?" पूछा मैंने,
"हां जी" बोले वो,
" क्या वक़्त हुआ होगा?" पूछा मैंने,
"करीब रात आठ के आसपास?'' बोले वो,
"केशव के साथ कोई और भी था?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"क्या वेशभूषा है?'' पूछा मैंने,
"कमीज़ सी और पेटीकोट" बोले वो,
"ठेठ देहाती?" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"केशव ही बताये?" कहा मैंने,
"पक्का तो हाँ" बोले वो,
"आओ फिर" कहा मैंने,
"चलिए जी" बोले वो,
और हम उस पुल को पार कर, आगे चल दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पुल पार किया तो बीच नहर पर नज़र पड़ी! पानी ऐसे बह रहा था कि जैसे नदी से मिलने की जल्दी हो उसे! झर-झर की आवाज़ और उसमे से उठते हुए झाग! पानी की गहराई मालूम पड़ ही रही थी, ये नहर काफी पुरानी है, और अब नहर कहाँ, नदी का सा विकराल रूप ले चुकी है! पुल के नीचे परिंदों ने कोटर बना लिए थे, उनकी तेज आवाज़ और नहर की उस क़ातिल सी खूबसूरती में इजाफा कर रही थी! आसपास सरकंडे के पौधे लगे थे, झाड़ियाँ भी लगी थीं! जो किनारे थे रेत के, उन पर कहीं कहीं कछुए आ कर धूप का आनंद ले रहे थे! धूप वैसे तो अब थी नहीं, ढलने लगा था सूरज! किनारे पर ही, कुछ केंकड़े भी पड़े थे, कौवे और दूसरे परिंदे, आनंद ले रहे थे उनकी दावत उड़ा कर! कुल मिलाकर, जगह बेहद ही शांत थी, अगर इस नहर की चीत्कार को हटा दिया जाए तो!
"ये नहर कहाँ जाती है?" पूछा मैंने,
"आगे जाकर, बड़ी नहर में मिल जाती है!" कहा उन्होंने,
"बड़ी नहर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"मैंने सोचा शायद यमुना में?'' कहा मैंने,
"न जी, पहले बड़ी नहर, फिर वो यमुना!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"आओ जी, चलें?" बोले वो,
"हाँ, चलिए!" कहा मैंने,
और हम, उनकी स्कूटी पर बैठ, हो लिए वापिस गाँव उनके!
दरअसल, मेरे एक जानकर हैं, इसी गाँव के, उन्हींं के रिश्ते में ये लाला जी, जी भी हैं, उन्हीं जानकार ने बताया था कि उनके छोटे भाई, केशव ने, लगातार कई महींनों ने, किसी को उस रास्ते में, और कई कई बार, उस नहर किनारे, बैठे हुए देखा है! वैसे तो कोई समस्य नहीं हुई आज तक, लेकिन ढोर, मवेशी, बुग्घी के बैल, भैंसे, जैसे बिदक जाते हैं उस रास्ते पर आते ही, पिछले ही हफ्ते, एक तांगा नहर में जा गिरा था, जिसमे, आहत तो कोई नहीं हुआ, लेकिन भय बैठ गए कि हो न हो उस रास्ते पर कोई न कोई साया है! वैसे तो बात भी कोई बड़ी नहीं थी, अक्सर गाँव देहातों में ऐसी कोई न कोई जगह आपको मिल ही जायेगी! जहाँ ऐसी कहानियाँ खड़ी हुई हैं, कि फलां जगह ये और फलां जगह वो! कुछ सच हुआ करती हैं और कुछ मात्र कही-सुनी किवदंतियां! मैंने भी इसे एक किवदंती ही माना था, इसीलिए कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था, लेकिन अब हुआ यूँ कि मैं और शर्मा जी, किसी कार्यवश यहां आये थे, इस गाँव में तो नहीं, किसी और जगह, जहाँ से ये गाँव मुश्किल से पंद्रह किलोमीटर ही पड़ता था, तो सोचा क्यों न एक बार जाकर, देख ही लिया जाए! कुछ मालूम ही पड़े! नहीं तो वापसी तो है ही!
तो हम लौट आये गाँव! हाथ-मुंह धोये, चाय बनाने को कह दी थी उन्होंने, शर्मा जी, चारपाई पर पस्त लेते थे, मैं आ बैठ कुर्सी पर उधर! आँख खुल गयी उनकी!
"हो आये?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने,
"कुछ पता चला?'' बोले वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं?'' बोले वो,
"नहीं जी" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"अब केशव आये तो पता चले कुछ" कहा मैंने,
"साँझ हो चली है, आ ही रहा होगा?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आने दो" बोले वो,
"अब बैठ तो जाओ?'' पूछा मैंने,
"देह टूट रही है!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"हवा बड़ी अच्छी है यहां" बोले वो,
"अब देहात है!" कहा मैंने,
"हाँ, छाछ और फांक ली!" बोले वो,
"तब तो समझा मैं!" कहा मैंने,
"बस" बोले वो,
"चाय नहीं पियोगे?" पूछा मैंने,
"पी लेंगे" बोले वो,
"अब यार उम्र हो गयी आपकी!" कहा मैंने,
"सच है!" बोले वो,
"जल्दी ही आराम करो अब!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"देख रहा हूँ" कहा मैंने,
"हूँ" बोले वो,
चाय आ गयी, चाय से पहले पानी पिया हमने!
"पेठा चलेगा?' पूछा लाला जी ने,
"क्यों नहीं?'' कहा मैंने,
आवाज़ दी, और पेठा भी आ गया!
"रात को तो ठंडा होता होगा यहां?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"मजे हैं साहब!" कहा मैंने,
"खुला है, नहर की तरावट है!" बोले वो,
"हाँ जी" बोले वो,
"बढ़िया है" बोले शर्मा जी,
"हाँ" कहा मैंने,
और कुछ ही देर में, केशव भी आ गया, सामान लाया था, रखा उसने, और कुल्ला आदि करने चला गया, अब उस से ही पता करना था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"लो लाला जी, बुला लीजिए केशू को, चलें हम फिर!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी" बोले वो,
दी आवाज़ उसे, कुल्ला करके, देखा केशू ने हमें, सर हिलाया और पानी फेंका बाहर, पूछ हो जीएस लाला जी से कुछ!
"आ भाई?" बोले लाला जी,
"आया" बोला वो,.
और हम, जा बैठे एक जगह, चारपाई पर, खेस बिछा था, खेस ठीक किया, नीम के सूखे पत्ते बिखर आये थे, हाथों से झाड़े वो, गिराए नीचे और तब, जा टिके, तब केशू भी मुंह पोंछता हुआ चला आया वहां, मूढ़ा रखा था, जा बैठा,
"हाँ जी" बोला वो,
"क्या हाँ जी?' बोले लाला जी,
'जी कहो?'' बोला वो,
अब हुईं ज़रा इधर उधर की बातें, और लाला जी, ले आये उसको राह पर!
"हाँ, याद आया!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"जी उस रात मेरे साथ सतपाल भी था!" बोला वो,
"वो, सिराली वाला?'' बोले लाला जी,
"हाँ!" बोला वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"उस रात करीब दस का बक्त हुआ होगा!" बोला वो,
"कहाँ से आ रहे थे?" पूछा मैंने,
"ससुराल से" बोलै वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"सतपाल की" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"उस रात चांदनी छंटी थी बहुत" बोला वो,
"पूनम की रात?" पूछा मैंने,
"हाँ, या शायद चौदस?' बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"खा पी कर आ ही रहे थे, साथ में एक और थे, वो भी उसी राह पर थे, तो साथ साथ, हम आ रहे थे" बोला वो,
"तीनों?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"कैसे?" पूछ मैंने,
"जी, पैदल ही" बोला वो,
"ओ, अच्छा" कहा मैंने,
"तीसरे कौन थे?" पूछा मैंने,
"उदलपुर के हैं" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो करीब एक कोस चले, उनकी राह आई, तो मुड़ चले वो" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"तो अब तुम, दोनों ही?" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"तो आगे?" पूछा मैंने,
अब चुप सा हुआ वो,
"क्या हुआ?" बोले लाला जी,
"एक मिंट" बोला वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"तभी एक आवाज़ ही आई हमें!" बोला वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"जैसे कोई अम्मा खांसी हो!" बोला वो,
"अम्मा?" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"रुक गए फिर?" कहा मैंने,
"हां" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सतपाल ने यहां वहां देखा, मैंने भी" बोला वो,
"कोई दिखा?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सोचा वहम होगा!" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
"तो आगे चले हम!" बोला वो,
"हम्म" कहा मैंने,
"आगे बता?" बोले लाला जी,
"हाँ" बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आगे चले, तो आवाज़ आई!" बोलै वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"खांसवे की?" बोले लाला जी,
"ना" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कोई नाम ले रहा था!" बोला वो,
"नाम?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"आवाज़? आदमी या औरत?" पूछा मैंने,
"औरत" बोला वो,
"और नाम?'' पूछा मैंने,
"रघबीरो!" बोला वो,
"ये नाम लिया था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रघबीरो? ये तो कोई देहाती महिला का सा नाम लगता था, हाँ, था तो देहात ही वो सब क्षेत्र, रघबीरो जो नाम लिया गया था, अवश्य ही किसी से वाबस्ता तो रहा ही होगा, शायद कोई, किसी वक़्त में रही महिला!
"ये आवाज़ कैसी थी?" पूछा मैंने,
"जी बूढी औरत की सी" बोला वो,
"कुछ उम्र का हिसाब?" लगाया मैंने अंदाजा,
"जी कोई साठ मान लो" बोला वो,
"हम्म, कोई बूढी स्त्री" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"आवाज़, कुल कितनी बार आई होगी, अगर याद हो तो?" पूछ लिया मैंने,
"करीब तीन बार" बोला वो,
"आवाज़ एक जैसी ही थी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"कोई बुला रहा था, उस रघबीरो को?" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"आवाज़ में, मदद की गुहार थी?" पूछा मैंने,
"क्या जी?" बोला वो,
समझ न सका था वो मेरे शब्द!
"अरे कोई मुसीबत में था?" बोले लाला जी,
"लगता तो ऐसा ही था" बोला वो,
"लेकिन था कौन?'' पूछा मैंने,
"नहीं दिखा" बोला वो,
"शराब ज़्यादा थी?" बोले लाला जी,
"ज़्यादा तो नहीं" बोला वो,
"अच्छा फिर?" पूछ लिया मैंने,
"सतपाल ने कहा कि हवा का चक्कर हे, सो सरपट भाग लिए हम तो!" बोला वो,
"है! सारे! डरपोक!" बोले लाला जी,
"अब कोई होई न, और आवाज़ आवे, तो क्या समझो?" बोला केशू!
"हाँ, समझ गया!" कहा मैंने,
तो, कुछ न लगा हाथ मेरे! बस एक नाम, और वो जगह!
"दिखा देगा जगह वो?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"कल" कहा उसने,
"ठीक" बोला मई,
"तड़के ही?" बोले लाला जी,
"जी" बोला वो,
"ठीक" कहा मैंने भी,
और हम हुए वापिस, आये, खाना खाया, और जा लेटे, अब तक तो कुछ पता न चला था, लेकिन क्या पता, कुछ लग ही जाए हाथ! उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए!
अगली सुबह,
तड़के ही, हम चल पड़े, हम चार आदमी, टपाटप चलते चले गए, सुबह बेहद ही खूबसूरत थी वो, दूर जगमगाता सूरज और उसकी लाल सी लालिमा से भड़कती, रेत उस बीहड़ की! परिंदों का शोर और भौंकते हुए श्वान!
"कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"आगे अभी" बोला वो,
"रै कितना?" बोले लाला जी,
"कोई अधकोस" बोला वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"भाल ही पहुंचे!" बोले लाला जी,
"हाँ" कहा मैंने,
चलते चले जी हम!
"वो क्या है?" पूछा मैंने,
"कोट!" बोले लाला जी,
"कैसा कोट?" पूछा मैंने,
"पुराने ज़माने का" बोले वो,
"कब का?" पूछा मैंने,
"ये न पता जी!" बोले वो,
"रुको" कहा मैंने,
सभी रुक गए!
सामने, एक खंडहर था, नहर के परली पार, अब सिर्फ पत्थर ही बच्चे थे उसमे! लाल पत्थरों से बना था वो कोट!
"कब से देख रहे हो?" पूछा मैंने,
"ज़माना हो चला" बोले वो,
"बालपन से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"पुराना है!" कहा मैंने,
"बहुत पुराना!" बोले वो,
"तब से ऐसा ही है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"चलें ज़रा?" बोला मैं,
"कहाँ?" बोले वो,
"कोट!" कहा मैंने,
"काहे?' बोले वो,
"देख लें!" कहा मैंने,
"कुछ न है!" बोले वो,
"फिर भी!" कहा मैंने,
"पुल आगे है" बोला केशू,
"चल फिर!" कहा मैंने,
"और क्या!" बोले शर्मा जी,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
अब हुए नहर नहर! और चल पड़े!
"दीखता बड़ा है!" कहा मैंने,
"राजा का था!" बोले वो,
"कौन सा राजा?" पूछा मैंने,
"ये न पता!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"है हिन्दूअन का ही!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"मुसलमानी न है!" बोले वो,
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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समय तो बहुत बढ़िया हुआ था उस समय! खिलता सूर्य और मदमस्त सी बहती हवा! एक अजब सा नशा चश्म में जैसे बानूर हो चुका था! कदमों में एक अजब सो खुमारी जैसे दरपेश हो चली थी, दरअसल ये क़ायनात का ही नशा हुआ करता है, जो इंसान इस कायनाति नशे में डूब चला, उसका आना बाहर, नामुमक़िन ही होता है! तो आलम ये था, इसी कायनाति अमल में हम उस नशे के साथ हमप्याला हो, हमजबार हो चले थे! नहर का भ्त पानी और उस पानी से उठ रही वो आवाज़ें! आवाज़ें ऐसी जो कानों में एक तरफ से घुसें तो दिमाग में हो जाएँ क़ैद! हो जाएँ क़ैद तो फिर दिमाग के दरिया में जा ठहरें! निकलें ही न बाहर! कब वक़्त कटा, कब वो पुल आया, पता ही न चला!
"यहां से!" बोले लाला जी,
"हाँ!" मैंने कहा, जैसे खुमारी में खाया हो एक झटका मैंने!
"सामने से ही है रास्ता!" बोले वो,
"हाँ, दिख रहा है!" कहा मैंने,
"रास्ता?' बोले शर्मा जी,
"हाँ" कहा मैंने,
"कहाँ से नहीं है रास्ता!" बोले वो,
"हाँ, ये भी ठीक!" कहा मैंने,
"अब तो कुछ बचा ही नहीं है! न दीवारें, न ही जख्त और न ही वो कोट!" बोले वो,
"जख्त तो टूट चला है, दीवारें अब बाकी न रहीं, असल-ओ-सूरत तो तारीख में कहीं दफन हो क्र रह गईं हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कुछ कुछ इंसान की ज़िंदगी सरीका!" कहा मैंने,
"एकदम!" बोले वो,
"बचपन में आये करे हम यहां!" बोले लाला जी,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तालाब था अंदर, अब न रहा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"आओ, आ गया!" कहा मैंने,
"हाँ, यहां से" बोले वो,
और हम चल पड़े अंदर के लिए, एक टूटा सा रास्ता, बड़े बड़े से मूक पत्थर, कुछ ठूंठ से पेड़ और उन ढाक के पेड़ों की नयी नस्ल! कहीं कहीं कौवों और चीलों ने घोंसले बना लिए थे, कहीं उल्लुओं ने कोटरों में पनाह ले ली थी! ज़मीन में बिल ही बिल थे, ये घूस के होंगे, या फिर नेवलों के, कहीं कोई बड़ा भी था, तो शायद बिज्जू या साही भी आते जाते रहे होंगे उधर!
"जंगली जानवर तो होंगे इधर?" पूछा मैंने,
"जिनावर?" बोले वो,
"हाँ, जानवर!" कहा मैंने,
"बहुत से जिनावर डोले हैं!" बोले वो,
"जैसे?" पूछा मैंने,
"कबर-बिज्जू, नौल, स्यांप, सियार और जन कहा कहा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और तभी मेरी निगाह आगे पड़ी! कुछ था वहां!
"वो क्या है?" पूछा मैंने,
"कुआँ है!" बोले वो,
"पुराना ही है?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
चले हम कुँए की तरफ!
बड़े बड़े पत्थरों से बनी थी उसकी ढही हुई दीवारें!
"पानी है अंदर?" पूछा मैंने,
"अब कहाँ पानी?" बोले वो,
"ओह" कहा मैंने,
"सूख-साख गया बरसों पहले!" बोले वो,
"देखा था?" पूछा मैंने,
"नाह जी!" बोले वो,
"फिर किसने बताया?" पूछा मैंने,
"बाप दादा से सुनीं जी!" बोले वो,
मैंने अंदर झाँका! झाड़ और झंखाड़, बस, और कुछ नहीं, थे तो गिरगिट के टूटे फूटे अण्डों के छिलके!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"और वो?" बोले शर्मा जी, इशारा करते हुए एक तरफ!
मैंने भी देखा,
"अरे हाँ, वो क्या है?" पूछा मैंने,
"अस्तबल!" बोले वो,
"राजा का?'' पूछा मैंने,
"नाह" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"अंग्रेजों का!" बोले वो,
"ओह! अच्छा?" कहा मैंने,
"कुंड हैं वहां!" बोले वो,
"कुंड?" पूछा मैंने,
"कैसे कुंड?' पूछा मैंने,
"नील पकाने के!" बोले वो,
"ओ समझा!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोले शर्मा जी,
"नील तो बनाया जाता था उस समय!" कहा मैंने,
"हाँ, और ज़मीन बंजर!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वही हैं यहां!" बोले लाला जी,
"आओ, दिखाओ?" कहा मैंने,
"आओ" बोले लाला जी,
और हम, चल पड़े उस तरफ! अस्तबल के पास के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने ही वो अस्तबल था, नांद तो अभी भी बनी हुई थी, साफ साफ़ दीखता था कि बड़े पैमाने पर यहां नील की खेती से प्राप्त कच्चे माल को साफ़ किया जाता था, पकाया जाता था और यूरोप के बाज़ार में मोठे मुनाफे के रूप में उतार दिया जाता था! अंग्रेजी शब्द इंडिगों हमारा इंडोनाइजड शब्द है, जिसका अर्थ ही है नील या नील जैसा रंग! नील की उपज जहां हुआ करती थी, वहां की ज़मीन बंज़र हो जाया करती थी, किसानों की मज़बूरी ही थी नील की खेती करना, भुखमरी का आलम पसर गया था, संघर्ष हुए, लेकिन कुछ न हुआ, अंग्रेजी हुकमरानों ने बखूबी सीख ही लिया था अब तक किसी भी संघर्ष को यहां दबाना!
तो हम आ पहुंचे थे इस जगह तक, अस्तबल, अब टूटा फूटा ही था, न छत ही बाकी थी और न ही वहां के फर्श के वो बड़े बड़े पत्थर, अब वो सब ज़मीन से बाहर झाँकने लगे थे, हाँ, बस कुछ एक जगह पर दीवार के खम्बे ज़रूर मौजूद थे, जो अभी भी इतिहास बताने को जैसे आमादा खड़े थे कि आखिर उन्होंने किस फ़िज़ा का सामना किया था! यहां उन्होंने, मज़दूर देखे थे, बेगार, हुकमरान और कुछ जानवर आदि, चहलपहल रहा करती होगी, ये गवाह थे उसके!
"जी खोल के लूटा हिंदुस्तान इन्होने!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, और हम, लुटने को तैयार!" कहा मैंने,
"यही तो बदनसीबी रही हमारी!" बोले वो,
"करते भी क्या!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो जान और ज़मीन से बेदखल!" बोले वो,
"हाँ, यही बात है!" कहा मैंने,
"ज़रा इन कुंडों का आकार तो देखो!" बोले वो,
"हाँ, बहुत बड़े हैं!" कहा मैंने,
"यूरोप के बाज़ार यहीं के इस रंग से सजते रहे होंगे!" बोले वो,
"हाँ, सच है" कहा मैंने,
ज़मीन में जैसे बड़े बड़े कटोरे बना दिए गए हों, जैसे ज़मीन में खूब गड्ढे छाने गए हों! इस बीयाबान में अंग्रेजों ने खूब मनमानी की थी! कहाँ से कहाँ तक आ पहुंचे थे वो! आखिर ये साम्राज्यवाद का समय था! लूट मची थी हर जगह! बस, ये अंग्रेज सबसे आगे रहे इसमें, सफल कहा जाएगा इनको! नहीं तो फ्रेंच, डच, पुर्तगाली और स्पेनी भी कहाँ पीछे रहे! अंग्रेजों ने बड़ी ही कुशलता से अपने प्रतियोगियों के अपने रास्ते से हटा ही दिया था! स्पेनी दक्षिण अमेरिका को लूटने में सफल रहे! एक भरी पूरी सभ्यता और संस्कृति का जड़ समेत ही नाश कर दिया! इंका साम्राज्य का नाश हुआ, आखिरी राजा अता-हू-आलपा को मार ही डाला, जब कि उसने सोने के कमरे भर के दिए थे उसने! बस, उसने, क्रिस्तान धर्म अपनाने से मना कर दिया था! स्पेनियों को मौक़ा मिला और इस तरह, एक फलती-फूलती संस्कृति का नाश हो गया! वो इंका, जो हज़ार सालों से, ओल्मेक एज़्टेक, माया से मिश्रित थे, उनके कुशल सावक थे, नाश को प्राप्त हो गए! खैर, यही तो होता है इस साम्राज्यवाद में, और यही हुआ था! इसी साम्राजयवाद की कुछ निशानियाँ हमारे सामने ही थीं! हम चुपचाप, वक़्त में पीछे झाँक रहे थे, मैं, वहीं खड़ा खड़ा, आसपास देख रहा था और ज्यों ही पीछे देखा, मुझे कुछ झटका सा लगा! ये मैं कैसे भूल सकता हूँ? कैसे आखिर?
दिमाग हुआ गरम अब! जैसे सीसा, पिघल उठा हो!
"लाला जी?'' पूछा मैंने,
"जी?'' बोले वो,
"वो नहर?" कहा मैंने,
"नहर? वो रही?" बोले वो,
"हाँ, देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"फिर?'' बोले वो,
"वो नहर?" कहा मैंने,
कई सवाल एक साथ आये दिमाग में, तो उलझ गया मैं, बोल न सका, अब आराम आराम से ही, एक एक सवाल पूछना था!
"ये नहर, कितनी पुरानी है?'' पूछा मैंने,
"अंग्रेजी ही है" बोले वो,
"अंग्रेजी?" चौंके शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या कहते हो?'' पूछा मैंने,
"हाँ हाँ!" बोले वो,
"क्या?" बोला मैं,
"हाँ, मौट-ब्रांच नाम है!" बोले वो,
"मौट?" बोले शर्मा जी,
"जी" बोले वो,
"साफ़ साफ़ बताओ?" बोला मैं,
"मथुरा जाती है, यमनुा जी में मिलती है!" बोले वो,
"मौट यानि मथुरा?" बोला मैं,
"नहीं जी!" बोले वो,
"फिर?'' कहा मैंने,
"जिस इंजीनियर ने ये बनवाई थी, उसको जनरल मौट नाम से जाना जाता था, उस समय!" बोले वो,
"आपको कैसे पता?" पूछा मैंने,
"सुना भी है, और सरकारी नक्शे में यही नाम है इसका!" बोले वो,
"अंग्रेजी नहर?'' बोला मैं,
"हां?'' बोले वो,
"तो क्या ये बढ़ी नहीं?'' बोला मैं,
"बढ़ी? अजी बाढ़ तक लायी! आज भी चौमासे में खतरा लगा रहता है! देख ना रहे, कैसी नद्दी सी बन गई है?" बोले वो,
"वही तो?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आपने कहा नदी सी?" कहा मैंने,
"हाँ, अब नद्दी सी" बोले वो,
"ये ऐसी ही नहीं थी इसका मतलब?" कहा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, ये ऐसी नहीं थी" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"पिता जी के समय में ये एक छोटी सी नहर हुआ करती थी, छोटी सी!" बोले वो,
"बम्बा मतलब?" पूछा मैंने,
"बम्बा भी चौड़ा ही होय!" बोले वो,
"फिर, नाली सी?" पूछा मैंने,
"हाँ, हम, एक फर्लांग में कूद जाते थे इसे!" बोले वो,
"सच?" पूछा मैंने,
"हाँ, ये फिर कटती चली गई, बढ़ती गई!" बोले वो,
उन्होंने जो आकार बताया उसका, वो करीब पांच फ़ीट का रहा होगा उस समय, अब तो पूरी नदी समान सी होकर, बह रही थी!
"इसको एक चुब्ब्क में अंदर ही अंदर पार कर जावे हे हम!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, और फिर ये बढ़ती गई, सरकार ने चौड़ी कर दी ये, किनारी बना दी गईं, पुल बाँध दिए गए, आप देखो, पुल संकरे हैं, छोटे और ये ज़्यादा ही बड़ी कुछ!" बोले वो,
"हाँ, देखा था मैंने, संकरे हैं पुल, पुराने भी!" कहा मैंने,
"हाँ, टक्कर बनानी पड़ीं इसमें, एक यहां है, एक आगे औे एक पीछे!" बोले वो,
"हाँ, आवाज़ से पता चल रहा है!" बोला मैं,
"रास्ते में मैंने कुछ बड़े से पत्थर देखे थे, क्यों शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ, बीच बीच में पड़े हुए!" बोले वो,
"अब इसका मतलब समझे?' बोला मैं,
"क्या भला?' बोले वो,
"ये, कि एक समय में, कोट तक आने का कोई रास्ता रहा होगा, पत्थरों से बना, तब शायद यहां आवाजाही लगी रहती होगी, आज सिर्फ पत्थर ही बच्चे हैं, बेज़ुबान!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"तब ये नहर, न रही होगी! या खुदी ही न होगी!" कहा मैंने,
"हो सकता है" बोले वो,
"या फिर, कोई पुराना पुल रहा होगा!" कहा मैंने,
"एक पुराना मंदिर तो आज भी है!" बोले लाला जी,
"मंदिर? पुराना? किसका?'' पूछा मैंने,
"देवी चामड़ का!" बोले वो,
"कहाँ?" मैंने अचरज से पूछा,
"इस कोट के पीछे!" बोले वो,
"पीछे?' पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"दिखाओ?'' कहा मैंने,
"आओ जी!" बोले वो,
अब लगे जैसे पांवों में पहिए हमारे, और हम गिरगिट की तरह, उछलते, फांदते हुए, आगे बढ़ चले! खंडहर था वहां, दूर दूर तक फैला हुआ, ढाक, बरगद, पीपल, जामुन, कीकर के पेड़ों से ढका हुआ! वक़्त की शमशीर में तो बड़े बड़े मुल्क़ ढह जाते हैं, ये तो एक बे-बिसात सा कोट ही था! बेरहमी से शमशीर चली थी इस पर वक़्त की, ऐसा नहीं कह सकता था मैं! कुछ निशान तो अभी नुमाया थे, उनके सहारे ही तो हम यहां तक आ पहुंचे थे, आज यहां थे, ख़्वाब में भी तस्सव्वुर न इल्म किया था कि कभी कदम यहां भी अक्स-मा होंगे, लेकिन हुए तो थे, इन्हीं निशानों की वजूहात से ही तो!
"यहां से" बोले वो,
"ये तो खंदक सी लगती है!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"पूरे कोट के चारों ओर होगी?' पूछा मैंने,
"हाँ जी, अब यही बाकी है!" बोले वो,
"नहर के कटाव से मिट्टी ने ढक लिया होगा!" कहा मैंने,
"हाँ जी, और तब कहते हैं, सुनते हैं, यहां नाके पाले जाते थे!" बोले वो,
"नाके मायने, मगरमच्छ?'' बोले शर्मा जी,
"जी" बोले वो,
"पाले जाते होंगे!" कहा मैंने,
"सुरक्षा के लिए!" बोले शर्मा जी,
"हाँ" कहा मैंने,
"ऐसा हर जगह रहा है" बोला मैं,
"हाँ, अक्सर" बोले वो,
"आओ, सामने" बोले लाला जी,
"चलो" बोला मैं,
"अब यहां कोई नहीं आता" बोले वो,
"मंदिर में भी?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दूर है, और जंगल भी" बोले वो,
"हाँ, ये भी है" बोला मैं,
"और फिर माहौल भी ठीक नहीं!" बोले वो,
"चोरी-चकारी?' पूछा मैंने,
"डकैती!" बोले वो,
"अब भी?" पूछा मैंने,
"अब राह चलते हो!" बोले वो,
"रहजनी?'' पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
तभी कुछ दिखा मुझे!
"रुको?" कहा मैंने,
सभी जा रुके!
"ये क्या है?'' पूछा मैंने,
"पिंडी!" बोले लाला जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कैसी पिंडी?' पूछा मैंने,
"बंजारों की" बोले वो,
"बंजारे?'' मैंने चौंक कर पूछा,
"हाँ, आते जाते थे यहां वो!" बोले वो,
"माँ चामड़ के लिए?" पूछा मैंने,
"हो सकता है" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ये जगह उनकी पहुँच में थी" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"हम्म" कहा मैंने,
अब मैंने उन पिण्डियों को देखा, पत्थर से बनी थीं, चबूतरा तो था नहीं, हो भी, तो शायद ज़मीन के अंदर ही हो! वक़्त गुजर गया था काफी!
"कुल पांच!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले लाला जी,
"चलो, मंदिर ही चलें" बोला मैं,
"आओ" बोले वो,
और हम चले आगे की तरफ! पत्थर पार किये!
"यहां से" बोले वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
कुछ ही दूर चलने पर, एक टूटा फूटा दिखा मंदिर! अब गुंबद नहीं था, दरवाज़ा भी नहीं, बस दीवार थी,
''ये है जी!" बोले वो,
"उस वक़्त काफी बड़ा रहा होगा!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"कोट के अंदर ही!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
अब मैंने ज़रा पीछे देखा, दूर, एक जगह पथर बड़े ही अजीब से रखे हुए मिले, जैसे कोई सड़क रही हो किसी ज़माने में उधर! सहसा दिमाग में उठा धुंआ सा!
"इसका मतलब........" कहते कहते रुका मैं,
"क्या मतलब?" बोले वो,
"उधर देखो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले शर्मा जी,
"वो सड़क न रही होगी?'' कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोले वो,
"पक्का!" कहा मैंने,
"हाँ, रही होगी!" बोले वो,
"हाँ, यहां तक आती होगी, कोट तक, उधर, दरवाज़ा रहा होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"केशू?" कहा मैंने,
केशू चला आया पास मेरे हाथ खुजाता हुआ!
"जो पूछूं, वो बताना!" कहा मैंने,
"जी" बोला वो,
"तुम्हें वो आवाज़ उधर ही आई होगी?'' पूछा मैंने,
"हाँ, उधर, जो बरगद खड़ा है" बोला इशारा करते हुए,वो,
"हम्म, समझा!" कहा मैंने,
"और तुम, नहर नहर आ रहे होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"समझ गया अब!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोला केशू!
"वो आवाज़, आज भी क़ैद है यहां!" कहा मैंने,
"यहां?" बोले लाला जी,
"वहां!" कहा मैंने,
"वहां कहाँ?" बोले देखते हुए मुझे ही!
"उधर, बीहड़ में!" कहा मैंने,
"नहीं समझा!" बोले वो,
"जिसकी आवाज़ है वो, वो!" कहा मैंने,
"वो बुढ़िया?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"औ!" निकला मुंह से उनके!
"उधर ही!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"अब समझ आने लगा है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"बताऊंगा!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"बहुत जल्दी!" कहा मैंने,
"फिर भी?" बोले वो,
"शायद, आज ही रात!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"साथ रहोगे?" पूछा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"उधर!" कहा मैंने,
"किसलिए?' बोले वो,
"रहने दो!" कहा मैंने,
"बताओ तो?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"जैसी मर्जी!" बोले वो,
"ये रह लेगा!" बोले शर्मा जी,
"केशू?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो?" बोले वो,
"बस हम दोनों ही!" कहा मैंने,
"ठीक है, कोई बात नहीं!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आइये शर्मा जी, लाला जी!" कहा मैंने,
"वापिस?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हो गया काम?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, लगभग आधा!" कहा मैंने,
"हमें भी समझाओ?" बोले लाला जी, चाँद खुजाते हुए!
"साथ आओगे?" पूछा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"आज रात!" कहा मैंने,
"आज की रात?" बोले वो, हैरत से!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहा करवे?" पूछा उन्होंने,
"अरे आप आराम से सोना, हम आ जाएंगे!" बोले शर्मा जी,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"अरे लाला जी, उधर, जिधर वो आवाज़ सुनाई दी थी!" बोले शर्मा जी,
"क्या?" चौंक कर पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"राम राम राम!" बोले वो,
मुझे आई हंसी! केशू पड़ा भक्क सा!
"तुम पकड़ोगे वाय?" पूछा लाला जी ने,
"कोशिश करेंगे!" कहा मैंने,
"उरा?? सच्ची?" बोले वो,
"हाँ, सच्ची!" कहा मैंने,
"मज़ाक?" बोले फिर से सर ठोकते हुए अपना वो!
"मज़ाक नहीं जी!" कहा मैंने,
"फंसु गए दीखे?" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"हम!" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"और का?" बोले वो,
"न फंसो! वहीँ रहना!" कहा मैंने,
"फेर भी न आय नींद!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा शर्मा जी ने,
"धड़का लगा रहगऔ!" बोले वो,
"कैसा धड़का?" पूछा मैंने,
"जन कहा बीते?" बोले वो,
"आओ, चिंता न करो!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े सभी!
"देखना!" बोले शर्मा जी, हँसते हुए,
लाला जी तो जैसे अब गिरे और तब गिरे! केशू नज़र ही न मिलाये!
"क्या हो गया?" पूछा मैंने,
"देखो जी, भूतन से तो डरना परै है!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"जन कब फारि दे?" बोले वो,
मैं हंसा! शर्मा जी भी हंस पड़े!
"ना, कुछ न होगा!" कहा मैंने,
"अजी जो हो ही जाए?" बोले वो,
"तो घर पर रो ना?" बोला मैं,
"फंसु गए!" बोले वो,
और हुए चुप!
इस तरह, चुप्पम-चुप्पी में, आ लिए वापिस! आये, नहाए धोए, चाय-नाश्ता किया और फिर आराम किया! लाला जी निकल पड़े बाहर के लिए, रोज़मर्रा के काम लगे थे उनके तो!
"कितने बजे?" बोले शर्मा जी,
"कोई नौ बजे?" बोला मैं,
"कोई सामान?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई साथ हुआ तो?" बोले वो,
"नहीं है!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"होता तो दीखता!" कहा मैंने,
"हाँ, ये भी है!" बोले वो,
"वो अकेली ही है!" कहा मैंने,
"पता नहीं कौन होगी?" बोले वो,
"चल जाएगा पता!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इनमे से कोई न चले!" कहा मैंने,
"ना" बोले वो,
"कितना भी कहें!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"बेकार में फजीहत हो अपनी!" कहा मैंने,
"सही बात है!" बोले वो,
"तो नौ बजे, ठीक!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
और फिर किया आराम हमने, खाना खाया, और फिर आराम! करीब दो बजे, लाला जी अपने साथ लाये किसी को, पचास की लपेट में होगा वो, काला, धूसर! गंजा और भारी जिस्म का!
"राम राम जी!" आते ही बोला वो,
"राम राम जी!" कहा मैंने,
"जी, ये है जग्गू भगत!" बोले लाला जी,
भगत! अब आ गया माज़रा समझ में सब मेरी!
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"इन्हें न ले जाओ संग?" बोले लाला जी,
"किस लिए?" पूछा मैंने,
"भगताई करे हैं ये!" बोले वो,
"तो करें!" कहा मैंने,
जग्गू ने बनाया मुंह अपना, कभी मुझे देखे, कभी लाला जी को!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जग्गू को कैसे तंग कर दिया?" पूछा मैंने लाला जी से,
"तंग ना!" बोलै जग्गू,
"फिर?" पूछा मैंने,
"सोचा आपके साथ हो जाए?" बोले वो,
"किसलिए भला?" पूछा मैंने,
"ऐसा है जी" बोला जग्गू,
"कैसा है?" बोले शर्मा जी,
"ये देहात है" बोला वो,
"पता है" कहा मैंने,
"और हवा बहुत हैं यहां" बोला वो,
"हवा?" पूछा मैंने,
"हाँ, हवा" बोला वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"तो मेरे रहते कोई दिक्क्त ही न!" बोला जग्गू,
मेरी तो हंसी निकलते निकलते बची!
"आप क्या करोगे जी?" बोले शर्मा जी,
"मैं न होने दूँ कुछ" बोला वो,
"अच्छा?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, ज़िंदगी कट गई" बोला वो,
"किसमे? हवा में?" बोला मैं,
"भगताई में" बोला तत्व से,
"ज़िंदगी कटी सिर्फ भगताई में?" बोला मैं,
"हाँ जी" बोला वो,
"जग्गू भगत?" बोले शर्मा जी,
"हाँ?" बोला वो,
"इन्हें नहीं जानता भाई तू!'' बोले शर्मा जी,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये भगत नहीं हैं" बोले वो,
"तभी तो!" बोला वो,
"अरे जाओ यार!" कहा मैंने,
"न ले चलो?" बोले लाला जी,
"मज़ाक़ कर रहे हो?" बोला मैं,
"ना तो?" बोले वो,
"ले जाओ भगत जी को!" कहा मैंने,
"ज़िद अच्छी न है!" बोला भगत,
"और यही कहूं मैं तो?" बोला मैं,
"न ले जा रे?" बोला वो,
"ना" कहा मैंने,
"कदि चोट लग जाए?" बोला वो,
"हमें?" बोले शर्मा जी,
"और क्या मैं?" बोला वो,
"खड़ा हो ओ भगत!" बोले अब शर्मा जी, ऊँगली दिखाते हुए,
"क्या?" चौंका जग्गू!
"ना सुनी?" बोले शर्मा जी,
"क्या?" बोला वो,
"जहां से आया है, वहीँ जा भाई!" बोले शर्मा जी,
"लो जी!" बोला वो,
और हो गया खड़ा, लाला जी को ऐसे देखा जैसे सारे रिश्ते नाते रख गए हों ताक पर!
"जा भाई जा!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जग्गू जी, जाइये!" बोला मैं,
"पछताओ कदि?" बोला वो,
"अबे आदमी है या ढोल तू?" बोले शर्मा जी,
"तमीज़ से बोलो?" बोला वो,
"ओहो! डर गया भाई भगत मैं तो!" बोले वो,
"तमीज़ कहा मैंने!" बोला वो,
"सुन ओये?" हुए अब शर्मा जी खड़े,
"हाँ?" बोला वो,
"जैसे आया, वैसे लौट जा, न ले जा रहे हम, मरेंगे, गिरेंगे तो हम, तू न आइयो, जा अब!" बोले वो,
"इसलिए बुलाया मुझे?" बोला जग्गू, लाला जी से,
और लाला जी पलकें पीटें अपनी!
"जा भाई!" बोले शर्मा जी,
पाँव पटकता हुआ, लौट चला जग्गू!
"किसे पकड़ लाये?" बोले शर्मा जी, लाला जी से,
"मैंने सोची एक से भले दो?" बोले वो,
"जाने दो, आप भी!" बोले वो,
"अब?" बोले वो,
"कुछ नहीं, जुगाड़ कर दो बस!" बोले वो,
"जुगाड़?" बोले वो,
"अरे, कड़वे पानी का!" बोले वो,
"ओ, वो तो धरा है!" बोले खें खें हँसते हुए!
"बस फिर!" बोले शर्मा जी,
"लाऊँ?" बोले लाला जी,
"अभी न!" बोले वो,
"सांझ कू?" बोले वो,
"हाँ. ले लेंगे हम!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"खाना लगवा दूँ? दुपहर ढल ली! बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"अभी लो जी!" बोले वो, और लौट चले!
"साला आया भगत बनके!" बोले वो,
"मरने दो यार!" कहा मैंने,
"ऐसे कैसे?" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हो जाने दो काम पहले!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
हम दोनों ही उठे, और चल पड़े, हाथ मुंह धोने, अब खाना खाना ही चाहिए था, भूख लग चुकी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो इस तरह हमने, भोजन आदि ले लिया था, कुछ थोड़ा बहुत ज़रूरी सामान भी, जिसकी ज़रूरत पड़ सकती थी, अक्सर पड़ ही जाया करती है, औ शाम के इस तरह से बज गए सात, मैं, ज़रा सा एकांत में गया, कारिंदे सुजान को हाज़िर किया, करना ही होता है, ऐन वक़्त पर, कभी भी ज़रूरत पड़ ही जाती है, तब वक़्त और उसके लम्हे का मोहताज होना सही नहीं रहता! इसीलिए, भले ही ज़रूरत न पड़े, तैयारी तो ज़रूरी ही रहा करती है! मैंने कुछ रक्षा मंत्र, जैसे एवंग, डिंबसाल, करुक और पश्च्मोदनि मंत्र भी जागृत क्र लिए थे! इनमे से करुक मन्त्र, सदैव ही तत्पर रहता है, अर्थात, जैसे विद्युत सदैव बहती रहती है, ठीक वैसे ही ये करुक भी है! तो मैंने सुजान को हाज़िर किया, भड़भड़ाते हुए सुजान हाज़िर हो गया! ये खोजी है! खबरची है, खोज-बीन में अव्वल है! अक्सर ही सुजान की ज़रूरत पड़ा करती है! सुजान को कुछ कहा, समझाया और वो, लौटा फिर! और लौटा फिर मैं भी!
बजे इस तरह से करीब साढ़े आठ, और हम दोनों ही हुए तैयार तब! एक बड़ी सी टोर्च ली, कुछ सुगन्धि और दो चादरें, बीहड़ में, और उस भूड़ में अक्सर, रात के वाट सर्दी का आलम आ बरपता है! एहतियात ज़रूरी है, सूरज निकलते ही, जैसे नमी सूखने लगती है, ठीक वैसे ही देह में ज्वर पनपने लगता है, अतः, शरीर को ढकना आवष्यक हो जाता है!
"आओ जी!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" कहा उन्होंने,
"सुनो तो सही?" बोले लाला जी,
"हाँ, बोलो?" बोला मैं,
"देख लो, अब भी?" बोले वो,
"छोडो आप!" कहा मैंने,
"दीया-बाती ले लई?" बोले वो,
"हाँ, सब" कहा मैंने,
"वो सुराप भी रख दई मैंने" बोले वो,
"हाँ, देख ली!" कहा मैंने,
"आराम से जइयों?" बोले वो,
"चिंता न करो!" कहा मैंने,
"चलो फेर" बोले वो,
"आप कहाँ चले?" पूछा मैंने,
"बाहर तक?" बोले वो,
"आप जाओ! रहने दो!" कहा मैंने,
"कुत्ता-फुत्ता?" बोले वो,
"वो हम देख लेंगे!" कहा मैंने,
"जैसे भली!" बोले वो,
"सो जाना आराम से, चिंता न करो आप!" कहा मैंने,
अब न बोले कुछ भी!
"भली?' बोले शर्मा जी,
"भली!" बोले वो,
और हम, तब, निकल पड़े, उस बीहड़ के लिए! बत्ती तो थी गाँव में, लेकिन वही, बीमार सी! सन्नाटा पसरा पड़ा था हर तरफ! पेड़ों ने जैसे अँधेरे में छिप कर, नज़रें लगा ली थीं हम पर! हाँ, एक आद कुत्ता हमें देखता, भौंकता और फिर चुप हो जाता! इस तरह, हम आ गए गाँव के बाहर तक! नहर की टक्कर की आवाज़, सागर जैसी हो, आ रही थी, एक ही लय में! इस से दिशा ज्ञान मिल रहा था, और हम बढ़ लिए आगे तक!
"अँधेरा बहुत है!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"टोर्च भी ऐसी है कि कब सांस छोड़ दे!" बोले वो,
"बैटरी चेक कर ली थीं?" पूछा मैंने,
"ना?" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
"अब क्या हो?" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम उस बीयाबान में आगे बढ़ते रहे!
"कितना और है?" बोले वो,
"बस थोड़ा और!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वही कहानी है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"नए वक़्त से पुराने वक़्त का मिलन!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही है सिलसिला!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"चलो देखते हैं!" बोले वो,
"हाँ, देखें ज़रा!" कहा मैंने,
बातें करते करते, रास्ता कटता गया, और उस सुनसान में, चार क़दमों के साथ, हम आगे बढ़ते चले गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो बतियाते बतियाते हम उस बीहड़ में जा पहुंचे! अब बीहड़ में भी एक अलग ही माहौल रहा करता है! पसरा हुआ सन्नाटा, दूर दूर तक बीयाबान! कोई आवाजाही नहीं! जैसे ज़मीन के इस हिस्से को उपरवाले ने खाली ही छोड़ दिया हो! जहां कोई फलदार पेड़ हो, और न ही कोई झाड़ी ही! जैसे, छेके(अलग कर दिए गए) हुए पेड़, झाड़, झंखाड़, झाड़ियां और जंगली पौधों को, एक ही साथ रख दिया गया हो! कुछ भी कहिये! उपरवाले की रजा अव्वल दर्ज़ की ही रहती है! यहां वो पेड़, पौध ज़िंदा रहता है, जिसे पानी की कोई ज़्यादा ज़रूरत नहीं होती! न मिट्टी को ही! मिट्टी में लगी रह, जैसे यहां की रानी हो जाती है! रेत का नमक जैसे सुबह, पिघलने से पहले, अपने आपको चाँद के साथ रख देता हो! कि तू शफ़्फ़ाफ़ कि मैं! तो ज़्यादा चमके, या मैं! क्या गुमान है उसका! जानता है वो, कि सुबह, सूरज की तपती दोपहरी, उसका अक्स ही बदल देगी! जहां हाथ है, पाँव होगा, और जहां सर, वहां पीठ! फिर भी, जीने का ये जज़्बा, क़ाबिल-ए-तारीफ़ नहीं, तो क्या कह सकता हूँ इसे! रात में खिले, अडकदा के जंगली पीले फूल! लोसिया की जंगली बेल! क्या खून मुक़ाबला करती है किसी की ज़ुल्फ़ों का! ज़ुल्फ़, किसी शमशीरों रुखसार की पेशानी पर आये वो चंद बालों का गुच्छा जो बेदम क्र दे, अच्छे से अच्छे जमाल को! मोम की मानिंद पिघला के रख दे! टिकवा दे घुटने अपने हिज़्र में! वाह! ये तमाम, क़ुदरत का करिश्मा नहीं तो इसे और क्या अल्फाज़ दूँ! क्या और कुछ कह दूँ इसे! कैसे वो अलफ़ाज़ बदल दूँ, कहाँ से लऔं वे बेहद रौशन अलफ़ाज़! नहीं! कम अज कम मैं तो नहीं! मैं, उस निहायती खूबसूरती का दीदार किये जा रहा था कि, यकायक किसी परिंदे की चीख ने मेरी नीम-बेहोशी में उरूज़ की दस्तक दी! चौंक ही पड़ा मैं, जानते हुए भी, कि ये कैफी उल्लू ही है! मतलब, मोटी गर्दन और पतले पांवों वाल! ये ज़मीन पर भी दौड़ लेता है, पतले पाँव, पत्थरों के दरम्यान जान की निस्बत मांगे हुए शिकार को भी दबोच लेता है! वही उल्लू था वो! जब बोलता है, तो चीख सी सुनाई देती है! जैसी, थी, दर पल दो या एक, मैंने सुनी थी!
"उल्लू है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, देखा!" कहा मैंने,
"चीख रहा है!" बोले वो,
"हाँ, शायद, अपनी महबूबा को बुलाया है या फिर औलाद को, जिसके लिए अभी अभी इसने शिकार पकड़ा है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही लगता है!" बोले वो,
"इन्हें रहने दो बाशुदा!" कहा मैंने,
"कोई जगह देखी जाए?" बोले वो,
"हाँ, ज़रूरत तो है ही!" कहा मैंने,
रौशनी उलझाई गई ठीक सामने!
"वो क्या है?" बोले वो,
"कोई दरख्त सा लगता है!" कहा मैंने,
"देखते हैं!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम, चले उस तरफ, मुआयना किया, ये सेमल का दरख्त था, बड़ा सा! पत्ते कम ही थे उस पर, शाखें ऐसी डरावनी कि जैसे कंकाल की हड्डियां!
"वेताल की पनाह!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या ज़बरदस्त दरख्त है!" बोले वो,
"कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
"तो लगाई जाए मसनद यहीं?" बोले वो,
"ज़मीन देख लो?" कहा मैंने,
अब मारी रौशनी उधर, ज़मीन थी तो साफ़, लेकिन कुछ दिक्क्त सी थी उधर!
"दिखाओ?" कहा मैंने,
ली टोर्च और ज़मीन पर रौशनी बिखेरी!
"घीया चींटी!" कहा मैंने,
"ओहो!" बोले वो,
"सुबह तक तो कर देगी काम तमाम!" कहा मैंने,
"छोडो फिर!" कहा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं,
"और देखते हैं!" बोले वो,
"हाँ, उस तरफ!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
और हम, उस तरफ ही चले!
"कजिया की झाड़ी है!" बोले वो,
"रहने दो!" कहा मैंने,
"हम्म" बोले वो,
"इधर?" कहा मैंने,
"ये ठीक लग रही है!" बोले वो,
तभी फिर से उल्लू चीखा!
"कैसे परेशान है?" बोले वो,
"हमारे आने से!" बोला मैं,
"मत हो यार परेशान!" बोले वो,
मैं हंसा हल्का सा!
"आज रात हम भी तेरे जैसे हैं भाई!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
"इधर देखना?" बोले वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"बिल हैं!" बोले वो,
"देखने दो?" कहा मैंने,
"ये, यहां, देखो?" बोले वो, रौशनी मारते हुए उधर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, बिल हैं ये भी, लेकिन इतने छोटे?" बोला मैं,
"चूहे?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"ये शायद दीमक के हैं!" कहा मैंने,
"भागो फिर तो!" बोले वो,
"नहीं, बरसात में दिक्क्त करती हैं वो!" बोला मैं,
"हाँ, पानी भरता होगा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"फिर भी?" बोले वो,
"हाँ, क्यों तंग किया जाए इन्हें!" कहा मैंने,
"और देखते हैं कहीं!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
हम इधर उधर ढूंढा-खोज करते रहे! कुछ न मिले रात काटने को वहाँ तो! तभी शर्मा जी ने कुछ देखा!
"उधर?" बोले वो,
"क्या है?' पूछा मैंने,
"दीवार सी है?" बोले वो,
"इस बीहड़ में?" बोलै मैं,
"देख लो?" बोले वो,
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
हम जा पहुंचे पास!
"अरे हाँ यार!" कहा मैंने,
"खंडहर सा है!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"पुराने ज़माने का ही होगा!" बोले वो,
"हाँ, सो तो है!" कहा मैंने,
"देखते हैं!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
अब जी, हमने कोना कोना छान मारा, मिला तो कुछ नहीं, बस एक समतल सा चबूतरा ज़रूर मिल गए, डेढ़ हाथ चौड़ा और दो हाथ लम्बा!
"लो जी!" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"पलंग!" बोले वो,
"ओ! लेटो जी पलंग पर!" कहा मैंने,
"आप लेटो!" कहा उन्होंने,
"आप?" बोला मैं,
"ज़रा धुंआ छोड़ लूँ!" बोले वो,
"छोडो जी!" कहा मैंने,
और बिछा ली चादर! ओहो! ऐसी गर्म जगह कि ऑमलेट बना लो! पल में ही पसीना छलक आया कमर में!
"भाई जी?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"तवा है ये तो क़तई!" कहा मैंने,
"पानी अगरा लो?" बोले वो,
"पानी पड़ते ही, छुन्न!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"ढलने दो रात फिर!" कहा उन्होंने,
"हाँ, तब सीत पड़ेगी!" कहा मैंने,
"तब तक, ये भी बिछा लो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और दूसरी चादर भी बिछा ही ली,
"अब थोड़ी राहत है!" कहा मैंने,
"श्ह्ह्ह्ह्!" बोले अचानक से वो,
मैं चुप! वो चुप! कुछ पल!
"सुना?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"आवाज़?" बोले वो,
"कैसी आवाज़?" पूछा मैंने,
"सुनो?" बोले वो,
मैंने गौर से सुना, कान लगाए!
"ना!" कहा मैंने,
"ये, ये आवाज़?" बोले वो,
"कौन सी?" बोला मैं,
"ये! सुनो?" बोले वो,
"हाँ, है तो कुछ!" बोला मैं,
अब लगाए ज़रा और कान!
"कोई वाहन है!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?" कहा मैंने,
"कोई जैसे बुग्गी हांक रहा हो?" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"रुक गई!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई जानवर तो नहीं?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"सियार-फियार?" बोले वो,
"सियार तो नहीं है!" कहा मैंने,
"रुको!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये सुनो?" बोले वो,
अब ज़रा सुना कुछ!
"हैं?" बोला मैं,
"है न?" बोले वो,
"कोई खेत में काम तो नहीं कर रहा?" पूछा मैंने,
"खेत रहे कोस भर पर!" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"सुनो, अब सुनो!" बोले वो,
अब ज़रा गौर से सुना और!
"हाँ!" कहा मैंने,
"श्ह्ह्ह्ह्!" बोले वो,
"क्या हुआ?" मैंने धीरे से पूछा,
"पीछे मेरे!" बोले वो,
"कोई नहीं है!" कहा मैंने,
"आवाज़!" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गौर से सुनो?" बोले वो,
मैंने गौर से ही सुना, लेकिन कोई हो तो न? कोई भी तो नहीं था, मुझे तो सच में, कुछ नहीं सुनाई दे रहा था, उन्हें ही सुनाई दिया था, मुझे तो लगा था कि जैसे कोई खेत में कस्सी-फावड़ा चला रहा हो, नाली बना रहा हो या काट रहा हो, लेकिन खेत तो यहां दूर दूर तलक नहीं थे! फिर लगा, कोई जानवर ही न हो, जैसे कोई सियार आदि, अक्सर रात में ही निकला करते हैं, सिवाने या क़ब्रस्तान अगर पास हो, तो दूसरे मुर्दाखोर जानवर भी दीख जाते हैं, ईख भी नहीं लगी थी, अक्सर, सियार ईख की फसल में निवास कर लिया करते हैं, अपने बच्चों को पालते हैं या सियारन प्रसव में हुआ करती है, बारहहाल, ऐसा कुछ भी नहीं था, एक पल को लगा था कि कोई वाहन ही न हो, जैसे कोई ट्रेक्टर आदि, लेकिन नहीं था, फिर लगा, कोई बुग्गी ही हो, वो भी नहीं थी! अब उन्हें क्या सुनाई दे रहा था, ये मेरी समझ से, उस वक़्त तो बाहर ही था!
"बंद!" बोले वो,
"क्या बंद?" पूछा मैंने,
"आवाज़!" बोले वो,
"कान में कोई बर्रा तो नहीं घुस गया आपके?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
और तभी आई एक खांसने की आवाज़, गला खखारने की सी आवाज़! अब घूमी हमारी आँखें उसी तरफ! ठीक शर्मा जी के पीछे!
"देख लो, कोई बर्रा तो नहीं घुस गया?" बोले वो,
"शहहह!" कहा मैंने,
आवाज़, एक बार ही आई थी, कुल पांच मिनट से ऊपर हो चले थे, अब कोई आवाज़ नहीं आई थी!
"है न कोई?" बोले वो,
"हाँ, था!" कहा मैंने,
"अब कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"देखें?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो" बोले वो,
"हाँ" बोला मैं,
हम उठे, और चले उस तरफ ही, घुप्प अँधेरा, था कुछ नहीं! कि अचानक ही!!
"वो क्या है?'' बोले वो,
"अरे?" कहा मैंने,
"आओ?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
तक क़दमों से हम दौड़ पड़े उधर! पहुंचे!
"ये क्या है?" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
सामने, नीचे, कुछ गिरा था, जैसे कोई गुदड़ी सी!
"गुदड़ी है!" कहा मैंने,
"कैसी?" पूछा उन्होंने,
"कंबल सा है" कहा मैंने,
"ऐसी गर्मी में कंबल?" बोले वो,
"कोई जानवर ले आया होगा?" कहा मैंने,
"मुर्दाखोर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"छोड़ो इसे!" बोले वो,
"आओ" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
फिर से एक आवाज़ आई!
"सुना?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"लाठी खड़खड़ाने की सी आवाज़!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
"यहां है कोई?" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"कोई है क्या?" पूछा मैंने, तेज चिल्ला कर!
मेरी आवाज़ गूँज गई हर तरफ!
"है कोई?' पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
"कलुष चलाइए?" बोले वो,
"अभी नहीं!" बोला मैं,
"क्यों?" बोले वो,
"सभी ने देखा उसे!" कहा मैंने,
"हो सकता है, भांप लिया हो?'' बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"आगे चलें?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम धीरे से आगे चले!
"श्ह्ह्ह्ह्!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"वो देखो!!" बोले वो,
मैंने जो देखा, देखता ही रह गया!
"ये क्या है भला?" पूछा मैंने,
"लालटेन?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"दीया?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"देखें?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
अब हम उस तरफ चल पड़े!
"रुको?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"देखो सामने?" बोले वो,
"दे.......ख!!" बोलते बोलते रुक गया मैं!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"अजीब ही है?" बोले वो,
"हाँ, यक़ीनन!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सामने एक रौशनी थी, जैसे कोई मद्धम सी लालटेन लिए खड़ा हो! जैसे दीया अपने चौथेपन में बस लोप होने को ही हो, लेकिन रौशनी टिमटिमा नहीं रही थी! और ऐसी किसी भी रौशनी के बारे में मैंने यहां तो नहीं सुना था! न तो केशू ने ही देखी थी और न ही सतपाल ने ही, और न ही किसी और ने बताया था इस बारे में! अब बिना जाने, मालूम कैसे पड़े?
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
हम चलते रहे, चलते रहे, लेकिन वो रौशनी ही पकड़ में न आये! जैसे शून्य में ही कहीं अड़ी हुई हो, जैसे चस्पा कर दिया गया हो उसे, शून्य में ही! बड़े ही कमाल की बात थी!
"रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये नहीं थम रही!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"आगे, और आगे भागे जा रही है!" कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोले वो,
"और देखो ज़रा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"नीचे उसके, कोई प्रकाश नहीं!" कहा मैंने,
"नीचे?' बोले वो,
"मतलब, ज़मीन पर!" कहा मैंने,
"हाँ! नहीं है!" बोले वो,
"धोखा है ये!" कहा मैंने,
"कैसा?' बोले वो,
"कोई हाडल या जमवा हो सकता है!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"हिलना नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
हम दोनों ही बैठ गए!
दस मिनट! बीस मिनट, और वो हुई लोप!
"ये जमवा ही था!" कहा मैंने,
"समझा!" कहा उन्होंने,
मित्रगण! जमवा एक प्रेत होता है! ये रूप बदलता है! पहले रौशनी, फिर मदमाती सी स्त्री का! कभी हाथ नहीं आती, और पीछे दौड़ने वाला, गिर कर, फंस कर, प्राण दे देता है! ये उसकी आत्मा को संग कर लेता है फिर! यही काम है इसका! इसको कहीं कहीं खेचा, उड्डा या, पूला बोला जाता है, अक्सर, बीयाबान में मिलता है! हरेभरे स्थानों पर, कम ही दीखता है!
"ये बनता कैसे है?" बोले वो,
"प्यास से मरा हुआ!" कहा मैंने,
"ओ!" बोले वो,
"हाँ, इसे बेहोशी में मरा भी कहते हैं!" कहा मैंने,
"सब जगह?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"तो?" बोले वो,
"भटका हुआ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"निरोगी, स्वस्थ!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
"अब भी?" बोले वो,
"पता नहीं, अब तो कोई भटकता नहीं वैसे!" कहा मैंने,
"हाँ, लाइट है, फोन हैं अब!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
कुछ देर ऐसे ही बातें करते रहे हम!
"आओ, लौटें!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
वापिस हुए हम! हाथ न लगा कुछ भी!
"इसी का शोर था वो?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"जमवा मिला!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पता नहीं क्या क्या है!" बोले वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
तभी आई फिर से खांसने की आवाज़!
रुक गए हम! ोिछे देखा पलट कर!
"जमवा?" बोले वो,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?" बोले वो,
"श्ह्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
कुछ आवाज़ें आईं!
"क्या है ये?'' बोले वो,
"शायद, पायजेब की सी आवाज़ है!" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"फिर?' पूछा मैंने,
"जैसे कड़े बज रहे हों!" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
आवाज़ फिर से बंद!
हम चुप्प! सांस दबाए!
अचानक से, तेज साँसों की सी आवाज़ आई!
"श्ह्ह्ह्ह्!" बोला मैं,
आँखें बंद कर, चुप हुए वो, सर हिलाया!
"सुनो!" कहा मैंने,
उन्होंने सुना!
"कोई रो रहा है?" बोले वो,
"शायद, सिसक रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ, सिसक ही रहा है!" बोले वो,
"सुनते जाओ!" कहा मैंने!


   
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