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वर्ष २०१४ इलाहबाद के समीप की एक घटना! उपाक्ष-भैरवी!

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श्रीशः उपदंडक
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मैं चक्कर लगाए जाता और उस से मिन्नतें जोड़े जाता! बार बार त्रिशूल लहराता! मेरे मुंह से मेरा थूक, पता नहीं कब निकलता और कब सूख जाता! मैं बार बार नाद करता, हालांकि मेरे नादों में, समय अवश्य ही लगता! मेरी साधिका, घुटनों पर बैठ, तालियां पीटती हुई, मुझे देख देख हंसे चली जाती! और अचानक ही, उस घाड़ ने झटके खाये! मैं झट से रुक गया! साँसें नियंत्रित कर, उसके पास पहुंचा!
"जाग! जाग शव-रूढ़ा! जाग!" कहा मैंने, साँसें बांधते हुए अपने सीने में!
उस घाड़ में, प्रवेश सा हुआ शव-रूढ़ा का! उस घाड़ की अस्थियां कड़क-कड़क करने लगीं! और उसके हाथ कसते चले गए! और उसी खस्न, शव-रूढ़ा का प्रवेश हो गया उस घाड़ में!
"जय जय शव-रूढ़ा!" कहा मैंने,
उस घाड़ ने नेत्र खोले, नेत्र ऐसे, कम ही खुले जैसे, सूजे हुए हों! हाँ, मुंह से फूंक सी मारने लगी थी वो मृत-स्त्री!
मित्रगण!
अब यदि, कोई आधुनिक विचारधारा वाला, हमें अंधविश्वासी कहने वाला, विज्ञानवादी, साइंसदां व्यक्ति, इस क्षण को देख ले तो क्या हो! ऐसा कैसे सम्भव हुआ? कैसे मृत देह में प्राण आ गए? कैसे उसके नेत्र खुले? कैसे उसके हाथ अकड़ गए? कैसे उसने फूंक मारी? अब कौन दे इनके जवाब! और कोई साधारण मनुष्य इस क्षण को देख ले, तो सच कहता हूँ वो भी घाड़ ही बन जाए उसी क्षण! अविलम्ब! ये संजीवनी नहीं है, ये परकाया-प्रवेश है, जहां प्रवेश में, प्रेतादि प्रवेश कर जाते हैं, ठीक वैसे ही, उस घाड़ को परिशुद्ध करने हेतु शव-रूढ़ा का प्रवेश कराया जाता है! शव-रूढ़ा, आमुक्त-शक्ति है! रूप में, यौवना, उन्नत स्तनों वाली, इसके स्तन, इसके कंधों तक ऊँचे और नाभि तक को घेरे होते हैं, योनि, विशाल होती है, भग, आधी जांघ तक आता है, नितम्ब, विशाल और दीर्घ होते हैं, ग्रीवा छोटी, भैंसे की तरह से उठी हुई रहती है पीछे से, कूबड़ नहीं होता हालांकि, कद में, करीब आठ फ़ीट, केले की सी गंध आती है इसमें, देह पर, जैसे तेल मला हो, या तेल में स्नान किया हो, ऐसी होती है, श्मशान में, पले-बढ़े पलाश के वृक्ष की जड़ में इसका वास होता है, इसी कारण से, आमजन भी, पलाश के किसी भी पेड़ की जड़ में, मूत्र-त्याग, विष्ठा-त्याग नहीं किया करते! शव-रूढ़ा सबसे शीघ्रता से प्रसन्न होने वाली मसानी-शक्ति है, एक रात की साधना में ही सिद्ध हो जाती है! परन्तु ये वार्तालाप, मात्र किसी शव द्वारा ही किया करती है!
"हे शव-रुढे!" कहा मैंने,
और शराब की धार उसके मुंह में टपकाई!
"हे शव-संगे!" कहा मैंने,
और उसका माथा त्रिशूल से छुआ मैंने!
"हे शव-प्रिये!" कहा मैंने,
और उसके स्तनों पर छुआ त्रिशूल अपना!
"हे शव-संगिके!" कहा मैंने,
और उसका उदर छुआ त्रिशूल से!
"हे शव-कन्या!" कहा मैंने,
और उसकी योनि पर स्पर्श किया त्रिशूल मैंने!
"हे शव-भज्ये!" कहा मैंने,
और जाँघों का परिशुद्धन किया मैंने!
"हे शव-आद्यायिनि!" और उसके शेष भाग को छुआ मैंने!
नेत्र बंद! हाथ ढीले पड़े! हो गया शुद्धन उस शव का! बस, अब कोई बाधा शेष नहीं! शव को शुद्ध कर, अब योग्य बना लिया गया था उपाक्ष-भैरवी के लिए! यही उद्देश्य था मेरा और ये पूर्ण किया मैंने!
उधर, मेरी साधिका, नीचे सर कर, लेट गई थी, घुटने मुड़े ही रह गए थे उसके, मैं चला उसके पास!
"साधिके?" कहा मैंने,
न हिली वो!
"हे साधिके?" कहा मैंने,
कोई भी अंग न हिला उसका!
अब मैं बैठा, और उसके चेहरे को देखा!
"हाँ! तू चली! तू चली!" कहा मैंने,
और अपना त्रिशूल लहरा कर, उसके सर से छुआ दिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हम्म्म!" बोली वो,
"आ जा बाहर!" कहा मैंने,
"हम्म्म!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
और दिया पीछे की ओर धक्का उसे, वो पीछे, दायीं तरफ झूल गई! चेहरा सूज गया था उसका! नेत्र खुल नहीं रहे थे! मैंने मदिरा ली, मंत्र पढ़ा और उसके चेहरे से मल दिया! उसने चीख मारी, जैसे मैंने किसी घाव पर शराब छिड़क दी हो! तड़प सी उठी थी वो, लेकिन मैंने पकड़ के रखा था उसे!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हम्म्म!" बोली वो,
"जाग?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"जाग?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली वो,
"देख?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने गुस्से से तब!
"हाँ न?" बोली वो,
"जाग?" कहा मैंने,
और वो उठी, आँखें बंद किये! उसके चेहरे पर हंसी थी, जैसे दबा रही हो हंसी, ऐसे होंठ कर रखे थे अपने!
"साधिके?" चीखा मैं,
"हाँ?" बोली वो, और नेत्र खोल दिए अपने!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"साधिके!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"कुशल से नहीं तुम?" पूछा मैंने,
"कुशल से हूँ!" बोली वो,
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोली वो,
"कौन मैं?" पूछा मैंने,
"संहिका!" बोली वो,
"संहिका! छोड़ दे इसे!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"छोड़ दे!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"क्या चाहिए?'' पूछा मैंने,
"पाखुन!" बोली वो,
"ये मेरा काम नहीं!" कहा मैंने,
"तेरा ही तो है?" बोली वो,
"नहीं संहिका!" कहा मैंने,
"तू जानता है!" बोली वो,
"हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"बिठाल दे!" बोली वो,
"नहीं बिठाल सकता!" कहा मैंने,
"मुझे क्रोध आ जाएगा!" बोली वो,
"कुछ नहीं होने वाला!" बोल मैं,
"देखना चाहता है?" बोली वो,
"हाँ!" बोला मैं!
"तो देख ले!" बोली वो,
तब उसने अपना हाथ, अपने मुंह में डालने की कोशिश की! लेकिन घुसे ही नहीं! फिर से घुसाए! न घुसे! फिर से कोशिश करें, न घुसे!
"अब जा संहिका!" कहा मैंने,
उसने सर नीचे किया, और सुबक उठी! रोने लगी तेज तेज! गला फाड़ फाड़, ज़ार ज़ार रोये!
"जा संहिका! मैं वो नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे बिठाल दे बेटा!" बोली वो,
"नहीं बिठाल सकता!" कहा मैंने,
"तुझे सब दूंगी!" बोली वो,
"नहीं संहिका!" कहा मैंने,
"तुझे सब दे सकती हूँ!" बोली वो,
"नहीं संहिका!" कहा मैंने,
"सोच ले?" बोली वो,
''सोच लिया!" कहा मैंने,
"नहीं मानेगा?" बोली वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"ये तेरी अर्धाङ्गिनी है?" बोली वो,
"इस समय!" कहा मैंने,
अब वो हंसी! उठी! और आई मेरे पास! झुकी और मेरे कान में कुछ बुदबुदाई! बुदबुदाते ही, पछाड़ खायी और मैंने सम्भाल ली अपनी साधिका! वो क्या बुदबुदाई? कौन है संहिका? बताता हूँ! एक मार्ग है, जो, जाता है, उपाक्ष-स्थल को! उसी मार्ग पर एक प्याऊ है, यहां रुकना पड़ता है, सो मैं रुका! इस प्याऊ की मालकिन है संहिका! संहिका अर्थात, मशाल दिखाने वाली! वो क्या बुदबुदाई? बोली, 'सीधा जा, मुड़ना नहीं' ये बोली वो! बोली डामरी में, वो नहीं बता सकता!
"साधिके?'' कहा मैंने, वो मेरी भुजाओं में क़ैद थी उस वक़्त!
नहीं दिया कोई जवाब उसने!
"साधिके? अब कोई बाधा नहीं!" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं फिर से!
"साधिके?" कहा मैंने, उसका माथा चूमते हुए!
अब नेत्र खोले उसने, आसपास देखा और झट से खड़ी हो गई! मुझे देखने लगी! अलख को देखने लगी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"अब कोई बाधा नहीं!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"आओ अब!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"साधिके? अब कोई प्रश्न नहीं, मौन ही रहना!" कहा मैंने,
उसने सर हिलाया अपना!
"सैंकड़ों कान लगे हैं आसपास!" कहा मैंने,
उसने फिर से सर हिलाया अपना हां मैं!
"यहां, यहां खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
वो खड़ी हो गई, मैंने त्रिशूल से, उसके इर्द-गिर्द एक घेरा काढ़ दिया! जमकेश्वर का मंत्र पढ़ा और उस वृत्त में, घेरे में, प्राण फूंक दिए! उस घेरे में अब मेरी साधिका, सकुशल ही रहती!
"देखना, कहना कुछ नहीं!" कहा मैंने,
उसने फिर से सर हिलाया अपना! और मैं चला स्त्री-घाड़ के पास! गया और लेट गया उसके ऊपर! उसको, प्रणय-मुद्रा में घेर लिया! और मंत्र, जपता रहा! ऐसा कुछ देर किया, और फिर, उठा, साधिका को देखा, चला उसके पास! रुका वहां!
"दोनों हाथ आगे करो!" कहा मैंने, और उसने किये!
और उसको, एक ही झटके के साथ, मैंने अपनी पीठ पर लाद लिया, उसने कोई विरोध नहीं किया, मेरी कमर के इर्द-गिर्द अपनी टांगें कस लीं! मैं दो पल खड़ा रहा वहां और चला उस घाड़ की तरफ! उसके पांवों तक आया!
"तू तो सब जानती है!" कहा मैंने,
"उपकार कर!" कहा मैंने,
"उपकार कर इस साधक पर!" कहा मैंने,
और तब, मैं, उस स्त्री-घाड़ को निहारते हुए, पीछे लौट पड़ा, आहिस्ता-आहिस्ता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसी घेरे के पास चला आया मैं और खड़ा हो गया! 
"साधिके?" कहा मैंने,
उसने सर हिलाया पीछे ही,
"इसमें उतर जाओ!" कहा मैंने,
और वो, उतर गई उसी घेरे में!
"अब न हिलना! न जाना कहीं!" कहा मैंने,
उसने फिर से हाँ में सर हिलाया!
"चाहे कुछ भी हो, न हिलना! जब तक मैं न कहूं!" कहा मैंने,
हाँ में, फिर से सर हिलाया उसने!
और मैं, सीधे चलते ही, अपना त्रिशूल ले, उस घाड़ के पास पहुंचा! अपना झोला लिया और सबसे पहले, इस घाड़ का श्रृंगार किया! उसके केश बांधे, संवार कर, फिर चेहरे पर उबटन लगाया, फिर, गले में, मालती के पुष्पों की माला बाँधी, फिर उसके स्तनों पर सुगन्धि लगाई, हाथों में सुगन्धि लगाई, और इस प्रकार, उदर, योनि-स्थल, जंघाएं, पिंडलियाँ, पाँव और उँगलियों पर सुगन्धि लगा दी!
उसके बाद, दीप प्रज्ज्वलित किये, कुल छह, चार एक तरफ और दो एक तरफ! उसको नमन करता जाता में, एक एक क्रिया सी कर! उसकी देह पर, अब रक्त-पात्र से रक्त लिया, ऊँगली डुबोई और चिन्हांकन किया, सात स्थानों पर! और उठ खड़ा हुआ! खड़े होते ही एक नाद किया! दौड़ा पीछे, अलख में ईंधन झोंका और फिर से आगे आया, घाड़ के पास!
एक महानाद! चारों दिशाओं में! और अगले ही पल, जा बैठा चढ़ कर उस घाड़ की छाती पर! बैठे ही, एक ज़ोरदार सा ठहाका मारा मैंने!
"आया आया!" बोला मैं,
"आया आया!" बोला मैं,
"आये रे आया!" बोला मैं,
"आया रे मैं आया!" चीखा मैं!
"देखो देखो रे!" बोला मैं!
"देखो देखो रे!" चीखा मैं और हंसा ज़ोर से!
"आया मैं! आया मैं!" बोला मैं,
और कर लिए नेत्र मंत्र! और मुंह से, श्मशान गुंजा देने वाले मंत्र, फूट चले! हाथों की मुद्राएं बदलने लगीं! कंधे उचकने लगे! मंत्र और भीषण मंत्र!
"हा! हा! हा! हा!" हंसा मैं!
"तारा का पूत न्यारा!" कहा मैंने,
"जटाजूट भंग प्यारा!" चीखा मैं, और हंसा!
"हा! हा! हा! हा!" हंसा मैं!
"ऐय! बोल तू?" बोला मैं, उस घाड़ के स्तन पकड़ते हुए!
"बोल तू?" बोला मैं,
"ऐय! बोल तू!" बोला मैं!
"हा! हा! हा! हा!" हंसा मैं फिर से!
पास रखी शराब उठायी और मुंह से लगा ली! चार-पांच घूंट गटक गया! अंतिम घूंट, थूक कर सामने फेंक दिया!
"तुझे भी चाहिए?" बोला मैं घाड़ से!
"हैं? बोल?" बोला मैं,
"तुझे भी चाहिए?" बोला मैं,
और फिर, स्वयं ही दो घूंट और पी गया!
घाड़ के पकड़ कर बाल, और खींचा मैंने! जैसे पास बुलाना हो उसको! ज़ोर ज़ोर से हिलाया उसका सर, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे! दाएं-बाएं!
"तुझे भी चाहिए?'' बोला मैं!
"ओ!" बोला फिर से!
"बोल, चल, उठ?" बोला मैं,
"चाहिए?" बोला मैं,
"हैं?" बोला मैं,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हैं?" कहा मैंने,
"सुना नहीं?" बोला मैं,
"चाहिए?" बोला मैं,
"बोल?" बोला मैं,
"नहीं?" पूछा मैंने,
"हा! हा! हा! हा!" हंसने लगा फिर से!
"कोरी तो न मिलेगी!" बोला मैं,
"सुनी?" कहा मैंने,
"ओ! कोरी तो न मिलेगी?" कहा मैंने,
"हैं?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला मैं,
अपना कान उसके मुंह के पास ले गया! रुका उधर!
"क्या?" बोला मैं,
"चाहिए?'' पूछा मैंने,
"कोरी न दूँ?" बोला मैं,
"चल! चल! हा! हा! हा! हा!" कहा मैंने,
"चल! रीझा औघड़!" कहा मैंने,
"रुक जा!" कहा मैंने,
"अभी रुक जा!" कहा मैंने,
"हाँ! रुक जा!" कहा मैंने,
थोड़ा पीछे हुआ, और फिर से शराब की बोतल से घूंट गटक, रख दी ज़मीन पर!
"आ! आ!" कहा मैंने,
"ले ले! रीझा तुझ पर!" बोला मैं,
और नाचने लगा! हँसता जाता और उसे बुलाये जाता! बार बार ऐसा ही करता! हंसरा और फिर से ज़ोर से हँसता! 
"ले? ले ले?" बोला मैं,
"कोरी न दूँ! न दूँ कोरी!" कहा मैंने,
और तभी बोतल के दो टुकड़े हुए! उछल कर, दूर जा गिरे!
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
और फिर से हंसने लगा!
"आया तेरी गोद में! आया तेरी गोद में!" कहा मैंने, और भागा उस तरफ! जा चढ़ा उसके ऊपर!
"जय भैरव! जय जय भैरव!" कहा मैंने,
और तभी..........................


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं जा चढ़ा था उस घाड़ के ऊपर! तेज तेज मंत्रोच्चार किये जा रहा था! कभी हँसता मैं और कभी चिल्ला पड़ता! कभी बैठ जाता और कभी खड़ा हो जाता! कभी घाड़ से बातें करता और कभी उसे ही धिक्कारने लगता! कभी उसका सम्मान करता और कभी उसको हेय-दृष्टि से देख, गाली-गलौज करने लगा जाता! इस प्रकार मुझे ऐसा करते हुए एक घंटा बीत गया! मैंने घाड़ का प्रयोग क्र, क्रिया के तीसरे चरण में प्रवेश कर लिया था! अब यूँ मानिए कि हम भैरवी-स्थल में प्रवेश कर गए थे! इसीलिए मैं खड़ा हुआ, और चला अपनी साधिका के पास, साधिका, हैरान सी, थोड़ा भयभीत से, सिकुड़ी हुई उसी घेरे में बैठी थी! मैं पहुंचा उधर, और उसके घेरे के बाहर खड़ा हो, थोड़ा मुस्कुराया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और अपना हाथ आगे बढ़ा दिया! उसने मेरा हाथ पकड़ा और मैंने उसको उठा लिया, उसको, उसके कंधे से पकड़ा और कमर पर दो थाप दीं!
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
और ले चला उसको संग! अब मैंने उसको वहीँ खड़े रहने को कहा, अपने त्रिशूल से उसको अंदर ले, खुद को अंदर ले, उस घाड़ को अंदर ले, एक घेरा खींचा, और कुछ मंत्र जपे! तब मैं, उस घाड़ पर चढ़ गया, और लेट गया!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"आओ, मेरे ऊपर बैठो!" कहा मैंने,
उसने ठीक वैसा ही किया, उसको मैंने, इस प्रकार से बिठाया कि उसके नेत्र मुझे देखते रहें और मैं उसकी, ये काम-मुद्रा थी! इस काम मुद्रा में, मैंने उसके दोनों हाथ पकड़े हुए थे, और इस प्रकार मैंने एक मंत्र और जपा!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"जो दिखे, मुझे बताना!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और मैंने अपने एक हाथ से, उसके नेत्र ढक दिए, एक मंत्र पढ़ा, और बाएं हाथ से, उसको खींचा अपनी तरफ, तब, मैंने उसके नेत्र खुले छोड़ दिए, उसने बंद ही रखे, अब वो उन्हीं बंद नेत्रों से मुझे आगे का मार्ग सुझाने वाली थी!
मैंने, अब, उपाक्ष-भैरवी के मंत्र जपने शुरू किये, मेरी साधिका, जस की तस बैठी ही रही! कुछ देर हुई, कुछ समय बीता और!
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ, कुछ है!" बोली वो,
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"ये तो जल-कुंड है!" बोली वो,
"कोई है उधर?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"जल में क्या है?" पूछा मैंने,
"नीले कमल हैं!" बोली वो,
"और, कुछ और साधिके?" कहा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"आगे एक वृक्ष है?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"जाओ वहां तक!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"उस वृक्ष पर, सर्प हैं!" बोली वो,
"जाओ!" कहा मैंने,
फिर वो चुप हो गई, जैसे बंद नेत्रों में आगे जा रही हो!
"नाथ?" फुसफुसाई वो!
"हाँ?" कहा मैंने,
"उस वृक्ष के नीचे एक स्त्री है!" बोली वो,
"कैसी है स्त्री? पास जाओ?" कहा मैंने,
"ये तो वृद्धा है!" बोली वो,
"अच्छा, आगे जाओ!" कहा मैंने,
"नाथ, उसके समक्ष एक पत्तल रखा है, और एक लोटा!" बोली वो,
"जाओ, भवन का मार्ग पूछो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और फिर से चुप हो गई!
कुछ ही पल! कुछ ही देर तक! और उसके मुख से, एक वृद्धा-स्त्री की आवाज़ निकली!
"परबत लांघ, परात में गिर................................!!" ये बोल, चुप हो गई वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"ह....हाँ नाथ?" बोली वो,
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"वो वृद्धा चली गई!" बोली वो,
"तुम भी चलो!" कहा मैंने,
"कहाँ नाथ?" बोली वो,
"उस पताका वाले मार्ग पर!" कहा मैंने,
"पताका? हाँ! दिखी!" बोली वो,
"चलो, आगे बढ़ो!" बोला मैं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलो, आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
फिर कुछ देर तक शांत, लेकिन चेहरे पर कुछ भाव-आते और चले जाते!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"यहां झोंपड़े हैं, दोनों तरफ!" बोली वो,
"कैसे झोंपड़े?'' पूछा मैंने,
"फूस से बने हैं, काले वस्त्र टंगे हैं!" बोली वो,
"हाँ, ये मसान-स्थल है!" कहा मैंने,
"मसान?'' बोली वो,
"हाँ, यहीं रखता है मसान आत्माओं को!" कहा मैंने,
"कोई बुला रहा है!" बोली वो,
"नहीं रुकना!" कहा मैंने,
"नाथ" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
"आदेश, नाथ!" कहा उसने,
मित्रगण! ये मसान-नगरी होती है, यहां असंख्य झोंपड़े हुआ करते हैं, जिनमे मसान आत्माओं को रखता है, उसने सेवा करवाता है, ये एक अलग ही विषय है, ये मसान ही है जो आगे भेजता है किसी भी आत्मा को! यहां मसान खुद ही आत्मा से उसके कर्म के अनुसार ही व्यवहार किया करता है, कम से कम तेरह दिन और सजा के तौर पर, प्रेत भी बना दिया करता है! भटकने को!
तो मेरी साधिका, उसी मसान की नगरी से हो कर गुजर रही थी, जिसकी लीला उसने देखी थी! यहां इस मार्ग पर, जो वृद्धा मिली थी, उसको पंची कहा जाता है, ये ही आगे का मार्ग बताया करती है, इस मार्ग का पहला पड़ाव यही मसान-नगरी हुआ करती है! यहां, कई चिर-परिचित मिल सकते हैं, कई पुराने जानकार या वृद्ध रिश्तेदार आदि आदि! यहां से जब भी किसी की, अर्थात फलां आदि की, आमद कराई जाती है, तो एक परची भेजी जाती है, तब कुछ समय के लिए फलां आदमी की हाज़िरी हुआ करती है या आमद हुआ करती है! बंजार-विद्या में अक्सर ऐसा होता है, वे लगातार पर्चियां भेज, आमद करवा, अता-पता निकलवाया करते हैं, निशानदेही करवाया करते हैं! बदले में, मसान को भोग चढ़ाया जाता है! किसी किसी स्थान पर, ये बंजारे लोग, मसान को बिठा देते हैं, अर्थात, इसका अर्थ हुआ कि उस स्थान को, मसान के सरंक्षण में रख दिया करते हैं! हज़रत शाह साहब भिश्ती वाले भी फलां आदमी की पेशी, गोशी यहीं से करवाया करते हैं! चलिए, ये विषय तो अलग ही हुआ!
तो मेरी साधिका ने यहां, उस मार्ग के दोनों ही तरफ, झोंपड़े देखे थे, ये झोंपड़े, छोटे छोटे हुआ करते हैं, एक बात और, यहां, कुछ भी भोजन आदि नहीं दिया जाता, न वस्त्र-परिधान ही, न बिस्तर आदि! न चप्पल आदि ही! भोजन स्वयं ही लेना होता है, बनाना होता है या फिर उस फलां मृतक के रिश्तेदार, पुत्रादि जो, कीकर तले, पत्थर के ऊपर या, मृतक हेतु रखा करते हैं, वही प्राप्त होता है! ऐसे ही अन्य वस्तुएं भी! हमारे वैदिक-धर्म में अब ये सब कम ही देखने को मिलता है, यहां अब ये वित्तीय-लाभ का एक कर्म-कांड बन चुका है!
तो साधिका को किसी ने आवाज़ दी थी, सम्भव है, उसका कोई परिजन ही रहा हो, जिसने उसे पहचान लिया हो, इसीलिए मैंने उसको, न रुकने को कहा था, बस आगे बढ़ती जाए वो, उस भवन की तरफ!
"कोई भी आवाज़ दे, रुकना नहीं!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से थोड़ा चुप हुई!
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"ये एक नदी है!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"लेकिन कोई नहीं है!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आदेश करें!" बोली वो,
"चलो, आगे बढ़ो, नदी में!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ, बढ़ो आगे!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
कुछ पल फिर से चुप! थोड़ी देर अब!
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"पार कर गई! नाथ!" बोली वो,
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"प्रत्येक वस्तु पीली है यहां, कोई अंतर् नहीं!" बोली वो,
"प्रत्येक?" पूछा मैंने,
"हाँ, प्रत्येक, जहां देखो!" बोली वो,
"शाषठेव-स्थल है ये! वास-स्थल!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"मार्ग दिख रहा है?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
कुछ पल फिर से चुप! और अचानक से, उछल सी पड़ी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"यहां, पंगत लगी है, मार्ग किनारे!" बोली वो,
"हाँ! आगे! और आगे चलो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलो, आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
फिर कुछ देर तक शांत, लेकिन चेहरे पर कुछ भाव-आते और चले जाते!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"यहां झोंपड़े हैं, दोनों तरफ!" बोली वो,
"कैसे झोंपड़े?'' पूछा मैंने,
"फूस से बने हैं, काले वस्त्र टंगे हैं!" बोली वो,
"हाँ, ये मसान-स्थल है!" कहा मैंने,
"मसान?'' बोली वो,
"हाँ, यहीं रखता है मसान आत्माओं को!" कहा मैंने,
"कोई बुला रहा है!" बोली वो,
"नहीं रुकना!" कहा मैंने,
"नाथ" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
"आदेश, नाथ!" कहा उसने,
मित्रगण! ये मसान-नगरी होती है, यहां असंख्य झोंपड़े हुआ करते हैं, जिनमे मसान आत्माओं को रखता है, उसने सेवा करवाता है, ये एक अलग ही विषय है, ये मसान ही है जो आगे भेजता है किसी भी आत्मा को! यहां मसान खुद ही आत्मा से उसके कर्म के अनुसार ही व्यवहार किया करता है, कम से कम तेरह दिन और सजा के तौर पर, प्रेत भी बना दिया करता है! भटकने को!
तो मेरी साधिका, उसी मसान की नगरी से हो कर गुजर रही थी, जिसकी लीला उसने देखी थी! यहां इस मार्ग पर, जो वृद्धा मिली थी, उसको पंची कहा जाता है, ये ही आगे का मार्ग बताया करती है, इस मार्ग का पहला पड़ाव यही मसान-नगरी हुआ करती है! यहां, कई चिर-परिचित मिल सकते हैं, कई पुराने जानकार या वृद्ध रिश्तेदार आदि आदि! यहां से जब भी किसी की, अर्थात फलां आदि की, आमद कराई जाती है, तो एक परची भेजी जाती है, तब कुछ समय के लिए फलां आदमी की हाज़िरी हुआ करती है या आमद हुआ करती है! बंजार-विद्या में अक्सर ऐसा होता है, वे लगातार पर्चियां भेज, आमद करवा, अता-पता निकलवाया करते हैं, निशानदेही करवाया करते हैं! बदले में, मसान को भोग चढ़ाया जाता है! किसी किसी स्थान पर, ये बंजारे लोग, मसान को बिठा देते हैं, अर्थात, इसका अर्थ हुआ कि उस स्थान को, मसान के सरंक्षण में रख दिया करते हैं! हज़रत शाह साहब भिश्ती वाले भी फलां आदमी की पेशी, गोशी यहीं से करवाया करते हैं! चलिए, ये विषय तो अलग ही हुआ!
तो मेरी साधिका ने यहां, उस मार्ग के दोनों ही तरफ, झोंपड़े देखे थे, ये झोंपड़े, छोटे छोटे हुआ करते हैं, एक बात और, यहां, कुछ भी भोजन आदि नहीं दिया जाता, न वस्त्र-परिधान ही, न बिस्तर आदि! न चप्पल आदि ही! भोजन स्वयं ही लेना होता है, बनाना होता है या फिर उस फलां मृतक के रिश्तेदार, पुत्रादि जो, कीकर तले, पत्थर के ऊपर या, मृतक हेतु रखा करते हैं, वही प्राप्त होता है! ऐसे ही अन्य वस्तुएं भी! हमारे वैदिक-धर्म में अब ये सब कम ही देखने को मिलता है, यहां अब ये वित्तीय-लाभ का एक कर्म-कांड बन चुका है!
तो साधिका को किसी ने आवाज़ दी थी, सम्भव है, उसका कोई परिजन ही रहा हो, जिसने उसे पहचान लिया हो, इसीलिए मैंने उसको, न रुकने को कहा था, बस आगे बढ़ती जाए वो, उस भवन की तरफ!
"कोई भी आवाज़ दे, रुकना नहीं!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से थोड़ा चुप हुई!
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"ये एक नदी है!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"लेकिन कोई नहीं है!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आदेश करें!" बोली वो,
"चलो, आगे बढ़ो, नदी में!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ, बढ़ो आगे!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
कुछ पल फिर से चुप! थोड़ी देर अब!
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"पार कर गई! नाथ!" बोली वो,
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"प्रत्येक वस्तु पीली है यहां, कोई अंतर् नहीं!" बोली वो,
"प्रत्येक?" पूछा मैंने,
"हाँ, प्रत्येक, जहां देखो!" बोली वो,
"शाषठेव-स्थल है ये! वास-स्थल!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"मार्ग दिख रहा है?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
कुछ पल फिर से चुप! और अचानक से, उछल सी पड़ी!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"यहां, पंगत लगी है, मार्ग किनारे!" बोली वो,
"हाँ! आगे! और आगे चलो!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"पंगत में कौन है?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं, सभी हैं, बालक भी, वृद्ध भी, नाथ!" बोली वो,
"आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से सन्नाटा! कुछ पल शांत रही!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?'' कहा मैंने,
"यहां भीड़ सी लगी है!" बोली वो,
"क्या हुआ है?' पूछा मैंने,
"अर्थियां लायी जा रही हैं!" बोली वो,
"कहाँ से?" पूछा मैंने,
"ये पहाड़ी है कोई, उसमे रास्ता है, हर तरफ वही हैं!" बोली वो,
"तुम आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"रास्ता नहीं है?" बोली वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"भीड़ है, रास्ते पर!" बोली वो,
"जगह देखो, निकलो!" कहा मैंने,
"हाँ, एक सांड खड़ा है!" बोली वो,
"उसके पास है कोई?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक कन्या है!" बोली वो,
"जाओ उसके पास!" कहा मैंने,
''आदेश नाथ!" बोली वो,
कुछ पल शान्ति फिर से!
"हाँ साधिके?'' कहा मैंने,
"रुकिए नाथ!" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कन्या ने कहा कि वो मदद करें उसकी, सांड पर बैठने में!" बोली वो,
"बिठाया?" पूछा मैंने,
"हाँ, अपने कंधों पर चढ़ा कर! नाथ!" बोली वो,
"अब रास्ता पूछो इस कन्या से!" कहा मैंने,
''आदेश नाथ!" बोली वो,
और फिर से चुप हुई! और फिर से एक आवाज़ उसके मुंह से निकली! इस बार किसी छोटी सी बालिका की, जिसकी उम्र मुश्किल से छह या सात बरस रही हो!
"बारह कुँए, दो नाई, पांच बटावन!" बोली वो,
और फिर से शांत हुई! अब मुझे बोलना था!
"हाँ साधिके?" पूछा मैंने,
"बारह कुँए! नाथ!" बोली वो,
"तो आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और शांत हो गई फिर से!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"तीन सामने हैं, नाथ!" बोली वो,
"अच्छा, चलो यहां!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
वो चल पड़ी आगे, शांत सी, धीरे धीरे साँसें लेते हुए!
"तीन और आये!" बोली वो,
"आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"एक पेड़ है, लगा हुआ, बड़ा सा, शायद, जामुन का है!" बोली वो,
"अर्जुन का है!" कहा मैंने,
"हाँ, अर्जुन ही है!" बोली वो,
"चलो पेड़ के पास!" बोला मैं,
'हाँ, नाथ!" बोली वो,
"नाथ, एक खेस सा बिछा है यहां, कुछ केश से पड़े हैं!" बोली वो,
"हाँ, एक नाई मिला! कहाँ है?" पूछा मैंने,
"नहीं है नाथ!" बोली वो,
"देखो आसपास!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ है!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"केश मूण्ड रहा है किसी के!" बोली वो,(कुछ स्मरण हुआ? क्यों केश मूंडे जाते हैं, शवदाह के फौरन बाद?)
"जाओ, और मार्ग पूछो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"उसने हाथ उठाया ऊपर, और पीछे जाने को कहा है!" बोली वो,
'तो जाओ!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से शांत हुई, कुल आधा ही मिनट!
"नाथ, मैंने गिने, पांच और आये कुँए!" बोली वो,
"कुल ग्यारह हुए साधिके!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"आगे चलो, चलती रहो!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मार्ग पर केश ही केश बिखरे हैं!" बोली वो,
"चलती रहो बस!" कहा मैंने,
''आदेश नाथ!" बोली वो,
कुछ पल फिर से शांत! कोई दो मिनट तक!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"तो बटावन! पेड़ पर लटके हुए!" बोली वो,
"अच्छा! चलो आगे!" कहा मैंने,
"केश ही केश!" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
'आदेश नाथ!" बोली वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आगे चलती रहो तुम साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश, नाथ!" बोली वो,
और आगे बढ़ती रही, उसके नेत्र बंद थे, लेकिन अंदर, बिम्बों पर हरकत होती रहती थी, ऑंखें कभी मिंच जातीं तो कभी, खुलने को तैयार हो जातीं! मसान-नगरी को अब पीछे छोड़, वो शाषठेव-स्थल को भी पार कर चुकी थी! एक कुआँ शेष था और तीन बटावन, और एक नाई! उसके बाद, आगे का मार्ग उसे मिलता! जिस नदी का यहां उल्लेख हुआ है, उसकी चमक, बेमिसाल होती है, उसके जल की, ये जल, लहरों में घिरा हुआ होता है, इसमें भंवरें बनती हैं, और लहरें घूम घूम कर, सुरंग का सा दृश्य प्रदान किया करती हैं! जो लोग, 'मर' कर वापिस लौटे हैं, उन्होंने, यही बताया है कि उन्हें एक सुरंग दिखाई दी थी, श्वेत सी बड़ी सुरंग! जिसका कोई अंत नहीं था, चूँकि वो नदी बहुत ही चौड़ी है, अतः, उसका दूसरा किनारा नहीं दीख पड़ता किसी को! इस किनारे पर, मसान-नगरी की सरहद होती है, यहां अंत हो जाता है उसका! अफ़सोस, कुछ प्रेतात्माएँ इसी मसान-नगरी में, आजन्म, अनन्त तक फंसी ही रहती हैं, उन्हें आगे का मार्ग या तो दिया नहीं जाता या फिर, उन्हें स्वतः ही वो मार्ग नहीं मिल पाता! ये नदी, स्वरूप में एक सागर समान दीखती है, इसे ही शास्त्र भव-सागर कहते हैं, जिसे पार कर, व्यक्ति इस मसान-नगरी के बन्धनों से छूट जाता है! तो अब ये प्रश्न, कि यहां पर जीते जी तो जाना सम्भव नहीं, फिर मेरी साधिका? वो कैसे देख रही थी सब का सब? आँखों देखा हाल?
दरअसल, मेरी साधिका, एक ही समय में, दो आयामों में यात्रा कर रही थी, ऐसा मोटे और सरल शब्दों में कहा जा सकता है, परन्तु ऐसा है नहीं! वो क्रिया एवं मंत्रों के प्रभाव में बंधी थी, माँ भैरवी का मार्ग, उसे इस संसार की निम्नतर इकाई से उच्चतर इकाई की ओर अग्रसर कर रहा था! वो जो भी देख रही थी, इक सौ अस्सी अंश के दृश्य में देख रही थी, शेष का एक सौ अस्सी, अभी उसके भोगना था! इस मानव-जीवन में, जिस पर, उसका कोई अधिकार ही नहीं! तंत्र इस छिपे हुए एक सौ अस्सी अंश के क्षेत्र को, अभिभाषित करता है! समग्र तीन सौ साठ अंश, एक ही साठ, एक ही आयाम में, एक ही स्थान पर, एक ही इकाई में! परन्तु, ये इतना सरल नहीं, सरल भी नहीं! सरल बनाया भी नहीं जा सकता! बस, अनुभव ही किया जा सकता है! इस छिपे हुए एक सौ अस्सी अंश के क्षेत्र में, तिमिर व्याप्त है, परन्तु वो तिमिर, मनुष्य को ही दीखता है, वरन वो तो प्रकाश है! हम जिस संसार में रहते हैं, वो उसकी परछाईं मात्र ही है! अब आप मेरे इस कथन को तनिक गौर से समझें, आप सभी तो नहीं, हाँ, अधिक ही सामान्य से, अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त कर लेंगे! ईश्वर का रूप वृहद है, इसे कोई नहीं देख सकता, न ही अनुभव कर सकता, न ही ईश्वर कभी जन्म लेता और न ही उसकी मृत्यु ही होती! मेरे इस कथन से, मेरे कुछ परम सात्विक मित्र, इत्तिफ़ाक़ न रखें, कोई बात नहीं, मैं उनके मत का भी खंडन नहीं करता, चूँकि मैं स्वयं ही पूर्ण नहीं तो खंडन कैसे करूं! ईश्वर का मानवीकरण कदापि नहीं हो सकता, ये सर्वदा असम्भव है! मनुष्य, ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है, ये सत्य है, परन्तु ईश्वर की प्रत्येक कृति ही अपने आप में सर्वोत्तम है! साधारण सा जीव भी विशेष है, एक एक वनस्पति विशेष है, इस संसार में कोई अकारण ही नहीं प्रकट हो जाता, उसका सृजन होता है, सृजन के पीछे तंत्र में एक वृहद ही अध्याय है! यहां मैं उसके किसी लघु-अंश को भी नहीं लिख सकता!
खैर, ये विषय तो अति-दीर्घ है, इसकी कोई थाह नहीं!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?'' बोला मैं,
"ये कैसी भूमि है?'' बोली वो,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"ठूंठ वृक्ष उगे हैं?" बोली वो,
"ये ठूंठ नहीं हैं!" कहा मैंने,
"फिर नाथ?" बोली वो,
"आगे चलो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और फिर से शांत हो गई! कुछ पल चुप रही!
"नाथ! नाथ!" बोली वो,
"क्या हाउ?" पूछा मैंने,
"सामने एक द्वार सा है!" बोली वो,
"कैसा द्वार?" पूछा मैंने,
"ये पत्थर का बना है!" बोली वो,
"पत्थर कैसा?" पूछा मैंने,
"मलिन सा!" बोली वो,
"धूम्र-वर्णी?" पूछा मैंने,
"हाँ! हाँ नाथ!" बोली वो,
"प्रवेश करो!" कहा मैंने,
''आज्ञा नाथ!" बोली वो,
और फिर से चुप हो गई!
"ओह नाथ!" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"यहां तो सीढ़ियां हैं?" बोली वो,
"तो उतरो!" कहा मैंने,
"जल है यहां!" बोली वो,
"उतर जाओ!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और फिर चुप हो गई! कुछ पल इस बार ज़्यादा!
"साधिके?" कहा मैंने,
कोई जवाब नहीं दिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"अँधेरा!" बोली वो,
"आगे चलो?" कहा मैंने,
"ये तल है!" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
''आज्ञा नाथ!" बोली वो,
फिर से चुप हुई वो!
और फिर, उसने अपना चेहरा पोंछा! जैसे, जल में डुबकी लगाई हो, और जल आँखों में घुस गया हो!
"नाथ! नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"उधर, एक वृक्ष है, उसके नीचे कोई लेटा है!" बोली वो,
"जाओ उधर!" कहा मैंने,
"आज्ञा नाथ!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जाओ साधिके! जाओ उस तक!" बोला मैं,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और वो चल पड़ी आगे के लिए, नेत्र बंद किये हुए थे अपने, नेत्र अंदर ही अंदर, डोल रहे थे, कभी दाएं और कभी बाएं!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ, साधिके?" कहा मैंने,
"जो लेटा है, उसका सर, खेत में है!" बोली वो,
"जाओ!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और फिर से चुप हो गई!
जिस को देखा था उसने, वो एक बूढा नाई है! उस से उठा नहीं जाता, पेड़ के नीचे लेटा रहता है, और सड़क किनारे के खेत में, उसका सर, जौ के पौधों में छिप रहता है!
"नाथ?" बोली वो,
"पहुँच गईं?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"अब, प्रश्न करो!" कहा मैंने,
"क्या आप मुझे मार्ग दिखाओगे?" बोली वो,
"कौन सा मार्ग?" बोला बूढ़ा नयी, बोल तो वो ही रही थी, उसकी आवाज़ में!
"भवन का मार्ग!" बोली वो,
"पहले कुछ तीमन खिला दो!" बोला वो,
"बाबा कुछ नहीं है मेरे पास तो?" बोली वो,
"लौटते में खिला देना!" बोला वो,
'हाँ, खिला दूंगी!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"मार्ग दिखा?'' पूछा मैंने,
"हाँ, उसने हाथ कर दिया उधर!" बोली वो,
"अब कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"एक पगडण्डी है!" बोली वो,
"चलती रहो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
पगडण्डी! मित्रगण! वर्णन आता है, किस एक पगडण्डी है, जिस पर चलकर, आत्मा आगे बढ़ती है! ये वही है! कुछ लोग, 'मर' कर जो, वापिस लौटे हैं, उन्होंने ये पगडण्डी है, ये बताया है! इसके दोनों ओर जौ लगा है, जौ की बालें, कंधे तक आती हैं! ये बालें, हिलती ही रहती हैं, चाहे हवा हो या न हो! जौ की एक कली भी, नीचे नहीं झुकती, वो सीधी ही खड़ी रहती है! न यहां कोई कृषक ही है और न ही कोई रखवाला! ये पगडण्डी, जौ की बालों से घिरी रहती है, जैसे जैसे पाँव आगे बढ़ते हैं, मार्ग मिलना शुरू हो जाता है! ध्यान-मुद्रा में, गहन ध्यान में, ये पगडण्डी दिखाई देती है! आकाश, लाल से रंग का, जैसे सूर्य की लालिमा आकाश पर छायी हो, ऐसी होती है! यहां, एकांत रहता है, सन्न नहीं होता, भय भी नहीं लगता, भय का हरण तो मसान-नगरी में ही हो जाता है, यहां मात्र सुखानुभूति ही शेष रहती है, कारण, व तर्क़ स्वतः ही नाश हो जाया करते हैं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"क्या देखती हो?" कहा मैंने,
"बहुत ही सुंदर दृश्य है!" बोली वो,
"अनन्त तक जीवन काटा जा सकता है, कुछ ऐसा?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"चलो आगे फिर!" कहा मैंने, आगे बातें करने से कोई लाभ नहीं था, यहां रुके, तो अटके, अटके तो देह मात्र पाषाण हुई, पाषाण हुई तो प्राण उसी में सोख लिए जाएंगे, सोख लिए गए, तो वाष्प भी न होगी! अतः, यहां रुकने के लिए, और कोई प्रश्न नहीं किया मैंने!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोली वो,
"चढ़ाई आरम्भ हुई है!" बोली वो,
"हाँ, आगे चलो!" बोला मैं,
"नाथ! शेष बटावन!" बोली वो,
"अच्छा! अब मात्र एक कुआँ!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"आगे चलती रहो!" कहा मैंने,
और वो चलने लगी आगे, दम फूलने लगा था उसका, यहां भी ऐसे ही सांस भर रही थी वो! पसीने छलछला गए थे उसके उस क्षण, पसीनों की ठंडक, मेरे पेट पर पड़ रही थी! उसने आह सी भरी और रुक गई हो जैसे, ऐसे सांस ली!
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"ये एक गाँव है!" बोली वो,
"गाँव! चलो आगे!" कहा मैंने,
'हाँ, उतरने लगी हूँ!" बोली वो,
"उतरो!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली घबरा कर!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ढेर है!" बोली वो,
"किसका ढेर?" पूछा मैंने,
"कटे मुंडों का!" बोली वो,
"चलो आगे!" कहा मैंने,
"आगे भी ढेर है! हर तरफ!" बोली वो,
"सुनो साधिके, जिस मुण्ड के मुख में, दीया प्रज्ज्वलित हो, उठा लो!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"प्रश्न नहीं!" कहा मैंने,
"आज्ञा नाथ!" बोली वो,
और वो फिर से चुप हो गई! उसके हतहों की तर्जनी ऊँगली और अंगूठा, हरकत करते, जैसे मुंडों को, बालों से बी पकड़, उनकी जटाएं पकड़, हटा रही हो!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"दिखा ऐसा मुण्ड?" पूछा मैंने,
"ढूंढ रही हूँ!" बोली वो,
"दूसरे ढेर पर जाओ, जहां, मृद-भांड रखे हैं!" कहा मैंने,
"मृद-भांड? हाँ! वो उधर हैं!" बोली वो,
"वहीँ जाओ!" कहा मैंने,
''आज्ञा नाथ!" बोली वो, और चल पड़ी! शांत हो गई फिर से, उसने हाथ आगे बढ़ाया एक, और झट से पीछे हटा लिया!
क्यों? क्यों हटाया?


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या हुआ साधिके?'' पूछा मैंने,
"बहुत ताप है इधर नाथ!" बोली वो,
"ताप, मात्र ऊपर ही है! तुम स्पर्श करो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
उसने तब अपने दोनों हाथों को ऐसे किया, जैसे उसने अपने दोनों हाथों से किसी मुण्ड को पकड़ा हो!
"पकड़ा मुण्ड?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"उठो, और इसको लेकर चलो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"मार्ग बताओ!" कहा मैंने,
"कच्चा मार्ग है नाथ!" बोली वो,
"सामने क्या है?'' पूछा मैंने,
"नाथ, वहां कुछ झोंपड़े से हैं!" बोली वो,
"चलती रहो, जब कोई मुण्ड मांगे, तो मुण्ड दे देना उसे!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
और चलती रही! चुप हो गई थी! उसके जाँघों और पिंडलियों की पेशियाँ कसती कभी और कभी खुल जाती! कभी एक और कभी दोनों ही, आभास होता था, कि जैसे वो किसी मार्ग पर, चली जा रही हो, मार्ग जो कच्चा है!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"यहां दो, बाबा से लोग हैं! दोनों ही मुझे देख रहे हैं!" बोली वो,
"दाढ़ी वाले?" पूछा मैंने,
"हाँ, दोनों ही!" बोली वो,
"जाओ इनके पास!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और चली गई! और फिर से शांत हो गई! इस बार काफी देर तक! कम से कम चार या पांच मिनट तक, कोई वार्तालाप नहीं हुआ उनका, नहीं तो मुझे सुनने को अवश्य ही मिलता!
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"एक ने, मुण्ड ले लिया, अपने काँधे टंगे झोले में रख लिया और मुझे एक मुट्ठी मूंज दे दी है!" बोली वो,
"ये मूंज तुम, उस बूढ़े नाई को दे देना, वापसी में, रख लो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"तुमने आगे का मार्ग पूछा?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ! वो बोले, दाहिने हाथ जाना, वहां, एक झोंपडा है, उसमे तीन लोग हैं, तीनों ही बता देंगे!" बोली वो,
"जाओ फिर!" कहा मैंने,
मित्रगण! जो लोग, 'मर' कर लौटे हैं, उन्होंने बताया है कि, मार्ग में उन्हें एक लम्बी दाढ़ी वाला बाबा मिला, जो उसको रोते देख, उसके पास तक आया, उसकी व्यथा सुनी, और उसको वहीँ से वापिस भेज दिया! ये कोई सिद्ध हैं! ये दो हैं यहां! कई लोगों ने बताया है कि वे किसी के साथ होते हैं, दो, जैसे कि दूत हों, वे ले जा रहे होते हैं! अक्सर, स्त्रियों के साथ ही ऐसा हुआ है! किसी भी पुरुष ने ऐसा नहीं बताया! 
"नाथ, वो झोंपडा!" बोली वो,
"जाओ वहां तक!" कहा मैंने,
"वे मुझे देख बाहर आ गए!" बोली वो,
"अब?" कहा मैंने,
"तीनों ने इशारा किया है, पीछे की तरफ!" बोली वो,
"तो चलो पीछे!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से चुप हो गई! कुछ देर तक!
"दिख गया मार्ग! नाथ!" बोली वो,
"बताओ!" कहा मैंने,
"यहां धुंआ सा है! सफेद से रंग का! लेकिन सुगंध फैली है, दोनों ही तरफ, पुष्प लगे हैं, पौधे से हैं, लाल रंग के से पत्ते हैं, पीले रंग के फूल, बिखरे पड़े हैं मार्ग पर, लेकिन कोई नहीं है यहां, कुछ नहीं ऐसा, ये मार्ग दूर तक जाता है!" बोली वो,
"साधिके! अब दूर नहीं गंतव्य! चलती रहो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
मित्रगण, वे नेत्रहीन लोग, जिन्होंने कभी, मूर्त संसार को नहीं देखा, लेकिन 'मर' कर वापिस लौटे, उन्होंने भी ऐसा ही वर्णन किया! उन्होंने भी ऐसा ही मार्ग देखा, पीले रंग के फूलों वाला! दोनों तरफ फूल ही फूल लगे थे! धुंआ सा था, जैसे धुंध हो, जैसे बादल उतर आये हों! वहां एक मार्ग देखा, जो दूर तक चला जाता है! यहां साथ कोई नहीं होता! न आता कोई, न जाता कोई! यहां 'वो' अकेला ही यात्री होता है! जिसे खुद ही उस मार्ग के अंत तक जाना होता है!
कुछ देर तक चुप रहने के बाद, उसने ऐसी आवाज़ निकाली जैसे थकने लगी हो! उसके टखने कड़े से होने लगे थे!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली थकी थकी सी!
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"आगे कोई, दूर, स्थान है, ऊँची ऊँची पताकाएं सी लगी हैं!" बोली वो,
"बड़ी बड़ी?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"जाओ, यहीं तक जाना है! चलती रहो!" कहा मैंने!
''आदेश नाथ!" बोली वो, और फिर से चुप हुई!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये ध्वज-पताकाएं, न ही चौरस हैं, और न ही त्रिकोणीय! ये गोल हैं, इनको थामने के लिए, बांस या डंडे या बल्लियां भी नहीं हैं! ये भूमि से आती हुई वायु-वेग के कारण, ऊपर उठी होती हैं! मुझे किसी बुज़ुर्ग ने इस विषय में बताया था, उन्होंने कहा था कि, जब मृत्युलोक में, कुछ ऐसा घटता है जिसे हम, उचित नहीं मानते(जैसा कि पाप-कर्म) तब तब ये पताकाएं, नीचे होने लगती हैं! उनका आशय मैं आज तक नहीं समझ पाया हूँ! ये वायु-वेग आता कहाँ से है? ये पूछने पर बताया कि रसातल से! इसका अर्थ ये हुआ कि हमारे भूलोक अथवा इस मृत्युलोक से रसातल का कोई सापेक्ष संबंध अवश्य ही है! ये भी अत्यन्त ही जटिल है! 
"साधिके?' पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"अब कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"उसी मार्ग पर नाथ!" बोली वो,
"पताकाओं वाले मार्ग पर?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"बढ़ती रहो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
कुछ पल फिर से शांत हुई वो, इस बार एकदम सी शांत! कुछ और पल बीते! इस प्रकार कुछ और पल आगे खिसके!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?'' कहा मैंने,
"इस मार्ग पर, ठीक सामने, एक सुरंग सी है, एक द्वार!" बोली वो,
"ठीक साधिके! मुहाना कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"ठीक सामने ही है, कोई बीस चणक(टांगें खोलकर, नापी हुई दूरी) पर ही!" बोली वो,
"जाओ, मुझाने पर जाओ!" कहा मैंने,
''आदेश नाथ!" बोली वो,
इस बार, उसके चेहरे पर, ऐसी शिकनें और दबाव उठा कि जैसे अत्यन्त ही तीव्र वायु-वेग टकरा रहा हो उस से! त्वचा में गड्ढे पड़ जाते, होंठ खुलना चाहते, लेकिन, बंद कर लिए जाते! नेत्र खुलने को होते, लेकिन मिंच जाते!
"कहाँ हो साधिके?" पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?'' पूछा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"बोलो साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ! मेरा बचपन! मेरी सखियाँ, मेरा घर, मेरा परिवार, मैं अकेली हूँ! हंसने लगती हूँ, रोने लगती हूँ! ऐसे दृश्य इस सुरंग में, आ रहे हैं, जा रहे हैं! ये क्या है? क्या है ये नाथ? मुझे डर लगने लगा है नाथ...................मैं कांपने लगी हूँ..ये क्या है नाथ? नाथ?" बोली वो,
"साधिके! सम्भालो! मुझ पर विश्वास रखो! मैं संग हूँ तुम्हारे! ये दृश्य, तुम्हारा अतीत है! ये, अतीत-पटल है! एक दर्पण! जिसमे सिर्फ तुम हो! सिर्फ तुम! इस दर्पण समक्ष सभी आते हैं! सभी! मैं भी आऊंगा! और भी सभी! सभी, जिन्हें तुमने देखा है या देखोगी! सभी आएंगे! तुम अकेली हो! हाँ! सभी अकेले हैं! ये अतीत मात्र संबंध दिखता है, किसी को आवाज़ दोगी, नहीं सुनेगा! किसी को पुकारोगी, नहीं सुनेगा! वो अतीत, बहरा है साधिके! हाँ! तुम अकेली ही हो! हम सभी अकेले हैं! कोई नहीं है किसी का! ये अकेलापन, कभी साथ नहीं छोड़ता! देख लो! यहां भी तुम्हारे साथ है! साधिके! बस! घबराओ नहीं! मत डरो! मत डरो! मैं हूँ यहां, तुम्हारे अकेलेपन में, तुम्हारे साथ! विरोधाभास न रखो! निरपेक्षता से ऊपर सोचो! बस, इस क्षण, मुझ पर विश्वास रखो! सिर्फ मुझ पर!" कहा मैंने,
"आदेश मेरे नाथ! आदेश!" बोली वो,
"अँधेरा है?" पूछा मैंने,
"गहन!" बोली वो,
"तस्वीरें हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जीवंत हैं!" बोली वो,
"जीवंत! है न?" बोला मैं!
"हाँ, सब जीवंत!" बोली वो,
"किसी को अच्छे से जानती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कौन साधिके?" पूछा मैंने,
"मेरी दादी जी!" बोली वो,
"क्या कर रही हैं?" पूछा मैंने,
"भोजन!" बोली वो,
"आवाज़ दो!" कहा मैंने,
"दादी? दादी? मैं! मैं! मुनिया! दादी? दादी!" बोली वो, चिल्लाई, बहुत चिल्लाई! इतना, कि आंसू निकल आये उसके! मैं, मन ही मन हंस पड़ा! यहां कोई नहीं सुनता! न कोई पहचानता ही! ठीक, अगर वो दर्पण के सामने है, और वे लोग, जिन्हें देखा उसने, जीवंत, यहां, उन्होंने भी तो ये दर्पण देखा ही होगा? फिर, फिर वो यहां कैसे? उत्तर है इसका कि, ये अतीत! छाप, इसकी छाप! तन जलता है लकड़ियों में, हाड़ भी, मांस भी, सबकुछ, सबकुछ लील लेती है चिताग्नि! शेष क्या रहता है? अतीत! अतीत कौन सा? सुख वाला अतीत! क्यों? क्योंकि, इस मृत्युलोक में, सभी जीव, बस एक ही लब्धि हेतु भागते रहते हैं और वो है सुख! बस! उसकी दादी जी ने नहीं सुना उसे! देखा भी नहीं! तो ये दृश्य किसने दिखाया उसे? किसने? सोचिये? उत्तर है, महामसान ने! डोर तो उसी ने थामी है! बिना उसकी राजी के, आप कैसे छूटोगे! यहां, उसको महामसान पुकारा जाता है! यहां वो, एक देव समान हो जाता है! एक, तत्वज्ञ, सुरज्ञ एवं, कालज्ञ! ये उसी का दर्पण है! क्यो? वो नगरी तो छूट गई पीछे?
नहीं! जहां से आरम्भ हुई थी, अभी भी साधिका, वहीँ की वहीँ है! बताऊंगा कि कैसे!
मित्रगण! अपार रहस्य हैं! अपार! कुछ जान सका हूँ, कुछ शेष हैं, जो जान सका हूँ, बता दिया करता हूँ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! हम सभी, पाप और पुण्य के एक छत्ते में फंसे हैं! अब छत्ता क्यों? चक्र क्यों नहीं? चक्र यूँ नहीं कि चक्र का न आरम्भ होता है और न ही अंत! वो निरंतर, निर्बाधित, घूर्णन करता ही रहता है! छत्ता क्यों? वो इसलिए, कि छत्ते में, मधु-मक्खियों समान हमारी असंख्य आशाएं, अभिलाषाएं, कामनाएं, आकांक्षाएं, इच्छाएं कुछ सोई हुई, कुछ जानी हुई, कुछ बताई हुईं और कुछ छिपाई हुई, सभी एक साथ ही रहती हैं! वे सब, भिन्न-भिन्न रंग के फूलों का पराग, भिन्न-भिन्न प्रकृति के फूलों का पराग, छोटे-बड़े फूल, अब चाहे गुलाब के हों, चाहें कमल के, चाहे, कीकर के, चाहे नागफनी के, सभी का पराग एकत्रित कर, एक मृदु, शीतल सा शहद बनाती हैं! अर्थात, हम भिन्न-भिन्न स्वाद, संवेदनाएं, रस, गंध, वेदनाएं, खुशियां, दुःख आदि को महसूस करते हैं और फिर, अपनी ही अवधारणाएं गढ़ लेते हैं! तो ये हमारा जीवन, एक छत्ते समान ही है! कोई दुःख पहुंचना चाहे तो ये, दंश भी मारती हैं! ठीक, वैसे ही हम, जैसा महसूस किया करते हैं! अब आता है, पाप और पुण्य का सिद्धांत! मोटे शब्दों में तो सभी जानते हैं इसका सिद्धांत, ये सिद्धांत! परन्तु, ये सिद्धांत ही खोखला है! खोखला इसलिए, कि, ऐसा कैसे सम्भव है कि आम मैं खाऊं और मीठेपन का स्वाद आप महसूस करो! या, चोट मुझे लगे तो दर्द आपको महसूस हो! ऐसा सम्भव ही नहीं! तो पहली बात, कोई भी किए का पाप वहन नहीं करता! अब आप चाहे गंगा जी नहाओ, चाहे गंगोत्री में नहाओ! या फिर, गंगा-सागर में स्नान करो! चाहे तन पर चंदन लपेटो, चाहे, रुद्राक्ष धारण किये रहो! चाहे माथा रंगो या चाहे, भस्म में ही स्नान करो! दोषी कहने से कोई दोषी नहीं हो जाता! कोई पाप भी, आवश्यक हो जाता है, और कोई पुण्य का आशीर्वाद भी दुखदायी! सूर्यपुत्र कर्ण, पितामह की दीर्घायु या इच्छा-मृत्यु इसके ही उदाहरण हैं! युद्ध का सेनापति हो, अश्वत्थामा ने जो किया वो पाप हुआ! तो ऐसे बहुत से उदाहरण हैं! चलिए, इस विषय को त्यागिये, ये कभी न समाप्त होने वाला विषय है! हाँ, तो पाप और पुण्य! मित्रगण! पाप और पुण्य के दोष बताने वाला आखिर है कौन? कहाँ है वो? कहाँ रहता है? कौन है? दीखता क्यों नहीं? मान लिया जाए कि वो है नहीं तो पाप का फल देगा कौन? या फिर, पुण्यों का लाभ ही क्या फिर? और यदि मान लिया जाए कि वो ईश्वर है, तो ईश्वर पाप का फल, तुरंत ही क्यों नहीं दे देता? ताकि उदाहरण समक्ष हो, क्यों वो बार बार अवतार लेकर, उदाहरण देता है? अरे? किसलिए? तुरंत ही क्यों नहीं? इसका उत्तर जानते हैं आप? शायद जानते ही होंगे! फिर भी, लिख रहा हूँ!
ये मात्र, मात्र, केवल और केवल, आप ही हो, जो इसका निर्धारण करता है कि ये पाप है, मैंने किया और मैं दोषी हुआ! ईस्वर नहीं आएगा निर्धारण करने! उसे बहुत से अनेकों काम हैं! उसे तो युग बदलने हैं, क्या रखना है, क्या हटना है, क्या रोपना है, क्या समाप्त करना है, क्या योनि प्रबल हो, कौन सी प्रबल हो, क्या विशेष हो, आदि आदि का हिसाब रखना है! वो मुझ जैसे, कण के भी लघुत्तम इकाई तक का निर्धारण क्यों करने लगा? मैं ऐसा कैसे विशेष हो गया! मैं ऐसा कैसे भाग्य लिखवा लाया! कैसे अरबों की संख्या में से मात्र एक मैं ही हुआ जिसकी दृष्टि पड़ी मुझ पर! यदि इतना भी हो जाए तो इस से बड़ा अहोभाग्य और कोई शेष रह सकता है भला? ये तो, मोक्ष की श्रेणी में परम-मोक्ष ही हुआ न! कम से कम, मैं तो यही मानता हूँ! तो, ये सिर्फ, मैं ही हूँ जो जानता है कि मैंने क्या पाप किया है! पुण्य का भान नहीं रहता! पता ही नहीं पुण्य होता क्या है! और मुझे क्या करना! उसने पैदा कर दिया, यही पुण्य थे मेरे तो, और की अभिलाषा नहीं! कटनी है जैसे तैसे, सो कट ही जायेगी! माँगूँ तो भला क्या माँगूँ? समझ ही नहीं आता मुझे तो! बिन मांग के भिखारी होना, अपने आप में राजा नहीं क्या? मानस इतना भी न समझे कि, कड़वी नागफनी के फूल से, कसैले कीकर के फूल से, मधु-मक्खी कैसा नायाब, शीतल और चोखा शहद बना देती है! तो हम तो मानस हैं? क्या नहीं बना सकते? लेकिन नहीं जी! इस लोक की सुध नहीं, उस लोक के लिए तपस्या! दान-पुण्य! भंडारे, भोज! निःस्वार्थ सेवा! जागरण, जल-सेवा, पालकी-सेवा और पता नहीं क्या क्या! न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी! न इस लायक होंगे, न कर ही पाएंगे ऐसा! लायक क्यों न होंगे? माँ-बाप का पेट भूखा न रहे! घर के सामने लेटा श्वान, भूखा न लौटे! जो पारिवारिक ज़िम्मेवारियाँ हैं, वे ही पूरी हो जाएँ तो नहाए गंगा जी! अब कौन से चार-धाम और कौन सी गंगोत्री या यमनोत्री! कौन सी अमरनाथ यात्रा! मन में बसा लो, कहीं ज़रूरत नहीं जाने की! जो बच जाए खर्चे का, किसी असहाय को दे दो! और नहीं तो, जहाँ सौ ग्राम दूध पिलाते थे श्वान को, एक दिन पाव भर ही सही! इंसान की जून है, इंसान ही बन जाएँ तो मिला भगवान! यही जानो बस! आगे, सब की भली, सब की जो इच्छा!
तो साहब! छोडिए! अब घटना का वर्णन करता हूँ!
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
"अब कुछ नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"शून्य!" बोली वो,
"प्रवेश करो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और फिर चुप हो गई! हाँ, एक दो बार, जैसे दम सा घुटा हो, ऐसे चेहरा बनाया, साँसें लीं! और फिर से शांत! सर, बाएं ले गई, फिर दाएं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"क्या देखती हो?" पूछा मैंने,
''अलौकिक सौंदर्य!" बोली वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"सब श्वेत!" बोली वो,
"ऊपर देखो!" कहा मैंने,
"ओह...नहीं देखा जाता!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"चमक!" बोली वो,
"दर्पण जैसी?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"और विवरण दो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो, और गर्दन, फिर से बाएं और दाएं, रुकी तब, जब उसके नेत्र, कहीं जा टिके!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ओह! कितना अनुपम! कितना मनमोहक! कितना अलौकिक!" बोली वो, मुस्कुराते हुए!
"कितना साधिके? कोई परिमाण?" पूछा मैंने,
"शब्दों से वर्णन योग्य नहीं नाथ!" बोली वो,
"समझ गया साधिके!" कहा मैंने,
"क्या ये स्वर्ग है? इसे ही क्या स्वर्ग कहते हैं? क्या यही है अंतिम लक्ष्य? क्या यही..स्वर्ग है?" बोली वो, अब, गम्भीर होते हुए!
"नहीं! नहीं साधिके! ये स्वर्ग नहीं!" कहा मैंने,
"तो और क्या स्वरुप होता है इस स्वर्ग का?" पूछा उसने,
"स्वर्ग! भ्रामक शब्द है साधिके!" कहा मैंने,
"भ्रामक? अर्थात?" पूछा उसने,
"स्वर्ग वो होता है, जहां कोई इच्छा शेष नहीं रहती!" कहा मैंने,
"ठीक! यही! यही तो आशय है मेरा! यहां आ, क्या इच्छा शेष रहेगी?" बोली वो,
"मैं समझता हूँ! समझ रहा हूँ तुम्हारे प्रश्न की गम्भीरता! तुम इसे, स्वर्ग का नाम दे रही हो, वो भी बताता हूँ कि क्यों! वो यों साधिके, कि इस से अधिक अनुपम, मनमोहक, अलौकिक स्थान, तुमने कभी नहीं देखा! लेकिन साधिके! ये स्वर्ग नहीं! ये भी, कहें तो नरक का ही भाग है! कहें तो!" कहा मैंने,
"नरक?" बोली वो,
"हाँ साधिके! नरक!" कहा मैंने,
"वो कैसे भला?" पूछा उसने,
"साधिके! नरक तो मनुष्य के संग तभी से लग जाता है, जब वो माँ की कोख से जन्म लेता है! इसे ही नरक में पड़ना कहते हैं! नरक, सदैव, इस देह के साथ, संलग्न ही रहता है! वो अन्यत्र कहीं नहीं! स्वर्ग का विपरीत अर्थ, नरक कदापि नहीं! यदि समझो तो बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ, बताइए!" बोली वो,
"मानस की औसत आयु क्या होती है?" पूछा मैंने,
"सौ वर्ष मानी ही जाए नाथ!" बोली वो,
"ठीक, सौ ही माना! अब साधिके, सौ वर्ष की आयु में संचित पुण्य क्या अनन्त-कालीन स्वर्गीय-सुख प्रदान कर सकते हैं?" पूछा मैंने,
"ओह...समझ गई! नहीं प्रदान कर सकते! कदापि नहीं!" बोली वो,
"साधिके! यदि मैं कहूं, कि आपने पुण्यों के कारण आपको, मात्र दो पलों का ही स्वर्गीय आनंद प्राप्त होगा, तो क्या ये अतिश्योक्ति होगी?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ! ये सत्य है और वे दो पल, अत्यन्त ही दीर्घ होंगे!" बोली वो,
"हाँ साधिके! अब, एक रहस्य उजागर करता हूँ, ध्यान से सुनना!" कहा मैंने,
"हाँ! हाँ नाथ!" बोली वो,
"जिस जीवात्मा ने, मात्र एक विपल का भी, या एक विपल के सौवें प्रतिपल का भी, या उस सौवें प्रतिपल भी, करोड़वें हिस्से का भी स्वर्गीय-आनंद लिया होगा, वो, उस आनंद को प्राप्त कर, उसकी ही अभिलाषा में, पुनश्च मानव-योनि में जन्म लेता है! अर्थात, मनुष्य, ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है, ये चरित्रार्थ स्वतः ही हो जाती है! इसीलिए, मानव-जीवन, अनमोल है! इसे व्यर्थ न गंवाना चाहिए! इस धरा पर ऐसा कोई बड़े से बड़ा सुख हुआ ही नहीं, होगा भी नहीं, जो, सम्मुख भी खड़ा हो सके उस स्वर्गीय-आनंद के!" कहा मैंने,
"तो फिर नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" पूछा मैंने,
"ये स्वर्गीय-आनंद है क्या?" पूछा उसने,
"मनीषी इसे मोक्ष कहते हैं! सिद्ध इसे, परम-मोक्ष, महाज्ञानी एवं महात्मा इसे निर्वाण और तत्वज्ञानी इसे, ब्रह्मलीन होना कहते हैं!" कहा मैंने,
"ये कोई स्थान नहीं?" बोली वो,
"नहीं, कोई स्थान नहीं! सभी, इसी मार्ग से हो कर गुजरे हैं, गुजरे थे, गुजरेंगे, जिस मार्ग से तुम्हारा ये सूक्ष्म गुजर रहा है!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोला मैं,
"कुछ कन्या आ रही हैं!" बोली वो,
"कितनी हैं?" पूछा मैंने,
"चार!" बोली वो,
"उत्तम! आने दो!" कहा मैंने,
''वे आ गईं नाथ!" बोली वो,
"मार्ग पूछो!" कहा मैंने,
"नाथ, आदेश!" बोली वो,
और फिर से शांत हो गई! कुछ ही पल! उसने, एक लम्बी सांस ली! और अपने मुंह पर हाथ फेरा!
"हाँ साधिके?" पूछा मैंने,
"उन्होंने मार्ग बता दिया!" बोली वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"वे बोलीं, सीधे जाओ, आगे, बहुटक्ष(अमलतास) के वृक्ष हैं, वहां एक स्त्री मिलेगी, जो, अपने सर पर मृद-भांड रखे होगी, उस से नेत्र नहीं मिलान, बस, उसके चरण देखना, प्रश्न करना और मार्ग मिलते ही आगे चली जाना!" बोली वो,
"तो ऐसा ही करो!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोला मैं,
"उस स्त्री का मुख या नेत्र क्यों नहीं देखना?" पूछा उसने, बालक की तरह, हठ करते हुए! मैं समझ रहा था उसका वो व्यवहार! उस क्षण उस से सरल कोई नहीं था!
"उसका मुख या नेत्र नहीं देखना! यही न? यही कहा न?" पूछा मैंने,
''हाँ! यही कहा!" बोली वो,
"वो स्त्री, साधिके, कोई और नहीं, साक्षात मृत्यु है! नेत्र जो मिले, धकेल दी जाओगी और तुम्हारे प्राण, आत्मा, उन मृद-भांडों में, कारावास पा जायेगा!" कहा मैंने,
"और जिसे नहीं पता, उसे कौन बताएगा?" पूछा उसने, बहुत ही अच्छा, गूढ़ प्रश्न कर डाला था मेरी साधिका ने!
"पापरहित नेत्र! आपका पापरहित भार! आपका कोरापन! यही तो ले जाओगे न आप यहां से? या कुछ और भी?" पूछा मैंने!
"सत्य! सत्य नाथ! नहीं देखूंगी नाथ!" बोली वो, फिर से, इतनी गम्भीर न हो कर, सरलता से!
"हाँ, जाओ, चरण ही देखना!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ! मात्र चरण ही! बोली वो,
और फिर से शांत हो गई साधिका, नेत्र खलने लगे, पलकों के भीतर ही भीतर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"साधिके?' कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"मार्ग में!" बोली वो,
"वो स्त्री कहाँ है?" पूछा मैंने,
"सामने, बस कुछ दूर और!" बोली वो,
"जाओ!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और फिर से शांत! इस बार, कुछ अधिक ही देर तक, करीब, पांच मिनट मानिए! इतना सब्र करना, अत्यन्त ही, दीर्घ लगने लगता है! अनहोनी की आशंका, सदैव ही सन्निकट रहा करती है!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके!" मैं जोश में भर कर बोला!
"बता दिया उसने मार्ग!" बोली वो,
"अच्छा! अब कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"उसी मार्ग पर!" बोली वो,
"क्या बताया उसने?" पूछा मैंने,
"यही, कि एक चौराहा आएगा, उस से सीधे ही होना है, उस चौराहे पर, हंस के पंखों जैसे, पंखों से बने, झोंपड़े मिलेंगे, कोई कितना ही रोके, रुकना नहीं, बस सीधे ही चलती जाना!" कहा उसने!
"दीख रहा है चौराहा?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"फिर साधिके?" पूछा मैंने,
"मैं चले जा रही हूँ सीधे!" बोली वो,
"उचित है! चलती रहो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और वो फिर से शांत हो गई! कोई दो मिनट तक!
"नाथ!" बोली वो,
"हाँ साधिके?" कहा मैंने,
"आ गया चौराहा!" बोली वो,
"कैसा है ये?" पूछा मैंने,
"बहुत ही बड़ा!" बोली वो,
"झोंपड़े हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"जैसे हवा में, पंखों की दीवार रुकी हो, छत भी, ये छत गोल हैं, दीवार एक ही है जैसे, गोल, घूमी हुई, कोई चौखट नहीं, कोई दरवाज़ा नहीं, जहां से देखो, वहीँ प्रवेश-द्वार दीखता है इनका!" बोली वो,
"साधिके! मुंदयलोकित-स्थल पर आ पहुंची तुम!" कहा मैंने,
"ये कैसा स्थान है?" बोली वो,
"इस को, ऊर्जा-स्थल मानो तुम!" कहा मैंने,
"कैसी ऊर्जा?" बोली वो,
"शोषित प्राण-वायु!" कहा मैंने,
"किसकी?" बोली वो,
"इस सृष्टि की!" कहा मैंने,
"जो मूर्त है?" बोली वो,
"हाँ, बस मूर्त को छोड़!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"अब ठीक समझीं तुम!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" बोला मैं,
"वे बुला रहे हैं मुझे, 'आओ! बैठो! विश्राम करो! यहां आओ!' ऐसा बोल रहे हैं!" बोली वो,
"वे कौन?" पूछा मैंने,
"सभी हैं!" बोली वो,
"कौन सभी?" पूछा मैंने,
"स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकाएं, वृद्ध-वृद्धा! सभी के सभी!" बोली वो,
"ये सब कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"उन झोंपड़ों में!" बोली वो,
"ये झोंपड़े, कहाँ तक हैं?" पूछा मैंने,
"दूर तक! बहुत दूर तक! दूर पहाड़ी तक भी! जहां देखो, वहीँ! आगे, पीछे! दाएं, बाएं! दूर दूर तक! बस, ये चौराहा खाली है!" कहा मैंने,
"साधिके! यहां से निकलो!" बोला मैं,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तुम कहाँ हो, ये तुम भी नहीं जानतीं!" कहा मैंने,
"कहाँ नाथ?" बोली वो,
"बता दूंगा, अभी, शीघ्रता से, चलो यहां से!" कहा मैंने,
"हाँ, मैं सीधे ही चल रही हूँ अब!" बोली वो,
और फिर से शांत हो गई! उसके दिल की धड़कन, मुझे भी सुनाई दे गई थी, जब मैंने कहा था कि तुम नहीं जानतीं तुम कहाँ हो! वो कहाँ थी? कुछ जानते हैं? चलिए, ये आप पर छोड़ा! आप बताएं, वो कहाँ जा पहुंची थी! इतना बता देता हूँ, ये वे हैं लोग, जो,'पहुँच' नहीं सके, अपने गंतव्य को!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोला मैं,
"वहां, दूर, भूमि में से, तक स्वर्णिम, सुनहरा प्रकाश फूट रहा है! ये अद्वितीय है! अनुपम है! मनोहारी है! जी करता है, निहारती ही रहूं इस प्रकाश को! ये क्या है नाथ?" पूछा उसने, किसी अबोध सी बालिका की तरह!
"भैरवी-मंडल!" कहा मैंने,
"क्या नाथ? भैरवी-मंडल?" पूछा उसने,
"हाँ साधिके! भैरवी-मंडल!" कहा मैंने,
"मैं आगे बढूं? जाऊं? नहीं रुका जाता मुझसे! जाऊं नाथ? आज्ञा दें! आज्ञा दें नाथ! आज्ञा! उपकार करें! उपकार करें नाथ! मुझे जाने दें! जाने दें!" बोलते बोलते, रोने लगी वो! 
और.............!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं साधिके! रुको अभी!" कहा मैंने,
"नहीं रुक सकती मैं नाथ!" बोली वो,
"नहीं, थम जाओ अभी!" कहा मैंने,
"नाथ! आज्ञा!" बोली वो,
"हाँ, परन्तु रुको!" कहा मैंने,
"कहिये नाथ! आज्ञा!" बोली वो,
"कुछ सुनो, जो कहता हूँ!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"तुम्हें लौटना होगा!" कहा मैंने,
"अभी? अभी नाथ?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब? मेरे नाथ?" बोली वो,
"जब मैं आदेश करूं!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"उस समय कोई प्रश्न नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ, कोई प्रश्न नहीं!" बोली वो,
"उसी क्षण, लौटना होगा! वचन?" बोला मैं,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"वचन?" कहा मैंने,
"वचन!" बोली वो,
"अब, तुम कहाँ हो?" पूछा मैंने,
"वहीँ, सामने ही, वो भैरवी-मंडल है!" बोली वो,
"कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"बस थोड़ा ही नाथ!" बोली वो,
"आकाश किस रंग का है?" पूछा मैंने,
"नीला! नाथ!" बोली वो,
"धरा?" पूछा मैंने,
"स्वर्णिम!" बोली वो,
"पर्वत हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, परन्तु दूर!" बोली वो,
"कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"बहुत ऊँचे!" बोली वो,
"किस रंग के?" पूछा मैंने,
"स्वर्णिम आभा लिए!" बोली वो,
"साधिके!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"तुम्हारे पाँव जल में हैं!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"जल का स्पर्श कैसा है?" पूछा मैंने,
"शीतल है नाथ, परन्तु कुछ कहूं, तो, जीवनदायक सा, अमृत सा, मधुर सा, मुझे जैसे, जीवन मिल रहा है इस से!" बोली वो,
"उत्तम! अब आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ! हाँ!" बोली वो,
और फिर से शांत हो गई! कुछ ही पलों के लिए, और फिर, कुछ बेचैन हुई, त्यौरियां चढ़ने  लगीं, आँखें मिंचने लगीं, नथुने, चौड़े होने लगे!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"न.....नाथ?" बोली वो,
"कोई दुविधा?" पूछा मैंने,
"ह....हाँ नाथ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"नाथ? ये कौन लोग हैं?" पूछा उसने,
"कौन साधिके?" पूछा मैंने,
"इस, इस मार्ग पर, मुझे जैसे अभी, रोक ही लेंगे?" बोली वो,
"तुम आ गईं यहां पर?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ, आ गई!" बोली वो,
"आगे बढ़ो, कोई स्पर्श नहीं करेगा!" कहा मैंने,
"ये कौन हैं नाथ?" पूछा उसने,
"ये, सब प्रहरी हैं! सेवक! सेविकाएं!" कहा मैंने,
"ओह..अच्छा नाथ!" बोली वो,
''अब आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और फिर से शांत हो गई, ज़्यादा देर तक नहीं!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोली वो,
"यहां, दो मार्ग हुए हैं!" बोली वो,
"कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"एक श्वेत है, उसकी मिट्टी श्वेत सी है, और एक श्याम, उसकी मिट्टी श्याम है!" बोली वो,
"श्याम पर चलो!" कहा मैंने,
"श्वेत क्यों नहीं नाथ?" बोली वो,
"नहीं साधिके! प्रश्न नहीं!" कहा मैंने,
"उचित है!" बोली वो,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ, ये मिट्टी गरम है!" बोली वो,
"होगी! बढ़ती रहो!" कहा मैंने,
''आदेश नाथ!" बोली वो,
"बढ़ती रहो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और मैं, उसके कुछ कहने के इंतज़ार में, कान लगाए सुनता रहा!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोला मैं,
"यहां वृक्ष हैं!" बोली वो,
"कैसे हैं वृक्ष?" पूछा मैंने,
"बहुत बड़े बड़े!" बोली वो,
"हरे रंग के?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"क्या फलदार भी हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"फलों को छू सकती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ, भूमि से स्पर्श करते से लगते हैं!" बोली वो,
"हाँ! बीच से मार्ग गुजरता है साधिके! वहां, एक स्थान पर, इस उपवन का रखवाला मिलेगा, उस से प्रणाम कहना और आगे का मर्ग पूछना!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
"साधिके?" कहा मैंने,
"वो स्वर्णिम-प्रकाश, सम्मुख ही रखना!" कहा मैंने,
"सम्मुख ही है नाथ!" बोली वो,
"तो आगे बढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
मित्रगण! ये एक बाग़ है, एक उपवन! इस जैसा उपवन, कहीं नहीं, न यहां और न कहीं और, अब कहीं और ही हो, तो उस विषय में ज्ञात नहीं मुझे! यहां, मात्र एक ही रखवाला है इस उपवन का!
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