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वर्ष २०१४ इलाहबाद के समीप की एक घटना! उपाक्ष-भैरवी!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"नाथ?" बोली वो,
"चुप्प? बता आगे?" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ नाथ!" बोली वो,
"बता?" कहा मैंने,
"वो शिशु, खा रहा है उस टुकड़े को!" बोली वो,
"और उसकी देह?" पूछा मैंने,
"काली!" बोली वो,
"रूप?" पूछा मैंने,
"भीषण!" कहा उसने,
"अब?" पूछा मैंने,
"वो चल दिया है!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उस, वृद्धा के पास!" बोली वो,
"अब?" कहा मैंने,
"उठा लिया उसे!" बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"उस वृद्धा ने, उस शिशु को उठा लिया!" बोली वो,
"अच्छा! अब?" पूछा मैंने,
"वो चल दिए!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"वापिस!" बोली वो,
"वापिस?" कहा मैंने,
"हाँ! वापिस!" बोली वो,
"अब?" पूछा मैंने,
"अँधेरे में चले गए!" बोली वो,
"चले गए?" पूछा मैंने!
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और तब मैं खड़ा हुआ! नाचने लगा! झूमने लगा! मेरी साधिका मुझे देख, हैरान!
"नाथ? नाथ?" बोली वो,
"खड़ी हो जा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"आ!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"आ, इधर आ!" कहा मैंने,
वो आई, और मैंने उसको खींच लिया अपने पास! माथा चूम लिया उसका! उसके कंधे चूम लिए! उसकी चिबुक चूम ली! उसने कस लिया मुझे!
मैंने, एक झटके से अलग किया उसे! और हंस पड़ा!
"साधिके! जा! स्थान ग्रहण कर!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"जा! बैठ जा! जा प्यारी! बैठ जा!" कहा मैंने,
वो बैठ गई और जैसे ही बैठी, उसको ताप सा चढ़ा! देह में खुमारी सी आ गई! नेत्र बंद होने लगे! बैठे, बैठे तड़प सी उठी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ...नाथ...." बोली लरजते हुए!
"ये मसान की आमद है!" कहा मैंने,
''आह!" कसक पड़ी वो!
"अहैज-मुद्रा में बैठ!" कहा मैंने,
वो अहैज-मुद्रा में बैठी! अहैज-मुद्रा, अर्थात, उकड़ू बैठ, पंजों पर ही, योनि सम्मुख रखते हुए! वो वैसे बैठ गई थी! योनि, से स्राव टपकने लगा था! मैं गया पास ही, मदिरा उठायी और बैठा, बैठ कर, उसके एक कंधे को पकड़ा, एक पाँव उसके बाएं पंजे पर रखा, पीछे खिसकाया, इस से, उसका भगनासा खुल कर, सम्मुख हो गया, मैंने तब, मदिरा से, उसकी योनि को प्रक्षालित किया! वो बार बार मना करती! वो नहीं, उसकी विवशता मना करती, उसकी देह मना करती! परन्तु, यहीं, काम-भाव को जड़ करना होता है किसी साधिका का! प्रक्षालन होने से, शीतलानुभूति हुई, स्राव बंद हुआ! और उसके नेत्र खुल गए!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
आँखें नीचे करते हुए अपनी, मैंने उसकी चिबुक से उठाया उसका चेहरा ऊपर! दूर जल रही अलख की लपटें उसकी आँखों में नाच रही थीं! जैसे, कोई नाग-कन्या हो वो!
"यहीं हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" सर हिलाकर, हाँ कहा उसने!
"सुन?" बोला मैं,
"आदेश?" कहा उसने,
"अब मैं, आसन पर बैठूंगा! शेष तुम जानती हो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
मैंने तब, अलखनाद किया! और अलख में ईंधन झोंका! खड़ा हुआ और खड़े होते ही, मदिरा की बोतल मुंह से लगा ली! लगभग चार घूंट मैं खींच गया था! चारों दिशाओं में नमन किया, पांच बार थाप दी भूमि को! और आसन पर विराजित हो गया!
अब मैंने, मंत्रोच्चार किया! गहन और गहन! उस मंत्रोच्चार से, प्रेत, युंडक, काहिज, भूत, डाकरी, शोमसुंद और भदन्ति आदि, सब भाग खड़े होते हैं! और इसी मंत्र से, मसानी-विद्या द्वारा, किसी के पितृ भी क़ैद किये जा सकते हैं!
मंत्रोच्चार पूर्ण हुआ! और मदिरा के दो घूंट, अलख में झोंके! मांस लिया, और चीर-फाड़ कर, गले में उतारता चला गया! फिर मदिरा से नीचे धकेलता चला गया! और उसके बाद!
मैं लेट गया! साधिका को इसी क्षण का इंतज़ार था! उसने अपना आसन छोड़ा, और मेरे पास चली आई!
"साधिके?' कहा मैंने,
''आदेश?" बोली वो,
"विराजो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
वो, मेरे वक्ष पर आ खड़ी हुई और पृष्ठ भाग पीछे, मेरी तरफ करते हुए, बैठ गई!
"साधिके?" पूछा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"मंत्र पढ़ो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और उसने मंत्र पढ़ना आरम्भ किया! आरम्भ होने के कुछ देर बाद ही, उस भूमि पर, पड़क-पड़क की आवाज़ें आने लगीं!
"आगे बढ़ो साधिके!!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मेरी साधिका ने कमान सम्भाल ली थी! वो आगे बढ़ती जा रही थी! मुझे तो भान था कि आगे होना क्या है! बस देखना था तो ये, कि ये चतुर्थ एवं अंतिम घटी कैसे गुजरती है! और तभी, भूमि में से कुछ गर्जना सी हुई! मेरी कमर के नीचे से जैसे भूमि ने करवट बदली हो! हालांकि ऐसा, नहीं होता, लेकिन आभास हुआ करता है! जैसे, ज़ोर की सी गर्जना हुई हो ज़मीन में!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
''अँधेरा?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?" बोला मैं!
"नाथ, नाथ!" बोली वो,
"न घबराओ साधिके! न घबराओ!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो!
"कुछ सुन रही हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मेरे नेत्र बंद होने लगे हैं!" बोली वो,
"बंद कर लो!" कहा मैंने,
"क्या सुन रही हो?" पूछा मैंने,
"शोर!" बोली वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"जैसे, सैंकड़ों लोग, आ रहे हों!" बोली वो,
"क्या वैसे?" पूछा मैंने,
"कैसे नाथ?" पूछा उसने,
"नेत्र खोलो साधिके!" कहा मैंने,
और उसने जैसे ही नेत्र खोले! मारे भय के सिहर उठी! मेरे कंधों पर, नोंच ही डाला अपने नाखूनों से! आँखें फ़टी रह गईं उसकी! उसने, घुटने मोड़ लिए अपने! और, जगह बनने के लिए, वजन बढ़ा दिया मेरे शरीर पर!
"साधिके?" कहा मैंने,
"ह...हाँ...ना....थ..." बोली वो,
"घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
"ये...ये कौन हैं नाथ?" पूछा उसने,
"सेवक!" कहा मैंने,
"कैसे सेवक?" पूछा उसने,
""महाप्रेत!" कहा मैंने,
"इतने?' बोली वो,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
"ओह.....ये...हर तरफ हैं..." बोली वो,
"हाँ, चारों ओर?" पूछा मैंने,
"हाँ, हर तरफ" बोली वो,
"नेत्र बंद करो!" कहा मैंने,
उसने नेत्र बंद किये, मैंने मंत्र जपा!
"खोलो नेत्र!" कहा मैंने,
"कोई नहीं?" बोली वो,
"हाँ! अब?" पूछा मैंने,
''आहट हो रही है!" बोली वो,
''कैसी आहट साधिके?" पूछा मैंने,
"कोई आ रहा है!" बोली वो,
"हाँ! कोई आ रहा है!" कहा मैंने,
"उस अँधेरे में से!" बोली वो,
"हाँ! साधिके! उठो! उठो! सम्भालो मेरा आसन!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
और वो उतर गई नीचे, मैं उठ बैठा! उसका हाथ पकड़ा और ठीक सामने देखने लगा! सामने अँधेरे में से, जैसे जले से कागज़ उड़ रहे हों, ऐसा धुंआ उठे जा रहा था! यही तो है ये श्मशान का राजा, मसान! मसान! जिसकी सत्ता रहती है, श्मशान में! यही तो है मालिक यहां का! इसी कि सत्ता व्याप्त है श्मशान में! यही है, प्रहरी, द्वारपाल, और पर्दाहन यहां का! जिसने मसान नहीं उठाया, वो कुछ नहीं उठा सकता! जब तक मसान आज्ञा नहीं दे, श्मशान में, कोई क्रिया नहीं सम्पन्न की जा सकती!
उपाक्ष-भैरवी! यही साधना करनी थी हमें, तो आज्ञा लेनी थी! आज्ञा इस मसान से!
"कौन आ रहा है नाथ?" पूछा उसने,
"स्वयं मसान! और बूढ़ी मसानी!" कहा मैंने,
"महामसानी नाथ?" बोली वो,
"हाँ! महामसानी!" कहा मैंने,
और तभी अँधेरे में, आग प्रकट हुई! मसान आग के रूप में प्रकट होता है! असल रूप में, कुल देह, चालीस हाथों की होती है! सारे चालीसा मंत्र, इसी को समर्पित हैं! चालीसा! सभी जानते होंगे! अधिक वर्णन नहीं करूंगा!
"साधिके?' बोला मैं,
"आदेश!" बोली वो,
"कौन चले?'' पूछा मैंने,
"मसान चले!"बोली वो,
"कौन आवे?" पूछा मैंने,
"मसान आवे!" बोली वो,
"क्या लावे?" पूछा मैंने,
"आज्ञा लावे!" बोली वो,
"क्या दे?" पूछा मैंने,
"आज्ञा दे!" बोली वो,
"चौरासी भन्न चले?" बोला मैं,
"मसान चले!" बोली वो,
"सात समंदर चले?" बोला मैं,
"मसान चले!" बोली वो,
"चौदह आकास चले?" बोला मैं,
"मसान चले!" बोली वो,
और तब!
तब हुआ एक भयानक सा अट्ठहास! अट्ठहास! हाड कम्पा देने वाल अट्ठहास! पाँव तले ज़मीन खिसक जाए! नेत्र, बंद तो खुलें नहीं! खुलें, तो फिर बंद न हों! ये है, आमद! आमद मसान की!
और अचानक ही!............................


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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अचानक की आग की चिंगारियां घूमने लगीं उधर! वे चिंगारियां ऐसी थीं, कि जैसे असंख्य चिताओं को एक-दूसरे पर रख, एक साथ ही, कोई सात या आठ मंजिला बनाकर, दाह किया गया हो! चटर-चटर की सी आवाज़ हो रही थीं!
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ साधिके?'' पूछा मैंने,
"मैं धन्य हुई नाथ!" बोली वो,
और अपना सर, मेरे पांवों में रखने लगी!
"नहीं साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"कुछ असहज नहीं!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"हाँ, नहीं! बिन तुमहे, ये सम्भव था ही नहीं!" कहा मैंने,
और तभ, रौशनी का गुबार सा छाया! ये गुबार बढ़ चला हमारी तरफ ही!
"खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
औे वो खड़ी हो गई!
मैं भी संग ही खड़ा हो गया!
अट्ठहास गूंजा! और ठीक सामने, एक विशालकाय, भीमकाय देह वाला, चौड़ा चेहरा, चौड़े कंधों वाल, चौड़े ललाट वाला, लम्बे, रक्षण केशों वाला, केश जो कि भूमि तक पहुंचे हुए थे, जंघाएं जैसे किसी पेड़ के शहतीर जैसी हों, ऐसा वज्रदेहि पुरुष चला आया! पीछे उसके, बूढ़ी मसानी थी! मसान तक, जो भी संदेश जाता है, उसे सबसे पहले इसी बूढ़ी मसानी से ही कहना पड़ता है! मसान आठ प्रकार के हैं, ये उच्चस्थ है! इसे ही प्रेतराज, प्रेताधीश, श्मशानाधीश, श्मशानाधिपति, मसान राजा, चित-नृप , ढोलरा कहा जाता है! बंजार-विद्या में, इसी की विद्याओं का प्रयोग होता है! यही है, इस तंत्र-भवन का मुख्य द्वारपाल! आज्ञाधिपति! बिन इसकी आज्ञा के, कोई क्रिया, पूर्ण नहीं की जा सकती! ये महाप्रेतों का राजा, होता है! शेष रूप इसके, दिनावधि, रात्रि-अवधि, मंत्र-शक्ति, हेडक-यन्त्रम् आदि द्वारा प्रकट हुआ करते हैं! ये जो बूढ़ी मसानी है, ये आयु में, करीब, मनुष्यों की मानें तो, नब्बे वर्ष की होती है, त्वचा ऐसे हिलती है, कि न तो नेत्र ही दीखते हैं, न नसिका-छिद्र ही! कृशकाय और मलिन, चीथड़े से बने वस्त्र पहना करती है! ये ही गर्भस्थ शिशुओं का भक्षण किया करती है! इसी की विद्या से, स्त्री की कोख बाँध दी जाती है, उधार दे दी जाती है! ये सब, अतयन्त ही गूढ़ रहस्य हैं! दक्षिण भारत में, आज भी इस, नर-मसान का पूजन, देव-पूजन से पहले हुआ करता है!
यही है वो, जो आत्माओं को, उनके सही ठिकाने तक भेज करता है! नौ दिन, पांच दिन, पांच दिन नौ दिन, ये कर्म रहता है किसी भी आत्मा का, इनकी सेवा करने का! स्त्री आत्मा को, पहले, मसानी को सौंप दिया जाता है, और पुरुष आत्मा को, मसान को! अब मसान, उसको, उसका आवास, जो कि एक झोंपडा होता है, फूस का, वो देता है, यदि जिसको झोंपडा न दिया जाए, तो उसको, आगे प्रेत योनि में धक्का दे देता है! वो प्रेत, दासता करता है इसकी! या उसकी, जिस से ये मसान सिद्ध है! अब प्रश्न ये, कि बूढ़ी मसानी है, यही महामसानी है, और यहां मसान भी है, तो मसानी कहाँ? अर्थात, मसान की मसानी! तो मित्रगण! उसका आह्वान अलग हुआ करता है! उसका हवाएं भी ठीक ऐसा ही हुआ करता है परन्तु, दो बलि-कर्म स्वारा मण्डित है! उसका रूप, वैसा नहीं है, जैसा उसका नाम है! वो अतयन्त ही रूपवान, मादुरी, कामवती, कामुक, मदबसनी, कामकुमुका होती है! इस मद जिस साधक पर चढ़ा गया, तो फिर उतरे नहीं! चाहे लाख जतन क्यों न कीजै! हाँ, मदन, शोभना, अवहन्तम् यक्षिणी द्वारा प्रदत्त आशीष से सम्भव है! परन्तु, इन यक्षिणियों को साधना ही, अपने जीवन को बलिदान करने जैसा है!
"आभ्वह!" गूंजा एक स्वर!
"हमभजह!" कहा मैंने, गरज कर!
अट्ठहास गूंजा उसका!
"जय महाऔघड़ नाथ!" कहा मैंने.
नाद! नाद होने लगे! हर तरफ! हर तरफ! मेरी साधिका, गर्दन हिला हिला वो नाद सुनने लगी! जैसे, घंटे बज रहे हों! जैसे, हज़ारों लोग, मसानिया-हुलारा गए रहे हों!
"आज्ञा!" कहा मैंने,
और अलख में ईंधन झोंका!
उसके नेत्रों से, लाल रंग की दहक उठी, और फिर, मंद पड़ने लगी! वो घूमा, बूढ़ी मसानी घूमी और लौटने लगे! और तभी अचानक, मेरे यहां रखा कपाल, अपने मुण्ड  पर, अग्नि की एक ब्रह्म-लौ सी धारण कर! कड़क, कड़क की सी आवाज़ कर बैठा!
"जय जय अघोरेश्वर!" कहा मैंने,
और अलख में मांस के पांच टुकड़े, झोंक दिए! अलख ने जैसे मुंह फाड़ा और जेएम गई एक एक टुकड़ा! मांस की वसा, सफेद होते होते, काली और फिर लाल हो उठी! इधर, वो ब्रह्म-लौ जा थमी! और फिर! और फिर वो कपाल, हिला! हिला! और भूमि से बाहर आ निकला! जा उछला हवा में, और ठीक एक कदम आगे, हमारी ओर अपने नेत्रों के कोटरों को रख, जैसे देखे लगा, जैसा मुस्कुरा रहा हो! अब वो कपाल, क्रियानुभूत होकर, एक ब्रह्म-कपाल जो बन चुका था!
"बैठो!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
"क्रिया पूर्ण हुई!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"पीछे घूमो!" कहा मैंने,
वो घूमी, तो मैंने अपने त्रिशूल के फाल से, उसकी पीठ को छुआ! उसे जैसे गरम सा लगा और छिटक सी पड़ी!
"जा! शुद्ध हुई तू!" कहा मैंने,
"नाथ!" बोली वो,
:इस क्रिया के अप से, शुद्ध हुई तू!" कहा मैंने,
"मेरे नाथ!" बोली वो, घूम कर, और लेट गई सामने मेरे!
"चल! खड़ी हो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
वो खड़ी हुई तो एक वस्त्र से, उसकी देह पर लगी मिट्टी आदि को साफ़ कर दिया मैंने! ब्रह्म-लौ प्रकट हो गई थी, अर्थात, मसान-स्वीकृति प्राप्त हो चुकी थी हमें! हम सफल हुए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" कहा उसने,
"और हम, वो स्थान, छोड़ते, हमें उस सामान को इकठ्ठा करना था, आज की समस्त क्रिया समाप्त हो चुकी थी, अतः, आज बाबा से आज्ञा ले, वापिस चले जाना था अपने कक्ष में! तो मैं, तैयार हुआ, वस्त्र धारण किये, साधिका ने भी ऐसा ही किया, सामान एक जगह इकठ्ठा किया, और चल दिए हम महा-अलख की ओर, हम जब आये तो तीन साधक और आ चुके थे वहां! तीन साधिकाएं भी, एक जैसा ही रूप था, श्रृंगार भी, सामान भी वे वहीँ छोड़ आये होंगे, हमारी ही तरह! अब किसके साथ क्या हुआ था, क्या मसान-आज्ञा मिली थी या नहीं, या कोई विघ्न हुआ था, या फिर पूर्ण ही हुई थी, इसका अधिकार हम में से किसी के पास नहीं था पूछने के लिए! ये बस बाबा भी पूछ सकते थे, अब चूँकि बाबा नहीं आये थे, या फिर आने ही वाले थे, हम सभी ने इसी बीच, अलख में ईंधन झोंका! अलख को बनाए रखना किसी भी साधक की प्रथम प्राथमिकता होती है!
"क्या ये भी पूर्ण हुए?" पूछा साधक ने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे पता चलेगा?" बोली वो,
"हम कभी न जान सकेंगे!" बोला मैं,
"सच?" बोली वो,
"हाँ, सच!" कहा मैंने,
"आप कहाँ से हो?" एक साहिका ने, मेरी साधिका से पूछा,
"यहीं से" बोली मेरी साधिका,
"संगम से ही?" पूछा उसने,
"हाँ, आप?' पूछा उसने,
"सोनभद्र!" बोली पहले वाली,
"अच्छा! दूर से हो?" बोली मेरी साधिका,
"हाँ" कहा उसने,
"क्या मैं उधर आ जाऊं?" बोली पहली साधिका,
"हाँ, आइये?" बोली मृणा, मुझ से आँखों ही आँखों में आज्ञा लेते हुए!
और पहली साधिका आ बैठी हमारे पास ही,
"प्रणाम!" कहा उसने,
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"आपकी साधिका कुशल हैं!" बोली पहले वाली!
"हाँ, हैं!" कहा मैंने,
"क्या नाम है आपका?" पूछा मृणा ने,
"माधुरी!" बोली वो,
"अच्छा! मैं मृणाली!" बोली वो,
"जी, धन्यवाद!" कहा माधुरी ने!
उनके बीच पता नहीं फिर कहाँ कहाँ की बातें होने लगीं, कुछ कुछ बताते बताते, एक आद नाम भी ऐसा आ गया जिन्हें वे दोनों ही जानते थे, अब स्त्रियां तो ठहरीं स्त्रियां! कम से कम, आधा घंटा वे बतियाती रहीं!
"प्रणाम?" आई एक स्त्री,
"प्रणाम!" कहा मैंने,
''वो सामान कहाँ रखना है?" बोली वो,
''आप यहां ले आइये?" कहा मैंने,
"जी" बोली वो,
उधर माधुरी से अब बातें समाप्त हुईं मृणा की, और वो जा बीती उधर, अपने साधक के पास, मैं जानता नहीं था उसे, हाँ, बस एक दो बार नज़रें ज़रूर मिली थीं हमारी!
"क्या बातें हों गईं?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"इतनी देर में भी कुछ नहीं?" बोला मैं, हँसते हुए!
"इधर उधर की बस!" बोली वो,
"और भी आ रहे हैं!" बोली वो,
मैंने देखा बाएं, कुछ साधक-साधिकाएं आने लगे है अब वहीँ की तरफ!
"हाँ, ये आ रहे हैं!" कहा मैंने,
और देखते ही देखते, सभी साधक, वहाँ आ जुटे, लगभग सभी ही थे, जिन्हें मैंने देखा था उस रात के आरम्भ में!
"जय अघोरेश्वर!" एक ने नाद किया!
हमने भी नाद का उत्तर दिया!
कुछ देर बीती और तभी एक प्रधान सहायिका आई, घोषणा की कि बड़े बाबा आने वाले हैं अब! जो भी प्रश्न पूछें, उत्तर दें और जो उनसे पूछना हो, वे एक एक कर ही पूछे जाएँ! यदि किसी उत्तर से प्रश्न का उत्तर मिल गया हो, तो पुनः वही प्रश्न न दोहराएँ जाए!
"आदेश!" सभी ने कहा!
और करीब पंद्रह मिनट के बाद, बड़े बाबा आ गए उधर, आये, दोनों हाथ उठाये, एक नाद किया और अपने आसन पर विराजित हो गए!
"संगियों!" बोले वो,
"आदेश!" कहा सभी ने,
"प्रथम चरण पूर्ण हुआ!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने,
"अब मात्र दो दिन!" बोले वो,
''आदेश!" बोले वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
और मदिरा की छींटें हम सभी पर, छिड़क दीं!
"इस श्मशान में, छह स्थान हैं, जहां आपको अगला चरण पूर्ण करना होगा!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने,
"और ये चरण, सरल नहीं!" बोले वो,
"आदेश!" कहा सभी ने,
"आठ, जो बना है, बने रहना है, तो ठीक, अन्यथा, लौट सकता है!'' बोले वो,
"आदेश! सत्यादेश!" बोले सभी!
"आगे का चरण, आप जानते हैं?" पूछा उन्होंने,
"आदेश!" कहा मैंने,
और मेरे साथ, चार और साधकों ने, आदेश-वरण किया!
"साधिकाओं!" बोले वो,
"जय जय!" बोलीं सभी!
"सतत रहिये! आशीष सदैव आपके साथ है!" बोले वो,
"जय जय!" बोलीं सभी!
"और आगामी चरण होगा.....................!" बोले और रुके,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हम सभी चौकन्ने हो गए! अगला चरण जो भी था, वो काफी कठिन और क्लिष्ट होने वाला था, ये तो आभास था मुझे! अब क्लिष्ट तो कई साधनाएँ हैं, लेकिन ये कौन सी हो, इसका पता तो अब बाबा ही बता सकते थे! हम सभी, आँखें गोल किये, सब बाबा को ही देखे जा रहे थे, बाबा के हाथ में शायद मिट्टी का एक ढेला था, कड़ा होगा, उसको घिस घिस कर छोटा करते जा रहे थे उसे!
"संगियों!" बोले वो,
"आदेश!" कहा सभी ने,
"क्या आप सुन रहे हैं?" बोले वो,
"आदेश! प्राण से जाऊं!" बोले सभी!
और वे हुए खड़े! जैसे ही वो खड़े हुए, हम सभी भी खड़े हो गए!
"तो संगियों!" बोले वो,
हम साँसे थामे इंतज़ार करने लगे! पिटारा खुलने को ही था, अब देखें, सांप निकलता है या शेर!
"हाँ, जो जाना चाहे, लौट सकता है, मुझे बता सकता है, विवशता कोई नहीं, अवसर, पुनः प्राप्त होंगे!" बोले वो,
"अलखादेश!" बोले हम सभी!
"अगला चरण है, शाषठेव वेताल!" बोले वो,
सभी की तो जैसे जिव्हा, कछुए की सी गर्दन हो गई! जा छिपी गले रूपी खोल में अपनी! मैं, हल्का सा मुस्कुराया! साधना तो अतयन्त ही क्लिष्टम् हुआ करती है ये! अव आया था समझ मुझे, जानता तो था, परन्तु ये, कि शाषठेव वेताल की साधना आवश्यक ही है! उपाक्ष-भैरवी को जागृत करने हेतु इसकी साधना आवश्यक है! साधना नहीं कहूंगा, आज्ञा ही मानो, यही कहूंगा! शाषठेव ही आगे का मार्ग प्रशस्त किया करता है! यही है, मार्गाधिकारी आगे के मार्ग का!
"प्रश्न कोई?" बोले वो,
सभी चुप्प!
कोई प्रश्न नहीं!
"तो ठीक है! कल मध्य-रात्रि सभी एकत्रित हों यहां!" बोले वो,
और पलट कर, चल पड़े वापिस! उनके गले में लटका, वो ग्रीवाक्ष-वस्त्र लहराता हुआ चला गया! उनके जाते ही, कुछ सहायक-सहायिकाएं फौरन ही आ जुटीं उधर! आज की, साधना का समापन हो चला था!
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
"चलिए" बोली वो,
उसके कंधों पर, हाथ रखे हुए, मैं ले चला उसको अब अलग वहां से, मुझे तो अभी से ही शाषठेव के अट्ठहास से गूंजते सुनाई देने लगे थे!
मैं ले आया था उसे, अपने ही कक्ष में, साधना-समय तक वो मेरे साथ ही रहनी थी, अतः एक ही कक्ष में हमें ठहरना भी था, निंद्रा भी, भोजनादि भी!
"जाओ, स्नान कर लो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और अपने वस्त्र उठा, चली गई स्नान करने, मैं वहीँ अपना सामान, जो अब तक लाया जा चुका था, समेटने लगा था!
वो स्नान कर, लौट आई, केश आदि संवारने लगी, तो मैं चला गया स्नान करने, अब तक रात के तीन से ज़्यादा बज ही चुके थे! खैर, मैंने स्नान किया, वस्त्र बदले और हम फिर उसके बाद, भूमि-प्रणाम कर, सो गए थे! इस प्रकार ये प्रथम-रात्रि पूर्ण हो गई थी!
प्रातः काल, उठे, हालांकि देर हो गई थी, खैर, निबटे और नाश्ता भी कर लिया था, उसके बाद करीब ग्यारह बजे, मेरा कुछ सामान आदि आ गया था, आज इसकी आवश्यकता थी!
"नाथ?'' बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"कुछ प्रश्न हैं!" बोली वो,
"हाँ, पूछो?" कहा मैंने,
''सबसे पहले, शाषठेव कौन हैं?" पूछा उसने,
"शाषठेव एक वेताल है, ब्रह्म-वेताल, कुरुज, अविरंग, नुत्प्राश, केशज आदि नाम से जाना जाता है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कार्य क्या हैं?" पूछा उसने,
''केशज को, आशीष प्राप्त है, भैरवी माँ का!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ मृणा!" कहा मैंने,
"तब ये संचालक हुए?'' बोली वो,
"नहीं, मार्ग बताने वाला!" कहा मैंने,
"कोई वीर?" पूछा उसने,
"हाँ, वीर सही है कहना!" कहा मैंने,
"क्या और भी वीर हैं?" पूछा उसने,
"उनसठ!" कहा मैंने,
"उनसठ?" चौंक कर पूछा उसने!
"हाँ, उन उनसठ के ऊपर ये!" कहा मैंने,
"ओह! अब समझी!" बोली वो,
"हाँ, ये महावीर है!" कहा मैंने,
"समझ गई!" बोली वो,
"शाषठेव, परम शक्तिशाली, महाज्ञाता, सिद्धि-प्रदायक, सिद्धि-सहायक है! ये उन्मुक्त रूप से नहीं ध्याया जाता! अर्थात, इसकी अलग से कोई पूजा, पूजन या सिद्धि नहीं हुआ करती! ये सिद्ध नहीं होता, ये महाभट है, चेवाटों का प्रिय है, ये उन्हें, सरंक्षण देता है! चौदह सहस्त्र दुःधल्लक महाप्रेतों द्वारा सेवित है! चौरासी महा-डाकिनियों द्वारा श्रावणिक है, चौरासी महा-शाकीनियों द्वारा स्वारित है!" कहा मैंने,
"अपार शक्तिस्वामि है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो क्या ये भी सेमल पर?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"वट-वृक्ष पर!" कहा मैंने,
"ओह!" बोली वो,
"हाँ, इसे ये वृक्ष सर्वप्रिय है!" कहा मैंने,
"और रूप?" पूछा उसने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी!" बोली वो,
"इसका रूप भीषण, मलिन, कार्ष्णेय-रूपी, श्याम-नील आभा युक्त होता है! इसके केश, सर के चुटीले से आरम्भ हो, नीचे तक आते हैं, केशों का रंग, धसृत-धूसर जैसा होता है! देह, पाषाणरूपी, पर्वत समान कठोर एवं नतप्रभ हुआ करती है! और अट्ठहास के स्वर से, मानव-देव के टुकड़े हो जाते हैं! मात्र कीट एवं मत्स्य ही शेष रह सकते हैं!" कहा मैंने,
"महाभीषण रूप है!" बोली वो,
"हाँ, हाड़-भंजनि सरीखा!" कहा मैंने,
"और वट-वृक्ष, प्रकट-स्थल है?" पूछा उसने,
"हाँ, परन्तु!" कहते कहते रुका मैं!
"परन्तु क्या नाथ?'' पूछा उसने,
"प्रत्येक वट-वृक्ष नहीं!" कहा मैंने,
"प्रत्येक नहीं?" बोली वो, होंठ काटते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"मात्र कृष्ण-वट-वृक्ष पर ही!" कहा मैंने,
"कृष्ण-वट-वृक्ष?" पूछा उसने,
"हाँ, मात्र वही!" कहा मैंने,
"ये कौन सा वृक्ष है?" पूछ उसने,
"ये भी वट-वृक्ष ही है!" कहा मैंने,
"अन्तर क्या?" पूछा उसने,
"है अन्तर!" कहा मैंने,
"बताएं नाथ?" बोली वो,
"एक कथा है!" कहा मैंने,
''कौन सी?" पूछा उसने,
"कहते हैं, एक वट-वृक्ष पर बैठ कर, श्री कृष्ण, मधुर बांसुरी बजाया करते थे, गोपियाँ, मंत्रमुग्ध हो उठतीं, उनकी निगाहें उस बांसुरी बजाने वाले रसिया को ढूंढतीं, और जा टिकतीं इसी वट-वृक्ष पर! जब सभी गोपियाँ, एक ही लक्ष्य को ढूंढतीं तो उस वृक्ष को लाज सताती! अब चूँकि, वट-वृक्ष, यक्षवृक्ष है, अक्षयवृक्ष है अतः वो लजा जाता! फलस्वरूप, उसका रंग, काला पड़ता गया! उसके फलों में, यौगिक-क्रिया हुई, कीट-पतंगों, अंजीर-कीट आदि ने, प्रांगण किया और ये कृष्ण-वट-वृक्ष अस्तित्व में आया! ये है वो कथा, जो अक्सर ही सुनाई जाती है! इसीलिए, श्री कृष्ण को ध्याते समय, मात्र कृष्ण-वट-वृक्ष को ही ध्याता जाता है, अन्य वट-वृक्ष को नहीं, अब चाहे, अन्य वट-वृक्ष को कितना ही दूध चढ़ाओ, मिष्ठान अर्पित करो, तीस या चालीस दिवसीय भंडारा करो, जागरण करो, कुछ न होय! साधिके, सम्भव है, पत्थरों से जल प्राप्त हो जाए, परन्तु बालू से, रेत से जल प्राप्त नहीं हुआ करता!" कहा मैंने,
"ये तो अकाट्य सत्य है!" बोली वो,
"इसकी कुछ पहचान?" पूछा उसने,
"हाँ, है!" कहा मैंने,
"जैसे?" पूछा उसने,
"इसके पत्ते, श्याम रंग के, मुड़े हुए, मज़बूत, और चिकने होते हैं, इनमे, दूध, दही आदि का सेवन करना सम्भव है!" कहा मैंने,
"तो ये कथा और ये वेताल?" पूछ उसने,
"अच्छा प्रश्न है!" कहा मैंने,
"बताएं?" पूछा उसने,
"इस संसार में ऐसा कुछ नहीं, जो नहीं था, सब था, है, कुछ का रूप परिवर्तित हो गया है, ये जलवायु, भूगोल कि वजह से है! कृष्ण-वट-वृक्ष मूल रूप से, सर्वप्रथम प्रकट हुआ, रूप-कुंड में! अब जैसा बताया मैंने, ये यक्षवृक्ष है, यक्षों ने ही इसे अपने लोक से लाकर, इसको रोपा है! इस पर, सूखा नहीं पड़ता, दुर्भिक्ष में, ये मवेशियों, पक्षियों को भोजन प्रदान करता है! इसका फल, कई विभिन्न फूलों का गुष्ठ होता है! एक फल में, कई सहस्त्र वट-वृक्ष उत्पन्न किये जा सकते हैं! और तो और, ये हमारे देश का, राष्ट्रीय-वृक्ष भी है!" कहा मैंने,
"और पीपल?" पूछ उसने,
"पीपल, गण-वृक्ष है!" कहा मैंने,
"गण-वृक्ष?" पूछा उसने,
"हाँ,शिवगणों का!" कहा मैंने,
"अर्थात, शिव से जुड़ा!" बोली वो,
"हाँ! इसे इस धरा पर, शिव-गण, भरिभण्डक ने रोपा है!" कहा मैंने,
"ओह! नमः! किस प्रयोजन हेतु?" पूछ उसने,
"प्रतीक्षा!" कहा मैंने,
"अर्थात?" पूछा मैंने,
"सुना है न? शिव को सर्व-प्रिय कौन हैं?" पूछा मैंने,
"माँ गौरांगी?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर नाथ, क्या शिव-गण?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''नहीं? फिर?" बोली वो, उत्सुकता से!
"नंदी! नंदी महाराज!" कहा मैंने,
"ओह, हाँ!" बोली वो,
"नंदी महाराज तो पाषाण बन, उनकी प्रतीक्षा करते हैं! युगों युगों तक!" कहा मैंने,
"हाँ, सत्य है!" बोली वो,
"सभी, चेत रहते हैं, परन्तु नंदी, की अचेतनावस्था में भी चेत रहना, यही आशीर्वाद तो माँगा था श्री नंदी महाराज के माता-पिता ने!" कहा मैंने,
"हाँ! जय नंदी महाराज!" बोली वो,
"जय शिव-पूरक!" कहा मैंने,
"हाँ, तो प्रतीक्षा?" बोली वो,
"भरिभण्डक की?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"जल लाओ!" कहा मैंने,
"अभी नाथ!" बोली वो,
और मैंने मन ही मन, दोनों ही शिव-प्रिय, संगियों को नमन किया! मृणा, जल ले आई, और मुझे दे दिया, मैंने लिया और पिया! रख दिया एक तरफ, मृद-पात्र, साधना समय, धातु-निर्मित पात्र नहीं प्रयोग किये जा सकते, भोजन भी, हाथों में ही लिया जाता है! शयन भूमि पर ही होता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, अब बताइए?" बोली वो,
"मृणा?" कहा मैंने,
"जी?' बोली वो,
"क्या ये सम्भव नहीं कि ये विषय में बाद में बताऊं?'' कहा मैंने,
"जैसी आपकी इच्छा!" बोली वो,
"तो ठीक, अवश्य ही बताऊंगा!" कहा मैंने,
"एक प्रश्न और!" बोली वो,
"वो क्या?'' पूछा मैंने,
"वेताल-साधक की कोई पहचान?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"हाँ, नहीं!" कहा मैंने,
"कोई नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बताया मैंने,
"हाँ जी?" दरवाज़े पर दस्तक हुई,
"हाँ?" कहा मैंने,
"जी, सामान है!" बोली एक स्त्री,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मैं ले आती हूँ!" बोली वो,
"हाँ, ले आओ!" कहा मैंने,
मृणा उठी, वस्त्र ठीक किये, और चल पड़ी दरवाज़े की तरफ! कुछ बातें कीं, और एक पिटारी सी ले आई!
"रख दो!" कहा मैंने,
उसने वहीँ रख दी, ये पिटारी, बांस की तीलियों से बनी थी, कुछ कुछ सपेरों की पिटारी के जैसी! बस ये चौरस थी!
"खोलो!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
और पिटारी खोल दी, उसमे छह जगह बनी थीं! सभी जगहों में, कुछ न कुछ सामान रखा था!
"किसे पहचानती हो?" पूछा मैंने,
"सभी!" बोली वो,
"अच्छा! बताओ?" कहा मैंने,
"ये केलुक है!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये हरित्रा!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये, चर्मिका है!" बोली वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"ये उदयसिंगी!" बोली वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"और ये.....उम्म्म..!" यहां अटक गई वो!
"ये भुरुषा है!" कहा मैंने,
"गजनख?" बोली वो,
"हाँ, सही पहचाना!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"और ये?" पूछा मैंने,
"सच कहूं तो ये नहीं पता!" कहा उसने,
"कभी देखा नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कहीं भी?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"चंदन कितने प्रकार का होता है?'' पूछा मैंने,
"दो प्रकार का!" बोली वो,
"कौन सा?" पूछा मैंने,
"श्वेत और रक्त!" बोली वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"अब उनका प्रयोग पता है?" पूछा मैंने,
"हाँ, श्वेत, माथे पर, टीका और रक्त, पूजन में! टीका में भी!" बोली वो,
"यही तो जानते हैं सब!" कहा मैंने,
"अर्थात?'' बोली वो,
"ये दोनों ही चंदन, वन-वनस्पतियां हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''चंदन का गुण क्या?" पूछा मैंने,
"सुगंध!" बोली वो,
"हाँ, बस, सात्विकता में यहीं तक इसका प्रयोग है, या मालाएं, टीका, तिलक आदि! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"तंत्र में, शुद्धता मायने रखती है! ये दोनों ही चंदन, प्रयोग नहीं हुआ करते!" कहा मैंने,
"क्या?" हैरानी से पूछा उसने,
"हाँ, सुनो! एक चंदन और होता है, जो शायद ही सुना हो तुमने, ये है, श्याम-चंदन, काला -दन!" कहा मैंने,
"नहीं सुना!" बोली वो,
"ये ही है असली चंदन! ये, वायुमोहि, सुगन्धि, स्वाद में शीतल और मृदु, कठोरता में पाषाण सामान, जल में गलत नहीं, मेघ में भारी हो जाता है, कीट=पतंगे दूर रहते हैं, शीतल-प्रकृति का, शारीरिक दोष-निवारक, श्वास को संतुलित करने वाला, मनोभाव को संतुलन प्रदान करने वाला, स्त्री की उर्वरकता को प्रखरता तक रखने वाला, पौरुष-वृद्धक, शारीरिक-क्षय को दूर रखने वाला, और सोम जैसे नशे वाला होता है! समस्त देवी-देवता, इसी को धारण किया करते हैं! श्वेत-चंद, मात्र औषधि ही है! टीका करने योग्य नहीं! श्याम-चंदन की मालाएं, तंत्र में, मंत्र में, यंत्र-स्थापन में प्रयोग हुआ करती हैं!
"ये तो भान ही नहीं!" बोली वो,
"कम ही जानते हैं!" कहा मैंने,
"मेरी तरह!" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"और इसका, यहां प्रयोग?" पूछा उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"इसका प्रयोग तंत्र में होता है! तंत्र में जब भी कभी, वेताल जैसी महाशक्ति का आह्वान किया जाता है तब इसका प्रयोग हुआ करता है, मोटे शब्दों में, जिस सत्ता में ब्रह्म शब्द पहले लगे, जोड़ा जाए, तब इसी काले चंदन का प्रयोग हुआ करता है! इसकी गंध, ऐसी महाशक्ति को आकर्षित किया करती है! यही माना जाता है!" कहा मैंने!
"अच्छा, समझ गई!
"इसी कारण से इसका महत्व और बढ़ जाता है!" कहा मैंने,
"हाँ, आ गया समझ!" बोली वो,
"अब ये वेताल! ऐसा ही है!" कहा मैंने,
"इसके बाद?'' बोली वो,
"इसके बाद, सीधा ही कर्म-क्षेत्र!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
"हाँ, उपाक्ष!" बताया मैंने,
"जय माँ भैरवी!" बोली वो,
"जय माँ भैरवी!" कहा मैंने भी, हाथ जोड़ते हुए!
"तो यहां छह ऐसे स्था हैं?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अर्थात, छह श्याम-वट?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उसने,
"आज करीब दस बजे हमें जाना होगा वहां!" कहा मैंने,
"इतनी जल्दी?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"किसलिए?'' बोली वो,
"खापड़ सजाने!" बोल मैं!
"अच्छा!" बोली वो,
"मतलब झोंपडा?" बोली वो,
"खापड़ मायने, घर, अपने लिए घर! जहां से क्रिया का क्रियान्वन किया जाएगा!" कहा मैंने,
"हाँ, मुझे मेरे बाबा ने बताया था!" बोली वो,
"पिता जी ने?" पूछा मैंने,
''हाँ!" बोली वो,
"तो वो वेताल-साधक थे?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, परन्तु पूछ उनकी बहुत थी!" बोली वो,
मैं अचानक से खड़ा हो गया तभी! उस से अलग, गम्भीर सा हो! वो भी अकुला सी गई, कि अचानक मुझे क्या हुआ!
"क्या हुआ नाथ?" पूछा मैंने,
"तुम एक वेताल-साधक की पुत्री हो?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"तो साधिका कैसे?" पूछा मैंने,
"बाबा रमल नाथ के कहने पर!" बोली वो,
"तुम कैसे जानती हो बाबा रमल नाथ को?" पूछा मैंने,
"वे हमारे गाँव के हैं!" बोली वो,
"समझा! अब पिता जी कहाँ हैं तुम्हारे?" पूछा मैंने,
"देहांत हो गया उनका...." बोली वो,
"ओह..." कहा मैंने,
"आप बाबा रमल नाथ को जानते हो न?" बोली वो,
"हाँ, अच्छे से, उन्होंने ही मुझे किसी के दर्शन करवाए थे!" कहा मैंने,
"किसके?" पूछा उसने,
"है कोई!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं बता सकते?" बोली वो,
"बता सकता हूँ!" कहा मैंने,
"बताइए?" बोली वो,
"क्या अभी?" पूछा मैंने,
"उचित लगे तो?" बोली वो,
"अनुचित भी नहीं!" कहा मैंने,
"तो बता दीजिये?" बोली वो,
"है एक सुंदरी!" कहा मैंने,
''कुछ विशेष?" पूछा उसने,
''सोम समान!" कहा मैंने,
"सच में?" बोली वो,
"हाँ, सच में!" कहा मैंने,
"नाम?" बोली वो,
"ये बाद में!" कहा मैंने,
"जानूंगी अवश्य ही?" बोली वो,
"अवश्य ही!" कहा मैंने,
"आपने बताया तो विशेष ही होगी?" बोली वो,
"हाँ, विशेष!" कहा मैंने,
"कहाँ थी?" पूछा उसने,
"थी नहीं, है!" कहा मैंने,
"है?" पूछा अवाक सी रह कर!
"हाँ है!" कहा मैंने,
"आज भी?" बोली वो,
"हाँ, आज भी!" कहा मैंने,
''दर्शन सुलभ हैं?" पूछा उसने,
"नहीं जानता!" कहा मैंने,
"क्या आज्ञा नहीं?" पूछा उसने,
"निषेध है!" कहा मैंने,
"किसने किया निषेध?" पूछा उसने,
"अब ये एक लम्बी कहानी हो जायेगी मृणा! रहने दो!" कहा मैंने,
"जी, समझ गई!" बोली वो,
"बस यूँ मानो, कि मेरी साधना खंडित होते होते रह गई थी!" कहा मैंने,
"समझ गई!" कहा उसने,
"हाँ?' आई एक आवाज़!
"माधुरी लगती है!" कहा मैंने,
"देखूं?" बोली वो,
"देखो!" कहा मैंने,
''जी!" बोली वो,
और चली बाहर की तरफ, माधुरी ही आई थी, कुछ बातें कीं उसने, और फिर मृणा वापिस लौट आई!
"क्या बात रही?" पूछा मैंने,
"आमंत्रण है!" बोली वो,
"कैसा आमंत्रण भला?" पूछा मैंने,
"दवल का!" बोली वो,
"मना किया?'' पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"ओफ़्फ़!" कहा मैंने,
"मना करना था?" बोली वो,
"हाँ, करना था मृणा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी उचित हे, मैं मना कर देती हूँ!" बोली वो,
"यहीं, तुम नहीं जाओ!" कहा मैंने,
"क्यों नाथ?" पूछा उसने,
"वहां जमघट लगा होगा, और न जाने कौन क्या हो?" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"किसी सहायिका से कहलवा दो!" कहा मैंने,
"ये ठीक हे!" बोली वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"आती हूँ!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वो चली गई, मैं अंदर आ, सामान इकठ्ठा करने लगा, जिस सामान की आवश्यकता थी, वही एक जगह अलग किये जा रहा था, मेरे पास मदिरा की दो बोतलें थीं, वो भी मैंने रख ली थीं, मदिरा सदैव नयी ही, अपनी ही खरीदी, शुद्ध, बोतल न खुली हो, ढक्कन न खुला हो, किसी ने स्पर्श न किया हो, कहीं और प्रयोग न हुई, हुई होनी चाहिए, अन्यथा वो क्रिया में मान्य नहीं हुआ करती!
मदिर का इतना महत्व क्यों? तंत्र में ऐसा क्यों? सर्वप्रथम, शारीरिक, इस से ध्यान का केंद्रीकरण होता है, मदिरा से, अपने ध्येय पर, ध्यान रखा या बाँधा जाता है, कई मंत्र इसके द्वारा ही संचरित किये जाते हैं! दूसरा, मदिरा को शुद्ध माना जाता है, ये जिस में भी मिले, अपना गुण अर्थात, मद्यता का त्याग नहीं करती! ये, छोटे-मोटे, चीरे आदि पर भी कार्य करती हे! उनमे संक्रमण नहीं होने देती, और यदि गहनता में जाएँ तो विषय एकदम ही अलग हो जाता है! कहते हैं न, शराब खराब नहीं, शराबी खराब हैं! मदिरा को भी साधना ही पड़ता है, न कम ही, न अधिक ही, अधिकता से तो आप से बाहर कर दिया करती है! और तब इसका रूप बदल जाता है, जैसे कि अग्नि, जैसे जन्मदायक भी होती है और प्राणहर्ता भी! ठीक वैसे ही जल भी! और ठीक वैसे ही शक्ति भी!
दरवाज़ा खुला, और पर्दा हटते ही मृणा अंदर चली आई! मेरी मदद करने लगी, सामान उठाने में!
"कर दिया मना?" पूछा मैंने,
"हाँ, कहलवा दिया!" बोली वो,
"दवल का कोई लाभ नहीं!" कहा मैंने,
"समझ गई!" बोली वो,
दवल, एक सभा सी होती है, जिसमे, कुछ प्रश्न व् सुझाव होते हैं, ये क्रिया से पहले, बाबा द्वारा जो संचालित हो रही थी, उसमे कुछ बदलाव हों या कुछ सुझाव हों, इसीलिए रखी जाती है, हमें तो कोई आवश्यकता थी नहीं, अतः दवल का कोई लाभ ही नहीं था! कई बार, दूसरे साधकों से भी, उलझना पड़ जाता है, कोई कुछ कहता है और कोई कुछ, कभी कभी तो हाथापाई की नौबत भी आ जाती है और कई बार, द्वन्द तक बात जा पहुंचती है! तो ऐसी परिस्थिति न आये, इसीलिए मैंने मना करवा दिया था, सबकुछ तो सही चल ही रहा था! तो दवल किसलिए?
तो मित्रगण! हुई संध्या और वो स्थान, अब करवट बदल गया! संध्या समय तक, अलसाया सा वो स्थान, करलोल कर उठा! अर्थात उसमे, जान सी पड़ने लगी थी! लोग आने जाने लगे थे, कुछ नए भी और कुछ पुराने भी, उस समय, मैं मृणा के संग उस स्थान पर था, जहाँ से क्रिया का प्रवेश-द्वार दूर था, अर्थात, मैं सर्वमान्य स्था पर था, बाबा रमल नाथ से मिलने चला आया था, बाहर, बड़ी बड़ी गाड़ियां लगी हुई थीं, ये सब शहरी लोग थे, कुछ रोग कटवाने आये थे, तो कुछ शत्रुता पाले हुए, जिनके लिए उनके शत्रु को, बिन पता चले, मार्ग से हटाया जाए! कुछ दान-सामग्री लाये थे, कुछ ऐयाशी के साधन ले आये थे, शराब, शबाब और न जाने क्या क्या! आजकल, धन का हर जगह बोलबाला है! क्या सात्विक और क्या तामसिक! मुख्यतः वो लोग, जो असल में न तांत्रिक ही हैं और न ही औघड़! ये बस अपना उल्लू सीधा करते हैं! जो महिलाएं आई थी, वे वस्त्रों से तो सुशालीन परन्तु व्यवहार से वाधुकि ही प्रतीत होती थीं! क्या भला पतन भी क्या करेगा! पतन का पतन जिसका हो चुका हो, उस परपतन भी हो जाए तो क्या फ़र्क़ पड़ता है!
एक मेरी साधिका, सीधी सी, सादी सी! है तो ये भी स्त्री ही! परन्तु, अंतर् है! रूढ़िवादी तो नहीं हूँ, व्यक्तिगत स्वंत्रता का पक्षधर हूँ परन्तु, बुज़ुर्गों का सम्मान किया करता हूँ! उन्होंने, स्त्रियों के लिए कुछ नियम बनाए हैं, नियम माने जाने चाहिए, नहीं तो उनकी मर्ज़ी, मानने को वे बाध्य हों, ऐसा तो है नहीं! जिन्होंने संसार नाप दिया, वे हमें कुछ देंगे ही, लेंगे नहीं! मेरी साधिका पर, दो-चार, अन्य साधकों ने नज़र डाली, मैं क्या पहचानता, एक स्त्री की नज़र, तो हर उस पर पड़ने वाली नज़र को, आंकलन के साथ ही जांच लेती है! मैं नहीं चाहता था कि कोई उसके साथ दुर्व्यवहार करे या ऐसी नौबत आये! तो मैं वापिस हो रहा था तब!
"तुम्हारे बाबा रमल भी अब अमल खेलने लगे हैं!" कहा मैंने,
"अब मैं क्या कहूं!" बोली वो,
"छोड़ो, जाने दो!" कहा मैंने,
"उनके जो साथ हैं न, वो हैं ऐसी!" बोली वो,
"देखा मैंने!" कहा मैंने,
"अब हमें क्या!" बोली वो,
"हाँ! आओ!" कहा मैंने,
और हम अंदर चले तब, तभी मुझे किसी ने प्रणाम किया, मैंने पीछे देखा, ये मेरा एक जानकार ही था!
"पहचाना नहीं?" पूछा उसने,
"पहचान गया!" कहा मैंने,
"बताइए कौन?'' पूछा उसने,
"बलदेव जी!" कहा मैंने,
"वाह!" बोले वो,
"और सुनाइए, यहां कैसे?" पूछा मैंने,
"यहीं आया हुआ था, तो आया किसी के पास, आप सुनाइए!" बोले वो,
"सब कुशल से है!" कहा मैंने,
"और कब तक हैं यहां?" पूछा उसने,
"हूँ अभी, हफ्ते तो!" कहा मैंने,
"रुके यहीं हैं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, यहीं!" कहा मैंने,
"कुछ काम है, यदि यहीं हुआ, तो ठीक, नहीं तो आपको मदद करनी होगी!" बोले वो,
"क्यों नहीं, ऐसा पूछिए मत आप, कहिये बस!" कहा मैंने,
"तो कब मिलूं?" बोले वो,
"चार दिन बाद!" कहा मैंने,
"यहीं?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जी, अच्छा, प्रणाम!" बोले वो, और लौट गए!
"आओ मृणा!" कहा मैंने,
और उसका हाथ पकड़, ले चला साथ अपने, अपने कक्ष में, अब बस तैयारी ही करनी थी, आज महाभट्ट सम्मुख जो होना था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण! उसके बाद आने लगा वो समय पास! हमें, वेताल-दर्शन तो मध्य रात्रि-समय करने थे, परन्तु कुछ आवश्यक कार्य भी थे जो निबटाने भी आवश्यक ही थे! इसमें साधक-साधिका का पूर्ण होना परम-आवश्यक हुआ करता है! जैसे कोई रोग न हो, कोई घाव अथवा चोट न हो! अपान-वायु जैसा दोष न हो, इसके लिए कुछ औषधियों का सेवन आवश्यक होता है, अतः हमने, रात्रि साढ़े नौ तक, इस प्रकार के कार्य निबटा लिए थे! ठीक दस बजे, हम उस क्रिया-स्थान के लिए निकलने वाले थे, स्नान आदि से निवृत हो चुके थे, सामान तैयार कर ही लिया था, सामग्री आदि सभी उपलब्ध थी! अब शेष था तो औघड़-श्रृंगार! तो हमने, भस्म-स्नान किया और फिर श्रृंगार! मैंने अपने तांत्रिक-आभूषण धारण कर लिए थे, अपनी साधिका को भी, आभूषण धारण करवा दिए थे, अस्थियां, कपाल, जोड़क, फुड़वा आदि अस्थि-अंश आदि सब वहीँ रख दिए गए थे, समय आने पर, एहमें दे दिए जाने थे! और ठीक दस बजे रात्रि में, मैं अपना त्रिशूल ले, चिमटा काँधे रख, अपनी साधिका को थामे, निकल पड़ा था उस महा-अलख की ओर! वहां, कुछ साधक और साधिकाएं आ चुके थे पहले से ही! आदेश हुआ और हमने अपना स्थान ग्रहण कर लिया! माधुरी ने हमें देखा, उसके साधक ने भी हमें देखा, मुस्कुराए और हमने, अलख में ब्र्ह्मोश अर्पित कर दिया! अलख चरचरा गई! जैसे पीड़ित हो उठी हो, भूखे पेट को जैसे भोजन की आवश्यकता हो, ऐसे चीख पड़ी थी! तड़पती, मचलती अलख, जवान हुआ करती है, नव-यौवना जैसी! वो जितना भड़केगी, फ्लास्वादन उतना ही मधुर होगा! अर्थात, स्वर्ण जितना जले, उतना ही उभरेगा रूप में!
ठीक सवा दस तक, सभी साधक और साधिकाएं वहां आ चुके थे, अब बस इंतज़ार था तो बड़े बाबा का, वो आएं तो आगे आदेश करें वो! हम इतने, अलख-गान गा रहे थे! हिम्मत न टूटे, इसीलिए अपने अपने श्री गुरु से, ध्यान कर, मन ही मन, आशीष की भिक्षा मांगे जा रहे थे!
ठीक साढ़े दस बजे, बाबा का आगमन हुआ! सोलह सहायिकाओं द्वारा उनका सम्मान हुआ और शेष वहां रह गईं चार ही! अर्थात, एक अलखनाद पर, चार हट जाया करती थीं, वापिस लौट पड़ती थीं! इस प्रकार, चार अब शेष रह गई थीं! बाबा आये, और आसन ग्रहण करने से पहले, खड़े हुए, हम सभी भी खड़े हो गए! कमर तक झुक, उनका अभिवादन किया! उन्होंने महालख-मंत्र पढ़ा और एक साधिका के पकड़े झोले में से, पहली मुट्ठी निकाल, उसमे सामग्री भर, अलख में झोंक मारी! बस! इसी क्षण से, क्रिया का समय शुरू हो गया था!
"बैठिए!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने,
और हम सब बैठ गए!
"आज द्वितीय रात्रि है, मध्यावस्था है, आप सब जानते हैं!" बोले वो,
"अहो-आदेश!" बोले हम सभी!
"आज, महाकुरुज-आज्ञा प्राप्त करनी होगी!" बोले वो,
"अहो-आदेश!" बोले हम सभी!
"हाँ, इधर ही!" कहा मैंने, मैंने साथ रखा थाल, आगे बढ़ा दिया था अपना!
उस सहायिका से, जो बाबा के झोले में से, सामग्री या ईंधन सभी को दिए जा रही थी, उस अलख के लिए!
"ये?" बोली वो,
"ये? सुनो मृणा, ये रखो?" कहा मैंने,
''हाँ नाथ!" बोली वो,
और रख लिया उसने, वो दिया, विशेष ईंधन, दूसरे पात्र में! मृणा को दे, वो सहायिका, अगले साधक की ओर, चली गई!
"तीन चरणावस्था है ये, जानते हैं!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम सभी!
"पुनः कहता हूँ, यदि कोई लौटना चाहे, तो लौट सकता है!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम सभी!
उन्होंने सभी को देखा! एक एक करके!
"भूम?" बोले एक से वो,
"आदेश!" बोलते हुए खड़ा हुआ एक साधक!
"साधिका?" पूछा उन्होंने,
"आती है अभी!" बोला वो,
"जाओ, ले आओ!" दिया आदेश!
"आदेश प्रभु!" बोला वो,
और पीछे होते हुए, पीठ न दिखाते हुए, लौट चला भूम!
"तुम?" बोले मुझ से,
"आदेश!" कहते हुए मैं खड़ा हुआ!
"श्रीशाज्ञा?" बोले वो,
"प्राप्त है!" कहा मैंने,
"जय अघोरेश!" बोले वो,
"जय अघोरेश! जय अघोरेश!" नाद गूँज उठे!
"स्थान ग्रहण करो!" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
और घुटनों पर हाथ रख, बैठ गया नीचे!
"सामग्री, खापड़ आदि, हिलोज आदि, भंशादि, वहीँ उपलब्ध रहेंगे!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम सभी ने,
"संगियों!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने!
'शोणित-स्नान-कुंड, समीप ही है!" बोले वो,
"आदेश!" बोले वो,
"प्रथमावस्था-उपरान्त वहीँ रहें!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हमने,
और फिर एक महामंत्र! और अलख में, महाभोग! जय जय जय श्री औघड़नाथ का महानाद गूंजता चला गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मित्रगण! चिमटे खड़क उठे! हुंकारे से भरे जाने लगे! साधिकाओं के गलों पर पड़े आभूषण, छन्न-छन्न कर उठे, हमारे गलों में पड़े आभूषण, सखच-सखच की सी आवाज़ें करने लगे!
अभी बाबा बैठे हुए ही थे कि एक और बाबा चले आये उनके पास, कुछ बातें हुईं उनकी, और उनको इशारे से कुछ बताया जाने लगा, उन आयेहुए बाबा ने कुछ और भी बातें की, और उनका चिमटा अपने माथे से लगा, चल पड़े वापिस!
फिर एक सहायिका को बुलाया उन्होंने, कुछ बातें कीं उस से, वो भी आज्ञा ले, चल पड़ी वहां से!
"बहादर?" ज़ोर से बोले वो,
भेरी के पर्दे में से, बहादर आया बाहर, आज तो क़तई जल्लाद सा लगे थे वो! घुटनों तक का तहमद पहने, गले में, मालाएं पहने, भुजबंध धारण किये हुए, माथे पर, पुंडक काढ़े हुए, हाथों में घुँघु पहने हुए था!
''आदेश प्रभु!" बोला वो,
"कौन है और?" पूछा बाबा ने,
"शम्भू और बिलका है प्रभु!" बोला हाथ जोड़ते हुए,
"हम्म, नीलम?" बोले वो,
"है प्रभु!" बोला वो,
"और?" पूछा उस से,
"और तो कोई नहीं?" बोला वो,
"कैसे चलेगी?" बोले वो,
"आदेश?" बोला वो,
"जयन्ती, पुन्नी को बुला ले!" बोले वो,
"आदेश!" कहा उसने,
और आदेश बटोर, चल पड़ा पीछे की तरफ! मैं समझ गया था बाबा का आशय, कि सेवादारी के लिए, नीलम ही पर्याप्त नहीं होगी, छह वृक्ष थे, कुल दूरी नापो तो डेढ़ किलोमीटर से ऊपर ही बैठे, कम नहीं, इसीलिए, दो और बुला ली गई थीं!
"संगियों?" बोले वो,
"आदेश!" बोले वो,
"भेरी-पूजन, काल-पूजन एवं यौल-पूजन, भेरी-स्थल पर ही होगा! शेष संचालन, बाबा जोधनाथ जी करेंगे! " बोले वो,
"ब्रह्मादेश!" बोले सभी!
"प्रश्न कोई?" पूछा उन्होंने,
"प्राण से जाऊं!" बोले सब!
"उचित है!" बोले वो,
और उठ खड़े हुए, बाबा जोधनाथ भी चले भेरी-स्थल की ओर!  हम सभी उठे और अलख में सभी ने ईंधन झोंका! बाबा लौटे और इधर शुरू हुआ औघड़-नाच! अलख को घेर, नाच उठे अलख के दास! नाद ही नाद!
"अलख-निरंजन!"
"दुःख हो भजन!" 
"कौन चकोर, कौन खंजन?"
"जब नयन लगा मदिरा का अंजन!"
"अलख-निरंजन! अलख-निरंजन!"
नाद ही नाद! गान ही गान!
मदिरा के घूंट भरे जाएँ, और अलख में ईंधन झोंका जाए! कोई अलख में कूदने को ही तैयार! कोई भस्म ही चबाये! ये है औघड़-मद!
घूंघर बजा उठा! और हम सभी एक झुण्ड सा बना, चल पड़े भेरी की ओर! भेरी, यही तो है सीढ़ी! पार लगाती है! आगे बढ़ाती है! वास्तविकता का भान भी तो यही कराती है! बरसों से, मांस के कण्डों में, सरंक्षितएक छोटी सी चिंगारी को, जैसे, यम-दण्ड एक ही सांटे में खींच लेता है ठीक वैसे ही, यहां भी अंत हो जाता है, अंत, दम्भ का! घमंड का! अभिमान का!  भेरी पर बस, एक बार ही, चढ़ता है कोई, दूसरा अवसर नहीं मिल पता उसे! ठीक यही तो जीवन है! एक बार ही बस! दूसरा अवसर कहाँ? कौन जाने?
"संगियों?" आई बाबा जोधनाथ जी की आवाज़!
"आदेश!" चीखे हम सभी!
"जोड़े में जाइये!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम सभी!
इस तरह जोड़े में जा, साधक-साधिका आगे बढ़ते गए, पूजन निबटाते चले गए! मेरा क्रमांक चौथा था, तो मेरा भी अब अवसर आया!
"आओ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" कहा उसने,
भेरी-स्थल पर, उसकी सीढ़ियों पर, स्त्री को उसका साधक, साधिका को, मेरा अर्थ है, अपनी भुजाओं में उठाता है, और स्वयं ही सीढ़ियां चढ़ता है! स्त्री को यहां, सर्वोपरि उच्च-शक्ति माना जाता है, अतः मैंने उसे उठाया और सीढ़ियां चढ़ता चला गया! एक एक सामग्री से भेरी का पूजन किया, उसके फालों का, जड़ का, लकड़ी का, और मालाएं चढ़ा दीं उस पर! भेरी का आशीष मिले, ऐसी कामना की जाती है!
अब काल-पूजन!
ये एक विशेष पूजन है, इसमें, काल की पूजा की जाती है, जिसके कारण ये, अवसर प्राप्त हुआ है हम साधकों को! इसमें, भी कुछ सामग्री आदि का प्रयोग कर, पूजन किया जाता है! काल-पूजन समाप्ति पश्चात, हम आगे बढ़े!
और अब शेष था, यौल-पूजन!
अर्थात, साधक द्वारा साधिका की क़ुर साधिक द्वारा साधक की देह का पूजन हुआ करता है! ये, इस विशेष साधना में अति-आवश्यक है, वे जुड़े हैं परस्पर आपस में, इसीलिए, यौल-पूजन किया जाता है! इसी में कुछ देर लगा करती है, कुछ मुद्रा-विशेष हैं जो करनी पड़ती हैं!
तो हमें कुल पंद्रह मिनट लगे, और फिर हम पूजन-स्थल से बाहर हुए! बाहर, एक जगह, वे सभी खड़े हुए थे, बाबा जोधनाथ वहीँ बैठे हुए, उन दोनों सहायिकाओं को कुछ समझा रहे थे!
"आओ मृणा!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"उधर आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
और मैं लेकर चला उसको एक पेड़ के पास बने थड़े के पास, खुद बैठा और उसको भी बिठाया मैंने!
''सुनो मृणा, ध्यान से सुनना तनिक!" कहा मैंने,
"जी, अवश्य!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ मृणा, मैं तुम्हें यहां कुछ बताने के लिए लाया हूँ!" कहा मैंने,
"जी, बताइए, नाथ?" बोली वो,
"मृणा?" कहा मैंने,
"जी, नाथ?" बोली वो,
"ये साधना, अतयन्त ही विशिष्ट है!" कहा मैंने,
"जी, देख रही हूँ!" बोली वो,
"यहां जो भी साधिकाएं आई हुई हैं, वे सभी मुझे पारंगत प्रतीत होती हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, यही है, नाथ!" बोली वो,
"और मुझे प्रतीत होता है की तुम, सबसे नयी और नौसिखिया हो!" कहा मैंने,
"जी, नाथ, सो तो है!" बोली वो,
"इसीलिए मृणा!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"तुम्हें कुछ नहीं करना, यदि कुछ समझ में न भी आये तो कोई बता नहीं, बस, मुझ से संबंध में रहना, नज़र से नज़र मिलाना, अलग न होना! समझीं?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आया नहीं समझ? अह?" कहा मैंने गर्दन हिलाते हुए!
"हाँ, नहीं समझी!" बोली वो,
"जान रहा था मैं!" कहा मैंने,
"आप समझाइये?" बोली वो,
"मेरा अर्थ है, कि, यदि कुछ समझ न ही आये, वैसे प्रयास करना, मुझ से पूछ लेना, यदि फिर भी समझ न आये तो मेरी आँखों में आँखें डालकर, वही प्रश्न दोहरा देना, उत्तर मैं दूंगा!" कहा मैंने,
"जी, अब समझी!" बोली वो,
मैंने गौर से देखा उसको, उसके हाव-भाव! यही तो एक साधक चाहता है अपनी साधिका में, वरणत्व, पूर्ण समर्पण! और वो, मेरी इस भोली-भाली साधिका में था!
"जानती हो मृणा?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"इस साधना पश्चात, तुम्हारी वरीयता बढ़ जायेगी!" कहा मैंने,
"इस से अर्थ?" बोली वो,
"अर्थ ये, कि अब इस से नीचे किसी भी साधना में तुम भाग नहीं ले सकोगी! मात्र आगे और आगे!" कहा मैंने,
"ओह! धन्य हुई मैं नाथ!" बोली वो,
"तुम सीधी हो, लगन वाली भी, और जीवट वाली भी, समर्पण भी है, और वर्णत्व भी है! और क्या शेष रह जाता है!" कहा अमीने,
"एक वचन दीजिये?" बोली वो,
"वचन? इस समय?" पूछा मैंने,
"हाँ! इस समय!" बोली वो,
"ये मृणा ने पूछा या मेरी साधिका ने?" पूछा मैंने,
"मृणा ने!" बोली वो,
"दिया वचन!" कहा मैंने,
"मैं यदि मैं कभी साधना करूं तो आप संग होंगे?" बोली वो,
"अवश्य ही मृणा!" कहा मैंने,
और वो तभी मेरे गले से लग गई! एक हिचकी सी भरी और उसकी पकड़, मेरी देह पर, बढ़ती ही चली गई! मैंने हटाने का हल्का सा प्रयास किया, उसने गले से एक आह सी निकाली, जैसे श्वास ऊपर खींची हो और आंसू निकाल बैठी अपने! मैंने उसको आलिंगनबद्ध कर लिया! ये भावातिरेक था उस समय का! उस समय, उसे कुछ भी नकारात्मक कहना, उसके अन्तःमन को आहत कर जाता! इसीलिए, उसी के संग, रुक गया था मैं!
"संगियों!" आई आवाज़ बाबा की!
वो झट से अलग हुई, उँगलियों के पोरों से नेत्र पोंछे!
"संगियों! सब समय कुछ ही शेष है!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम सभी!
"क्रम से क्या है, बता देता हूँ!" बोले वो,
"आदेश प्रभु!" बोले हम सभी!
"प्रथम, श्री गुरु-वंदना, गुरु-नमन एवं, गुरु-आशीष!" बोले वो,
"आदेश प्रभु!" बोले हम सभी!
"द्वितीय, आभूषण-पूजनं, सामग्री-पूजनं!" बोले वो,
''आदेश प्रभु!" बोले हम सभी!
"तृतीय, शोणित-स्नान!" बोले वो,
"आदेश प्रभु!" बोले हम सभी!
और तब मैंने, झुक कर, नमन किया उन्हने, मात्र मैंने ही!
"कहिये?" बोले वो,
"ये शोणित-स्नान पृथक-पृथक है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"निष्ठादेश प्रभु!" कहा मैंने,
"ये, खापड़-स्थल के समीप ही है!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम सभी!
"अन्य कोई प्रश्न?" बोले वो,
"जय जय अघोरेश्वर!" बोले हम सभी!
"अंचक, प्युममक आदि, उधर मिलेंगे!" बोले वो,
''आदेश!" बोले हम सभी!
अंचक अर्थात, वस्त्र, और प्युममक अर्थात, भूमि में दबाने हेतु एक विशेष प्रकार की मिट्टी, कहने का अर्थ ये हुआ, कि वे वस्त्र किसी और के हाथ न लगें, या कोई प्रयोग न हो, उन्हें, जला दिया जाए और रक्ष बना, भूमि में दबा दिया जाए!
"जय जय नाथेश्वर!" बोले वो,
"जय जय नाथेश्वर!" बोले हम सभी!
"आरम्भ हुआ समय!" बोले वो,
और लौट चले!
अब मची हपडा-धपड़ी! सभी अपने अपने स्थल की ओर बढ़ चले! कुयछ सामग्री वहीँ थी, और कुछ समय समय पर, मिलती जानी थी!
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"चलो!" बोला मैं,
"जी नाथ!" कहा उसने,
और हम भी अपने स्थल की ओर चल पड़े!
''वहाँ, नाथ?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"और प्रथम?" बोली वो,
"उधर ही!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और हम चलते रहे उधर! घुप्प अँधेरा तो नहीं था वहां, कुछ प्रकाश किया गया था, ये प्रकाश, बड़े बड़े दीयों का था, जिन्हें, उस श्याम-वट के समीप, बनी एक स्थली पर, रख दिया गया था! हम उधर के लिए ही चल पड़े थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अपना सामान उठाया हुआ था, कंधे पर, साधिका ने, भी मदद की ही थी, वो भी एक बड़ा सा झोला लिए मेरे संग चल रही थी! तो हम, कुछ ही देर में वहां जा पहुंचे थे, झाड़ू-बुहारी, छड़-चौकी सब कर ही दी गई थी! मैंने जाते ही, उस वट-वृक्ष को नमन किया और सर झुकाया! फिर उसके ग्यारह चक्कर लगाए अपनी साधिका के साथ! और तब, सही कोण देख, मैंने वहीँ अलख उठाने के निर्णय लिया! अलख उठाने के लिए मुझे जलती चिता की एक लकड़ी और अग्नि चाहिए थी, ये हमें किसी चिता से ही मिल सकती थी! तब मैंने, समस्त सामान वहीँ रखा और साधिका से भी सामान ले लिया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"यहीं ठहरो, मैं खोखक लात हूँ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"बैठना नहीं!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
तब मैं अपना चिमटा ले, एक थाल ले, चल पड़ा किसी चिता की तरफ, अब वो एक बड़ा श्मशान है, और जब जब क्रियाएं सम्पन्न होती हैं, तब श्मशान के एक विशेष भाग में, विशेष चिताएं सजाई जाती हैं! मुझे ऐसी ही किसी चिता की तलाश थी! आज की रात्रि तो, वहां, क्रिया के सहायक, महाचाण्डाल के सहायक भी खड़े हुए मिलते! ताकि, उक्त चिता के विषय में, सही जानकारी मिल सके! हाँ, चिता से कुछ याद आया! मित्रगण! जब भी कि चिता जलती देखो, तो तीन गांठें एक धागे में मार लो! धागा कोई भी हो! पहली गाँठ, उस अमुक की चिता का नाम, अमुक, लेकर, दूसरा, इस प्रकृति को साक्षी बना कर, और तीसरी, अपनी मनोकामना की पूर्ति की! और वो धागा, अपनी किसी जेब में रख लो सम्भाल कर! जब भी कभी वो मनोकामना पूर्ण हो, तो ये धागा, किसी भी चिता में, लकड़ी में फंसा कर, रख दो! और उस चिता से, इस कृत्य की क्षमा-याचना अवश्य कि करें, ये न कदापि भूलें! जब मनोकामना पूर्ण हो जाए तो यथासम्भव दान श्मशान में चढ़ा दीजिये, या किसी निर्धन परिवार के शव-दाह का एक चौथाई कम से कम अथवा, आधा, या कर सकें तो पूर्ण खर्च वहन कर लीजिए! ऐसा पुण्य का अवसर तो गया जी जाकर भी प्राप्त नहीं होगा! हालांकि ये मेरे ही शब्द हैं, इन्हें अन्यथा न लें, मैं किसी की भाई भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता न ही ये मेरा मंतव्य ही है, क्षमाप्रार्थी हूँ यदि कुछ भी असंगत लगे तो!
हाँ तो मैं ऐसी ही एक चिता के पास पहुंचा, वहां बैठा हुआ सहायक, पहले उकड़ू बैठा था,. अब खड़ा हो गया!
मैंने जाते ही, उस चिता को नमन किया!
"आदेश!" बोला वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"ये?" कहा मैंने,
"वटी के लिए?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं दूँ?" बोला वो,
''अवश्य!" कहा मैंने,
तब उसने, मुझे उस चिता में से, जलती एक लकड़ी और अग्नि वाली राख मेरे थाल में डाल दी! मैंने उसके माथे पर हाथ फेरा और लौट पड़ा!
"जय भोलेनाथ!" बोला वो, पीछे से ही!
"जय जय भोलेनाथ!" कहा मैंने
और ले चला वो लकड़ी और वो राख! ले आया पास में उधर, तब तक, साधिका ने, ईंधन बटोर लिया था, सारा सामान भी लगा लिया था, मुझे बहुत ही प्रसन्नता हुई ये देख कर! तब मैंने अलख को, एक विशेष मुद्रा में बनाया और अलख उठा दी! अलख जैसे ही उठी, अलख ने भयानक सा रूप धरा! ये देख मेरा सीना चौड़ा हो गया! मैंने ईंधन और ईंधन झोंका उसमे! एक एक करके, नाद लगाए! एक एक करके, समस्त सामग्री आहूत करता चला गया उसमे!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश!" कहा उसने,
"जैसा मैं कहूं, वैसा ही करो और कहो!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
मैंने अब गुरु-वंदन किया, गुरु-नमन और गुरु श्री का आशीष प्राप्त हो, ऐसी कामना की! जैसा जैसा मैंने किया, ठीक वैसा वैसा ही वो करती चली गई!
"नाम बोलो अपना?" पूछा मैंने,
"मृणा नाथ!" बोली वो,
"पिता का?" पूछा मैंने,
उसने बताया, और मैंने ईंधन झोंका!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"अनभिज्ञ तो नहीं इस क्रिया से?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" कहा उसने,
"सब जानती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"कोई भय?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कोई विवशता?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कुछ बलात?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
''तत्पर हो?" पूछा मैंने,
"जी नाथ!" कहा उसने,
"क्या हम आगे बढ़ें?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" कहा उसने,
"कोई रोक?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कोई संशय?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" कहा उसने,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"मृत्यु तक संग हो?" पूछा मैंने,
''अवश्य नाथ!" बोली वो,
"भय के कारण, अवसाद के कारण, कोई अन्य कारण प्रसंग?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कोई अनुनय?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो
"तत्पर?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" कहा उसने, और तभी मैंने, दाएं रखा त्रिशूल उठाया, और गाड़ दिया एक ही बार में, भूमि में! भूमि में, जा धंसा मेरा त्रिशूल!
मैं हुआ खड़ा, लिया चिमटा! और खड़खड़ा दिया!
"ये औघड़! आता है!" कहा मैंने,
"ये औघड़! आया!" कहा मैंने,
"ये औघड़! तत्पर है!" कहा मैंने,
और तब, चिमटा दे दिया उसे, उसने, हाथ ऊपर कर, खड़खड़ाया उसे! और मैंने उखाड़ा अपना त्रिशूल! और लहरा दिया! नाचने लगा अलख के आसपास! थाप देते हुए! चिल्लाते हुए!
"साधिके?" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आदेश नाथ!" बोली वो,
"अब सबसे पहले, अपने लिए खापड़ बनाया जाए!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"सुन लो, शेष!" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"खापड़ निर्माण पश्चात, शोणित-स्नान और फिर, क्रियान्वन!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"आ साधिके!" कहा मैंने,
"जी, नाथ!" बोली वो,
अब हम चले खापड़ बनाने के लिए, दरअसल, ये एक प्रकार का झोंपडा हुआ करता है, ये चौकोर होता है, चार, बांसों को गाड़ क्र, उस पर, छाजन या छान चढ़ा दी जाती है, इस साधना में ये बनाना आवश्यक होता है, कई मित्रों से, ऐसे खापड़ देखे भी होंगे, उद्देश्य तो कुछ नहीं, मात्र यही की खापड़ है हमारा हमारे पास, मात्र दर्शाने के लिए ही होता है! इस आप, घर भी कह सकते हैं, या ये भी की हम साधक, श्मशान-वासी हैं! यही मूल उद्देश्य है इसका!
तो हम, वहाँ उस स्थान तक जा पहुंचे थे, स्थान साफ़-सुथरा और शांत था, खापड़-सामग्री वहीँ रखी थी! मैंने एक बार सभी सामग्री देखी, और फिर कैसे बनाना है, ये निर्धारित किया!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"रस्सी ले आओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और लेने चली गई रस्सी, वहीँ थी, लाकर, दे दी मुझे, एक रस्सी करीब दो मीटर की रही होगी, ये बांस की खपच्चियों पर लिपटी हुईं थीं! तब मैंने बांस गाड़े, अंदाजा लगाया, बैठने के लिए, चार फ़ीट की जगह बचती, ये ठीक ही था! अब उनके ऊपर, छान बाँध दी, नीचे भी फूस बिछा दी थी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"एक दीया प्रज्ज्वलित कर!" कहा मैंने,
"अभी, नाथ!" बोली वो,
और उसने, तेल-बाती डाल, एक दीया जला दिया, और देखा मुझे, पूछने को, कि सब ठीक ही है न!
"हाँ, ठीक साधिके!" कहा मैंने,
''आदेश?" बोली वो,
"इसे खापड़ के दाएं रख दो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और उसने वो दीया, खापड़ के दाएं रख दिया! श्मशान में अब, छह खापड़ लगे थे! अलग अलग कोनों में! आज श्मशान बेहद प्रसन्न था! होता भी क्यों न! आज, रुधिर वाले प्रेत जो लगे थे अपने अपने कार्य पर!
"साधिके!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"ये तो पूर्ण हुआ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" कहा उसने,
"अब शोणित-स्नान!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"आओ, देखें, कुंड कहाँ है!" कहा मैंने,
हम एक तरफ चले, चाँद खिला हुआ था, हिलते हुए वृक्ष की शाखों में से, झिलमिल कर रहा था चाँद! उसकी रौशनी, हम लोगों पर पड़ती तो जैसे, हम पकड़े जाते उसकी नज़रों में! सिर्फ एक वहीँ तो बाहर का था, जो हम पर नज़र रखे हुए था!
"अरे!!" कहा मैंने,
"क्या हुआ नाथ?" बोली वो,
"ये कुंड नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"ये तो शोणित-पात्र हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा नाथ!" कहा उसने,
"परन्तु?" कहा मैंने,
"क्या नाथ?" पूछा उसने,
"शोणित तो है नहीं!" कहा मैंने,
"ओह..फिर?" बोली वो,
"प्रतीक्षा!" कहा मैंने,
"किसकी?" पूछा उसने,
"किसी सहायिका की!" कहा मैंने,
"मतलब, वे लाएंगे?" बोली वो,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"अच्छा नाथ!" बोली वो,
"आओ, यहां बैठो!" कहा मैंने,
और एक जगह पर, जहां, कुछ हल्की सी घास थी, बैठ गए थे हम! प्रतीक्षा कर रखे थे, की कब रक्त का प्रबंध हो और हम स्नान करें, यही क्रिया का, इस क्रिया का, मुख्य-बिंदु है!
"ये वृक्ष कैसा विशाल है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने, देखते हुए!
"पुराना होगा?" बोली वो,
"हाँ है!" कहा मैंने,
"लगभग कितना?" पूछा उसने,
"कम से कम, डेढ़ सौ वर्ष तो मानो ही!" कहा मैंने,
"इतना?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अक्षय है फिर तो!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
फिर वो, उस वृक्ष को देखती ही रही!
"मृणा!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"कभी वेताल-साधना में बैठी हो?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"कुछ बदलाव होंगे देह में!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"देख लेना, भांप जाओगी!" कहा मैंने,
"आप तो संग हैं!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"परन्तु स्मरण रहे!" कहा मैंने,
"क्या नाथ?" बोली वो,
"आपा नहीं खो देना!" कहा मैंने,
"पूर्ण प्रयास रहेगा!" बोली वो,
और फिर से चुप हम!
"रुको, यहीं बैठो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और मई उठा, चला उस अलख कि तरफ, अलख में ईंधन झोंका, लकड़ी बदली, और लकड़ियां डालीं, अलख चटचटाई ज़ोर से! लपट पकड़ी तो मैं वापिस चला उसकी तरफ फिर से!
"शोणित-स्नान किया है?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"ओह! आज देखो!" कहा मैंने,
''अवश्य नाथ!" बोली वो,
"प्रत्येक क्लिष्ट साधना में, शोणित-स्नान अत्यन्त आवश्यक है!" बताया मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ देर बीती, कुछ देर हम प्रतीक्षा  ही करते रहे, समय, शायद अभी शेष था, बाबा जोधनाथ के यहां से कोई देर हो, ऐसा सम्भव नहीं था! मैं बार बार, आसपास देखता था, बाहर, घुप्प अँधेरा था, श्मशान की सरहद के पार, एकदम घना जंगल सा था! उस जंगल को पार करो तो नदी की कोई धारा बहती थी! मई वहां गया तो नहीं था, लेकिन दिन में जो एक दो सहायक मिले थे, उन्होंने ही बताया था की पीछे की तरफ कोई नदी हे, जो बड़ी नदी में जा मिलती है! बाईं तरफ भी घना जंगल सा ही था, दायीं तरफ एक, दाह-श्मशान था और पीछे की तरफ, मुख्य मुहाना था! इसी मुहाने के बीच में कुछ कक्ष बने थे, एक बड़ा सा बरामदा भी था, और उस से बाएं में, बाबाओं का विश्राम-स्थल था! इन दोनों के बीच ही, बाबा जोधनाथ मौजूद थे और संचालन कर रहे थे!
"हियो! हियो!" आवाज़ आई, एक सहायक की! और हम उधर ही देखने लगे! दो लोग आ रहे थे, काँधे पर सामान रखे, हम उठ खड़े हुए! और वे समीप आ गए!
"आदेश!" बोले वे दोनों!
"आदेश!" कहा मैंने,
"ये, सामान!" बोला एक,
"ठीक, रख दो!" कहा मैंने,
"इसमें बामनी है, और ये, सौनिक!" बोला वो,
"अच्छा, अच्छा!" कहा मैंने,
"यहीं?" बोला वो,
"हाँ, यहीं!" कहा मैंने,
और एक ने, दो पात्र, दो बड़े से घड़े रख दिए उधर! एक चला पीछे, और एक घड़ा ले आया था, इसमें जल था, उसने वो बड़े से पात्र धो दिए, और कपड़े से हाथ पोंछ, प्रणाम कर, लौट गए वापिस!
वे चले गए, और रह गए हम दोनों!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"आओ संग!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और मैं, उसको ले चला उधर के लिए, उधर, जल का पात्र लिया, ये बड़ा था काफी, उसमे एक घड़े से शोणित निकाल कर, एक मंत्र पढ़ते हुए, जल के साथ, मिश्रित कर लिया, और उसमे, भस्मादि भी मिला दी!
''आभूषण उतार दो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और आभूषण उतरा कर रख दिए उसने!
"अब शेष-वस्त्र भी और, स्वयं ही शोणित-स्नान करो!" कहा मैंने,
"अवश्य है नाथ! आज्ञा!" बोली वो,
और तब, उसने, स्वयं ही, उस पात्र से वो मिश्रण लेकर, सम्पूर्ण स्नान कर लिया, मैं जैसे जैसे उसे बताता रहा, वो करती रही! उसका स्नान पूर्ण हुआ!  अब उसने, जो आभूषण उतारे थे, वो धारण करवा दिए, और एक स्थान पर, खड़ा कर दिया उसे!
"साधिके!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"मैं भी आता हूँ!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
और तब मैंने भी, सम्प्पूर्ण विधि द्वारा, शोणित-स्नान कर लिया! तदोपरांत, आभूषण धारण कर लिए! शेष, सामग्री वहीँ छोड़ दी! अब ये वस्त्र, क्रिया के पश्चात, जलाकर, गाड़ देने थे!
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और मैं अब ले चला उसको उस अलख के पास! अब होना था असली अभिमंत्रण तो! तो मैंने समस्त सामान आदि वहीँ, हाथ भर की दूरी पर रखवा दिया!
"साधिके?' कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"आसन!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
और उसने, झोलों में से, दो, आसन निकाल लिए! एक मेरा और एक उसका!
"इसे, यहां स्थान दो, और उसे उधर, उधर, वहां!" कहा मैंने इशारा करते हुए!
उसने ठीक वैसे ही किया!
"आदेश!" बोली वो,
"दीये, तेल, बाती, अहोबज निकालो, और यहां, इधर रखो!" कहा मैंने,
"थाल पर?" पूछा उसने,
"हाँ, थाल पर ही!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
उसने ठीक वैसा ही किया!
"दो कपाल, एक उधर, एक इधर, स्थान दो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और उसने, कपाल निकाल लिए, रख दिए ठीक वहां, जहां मैंने बताया था उसे,
"इसका मुण्ड ही दिखे, और उसका पटल मात्र!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और उसने, भूमि खोद हाथों से, ठीक वैसा ही किया! भूमि, फोकी ही थी, कोई ख़ास श्रम न करना पड़ा था उसे!
"ये, बड़ा दीया, इस मुण्ड पर और पटल के सम्मुख, ये छोटा दीया रखो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"ये अस्थियां, सम्मुख रखो!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
और ठीक वैसा ही किया उसने!
"वो मालाएं, कण्ठक और सिला, इधर, इधर सजाओ, थाली में!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
और उसने ठीक वैसे ही कर दिया!
"खड़सी लाओ?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और मुझे खड़सी दे दी, ये सफेद रंग का चूना सा होता है, सुंगंध देता है, कीट-पतंगों को दूर रखता है!
"इधर, आसन पर, कमलाक्षासन रूप में विराजो!" कहा मैंने,
वो उसी रूप में बैठ गई, भुजाएं खुलीं, टांगें खुलीं, अर्थात, कोई अंग, दूसरे को न छुए ऐसे बने वो आसन!
और तब मैंने उसकी देह पर, चिन्ह अंकित कर दिए! ये कुल आठ वृहद-चिन्ह थे! सूर्य, चन्द्र, त्रिपुंड, मीन आदि के चिन्ह हुआ करते हैं, जो, शक्ति-यन्त्रम् से सींचे जाते हैं!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"गरताम्भुः!" कहा मैंने,
वो उठी, और पीछे हो खड़ी हो गई! मैंने, उसके आसन पर, तीन चिन्ह काढ़ दिए, और पीठ खुली रख, उस आसन की, तीन जगह, तै-बंध रोपित कर दिया! जो स्थान छोड़ा था, वो उसके साधक का अभय था! अन्यथा, साधक की सामर्थ्य-शक्ति का भान कैसे हो!
"विराजो!" कहा मैंने,
और वो, पद्मावस्था रूप में विराजित हो गई!
"ये, ये लो!" कहा मैंने,
और उसे, एक खंजर दे दिया!
"इस से, प्रत्येक प्रश्न पर, भूमि को काटते रहना, चूक न हो, अन्यथा, देह में वहीँ चीर उत्पन्न होता चला जाएगा!" कहा मैंने,
''अवश्य ही नाथ!" बोली वो!


   
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