वर्ष २०१३, सूरजकुंड...
 
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वर्ष २०१३, सूरजकुंड, हरियाणा के पास की एक घटना, बाबा चूड़ामण का तांत्रिक-स्थल!

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श्रीशः उपदंडक
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 कटे सर दिखाना, कटे धड़ दिखाना, कटे अंग दिखाना ये सब प्रेत-माया है! जिसने प्रेत-साधन किया हो, वो अवश्य ही समझ जाएगा, जिसने नहीं, वो अवश्य ही देह से प्राण रिसते हुए देखेगा! प्रेत-माया आपने मस्तिष्क के उस भाग पर प्रहार करती है, जहां से आपकी दृष्टि-चेतना निकल रही होती है! आपका स्वयं का 'चक्षु-संयंत्र' शिथिल हो जाएगा और आप, वही सब देखोगे वो जो अशरीरी दिखाना चाहता है! यही है भय! प्रेत-भय! जिसने साधन किया होगा किसी भी प्रेत-साधना का, वो झट से सम्भल जाएगा और निकल आएगा बाहर इस माया से! तब प्रेत आप पर प्रहार करेगा! प्राकृतिक रूप से पहले, जैसे, दीवार गिर देगा, गड्ढे में धक्का दे देगा, पेड़ की शाख टूट जायेगी, आग में जला देगा किसी भी कारण से, जैसे सिलिंडर का फटना या किसी संयंत्र में आग लगा देना, या तेज वाहन के सम्मुख ला पटकना आदि आदि प्राकृतिक कारणों से! जब ये भी कार्य नहीं करेगा, तब वो, स्वयं देह धारण करेगा और आपको उठा उठा के पटकेगा! ऐसा कि हड्डियां ही टूट जाएँ या अंदरूनी अंग ही फट जाएँ! ये ही है प्रेत-माया! तो इस से बचाव कैसे हो? आम आदमी कैसे बचाव करे? हो सकता है, सम्भव है, परन्तु ऐसा कोई कर ही नहीं पाता! मान लीजिए, मैं आपको एक धागा दूँ, और कहूं कि इसे तीन महीने में, एक बार पुनः जागृत करना होगा, अब प्रेतों से बचने के लिए तो डामर-प्रयोग ही होगा, मांस-मदिरा वाला, और वो आप नहीं करो, या उस आन वाले का मान न करो, भोग न दो तो ये धागा काम ही नहीं करेगा! तब स्थिति विकट हो जायेगी! तंत्र में तो इस हाथ दे और उस हाथ ले! यही है एक नियम और नियमों का पालन तो अति-आवश्यक होता ही है! अब घटना....
सम्मुख ही हमारे लौ प्रकट हुई थीं! एक साथ आठ करीब! जैसे अलख उठा दी हो किसी ने! हंसी के स्वर भी गूंज रहे थे वहां! लौ कहाँ प्रकट होती है, ये तो मुझे पता ही था, जब भी किसी विशेष रूप से शक्तिशाली सत्ता प्रकट होती है तब लौ ही उठा करती हैं! ये उस सत्ता के तापवश हुआ करता है! यदि आप मंत्रों में न बंधे हों, रक्षण न किया हो, तन्त्राभूषण न धारण किये हों, तो झुलसा देगी वो सत्ता! और खेल खत्म फिर!
"आओ?" चीखा मैं!
कोई नहीं आया सम्मुख तो!
हाँ जो सर आये थे लुढ़कते हुए, मैंने उनको, चिमटे से धकेल दिया था बाहर की तरफ! वे पीछे जा पड़े थे!
"सम्मुख आओ!" कहा मैंने,
"आता हूँ!" एक स्वर गूंजा!
और जो सम्मुख प्रकट हुआ, वो एक साधू था! उसने अपने हाथ में एक मुण्ड पकड़ा हुआ था, दूसरे में एक खड्ग और उसका रूप, ऐसा था जैसे कोई सरभंग होता है! धूसर रंग की राख लपेटी थी उसने! सफेद रंग की रेखाओं से उसने अपना श्रृंगार किया था! वो सम्भवतः, कपाल छील रहा होगा, उसका मांस, ताकि कपाल मिल सके! ऐसा मैंने इसलिए कहा क्योंकि उस सर का बायां भाग, त्वचारहित था, केश लिए उस कपाल की त्वचा, कपड़े की तरफ से उसके हाथ पर झूल रही थी! अब मामला क्या था ये तो वो ही जाने, जो मेरा अनुमान था, वो बता दिया था! अक्सर, कपाल को प्राप्त करने के लिए, कटे हुए सर को, नदी किनारे, अस्सी से सौ दिनों तक गाड़ दिया जाता है, इस प्रकार, मांस गल-सड़ जाता है, और उसे निकाल कर, रेत से धोया जाता है, तब कपाल प्राप्त हो जाता है, कुछ स्थानों में, खासतौर पर बिहार और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में, कटे सर को उबाल कर, फिर उसको छील कर, प्राप्त करते हैं, ये रंग में सफेद होता है एकदम! और नेपाल में, तेज़ाब के ड्रम में डालकर, साफ़ करते हैं! कुछ भी हो, ये काला-धंधा है और, गैर-कानूनी भी है, लेकिन ऐसा धंधा, शुरू से ही प्रचलन में रहा है, करने वाले भी हैं और खरीदने वाले भी! बाल-कपाल से लेकर, वृद्ध-कपाल तक उपलब्ध रहा करते हैं! नपुंसक-कपाल, लाख से लेकर, लाखों तक बिकता है!
"कौन है तू?" बोला वो,
"तू कौन?" पूछा मैंने,
"कैसे दुःसाहस?" बोला वो,
"कौन है तू?" पूछा मैंने,
"तू कौन?" पूछा उसने,
"तू कौन?" पूछा मैंने,
"उद्देश्य बता?" बोला वो,
"बाबा चूड़ामण!" कहा मैंने,
वो फट कर हंसा!
"मांगल ने भेज?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"स्वयं आया!" कहा मैंने,
"धन?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोला वो,
"तू कौन?" पूछा मैंने,
"हरपाल!" बोला वो,
"कौन हरपाल?" पूछा मैंने,
"मालिक!" कहा उसने,
"किसका मालिक?" पूछा मैंने,
"इसका!" बोला वो,
और उसने क्त सर आगे बढ़ाया! मैंने देखा उस कपाल को! ये कौन था पता नहीं चल रहा था, बस खून ही खून था उस सर पर!
"ले? चल?" बोला वो,
और वो कपाल फेंक दिया सामने हमारे!
"ले जा!" बोला वो,
"ये कौन?" पूछा मैंने,
"पूठी!" बोला वो,
पूठी? यही बोला था उसने! पूठी मायने, गद्दार! तो वो सर किसी गद्दार का था, पकड़ा गया और सर काट डाला या उसका! तब मैं आगे बढ़ा, और एक लात दी उस सर को! सर गायब! और सर के साथ साथ, वो भी गायब! और वो सारी लौ भी गायब!
"कौन था?" पूछा उसने,
"कोई हरपाल था!" कहा मैंने,
"कुछ बताया?" बोले वो,
"नहीं, किसी पूठी को सजा दी!" कहा मैंने,
"पूठी?" बोले वो,
"गद्दार!" कहा मैंने,
"अच्छा, अब खुलासा होने लगा है!" बोले वो,
मैंने मांस का टुकड़ा लिया, उसको अलख में झोंक दिया! फिर एक गिलास मदिरा डलवाई, पी फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"प्रसाद लो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोले वो,
उन्होंने भी, अपना मिदरा का गिलास भरा और एक बार में ही कंठ के नीचे उतर लिया!
उठाया चिमटा मैंने, उनके सर से, दो बार छुआया! एक मंत्र पढ़ा, और एक टुकड़ा उठाया, अलख पर सेंका, आधा खुद खाया और आधा उनको खिलाया! उन्होंने भी खा लिया!
"भोग बनै मिस्ठान, जो चढ़ै तेरो थाल! पेड़ चढ़ै कलंकनी, खूब बजावै गाल!................................!" और पढ़ दिया एक तीक्ष्ण मंत्र!
उठाई भस्म, और ली एक लकड़ी! मारी सामने फेंक कर! अंगार उठे, चटाचट सी हुई! मंत्र फूटा! और मची खलबली! ठीक हमारे सामने, आ प्रकट हुए वो साधू! खींच लाया था मंत्र उन्हें! ये सब, बड़े ही भयानक, रौद्र रूप में! जल्लाद से थे! सभी हाथों में फरसा लिए हुए! गले में न जाने कितने रुद्राक्ष-माल धारण किये हुए! सभी के केश खुले हुए थे! यही थे वो, जिनके बारे में, अनिल जी ने बताया था! यही सभी थे जिन्होंने धमकाया था उन सभी को, और सम्भवतः यही थे वो, जिन्होंने, यहां आये लोगों की हत्या की थी! ये सभी महाकापालिक से थे! जब जीवित होंगे, तो इनके सम्मुख कोई आता भी न होगा! ऐसे भयंकर साधू थे वो! एक बार को तो मुझे लगा कि मैं न जाने कहाँ आ गया और कैसे निबटूंगा इनसे! परन्तु, गुरु-आशीष संग हो, वर-दहस्त हो उनका, तब क्या भय और क्या दो विचार! मैं खड़ा हो गया उसी क्षण! सभी को देखा, सभी भयानक से क्रोध में थे! कद-काठी बड़ी विशाल! सभी के सभी महारथी से!
"कौन है तू?" गरजा एक!
"साधक!" कहा मैंने,
"क्या उद्देश्य है?" पूछा एक ने,
"मिलना!" कहा मैंने,
"किस से?" पूछा एक ने,
"बाबा चूड़ामण से!" कहा मैनें,
अब सभी को जैसे आवेश चढ़ा! वे नहीं हंसे! बल्कि उनके चेहरे और सख्त हो गए!
"जानता है ये हमारा स्थान है?" बोला एक,
"हाँ!" कहा मैंने!
"किसका?" पूछा एक ने,
"बाबा का!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला एक,
"फिर?" मैंने अचरज से पूछा!
"जा! लौट जा!" बोले सभी!
"नहीं लौट सकता अब!" कहा मैंने,
"कारण?" बोला एक,
"बता ही दिया!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला एक,
"क्या नहीं?" पूछा मैंने,
"सम्भव नहीं!" कहा एक ने!
''कब तक?" पूछा मैंने,
"अनन्त तक!" बोले सभी!
"सम्भव ही नहीं!" कहा मैंने,
"हम्म! तू कौन?" पूछा सभी ने,
"साधक!" कहा मैंने,
"इसीलिए प्राण दान देता हूँ!" बोला एक,
"तू?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"प्राण दान?" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने!
"लौट जा! अभी!" बोला एक,
"नहीं तो?" पूछा मैंने,
"यहीं मारा जाएगा!" बोला एक,
"कौन मारेगा?'' पूछा मैंने,
"हम!" बोले सभी!
"सम्भव ही नहीं!" कहा मैंने,
वे सब, मेरा ये उत्तर सुन, हंस पड़े! एक साथ!
"जा! कच्चा है! जा!" बोला एक,
"नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने,
"हठ न कर?" बोला एक,
"हठ है तो है!" बोला मैं,
"तुझे परिणाम नहीं पता?" बोला एक,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मृत्यु सम्मुख है!" बोला वो,
"तुम कारण नहीं उसका!" कहा मैंने,
"हम ही हैं!" बोला वो,
"नहीं मानता!" कहा मैंने,
"इतना हठ?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कुछ मांग, और जा!" कहा उसने,
"नहीं चाहिए!" बोला मैं,
"धन है यहां, जितना चाहे ले ले!" बोला वो,
"नहीं चाहिए!" कहा मैंने,
"देख!" बोला वो,
और चारों तरफ, भूमि में स्वर्ण ही स्वर्ण! हर तरफ! चारों तरफ! चमकता हुआ धन! चाहता तो ले लेता, लौट आता! परन्तु, मारा ही जाता! धन, फिर से वापिस हो जाता!
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला एक,
''आवश्यकता ही नहीं!" बोला मैं,
"धन की आवश्यकता किसे नहीं, ओ साधक?" बोला हँसते हुए!
"मुझे नहीं!" कहा मैंने,
"है!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"छिपा नहीं सकता!" बोला वो,
"नहीं छिपाया!" कहा मैंने,
"छिपाया तो है!" बोला वो,
"हाँ! ये, ये लो!" कहा मैंने,
और वे दोनों सिक्के, फेंक दिए उनकी तरफ! गिरते ही सिक्के, भूमि में समा गए! ले जाने के बाद भी तो यही होता!
"नहीं?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पुनः सोच?" अब गुस्से से बोला वो!
"नहीं!" कहा मैंने,
"मूर्ख है तू!" बोला वो,
"हाँ, हूँ!" कहा मैंने,
"कोई ग्लानि नहीं?" बोला वो,
"किस बात की?" पूछा मैंने,
"मूर्ख सुनकर!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
अब वे सब, फिर से हंस पड़े!
अब तक, मैं ये समझ चुका था, कि अब मेरा अहित नहीं होगा! होना होता, तो इतने सवाल-जवाब होते ही नहीं! वे छका रहे थे मुझे! भय दिखा रहे थे मुझे! कि मैं लौट जाऊं!
"तब जीवित न लौटेगा!" बोला एक आगे आते हुए!
"अच्छा? जीवित नहीं लौटूंगा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले  सभी!
"मैं तैयार हूँ!" कहा मैंने,
अब सभी ने देखा एक दूसरे को! गंभीर हो गए! एक आया आगे, और कुछ फेंका मेरी तरफ, मैंने जो देखा......................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस साधू ने कुछ फेंका था, ये मेरे उस चौखण्डे में आ गिरा था, जिसके अंदर मैं और शहरयार साहब थे! जैसे ही वो गिरा, मैंने देखा उसको, ये दिखने में कोई अंगूठी जैसा था, मैंने उठा लिया उसे, मुझे कुछ समझ नहीं आया और मैंने वो उठाकर, वापिस उन्हीं की तरफ फेंक दिया! जैसे ही वो गिरा उधर, कि वे सब पीछे हटे! और सभी के सभी लोप हो गए! वे सभी लोप हुए तो वो जो अंगूठी सी थी, वो भी ज़मीन में घुस गई! न मुझे समझ ही आया न उन्होंने समझाया, न मैंने समझने की कोशिश ही की कि आखिर वो हे क्या! किसलिए फेंका था मेरे सामने!
"ये क्या हुआ?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"वे आये, और चले गए? अब कोई नहीं वहां?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, कोई नहीं!" कहा मैंने,
तभी सामने के पेड़ों में हलचल सी हुई! कोई दौड़ा आ रहा था! जैसे भागता हुआ यहीं चला आ रहा हो!
"सम्भल कर!" कहा मैंने,
और उन पेड़ों के बीच से जो आया, वो भी कम हैरत से भरा नहीं था! ये एक औरत थी! लम्बी-चौड़ी! ऊँची, कम से कम, साढ़े छह फ़ीट की एक भारी-भरकम औरत! जिस्मानी तौर पर, पहलवान सी लगती थी वो! पूर्णतया नग्न ही थी, उसके उदर की पेशियाँ कसी हुईं थीं! कमर में, अस्थि-माल धारण किये हुए थे, पूरा का पूरा बदन, पीले रंग में रचा रखा था! सच कहूं तो मुझे एक बार में ही गिरेबां से पकड़, नीचे पटकने का दम रखती थी वो! चेहरा ऐसा चौड़ा कि देखते ही आदमी दो बार सोचे, पुनः देखने के लिए उसे! कानों में अनगिनत से कुंडल धारण किये हुए थे, कान भी लटक कर, नीचे झूल गए थे, उन कुण्डलों के कारण! नाभि पर, एक रस्सा सा लपेटा था, अब पता नहीं वो था क्या! दोनों ही हाथ खाली थे उसके! हाँ, हाथ बड़े ही मज़बूत से थे! एक घूंसा उसका, मेरे दो के बराबर ही आता! चेहरा ऐसा क्रूरतम बना रखा था कि कोई देख लो तो प्यासा ही मर जाए, क्योंकि हलक तो अंदर लेने वाला नहीं फिर जल!
"किसलिए आया?" पूछा उसने गुस्से से!
आँखें ऐसी गोल, कि जैसे मैंने सामने किसी हाड़ी(जंगल की देवी या फिर कोई चुड़ैल) को देख रहा होऊं!
"उन्होंने नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"भेजा मुझे!" बोली वो,
"खुद नहीं आये?" बोला मैं,
"किसलिए आया?" बोली वो,
"उन्होंने नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"तुझे कोई भय नहीं?" बोली वो,
"कहूं कि नहीं, तो?" कहा मैंने,
"तब जान लेगा!" बोली वो,
"तब कौन जनवाएगा? वे? सभी के सभी? वे कायर? मुंह छिपा कर भाग गए और एक औरत को भेज दिया?" कहा मैंने,
अब प्रेतों से ऐसे ही बात की जाती हे, या तो वो भय खाएं या फिर वो आपको ही हटा दें!
"मुझे नहीं जानता?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"जानेगा?" बोली वो,
अब उठा लिया त्रिशूल मैंने! पढ़ा एक जमकार मंत्र! त्रिशूल में, कुंडक-वाहिनि का संचार हो गया और वो! अपलक देखती रही मुझे जैसे!
"सीधीया है?" बोली वो,
"क्या लगता है?" पूछा मैंने,
"मृत्यु!" बोली वो,
"तू तो पा चुकी!" कहा मैंने,
""कांख बांधूगी!" बोली वो,
"मुझे मार कर?" पूछा मैंने,
"इच्छा!" बोली वो,
"लौट जा! जा!" कहा मैंने,
"लैहना को चेतानी बोली वो,
"चेतावनी!" कहा मैंने,
"तेरी ये हिम्मत?" बोली वो,
और उछल पड़ी! मैं आगे गया और वो, झम्म से लोप हुई! आसपास खंगाला मैंने उसे! कहीं कोई नहीं! और तभी, पेड़ से कूदी वो! मेरे पीछे! मैं घूम गया और किया त्रिशूल का फाल आगे! वो टकराई या नहीं, पता नहीं! लेकिन मेरा त्रिशूल घूम गया था पूरा का पूरा! वो कहीं नहीं थी वहां! न उधर नीचे, न ऊपर पेड़ पर!
"लैहना?" चिल्लाया मैं!
खूब ढूंढा मैंने उसे! कहीं नहीं थो वो!
"है हिम्मत तो सामने आ?" कहा मैंने,
"आई लैहना!" बोली वो,
और हो गई प्रकट! ठीक मेरे बाएं ही! हम दोनों ही रुक गए थे! मेरी कुंडक-वाहिनि संचारित थी, डर काहे का!
"लैहना!" चीखा मैं,
"मांगल? मांगल?" चिल्लाई वो!! ज़ोर ज़ोर से!
और बैठ गई भूमि पर! मैं रुक गया! एक स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकता था, ये तंत्र में प्रतिबंधित हैं, चाहे मूर्त रूप में, या इस प्रकार प्रेत-योनि में, नहीं स्त्री पर हाथ नहीं उठाया जा सकता! हाँ, प्रेत-योनि में हो, तो पीड़ित किया जा सकता है, कुछ समयावधि हेतु, क़ैद भी किया जा सकता है परन्तु, उसको, पीटा नहीं जाता कभी!
"मांगल? मांगल?" चिल्लाई वो!
और अपना सर नीचे किये ज़ोर ज़ोर से हिलाने लगी, कभी मुझे देखती, कभी ज़मीन से सट जाती! बस चिल्लाए ही जाए!
"लैहना?" कहा मैंने,
"मांगल?" बोली वो,
"लैहना?" बोला मैं,
"मांगल!" चीखी वो!
"मांगल, नैरा गई!" चिल्लाई वो!
मुझे कुछ समझ नहीं आया! कुछ भी!
"लैहना! जा! भेज उन्हें!" बोला मैं,
और वो, हंस पड़ी! तेज तेज! आसमान सा उठा लिया उसने तो हंस हंस कर! वो झट से खड़ी हुई! और पीछे चली, मुझे देखते ही!
"जा! तरस आ गया तुझ पर!" कहा मैंने,
और जैसे ही कह मैंने ये! वो फिर से ज़मीन पर बैठ गई! फिर से रोने लगी!
"मांगल?" मांगल?" चिल्लाई वो!
मैं लपक कर दौड़ आया अपनी जगह! शहरयार तो उसे देख नहीं पा रहे थे! मेरी भाव-भंगिमा  देख ही, आंकलन लगा रहे थे! जब मैं आया तो वे अडिग से, साहसी से, हिम्मत वाले हुए खड़े थे!
वो औरत फिर से बैठ गई! हंसने लगी फिर से! फिर से कानों में हंसने के स्वर गूंजने लगे!
"मांगल! आवेगा!" बोली वो,
और लगाया एक जमकर ठहाका सा!
"मांगल आवेगा!" गीत सा गाने लगी वो!
"मांगल, नैरा!" बोली वो,
और फिर से हंसने लगी! ज़मीन पर लोटने लगी! अपने दोनों हाथ, बजाने लगी ज़मीन पर!
"मांगल आवेगा!" हंस हंस के बोले वो,
और मैं, उसे देखता ही रहा, कोई भरोसा नहीं, कब उठे और कूद पड़े ऊपर ही! दबोच ले गला और हो जाए कोई बड़ी ही मुसीबत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अचानक  ही, वो उठ बैठी! बैठी तो घुटनों पर! साक्षात यम-प्रकालिका सी प्रतीत होती थी वो! वो अब गुस्से से देख रही थी मुझे! ये तो स्वाभाविक ही था! वो जो भी रही हो, उसका दम्भ तो होगा ही उसमे! यदि ये महातांत्रिक-स्थल था तो अवश्य ही उसकी भूमिका रही होगी! वो भी एक सदस्या ही रो होगी, इसमें कुछ भी अप्रासांगिक क्या? कुछ भी नहीं! हाँ बस इतना कि वे सभी क्यों अटके थे? क्या करण था? यहॉ कारण जानने के लिए तो मैं वहां अडिग खड़ा था! अब हो चाहे कुछ ही, मन की प्यास बुझनी चाहिए, ये नहीं बुझी तो कुछ नहीं जला! और यदि मानव-देह, मूल विचार, उसका अंतः, उसका चित्त भीं जला तो ऐसे मानव होने का लाभ ही क्या! ऐसे तो न जाने कितने ही जन्म लेते हैं, लिया भी, रहे भी, रहेंगे भी, होंगे भी और हैं भी! यूँ ही आये थे, और यूँ ही चले जाएंगे! और फिर, आत्म-संतुष्टि! किस बात की साहब? क्या कर लिया अपने ऐसा? अरे संतुष्टि किसलिए? बस ये, कि ये सीढ़ी ही चढ़ जाऊं और उचक के देखूं दुनिया का मेला! देखो जी देखो! मांगों सीढ़ी किसी की, फिर मांगों छत किसी की, और खूब देखो जी मेला! क्यों न अब सीढ़ी ही अपनी हो और छत भी अपनी, तो फिर मेला  देखने की बात ही कहाँ रही! क्या हम उस मेले से अलग है? बस, उपस्थित ही तो नहीं हैं उस दृश्य में? और क्या विशेषता है जी? तो हो जाओ, यहीं आत्म-संतुष्ट! बस जी, इतना था, इतना कर लिया! और लगाओ थाली जगत-पाल को! के तेरा धन्यवाद कि तूने इस धरा पर भेजा हमें! भेज तो दिया, लेकिन बताया कुछ नहीं! बता भी देते तो कौन सा हम चलने ही वाले थे उस पर! और अगर चल पड़ते, तो कौन सा 'कु' और 'क' रह जाता! नाश हो जाता! तो साहब, मेरा खेत है, अब भले ही छोटा है, खुद का दाना रोपता हूँ, सींचता हूँ, पालता हूँ और वही खाता भी हूँ! मुझे क्या चिंता! मेरे खेत का कोई चोर नहीं! कोई पशु नहीं ऐसा जो उसको बिगाड़ सके! हाँ, वो मैं स्वयं ही हूँ, चाहूँ तो आग लगा दूँ और नाचूं खूब! कैसे? अरे! क्या आज ऐसा किसान हर  मनुष्य नहीं क्या? खुद के खेत में ही आग लगता है और दूसरे के खेत को देख, जी ललचाता है उसका! अब कौन मारे हाथ पाँव! कौन अपनी मेहनत के बैल उस, विश्वास के हल में जोते! कौन! तो साहब! है न अपने पास एक तरीका! थाली! कन्द-फूल, धूप-दीप, भजन-गान! अर्थात, मैंने अपना खेत जला दिया! तूने जो बीज दिए थे, वो ही रोप, देर लग रही थी, पड़ोसी का खेत तो, खूब लहलहा रहा था! क्या करूं! अब तू ही समझता है मुझे! तो ले! ले ये लड्डू! पेड़े! चांदी का वर्क़ लगे! चांदी, मेरा लालच! क्या करूँ! लालची तो हूँ ही!
लेकिन! नहीं सिखाता कोई भी गुरु ऐसा! वो तो निचोड़ देता है! जाड़े में फूस देता है और गर्मी में खौलता जल! मुझे भी दिया, मैं कौन सा साठ मार खाँ!
अब यहां, यहां तो चिल्लाए जाए! बुलाये जाए उस मांगल को! हमने तो खूब खाक छनि थी यहां की, कोई मांगल नज़र नहीं आया! पता नहीं था भी या नहीं! कहीं उसी के बनाए अँधेरे में न जी रहे हों ये सभी प्रेत!
"मांगल आवेगा!" बोली वो,
खड़ी हुई और फिर से रोने लगी!
"मांगल? आवेगा!" बोली वो,
फिर, एकदम शांत! सर नीचे किये, एकदम शांत! घोर सा सन्नाटा! मेरी अलख की लपटें उस से छन कर, पेड़, पौधों और झाड़ियों पर पड़ने लगी थीं! प्रेतों पर, छाया का प्रभाव नहीं होता, न उजाले का ही, न अँधेरे का ही! पास होते भी पास नहीं और दूर रहते भी दूर नहीं! ये है प्रेत-मंडल! प्रेत-कणवता!
"हय्योप! हय्योप!" आई एक जानी पहचानी सी आवाज़! मैंने बाएं देखा, तभी के तभी!
"मांगल! चालै! मांगल चालै! हय्योप! हय्योप!" बोलता आ रहा था वो भीमकाय सा प्रेत! इस बार, एक रस्सी थामे, और रस्सी से कुछ बंधा था, शायद उसको खचेडते हुए! धीरे धीरे आता चला जा रहा था वो करीब हमारे!
"मांगल! चालै! चालै!" बोला वो,
और ठीक हमारे सामने आकर रुक गया! अब देखा मैंने उसकी देह! पत्थर से टकरा जाए तो सच में पत्थर फोड़ दे! ऐसी वराह जैसी गोल सी, और मज़बूत सी पसलियां उसकी! तभी उसने, सामने की वो रस्सी, खींच कर हमारे! मैंने देखा अब कि क्या बंधा है उसमे! और जो देखा, तो जीभ बाहर आ जाए किसी की भी बाहर! हलक ही साठ छोड़ दे गले का! जीभ जो बाहर आये, तो कभी अंदर ही न जाए! सूज अलग ही जाए!
उस रस्सी में, कम से कम बीस सर बंधे थे! सभी के सभी साधक हों जैसे, सभी के माथे पर तिलक लगे थे! चौड़े चौड़े से सर थे! हर एक के मुंह में से सुआं घुसेड़ कर, खोपड़ी से पार करते हुए, एक बड़ी सी माला को, ऐसी बना ली गई थी! ये, उसी को खींचते हुए ला रहा था! क्या कलेजा चाहिए! क्या जिगरा चाहिए! क्या जीवट चाहिए ऐसा करने में! एक हाथ से खींच रहा था वो सब, मिट्टी में रगड़ रहे थे वे सभी सर! सभी की जीभ बाहर खींच दी गई थी, लगता था कि जैसे महादण्ड दिया गया हो उन्हें! बीस सर, कम से कम, यानि, कि सौ या एक सौ दस किलो भार, रस्सी में बांधे हुए, वो खींचता ला रहा था!
"मांगल!" बोला वो,
"कौन मांगल?" पूछा मैंने,
"चालै!" बोला वो,
"हाँ! चालै!" कहा मैंने,
"मांगल चालै!" बोला वो,
"मांगल चालै!" बोला मैं!
वो गरजते हुए हंसा! सर खींच कर आगे किये, और एक सर पर पाँव रख लिया उसने! जबड़ा  भिंच गया उसका!
"मांगल चालै!" बोलते हुए, एक दमदार सी ठोकर ठोकर दी उस सर को! सर हवा में उछला, रस्सी से बंधा था, नहीं तो पता नहीं कहाँ जाकर गिरता वो! अब एक बात साफ़ हुई, जिनके वे सर ला रहा था, बाँध कर, वे अवश्य ही शत्रु रहे होंगे!
"मांगल आवेगा!" बोली वो औरत,
लेकिन उस आदमी ने उसे नहीं देखा, एक नज़र भी! 
"हय्योप!" बोला वो,
"हय्योप!" कहा मैंने,
"चालै! चालै!" बोला वो,
"मांगल चालै!" बोला मैं,
और तभी, जल के से छींटे पड़े! उसने, मैंने उस औरत ने, सभी ने ऊपर देखा! था तो कोई नहीं, हाँ, वे दोनों देखते ही रहे ऊपर!
"चालै! हय्योप!" बोला वो ऊपर देखते हुए!
"आवेगा! मांगल आवेगा!" बोली वो,
"सुनो?" कहा मैंने उस भीमकाय से!
उसने बड़ी ही अजीब सी निगाह से मुझे देखा! ऐसे किसी को वो सच में देख लेता तो पेट में मरोड़ सी उठ जातीं!
"ये मांगल कौन?" पूछा मैंने,
"चालै " बोला वो, इस बार सवाल सा किया उसने! और वो औरत, बार बार ऊपर देखते हुए, बोले जाए, बोले ही जाए!
"हाँ! चालै!" कहा मैंने,
"चालै? मांगल?" पूछा उसने जैसे,
"हाँ, चालै मांगल!" बोला मैं,
उसने रस्सी छोड़ दी नीचे! थोड़ा मेरा करीब आया, बैठा, और अपनी एक भुजा, पूरी ज़मीन में घुसेड़ दी!
"मांगल चालै!" बोला वो,
और हाथ किया बाहर उसने, उसकी मुट्ठी में कुछ था, उसने फेंका मेरी तरफ, मेरी नज़र गई उस पर! ये सिक्के थे, वही, वैसे ही, सोने की गिन्नियां!
"मांगल! ढापै?" बोला वो,
"चालै!" बोला मैं,
"ढापै?" पूछा उसने,
ढापै? इसका क्या मतलब हुआ?
"हाँ! ढापै!" बोला मैं,
"चालै मांगल!" बोला और हंस पड़ा! खिलखिलाकर हँसता रहा! हमें देखता और हंस पड़ता! बार बार!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चालै! मांगल चालै!" बोला वो फिर से!
इस भीमकाय के बारे में मैं क्या कहूं भला! उसका व्यवहार आक्रामक नहीं था, लेकिन सहायक भी नहीं था! वो जो बोल रहा था, उसका मतलब, बस वो ही जाने!  कौन मांगल और कौन चालै! मुझे सिक्के भी दिए उसने फिर अजीब सा बोला वो! क्या कहना चाहता था ये तो बस वो ही जाने!
"ढापै! मांगल ढापै!" बोला वो,
"ढापै!" कहा मैंने,
"मांगल चालै!" बोला वो,
"चालै! मांगल चालै!" बोला मैं,
और तभी, उसने मुझे इशारा किया! इशारा कि मैं उसके पास चला जाऊं! उसने, मासूमियत भरे लहजे में, इशारा किया था! वो प्रेत था, लेकिन आक्रामक नहीं था, और फिर, जोखिम तो लेना ही पड़ता है! जोखिम न हो और मक्खन ही मक्खन हो, तो जी या तो ये स्वप्न हुआ या फिर आप उस परमात्मा के संबंधी! आखिर लिया मैंने जोखिम, और चला उसकी तरफ! जैसे ही चला, उसने हाथ आगे बढ़ाया अपना, जैसे, मुझे पकड़ना चाहता हो वो! खैर, मैं, मंत्रों में बंधा था, इसीलिए भय कैसा!
तभी मेरी नज़र उधर पड़ी जहां वो औरत खड़ी थी! कमाल था, वो अब गायब हो गई थी! अब नहीं थी वो वहां!
"मांगल!" बोला वो,
और मेरे करीब आ गया! ओहो! मैं तो जैसे किसी चट्टान के नीचे खड़ा हो गया था, वो मुझे सर झुकाकर देख रहा था, पीली, भयानक सी आँखें थीं उसकी, कानों में, लोहे जैसे काले कुंडल पहने था!
"मांगल!" बोला वो,
और इशारा किया उसने एक जगह के लिए! ये जगह, उन कमरों के पीछे थी कहीं! उसने कहा था कि मांगल है वहाँ! अब वैसे, ये मांगल था कौन?
"कौन मांगल?" पूछा मैंने,
उसने अपनी तर्जनी ऊँगली से, चारों तरफ दिखा दिया मुझे कि यहां, हर तरफ! हर तरफ! इसका क्या मतलब? बस एक, कि ये स्थान मांगल का है! लेकिन फिर से वही सवाल, ये मांगल है कौन?
"कौन है मांगल?" पूछा मैंने,
"चालै!" बोला वो, हाथ के इशारे से, कि गया वो!
"मांगल गया?'' पूछा मैंने,
उसने हाँ में सर हिलाया! अब आया कुछ समझ! यहां जो भी, ये, मांगल था, वो चला गया! चालै का मतलब शायद यही हो?
"कहाँ गया?" पूछा मैंने,
"म....म.......आ...र...चालै!" बोला वो,
म+आ+र? ये क्या हुआ? इसका क्या मतलब निकला?
"मांगल, हिरै!" बोला वो,
"हिरै?" पूछा मैंने,
हाँ में सर हिलाया उसने!
"मांगल, चालै! हिरै!" बोला वो,
मुझे लगता था कि शायद ये मंद-बुद्धि रहा हो, या इस से कुछ बोला न जाता होगा! ये ऐसे ही चाकरी किया करता होगा!
"सुनो?" बोला मैं,
"ढा..........." बोलते बोलते रुका वो!
"ढापै?" बोला मैं,
"मांगल चालै! चालै!" बोला वो,
"समझ गया, मांगल, गया!" कहा मैंने,
"हिरै!" बोला वो,
अब इस हिरै का अर्थ क्या था, ये नहीं आया समझ! आया समझ तो ये, कि ये प्रेत बेहद ही सीधा सा, मदद करने वाला, और न जाने कौन सी गलती की सजा भोग रहा था!
"आरै, मांगल..आरै! आरै!" बोला वो,
अब आया कुछ कुछ समझ मुझे! आरै का मतलब, आ रहा है! और हिरै मायने शायद, मांगल, यहां, या कुछ ऐसा ही! लेकिन एक और बवाल! चालै और आरै? इनका मतलब? अगर आ रहा है...ओहो! समझा! मांगल गया है और मांगल आ रहा है! अब गया क्यों?
"मांगल! मांगल!" बोला वो,
और उसने मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की! मैंने कोई विरोध नहीं किया, तो उसने मुझे मेरी भुजा से पकड़ लिया! गिरफ्त थी या शिकंजा! भुजा से ही उठा देता मुझे तो! तो भुजा पकड़, ले चला एक तरफ! मैं भी चल पड़ा, वो ले आया मुझे, उन्ही कमरों के पीछे! और एक जगह, पाँव मारा उसने!
"मांगल चालै!" बोला मुझे देखते हुए!
अबकी बार, कुछ न कहा मैंने! वो शायद कुछ बताना चाह रहा था मुझे!
"हिरै!" बोला वो, और मारा पाँव!
"मांगल कौन है?" पूछा मैंने,
"मांगल!" बोला वो,
"हाँ, मांगल!" बोला मैं,
"मांगल?" बोला वो,
"हाँ, बताओ?" कहा मैंने,
"मांगल? चनामण!" बोला वो, और उसने हाथ जोड़े!
अब आया समझ! यहां दो हैं मुख्य! एक बाबा चनामण और एक मांगल! अब ये बार बार मांगल कहता था, वो औरत, मांगल आएगा, ऐसा कहती थी! इसका मतलब, मांगल ही मुख्य रहा होगा!
और फिर ले चला मुझे एक तरफ! अब मैं चलता ही रहा उसके साथ! जो जानने को मिल रहा था, वो कम नहीं था, ये तो शायद ही मुझे कोई बताता! वो ले चला और एक जगह उतरने के लिए वो झुका!
"मांगल!" बोला वो, इशारा करते हुए!
"मांगल चालै!" बोला मैं,
"हय्योप! हय्योप!" बोला वो, और झम्म से लोप!
मैंने कुछ सोचा, और फिर दौड़ा! आ गया था मुझे कुछ समझ! यहां तो बहुत कुछ था रहस्य भरा! मैं दौड़ा और सीधा उनके पास चला आया!
"कहाँ गए थे आप?" पूछा उन्होंने,
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आओ मेरे साथ!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"बोलो मत? कोई सवाल नहीं!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो, और आ गए साथ मेरे!
"वो फावड़ा कहाँ है?" पूछा मैंने,
"पीछे रखा है!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"फावड़ा लेने?" बोले वो,
"हाँ, जल्दी!" कहा मैंने,
"अभी बस, आप रुकिए, लाया मैं!" बोले वो,
"जल्दी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोलते हुए, दौड़े चले गए वो!
मैंने आसपास निगाह भरी! ये स्थान तो वो नहीं था जैसा मैंने कयास लगाया था! यहां अवश्य ही कोई रहस्य है! एक रहस्य जिसने अभी तक अपने आपको नहीं खोला है! बस, मुझे इसी की जल्दी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो दौड़ते हुए चले गए थे! और वे दौड़ते हुए आये! फावड़ा भी ले आये थे और पानी की एक बोतल भी! पानी मुझे पकड़ा दिया था उन्होंने, ये रात का समय था और रात में प्रेतों की सक्रियता दिन की अपेक्षा अधिक हो जाया करती है, कारण है उनकी नैसर्गिकता में आये बदलाव, दिन में प्रकाश के कारण उनके तत्व में कुछ कमी हुआ करती है, जिसे हम मसनुष्य थकान के रूप में ले सकते हैं, समझ सकते हैं, बोझिलपन सा!
"टोर्च?" कहा मैंने,
"ओहो! अभी लाया!" बोले वो,
और दौड़ते हुए फिर से चले गए! इस मामले में बेहद कुशल हैं शहरयार साहब! दिल से नेक और देह से कठोर! कठोर, कठोर लोगों के लिए!
"ये, ले आया!" बोले वो,
"हाँ, ठीक! आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और मैं तेजी से चलता हुआ, उन्हीं कमरों के पीछे चला आया, वहीँ, जहां उस चाकर से प्रेत ने, पाँव मारा था!
"सुनिए?'' कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये! यहां खोदिए!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
और उन्होंने पहले मोटी-मोटी मिट्टी हटाई, और फिर हो गए शुरू! ज़ोर ज़ोर से फावड़ा चलाने लगे वो! और इस तरह, करीब दस मिनट बीत गए! जैसे ही फावड़ा चलाने वाले थे कि फावड़ा उनका टकराया किसी ठोस सी धातु से! वे झटका खा, रुक गए!
"क्या है?'' पूछा मैंने,
"देखता हूँ!" बोले वो,
मुझसे टोर्च ली और डाली रौशनी उधर! जैसे ही रौशनी टकराई नीचे उस धातु से, तो ये एक कलश था! ये बड़ा था काफी! कम से कम पांच लीटर जल तो आ ही जाता इसमें!
"कलश सा है!" बोले वो,
"इसके निकालो!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
मेरा दिल ज़ोर ज़ोर से धड़क रहा था! क्या होगा इसमें! क्यों लाया था वो मुझे यहां, और ये मांगल आखिर है कौन, अब कुछ पता चल सकता था! पता नहीं, कहीं और कोई जटिल सा रहस्य न गले पड़ जाये! कुछ भी सम्भव था!
"बस, निकलने वाला है!" बोले वो,
"लाओ! लाओ!" मैंने व्यग्रता से कहा!
"ये लो! भारी है! सम्भाल कर!" बोले वो,
"लाओ!" कहा मैंने और वो कलश पकड़ लिया!
''आओ!" कहा मैंने,
"आया!" बोले वो,
और हम उस कलश को ले गए उजाले में, उस अलख के पास, अलख में ईंधन झोंका और जीवित रखा उसे! इस कलश का मुंह बड़ा था काफी, दोनों हाथ भी चले जाते अंदर! मैंने उस कलश को ध्यान से देखा, ये अवश्य ही पीतल का बना था, उसकी चमक अभी भी बरकरार थी, क्या खूब धातु थी और क्या खूब उसकी कलाकारी!
"सुनो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
"इसे खोलो!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और चाक़ू लिया, उसके मुंह पर, जगह देखी, एक जगह, रस्सी सी बंधी थी!
"ये देखिये, रस्सी ही है न? वैसी ही लग रही है!" बोले वो,
"लाओ?" कहा मैंने,
"हाँ, रस्सी ही है!" बोला मैं,
"काट दूँ?" बोले वो,
"और कोई तरीका नहीं!" कहा मैंने,
"जी, अभी लो!" बोले वो,
और वो रस्सी काटने लगे, रस्सी थी या लोहे की तारें! बड़ी ही मज़बूत! मेहनत लगी उसे काटने में!
"ये लो! देखिये, अब ये क्या है? कपड़ा है, जो सख्त हो गया है?" बोले वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
और मैंने देखा उसे, वो कपड़ा नहीं था, चमड़ा था, शायद, ऊंट का या भेड़ का, ऐसे बंधा था कि उसमे से ही रस्सी बना कर, उस कलश का मुंह बंद कर दिया गया था! ये भी कुशल कारीगरी सी दिखती थी!
"फाड़ दूँ इसे?" बोले वो,
"हाँ, फाड़ दो इसको, हटा दो!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और उन्होंने मारा खंजर, दबाकर मुंह के बीच! उछल कर आया खंजर! निशान ही पड़ा, आरपार न हुआ! बड़ी कोशिश की उन्होंने!
"इसे काटो, यहां से!" कहा मैंने,
"क्या बाँधा है ये?" बोले वो,
"पानी भी न घुसे!" कहा मैंने,
"सच में! काट रहा हूँ!" बोले वो,
और काटना कर दिया शुरू, वो चमड़ा हटने लगा, और दो मिनट में पूरी तरह से हट गया वो चमड़ा!
"लाओ, दिखाओ मुझे!" कहा मैंने,
"लीजिए!" बोले वो,
अब मैंने देखा उसके अंदर! अंदर कुछ था! 
"निकालना इसे बाहर?" बोला मैं,
"हाँ, अभी!" बोले वो,
और उन्होंने निकाला कुछ बाहर!
"ये क्या? पोटली?" बोले वो,
"हाँ, और देखो?" कहा मैंने,
उन्होंने फिर से हाथ डाला और फिर से एक और पोटली निकली! कुल दो पोटलियां!
"पोटलियां हैं!" बोले वो,
"हाँ, इन्हीं में है कोई रहस्य बंधा हुआ!" कहा मैंने,
"खोलिए?" बोले वो,
"हाँ, हूँ!" कहा मैंने,
मैंने एक रस्सी सी जो बंधी थी उसके मुंह पर, खोल दी, पोटली नीचे रखी, और खोली तब, जब खुली तो हमारी भी आँखें खुली रह गईं! इस पोटली में,एक अंगूठी थी, पंच-धातु जैसी, एक माला, काले मनकों की और रेत! सफेद सी रेत!
"ये क्या है?" बोले वो, हाथ में लेते हुए उस रेत को!
"रेत है, कहीं और की है, यहां की तो हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने,
"तो रेत क्यों रख दी गई?" बोले वो,
"पता नहीं, रेत रखने की क्या ज़रूरत?" बोला मैं,
"इसको खोलना तो?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
अब दूसरी पोटली खोली, तो इसमें निकले पांच धागे! धागे, मोटे मोटे से, आठ के अंक के आकार में बंधे हुए!
"ये?" बोले वो,
"धागे हैं!" कहा मैंने,
"धागे भी रख दिए?" बोले वो,
"ये कोई विशेष ही हैं!" कहा मैंने,
"सो तो हैं ही, नहीं तो कौन रखेगा?" बोला मैं,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये सब?" बोले वो,
"कहीं ये सब, उस मांगल का तो नहीं?" पूछा मैंने,
"यहां तो सब सम्भव है!" बोले वो,
"रुको, पीछे हो कर बैठो ज़रा!" कहा मैंने,
"जी, ज़रूर!" बोले वो,
और बैठ गए पीछे, उसी चौखण्डे में, मैंने जहाँ उनको बैठने को कहा था, वहीँ बैठ गए थे वो!
"पहले की तरह यथावत रहना!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
"मुझे करना तो नहीं चाहिए, लेकिन करना पड़ रहा है, मैं जगाता हूँ, जो सोया है!" कहा मैंने,
"समझ गया मैं!" कहा उन्होंने,
"लाओ, शराब दो!" कहा मैंने,
"ये लीजिए!" बोले वो,
"पांच टुकड़े दो इसके, मांस के!" बोला मैं,
"ये लो!" बोले वो,
"ये नहीं, वो वाला दो!" कहा मैंने,
"हाँ, ये लो!" बोले वो,
और मैंने एक तश्तरी में वे पांच टुकड़े रख लिए, और शराब चढ़ा दी, फिर एक मंत्र पढ़ा! इस मंत्र को, जाग-मंत्र कहते हैं, आम भाषा में, वैसे इसका नाम, भण्डंम-मंत्र है, यदि ये मंत्र कहीं भी पढ़ दिया जाए तो सोये हुए प्रेत जाग उठते! इस मंत्र से, समाधि-अवस्था में गए, वे योगी या तपस्वी भी जाग सकते हैं, जिनका वास, वहीँ रहे! तो मैंने जाग-मंत्र पढ़ा और एक टुकड़ा सामने फेंक दिया! टुकड़ा जैसे ही गिरा, आसपास हलचल शुरू हो गई! अब वे जागने लगे थे, चाहे कोई भी हो, जाग ही पड़ता उस मंत्र से! यूँ मानिए, कि ऐसी गंध कि सोते को भी उठा दे!
कोई आ रहा था उधर! हँसता हुआ, और ये एक औरत ही थी! हम, चुपचाप बैठे देखने लगे! जो आया, उसे तो देखा ही था हमने, ये वही औरत थी, जो मुर्दे के झूले पर बैठी थी, वे दो प्रेत, अभी भी उसको जैसे ले जा रहे थे कहीं! पालकी सी बना दी थी उस मुर्दे की उन्होंने! वो औरत, हंसती हुई, बैठे बैठे उछलती हुई उस मुर्दे पर, गुजर गई! अभी वो गुजरी, कि दो साधु आये, एक ज़मीन पर झाड़ू सी लगाता आ रहा था, जी जगह साफ़ होती थी, उधर वो दूसरा साधू चलता था, इस दूसरे साधू ने कंधे पर, एक बड़ी सी गठरी थामी थी, एकदम सफेद रंग के कपड़े की! और जब मेरी नज़र उसके चेहरे पर पड़ी! ये मुझे तांत्रिक तो न लगता था! ये तो कोई तपस्वी या फिर, कोई पुरोहित सा लगता था, माथे पर, चंदन सा मला था उसने, वो चुपचाप से, गुजरता चला गया, वो जहां गया था, वहां से आवाज़ आने लगी हमें! अब यहां से कोई आ रहा था! उन्हें देखा, तो वे तीन औरतें थीं, दो मर्द, मर्द उन औरतों के हाथ पकड़, आगे ले जा रहे थे! ये जो मर्द थे, इनके चेहरे साधारण से ही थे, ये साधक नहीं लगते थे, ये देहाती से लोग थे! कमाल की बात तो ये, कि वो जो भी गुजरे थे, बोल कुछ नहीं रहे थे! ठीक हमारे सामने से ही वे पाँचों गुजर गए! अब कोई नहीं आया! मैं जैसे ही उठने को हुआ, कि सामने नज़र आया कोई! ये था कोई साधक! लम्बे लम्बे केश, रुक्ष! एक हाथ में तलवार सी, शायद ऐसी तलवार थी कि जो आगे से चौड़ी थी, पीछे, नीचे तक संकरी, मूठ उसका कपड़े से बंधा हुआ था! लेकिन विशेष था ये साधक! अडिग सा खड़ा हुआ, नेत्र चौड़े किये, आग सी निकले नेत्रों से उसके! पीले रंग की आँखें थीं उसकी, चेहरे पर रक्त मला था उसने, दाढ़ी-मूंछें सब रक्त से सनी थीं! लगता था जाइए अभी अभी कहीं किसी रक्तपात से आया हो!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
"सल्ला!" बोला वो,
सल्ला? ये नाम है क्या?
"कौन सल्ला?" पूछा मैंने,
"मैं!" बोला वो,
"तुम सल्ला हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"यहां और कौन कौन है?" पूछा मैंने,
"सभी!" बोला वो,
"मांगल भी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
क्या? मांगल यहीं है? यहीं है तो अभी तक आया क्यों नहीं सामने! क्या कारण है? क्या उसका सामर्थ्य, उच्चतर है इस जाग-मंत्र से? ऐसा कौन सा साधक आ गया?
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"गया है" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"जानता है!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तुम बताओ?" कहा मैंने,
"सिवणा बता गया!" बोला वो,
"कौन सिवणा?" पूछा मैंने,
"ये!" बोला वो तलवार आगे करते हुए, इशारा करते हुए, उस कलश की तरफ!
ओह! समझ गया मैं! वो भीमकाय सा प्रेत, उसका नाम सिवणा है! अब आया समझ!
"ये? ये क्या है?" पूछा मैंने,
"उबक्ष!" बोला वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"किल्कि!" बोला वो,
"कौन किल्कि?" पूछा मैंने,
"पुत्र!" बोला वो,
"पुत्र? किसका?" पूछा मैंने हैरानी से!
"मांगल!" बोला वो,
मेरे हाथ से वो कलश गिरा नीचे! ये मैंने क्या सुना? किल्कि? किल्कि पुत्र था मांगल का?
"बाबा सल्ला?" कहा मैंने,
उसने ठुड्डी आगे करते हुए, बोलने को कहा मुझे!
"ये मांगल कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"पुत्र!" बोला वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
अब वो चुप! कुछ नहीं बोले!
"बाबा सल्ला?" कहा मैंने,
उसने फिर से देखा, और वो तलवार नीचे कर ली!
"पुत्र" बोला वो,
"किसका पुत्र है मांगल?" पूछा मैंने,
न बोले कुछ! और मैं, समझ गया!
"बाबा चनामण का!" कहा मैंने,
तलवार उठ गई उसकी! भर गया क्रोध में वो! जबड़े भींच लिए अपने उसने! मरने-मारने के लिए तैयार सा हो गया वो तो!
"बताओ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"तब, क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"मांगल!" बोला वो,
"मांगल तो गया?" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने,
"तो ये किल्कि?" पूछा मैंने,
"कनकी!" बोला वो,
अच्छा! किल्कि का वास्तविक नाम, कनकी था, जिसे ये किल्कि पुकारते होंगे!
"मांगल गया, किल्कि ये, तो बाबा?" पूछा मैंने,
"चूड़ामण!" बोला वो,
अच्छा! अच्छा! बाबा चूड़ामण! अब आया समझ मुझे! ये हैं वो बाबा! यही हैं वो चनामण!
"बाबा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"मंडावर!" बोला वो,
"मंडावर?" पूछा मैंने,
"हाँ, मांगल गया उधर!" बोला वो,
"मांगल, अपने पिता, बाबा चूड़ामण को लेने मंडावर गया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
उसने
 हाँ बोली और उधर....................................!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अचानक ही, बाबा सल्ला भी लोप हो गए! ये शक्ति-सम्पन्न प्रेत थे, इनमे दूसरे प्रेतों से अधिक सामर्थ्य था, इसमें तो कोई संदेह ही नहीं था! ऐसे कई शक्ति-सम्पन्न प्रेत बाद में, लोक-देवता के रूप में पूजे भी गए हैं, आज भी पूजे जाते हैं! प्रेतों में एक अवस्था हुआ करती है, जिसे, मूल-चक्रण कहा जाता है, जो भी साधक, अपनी साधनों को पूर्ण करता है वो सबसे पहले अपने प्राण ही, अपना सर्वस्व ही अपने ईष्ट को समर्पित कर दिया करता है! उसका ईष्ट ही, उसके सिद्धि-बल के अनुसार, आगे बढ़ने में सहायता किया करता है! यहां जो मैंने मूर्ति देखी थी, वो चण्डी माँ की थी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि ये सब, चण्डी माँ के ही साधक थे! चण्डी, उग्रचण्डी, शतचंडी, रोड़का-चण्डी, अभय-चण्डी, लामोक-चण्डी, भौ-चण्डी आदि आदि प्रधान देवियां हैं! जो मूर्ति मैंने देखी थी यहां वो चण्डी माँ की थी, ये मुझे उनके रूप व् अस्त्रों को देख पता चला था! चण्डी माँ, तंत्र में, सबसे क्लिष्ट-साधनाओं में से हैं, परन्तु, शीघ्र ही प्रसन्न हो जाने वाली देवी हैं! आसुरी देवी निकुम्भला इनके समकक्ष हैं, वो अत्यन्त ही तीक्ष्ण सिद्धि-मार्ग द्वारा ही सिद्ध हुआ करती है, और प्रसन्न होने के बाद, प्रेत-बलि का भोग चढ़ाया जाता है! अब ये गूढ़ विषय हुआ कि प्रेत-बलि है क्या! हाँ, इतना अवश्य ही है, कि जो साधक माँ निकुम्भला को साधते है, प्रेतादि उस से ऐसे दूर रहते हैं कि जैसे सिंह को देख, वन में भगदड़ मच जाती है! चलिए अब घटना का वृत्तांत.....
बाबा सल्ला लोप हो गए थे, जो कुछ मैं जान सका था वो ये, कि यहाँ पर कोई मांगल था, जिसके अधीन शायद ये स्थान था, अब किस प्रकार से अधीन, ये नहीं पता चला था, क्या वो भी एक उच्च-कोटि का साधक था? हाँ या न? यदि था, तो ये धन कैसे है यहां? यदि नहीं तो उसका हुआ क्या और क्यों उसका ही उल्लेख बार बार यहां होता है? एक बात और, यहां, सत्ता थी बाबा चूड़ामण की, यदि थी, तो स्वयं बाबा चूड़ामण कहाँ हैं? मेरे पास कलश में जो सामान था वो कनकी का था, और कनकी मांगल का पुत्र था, कनकी पोता हुआ बाबा चूड़ामण का, ठीक! अब अहम कौन सभी से? ये मांगल, और मांगल ही नहीं था यहां! वो खान था, जैसा बताया गया, वो निकला था मंडावर के लिए, अब मंडावर में भला कौन था? कोई राजसिक-सहायता? या फिर धन आदि से संबंधित कार्य हेतु? ये प्रश्न अभी अधर में ही था!
मैं फिर से अलख पर बैठा, दमोत्री-महाजाप आरम्भ किया! और जैसे ही आरम्भ किया, हमारे समक्ष कोई प्रकट हो गया! मैंने जाप पूर्ण किया और अपना त्रिशूल, भूमि में गाड़ दिया, नोंक की तरफ से, अर्थात, मूठ की तरफ से! स्तम्भन हो गया! स्थान का स्तम्भन!
कोई खड़ा था दूर, मैं बस, उसका बाएं भाग ही देख पा रहा था, पूर्ण नहीं, वो मूर्ति के समान खड़ा था!
"कौन है?'' पूछा मैंने,
"बलदा.." बोला वो,
हल्की सी, मरी मरी सी आवाज़ आई मुझे!
"कौन बलदा?" पूछा मैंने,
"बलदा" बोला वो,
"सम्मुख आओ?" कहा मैंने,
"तू लौट जा, अच्छा होगा!" बोला वो,
"अब नहीं लौट सकता!" कहा मैंने,
"लौटना ही होगा" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"हाँ, लौटना ही हितकर होगा!" बोला वो,
"मेरे हित की चिंता न करो!" कहा मैंने,
"तब वो देखो!" उसने कहा, 
और इशारा किया उसी स्थान की तरफ, जहाँ से वो जेवर मिला था! वहां अब, अस्थियां बिखरी पड़ी थीं, कपाल फूटे पड़े थे, वो अस्थियां इकट्ठी की जाएँ तो एक टीला सा बन सकता था!
"नहीं लौट सकता!" कहा मैंने,
"लौटाया जाएगा!" बोला वो,
"प्रयास करो!" कहा मैंने,
"आवश्यकता ही नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मुझे सब पता है!" बोला वो,
"कुछ नहीं पता!" कहा मैंने, उपहास भरे स्वर से!
"जा, लौट जा!" बोला वो,
"बलदा! तुम कोई भी हों! अब नहीं लौट सकता!" कहा मैंने,
"सभी तो लौटे!" बोला वो,
"मैं उनमे से नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, ये सच है!" बोला वो,
"बलदा? मांगल कहाँ है?" पूछा मैंने,
"मंडावर पहुंचा होगा!" बोला वो,
"मंडावर?" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"मंडावर का, यहां से क्या लेना?" पूछा मैंने,
"वो, चक्रवास है!" बोला वो,
"चक्रवास? किसका?" पूछा मैंने,
"बाबा चूड़ामण का!" बोला वो और हाथ उठा, प्रणाम किया उसने उन्हें!
"तो बाबा वहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसलिए? चक्रवास के लिए?" पूछा मैंने,
"स्मृतिवत्र हेतु!" बोला वो,
"ओह!" मेरे मुंह से निकला!
"जा, लौट जा!" फिर से बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
तब अचानक से वो सम्मुख आ गया! करीब छह मीटर दूर ही! उसकी आयु करीब अस्सी की होगी, वृद्ध सी देह रही थी उसकी, पूरी देह पर, श्वेत-केश थे! सर पर एक बड़ा सा जूड़ा था, जटाओं का! देह अभी भी पुष्ट थी उसकी! हाथ में, एक सैप्य-माल था उसके!
अभी मैं देख ही रहा था उनको, कि उस स्थान पर, अलग अलग जगह से, प्रेत अने लगे! वे आते और उस वृद्ध के पीछे जा खड़े होते, वे कुल बाइस या चौबीस रहे होंगे, वे सभी साधू, वो स्त्रियां आदि सब! और सबसे दाएं खड़ा वो सिवणा, सभी प्रकट हो गए थे!
और तभी, दाएं से, वो मुर्दे का झूला बनाए हुए, स्त्री भी आने लगी, अब वो अकेली नहीं थी, उसके साथ वो, पांच-छह वर्ष की आयु वाली बालिका भी थी!
मैं सभी को देख रहा था, ये थें सभी यहां वास करने वाले! न जाने कब से, यहीं अटके हैं! किस कारण से?
"मांगल चालै!" आई आवाज़, सिवणा की!
"चालै!" बोला मैं भी,
"चालै!" बोला वो,
और ज़मीन पर बैठ गया! अब कुछ देहाती सी स्त्रियां वहाँ आने लगी, वे आतीं, और एक एक कर बैठी जातीं नीचे! फिर कुछ और देहाती से पुरुष लोग आये और वे भी सभी उकड़ू बैठते चले गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे सभी आ बैठे थे! सच कहता हूँ, ऐसा मंजर नहीं देखा जा सकता! ये अति-भयावह और सन्न करने वाला था! वो सिवणा, आकर, आगे खड़ा हो गया था, कभी हमें देखता और कभी उस प्रेत-समूह को!
मैंने ठीक सामने देखा, ये बाबा बलदा थे! चले आये थे आगे, सभी से आगे! मेरी अलख जैसे उन सभी को देख, प्रणाम करने को बार बार झुक जाती थी! ये सभी शक्तिशाली प्रेत थे, पल में क्या हो जाए, क्या कर दें, कुछ आभास ही नहीं होता था, जब तक कोई कुछ करने की सोचे भी, तब तक तो सर ही फट जाए किसी का! इतना अवसर ही नहीं होता किसी के पास!
मैं भी सन्न रह गया था! ये न जाने कब से यहीं थे, इसी निर्जन स्थान पर! बंधे थे किसी अंजान सो डोर से, लेकिन वो डोर थी कहाँ? किसने थामी थी वो डोर? क्या कारण था? ये मंडावर क्या है? क्या लेना देना उस मंडावर का यहां से? बाबा चूड़ामण का स्थान कौन सा था? ये? या वो मंडावर वाला? एक से एक सवाल! और उत्तर बस इन्हीं के पास!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
वे शांत से खड़े रहे, मैं, उन्हें देखता रहा खड़े खड़े! उन पर कोई प्रभाव ही नहीं हुआ था मेरे प्रश्न का जैसे!
"कौन हो तुम सब?" पूछा मैंने,
अब भी कोई उत्तर नहीं मिला!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
तब उस समूह में से एक साधू आया, ये साधू, न तो तांत्रिक ही लगता था और न ही, कोई सात्विक ही! लगता था जैसे दोनों ही पक्ष का हो! अब भला इन तांत्रिकों का सात्विकों से क्या लेना-देना?
"कौन हो तुम?" बोला मैं!
कोई उत्तर नहीं! बड़ी ही हैरत! इतने सारे और बोले कोई नहीं? ये जो सामने आया था साधू, वो भी न बोले!
"बताओ?" पूछा मैंने,
ना! कोई जवाब नहीं!
"बताओ?" चीखा मैं,
नहीं! अब भी कोई उत्तर नहीं!
"बाबा?" कहा मैंने,
वो मुझे ही घूरे!"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
अब भी कोई उत्तर नहीं!
मैंने सभी को देखा, पत्थर से बने सभी बैठे थे वो! जो खड़े थे, वे भी बैठ गए थे, कंधे से टिकाये त्रिशूल और लट्ठ ही दीख रहे थे! या फिर ये साधू, जो सबसे आगे खड़ा था!
"बाबा?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
ऐसा कैसे? कोई समस्या?
"बताओ?" चीखा मैं,
"मांगल!" बोले वो बाबा,
"कहाँ है मांगल?" पूछा मैंने,
"मंडावर!" बोले वो,
"मंडावर?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"किसलिए?'' पूछा मैंने,
"बाबा के पास!" बोले वो,
"बाबा चूड़ामण के पास?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"मांगल, बाबा के पास गया है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"मांगल जाने" बोले वो,
मांगल जाने.........तो? ये नहीं जानते?............सोचा मैंने...
"ये स्थान किसका है?'' पूछा मैंने,
"बाबा चूड़ामण!" बोला वो,
"तो मांगल, बुलाने गया है?" पूछा मैंने,
"बुलावे पर" बोले वो,
"किसके?" पूछा मैंने,
"बाबा के" बोला वो,
"बाबा के बुलावे पर मांगल गया है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
''और तुम सभी?" पूछा मैंने,
"रह गए" बोले वो,
"रह गए?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"साथ जाते क्या मांगल के?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो!
अब ये क्या? क्या अर्थ हुआ इसका कि रह गए? कहाँ जाने से रह गए? क्या अर्थ निकला इसका!
"और कनकी?" पूछा मैंने,
"कनकी" बोले वो,
"हाँ? वो कहाँ है?" पूछा मैंने,
"नहीं है" बोले वो,
"कनकी यहां नहीं है?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"तो मांगल, अकेला गया है?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"तो कनकी क्यों नहीं गया?" पूछा मैंने,
"रह गया था" बोले वो,
"रह गया था?" मैंने उत्तर दोहरा दिया, बस, लहजा प्रश्न का था!
"क्यों रह गया था?" पूछा मैंने,
"मिला नहीं" बोले वो,
"मिला नहीं?" बोला मैं,
"हाँ" बोले वो,
"कनकी नहीं मिला तो मांगल अकेले चला गया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"कनकी नहीं मिला" बोले वो,
"अच्छा, नहीं मिला, उस समय नहीं मिला, बाद में मिला?' पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"हाँ?" मैं उछला!
"हाँ!" बोले वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
और सभी ने अपने हाथ सामने कर दिए मेरे, अपनी हाथ की तर्जनी की उंगलियां, इशारा करती हुईं! इशारा, उस कलश पर, जो हमने, अभो खोद कर निकाला था! लेकिन इसका मतलब क्या हुआ?
"ये? कनकी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" वे सब बोले!
"ये, वस्तुएं, कनकी की हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" वे सभी बोले!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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कनकी की वस्तुएं? कनकी के माल थे ये? और ये उबक्ष(भस्म) उसकी है? मेरे तो हाथ ही कांपने लगे! क्या हुआ था उस कनकी को? कहाँ गया था वो मांगल? किसलिए गया था? कैसा बुलावा आया था? मंडावर? ये कहाँ है? आसपास? कोई गाँव? कोई क़स्बा? है आज भी या नहीं? अब तो सर घूमने लगा! क्या किया जाए? कैसे जाना जाए? यहां तो कोई बताता ही नहीं कुछ, खोजी उतरेगा नहीं, कर्ण-पिशाचिनि तो, जोट भी न लगावे! वो नहीं आएगी! तब? क्या विकल्प है?
"क्या हुआ था यहां, बाबा?" कहा मैंने,
"नैरा! मांगल! नैरा!" बोला वो, भीमकाय सिवणा! आगे आते हुए, उस साधू के पास खड़ा हो!
"नैरा?" बोला मैं,
"हय्योप! मांगल चालै!" बोला वो,
"चालै!" बोला मैं,
आगे आया वो, झूमता सा, और खड़ा हो गया ठीक सामने मेरे!
"मांगल! ओं! चालै!" बोला वो, इशारा करते हुए, एक तरफ!
"सिवणा!" आई आवाज़ एक!
और जो मैंने देखने का प्रयास किया, तो देख न पाऊँ उसे! एक तेज ऊर्जा सी दैदीप्यमान थी उस पुरुष के चारों ओर! जैसे ही उसका स्वर गूंजा, वे सभी, सभी के सभी, लोप हो गए थे! पलक झपकते ही लोप! और मैं, इसे न देख पाऊँ! जैसे किसी मूर्ति पर, बिजली के बड़े बड़े बल्बों का प्रकाश डाला गया हो, और वो मूर्ति, पत्थर की न हो कर कांच की बनी हो! और प्रकाश की तेज किरणें उसे बींधे दे रही हों!  वो प्रकाश को छितराए तो सही, लेकिन प्रकाश की किरणें, फिर से लौट आएं! ऐसा दैदीप्यमान!
"कौन हो तुम?" आई आवाज़,
तो मैंने अपना परिचय दिया उसे!
"उद्देश्य क्या है?" पूछा उसने,
"ये मेरी भूमि है!" कहा मैंने,
"ये हमारी भूमि है!" बोला वो,
"आप कौन?" मैंने उस चकाचौंध से बचने के लिए, नीचे देखते हुए पूछा!
''ऐरय, भूमिपति!" बोला वो,
"ऐरय?" कहा मैंने,
"हाँ! ऐरय! प्रश्न हैं न? जाओ! मंडावर जाओ!" बोला वो,
"मंडावर?" बोला मैं,
"हाँ, प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे!" बोला वो,
"कौन देगा?" पूछा मैंने,
"स्वयं चण्डीधीश!" बोला वो,
"चण्डीधीश?" कहा मैंने,
"हाँ! स्वयं वही!" कहा मैंने,
"ये कौन हैं?" पूछा मैंने,
"जान जाओगे!" बोला वो,
"कहाँ जाना है?" पूछा मैंने,
"वायु मार्ग प्रशस्त करेगी!" बोला वो,
"वायु?" कहा मैंने,
ऐसा कैसे सम्भव? वायु कैसे? क्या अर्थ हुआ?
"जाओ!" बोला वो,
और अचानक से जैसे अन्धकार की चीख निकल पड़ी! गहन अन्धकार छा गया अचानक से! मेरी अलख का एक कण भी शेष न रहा! अब इतना अँधेरा की कुछ दिखे ही नहीं!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी गुरु जी?" बोले वो,
"ये अलख?" पूछा मैंने,
"अपने आप ही बुझ गई! अचानक से ही!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"सोख ली गई!" कहा मैंने,
"किसने सोखी?" बोले वो,
"नाम नहीं पता!" कहा मैंने,
"एक, वायु-प्रवाह सा आया और अलख, कुन्द पड़ते ही, शांत हो गई थी! मैंने स्वयं ही देखा, आप खड़े थे, बोल भी नहीं रहे थे कुछ! सोचा, शायद किसी जाप में लीन हैं, नहीं टोक सका आपको!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, मैं समझ गया!" कहा मैंने,
प्रकाश अब लौटने लगा था! उस, बाईं तरफ जलते बल्ब का प्रकाश! मैं ही न देख पा रहा था पहले, सम्भवतः उस पुरुष के तेज के कारण, मेरे नेत्र चुंधिया गए थे! जब, चक्षु-पटल से वो आभा, हटी तो प्रकाश टकराया और मुझे, दिखने लगा था अब! मेरी अलख ऐसी हो गई थी, जैसे बुझ हुआ चूल्हा!
"कुछ जान सके?" बोले वो,
"हाँ"' कहा मैंने,
"क्या मेरे जानने योग्य है?" कहा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पूछ सकता हूँ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैंने तब उन्हें, अब तक जो घटा, वो सब बता दिया! वे गौर से सुनते रहे, याद रखते जाते नाम सभी के! मैंने सुना दी सारी कहानी अब तक की! उन्होंने, कई बार नाम, बार बार पूछे!
"मंडावर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब कल ही पता चले, ओ..आज ही, सुबह बाद!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो इस स्थान का रहस्य, मंडावर में है!" बोले वो,
"हाँ, यही हुआ अर्थ!" कहा मैंने,
"तो मांगल, गया था मंडावर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब वो पहुंचा या नहीं, ये भी वहीँ पता चलेगा?" बोले वो,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"और कनकी, उसका क्या?'' बोले वो,
"वो भी मंडावर!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"क्या समय हुआ?'' पूछा मैंने,
"दो से ज़्यादा!" बोले वो,
"ये कलश ले लो! इसे ले जाना होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, रख लेता हूँ!" बोले वो,
"मैं यही लेटूँगा!" कहा मैंने,
"मैं भी!" बोले वो,
और हम वहीँ लेट गए! अब ये नहीं पता था की ये मंडावर है कहाँ? ये कोई गाँव भी हो सकता था, कोई क़स्बा भी या कोई विशेष सा स्थान! मैंने तो पहली बार ही सुना था ये नाम! जाना तो दूर!
"कमाल है वैसे! क्या क्या होता आया है इस दुनिया में! और क्या क्या होता रहेगा!" बोले वो,
"सही बात है! सही कहा आपने!" बोला मैं, आकाश के तारों की दूरी नापते हुए आपस में, दृष्टि से अपनी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"ये चण्डीधीश क्या हुआ?" पूछ उन्होंने,
"इसका अर्थ हुआ कि अवश्य ही उस स्थान पर, कोई चण्डी माँ का मंदिर है, उसी मंदिर का प्रधान पुरोहित!" कहा मैंने!
"समझा, मुझे भी यही लगा था!" बोले वो,
"अब कल चलते हैं!" बोले वो,
"हाँ, चलना ही होगा!" कहा मैंने,
"ये भी सही!" बोले वो,
"हाँ, सही!" कहा मैंने,
"वैसे, सच है!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"मान बहुत बड़ी चीज़ है!" बोले वो,
"बहुत ही बड़ी!" कहा मैंने,
"हाँ, आपने इन प्रेतों को पीड़ित भी नहीं किया, नहीं तो कोई और हो, तो क़ैद ही कर लेता, सुना है कि पुराना प्रेत, पैदावार ही पैदावार! मायने, जितना पुराना उतना ही बड़ा धनदाता!" बोले वो,
"ये सच है!" कहा मैंने,
"तो कोई भी पकड़ सकता है इन्हें?" पूछा उन्होंने,
"नहीं! जितना पुराना होगा, उतना शक्तिशाली भी होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, सो तो है, लेकिन फिर ये पकड़े कैसे जाते हैं?" पूछा उन्होंने,
"मन्त्रों द्वारा, विद्या द्वारा और कभी कभी छल से!" कहा मैंने,
''अच्छा! छल से तो गलत है!" बोले वो,
"हाँ, लेकिन सब जायज़ कर देते हैं कारीगर लोग!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
"एक लड़का था, सोलह साल मुश्किल से होगा वो, उसने मसान साध लिया था!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"हाँ, साध लिया था?" बोले वो,
"हाँ, वो भी एक ही रात में!" कहा मैंने,
"अब कहाँ है वो लड़का?" पूछा उन्होंने,
"किसी को नहीं पता, घर पर बोल कर गया, अपने आप आएगा!" कहा मैंने,
''और गया कब?" पूछा उन्होंने,
"छह साल हुए!" कहा मैंने,
"हिम्मत है लड़के की!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
"तो क्या एक रात में ही मसान सध जाएगा?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, लेकिन इस लड़के ने न कोई साधना ही की, न कोई सामग्री आदि इस्तेमाल! बस, उस श्मशान में जाकर बहुत रोया, बहुत रोया कि उसके घर की हालत ठीक नहीं, अल्हड़पन! जो मन में था, सब बोलता रहा किसी चिता के सामने! मसान रोड धृ के आया, बाबा बनकर एक, खूब कही कि लौट जा, लौट जा! नहीं लौटा वो, हाँ, जब छाती लग के रोया उस मसान से, तब मसान प्रसन्न हो गया उस से! और शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले खोये खोये से!
"जानते हो, अब उसका परिवार कहाँ है?" बोल मैं!
"कहाँ?" पूछा धीरे से!
"एक बढ़िया क्षेत्र में, एकड़ों में ज़मीन है, दो भाई थे, नौकरी करते थे किसी ट्रांसपोर्ट कम्पनी में, अब एक अपना ट्रांसपोर्ट है! कहते हैं, मसान रोज उसे सोना देता था, और वो, अपने पिता को!" कहा मैंने,
"कमाल ही है! कमाल! बताओ, मसान साध लिया! प्रसन्न कर लिया!" बोले वो,
"हाँ, प्रसन्न!" कहा मैंने,
"बड़े से बड़े को गच्चा दे दे वो तो!" बोले वो,
"हाँ! अब सोना देने वाली बात कहना तक सच है, पता नहीं, कहते हैं, मसान देता था उसे!" कहा मैंने,
"लो जी! इसे कहते हैं नसीब!" बोले वो,
"नहीं! नसीब नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"उसका विश्वास! उसको ये विश्वास था कि मसान से गुहार लगाएगा वो तो कुछ मदद मिलेगी, अब क्या हुआ, कैसे हुआ, वो ऊपरवाला जाने!" कहा मैंने,
''आपने देखा है वो लड़का?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, उसके एक भाई को देखा है!" कहा मैंने,
"ओ! अच्छा!" बोले वो,
मित्रगण! हम तब तक बातें करते ही रहे जब तक कि आँखों में नींद न भर आई! अब सोना था ही किसे, बस, कुछ आराम ही किया! तो सो गए, हैरत की बात ये, कि उस रात और कोई नहीं आया, किसी ने नहीं जगाया हमें! सम्भवतः उन्हें भी इंतज़ार रहा हो कि हम जागें और चलें मंडावर!
खैर जी!
रात बीत गई, तो सुबह फ़ोन किया अनिल जी को, उनसे बात हुई, और हमने बुला लिया उन्हें, अब मंडावर के विषय में जानकारी जुटाई! तो मिल गई, अधिक देर न लगी! मंडावर, दौसा जिले में उत्तर-पूर्व में बसा एक शहर है! ये पता चल गया था! मुझे न जाने क्यों ये लगा उसी वक़्त, कि हमारी मदद की गई है! कोई, नज़र में बांधे है हमारे आसपास!
उसी दिन, दस बजे, हम फारिग हो, स्नानादि कर, चाय-नाश्ता कर, उस कलश को साथ ले, और उस स्थान को नमन कर, चल पड़े मंडावर के लिए! प्यारे लाल जी नहीं आ सके थे, उनकी तबीयत खराब थी, हाँ, विनोद और अनिल जी साथ चल रहे थे हमारे! उस जगह से, मंडावर, करीब दो सौ दस या बीस, किलोमीटर पड़ता होगा, ये मेरा अंदाजा है! हम चल पड़े थे, रास्ते भर, मैं उस पुरुष के विषय में ही सोचता रहा, वो कौन था? क्यों सभी लोप हो गए थे उसके आते ही?
"गुरु जी?" बोले अनिल जी,
"हाँ?" बोला मैं,
"इस जगह का कोई पुराना ही संबंध रहा होगा मंडावर से?" बोले वो,
"हाँ, पहले बसावट ही कितनी होगी?" कहा मैंने,
"हाँ सही कहा आपने!" बोले वो,
"धुंधर या धूंधर ही है मंडावर का पुराना नाम! ये उस समय काफी शानदार रहा होगा!" कहा मैंने.
"सही बात है, नाम बदल देने से कोई संस्कृति या सभ्यता थोड़े ही बदल जाती है?" बोले शहरयार जी!
"हाँ, सही कहा!" बोले अनिल जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस तरह हम चलते चलते, पहुंचे जाकर, करीब छह बजे! बड़ा ही शानदार और सुंदर शहर है ये! शहर में घुसते ही आपको पग पग में, इतिहास की गंध आएगी! उसी जगह पर, हमने ठहरने की व्यवस्था कर ली थी! आज रात तो यहीं बितानी थी, कल दिन में हो कुछ होना सम्भव था! कल, या तो हम उत्तीर्ण ही हो जाते, या फिर, ये धब्बा जीवन भर संग ही रहता! उस रात खाना खाया हमने, थोड़ी सी मदिर भी ली, ताकि नींद आ जाए बढ़िया सी! इसलिए ज़रा उतार ली थी गले के नीचे, रात में, नींद ही न आके दे! कभी कुछ ख्याल आएं और कभी कुछ! कभी लगे कि मैंने गुत्थी सुलझा ली और कभी लगे, कि हम फंस गए हैं, शायद ही पार पाएं! एक बात साफ़ थी, यहां रहस्य तो एक एक बढ़कर एक थे! एक को खोलते तो दूसरा सामे आ जाता! करवटें बदलते रहे हम! बार बार घड़ी को देखते, लेकिन घड़ी को हम पर कोई दया नहीं आई! खैर, रात के तीसरे प्रहर में नींद आई! और सो गए हम!
सुबह हुई, और हमने अपनी दैनिक-कर्म निबटाए, स्नानादि से फारिग हुए, चाय-नाश्ता करने बाहर ही चले गए थे हम, कुछ खाया और तब फिर से लौट पड़े! अपने कमरे में चले आये, मेरे साथ शहरयार जी थे! अब से कुछ ही देर बाद, मैं शहरयार और अनिल जाने वाले थे एक साथ ही! विनोद जी का पेट गड़बड़ा गया था, उनके लिए आराम करना ही बेहतर था!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी, कहें?" बोले वो,
"कलश को उस चादर में बाँध लो!" कहा मैंने,
"जी, अभी!" बोले वो,
"हाँ, ये साथ ले जाना होगा!" कहा मैंने,
"एक बात कह रहा था मैं?" बोले वो,
"क्या? बोलो?" बोले वो,
"कि, सामान तो हम लाये नहीं?" बोले वो,
"कोई ज़रूरत नहीं उसकी!" कहा मैंने,
'और दूसरी ये, कि जाना कहाँ है?" बोले वो,
"हाँ, ये ज़रूरी है जानना!" कहा मैंने,
"तो क्या किया जाएगा?" पूछा उन्होंने,
"खोजी!" कहा मैंने,
"सुजान?" बोले वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"तो भोग ले लूँ उसका?" बोले वो,
"हाँ, रास्ते से ले लेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक, जैसा आप कहें!" बोले वो,
इस तरह से, हम, नौ बजे के कुछ ही देर बाद, चल पड़े! कहाँ जाना था, कुछ पता नहीं था, एक जगह से सुजान का भोग ले लिया था,  और अब मैं कोई जगह देख रहा था, कि जहां उस से रु-ब-रु हो सकूं! शहरयार साहब जानते थे ये सब, वो मुझे दो एक जगह दिखा भी चुके थे, लेकिन वहां सफाई न थी, सफाई थी, तो आवाजाही थी लोगो की, सड़क थी वहां!
"वो देखिये!" बोले वो,
"हाँ, वो ठीक लगती है!" कहा मैंने,
"पेड़ है, वो भी बड़ा, और कोई है भी नहीं!" बोले वो,
"हाँ, ये ठीक!" कहा मैंने,
"मैं चलूँ?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा, ठीक!" बोले वो,
"आप यहीं रहो, मैं जाँच कर आता हूँ!" कहा मैंने,
"जी ठीक!" बोले वो,
"वो सामान दे दो!" कहा मैंने,
"हाँ, ये लो!" बोले वो, गाड़ी में से निकालते हुए!
"अरे हाँ, वो मिट्टी भी!" कहा मैंने,
"वो जेब में है, एक मिनट......ये लीजिए!" दे दिया रुमाल मुझे मिट्टी का, ये वहीँ की मिट्टी थी! सुजान को कुछ चाहिए होता है, जब वो किसी तंत्र से संबंधित लक्ष्य को खोजता है! सुजान, सटीक तो नहीं बताता, हाँ, दिशा, रंग, रूप, चलायमान है इस स्थिर, ये अवश्य ही बता देता है!
जांचना, भला क्या? इसको पथरिया कहते हैं! ये ज़रूरी होता है किसी भी खोजी को उतारने से पहले! जांचना कि कहीं, यहां किसी का वास तो नहीं, घर तो नहीं, कोई मज़ार तो नहीं, कोई पीर वली तो नहीं, कोई जिन्नात तो नहीं, कोई हाड़ल तो नहीं, कोई घुग्घन तो नहीं, कोई औढिया तो नहीं! यदि कोई होता है, तो वहां खोजी नहीं उतारा जाता!
तब मैंने उस जगह को देखा, पेड़ को देखा, और चार पत्थर उठाये, छोटे छोटे, एक मंत्र पढ़ा, और एक पत्थर एक दिशा में फेंक दिया! इस तरह से चारों तरफ फेंका, कहीं से नहीं लौट पत्थर! इसका अर्थ था कि वहां कोई नहीं है! अब मैं आश्वस्त हो गया! एक तरफ ओट में गया और पढ़ा रुक्का सुजान का! सुजान हाज़िर हुआ! अब सुजान को मैंने उद्देश्य बताया! उद्देश्य जान अपना, उड़ चला वो! झम्म से लोप हुआ! और मैं, उसके रक्षण में जुटा!
करीब दूसरे ही मिनट बाद, मुझे सूचित किया उसने! भोग लिया और लौटा फिर! हमें जहां जाना था, वो यहां से दूर थी जगह! वो नापता नहीं, नपाई नहीं करता! यहां से अपना ही दिमाग चलाना पड़ता है! जो पता चला कि यहां एक नदी है, उस नदी के पास यही जगह है, और हम वहां पहुँच सकते हैं, हमें, उस दिशा से, अलग जाना होगा, तो चार निशानियाँ बतायीं उन्हें देखते हुए! मैं खुश हो गया! और लौट आया!
"पता चला?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सटीक?" बोले वो,
"निशानियाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"अब कहाँ?" बोले वो,
"वापिस, इस से अलग, उलटा जाना है!" कहा मैंने,
"तो चलिए!" बोले वो,
"हाँ चलो!" कहा मैंने,
हम बैठ गए गाड़ी में, और गाड़ी आगे बढ़ने लगी! 
"यहां एक मंदिर है पुराना, काफी पुराना, शिवालय है! उसके ऊपर कुछ लिखा है, नीले रंग से!" कहा मैंने,
"पूछ लेते हैं!" बोले वो,
तब अनिल जी ने पूछा एक दुकान वाले से, तो उसने दो बताए हमें! एक शहर के अंदर और एक बाहर! शायद बाहर ही जाना हो हमें! इसीलिए निर्णय ये हुआ कि, हम बाहर वाले की तरफ ही चलेंगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो बाहर वाले पर ही जाने का निर्णय हुआ, और हम चल दिए, पूछते-पाछते हमें वो मिल गया, अब यहां से, गए दूसरी जगह, वो भी मिल गई, हालांकि, अभी कुछ अलग सी थी, कुछ गुणा-भाग सा किया तो मिल गई, फिर तीसरी अब हम उस नदी के पास थे, यहां उतर गये, शहर तो अब काफी दूर रह गया था, ये नदी रही हो कभी, लगता तो था, लेकिन इस समय तो कुछ था ही नहीं यहां, बरसातों में अगर पानी हो तो कुछ कहा जाये, एक बात और, ये जगह बड़ी ही खुली खुली और रहस्य भरी सी लगती है! 
"अब?" बोले वो,
"एक और निशानी है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"बता दूंगा, रुको!" कहा मैंने,
और मेरी नज़रें तलाश करती रहीं उधर! जो देखना था, कहीं नहीं था, इसका मतलब हम सही जगह पर नहीं थे, यहां का रास्ता भी ठीक सा नहीं था, शायद उसकी मरम्म्त होने वाली हो, इसलिए पत्थर से पड़े थे कहीं कहीं, जो अब बिखर चुके थे इधर उधर!
"यहां नहीं है!" कहा मैंने,
"आगे चलें?' बोले वो,
"हाँ, चलिए!" बोला मैं,
"आओ, बैठिए!" कहा उन्होंने,
और हम अंदर बैठ गए, मैं अभी भी बाहर ही देखे जा रहा था, मुझे एक छोटी पहाड़ी की सी तलाश थी, जिस पर एक किला सा बना था, किले से पहले ही एक मंदिर था, मंदिर अब टूटा हुआ है और कोई नहीं जाता उधर, ये जगह, बीहड़ से क्षेत्र में पड़ती है! अर्थात, वहां बसावट नहीं है और कोई गाँव-देहात भी नहीं!
करीब एक घंटे सर खपाने के बाद, मुझे कुछ दिखा! ये लगती थी वैसी ही जगह! मैंने बाहर झाँका!
"रुको अनिल!" कहा मैंने,
"जी गुरु जी!" बोले वो,
और गाड़ी में ब्रेक लगे! मैं दरवाज़ा खोल बाहर आया और शहरयार, संग आ गए, मेरे पास आ खड़े हुए! मैंने आसपास देखा, दूर तक खुल सा मैदान था वो, यहां तो कोई वनस्पति थी भी तो छोटे छोटे से कीकर के पेड़, कुछ अजीब सी नगफनियां और कुछ जंगली से छोटे छोटे पौधे, ज़मीन पर जो, घास सी थी, वो गोखरू भी नहीं था, ये कोई अलग ही घास सी थी! कीड़े-मकौड़े भी नहीं दिख रहे थे, वो जगह बेजान, उजाड़ और जीवन-रहित सी प्रतीत हुई!
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"इनको वहीँ रहने को कहो, मुझे उम्मीद है वो जगह यहीं कहीं है!" कहा मैंने,
"अभी कहता हूँ!" बोले वो,
और वे लौट गए, उनसे बातें कीं और आ गए मेरे पास!
"पानी लो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
पीया और बोतल दे दी उन्हें वापिस,
"शहरयार?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"वो कोई किला ही है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, कोई खंडहर सा किला लगता है!" बोले वो,
"और वो, नीचे की तरफ, वो गुंबद वाला सा कोई मंदिर है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, मंदिर ही है!" बोले वो,
"पक्का?' पूछा मैंने,
"पक्का तो नहीं कह सकता, लेकिन लगता वही है!" बोले वो,
"ठीक, तो वायु-प्रवाह!" कहा मैंने,
"हाँ, यही कह रहे थे आप!" बोले वो,
"आगे आओ!" कहा मैंने,
"जी, चलिए!" बोले वो,
हम चल दिए आगे, पत्थर तो यहां इधर उधर बिखरे ही पड़े थे, ऐसे बड़े बड़े कि कोई पीछे जा छिपे तो पता भी न चले!
और तभी मुझे मेरे नथुनों में, ठीक वैसी ही तैलाहुति की गंध आई! मैं ठिठक कर रुक गया! आसपास देखा! कोई नहीं था! इस गंध के आने का कारण था कि हम सही जगह पर हैं! बस, जो खोजने आये हैं, मिल जाए कैसे भी!
"आप यहीं रुको!" कहा मैंने,
"जी, आदेश!" बोले वो,
मैं आगे चल पड़ा, इधर उधर देखते हुए, जैसे कोई मुर्गा बार बार गर्दन को झटके दे, देखा करता है इधर उधर! तैलाहुति की तीव्र गंध अभी तक आ रही थी! लेकिन कोई दीख ही नहीं रहा था! मैं और आगे गया, यहां एक ढलान सी थी, उसको छोड़ा, और जैसे ही सामने देखा, दूर, दूर एक जगह मुझे एक लड़का दिखाई दिया! सर पर साफ़ा बांधे हुए, वो इतनी दूर था कि मुझे उसका चेहरा नहीं दिखा, एक लम्बा सा कुरता, धोती सी पहने था, सर पर एक साफ़ा बाँध रखा था! मैं ठिठक गया था, वो मेरी तरफ ही चेहरा किये देख रहा था! मैं रुका था लेकिन अब चलने लगा उसकी तरफ, जैसे ही आधे में आया, वो पलटा और भाग लिया! एक बड़े से पत्थर के पीछे से जाते देखा उसे, और फिर नज़र नहीं आया मुझे! मैं दौड़ा! जितना दौड़ सकता था तेज! वहां तक आया तो कहीं नहीं था कोई भी! मैंने घूम कर आसपास देखा! कोई नहीं! दूर दूर तक कोई नहीं! मैं चिल्लाता भी कैसे? कोई लाभ नहीं था! मेरे चिल्लाने से या न चिल्लाने से कोई असर ही नहीं पड़ता था! मैंने फिर देखा आसपास! अब भी कोई नहीं!
तब मैं, लौट पड़ा, और जैसे ही लौटा, आधे तक, कि लगा कोई है मेरे पीछे! पलटा मैं, कोई नहीं था, हाँ उन बड़े पत्थरों के बीच, कुछ दिखा मुझे! मैं फिर से लौट पड़ा! वहां तक आया तो यहां एक लोहे की सी थाली पड़ी थी! ये पहले नहीं थी! इसका मतलब कोई तो था यहां, कोई छोड़ गया हो, ये भी सम्भव न था! अब क्या किया जाए? वे नज़र आने चाहिए थे मुझे, लेकिन नहीं नज़र आ रहे थे? वो क्यों? क्या मैं कुछ गलत था? मुझे जो बताया गया था, मैं वैसा ही तो कर रहा था? फिर?
"जय मणा!" एक फुसफुसाहट सी गूंजी हवा में!
मैंने झट से आगे पीछे देखा! कोई नहीं मिला!
"कौन?" मैंने भी फुसफुसा कर कहा!
"जय मणा!" आई फिर से आवाज़!
"जय मणा!" कहा मैंने,
और तब! तब मेरे कंधे पर किसी ने जैसे पीछे से हाथ रखा! मैं घूम गया! लेकिन कोई नहीं था वहां! कलुष नहीं चलता इधर! मुझे पता था, नहीं चलेगा! इसीलिए इस्तेमाल भी नहीं किया!
"कौन?" पूछा मैंने धीरे से!
कोई उत्तर नहीं आया!
मुझे लगा, कि उन पहाड़ियों पर, और नीचे खड़े हो कर, सैंकड़ों लोग मुझे ही देख रहे हों! उन सभी की नज़रें, मुझ पर ही टिकी हों! सभी के सभी, मेरी तरफ मुंह किये खड़े हों! सभी के सभी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कौन है? सम्मुख तो आओ?" मैंने बड़ी ही हिम्मत से पूछा!
"जय मणा!" इस बार जैसे किसी झुण्ड ने बोला ये!
"जय मणा!" निकला मेरे मुख से!
और तभी मेरे कंधे पर फिर से हाथ रखा किसी ने! मैंने अबकी बार देखा नहीं पीछे! मेरे नेत्र ही बंद हो गए थे!
और फिर वो कुछ बोला, ऐसा, जो मुझे बड़ी मुश्किल से समझ में आया! कुछ अलग से ही शब्द थे! शायद पुरानी सी बोली थी! लेकिन जो मुझे समझ आया उसके अनुसार यही है वो स्थान! हमें जो करना था वो यहीं करना था, यहां एक बड़ी सी मंदड़िया(पक्की सी जगह, जिस में अलख उठायी जाती है) है, उसमे हमें रखना है वो कलश! बस, इतना ही बताया गया था मुझे!
और मेरे नेत्र खुले! जैसे मुझे फिर से वर्तमान में धकेल दिया गया हो! एक मंच पर, जिसका पर्दा अभी अभी उठाया गया हो! मैंने झट से पीछे देखा, आसपास भी! वहां कोई पक्की जगह तो क्या, खंडहर भी न था! ये उजाड़ सी जगह थी और कुछ नहीं! खैर, समय तेजी से निकले जा रहा था, कुछ हाथ आये जल्दी, पता चले, इसी इच्छा ने गला पकड़ रखा था! तो मैं दौड़ चला गाड़ी की तरफ! थोड़ी देर में पहुंचा, शहरयार जी को बताया और मैं वो कलश ले, चल पड़ा वापिस! कभी तेज, कभी धीरे, ऐसे चलता जाता मैं! और उस जगह लौट आया! जैसे ही आया मैं उधर, कि मुझे सिसकियाँ सी सुनाई देने लगीं! कोई सिसक रहा था, कोई रो रहा था! मुझे नहीं समझ आया कुछ भी! क्या करूं अब? कहाँ है वो मंदड़िया? तब कलश दोनों हाथों में पकड़ा और मन में ही 'जय मणा' कहा, पता नहीं कितनी बार! मेरे नेत्र बंद हो गए अपने आप, बस कानों में 'जय मणा' ही गूंजता रहा! मेरे अंदर एक सागर सा डोलता रहा! उसमे हवाएं आतीं और चली जातीं! मेरी देह सुन्न सी पड़ने लगी हो, ऐसा महसूस हुआ! ये स्वर तेज, और तेज होता चला गया! और मेरे नेत्र तब खुले जब मैं, नीचे झुकता चला गया! मेरे हाथ उसी मुद्रा में थे, जिस मुद्रा में वो कलश पकड़ा था, लेकिन मेरे हाथों में वो कलश न था! मैं घबरा गया! कहाँ गया वो कलश? मैं तो भौंचक्का ही रह गया! आसपास देख, तो एक जगह कुछ दिखाई दिया! मैं दौड़ लिया उधर के लिए! उधर पहुंचा! साँसें तेज हो गईं थीं मेरी! पसीने टपकने लगे थे! मैं गया आगे! जान गया! जान गया ये मंदड़िया ही है! मैंने झांक कर देखा, अंदर कुछ नहीं था! वो खाली ही थी!
खैर! मेरे होंठों पर एक मुस्कुराहट आ गई! मैंने अपना काम कर दिया था, लेकिन जो जानना चाहता था वो? वो कैसे मालूम चले! मैं वहीं बैठ गया! और सोचने लगा, कि क्या था ये सब? कौन थे बाबा चूड़ामण? मांगल? कनकी? ये स्थान और वो स्थान, क्या संबंध? कुछ नहीं पता चला मुझे! अब कैसे पता चले?
"जय मणा!" आई आवाज़!
मैं खड़ा हो गया! दूर खड़ा था कोई! एक सफेद से रंग के कपड़े पहन! सफेद लम्बा सा कुरता उसका, वो खड़ा था जैसे किसी डंडे का सहारा लिए खड़ा हो! मैं ठिठक कर, वहीँ खड़ा रहा!
"जाओ! लौट जाओ! वहीँ जाओ!" आई आवाज़, और वो सफेद कपड़े वाला, लौट पड़ा! मैंने नहीं पीछा किया! उसको देखता रहा और वो, ठीक मेरी आँखों के सामने ही, लोप हो गया! वो लोप हुआ और मैं प्रसन्न! प्रसन्न यूँ कि अब मुझे लौटना था, वहीँ, जहां प्रश्नों के उत्तर प्रतीक्षा कर रहे थे! मैं हंस पड़ा! आकाश को देखा! और उसके इस खेल को देख कर, अचम्भित ही रह गया! वाह रे! तू और तेरा खेल! खेले तू, खिलाए तू! वाह रे वाह! और लौट पड़ा वापिस!
अगली रात!
मैं बड़ा ही प्रसन्न था! सच में ही! पूछो ही मत! जैसे बादलों पर सवार हो कर, पर्वतों को मुंह चिढ़ा रहा होऊं, ऐसा प्रसन्न! जैसे नीचे बहती नदियों को, ऊपर से ही, अपने हाथ के अंगूठे और तर्जनी ऊँगली के बीच से नाप रहा होऊं! छोटी पढ़ें तो हंसू भी! ऐसा प्रसन्न!
उस रात, मैं अकेला ही बैठा, उस स्थान के पास, जहां से वो जेवर मिला था! मैं जानता था, कि मैंने कुछ गलत नहीं किया! तो, मेरे प्रश्नों के उत्तर मिल जाएंगे! कुंजी तो है ही मेरे पास! ले आया हूँ वो कुंजी वहां से! है मेरे पास!
रात ग्यारह बजे!
मैंने आसपास देखा अपने, खड़े हो कर! हर जगह! अब आया समझ! समझ कि क्यों कण कण में यहां बाबा चूड़ामण बसे हैं! एक एक कण में! मैं आज उस स्थान को, ऐसे देख रहा था, जैसे आज पहली बार आया होऊं! और तभी मेरे सीने में एक तेज सी धड़कन गूंजी! धक्! और...आई आवाज़.........कुंजी!
मैं आगे बढ़ा थोड़ा सा, और प्रणाम किया, चारों तरफ! और आज्ञा ली उस महातांत्रिक बाबा चूड़ामण की!
"जय मणा!" कहा मैंने,
जैसे ही बोला, वहां, हर तरफ, प्रकाश के पिंड से प्रकट हो गई! ये मूल-अवस्था के प्रेत थे! ऊर्जामय-प्रेत! ये कोई साधरण प्रेत न थे! ये उस महातांत्रिक का सरंक्षण प्राप्त प्रेत थे जो यहां थे! कोई अन्य प्रेत, जिन्नात, कबश आदि तो इस स्थान के ऊपर से ही न गुज़र सकता था! ऐसा सरंक्षण! मैंने कहीं नहीं देखा था!
और तभी, वही प्रकाश कौंधा! वही! इस बार मेरे नेत्र न चुंधियाए! मैं प्रसन्न हो उठा अंदर ही अंदर! क्योंकि, उस महासरंक्षण का कुछ खरबवां हिस्सा, सरंक्षण के तौर पर, आज मुझे मिला था! मैं बोलूं तो क्या बोलूं? कहूं तो क्या कहूं? मैं तो उस अवस्था में था, जहां मैं, स्वयं से ही कुछ न बोल सकता था!
और मेरे कानों में, सभी रहस्य खुलते चले गए! सभी रहस्य! एक एक करके! मैं जैसे, मूर्छित सा होने लगा था, झूलने लगा था, सहारा ढूंढने लगा था पकड़ने को! मैं घूमने लगा था! किसी भी पल, मेरी चेतना शून्य होने वाली थी, पाँव डगमगा गए मेरे! मैं नीचे बैठने लगा, हाथ से भूमि को छुआ और धप्प से नीचे गिर गया! मानव देह की अपनी कुछ सीमाएं हैं! जब तक आप प्रकृति से जुड़े हैं, ये सभी नियम आपके साथ चला करते हैं! मैं तंत्राभूषणों में न बंधा होता, तो सच में, मेरी देह का रक्त खौल जाता! एक एक अंग उबल जाता! रक्त शुष्क हो, मेरी देह, कागज़ समान हो जाती!
आज से तीन सौ अट्ठासी वर्ष पहले, इस डेरे में, एक शाम, ग्यारह वर्ष के एक बालक की स्वाभाविक मृत्यु हुई थी, उपचार आदि के बाद भी वो ठीक न हो सका था! ये बालक था कनकी! मांगल इस डेरे का संचालक था, मांगल के साथ, कुछ विशेष एवं वृद्ध साधक भी रहा करते थे! मूलतः ये डेरा, बाबा चूड़ामण का था, बाबा चूड़ामण ने, अपने जन्म-स्थल, पर ही अपने प्राण त्यागने हेतु धूंधर, मंडावर को चुना था, वो नौ दिवस पहले, चक्रवास पर जा चुके थे! स्मृतिवत्र में पहुँच चुके थे, प्रत्येक सिद्ध एवं महासिद्ध इस चक्र से अवश्य ही गुजरता है! स्मृतियों का नाश करता जाता है वो! मोह-माया आदि से दूर होने के लिए, जो शेष हो, उसको भी! परन्तु, वो संजोता है, संजोता जाता है, अपनों सिध्दियां, गुरु-आशीष, मार्ग स्वच्छ किये जाता है वो अपने जाने के लिए! जब इसके अतिरिक्त कुछ शेष नहीं रहता, तब वो कूच कर जाता है! नौ दिवस पहले, बाबा चक्रवास में गए, और आठवें दिन मांगल को बुलावा आया कि अब और विलम्ब नहीं, मांगल निकला दोपहर को, और उधर कनकी, संध्या में प्राण त्याग गया........
मांगल वहां पहुंचा, तो बाबा मध्य-रात्रि कूच कर गए......मांगल दाह-संस्कार उपरान्त उसी अपराह्न वापिस लौटा..........उसकी कनकी की दुखद खबर मिली, जी पर पत्थर बाँध, मांगल और एक और साथी, फिर से चले मंडावर के लिए!
लेकिन...........वो नहीं पहुंचे!
कहाँ रह गया मांगल?
क्या हुआ उसे और उसके साथी को?
क्या गुज़रा उनके साथ?


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो कहाँ रह गए? कोई नहीं जानता! यहां तक कि यहां जो प्रेत थे, वे भी नहीं! यहां ये कुल चौबीस थे, तो वो पुरुष कौन था? वो तेज वाला? इसका उत्तर दूंगा अभी! पहले धन! वो धन कहाँ से आया? इन डेरे वालों को इतने धन की क्या आवश्यकता? ये धन न लूट का था और न ही चकारी का! ये धन, दान का धन था! ये धन, दबा कर ही रखा जाता था! सूरजकुंड में जो प्राचीन सा सूर्य-मंदिर है, इसमें इसी डेरे का धन भी लगा था, जीर्णोद्धार में इसके! एक पुराना चण्डी माँ का मंदिर भी था यहां, अब नहीं है वो, भूकम्प आदि प्राकृतिक आपदाओं में शायद खत्म हो गया होगा, खंडहर अवश्य ही होंगे, अब ज़मींदोज़ हों तो कहा नहीं जा सकता!
वो मांगल-चालै बोलने वाला, सेवक ही था वहां, सिवणा नाम था उसका, उधर कुछ स्त्रियां भी थीं, जो दिखाई दी थीं मुझे! वो लोहा पीटने वाले? वो बंजारे थे, कोई लुहार जाति, जो उस डेरे में काम करते थे! तो उनके प्रेत क्यों थे इधर? दरअसल, मांगल के यहां धन है, सभी जानते थे, अब धन हो, तो कौन शत्रुता नहीं पालेगा? और ये क्षेत्र तो लुटेरों का स्वर्ग रहा है! मांगल का सामना ऐसे ही किसी गिरोह से हुआ, वे सम्भवतः मार डाले गए हों, क्योंकि किसी की निगाह में रहे हों! मौक़ा भी अच्छा था, वहां बाबा नहीं रहे, उधर कनकी की मौत, इधर मांगल हाथ आ लगा, और उधर, डेरा लूटा गया, अब इन साधकों में, यही दिक्कत थी, आपसी बैर, वर्चस्वता की लड़ाई! ऐसे ही वे सब काट डाले गए होंगे! जैसा मैंने बताया था, और जैसा मैंने सुना भी है, कि ये लुटेरे कोई आम लुटेरे नहीं हुआ करते थे, इनके पास इनके 'बाबा' हुआ करते थे, वे ही सही वक़्त, सही दिन, सही अवसर बताया करते थे और लूट को, जो कि एक खुल क़त्ल-ए-आम सा हुआ करता था, अंजाम दिया जाता था! ऐसा यहां भी हुआ था! यहां अवसर ने अपनी चाल दिखाई! और यहां रक्तपात हुआ!
अब वो कलश! वो क्यों मंगवाया गया, कनकी की जात न लगी थी, और वो जात लगने से पहले ही प्राण त्याग चुका था, उसकी भस्म को, उसके पुरखों की भूमि पर रखा जाना था, फिर प्रवाहित किया जाना था! बाबा रहते तो सब हो जाता, शायद तब, तब कनकी जाता ही नहीं, लेकिन ये सिद्ध, प्रकृति के मार्ग में रोड़ा नहीं अटकाते! यही तो है सिद्धत्व! तो कलश रखवाया गया!
और हम............फिर से यहां थे!
जब मेरी चेतना लौटी, तब सुबह होने को थी! मैं खड़ा हुआ, कोशिश की तो झूम सा गया! अभी तक, देह शिथिल थी! किसी तरह से उठा, तो कुछ देखा! देखा, वहां की भूमि, जहाँ वो सारा धन था, नीचे धसक गई थी, कम से कम, आधा फुट तक! मैं मुस्कुरा पड़ा! ये मेरा था नहीं, ले भी नहीं जाता मैं! मुझ में हिम्मत ही नहीं उसको लेने की! मेरा होगा तो कहीं नहीं जाएगा, नहीं होगा, तो मेरे लाख रोकने पर भी न रुकेगा!
अब वो तेज वाला पुरुष! कौन था? वो स्वयं बाबा चूड़ामण ही थे! मुझे तो यही लगता है! यही, वो तेज, कभी नहीं भुला सकता मैं!
महीनों बीत गए! एक सर्दी की दोपहर...............
"चालै! मांगल चालै!"
आवाज़ आई मुझे! हम सभी वहीँ बैठे थे! मैं उठ पड़ा! भागता गया उस आवाज़ की दिशा में! कुछ नहीं था, मज़दूर काम कर रहे थे वहां! उनके बालक, खेल रहे थे, दो जगह चूल्हे जल रहे थे वहां! उन तीनों ने ये सारी कहानी जानने के बाद, वो ज़मीन न बेचने का इरादा बना लिया था! अब वहां वो कुछ और ही बनाना चाहते थे! कुछ ऐसा, जो कल्याण के लिए हो! मुझे बहुत ख़ुशी हुई थी ये जानकर! 
मैं रुक गया! और मुस्कुराया! कुछ देर खड़ा रहा! शहरयार दौड़ते चले आये मेरे पास!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ तो?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?' बोले वो,
"चालै! मांगल! चालै!" बोला मैं!
और हम दोनों, हंस पड़े! खिलखिलाकर!
जय बाबा चूड़ामण! जय मणा!
जय श्री भैरव नाथ!
साधुवाद!

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