वर्ष २०१३, सूरजकुंड...
 
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वर्ष २०१३, सूरजकुंड, हरियाणा के पास की एक घटना, बाबा चूड़ामण का तांत्रिक-स्थल!

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श्रीशः उपदंडक
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जिस तरह से, उसने वो चूना या खड़िया मल रखी थी अपने बदन पर, उसका कुछ कुछ ध्यान मुझे आया, ये मेरे या तो देखा हुआ, या, कहीं पढ़ा हुआ, या कहीं और किसी द्वारा बताया हुआ सा था! ये कहाँ हो सकता था? उस समय, कुछ पल, मैंने इसी सोच को दान दे दिए थे और तब, अचानक ही मेरे मन में ये एक उत्तर आया! मैं चौंक पड़ा! ये एक मध्य-युगीन समय की एक शाखा का, चिन्ह था, ये चिन्ह, इस प्रकार का होता है, स्त्री वक्ष पर, एक त्रिपुंड, बनाया हुआ, उस त्रिपुंड को बाहर से घेरा नहीं जाता, बल्कि, उसमे खड़ी हुई कुछ लकीरें, कुछ छोटे छोटे चौबंद से बनाती हैं, यदि ये चौबंद, उदर पर, खुले तो इसका अर्थ ये हुआ, इस ये इस वर्ग-विशेष की कोई माननीय सदस्या है! जो कि इस स्त्री के वक्ष पर बनी थी! और ये समुदाय, कालेहन समुदाय की पहचान था कालेहन समुदाय, कापालिक समुदाय से ही निकला हुआ समुदाय था, अब इसका कोई निशान या जीवित सदस्य नहीं मिलता, ये तो नहीं कहूंगा कि है या नहीं, कोई हो, तो मेरी पहुंच में नहीं आ पाया है! इतना तो तय है, एक किवदन्ती के अनुसार, भानगढ़ के आसपास, ऐसे समुदाय अवश्य ही पनाह लिया करते थे! खैर, मेरे सामने जो स्त्री थी, वो भीषण स्वरूप वाली, जीती-जागती सी डामरी-देवी या साठ्या थी! साठ्या, बीहड़ में बसने वाली एक चुड़ैल होती है, जो भटके हुए मनुष्यों का शिकार करती है! बीहड़ में, इसी साठ्या का दमन करने के लिए, चामुंडा देवीु को स्थापित किया जाता था! यही कारण उचित भी प्रतीत होता है, कि देश में, चामुंडा माँ के जितने अधिक मंदिर, राजस्थान में हैं, शायद ही कहीं और हों!
मेरे मंत्र की पकड़ में, वो स्वतः ही चली आई थी, या वो जद में जकड़ी गई थी ये तो नहीं बताया जा सकता! लेकिन हाँ, वो कुछ और पल ठहरी, और फिर, झप्प से लोप हो गई थी! जिस तेजी से आई थी, उसी तेजी से लोप भी हो गई थी!
मेरा पसीना, सर से होकर, माथे, माथे से, नाक के किनारों से होता हुआ, होंठों को गिरहबंद कर, नीचे गले तक जा पहुंचा था, पसीने में मैं, नहा ही चला था! और तब, मैंने रुमाल से पोंछा पसीना! शहरयार साहब, भांप ही गए थे, कि उस सन्नाटे में कुछ सन्नाटे के प्राणी या उसका कोई प्राणी, आ सम्मुख खड़ा हुआ था! जब मैं सामान्य हुआ तब वे भी सामान्य ही हो गए थे!
"कुछ देखा?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या गुरु जी?" बोले वो,
और तब मैंने उन्हें सब बता दिया! उनके भी पसीने छूट गए! अब ये तो साफ़ था, कि हमने जाल भले ही फेंका था, लेकिन उलझे, हम ही थे उसमे! चाहते तो भाग जाते, भागते तो पीछा दीखता, पीछा दीखता तो कायर कहलाते! और कायर कहलाना तो सबसे बड़ी उलाहना हुआ करती है! वो भी, इस क्षेत्र में!
"अब?" बोले वो,
"अब?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"अब खेल शुरू हुआ!" कहा मैंने,
"सामान?" बोले वो,
"लाइए?" कहा मैंने,
"लिखवा दो?" बोले वो,
"हाँ, आओ?" कहा मैंने,
और उन्होंने, सामान लिखना शुरू कर दिया! मुझे हाज़िर-मंत्र के लिए कुल नौ वस्तुएं चाहिए थीं, उनसे काम बन जाता! क्रिया करनी नहीं थी, उसकी आवश्कयता पड़ती तो वो भी सम्पन्न करते ही हम!
"आप चलोगे?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"किसे ले जाऊं?" बोले वो,
"जिसे भी?" कहा मैंने,
वे चुप हो गए!
"गुरु जी?" बोले वो,
"हम्म, हाँ?" कहा मैंने,
"क्या बात है?" बोले वो,
"कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"कुछ भारी है क्या?" बोले वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"फिर, ऐसे, गम्भीर क्यों?" बोले वो,
"वो औरत!" कहा मैंने,
"तो?" बोले वो,
"उसमे कुछ ख़ास था!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"यही सोच रहा हूँ!" कहा मैंने,
"क्या खिलंदड़ी थी वो?" बोले वो,
"हाँ! लगता है!" कहा मैंने,
"कालेहन?" बोले वो,
"हाँ! हाँ! यही!" और मैंने ये कहते हुए खड़ा हो गया!
"मुझे बताइए?" बोले वो,
"कालेहन!" कहा मैंने,
"यहां उनका राज है!" बोले वो,
"बेशक!" कहा मैंने,
और तभी भड़ाक की आवाज़ हुई! एक बार! दो बार! तीन बार! जहाँ से हुई थी, हम दौड़ पड़े वहां के लिए! सीधे ही! वे तीनों, जैसे मरे ही मरे! अफरातफरी मच गई उनमे! हमारी तरफ भागें वो! और मैं, कोल्हू से छूटे भैंसे सा, भागूं उधर! मेरे साथ, शहरयार जी भी! किसी से कुछ न बोले हम और सीधे ही भाग लिए!
और जो वहां आये!
और जो हमने देखा!
क्या बताऊं आपको मित्रगण! क्या बताऊं! ज़मीन में, तीन बड़े बड़े से गड्ढे पड़ गए थे! उन गड्ढों में से, सफेद सी रेत भरी थी! रेत थी कि चूना, पता नहीं! एकदम सफेद! चमकदार सी! ऐसे चमके जैसे, दाने चमकते हैं कांच के! वो गड्ढे, चार चार फ़ीट चौड़े और तीन तीन फ़ीट लम्बे! ये अपने आप खुले थे! अपने आप!
"ये..ये?" बोलते भी न बन पड़ा उनसे!
"हाँ शहरयार जी! ये!" कहा मैंने,
"क्या है ये?" बोले वो,
"खेल शुरू हो गया!" कहा मैंने,
"कोई है यहां?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
मैं आगे बढ़ा और एक गड्ढे के पास जा बैठा! जैसे है नीचे देखा, 'करड़-करड़-' की सी आवाज़ हुई ज़मीन के नीचे! मैं फौरन ही उठ बैठा! कहीं ऐसा न हो, ज़मीन और फटे और हम, धसक जाएँ उसमे! हो जाएँ ज़िंदा ही दफन! इसीलिए, पीछे हट गए थे हम! लेकिन वो आवाज़ रुकी नहीं! हमारे पांवों के नीचे से गुजरती! लौटती और हम, उसे महसूस करते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ये क्या हो रहा है?" पूछा उन्होंने,
"जैसे ज़मीन में, चट्टानें या पत्थर हिल रहे हों!" कहा मैंने,
"कहीं धसके ही नहीं?" बोले वो,
"एहतियात रखो, ध्यान रखो!" कहा मैंने,
"हाँ, हाँ गुरु जी!" बोले वो,
और फिर कुछ शांत सी हुई वो आवाज़! मैं और शहरयार, एक दूसरे को देखने लगे, लेकिन पाँव उठाने में, एक अंजान सा भय भी लगे!
"रुको!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और मैं पीछे घूमा, पलटा थोड़ा सा!
"आओ?" कहा मैंने,
वे आये आगे, थोड़ा सा,
"हाँ, चलो आगे?" कहा मैंने,
और फिर से आवाज़ आई! इस बाहर तो जैसे नीचे पत्थर ही फट पड़े थे! हम जहां थे, वहीँ के वहीँ ठिठक कर रह गए!
"रुको?" चीखा मैं!
"हाँ!" बोले वो,
"रुके रहो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम करीब दो-तीन मिनट, वहीँ रुके रहे, बिलकुल भी न हिले! ऐसा लगता था कि हिलते ही, वो ज़मीन धसक जायेगी! ज़मीन से, ऐसा भय कभी नहीं लगा था मुझे तो! शहरयार साहब के साथ तो ये पहला ही वाक़या था, उनका घबरा जाना, समझ से परे नहीं था! मैं समझ रहा था उनका भय! चेहरा लाल हो गया था उनका!
"रुके रहो, कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
ढांढस बंधाया उनको मैंने!
"घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
"जी गुरु जी!" बोले वो,
और तभी मेरी नज़र ठीक सामने पड़ी! ठीक सामने, वही औरत! ठीक वैसे ही खड़ी हुई! हाँ, इस बार, बायां पाँव आगे किये हुए!
"शहह! हिलना नहीं!" कहा मैंने,
और मैंने की हिम्मत! बढ़ा आगे और चला थोड़ा सा आगे की तरफ, उसकी तरफ! और वो, फिर से लोप!
"भाग आओ!" चीखा मैं,
और जैसे ही उन्होंने सुना, वे भागे मेरी तरफ! जैसे ही पास आये, मैं भी दौड़ने लगा! साथ ही साथ उनके!
"इधर इधर!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"पेड़ों से अलग!" कहा मैंने,
और हम, दौड़े वापिस! आ गया उसी जगह जहां थे हम पहले! साँसें बांधीं हमने! वे तीनों? वे कहाँ गए?
"अनिल?" चिल्लाया मैं,
"विनोद?" चिल्लाए वो!
"प्यारे?" चिल्लाया मैं!
"कहाँ गए?" मैंने घबराहट से पूछा!
"बाहर?" बोले वो,
और हम दौड़ कर बाहर भागे! आ गए बाहर! बाहर आये तो सामने का दृश्य बड़ा ही अजीब! वहां पर, वे तीनों तो थे, लेकिन बड़ी दूर खड़े! हमें देख, हाथ हिलाया उन्होंने!
"वे रहे!" बोले वो,
"अच्छा किया इन्होने!" कहा मैंने,
"गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो, वहां देखना?" बोले वो,
"क्या.......?" कहा भी नहीं पूरा कि देखा उधर!
ओहो! कोई और हो, तो सांप सा डंक मार दे! ऐसा लगे कि बदन की बोटी बोटी सी नोंची जा रही हो!
श्वान! कम से कम, पच्चीस श्वान! सभी बैठे हुए! कान मुस्तैद किये हुए! जैसे, आदेश का इंतज़ार कर रहे हों कि जाओ और चीर-फाड़ मचा दो!
"ये?" कहा मैंने,
"ये कहां से आ गए?" बोले वो,
"कहीं से नहीं!" कहा मैंने,
"इतने सारे?" बोले वो,
"हाँ, ये इसी डेरे के हैं!" कहा मैंने,
"डेरा?" बोले वो,
"कालेहन!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
मैंने उठाया ऊपर हाथ अपना! लड़ाया एक रक्षा-मंत्र! थूका अपने हाथ में, बंद की मुट्ठी अपनी! और नीचे झुकने लगा! जैसे ही झुका नीचे मैं, कि श्वान, सभी, उठ खड़े हुए! जैसे अभी हमला कर देंगे! जैसे ही हमला करने को बढ़े आगे, कि मैंने हाथ छुआ दिया भूमि से! वे मायावी श्वान थे! पड़ा तोड़! और कांय-कांय की आवाज़ कर, सभी दौड़ते चले गए, एक दूसरे को लांघते हुए!
"हे मेरे भगवान!" बोले वो,
"घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
"मैं तो एक बार को, घबरा ही गया था!" बोले वो,
"असल सोच कर!" कहा मैंने,
"जी हाँ!" बोले वो,
"सब एक जैसे थे, है न?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"तब भी नहीं समझे?" बोला मैं,
"अब समझा! हाँ!" बोले वो,
"उन्हें बुलाओ?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और दी उन्हें आवाज़! वे, थके-टूटे से, बढ़ने लगे हमारी तरफ! 
"इन्हें अंदर बुला लेना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और मैं अंदर आ गया, जैसे ही आया, एक और आश्चर्य! अब तो कोई खुलकर ही सामने आने लगा था! जैसे, भिड़ने हो पूरा तैयार था! ये आश्चर्य क्या था, अभी बताता हूँ!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे अभी बाहर ही थे, और मैं अंदर चला आया था! आते ही, एक घोर आश्चर्य से सामना हुआ था! और आश्चर्य ये, कि वो जो पत्थर, हमने निकलवाया था, उसके तीन टुकड़े हो गए थे! जैसे किसी ने उसे उठाकर, नीचे दे मारा हो! अभी मैं उसको देख ही रहा था कि वे चारों भी अंदर चले आये, एक गुट सा बना, वे तीनों तो, अनभिज्ञ से, एक तरफ खड़े हुए थे और शहरयार जी, मेरे पास चले आये थे!
"अरे??" निकला मुंह से उनके!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये कैसे टूट गया?" बोले वो,
"तोड़ दिया गया!" कहा मैंने,
"इसका क्या अर्थ हुआ गुरु जी?" पूछा उन्होंने,
"कोई चाहता है, अब आमना-सामना!" कहा मैंने,
"भला कौन?" बोले वो,
"यही तो नहीं बता रहा कोई!" कहा मैंने,
"यहां तो सबकुछ बड़ा ही अजीब है गुरु जी!" बोले वो,
"हाँ, सुनो?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये तीन यहां अगर ठहरे, तो मुझे लगता है, समस्या बढ़े ही बढ़े!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"तब एक काम करो आप!" कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"इनको भेजो सामान लेने!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"और आप आओ मेरे साथ!" कहा मैंने,
"जी, आया ज़रा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वे चले, ज़रा वो फेहरिस्त उन्हें देने, सामान की, कुछ बातें कीं और लौट आये!
"बता दिया?" पूछा मैंने,
"हाँ, ताक़ीद भी कर दी, सामान सारा पूरा ही हो!" बोले वो,
"सही किया!" कहा मैंने,
हम वहीँ खड़े थे, कि एक गाड़ी में, वे तीनों ही बाहर चले गए, सामान आ जाता तो रात को, कुछ उचित सा समय और स्थान देख, मैं कुछ देख डालता! कुछ जांच करता कि आखिर यहां है कौन? क्या चाहता है? क्या कारण है? एक बार स्पष्ट हो जाता तो राह आसान हो जाती! और फिर, वो भिड़ना ही चाहता है, तो उसकी राजी, पीछे तो हम भी नहीं लौटेंगे! न ही लौटने ही वाले!
'आओ, ज़रा उधर?" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोले वो,
"वो गड्ढे देखें ज़रा?" कहा मैंने,
"जी! बोले वो,
"चालै मांगल!" एक आवाज़ गूंजी!
हम दोनों ही ठिठक गए! आसपास देखा, नेवले की तरह! आवाज़? ये कैसी आवाज़ थी? कहाँ से आई थी?
"मांगल! हा! हा! हा! चालै!!" फिर से एक आवाज़!
हमने तो चारों तरफ देख लिया! आवाज़ कहाँ से आ रही थी, कुछ पता ही न चला! हम तो, जैसे कोई बावरा, कुछ ढूंढें यहां वहां, ऐसे हो गए थे!
"शहहह!" कहा मैंने.
उन्होंने सर हिलाकर, हाँ कही!
"कुछ सुना?" पूछा मैंने,
"हाँ....." बोले वो,
"क्या सुना था?" पूछा मैंने,
"मांगल चालै, ऐसा, फिर हंसी सी...." फुसफुसाए वो!
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"चालै! चालै!" आई फिर से आवाज़!
और हम, फिर से बावरे हुए!
"हा! हा! हा! मांगल!" आवाज़, इस बार हल्की से!
"शायद..उधर से?" इशारा किया उन्होंने,
"पेड़ों से?" पूछा मैंने,
"शायद?" बोले वो,
"मांगली! हयोप्प! हा! हा! हा!" आई फिर से आवाज़, इस बार नया शब्द लिए!
"हाँ, पेड़ों से ही!" बोले वो,
"रुको?" कहा मैंने,
"मांगल?" आई इस बार तो, बहुत ही तेज आवाज़! जैसे, किसी मंगल को पुकार मारी हो किसी ने!
और फिर, खड़ताल! खड़ताल सा बजा!
"मांगल?"
"हयोप्प!"
"हा! हा! हा!"
"चालै! चालै!"
"मांगल चालै!"
हा! हा! हा! हा! हयोप्प!
एक साथ ऐसी ही आवाज़ें हर दिशा से गूंज उठीं! न सामने कोई, न पीछे कोई! ना बाएं कोई न दाएं कोई!
''कौन है?" अब मेरा सब्र चुका!
आवाज़ बंद! खड़ताल बंद!
"कौन है? सामने आओ?" बोला मैं, चीख कर!
अब कोई आवाज़ नहीं!
कुछ पल, ख़ामोशी छायी!
"ही! ही! ही!" आवाज़! इस बार एक औरत की!
"जो भी है? सामने आओ?" बोला मैं,
"हयोप्प!" आई आवाज़!
और खड़ताल शुरू! तीन ताल और बंद!
"चालै! चालै! मांगल!" आवाज़ फिर से कौंधी!
"इधर!" अबकी देखा मैंने कुछ!
"चलो!" बोले वो,
और हम दोनों, लपक कर दौड़ पड़े उधर के!
"मांगल चालै!" आई आवाज़ फिर से, आई सामने से ही थी!
"उधर!" बोला मैं,
"जी! बोले वो, और हम, मिट्टी फांकते हुए, दौड़ पड़े उधर के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जहां वे पेड़ लगे थे, और जहाँ से ये आवाज़ आ रही थी, या हमें आती सुनाई दे रही थी, एक ऊँची सी जगह पर थी, हम, दोपहर के वक़्त यहां से गुजरे थे, कुछ असमान्य नहीं था वहां, पथरीली से ज़मीन और कुछ छितराए हुए से पेड़ बस! हाँ, कुछ बड़े से पत्थर भी रखे थे यहां! और कुछ नहीं था, जब से हम यहां आये थे, घटनाएं बड़ी ही तेजी से बदलने लगी थीं! ऐसा शायद ही कभी पहले हुए हो, और अगर ऐसा, इन तीन जमूरों के सामने हो जाता, तो सच्ची बात, कोई भी, कभी भी यहां दुबारा आने की हिमाक़त नहीं करता!
"मांगल चालै!" आई फिर से आवाज़ वही!
"हाँ उधर!" कहा मैंने,
इस बार आवाज़ की दिशा पकड़ ही ली थी मैंने, ये ठीक सामने से, बाएं से कहीं आ रही थी! इस आवाज़ में कुछ नशा सा भरा था, जैसे किसी ने खूब छक कर मदिरा पी हो और वो, अब, अलख पर आ बैठा हो! लेकिन ये जो शब्द वो बोल रहा था, इसके क्या मायने थे, ये नहीं समझ आ रहा था! मांगल, मंगल भी हो सकता था, कोई नाम, या कोई व्यक्ति, चालै, मतलब, चलता है या चला है! अब कौन मंगल और कौन चला, ये नहीं पता था! हयोप्प, जब आवाज़ आती थी, तो लगता था कि जैसे डकार की सी आवाज़ है ये!
"चालै! चालै! चालै, मांगल! हयोप्प!" फिर से एक आवाज़ उठी!
''चलते रहो!" कहा मैंने, धीरे से,
"जी!" बोले वो,
और हम एक टीले से पर चढ़ गए, आसपास नज़र डाली, कोई नहीं! लगता था कि जैसे कोई था वहां, जो अब नहीं है!
"यहीं से आ रही थी आवाज़!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"लेकिन कोई नहीं यहां तो?" कहा मैंने,
"आसपास में?" बोले वो,
''आओ, देखते हैं!" बोला मैं,
"हैय्यो! चालै!" आई फिर से आवाज़!
हम दोनों ही ढूंढें उसे, कि कौन है ये? कौन बोल रहा है?
और सहसा ही!
"गुरु जी?" बुदबुदाए से वो!
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो, उधर देखिये?" बोले वो,
मैंने उधर ही देखा, ठीक सामने से बाएं, कोई बैठा था, ज़मीन पर, आलती-पालती सी मार! वो जैसे, कुछ उठा रहा था ज़मीन से, ऐसा लगता था! लेकिन क्या, ये नहीं दीख रहा था!
"उधर चलना?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम, आहिस्ता से वहां चलने लगे!
"चालै! चालै!"
"हा! हा! हा! हा!"
"हैय्यो! मांगल??" चीखा अब वो!
"हा! हा! हा!" बोला वो,
"चालै! चालै!" बोला वो,
और तब हम, ऐसी जगह पर आये, जहां से, उस पर हमने नज़र रखी, ये बाईं जगह थी, नीचे झुके, और जब उसका चेहरा देखा तो भय आना तो स्वाभाविक ही था!
"ओह!" बोले वो,
उसका चेहरा, काफी बड़ा, आम आदमी से काफी बड़ा, देह, बहुत भारी थी! कंधे, जैसे भैंसे के से हों! गर्दन जैसे सांड की सी हो! पूरा का पूरा सफेद खड़िया में रंगा था! ज़मीन से कुछ खोदता था वो! पास में, एक बड़ी सी लाठी रखी थी उसकी, लाठी पर, रस्सियाँ बंधी थीं, कद-काठी बेहद ही विशाल रही होगी उसकी!
हम तो चुपचाप, उसके उस क्रिया-कलाप को देखते रहे! वो बार बार आकाश को देखता और 'चालै! चालै!' बोलता जाता था!
"क्या कर रहा है ये?" पूछा उन्होंने,
"कुछ निकाल रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ, शायद!" बोले वो,
"मांगल? चालै!" बोला वो,
और एक झटके से उठा वो! पूरे बदन पर, अस्थि-माल ही अस्थि-माल! वो बहुत खुश लगता था, सर हिलाता था अपना! उसने दो तीन बार, ज़मीन में लात पटकी अपनी, और अपनी पीठ हमारी तरफ किये, चला गया वहां से!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम दौड़ कर वहां पहुंचे, जहाँ वो खोद रहा था! नीचे बैठे, जब नीचे देखा तो कुछ छींटे से दिखे!
"ओह!" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोले वो,
"वो निकाल नहीं रहा था!" बोला मैं,
"फिर?" बोले वो,
"कुछ दबाया है उसने!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
मैंने आसपास ढूंढा, एक लकड़ी मिली, उस लकड़ी को उस जगह गाड़ा, लकड़ी अंदर घुसी, और अंदर मुझे लगा कि जैसे, मांस के लोथड़े दबाए गए हैं! लेकिन अजीब बात ये, कि कोई दुर्गन्ध नहीं, लकड़ी बाहर खींची तो लकड़ी पर खून लगा था, लकड़ी को सूंघा तो नमक की गंध(ये गंध सभी को नहीं आती, कुछ एक ही हैं ऐसे, या फिर, सीखा जाता है ऐसा) उठी, स्पष्ट था, नीचे शायद, इंसान का मांस दबा था!
"क्या है?" बोले वो,
"इंसानी गोश्त सा है!" कहा मैंने,
"हैं?" बोले वो,
"हाँ, रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"हयोप्प!" आई आवाज़!
और हम दौड़े वहां से! कहीं देख ही न ले हमें, इसीलिए, एक जगह जा छिप गए! लेकिन पूरी तरह से नहीं, इसके लिए, पीछे होना पड़ा हमें!
"लौट आया!" बोला मैं,
"हाँ, वही है!" बोले वो,
"चालै!" बोला वो,
झूम झूम कर चलता आ रहा था वो! सर हिलाता हुआ, गोल गोल सा घूमता हुआ! खुश था, अब ये तो वो ही जाने कि क्यों!
"मांगल! चालै!" बोला वो,
और बैठ गया नीचे! उसी जगह! और हम......................?


   
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श्रीशः उपदंडक
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"सुनो?" बोला मैं,
"जी?" उनोने, धीरे से कहा,
"यहां, अचानक से हर वस्तु ज़िंदा हो गई है, मेरा आशय है, मेरे इशारे समझना..." कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"चालै?? खिज्जी?? हो! हो! हो!" बोला वो, भीमकाय सा!
सच कहता हूँ, मैं आमतौर पर, इन प्रेतों से भय नहीं खाता, अपितु और करीब जाने की ही सोचा करता हूँ, प्रेत अपने आप में, एक ऐसी सत्ता है, जिसको जितना जाना जाये, पूर्ण ही न होगा! मुझे, यही हैरानी होती है, कि, यदि कोई 'जानकार' न हो, तो ये प्रेत, किसी के साथ भी, बरसों तलक, एक मानस समान ही बने, रह सकते हैं! इस से सामर्थ्य पता चलता है एक प्रेत का! और फिर, ये, ये जो प्रेत यहां थे, ये तो सामान्य भी न थे! ये सभी अपने आप में जानकार, विद्या में सिद्धहस्त एवं, एक अत्यन्त ही दुर्लभ समुदाय से संबंध रखते थे! ये कालेहन समुदाय था! अधिक तो खैर, मैं भी नहीं जानता इनके बारे में, इनकी विधि, रीत क्या हैं, मुझे नहीं पता था!
"मांगल? खिज्जी! चालै!" बोला वो,
और अपने केश खींच कर पीछे किये उसने! उसका बदन, सच में पाषाण शीला के समान ही था! वो तो जैसे, मुझ जैसे चार को, एक ही हाथ से मारे धक्का और हमारी पसलियां ये भी भूल ही जाएँ कि वो पल भर पहले थीं कहाँ! इंसान था या बिजार! शायद बिजार ही था वो! मांस-पेशियाँ ऐसी थीं उसकी, कि, मुड़कर तो, न दाएं देख पाये और न ही बाएं! गले की पेशियाँ ऐसी मज़बूत थीं कि जी माल मेरे छाती तक आता था, वो तो उसकी गर्दन के इर्द-गिर्द ही अटक जाए! जांघें ऐसी, जैसे किसी भरे-पूरे पेड़ का सा शहतीर! भुजाएं ऐसी कि जैसे मज़बूत सी शाखें!
"मांगल!?" बोला वो,
और बैठ गया नीचे! घुसेड़ा अपना हाथ उस गड्ढे में, और खिंच लिया कुछ बाहर! लेकिन वो था क्या? ये एक मांस का सा पिंड था, जैसे पूरा पिंड ही, केशों से ढका हुआ हो! जैसे किसी रीछ का सा सर!
"ये क्या है?" बोले वो,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"कोई सर?" बोले वो,
"नहीं लगता!" कहा मैंने,
"फिर क्या?" बोले वो,
"शायद, रीछ का सा सर है!" कहा मैंने,
"रीछ का सर?" बोले वो,
''अनुमान है!" कहा मैंने,
"खिज्जी?" चीखा वो, बहुत तेज चीखा! कानों में टकराई उसकी चीख!
"ओह!" बोले वो,
"खिज्जी?" कहा मैंने,
"यही बोला वो?" बोले वो,
"मांगल!" फिर, हँसते हुए, ये बोला वो!
"देखो?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
वो घुटनों पर बैठा, और एक हाथ से, वो सर सा, ज़मीन में घुसेड़ दिया! हंसा! ठहाका सा लगाया! और अपने रक्त भरे हाथ, अपने सर से पोंछ लिए उसने!
"मांगल? हाँ! हां!" बोला वो,
और उठ खड़ा हुआ! आसपास देखा, और चल पड़ा वापिस! हम, वहीँ छिपे रहे, उसने अभी तक, इस ओर देखा नहीं था, देखता तो हम अवश्य ही मुश्किल में पड़ जाते!
"उठो?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"नेत्र बंद करो अपने!" कहा मैंने,
"जी!" कहा मैंने,
और मैंने तब, देह-रक्षण मंत्र का संचार किया, अपनी और उनकी देह में! जैसे ही रक्षण-विद्या संचारित हुई उनकी देह में, कि उनका जी मिचलाया! चक्कर से आने लगे! आदत नहीं थी उन्हें, इसीलिए ऐसा हुआ! और फिर, न चाहते हुए भी, उलटी कर ही दी उन्होंने! उन्होंने उलटी की, और मैंने, उसे, मिट्टी से ढकना शुरू किया! नहीं चाहता था, कि पकड़ में आएं हम!
"क्षमा कीजिये" बोले वो,
"कोई बात नहीं" कहा मैंने,
"खिज्जी?? खिज्जी?" आई आवाज़ फिर से वही!
और हम भागे वहां से, फौरन, और जा छिपे एक बड़े से पत्थर के पीछे! वो आदमी, फिर से आ गया था, इस बार, उसके हाथ में एक झोला सा था, झोला था या कोई खाल, पता नहीं, हम बस, साँसें बांधे उसको ही देखते रहे!
"मांगल?" बोला वो,
"मांगल?" मारा छाती पर हाथ उसने!
"चालै! चालै!" बोला वो, और दहाड़ा हँसते हँसते!
"अजीब है?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इसका बर्ताव?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"विक्षिप्त सा लगता है, नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"खिज्जी! मांगल!" बोला वो, और वो जो खाल सी लाया था वो अपने साथ, उसने, फटकारी! जैसे ही फटकारी, फौरन ही समझ में आ गया! ये इंसानी खाल थी, उतरी
 हुई छील कर! बदबू ऐसी उठी, कि मेरे नथुनों में से पानी सा बह निकला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये खाल तो ऐसे खींच दी गई थी कि जैसे, किसी के पांवों को तोड़ कर, उस पर खड़ा हुआ हो कोई, और पूरी जान लगाकर, सर तक, खींच मारी हो! अभी तक उस खाल पर, मक्खियां उड़े जा रही थीं, छिन्नी बर्रे लड़-झगड़ रहे थे मांस नोंचने को! ऐसी भयानक बदबू थी कि कोई भी इंसान, गश खा जाए उस बदबू को सूंघ कर! अभी तक, उस खाल पर, छीले हुए, अंगों का मांस चिपका हुआ था! कोहनी, कंधे, सीना, उदर, उदर पर तो मांस के लोथड़े तक चिपके हुए थे! सर का बस ऊपरी भाग नहीं था, नहीं तो पूरे कान तक चिपके हुए थे! ये सब क्या था? शायद, एक ही उत्तर इस सवाल की खानापूर्ति करता था और वो, कि शायद वो एक आसन बनाने के लिए उत्तरी हुई खाल रही हो! इंसानी खाल! इस खाल से, नमक को हटा दिया जाए, तो ये खाल बरसों तक, संभाली जा सकती है, रक्त तो, गोंद जैसी मज़बूती प्रदान किया करता है, प्राचीन तंत्र-ज्ञान ऐसी ही खालों पर, रक्त द्वारा ही लिखा गया है, कलम भी हड्डी से ही बनाई जाती थी! मैंने देह-रक्षण कर लिया था, अपना भी और शहरयार का भी! अब ये मंत्र लिख ही देता हूँ, आपसे विनती है, करता हूँ, मुझ से इसकी क्रिया-विधि, सिद्धन-विधि आदि न पूछें! मैं नहीं बता पाउँगा, मन्त्र इस प्रकार से है:-
चेत सूना ज्ञान, औंधी खोपड़ी, मरघटिया मसान!
बाँध दै! बाँध दै! बाँध दै! बाँध दै! बाबा भैरो की आन!!

चार दिशाओं में, चार बार पढ़कर, मुट्ठी 'बजा' कर, देह पोषित करनी है, और, मंत्र प्रभावी हो जाएगा! इसको काटे बिना, अब आपका कोई अहित नहीं कर सकेगा! और उसके बाद, प्राण-रक्षण मंत्र से, स्वयं को बाँधा जाता है! कई मित्रगण, जो ये सोचते हैं, कि किताब पढ़कर, इंटरनेट से पढ़कर, सिद्धि करने लग जाएँ सीधे ही, उन्हें बता दूँ, कि बिना प्राण-रक्षण एवं, देह-रक्षण के 'फोड़ा-सिद्धि' तो सम्भव है, 'फोड़ा-सिद्धि' मायने, बिच्छू काटे का मंत्र, कांख का मंत्र, बेल का मंत्र, दर्द का मंत्र आदि, 'फोड़ा-सिद्धि' हुआ करते हैं! 'तोड़ा-सिद्धि' अभी दूर की कौड़ी है! जब तक ये मंत्र न सिद्ध हो जाएँ, फल देने लगें तब तक, कोई भी, प्रेत-सिद्धि भी, प्राणघातक ही होगी! श्री भैरव जी की सिद्धि, महाकाली सिद्धि, ब्रह्मराक्षस-सिद्धि, ब्रह्मपिशाच-सिद्धि, यक्षिणी-सिद्धि, गान्धर्व-सिद्धि, अप्सरा-सिद्धि, ये सब, बेहद ही तीक्ष्ण सिद्धियाँ हैं! ज़रा सी चूक हुई नहीं कि फिर नहीं पता कि प्रेत बने, पाषाण बने! प्रेत-शोधन हेतु, कलुष-संचरण, दुहित्र-संचरण, प्रत्यक्ष-मंत्र(हाज़िर-मंत्र), खोज-मंत्र, पकड़-मंत्र आदि में ही पारंगत होना अत्यन्त ही आवश्यक है, कहीं ऐसा न हो, कि अप्सरा के रूप में, त्रैषचंडाली आ जाए और हो जाए सत्यानाश!
चलिए, अब घटना...
वो अचानक से उस खाल को फटकारने लगा! फटकारते हुए, जहां जहां मांस के छोटे छोटे टुकड़े झड़ कर गिरते, बर्रे और मक्खियां झुण्ड के झुण्ड बना, उन पर हमला सा कर देते!
"ये क्या कर रहा है?" पूछा उन्होंने,
"शायद, साफ़?" कहा मैंने,
"चर्म?" बोले वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"घिनौना है सब!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
"मांगल?" चीखा वो!
और अपने पीछे देखने के लिए, यकायक घूम गया! सामने देखा, उसने तब, खाल लपेटी और अपने कंधे रख ली!
"कुछ है शायद" बोले वो,
"हाँ, लगता है!" कहा मैंने,
"मांगल?" बोला वो,
और अपना एक हाथ आगे किया, चुटकी सी बजाई हो, ऐसा लगा उस समय हमें!
"मांगल? चालै?" बोला वो,
और तब, कोई भागता सा आया उसके पास! उसे देखा तो वो भी ठीक उसके जैसा ही! ये एकदम काला था! भक्क सा काला! जैसे काले रंग में लपेट कर आया हो खुद को!
"मांगल!" बोला वो,
और वे दोनों, हंसने लगे! जैसे, खुश हों बहुत, दोनों के दोनों!
"खिज्जी?" पूछा उसने,
"चालै?" बोला दूसरा,
और अपने मुंह पर, दोनों हाथ रखे, और एक आवाज़ सी निकाली! बड़ी ही अजीब सी आवाज़ थी वो! "ईईयुप्प!" जैसी!
"कोई संकेत है!" कहा मैंने,
"हाँ, शायद!" बोले वो,
और तभी, एक साथ सामने हुए, बैठ गए एकदम से ज़मीन पर! पाँव फैला लिए अपने दोनों ही!
"हैयोप्प!" बोला पहले, और डकार ली!
"मांगल?" बोला दूसरा!
"मांगल, हाँ! हा! हा! हा!" और बोल ये, हंसने लगा!
सच कहूं, तो दोनों के दोनों मानसिक रूप से सामान्य ही हों, नहीं लगता था! क्या बोल रहे थे, क्या कर रहे थे, पता नहीं! सबकुछ बड़ा ही अजीब! तभी, एक पक्षी आ कर बैठा उनके पास, ये एक कौवा था, कौवे ने दो बार, कांव-कांव की! वे चुप हो गए! ऊपर देखने लगे! कौवा जैसे ही उड़ा, वे दोनों ही उठे, और दौड़ लिए वहां से! ठीक वहीँ, जहाँ वो कौवा आ कर बैठा था! हमारे से दाएं!
"कहाँ गए?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"क्या करें?" बोले वो,
"रुको अभी!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
कुछ देर हुई, और तब कोई नहीं आया, कोई भी नहीं, इस तरह से, करीब दस मिनट बीत गए!
"रुको, यहीं रुको!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
 

और मैं उठ कर, वहां तक के लिए चला, जहां वे दोनों थे, वे यहां आते थे, कम से कम वो पहले वाला तो, अब क्या कारण था? जो ज़मीन में दबाया था, वो काला सा लोथड़ा मांस का, या कुछ और ही? कुछ न कुछ तो था यहां, मैं चाहता था उस स्थान का निरीक्षण करना, परन्तु, जाँच की कैसे जाए? कहीं  इस बीच वे आ धमकते तो सभी को खतरा हो सकता था! दिमाग काम कर नहीं रहा था, घटनाएं, बड़ी ही तेजी से उलट-पलट और बदलने लगी थीं! लेकिन, ऐसे भी तो कोई लाभ नहीं था, कुछ न कुछ तो किया ही जाना था! अब समझ ये नहीं आये कि शुरुआत करूँ तो कैसे करूँ? ये लोग कौन हैं? क्या ये, वही साधू हैं? या ये भेरू हैं? उस स्थान के भेरू! भेरू मतलब, बलि चढ़ाने वाले, सेवक, जो, भेरी को सम्भालते हैं! या फिर कौन हैं? किस क्रम में हैं ये? अगर ऐसा कुछ पता चलता तो कुछ राह मिलती!

तो कुछ समझ न आया मेरी तो! ये मामला, इतनी जल्दबाजी में नहीं सुलझाया जा सकता था, इसके लिए, कम से कम, कुछ जानकारी अवश्य हो होनी चाहिए थी पास में, तभी कुछ राह निकलती!
तो मैं लौट आया वापिस, उनके पास, वे हतप्रभ से खड़े थे, वे भी उसी संशय की नाव में सवार थे, जिसमे मैं भी हाथ-पाँव पटक रहा था!
"आओ, हटो यहां से!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
और हम वहां से हट गए, आ गए उसी जगह जहां हम पहले बैठे हुए थे! यहां अब कुछ सोच-समझ सकता था मैं!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये मामला वैसा नहीं!" कहा मैंने,
"कैसा?" बोले वो,
"जैसा मैं समझ रहा था!" कहा मैनें,
"तब?" बोले वो,
"इसके लिए, मुझे कुछ समय चाहिए!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"तब मैं, तैयार रहूंगा!" कहा मैंने,
"जी, तो चलें वापिस?" बोले वो,
"हाँ, एक प्रयास करता हूँ!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
"प्रत्यक्ष तो लड़ा ही देता हूँ!" कहा मैंने,
"जो ठीक समझें!" बोले वो,
"इस से कुछ तो पता चलेगा?" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोले वो,
"एक काम करोगे?" बोला मैं,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"क्या बाबा खचेडू नाथ से बात हो जायेगी?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?'' बोले वो,
"अगर हो जाए, तो सच में ही लाभ मिलेगा!" कहा मैंने,
"अभी" बोले वो,
और वे, अपनी डायरी, खोलने लगे, इस डायरी में कुछ नंबर मैंने उनको दिए थे, कुछ को वे जानते थे और कुछ को अभी तक नहीं! अब चूँकि वे मेरे साथ, खुलकर, रहने ही लगे थे, तो उनको ये सब, करना ही था!
उन्होंने नंबर मिलाया, नंबर मिला, बात एक स्त्री से हुई, बाबा खचेडू, स्नान से निवृत हुए थे तभी, मेरा फ़ोन है, तो उन्होंने बात की, मैंने उन्हें सब सिरे से बताया, उन्होंने सबकुछ सुना गौर से, ध्यान से!
कालेहन के विषय में उन्होंने पढ़ा था, लेकिन कभी किसी से मिले नहीं थे, हाँ, एक वृद्ध बाबा थे, जिन्हें वे जानते थे, उनसे बात कर, उन्होंने आधे घंटे बाद बात करने को कहा, मैंने हामी भर दी! अब डूबता क्या करे! तिनका भी मिले तो वरदान मिला!
"आपने श्री जी से बात नहीं की?" बोले वो,
"अभी वो स्थिति नहीं!" कहा मैंने,
"ओह! समझा!" बोले वो,
इतने में ही, वे लोग भी आ गए, सारा सामान ले आये थे, थोड़ा-बहुत नहीं, बहुत सारा! कम न पड़ जाए इसीलिए! अब मरता, क्या नहीं करता!
"ये तो रही काम की, और ये आपके लिए!" बोले वो,
"ये ठीक किया!" कहा मैंने,
''और ये तो रहा सामान पूजा का, ये है जी आपका!" बोले वो,
''संग ही लो?" कहा मैंने,
"सच कहूं गुरु जी?" बोले प्यारे लाल जी,
"हाँ, कहो?" कहा मैंने,
"उस दिन के बाद से मैंने तो हाथ भी नहीं लगाया!" बोले वो,
"तो प्रसाद के तौर पर?" पूछा मैंने,
"ज़रूरी है?" बोले वो,
"हाँ, बंधन के लिए!" कहा मैंने,
"तब तो जैसा आप कहो!" बोले वो,
"और अनिल?" पूछा मैंने,
"आपका जो आदेश!" बोले वो,
"और आप, विनोद?" पूछा मैंने,
"जैसा हुक़्म आपका!" बोले वो,
"तो सुनो!" कहा मैंने,
"जी?" बोले वे तीनों!
"मैं नौ बजे काम करूंगा! शुरू करूंगा, आपको, एक क्षेत्र में बाँध दूंगा, चाहे कुछ भी हो, बाहर नहीं आना, बाहर आये तब मैं कुछ नहीं कर सकता!" कहा मैंने,
"जी गुरु जी!" बोले वो,
"आज देखता हूँ, कि सामने है कौन!" कहा मैंने,

   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब, पचास मिनट बाद, शहरयार जी का फ़ोन बजा, ये बाबा खचेडू का ही था, अब उनसे बातें हुईं, कुल दस मिनट तक, कोई ख़ास जानकारी हाथ नहीं लगी, किसी ने भी इस समुदाय विशेष के बारे में सुना ही नहीं था, और कोई, ठोस जानकारी कहीं हो, इसका भी कोई अता-पता नहीं था, न ही कोई विवरण ही था कहीं, न ही कहीं कोई उल्लेख! बस, एक बात तो ख़ास थी यही, कि कालेहन हंतक-साधक थे, निर्मम एवं क्रूर!
निर्मम एवं क्रूर! ये ही शब्द, किसी का रक्त जमा देने के लिए काफी थे! वे हंतक थे, हत्या आदि में पूर्ण विश्वास रखते थे, यही तथ्य सबसे अधिक चौंकाने वाला था! एक बात और, ये समुदाय, यहां इस क्षेत्र में रह रहा था, और मध्य-युगीन इतिहास था इनका, तो अवश्य ही कहीं न कहीं इनका ज़िक़्र हुआ तो होगा ही, लेकिन अब समय नहीं था, मध्य-युगीन के समय में, कई राज-वंश समा सकते थे! अब किसी का कब साबका पड़ा हो इनसे, ये तो भूसे में से सुईं ढूंढने जैसा ही था! सबसे पहले उनकी वेशभूषा, ये सभी से अलग ही थी! काले रंग पर, सफेद खड़िया से लकीरें काढी गई थीं! ये सभी, एक दूसरे को छूती नहीं थीं और बीच बीच में, लाल रंग के धब्बे से नज़र आते थे! हाँ, उन सभी का डील-डौल तो सबसे असाधारण ही था! लम्बे-चौड़े, कद्दावर, पहलवानों जैसे! जांघें ऐसी पुष्ट थीं कि मेरे जैसे आदमी को तो, अपनी जांघ पर बिठा कर, बीच में से तोड़ सकता था! भुजाएं ऐसी थीं कि एक प्रहार पड़े तो समझो, तत्क्षण ही, यम-मिलन हो जाए! एक का वजन कम से कम डेढ़ सौ किलो के आसपास तो रहा होगा! वे थुलथुल नहीं थे, कसे हुए बदन के मालिक, एवं पुष्ट मांस-पेशियों वाले थे, इसका अर्थ ये था कि वे शारीरिक श्रम में अधिक ही समय गुजारते रहे होंगे! उस भूभाग को देख कर, ये पता भी चलता था और इसकी पुष्टि भी होती थी, यहां बड़े बड़े पत्थर थे, उन्हें ढोने के लिए, भले ही जानवर इस्तेमाल होते रहे हों, लेकिन उनको स्थापित करने में शारीरिक-गठाव और बल की आवश्यकता तो पड़ती ही!
"अनिल?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"रात को यहीं रुकोगे न?" पूछा मैंने,
"जैसा आपका आदेश!" बोले वो,
"और प्यारे लाल जी, आप?" पूछा मैंने,
"जो आप कहो?" बोले वो,
"रुक जाओ?" कहा मैंने,
"हाँ, एक से भले तीन?" बोले विनोद जी,
"ठीक!" बोले वो,
"ऐसा कुछ नहीं होगा, भरोसा रखो!" कहा मैंने,
"और फिर हम हैं न?" बोले शहरयार जी!
"आप हैं तो क्या चिंता!" बोले प्यारे लाल जी,
"अरे विनोद?" बोले अनिल जी,
"हाँ?" बोले वो,
"ज़रा पानी देना, भाई जी को!" बोले अनिल,
"लो प्यारे लाल जी!" बोले विनोद जी,
"गोली खा लूँ ज़रा" बोले प्यारे लाल जी,
"हाँ, ज़रूर!" बोले शहरयार जी!
"गुरु जी?" बोले अनिल जी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो जो बिल्ला साईं आया था न?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उसने उधर, उधर त्रिशूल गाड़ा था अपना!" बोले वो,
"त्रिशूल?" पूछा मैंने,
"जी, त्रिशूल!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"दरअसल, गड़बड़ तो तभी से शुरू हुई!" बोले वो,
अब मैं उठा, पलंग से, बैठा,
"कैसी गड़बड़?" पूछा मैंने,
"सच पूछो तो मैंने कुछ सुना हीं, लेकिन इन्होने सुना था!" बोले वो,
"क्या सुना था?" पूछा मैंने बाकी दोनों से,
"जी, सुना था, हाँ याद आया!" बोले प्यारे लाल जी!
"बताओ?" बोले शहरयार जी, थोड़ा जोश में!
"जिस रात, उसने यहां अपना त्रिशूल गाड़ा था, तभी एक आवाज़ आई थी, यहां पर, और वो आवाज़ थी, 'हम चौबीस हैं' !!" बोले वे दोनों!
"हम चौबीस हैं?" बोले शहरयार जी!
"हाँ जी, यही आवाज़, 'हम चौबीस है' आई थी!" बोले विनोद जी!
"तब बिल्ला साईं ने क्या किया था?" पूछा मैंने,
"उसने तो हंस हंस के, बुलाया था!" बोले वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"चौबीसों को!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
''हाँ जी, पाँव पटक पटक, बार बार बोला था वो कि चौबीस हो, तो आ जाओ सामने, देखते हैं!" बोले वो,
"ओहो!" कहा शहरयार जी ने!
"क्या हुआ जी?" पूछा प्यारे लाल जी ने!
"तो इसका मतलब, ये सारी मुसीबत, उसी बिल्ले की देन है!" बोले वो,
"वो कैसे?" पूछा सभी ने,
"अब चौबीस कौन हैं?" पूछा शहरयार जी ने,
"जी, नहीं पता, शायद प्रेत?" बोले वो,
"प्रेत?" बोले वो,
"जी, बिल्ला तो यही बोला था?" बोले वो,
"हाँ, प्रेत!" कहा मैंने,
और तब, सभी ने देखना शुरू किया मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी, यही बोल रहा था बिल्ला साईं!" बोले प्यारे लाल जी!
"सही बोल रहा था, कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
"तो क्या कुल चौबीस हैं वे सब प्रेत?" बोले वो,
"अब क्या पता?" बोले शहरयार!
"गुरु जी?" बोले विनोद जी,
"हाँ?" कहा मैंने,
"दिन घिरने को है, फिर बाज़ार हो जाएंगे बंद, कुछ चाहिए हो और, तो बता दो, हम ले आएं!" बोले वो,
"इतना ही काफी है!" कहा मैंने,
"देख लो आप?" बोले वो,
"काम चल जाएगा!" कहा मैंने,
"अच्छा, खाना?" पूछा उन्होंने,
"खाना भी ठीक ही है!" कहा मैंने,
"ग्रेवी वाला कोई आइटम नहीं लाये जी, बर्तन नहीं है, कहो तो ले आएं?" बोले वो,
"नहीं, कोई ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा गुरु जी!" बोले वो,
अब दिवस, अपने अवसान पर था, कैसा अजीब सा लगता है, कभी देखो इस आकाश हो, तो दिन में कितने रंग बदलता है! क्या क्या नहीं देखता वो! चुपचाप, सब देखे जाता है! फिर रात का आंचल ओढ़ लेता है, और फिर से वही, सुबह जीवंत हो उठता है! न जाने कैसे कैसे लोग देख लिए इसने! न जाने क्या क्या देखा इसने! और आज, हमें भी देख रहा था! आज, वर्तमान टकराने वाला था भूतकाल से! आज भूतकाल, अपने रौद्र रूप को, किस प्याले में उतारे, ये तो वही जाने, और मैं! अपने गुरु-श्री के आशीष-छत्र तले, भिड़ने निकला था इस भूतकाल से! ऐसा नहीं कि ऐसा, पहले कभी न हुआ था, हुआ था, परन्तु, प्रत्येक स्थिति, भूगोल सब, हर बार, पृथक ही हुआ करते हैं! कहीं तो तलवार की तेज-तर्रार सी धार भी कुछ नहीं कर पाती और कहीं, एक छोटा सा कंकड़ भी प्राण हरने का कारण बन जाता है!
अब मुझे क्या लालच था यहां? नहीं तो? कुछ भी नहीं! देखा जाए, तो कुछ भी नहीं! और विचारा जाए तो बहुत ही बड़ा! बड़ा, कि मैं जान सकूँ, इस स्थान पर बीते हुए इतिहास को, इस स्थान के सामर्थ्य को, और उस सामर्थ्यवान साधक को, जिसने इस स्थान को सींच दिया था अपने उसी सामर्थ्य से, जिसे शायद, मैं, अब देखने वाला था! जांचने वाला था!
सच पूछिए तो पल पल न जाने ऐसा क्यों लगता था कि कहीं कोई कमी न रह जाए, कहीं कोई गलती ही न हो जाए, कहीं मेरा कोई कृत्य, अपकृत्य ही न समझा जाए! वे तो पूर्ण हो चुके, अब मेरा क्या हो, ये स्थान इसका साक्षी बनने ही वाला था!
तब मैंने अपने आपको मन ही मन तैयार किया! और इस पूरे घटनाक्रम पर एक बार फिर से गौर किया! भूमि, ये स्थान, वो साधू, साधू ने पानी माँगा, साधू संग एक कन्या, वो जेवर, वो लड़कियां, वो सांप, उन लड़कियों की मौत, जेवर का गायब होना, बिल्ला साईं, छोटे बाबा, बिल्ला साईं मारा गया, छोटे बाबा का क्या हुआ, पता नहीं! यहां तक विचार किया जाए तो ये स्थान कुछ बोल रहा था! कि यहां से चले जाओ, ये स्था किसी और का है, यानि उन साधुओं का, वे चौदह या पंद्रह साधू! ठीक, यहां तक मैं नहीं आया! अब, वो भारी-भरकम स्त्री, वो बीजक, उसका टूटना, उस कपड़े का गायब होना, फिर वो आदमी, फिर एक और आदमी! यहां! अब यहां से मुझे आगे बढ़ना था! क्या सीख ली? सीख ये, कि वो गलती न हो पाये जो, बिल्ला साईं से हुई! उस छोटे बाबा से हुई! ठीक! नहीं होगी ऐसी कोई गलती! धन? उसका कोई प्रश्न ही नहीं, नहीं चाहिए ऐसा धन! वो सोना किस काम का जो कान काटे!
"क्या समय हुआ?" पूछा मैंने,
"सात!" बोले शहरयार!
"साढ़े सात बजे, आप तीनों उस कमरे में रहोगे!" कहा मैंने,
"जी!" तीनों बोले,
"जब तक न कहूं, बाहर नहीं आना!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"कोई भी आवाज़ दे, नहीं जाना! कोई बुलाये, नहीं जाना! कोई अपना दिखे, समझो झूठ है, कोई मुश्किल में दिखे, मुंह फेर लो! लेकिन बाहर, नहीं जाना!" कहा मैंने,
"जी, ठीक!" बोले वो,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"जो कहूं, हाँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"जो कहूं न, सो न!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"आगे मैं रहूंगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"आप आगे नहीं जाना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अब सुनो!" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ऐसा लगेगा, कि मैं गया था, लौट आया हूँ, इसीलिए, 'भम भैरव!, याद रखो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"ठीक आठ बजे, हम उधर चलेंगे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"सारा सामान, सामग्री, सब एक साथ रखना, दुबारा नहीं लानी!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अब, मैं उस स्थान का कीलन करूंगा!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर बजे साढ़े सात! यूँ कहिये, कि अब बिसात बिछ गई और हम, इस खेल में शरीक़ हो गए! अब सबसे पहला काम यही था, कि उन तीनों को उस कमरे में रखा जाए, और वैसे भी नींद कहाँ आनी थी उन्हें! दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक के पीता है! मैं लाख उन्हें समझा लेता कि कुछ नहीं होने वाला, लेकिन पीछे जो उनके साथ गुज़रा था, उसको ध्यान में रख, इस मर्तबा तो वो और चौकस हो उठे होंगे! हाँ, कमरे में रहें, जैसा मैंने कहा, वैसा ही करें, तो ये पक्का था कि उनका कुछ अहित नहीं होगा! सात बजे करीब, एक बत्ती, बल्ब था वो, दुरुस्त कर दिया गया था, वो अब जल भी उठा था, आज फिर से जला था वो, देखने को, कि इस बार मैदान में, कौन आया है!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"इन्हें समझा दिया है मैंने, अब जो आप समझो उचित, वो समझा दो, उसके बाद ये बाहर नहीं निकलेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक, मैं एक बार फिर से, इनके कान उमेठ देता हूँ!" बोले वो,
"हाँ, ये ठीक होगा!" कहा उन्होंने,
वे कमरे में चले गए, अब उनकी तेज आती आवाज़, कमरे से बाहर आने लगी थी, इसका मतलब साफ़ था कि शहरयार जी ने अच्छी तरह से उनको घुट्टी पिला दी थी, वो भी हिला हिला कर! और उसके बाद, वे बाहर लौट आये! अब मुझे उस कमरे को रक्षा-सूत्र में बांधना था, कहीं इनमे से कोई छिटक जाता इधर उधर, मारे भय के, तो समझो इस बार तो इनमे से कोई न कोई जान से जाता!
"सात योजन से बाँध लाव.........................!!.............................................दाव!!" कहते हुए मैंने इक्कीस बार, वो कमरा, उसकी सरहद, बाँध दी! अब यहां तक पहुंच के लिए पहले मेरे इस सूत्र को बींधना ज़रूरी था! और इसको बींधना इतना सरल नहीं था! तो, मैंने उसको कमरे को रक्षा-सूत्र में पिरो दिया! उसकी रक्षा की डोर, थमा थी किसी 'महावीर' को! अब वो महावीर जाने कि आन कैसे रखी जाए! इस रक्षा-सूत्र को, श्मशान में सिद्ध किया जाता है, शाबर, प्रत्यक्ष-शाबर, डम्भर को, श्मशान के सिवाय कहीं और नहीं सिद्ध किया जा सकता!
"आइये!" कहा मैंने,
"हाँ, सामान ले लूँ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये बोरा भी ले लूँ?" बोले वो,
"हाँ, बैठने के काम आ जाएगा!" कहा मैंने,
"जी, ठीक!" बोले वो,
"बज गए आठ, आओ अब!" कहा मैंने,
"जी, आया!" बोले वो,
वे चल दिए मेरे साथ ही, हमने एक जगह चुन ली, और वहां सारा सामान रखवा दिया! अब मेरा काम था, शहरयार को रक्षा-सूत्र में बांधना! उस स्थान को बल देना, जो किसी भी चोट को सह सके! ये जो, वार होते हैं, ये 'बाण' कहलाते हैं! ये बाण बड़े ही तीक्ष्ण और प्रभावी हुआ करते हैं! देह में से पार हो जाते हैं, देखने में, ये एक ऊर्जा की रेखा समान हुआ करते हैं! दिल्ली में, एक पुराने गाँव में, कुछ पुराना सा सामान निकला था भूमि में से, खुदाई करते वक़्त, तब मैंने ये बाण, देखे थे, एक आठ इंच का हाथी था, मूर्ति थी वो, सोने की, उस पर वार होते थे, जहां वार होते थे, वहां छेद हो जाता था! उसी स्थान से, एक श्री महा कालिका की एक मूर्ति भी मिली थी, उस मूर्ति को सभी ने सराहा, लेकिन, वो मूर्ति आधी ही थी, आधी, चूँकि उस मूर्ति के हाथ में, खप्पर नहीं था! लाख जतन किये और खप्पर नहीं मिला, सुबह की पहली बेला में, वो मूर्ति खंडित हुई, हाथी खंडित हुआ और मिट्टी बन गए वे दोनों, काली मिट्टी, दोमट मिट्टी जैसी! हुआ क्यों? क्योंकि वार रोके नहीं गए! जिस किसी ने भी उनको रखा होगा, उनको, लखनबन्ध-विद्या से पोषित किया था! तो ये बाण, दीखते नहीं परन्तु इनका वार, बड़ा ही गम्भीर होता है, किसी 'कारीगर' से टकरा जाएँ, तो वहीँ खून की उल्टियां करें, आँखें पीली पड़ जाएँ और मस्तिष्क फट कर, नाक तक से बाहर आ जाए! ऐसे तीक्ष्ण बाण हुआ करते हैं ये!
"सुनो?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"ये बोरा लो, बचाओ, लेटो, दोनों हाथ फैलाओ, दो आदमी भर, ज़मीन नापो, और बताओ मुझे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
उन्होंने वही सब किया, इसलिए, कि अगर, न हो, हो तो भी, अगर हम गिरें, तो इस क्षेत्र से बाहर न जाएँ, जो बाहर गए, तो कहीं काट न हो, काट हो अगर, तो देह का भंजन ही न हो जाए कहीं! इसीलिए, मैंने उनको ऐसा कहा था!
"तीन तिए?" पूछा मैंने,
"नौ!" बोले वो,
"जमकाट!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
"नौ तिए?" पूछा मैंने,
"सत्ताइस!" बोले वो,
"जमकाट!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
और तब, अपने पाँव से रगड़ कर, मैंने एक घेरा काढ़ दिया! अब ये घेरा ही हमारा स्थान था! यहीं से बैठ कर, अब सारा खेल खेलना भी था और देखना भी था! कौन आ रहा है, कौन जा रहा है, ये सब देखना था!
"वो, इधर रखो?" कहा मैंने,
''आदेश!" बोले वो,
''और वो, उधर!" कहा मैंने,
"जी, आदेश!" बोले वो,
और उन्होंने ठीक वैसा ही किया, जैसा मैंने उन्हें करने को कहा था, मदिरा की बोतल ली, खोली, एक मंत्र पढ़ा, मदिरा के छींटे लिए, अपने माथे और उनके माथे, लगा दिए! और तब.......


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तत्पर हो?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"आरम्भ करें?" कहा मैंने,
"जी, जय श्री भैरव नाथ!" बोले वो,
"जय श्री भैरव नाथ!" कहा मैंने,
और तब एक टुकड़ा उठाया मांस का, आधा, मुंह में रखा, मंत्र पढ़ा और थी सामने, उस घेरे के, फेंक दिया! फिर दूसरा और फिर तीसरा! और तब, मंत्र पढ़ा मैंने, प्रत्यक्ष-मंत्र! इस मंत्र से, उस समय वहां, जो भी होगा, छिपा हुआ, वो प्रत्यक्ष हो उठेगा! जिसने संवाद किया, वो ही अभिमुख होगा और वही हमारा ध्येय भी होगा!
"ओ काल करालिनि...........................................वाहिनि..........................संवाहिनि!" ये मंत्र मैं जप्त चला गया! और अचानक ही, मेरे नथुनों में, एक तीक्ष्ण सी गंध समाई! मैं रुक गया! कोई आया था पकड़ में उस मंत्र के!
सन्नाटा! घोर सन्नाटा! पत्ता तक न हिले! बस, उस बल्ब के चारों ओर जो कीट-पतंगे शोर मचा रहे थे, वे ही जब टकराते तो कुछ शोर सा सुनाई देता! समय, जहाँ था, वहीँ रुक गया! और तभी, ठीक सामने, फेंके हुए वे तीनों ही मांस के टुकड़े, भक्क की सी आवाज़ करते हुए, जल उठे! मांस जलने की गंध उठने लगी!
मैं पल भर को, सोचने लगा, कि ये कैसी आमद है कि मांस के टुकड़े, पहले से ही, स्वतः ही अग्नि के मुंह में जा पड़े! तभी उस ओर, बाएं से, डमरू के बजने की आवाज़ गूंजी! किसी ने, वो डमरू बजाया था! डमरू बजाने वाला, करीब, और करीब आये जा रहा था और मैं, अपने सभी रक्षण-सूत्र सम्भाले, एकटक वहीँ देख रहा था! तभी धम्म-धम्म सी पदचाप सी उभरीं! कोई भागे आ रहा था! और ठीक हमारे सामने से ही, एक, भयानक सा आदमी, ठीक वैसा ही, बिजार सा, सामने से भागता चला गया! न उसने हमें देखा ही, न ही भान हुआ उसे कुछ! वो उधर से आया और उधर के लिए दौड़ते चला गया! ये सब बड़ा ही अजीब था! मैंने तो ऐसा कभी देखा ही नहीं था, कोई आये, पकड़ में, आये और गुजर जाए, बिना संज्ञान लिए, बिना भान, ऐसा कैसे सम्भव था? ये क्या बला थी भला? मैं उसी ओर देखता जा रहा था, जिस ओर वो दौड़ता हुआ चला गया था!
तभी बाईं ओर से, फिर से आवाज़ें आईं, इस बार, शायद वे कई थे! ठीक हमारे सामने से गुजरे वे सभी, मैं तो गिन भी न सका उन्हें! ऐसे तेज गुजरे, दौड़ते हुए, और गुजरते चले गए, वे जहाँ तक मैं देख सका, करीब सात या आठ रहे होंगे!
मित्रगण, वे करीब पंकरह मिनट में, कि लोग एक साथ आते, कभी कभी दो, कभी एक ही, दौड़ते चले जाते दायीं ओर! न हमें देखें हीं और न कोई नज़र ही डालें! हम तो जैसे, किसी सड़क किनारे खड़े, तमाशबीन से ही बने रहें! हाज़िर-मंत्र ने ये भला क्या पकड़ा था? क्या था ये सब? वे सभी पहलवान सरीखे से थे, जब दौड़ते तो धम्म धम्म की सी आवाज़ें आतीं उनके क़दमों की!
और फिर गुजरे करीब बीस मिनट, और उनका गुजरना बंद हुआ! लगता था कि सभी आकर, गुजर गए हैं वहां से!
मैंने तभी शहरयार को देखा, वे भी चौड़ी आँखें किये, कभी बाएं देखते और कभी दाएं! फिर मुझ से नज़रें मिलीं उनकी!
"ये क्या?" फुसफुसाए वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"कहाँ से आये और कहाँ गए?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
और फिर एक हंसी सी गूंजी! ये हंसी, एक औरत की थी! वो जैसे बाईं तरफ से आ रही थी, हँसते हुए! हमने नज़रें टिका दीं उधर! और जो आया, उसे देख के तो कोई भी आधा रह जाए! ऐसा नज़ारा तो श्मशान में भी देखने को नहीं मिलता! एक उसी भीमकाय जैसे आदमी ने जैसे, कोई मुर्दा पकड़ रखा था, मुर्दे के हाथ, अपने कंधे से आगे लाकर पकड़ रखे थे, बाकी का हिस्सा किसी दूसरे ने पकड़ा हुआ था, उस मुर्दे की टांगें, और उसको झूला सा बनाया हुआ था! पेट ज़मीन की तरफ था, जिसमे से उसकी आंतें बाहर बिखरी हुई थीं, और उस मुर्दे के झूले पर, एक औरत बैठी थी, सर उस मुर्दे का, अपनी गोद में लेकर! हंसे जा रही थी वो! हमारे सामने से गुजरे वे तीनों लेकिन तब भी हमें नहीं देखा उन्होंने! बड़े ही कमाल की बात! क्या हो रहा था ये? बिल्ला साईं को तो सब दिखने लगा था, लेकिन हमें क्यों नहीं?
उछलते से, हंसती हुई वो औरत और मुर्दे का झूला बनाए वे दोनों, भी गुजर गए वहां से! न हमें देखा, न नज़र में ही बाँधा हमें!
"कुछ गड़बड़ है!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"कुछ तो?" कहा मैंने,
"हमारे कलाप में?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"शायद, हमें घेरा जा रहा है!" कहा मैंने,
"घेरा? मतलब?" बोले वो,
"फंसाया!" बोल मैं,
"वो कैसे?" बोले वो,
"जहां तक समझ रहा हूँ, यही है!" कहा मैंने,
"मुझे नहीं समझ आ रहा!" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
और तब, एक टुकड़ा उठाया मांस का, उसे शराब में डुबोया और खड़ा हो गया, अब पढ़ा मैंने मंत्र! ये, चारि-मंत्र था! अर्थात, रोक लगाने वाला!
और झट से बैठ गया मैं!
"पीछे रहो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"सुनो?" बोला मैं,
"जी?" कहा उन्होंने,
"यहीं रहना!" बोला मैं,
''आप?" बोले वो,
"देखो!" कहा मैंने,
मैं भाग क्र, ठीक सामने जा पहुंचा, यहां एक टुकड़ा रखा और मदिरा छिड़क दी, और भाग कर लौट आया, ठीक घेरे में अपने ही!
बैठ गया, अपने दोनों ही पांवों पर मदिरा छिड़क दी, नेत्र धो लिए और दो घूंट, गले के नीचे उतार ली!
"ये लो, पियो!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
और दो घूंट उन्होंने भी उतार लिए गले से नीचे!
"मांगल!" आई वही आवाज़!
"पीछे?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"चालै!" वही आवाज़!
अब वही आ रहा था, वही, भैंसे के जैसी देह वाला! 
"आ रै मांगल! जम्मा जम्मा चालै!" आई इस बार ये आवाज़!
"सम्भलना!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी!" बोले वो,
"मांगल! हाँ! मांगल!" बोलता हुआ, भूमि पर धम्म-धम्म सी चाप करता हुआ, आ रहा था वो! ये बड़ा ही मस्त-मौला सा आदमी रहा होगा! दीन-दुनिया से बेखबरा सा! जहां पाँव पड़ जावे, वहीँ राह बन जावे! कुछ इस तरह का सा!
"चालै! चालै!" बोलता हुआ, आगे आता रहा वो!
और जैसे ही हमारे पास से गुजरा वो! सहसा रुका! और पीछे घूमा! हमें देखा! गौर से देखा, गर्दन, आगे करते हुए देखा उसने! उसने जो देखा, कि हमारी तो लौ सी फड़फड़ायी! कहीं जो सच में ही देह-धारी रहा होता तो आज, ऐसा फेंटता हमें कि जैसे मठ्ठा! चीख तो छोडो, आह तक न निकलती! माचिस की तीलियों जैसे तोड़ देता हमारी हड्डियां तो! उसके चेहरे पर यही भाव था! उसे अचरज सा हुआ था हमें देख!
"रै मांगल?" बोला वो, धीरे से ही! 
और बढ़ाया अपना पाँव आगे! हमारी तरफ ही!
वो आगे आया, और बैठ गया उकड़ू! ठीक हमारे सामने ही! वो तो बैठा हुआ भी चार फ़ीट का ही लगे! देह तो बहुत देखीं हमने, ऐसी मानस-देह न देखी कभी! पहाड़ सा सीना, गुंबद सा पेट. ऊंट के कूबड़ जैसे कंधे और कीकर के तने जैसा खिंचा चेहरा! सच कहो तो, उस पर लट्ठ भी भांज लो, तो लट्ठ ही फ़टे! उसकी बस खुजाल ही मिटे! कैसा धींगर था वो! आज तक याद है मुझे!
उसने हाथ आगे बढ़ाया अपना, जैसे कुछ माँगा हो उसने! मैंने भी सहज सा होकर, उस मांस के थैले को छुआ, उसने ऊँगली हिलाई कि दो उसे! मैंने एक टुकड़ा निकाला, और उसको दिखाया, उसने, उस टुकड़े को देखा, मुझे लगा कि जैसे वो मांग रहा हो खाने के लिए उसे! प्रेत अक्सर ही ऐसा करते हैं, ये कोई नयी बात नहीं! दिल्ली से थोड़ा दूर ही एक पुराना सा रेलवे-फाटक है, वहां एक औरत है, ये करीब तीस बरस की होगी, अक्सर, मांगती है खाने को, दौड़ती है, बसों के साथ साथ, कारों के साथ साथ, बस उसी के, जिसके पास कुछ मीठा होता है खाने को!  न दो, तो कोई बात नहीं, रोने लगती है, गुस्सा नहीं करती, आज तक, किसी का अहित नहीं किया उसने, उसे माई कहते हैं वहां के लोग, अब तो बाक़ायदा, उसको देने भी लगे हैं मीठा कुछ खाने को! रख आते हैं एक जगह, अब खाये न खाये!
"ये?" पूछा मैंने,
वो कुछ न बोला, बस वो टुकड़ा ही देखता रहा! मैंने उछाल दिया, उसने लपका और गायब! कहना गया? मैंने ढूंढा! लोप हुआ? कुछ नहीं पता! पता ही नहीं! बस, पता ही नहीं! उठा वो, और पलटा, फिर से दायीं तरफ चलता बना!
"चालै! हाँ! मांगल! चालै!" बोलते बोलते, चला गया वो! 
अब ये क्या रहा? क्या था ये? न कोई संवाद, न कोई गुस्सा! न कोई आपत्ति! बस वो टुकड़ा, और ये जा वहां से!
"ये क्या जी?" फुसफुसाए वो!
"पता ही नहीं!" कहा मैंने,
"सुनिए?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
और ध्यान से सुना मैंने, ये कोई वंदना सी थी! दायीं तरफ से! दिमाग तेजी से घूमा! वे सब, बाएं से आये! यहां से गुजरे! दाएं गए! दाएं में वंदना! क्या अर्थ हुआ? अब जो समझ में आया वो ये, कि ये सब, सारे के सारे कहीं इकट्ठे हुए थे, लेकिन कहाँ? दाएं में तो, जब हमने जांच की थी, वहां तो पेड़ ही थे? जंगली से पेड़, और तो कुछ न था वहां?
"सुनो?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"उधर, दाएं में कुछ है क्या?" पूछा मैंने,
"वो..उधर?" इशारे से पूछा उन्होंने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"जंगल ही है न?" पूछा मैंने,
"हाँ, और तो कुछ नहीं?" बोले वो,
और तभी फिर से पदचाप हुई! इस बार भी कोई आ रहा था, हमने नज़रें वहीं लगा दीं अपनी, देखें, अब कौन है?
और इस बार जो आ रहा था, वो एक साधू था! शायद, यही रहा होगा वो साधू! उसकी वेशभूषा कुछ ऐसी थी! नग्न था, लंगोट भी नहीं थी, उसके सर के केशों से, जांघ तक ढकी थी उसकी, छाती के केश सफेद रंग के, बड़े बड़े थे, उनमे भी जटाएं बनी हुई थीं, हाथ में एक त्रिशूल था, त्रिशूल करीब छह फ़ीट का रहा होगा, केश सफेद, चिट्टे एकदम! कांधों पर, रुण्ड-माल पड़ा था, मुण्ड-माल नहीं, गलत अर्थ नहीं लीजिएगा इसका, माथे पर, गहरा पीला रंग लगा था, इस पीले रंग में, काले रंग से कोई चिन्ह बना था, नाक, होंठ, सफेद रंग से रंगे गए थे! दूसरे हाथ में, अस्थि-दण्ड था, ये अस्थि-दण्ड कुछ अजीब सा था, उसके यवक पर, एक सर था, शायद सियार का रहा हो, कुत्ते का तो नहीं था, उस सर के दांतों में, कुछ मालाएं सी लटकी थीं! और सबसे बड़ी बात! जो सबसे अजीब सी थी, उसने अपने सर पर, एक छोटी सी लड़की को बिठाया हुआ था, लड़की का मुख नहीं दीख रहा था, केशों में छिपा था! वो एक कदम आगे चलता, और फिर घूम जाता था! ऐसा तो मैंने कहीं नहीं सुना था? देखा, आज पहली बार ही था!
"चिल्लो! हाक़!" बोलती जा रही थी वो लड़की!
और वो साधू, चुपचाप सा, आगे बढ़ता जाता था!
अब जैसे ही वो हमारे सामने से गुजरे, मुझे न जाने क्या सूझी! पता ही नहीं क्या सूझी! मई उठ खड़ा हुआ!
"हांडन भैरव!" कहा मैंने,
"हां?" बोला वो,
और रुक गया! थोड़ा सा झुका और देखा मुझे! वो लड़की, झट से, उस साधू के केश पकड़, नीचे उतर गई! अब उस लड़की का चेहरा देखा, आयु में कोई पांच या छह बरस की ही रही होगी वो, एकदम काले रंग की, बस आँखें ही दिखें उसकी!
"हांडन भैरव!" कहा मैंने,
और हाथ जोड़ लिए!
वो आगे आया, और रुक गया! मुझे देखा, फिर शहरयार को, फिर दाएं रास्ते को, मेरे सर के ऊपर से देखा!
"हांडन भैरव!" कहा मैंने,
"सोखट्य भैरवा!!" बोला वो,
"नाथी भैरवा!" कहा मैंने,
उसने सुना, और जम कर एक भयानक सा अट्ठहास लगाया! खी-खी कर, वो लड़की भी हंसने लगी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे हँसते रहे, शायद वे मानते ही नहीं! और भला मानते भी कैसे! मानना तो बस मुझे ही था! इसके बाद, मैंने फ़ौरन ही, डामरी में उस से वार्तालाप किया, जो कुछ इस प्रकार है!
"ये भूमि हमारी है, बताया था, अंजान नहीं हो, जाओ, जाओ यहां से!" कहा था उसने,
"ये भूमि आपकी ही है, मैं ये मानता हूँ!" कहा था मैंने,
"तो फिर प्रश्न शेष क्या?" पूछा था उसने,
"क्या आप प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं?" पूछा था मैंने,
"उत्तर? वो तो कण कण में हैं यहां! जाओ! ढूंढों! खोजो!" बोला था वो!
"मुझे अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं?" कहा था मैंने,
"स्पष्ट होने तक, कदाचित प्राण ही न जाएँ!" बोला था वो,
"प्राणों का मोह नहीं, उत्तरों का, हाँ, अवश्य है!" कहा था मैंने,
तब उसने, उस बालिका को देखा, और उसके अपना हाथ, आगे बढ़ाया, और वो बालिका, उसके मज़बूत से पंजे पर, पाँव रख कर दोनों, उसके सर पर चढ़ गई थी!
"इसे कहो, जाए, समय हुआ!" बोली थी वो कन्या!
"इस भूमि पर, रक्त गिरा, और न चाहिए, मार्ग से हटो अविलम्ब!" बोला था वो!
और मैं, हट गया था, जिस तेजी से आया था, उसी तेजी से हट गया था मैं, हाँ, कुछ तो लगा था हाथ मेरे, जो इस समय, सच में ही काम आ सकता था!
और वो भला था क्या? वो ये, कि दो बातें सामने आई थीं, पहली ये कि वे सब, किसी जल्दबाजी में थे, तभी, सभी, बाएं से आते और दाएं चले जाते! इसका मतलब, दाएं अवश्य ही कुछ था, जिसका इस स्थान से कुछ लेना-देना तो अवश्य ही था, और दूसरा ये, कि उसने कहा था कि इस भूमि पर बहुत रक्त गिरा, इसका मतलब? इसका क्या मतलब हुआ? कोई संग्राम? आपसी फूट? अंतः युद्ध सा? क्या हुआ था? अभी तक तो मेरा यही मानना था कि ये स्थान अवश्य ही एक महातांत्रिक-स्थल था, इसमे कोई संदेह नहीं, तो फिर रक्त कैसे गिरा? क्या हुआ था? अब ये कैसे जाना जाए? यहां तो सभी महारथी से प्रतीत होते थे, कोई संवाद ही नहीं करता था, जिसने किया भी, उसने तो प्रत्यक्ष सी चेतावनी ही दे दी थी कि ये भूमि उन्हीं की है! तो ऐसा क्या था? जिसके कारण उसे ये कहना पड़ा? क्या कोई भूमि से संबंधित विवाद हुआ था? इतिहास गवाह है, कि बनाजरे कबीले आपस में, खूब लड़े, लड़े, वर्चस्व हेतु, कैसे कैसे साधक, प्राण गंवा बैठे, कोई छल से, कोई बलात ही! कोई सम्मुख आ कर भिड़े! तो यहां भी क्या वैसा ही कुछ हुआ था? और वो छोटी सी कन्या? भला ये कौन? ये कैसे 'हांक' सी रही थी उसे? उसने कहा, कि इसे कहो, कि ये जाए यहां से! और मैं, हट गया था, अविलम्ब!
"क्या कोई और भी शेष है?" मैंने, अपने आप से ही पूछा!
"जी?" बोले वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ कहा आपने?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सो क्या?" पूछा उन्होंने,
"एक संशय!" कहा मैंने,
"कैसा संशय?" पूछा उन्होंने,
"क्या कोई और भी शेष है?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"यहां से वहां?" मैंने इशारे से कहा,
"प्रतीक्षा करें?" बोले वो,
"बेहतर रहेगा!" कहा मैंने,
इस तरह से, कुल आधा घंटा हमने, कैसे का कैसे करके पकड़ा और छोड़ा! जब छोड़ा तो जैसे कुँए से बाहर आये! सांस मिलीं हों हमें खुली हुई, कुछ ऐसा ही लगा!
"कोई नहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"चलोगे?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
''आओ फिर!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और वो सुरक्षा-घेरा लांघ लिया! मैंने लांघा तो उन्होंने भी लांघ लिया! अब हम, देह-रक्षा में ही बंधे थे, और इसे बींधना, ऐसे साधकों के लिए, कोई असम्भव कार्य नहीं था, अब यूँ कहा जाए कि हम अब उनकी ही दया-दृष्टि पर ही आगे बढ़ने वाले थे, तो इसे कमज़ोरी नहीं समझा जाना चाहिए हमारी!
"वे उधर गए?" कहा मैंने,
"हाँ, सभी!" बोले वो,
"आओ, उधर!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
और हम, सधे हुए क़दमों से आगे बढ़ने लगे! मेरे मुंह से लगातार, जम्भक-मंत्र फूटता ही रहा, ये मंत्र, चेता देता है, किसी की गिरह में आते ही! तो फिलहाल, हम अभी किसी गिरह से बाहर ही थे!
एक जगह आ कर रुक गए!
"यहां तो अँधेरा है?" कहा मैंने,
"ये तो सोचा ही नहीं?" बोले वो,
''अब?" कहा मैंने,
"अब बताएं?" बोले वो,
"वापिस चलें?" कहा मैंने,
"देख लो?" बोले वो,
"चालै!" आई आवाज़!
और हम हुए चौबंद! चाक-चौबंद!
"श्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
"इधर आओ?" फुसफुसाया मैं!
"हाँ" बोले वो,
और मैंने उनके कंधे से कन्धा मिला लिया! ठीक सामने से, एक और आदमी आया, सामने देखा और गुज़रता चला गया! राहत की सांस ली हमने! पसीना ऐसा छलका कि ज़मीन ने सोख कर उसे, पोल खोल दी हमारी!
"शहह!" कहा मैंने फिर से,
उन्होंने झट से मेरे कंधे पर हाथ रख लिया, उसी क्षण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं बार बार उनसे बचने की सी जुगत भिड़ाने की लगा था, जैसे चुप हो जाना, मार्ग से हट जाना, उस बिजार को, मांस का टुकड़ा देना, अब ये प्रलोभन कहो या कुछ और, मेरा आशय यही था कि किसी भी तरह से, कुछ हाथ में आये! अब वे तो ठहरे प्रेत, मेरे होने का भान क्यों नहीं? तो उत्तर है, मंत्र की सहायता! सफेद सी खड़िया, अक्सर आज भी मली जाती है, इस खड़िया में, नागफनी और कर्कट(एक जंगली झाड़ी) का रस मिला दो, तो कोई कीड़ा-मकौड़ा, सांप-बिच्छू, करीब ही न आये! आजमा के देखें ज़रा इस एक आदिवासी से तरीके को, भांग की सूखी जड़ ले लें, इस जड़ को, नीम के तेल में एक दिन पूरा भिगोकर रखें, अब इस जड़ को निचोड़ कर, फेंक दें और उस नीम के तेल को, एक शीशी में भर लें, फिर सरसों के तेल के दीये में, एक बून्द मिला दें, कोई भी कीट-पतंगा घुसेगा नहीं, न सांप ही, न बिच्छू ही! न गिरगिट, छिपकली भी और न कोई विषैला कीड़ा-मकौड़ा, घुस भी गया तो उसका विष उसे ही मार देगा! ये तो बेहद ही प्राचीन सा तरीका है! यदि सांप काट ले, बिच्छू डंक मार दे तो घबराइए नहीं, भांग के नरम पत्ते चबाइए, और उस लुगदी को, उस ज़ख्म पर रख दिए, बदलते रहे, दस-दस मिनट में, ज़हर उतर जाएगा और फिर, डॉक्टर से चिकित्सा करवा लें! कोई और संक्रमण न हो, उस से बचाव के लिए! घर में कॉकरोच हो जाएँ तो, कपड़े धोने वाला नील ले आइये, इसमे, गंधक का चूरा पीस, मिला लीजिए, गर्म गर्म रोटी के टुकड़े से छुआ छुआ कर, कॉकरोच जहां से आते हों, रख दीजिये, निजात मिल जायेगी! नील में वैसे ही कुछ ऐसे गुण होते हैं जो अन्य काम भी आते हैं! खैर.....
तो मैंने उन्हें चुप रहने को कहा था, वे शांत खड़े हो गए थे! वो भूला-बिसरा सा, अकेला ही, चहलकदमी सा करता हुआ, दाएं निकल गया था, लेकिन, अभी भी कोई आ सकता था, और इसी चक्कर में कुछ और समय लग गया!
"अब?" बोले वो,
"आगे चलते हैं!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम आगे चले, लेकिन कुछ नज़र ही न आये, अँधेरा ऐसा घुप्प कि हाथ को हाथ न सूझे, अभी अमावस का भी समय नहीं था, चन्द्र देव अशक्त से लगते थे, बादलों ने, ढक लिया था उनको! और आसपास उनके, कोई न था, घुप्प सा अंधकार उन्हें, बार बार त्रस्त किये जा रहा था, जो दो एक सभासद थे भी, वे अपने अपने अधिकारीगण के साथ व्यस्त थे! तो न तो आकाश से ही, कुछ मदद मिलती दीख रही थी, 
"कुछ नज़र नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"क्या किया जाए?" पूछा मैंने,
"आप बताइए?" बोले वो,
"वापिस?" कहा मैंने,
"यही विकल्प है क्या?" बोले वो,
"इस समय तो!" कहा मैंने,
"विवश हैं!" बोले वो,
"तो चलो वापिस!" कहा मैंने,
"टोर्च लाएं क्या?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"आज कुछ न होगा!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
और नीचे झुक, कुछ टटोला मैंने, कुछ आया हाथ, ये एक पत्थर था!
''सुनो?" बोला मैं,
"जी?" कहा उन्होंने,
"इसे पकड़ो?" कहा मैंने,
"हाँ?" पूछा फिर,
"इसे, उधर फेंको!" कहा मैंने,
"सामने?" बोले वो,
"नहीं, उधर, दाएं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
और जान लगाकर, फेंक दिया पत्थर! लेकिन, पत्थर कहाँ गिरा, कोई आवाज़ ही न आई! ये तो जैसे रेत के दरिया में डुबकी लगा गया था!
"हैं?" चौंके वो,
"कोई आवाज़ नहीं!" बोला मैं,
"दूसरा फेंकूं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, फेंको!" कहा मैंने,
और फिर से फेंका, इस बार शायद किसी पेड़ से टकराया, हल्की सी आवाज़ हुई और हम, एकदम से शांत हो गए!
कुछ पल ऐसे ही रहे हम! शांत से! भीरु से! जैसे किसी सिंह की मांद के सामने से, एक ही क्षण में छलांग लगानी हो, ठीक वैसे!
"कोई नहीं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"वापिस चलो!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम, चल पड़े वापिस! वापिस चले, धीरे धीरे, सम्भल सम्भल कर! किसी से आते-जाते टकरा ही न जाएँ, कहीं मार दे एक आद लात, तो जीभ फौरन ही बाहर!
"आओ?" बोला मैं,
और हम घेरे में आ गए!
"अँधेरा बहुत है!" बोले वो,
"ये सोचा ही नहीं था!" कहा मैंने,
"चूक हो गई!" कहा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब बताइए, आदेश?" बोले वो,
"समझ ही नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"कुछ कहूं?" बोले वो,
"हाँ? ज़रूर?" कहा मैंने,
"क्यों न.........................?" बोले वो कि एक आवाज़ आई, हल्की सी, रुकी रुकी सी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी एक आवाज़ सी आई थी, जैसे किसी स्त्री को प्रताड़ित किया गया हो और वो डर कर, घबरा कर, हार-पुकार कर, बुला रही हो किसी को अपनी मदद के लिए! अब ये कहना कि ऐसा ही हो जैसा हम सोच रहे थे, ये भी ठीक नहीं था, यहां तो सबकुछ अजीब सा ही था! सोचो कुछ और होवे कुछ, देखो कुछ और दिखे कुछ!
"कुछ सुना?" पूछा मैंने, उनकी बात काटते हुए,
"हाँ!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ऐसा लगता है जैसे किसी औरत को मारा-पीटा जा रहा हो?" बोले वो,
"हाँ, ऐसा ही!" कहा मैंने,
"इसका मतलब क्या हुआ?" बोले वो,
"मतलब तो मुझे भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"क्या सच में ही पीटा गया होगा?" पूछा उन्होंने,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
और तभी, ठीक सामने कुछ आ कर गिरा वहाँ! हम दोनों ही चौंक पड़े! नज़र खोलीं ठीक से कि सामने गिरा क्या आकर?
कुछ पल शांत से रहे हम और जब देखा तो ऑंखें फ़टी रह गईं हमारी तो!
"ये..?" बोलते बोलते रुके वो,
"हाँ, शायद धड़ है?" कहा मैंने,
"कोई बालक है क्या?" पूछा उन्होंने,
"लगता है..." कहा मैंने,
"ये तो बहुत क्रूर हैं?" बोले वो,
"रुको, देखो..." कहा मैंने,
और वो जो गिरा था सामने, उसमे जान सी पड़ने लगी, वो रह रह कर, कांपने सा लगा! झटके मारने
 लगा! वो एक धड़ तो था, ये तो साफ़ था, लेकिन वो औरत थी या मर्द, ये नहीं पता चल रहा था, वो रक्तरंजित था, पूरा का पूरा, नहाया हुआ, रक्त से, जैसे उसको रक्त के कुंड में डुबो दिया गया हो!
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"घोर प्रेत-लीला!" कहा मैंने,
"डराने के लिए?" बोले वो,
"उद्देश्य यही है" कहा मैंने,
और हमारे देखते ही देखते वो धड़ कांपना बंद हुआ और बैठ गया! ओहो! बिना सर का, बिना हाथों का, पाँव ही थे उसके बस, वो धड़ बैठ गया था, बैठा भी कहाँ, उसके कूल्हों की हड्डियां, उस मिट्टी में धंस गई थीं! वो जैसे ही बैठा, कि झाग से उठे उसके बदन से, और देखते ही देखते वो पूरा का पूरा धड़ ही, मिट्टी हो गया! अब वहाँ कुछ नहीं था, न वो धड़ ही और न कुछ ढेर उस मिट्टी का!
"ऐसा क्यों?" बोले वो,
"समझ नहीं आया?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"ये जगह तो मुझे श्रापित सी लगती है...." कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"हाँ, जैसे 
 सब के सब, यहां क़ैद हों!" कहा मैंने,
"एक सवाल है?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बिल्ले को किसने मारा?" बोले वो,
"ये तो नहीं पता!" कहा मैंने,
"तब ये प्रेत-लीला न हुई होगी?" बोले वो,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"नहीं हुई होगी!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"नहीं तो इसका ज़िक़्र नहीं होता?" बोले वो,
"कौन करता?" पूछा मैंने,
"वे तीनों ही?" बोले वो,
"न किया हो?" बोला मैं,
"बात कुछ और है...." बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"एक काम करें?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"उधर, बाएं चलें?" बोले वो,
"अँधेरा है उधर भी?" कहा मैंने,
"मान लिया, लेकिन वहां कुछ तो है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये आये हैं वहीँ से, नहीं क्या?" बोले वो,
"आये?" बोला मैं,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"कैसे पता, आये?" पूछा मैंने,
"समझता हूँ, लेकिन देखें क्या?" बोले वो,
''अब दिन में" कहा मैंने,
"तो क्या सारी रात यूँ ही बैठेंगे?" बोले वो,
"बैठना ही होगा!" कहा मैंने,
"मानिए तो?" बोले वो,
"यार, ये कैसी ज़िद?" पूछा मैंने,
"एक बार, आप ही देख लो?" बोले वो,
"बाएं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ठीक है, आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम, फिर से वो सुरक्षा-घेरा छोड़, आगे चले, इस बार बाएं, जहां वे जाना चाहते थे!
"आहिस्ता से!" कहा मैंने,
"हाँ, वो जगह है न उधर?" बोले वो,
"कौन सी?" पूछा मैंने,
"वो खोदने वाली?" बोले वो,
"हाँ? है?" कहा मैंने,
और फिर से ढप्प! कुछ गिरा पीछे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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Topic starter  

हम रुक गए ठिठक कर! ये प्रेत-लीला था, बिलकुल थी, सभी के साथ होती, लेकिन अलग अलग प्रकार की! हमारे साथ जो हो रही थी, ये तो वीभत्स थी बहुत! हमें जैसे आखिरी हद तक जांचा जा रहा था, अभी फिर से कुछ गिरा था पीछे, वहां, हल्का सा प्रकाश अवश्य ही था उस बल्ब का!
हम दोनों ही रुक गए थे, दोनों ने ही पीछे मुड़कर देखा था कि आखिर, वहां गिरा क्या है?
"ये क्या है?" बोले वो,
"कोई गठरी सी है!" कहा मैंने.
"सांप तो नहीं इसमें?" बोले वो,
"वैसी तो नहीं?" कहा मैंने,
"देखें?" बोले वो,
"रुको अभी" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और हम, उसी जगह, पीछे को खड़े हो गए, उसी गठरी को देखने लगे, गठरी जस की तस ही पड़ी रही वहां, कुछ न हिला-डुला उसमे, इसका मतलब कुछ, सांप आदि तो न थे उसके अंदर!
''आओ?" कहा मैंने,
"चलिए?" बोले वो,
और हम, चुपके चुपके, गठरी तक पहुंचे, गठरी को देखा, ये गठरी, पुराने से कपड़े की बनी थी, जैसे कोई टाट हुआ करता है, शायद हाथ से बुना हुआ कपड़ा था, उसके मुंह पर, दो गांठें बंधी थीं, चार ही कोनों की, लेकिन फिर उस गाँठ पर, एक और रस्सी सी बाँध दी गई थी, ये गठरी ज़्यादा बड़ी नहीं थी, सर पर उठायी जा सकती थी!
"इसे उठाओ!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और उन्होंने, उठा ली, वो गठरी, जैसे ही उठायी, कि तले में छेद हो गया उसके, इसका मतलब था कि वो कपड़ा अब कमज़ोर हो गया था, शायद वक़्त के साथ साथ अब गलने लगा था! जब छेद हुआ तो नीचे कुछ रिसने लगा, जो रिसा उसे मैंने देखा, ये तो मिट्टी ही थी, और कुछ नहीं, इसका मतलब, उस गठरी में मिट्टी ही थी, या जो कुछ भी था, वो मिट्टी बन गया था!
"इसे रखो, इधर?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और गठरी रख दी उन्होंने उधर, अब मैंने उसे टटोल कर देखा, कुछ ठोस नहीं था उसमे, बस मिट्टी ही मिट्टी थी!
"कुछ नहीं है इसमें!" कहा मैंने,
"छोड़ दूँ?" बोले वो,
"हाँ, छोड़ दो!" कहा मैंने,
"यहीं?" बोले वो,
"तो?" बोला मैं,
"साथ ले जाऊं?" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उस घेरे में?" बोले वो,
"लेकिन मिट्टी ही है बस!" कहा मैंने,
"देख लेंगे!" बोले वो,
"ठीक है!" बोला मैं,
"आता हूँ!" बोले वो,
और मैं खड़ा रहा वहीँ, वे गए, उस गठरी को सम्भाला और रख आये उस घेरे में, और लौट आये वापिस! वो, उस औरत की आवाज़ फिर से गूँज उठी! जैसे किसी ने फिर से प्रताड़ित किया हो उसे!
"ये कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"समझ नहीं आता, या तो इधर, या फिर उधर!" कहा मैंने,
"इस जगह तो कोई भी पागल हो जायेगा!" बोले वो,
"कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
और हम, बाएं तक आ गए, अब यहां भी घुप्प सा अँधेरा! यहां से आगे बढ़ो तो, मतलब, खो जाओ उस बीयाबान में, या तो सुबह ही निकलो या फिर वहीं डर के मारे प्राण दे दो!
"कुछ नहीं यहां!" कहा मैंने,
"हाँ, मुझे लगा था कुछ तो होगा?" बोले वो,
"नहीं है!" कहा मैंने,
''अब बताएं?" बोले वो,
"अब चलो वापिस!" कहा मैंने,
"ठीक है, कल ही देखते हैं!" बोले वो,
"कल नहीं आज, बारह से ज़्यादा बज रहे हैं!" कहा मैंने,
"अरे हाँ, आज!" बोले वो,
मित्रगण!
अब यहां कुछ न हो सकता था, हमारे पास, साधन ही नहीं थे, हमारी पहुंच भी यहां पर सीमित ही थी! इसीलिए, इस स्थान पर किसी से टकराने से बेहतर था कि पूरी तैयारी कर के ही यहां आया जाए! साधन-सम्पन्न हों तो फिर कोई डर नहीं! फिर तो टकराव में भी कोई घबराहट न हो!
"आओ अब!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
"कल यहां, दिखाता हूँ कारीगरी!" कहा मैंने,
"वो क्या गुरु जी?" बोले वो,
"कल यहां नाहर छोडूंगा!" कहा मैंने,
अब मैंने कहा ही था कि नाहर छोडूंगा, कि आसपास से, आवाज़ें आने लगीं! जैसे, वहां पर, असंख्य से प्रेत छिपे हों या इंसान छिपे हों जिन्होंने अभी अभी चुप्पी तोड़ी हो अपनी! क्या ज़मीन और क्या पेड़! क्या झाड़ियां और क्या मिट्टी और पत्थर! जैसे सभी वहां छिपे हों और अचानक से ही बोल पड़े हों!
"भागो!" मैंने कहा,
और हम भाग निकले! फिर न देखा हमने पीछे, हम भागे और उस सुरक्षा-घेरे में आ खड़े हुए! वे आवाज़ें झट से बंद हो गईं! बस, हमरे सीनों में ही धड़कते हुए दिलों की धड़कनें ही सुनाई देने लगी थीं!
"ये कौन थे?" पूछा उन्होंने, साँसें, काबू में करते हुए!
"ये तो सारा स्थान ही जैसे ज़िंदा हो गया था!" कहा मैंने,
"अपने नाहर छोड़ना ही कहा था!" बोले वो,
"हाँ, कल नाहर ही दौड़ेगा यहां, काढ़ लाएगा पता सारा!" कहा मैंने,
"ठीक, ठीक गुरु जी!" बोले वो,
"जैसा सोचा था, ये उस से ज़्यादा ही निकला!" कहा मैंने, आसपास देखते हुए!


   
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