वर्ष २०१३, सूरजकुंड...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१३, सूरजकुंड, हरियाणा के पास की एक घटना, बाबा चूड़ामण का तांत्रिक-स्थल!

90 Posts
1 Users
0 Likes
877 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अचानक ही मेरी नज़र, वहां एक पत्थर पर पड़ी! ये पत्थर, मुझे कुछ अजीब सा ही लगा, उस लाल या भूरे से पत्थर मिलने वाली जगह पर, ये पीले रंग का सा पत्थर कहाँ से आया? मैंने और भी जगह नज़रें दौड़ाईं लेकिन न तो और कोई दूसरा पत्थर ही वैसा था, न उस पत्थर का कोई शिलाखण्ड ही, न कोई और बड़ा सा ही पत्थर, जिस से कहा जाए कि, ये टूट कर अलग हुआ हो! ये तो ऐसा था जैसे कौवों में बैठा कोई हंस दूर से ही पहचान लिया जाए! मैं आगे बढ़ा और उस पत्थर को उठाया, ये पत्थर, गंधक की तरह का था, वजन में भारी सा, भुरभुरा तो क़तई ही नहीं था! मज़बूत पत्थर था! लेकिन ये यहां कहाँ से आया? यही समझ न आया, सोचा फिर कि कहीं, जब गढ्ढा खोदा गया हो, तब तो नहीं निकला? ये सम्भावना तो बनती थी! खैर, मैंने वो पत्थर एक जगह रख दिया, और तब पेड़ की तरफ  बढ़ा, पेड़ की तरफ जैसे ही बढ़ा, मुझे एक गरम हवा के झोंके ने झिंझोड़ के रख दिया! ऐसा लगा कि मेरे दिल की धड़कनें बढ़ने लगी थीं, पेशानी पर पसीने छलक आये हैं, और अचानक से होंठ और जीभ, सूख गए हैं! हवा कैसी भी गरम हो, यकायक ऐसा तो उन्हीं किया करती! मैंने रुमाल लिया और पसीने पोंछे, फिर, पानी की बोतल ली और पानी पिया उसमे से, तीन या चार घूंट! कुछ भी कहो, तो जगह बेहद ही रहस्यमय सी प्रतीत हो रही थी! मुझे जो बताया गया था, उसके अनुसार तो यहां शक्तियों का वास था, और ये शक्तियां, बिना छेड़े तो कुछ कहेंगी नहीं, लेकिन वे मेरा उद्देश्य तो जानती ही थीं, मैंने ऐसा कुछ भी, न करने का फैंसला कर ही रखा था और गाँठ भी बाँध रखी थी, कि मुझे उनसे न कुछ चाहिए ही और न कुछ मैं आमना-सामना ही चाहता था! मैं तो ये देखने आया था कि ये जगह आखिर हे क्या? क्या विशेषता है इधर!
मित्रगण, यहां एक पर्यटक-स्थल भी हे, सूरजकुंड का कुंड, ये कुंड, प्राकृतिक नहीं हे, अपितु बनाया गया हे, अलग अलग इतिहासकार ने अपने अपने हिसाब से इसका अवलोकन किया है, ये कुंड, तोमर राजाओं द्वारा बनवाया था, कहा जाता है, राजा सूरजपाल ने इसको इसका वर्तमान रूप दिया था, कुछ कहते हैं, रहा अनंगपाल ने अपनी पुत्री के लिए, ताकि वो भगवान सूर्यदेव के दर्शन कर, अर्ध्य दे सके इसलिए बनवाया था, कुल मिलाकर, ये तोमर राजवंश द्वारा ही बनवाया था, ये तो निश्चित है! इसकी बनावट भी, उगते हुए सूरज एजीसी ही है, आसपास जी खुदाई हुई है, उस से भी यही पुष्टि होती है! हाँ, तुग़लक़ वंश में, फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने इसको इसका वर्तमान रूप दिया, ये लिखित में प्राप्त हो जाता है, उसने, इस कुंड के लिए, पहुँच के लिए, रास्ते, कुंड की सीढ़ियां आदि का निर्माण करवाया था, ये कहना कि ये अपने आप में विशिष्ट रहा होगा, कोई गलत नहीं होगा, तो इसका इतिहास, पुराण और समृद्ध है, इसके कोई संदेह नहीं! ये स्थान, अरावली पहाड़ियों में स्थित है, इसी स्थान के आसपास खुदाई में, पाषाणयुगीन सभ्यता के भी चिन्ह व् औज़ार आदि प्राप्त हुए हैं, अभी, और भी खुदाई का कार्य ज़ारी है, और कुछ और चौंकाने वाले स्थल आदि का पता भी चल ही जाएगा!
जब मैं उस जगह पर आ खड़ा हुआ था,तो पल भर को लगा था कि जैसे मैं भी उसी स्थान का एक हिस्सा ही हूँ! इतिहास में जीने का एक अलग ही लुत्फ़ हुआ करता है, अपने आपको उस से जोड़ने का तो कोई सानी ही नहीं! वैसे भी, हमारा देश इतना समृद्ध रहा है, कि यहां जो भी आया, उसी को इसने शरण दी, वो बस, यहीं का होकर ही रह गया! इसकी मिट्टी में ये सिफ़्त है!
खैर साहब....
मैंने आसपास नज़र डाली, सारी की सारी ज़मीन जैसे, किसी रहस्य को दबाए बैठी थी! अब वो क्या रहस्य था, ये भी पता चल ही जाता! अब मैंने इस जगह को, जहाँ से पहली बार जाना, वहीँ से जानना शुरू किया, सबसे पहले तो वो चौकीदार, बहादुर, उसकी पत्नी राखी और उसके दो बच्चे!
"अनिल जी?" कहा मैंने,
मेरे पीछे ही खड़े थे वो, शहरयार जी से आसपास की बातें किये जा रहे थे, मैं कोई ध्यान नहीं दे रहा था उनकी बातों पर, क्या विषय था, मुझे नहीं मालूम!
"जी गुरु जी?" बोले वो,
"बहादुर का परिवार, उस कमरे में रहता था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"ज़रा मुझे वो कमरा दिखाओ?" कहा मैंने,
"आइये गुरु जी!" बोले वो,
"चलो, शहरयार जी?" कहा मैंने,
"हुक़्म!" बोले वो,
"आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और हम चल पड़े उस कमरे की तरफ, कपमरे के दरवाज़े में, सांकल पड़ी थी, लोहे का दरवाज़ा था, हल्दी से एक स्वास्तिक ऐसे बना था कि दरवाज़ा बंद करने पर, ही पूरा नज़र आता था, अर्थात, आधा इस दरवाज़े पर और आधा दूसरे दरवाज़े पर! दरवाज़ा खुल, घनन-घनन की सी आवाज़ उसमे से हुई, चौखट से कुछ मिट्टी झड़ कर निचे गिरी और हम अंदर चले उसके, अंदर कुछ नहीं था, कुछ फ़टे-टूटे से फट्टे लकड़ी के, कुछ लकड़ियां और दीवार पर, आधा फटा हुआ एक कैलेंडर, जिस पर, एक मोर बना था, बस, दीवार की सफेदी अभी भी ठीक थी, हाँ झिरियों में मिट्टी जम गई थी!
"तो यहां रहता था बहादुर?" पूछा मैंने,
"जी" बोले वो,
"और चूल्हा-चौकी बाहर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"और वो जो रस्सी है, उधर कपड़े टंगते होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, अक्सर!" बोले वो,
"पानी का क्या साधन है?" पूछा मैंने,
"बोरवेल है जी, उधर!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो आपने बताया था कि वो साधू, दो बार आया था, एक बार किसी औरत के साथ भी था, जो कि उस से उम्र में आधी थी, और दूसरी बार अकेला, जब पानी माँगा था!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"इसका मतलब, वो, उधर से आया होगा!" कहा मैंने, पूरब की तरफ ऊँगली करते हुए!
"कह नहीं सकता!" बोले वो,
"रस्सी वहां है, तो वहीँ से आया होगा न?" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोले वो,
"ठीक, आओ उधर!" कहा मैंने,
और हम, उस रस्सी के पास गए, कुल चार या पांच मीटर की रस्सी रही होगी वो, मूँज की बनी हुई, मज़बूत सी, जिसमे दो गांठें बाँध कर, बड़ा बनाया गया था!
"इधर से आया होगा वो!" कहा मैंने,
मैंने ऐसा इसलिए कहा, क्योंकि, एक तरफ, एक गढ्ढा सा था, अब सूख चुका था, शायद, स्नान या बर्तन आदि धोने के लिए, पानी उसमे ही भरा जाता हो, वहां से आने का कोई औचित्य दीख नहीं पड़ता था, वो साफ़ रास्ते से ही आया होगा!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"तो यहां से आया होगा वो साधू, ठीक, आया समझ!" कहा मैंने,
"आइये ज़रा?" बोले शहरयार,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
'आइये तो?" बोले वो,
"कुछ अजीब है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, तभी तो!" बोले वो,
मैं चल पड़ा उनके साथ, वे मुझे एक पेड़ के पास ले आये, और एक तरफ देखने लगे, गौर से,
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"ये कोई पुराना सा रास्ता नहीं लगता?" बोले वो,
"ये? कौन सा?" पूछा मैंने,
"जहां हम खड़े हैं?" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"आप ज़रा गौर से देखिये, इन पत्थरों को देखिये और उधर, उन पत्थरों को देखिये ज़रा?" बोले वो,
मैंने गौर से देखा, हाँ! फ़र्क़ था! इस जगह के पत्थर, कुछ घिसे हुए जैसे थे, जैसे आवागमन रहता हो उन पर, और उस तरफ, दायीं तरफ, कुछ अलग ही किस्म के पत्थर थे! वे खुरदुरे, बड़े बड़े से, दीवारों में से, भूस्खलन के पश्चात रह गए हों, ऐसे बेतरतीब से थे!
"अरे हाँ यार!" कहा मैंने,
"इसका मतलब, ये कोई पुराना रास्ता रहा होगा!" बोले वो,
"यक़ीनन! अच्छा और क्या खूब गौर किया आपने!" कहा मैंने,
"अब एक और बात!" बोले वो,
"वो क्या?'' पूछा मैंने,
"अगर ये रास्ता है, तो कहीं से आता भी होगा या कहीं जाता भी होगा?" बोले वो,
"बिलकुल! रास्ते होते ही इसीलिए हैं!" कहा मैंने,
"तो आइये, एक चीज़ और दिखाता हूँ!" बोले वो,
"आओ, दिखाओ!" कहा मैंने,
"हाँ, आओ ज़रा!" बोले वो,
और मैं, उनके साथ चल पड़ा, वे आगे चलते रहे, मैं आसपास देखता हुआ, उनके पीछे ही चलता रहा! फिर एक जगह वो रुक गए!
"यहां देखिये?" बोले वो,
मैंने गौर से देखा! ये एक खुला सा मैदान था, बस पेड़ और झाड़ियां ही थीं वहां, या कुछ उड़ कर आई हुईं सूखी हुई सी झाड़ियां और लकड़ियां, बस! या फिर, कंकड़-पत्थर ही!
"कुछ देखा?" बोले वो,
"हाँ! देख रहा हूँ!" बोला मैं,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"ये कि, वो देखिये, उधर, केंद्र है, और चारों तरफ से, या यूँ कहूं कि आठों तरफ से, ये ज़मीन, केंद्र की तरफ, धंसी हुई है!" कहा मैंने,
"बिलकुल! बिलकुल! यानि कि ये मेरा ही वहम नहीं!" बोले वो,
"वहम तो हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने,
"इसका क्या मतलब हुआ कि केंद्र की तरफ धंसी हुई है?" बोले वो,
"यही, कि नीचे, या तो कोई पुराना जलाशय है, या कोई कुंड जो अब, मिट्टी के नीचे ज़मींदोज़ हो गया है!" कहा मैंने,
"यही! यही मैंने सोचा था!" बोले वो,
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी, हुक़्म!" बोले वो,
"अगर ये ऐसा ही है, जैसा हम सोच रहे हैं, तो इसका मतलब ये जगह ख़ास ही नहीं, बेहद ख़ास है और ये रहस्य कोई एक नहीं, कई रहस्यों को मिलाकर, एक बना है!" कहा मैंने,
"और मजे की बात ये, कि ऐसा ही लग रहा है मुझे भी!" बोले वो,
"हाँ और अब मैं ये भी जानता हूँ कि आप मुझे क्या सलाह देने वाले हो!" कहा मैंने,
"वो क्या जी?" बोले वो,
"यही, कि मेरी मानो तो कलुष-संधान करो!" बोले वो,
"सच! यही होते मेरे अगले शब्द!" बोले वो,
"और यही करना ही होगा!" कहा मैंने,
"आप जांच सही सकते हो फिर!" बोले वो,
"हाँ सो तो है!" कहा मैंने,
और तब मैंने, मन ही मन, एक विनती की, मेरे मन में आई और कर ही डाली! कि मेरा उद्देश्य कुछ ले जाना नहीं, बस, जानना ही है, सिर्फ एक जिज्ञासा भर! अतः, यहां कोई विशेष शक्ति, स्थान आदि हो, तो मुझे क्षमा दें, मैं कोई विरोधी नहीं हूँ, न ही कोई खिलाड़ी ही! आज्ञा दें कि मैं ये जान सकूँ, यही मेरे लिए काफी होगा!
"मैं उधर खड़ा होता हूँ!" बोले वो,
"हाँ, आप जाइये!" कहा मैंने,
और तब मैंने उस मिट्टी की एक चुटकी उठायी, मंत्र पढ़ा, कलुष-संधान किया, मिट्टी सर के ऊपर से पीछे फेंकी और नेत्रों में, भारीपन सा हुआ! कुछ आंसू से निकले जैसे, सुरमा जब डाला जाता है आँखों में, कुछ किरकिरापन सा, गले में कुछ कसैलापन सा उभरा और नेत्र खोल दिए अपने! नेत्र खोले, दृश्य स्प्ष्ट हुआ!
सामने भूमि में, करीब बीस मीटर नीचे, पेड़ों के शहतीर से पड़े थे, कुछ बड़े बड़े से पत्थर, कुछ, गढ़े हुए से, कुछ अनगढ़ से! गढ़े हुए पत्थर बताते थे कि यहां किसी पुराने समय में कोई इमारत रही होगी, ये उसी के ज़मींदोज़ हुए खंडहर से हैं! बाएं, मिट्टी भरी थी, उसमे, कंकड़-पत्थर भरे थे, दाएं, कुछ अलग किस्म की रेत सी थी, और बाएं में, बड़े बड़े से पत्थर ही थे, कुछ ऐसा नहीं था जो अलग या खास कहा जा सकता! जलाशय रहा हो, तो कोई निशानी भी नहीं थी, कलुष-मंत्र के संधान से बस इतनी ही मदद मिला करती है, या फिर वो, अपनी जद में आई किसी अशरीरी-शक्ति या सत्ता को स्पष्ट कर दिया करता है! तो उस समय उस संधान से, कुछ विशेष हाथ नहीं लगा! अतः, मुझे मंत्र लौटाना पड़ा! लौटाने का भी एक मंत्र हुआ करता है, मंत्र की डोर टूट जाती है और आप सामान्य हो जाते हैं! तो मंत्र लौटाते ही मैं वापिस लौटने लगा, तभी शहरयार जी, मुझे देख मेरी तरफ लपके!
"कुछ आया पकड़ में?" पूछा उन्होंने,
"नहीं कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
"नीचे क्या है?" पूछा उन्होंने,
"पत्थर और कुछ इमारती खंडहर से, उनके भग्नावशेष और कुछ विशेष नहीं!" बोला मैं,
"कोई कुआँ आदि, कोई हौद?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, ऐसा कुछ भी नहीं मिला!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"एक तो ये जगह काफी ही बड़ी है!" बोले वो,
"हाँ, बहुत ही बड़ी!" कहा मैंने,
"एक काम किया जाए?" बोले वो,
"बताइए?" पूछा मैंने,
"क्यों न इस रास्ते पर ध्यान लगाया जाए?" बोले वो,
"ये अच्छी सलाह है!" कहा मैंने,
"सम्भव है, कुछ आ जाए हाथ!" बोले वो,
"हाँ, सम्भव है!" कहा मैंने,
"नहीं तो फिर...आप जानते ही हो!" बोले वो,
"हाँ, वो बाद की बात ठहरी!" कहा मैंने,
"आइये फिर, यहां से शुरू करते हैं, ये थोड़ा छोटा है!" बोले वो,
"बिलकुल ठीक!" कहा मैंने,
"लो, पानी पियो आप!" बोले वो,
"हाँ, लाइए!" कहा मैंने,
मैंने पानी पिया और थोड़ा सा, अपने चेहरे पर भी मारा, तभी मुझे कुछ सुनाई सा दिया, एक मद्धम सा स्वर!
"आप....." बोलते बोलते, मुझे गम्भीर सा देख, वे चुप हो गए!
"शहहह!" मैंने होंठों पर ऊँगली टिकाते हुए बोला,
ये एक हल्का सा, अति-मद्धम सा स्वर था, जैसे दूर कहीं से, किसी के हंसने की सी आवाज़ आ रही हो, आवाज़ ऐसी थी कि हवा में बहकर आती हो, खुलकर सुनाई नहीं दे रही थी, बस एक हंसी सी, जिसके कुछ टुकड़े, बिखर जाते हों हवा में!
"कुछ सुनाई दे रहा है?" पूछा मैंने,
"एक मिनट" बोले वो,
और आँखें बंद कर लीं अपनी उन्होंने, एक कान ऊँगली डाल, बंद किया, घूमने लगे, और एक जगह आ कर रुक गए! खोली आँखें अपनी!
"हाँ, एक स्वर सा आता है बार बार!" बोले वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"हंसी के सा!" बोले वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"और शायद....उम्म्म...इस तरफ से!" बोले वो,
वो स्थान, दक्षिण में था, हम जहां थे, उस से आगे ही, खुली सी जगह!
"कोई काम तो नहीं हो रहा वहां?" पूछा मैंने,
"देख लेते हैं, लेकिन लगता तो नहीं!" बोले वो,
"आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, आइये!" बोले वो,
तब हम, आगे चल पड़े, यहां तो कुछ नहीं था, बीहड़ ही कहूंगा, न जाने योग्य बीहड़ सा! यहां तो कोई जंगली चौपाया जाए तो जाए, इंसान नहीं जा सकता था, गया तो काँटों से बनी खरोंचों के तमगे लिए ही बाहर आये!
"यहां तो नहीं जाया जा सकता!" कहा मैंने,
"हाँ, ये कंटीली झाड़ियां हैं, ये पत्थर और ऊबड़-खाबड़ ज़मीन!" बोले वो,
''और कोई रास्ता है नहीं!" कहा मैंने,
''आओ, लौटते हैं फिर!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
"उनके पास चलते हैं!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उनके पास जाने के लिए, अब कोई हंसी का टुकड़ा नहीं बहकर आया था, शायद बंद ही हो गया था, क्या था, समझ ही नहीं आया!
"आ जाओ जी!" बोले विनोद जी,
पलंग बिछा लिया था, फोल्डिंग पलंग था वो, गाड़ी से चादर निकाल, बिछा ली गई थी! सिगरेट के दो पैकेट, एक के ऊपर एक रखे थे, साथ में, एक लाइटर भी, जिस पर पांच सौ पचपन छपा था!
"कुछ दिखा?" पूछा प्यारे लाल जी ने,
"नहीं, कुछ ख़ास नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा जी" बोले मायूस से,
"अनिल?" बोले शहरयार जी,
"जी?" कहा उन्होंने,
"वो जगह कहाँ है भाई?" बोले वो,
"कौन सी?" पूछा उन्होंने,
"जहां से वो जेवर मिला था?" पूछा उन्होंने,
ये बढ़िया सवाल किया था शहरयार ने! मैं तो ऐसा अड्ड-मड्ड में डूबा था कि इस बाबत तो ध्यान ही नहीं गया था! तो ये सवाल पूछते ही, मेरा सर भी अनिल जी की तरफ ही घूम गया!
"वो उधर है!" बोले वो,
"दिखाओ?" बोले वो,
"हाँ, आइये!" बोले वो,
और अनिल जी, ने, एक पैकेट उठाया सिगरेट का, और चल पड़े हमारे साथ, एक सिगरेट आधी खींची पैकेट में से, मेरी तरफ कर दी, मैंने सिगरेट निकाल ली, लाइटर लिया और सुलगा ली, बड़ा ही आनंद आया उस समय तो उस कश में!
"उधर है जी वो!" बोले अनिल जी,
रुके और सिगरेट सुलगाई, और धुंआ छोड़ते हुए, चले आये हमारे पास!
"वो टूटे से खंडहर से भी न?" पूछा मैंने,
"जी जी!" बोले वो,
"हाँ, दिखाओ ज़रा!" बोले वो,
"वो रहे, देखिये आप!" कहा उन्होंने,
ठीक मेरे सामने एक टूटा सा खंडहर था! खंडहर क्या, अब कुछ न बचा था, बस ज़मीन में से कुछ ही इंच ही बाहर निकला हुआ, लाल पत्थरों का बना हुआ! ये अर्ध-चंद्राकार सा बना था! कहीं नज़र आता था कहीं ज़मीन ने अपने अंदर समेट लिया था उसे!
"ये है जी, यहां, मिट्टी में मिला था उसे जेवर!" बोले वो,
"उस लड़के को!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, उसी लड़के को!" बोले वो,
"ठीक!" बोला मैं,
और थोड़ा सा आगे चला, उस जगह से थोड़ा सा आगे ही!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

जैसे ही मैं आगे गया, फिर से एक हवा का गर्म सा झोंका सा टकराया देह से! ऐसा जैसे पास में या तो भट्टी जल रही हो या फिर, कोई अलाव भड़का हुआ हो! इसी में वो तैलाहुति की गंध सी घुली थी! मैंने तो चौकस हो उठा! जो कुछ भी था यहीं था! न जाने क्यों, मुझे ऐसा लग रहा था कि बहुत सी आँखें मेरे पल पल को पढ़े जा रही हों, देखे जा रही हों मुझे! सच में, ऐसा ये एहसास बड़ा ही अजीब और घबराहट भरा हुआ सा रहता है! कितना बड़ा ही तांत्रिक हो, या खिलाड़ी हो, उसको जब इस तरह का एहसास होता है, तो उसके आँखें, पीछे भी देखने लग जाती हैं! पीठ पीछे क्या हो रहा है ये देखने और कान, कान और चौंकन्ने हो जाते हैं! यशी इस वक़्त मेरे साथ था! यहीं पर वो गर्म सा झोंका, टकराया था, तो ये तो, निश्चित ही था, कि हो न हो, मेरी प्रत्येक विधि और गतिविधि पर नज़र रखे जा रही थी! 
एक बार और, यहां कोई स्थान था, ये भी तो अभी खुला नहीं था, किसी का वास था, ये भी नहीं खुला था, कुल मिलाकर धान में से, राई का दाना ढूंढने जैसा था ये! कोई अभी तक खुलकर, सामने भी नहीं आया था, नहीं आया था तो इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं था कि वो घबरा गया था या पीछे हट गया था, बल्कि ये भी हो सकता था कि मेरी थाह क्या है? मंसूबा क्या है? क्या करने मैं आया हूँ वहां! और फिर, मेरे साथ ये तीन 'जमूरे' भी थे, जिन्होंने, पहली ही बार में अपना किरदार काला कर लिया था! कुछ छ भी करने जाते ये तो पटना किस किस संशय में पड़ना होता उनको! मैं उनके साथ आया था, तो कालिसख मेरे मुंह भी तो पुछनी ही थी, इसका भी ख्याल रखा जाना था!
खैर, मैं वहीँ खड़ा हुआ, और तब कुछ सोचा, सोचा, कि यहां मैं अकेला ही जांच करूं, देखूं कि यहां है क्या? इसीलिए मैं वहां से हटा और चला शहरयार जी के पास!
"सुनो?" बोला मैं,
"हुक़्म!" बोले वो,
"एक काम करो आप, आप वापिस चलो उधर ही, मैं आता हूँ!" बोला मैं,
"जी, ठीक!" बोले वो,
और बोतल मुझे पकड़ा दी पानी की, और अनिल को कंधे से पकड़, चल दिए वापिस, मुझे देखा, मेरा इशारा समझा उन्होंने, और चले गए! वे गए तो मैं उसी जगह आ खड़ा हुआ फिर से! और किये नेत्र बंद, पहले सहज हुआ, जो भय चढ़ा होता है, उसको, विश्वास से हटना पड़ता है, तो मैंने भी ऐसा ही किया और फिर झुका नीचे, एक चुटकी मिट्टी उठायी, कलुष का संधान किया, और मिट्टी हाथ में रख, सर से पीछे फेंकी! फेंकते ही मेरे कदम डगमगा गए! मेरे नेत्र खुल गए और मेरे सामने दृश्य स्पष्ट हुआ!
क्या देखता हूँ! देखता हूँ, मेरे सामने ठीक करीब दस फ़ीट दूर, एक हौद है! ये हौद दस फ़ीट, कम से कम, लम्बी और चार फ़ीट चौड़ी रही होगी! हौद के आसपास, चार बड़े से, गोल पत्थर रखे हैं! मैं आगे बढ़ा, और उस हौद तक आया! हौद में झाँका तो हौद खाली है, हाँ, बदरपुर सा भरा है, और उस बदरपुर में, चींटे मरे पड़े हैं! मरे और सूखे हुए, कुछ पत्तियां सी भी, और एक अजीब सी चीज़! इसी ने मेरा ध्यान खींचा अपनी तरफ! इस हौद में, कुल सोलह, इस तरह के पत्ते थे, जो गोल-गोल मोड़कर, रखे गए थे! बताता हूँ ाकिसे, जैसे आप एक पान का पत्ता लें, उसका डंठल तोड़ें और पत्ते को, नोंक की तरफ से, लपेटते चलें, तब ये सिगार का सा रूप ले लगा, ठीक इसी तरह से यहां ऐसे सोलह पत्ते, रखे थे,मैंने झुक कर, एक पत्ते को उठाया, उस पत्ते को देखा, मेरे हाथ के छूने से पत्ता, चरका थोड़ा सा, कड़कड़ की सी बारीक सी आवाज़ हुई! मैंने उस के एक टुकड़े को हाथ पर, रखा, और उसे, अंगूठे और ऊँगली से पीसा, और फिर सूंघा! एक हल्की सी गंध उभरी उसमे से! ये गंध, तम्बाकू के पत्ते जैसी थी! जैसे वो पूरा का पूरा पत्ता तम्बाकू का ही रहा हो! तम्बाकू का ऐसे प्रयोग? भला कौन करेगा? और कौन उसे, इस तरह से सहज कर रखेगा वो भी हौद में? और कुल सोलह जगह? नहीं! कुछ और ही प्रयोजन रहा होगा इसका, प्रयोजन जो मुझे नहीं मालूम था या, मेरी नज़रों से अभी तक चूक रहा था! मैंने उस पत्ते को खोला, खोला तो बीच में, एक काले से रंग का धागा सा दिखा! ये पत्ते की इस नहीं हो सकती थी, ये धागा ही था, थोड़ा सा ज़ोर लगाया तो वो टूट गया! ये धागा ही था! मैंने पत्ते को वापिस वहीँ रख दिया! और फिर से हौद को देखा, हौद में, एक जगह, कुछ बदरपुर, निकला हुआ था, जैसे, उस हौद को खाली किया जा रहा हो, एक तरफ से कुछ कम था वो बदरपुर! मैंने आसपास देखा तो मुझे, एक लकड़ी दिखी! मैंने उस लकड़ी को उठाया, और उस हौद को कुरेदा! कुछ देर कुरेदने के बाद, मेरी वो लकड़ी, किसी वस्तु से टकराई! मैंने लकड़ी बाहर निकाली, करीब पौने फ़ीट नीचे उसमे वो वस्तु थी! वो क्या हो सकती है? पता नहीं! और कलुष की भी अपनी सीमाएं हैं, वो, इसे बाहर निकालने में कोई सहायता नहीं कर सकता था! इसके लिए, खुदाई की ज़रूरत थी, तब ये हौद बाहर निकलती और फिर, ये वस्तु भी, ये क्या है, ये तभी पता चला सकता था, तो मैंने उसकी निशानदेही कर दी!
तो मैं उठा! जैसे ही उठा, मेरे सर से जैसे कोई काला सा बादल गुजरा गया हो, ऐसा लगा! मैंने झट से देखा ऊपर! था तो कुछ नहीं! कोई पक्षी भी नहीं था, तब वो क्या था? मेरा वहम तो नहीं था ये! हाँ! इतना समझ ज़रूर आया कि मैं अभी भी नज़रों में ही हूँ! आसपास देख ही रहा था कि ठीक कोई पचास मीटर दूर, मुझे यों लगा कि जैसे कोई बैठा है नीचे, बैठा है, अपने कूल्हे नीचे टिका और पाँव खोल, अक्सर जैसे लोग बैठ जाया करते हैं, साधारण से रूप में, दो ही तरह से बैठते हैं, एक आलती-पालती मार कर, या उकड़ू और जब उकड़ू में थक जाते हैं तो इस तरह से बैठते हैं जैसा मैं देख रहा था! मेरी नज़रें वहीँ जा टिकीं! मैं धीरे धीरे से नज़रें जमाए लगा उस पर! जब नज़रें जमीन, तो कुछ ठीक से दिखा, ये कोई बैठा नहीं था, मुझे आभास हुआ था, कि जैसे कोई बैठा हो! मैं फिर भी उस तरफ चल पड़ा! ये एक खुला सा, छितराया सा क्षेत्र था! कुछ सूखे और कुछ अधमरे से पेड़ लगे थे! बस, और कुछ नहीं! बाकी ज़मीन पथरीली थी, मैं, उसी ज़मीन पर आगे बढ़ता रहा! और जब मैं उस तरफ आया, पहुंचा, तो बिन ठिठके न रह सका! ये एक काले रंग का कपड़ा था! करीब दो फ़ीट चौड़ा और चार फ़ीट लम्बा, सूती और मोटी सी जरी का बना था! मानो तो, जैसे आजकल के पायदान बनाए जाते हैं जिस से! लेकिन इस कपड़े में कुछ ख़ास था! बहुत ही ख़ास! जिस से मेरी नज़रें कभी चूक नहीं खा सकती थीं! उस कपड़े में, सफेद रंग की, एक एक इंच की, कौड़ियां टकीं थीं! ये कौड़ियां, छेद कर, टांकी गई थीं! ये शुरू में, चार, फिर गोलाई लेते हुए, छह और फिर आठ और फिर दस, इस तरह से लहरदार थीं! कमाल की बात ये थी, कि न तो सिलाई ही दीख रही थी, और दूसरा ये कि सभी का आकार, अनुपात, सब समान ही था! मैं थोड़ा सा आगे बढ़ा! और जैसे ही उस कपड़े को छूना चाहा, किसी के दौड़ने की सी आवाज़ हुई! मेरा हाथ हटा उस पर से, उस कपड़े के दाएं देखा, एक बड़ा सा मादा-नेवला था वो! साथ उसके चार छोटे छोटे से बच्चे थे! वो मुझे देख रही थी और मैं उसे! उसी की दौड़-भाग ने, मुझे चौंका दिया था! खैर, मैंने श-श कर, उनको भगाया और फिर से हाथ बढ़ाया उस कपड़े की तरफ!
हैरत!
कि कपड़ा नहीं था!
कुछ देर पहले, मैंने जिस कपड़े को, ठीक यहीं, यहीं देखा था, उसकी कौड़ियां तक गिन ली थीं, जो लहरदारिया तरीके से जड़ी हुई थीं, जो कपड़ा, घरे काले रंग का, सूती और मोटी जरी का था, अब वो वहां नहीं था!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वो कपड़ा, गायब हो गया था! सच कहता हूँ कोई और रहा होता वहां तो सर पर पाँव रख, भाग लिया होता! पछाड़ खाता कई कई बार और मुंह से बताए न बनता! कई रोज तक भूला नहीं जाता, या तो बीमार ही पड़ जाता या फिर, हमेशा के लिए, कन्नी ही काटता ऐसी किसी भी जगह जाने के लिए! आखिर, एक कपड़ा, जो कुछ देर ही पहले सामने था, एक पेड़ पर लटका हुआ, यकायक, गायब हो गया था! न कोई आया और न कोई गया ही था! ये सब क्या था? चेतावनी? या फिर मुझे बताया गया था कि इस मामले से दूर ही रहा जाए! लेकिन, दूर कैसे रहा जाए! ये तो चिपकन सिद्ध हुई मेरे लिए! अब आना था कुछ इस खेल का मजा! ये तो खुल कर खेलने वाला सा निमंत्रण ही सिद्ध हुआ था मेरे लिए तो! ऐसा आखिर मैंने क्यों लिखा? वो इसलिए, कि मैं न तो डराया ही गया था और न ही धमकाया ही गया था! 
मैंने आसपास देखा, कुछ नहीं था, न कुछ कपड़ा और न कुछ और ही, वही सब सामान्य सा दृश्य! और अब यहां रुके रहने का कोई लाभ भी नहीं था, अतः, मैं वापिस चल पड़ा उन लोगों के पास आने के लिए! काफी समय हो चुका था लेकिन हाथ कुछ नहीं आया था, मेरा कलुष भी अब बंद हो गया था! अब वापसी आ कर, थोड़ा सा आराम किया जाए, रुपरेखा बनाई जाए और फिर आगे की सोची जायें, यही ठीक था! तो मैं टहलते टहलते वापिस चला आया! आया और हाथ-मुंह धोकर, बैठ गया उधर ही!
"कुछ पता चला?" बोले प्यारे लाल जी!
"नहीं अभी तो कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"अभी जायज़ा ही लिया है बस!" बोले शहरयार जी!
"हाँ, फौरी तौर पर!" कहा मैंने,
"गुरु जी?" बोले विनोद जी,
"हाँ विनोद?" बोला मैं,
"जिस दिन ये ज़मीन ली थी ना हमने?" बोले वो,
"हाँ?" मेरे कान खड़े हुए, कुछ काम की बात आये सामने!
"उस दिन, यहां से, बहुत लोग गुजर रहे थे!" बोले वो,
"लोग? गुजर रहे थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, जैसे कोई मेला लगा हो कहीं और यहां से रास्ता हो?" बोले वो,
"कितने बजे?" पूछा मैंने,
"हम कब आये थे प्यारे?" बोले वो प्यारे लाल से!
"कोई ग्यारह बजे होंगे, दिन के?" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी, शायद गाँव के होंगे आसपास के?" बोले अनिल जी,
"हो सकता है!" बोले शहरयार जी!
"कैसी वेशभूषा थी उनकी?" पूछा मैंने,
"आम देहाती सी ही!" बोले वो,
''और महीना क्या होगा?'' पूछा मैंने,
"होली के आसपास का था शायद?" बोले वो,
"अच्छा, कोई बात नहीं!" बोला मैं,
कुछ काम न आया! कोई सूत्र नहीं!
"अच्छा? एक बात?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"ये ज़मीन ली किस से थी आपने?" पूछा उन्होंने,
"ये किसी दिल्ली वाले के नाम थी, कोई बिल्डर था!" बोले वो,
"तो औने-पौने दाम में कैसे हाथ आई?" पूछा मैंने,
"उनको कोई दूसरी जगह मिली थी!" बोले वो,
"अरे गुरु जी?" चिल्लाए प्यारे लाल जी!
"क्या हुआ?" हम सभी चौंके! खड़े हो गए थे हम सभी!
"इधर! इधर देखिये!" बोले वो,
मैंने वहीँ देखा! कुछ नहीं था!
"क्या है?" पूछा मैंने,
"काला सांप!" बोले वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"इधर भागा वो!" बोले अब डरते हुए से!
"किधर?" पूछा मैंने,
"उधर है शायद!" बोले वो, और पाँव उठा लिए अपने उन्होंने!
'आना ज़रा?" बोला मैं,
"हाँ, चलो!" उठ खड़े हुए शहरयार जी!
वे तीनों, मारे भय के अब पलंग पर चढ़ गए थे! पाँव ऊपर कर, सर नीचे कर! जहां मुझे बताया गया था, वो थोड़ा सा कबाड़ जैसा स्थान था!
"वो लकड़ी उठाना?" बोला मैं,
"हाँ!" बोले शहरयार जी, और एक मज़बूत सी लकड़ी ले आये!
"ये लो!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
''आराम से, पांवों का ध्यान देना!" कहा मैंने,
"जी, बिलकुल!" बोले वो,
और मैंने उस डण्डी से, सामान उलटना-पलटना शुरू किया, पल में लगे यहां है और पल में लगे, खिसक गया!
"कहाँ गया?" बोले वो,
"होना तो यहीं चाहिए?" कहा मैंने,
"कहीं कोई बिल आदि तो नहीं?" बोले वो,
"दिख तो है नहीं रहा?" बोला मैं,
"वो भागा!" चिल्लाए वे तीनों!
और हम भी भाग लिए! ये एक बड़ा सा काला सांप था! कम से कम चार फ़ीट लम्बा होगा, बड़ा ही चपल था! हम नहीं दौड़ पाये और वो सटासट खिसक गया वहां से! चला गया था झाड़ियों में! अब तो उसको पकड़ना क्या, देखना भी मुश्किल था!
"अब नहीं दिखेगा!" बोले वो,
"हाँ, अब तो गया!" कहा मैंने,
"गज़ब की रफ़्तार थी!" बोले वो,
"ऐसी जगह में तो होती ही है!" कहा मैंने,
"क्या भागा!" बोले वो,
"हाँ, अब तो पता नहीं कहाँ होगा!" कहा मैंने,
"आओ, चलो अब!" कहा उन्होंने,
"हाँ, आओ!" बोले वो,
और हम लौट पड़े वापिस, वे तीनों अभी तक, मारे डर के, ऊपर ही चढ़े बैठे थे! पसीने छलक आये थे उनके तो!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 

"अरे? इतना क्यों डर रहे हो आप लोग?" बोले शहरयार जी, उनको सिहरते देख!
"क्या करें! जब से यहां आये हैं, तब से यही सब होता जा रहा है!" बोले अनिल जी,
"जंगली सांप था, आ गया होगा बेचारा भटकता हुआ, चला गया अब!" बोले वो,
"हमें क्या पता जी, कि जंगली था इस करामाती! उस रत जो हुआ था, उसके बाद से तो सांप देखते ही, बस......दस्त....से...." बोले वो,
"समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"यही बात है जी, अब शहरों में कहाँ हैं सांप?" बोले वो,
"हाँ, अब कहाँ हैं!" कहा मैंने,
"इन्हें तो कोई जंगल में भी न रहने दे रहा!" बोले शहरयार!
"हाँ जी, सही बात! देख लो न? कैसी बिल्डिंग्स बन रही हैं!" बोले वो,
"तो बेचारे जाएँ कहाँ?" बोला मैं,
"सच बात है!" बोले शहरयार जी!
"समय क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ढाई बज गया है!" बोले वो,
"खाना लाया जाए?" बोले अनिल जी,
"ले आओ, अब तो भूख भी लगी है!" बोले शहरयार, पेट पर हाथ फिराते हुए!
"हाँ, थोड़ा पेट में पड़ जाए कुछ तो आगे की देखें!" कहा मैंने,
"विनोद?" बोले प्यारे लाल,
"हाँ?" बोले वो,
"मैं और अनिल चले जाते हैं, तुम यहीं रहो?" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा उन्होंने,
और तब, अनिल और प्यारे लाल, चले गए खाना लेने, अब भूख लगने लगी थी! ढाई-तीन घंटे बाद भी, कुछ देखा था तो वो कपड़ा, जो यकायक गायब हो गया था और वो सांप, जो अब लकीरें ही छोड़ गया था, और तो कुछ नहीं! रही वो हंसी, तो वो कहीं से भी हवा के संग बहकर, आ सकती थी, कोई नयी बात न थी इसमें!
मुझे रह रह कर, वो जगह, जहां से, वो जेवर मिला था, जैसे बुला रही थी, लग रहा था, हो न हो, यहीं से कुछ मिले जो मिले!
"शहरयार जी?" बोला मैं,
"हाँ जी, हुक़्म?" बोले वो,
"अरे ज़रा आना, साथ मेरे?" बोला मैं,
"ज़रूर!" बोले वो,
सिगरेट का पैकेट उठाया और चल पड़े मेरे साथ!
"कहाँ?" बोले वो,
"उसी जगह, जहां वो जेवर मिला था!" कहा मैंने,
"हाँ, मुझे भी यही लगता है कि वहां कुछ न कुछ तो है!" बोले वो,
"आओ, अब ज़रा तसल्ली से देखते हैं!" बोला मैं,
"ठीक, चलो, देखें!" बोले वो,
और हम आ गए उस जगह! उस जगह सच में कुछ खिंचाव सा था! ये बस महसूस किया जा सकता था! सो महसूस हो ही रहा था!
"आप ज़रा आसपास देखो, कोई ऐसी चीज़, जो एकदम अलग ही हो!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"और मैं, उधर देखता हूँ!" कहा मैंने,
"उस टीले पर?" बोले वो,
"हाँ, ज़रा नज़रें दौड़ा दूँ!" कहा मैंने,
"ये भी ठीक!" बोले वो,
और तब मैं, उस टीले तक पहुँच गया, खड़ा हुआ उस पर, आसपास बस वो सूखा सा जंगल, और कुछ नहीं! घास नहीं थी, अब जहाँ घास न हो, तो समझो जगह बंजर ही हैं, क्योंकि घास, नमी माँगा करती है, और जहाँ नमी न हो, वहां घास भी न होगी! यहां की मिटटी भी अजीब सी ही है, पथरीली सी, बजरी भरी सी! कुछ होता है तो कांटेदार झाड़ियां या फिर, भटकटैया की झाड़ियां ही! उन्हीं पर, पीले पीले और भूरे भूरे फूल आये हुए थे, और कोई अन्य वनस्पति तो न थी!
गुरु जी?" आवाज़ आई शहरयार जी की, दूर से! मैंने झट से देखा उन्हें, वो हाथ हिला रहे थे, मैं दौड़ पड़ा उनके पास जाने के लिए, यक़ीनन कुछ तो मिला ही था उन्हें! इसीलिए आवाज़, बुलंद कर, दी थी मुझे! मैं चला आया उनके पास!
"ये देखिये!" बोले वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"ये अस्थियां सी हैं न?" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"अस्थियां ही हैं न?" फिर से पूछा,
"हाँ, ऐसे ही मिलीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, ये देखिये, ये एक टूटा सा घड़ा है, मेरा जैसे ही पाँव रखा इस पर, कि पाँव धंसा, मैंने नीचे देखा तो ये यहां थीं!" बोले वो,
"घड़े में थीं!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
मैं झुका और नीचे बैठा, एक अस्थि को उठाया, ये तो बहुत पुरानी थी! अब सफेद हो चली थी! न जली ही थी, न कोई चोट आदि का कोई निशान ही था, ऐसा भी नहीं कि सड़न के कोई निशान ही बाकी हों, न पीलापन ही था और न कालापन ही! स्पष्ट था, किसी ने रखा था उन्हें, जैसे, प्रवाहित करने के लिए या फिर, दफन ही किया था उन्हें घड़े में भर कर! ये घड़ा भी बड़ा नहीं था, छोटा ही था, एक लीटर पानी ही समाता उसमे!
"और देखिये!" कहा मैंने,
"हाँ, ज़रूर!" बोले वो,
और मैं, उन अस्थियों को देखने लगा, जांचने लगा! ये अस्थियां, पाँव की थीं, टखने की अस्थि भी उसमे थी! किसी भी कपड़े या चर्म आदि में न लपेट कर रखा गया था उन्हें, कमाल ये, कि राख भी नहीं थी, ऐसा था कि अस्थियां चुनकर, इस मृद-भांड में रख दी गई हों और उन्हें फिर दबा दिया गया हो! थीं तो वो मनुष्य की ही, ये तो स्पष्ट ही था!
"गुरु जी? यहां आइये?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये देखना?" बोले वो,
मैं वहीँ गया, उधर, ज़मीन के नीचे से एक ठीकरा सा नज़र आ रहा था, उस पर, काले रंग से, एक चतुर्भुज और अंदर उसके छोटे छोटे से चतुर्भुज बने थे, किसी ने बेहद ही कुशलता से रंगा था उस कच्चे मिट्टी के बर्तन को!
"नीचे बैठो?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" वे पेंट चढ़ा, नीचे बैठ गए!
"अपना वो छोटा सा चाक़ू देना?" कहा मैंने,
"हाँ, ये लो!" बोले वो,
शहरयार जी, की-चैन में ये चाकू रखा करते हैं, ये बहुत काम आता है, चाहे कुछ छील लो, खुरच लो, या काट लो! ऐसी बीयाबान जगह में चाक़ू यदि आपके पास हो, तो जीना यहां, यहां से निकलना, सम्भव हो जाता है!
"एक मिनट!" कहा मैंने,
 

   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और मैंने, उस ठीकरे को निकालने के लिए, आहिस्ता आहिस्ता से, कुरेदना शुरू किया उस मिट्टी को! ये तो धंसा था, जैसे बड़ा ही हो ये बर्तन! न हिला रहा था, न हिलाया ही जा रहा था! मैंने और कुरेदना शुरू किया, तो एक कोने के पास से, चटक, की सी आवाज़ हुई, और एक टुकड़ा हाथ आया, ये उस बर्तन का टूटा हुआ हिस्सा ही था! उस टुकड़े को मैंने उठाया, उठाया तो क्या देखा, देखा कि उस टुकड़े में चिकनी मिट्टी चिपकी हुई है! चिकनी मिट्टी?
"चिकनी मिट्टी?" बोला मैं,
"हाँ, कमाल है!" बोले वो,
मेरे अर्थ का गाम्भीर्य वे समझ ही चुके थे!
"ये यहां, कैसे आई भला?'' पूछा मैंने,
"कमाल की बात है! पथरीली जगह में चिकनी मिट्टी?" बोले वो,
"कहीं ये किसी बड़े, जलाशय का तला तो नहीं?" पूछा मैंने,
"हो सकता है, लेकिन उसमे भी चिकनी मिट्टी मिले, ये कैसे सम्भव है?" बोले वो,
"सम्भव है, हो सकता है, मिट्टी भर कर, यहां सैला दी गई हो?" कहा मैंने,
"इस भांड को?" बोले वो,
"हाँ, यही?" कहा मैंने,
"तब तो इस भांड में कुछ मिलना ही चाहिए!" बोले वो, आँखों में चमक लाते हुए!
खैर, चमक तो मेरी आँखों की भी न छिप सकी! हो न हो, कुछ ऐसा हाथ ज़रूर लगने वाला था जिस से नयी राह मिलना आसान हो जाता और ये भी कि क्या ये, जलाशय का तला ही है? यदि हाँ, तो और भी ऐसे अचरज भरे भांड, यहीं दफन होंगे! भारतीय कानून कहता है, ज़मीन से ऊपर आपका और गड़ा हुआ हमारा , गड़े हुए में से भी, कुछ अच्छी प्रतिशत आपको दी जाती है, यदि कोई प्राचीन कलाकृति या वस्तु है तो रॉयल्टी भी सम्भव है! खैर साहब, ऐसे चक्करों में कोई नहीं पड़ना चाहता! सैंकड़ों सवाल और उत्तर एक का भी न हो तो आप ही लटके फिर! तो इसी तरह से, न जाने कितनी प्राचीन और महत्वपूर्ण कलाकृतियां आज महत्वहीन सी हो कर, या तो चोरी-चकारी से लायी-ले जाती रही हैं, कुछ गोदामों में सड़ रही हैं! चलिए, आगे बढ़ते हैं!
"इसे कैसे निकालें?" बोले वो,
"हाँ, समस्या है, टूट सकता है!" कहा मैंने,
"मैं कोशिश करूं?" बोले वो,
"क्यों नहीं!" बोले वो,
और चाक़ू ले, खुरचने लगे मिट्टी, लेकिन जितनी हटाओ, उतनी और ढुलक जाए! हाथों से हटाओ फिर उसे, और आ जाए फिर!
"ऐसे नहीं बनेगी बात!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं लाया कुछ!" बोले वो,
"ठीक, ले आओ!" कहा मैंने,
वे चले गए, और मैं, उस पर लगा रहा, कि निकल ही आये! निकल आता तो ही पता चलता कि उसमे आखिर है क्या?
नहीं निकला, सारी मेहनत, जस की तस! मिट्टी ऐसी ज़िद्दी कि जैसे, प्रगाढ़ संबंध रहा हो उसका उस मृद-भांड से! छोड़े ही न उसे वो! जितनी मिट्टी हटाओ, उतनी, भुरभुरी सी मिट्टी और आ उठे उधर! पसीने छूट चले मेरे तो! लेकिन उस ज़िद्दी मिट्टी ने हरा ही दिया मुझे तो! मैं उठा, चाक़ू बंद किया और देखने लगा उसे!
और मुझे शहरयार जी आते दिखाई दिए, हाथ में एक लोहे की छड़ सी लिए! इस से काम बन जाता! आ गए मेरे पास!
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"शायद, बेलचे का टूटा हुआ भाग है!" बोले वो,
"ये शायद काम कर जाए!" कहा मैंने,
"हाँ, अब हटाता हूँ मिट्टी!" बोले वो,
और मिट्टी हटाने लगे! बन गई बात! आधा मृद-भांड दिखने लगा तब तो!
"वाह!" कहा मैंने,
"निकल आएगा!" बोले वो,
"हाँ, आहिस्ता से करो!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी!" बोले वो,
दस मिनट लगे और वो मृद-भांड हिला! रखा बेलचे का मूठ उन्होंने उधर एक तरफ, और हतहों से उठा लिया वो घड़ा! पूरा साबुत का साबुत! अब समझ आया कि वो जो टुकड़ा निकला था, वो तो उसको बिठाने के लिए था! कुछ ठीकरे बिछाए गए होंगे, उन पर, चिकनी मिट्टी रखी गई होगी, और उल्टा कर, औंधे मुंह ये भांड! ये बड़ा था, कम से कम पांच लीटर पानी भर लेता अपने अंदर!
"इसे यहां ले आओ!" कहा मैंने,
एक पेड़ के नीचे, कुछ छाया सी थी वहां!
"ये लो!" बोले वो,
और रख दिया नीचे उन्होंने!
"चाक़ू दिखाओ?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
और मैंने चाक़ू खोल, उसकी मिट्टी हटाई मुंह से! मिट्टी हटाई तो एक ठीकरा सा मिला, रखा हुआ उस पर! चाक़ू से वो हटाया, हट गया! मैंने आहिस्ता से रख दिया एक तरफ उसके! और तब, उस भांड को उल्टा किया! हिलाया, न हिला! कुछ भी नहीं निकला उसमे से! मैंने सीधा किया, अंदर देखा, मिट्टी जमा थी, हाथ डाला उसमे, छुआ, तो सख्त सी मिट्टी थी!
"कुछ है?'' पूछा उन्होंने,
"मिट्टी!" कहा मैंने,
"ओहो! अब?" बोले वो,
"तोड़ना होगा!" कहा मैंने,
"वैसे काम नहीं बनेगा?" बोले वो,
"नहीं लगता!" कहा मैंने,
"दिखाइए?" बोले वो,
"ये लो!" कहा मैंने,
और दे दिया, सरका दिया उनकी तरफ!
"आधा खाली है!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब इसमें क्या रखा होगा?'' बोले वो,
"कहीं ऐसे ही तो नहीं ये, खाली?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"तोड़ दो!" कहा मैंने,
"पक्का?" बोले वो,
"हाँ, और क्या!" कहा मैंने,
और......धड़ाम!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और धड़ाम! घड़ा टूट गया! और निकला क्या? जमी हुई मिट्टी! बस, और कुछ नहीं! उस क्षण, मैंने और शहरयार जी ने एक दूसरे को देखा, ऐसे, जैसे दो जुआरी, जो रात भर झोला लिए, चुराया हुआ, दौड़ते भागते रहे हों और जब सुबह, इत्मीनान से खोला तो हाथ आये सिर्फ रद्दी!
"ओह! कुछ भी नहीं!" बोले वो,
"हाँ, कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
"बंद तो ऐसे था जैसे धन दबा के रखा हुआ हो!" बोले वो,
बंद? हाँ, ये बंद तो था?
मुझे अब कुछ सूझा! सोचने लगा, कि जब ये खाली ही था, तो बंद क्यों किया गया? क्या वजह रही होगी? अब कुछ तो वजह रही ही होगी? किसी ने खोला हो बाद में, ये भी सम्भावना नहीं दिख रही थी, शायद, जब से दबाया गया था इसे, हम ही रहे होंगे पहले, जिसने ये खोल कर देखा हो! तो ये बंद क्यों था?
"हाँ? ये बंद क्यों था?" पूछा मैंने,
"यही तो समझ नहीं आ रहा?" बोले वो,
"एक काम करो आप!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' बोले वो,
"इस सुखी हुई, मिट्टी को, उठाओ ज़रा, ये जमी हुई है, घड़े की ही तरह!" कहा मैंने,
"हाँ, फिर?'' बोले वो,
"लाओ तो सही!" कहा मैंने,
तो उन्होंने, वो तसले सी जमी मिट्टी उठा ली, और चल पड़े साथ मेरे,
"वो बोरवेल है न? वहां ले चलना है!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
और वे ले चले, भारी तो था नहीं, एक हाथ से पकड़ कर ही चल रहे थे! आई एक छोटी सी हौद सी, जो बनाई गई होगी यहां, पानी भरने के लिए! लेकिन अब पानी नहीं था उसमे!
"पानी ही नहीं है!" कहा मैंने,
"लाऊं पानी?" बोले वो,
"हाँ, ले आओ!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोले वो,
और वो जमी हुई सी मिट्टी, उस हौद में रख दी! चल पड़े पानी लेने के लिए, मेरा विचार था, पानी में रखा जाता उसे, मिट्टी, पानी पीती और उसमे जो कुछ भी होता, वो छूट जाता! देखें क्या हाथ लगता है फिर! वैसे मैंने उस जमी हुई मिट्टी को, उस बेलचे के मूठ से, तोड़ तो दिया था, निकला कुछ नहीं था!
"ले आया!" बोले वो,
और एक प्लास्टिक की बाल्टी में पानी भर लाये वो!
"ये कहाँ से मिला?" पूछा मैंने,
"वहीँ रखी हैं न टंकियां?" बोले वो,
"अच्छा, देखी ही नहीं!" कहा मैंने,
"भर दूँ?" बोले वो,
"हाँ, डुबो दो इसको!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
और उस हौद में पानी भर दिया, मिट्टी डूब गई! और बुलबुले छोड़ने लगी, मिट्टी पानी पी रही थी! कुछ ही देर में, पानी के बुलबुले बंद हो गए! शहरयार जी ने हाथ डाल दिया अपना, अब मिट्टी, कीचड़ बन गई थी!
"कुछ है?" पूछा मैंने,
"ना, सिर्फ कंकड़ से!" बोले वो,
'और ध्यान से टटोलो?" बोला मैं,
"हाँ, देख रहा हूँ!" बोले वो,
और तभी, कुछ पकड़ कर, बाहर निकाला उन्होंने! ये एक हड्डी थी! कुल, ढाई इंच की, कमाल ये, कि उस हड्डी के दोनों ही सिरे, हड्डियों की खपच्ची से बने हुए ढक्कन से बंद थे!
"अब ये क्या है?" बोले वो,
"देना?" कहा मैंने,
"लो!" बोले वो,
मैंने उस मोटी सी हड्डी को, अपने रुमाल से पोंछा, कोई निशान नहीं था उस पर, ये मोटी सी हड्डी थी, जैसे किसी बकरे या भेड़ की रही हो, हल्का सा पीलापन भी था उसमे!
"कुछ आया समझ?" बोले वो,
"नहीं, कुछ लिखा भी नहीं और कोई निशान भी नहीं!" कहा मैंने,
"इसके अंदर हो कुछ?" बोले वो,
"यही लगता है!" कहा मैंने,
"खोलो इसे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
लेकिन उसके सिरे तो ऐसे मज़बूत थे, कि प्लास से ही खुले तो खुलें!
"चाक़ू लो?" बोले वो,
"हाँ, लाओ!" कहा मैंने,
उन्होंने चाक़ू दिया, मैंने खोला उसे और फिर, उसकी नोंक, उस हड्डी के ऊपर लगी खपच्ची के नीचे लगाई, जान लगाई, थोड़ी! फिर और थोड़ी! फिर और! और फिर पूरी! हड्डी तो जैसे चिपका ही दी थी!
"नहीं खुल रही?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"यहां लाओ!" बोले वो,
और उन्होंने उस हड्डी को, अपने जूते की एड़ी के नीचे रखा, हाथ किया नीचे, और टिका दिया चाक़ू! और लगाई जान! एक डाट की तरह से, आधा इंच की 'कॉर्क' की सी हड्डी बाहर आ गई!
''अरे वाह! खुल गई!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो, और एड़ी हटा, उठा ली हड्डी! दी मुझे! मैंने सबसे पहले, झाँक कर देखा उसमे! कुछ नहीं दिखा! फिर उसे उल्टा किया! और जैसे ही उल्टा किया, झटका दिया, दो छोटी छोटी से गेंदें, चांदी की शायद, नीचे आ गिरीं! ये बॉल-बेअरिंग की तरह की सी गेंदें थीं!
"ये? ये क्या?'' बोले वो,
मैंने उठाईं वो! और रखी हाथ के मध्य! और ऊँगली से उलट-पलट कर देखा, साधारण सी गेंद, हाँ, दोनों में ही, एक एक आधा, छेद हुआ, हुआ था, अर्थात, वो छेद, मनकों को बाँधने का नहीं था! ये उस गेंद में आधे तक ही जाकर, खत्म हो जाता था!
"अब ये क्या है?' बोले वो,
"मैंने नहीं देखा ऐसा कभी!" कहा मैंने,
"मैंने भी नहीं!" बोले वो,
''चांदी सी लगती है?" कहा मैंने,
"हाँ, शायद, चांदी ही है!" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अब भला कोई चांदी की ऐसी गोलियां कौन बनाएगा?" बोले वो,
"हाँ, अजीब ही बात है!" बोला मैं,
"और, ऊपर से आधी छेद वाली? अब भला इसका क्या तुक?" कहा उन्होंने,
"हाँ, ये भी अजीब ही है!" कहा मैंने,
"और जी, सारी बात छोडिए, उन्हें सहेज कर, इस मज़बूत सी हड्डी में रख कर, इस घड़े में डाल, संजो कर, छिपा कर या दबा कर, आखिर क्यों रखा गया?" बोले वो,
"बस, यहीं तो है इस रहस्य का उत्तर!" कहा मैंने,
"इसका क्या मतलब हुआ, कि और ढूंढों?" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी ये बात सुनकर!
"लो, दो गेंद निकलीं, अब कुछ मालूम है कि कितनी और दबी हों?" कहा मैंने,
"अव कोई बालक तो शरारत में ऐसा काम करेगा नहीं!" बोले वो,
"सो तो है ही!" कहा मैंने,
"तो, ज़रूर ही, कुछ न कुछ बात तो है!" बोले वो,
"एक मिनट?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोले वो,
"दिखाना ज़रा, ये गेंदें?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
अब मैंने उन्हें ध्यान से देखा, उलट और पलट कर! उनका आकार समान था, व्यास भी समान था, धातु भी एक जैसी ही थी, बनाने वाला भी एक ही था, क्योंकि, कोई अन्तर नहीं दीख पड़ता था कुछ भी! लेकिन एक अन्तर, मुझ से न चूका!
"हम्म्म! अब आया समझ!" बोला मैं,
"आ गया? मुझे भी समझाइये फिर तो?" बोले हँसते हुए!
"एक मिनट, ये पकड़ो!" कहा मैंने,
"लाओ!" बोले वो,
"अब ज़रा इसका ये छेद, मेरी तरफ करो?" कहा मैंने,
"ए....ये लो!" बोले वो,
"इधर खड़े हो जाओ!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले वो,
"अब इसका छेद हुआ, दक्षिण की तरफ! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और मैं अगर, इस छेद को, छेद के सामने रखूं, तो ये हुआ, उत्तर की तरफ!" कहा मैंने,
''अरे हाँ! हाँ!" बोले वो,
"दिखने में मामूली सा फ़र्क़ है, लेकिन बनाने वाले ने, रखने वाले ने, अपनी कुशाग्र बुद्धि का परिचय दिया है!" कहा मैंने,
"सो तो दिया, मान लिया, लेकिन....सवाल फिर से वही...कि इसका अर्थ क्या हुआ?" बोले वो,
"ये एक, टोटा है!" कहा मैंने,
"क्या टोटा?" बोले वो,
"हाँ, टोटा!" कहा मैंने,
"ये क्या होता है? टोटा मायने तो, कमी रहना होता है?" बोले वो,
"नहीं, टोटा के मायने, यहां ये नहीं!" बोला मैं,
"फिर?" बोले वो,
"इस टोटे के मायने हैं, कि यहां पर, कुछ...........!" रुका मैं कहते कहते!
और तभी, अपनी घड़ी देखी, इक्कीस तारीख, और तब, मैंने अपना मोबाइल-फ़ोन निकाला, कुछ घटत-बढ़त सी की! और फिर मेरे मुंह से कुछ निकला!
"पूनम!" कहा मैंने,
"पूनम?" बोले वो, हैरतज़दा से!
"हाँ, पूनम!" कहा मैंने,
"मायने?" बोले वो,
"अब अगर ठीक वैसा ही हुआ, तो मैं ये गुत्थी सुलझा लूंगा!" कहा मैंने,
"क़सम से, मैं यहीं पछाड़ खा जाऊँगा! हो जाऊँगा बेहोश! ज़रा मुझे भी समझा दीजिये?" बोले वो,
"सुनो! वो साधू, जो पहली बार यहां आया था, उस रोज पूर्णिमा थी! और जिस रोज, उसने पानी पिया था, उस रोज भी पूर्णिमा ही रही होगी! अब पूर्णिमा में दो दिन हैं! इसका मतलब क्या हुआ?" कहा मैंने, भंवें मटकाते हुए!
"क्या?" बोले वो, आहिस्ता से!
"बताता हूँ! रुको, ज़रा मुझे ऐसी लकड़ी दो, जो इन छेदों में आ जाए!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"फिर एक बड़ा सा रहस्य उजागर होगा इधर!" कहा मैंने,
"क्यों मेरा हार्ट फेल करते हो गुरु जी? मज़ाक तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं, कोई मज़ाक़ नहीं!" कहा मैंने,
"आपको, क्षमा चाहूंगा, इतना कैसे पता, कि ये टोटा है?" बोले वो,
"श्रीमान शहरयार जी!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
"जी साहब!" बोले वो,
"आप जिस जगह खड़े हैं, मुझे अब लगने लगा है कि  ये एक महातांत्रिक-स्थल है!" कहा मैंने,
चेहरा हुआ लाल! जैसे, ज़मीन में से आग निकलने लगी हो, ऐसे हो गए वो, गम्भीर! एकदम गम्भीर!
"आप कैसे कह सकते हैं?" बोले वो,
"यहां, अवश्य ही, बीजक होना चाहिए एक!" कहा मैंने,
"ओह! बीजक!" बोले वो,
शहरयार जी को बीजक बेहद पसंद है! एक बीजक दे दो, और एक डायरी, भरते ही चले जाएंगे! चाहे कुछ मतलब निकले, या नहीं!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ होगा बीजक?" बोले वो,
"ये टोटा बताएगा!" बोले वो,
"कैसे?" बोले वो,
"एक बात और जान लो! यहां और भी ऐसे ही घड़े होंगे, जिनमे, ये टोटे भरे होंगे!" कहा मैंने,
"मैंने तो पहली बार जाना ये सब!" बोले वो,
"कभी, आपने सुना है, बंजार-विद्या के बारे में?" पूछा मैंने,
"जितना जाना, आपसे ही!" बोले वो,
"टोटा, बढ़ैया, थरथुलि, अगट, परचम, छिमौली, छांडसा, ये बीजक के निशान या सूचक हैं! जब मैंने पहली बार देखा था, तब ध्यान नहीं आया, लेकिन अब देखा तो ध्यान आया मुझे! हाँ, ये टोटा पूरा है, ये नहीं कह सकता, पूर्णिमा ही होगी, ये भी नहीं कह सकता, सिर्फ सुना ही है, बुज़ुर्गों से, या, दो बीजक देखे थे मैंने, छांडसा वाले!" कहा मैंने,
"छांडसा क्या होता है?" पूछा उन्होंने,
"एक हड्डी की बांसुरी! उसके छेदों से गिनती होती है, माह की, लकीरों से दिवस की, छल्लों से बीजक की स्थिति की!" कहा मैंने,
"मेरे तो होश उड़ गए!" बोले वो,
"अभी देखो तो सही!" कहा मैंने,
"हाँ, देख रहा हूँ!" बोले वो,
"अब कोई बारीक सी घास या कुछ ऐसा तिनका लाओ जो, इनमे घुस सके!" कहा मैंने,
''अभी लो जी!" बोले वो,
और ढूंढने लगे आसपास! जहां भी सम्भावना होती, लपक पड़ते! उठा उठा देखते और तोड़ देते!
कुछ हाथ तो आया था मेरे, कयास लगाया था, हो जाता कामयाब तो ये रहस्य खोल ही देता मैं!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

बड़ी ही मुश्किल से कुछ मिला उन्हें, वो ढेर का ढेर ही ले आये! ये फूस सी थी! लम्बी पंगोली वाली फूस, थोड़ी मज़बूत हुआ करती है, सूखने पर, मज़बूत सी हो जाती है, इसको छील लिया जाए तो सुईं जैसा काम करती है!
"इस से काम बन जाए शायद!" बोले वो,
"हाँ, चीज़ तो काम की ही लाये हो!" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात समझाइये, ये कैसे पता चले, कि कितनी दुरी हो दोनों के बीच में?" बोले वो,
"टोटा जब भी नापा जाएगा, तो एक गोकर्ण ही नापा जाएगा! ये एक नियम है!" कहा मैंने,
"गोकर्ण? ये क्या है?'' बोले वो,
मैं हंस पड़ा ज़रा सा! उन्हें देखा, वे विस्मय में थे, कैसी कैसी गणितीय इकाईयां हैं! ये भी सीखनी ही पड़ेंगी शायद!
"हाँ खोलो अपना!" कहा मैंने,
"ये लो जी!" बोले वो,
"अब ज़रा, अंगूठे के बाहरी किनारे से, अनामिका ऊँगली के पहले पोर के अंतिम सिरे तक देखो, कितना नाप हुआ?" पूछा मैंने,
"करीब, छह या सात इंच?" बोले वो,
"हाँ, यही गोकर्ण है!" कहा मैंने,
"ओह! बड़ा ही कठिन हिसाब है!" बोले वो,
"नहीं, पहले ये इंच, सेंटीमीटर, मीटर, डेकामीटर, फुट आदि नहीं होते थे, तब, मापन इन्ही इकाईयों द्वारा होता था!" कहा मैंने,
"समझ गया मैं! मतलब, हम देसी ज्ञान से अनपढ़ ही हैं!" बोले वो,
"अब ऐसा कहूं तो कोई बड़ी बात तो है नहीं!" कहा मैंने,
"समझ गया गुरु जी! और इसीलिए, बीजक कभी कभार, कोई जानकार ही बींध पाता है! नहीं तो ये गोकर्ण, कौन जाने?" बोले वो,
"हाँ, ये सही कहा आपने!" कहा मैंने,
"हाँ, तो ये फूस में, एक गोकर्ण बराबर तोड़ लूँ?" बोले वो,
"हाँ, तोड़ लो!" कहा मैंने,
"ये लो जी, ये मैंने......तोड़ ली, देखूं ज़रा! हाँ....बराबर सी ही है!" बोले वो, 
"अब इन गेंदों के अंदर बने सूराख में डालो!" कहा मैंने,
"ये लो जी! डाल दिए!" बोले वो,
"अब नीचे, ज़मीन पर रखो, पूर्व से पश्चिम!" कहा मैंने,
"ये लो जी, रख दिया, लेकिन ये पूर्व से पश्चिम ही क्यों?" बोले वो,
"सूर्य से दिवस आरम्भ होता है, पूर्व, दिवसांत, अर्थात, पश्चिम!" कहा मैंने,
"ठीक जी!" बोले वो,
"अब टोटा ये कहता है, कि इसे, आठ यव, मोड़ा जाना चाहिए!" कहा मैंने,
"यव? आठ यव? मायने?" बोले वो,
"आठ यव मायने, एक अंगुल!" कहा मैंने,
"अरे बाप रे!" बोले वो,
''और एक अंगुल?" बोले वो,
"सोलह मिलीमीटर से इक्कीस मिलीमीटर!" कहा मैंने,
"ओफ्फो! आप ही जानो!" बोले वो,
"देखते रहो, काम आएगा!" कहा मैंने,
"याद रहा तो!" बोले वो,
"याद तो रखना होगा!" कहा मैंने,
"एक बात और, पूछूं?" बोले वो,
"हाँ?" बोले वो,
"ये आपने, कहाँ से सीखा?" बोले वो,
"गुरु-कृपा, कुछ स्व-अर्जित ज्ञान भी!" कहा मैंने,
"जी, आ गया समझ!" बोले वो,
"हाँ, तो इसको, हमने, इसको उधर मोड़ा!" कहा मैंने,
"एक मिनट! उधर ही क्यों? इधर क्यों नहीं?" बोले वो,
"बताता हूँ! सूर्य, उत्तरायण होते हैं, मकर-सक्रांति पर! ठीक?" कहा मैंने,
"जी, ठीक!" बोले वो,
"और, कर्क-सक्रांति पर, दक्षिणायन हो जाते हैं! ठीक?" कहा मैंने,
"अर्थात, छह छह महीने के लिए......?" बोले वो, और रुके,
"हाँ, यूँ समझो, उत्तरी-गोलार्ध में, और फिर, दक्षिणी-गोलार्ध में!" कहा मैंने,
"विशुद्ध ज्योतिषीय-ज्ञान!" बोले वो,
"नहीं, खगोलीय-ज्ञान!" कहा मैंने,
"हाँ, वही आशय था मेरा!" बोले वो,
"अभी, कर्क-सक्रांति नहीं आई, इसका मतलब, हम, इसे उत्तर दिशा में ही मोड़ेंगे!" कहा मैंने,
"समय लगेगा जी!" बोले वो,
"किस में भला?' पूछा मैंने,
"ये मापन, तिथि, अयन आदि के ज्ञान में!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, लगने दो!" कहा मैंने,
"अरे हाँ, तो उधर मोड़ा!" बोले वो,
"हाँ, तो इसका मतलब ये हुआ, कि बीजक दो हैं! आमतौर पर, दो ही हुआ करते हैं, यहां भी दो ही हैं!" कहा मैंने,
"वो कैसे?" बोले वो,
"अगर कोई नवंबर में यहां, बीजक ढूंढें तो उसे, वहां देखना होगा! बीजक स्थापन या लगाने वाले, सिद्धहस्त, पारंगत, कुशल हुआ करते थे, उन्हें, जलवायु, ग्रह-स्थिति, नक्षत्र-स्थिति, भूगोल एवं, जलवायु से भूगोल पर पड़ने वाले सभी तथ्य पता होते थे! बीजक लगाना, इतना सरल नहीं!" कहा मैंने,
"और उसे बांचना भी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब देखो, ये टोटा न होता, कुछ और होता, तो बीजक एक ही होता, क्योंकि मास में, एक ही पूर्णमासी और एक ही अमावस!" कहा मैंने,
"हाँ, ये भी है!" बोले वो,
"और बीजक, तीन तरह के होते हैं, ये स्थायी नाम तो नहीं हैं, बोलचाल के, बंजारे जो बोलते हैं, बतियाते हैं, वो होते हैं!" कहा मैंने,
"कौन कौन से?" पूछा उन्होंने,
"जलेवा, अर्थात, जान का जोखम रहने वाला! कलेवा, अर्थात, लड़-भिड़ कर, हराकर प्राप्त होने वाला और भलेवा, मायने, जिस में बुद्धि हो, चातुर्य हो, जो सक्षम हो, वो ले जाए, क्योंकि, जो भी उसको सक्षमता से प्राप्त करेगा, वो चोर-उचक्का, अधम न होगा! ऐसे और इस प्रकार के बीजक, अक्सर, पश्चिमी राजस्थान में मिलते हैं, यहां, इस क्षेत्र में भी हैं! लेकिन, मुझे कम या गिनती लायक ही ज्ञात हैं!" कहा मैंने,
"गुरु जी? किसी में माल निकला भी है?" बोले वो,
"बहुत माल निकला है! मैंने सिर्फ, तस्वीरें ही देखीं हैं! असल में नहीं, झूठ नहीं कहूंगा!" कहा मैंने,
"तो इसका मतलब.....................!!" बोले वो और.....


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"तो गुरु जी, वर्तमान स्थिति में देखा जाए, तो बीजक, यहां से उत्तर में होना चाहिए, यही न?" बोले वो,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"अब, एक अजीब सी बात, ये, कि ये कैसे पता चले कि बीजक की सही स्थिति कहाँ हैं?" बोले वो,
"लाख टके का सवाल है!" कहा मैंने,
"जी, धन्यवाद!" बोले वो,
"यदि, मेरे पास, वैदिक गणितीय प्रणाली संयंत्र होता, तो सम्भव है मैं इसे हल, अभी कर देता!" बोला मैं,
"ये कौन सा संयंत्र है?" बोले वो,
"आपने भी देखा ही होगा!" कहा मैंने,
"मेरे तो बाप-दादाओं ने भी न देखा होगा, जो सच्ची पूछो तो!" बोले हँसते हुए!
"होता है ये एक, आपने राजा जय सिंह की वेधशालाएं तो देखी होंगी?" कहा मैंने,
"जी, दिल्ली वाली और जयपुर वाली!" बोले वो,
"हाँ, उनमे, एक सूर्य-घड़ी देखी होगी?" कहा मैंने,
"नहीं जी, काला अक्षर भैंस बराबर!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा, इस बार ज़रा खुलकर थोड़ा!
"सुनो, शायद ही कोई ऐसा बुज़ुर्ग रहा हो गाँव में, जिसे हिंदी महीने आदि न पता हों!" कहा मैंने,
"सो तो आज भी हैं जी!" बोले वो,
"हाँ, वो चांद्र-तालिका है!" बोले वो,
"अच्छा! हाँ, चन्द्रमा से बनते महीने!" बोले वो,
"हाँ, यहां हम सूर्य के चलन को गिनते हैं!" कहा मैंने,
"समझा!" बोले वो,
"बीजक, दो प्रकार के हैं, एक सूर्य-चलित और एक चन्द्र-चलित!" कहा मैंने,
"चन्द्र-चलित, आपको, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि में अधिक मिलेंगे! और यहां, सूर्य-चलित, इसका संबंध भी, कुछ जटिल ही है!" कहा मैंने,
"कुछ नहीं, बहुत जटिल है!" बोले वो,
"शहरयार जी,?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आपने, कभी, स्वर्ण-भंडार देखा है?" पूछा मैंने,
"जी नहीं! हाँ, बाज़ार में सोना ज़रूर देखा है!" बोले वो,
"अरे नहीं, बिखरा हुआ!" कहा मैंने,
"नहीं जी, झूठ क्यों बोलूं!" बोले वो,
"मैंने देखा है!" कहा मैंने,
"मायावी?" बोले वो,
"दोनों ही!" कहा मैंने,
"असल कहाँ देखा?" बोले वो,
"मथुरा के समीप!" कहा मैंने,
"कितना रहा होगा?" बोले वो,
"हर तरफ, बस, धन ही धन!" कहा मैंने,
"अच्छा! फिर? किसी को मिला?" बोले वो,
"नहीं मिल सकता!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"उसकी शर्तें पूर्ण नहीं हो सकतीं!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"और एक जगह भी है, अकूत!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"ग्वालियर के समीप!" कहा मैंने,
"उसका क्या?'' बोले वो,
"वो एक पीर साहब का है!" कहा मैंने,
"बात ही खत्म!" बोले वो,
"हाँ, ये है सच बात! बात ही ख़त्म!" कहा मैंने,
"और कुछ बेवक़ूफ़, हथौड़ा, बेलचा, छैनी, गैंती लिए, दौड़-भाग कर रहे होंगे, कि हाय, एक मुट्ठी भी मिल जाए तो जीवन धन्य हो!" बोले वो,
"हाँ! बहुत हैं ऐसे शहरयार जी! जीवन बर्बाद कर लिए अपने, अपने तो अपने, परिवार के भी! न घर के रहे न घाट के! कर्ज़ा हो गया! मर गए, खप गए कई तो! लेकिन धन का लालच न गया!" कहा मैंने,
"जैसे ये तीन लम्पट!" बोले वो,
"हाँ, ये तीन भी!" कहा मैंने,
"वैसे गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"एक बात तो मैं भी पूछूंगा!" बोले वो,
"पूछिए!" कहा मैंने,
"यहां, एक साधू आया! नज़र आया!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"अगली बार, फिर आया नज़र, पाने माँगा, और बोला उसने कि ये भूमि, स्थान, उनका है! ठीक?" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"फिर वो जेवर! ठीक?" बोले वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
"अब एक बात, वो जेवर, गायब हो गया, इसका मतलब, वो धन था, ठोस धन, तो अब सवाल ये, कि साधुओं का, धन से क्या लेना-देना?" बोले वो,
"हाँ, यही सोच रहा था मैं!" कहा मैंने,
"कोई न कोई संबंध तो है ही न?" बोले वो,
"है, क्यों नहीं है!" बोला मैं,
"कहीं वे, रक्षा तो नहीं कर रहे, उस धन की?" बोले वो,
"सम्भव है, लेकिन एक बात बताओ, यदि वो धन, या मैं जेवर कहूंगा उसे अब, मायावी हो, दिखाया ही गया हो, किसी उद्देश्य से, तो?" कहा मैंने,
"अरे हाँ! ये भी सम्भव है, और इसमें दम तो लगता है!" बोले वो,
"यहां, अभी कुछ भी हाथ नहीं लगा है हमारे, कुछ दिखाया गया है, हालांकि, कोई चेतावनी आदि तो नहीं दी गई, लेकिन जैसे, आमंत्रित तो किया गया ही है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो सच है!" बोले वो,
अभी हम बात कर ही रहे थे, कि वे तीनों दौड़े-भागे से आये हमारे पास! चेहरों पर, हवाइयां उड़े जा रही थीं, जैसे किसी ने, उन्हें जान से मारने की ही धमकी दे दी हो!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उनको बदहवास देख, हम भी खड़े हो गए! उन्होंने हमारे पास आकर जैसे, राहत की सांस ली! प्यारे लाल जी का तो और बुरा हाल था, बैठने के लिए जगह ढूंढ रहे थे, एक पत्थर दिखा और उसी पर टिक गए वे तो!
"क्या बात हुई?" पूछा मैंने,
साफ़ था, कुछ न कुछ तो ऐसा हुआ ही था, जिसने उनके होश फ़ाख़्ता कर के रख दिए थे, साँसें बांधे न बंध रही थीं! तब मैंने अनिल जी को पानी दिया, उन्होंने दो घूंट पानी पिया, एक घूंट तो गिर ही गया मुंह से उनके!
"क्या हुआ?' पूछा शहरयार जी ने!
"यहां तो भूत बसते है गुरु जी, भूत!" बोले वो,
"भूत?" पूछा मैंने,
"हाँ गुरु जी!" बोले वो,
"क्या देखा?" पूछा मैंने,
"उधर, जहाँ हम बैठे थे....." बोले वो और साँसें सी पकड़ीं ज़रा अपनी!
"सामने, जो पेड़ है, वो कड़ाक से, बीच में से चिर गया! अचानक ही! न कोई हवा, न आंधी! अपने आप!" बोले वो,
"अच्छा, और?" पूछा मैंने,
"डाल नीचे गिरी, और हम यहां भाग आये!" बोले वो,
"दिखाओ मुझे?'' कहा मैंने,
"ह...हाँ....आइये!" बोले वो,
प्यारे लाल जी भी उठे और हम चल पड़े उनके साथ! ले आये हमे उस पेड़ को दिखाने के लिए! वाकई, एक जवान सा पेड़ बीच में से चिर गया था, अपने आप! दो-फाड़ से हो गए थे उसके! वे जहाँ थे, उस से करीब तीस फ़ीट दूर ही!
"अपने आप हुआ ऐसा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वे तीनों!
"एक साथ ही?" बोला मैं,
"हाँ जी, कड़ाक!" बोले वो,
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शहरयार जी!
और जेब में वो टोटा, हड्डी रख ली थी उन्होंने, चल पड़े थे साथ मेरे! हम आ गए पेड़ तक! पेड़ को गौर से देखा!
"कमाल है!" बोले वो,
"हाँ, नया ही पेड़ है!" बोला मैं,
"ऐसा कैसे हुआ?" बोले वो,
"कोई शाख शायद भारी हो?" कहा मैंने,
"देखूं ज़रा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
अब उन्होंने और मैंने देखा उसे, न तो कोई शाख भारी थी, न कमज़ोर! न ही दीमक लगी थी न ही कोई कीड़ा!
"ये तो अपने आप ही टूटा है!" कहा मैंने,
"हाँ, पक्का!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और जैसे ही मैं पलटा, कि थम गया! मेरी नज़र, एक जगह पड़ी! यहां, एक अजीब सी बात हुई थी! ये मैंने पहले नहीं देखी थी!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"वो रास्ता देखते हो?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"उसके उस तरफ देखते हो?" कहा मैंने,
"किधर?" बोले वो,
"उस दरवाज़े के पास?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"कुछ दीखता है?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"ध्यान से देखो?" बोला मैं,
"नहीं तो?" बोले वो,
"ज़रा ध्यान से देखो?" कहा मैंने,
''वो क्या है?" बोले वो,
"क्या दिखा?" पूछा मैंने,
"ये पहले नहीं था ना?" बोले वो,
"हाँ, नहीं था!" कहा मैंने,
"ये कहाँ से आया?" बोले वो,
"आओ, देखते हैं!" बोला मैं,
"हाँ, चलिए! और तुम, यहीं रहना ज़रा!" बोले उन तीनों से,
"आओ!" बोले वो,
और मुझ से भी तेज कदमों से, चल पड़े आगे आगे! और जा रुके, रुके, तो पीछे हुए! तब तक मैं पहुंच गया उधर!
"ये क्या है?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
उस भूमि पर, जल सा पड़ा था, जिसे भूमि ने सोख लिया था, और जो मुझे दिखा था, वो एक छोटा सा चबूतरा सा था, जो कि अब था तो सही, लेकिन सिर्फ, ज़मीन से, उसका सर ही नज़र आता था! ये करीब, एक फुट चौड़ा और डेढ़ फ़ीट लम्बा सा था, एक पत्थर ही मानिए, जब मेरी नज़र पड़ी थी, तब वो साफ़ दीख रहा था, बाहर, और जैसे जैसे हम वहां तक पहुंचे थे, वो जैसे संदर धसक गया था!
"ये पानी कहाँ से आया?" बोला मैं,
लगता था, जैसे कि किसी ने जल के छींटे छिड़के हों उधर! मिट्टी की सुगंध उभर रही थी उधर!
'हाँ, कोई स्रोत भी नहीं?" बोले वो,
"कहीं इन्होंने तो नहीं बिखेरा?" कहा मैंने,
"रुकिए, पूछता हूँ!" बोले वो,
और दौड़ लिए उनके पास जाने के लिए, मैं उस चबूतरे के पत्थर को ही देख रहा था, ये गहरे लाल रंग का पत्थर था, अनगढ़ सा, बस इतना कि जैसे छैनी और हथौड़े से उसको ये आकार दिया गया था!
पीछे आहट हुई, ये शहरयार जी थे, रुके, आये मेरे पास!
"नहीं, उन्हें नहीं मालूम!" बोले वो,
"अब ये सूख रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ, सूख रहा है धीरे धीरे!" बोले वो,
मैंने आसपास देखा, न कोई आ सकता था, न कोई जा सकता था, आता-जाता तो इसी दरवाज़े से हो कर ही, लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं हुआ था उधर!
"कहीं पेड़ से इसका कोई संबंध?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा, फिर?" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"समझा!" बोले वो,
"लेकिन मुझे एक बात की ख़ुशी है!" कहा मैंने,
"ख़ुशी? वो क्या?'' बोले वो,
"कि राह बंद नहीं हुई!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
"ये ही वो बीजक है, शायद और सौ प्रतिशत!" कहा मैंने,
"ओह! ओह!" बोले वो,
"अब समझे?" कहा मैंने,
"ह...हाँ! समझ रहा हूँ!" बोले वो,
"ये उत्तर ही है न?" बोला मैं,
"बेशक, उत्तर ही है!" बोले वो,
"इसका मतलब, कोई मदद कर रहा है!" कहा मैंने,
मदद, न जाने मुझे ही ऐसा लग रहा था कि कोई कुछ मदद कर रहा है या, हमें फंसा रहा है, ये तो पता चल ही जाता! अभी इतनी जल्दी ऐसा कुछ कहना, हालांकि, बेमायनी ही होता, लेकिन मन में ऐसा पहले भी लगा था और अब और लगने लगा था! ये मेरा कयास भर ही हो, ये भी सम्भव था, या फिर, मैं ऐसी ही कहानी बुने जा रहा था, ये भी सम्भव था! पुख्ता कुछ हाथ लगा नहीं था, अगर कुछ लगता तो शायद, बार बन ही जाती!
"कौन?" बोले वो,
"अब ये नहीं पता! जान ही जाएंगे!" कहा मैंने,
"मेरे तो हाथ-पाँव ठंडे और कान गर्म हो उठे हैं!" वे कानों को छू कर बोले!
"ऐसा होता है शहरयार जी!" कहा मैंने,
"जी, जी!" बोले वो,
"अब कसी तरह से, ये पत्थर आये बाहर!" कहा मैंने,
"करता हूँ कोशिश!" बोले वो,
"कैसे करोगे?" पूछा मैंने,
"देखता हूँ, कुछ मिले तो?" बोले वो,
"हाँ, देखो, मिल जाए तो बढ़िया!" कहा मैंने,
और वे चले गए, कुछ ऐसा लाते, या तो जैसे कोई गैंती या सब्बल, तो बात बन ही जाती, ये पत्थर अगर बाहर आ जाता तो शायद, सिरे से सिर जुड़ ही जाता! तब, आगे की राह, मिलने लगती!
जब वे वापिस आये, तब विनोद जी एक लोहे का पाइप और, शहरयार जी, कार-जैक की रॉड ले आये थे, काम बनता न बनता, ये अलग बात, लेकिन कोशिश तो की ही जा सकती थी! उन्होंने तब, मेहनत करनी शुरू की! आधा घंटा बीता और वो पत्थर, नज़र आने लगा! ये तो आम सा ही पत्थर था, जैसा अक्सर, मील एक पत्थर गाड़ दिया जाता है!
"अरे कितना बड़ा है ये?" बोले शहरयार जी!
"पता नहीं!" बोले विनोद जी!
"थक गए क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, थक गए!" बोले वो,
अभी एक फुट भी न निकला था वो पत्थर, एक तो ज़मीन पथरीली थी, चोट मारो कहीं, लगे कहीं!
"ऐसे बात नहीं बनेगी!" बोले विनोद जी,
"फिर?" पूछा मैंने,
"किसी को लाना होगा!" बोले वो,
"कौन किसी को?" पूछा मैंने,
"मज़दूर को!" बोले वो,
"अब यहां कहाँ से मिले?" पूछा मैंने,
"मज़दूर तो बहुत!" बोले वो,
"तो पहले ही लाते?" बोले शहरयार जी, पानी पीते हुए!
"करूं कोशिश?" बोले विनोद जी,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"आया मैं!" बोले वो,
तो हम, खाना आदि तो खा ही चुके थे, इस बारे में ज़्यादा लिखा ही नहीं था मैंने, हाँ, इस समय आराम ज़रूर मिल गया था! कोई मज़दूर मिल जाता तो काम बन ही जाता! विनोद और प्यारे लाल, मज़दूर लेने चले गए थे, अनिल जी वहीं थे हमारे साथ!
"गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या लगता है?" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"इस से निजात मिले या न मिले, या यहीं दफन हो जाएंगे हम तीनों!" बोले हँसते हुए!
"अनिल?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"अभी, दिन है!" कहा मैंने,
"मतलब जी?" बोले वो,
"रात होने दो!" कहा मैंने,
"रात?" बोले अब ज़रा घबरा कर!
"हाँ!" कहा मैंने,
"रात में कुछ ख़ास?" बोले वो,
"हाँ, ख़ास!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"रात में यहां बहुत कुछ होने वाला है!" बोला मैं,
खिसक कर चले आये मेरे पास वो! मैं ज़रा मुस्कुरा पड़ा!
"रात में क्या होगा?" बोले वो,
"देखते जाओ?" कहा शहरयार ने!
"बताइए ना? गुरु जी?" बोले वो,
"रात में, बहुत कुछ होता है!" बोला मैं,
"मतलब, तंत्र-मंत्र?" बोले वो,
"हाँ, समझ लो ऐसा ही!" कहा मैंने,
"अरे मेरे बाप!" बोले वो,
"क्या हुआ?" बोले शहरयार!
"अब तो इतना देख लिया कि अगर जो कुछ हुआ, तो सबसे पहले मुझे ही अटैक आएगा!" बोले हँसते हुए वो!
"अरे ऐसा कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"अरे फंसवा दिया इन प्यारे लाल जी कि वो ब***** **या ने!" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"अरे है एक!" बोले वो,
"कौन है?" पूछा मैंने,
"उसी ने तो दिलवाई थी ये ज़मीन!" बोले वो,
"उसे मालूम था कुछ ऐसा?" पूछा मैंने,
"मालूम ही होगा!" बोले वो,
"प्यारे लाल को नहीं पता थी?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, कभी कोई ज़िक़्र ही नहीं हुआ!" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"हूँ?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले शहरयार जी!
"हो न हो, इस जगह पर पहले भी कार-गुजारी हुई होगी!" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"कैसी कार-गुजारी?" बोले अनिल जी,
"मतलब कि पहले भी हाथ-पाँव पटके गए हैं इधर!" बोला मैं,
"अच्छा जी?" बोले अनिल जी,
"हाँ, अब आता है समझ!" कहा मैंने,
"जब बात नहीं बनी होगी या, कोई जब पटक-झटक दिया गया होगा, तब ये जगह छोड़ दी गई होगी!" बोले शहरयार जी!
"हमें पटकने-झटकने के लिए!" बोले अनिल जी!
"हाँ, कच्चे लालच में फस गए आप!" कहा मैंने,
"हाँ जी, करोड़ की ज़मीन लाख में मिले तो कोई भी फंस ही जाएगा!" बोले वो,
"यही बात!" कहा मैंने,
"बस गुरु जी, यहां से निकाल दो एक बार!" बोले वो,
"कोशिश तो है!" कहा मैंने,
"ये लगा लो, ऐसे फंसे हैं कि इसका अगर कुछ न हुआ तो समझो हम तो बारह के भाव गए!" बोले वो,
"समझ रहा हूँ!" कहा मैंने,
"देख भी रहे हैं!" कहा शहरयार जी ने!
"मैंने पहले ही कहा था!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"कि इतनी बड़ी ज़मीन है, सौदा है, किसी अच्छे को दिखा-दिखू लो, लेकिन कोई नहीं माना इनमे से, नहीं काम हो जाएगा, अच्छा मुनाफा आएगा, कमाई बढ़िया होगी, ये बोलते रहे बस!" बोले वो,
"तो कुछ गलत नहीं कहा उन्होंने!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोले वो,
"फायदा तो होगा ही!" कहा मैंने,
"जान चली जाए तो कैसा फायदा?" बोले वो,
"नहीं, कोई जान नहीं जायेगी!" कहा मैंने,
"आप ही बचाओ तो बचाओ!" बोले वो,
इसी तरह से, तीन से ज़्यादा बज गए, बाहर गाड़ी आ कर रुकी, विनोद जी उतरे, प्यारे लाल जी भी, और दो मज़दूर भी, ले आये थे कहीं से पकड़ कर, उनका सामान भी निकाल लिया, एक बड़ा सा सब्बल और गैंती-फावड़ा! इस से काम बन जाता! जान में जान आ गई मेरे तो! अब कुछ पता चल सकता था!
"आओ जी!" बोले अनिल जी,
"हाँ चलो!" बोले शहरयार जी,
"बता दें उन्हें!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अनिल जी,
हम वहां पहुंचे, मज़दूरों से बात की, उन्हें समझाया और बता दिया कि कैसे कैसे, कहाँ कहाँ खुदाई होनी है! मज़दूरों ने समझा और फिर, साफ़-सफाई करने लगे, फावड़े से!
"कहाँ मिले?" बोले अनिल जी,
"यहीं से लाये!" बोले वो,
"साइट से किसी?" बोले वो,
"हाँ, दो-दो सौ रुपल्ली में!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
और फिर हुई खुदाई शुरू! जैसे जैसे हम बताते जाएँ, वे खोदते जाएँ! मज़दूर तो मज़दूर ही होते हैं अपने काम में, माहिर होते हैं, खटाखट से खुदाई करते चले गए और इस तरह, वो बड़ा सा पत्थर झाँकने लगा बाहर! कुल एक घंटे में, वो पत्थर, निकाल, बाहर किया उन्होंने! ये भारी सा पत्थर था काफी! उस पत्थर को एक जगह रख दिया हमने, उसमे मिट्टी सी जम दी, कुछ लिखा हो, ये नहीं दीख रहा था, पानी से साफ़ करना था उसे अभी शायद, तब कोई निशान दिखे तो दिखे!
"कुछ और जी?" बोले अनिल जी,
"शहरयार?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोले वो,
"आसपास, भी ढीला करवा लो थोड़ा!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और चल पड़े मज़दूरों के पास, कुछ बातें कीं उनसे और वे मज़दूर, फिर से जुट गए खुदाई में! आसपास भी खोदने लगे, लेकिन कुछ ख़ास न मिला! पत्थर ही थे, कंकड़ आदि और कुछ नहीं!
"भेज दें?" बोले अनिल जी,
"हाँ, भेज दो!" कहा मैंने,
मज़दूरों को पैसे दिए, और छोड़ने के लिए, विनोद जी चले गए! प्यारे लाल और अनिल जी वहीँ बैठ गए!
''शहरयार जी?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"पानी लाओ!" कहा मैंने,
"पीने के लिए?'' बोले वो,
"नहीं, उसे साफ़ करने के लिए!" कहा मैंने,
"अच्छा, अभी!" बोले वो,
वे फिर से बाल्टी ले आये भर कर, और आ गए उस बड़े से पत्थर के पास, पत्थर को, नीचे गिराकर हमने रख दिया, और पानी से उसकी मिट्टी साफ़ करने लगे! एक कपड़ा था, पानी डालते और साफ़ करते जाते! इस तरफ पूरा साफ़ कर लिया, कोई निशान नहीं था!
"इसे पलटने में मदद करो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हमने, बड़ी ही मेहनत से, उसको पलटा!
"बस, अब पानी डालो!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और पानी डाला! इस बार कुछ नज़र आने लगा! अभी कुछ फीका फीका सा नज़र आ रहा था, साफ़ नहीं दीख रहा था!
"कोई चित्र सा है?" बोले वो,
"लगता है!" बोला मैं,
"आप हटो!" बोले वो,
मैंने हाथ साफ़ किये, और देखने लगा उस पत्थर को! और वे, लग गए उसे रगड़ने में! रगड़ें तो कुछ नज़र आये!
"चाक़ू से ये किनारे साफ़ करूं?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तब उन्होंने कुरेदना शुरू किया उसे! अब आने लगा कुछ नज़र! सबसे पहले, एक वृत्त सा नज़र आया! वृत्त के अंदर एक चतुर्भुज! चतुर्भुज की बाहों पर, गोल गोल से गड्ढे!
"रुको! रुको ज़रा!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये गड्ढे, इन्हें साफ़ करना?" बोला मैं,
"अभी!" बोले वो,
वे पानी डालने लगे उनमे, ताकि, मिट्टी पानी पिए, नरम हो जाए और फिर, मिट्टी को हटा सकें हम! ऐसा करते रहे हम, पानी नीचे तक रिसने लगा! इसका मतलब, वे गड्ढे नीचे तक थे, अर्थात, सूराख थे वे, आरपार!
"आरपार हैं ये!" बोले वो,
"हाँ, साफ़ करो इन्हें!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वे सूराख साफ़ करने लगे वो! पानी डाले जाते और सूराख साफ़ होते चले जाते! ये सुरक्ष पत्थर को भेदकर, बनाए गए थे, ये आरपार थे, आरपार होना और छेद कर, आधा छोड़ देना, दोनों में ही अंतर हुआ करता है! इन आरपार छेदों का कोई और भी प्रयोजन हो सकता है, या ये बीजक ही न हो, कुछ प्रस्तर-खण्ड हो, या कहीं किसी दीवार में चिन ने के लिए भी इस्तेमाल हो, ऐसा भी सम्भव था!
"ये तो हो गए साफ़!" बोले वो,
"हाँ, अब नीचे करो ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ, अभी!" बोले वो,
और अब, पूरा ही साफ़ करने लगे, मैं खड़ा हो गया, देखने लगा आसपास, ये देखने कि, यहां ये बीजक लगा है, और क्या हो सकता है? यहां लगा है, तो यहां ही क्यों? क्या कहती हैं दिशाएँ, आदि आदि!
"लो जी!" बोले वो,
अब साफ़ दिखने लगा था बीजक!
मैं नीचे बैठा और उसको गौर से देखने लगा!
"शहरयार जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"मेहनत खराब!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"हाँ, यही लगता है!" कहा मैंने,
"तो ये कोई बीजक नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोले वो,
"कुछ नहीं लिखा!" कहा मैंने,
"लेकिन ये चिन्ह?" बोले वो,
"ये हो सकते हैं काम के!" कहा मैंने,
"तो देखिये?" बोले वो,
"देख लिए!" बोला मैं,
"कुछ भी काम का नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"सारा दिन होने को आया अब तो!" बोले वो,
कोहनी से माथा पोंछते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाथ कुछ न आया!" बोले वो,
"आया है कुछ तो!" कहा मैंने,
"वो क्या?'' पूछा उन्होंने,
"यहां, ज़मीनी मेहनत नहीं करनी चाहिए!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"नहीं! ज़मीन से कुछ नहीं मिलने वाला!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"तब, हाज़िर!" कहा मैंने,
"ओह! प्रत्यक्ष?" बोले वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"लेकिन...सम्भव?" बोले वो,
"नहीं चाहता था मैं ऐसा करना!" कहा मैंने,
"कोई विकल्प भी तो नहीं?" बोले वो,
"हाँ, यही वजह है!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"अब छोड़ो सब!" कहा मैंने,
"हुक़्म?" बोले वो,
"हाज़िर में, ये भान नहीं रहता कि हम, क्या कर रहे हैं, ये धींगा-मुश्ती कही जाती है, लेकिन, अब, चूँकि, मेरे पास, और कोई, विकल्प शेष नहीं, तब, यही करना होगा!" कहा मैंने,
"समझता हूँ!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"तब ये...?" बोले वो,
"ये क्या?" पूछा मैंने,
"ये जमूरे?" बोले वो,
"इन्हें भेजना ही होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा, कहूं क्या?" बोले वो,
"हाँ, लेकिन सामान चाहिए!" कहा मैंने,
"बताइए?" बोले वो,
"लिखवा देता हूँ!" कहा मैंने,
और जैसे ही उन्होंने, डायरी निकाली, पैन जेब से निकाला, एक अजीब सी आवाज़ गूंजी! ये मैंने ही सुनी!
''श्ह्ह्ह्ह्!" कहा मैंने,
चुप हो गए वो! शांत, एकदम शांत!
मैंने चारों तरफ सर घुमाया अपना! हर तरफ सुना! हर तरफ कान लगाए! हर तरफ, जैसे, श्वान की तरह से कान फटकारे मैंने!
"कुछ.....है?'' फुसफुसाए वो!
"हम्म!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा धीरे से,
"लगता है, कोई जाग गया है!" कहा मैंने,
"कौन?" फुसफुसाए वो!
"पता नहीं!" कहा मैंने, गम्भीर होकर!
"ओह...." चुप हुए वे, इतना बोल!
मैंने नीचे झुका, अपने जूते के नीचे की मिट्टी ली, हाथ में रखी! नेत्र बंद किये और मंत्र पढ़ा, ये 'खोज-मंतर' होता है! और खोले नेत्र अपने! और एक झटके से, पीछे देखा! जैसे ही देखा, मेरे नेत्र पर, बाएं नेत्र पर जैसे, रक्त का कोई छींटा सा गिरा! और देखा कुछ! दिखाया मुझे मंत्र-शक्ति ने!
ये, एक स्त्री थी! आयु में करीब, चालीस की, भारी-भरकम! रुक्ष से केश वाली, नग्न-देह, सफेद सा चूना मला था अपनी देह पर! हवा में करीब, डेढ़ फ़ीट ऊपर खड़ी थी वो! बेहद ही गुस्से में थी, करीब पंद्रह फ़ीट दूर!
कुछ पल, वो मुझे देखे, मैं उसे! मैं, पल पल, उसको देखे जाऊं, मेरे नेत्र हिलें और वो, पत्थर सी आँखों से, मुझे देखे, न कोई नेत्र हिले, न खुद हिले, जैसे, ज़मीन से कोई मूर्ति निकाल कर रख दी हो! उसके दोनों ही हाथ खाली थी, हाथ चौड़े कर के खड़ी थी, उंगलियां खुली थीं, चूने की चमक बहुत तेज थी, कद-काठी में, करीब सात फ़ीट तो मानो ही उसे, उसका बदन बेहद ही भारी था! आमने-सामने तो शायद, मुझ पर भारी ही पड़ती! तो उस खोज-मंत्र ने जो पकड़ा था उस समय, वो यही थी! शायद, वक़्त के अँधेरे से अब जागी थी वो!


   
ReplyQuote
Page 2 / 6
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top