उस रोज हल्की हल्की बरसात हुई थी, अधिक तो नहीं हुई थी, लेकिन इतनी ज़रूर कि लगे कि हाँ, बरसात हुई है, पहले मोटी मोटी बूंदें गिरीं ज़मीन पर, फिर वे बारीक होती हुईं, सघन होती गईं! आधे घंटे की बरसात तो वैसे ही किसी भी शहर का श्रंगार उघाड़ दिया करती है! उसका असल रूप सामने आ जाता है! जहां देखो, पाने जमने लगता हैं, वाहनों द्वारा छितराया पानी, हंसी-ठिठोली कर, पैदल यात्रियों पर गिर, और मचलने लगता है! ऊपर से फिर यातायात की सीमित होती हुई चहल-पहल और गति! जैसे पूरा शहर ही उस सड़क पर उतर आया हो और सब का सब जाम! पहुंचना तो हमें करीब चार बजे ही था, लेकिन चार बजे तो हम भी ऐसी ही एक सड़क पर फंसे थे! कुछ दुकानें, खोमचे आदि जो उस बरसात से बचने के लिए, फौरी-तौर पर बंद कर दिए गए थे, अब दोबारा से खुलने लगे थे, कोई तिरपाल झाड़ रहा था, कोई पानी को निकाल रहा था, कोई जायज़ा ले रहा था आसमान को देख कर, कि कहीं अब न बरस जाए, या अब बरसेगा भी या नहीं! अब बारिश का क्या भरोसा, आसामन काला हो, बादल बने हुए हों, तो कब बादलों को चुहलबाजी सूझ जाए और छितरा दें जल, क्या पता भला! जहां सड़क पर, अपने अपने वाहनों में क़ैद लोग बिलबिला रहे थे, वहीँ आज परिंदों की मनचाही मुराद पूरी हुई थी! वे तो उछल उछल जल के ताज़ा बने छोटे छोटे सरोवरों में, उछल-कूद रहे थे! सर डुबोते, ज़ोर से हिलाते और आसपास के परिंदों को दिखा, मुंह सा चिढ़ाते! और सबसे बड़ी बात, क्या कबूतर और क्या कौवा, सब आपसी बैर छोड़, एक ही सरोवर में, स्नान कर रहे थे! श्वान तो जैसे आज बावरे ही हो गए थे, एक दूसरे को छेड़, दूर तक भागे चले जाते थे! उसके पीछे दूसरा और दूसरे के पीछे तीसरा! आज उनके आनंद की कोई सीमा ही नहीं थी! छोटे छोटे श्वान, दौड़-भाग करते जा रहे थे! प्रकृति का अपना ही एक अलग जादू होता है, जो हमेशा चलता ही रहता है!
"चार तो बज गए!" बोले विनोद जी!
"हाँ, देर हो जायेगी!" बोला मैं,
"कोई बात नहीं, देखी जायेगी!" बोले शहरयार जी!
"कम से कम घंटा और मानो!" बोले विनोद जी,
"हाँ, अगर ट्रैफिक चलता रहे तो!" बोले शहरयार!
"यही क्रासिंग है भीड़ वाली, यहां तो यूँ मानो, चौबीसों घंटे जाम ही रहता है!" बोले विनोद जी!
"हाँ, ज़्यादातर! और काम भी चल रहा है सड़क का!" बोला मैं,
"हाँ, यही तो वजह है!" बोले शहरयार जी!
"विनोद?" बोले शहरयार,
"हाँ जी?" कहा उन्होंने,
"सिगरेट पड़ी है क्या?" पूछा उन्होंने,
"ले लेते हैं आगे!" बोले वो,
"हाँ, ले लो दो पैकेट!" बोले वो,
"हाँ अभी!" बोले वो,
गाड़ी हमारी बत्ती पर रुकी आकर, लेकिन, जिसको मौका मिल रहा था, निकले जा रहा था, बत्ती जैसे उनको देख, मन ही मन हंसे भी जा रही थी! खैर, हम रुके रहे, ज़्यादा देर नहीं हुई और हरी बत्ती होते ही, हम आगे बढ़ लिए, थोड़ी दूर जाकर, एक खोमचे पर गाड़ी रोकी, विनोद जी उतरे और चल पड़े खोमचे की तरफ, सिगरेट लेने!
"लो, फिर से रिमझिम शुरू!" बोले शहरयार!
"अब होती है तो होने दो, उमस भरी गर्मी से कुछ तो छूट मिलेगी!" कहा मैंने,
"हाँ, अब बरसे तो ऐसे बरसे कि रुके ही न!" बोले वो,
"वो ज़माने तो लद गए लगता है!" कहा मैंने,
"हाँ जी! नहीं तो हफ्ते-हफ्ते सूरज नहीं दिखे था!" बोले वो,
"हाँ, याद है!" कहा मैंने,
"वो थे चौमासे!" बोले वो,
"हाँ, अब कहाँ बचे!" कहा मैंने,
"अब सब खत्म ही समझो जी!" बोले वो,
और तभी विनोद जी आ गए, बैठे ड्राइविंग-सीट पर, सिगरेट का एक पैकेट सामने रखा, लाइटर उठाया और पकड़ा दिया लाइटर और एक पैकेट शहरयार जी को!
"बारिश पड़ने लगी!" बोले विनोद जी, गियर बदलते हुए!
"हाँ, देख लिया!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले शहरयार, और मुझे सिगरेट पकड़ा दी, मैंने ले ली,
"अनिल जी तो पहुँच भी लिए होंगे!" बोले विनोद जी,
"फ़ोन तो आया नहीं?" बोले शहरयार!
"फंसे होंगे हमारी तरह ही!" कहा मैंने,
"हाँ, सो सकता है!" बोले विनोद जी!
तो इस तरह बातें करते करते हम, जा पहुंचे, जहाँ पहुंचना था, ये सूरजकुंड है जगह, हरियाणा में पड़ती है, रास्ता अमूमन साफ़ ही रहता है, लेकिन दिल्ली से आता-जाता यातायात और दूसरी जगहों से आता यातायात, अगर भिड़ जाए वो भी बारिश में, तो मत पूछिए फिर! फिर तो घड़ी ही जीते गाड़ी नहीं! जिस वक़्त हम पहुंचे, पौने छह बज चुके थे, अनिल जी को पहुंचे अभी बीस मिनट ही गुजरे थे, उनसे मुलाक़ात हुई और हम, एक कमरे में आ बैठे थे! हाथ-मुंह धोए और फिर इत्मीनान से चाय-पकौड़ी लीं! मूंग की दाल की पकौड़ी, तीखी हरी-मिर्च की चटनी के साथ, गरम चाय, और बरसात का मौसम, एक साथ हों तो फिर क्या कहने साहब! आधी आधी पकौड़ी नहीं खाईं जी, बल्कि, पूरी की पूरी ही एक बार में साबुत! चाहे चबाने में मुंह भर जाए! फिर चाय की चुस्की!
"बाहर अँधेरा हो गया है!" बोले अनिल जी!
"लगता है आज बरसेगा ज़बरदस्त!" बोले शहरयार!
"बरसने दो यार! गर्मी ने खाल उलीच रखी थी!" कहा मैंने,
"हाँ, अब फ़र्क़ पड़ेगा मौसम का!" बोले विनोद जी!
"अरे लो अनिल?" बोले शहरयार, पकौड़ी देते हुए उन्हें!
"हाँ हाँ! आप लो! ले रहा हूँ!" बोले वो,
"गुरु जी, ये हैं, अनिल जी, मैंने बताया था आपको!" बोले विनोद जी!
"हाँ, बताया था आपने!" कहा मैंने,
"तीसरे हमारे साथी जो हैं, प्यारे लाल, वो आ नहीं सके, उनकी बेटी की तबीयत कुछ खराब है और घर में कोई है नहीं, देख-रख के लिए, कहीं लाना, ले-जाना पड़े तो, तो इसलिए वो आ नहीं सके!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हम तीनों ही, पुराने दोस्त हैं, पढ़े-लिखे भी साथ ही साथ, पहले तीनों ही परवार, आसपास ही रहा करते थे, बाद में सभी अलग अलग हो गए, लेकिन रहे, एक साथ ही मिलजुल कर! अभी तक भी हमारा रोज का ही मिलना-जुलना रहता है! तीनों ने ही, मिलकर, ज़मीन का कारोबार शुरू किया, काम अच्छा चला, और भगवान की राजी और आशीर्वाद से, पैसा भी बहुत आया! हमने और ज़मीनें खरीदीं, कुछ छोटी और कुछ बढ़ीं, सभी में मुनाफा कमाया!" बोले वो,
"बहुत अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"गुरु जी, लगता है, अब कुछ दिन फिर गए हमारे तो, अब पिछले एक साल से, जैसे हमारा हिसाब-किताब गड़बड़ाता जा रहा है, जहाँ हमें पहले मुनाफा होता था, अब वहीँ घाटा होता है, जहां से हमने अच्छा पैसा बनाया, अब वहीँ पर, हमारा पैसा मिट्टी होता जा रहा है! अभी भी, हमारे पास, छह ऐसी ही ज़मीनें हैं, लेकिन काम आगे बढ़ा नहीं पा रहे क्योंकि, साफ़ बात, इतना पैसा है नहीं, बचा ही नहीं, अब कुछ में मुनाफा हो तो किसी एक जगह को निकाला जाए तो कुछ बने और फिर से, सोच-समझकर, काम जोड़ा जाए, यूँ मानो कि एक-सवा साल से, घर से ही खा रहे हैं!" बोले वो,
"ओह....एक साल से, तक़रीबन?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"और साहब, जो कारण नज़र आया है, वो तो बहुत ही भयानक है....." बोले अनिल जी,
"भयानक?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, यूँ समझो, कि रातों को नींद नहीं, दिन को आराम नहीं!" बोले वो,
"ऐसा क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ, विनोद?" बोले अनिल जी,
"बता दो, छिपाना क्या?" बोले वो,
"गुरु जी, यहां से कोई बीस-पच्चीस किलोमीटर दूर एक जगह है, ये जगह हमने, दो साल पहले खरीदी थी, कहा जाए कि कच्चे की ज़मीन थी, बीहड़ जैसी ही, लेकिन इसमें भविष्य में मुनाफा दिखाई दे रहा था, सो औने-पौने दामों में, हाथ लग गई, हमने बड़ी ख़ुशी हुई! सोचा, कई फ़ार्म -हाउस इसमें से बन सकते हैं और भविष्य में ये ज़मीन, सोना उगलेगी!" बोले वो,
"अच्छा, तो ज़मीन खरीद ली, दो साल पहले!" बोले शहरयार!
"हाँ जी!" बोले विनोद जी!
"करीब छह महीनों में, आसपास की ज़मीनें भी खरीदी जाने लगीं! कुछ में काम भी शुरू हो गया, हमने भी बाउंड्री करवा दी थी, और उसमे, कच्चे-पक्के से दो तीन, कमरे भी डलवा दिए! अब कमरे डलवाए तो एक चौकीदार भी रख दिया, चौकीदार नेपाली है, साथ में उसे, उसका एक बारह साल का बेटा, एक चार साल की बेटी और उसकी पत्नी रहती है, पत्नी थोड़ी बहुत शाक-सब्जी सी ऊगा लेती है, और चौकीदार बाज़ार से, राशन-पानी ले ही आता है, आदमी ईमानदार है! हम भी जब जाते तो कुछ न कुछ सामान ले ही जाते थे उनके लिए!" कहा उन्होंने,
"थे? अब नहीं रहता क्या?" पूछा मैंने,
"रहता है, अभी भी, लेकिन अब साथ में एक और परिवार भी रख लिया है, उसकी पत्नी की, रिश्ते की बहन है वो औरत और उसका आदमी, गुड़गांव में नौकरी करता है गार्ड की, हमें कोई आपत्ति नहीं!" बोले वो,
"तो इस चौकीदार से क्या लेना- देना?" पूछा शहरयार ने!
"नहीं जी, सीधे-सीधे तो कुछ नहीं लेना, लेकिन उस चौकीदार ने, हमें एक नहीं कई बार कुछ ऐसा बताया था कि कोई यकीन ही न करे!" बोले वो,
"हैं? ऐसा क्या बताया?" पूछा शहरयार ने!
"एक मिनट!" बोले अनिल जी,
"हाँ" कहा मैंने,
"विनोद? सामान लाया है या मंगवाऊँ?" बोले अनिल जी,
"गाड़ी में है पीछे, मंगवा लो किसी से!" बोले वो,
और दे दी चाबी अनिल को, विनोद ने!
"हाँ तो, फिर?" पूछा मैंने,
"हाँ गुरु जी, उस चौकीदार ने, बताया कि उसकी पत्नी ने, उस ज़मीन पर, किसी को देखा था, जाते हुए, किसी साधू को, उसने साधू जैसे ही वस्त्र पहने थे!" बोले वो,
"साधू?" बोला मैं,
"हाँ जी, हमने सोचा, इन साधुओं का क्या भरोसा, गुजर रहा होगा कोई!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर, करीब तीन दिनों के बाद, उसकी पत्नी ने बताया कि फिर से देखा उसने वो साधू, लेकिन इस बार उसके साथ कोई औरत भी थी!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तो उसकी पत्नी ने साधू से कोई बात नहीं की?" पूछा मैंने,
"की, लेकिन उस रात नहीं!" बोले वो,
"फिर? कब की?" बोले शहरयार!
"बताता हूँ" बोले वो, और खोल लिया सिगरेट का पैकेट, एक निकाली सिगरेट, और पैकेट मेरी तरफ बढ़ा दिया, मैंने पैकेट उठाया और, शहरयार जी को पकड़ा दिया, उन्होंने, एक सिगरेट खींची उसमे से, और पैकेट वहीँ रख दिया, जहाँ से उठाया गया था उसे!
"एक रात की बात है, उसकी पत्नी...." चुप हो गए कहते कहते!
"मिल गया?" पूछा अनिल जी से, विनोद जी ने,
"हाँ, ले आया हूँ!" बोले वो,
"कोई लड़का नहीं है?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, शायद गया हो सिगेरट फूंकने-फांकने!" बोले वो, थैली वहीँ, एक तरफ रखते हुए!
"खाने को क्या है?'' पूछा अनिल जी ने,
"इसमें तो कुछ नहीं, मूंगफली ही होगी बस?" बोले वो,
"तो मंगवा लेता हूँ, सभी हैं न खाने वाले?" पूछा उन्होंने,
"हाँ जी, सभी अमली हैं यहां!" बोले शहरयार जी!
"ठीक है, मंगवा लेता हूँ!" बोले वो,
"सुनो?" बोले विनोद जी,
"हाँ?" रुके तो बोले अनिल जी,
"बर्फ वगैरह भी मंगवा लेना, सिगरेट भी, और हाँ, शामू न मिले तो नीचे दुकान में, अहमद होगा, उस से कह देना, वो ला देगा!" बोले वो,
"ठीक है, कहता हूँ!" बोले वो,
और अनिल जी चले गए नीचे! विनोद जी ने थैली खींची, दो बोतलें थीं, एक हमारे काम की, मतलब, शहरयार और मेरी और एक उनके काम की, वे स्कॉच- माल्ट पसंद करते हैं, हम साधारण व्हिस्की ही! शहरयार साहब ने, अपनी वाली रख ली एक तरफ!
"दिल्ली का ही माल है!" बोले वो,
"ये बढ़िया है!" बोला मैं,
"हाँ, अब बताइए, उस रात क्या हुआ?' पूछा मैंने,
"हाँ, तो उस रात....." फिर बात काटी शहरयार ने उनकी!
"नाम क्या है इस चौकीदार की पत्नी का?" पूछा उन्होंने,
"राखी" बोले वो,
"अच्छा, अब बोलो" बोले शहरयार!
"हाँ तो उस रात, राखी कपड़े लेने गई थी, जो सूख गए थे, एक रस्सी पर पड़े थे, तभी उसने एक साधू को देखा उधर खड़े हुए, वो उधर ही, उसको देख रहा था, वो घबरा गई, और जाने लगी वापिस, तब उस साधू ने आवाज़ दी उसे!" बोले वो,
"आवाज़ दी?" पूछा मैंने,
"हाँ! बोला, बेटी, पानी पिला दे, दूर से आया हूँ!" बोले वो,
"अच्छा, पानी मांगा!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
'फिर?" पूछा मैंने,
"राखी को न जाने क्या हुआ, जैसे ही सुना, पानी लेने चली गई, कटोरे में पानी लायी और दे दिया साधू को, साधू ने कटोरा लिया और पी लिया पानी, और माँगा, और इस तरह से उसने छह कटोरे पानी पिया!" बोले वो,
"छह कटोरे?" बोले हैरत से शहरयार!
"हाँ जी, कम से कम तीन लीटर मानो आप!" बोले वो,
"कब से प्यासा था वो?" बोले शहरयार!
"अच्छा, पानी पीने के बाद, फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो साधू बोला, तू अच्छी है, भोली है बेटी, बताय देता हूँ, चली जा यहां से, ये जगह हमारी है, आगे तेरी मर्ज़ी!" बोले वो,
"ओह! यानि चेता गया वो!" बोला मैं,
"हाँ जी! और इस बात को राखी ने किसी से भी नहीं बताया!" बोली वो,
"अरे? क्यों? अपने आदमी को भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"और जब पानी पिला रही थी, तब वो चौकीदार कहाँ था?" पूछा शहरयार ने,
"वहीँ था, दारु उड़ा रहा होगा और क्या!" बोले विनोद जी!
"हम्म, ठीक, फिर नज़र आया वो साधू?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, नहीं आया कभी फिर!" बोले वो,
'तो कुछ आपदा आई?" पूछा मैंने,
"कुछ? गुरु जी बहुत बड़ी आपदा!" बोले वो,
"क्या? कैसी आपदा?" पूछा मैंने,
"करीब पंद्रह दिन बीते होंगे, कोई नज़र नहीं आया था, लेकिन उस दोपहर, उस राखी का लड़का आया अपनी माँ के पास, उस लड़के के हाथ में, एक जेवर था, सोने का!" बोले वो,
"क्या? जेवर? सोने का?'' बोले चौंकते हुए शहरयार! चौंका मैं भी!
"हाँ साहब! सोने का जेवर, एक कड़ा, बड़ा ही भारी सा!" बोले वो,
'एक मिनट, वो कड़ा है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, वो उसी शाम चोरी हो गया!" बोले वो,
"चोरी?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, उस शाम के बाद, किसी ने नहीं देखा वो जेवर!" बोले वो,
"कहीं दूसरी औरत ने तो नहीं निकाल लिया?'' शक ज़ाहिर करते हुए पूछा उन्होंने,
"नहीं जी, दूसरा परिवार तो नेपाल चला गया था किसी शादी में, दो दिन पहले ही!" बोले वो,
"अरे!" बोला मैं,
"हाँ जी! और जहां रखा था, वहां कुछ दाग़ से पड़े थे कपड़े में!" बोले वो,
"कैसे दाग़?" पूछा मैंने,
"जैसे कपड़ा जला हो!" बोले वो,
"क्या बीड़ी की तरह से जले छेद भी थे?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी, बस काले से निशान ही थे!" बोले वो,
''आपने देखे वो निशान?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ जी, तहमद में हैं वो निशान!" बोले वो,
"वो तहमद है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, कि है अब या नहीं!" बोले वो,
बड़ी ही हैरत की बात, दोपहर में वो जेवर मिलता है, रख दिया जाता है और शाम को, चोरी या गुम हो जाता है! कमाल की बात ही है!
"क्या आपने वो जेवर देखा था?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं देख पाये हम!" बोले वो,
"हम्म्म! अंदाजा जो लगा रहा हूँ मैं, क्या वो सही है विनोद जी!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
लेकिन वे मुस्कुराए तो, लेकिन, थोड़ा सा ही, इस से मुझे ये ज़रूर पता चला कि मामला कुछ गम्भीर तो है ही!
"हाँ, सही अंदाजा लगाया आपने!" बोले वो,
"तो आपने, सभी ने, ये सोचा होगा, कि हो न हो, वहां धन गड़ा है, कोई पुराना धन!" कहा मैंने,
"जी, सौ प्रतिशत यही सोचा था हमने!" बोले वो,
"तो फिर लड़के से पूछी होगी, वो उस जगह ले गया होगा, जहाँ से उसे वो जेवर मिला था! है न?" पूछा मैंने,
"जी, यही!" बोले वो,
"लड़का ले गया होगा वहां! आप सभी ने उस जगह को देखा होगा, हो सकता है, निशानदेही के लिए, कुछ निशान लगाया हो, या पत्थर आदि रखा हो!" कहा मैंने,
"निशानदेही की ज़रूरत ही नहीं थी, वहां, कुछ टूटा-फूटा सा खंडहर सा है, दीवार भी नहीं है, गोल सा घूमा हु, कई जगह, जैसे कोई कुआँ आदि हो उधर!" बोले वो,
"समझा! तो लड़के को वहीं से मिला था वो जेवर?" पूछा मैंने,
"हाँ, वहीँ मिट्टी में दबा था, आधा अंदर और आधा बाहर!" बोले वो,
"तब तो उस लड़के से मिलना ज़रूरी है!" कहा मैंने,
"जब मर्ज़ी मिल लो गुरु जी!" बोले वो,
"लेकिन हाँ! तो आपने कुछ किया उसको ढूंढने के लिए?'' पूछा मैंने,
"प्यारे लाल जी रहते हैं ऐसे लोगों में, उन्हें शौक़ है कुछ ऐसा ही!" बोले वो,
"अच्छा, कभी कुछ मिला उन्हें?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, एक चांदी की सिल मिली थी, पलवल के पास से, हमने भी देखी थी वो तो!" बोले वो,
"अच्छा, कितने किलो की थी?" पूछा मैंने,
"बयालीस किलो की!" बोले वो,
"अरे वाह! कुछ खुदा था उस पर?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, कुछ नहीं!" बोले वो,
"तो बेक दी?" पूछा मैंने,
"बर्तन बनवा लिए, एक मूर्ति का जोड़ा भी!" बोले वो,
"चलो, काम तो आई!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
तभी अनिल जी अंदर चले आये, दोनों हाथों में सामान था उनके, गिलास भी, और बर्फ आदि सब का सब ले आये थे! भीगे हुए थे थोड़े थोड़े से!
"बारिश तेज है क्या?" पूछा शहरयार जी ने,
"कभी तेज, कभी बंद!" बोले वो, रुमाल से, हाथ और चेहरा पोंछते हुए!
"सामान मिला?'' पूछा विनोद जी ने,
"हाँ, सारा ले आया, खाना बाहर खा लेंगे या मंगवा लेंगे, जगह बढ़िया है जहां से लाये हैं, मुल्ला जी हैं दिल्ली के, बढ़िया आदमी हैं, प्याज-चटनी दो दो रख दीं मना करते हुए भी!" बोले वो,
"सोचा होगा मुल्ला जी ने कि कम न पड़ जाए, फ़ालतू भले सही!" बोले शहरयार जी!
"हाँ जी, यही बात है!" बोले वो,
"फिर मौसम भी तो खराब है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो, बैठते हुए!
"चलो जी, करो शुरू अब!" बोले शहरयार जी!
"लो जी, हुक़्म साहब का!" बोले विनोद जी!
"काहे के साहब यार! हमाम में सब नंगे!" बोले वो,
हंसी छूट पड़ी सभी की! चार यार बैठे हों, साथ में मसालेदार 'चब्बा' यानि चबाये जाने वाला खाना और, सबसे लज़ीज़ हुस्न वाली हो शराब साथ में, तो रंग तो जमेगा ही! कोई सवाल ही नहीं ना का!
और इस तरह, हमारे पहले गिलास बने! मदिरा ने अपना रंग दिखाया और हमें, 'दांव' खेलने के लिए, ताव दिखाये! अब ताव दिखाये मदिरा, तो कैसे रुका जाए! उठाओ घूंघट और फिर, गटक जाओ! यही किया हमने भी! पहला गिलास तो तले तक, बूँद से भी साफ़!
"वाह अनिल! टंगड़ी तो ज़ोर की हैं यार!" बोले शहरयार!
"शुक्रिया जी!" बोले अनिल जी!
"तो अनिल जी, धन मिला कुछ?" पूछा मैंने,
वे तो बेचारे चौंक गए! प्याज का टुकड़ा, हाथ में ही रह गया! विनोद को देखा तो विनोद ने समझा दिया! अब सहज हो गए वो!
"कहाँ साहब!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"यूँ समझ लो आप गुरु जी, वो विचार जब से आया दिल में, खाने खराब हो गए हम तो!" बोले वो,
"वो कैसे भला?" पूछा मैंने,
"गुरु जी, प्यारे लाल जी से बात हुई, तो उनकी आँखें चमक उठीं! अब सच्ची बात तो ये है, कि किसकी नहीं चमकेंगी, कौन नहीं चाहेगा ऐसी दौलत! तो उन्होंने मारे हाथ-पाँव, अब हम दोनों ठहरे इस मामले में अनाड़ी, उन्होंने ही जो सही समझा, हमने साथ दिया!" बोले वो,
"तो आया कोई कारीगर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, आया!" बोले वो,
"कहाँ से?" पूछा मैंने,
"झांसी से!" बोले वो,
"बड़ी दूर से?" पूछा मैंने,
"जी वो चैन सी बन गई, इस मुंह और उस कान, उस मुंह और उस कान, तब जाकर, एक आया कारीगर!" बोले वो,
"क्या बताया उसने?" पूछा मैंने,
"उसने मेहनत तो की जी, इसमें कोई शक नहीं!" बोले वो,
"अच्छा, जगह ढूंढ ली?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, वो तो बोला, कि यहां हर जगह माल ही माल है!" बोले वो!
"अरे वाह! इतना धन?" बोले शहरयार!
"निकाला नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, नहीं निकाल सका, बोला, कोई है यहां, जो रोक देता है बार बार, उसने पंद्रह दिन लगाए लेकिन एक इकन्नी भी न हाथ आई! खर्चा हुआ सो अलग, कहर जी, खर्चे की छोडो, कुछ मिल जाता तो सब वसूल हो जाता, लेकिन हमारी किस्मत! सोचा कुछ और और जो हुआ.....वो तो...हे भगवान...!" बोले वो,
"ऐसा क्या हुआ?" पूछा मैंने,
अब विनोद जी चुप! चुपचाप, गिलास में बर्फ डाल दी, उठाया गिलास, और बर्फ घोलने लगे! मैं इंतज़ार करता रहूं, कि अब बोलें और अब बोलें!
"क्या हुआ फिर?" पूछा शहरयार जी ने,
"होना क्या था, वो चला गया और कह कर गया कि किसी और को भेजेगा!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"करीब एक महीने बाद, आये दो आदमी!" बोले वो,
"अच्छा, काम शुरू हुआ फिर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, काम हुआ शुरू!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"करीब दिन में, छह बजे उन्होंने काम शुरू किया, काम करते करते रात हो गई, लेकिन कुछ नहीं हुआ, तब प्यारे लाल जी ने उस कारीगर से बात की, कारीगर था तो पुराना ही, करीब साठ वर्ष का रहा होगा वो!" बोले वो,
"अच्छा, क्या बताया उसने?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि एक लड़की चाहिए, जवान लड़की!" बोले वो,
"क्या? जवान लड़की? किसलिए?" पूछा मैंने,
"बोला कारीगर कि यहां जो ताक़त है, वो कोई बुरा जिन्न है, पहले वो भोगेगा उस लड़की को, फिर चाबी मिलेगी और फिर, एक हिस्सा हमें मिलेगा!" बोले वो,
"ये कैसा बेवक़ूफ़ कारीगर था भला?'' बोले शहरयार!
"यही बात हमें भी अखरी, और उसको मना कर दिया हमने!" बोले वो,
"अच्छा किया, बेचारी लड़की और जान से जाती! अच्छा किया!" बोले शहरयार!
"हाँ, सही किया आपने!" बोला मैं,
"तो गुरु जी, इतना तो हमें अब यकीन हो ही गया था कि इस ज़मीन में अथाह दौलत दफन है, तो पहले उसको निकालें आराम आराम से, अब कोई कितना ही मांगे, हम तैयार थे ही!" बोले वो,
"समझ गया, दो आदमियों ने तस्दीक़ कर दी तो ये तो पक्का ही हुआ!" कहा मैंने,
"बस जी! फिर क्या था, हम तो समझने लगे अपने आपको राजा! ये भी लूँ और वो भी लूँ! ऐसे देखें हम सारी ज़मीन को उधर!" बोले वो,
"लाजमी है!" कहा मैंने,
"तो गुरु जी, एक परिवार तो गया हुआ था नेपाल, एक कमरे में, वो चौकीदार बहादुर और उसका परिवार, तो हम, शराबखोरी करने, अक्सर आते जाते उधर!" बोले वो,
"समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"अब जब खजाना है ही हमारा, तो फिर क्या पूछना!" बोले अनिल जी अब!
"हाँ, ये भी है!" कहा मैंने,
"तो हुआ ये कि, प्यारे लाल जी का एक दोस्त आया हुआ था, लखनऊ से, आदमी बढ़िया है वो! उसका भी अपना काम है, कुछ बिजली का सामान बनाता है, उस रात हम, गुड़गांव में थे, करीब आठ बजे होंगे, उसने कहा कि कुछ 'रंगा-रंग' प्रोग्राम हो जाए! अब आप तो समझते ही हैं, मना किया नहीं, 'जान-पहचान' थी ही! तो किया फ़ोन, तो तीन लड़कियां आ गईं! साफ़ बताए जा रहा हूँ, छिपाऊंगा नहीं, जब मति मारी जाती है तभी ऐसे काम होते हैं! तो हमारी भी मारी गई! जब वो लड़कियां आईं तो फ्लैट के आसपास की, खिड़कियां खुलने लगीं, बंद होने लगीं, समझते हो ना आप?" बोले वो,
"हाँ हाँ!" बोले शहरयार!
"तो प्यारे लाल जी ने सुझाया कि क्यों ना वहीँ चला जाए? वहां कोई नहीं है कुछ कहने वाला, ना रोकने वाला ना कोई, टोकने वाला!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"तो आप, 'रंगा-रंग' प्रोग्राम जोड़ने, वहां चल दिए!" बोले शहरयार जी!
"हाँ जी! वहीँ चले गए!" बोले विनोद जी!
"ये कब की बात होगी?" पूछा मैंने,
"कोई दस महीने हुए होंगे गुरु जी!" बोले वो,
"अच्छा, सर्दी का जुगाड़ किया आप लोगों ने!" बोले शहरयार जी, हँसते हुए!
"कह लो साहब, यही समझ लो!" बोले वो,
"अच्छा, क्या हुआ फिर?" पूछा मैंने,
"तो गुरु जी, खाया-पिया हमने, 'रंगा-रंग' प्रोग्राम भी किया, और फिर करीब दो बजे, हम सो गए!" बोले अनिल जी!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी, लेकिन............अब जो मुसीबत शुरू हुई, वो उसी रात से हुई शुरू...." बोले अनिल जी,
"कैसी मुसीबत?" पूछा मैंने,
उन्होंने, सिगरेट की राख झाड़ी, और एक दमदार सा कश खींचा! मेरी तरफ, मेरा गिलास सरकाया और पाँव सीधे कर लिए अपने!
"क्या हुआ?" पूछा शहरयार जी ने!
"रात करीब तीन बजे, एक लड़की, लिली ने मुझे जगाया, नशे की हालत थी, कुछ कहते न बन पड़ा, पूछा तो लिली ने कहा कि उसे लगता है, बाहर कोई है शायद!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" बोले शहरयार!
"मैंने टाला उसे, समझाया कोई नहीं है, चौकीदार होगा, लेकिन तभी, उस कमरे के पास से ही, मुझे कुत्तों के गुर्राने की सी आवाज़ आई, फिर से सोचा, शायद, रात को, खाना ही ऐसा खाया था तो हड्डी-फड्डी खाने, कुत्ते चले आएंगे होंगे, लड रहे होंगे आपस में, मैंने उसे समझा-बुझा कर, सोने को कह दिया, लेकिन वो सोई या नहीं सोई, पता नहीं, बैठ गई थी बिस्तर पर ही!" बोले वो,
"अच्छा, ये तीन बजे की बात है? है ना?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ, करीब तीन बजे!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कुछ ही देर बाद, मेरी आँखें खुलीं, लिली और एक और लड़की, निशा, बाहर देख रहे थे, खिड़की से, साथ में, प्यारे लाल जी भी थे, मुझे अजीब सा लगा, तो मैंने बैठते हुए पूछा उनसे कि क्या बात है?" बोले अनिल जी!
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"उन्होंने मुझे शहह कहा और बुला लिया अपने पास ही, मैं भी जा खड़ा हुआ, बाहर देखा, अँधेरा था, कमरे के ऊपर लगा बल्ब ही जल रहा था बस, और तो कोई था नहीं वहां, पांच मिनट बीते, कोई नहीं दिखा, मैंने उनसे पूछा, तो उन्होंने, मुझे सामने, उस पेड़ की तरफ देखने को कहा, मैंने पेड़ को देखा, पेड़ को देखा तो जैसे लगा, कि दूसरी तरफ कोई खड़ा है, पेड़ के तने को लपेटे हुए बाजू में अपने!" बोले वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"फिर, कोई और भी आया उधर, ऐसा लगा मुझे, अँधेरे में से ही, उस पेड़ के पास ही, उसके पीछे वो भी खड़ा हो गया! अब आसपास इतनी बसावट तो है नहीं, तो फिर यहां कौन हो सकता है इतनी रात गए? यही सोचा मैंने, और उन लोगों से बात भी की, वे भी हैरान, लड़कियां मारे डर के पागल हों! उन्हें संभालें हम, समझाएं और बाहर भी देखें!" बोले वो,
"तो पेड़ के पीछे कौन है, पता चला?" पूछा शहरयार जी ने,
"अब....................."
"नहीं जी!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा शहरयार जी ने,
"हम सब, एकटक, वहीँ खड़े देखते रहे!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"बार बार ये लगे कि पेड़ के पीछे कोई तो है, लेकिन सामने न आये, एक तो नशा ऊपर से, ये भयानक मंजर, समझ ही न आये कि किया क्या जाए?" बोले वो,
"चौकीदार को आवाज़ नहीं दी?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, उसका कमरा, पीछे की तरफ है!" बोले वो,
"अच्छा आगे?" पूछा उन्होंने,
"फिर, कम से कम पंद्रह मिनट हो गए और जैसे, वे लौट गए थे!" बोले वो,
"मतलब जो पेड़ के पीछे थे?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई गुरु जी?" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हम सब, जाकर, लेट गए थे, करीब बीस मिनट गुजरे थे, लेकिन डर के मारे नींद अब उड़ चुकी थी, तो नींद नहीं आई!" बोले वो,
"आती भी कैसे?" बोले शहरयार जी!
"करीब बीस मिनट के बाद, पेड़ से कुछ गिरा!" बोले वो,
"कुछ?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या गिरा?" पूछा मैंने,
"कोई गठरी सी!" बोले वो,
"गठरी?" मैंने हैरानी से पूछा!
"हाँ जी!" बोले वो,
"जा कर देखा?" पूछा शहरयार जी ने,
"इस से पहले कि हमें कुछ समझ आता, गठरी खुली और उसमे से, बड़े बड़े सांप निकल दौड़े हर तरफ! ओह! ऐसा डर लगा कि अब हुई मौत और अब हुई! अब काटा और अब काटा! लड़कियों की सिट्टी-पिट्टी गुम! चीखें, चिल्लाएं! भागो भागो करें, दो तो निकल भागीं बाहर, हम भी निकल भागे, जो आया हाथ, समेटा और दौड़ लिए, हर तरफ वहां, सांप ही सांप थे!" बोले वो,
"अरे बाप रे!" बोले शहरयार जी!
"सीधा गाड़ियों की तरफ भागे, जूते, मोज़े सब छूट गए, फौरन से गाड़ी की तरफ भागे और भाग निकले!" बोले वो,
"ओफ्फ्फ्फ्फ्!" कहा मैंने,
"होश ही नहीं जी! लड़कियों को छोड़ा, टैक्सी में बिठाया और हम भी अपने घरों की तरफ लौट लिए, जैसे तैसे जान बची उस रात तो!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"इसके बाद, पूरे हफ्ते हम नहीं गए वहां! हिम्मत ही नहीं हुई!" बोले वो,
"चौकीदार से बातें हुईं?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, उसने कहा कि उसने तो कुछ नहीं देखा उधर, जब हम वहां से निकल रहे थे, तो उसने आवाज़ भी दी थी, हम रुके नहीं, उसके अनुसार, वहां कोई गठरी भी नहीं थी और सांप तो एक भी नहीं!" बोले वो,
"अच्छा! समझा!" कहा मैंने,
"लेकिन हमने, हम सभी ने जो देखा था, उसको कैसे झुठला दें?" बोले वो,
"नहीं झुठला सकते! आपने देखे होंगे, पक्का!" कहा मैंने,
"तो आप लोग फिर गए वहां?" पूछा शहरयार जी ने!
"जी, कोई दस दिन के बाद, दिन में!" बोले वो,
"आप तीनों?" बोले शहरयार!
"हाँ जी, अकेले का सवाल ही नहीं उठता था!" बोले वो,
"क्या देखा?'' पूछा मैंने,
"वो पेड़ है जी एक, शीशम का सा है, वो देखा, वहां तो कुछ नहीं था, न आसपास कोई बाम्बी न कोई बिल आदि ही, फिर वो सांप अचानक आये कहाँ से?" बोले वो,
"आपने क्या समझा?" पूछा मैंने,
"हमने तो यही सोच कर जी को समझाया कि शायद सपेरे रहे होंगे, जंगल से सांप पकड़े होंगे, गठरी रख दी होगी, या बाँध दी होगी पेड़ पर, कि मौक़ा मिलते ही ले जाएंगे, मौका मिला नहीं होगा, क्योंकि हम उस रात थे वहां, तो वो ही आये होंगे!" बोले वो,
"अब भी यही मानते हो?" कहा मैंने,
"और क्या करें?" बोले वो,
"किसी को बताई ये बात?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"किसको?" पूछा मैनें,
"एक तांत्रिक को!" बोले वो,
"कहाँ का है?" पूछा मैंने,
"अलवर के पास एक गाँव है, वहां का!" बोले वो,
''वो आया?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, आया!" बोले वो,
"क्या बताया उसने?" पूछा मैंने,
"उसने कहा कि यहां चौदह कुँए हैं, माल से भरे हुए, लेकिन उनकी रखवाली एक नाग-देवता कर रहे हैं!" बोले वो,
"नाग-देवता?" बोला मैं,
"यही बताया उसने!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने कहा कि फलां फलां वस्तुएं लाओ, भेंट चढ़ाउंगा तब काम होगा!" बोले वो,
"तो आप ले गए?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"काम हुआ?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"वो तांत्रिक सुबह बेहोश मिला!" बोले वो,
"बेहोश?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या हुआ था उसे?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं बताता!" बोले वो,
"बताया भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" कहा उन्होंने,
"ओहो!" कहा मैंने,
"अभी तो शुरुआत है गुरु जी! और सुनो!" बोले वो,
"हाँ, हाँ! बताइए!" बोले शहरयार जी!
"सुनो, ज़रा इसमें डालो यार?" कहा मैंने शहरयार जी से, गिलास देते हुए!
"हाँ जी! अभी!" बोले वो,
बाहर बारिश की तड़-तड़ हो रही थी, कमरे में सीलन भरी, ठंडी हवा से घुसी चली आती! पंखा भी जवान हो गया था, हवा ठंडी दे रहा था, ए.सी. बंद ही करवा दिया था! हाँ, एक्सॉस्ट-फैन चल रहा था, सिगरेट के धुंए को बाहर फेंकने के लिए! उस कमरे की मेज़ पर, कुछ पैम-फ्लेट्स से बिखरे थे, कुछ पोर्टफोलियोस थे, एक जग पानी रखा था, बर्फ, पन्नी में बंधी रखी थी, आइस-क्यूब की शक़्ल में! और कुछ एक बड़े से ड़ोंगे में, पड़ी थी, जो हम उठा-उठा कर, अपने गिलास में डाल लेते थे, क्यूब-क्लिप से पकड़ कर! दो-तीन पैग अंदर जा चुके थे, तो चेहरे पर लालिमा सी छा गई थी, और इन 'मूर्खों' की 'मूर्खता' जान जान, और हुड़क सी लग रही थी! मूर्ख ही कहूंगा मैं उन्हें! धन कमाना चाहिए, लेकिन उसका भी एक क़ायदा है, ज़मीन में धन गड़ा है, सबसे पहले तो, वो आपका है नहीं, चलो, आपकी ज़मीन में ही है, तो सेवा करो, आपके नसीब का होगा तो कोई ले नहीं जाए, नहीं होगा, तो एक इकन्नी न मिले, अब चाहे मनों माल जो निकले!
"हाँ, फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"गुरु जी?" बोले अनिल जी,
"हाँ जी?" कहा मैंने,
"जिस दिन हम वहां गए थे, दस दिन बाद की बता रहा हूँ, उसी शाम हम, खा-पीकर वापिस हुए!" बोले वो,
"तब भी खाया-पीया?" बोले शहरयार!
"हाँ जी, टेंशन ही ऐसी थी, नींद ही नहीं आती थी शराब के बिना!" बोले वो,
"और रंगा-रंग कार्यक्रम भी?" बोले शहरयार!
"नहीं जी! सुनिए!" बोले वो,
"हाँ, बताओ!" कहा मैंने,
"जिस दिन हम गए थे, वो शुक्रवार था, हमें, बुधवार को पता चला, कि जो वो लड़की थी निशा, जो उस रात साथ थी हमारे, वो एक सातवीं मंजिल के फ्लैट से कूद गई थी, आत्म-हत्या का केस दर्ज़ हुआ, अब जो भी हुआ हो..." बोले डरते हुए वो!
"क्या? आत्महत्या?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! आत्महत्या!" बोले वो,
"ओहो! ज़रूर कुछ हुआ होगा फिर तो!" बोले शहरयार जी!
"अब भगवान ही जाने ये तो!" बोले विनोद जी!
"और तो सुनो?" बोले अनिल जी!
"हाँ, बताओ?" बोले शहरयार!
"जो दूसरी लड़की थी न, वो....लिली?" बोले वो,
"हाँ, उसे क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ट्रेन के नीचे कटी मिली....." बोले वो,
"हैं? कहाँ?" पूछा मैंने,
"यू.पी. में कहीं, पता नहीं कहाँ!" बोले वो,
"अरे बाप रे!" बोले शहरयार!
''और तो सुनो?" बोले अनिल जी!
"क्या?" पूछा मैंने,
"जो तीसरी लड़की थी, उसका क्या नाम है विनोद?'' बोले अनिल जी,
"स्वीटी" बोले वो,
"हाँ, स्वीटी!" बोले वो,
"ज़िंदा है स्वीटी?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ, ज़िंदा ही है!" बोले वो,
"कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"दिल्ली, क़ुतुब-एन्क्लेव में!" बोली वो,
"अच्छा, हाँ, बताओ स्वीटी के बारे में?" पूछा मैंने,
"उसका आया था फ़ोन, उसने बताया कि जब से वो तीनों वहां से लौटी थीं, तभी से कुछ न कुछ गड़बड़ हुए जा रही थी!" बोले वो,
"कैसी गड़बड़?" पूछा मैंने,
"निशा का पाँव टूट गया था, ऑटो का एक्सीडेंट हो गया था, लिली अलग रहती थी, उसके सर पर चोट लग गई थी, ये घटना एक ही दिन, एक ही समय पर हुई थीं, लिली को लेने उसका भाई आया था, वो अगले दिन, ले गया था साथ, फिर नहीं पता, फिर उसकी मौत कि ही खबर आई, अच्छा, जिस दिन लिली की मौत हुई, उसी दिन, उसी समय पर, थोड़े मिनट इधर उधर हों तो पता नहीं, निशा को क्या हुआ कि वो सातवीं मंजिल से नीचे कूद गई, वो भी मर गई..." बोले वो,
"समझा, तो ये स्वीटी?" पूछा मैंने,
"स्वीटी ने जो बताया, तो लगा कि शायद उसका दिमाग चल गया है उन दोनों की मौत के बाद, हमें तो यही लगा!" बोले अब अनिल जी!
"क्या बताया था उसने?'' पूछा मैंने,
"स्वीटी ने कहा, जिस दिन वे घर लौटीं थीं, उसी दिन सुबह, जब स्वीटी नहाने गई थी, तो उसे गुसलखाने में लगा था कि कोई सांप है फर्श पर, वो डर के मारे चीखी भी थी, उसकी आंटी ने जब देखा तो कुछ भी नहीं था!" बोले वो,
"हो सकता है, उसने उस रात सांप देखे थे, शायद वहम ही हुआ हो?" बोले विनोद जी!
"हाँ, हो सकता है!" कहा मैंने,
"डर गई हो?" बोले शहरयार!
मैंने अपना गिलास उठाया और खाली कर दिया, एक कबाब का टुकड़ा तोड़ा, चटनी से लगाया और मुंह में रख लिया, बाकी काम, जीभ ने कर दिया कि कहाँ भेजना है! फिर शहरयार जी ने भी, कबाब लिया और रख लिया मुंह में ही!
"और क्या बताया?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि वो मिलना चाहती है!" बोले वो,
"तो आप मिले?'' पूछा मैंने,
"मिलना तो ज़रूरी था, कहीं घर ही आ धमकती तो समझो हुए चौराहे में नंगे!" बोले वो,
"तब तो न हुए होंगे?" बोले शहरयार!
"साहब, जब मति भ्रष्ट होती है तो जो काम न हो, वो भी कर दे इंसान!" बोले वो,
सो तो सच है!" कहा मैंने,
"अच्छा, वो मिली?" पूछा शहरयार ने!
"हाँ जी!" बोले वो,
"उसे दफ़्तर ही बुला लिया था, थकी-हारी, बीमार सी लग रही थी, उसने अपने कंधे पर कुछ निशान सा दिखाया, ये निशान कुछ ऐसा था, जैसे किसी मछली के शल्क से होते हैं, वो इलाज के लिए पैसे मांग रही थी...." बोले वो,
"तो पैसे दिए?" पूछा मैंने,
"देने ही पड़े!" बोले वो,
"रंगा-रंग! है न!" बोले शहरयार!
"अब जो किया, बता ही रहे हैं हम साहब आपको!" बोले वो,
"समझता हूँ अनिल! अब गलती हुई, आपने मानी, चलो अच्छा ही हुआ, अरे! तभी तो शेखर साहब ने आपसे मिलने को कहा!" बोले वो,
"हाँ जी, धन्य भाग हमारे! नहीं तो अब कोई कसर बची नहीं टूट में!" बोले वो,
"अच्छा, तो आपने स्वीटी को पैसे दे दिए, उसने इलाज करवाया?" पूछा मैंने,
"नहीं पता जी, फिर कभी बात नहीं हुई!" बोले वो,
"बात नहीं हुई? उसको फ़ोन करते?" पूछा मैंने,
"किया, लेकिन लगा ही नहीं, नेटवर्क क्षेत्र से बाहर!" बोले वो,
"तो बाद में कभी करते?" पूछा मैंने,
"हमने सोचा, मुसीबत टली, सो दूर ही भली!" बोले वो,
"चलो, अच्छा? फिर ये कैसे पता कि वो क़ुतुब एन्क्लेव में रहती है?" पूछा शहरयार ने!
"दो-तीन महीने पहले किसी ने नंबर माँगा था, तब उसने ही बताया था!" बोले वो,
"अच्छा,मतलब, ज़रूरत हुई तो बात हो सकती है?" बोले वो,
"देख लेंगे!" बोले वो,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
"अच्छा, फिर क्या किया आपने?" पूछा मैंने,
"गुरु जी, दो महीने तो डर में बीत गए, अब क्या करें! लालच के आगे, सब डर बेकार!" बोले वो,
"मतलब फिर से वही धन?" कहा मैंने,
"हाँ गुरु जी!" बोले वो,
"अच्छा, फिर राखी ने कुछ नहीं बताया?" बोले शहरयार!
"कमाल तो यही है! उन्हें न कुछ दीखता है, न कोई डर ही! न सांप, न बिच्छू!" बोले वो,
"पानी जो पिलाया था उस बाबा को!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले विनोद जी!
"सकता नहीं है!" बोले शहरयार!
"अच्छा, अब कि कौन आया?" पूछा मैंने,
"अब कि बार हमने अच्छी तरह से पड़ताल की! अब चाहे कुछ भी हो! अब माल निकलना ही चाहिए, वहां कोई भी ताक़त हो, देखी जायेगी! ऐसा आदमी चाहिए था!" बोले वो,
"मिला कोई आदमी ऐसा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! बिल्ला अघोरी!" बोले वो,
"वाह! अघोरी चले धन ढूंढने!" कहा मैंने, हँसते हुए!
"सुनो तो सही गुरु जी! आदमी में दम था!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले अनिल जी!
"बताओ फिर इस बिल्ला अघोरी के बारे में!" कहा मैंने,
"ये रहने वाला था उरई का! यू.पी. का!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उम्र कोई पचास साल, भारी बदन, अघोरी कम और जल्लाद सा ज़्यादा!" बोले विनोद!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसने मांगे ढाई लाख! बस जगह पर माल हो! माल होगा तो वहीँ पैसे दे देगा वापिस! ये बोला वो!" बोले वो,
"अरे वाह! सेठ अघोरी!" बोले शहरयार!
"हाँ जी! फोर्ड की कार रखता है!" बोले वो,
"क्या बात है!" बोले शहरयार!
"तो लाये उसे उधर?" बोला मैं,
"हाँ जी! उसने उतरते ही, जगह की पैमाइश सी कर दी! छह जगह बतायीं उसने कि यहां पर मुसलमानी माल दबा है! कई ऊंटों के बराबर!" बोले वो,
"और तुम तीनों फूल के कुप्पा!" बोले शहरयार!
"कौन नहीं होगा जी!" बोले वो,
"हाँ, होगा ही होगा! जब साथ में जल्लाद अघोरी हो तो!" बोले शहरयार!
"और माल की रक्षा कौन कर रहा है, ये नहीं बताया?" पूछा मैंने,
"बताया न गुरु जी?" बोले विनोद जी!
"कौन?" पूछा मैंने,
"दो तो चुड़ैल और दो ख़बीस!" बोले वो,
"हैं? चुड़ैल और ख़बीस? एक साथ?"' बोले शहरयार जी!
मुझे हंसी आ गई! अब मैं इस बिल्ला अघोरी की असलियत, तभी समझ गया! इसीलिए हंसी आ गई मुझे, गिलास नीचे रख देना पड़ा मुझे तो!
"अच्छा, बताओ आप आगे!" बोला मैं,
"उसने कहा, कि एक तो बकरा चाहिए, वो एक रात भेंट चढ़ाएगा चुड़ैलों को खुश करने के लिए, उसी रात, उस बकरे का मांस पकेगा, सभी को खाना होगा, जो न खाता हो, वो तो रुकने की सोचे ही नहीं! और दो बोतल शराब की लग जाएंगी!" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"और खबीसों को पसंद होती हैं लड़की, गोरी-चिट्टी, 'जूठन' न हो, वो लानी होंगी, तो जी हमने तो मना करी, कि ये तो नहीं ला सकते, तो वो बोला, बीस हज़ार और लगेंगे, लड़कियां आ जाएंगी, उसके सम्पर्क हैं आगरे में बहुत!" बोले वो,
"वाह भाई वाह!" कहा मैंने,
"तो ऐसा करने से चुड़ैल भी खुश और ख़बीस भी खुश और नाच नाच वे बोलेंगे, लो जी, अपना माल सम्भालो, हम चले अपने अपने बसेरे!" बोले शहरयार, ठहाका मारते हुए!
अब मुझ से भी न रहा गया! मैं भी हंस पड़ा! बोला ही उन्होंने इस सन्दाज में था कि हंसी आती ही आती, वे दोनों भी हंस ही पड़े, वो लग बात कि हंसी में वो दम नहीं था!
"अरे सुनो तो सही आप!" बोले विनोद जी!
"हाँ जी, सुनाओ!" बोले शहरयार!
"अपने साथ एक लाया था चला और एक चेली!" बोले वो,
"चेली भी?" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोले वो!
"चेली भी चर्राट एकदम! तीस की होगी, साईं बोलती थी वो उस अघोरी को!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"अच्छा, अच्छा! और वो ढाई लाख?" पूछा शहरयार जी ने!
"हमने बात ही नहीं की जी उस बारे में तो!" बोले वो,
"कई ऊंट भर माल जो दबा था!" बोले शहरयार!
"हाँ जी, यही बात!" बोले अनिल जी!
"तो काम शुरू हो गया!" कहा मैंने,
"हाँ जी, अगले ही दिन, वो बिल्ला साईं, चेले-चेली के साथ जा, सारा सामान ले आया जो भी लगना था, शराब, श्रृंगार, साड़ी, लिपस्टिक, काजल, बकरा और पता नहीं क्या क्या!" बोले वो,
"अजी आपको तो माल से मतलब!" बोले शहरयार!
''और क्या जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर? उसने कहा कि लड़कियां तो कल पहुंचेंगी, आज चुड़ैलों को गिरा लेता हूँ, और तुम लोग, कमरे में बैठ जाओ, बाहर न निकलना, जब तक बुलाएं नहीं, काम खतरनाक है बहुत! और जी, कमरे में, पता नहीं कैसी कैसी धूनियां जला दीं!" बोले वो,
"रक्षा के लिए!" कहा मैंने,
"हाँ जी, यही बोला था वो तो!" बोले वो!
"अच्छा जी! फिर क्या हुआ?" पूछा शहरयार जी ने!
''जी रात को तो काम शुरू हुआ!" बोले विनोद जी!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी झूठ नहीं कहूंगा, बन्दे में दम तो था!" बोले अनिल जी!
"कैसे? क्या किया उसने?" पूछा शहरयार ने!
"नौ बजे उसने काम शुरू किया था, करीब ग्यारह बजे, उसका चेला आया, और प्यारे लाल को बुला ले गया, अब हमारी धड़कनें बढ़ने लगीं!" बोले वो,
"हाँ, कि कहीं निकाल ही दिया हो माल सारा बाहर!" बोले शहरयार!
"हाँ जी!" बोले वो,
"अच्छा, क्या देखा प्यारे लाल जी ने?" पूछा मैंने,
"करीब आधे घंटे बाद वे लौटे थे, चेहरे पर चिंता तो थी, ये हम ताड़ ही गए थे, फिर भी हमने पूछा उनसे कि हुआ क्या?" बोले वो,
"क्या बताया उन्होंने?'' पूछा मैंने,
"उन्होंने बताया कि बिल्ला साईं ने अपने तंत्र से, एक जगह खोल दी है!" बोले वो,
"एक जगह? मतलब?" पूछा मैंने,
"मतलब, उसने अपने चेले को कहा था कि उस एक ख़ास जगह पर, खोदना, करीब ढाई फ़ीट और वापिस आ जाना!" बोले वो,
"अच्छा, तो चेले ने खोद दी थी!" बोले शहरयार!
"हाँ जी, लेकिन फिर बताया उन्होंने...." वे चुप हुए, बाहर कोई आया था, अनिल जी उठे और चले बाहर, और कुछ ही देर में लौट आये!
"क्या हुआ, कौन है?" पूछा विनोद जी ने,
"अहमद है, बोला कि जाऊं या मंगवाना है कुछ?" बोले वो,
"मंगवा लो फिर?" बोले विनोद,
"हाँ दे दिए पैसे, ले आएगा, बोल दिया है!" बोले वो,
"जाएगा कैसे?" पूछा उन्होंने,
"स्कूटी है उसके पास!" बोले वो,
"फिर तो ठीक!" बोले वो,
"आओ, बैठो!" बोले शहरयार!
वे बैठ गए, खाली तशतरी, रख दी दूसरी जगह!
"हाँ, तो गढ्ढा लगा दिया, फिर?" पूछा शहरयार जी ने,
"जब गड्ढे लगाया, तो गड्ढे में से, उस बिल्ला साईं ने, कुछ बाहर निकाल कर दिखाया!" बोले वो,
"क्या था वो?" पूछा मैंने,
"प्यारे लाल ने बताया कि वो शायद, किसी कुत्ते या सियार के सर की खोपड़ी थी!" बोले वो,
"कुत्ते की या सियार की?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, यही थी!" बोले वो,
"बिल्ला ने कहाँ रखी वो?" पूछा मैंने,
"अभी तो नहीं है वहाँ, हमने दबा दी थी बाद में!" बोले वो,
"आपने भी देखी थी इसका मतलब?" पूछा शहरयार ने!
"हाँ जी, कुत्ते की तो नहीं थी, सियार की ही रही होगी, जबड़ा बड़ा ही नुकीला और लम्बा सा था, दांत भी बड़े थे और ज़्यादा भी लगे!" बोले वो,
"सियार की ही होगी!" कहा मैंने,
"होगी जी!" बोले विनोद,
"कुछ और निकला?" पूछा मैंने,
"बता रहा हूँ जी!" बोले वो,
"हाँ, बताओ!" कहा मैंने,
"प्यारे लाल तो लौट आये थे, लेकिन फिर मुझे बुलाया करीब साढ़े ग्यारह बजे!" बोले विनोद जी!
"आप गए?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, गया!" बोले वो,
"कुछ निकला था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हड्डियां!" बोले वो,
"इंसानी?" पूछा मैंने,
"बिल्ला ने कहा कि वो इंसान की ही थीं, चुड़ैलों को बिठाने के लिए, इंसान की बलि दी गई थी! ये सुनकर, मुझे तो चक्कर सा आने लगा था गुरु जी! सच कहता हूँ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मुझसे तो देखा नहीं गया, मैं तो लौट आया वापिस, फिर ये अनिल जी गए थे!" बोले वो,
"अच्छा, क्या देखा आपने?" पूछा मैंने,
"अभी रुको! गर्मी सी आ रही है! डालो यार पैग!" बोले शहरयार!
"हाँ, हाँ!" बोले अनिल जी,
और बड़े दबे, दो पैग बना दिए, एक मेरे लिए औे एक शहरयार जी के लिए!
"गर्मी सी आई?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"वो क्यों!" पूछा मैंने,
"इनकी करतूतें देख कर!" बोले वो,
"अब बता तो रहे हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, बताएंगे ही!" बोले वो,
"हाँ अनिल जी?" बोला मैं,
"गुरु जी, जब मैं वहां गया, तो वो चेला, उन हड्डियों को एक टाट में भर रहा था, बिल्ला मंत्र पढ़ता जा रहा था और कुछ फेंके जा रहा था गड्ढे में!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जो चेली थी, वो लगी झूमने फिर तो!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"इंसान! इंसान! ये बोले जा रही थी!" बोले वो,
"इंसान?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! बिल्ला ने बताया कि उसको इंसान की बलि चाहिए, वो मना लगा और बकरे की बलि चढ़ा देगा फिर!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"मुझे तो लगा बहुत डर! मैं तो हुआ वहां से नौ दो ग्यारह!" बोले वो,
"अच्छा! माल नहीं चाहिए था?" बोले शहरयार, कंधे पर हाथ मारते हुए उनके!
"माल तो चाहिए था, सो तो ठीक, कहीं मुझे ही न देख ले, झपट पड़े! मेरे तो प्राण ही निकल जाते!" बोले वो,
मैं हंसा ज़ोर से! शहरयार भी!
"खेली-खायी चेली होगी!" बोले शहरयार!
"हाँ, पढ़ी-पढ़ाई!" कहा मैंने,
"अब जो भी कहो, माहौल बड़ा ही डरावना हो गया था उस समय तो!" बोले वो,
''समझता हूँ मैं!" कहा मैंने,
"सच में, हमारा कोई साबका नहीं पड़ा ऐसी चीज़ों से कभी भी!" बोले विनोद जी!
"इस बार तो पड़ा न!" बोले शहरयार!
"और सुनो!" बोले वो,
"हाँ, सुनाओ!" कहा मैंने,
"तो गुरु जी, मैं तो चला आया था वहां से, मारे डर के कहीं गिर जाता तो समझो जान चली जाती! मेरी तो इतने में ही हिम्मत टूट गई थी!" बोले अनिल जी,
"अच्छा! समझा! फिर?" पूछा शहरयार ने!
"तो जी, हम अपने कमरे में आ, आराम से बैठ गए थे, खिड़की बंद कर दी थी, कि जो होगा सो तो पता चल ही जाएगा!" बोले वो,
"हाँ, चल ही जाता!" कहा मैंने,"लेकिन गुरु जी?" बोले विनोद जी,
"हाँ, क्या हुआ था? कुछ विशेष?" पूछा मैंने,
"करीब, रात एक बजे, दो चीखें आईं बाहर से! हमारे हाथ-पाँव फूले! क्या करें! क्या न करें? किसको आवाज़ दें? क्या हो गया? सब ठीक तो हैं? इसी चिंता में, हलक सूख गया हमारा!" बोले वो,
"क्या हुआ था? देखा किसी ने?" पूछा मैंने,
"बड़ी हिम्मत करी हमने, कहीं कोई मर-मुरा न जाए, यही सोच, बाहर निकले, एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए!" बोले वो,
"क्या देखा तुमने?" पूछा मैंने,
"हमने देखा, कि गड्ढे के पास, चेला, लहूलुहान पड़ा है! चेली, ज़मीन पर लेटी है और वो बिल्ला, बिल्ला वहाँ था ही नहीं!" बोले वो,
"नहीं था? भाग गया क्या?" पूछा शहरयार ने!
"चीखें सुन, चौकीदार बाहर आ गया था, उसके पास टोर्च थी, आदमी हिम्मत वाला है वो, बहादुर, उसने ढूँढना शुरू किया और वो हमें मिल गया!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"करीब बीस फ़ीट दूर, ज़मीन पर औंधे मुंह पड़ा हुआ!" बोले वो,
"सभी ज़िंदा थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, नब्ज़ चल रही थी, किसी तरह से, अस्पताल ले गए उन्हें उसी रात, चेली तो ठीक थी, बस बेहोश ही हुई थी, लेकिन बोल कुछ नहीं रही थी, चेले का सर फट गया था, एक बांह टूट गई थी, उसको भो होश आ गया था!" बोले वो,
"और बिल्ला साईं?" पूछा मैंने,
"उसकी हालत गम्भीर थी, एक तो शराब पिए हुए था, दूसरा, पुलिस का लफड़ा! कहर, बच गया वो! वो बचा तो बात सम्भली और हम भी बच गए, कुछ नहीं बताया उसने!" बोले वो,
"तो काहे का दमदार बन्दा?" बोले शहरयार!
"था जी! वो फिर से लौटा!" बोले वो,
"क्या?" चौंके शहरयार और मैं!
"हाँ जी! इस बार उसने कहा, कि कोई पैसा नहीं लगा, जो माल निकलेगा, उसका आधा लगा वो, जो गलती उसने पहले की थी, अब नहीं करेगा! और यकीन से कहता है, काम करके दिखाएगा वो!" बोले वो,
"ओहो! तो रुकी गाड़ी में इंजन फिर से लगा!" बोले शहरयार!
"जी!" बोले वो,
"अब कब आया वो?" पूछा मैंने,
"तीन महीने पहले!" बोले वो!
"अच्छा! पूरी तैयारी के साथ!" कहा मैंने,
"हाँ, इस बार उसके साथ एक बूढा सा साधू भी था, वो उसको छोटे बाबा बुलाता था!" बोले वो,
"तो वे चारों लौटे?" पूछा मैंने,
"नहीं, तीन!" बोले वो,
"कौन कौन?" पूछा मैंने,
"एक बिल्ला साईं, एक छोटे बाबा और एक चेला!" बोले वो,
"पहले वाला?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, वही, मदन नाम बताया था उसने!" बोले वो,
"तो काम शुरू हो गया?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, इस बार, पहले छोटे बाबा ने, ज़मीन में कुछ गड़वाया, बारह जगह!" बोले वो,
"अच्छा, क्रिया के लिए काम किया!" कहा मैंने,
"पता नहीं जी!" बोले वो,
"क्या गड़वाया था?" पूछा मैंने,
"दांत, इंसानी दांत!" बोले वो,
"मसानी-क्रिया!" कहा मैंने,
"हाँ जी, यही बोले थे वो!" बोले वो,
"समझा! छोटे बाबा चाहते होंगे, एक बार आमना-सामना हो जाए उस ताक़त से, सीधे ही, नाप-तोल लें, और फिर काम करें!" कहा मैंने,
"यही सोचा होगा!" बोले कंधे उचका कर!
"तो उस रात ही उन्होंने ये काम किया?" पूछा मैंने,
"जी उस दिन तो नहीं, अगले दिन, दिन में!" बोले वो,
"अच्छा, मतलब वे वहीँ ठहरे!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"हम्म्म! समझा!" कहा मैंने,
तभी दरवाज़े की घंटी बजी! विनोद जी उठ कर गए, कुछ देर बाद, सामान लेकर, लौट आये, खाना आ गया था!
"लगा दूँ खाना गुरु जी?" बोले अनिल जी,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"जी ठीक!" बोले वो,
"अच्छा, एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?" बोले अनिल जी,
"आपके साथ कुछ बुरा हुआ, या लगा कि कुछ गड़बड़ है?" पूछा मैंने,
"प्यारे लाल जी का हाथ टूट गया था, अनिल जी के दफ़्तर में चोरी हो गई थी, और मेरे यहां, भगवान का शुक्र है, कुछ नहीं हुआ!" बोले वो,
"बचे रहे तुम इसका मतलब है!" कहा मैंने,
"मतलब गुरु जी?" बोले अनिल जी,
"मतलब, तुम्हें कुछ वक़्त दिया गया!" कहा मैंने,
"वक़्त? किसने गुरु जी?" बोले वो,
"अभी भी नहीं समझे?" पूछा मैंने, और देखा शहरयार जी को!
"नहीं जी!" बोले वो,
"वहाँ कोई स्थान है शायद, जो मुझे लगता है, धन होगा, ये भी मान रहा हूँ, लेकिन बिल्ला की नीयत खोटी, तो सजा मिली, उन लड़कियों से गलती हुई, तो सजा मिली, आपको वक़्त दिया गया है, शायद सम्भल जाओ, नहीं तो अभी आप इस हाल में भी न होते!" कहा मैंने,
मेरी बार सुन, वे डर ही गए! एक दूसरे को देखने लगे!
"और तुम अभी तक नहीं समझे! बोले शहरयार!
"सुनो, वो बहादुर, उसकी पत्नी, बच्चे उनको क्यों नहीं हुआ कुछ अभी तक? वो क्यों बचे हुए हैं? सोचा?" पूछा मैंने,
"उनका क्या मतलब इस से गुरु जी, कुछ निकलता तो उसे भी दे ही देते!" बोले अनिल जी!
मैं और शहरयार, हंस पड़े!
"पैग बनाओ यार!" बोले शहरयार!
और बना दिए गए पैग! दे दिए हमें, हमने ले लिए और गिलास, खाली कर दिए, उठा लिया मसालेदार टुकड़ा!
"कोई स्थान गुरु जी? मतलब?" बोले अनिल जी!
"बता दूंगा, अभी तक तो ऐसा ही लग रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ, तो फिर क्या हुआ?" पूछा शहरयार जी ने,
"फिर?" बोले वो और.................!!
"आएगा समझ भी!" कहा मैंने,
"हाँ, अनिल, अब बताओ?" बोले शहरयार!
"गुरु जी, जब बारह जगह उन्होंने वो सामान गाड़ा तो पूरी तरह से तैय्यार हो गए थे वो, उनके अनुसार, वहां कोई बड़ी ही शक्ति है!" बोले वो,
"ये तो तय ही है!" कहा मैंने,
"अब ये शक्ति मुसलमानी रीत से बंधी है कि हिन्दुआनि, ये मालूम करना था उनको!" बोले वो,
"ठीक, हो सकता है कोई बड़ी ही शक्ति हो!" बोले शहरयार!
"तो छोटे बाबा ने जतन लड़ाए, सबसे पहले उन्होंने, ये देख लगाई कि उस जगह में माल कहाँ कहाँ दफन है, उसके बाद उन्होंने बिल्ला अघोरी से कुछ बातें कीं!" बोले वो,
"इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे वे लोग!" कहा मैंने,
"हना जी, यही बात तो तय भी हुई थी!" बोले वो,
"तो उस दिन शाम को, कोई चार बजे, हमें कुछ सामान लेने भेजा उन्होंने, अब सामान ऐसा था कि एक ही जगह मिले तो नसीब नहीं तो घूमो फिर!" बोले वो,
"तो आप लोग घूमे!" कहा मैंने,
"साफ़ है जी!" बोले वो,
"सामान मिल गया और ले आये!" जोड़ा मैंने,
"हाँ जी! सारा!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?'' पूछा मैंने,
"जब तक हम पहुंचे, तब तक, बाबा ने एक तलवार, एक सीताफल, एक चादर और एक बोरा फूस रखवा ली थी!" बोले वो,
"तलवार?" मैंने हैरत से पूछा!
"हाँ जी, वो ले क्र आये थे अपने साथ!" बोले वो,
"हैं? बाबा था या तलवारबाज?" बोले शहरयार जी!
"अब ये तो वो ही जानें!" बोले वो,
"अच्छा, अब, फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"फिर जी, करीब आठ बजे, काम शुरू हुआ!" बोले वो,
"माल कितनी जगह था?" पूछा मैंने,
"अरे हाँ! बाबा ने बताया कि वहां, हौद हैं, आठ, हर हौद में, एक एक ऊंट बराबर माल भरा पड़ा है, दो में, हीरे-मोती, पन्ना-माणिक और बहुमूल्य रत्न भरे पड़े हैं, जो एक भी मुट्ठी हाथ लग जाएँ तो सात पुश्तें संवर जाएँ!" बोले वो,
"इतना सारा माल?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तो अपनी चौदह पुश्तें संवरती दिखाई दीं होंगी तुमको तो?" बोले मज़ाक में शहरयार!
"बिलकुल! अपनी किस्मत पर भरोसा ही न हो हमें तो!" बोले वो,
"मुंह में पानी!" बोले शहरयार!
"हर जगह पानी, यों कहो!" कहा मैंने,
"सच ही कहा गुरु जी आपने!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" बोले शहरयार!
"तो आठ बजे के थोड़ा देर बाद, बाबा छोटे ने कहा, हाँ, छोटे बाबा ने कहा कि यहां माल तो मुसलमानी है लेकिन शक्ति हिन्दू है!" बोले वो,
"अच्छा, हो गया निर्णय!" कहा मैंने,
"हाँ साहब! गुरु जी!" बोले विनोद जी अब!
"करीब नौ बजे, बाबा ने हम तीनों को बुलवाया, और बोले, कि देखो, सीताफल को काटेंगे वो, इस से वहां की ताक़तें डरनी शुरू हो जाएंगी, उसके बाद, वे शक्तियों को सामने रखेंगे और वो ही शक्तियां उन्हें माल देंगी!" बोले वो,
"ओहो! धन का क़ुतुब मीनार दिखा होगा आप लोगों को तो!" बोले शहरयार!
"हाँ, पहाड़!" कहा मैंने,
"अच्छा, जी, फिर?" बोले वो,
"तो जी उन्होंने सीताफल काटा, तलवार से, काटते ही, सीताफल में से खून बहने लगा! ये देख क्र, हमारे तो पुर्ज़े ढीले होने लगे कि न जाने अब क्या हो आगे!" बोले अनिल जी!
''अच्छा, खून! फिर?" पूछा मैंने,
"और गुरु जी, उसके बाद जो हुआ वो तो.................." बोले थूक गटकते हुए वो!
"क्या हुआ उसके बाद?" पूछा शहरयार जी ने,
"उसके बाद..........बाबा ने बिल्ला साईं को कहा कि, वो आगे जाए और वो तलवार, एक जगह गाड़ दे आधी, और लौट आये!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने, अब तनिक आवेश सा चढ़ा था!
"फिर तो जैसे ही तलवार गाड़नी चाहि बिल्ला साईं ने, कि उसकी चीख निकली! और उसका बायां हाथ, कोहनी से चटका, उखाड़ फेंका किसी ने, और फेंका सामने छोटे बाबा के!" बोले वो,
"क्या?" बोला मैं!
"सच कह रहा हूँ, ईश्वर की सौंगध!" बोले वो,
''अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"खून से लथपथ, बिल्ला साईं की चीखें गूंजती रहीं, उसको कोई मार-पीट रहा था, उसके बाल, मालाएं, सब फाड़ डाले किसी ने, कभी ऊपर जा, कभी नीचे गिरे, कभी कमर टूटे और कभी ज़मीन पर रगड़ता चला जाए वो तो...!" बोले ख़ौफ़ज़दा आँखों से!
"और छोटे बाबा क्या कर रहे थे?" पूछा शहरयार ने!
'वे दौड़े, और पकड़ना चाह उस बिल्ला साईं को, बिल्ला साईं हाय! हाय! चिल्ला रहा था, बाबा जैसे ही पहुंचे, बाबा को दी किसी ने लात दबाकर, बाबा के मुंह से खून का फव्वारा छूट पड़ा! चीख-पुकार मच गई, हम जहाँ थे, वहीँ खड़े रह गए, पल में क्या से क्या हो गया था, समझ ही नहीं आया, बाबा को जैसे किसी ने पांवों से पकड़ा और सीधा ऊपर हवा में उठा दिया! पेड़ पर फेंक के मारा! बाबा की चीखें गूंजीं और शांत हो गए वो तो, इधर चेला, और हम तीनों, आव देखा न ताव, दौड़ लिए, जिसको जहाँ जगह मिले, मैं और प्यारे एक साथ भागे थे, हम कहाँ भागे, कुछ नहीं पता! एक जगह पीछे मुड़कर देखा भी, तो न वहां अनिल जी थे, न वो चला ही! साँसें रुकने को थीं हमारी, चेला बार बार गिर पड़ता था, मुझे बुलाता चिल्ला चिल्ला कर, मैं कहाँ तक मदद करता, मुझे अपनी जान की पड़ी थी! मैं तो सीधा भागता ही चला गया, क्या झाड़ी, क्या झंखाड़, क्या पेड़ और क्या गढ्ढा, सबको कूदता और फलांगते दौड़े ही जा रहा था!" बोले वो,
"ओह!" निकला मेरे मुंह से!
"फिर कहाँ रुके?" पूछा शहरयार जी ने,
"एक जगह, मैं गिर पड़ा! उठा, होशोहवास थे नहीं, बदहवास सा खड़ा हुआ, पीछे देखा, और जो देखा, मैं तो बेहोश ही होने लगा!" बोले वो,
"क्या देखा?" पूछा मैंने,
"मैंने देखा, चौदह-पंद्रह साधू, सभी हाथों में त्रिशूल लिए, वहीँ, ऊपर की तरफ खड़े थे! कुछ समझ नहीं आया जी, मैंने होश सम्भाले, और भाग लिया! एक जगह छोटी सी सड़क मिली, उसी पर दौड़ता रहा, सामने एक चौकी सी मिली, खाली, वहीँ रुक गया!" बोले विनोद जी!
"क्या? चौदह-पंद्रह साधू?" पूछा शहरयार ने!
"हाँ जी, सभी के सभी एक जैसे!" बोले वो,
"वस्त्रादि?" पूछा मैंने,
"नग्न थे शायद, या लंगोट हो, पता नहीं, भय के मारे इतना नहीं देखा, हाँ, सभी के हाथों में, त्रिशूल थे, लट्ठ भर के!" बोले वो,
अब शहरयार ने मुझे देखा, मैंने जो समझा, वो उन्हें आँखों में ही समझा दिया! ये मामला बस धन का ही नहीं था, वहां धन है, इसकी पुष्टि तो हो ही गई थी, लेकिन बिल्ला साईं और छोटे बाबा का क्या हुआ?
"बिल्ला साईं का क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"मर गया..." बोले वो,
"वहीँ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"एक महीने बाद" बोले वो,
"और छोटे बाबा?" पूछा मैंने,
"वे चले गए थे, उनको लेने कोई आया था उनका कोई जानकार, अब कहाँ हैं, पता नहीं!" बोले वो,
"और वो चेला?" पूछा मैंने,
"उसका भी नहीं पता" बोले वो,
"मतलब, कुल चार मौतें हो चुकी हैं. दो वो लड़कियां और दो वो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, अब बस हमारी देर है" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"हर समय डर लगा रहता है, किसी को भी देखो तो लगता है, कोई और ही न हो वेश में.....मत मारी गई हमारी तो.....अब...बचाइए गुरु जी.....आपकी शरण में हैं......पता नहीं क्या कर्म किये थे जो ये देखने को मिला, नहीं चाहिए धन हमें, भाड़ में जाए धन...हम ऐसे ही खा-कमा लेंगे, जैसे चल रहा है!" बोले वो,
"प्यारे लाल से कब बात हो सकती है?" पूछा मैंने,
"कल ही?" बोले वो,
"ठीक है, कल मिलवाओ!" कहा मैंने,
"अरे हाँ, वो चौकीदार?" पूछा शहरयार ने,
"वो भी चला गया था इस घटना के बाद, कि अब तक तो बचा रहा, कहीं हमारे लालच में आ गया तो...उसके बच्चे हैं छोटे छोटे...कौन खिलाएगा पिलाएगा? तो उसने भी नौकरी छोड़ दी!" बोले वो,
"अब वहां कोई नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, दरवाज़ा है, ताला पड़ा है, कोई नहीं जाता अब वहां, हम में से तो!" बोले वो,
"हिम्मत ही नहीं हुई होगी?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ जी, नींद ही उड़ गई हमारी तो" बोले वो,
"उसके बाद सब सामान्य ही रहा?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, घर में भी पत्नी का स्वास्थ्य गड़बड़ा गया है, पिता जी, बीमार..........मेरा छोटा बेटा.उसके गले में पता नहीं क्या हुआ है, डॉकटर समझ ही नहीं पा रहे...........काम-धंधा, सब चौपट हो गया है, पैसा आ नहीं रहा, घुसे ही जा रहा है!" बोले वो,
"यही हाल मेरे यहां भी है, घर में मातम सा छाया रहता है, बीवी से संबंध खराब हैं, बेटी ने अलग दिमाग खराब कर के रखा है, काम-धंधा तो न के बराबर ही है, दो बार दुर्घटना हो चुकी है, माँ जी का स्वास्थ्य ऐसा है कि एक पाँव घर में और एक पाँव अस्पताल में, पता नहीं किस मुहूर्त में वो जगह खरीदी थी हमने!" बोले वो,
''और प्यारे लाल?" पूछा मैंने,
"सबसे बुरा हाल! क़र्ज़ इतना है कि घर कब बिक जाए पता नहीं, किराए पर जाने की औक़ात नहीं बची, सब बीमार, वे खुद भी, दिल का एक दौरा पड़ चुका है, डॉकटर ने सलाह दी है आराम करने की, लेकिन आराम नहीं है नसीब में अब तो किसी के, सबकुछ इसी ज़मीन के कारण ही है, अब सब साफ़ है, बड़े से बड़े तांत्रिक को दिखाया, कुछ न हुआ, जैसे, काला साया कोई, जकड़े बैठा है हमें!" बोले वो,
"सब लालच का फल है!" बोले शहरयार!
"मानते हैं जी!" बोले वो,
"अच्छी-भली नकोर ज़मीन मिली, सत्यानाश कर लिया!" बोले शहरयार!
"नसीब हमारे!" बोले वो,
"फोड़ लिए!" बोले शहरयार!
"कोई शक नहीं!" बोले दोनों ही,
"हाँ गुरु जी?" बोले शहरयार!
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या हो सकता है?" बोले वो,
"बिन देखे जांचे नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
"देखा जाए?" बोले वो,
"देखना ही पड़ेगा!" बोले वो,
"कब?" पूछा उन्होंने,
"देर क्यों फिर, कल?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले उन दोनों से वो,
"जब चाहो आप!" बोले अनिल जी,
"ठीक है, पता बताओ?" बोले शहरयार,
"पता क्या? आज ठहर जाइये?" बोले वो,
"ठहर तो नहीं सकते न?" कहा उन्होंने,
"तो जैसा कहो आप?" बोले वो,
"चलो, कल सुबह बता देते हैं?" कहा मैंने,
"पक्का न गुरु जी?" बोले विनोद जी!
"हाँ, पक्का!" बोला मैं,
"लो!" बोले अनिल जी,
और एक गिलास दे दिया मुझे भर कर, एक शहरयार जी को!
"पहले देखूंगा मैं, हो सकेगा कुछ तो ठीक, नहीं तो ज़बरदस्ती कोई नहीं!" कहा मैंने,
"मंज़ूर है जी!" बोले विनोद!
"हम सोच रहे थे, कि कैसे न कैसे, ये ज़मीन निकल जाए तो तौबा करें और ऐसा कोई काम ही न करें फिर, थोड़े में ही खा लो, वो बढ़िया!" बोले वो,
"और जो पहले सोच ली होती?" बोले शहरयार!
"मालूम किसे था?" बोले वो,
"हाँ, ये भी बात है!" कहा मैंने,
"हमने सोची, माल गड़ा है, पुराना, चलो निकाल लेते हैं, वारे-न्यारे हो जाएंगे, हमें क्या पता था कि ऐसे वारे-न्यारे होंगे?" बोले, अपना गिलास पकड़ते हुए विनोद जी!
"गुरु जी, अब आप पहले तो ये बताओ, खाना लगाऊं?" बोले अनिल जी,
"अभी रुकिए ज़रा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"अच्छा गुरु जी?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"अब तक जो आपने जाना, उस से लगता क्या है?" बोले वो,
"यही कि, बिन जाए पता न लगे!" कहा मैंने,
"सो तो है, चल ही रहे हैं कल, लेकिन कोई और गड़बड़ तो नहीं होगी?'' पूछा उन्होंने,
"ये तो नहीं कह सकता, अब चूँकि आपने बाम्बी में बैठे, सोये साँपों को जगा ही दिया है, तो लाजमी है वे चौकस होंगे! अब हर पदचाप उनके लिए, एक दुश्मन की पदचाप ही होगी, समझे?" कहा मैंने,
"ओह! समझा!" बोले अनिल जी!
"तो अब क्या करें?" बोले विनोद जी!
"कल देखते हैं, क्या वजह है!" कहा मैंने,
"है भगवान! बस निबट जाए मामला ये!" बोले विनोद जी!
"देखो, अगर उधर माल है, और है, जैसा कि आपने बताया है, लेकिन देखा सिर्फ एक जेवर ही है, तो मान लिया जाए माल है, तो उसकी रक्षा कौन कर रहा है, ये जाना जाएगा, क्यों कर रहा है? किसकी कर रहा है?" बोला मैं,
"समझा!" बोले अनिल जी,
"अब होता क्या है, आप जानते हो, ये ज़मीन, जो उस तरफ की है, उधर बंजारों की भरमार रही है! बंजारे किस क़दर क्रूर और तांत्रिक रहे हैं, ये समझो आप, वे एक साथ कई कई इंसानों की गर्दन क़लम कर अपने देवताओं, देवियों को बलि चढ़ा दिया करते थे, और उन्हें, बिठाल दिया करते थे, अब देवता या देवी, सदैव तो होते नहीं, हाँ, आन कस दी जाती है, डोरा खेंच दिया जाता है, अमल पढ़ दिए जाते हैं आदि आदि, अगर कोई योग्य हो तो ले ले, उन्हीं तो बदले में जान दे दे और वो भी जुट जाए इस माल की रक्षा करने में ही एक सेवक की तरह ही!" कहा मैंने,
"ओह! ये तो किसी ने बताया ही नहीं?" बोले वो,
"वही तो?" बोला मैं,
"अब आपको बस ये बताया कि माल है, अब क्या चक्कर है, कौन सा चक्कर है, माल क्या है, क्या हुआ था, क्यों गाड़ा गया, किसका था, किस से लूटा, कौन मालिक है, ये नहीं जाना गया!" कहा मैंने,
"हाँ जी, यही तो चूक हुई!" बोले वो,
"अब नाम सुना हो तुमने, एक था लाखा, या लाखी, या लखौटी बंजारा, अपने वक़्त का सबसे अमीर बंजारा, क्रूर और लुटेरा! उसके पास इतने आदमी हुआ करते थे कि वो किसी राजा की सेना में टुकड़ी भेजता तो पैसे वसूलता था! मुझे एक बुज़ुर्ग ने बताया था कि उस लाखी बंजारे का माल, लाख जगह से ज़्यादा जगहों पर आज भी गड़ा है! एक भी जगह आज तक ढूंढी नहीं जा सकी! अब ये जो जगह है, कहा जाए तो उसी की ज़मीन रही होगी, अब ये बिन जाए पता नहीं चल सकता!" कहा मैंने,
"समझा जी!" बोले वो,
"देखो, मुझे लगता है, कि कुल मौतें हुईं चार, दो उन लड़कियों की, तीसरी ज़िंदा है अभी, जैसा आपने बताया, अब उसने ऐसा क्या नहीं किया जो उन दोनों ने किया और जान से हाथ धोना पड़ा, हाँ, ये मानता हूँ, खेल खेला इस बिल्ला साईं ने, और छोटे बाबा ने, इनको खिलाया, इनके आखिरी हथियार या पहुंच तक, उन्होंने जवाब दिया, उन्होंने, मायने, उस जगह के रक्षकों ने, जवाब में ही चौपट हो गए, अब चेला क्यों बचा, शायद, उसने खेल ही नहीं खेला था, वो तो यूँ समझो, एक सहायक या अर्दली अदना सा!" कहा मैंने,
"हाँ, अब सवाल ये, कि गलती तुम्हारी ही थी, कि तुम लड़कियों को अय्याशी के लिए ले गए वहां, तो तुम्हें क्यों नहीं मारा उन्होंने, जबकि तुम्हारा तो आना-जाना था? तो इसका मतलब मैं ये समझता हूँ कि शायद, तुम वो ज़रिया हो, जिसके द्वारा ये माल उसके उत्तराधिकारी को मिलेगा! अब वो कौन है, मैं भी हो सकता हूँ, शहरयार भी, शेखर जी भी, या फिर वो चौकीदार भी, जो मरे, वो उन्हीं हो सकते, वो लड़की भी नहीं और वो चेला भी नहीं! या फिर, कोई और, जो शायद अभी तक इस खेल में आया नहीं है, शायद आये, हाँ, न वो तुम हो, न ही अनिल जी और न ही वो प्यारे लाल! क्योंकि अगर वो तुम्हारा ही होता, तो इतना खेल ही न खेला गया होता और वो माल, तुम्हारे हाथ लग ही जाता! अब समझे आप? शायद, इसीलिए अभी तक, तुम तीनों ज़िंदा रख छोड़े हो उन्होंने!" कहा मैंने,
"अरे गुरु जी, मर जाएंगे हम तो!" बोले वो दोनों ही!
"अभी सुनो तो सही?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"सुनो, एक बात पर गौर नहीं किया तुमने?" पूछा मैंने,
"वो क्या जी?" बोले वो,
"राखी ने बताया था कि एक साधू आया था, उसने पानी पिया और कहा था कि ये जगह हमारी है, तुम चले जाओ यहां से?" कहा मैंने,
"हाँ जी, बताया तो था?" बोले वो,
"तुमने सोची कि, शायद कोई चलता-फिरता साधू आ गया होगा, और पानी माँगा होगा, पिला दिया गया पानी, यही न?" बोला मैं,
"हाँ जी, यही!" बोले वो,
"एक बात बताओ? तुम में से, या मुझ में, या शहरयार जी में ऐसा कौन सा धींगर(पहलवान) है जो एक बार में, तीन लीटर पानी पी जाए?" पूछा मैंने,
"मैं तो जी, पूरे दिन में भी शायद ही पीटा होऊं?" बोले अनिल जी!
"तो सोचो न?" कहा मैंने,
"हाँ जी, ये तो है!" बोले वो,
"अब पुराने लोगों की बातें तो करना मत, हम उनकी एड़ी के बराबर भी नहीं, गाँव-देहात का एक साठ साल का भी वो काम कर लगा जो हम अभी भी नहीं कर सकते!" बोला मैं,
"ये तो है जी! मेरे दादा जी, पांच सेर गुड़ और छाछ खड़े खड़े ही पी जाते थे!" बोले वो,
"लो, अब देखो आप!" कहा मैंने,
"सही कह रहे हो गुरु जी! मेरे पिता जी, मैंने देखा है उन्हें खाते हुए, पूरियां और आलू का साग, आ जाए सामने तो कड़ाहे वाले को पसीना आ जाए!" बोले शहरयार!
"यही तो बताया मैंने!" कहा मैंने,
"सच बात है!" बोले विनोद जी!
"तो तीन लीटर पानी, वो भी भी एक बूढा सा साधू!" कहा मैंने,
"माथा तो मेरा तभी ठनका था गुरु जी!" बोले शहरयार!
"हाँ, सोचने वाली बात ही है!" कहा मैंने,
"और फिर वो, चौदह-पंद्रह साधू!" बोले शहरयार!
"हाँ, अब एक बात और, गौर की?" पूछा मैंने,
"क्या जी?" बोले अनिल जी!
"बताता हूँ!" कहा मैंने, और अपने गिलास में, थोड़ी सी और डाल ली मदिरा! मदिरा खूब साठ दे रही थी इस समय!
"जी, बताएं, क्या छूट गया हम मूर्खों से?" बोले विनोद जी!
वे दोनों सच में ही बहुत परेशान थे, सच में, जैसे घुटने टूट चुके हों उनके और अब लाचार से बस, मौत का ही इंतज़ार कर रहे हों, एक अनचाहा डर क़ाबिज़ था उन पर! वे कई कई बार तो रुआंसे हो जाते, बच्चों का ख्याल आता तो और ज़्यादा, गम्भीर से हो जाते! समझ ही रहे थे कि लालच के कारण क्या से क्या हो गया था! सोचा था कुछ और और हाथ लगा कुछ और, अब न फेंके ही बने, न रखे ही बने!
"एक बात बताइए, वो साधू था जिसने पानी माँगा!" कहा मैंने,
"हाँ जी, राखी ने तो यही बताया था!" बोले विनोद जी,
"और आपने चौदह-पंद्रह साधू भी देखे थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, ठीक सामने!" बोले वो,
"अब सोचिये, भला साधुओं को, धन से क्या लेना-देना? भला धन उनके किस काम का? क्या करेंगे वो धन का? आजकल के स्वाधुओं की तरह तो होंगे नहीं वो, जो धन के लिए, पता नहीं क्या क्या करते फिरते हैं, आये दिन खबरें आया करती है?" कहा मैंने,
"अरे हाँ? ये तो सोचा ही नहीं?" बोले अनिल जी!
"गुरु जी, वो रक्षक भी तो हो सकते हैं?" बोले विनोद जी,
"हाँ, हो सकते हैं!" कहा मैंने,
"तब क्या सम्भव न होगा ऐसा?" बोले वो,
"अवश्य ही होगा, यदि ऐसा मान लिया जाये कि हाँ, वे रक्षक ही हैं, तो उस बारह साल के लड़के को, चौकीदार को, उसकी पत्नी को क्यों कुछ नहीं कहा? बस जेवर ही वापिस ले गए ना?" पूछा मैंने,
"हाँ, नहीं तो मार ही देते?" बोले वो,
"और क्या, ज़रा सोचिये तो?" कहा मैंने!
"अरे गुरु जी, निकालिये इस झंझट से हमें तो, नहीं तो सोच सोच के ही हमारे हार्ट-फेल हो जाएंगे, बच्चे बिलखेंगे सो अलग...." बोले अनिल जी!
"अब शेखर जी ने कहा है तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा!" कहा मैंने,
"जी! बस गुरु जी, शरण में ले लो! रख दो हाथ सर पर!" बोले वो,
"अभी देख तो लें!" कहा मैंने,
"भाई अनिल, विनोद! सुनो!" बोले शहरयार!
"जी?" बोले दोनों!
"देखो, कल चलते हैं, देखते हैं क्या कहानी है, अब बज गए हैं साढ़े दस, खाना खाते हैं और चलते हैं घर को! कल सुबह, बात करता हूँ तुमसे, चलते हैं!" बोले वो,
"जी, जैसा आप कहो!" बोले वो,
तो इसके बाद, हमने खाना खाया, थोड़ी सी और ली मदिरा और करीब साढ़े ग्यारह बजे, हम वापिस हो गए! मैं अपने निवास चला गया और शहरयार जी अपने!
सुबह हुई, तो हल्की सी बारिश हुई थी, लेकिन मौसम ठीक-ठाक ही था, पिछली रात तो जमकर बरसात हुई थी, उसका ही असर बाकी था अभी तो! पेड़, पौधों में जीवन-रस पड़ चुका था, हरे हो उठे थे! पक्षीगण खूब आनन्दित थे! करीब नौ बजे शहरयार जी का फ़ोन आया, वे साढ़े नौ बजे लेने आने वाले थे मुझे, मैंने हाँ की, कुछ हल्का-फुल्का सा चाय-नाश्ता किया, साढ़े नौ बजे, वे आये और उनसे मुलाक़ात हुई और हम चल दिए!
"ये भी फंस ही गए!" बोले वो,
"कच्चा लालच!" बोला मैं,
"हाँ, उसी में!" बोले वो,
"अरे एक काम करो?" बोला मैं,
"हुक़्म!" बोले वो,
"अनिल या विनोद से कहो कि वो, हो सके तो स्वीटी को बुला लें, उस से बात हो जाए तो कुछ शुरूआती पता चले!" कहा मैंने,
"हाँ, ये ठीक रहेगा!" बोले वो,
तो गाड़ी एक तरफ लगाई, और कॉल की अनिल जी को, उनको बताया, उन्होंने कहा कि कोशिश करते हैं, अगर मिल गई तो बुला लेंगे! और करीब पंद्रह मिनट बाद, खुद फ़ोन करने को कहा उन्होंने!
पंद्रह मिनट भी नहीं बीते थे कि कॉल आ गई, स्वीटी कहना थी कुछ पता नहीं चला, उसने मकान पहले ही खाली कर दिया था, अब कहाँ थी, कुछ नहीं पता था, उसकी एक जानकार लड़की से ये पता चला था उन्हें, जो हमें उन्होंने बताया!
"नहीं है जो वो तो!" बोले वो,
"अब नहीं है तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"पहले दफ्तर ही चलें न?" बोले वो,
"हाँ, वहीँ?" कहा मैंने,
"हाँ, वहीँ जाना होगा!" बोले वो,
"तीनों वहीँ हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, नौ बजे से ही!" बोले वो,
"तो वहीँ चलो फिर!" कहा मैंने,
तो हम, घंटे भर में वहां पहुँच गए, वहां गए तो तीनों ही मिले, प्यारे लाल अब बस नाम के ही प्यारे रह गए थे, देह सूख रही थी, आँखों के नीचे काले धब्बे पड़े थे, और चेहरे पर मुराडंगी सी छाई थी! कुछ ज़्यादा ही गम्भीर होते हम उनसे तो शायद दूसरा दौरा भाई आ ही जाता! इसीलिए ज़्यादा नहीं छेड़ा उन्हें, वे जो बोलते, उसमे ही हाँ-हूँ करते जाते हम!
"चाय, कॉफ़ी?" पूछा विनोद जी ने,
"चाय मंगा लो यार!" बोले शहरयार जी,
"साठ में क्या?' पूछा उन्होंने,
"कुछ भी, बिस्कुट नहीं बस!" बोले वो,
"ठीक!" बोले वो,
और खुद ही चले गए बाहर, किसी लड़के से बात की और लौट आये वापिस! पानी पिलाया हमें, हमने पानी पिया!
"गुरु जी, हालत बहुत खराब है, बता दी होगी?" बोले प्यारे लाल जी,
"हाँ, कल बातें हुईं हमारी!" कहा मैंने,
"बचा लो बस!" बोले वो,
"चिंता मत करो!" कहा मैंने,
"कभी नहीं की जी, अब देखो, हाल मेरा, साल भर पहले देखते तो अब मैं आधा भी नहीं बचा!" बोले वो, गम सा खाते हुए!
"भैय्या! धन का माल ऐसा ही होय!" बोले शहरयार जी!
"निचुड़ गए जी हम तो!" बोले वो,
"दिख रहा है!" बोले शहरयार!
"कुछ हो सके तो देख लो, नहीं तो अब कोई कसर नहीं, कब लकड़ियों में लग जाऊं, पता नहीं जी!" बोले वो,
"अभी चल रहे हैं, देख लेते हैं!" कहा मैंने,
और अपना चश्मा उतार, हाथ से, आंसू पोंछ लिए अपने उन्होंने!
"जी गुरु जी!" बोले प्यारे लाल,
कुछ ही देर बीती कि चाय लेकर आ गया एक लड़का, चाय के साठ पैंटीज थीं, कुछ नमकपारे भी, तो फिर हमने चाय पी, कुछ देर आसपास की बातें की, आज मौसम ठीक था, कोई बारिश नहीं हुई थी और सूरज भी निकले ही हुए थे, कुल मिलाकर, एक आम सा ही दिन नज़र आता था वो दिन!
"हाँ अनिल?" बोले प्यारे लाल,
"हाँ जी?" बोले वो,
"खाना?" बोले वो,
"खाना ले आएंगे, या खा लेंगे रास्ते में ही?" बोले वो,
"अभी फिलहाल तो कोई ज़रूरत नहीं, दोपहर में देख लेंगे!" कहा मैंने,
"जी, जैसा आप कहें!" बोले वो,
और इस तरह से चाय पी ली हमने, उसके बाद, एक लड़के को बिठा, विनोद, अनिल, प्यारे लाल और हम, निकल पड़े उस जगह के लिए! अब देखा जाए कि कैसी है वो ज़मीन और क्या ख़ास है, किसने ये आपाधापी मचाई है और क्या वजह है? बिन जाए तो पता चले नहीं था, इसलिए जाना ज़रूरी था! अनिल हमारे साथ ही आ बैठे थे, मैं पीछे बैठा था, रास्ता भी साफ़ ही था, बातें करते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे!
"स्वीटी का कोई पता नहीं चला?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, कोई पता नहीं!" बोले वो,
"खाली कर गई होगी मकान?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी, यही कहा उसकी जानने वाली ने!" बोले वो,
"मिल जाती तो कुछ मालूम पड़ ही जाता, खैर....अब नहीं है तो क्या किया जाए!" कहा मैंने,
"हाँ जी, मिल जाती तो बात हो जाती आपकी!" बोले वो,
बातें करते, और रास्ते में भुट्टा ले, खाते खाते हम आखिर उस तरफ मुड़ ही गए! जगह तो साफ़-सुथरी ही थी आसपास की, कुछ बड़े काम चल रहे थे, इसीलिए बड़े बड़े ट्राली-ट्रक अदि भी आ जा रहे थे! ट्रेक्टर भी काम पर लगे थे अपने!
"अब काम होने लगा है इधर!" कहा मैंने,
"हाँ जी, काम तो ज़ोरों पर चल रहा है!" बोले वो,
"सड़कें भी बन रही हैं?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी, इण्टर-कनेक्टिविटी के लिए, और फिर, बड़ी सड़क तक जुड़ने लगेंगी ये फिर!" बोले वो,
"हाँ, अब कुछ ही सालों में ये जगह भी बदल जायेगी!" कहा मैंने,
"बिलकुल जी, इसीलिए तो हमने ले ली थी, लेकिन, हमें तो ग्रहण ही लग गया गुरु जी!" बोले वो,
"कोई बात नहीं, देखते हैं!" कहा मैंने,
"वो, उधर जाना है!" बोले वो,
और पीछे से हॉर्न बजा, ये विनोद थे, उन्होंने इशारा किया और आगे चली गई गाड़ी उनकी! और हम उनके पीछे पीछे चल दिए! यहां तक तो वो जगह, बीहड़ से ज़्यादा कुछ नहीं लगती थी, पथरीला क्षेत्र ही है! कुछ पेड़ ज़रूर लगे हैं, कुछ जंगली से और कुछ शीशम के, शीशम काफी पुराने समय से पसंदीदा पेड़ रहा है भारत में लोगों का, मज़बूर भी होता है और इसकी लकड़ी भी शानदार होती है! घना भी होता है और छायादार भी! तो ये अमूमन हर जगह ही मिल जाएगा, बड़ा जीवट है इस पेड़ में! बीज छोटा है, हवा के साथ उड़ जाता है और, जगह उपयुक्त, यहां मिले, लगा जाया करता है! तो यहां काफी पेड़ थे शीशम के! कुछ बड़े भी और कुछ अलग तरह के भी!
"ये है जी बाउंड्री हमारी!" बोले वो,
मैंने बाउंड्री देखी, ईंटों से बनायीं हुई थी, एक कच्चा सा रास्ता था, आसपास दूर दूर तक, फिलहाल तक कोई बसावट नहीं थी, हाँ, उन गिनेचुने मज़दूरों के झोंपड़ों के, जो यहां रह रहे थे, मज़दूरी के लिए!
तो एक जगह पर, गाड़ी खड़ी मिली हमें विनोद जी की, हमारी भी वहीँ आ खड़ी हुई, और हम उतरे! मैंने सरसरी नज़र दौड़ाई, लेकिन कुछ भी असामान्य सा नहीं लगा उधर! दरवाज़ा खोला प्यारे लाल जी ने, चाबी उन्हीं के पास थी, एक बड़े से दरवाज़े में ही एक छोटा सा दरवाज़ा था, वही खोला था, प्यारे लाल जी अंदर गए झुक कर, फिर विनोद जी, फिर मैं और फिर से दोनों भी आ गए! जैसे ही मैं उठ कर खड़ा हुआ, मुझे एक तेज गंध आई! जैसे वहां पर, तैलाहुति सी दी गई हो! जैसे अभी अभी कोई हवन या यज्ञ समाप्त हुआ हो! ये गंध हर जगह फैली थी!
"उधर आइये गुरु जी!" बोले प्यारे लाल जी,
मैं उस गंध से निबट ही रहा था अभी कि उनकी आवाज़ से चौंक पड़ा!
"हाँ, चलिए!" कहा मैंने,
अनिल जी, पानी की पत्तलें ले आये थे, गाड़ी में से निकाल कर, अब वे हमारे साथ चल रहे थे,
"वो, उधर कमरे बने हैं, वहीँ जाना है!" बोले अनिल जी!
"हाँ चलो!" कहा मैंने.
हम उन कमरों तक आ गए, वहाँ अभी तक, रस्सियाँ बंधी थीं, कुछ टूटा-फूटा सा सामान भी पड़ा था, एक झाड़ू भी दीवार सहारे रखी थी, चूल्हा जहाँ जलता होगा, वो जगह भी काली पड़ी थी, कुछ ईंटें भी पड़ी थीं, और कुछ प्लास्टिक के बोरे से!
"ये हैं जी, दो कमरे ये रहे, एक इसके पीछे है, जहां वो चौकीदार रहा करता था!" बोले प्यारे लाल जी!
"अच्छा!" कहा मैंने,
और विनोद से पानी लिया, पानी पिया मैंने, चेहरा भी पोंछ लिया अपना!
"अब यहां कोई नहीं रहता?" पूछा मैंने,
"कहा तो है, लेकिन आया कोई नहीं अभी तक!" बोले प्यारे लाल,
"चलो, आ ही जाएगा!" कहा मैंने,
"अनिल?" बोले विनोद जी,
"हाँ?" जवाब दिया उन्होंने,
"अंदर, फोल्डिंग-पलंग तो होगा?" बोले विनोद,
"देख लो?" बोले वो,
"आता हूँ! चाबी दो!" बोले वो,
"लो" बोले वो, चाबी ली उन्होंने, और चले कमरे की तरफ!
"यहां उस बिल्ला साईं ने गढ्ढा कहाँ लगाया था?" पूछा मैंने,
"उस तरफ है, दिखाऊं?" बोले अनिल जी,
"हाँ, दिखाना?" बोला मैं,
"आओ जी!" बोले वो,
और हम चल पड़े उस गड्ढे को देखने! पहुंचे, गढ्ढा, ढाई फ़ीट चौड़ा रहा होगा, अभी तक खुदा पड़ा था, मिट्टी भर गई थी थोड़ी सी, कुल दो फ़ीट गहरा रहा होगा!
"और वो पेड़? साँपों वाला?" पूछा मैंने,
"वो रहा जी!" बोले वो,
मैंने पेड़ को देखा, नया पेड़ नहीं था वो! पुराना था, उसकी छाल में गांठें पड़ने लगी थीं, कम से कम पचास बरस का मानो उसको! पेड़ घना था और बड़ा भी था! एक आदमी तने के पीछे छिप जाए तो पता भी न चले!
"आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वे और चल पड़े मेरे साथ..............अचानक ही................!!
