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वर्ष २०१३ विंध्याचल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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न बोली कुछ भी! बस क्रोध में ही देखे! 

और तभी प्रकाश कौंधा उस कन्या के बायीं तरफ! और प्रकट हआ एक भीमकाय गान्धर्व! भुजाएं, किसी भरे-पूरे वृक्ष के तने समान! जंघाएँ,गजराज जैसी! सीना, पत्थर सा! 

आभूषण ही आभूषण धारण किये। माथे पर, एक लाल रंग का गोल तिलका! एक मुष्टिका में ही, किसी पाषाण की चट्टान को चूर्ण करने का सामर्थ्य रखने वाला! ऐसा था वो भीमकाय गान्धर्व! "ये गांधर्व-कन्या ऋतुक्षा हैं साधक! इनका मार्ग अवरुद्ध न करो! लौट जाओ! इसे ही अंतिम चेतावनी समझना!" बोला वो, गान्धर्व! "तू लौटाएगा हमें? इतना साहस? नेव्रत हूँ मैं। बाबा नेव्रत!" बोले बाबा! "जाओ बाबा नेव्रत! लौट जाओ!" कहा उस गान्धर्व ने! "अपना परिचय नहीं देगा?" बोले बाबा, "मैं निमिक्ष हूँ! इनका कनिष्ठ!" बोला वो, "तो तू भी बाँधा जाएगा!" बोले वो, "लौट जाओ! भूल न करो!" बोला वो, गंभीर स्वर में! गंभीर हो कर, कहा था उसने! बाबा ने अट्टहास लगाया! जाँघों पर हाथ, पटक पटक, अट्टहास लगाया! मति मारी गयी थी बाबा की! बुद्धि को काठ मार गया था! या, शक्ति के मद में, जड़ हो गयी थी बुद्धि! और तब बाबा ने चीख चीख कर, मंत्र पढ़े! शरीर की मुद्राएं बदली, और किया त्रिशूल उन दोनों के समक्ष! जल उठ चला! हवासी बह उठी! 

और उस गान्धर्व के केश तक न हिले! "जाओ! लौट जाओ!" कहा उसने, बाबा ने फिर से मंत्र पढ़ा, कपाल उठाया, मंत्र पढ़ा और कर दिया त्रिशूल आगे! कपाल के मुख से अग्नि प्रकट हो गयी! 

और चली उन दोनों की तरफ! और वे दोनों, वे दोनों अडिग खड़े रहे! अग्नि टकराई उनसे,और वोअग्नि, सोख ली गयी उनके द्वारा! "जाओ साधक! लौट जाओ!" बोला फिर वो। बाबा ने फिर से अट्टहास लगाया! 

बैठे नीचे, और उठायी एक मुट्ठी मिट्टी! पढ़ी मिट्टी, और फेंक दी सामने की तरफ! पानी में आग लग उठी! 

आग के गुबार उठने लगे! और बाबा ने अहहास लगाते हुए, मंत्रोचार किया! पल भर में ही, वो आग, बुझ गयी! बाबा का अहहास बीच में ही रुक गया! 

और अगले ही क्षण! अगले ही क्षण उस नदी का पानी आगे बढ़ा! जैसे सागर का पानी लौट कर, द्रुत-वेग से आ जाता है किनारे पर! ऐसे बड़ा नदी का जल! मात्र उन्हीं के स्थान पर! 

और तब, तब बाबा शैशव ने, त्रुन्ग-मंत्र पढ़ते हुए, त्रिशूल गाड़ दिया भूमि में! 

जल पीछे लौट चला! अब ठहाका लगाया बाबा शैशव ने! 

और चले आगे की तरफ! "निमिक्ष! हम द्वन्द नहीं चाहते, न शक्ति-परीक्षण!" बोले बाबा, "आशय स्पष्ट करें!" बोला वो गान्धर्व! "बाबा की झोली भर दो आप!" बोले वो, वो हंसा! और मुस्कुराया फिर! "क्या हुआ?" पूछा बाबा ने, "इस योग्य नहीं हो साधक!" बोला वो, 

अब बाबा हँसे! लगाया ठहाका! "क्या चाहते हो? बाँध दें तुम्हारी इस बहन को?" बोले बाबा! 

अब लगाया उसने ठहाका! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब, वो कन्या आगे बढ़ी! और उस गान्धर्व के कंधे पर हाथ रखा, और वो गान्धर्व लोप हुआ! इधर बाबा नेव्रत भी खड़े हो गए। जल पर चलती और कन्या,आगे बढ़ रही थी! 

और नीचे जल में, वो श्वेत सर्प, अठखेलियां कर रहे थे! वो आगे बढ़ी! जल से ऊपर! जल उसको थामने के लिए मचल रहा था! बुलबुले उठ रहे थे! वो छोटे छोटसर्प, अपना मुंह उठाये, बार बार उस से लिपटने का प्रयास किया करते थे! वो बढ़ी आगे! और रुक गयी, तभी बदन से ज्वाला भसक गयी उसमे! जैसे चारों ओर उसके, आग लग गयी हो। बहत ही अद्भुत दृश्य था वो। उसका गौर-वर्ण चमक रहा था। जैसे तपा हआ लोहा! ऐसा लग रहा था! "कन्या?" चिल्लाये बाबा शैशव! गुस्से से देखा उन्हें! दोनों को! "इस स्थान को भस्म कर दूंगा मैं कन्या!" चिल्लाये नेव्रत! 

वो और नीचे हई! 

और अगले ही पल, उनके चारों ओर आग लग गयी! एक वृत्त के रूप में। आग देख, घबरा गए बाबा! लेकिन तभी बाबा शैशव ने,बुन्ग मंत्र पढ़, उस आग को शांत कर डाला! त्रुन्ग मंत्र की ढाल से बचाव हो रहा था! ये मन्त्र गान्धर्वी विद्याओं को काट दिया करता है! सभी तो नहीं, अधिकाँश! ठहाका लगाया बाबाओं ने! 

और गले ही पल, पानी में बड़े बड़े सर्प सिखाई दिए! हिस्स और हिस्स! पानी का रंग भी सफेद हो चला था। 

भीषण भयावह वे सर्प अब दौड़े उनको लीलने! बाबा ने फिर से, जुन्ग मंत्र चलाया! 

और वो सर्प, हवा में उछल पड़े! उछले और लोप! बाबा नेव्रत ने, मिट्टी उठायी और मंत्र पढ़,मारी सामने फेंक कर! जल में से भाप उठ गयी! ऐसा भीषण ताप उठा! वो कन्या, और ऊपर उठ गयी! और वे सर्प, नीचे गोता लगा गए! हम सब, उन बाबाओं की मूर्खता देख रहे थे! वे समझ रहे थे, कि वो काट करते जा रहे हैं उस कन्या की, परन्तु अनभिज्ञ थे। अनभिज्ञ के उनका सामर्थ्य जांचा जा रहा था उस समय! 

। 

आज लोप नहीं हुई थी वो! आज डटी ही हुई थी, शायद, बाबाओं को सबक सिखाने! बाबा नेव्रत पानी में घुस गए! पानी को अंजुल में भरा, मंत्र पढ़ा और फेंका नदी में! वो कन्या, वहाँ से लोप हुई, 

और किनारे की भूमि पर प्रकट हुई! आग शांत हो गयी थी उसकी देह से! भूमि से दो फ़ीट ऊपर रही होगी वो! और तभी जैसे खड्ग टकराने की सी आवाजें आने लगीं! बाबा देखने लगे ऊपर, नेव्रत भाग कर, आये बाहर! 

और हो गए खड़े एक साथ, बाबा नेव्रत ने मिट्टी उठा ली थी हाथों में, मंत्र पढ़ रहे थे! कि फिर से खड्ग टकराये! 

और चार महाभट्ट चेवाट प्रकट हए! बहुत भयानक! राजाओं जैसे, अस्त्र-शस्त्र थे उनके पास, खडग थी हाथों में! नेव्रत आगे हए! और अट्टहास लगाया! "मैं जानता था। जानता था कि तेरे ये


   
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श्रीशः उपदंडक
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चेवाट,अवश्य ही आएंगे। अब देख,ये भागते कैसे हैं।" चिंघाड़े वो! मारी मिट्टी फेंक कर, और उठा लिया चाकू! काटा हाथ अपना, किया रक्त इकट्ठा, दो बूंद चाटा, 

और बाकी मंत्र पढ़ते हए, फेंक मारा! चेवाट, लोप हो गए। महा-दौग्य विद्या का प्रयोग किया था उन्होंने! ये विद्या, चेवाटों से रक्षा किया करती है! अब तो अट्टहास पर अट्टहास! 

और तभी अट्टहास गूंजा! भयानक अट्टहास! ऐसा लगा, कि जैसे आकाश ने अट्टहास लगाया हो! बाबा लोग, डर गए! लेकिन डिगे नहीं! देखते रहे ऊपर! 

और तब, उस कन्या के दायें बाएं, दो महाहिराक्ष प्रकट हुए! महाहिराक्ष मूलतः असुर होते हैं! महाभीषण होते हैं! शक्ति से भरे होते हैं! देह, गान्धों से भी अधिक सुडौल और सुगठित हुआ करती है। केश, भूमि तक होते हैं! आभूषण धारण करते हैं और वर्ण में, गोरे होते हैं! गान्धों के रक्षक के रूप में उनका दायित्व हुआ करता है! 

विशेषकर, कन्याओं के विषय में! इसी कारण से आज प्रकट हुए थे वे! "महाहिराक्ष!" बोले बाबा नेव्रत! "लौट जा साधक, लौट जा!" बोला एक, "तू कौन होता है बाबा को धमकाने वाला?" बोले नेव्रत! 

अट्टहास लगाया महाहिराक्ष ने! 

और जैसे फूंक मारी हो, ऐसा किया! दोनों ही बाबा उड़ चले हवा में! कपड़े-लत्ते सब खुल गए! 

और जा पड़े, किनारे पर! मिट्टी थी वहां. इसीलिए हाड़ नहीं टूटे उनके! उठे, और भागे सामने के लिए! वहां, उन महाहिराक्षों ने, लगाया अट्टहास! उनको उड़ता देख तो मैं भी हंस पड़ा था एक बार को तो! 

अब तो गाली-गलौज शुरू कर दी दोनों ने! बाबा नेव्रत ने, हाथ फिर से बींधा अपना चाकू से, 

और किया रक्त इकट्ठा, चाटा दो बूंद, 

और उछाल दिया! छुन्न! छुन्न! ऐसी आवाज़ हुई! जैसे गरम तवे पर, पानी की बूंदें गिरने पर, आवाज़ किया करती हैं, ऐसी आवाज़ बाबा के तो होश उड़े, और एड़ियों में बंधे। अब आये आगे बाबा शैशव! उखड़ा अपना त्रिशूल! 

और पढ़ा बुन्ग मंत्र! किया अभिमंत्रित अपना त्रिशूल! 

और फेंक मारा सामने! भक्क! छन्न! हुआ राख त्रिशूल! अब टूटी हिम्मत! अब आये प्राण संकट में! महा-दौग्य भी नष्ट! 

और, त्रुन्ग भी नष्ट! रह गए खाली हाथ! अट्टहास किया उन महाहिराक्षों ने! "जाओ साधक!" बोले वो, लेकिन नहीं गए! दुविधा के घर में घुस गए थे! "लौट जाओ! क्षमा कर दिया तुम्हें!" बोले महाहिराक्ष! "नहीं। मैं नेव्रत हूँ! यक्षिणियों का भी मर्दन किया है मैंने!" बोले चीख कर नेव्रत। शरीर में जो, अंतिम वाय शेष बची थी, किसी कोने में, ये वही थी! 

और कुछ नहीं! मात्र खोखला दम्भ! "जाओ! लौट जाओ!" बोले वो, 

और तब बाबा नेव्रत ने, उठाया अपना त्रिशूल, महारुद्रिका विद्या को जप दिया! त्रिशूल के फाल ताप से दहक उठे। 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और मंत्र पढ़ते हए, बाबा ने वो त्रिशूल फेंक मारा उनकी ओर! त्रिशूल उड़ा हवा में, बीच रास्ते में पहुंचा, 

और फट पड़ा! किरिच किरिच बिखर गए उसके! 

अट्टहास लगाया उन दोनों ने! भयानक अट्टहास! वार्तालाप करना एक अलग बात है और लड़ना, एक अलग बात! अब तो स्थिति उलटी पड़ चुकी थी! बाबाओं ने जो सोचा था, वो तो क़तई सम्भव ही न था! हाँ, क्षमा मांगते तो कम से कम प्राणों पर तो न बनती! कम से कम किसी गान्धर्व कन्या के दर्शन तो हो ही चुके थे! और क्या चाहिए था! पर नहीं, उन्होंने तो गान्धर्वी से शक्तियां प्राप्त करनी थीं! विशेष शक्तियां! विशेष सिद्धियां! और अब तो जैसे पासा पलट चुका था! अब तो वो रहमोकरम पर थे उस गांधर्व-कन्या के! महाहिराक्ष अट्टहास पर अट्टहास लगाये जा रहे थे! 

तो त्रिशूल तो छोटे छोटे टुकड़ों में फट गया था! महारुद्रिका का अनुचित प्रयोग किया था, तो फट गया त्रिशूल! वो कन्या, उठी वहां से, वो चली जल की तरफ छोड़ गयी थी उनके प्राण! 

"कन्या? जाती कहाँ है?" बोले बाबा नेव्रत! कन्या रुकी! और देखा पीछे! वे दोनों ही बैठे हए, मंत्र-जाप कर रहे थे! अब तो उसको आया भयानक क्रोध! महाहिराक्ष आगे बढ़े,और किये हाथ आगे, 

और जैसे ही ऐसा किया, वे उठेहवा में,और फेंक दिए गए बीच नदी में। उनकी चीखें ही आती रही बस। उनके, पानी में गिरने की आवाज़ भी न आई और वो कन्या, वो महाहिराक्ष लोप! अब तो सुनंदा, दो सहायक, जो छिपे हुए थे पत्थर के पीछे, टोर्च मार मार, ढूंढें उन्हें! "ये तो मरे अब! मर गए!" बोले शर्मा जी! "आओ ज़रा!" कहा मैंने, 

और हम भाग कर, सुनंदा के पास पहुंचे! उसकी हालत खराब थी, काँप रही थी, सहायक काँप रहे थे! "मर गए हरामजादे!" बोले शर्मा जी, इस सुनंदा को सुनाते हुए! सुनंदा, सुने सबकुछ, लेकिन देखे नहीं! "चलो! वापिस चलो अब!" बोले शर्मा जी! "तैरना जानते हैं वो, आ जाएंगे" बोली सुनंदा, "बैठी रह सुबह तक, अब तो जा पहुंचे होंगे पांच किलोमीटर आगे!" बोले वो, इस तरह, घंटा बीत गया, कोई नहीं आया वापिस! नदी की धारा बीच में, बहुत तेज होती है, अच्छे से अच्छा तैराक भी गोता खा जाता है, पानी पी जाता है! और ये तो उम के चौथे पड़ाव में थे! कितना हाथ-पाँव मारते! बह गए होंगे आगे, दिन होता, तो कोई करता भी मदद! मित्रगण! 

आखिर में सुबह हो गयी! कोई नहीं लौटा। शायद, प्राणांत हो गया होगा, या फिर, बचे होंगे, तो आज वापिस आ जाते, सुनंदा जितना फूले बैठी थी पहले, 

अब सांप सूंघ गया था उसको! बोलती बन हो गयी थी! क्या बोले, सहायक भी, चुपचाप बैठे हुए थे, काम्या को मैंने पकड़ रखा था, उसको नींद लगी थी, लेकिन अब चलना था वापिस, और कोई चारा नहीं था! "सुनंदा, अब चलो, आ जाएंगे शाम तक" कहा मैंने, उठी, अब तो सुन रही थी, अकड़ नदी में फेंकी जा चुकी थी! बाबा शैशव, उस नेपाली के साथ अपनी थाली भी छिदवा डाली थी! ठीक साढ़े पांच बजे, हम वहां से निकल पड़े, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आ गए डेरे वापिस, बाबा शैशव के डेरे पर ही रुके, हम तो अपने अपने कमरे में, चले गए, क्योंकि, अभी डेरे में, हो हंगामा होना बाकी था! 

और जब डेरे में खबर लगी, तो खड़ा हो गया हंगामा! अब आदमी इकट्ठा हो गए, खोज-अभियान शुरू हो गया! हमसे भी कहा गया, लेकिन हमने मना कर दिया! वे लोग चले गए, और अब डेरे में कुछ औरतें, कुछ वृद्ध ही रह गए थे! हम तीनों साथ ही बैठे थे, आज तो चाय-नाश्ता भी न मिला था, डेरे में सन्नाटा पसरा था उस रोज! "क्या लगता है?" बोले शर्मा जी, "मुझे उम्मीद नहीं!" कहा मैंने, "कोई गाँव हो आगे?" बोले वो, "तो भी, दिन होता तो कछ हो सकता था!" कहा मैंने, "शक्ति लेने गए थे, प्राण दे दिए! वाह रे बौड़म दास!" बोले वो, "अब अगर लाश भी मिल जाए तो गनीमत जानो" कहा मैंने, 

तो मित्रगण! तीन दिन बीत गए! कोई पता न चला! आसपास के गाँवों में पूछा गया, कुच्छ पता न चला! आखिर में, यही हुआ कि, वे अब दिवंगत हो गए, दोनों ही, अपने दम्भ की भेंट चढ़ गए! हमने तीसरे दिन वो डेरा छोड़ दिया था, 

जाते जाते, हम सुनंदा से मिलने चले गए थे, सुनंदा ने तो तब से भोजन ही न किया था, उसको बहुत समझाया, बहुत समझाया! "तुम्हें जिसने बताया था उस कन्या के बारे में, वो कौन था?" कहा मैंने, मुझे कुछ शक था, इसीलिए पूछा, नहीं बोली कुछ वो, उत्तर मिल गया था, जिसने भी बताया था, वो भी ऐसे ही काल के गाल में समा गया था। "तुम जानती थीं! तुम भी उसके साथ ही थीं!" कहा मैंने, 

अब चौंक पड़ी वो! "है न?" कहा मैंने, न बोली कुछ, घबरा गयी! "सुनंदा, तुम ही हो, इनकी मौत की ज़िम्मेदार!" कहा मैंने, न बोली कुछ। "अब प्रायश्चित ये, कि अब इस घटना को भूल जाओ! कभी मुंह मत खोलना!" कहा मैंने, उसने हाँ में गरदन हिलायी अपनी! बस! सुनंदा से ये हमारी आखिरी मुलाक़ात थी! उसके बाद, हम कभी न मिले उस से, कोई खबर भी नहीं! हम वहां से, सीधा एक दूसरे डेरे चले गए, बाबा बलवंत नाथ के डेरे में, उनसे सारी बात बताई, बाबा भी कोई सत्तर वर्ष के हैं, एक बार भी ये नहीं कहा, कि मुझे भी दिखाओ! हम शक्त्ति लेंगे उनसे! बल्कि, हाथ और जोड़ लिए थे अपने! 

और उन दोनों के लिए, अफ़सोस भी जताया! हमें कक्ष दे दिए गए थे, और मैंने उनसे एक गाड़ी के इंतज़ाम के लिए, कह दिया था, 

और फिर हम, शाम के समय, अपनी घुट्टी ले, सो गए थे! सुबह उठे,स्नानादि से फारिग हए। चाय-नाश्ता किया, और, 

घूमने निकले फिर, उस दिन मैं एक अपने पुराने जानकार के पास गया था, खूब बातें हुईं उनसे! शाम कोई पांच बजे थे वहीं रहे! 

और फिर वापिस हुए, थोड़ी देर आराम किया, 

और रात कोई आठ बजे, गाड़ी आ गयी थी, कुछ सामान रखा उसमे, भोजन भी कर ही लिया था, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और इस तरह कोई दस बजे, हम निकल लिए, उस स्थान के लिए नहीं, जहां कल गए थे, बल्कि, उस स्थान के लिए, जहां मैंने वो धुआं देखा था! हम करीब साढ़े बारह बजे पहुंचे वहाँ, उस तरफ जाने का रास्ता खराब था! चालक ने एक गलत ही रास्ता पकड़ लिए था! कहिर, हम पहुँच गए थे, मैंने शर्मा जी और काम्या को वही रुके रहने को कहा था, लेकिन नहीं माने वो, साथ ही चलने पर अड़ गए थे! अतः ले ही जाना पड़ा मुझे उन्हें। मैंने अपना सामान लिया! 

और जा पहंचे उस मंदिर के पास! घुप्प अँधेरा था वहां, भयानक माहौल था! चाँद की रौशनी में, लेकिन उस स्थान का, रूप ही अलग था! वोस्थान जीवित था! स्पष्ट देखता था! मृत स्थान से, ताप नहीं निकलता, लेकिन यहां ताप था! बेहद ताप! ऐसा ताप नहीं कि, पसीने छुड़ा दे. बल्कि ऐसा, कि आपको लगे, कि यहां कुछ न कुछ तो अवश्य ही है। "काम्या?" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, "ये पकड़ो" मैंने थैला दिया उसको, पकड़ लिया उसने, "इसमें से, दीये निकाल लो, शर्मा जी, आप इन दीयों में, बाती और ये तेल, डाल दो, "एक साथ ही रखने हैं?" पूछा काम्या ने, "नहीं, दो उधर, पांच उधर, तीन इधर, और एक वहाँ पर" कहा मैंने, "जी' बोली वो, 

और काम्या ने, दीये रख दीये वहाँ, मैंने तब, उस स्थान का पूजन किया। अब गुरु-नमन! अघोर-नमन और श्री श्री श्री जी का आशीर्वाद माँगा! कुछ ही देर में, दीये प्रज्ज्वलित हो गए थे, और वहां प्रकाश फैल गया था! तब मैंने, कलुष से उन दोनों के नेत्र पोषित किये, और अपने दुहित्र से! उन्हें, कुछ समझाया भी! समय उस समय, कोई सवा एक हुआ था, थोड़ा ज़्यादा ही! मैंने वहां पर, पुष्प और अन्य सुगन्धियाँ चढ़ा दी थीं! वो मंदिर, अब दीख रहा था। मुझे भी, और उन दोनों को भी! चन, आज आकाश में बैठे, जैसे उसी स्थान को निहार रहे थे। रात्रि कालीन पक्षीगण, उन वृक्षों पर, चर्राट मचा रहे थे। मंद मंद हवा चल रही थी! 

और हमें, इंतज़ार था दो बजे का! जब वो कन्या, उतरती अपने लोक से! कहीं आते ही क्रोध न करे, इसीलिए, प्रणाम-मुद्रा में आ जाना था हमें! मेरा उद्देश्य क्या था? किसलिए हम, तीन यहां, प्राण दांव पर लगा, आये थे? ऐसी क्या वजह थी? किसलिए? 

क्या औचित्य था? था! था एक औचित्य! एक प्रश्न! उसी का उत्तर ढूंढना था! 

आखिर किस कारण से वो कन्या यहां आती है? बिना नागा, नियम से? किसलिए? 

यही था प्रश्न! उत्तर मिल जाता, तो उद्देश्य भी पूर्ण हो जाता! 

और फिर बजे दो! अब हम हए सतर्क! देह-रक्षा और प्राण-रक्षा आदि का नहीं सोचा था मैंने, वो बेमायनी थे उस समय! 

और तभी आकाश में प्रकाश फूटा! 

सफेद रंग का! नीला! पीला! संतरी। प्रकाश के वो पिंड, एक दूसरे से गुंथ जाते! 

और फिर रेखाएं सी खिंच जाती! वे रेखाएं, टिमटिमाती! लाल, नीली, पीली, सफ़ेद! 

और तभी थान खुला! लाल मखमली सा थाल! ये दृश्य मन को भाता था बहुत! अद्भुत लगता था! 

और वो कन्या! प्रकट हुई। आज पीले वस्त्र थे उसके! चमकदार! जैसे प्रकाश के धागों से और चमक के वस्त्र से वो वस्त्र सीला गया हो! वो उस पार थी, पानी में उतरी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और चली इस तरफ ही! अब हम हए चौकस। वो बहत तेजी से चल रही थी। बहुत तेजी से! देखते ही देखते, इस किनारे आ पहंची! जैसे ही आई, हम पर नज़र पड़ी! रुकी, देखा हमें, और चली आगे, हमने सर झुका, प्रणाम किया उसे! 

वो रुक गयी उधर ही! हमारे दीये देखे! हमें देखा, और हम, अब सर उठा, घुटनों पर बैठते चले गए। 

और तभी, प्रकाश के दो गोले प्रकट हए। और उसके दायें बाएं, वो महाविराक्ष प्रकट हए! हाथों में कोई खड्ग नहीं! एक और प्रकाश का गोला फूटा! आँखें चुंधिया गयीं! जब देखा, तो वो निमिक्ष था! "कौन हो तुम?" बोला वो, मैंने सभी का परिचय दिया! "इस स्थान पर कैसे?" पूछा उसने, अब मैंने अपनी जिज्ञासा बता दी। वो मुस्कुराया! 

और उसके मुस्कुराते ही, वो दोनों महाभट्ट महाविराक्ष लोप हो गए! मित्रगण! मेरे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर मिल गया था मुझे! निमिक्ष ने, सबकुछ बता दिया था! 

और ये भी, कि हम सोलहवें थे, जो उस स्थान पर पहुंचे थे। ग्यारह, अपने प्राण गंवा चुके थे! हमने, झक कर, प्रणाम किया उन्हें। वो कन्या, पहली बार कुछ बोली थी! उसकी आवाज़ ऐसी मधुर थी, कि रस घुल जाये कानों में, कैसा भी रोग हो, कट जाये! कैसी भी चिंता हो, मिट जाए! 

कोई संताप न रहे, कोई दुःख न रहे! धकेल दे, मोक्ष के मार्ग पर! 

और बोली? "मैं भार्या हँ बाबा अक्षवसु की! इसी स्थान पर, गान्धर्व-विवाह किया था मैंने, बाबा अक्षवसु से! जब तक वे लौटेंगे, मेरा ये नियम ही रहेगा!" ये बोली थी वो! गुत्थी सुलझ गयी थी! सारे प्रश्नों के उत्तर, मिल गए थे! चैन की नदी बह निकली थी उसी क्षण! मैंने भी वचन दिया, मैं और हम सभी, अपनी अंतिम श्वास तक, इस स्थान के विषय में कभी किसी को न बताएँगे! बस! उनसे कुछ माँगा, मनवा की नीचता होती! तो न माँगा! बस, उनका धन्यवाद किया हमने, जो उनके दर्शन हो सके! बाबा अक्षवसु, बाबा तृणवेग के पुत्र थे। और सबसे छोटे शिष्य! आज से कोई दो सौ वर्ष पहले। उनको तभी सिद्धत्व प्राप्त हो गया था! और तभी, इस गान्धर्व-कन्या ने, उनसे, गान्धर्व विवाह रचाया था! वो जो चिता मैंने देखी थी, वो बाबा के पार्थिव शरीर का दाह-संस्कार करने के लिए थी! निमिक्ष और ऋतुक्षा ने ही, मुखाग्नि दी थी! बाबा कृतकाकृतक लोक में थे, संभवतः, उच्च योनि की ओर अग्रसर हो! एक मानव से उस कन्या का ऐसा प्रघाढ़ प्रेम! ऐसा प्रघाढ़ संबंध! सच है, शायद मनुष्य की सोच के एक सीमा है। उस से आगे, सोच ही नहीं पाता! हाड़-मांस के इस पिंजरे में ही कैद बस दिन गिनता है, अपनी चिता के! बस! कुछ और सोचने का साहस जुटा 

ही नहीं पाता! यात्रा क्यों आरम्भ हुई, कहाँ समाप्त होनी चाहिए, कुछ नहीं पता! 

खैर, 

बाबा नेव्रत और बाबा शैशव के शव कभी प्राप्त न हो सके, कुछ खबर मिली सुनंदा के बारे में, वो अब संचालक थी उस डेरे की,जो कभी बाबा शैशव का था! काम्या ने ज़िद पकड़ ली थी, कि हम छोड़ने चलें उसको असम! सो जाना पड़ा! हम एक हफ्ता रहे वहां! नम आँखों से, विदाई दी


   
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उसने! अब बात करता रहता हूँ उस से! ये संसार है। इसमें कई आवरण है। एक एक आवरण के नीचे, एक एक संसार है! ऐसे संसार, जो हमारी भौतिकता से कोसों दूर हैं। इसीलिए, हमने जहां भौतिकता ने उन्नति की, सोच से परे हटते गए! समय कम है मित्रगण! और यात्रा आरम्भ भी नहीं हुई।

----------------------साधुवाद!------------------- 


   
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