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वर्ष २०१३ विंध्याचल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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बोला, तो इस बार मुंह से बात नहीं करनी!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी वो! तभी चाय लेकर, सहायक आ गया, चाय दे गया दो कप, "चाय बोली थी क्या?" पूछा मैंने, "हाँ, पूछा था भैय्या ने!" बोली वो, "अच्छा किया!" कहा मैंने, 

और फिर हमने चाय पी, उसके बाद, मैं शर्मा जी के पास चला गया, वहां बैठा, वे जागे थे, लेटे हए थे, "हो आये?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, 

और बता दी सारी बात अब उन्हें! भड़क गए। "एक काम करते हैं. इस माँ के * की आग ही निकालते हैं इसकी गाँ* से बाहर! माँ का **! हरामजादा डेरा पूछा रहा है! बहन के ** को एक लात दे दी न, उसके गियर-बॉक्स पर, तो गियर 

गाँ से बाहर आ जाएगा! डालता रहियो गियर!" बोले वो! भयानक भयानक अलंकार दिए उन्होंने बाबा को! बाबा सुन ले, तो शेष आयु उनको समझने में ही बीत जाये। तो मित्रगण! अब बजे तीन! 

और हम हुए तैयार! छोटा बैग और श्री श्री श्री का दिया हुआ, एक माल, मैंने धारण किया! और तब, हम चल पड़े बाबा की ओर! वहाँ पहंचे, बाबा नेव्रत ने, अब नहीं देखा काम्या की ओर! काम्या, मुझे देख मुस्कुराये! बाबा के दिमाग के काठ में, मैंने तो समझ की कील गाड़ी थी, वो गड़ गयी थी! ये सही हुआ था, नहीं तो आज हो जाता बलवा उनके संग! हम सब बैठे तब,और गाड़ी चल दी, 

आज तो, बहुत सारा सामान लिया था उन्होंने अपने संग! सारा सामान क्रिया का था, उन्होंने आज गान्धर्व-वेध क्रिया करनी थी! हम ढाई घंटे में पहुंचे वहाँ, डेरे नहीं गए थे, हाँ, एक जगह रुके थे बीच में, कुछ सामान लिया गया था वहाँ से, 

और फिर आगे चल पड़े थे, उसी किनारे के लिए, हम वहां पहुंचे, 

आज दिन में नज़ारा देखा वहाँ का! बेहतरीन नज़ारा था। नदी ऐसी सुंदर ऐसी सुंदर जैसे कोई दुल्हन सी लगे! वो गोल गोल पत्थर ऐसे, जैसे पत्थर की गेंद पड़ी हो! पानी की धरा ऐसी सुंदर, कि बस, अभी लगा दूँ छलांग! पेड़-पौधे! वो बड़े बड़े पत्थर! लगे, जैसे अभी बोल पड़ेंगे सब के सब! उन बाबा ने शुरू किया अपना पण क्रिया-कलाप! उस स्थान को साफ़-शुद्ध किया गया! वहाँ, इक्कीस दीये रखे गए, अलग अलग! खद्दक की लकड़ियाँ छिपायी गयीं! वेधन के लिए, लौह और मांस का प्रयोग किया गया! 

और उस स्थान को, शक्ति से सींच दिया गया! बिठा दिए गए, प्रहरी! तैनाती कर दी गयी। सुनंदा ने, सारा सामान एक जगह रखा फिर, हम एक तरफ खड़े, ये सब देख रहे थे, 

आसपास पहाड़ थे,टीले, पत्थर, पेड़ आदि! हम एक पेड़ के नीचे चले बैठने! 

और जा बैठे। "यहां कोई गाँव भी नहीं है आसपास!" बोले वो, "लगता तो नहीं है" कहा मैंने भी, देखते हुए, आसपास, "दूसरा किनारा भी ऐसा ही है" बोले वो, "हाँ, निर्जन स्थान है!" कहा मैंने, 

"तो ये, एक ही स्थान पर क्यों आती है?" बोले वो, बड़ा अच्छा प्रश्न था! एक ही स्थान पर क्यों? किसलिए? पंचमी, दशमी और पूर्णिमा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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ऐसे क्यों? कारण जानना ही होगा! 'एक मिनट शर्मा जी!" कहा मैंने, मैं खड़ा हुआ, गया एक जगह, 

और अब दुहित्र मंत्र पढ़ा, नेत्र पोषित किये, और खोले नेत्र! ये क्या? ये कहाँ आ गया मैं? ये कौन सी जगह है? और वो क्या बना है? गया मैं उधर, एक छोटा सा मंदिर था वो! एक पेड़ के नीचे! एक त्रिशूल और एक चिमटा पड़ा था वहाँ! कुछ भस्म, और जली हुई लकड़ियाँ! 

और राख! राख की एक कतार, नदी तक गयी थी, मैं उसके संग संग चला, आगे, और आगे तक, ये क्या? यहां तो कोई चिता जली थी? ऐसा ही लगता है! मैंने बैठा नीचे, 

और हाथ से, वो राख हटाई, कुछ टुकड़े मिले, अस्थियों के, ये तो चिता ही है, लेकिन किसकी? 

और ये मंदिर? यहां कौन रहता है? कौन? दिमाग घूम गया मेरा उसी समय! 

आसपास देखा, कुछ नहीं! आगे तक गया, हर तरफ देखा, बस जगल ही जंगल! बस, और कुछ नहीं! मैंने दुहित्र वापिस लिया, नेत्र खोले, तो मैं, पेड़ों के झुरमुटों के बीच खड़ा था! वो मंदिर, वो त्रिशूल, वो चिमटा, कुछ भी नहीं! न ही वो राख, न ही वो जली हुई लकड़ियाँ! कुछ नहीं! 

अब न वहाँ मंदिर था, न कोई त्रिशूल और नहीं ही अन्य कुछ। दुहित्र ने मुझे एक झांकी दिखाई थी, सम्भवतः ये किसी महा-साधक की स्थली रही हो, या कोई साधक यहां पर, साधना करता हो, सम्भव था, लेकिन नदी के किनारे, इस तरह से मंदिर बना, माना वो साधना किया करता था, तो इस गान्धर्वकन्या से उसका क्या लेना-देना? यदि सिद्ध भी थी, तो भी साधक की मृत्यु के पश्चात, सब समाप्त ही हो जाता, लेकिन ये कन्या तो बिना नागा, आती ही रहती है यहां? कोई रहस्य दफ़न है यहां! एक ऐसा रहस्य जिसे जानना अब अनिवार्य हो चला था! वो बाबा लोग, अपने अपने प्रपंच में लगे थे, दोनों का एक ही उद्देश्य था, मात्र शक्ति! उनको शक्ति प्राप्त करने का उन्माद चढ़ा था! और मैं अब एक नए उन्माद में डूब चला था! ऐसा उन्माद, जिसका न आदि का पता और न अंत का! कैसे ये सब शुरू हआ, कैसे ये सब, खत्म हुआ, कुछ नहीं पता! मैं आया वापिस, शर्मा जी और काम्या के पास, बैठा, और अब उन्हें मैंने ये सब बताया! दोनों की ही आँखें फैल गयीं वो सब सुनकर! "ये कोई स्थल है?" पूछा काम्या ने, "हाँ काम्या!" कहा मैंने, "तब तो कहानी और उलझ गयी!" बोले वो, "हाँ, सही कहा तुमने!" बोला मैं, "लेकिन वो चिता किसकी थी?" पूछा शर्मा जी ने, "पता नहीं!" कहा मैंने, "तो इसका मतलब, वो खद्दक की लकड़ियाँ, इस स्थल द्वारा ही भस्म हुई थी!" बोले वो, 

क्या बात कही थी! सच में, तीर निशाने पर जा लगा था, अंधेरे में भी! "बहुत सटीक बात कही आपने!" कहा मैंने, "इसका मतलब,अभी भी उस साधक की शक्तियां यहां वास करती हैं! जय हो उस महा-साधक की!" हाथ जोड़ते हुए बोले वो! काम्या ने भी हाथ जोड़े, और मैंने भी! "अब ये बाबा लोग, अपने अंजाम को पहँचने वाले हैं!" बोला मैं, "हाँ, सही कहा आपने!" बोला मैं, काम्या ने उठकर, आसपास देखा, लेकिन हर तरफ बस, पहाड़ ही पहाड़ थे, हरियाली ही हरियाली, कुछ हो भी, तो भी न पता चले, दिखे ही नहीं! "मैं आता हूँ, इस बार सूक्ष्म अवलोकन करता हूँ!" कहा मैंने, "हाँ, कर के आइये, हो सकता है, कुछ सूत्र हाथ लग जाए!" कहा मैंने, मैं फिर से उठकर गया वहां, उन्हीं झुरमुटों के बीच और पढ़ा दुहित्र मंत्र! नेत्र खोले, और


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे ही खोले, मेरे सामने वो ही मंदिर था! मैं गया वहाँ तक, मंदिर, करीब सात फीट ऊंचा होगा, अंदर कोई मूर्ति नहीं थी, बस पत्थर पड़े थे, गोल गोल, नदी के ही, मंदिर, गारे की चिनाई से बना था, रेत झड़ रहा था उसमे से, जब मैंने हाथ लगाया था तो, आसपास, और कुछ न था, बस वो राख, 

जो नदी तक चली गयी थी! इस चिता तक! मैं नीचे बैठा, उस जली हुई लकड़ियों के पास, जो कि मंदिर के बाहर पड़ी थीं, उन लकड़ियों को हटाया, एक एक करके, तो मुझे मक्की के जले हए दाने मिले, जैसे भूने गए हों वो उधर, और जो के दाने, अवश्य ही भूने गए होंगे, अब उस राख को टटोला, और जैसे ही टटोला, मुझे कुछ दिखा, ये एक छल्ला था, सोने का, करीब पौन इंच चौड़ा, किनारियां उसकी, उठी हुई थीं, हाथ से बना था पूरा का पूरा, मेरे तो अंगूठे में भी नहीं आया! ऐसा बड़ा था, मैंने केवाँच-मंत्र पढ़ फूंका उसे, 

और रख लिया जेब में, वजन में करीब ढाई या तीन तोले तो रहा ही होगा, अब मैंने राख को और टटोला, छोटी छोटी, करीब दो मिलीमीटर की गेंदें पड़ी थीं, गोलियां, सोने की, मैंने उठाया उन्हें, ये कल चौबीस र्थी, छेद बने थे उनके अंदर, अवश्य ही, कोई माला रही होगी, और कुछ नहीं मिला वहाँ, फिर मैं उस राख की कतार के साथ साथ उस चिता तक पहुंचा, पर ये क्या? राख कहाँ गयी? यहां तो स्वर्गिक जलोय के फूल पड़े थे! गहरे लाल रंग के! बीच में उन फूलों के, त्रिशल वृक्ष की पत्तियां पड़ी थीं! ये वृक्ष पहले भारत में सब जगह पाया जाता था, पर अब विलुप्त प्रायः है, अब मात्र नीलगिरि के पहाड़ों पर ही पाया जाता है, पौराणिक कथा है, कहते हैं, चंदन के वृक्ष को, सुगंध इसी त्रिशल ने दी थी! कहते हैं, वितल और सतल लोक में, ये त्रिशल ऐसे ही पूज्य है, जैसे हमारे यहां, बरगद और पीपल! पाताल! आपन सुना ही होगा, इसका और कुछ विवरण देता हूँ आपको, एक योजन, अर्थात आठ मील अथवा तरह किलोमीटर! इसी प्रकार, ये 

पाताल, पचास करोड़ योजन के विस्तार वाला क्षेत्र है। इसमें सात लोक है, अतल, वितल, नितल, गभस्तिमान, महातल, सुतल और पाताल! सुंदर और भव्य महलों से युक्त, भव्य रूप से अलंकृत, संजीवनी बूटी जैसी कई औषधियों से पूर्ण और विलक्षण बूटियों और वनस्पतियों का भंडार हैं ये लोक! शुक्ल, कृष्ण, पीत और अरुण रंगों की भूमियाँ हैं यहां! और शर्करामयी(कंकर बाली) शैली(पत्थरों वाली) और सुवर्णमयी हैं! यहां पर, नाग,यक्ष, दानव और दैत्यों का वास है। ऐसे ही इस लोक में असुरराज बलि का शासन है। जो वर्ष में एक बार पृथ्वी का भ्रमण करने आते हैं, कैलाशपति के सम्मुख-पूजन हेतु! चलिए, विषय लम्बा हो जाएगा! विराम देता हूँ! हाँ, तो वहाँ त्रिशल वृक्ष की पत्तियां पड़ी थीं, स्वर्गिक जलोय के लाल फूल पड़े थे, जब मैंने पहले इसको देखा था, तो यहां राख और अस्थियों के टुकड़े थे! पर अब, अब ये फूल और ये पत्तियां! मैं बैठ गया वहीं, वो फल उठाये, सुगंध ऐसी कि आँखें बंद हो जाएँ! सभी शीतल थे! पत्तियों पर अभी भी पानी जमा था! मैंने चाट के देखा, शर्करा-युक्त सा पानी था वो! 

और कुछ न मिला, मैं उठा, और चला वापिस, जैसे ही चला, मझे उस मंदिर के पास, एक श्वान दिखा, बुढा श्वान! काले रंग का, मैं चल पड़ा उसकी तरफ, वो मुझे देखा भौंका नहीं, बूढा हो


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुका था, पलकें सफेद हो चली थीं उसकी, खाल लटक रही थी, आँखों में मोतिया भी आ चुका था, वो बैठा हुआ था वहाँ! मैं आया उसके पास, उसने मुंह उठकर, देखा मुझे, मैं बैठ गया नीचे, उसने अपनी भारी-भरकम दुम हिलायी मुझे देखा, अब मैंने उसके सर पर हाथ फेरा, वो बैठा ही रहा! न हिला-डुला, अपने स्वामी की बहुत सेवा की होगी उसने! मैं उठा और चलने लगा वापिस, पीछे देखा, तो श्वान नहीं था वहाँ! ये एक और रहस्य! और तब मैंने दुहित्र को वापिस लिया, और नेत्र खोले, आसपास देखा, दूर बैठे थे शर्मा जी और काम्या! मैं बहुत दूर आ चुका था! मैंने जेब में हाथ डाला, तो कुछ नहीं! न वो छल्ला, और न वो गोलियां ही! पता फिर भी कुछ न चला। अब मैं 

आया वापिस! पहुंचा उनके पास, और बैठा, बता दिया सबकुछ, वे हैरान! मेरी तरह ही! "वो श्वान कौन था?" पूछा शर्मा जी ने, "पता नहीं, वहीं मिला था" कहा मैंने, "अवश्य ही, उस महा-साधक का ही होगा!" बोले वो, "हो सकता है!" कहा मैंने, "और वो फूल?" पूछा उन्होंने, "लाल रंग के। अब मात्र पूर्वी भारत में मिलते हैं!" कहा मैंने, "और त्रिशल?" पूछा उन्होंने, 

"हाँ, वो त्रिशल की ही पत्तियां थीं!" कहा मैंने, "अजीब सी बात है!" बोले वो, "बहुत अजीब!" कहा मैंने, "पहले राख, फिर फूल?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "और फिर वो श्वान!" बोली काम्या, "हाँ!" कहा मैंने, "यहां कुछ तो चल रहा है अभी भी!" बोले वो, "ये तो है!" कहा मैंने, "और कोई सूत्र नहीं मिला?" पूछा काम्या ने, "बताया था न, वो छल्ला और वो गोलियां?" कहा मैंने, "और वो वापिस हुई?" बोले शर्मा जी, "हाँ, केवाँच भी भेद डाला!" कहा मैंने, "अब सोचो आप!" बोले वो, "है तो कोई बड़ा ही रहस्य!" कहा मैंने, "लेकिन पता कैसे चले?" बोले वो, "आज रात, करते हैं प्रयास!" कहा मैंने, "लेकिन ये लोग?" बोले वो, "देखते हैं!" कहा मैंने, "ये तो बाज आएंगे नहीं!" वो बोले, "आना ही पड़ेगा!" कहा मैंने, "चलो, देखते हैं।" कहा उन्होंने, 

और तब, काम्या उस दरी पर लेट गयी थी, दरी मैं ले ही आया था, अब शर्मा जी उठे, और चले नदी की तरफ, शाम सात बजे करीब, हम चालक को ले, भोजन करने चले गए थे, बाबा नेव्रत और एक सहायक वहीं रह गए थे, तो हम पहंचे उधर, भोजन किया और उन दोनों के लिए बाबा शैशव ने खाना । बंधवा लिया था, और फिर से वापिस हुए हम, जा पहुंचे वहाँ, उनको खाना दिया और मैंने तब दो चादरें निकाल ली थीं, आज आकाश में बादल बने हुए थे, और नदी किनारे मौसम बेहद ठंडा हो चला था, मैंने एक चादर दे दी थी काम्या को, लपेट दिया था उसे उसमे, और एक जगह लिटा दिया था, आराम से, जगह साफ़ थी, किसी कीड़े-कांटे के आने की कोई संभावना न थी! एक चादर शर्मा जी को दी, मुझे अभी सर्दी नहीं लग रही थी, लगती, तो मैं भी चादर ले आता, चादरें 

मोती थीं, खेस की तरह, ठंड से बचाव हो जाता! कोई बारह बजे, काम्या की आँख लग गयी, सो लेती तो ठीक ही था, मैंने, एक कपड़े का तकिया सा बना, उसका सर रख दिया था, और उसको चादर उढ़ा दी थी, अब मैं और शर्मा जी बातें कर रहे थे, और उन पर नज़र रखे हुए थे, उन्होंने 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आग जला ली थी, बैठे थे उसके पास ही, मुझे ये विचार अच्छा लगा, मैं और शर्मा जी, पास में ही से, कुछ लकड़ियाँ ले आये, कुछ फूस और सूखी हुई घास, और थोड़ी पास ही, आग जला ली, आग जली, तो चैन आया, हम उसमे लगातार लकड़ियाँ डाले जाते थे! कोई एक बजे, उन्होंने अब क्रिया की तैयारी की, वे दोनों जुट गए मंत्रोच्चार में, त्रिशूल उन्होंने वहीं गाड़ लिए थे, और अब वेध क्रिया आरम्भ हई। अभिमंत्रित सामग्री वे वहाँ फेंकते जाते थे। एक रुकता तो दूसरा मंत्र जपता! इसी प्रकार उन्होंने ये क्रिया-कलाप ज़ारी रखा! अब वे इक्कीस दीये प्रज्ज्वलित किये गए! दीवाली का सा दृश्य प्रतीत हो रहा था! हम इन सबसे अलग थे! उनकी इस क्रिया से अलग! हम ओ मात्र यही देख रहे थे कि गान्धर्व वेधन कैसे किया जाता है! फिर बजे दो! मैंने शर्मा जी के नेत्र पोषित किया! कुछ और पल बीते! कुछ और पल,आँखें आकाश पर गड़ गयीं हमारी! मैंने तब, काम्या को जगा दिया था। उसके भी नेत्र पोषित किये! 

और अगले ही पल, आकाश में प्रकाश फूटा! सफेद रंग का चमकदार प्रकाश! फिर पीला! फिर नारंगी सा! फिर नीला! 

आँखें चंधिया गयीं थीं हमारी तो! ऐसा लगा रहा था कि जैसे आतिशबाजी हो रही हो! अचानक से हाड़ कंपा देने वाली हवा चली! ठंड ऐसी बढ़ी, कि हाथ-पाँव ठंडे पड़ गए! जल्दी से उस आग में लकड़ियाँ डाली, आग भड़की, तो कुछ राहत मिली! एक ही पल में, मुंह से धुंआ निकलने लगा था ठंड के मारे! तो आग से राहत मिली! और वहां वहां आकाश में रंगों की रेखाएं एक दूसरे को काट रही थीं! और तब, एक बड़ा सा प्रकाश का गोला प्रकट हुआ, फूटा, लाला रंग था उसका, और आकाश से, फिर से वहीं लाल से रंग का प्रकाश नीचे की ओर चला! 

जैसे कोई थान खुला हो मखमल का! नीचे की ओर आ रहा था! "अद्भुत!" कहा मैंने, 'वाक़ई।" बोले शर्मा जी, 

और तब, एक सफ़ेद रंग का प्रकाश फूटा! 

पानी के सतह से कोई बीस फ़ीट ऊपर, श्वेत रंग के दिव्य वस्त्रों में, आभूषणों से लदी वो कन्या, अब नीचे आ रही थी! आज उसका श्रंगार पहले से, कहीं अधिक अलौकिक था! जैसे, कोई विशेष ही प्रयोजन हो उसके लिए! केश तो पूरे आभूषणों की लड़ों से गुंथे पड़े थे! 

क्या माथा, क्या सर, क्या कान, क्या नाक, क्या गला, क्या वक्ष! ऐसा कोई स्थान नहीं, जहां उसने आभूषण न धारण किये हुए हों! आज तो वो गान्धर्व-कन्या, शुक्र-मंडल से आई हई कोई अप्सरा प्रतीत होती थी! शुक्र-मंडल ऐसी ही अद्वितीय अप्सराओं का वास है! शुक्र-मंडल, पृथ्वी से, दो लक्ष योजन की दूर पर स्थित है! भूमध्य रेखा से, तेईस डिग्री दक्षिण में! ऐसी ही लग रही थी वो आज! नीचे आई, और जैसे ही नीचे आई, जल ऊपर उठा! अपने आप, जैसे गोद में लेना चाहता हो उसे! आलिंगन करना चाहता हो उसका! 

और वो फिर पानी में उतर गयी! धीरे धीरे! जल, ऊपर उठ चला, उसके शरीर से लिपट, जैसे भंवर बना रहा हो ऐसे! बहुत अद्भुत नज़ारा था वो! वो चली नदी के मध्य! और जल में रंग बिरंगा प्रकाश ही प्रकाश! "कैसी अद्भत है!" बोले शर्मा जी! "हाँ, सच में!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी! तभी वे इक्कीस दीये एक साथ बझ गए! भूमि में छिपाए हुए सामग्री के अवयव, सभी दहक उठे। मुझे बड़ी ही प्रसन्नता हुई। लगा, मेरा मन-माफ़िक़ काम हो गया! इनके साथ तो, ऐसा ही होना चाहिए! और हो रहा था! क्रिया-कलाप सब धसरित हो गए थे! काट हो गयी थी! 

अब ये नहीं पता, कि काटा किसने! उस महा-साधक ने, या इस गान्धर्व-कन्या के प्रभाव ने! भगदड़ सी मच गयी। दोनों ही उठे,अलख में ईंधन डाला! 

और जैसे ही मंत्र पढ़े, अलख फट पड़ी! उसकी चिंगारियां हम तक भी पहुंचीं! "ये क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने! 

"काट हुई है!" कहा मैंने, "कैसे बिलबिला रहे हैं!" बोले वो, "हाँ, अभी देखते रहो!" कहा मैंने, 

अब तक वो कन्या, दूर, परले किनारे पर चली गयी थी! वो वहाँ ज़रूर जाती थी! कोई न कोई कारण तो था, किनारे से हट कर उतरती थी, फिर मध्य में, और फिर दूर चली जाती थी! उस पार! 

क्या है वहाँ? कुछ न कुछ तो है ही! करीब आधे घंटे के बाद, वो लौटने लगी! जल में शोर होने लगा! जैसे आंधी सी चल रही हो जल के नीचे! "आ रही है!" बोले शर्मा जी, "हाँ!" कहा मैंने, 

और फिर वो रुक गयी। बीच में ही! चेहरा नहीं दीख रहा था उसका, बस शरीर, वो भी प्रकाश के मारे! हम खड़े हो गए! थोड़ा आगे चले, 

और वो लौटी फिर, चली गयी वापिस, उसी किनारे पर! फिर से लौटी! 

और इस बार सीधी चली! हम वही खड़े रहे, दिल थामे! सांसे थामे! 

और वो बाबा, वो दोनों अब आगे आ गए थे, किनारे के पास, 

शायद उस कन्या से, वार्तालाप करने, बाबा शैशव ने, तभी वो अस्थि-दण्ड उठाया, 

और किया उस कन्या की ओर, पढ़ा मंत्र! अब वो आई किनारे की तरफ! और बाबा शैशव, अपना अस्थि-दंड लिए, लहरा रहे थे मंत्र बोलते हए, बाबा नेव्रत नीचे कुछ फैंके जा रहे थे! और बाबा शैशव, चले अब पानी में, अस्थि-दंड ऊपर 

उठाये। वो कन्या समीप आई उनके और रुक गयी! चेहरे पर क्रोध सा झलका और तभी बाबा नेव्रत मंत्र बोलते हुए उतरे पानी में! चले उस कन्या की तरफ! वो श्वेत सर्प, उस कन्या के पीछे चले गए! 

और तब, तब वार्तालाप आरम्भ हुआ बाबा नेव्रत और उस कन्या का! कल उसने देखा भी नहीं था, और आज वो रुक भी गयी थी, देख भी रही थी और सुन भी रही थी! शायद, बाबा नेव्रत ने किसी गान्धर्व-विदया का प्रयोग किया हो! मैं सन नहीं पा रहा था कि क्या कह रहे थे वो एक दूसरे से! और तभी वो उठी ऊपर, रंग बरसने लगे! वे दोनों बाबा, चिल्लाते रहे उसको बुलाते बलाते। लेकिन वो चलती रही ऊपर की तरफ, और झम्म से लोप हई। हाथ मलते रह गए दोनों ही! अब मैं चला किनारे की तरफ, और किया इंतज़ार उनके आने का, वे आये, और तब मैंने बात की बाबा शैशव से! "क्या वार्तालाप हुआ?" पूछा मैंने, "कुछ बोली ही नहीं!" बोले वो, "आपने क्या पूछा?" पूछा मैंने, "नाम, कौन है वो?" बोले वो, "तो कुछ नहीं बोली?" पूछा मैंने, "नहीं, एक शब्द भी नहीं!" कहा मैंने, "वो बोलेगी भी नहीं!" कहा मैंने, रुक गए वो, नेव्रत भी


   
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श्रीशः उपदंडक
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रुके, "क्यों?" बोले नेव्रत! "ये, ये स्थान है किसी साधक का!" मैंने कहा, "साधक का?" पूछा बाबा शैशव ने, "हाँ, किसी महाप्रबल साधक का!" कहा मैंने, "कैसे पता तुम्हें?" बोले नेव्रत! 

अब मैंने एक तरफ इशारा किया, वहीं जहां मंदिर था! "उधर जाइए, कौलिश अथवा दुहित्र प्रयोग करो! और देखो!" कहा मैंने, उन्होंने एक दूसरे को देखा तब! "तभी हमारी विद्याएँ कट रही हैं! कोई काट रहा है विद्याएँ!" बोले शैशव बाबा! "आओ फिर!" बोले नेव्रत, 

और चल पड़े उधर ही, उन्होंने कॉलिश चलाया, और नेत्र पोषित किये अपने! और खोली आँखें! जो मैंने देखा था, वही उन्होंने भी देखा, हाँ, फूल नहीं देखे, न पत्तियां, बस राख! उन्होंने अवलोकन किया एक एक वस्तु का! उनको वो छल्ला भी मिला, वो गोलियां भी! और गुर्राता 

हुआ, वो श्वान भी! 

और फिर वो लौट आये! "हाँ, सही कहा तुमने!" बोले नेव्रत! "मैंने कहा था न!" कहा मैंने, "लेकिन इस साधक के बारे में जानना अब आवश्यक है!" बोले बाबा नेव्रत! "लेकिन साधन कौन सा हो?" पूछा मैंने, "हाँ, वहां कोई नज़र नहीं पहुंचेगी!" बोले बाबा शैशव, "तो जाना कैसे जाए?" बोला मैं, "अब ये देखना होगा!" बोले वो, "एक बात और!" कहा मैंने, "वो क्या?" पूछा नेव्रत ने, "वो कन्या, उस किनारे जाती है, वहाँ कुछ न कुछ है!" कहा मैंने, "ये मुझे भी लगा था" बोले बाबा शैशव, "वहाँ की जांच आवश्यक है!" कहा मैंने, "अभी चलते हैं!" बोले बाबा शैशव, "अभी नहीं, कल!" कहा मैंने, "अभी क्यों नहीं?" पूछा बाबा ने, "अँधेरा है, उजाले में सब दिखेगा!" कहा मैंने, "ये भी ठीक है!" बोले बाबा शैशव! "तो अब डेरे चलो!" बोले नेव्रत! "हाँ, चलो!" बोले वो, 

और हम, अब अपना अपना सामान उठा, चल दिए वापिस! शर्मा जी और काम्या, सो गए थे गाड़ी में ही, मैं भी कभी-कभार झपकी ले ही लेता था! 

और इस तरह, कोई साढ़े पांच बजे हम डेरे पहंचे, जहां हम पहले आये थे, कमरे मिले, तो सो गए! मेरी नींद एक बजे दोपहर में खुली, शर्मा जी जाग गए थे, उन्होंने बताया कि, काम्या भी आई थी, मैं सो रहा था, तो सोने ही दिया! मैं भी फारिग हुआ, चाय-नाश्ता किया, और गया बाबा के पास, हम तीन बजे निकलने वाले थे वहाँ से, परले किनारे के लिए, तीन बजे, हम हए सवार और चल दिए वहां के लिए, 

कोई डेढ़ घंटे में हम वहां पहुंच गए थे, आज भीड़ नहीं मिली थी। आये हम उधर, बस पत्थर ही पत्थर थे वहां, पेड़ और रेत! कंकड़, बजरी और नदी की छोटी छोटी सीपियाँ, बस! 

अब आसपास देखा हमने, ढूँढा हर जगह, कि मिल जाये कुछ नहीं मिला, अब मैंने दुहित्र चलाया! और नेत्र खोले, मुझे वहां पर, एक कच्चा कमरा सा दिखा, जो अब टूट गया था, उधर ही वो बाबा भी अ आगये, उन्होंने भी देख लिया था वो कमरा, "ये तो कमरा है कोई?" बोले बाबा नेव्रत, "हाँ, लेकिन टूटा हुआ है" कहा मैंने, उसके अंदर चले, तो कंकड़ और बजरी, और कुछ नहीं, "ये कहीं उसी साधक का आवास तो नहीं?" बोला मैं, "हो सकता है" बोले बाबा नेव्रत! "और तो कुछ नहीं यहां!" बोला मैं, "आगे देखते हैं!" बोले वो, 


   
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और हम आगे चले आगे चले तो एक पेड़ दिखा, बड़ा सा, ये वैवन का पेड़ था, चौड़ी पत्तिया वाला! 

और भी कई पेड़ थे वहाँ, आपस में सटे हए! जैसे ही उसके नीचे से हम गुजरे, कुछ बूंदें से टपकी हमारे ऊपर! मैंने छूकर देखा, तो ये, रक्त सा लगा! "ये तो रक्त है!" कहा मैंने, "रक्त कहाँ से आया?" बोले वो, हमने ऊपर देखा, ऊपर देखा तो ऐसा नज़ारा था कि हम सोच भी नहीं सकते थे! पेड़ों पर, लाशों के टुकड़े टंगे थे! "लाशों के टुकड़े?" बोले वो, हम हट गए वहाँ से, हटे, तो टुकड़े गायब! "ये क्या है, माया?" बोले बाबा शैशव! "यही लगता है!" बोले बाबा नेव्रत! "इसका अर्थ क्या हुआ?" बोले बाबा शैशव! "पता नहीं!" बोले नेव्रत! 

"चेतावनी!" कहा मैंने, "चेतावनी?" बोले नेव्रत! "हाँ, चेतावनी!" कहा मैंने, "कैसी चेतावनी?" पूछा उन्होंने, "यहां से जाने की!" बोला मैं, अब मुंह ताकें एक दूसरे का वो दोनों! "इस मामले से हट जाओ!" कहा मैंने, "क्यों?" बोले नेव्रत, "ऊपर देखो!" कहा मैंने, "टुकड़े हैं" बोले वो, "ये भी आपकी तरह ही होंगे!" कहा मैंने, 

अब हुआ धमाका! थूक गटकने लगे दोनों! "तो हम भाग जाएँ?" बोले वो, "आपकी मर्जी!" कहा मैंने, "मैं पारंगत हूँ ऐसी विद्याओं में!" बोले वो, "ये भी होंगे! आम आदमी की मज़ाल क्या!" कहा मैंने, "कह चुके?" बोले वो, "हाँ, जितना कहना था!" कहा मैंने, "तो अब चुप रहो" बोले वो, 

और तभी भम्म! भम्म से एक टुकड़ा आ गिरा लाश का, ठीक हमारे पास, कीड़े लगे थे उसमे, रीढ़ की हड्डी, कमर से ही चीर कर बाहर खींच दी थी उसकी! 

गरदन का हिस्सा था वो, बदबू उठ रही थी भयानक! वे दोनों उस टुकड़े को देख सहम तो गए थे! आँखें फट पड़ी थीं उनकी! जैसे ही वो टुकड़ा गिरा, मांस के लोथड़े बिखर गए थे आसपास, सफेद रंग के कीड़े भी संग ही उन लोथड़ों के जा पड़े थे! 

और तभी एक और टुकड़ा गिरा! ये सर था किसी का, सर उखाड़ दिया गया था धड़ से! गरदन में मांस के लोथड़े लटके पड़े थे, टैंटुआ बाहर निकल आया था, आँखें सूज कर, बार निकल आई थीं, दादी पर खून लगा था जो अब जमकर, काला पड़ गया था, पेट तक की खाल खिंच आई थी! केश तितर-बितर हो गए थे। वो जैसे ही गिरा, मक्खियाँ दौड़ पड़ी उस पर, उसके खुले मुंह में, कीड़े ही कीड़े रेंग रहे थे। सफेद और पीले रंग के! बड़ा ही वीभत्स दृश्य था वो! और फिर एक टुकड़ा और गिरा! ये टांग थी! घुटने से उखाड़ दी गयी थी! पेशियाँ सूख कर, रस्सियाँ बन गयी थी! 

 

 

"चलो यहां से!" बोले नेव्रत! "अभी देखो तो सही!" कहा मने, "नहीं, चलो?" बोले वो, 

और वे दौड़े वहाँ से! जैसे ही दौड़े, वे टुकड़े ज़मीन में सोख लिए गए! मैं, हाथ जोड़, निकल लिया वहाँ से, वे तो ऐसे भागे, जैसे गधे के सर से सींग! मैं आया शर्मा जी और काम्या के पास, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बताया उन्हें सबकुछ। वे एक तरफ तो भयभीत हए, लेकिन एक तरफ संतुष्ट भी, कि बाबा लोगों को दिखा दिया था सामर्थ्य! मैंने उस कमरे की तरफ देखा, तो वहां से, मुझे सफ़ेद धुआं निकलते हुए दिखा! उसी कमरे से, "एक मिनट, मैं आया!" कहा मैंने, 

और मैं दौड़ पड़ा उस कमरे के तरफ, वहां पहुंचा, आदर देखा, तो अंदर अब, न बजो थी, न ही कोई कंकड़-पत्थर! अंदर तो भूमि लिपिहई थी गोबर से! अंदर, चूल्हा जल रहा था, उसमे, अरहर के सूखे पौधे जल रहे थे। चटर चटर की आवाज़ हो रही थी! बर्तन नहीं था कोई, वहाँ की ज़मीन पर, एक कश की घास से बना आसन भी लगा था! जैसे, कोई भोजन करता हो उधर! कोई उसे, पका पका कर, रोटियां और दाल-सब्जी देता हों! ऐसा ही लग रहा था! चूल्हे की आग, जल रही थी, धुआं यहीं से आ रहा था! लेकिन को था नहीं वहाँ! मैं बाहर आया, जैसे ही आया, चूल्हा बंद! धुआं बंद! अजीबोगरीब खेल चल रहा था वहां! मैं हुआ वापिस, और जैसे ही हुआ, वही श्वान, मुझे दिखा, वहीं खड़ा हुआ, वो चला पीछे फिर, मैं चला उसके साथ, ऊपर चढ़ा एक जगह, और रुका वो, मैं भी चला, वो नीचे उतरा, मैं भी उतरा और उतरते ही, वो श्वान गायब! और वहां, था भी कुछ नहीं! 

खैर, मैं आगे गया, आगे झुरमुट था पेड़ों का, वहीं गया, 

वहां क्या देखा! देखा, एक मंदिर बना है, ठीक वैसा ही! जैसा उस पार था! गारे से चिना हुआ, चूने से पता हुआ! हाँ, उसके पास, एक त्रिशूल गड़ा था! अब मैं करीब गया! 

और उस मंदिर को प्रणाम किया, फिर उसकी मिट्टी को, माथे से लगाया! और फिर वो त्रिशूल छुआ! लोहे का त्रिशूल था वो! मज़बूत और बढ़िया पिटा हुआ! कारीगरी देख, लगता था कि, कम से कम दो-ढाई सौ वर्ष पुराना तो अवश्य ही रहा होगा! तभी मुझे कुछ खड़कने की आवाज़ आई! जैसे किसी महिला की पायजेब खड़की हो! मैं चला उस तरफ, पेड़ों के बीच बीच, सामने कुछ दिखा, वहीं की ओर बढ़ा! वहाँ पहुंचा, तो एक पेड़ के पास मुझे, एक मूर्ति दिखी, किसी स्त्री की मूर्ति, मूर्ति भी लकड़ी की, अब जर्जर हो चली थी, उसी के हाथ में एक चैन पड़ी थी, अंगूठे को घेरे हुए, जब हवा चलती थी, तो वो चैन बजती थी! वो मूर्ति ऐसी थी, कि मैं उसे यदि हाथ लगाता, तो चूर्ण बन, गिर जाती नीचे, इसीलिए हाथ नहीं लगाया! आसपास देखा, और कुछ नहीं था, कुछ भी नहीं! बस वही पेड़ पौधे! मैं लौटा फिर वहाँ से! अभी तक गुत्थी सुलझी नहीं थी, बल्कि, और उलझ गयी थी! ये तो तय था कि, वो यहां आती थी, एक संबंध नज़र आया मुझे, उस साधक से, इस कन्या का कुछ लेना-देना अवश्य ही था! अब था क्या? ये दफन था! कहाँ मिले? कैसे मिले? क्या करूँ? ये नहीं जानता था! 

मदद मैं ले नहीं सकता था वो होना भी नहीं था! मरुस्थल में, बिना दिशा का ज्ञान हुए, आगे बढ़े जा रहा था मैं, तभी कुछ ध्यान आया मुझे! कुछ! मैं भूल कैसे गया? लौटा पीछे! भागते हुए, आया मंदिर तक, और अब मंदिर को चारों तरफ से देखा! मंदिर पर कुछ भी न लिखा था, उस मंदिर में, एक पिंडी बनी थी, मैंने प्रणाम किया उसे! 

और फिर सूक्ष्म अवलोकन किया! मुझे तभी, पेड़ पर, झूल रही झंडियां दिखाई दी, काले रंग की! बहुत ऊपर तक बाँधी गयी थीं वो झंडिया! मैंने आसपास खूब जांच की, खूब जांच, लेकिन


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ हाथ न आया! फिर से वही आवाज़ आई, खड़कने की उस चैन की, मैं वहां चला, वहां गया, 

और उस मूर्ति को देखा, आँखें उसकी अब गड्ढे बन चुकी थीं! होंठ, बारिश से घिस चुके थे, स्तनों का आकार बिगड़ गया था, मैंने और गौर से देखा उसे, 

और गौर से, और तब मुझे, उसकी पीठ पर कुछ खुदा हुआ मिला, मैंने खूब कोशिश की उसको पढ़ने की, खूब रेत झोंका उसमे, लेकिन नहीं पता चला, वक़्त की मार से न बच सकी थी वो शायद! नहीं आया समझ! कुछ समझ नहीं आया। मैं अब लौट चला, 

लगा, पीछे कोई खड़ा है। बार बार यही लगे, कि पीछे कोई है खड़ा हुआ! मैं रुक गया, अपनी परछाईं देखी, दायें बाएं देखा, कोई नहीं, और मैंने, एक झटके से पीछे देखा! तो कोई मंदिर नहीं! कुछ नहीं! कोई झंडी नहीं! मैंने मंत्र वापिस लिया, 

और दुबारा पढ़ा, फिर से नेत्र खोले, तो भी कुछ नहीं! मुझे कौन ऐसे आयाम में धकेल रहा था? 

कौन? 

और आखिर किसलिए? वो मंदिर कहाँ गया? वो त्रिशूल? वो झंडियां? कहाँ गयीं? कौन है जो कुछ कहना चाहता है? कौन? दिल धड़कने लगा तेज तेज! नसों में तेज हुआ खून बहना तो हाथों और गर्दन की नसें फूल गयीं! बदन में, जैसे कोई रासायनिक क्रिया आरम्भ हो गयी! मैं रुका, और चला वापिस, उसी मंदिर के तरफ, वहां पहुंचा, तो कोई मंदिर न था वहां! कुछ भी नहीं! अब क्या करूँ? मुझे मेरे श्री श्री श्री जी ने एक देख-मंत्र दिया था, सिद्ध भी करवाया था, ये महा-मंत्र है, ये है अरुषाल! मेरा दुहित्र यहां काम नहीं कर रहा था अब, फिलहाल! इसीलिए मुझे, अब अरुषाल को पढ़ना था! अरुषाल मूल रूप से एक आसुरिक मंत्र है। ये सूक्ष्म को भी, समर्थ कर देने में समर्थ है! आप देख पाएंगे इस से! मैं नीचे बैठा, एक छूटी मिट्टी ली, अपने माथे से लगाई,गुरु-नमन किया, फिर अपने श्री श्री श्री को हाथ जोड़,नमन किया, 

और पढ़ दिया मंत्र! कानों में पीड़ा होने लगी! मुंह कड़वा हो गया! आँखें सूज चलीं! होंठ सूज गए! मैं मंत्र जपता रहा, और तब आँखों से पानी बहना शुरू हुआ, जब नेत्र खोले, 

तो सामान्य होता चला गया! उठा तो सामने मंदिर था! अरुषाल ले आया था मुझे उस के पास! "क्षमा कर देना बाबा, क्षमा। मेरा अपराध क्षमा करें!" कहा मैंने, 

और मंदिर को प्रणाम किया। घंटों का शोर सुनाई दिया! बड़े बड़े घंटों का! 

जैसे वहाँ सैंकड़ों मंदिर हों और घंटे बज रहे हों एक साथ! स्वर गूंज उठे, महातामसिक मंत्र! भूमि जैसे गर्म हो गयी थी! वो झंडियां, तेज वायु में फड़-फड़ कर, हिलती जा रही थीं! धूल उड़ने लगी थी! तेज प्रचंड वायु बहने लगी थी! मेरा तो पाँव टिकाना मुश्किल हो गया! मैं भागा, एक पेड़ की तरफ, वो वायु मेरा मार्ग रोके! जैसे बहा ले जायेगी! कैसे न कैसे करके, मैं आ गया पेड़ तक, और भर लिया दोनों बाजूओं में उसे! अब राहत मिली, पेड़ की टेक मिली तो साँसें भी खुली! पानी नदी का, सागर बन गया था, लहरें उठने लगी थीं। छोटे-मोटे कंकड़, झाड़, उखड़-उखड़ कर, नदी की तरफ 


   
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श्रीशः उपदंडक
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जा रहे थे। अंधड़ था वो! भयानक अंधड़! वो मंदिर वहीं खड़ा था, त्रिशूल भी! हैरत की बात थी कि, मंदिर के के पीछे के पेड़, चुपचाप खड़े थे! वहां वायु नहीं थी! वायु बस, यहीं थी! तभी धम्म की सी आवाज़ हुई! फिर भराड़ की सी, और मंदिर के पास की भूमि धसक गयी नीचे, गड्ढा हो गया! 

और तो और, वायु भी शांत हो गयी! मैं चला उस तरफ, उस गड्ढे तक आया, झाँका उसने, देखा, तो उसमे, कुछ वस्त्र पड़े हुए थे, काले और नीले वस्त्र! मैं हाथ डालकर, उठा सकता था वो वस्त्र, मैं लेटा ज़मीन पर, और एक वस्त्र मेरे हाथ आया, मैंने खींचा, ये काला वस्त्र था, खींचा उसे, तो उसके साथ और भी वस्त्र बंधे थे, मैंने खींचा, बहुत भारी लगा! लगा कुछ बंधा हआ है उस से! मैंने खींचा, 

और एक बड़ी सी गठरी दिखी मुझे! मैंने गठरी खींची वौ! और ले ली ऊपर! अब बैठा नीचे, और उस गठरी को खोला, बड़ी मुश्किल से खुली वो! जब खुली तो मेरे होश उड़ गए! उसमे अस्थि-माल, रुद्र-माल, कपाल-माल, मेरु-माल,अस्थियों के टुकड़े, कौड़ियां, तमलवज, खिरदप्प,अनुवज, पिपलिवज आदि रखे थे! मैं तो काँप गया! ये तो कोई सिद्ध लगते थे! तमलवज़ और खिरदप्प मात्र सिद्धों को ही सुशोभित हैं! मैंने पोटली बंद की! 

और, क्षमा! क्षमा! कहते हुए, डाल दी गड्ढे के अंदर! भूमि पर थाप हुई मेरे पीछे! मैंने पीछे देखा मुड़कर, तो वायु में दो महाहिराक्ष खड़े थे! महाभट्ट! महाबलशाली! चौड़े चौड़े शरीरों वाले महाहिराक्ष! 

"कौन हो तुम?" एक ने पूछा, मैंने परिचय दिया अपना! "क्या औचित्य है?" पूछा गया, 

बता दिया, मात्र जिज्ञासा, अपमान करने का तो साहस ही नहीं! "क्या जानना चाहते हो?" बोला वो, "ये, किसका स्थान है?" पूछा मैंने, "बाबा अक्षवसु का!" बोले वो, अक्षवसु! प्रणाम बाबा! क्षमा करें! मेरे अपराध को क्षमा करें! "और वो गान्धर्व-कन्या?"मैंने नदी की तरफ इशारा करते हुए पूछा, "ऋतुक्षा!" बोले वो, ऋतुक्षा! वो गान्धर्वकन्या ऋतुक्षा है! "और बाबा कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "वे कृतकाकृतक मैं वास कर रहे हैं!" बोले वो, महर्लोक में? क्या सच? सिद्ध उसी लोक में जाते हैं? अब दिमाग में चली आंधी! खैर, मैंने प्रणाम किया उन्हें! वे मुस्कुराये, और लोप हो गए! मैं तो वहीं बैठ गया! कृतकाकृतक में वास कर रहे हैं। सिद्ध वहीं प्रवेश करते हैं। इसी महर्लोक में! मुझे कभी नहीं पता था! अब जान गया था। प्रणाम अक्षवसु! प्रणाम! मुझ जैसे तुच्छ के लिए ये ज्ञान, ब्रह्मज्ञान के कम नहीं! प्रणाम! प्रणाम! 

और मैंने हाथ जोड़ लिए तभी के तभी! और मैंने, तभी अरुषाल को वापिस लिया! वापिस लेते ही, पेट में दर्द हआ, जैसे मेरी आंतें खींच ली हो मुंह से! मुझे उलटी आ गयी, बुरी तरह से! चक्कर आया, और मैं धीरे धीरे नीचे बैठता चला गया। करीब दस मिनट के बाद मेरी आँखें खुलीं, मुंह कड़वा हो गया था और दांत खट्टे! मैं उठा, प्रणाम किया, 

और चल पड़ा वापिस! एक किलोमीटर से अधिक चला गया था दूर! जब मैं आया, तो बाबा नहीं थे वहां, वो शायद और कहीं गए थे! शायद तलाश करने कुछ और सूत्र! मझे देख, शर्मा जी भाग लिए मेरे पास, मैंने पानी माँगा, पानी लिया, कुल्ला किया और पानी पिया! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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काम्या को बुलाया मैंने, और तब, मैंने उन्हें सब बता दिया। सब! दोनों ही चकित! हैरान! मैं ले आया था जानकारी! उन्होंने बाबा का नाम लेकर, प्रणाम किया! "वो कृतकाकृतक लोक में हैं, तो क्या आ नहीं सकते?" पूछा शर्मा जी ने, "नहीं। कुछ संधि तक!" कहा मैंने, "कितना कम से कम?" पूछा उन्होंने, "सौ वर्षों से ले,छह सौ वर्षों तक!"कहा मैंने, "अच्छा! अब समझा!" बोले वो, "हाँ! इसीलिए नहीं आये!" कहा मैंने, "अब आई कहानी समझ में!" बोले वो, "हाँ! लेकिन!!!" कहा मैंने, "क्या लेकिन?" बोले वो, "एक रहस्य अभी शेष है!" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "वो ये, कि यहां ऋतुक्षा क्यों आती है?" कहा मैंने, "अरे हाँ!" बोले वो, "यही!" कहा मैंने, "तो जो महाहिराक्ष आये थे, उनसे पूछ लेते?" बोली काम्या, "पूछने से पहले ही लोप हो गए!" कहा मैंने, "ओह....." बोली वो, "यही तो रहस्य है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली काम्या! "चलो, ये भी जान ही जाएंगे!" बोले वो, 

"हाँ, अब तो उम्मीद है!" बोला मैं, "आओ जी? कुछ नहीं है यहां?" आवाज़ आई बाबा शैशव की! मैं हंस पड़ा! हम भी हंसने लगे! कुछ नहीं है यहां! हाँ! कुछ नहीं! कम से कम उनके लिए! हमारे लिए तो, बहुत, कहीं बहुत था! हम चले गाड़ी तक, पहुंचे, बैठे, और चल पड़े! हो गए रवाना, डेरे के लिए! अब बस, दशमी को आना था, वापिस! रहस्य सुलझाने! तो हम वापिस आ गए थे, थक भी गए थे बहुत! उलटी के कारण अभी भी मेरी पसलियों में दर्द था, और दांत खट्टे हए पड़े थे! मैं जाते ही नहाया-धोया, फिर चाय मंगवाई और हम तीनों ने ही संग-संग पी! आज तो देखा था, वो अद्भुत ही नहीं, परम अद्भुत था! अनजाने में ही हम ऐसे किसी सिद्ध-स्थान पर जा पहुंचे थे। बाबा अक्षवसु का सिद्ध स्थान! बाबा सिद्ध होते हए भी ऐसे साधारण ही थे। दीन-दुनिया से पृथक नदी के उस किनारे मात्र एक छोटे से कच्चे कमरे में ही आवास था उनका! बाबा ने वहीं सिद्धत्व प्राप्त किया होगा! फलस्वरूप उनकी अब नैसर्गिक शक्तियां, उस स्थान पर वास करती र्थी! कई मित्रों ने लोकों के विषय में पूछा है, पहले आपको पृथ्वी के विषय में ही बताता हूँ, मैं आपको संक्षिप्त रूप से बताता हूँ, ये वर्णन ऋषि पाराशर ने मैत्रय ऋषि से किया था, इसका वर्णन वैसे तो सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता! परन्तु मैं आपको कुछ बताता हूँ! ये पृथ्वी, मुख्य रूप से सात द्वीपों में बंटी हुई है! ये सात द्वीप हैं, जम्बूद्वीप, प्लक्षद्वीप, शाल्मलद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप और पुष्करद्वीप! भारतवर्ष के नौ भाग हैं: इन्द्रद्वीप, कसेरु, तामपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गन्धर्व और वारुण, तथा यह समुद्र से घिरा हआ द्वीप उनमें नवां है। समुद्र के उत्तर तथा हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष स्थित है। इसका विस्तार नौ हजार योजन है। यह स्वर्ग अपवर्ग प्राप्त कराने वाली कर्मभूमि है। इसमें सात कुलपर्वत हैं: महेन्द्र, मलय, सहय, शुक्तिमान, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र।यह द्वीप उत्तर से दक्षिण तक सहस योजन है। इसके पूर्वी भाग में किरात और पश्चिमी भाग में यवन बसे हुए हैं। चारों वर्गों के लोग मध्य में रहते हैं। शतदू और 

चंद्रभागा आदि नदियां हिमालय से, वेद और स्मृति आदि पारियात्र से, नर्मदा और सुरसा आदि विंध्याचल से, तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या आदि ऋक्ष्यगिरि से निकली हैं। गोदावरी, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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भीमरथी, कृष्णवेणी, सह्य पर्वत से; कृतमाला और तामपर्णी आदि मलयाचल से, त्रिसामा और आर्यकुल्या आदि महेन्द्रगिरि से तथा ऋषिकुल्या एवं कुमारी आदि नदियां शुक्तिमान पर्वत से निकली हैं। इनकी और सहसों शाखाएं और उपनदियां हैं। इन नदियों के तटों पर कुरु, पांचाल, 

मध्याअदि देशों के; पूर्व देश और कामरूप के; पुण्ड्र, कलिंग, मगध और दक्षिणात्य लोग, अपरान्तदेशवासी, सौराष्ट्रगण, तहा शूर, आभीर एवं अर्बुदगण, कारूष, मालव और पारियात्र निवासी; सौवीर, सन्धव, हूण; शाल्व, कौशल देश के निवासी तथा मद्र, आराम, अम्बष्ठ और 

पारसी गण रहते हैं। भारतवर्ष में ही चारों युग हैं, अन्यत्र कहीं नहीं। इस जम्बूद्वीप को बाहर से लाख योजन वाले खारे पानी के वलयाकार समुद्र ने चारों ओर से घेरा हुआ है। जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। ये संक्षिप्त वर्णन है, या यूँ कहें, अति-संक्षिप्त! अब इस से संबंधित प्रश्न न पूछे जाएँ। क्योंकि, ये अत्यंत ही विस्तृत वर्णन है! और मैं उसे लिख नहीं 

सकता। हाँ, तो उसके बाद, हमने आराम किया, पांवों की एड़ियां भी दर्द से पीड़ित थीं! आराम किया, तो जब उठे, साँझ ढल चुकी थी, बाबा शैशव ने हमारा जुगाड़ भिजवा दिया था, साथ में खाने-पीने का सामान भी, तो हमने खाया-पिया, भोजन किया और फिर काम्या को भी भोजन करवा दिया था, रात कोई ग्यारह बजे, काम्या के कमरे से मैं निकल, अपने कमरे में आ गया था, और इस तरह बातें करते करते हमें रात का एक बज चुका था, उसके बाद हम सो गए थे! सुबह हुई, हम उठे, फारिग हए, चाय-नाश्ता किया, 

और कोई दस बजे, हम निकल पड़े फिर से घूमने अन्य स्थलों की ओर! भोजन भी वहीं किया, और कोई पांच बजे, हम वापिसहए! इस प्रकार ही, हमने अपने वो चार दिन काट दिए। समय काटे नहीं कट रहा था, बेचैनी और उत्कंठा ने, गाला पकड़ पकड़ कर, पूरे शरीर को हिला रखा था! और फिर आया दशमी का दिन! उस दिन तो एक एक पल भारी लगे काटने को! एक एक पल ऐसा भारी, की एक एक पल, एक एक हफ़्ता सा गुजरे! किसी तरह से बजे तीन, और हम हए तैयार, भोजन कर ही लिया था, गाड़ी में बैठे, और चल पड़े पुनः वहीं! रास्ते में वहीं रुके, चाय पी, पानी खरीदा, और फिर सीधा उसी डेरे पर, थोड़ा आराम किया, आगे की रणनीति बनाई, कि कैसे सबकुछ करना होगा, शर्मा जी का काम क्या और काम्या का काम क्या! जब मैं उन सभी के बीच होऊं, तो उन दोनों को वहाँ नहीं आना था! जब तक मेरा कोई इशारा न हो! रात करीब दस बजे, हम वहाँ पहुँच गए थे, भोजन कर लिया था, और इस बार कंबल ले आये थे! रात को जाड़ा बढ़ जाता था नदी किनारे! आग जलायी, एक साफ़ जगह, बिस्तर लगाया, और काम्या को लिटा दिया उधर, कंबल उढ़ा दिया था, और शर्मा जी, और मैं, कंबल ओढ़, उन बाबाओं को देखे 

जा रहे थे! वे अपनी क्रियाओं में लगे हुए थे, बाबा नेव्रत ने तो कोई विशेष पूजन भी किया था उन तीन दिनों में! "बस! आ लिया इनका दिन!" बोले शर्मा जी, "हाँ, समझते ही नहीं!" कहा मैंने, 

"इनको तो शक्तियां चाहिये, सिद्धियां!" बोले वो, "हाँ, कमी रह गयी है अभी!" कहा मैंने, "आज हो जाएगी कमी पूरी!" कहा मैंने, "सबक मिलना भी चाहिए!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उधर, हए मंत्रोच्चार आरम्भ! अलख में भोग डाला जा रहा था, बाबा नेव्रत बार बार भोग अर्पित करते थे। आज तो कपाल-पूजन भी हो रहा था! ये स्व-रक्षण था! इसी कारण से! "उस नेपाली को देखो!" बोले वो, "हाँ, भोग डाल रहा है!" कहा मैंने, "डाल ले! जितना डालना है डाल ले!" बोले वो, मैं हंस पड़ा उनकी बात सुन कर! काम्या भी हंस पड़ी! काम्या ने मेरा हाथ पकड़ लिया था! 

और तब बाबा शैशव ने भीषण मंत्रोच्चार किया। मंत्रोच्चार कानों में पड़े, तो ये आह्वान था, ऐच्छिक-आहवान! आहवान? लेकिन किसका? कौन आएगा ऐसे? कोई गान्धर्व ही क्या? या अन्य कोई और? पता नहीं, कौन सा आहवान? "ये कौन से मंत्र हैं?" बोले शर्मा जी, "आह्वान!" कहा मैंने, "आहवान?" चौंक के बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "किसका आह्वान?" बोले वो, "पता नहीं!" कहा मैंने, "अब कौन है ऐसा जो उन महाहिराक्ष से टकराएगा?" पूछा उन्होंने, "बाबा ही जानें!" कहा मैंने, "कर ले आहवान! बुला ले मृत्युराज को!" बोले वो, बात सही कही थी! यदि, आह्वान पर, जो प्रकट होने वाला था, वो कहीं लोप हुआ, तो बाबा के समक्ष क्षमा मांगने के सिवाय, 

अन्य कोई विकल्प शेष ही नहीं था! 

और तब बाबा नेव्रत ने, अलख में भोग दिया! और जो मंत्र पढ़े, उस से स्थिति और चिंताजनक हो चली! बाबा नेव्रत तो, प्रत्यक्ष-मंत्र पढ़ रहे थे! "ये कौन से मंत्र हैं?" बोले शर्मा जी, "प्रत्यक्ष मंत्र!" कहा मैंने, "प्रत्यक्ष?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "किसे प्रत्यक्ष कर रहे हैं?" पूछा उन्होंने, "अक्षवस् को!" कहा मैंने, "क्या?" चौंक के बोले! "हाँ!" कहा मैंने, "किसलिए?" बोले वो, "कुंजी हेतु!" कहा मैंने, "आ गया काल इनका!" बोले वो, "आप देखते जाओ!" कहा मैंने! "वो देखो, वहां!" बोली काम्या, 

और उठ बैठी! उस पार, परली पार, उसी स्थान पर, रौशनी के गोले तैर रहे थे! चक्कर लगा रहे थे एक दूसरे का! उन बाबाओं ने भी देखा! और खुश! मारा ठहाका! "क्या प्रकट होने वाले हैं वो?" बोले शर्मा जी, "नहीं!" कहा मैंने, "तो ये क्या है?" कहा उन्होंने, "शायद, महाहिराक्ष हैं!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोले वो, हम खड़े हो गए थे, वहीं देख रहे थे। बाबा भी मंत्रोच्चार कर, अपनी सफलता जान, आकाश सर पर उठा रखा था मंत्रोच्चार से! 

। 

और फिर, वे गोले, जैसे भूमि से टकराये! वहाँ प्रकाश ही प्रकाश फूट पड़ा! पेड़ भी दिखने लगे! नदी के पानी में, उनकी रौशन परछाई, चमक पड़ी! अब कुछ न कुछ होने को था! घड़ी देखी मैंने, तो डेढ़ बज चुका था, 

और कुछ ही देर में, आज हम एक अलौकिक घटना के साक्षी बनने वाले थे! फिर वो रौशनी के गोले, एक साथ ऊपर उठे! और चले आकाश की ओर! हम सब देखते रहे! ये सब बड़ा ही अद्भुत था, कलुष तो मैं वहां चला ही चुका था, नेत्र पोषित कर दिए थे उन दोनों के 

और अपने, दुहित्र से! इसीलिए, वो विस्मयकारी दृश्य, हम सभी देख रहे थे! मात्र सहायकों के सिवाय! वे गोले चले, और एक हो गए मध्य आकाश में, और लोप हए! मैंने घड़ी देखी, दो बज


   
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श्रीशः उपदंडक
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चुके थे! अब बस किसी भी पल, वो कन्या प्रकट हो जानी थी! हम सब अब, दम साधे, टकटकी लगाये, आकाश को ही देख रहे थे। कि अचानक, प्रकाश फूटा! सफ़ेद रंग का! और इस बार, जल की सी बौछार हुई। जल नदी के बीच गिरा, लगा जैसे बारिश की बूंदें टकराई हो नदी के जल से!फिर पीले रंग के वलय से उठे, फिर नीले! और वै चले एक दूसरे को गूंथने! उन प्रकाश पिंडों का नृत्य सा आरम्भ हुआ! प्रकाश की रेखाएं सी खिंच गयीं उनमे से! वे रेखाएं धागों के समान एक दूसरे से टकरा रही थीं! जैसे कोई बहुत बड़ी, रंग-बिरंगी, श्लेष्मा-मीन( जैली-फिश) टंगी हो बीच आकाश में, और उसके वोस्पर्शक, रंग बिरंगे रूप में चमक रहे हो! ऐसा अद्भुत नज़ारा था वो! फिर अचानक से लाल रंग का बादल सा उमड़ा! और जल की तरफ जैसे कोई लाल थान खुला आकाश से। ये रंग ऐसा था, कि ऐसा सुर्ख तो मैंने कहीं, अन्यत्र देखा ही नहीं। और तब प्रकट हुई वो गान्धर्व-कन्या! आज वेशभूषा भी पृथक थी! आज मात्र जंघाओं पर ही वस्त्र थे, वक्ष पर नहीं, वहां मात्र आभूषण ही आभूषण लदे थे! रूप ऐसा उसका, कि जैसे कोई दर्पण लरज जाता है सूर्य की किरण पड़ते ही! वो परावर्तित कर देता है उस किरण को! ऐसा रूप था आज! ऐसा तेज और उज्जवल स्वरुप! वो उत्तर चली नीचे की ओर! और जैसे ही उतरते हए, वो जल से स्पर्श हुई, बाबा की अलख बुझ गयी!! समस्त दीये बुझ गए! बाबाओं ने, भय तो खाया लेकिन डटे रहे! "कन्या?" चीखे बाबा नेव्रत! 

और फेंका कुछ उस कन्या की तरफ! जैसे ही गिरा वो जल में, आग लगी, और भस्म हुआ! उस कन्या को, लेशमात्र भी फ़र्क न हुआ! वो तो बस, जल में, उतर, चलती चली गयी! कमर तक 

डूबी, और चल पड़ी आगे। पानी में रंग ही रंग बिखर गए! वो कन्या, बीच नदी तक पहुँच गयी, 

और चलती रही, अब मात्र प्रकाश और रंग ही दीख रहे थे! इधर बाबा, मन मसोसते हुए, हाथ मलते हए, चुपचाप खड़े देख रहे थे! मुझे हंसी आ गयी उनकी इस विवशता पर! थोथा चना, बाजै घना! यही हाल था। उनकी शक्तिया, आह्वान, प्रभाव, अमल-रमल, सब कागज़ की तरह से फाड़ के रख दिए थे उस कन्या की सत्ता ने! अलख बुझ चुकी थी, तब बाबा नेव्रत ने, एक जगह आसन लगाया! पढ़े मंत्र! और आँखें बंद की! नदी की तरफ से एक शीतल झोंका उठा वायु का! सर्द, चीरता चला गया हमारे बदन! हाथों, पांवों की उँगलियों के पोर, सुन्न पड़ गए थे। आधा घंटा बीता, और वो कन्या चली वापिस अब! हम प्रकाश देख रहे थे। इसी से अंदाजा लगाया जा रहा था! जब वो मध्य आई, तो हमने देखा, वो जल में नहीं, जल पर चलकर आ रही थी! जैसे जल उसे स्वयं ही ले चल रहा हो! अब बाबा नेव्रत की आँखें खुली! हुए खड़े, उठाया त्रिशूल और चले आगे की तरफ! पढ़ा मंत्र! और कर दिया त्रिशूल उस कन्या की तरफ! जल उठ गया। उस कन्या के सर तक! और वो कन्या, वो भी ऊपर उठी! 

और चली आगे, बाबा की ओर! अब हुआ था द्वन्द आरम्भ! एक औघड़ और एक गान्धर्व-कन्या के बीच! कभी न देखा था, कभी न सुना था! 

लेकिन वो महाहिराक्ष? वे क्यों नहीं आये? वे कहाँ हैं? कुछ समझ न आये! कुछ भी! अटकलें भी न लगें! कुछ सूझै ही नहीं! "कन्या? कौन है तू?" बोले बाबा नेव्रत! कुछ न बोली, क्रोध में खड़ी देखती रही! "बोल? बता हमें?" बोले वो, 


   
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