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वर्ष २०१३ विंध्याचल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और उसकी साड़ी उठा, उसका दाया घुटना देखा, नील सा पड़ गया था वहां, शायद दीवार से टकरा गया था घुटना उसका, "दवा है मेरे पास, तुम पाँव दिखाओ" कहा मैंने, "दर्द तो नहीं होगा?" पूछा उसने, "पहले देखने तो दो?" कहा मैंने, हाथ ही न लगाने दे! पीछे हटे! दोनों हाथों से पकड़ ले पाँव! "मान जाओ, सूजन आ जायेगी, चला नहीं जाएगा, फिर बैठी रहना पूर्णिमा की रात यहीं पर!" कहा मैंने, अब समझ में आई उसे! "दिखाओ?" कहा मैंने, पाँव आगे किया उसने, हाथ लगाऊँ, तो पाँव उठाये! "ज़बरदस्ती करूँ?" बोला मैं, 

"नहीं। मर जाउंगी!" बोली वो। 

अब पकड़ा पाँव उसका, जांचा, तो गट्टा अपनी जगह से हल्का सा सरक गया था। इसी को मोच कहते हैं! पाँव सीधी तरफ मुड़ा था, तो उलटी तरफ ही ये खिसकाव था, अब इसको ठीक करना 

था, और ठीक करने में, वो चिल्लाने ही वाली थी! मैंने उसका पाँव अपनी जांघ पर रखा! "दर्द तो नहीं होगा न?" पूछा उसने, "हल्का सा" कहा मैंने, "नहीं! नहीं!" बोली हाथ नचा कर। 

और रखा उसका पाँव सही स्थिति में! अब देना था एक झटका! और काम ठीक! माने यही किया, पहले सहलाया! "हाँ, यहीं है दर्द!" बोली वो, "बस, हो जाएगा!" कहा मैंने, 

और दिया एक झटका! मोड़ा एक तरफ, उलटी तरफ! आवाज़ आई कड़क! और पाँव का गट्टा, आ गया अपनी जगह! और वो, ऐसी चीखी, ऐसी चीखी, कि साथ वाले कमरे से भी, लोग बाहर आ गए! जब बताया कि मोच उतारी है,तो हंस कर चले वापिस! लेट गयी थी! पाँव पकड़! सहला रही थी पाँव अपना! चेहरे पर पसीना आ चला था! दर्द तो होता, लेकिन अब, ठीक हो जाता! "दर्द हो रहा है?" पूछा मैंने, "हूँ"बोली वो, "अब खड़ी हो, चल के देखो!" कहा मैंने, "अभी होती हूँ" बोली धीरे से, "हो जाओ, अभी गरम है, ठंडा हुआ, कोई कसर बची, तो सूजन पक्का!" कहा मैंने, तब किया खड़ा उसे, हुई खड़ी, "चलो आगे" कहा मैंने, 

अब चली, आधा पाँव रखते हए, "पूरा पाँव रखो?" कहा मैंने, "नहीं रखा जा रहा!" बोली वो, मैं उठा, जूता उतारा, और दिया सहारा उसे, और, एकदम ही, उसके उस पाँव पर अपना पाँव रख दिया! चिल्लाई तो नहीं, लेकिन मुझसे लिपट गयी। "हटाओ, हटाओ?" बोली वो, 

"हटा दिया पाँव!" कहा मैंने, 

और अब उसका पाँव, पूरा ज़मीन से छू रहा था! "हो गया ठीक, दवा ला देता हूँ!" कहा मैंने, "दवा है" बोली वो, "ठीक है, लगा लेना!" कहा मैंने, "लगा लूंगी!" बोली वो, "अब चलता हूँ!" कहा मैंने, "रुको न?" बोली! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "बैठो?" बोली, "जाने दो काम्या, नाश्ता भी नहीं किया अभी!" कहा मैंने, "अच्छा, लेकिन आ जाना!" बोली वो! "आ जाऊँगा!" का मैंने, और चला वापिस, आया कमरे में, चाय-नाश्ता लग चुका था! "क्या बात थी?" पूछा उन्होंने, "मोच आ गयी थी काम्या को" बोला मैं, "कैसे?" पूछा उन्होंने, "पाँव फिसल गया था!" बताया मैंने, "उतार दी?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, "बेकार में होती परेशान फिर!" बोले वो, मित्रगण! फिर आई पूर्णिमा! काम्या का पाँव ठीक था, अब दर्द नहीं था, हाँ चलती थोड़ा सम्भल के थी! उसी दिन, दोपहर मैं, मैं और शर्मा जी, गए बाबा शैशव से मिलने, इस बार फिर वही,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुनंदा मिली! लेकिन अबकी बार रोका नहीं, न उसने प्रणाम किया, न हमने! हम सीधा अंदर ही चले गए थे बाबा के पास! उनसे मिले, हाल-चाल पूछे, और फिर मैंने बात शुरू की। "कब चलना है बाबा?" पूछा मैंने, 

"कोई पांच बजे" बोले वो, "पांच बजे? इतना जल्दी?" पूछा मैंने, "वो स्थान भी तो दूर है!" बोले वो, "कितना?" पूछा मैंने, "करीब अस्सी किलोमीटर" बोले वो, "अस्सी?" बोला मैं, "हाँ, अस्सी! फिर पहाड़! फिर नदी!" बोले वो, "कुछ आवश्यक तैयारी?" पूछा मैंने, "नहीं, कुछ नहीं!" बोले वो, "ठीक है, पांच बजे आते हैं!" बोला मैं, 

और उठ लिए हम, मिली सुनंदा बाहर ही! "सुनो?" बोली वो, "हाँ?" कहा मैंने, "और कौन जाएगा साथ में?" पूछा उनसे, "हम तीन हैं" कहा मैंने, "वो लड़की भी?" बोली कड़क कर, "हाँ, वो भी" बोला मैं, "वो क्या करेगी?" पूछा उसने, "जो तुम करोगी!" कहा मैंने, "ढंग से जवाब दो?" बोली वो, "अच्छा! जी हम तीन हैं, तीनों ही चलेंगे!" कहा मैंने, हाथ जोड़ते हए! "कुछ हो जाए तो न कहना?" बोली वो, "कुछ हो जाए? हो सकता है क्या?" बोला मैं, "नौसिखिये ऐसा ही करते हैं!" बोली तंज से! "वो नौसिखिया नहीं है!" कहा मैंने, और हम चल पड़े वापिस वहाँ से! "बहन* * ! औरत है या टमटम!" बोले शर्मा जी! मैं एक बार को तो हंस पड़ा। टमटम! "टमटम! कमाल है शर्मा जी!" कहा मैंने, "देखा नहीं? कैसे हालाहिला रही थी, टमटम जैसी!" बोले वो, "हाँ! हाल तो ऐसे ही रही थी!" कहा मैंने, 

"बात कर रही है, कम से कम हाल तो मत?" बोले वो, मैं हंसा! वो वैसा ही करते जा रहे थे, जैसा वो कर रही थी! "बाबा को किस कोने में रखती होगी ये?" बोले वो, "क्या मतलब?" बोला मैं, "शरीर देखा है? बाबा जैसे ढाई बन जाएँ!" बोले वो, "रे शर्मा जी यार! आप भी!" कहा मैंने, "बाबा तो कभी कभी बास्केट-बॉल ही खेलते होंगे बस!" बोले वो, 

और मेरी छूटी हंसी! मैं रुक गया। बास्केट-बॉल! "बस करो यार अब!" कहा मैंने, "नौसिखिये ऐसा ही करते हैं! बोल रही थी न? ऐसे बोल रही है जैसे खुद कितनी बड़ी धुरंधर हो!" बोले वो, "क्या पता हो?" कहा मैंने, "हो भी सकता है! मेरा अंदाजा गलत भी हो सकता है!" बोले वो, "टमटम चलाओगे?" पूछा मैंने, "न जी न! एक एक हड्डी टूट के बिखर जायेगी। टूटलं फटगां* आसन' बन जाएगा! जीभ आ जायेगी पेट तक, और टमटम को तब सिर्फ एक खरोंच ही आएगी! न जी न! रहने दौ!" बोले वो, मैंने सुना, और जैसे ही सुना, पेट पकड़ वहीं झुककर, खड़ा हो गया! कैसा नया आसन ढूंढ निकाला था! वे भी हंस! मेरे हाथ पकड़, उठाने लगे! मैं बार बार रुकने को कहता! "सही कहा न मैंने? कहीं हाथ-पाँव में ही गाँठ लग गयी, और खुली न, तो फ़ोन भी न होय! कैसे बुलाऊंगा आपको! और जो कोई आया, तो आपत्तिजनक स्थिति ही मार लेगी!" बोले वो, 

अब तो मैं बैठही गया। एक तरफ! पेट में बल पड़ गए। ऐसी हंसी छटी की सर भी भन्ना गया! "तो कहने का मतलब है, टमटम को मारो गोली, और अपनी पिस्तौल-गोलियां बचाओ!" बोले 

फिर से हंसी आई! एक बार शुरू होते हैं तो फिर नहीं रुकते! "बस यार बस!" कहा मैंने, तब खड़ा हुआ मैं, हंसी दबाई, लेकिन फिर भी, कभी कभार, ऐसी हंसी उठती, कि, पास से जाने


   
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श्रीशः उपदंडक
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वाला भी मुस्कुरा जाता! आये अपने कमरे में, और मैं लेटा, वो बैठ गये कुर्सी पर! "वैसे एक बात है!" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, 

"बहन* * ! बाबा भी सूमो चुन कर लाये हैं। जैसे रोज मल्ल-युद्ध होता हो!" बोले वो, फिर से आई हंसी! "क्यों? शयन-युद्ध नहीं?" पूछा मैंने, "अजी शयन-युद्ध! अगर एक भी 'बिटोरा' गिर गया न छाती पर बाबा की, तो पसलियां तो टूटें ही टूटें, जीभ, दम सब बाहर! शयन-युद्ध!" बोले वो, बिटोरा! अब फिर से हंसी आई! क्या शब्द चुना था! "अच्छा बस अब यार!" कहा मैंने, "और वो टमटम! जब दौड़ पड़े पूरी रफ़्तार पर, तो धचकियां ऐसी लगें कि, ओले-गोले अलग, 

और इंडी?, ये जा और वो जा! ढूंढें से भी न मिले! जा पड़े चार किलोमीटर दूर! ढूंढ लो अब!" बोले 

अब मैं हुआ सुनकर ये दुहल्लर! ऐसा हंसा, ऐसा हंसा कि आवाज़ ही बंद हो गयी! टमटम की रफ्तार! धचकियां! और चार किलोमीटर! ऐसी हंसी कि बुरा हाल! "अरे बस यार बस! पेट फट जाएगा!" कहा मैंने, "कतई भैसिया है टमटम! अच्छा-खाए आदमी की छाती पर बैठ जाए, तो टांगें हो जाएँ सीधी छत की तरफ!" बोले वो, हंस हंस के बुरा हाल! कुछ बोला भी न जाए! "अब देखना भी मत इस टमटम को! कहीं टकरा गए, तो ओले-गोले, एक ऊपर और एक नीचे! जिंदगी भर! समझे न आप मेरी बात!" बोले वो, 

मेरे से तो बोला भी नहीं जा रहा था! मैं उठा, और चला बाहर! नहीं तो अंदर हंसी ही मार लेती! मैं बाहर भी हंस रहा था! बड़ी मुश्किल से हंसी पर काबू पाया मैंने! गले में भी दर्द हो गया था! आया फिर अंदर! बैठा! "और सुनाऊँ?" बोले वो, "नहीं यार! बस!" कहा मैंने, "तो मुझे क्यों भिड़ा रहे थे?" बोले वो, "मैंने सोचा आपको टमटम पसंद आई!" कहा मैंने, "आत्महत्या करने का कोई इरादा नहीं है मेरा!" बोले हंस कर, फिर से हंसी छूटी! "आत्महत्या? कैसे?" पूछा मैंने, "अब साइकिल ट्रक से टकरायेगी तो कौन जान से जाएगा! साइकिल ही न?" बोले वो, "तो क्या हुआ, वाजीकारक औषधि दे देता हूँ! पुष्टिवर्धक!" कहा मैंने, "आप खा लो! बढ़िया पुष्टि और बढ़िया संतुष्टि!" बोले वो, 

"आप क्यों नहीं?" पूछा मैंने, "मुझे क्या खसरैले खस्सी कुत्ते ने काटा है जो मैं सर मारूं फाटक में!" बोले वो, 

अब छूटा हंसी का फव्वारा! मैं तो नीचे ही बैठ गया! फाटक! ज़रा समझिए आप मित्रगण! "बस भाई बस! बस शर्मा जी! बस!" कहा मैंने हाथ जोड़कर! 

और तब टमटम-महिमा समाप्त हुई! जान बख्श दी उन्होंने! नहीं तो पेट फट जाता! बजे कोई चार, 

और मैं चला बाहर, काम्या के पास! पहुंचा वहाँ, लेटी हुई थी, पाँव में कपड़ा बांधे! "आइये!" बोली खड़े होते हुए, "अब दर्द कैसा है?" पूछा मैंने, "अब ठीक है!" बोली वो, "पाँव दिखाओ?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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कहा मैंने, उसने कपड़ा हटाया और दिखाया पाँव, पाँव ठीक था, "चल पा रही हो?" पूछा मैंने, "हाँ, अब तो आराम से" बोली वो, "कपड़ा क्यों बाँधा था?" पूछा मैंने, "दवा लगाई थी!" बोली वो, "अच्छा, सुनो, तैयार हो जाओ, पांच बजे निकलना है!" कहा मैंने, "पांच बजे?" बोली वो, "हाँ, दूर है, मेरी बात हो गयी है" कहा मैंने, "ठीक है" बोली, और उतरी पलंग से, "नहा-धो लो, और हो जाओ तैयार!" बोला मैं, "होती हूँ" बोली वो, 

और मैं चला फिर बाहर, आया शर्मा जी के साथ, छोटा बैग रख लिया था उन्होंने, तो मित्रगण! पांच बजे हम सब तैयार थे! हुए इकट्ठा बाबा के यहां, बाबा ने गाड़ी मंगवा ली थी, 

और ठीक पांच बजे, हम निकल लिए! और देखिये, शर्मा जी को बैठना पड़ा उस टमटम के साथ! चले अब! आये रास्ते में, लगी धचकी! 

"शर्मा जी?" बोला मैं, "हाँ जी?" बोले वो, "धचकी में आराम से बैठना!" बोला मैं, हँसते हुए! "पहुँच जाऊं तो खैर मानो!" बोले वो, तभी टमटम ने शर्मा जी को देखा, शर्मा जी खिसके खिड़की की तरफ! और देखने लगे बाहर! मैं आया पीछे से उनकी तरफ! "आराम से!" कहा मैंने, "फंसवा दिया न?" बोले वो, "अब मैं क्या करता!" बोला मैं, "बहन**! जितना खिसक रहा हूँ, उतना ही फैल रही है!" बोले वो, "कही बाहर न गिरा दे!" कहा मैंने, "कहीं मैं ही न कूद जाऊं!" बोले वो, मैं हंसा, और हआ पीछे! गाड़ी दौड़ रही थी, धचकियां तो बड़ी ही ज़बरदस्त थीं। एक दूसरे से सहारा लेना पड़ता था बार बार! 

और वो टमटम,जब झुकती शर्मा जी की तरफ, तो बाहर मुंह निकाल लेते थे खिड़की से! "और कितना दूर है?" पूछा शर्मा जी ने चालक से, "अभी तो घंटा लगेगा!" बोला वो, 

और मैं हंसा! अभी भी घंटे भर की 'सवारी करनी थी शर्मा जी ने! मैं बार बार छेड़ता था उन्हें। वो भी बार बार! "अरे राम! हरे राम' कहते जाते। एक घंटा या पौन घंटा बीत चुका था! हम चल ही रहे थे, लेकिन एक तो बारिश के कारण सड़कें खराब थीं, कुछ यातायात सुस्त था! हम बस कभी तेज चलते, कभी धीरे! और कभी तो रुकना ही पड़ता, तभी गाड़ी एक छोटे से कस्बे में से होकर गुजरी! 'अरे रुक ही जाओ? चाय-शाय पी लें यार?" बोले शर्मा जी, "अब वहीं पी लेना चाय?" बोली सुनंदा! "अति-आदरणीय, कुछ और भी आवश्यकताएं होती हैं!" बोले वो, सुनंदा चुप! अब क्या बोले! अब रुक गयी गाड़ी एक जगह! यहां चाय का इंतज़ाम था, उत्तर हम सब, सुनंदा उसी में बैठी रही, नहीं उतरी! मैंने काम्या को भी वहीं बैठे रहने को कहा, और पीछे का दरवाज़ा, गाड़ी का, 

खोल दिया। आये शर्मा जी मेरे पास, कमर पर हाथ रखते हुए, मैंने पानी की बोतल ले ली थी, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "इस टमटम ने सारा वजन डाल दिया गाड़ी में एक तरफ, मै वहीं को झुकू बार बार! संतुलन बनाने में कमर की माँ-बहन एक हो गयी!" बोले वो, मैं हंसा! पानी दिया उन्हें! पानी पिया उन्होंने, मैंने भी पिया! "चाय पीते हैं चलो" बोले शर्मा जी, "चलो" कहा मैंने, 

और जा बैठे एक जगह, चाय बोली और फिर एक बोतल पानी और खरीद लिया। "आज तो टमटम की सवारी हो गयी!" कहा मैंने, "आप बैठ जाओ! कर लो सवारी! कमर का जब चंदा बन जाए, तो मैं बैठ जाऊँगा!" बोले वो! मैं फिर से हंसा! कमर का चंदा! चन्द्रमा जैसा आकार! "वैसे


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज तो जंच रही है!" कहा मैंने, "भाड़ में जाए, यहां कमर के सारे जोड़ बिखरने वाले हैं और आपको जंचने की पड़ी है!" बोले वो, "कोई बात नहीं। अब पहंचे!" बोला मैं, "बहन की **, घुटने फैला लेती है, घुटना भी ऐसा है जैसे बरगद का तना! मैं बार बार धकेलता हूँ, फिर से कर लेती है!" बोले वो, कमर झुका के! "उसको अच्छा लग रहा होगा!" कहा मैंने, हसंते हए, "तो मुझे क्यों बाहर फेंकने पर तुली है?" बोले वो, मैंने कंधे पर हाथ मारते हुए, ठहाका लगाया! "बातें करो उस से? कट जाएगा समय!" कहा मैंने, "और कहीं गोद में बिठा लिया तो?" बोले हंस कर! "तो क्या हुआ! टमटम ही तो है!" कहा मैंने। "माफ़ करो जी! अब झूला झूलने की उम न बची!" बोले वो, तभी चाय आ गयी! एक कप मैंने, गाड़ी में भिजवा दिया, काम्या के लिए! "बस अब पहुंचे!" कहा मैंने, "कितना रह गया होगा?" पूछा उन्होंने, "आधा या पौना घंटा लगेगा!" कहा मैंने, "वो देखो, कोचवान गया टमटम के पास!" बोले वो, तो मैंने देखा, बाबा शैशव, उस सुनंदा के पास जा बैठे थे! "ये तो अच्छा है!" बोला मैं, "यहीं बैठा रहे,खाए झूला!" बोले वो! 

"आगे ही बैठेंगे!" कहा मैंने, "हाँ, उस टमटम का मूसल मुझे ही खाना है!" बोले वो, चाय पी ली, हिसाब कर दिया और चले हम वापिस! आये गाड़ी तक, और गाड़ी में घुसते ही बोले शर्मा जी, "बचइयो मेरे राम!!!" मुझे हंसी आई! क्या बोले थे! बचइयो!! "चलें जी?" बोला चालक, "चलो भैया, पहुंचा दे! तेरा बड़ा एहसान!" बोले शर्मा जी! 

और चिपक गए खिड़की से! थोड़ी देर बाद, सुनंदा ने गाड़ी की सीट पर, ऊपर हाथ रखा अपना हाथ टकराया शर्मा जी से, शर्मा जी ने देखा, तो चौंक पड़े! "इसे नीचे ही कर लें!"बोले वो, "कुछ परेशानी है क्या?" पूछा सुनंदा ने! "अब्ब है तभी तो कहा?" बोले वो, "अभी कर लूंगी!" बोली वो, धचकी लगी! हाथ फिर टकराया! शर्मा जी, आगे झुके, आगे की सीट पर हाथ रखे दोनों! सुनंदा ने हटा लिया अपना हाथ! तो पीछे हो गए फिर! मुझे देखा उन्होंने, मैं मंद मंद मुस्कुराया! वे भी हँसे हुए मेरी तरफ, मैं भी हुआ! "बहन**! किस बिजार को ले आये साथ में!" बोले हल्के से, "बस आये अब!" मैंने कहा, क्योंकि सुनंदा कान लगाये हए थी हम पर! मैं हो गया पीछे, कोई ढाई घंटे के बाद, हम एक डेरे के सामने पहुंच गए! गाड़ी अंदर ही चली गयी उसके, रुके, बाबा और वो सुनंदा चले आगे आगे! और हम उनके पीछे! "जान बची लाखों पाये! भले ही हाथों से गां* दबाये!" बोले वो मुझसे, हल्के से! अब तक काम्या भी संग आ चुकी थी हमारे! हम आगे गए, तो बाबा ने एक सहायक को, भेजा हमें ले जाने के लिए, हम चल दिए उसके साथ ही, दो कमरे खुलवाये, एक हमारा और एक काम्या का! काम्या को उसके कमरे में छोड़ आया था मैं,उसके गुसलखाने जाना था, और मैं वापिस आया, शर्मा जी, बिस्तर पर लेटे थे, बिना जूते खोले, पाँव नीचे लटकाये! "क्या हो गया?" पूछा मैंने, "हो जाता!" बोले वो, "क्या?" पूछा मैंने, "अगर और इतना ही चलते,तो झगड़ा हो जाता टमटम से!" बोले वो, 

"क्यों?" पूछा मैंने, "अरे, वो बहन**, गोद में बैठने को तैयार! अब कहाँ नीम्बू और कहाँ माल्टा!" बोले वो! "तो खट्टा तो नीम्बू ही होता है!" कहा मैंने, "निचुड़ जाता आज सारा रस!" बोले वो, "चलो जाने दो, लो पानी पियो!" कहा मैंने, उन्हें पानी दिया, उन्होंने पिया, खड़े हुए और चले गुसलखाने, मैं हुआ वापिस, गया काम्या के कमरे में, बैठी हई थी कुर्सी पर, "थक गयीं क्या?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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पूछा मैंने, बैठते हुए! "नहीं तो!" बोली वो, "तो?" पछा मैंने, "वो बाहर देखो, कितना सुंदर नज़ारा है!" बोली वो, "हाँ, यहां तो ऐसा ही नज़ारा मिलता है!" कहा मैंने, "बहुत सुंदर स्थान है!" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, उसने बोतल ली पानी की, पानी पिया और रख दिया, "चलना कब है?" पूछा उसने, "ये तो बाबा ही बताएंगे!" कहा मैंने, "हाँ!" बोली वो, 

और तभी सहायक आया अंदर, चाय ले आया था, साथ में, मूंग के पकौड़े! मैंने भी अपनी चाय वहीं ले ली थी, तो हमने चाय-पकौड़ों का आनंद लिया। बढ़िया बनाये थे। पालक और मेथी भी डाल रखी थी! उसके बाद मैंने उसको आराम करने को कहा, और चला आया अपने कमरे में, शर्मा जी अब लेट गए थे! मैं बैठा कुर्सी पर, "थक गए क्या?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोले वो, "तो?" पूछा मैंने, "ऐसे ही!" बोले वो, "आओ ज़रा!" कहा मैंने, 

"कहाँ?" बोले वो, "टमटम के पास!" कहा मैंने हँसते हए! "है बहन *! मैं नहीं जा रहा!" बोले वो, हाथ हिलाकर! "अरे पूछ तो लें, कब निकलना है?" बोला मैं, बहुत सोच-विचार सा किया उन्होंने! उठे, "चलो!" बोले वो, 

अब जूते पहने, और हम निकल लिए, पहुंचे वहीं, पूछा कि कहाँ हैं, पता चला, और हम चले वहीं की ओर! वहां पहुंचे, तो टमटम मिली बाहर! कुल्ला कर रही थी! मुंह में ऊँगली डाल, दांत साफ़ कर रही 

थी! "देखो! कैसी हाल रही है!" बोले वो, "हालने दो! आगे चलो!" कहा मैंने, "बाबा हैं अंदर?" पूछा मैंने, कुल्ला किया उसने, और फिर पानी पिया, "क्या काम है?" पूछा, "सुनंदा? कोई काम होगा, तभी तो आये?" कहा मैंने, "सो रहे हैं!" बोली वो, "तो तुम्ही बता दो, कब निकलना है?" पूछा मैंने, "यहाँ से साढ़े ग्यारह बजे" बोली वो, "और वो जगह कितनी दूर है?" पूछा मैंने, "पच्चीस किलोमीटर!" बोली वो, "ठीक है!" और हम हुए वापिस! "बाबा सो गये या सुला दिए?" बोले वो, "क्या कह रहे हो शर्मा जी!" कहा मैंने! "टकरा गए होंगे बिटोरों से!" बोले वो, "अब छोड़ो यार!" कहा मैंने, "बाबा ने भी तो सांप पाल रखा है पिटारी में, वो भी अजगर!"बोले वो, "अजगर!" मैं हंसा, "फुकार मारे तो बाबा की लुंगी उड़ जाए!" बोले वो, "अब नहीं शर्मा जी!" कहा मैंने, उनकी गाड़ी अब गलत रास्ते पर जाने वाली थी! इसीलिए कहा, 

और हम आ गए कमरे में अपने, मैं गया काम्या के पास, और बता दिया उसको, वो तो तैयार हो चुकी थी, प्याजी रंग की साड़ी में, ऐसी खूबसूरत लगे, कि बस निहारते ही रहो! "क्या बात है!" कहा मैंने, "क्या हुआ?" बोली वो, "बला की खूबसूरत हो तुम काम्या!" कहा मैंने, "अच्छा जी?" बोली वो, "हाँ! किसी किसी पर कुछ अधिक ही समय लगाता है बनाने वाला!" बोला मैं, हंस पड़ी, काजल लगा रही थी, रुक गयी! "तुम्हारा साँचा कुछ अलग ही है!" कहा मैंने, हंसी फिर से! मैं करीब चला गया था उसके, काजल लगाया उसने! और बाकी बचा काजल, मेरे 

सर से पोंछ दिया! फिर मैं बैठ गया वहीं पर, बिस्तर पर, "ग्यारह बजे निकलना है!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोली वो, "तब तक, सोना है, सो लो, आराम करना है कर लो, कुछ और करना है, कर लो!" कहा मैंने, हँसे 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"और क्या करना है?" पूछा मैंने, "अरे कुछ भी!" कहा मैंने, "बताओ?" बोली वो, "यहां बैठो!" कहा मैंने, बैठ गयी, साड़ी संभालते हुए, "कुछ नहीं!" कहा मैंने, "अब चार घंटे बचे हैं, आपको मिटानी है हुड़क!" बोली वो, "आज कोई हुड़क नहीं!" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उसने, "आज जाना जो है!" कहा मैंने, "अच्छा!" बोली वो, 

और चुहलबाजी होती रही, कोई एक घंटा! फिर मैं चला शर्मा जी के पास, वे भी तैयार थे, "तैयार हो गए आप!" कहा मैंने, "होना ही है!" बोले वो! "टमटम की ऊँगली पकड़ के रहना!" कहा मैंने, "क्यों नाम लेते हो उसका!" बोले वो, 

मैं हंस पड़ा, और चुप हुआ, कि कहीं फिर से हंसी का दौरा न पड़ जाए! 

और फिर बजे सवा ग्यारह! मैं ले आया था काम्या को कमरे में अपने, हम तीनों ने चाय पी थी जाने से पहले, प्याज के पकौड़ों के साथ! और फिर हम, चले गए थे, बाबा के पास! वहाँ पहंचे, तो टमटम सर पर कपड़ा बांधे, बैठी थी, बन बैठी थी पूरी जोगन सी! हरे रंग के लिबास में, आज तो और भीमकाय लग रही थी! "बाबा कहाँ हैं?" पूछा मैंने, "आ रहे हैं" बोली वो, हम बैठ गए वहाँ, सुनंदा गौर से काम्या को देखे, काम्या जो चमक रही थी अपनी साड़ी में! 

और फिर बाबा आये,संग उनके, एक सहायक भी था, महेश नाम था उसका, प्रणाम हुआ उनसे! उन्होंने सारी तैयारी कर ली थी, टोर्च आदि सब ले ली थी! उसके बाद, हम निकल पड़े, वही गाड़ी ली और चले, शर्मा जी के साथ फिर से सुनंदा बैठी, शर्मा जी की व्यथा चेहरे से ही झलकती थी, और इस बार तो और हालत खराब थी, सुनंदा बीच में बैठी थी, और उसकी दायीं तरफ वो सहायक! कोई घंटा लग गया था हमें वहां पहँचने में, गाड़ी एक जगह खड़ी कर दी थी, सड़क के साथ, और हम अब पैदल चले, घुप्प अँधेरा था, जुगनू चमक रहे थे। रास्ता ठीक था, चांदनी तो थी, लेकिन चाँद को, बदलियाँ ढक लेती थीं! एक टोर्च मेरे पास थी, बाबा और सुनंदा, और वो सहायक, आगे आगे चल रहे थे, और हम उनके पीछे, काम्या को मैंने अपने आगे कर रखा था, हम सभी चल रहे थे, फिर आई चढ़ाई, हम चढ़े ऊपर, फिर ढलान, और सामने का दृश्य स्पष्ट हआ! नीचे, नदी थी, बहुत शानदार! शांत और बहुत सुंदर! भले ही अँधेरा था, लेकिन चांदनी, खेल रही थी उसकी सतह पर! "कितनी सुंदर लग रही है नदी!" बोले शर्मा जी, "हाँ, बहुत सुंदर!" कहा मैंने, तभी बाबा रुके, वो सुनंदा भी! हम पहुंचे उनके पास, "वो देखो, वो जो बड़ा सा पत्थर है, वहीं प्रकट होती है वो!" बोले बाबा, "अच्छा !" कहा मैंने, "अभी एक बजा है" बोले वो, घड़ी देखते हुए, "हाँ" कहा मैंने, "करीब दो बजे, वो आएगी!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "और हम, वहाँ रहेंगे!" बोले वो, 

वहाँ एक पत्थर था, बड़ा सा, छिप सकते थे हम उस पीछे! दूरी कोई नब्बे फ़ीट होगी वहाँ से, आगे और कोई छिपने का स्थान नहीं था, बस यही एक पत्थर था! करीब पौने दो बजे, हम उस पत्थर के पीछे जा छिपे थे, वहाँ छोटे छोटे गोल गोल पत्थर पड़े थे, चटाई बिछा ली गयी थी, और हम, उसी पर बैठे थे, और फिर बजे दो! अब मैंने कलुष-मंत्र साधा, नेत्र पोषित किये शर्मा जी और काम्या के! काम्या की आँखों से झर झर पानी बह निकला था, और फिर कुछ ही देर में,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके नेत्र पोषित हो गए थे! अब हम दम साधे उसी जगह देखने लगे! किसी भी पल, वो कन्या वहाँ प्रकट होती! कुछ पल और बीते! 

और अचानक! अचानक ही प्रकाश फूट पड़ा आकाश से! लाल रंग का! उज्जवल सा प्रकाश! जैसे लाल मखमल का थान,आकाश से खुल रहा हो नदी तक! पीले रंग की किरणें नाच उठी थीं! सफ़ेद रंग का प्रकाश, नदी की सतह पर चमक उठा था! वातावरण में, सुगंध फैल गयी थी! भीनी भीनी, मीठी मीठी! जैसे चमेली की खुश्बू होती है ऐसी! हम सभी, साँसें थामे, वहीं देख रहे थे! 

वो सुनंदा, अचानक से मेरे सामने आ गयी, मैंने उसको कहा कि पीछे हो जाए वो, लेकिन न मानी! 

और तभी! तभी, पानी से कोई बीस फ़ीट ऊपर, एक कन्या प्रकट हुई। अद्वितीय रूप उसका! अप्सरा भी फीकी लगे। लम्बा कद! अंग-प्रत्यंग पुष्ट उसके! 

गठीला बदन! 

और, आभूषण ही आभूषण! आभूषण भी ऐसे, जैसे यक्ष और गान्धर्व दोनों ही पहनते थे! अभी तक तो बताना असम्भव था! वो नीचे उतरी, और सीधा पानी में जा उतरी! कमर तक! वो उस पानी में, नदी के बीच तक जाती, डुबकी लगाती और फिर, कहीं और से निकलती! बड़ा ही अद्भुत था वो दृश्य! 

और तभी मैंने कुछ देखा! देखा कुछ ऐसा कि, भेद खुल गया! कि वो है कौन! पानी में, सफेद रंग के सर्प भी दीख रहे थे। यक्ष सौ को आभूषण की तरह से प्रयोग नहीं करते, लेकिन ये गान्धर्व करते हैं! वे सर्प, दो दो फ़ीट के थे! छोटे छोटे, सफेद और चांदी के रंग के! "ये गान्धर्व-कन्या है!" कहा मैंने, फुसफुसाकर, "कैसे?" पूछा बाबा ने, "वो सर्प देखो!" कहा मैंने, "वो जल-सर्प भी हो सकते हैं" बोले वो, "सफ़ेद नहीं होते वो!" कहा मैंने, "ये गान्धर्व-कन्या है?" पूछा बाबा ने, "हाँ, निश्चित ही!" कहा मैंने, 

और वो कन्या, पानी की सतह पर, आ खड़ी हुई! चलने लगी, और, धीरे धीरे फिर से कमर तक उत्तर गयी पानी में! जल, जैसे थम गया था बहुना! वे सर्प, उसके चारों ओर वृत्त बना, घूमते थे। 

और वो कन्या, कभी कहीं और कभी कहीं नज़र आती थी! 

किनारे तक आई, 

खड़ी हुई, थोड़ा दूर पानी से, 

और पानी उसके चरणों तक स्वतः ही खिंच आये! वो फिर से पानी में उतर गयी, करीब आधा घंटा उसकी वो जल-क्रीड़ा चली! 

और फिर, ऊपर उठते हुए, आकाश की ओर चली, और फिर लोप! और फिर हम हटे वहाँ से, मैं भागा किनारे तक, सभी दौड़े वहाँ पर किनारे पर, पत्थर, अभी तक गीले थे! जहां वो, खड़ी हुई थी! मैंने एक पत्थर उठाना चाहा, पत्थर बेहद गर्म था! छोड़ना पड़ा! कमाल था! पानी से भीगा था 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो, पानी, न तो भाप बना था, और न ही सूखा था! और पत्थर, एकदम गर्म! "क्या हुआ?" सुनंदा ने पूछा, "उठा के देखो!" कहा मैंने, अब उसने भी उठाना चाहा। जैसे ही छुआ हाथ खींच लिया अपना! "कैसा है?" पूछा मैंने, "बहुत गर्म है!" बोली वो, "बाबा, ये गान्धर्वी है, कोई यक्ष नहीं!" कहा मैंने, "समझ गया!" बोले वो, बाबा ने ये उत्तर मुस्कुराते हुए, और सुनंदा को देखते हुए दिया था! कुछ तो था उन दोनों के मन में! 

और अब तो मैंने तस्दीक़ भी कर दिया था कि वो, एक गान्धर्व-कन्या है। "आओ, चलो!" बोले वो, "चलो!" बोली सुनंदा! 

और हम चल पड़े वापिस, आये गाड़ी तक, चालक सो गया था, जगाया उसे, और फिर चले हम वहाँ से, आये उसी डेरे पर, कोई घंटा लगा था हमें, साढ़े तीन का समय हो चला था, शर्मा जी कमरे में गए अपने, और मैं काम्या के साथ ही अंदर गया, काम्या के कमरे में। बैठा, पानी पिया, बोतल रखी, "तो वो एक गान्धर्वी है!" बोली काम्या, 

"हाँ, कैसी रूपवान है!" कहा मैंने, "अब गान्धर्वी है, तो कैसे न होगी!" बोली वो, "हाँ, ये तो है!" कहा मैंने, "अब ये देखो, ये क्या करते हैं!" कहा मैंने, "हाँ, लेकिन एक बात बताओ?" कहा मैंने, "क्या?" बोली वो, "अब जो भी करेंगे, वो एक महीने बाद ही होगा, और तुमको तो जाना पड़ेगा वापिस?" कहा मैंने, "नहीं जाउंगी!" बोली वो, "तो फिर?" पूछा मैंने, "मैं रुक जाउंगी यहां!" कहा मैंने, "यहाँ?" पछा मैंने, "यहाँ नहीं, है एक डेरा, जहां मैं आराम से रुक सकती हूँ!" बोली वो, "अकेले?" पूछा मैंने, "तो मुझे क्या डर?" बोली वो, "नहीं। मुझे पसंद नहीं!" कहा मैंने, "आप तो वापिस जाओगे न?" बोली वो, "हाँ" कहा मैंने, "तो मैं रुक जाउंगी यहीं!" बोली वो, "नहीं, मेरे साथ चलोगी तुम!" कहा मैंने, अब मुस्कुराई! भांप गयी मेरा आशय! "चलोगी?" पूछा मैंने, "ले चलोगे?" बोली वो, "उठा कर!" कहा मैंने, "उठाकर ही ले चलना!" बोली वो, हंस कर! 

और हो गया निर्धारित, मेरे साथ ही चलेगी वो! और हम,आ जाएंगे वापिस पूर्णिमा को यहां! साढ़े चार हो चुके थे, अब सोना भी था, जितना सो सकें! "चलो अब सो जाओ! समय बहुत हो गया है!" कहा मैंने, "यहीं सो जाओ?" बोली वो, "नहीं।" बोला मैं, "क्यों?" पूछा उसने, 

"फिर नींद किसे आती है?" कहा मैंने, 

और उसके सर पर हाथ फेर, मैं चला आया वापिस! आया अपने कमरे में,शर्मा जी सो चुके थे, मैंने दरवाज़ा बंद किया, और लेट गया, आ गयी नींद! सुबह उठा, तो ग्यारह बजे थे! शर्मा जी स्नान-ध्यान से निबट चुके थे, फिर मैं भी फारिग हआ, और आ बैठा संग उनके! "देर हो गयी थी रात में: बोला मैं, "हाँ" बोले वो, 

और तभी चाय आई,साथ में, कचौरी,आलू की मैंने चाय उठायी, कचौरी ली, और चला काम्या के पास, पहुंचा, तो स्नान करके आई थी, चाय रखी थी उसकी, "अभी उठीं क्या?" पूछा मैंने, "घंटा हो गया" बोली वो, 

और फिर आ बैठी, चाय पीने लगी, मैं भी, चाय पीने के बाद मैं, शर्मा जी को ले, गया बाबा के पास, बाबा भी चाय पी रहे थे, प्रणाम हुई, और हम बैठे, वो टमटम नहीं थी वहाँ, नहीं तो फिर से सवाल पूछती, "अब तो आप पूनम को ही जाओगे वहाँ?" पूछा मैंने, "हाँ" बोले वो, "तो हम


   
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श्रीशः उपदंडक
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निकल जाते हैं वापिस, आते हैं पूनम को?" कहा मैंने, "हाँ, ठीक" बोले वो, "ठीक है बाबा!" कहा मैंने, "और तैयारियां कर लेना!" बोले वो, "ठीक है बाबा!" कहा मैंने, तो मित्रगण! हम उसी दिन, कोई चार बजे, बैठ लिए वापसी के लिए! पहुँच गए दिल्ली, अपने डेरे पर, शर्मा जी घर चले गए थे, और मैं, काम्या के संग वहीं रहा! काम्या को खूब घुमाया, आगरा, मथुरा, गोवर्धन आदि आदि। बहुत पसंद आया काम्या को घूमना! सेहत बना दी उसकी! रंग-रूप खिल उठा! एक महीना जैसे पंख लगाये उड़ गया! पता ही नहीं चला! 

और फिर हम, चौदस को बैठ लिए वहाँ के लिए! 

मैंने तैयारियां कर ही ली थीं! हम जा पहुंचे बाबा के डेरे! बाबा से मिले, सुनंदा भी मिली, 

और एक बात पता चली, एक नेपाल से बाबा आ रहे थे उस दिन, बाबा नेवत्र नाथ! आयु में कोई पचहत्तर के रहे होंगे! बाबा नेवत्र नाथ, गान्धर्वी-विद्या में निपुण थे! उन्होंने भी, कई गान्धर्वो से साक्षात्कार किया था, ऐसा मुझे बताया गया था! अब ये बात मैंने काम्या और शर्मा जी को बतायी! उन्हें भी, कुछ प्रपंच रचे जाने की गंध आई। "क्या कैद करेंगे उसे?" पूछा शर्मा जी ने, "कैद तो खैर, नहीं कर सकेंगे!" कहा मैंने, "तो फिर क्या करेंगे?" पूछा उन्होंने, "मुझे नहीं पता!" कहा मैंने, "कहीं हमें ही न चटकवा दें!" बोले वो, "ऐसा नहीं होगा!" कहा मैंने, "होना भी नहीं चाहिए!" बोले वो, "प्रयास तो यही है!" कहा मैंने, "अब कल चलना है न?" पूछा उन्होंने, "हाँ, जैसे उस दिन गए थे" कहा मैंने, "ठीक!" बोले वो, 

और मैं चला फिर बाहर, सीधा काम्या के पास! लेटी हुई थी, मुझे देखा तो उठ बैठी, "आओ ज़रा बाहर चलते हैं" कहा मैंने, "कहाँ?" पूछा उसने, "ज़रा चलते हैं समय कट जाएगा!" कहा मैंने, "चलो" बोली वो, तैयार हुई, और हम चल पड़े, बाजार जा पहुंचे, मैंने भी कुछ खरीदा, और उसको भी खरीदवाया, थोड़ा बहुत खाया भी, 

और फिर हुए वापिस हम, बाबा नेवत्र नाथ भी आ चुके थे वहाँ! लगी खबर! अब तक शाम हो चुकी थी, और अब हुड़क मिटाने का समय था! 

काम्या को कमरे में भेजा उसके, 

और शर्मा जी और मैंने किया जुगाड़! मंगवाया सामान और हम हुए शुरू! "एक बात बताइये?" बोले वो, "पूछिए?" कहा मैंने, "ये चाहते क्या हैं उस से?" बोले वो, पूछा, "अब कोई विद्या या सिद्धि!" कहा मैंने, "ऐसी मिल जायेगी?" पूछा उन्होंने, "यदि प्रसन्न हुई तो!" कहा मैंने, "उस टमटम के रवैय्ये से तो ऐसा लगता नहीं!" बोले वो, "तो भुगतेंगे!" कहा मैंने, "और ये बाबा नेवत्र नाथ, जानते हैं आप?" पूछा उन्होंने, "नहीं" कहा मैंने, "आप मिले?" पूछा उन्होंने, "नहीं" बोला मैं, "मंत्रणा कर रहे होंगे!" बोले वो, "हो सकता है" कहा मैंने, "करने दो इनको भी अपने जी की!" बोले वो, "और क्या!" कहा मैंने, "अब कल देखते हैं!" बोले वो, "हाँ, कल ही!" बोला मैं, गिलास से गिलास बजा, हम आनंद लेते रहे मदिरा का! 

खाया-पिया और फिर काम्या से मिला, उसको भी भोजन करवाया और फिर आराम से सो गए हम! सुबह उठे, निवृत हए, और चाय-नाश्ता किया हम तीनों ने साथ साथ ही! ले आया था मैं, काम्या को अपने कमरे में ही, तो संग ही नाश्ता किया था हमने, नाश्ता हो गया, और अब सारा


   
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श्रीशः उपदंडक
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दिन पड़ा था काटने को, क्या किया जाए? चलिए विंध्य-वासिनि ही चला जाए! दर्शन भी हो जाएंगे और समय भी कट जाएगा, भोजन भी वहीं कहीं कर ही लेंगे! मेरा प्रस्ताव पसंद आया उन दोनों को, और हम, कोई नौ बजे निकल लिए थे वहां से, सवारी पकड़, हम चल पड़े, ये स्थान उस से दूर था, लेकिन हमारे पास समय तो था ही, अब कितनी ही देर लगे, कोई बात नहीं! 

पहुँच गए, बहुत भीड़ थी! पूर्णिमा थी न, इसीलिए! 

आखिर में, दर्शन कर ही लिए, प्रसाद चढ़ा दिया था और बाँट भी दिया था वहीं! तब आये बाहर, और एक जगह रुके, वहाँ खाना खाया, कुछ देर आराम किया, 

और फिर चले आराम से वापिस! सवारी ली, और चले वापिस हम! आ पहुंचे थे उधर, अब बस आराम ही करना था, पांच बजे तो निकल जाना था हमें! तब मैं शर्मा जी के साथ चला बाबा के पास, वहां पहुंचे हम, और जा बैठे, बाबा नेवत्र नाथ से भी प्रणाम हई। उनसे बातचात हुई,तो स्वभाव, से अवगत हुए उनके, वे अक्खड़, अपनी मर्जी चलाने वाले, और क्रोधी स्वभाव के थे! वे श्री श्री श्री जी से भी अवगत थे, लेकिन उनके विषय में बात करने से हिचक रहे थे! "तो बाबा, वही पांच बजे?" पूछा मैंने, "हाँ, पांच बजे" बोले वो, "ठीक है!" कहा मैंने, 

और हुए हम खड़े, हुए वापिस, सुनंदा नहीं थी वहाँ उस समय! "ये बाबा नेवत्र नाथ तो ज़ालिम से लगते हैं!" बोले वो, "हाँ, अक्खड़ मिजाज़ हैं!" कहा मैंने, "अब पता नहीं क्या हो!" बोले वो, "देखते हैं!" कहा मैंने, 

आ गए अपने कमरे में हम, मैं लेट गया था फिर, काम्या पहले ही, अपने कमरे में आ गयी थी, मैंने अब कुछ देर आराम किया, नींद आ गयी थी मुझे, 

सो गया था मैं, शर्मा जी जागे ही रहे थे। मैं उठा करीब पांच बजे के आसपास, मुझे जगाया था शर्मा जी ने, मैं जागा, हाथ-मुंह धौने गया और फिर बैठा! "वो छोटा बैग रख लेना आप!" कहा मैंने, "अभी ले लेता हूँ" बोले वो, उठे और ले लिया बैग! "चलें?" बोला मैं, "चलिए" बोले वो, 

और हम, कमरा बंद कर, चल दिए, साथ में काम्या को भी ले लिया हमने! हम पहंचे गाड़ी तक,तो चालक ने प्रणाम किया, वही था, पिछली बार वाला, 

हमने भी प्रणाम किया, और तब, वे चारों भी आ गए, बाबा नेवत्र नाथ ने जैसे ही काम्या को देखा, तो घूरा! "तू किसकी साधिका है?" पूछा बाबा ने, "मेरी!" कहा मैंने, "इसके संग श्मशान उठाया?" पूछा, "अभी नहीं!" कहा मैंने, "तो कब उठाओगे?" बोले वो, "इसी वर्ष!" कहा मैंने, "नेपाल आ जाओ!" बोला वो, "है स्थान मेरे पास! आपका धन्यवाद!" कहा मैंने, बाबा ने काम्या को देखा, ऊपर से नीचे तक, और, उस अभरमाल पर नज़रें जा टिकी! फिर हटाईं, 

और घुसे गाड़ी में, बाबा, सुनंदा और सहायक बैठ चुके थे, गाड़ी बड़ी थी, आराम से आ गए हम, इस बार, शर्मा जी, मैं और काम्या एक साथ बैठे थे। 

और चल पड़े हम अपने सफर पर! चालक ने गाड़ी वहीं रोकी, अब वहां चाय-पानी पिया, 

और फिर से चले, जा पहुंचे उस डेरे पर, हुआ प्रवेश, और फिर कक्ष दे दिए गया! हम अपने अपने कक्ष में आ गए थे! काम्या को मैं बुला लाया था अंदर अपने कक्ष में, तब हमने एक साथ


   
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श्रीशः उपदंडक
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ही चाय पी थी, "ये नेपाल क्यों बुला रहा था?" पूछा शर्मा जी ने! "इसकी नीयत सही नहीं लगी मुझे" कहा मैंने, "देख कैसे रहा था!" बोली काम्या! "तुम्हारे बारे में कुछ कहता अगर गलत, तो वही ढेर कर देता उसे!" कहा मैंने, "फिर कौन रुक रहा है? ऐसा तबला बजाता साले का, कि नेपाल तक ताल सुनाई देती!" बोले शर्मा जी, खिलखिलाकर हंसी काम्या! "ध्यान रखना शर्मा जी काम्या का!" कहा मैंने, "चिंता ही न करो! कहने की ज़रूरत ही नहीं!" बोले वो, शाम हुई, हुड़क तो लगी, लेकिन हमने हुड़क नहीं मिटाई अपनी! 

पता नहीं क्या हो आगे? हड़क तसल्ली से मिटाई जाती है, लप्प-झप्प में नहीं! रात हुई, तो भोजन किया, और फिर कुछ देर आराम, कोई साढ़े दस बजे, काम्या को ले आया अपने कमरे में, 

और फिर, मैंने उसका शरीर का अभिमंत्रण किया जल से, शर्मा जी का भी, और अपना भी, देह पोषित की, प्राण-रक्षा मंत्र से, देह-रक्षा मंत्र से और घात-रक्षा मंत्र से! 

और ठीक ग्यारह बजे, हम जा पहुंचे बाबा के पास, सामान रखा जा रहा था गाड़ी के ऊपर, सामान ऐसा कि जैसे रात को वहीं तम्बू लगाया जा रहा हो! बाबा नेवत्र ने फिर से घूरा काम्या को, काम्या गाड़ी के साथ सटकर खड़ी थी, ऊपर से, नीचे तक देखा उसे, मैंने तभी, काम्या के गले में अपना हाथ डाल दिया! तब बाबा ने नज़रें हटाई अपनी उस पर से! 

और हम बैठे फिर, इस बार हम तीनों एक साथ ही बैठे! और चल पड़े, रास्ते में, बाबा बार बार पीछे मुड़ मुड़ के देखते, गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन अवसर सही नहीं था, इतना तो, तय था, कि बाबा के मन में कुछ तो है उस काम्या को लेकर! ढाई घंटा लगा, और हम कोई डेढ़ बजे वहाँ पहंचे, बाबा ने सारी तैयारों की अब वहां, दरी बिछाई, और सामान रखा, ब्ब नेवत्र ने, अपने झोले में से कुछ अभिमंत्रित भस्म, छिड़की उस स्थान पर, मंत्र पढ़ते हए! 

और उस किनारे पर भी! स्थान को अभिमंत्रित कर दिया गया था! फिर खद्दक की लकड़ियाँ उन पत्थरों में गाड़ दीं, कम से कम दस! अब समझा मैं! ये उत्वालक-कर्म था! रखस के साथ ही साथ, भक्षण भी! भक्षण! उस गान्धर्व-कन्या का! ये कैसी मूर्खता की थी उन्होंने! हम तो खैर, बैठे हुए थे, बाबा लोग ही, मेहनत कर रहे थे, "ये कर क्या रहे हैं?" पूछा शर्मा जी ने, 

"बांध रहे हैं स्थान!" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उन्होंने, "अपनी इच्छा को अंजाम देने के लिए!" कहा मैंने, "अपनी अर्थी तो नहीं बाँध रहे?" बोले वो, "यही बात है!" कहा मैंने, बजे दो! 

और अब कलुष चलाया! अभिमंत्रण किया! नेत्र पोषित किये, 

और नेत्र, हुए पोषित! थोड़ा समय और बीता! 

और थोड़ा! और आकाश में, प्रकाश-क्रीड़ा आरम्भ हुई! प्रकाश की किरणें,रंग-बिरंगी, आपस में काटती हुईं एक दूसरे को, नीचे की ओर आ रही थीं! पानी में वे रेखाएं ऐसे लग रही थीं कि जैसे, दोनों ओर की रेखाएं, लालायित हों, एक दूसरे से मिलने को! 

और मिल गयीं थीं। एक जैसी! अद्भुत दृश्य! आकाश से तभी लाल रंग का प्रकाश चला नीचे की ओर, वैसे ही, जैसे कोई मखमली थान खुला हो! कैसा अद्भुत! अद्वित्य! प्रकाश के बड़े बड़े पिंड, गिरने लगे पानी पर! पानी में, जैसे दिवाली मन उठी! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई देखे, तो बस, वहीं का हो कर रहा जाए! ऐसा दृश्य था! फिर सफेद प्रकाश फूटा! 

और प्रकाश से घिरी हुई वो कन्या, नीचे उतरने लगी! पानी में, रंग ही रंग! 

और वे, श्वेत सर्प,मह उठाये ऊपर देखें! और जैसे ही वो पानी से छुई, वो खद्दक की लकड़ियाँ, जो उन पत्थरों के नीचे दबी थीं, दीयों के भांति जल उठी! लगा, जिअसे भूमि में से लपटें निकल रही हैं। क्षेत्रण तो रुई की तरह उड़ गया! उड़ते देख, वो बाबा नेवत्र और बाबा शैशव, उछल ही पड़े! और वो सुनंदा, मुंह पर हाथ धरे, अपना फटा मुंह छिपा रही थी! लेकिन एक बात और थी, मुझे स्तब्ध किया उस बात ने! वो लकड़ियाँ जली, लपटें उठीं, लेकिन उस कन्या ने कोई ध्यान ही न दिया! वो क्यों किसलिए? पानी में वो सर्प, श्वेत-सर्प, अब उसके चारों ओर एक वृत्त सा बनाये हुए थे। वो पानी में अब कमर तक डूब चुकी थी, कमर तक, 

और जल, जैसे स्थिर हो गया हा, जैसे, उसके शरीर को, हल्का कर, उसको थामे पड़ा हो! पानी में से, ऐसे रंग फूट रहे थे जैसे, अलग अलग रंगों की बत्तियां, उस पानी में अंदर इबो दी गयी हौं! कहीं लाल, कहीं पीला, कही नारंगी और कहीं नीला, सफेद! वे बाबा, पत्थर के पीछे चिपके और छिपे बैठे थे। बाबा शैशव के हाथों में, 

अस्थियों से बना एक अस्थि-दण्ड सा था, वो उसको कपड़े से साफ़ कर रहे थे, नज़रें सामने गड़ाए हए! वो दायें थे और हम बाएं! मैंने, काम्या को, नीचे बैठने को कह दिया था, वो कन्या, पानी में अंदर चली गयी, बीच नदी में, वो बस रंग ही दीख रहे थे, वो कन्या नहीं, वो रंग कभी बाएं, कभी दायें, कभी जैसे परली पार चली गयी हो, ऐसे दीखते थे! जब वो दूर थी, तो बाबा नेवत्र की आवाज़ सुनी मैंने, वो बोल रहे थे कि ये शत-प्रतिशत एक गान्धर्व-कन्या ही है! और अब सामने जाकर ही कुछ करना होगा! सामने जाकर? क्या करेंगे? वार्तालाप? या कोई अन्य पेंच कसेंगे? तभी वो पानी के रंग, आये तेजी से हमारी तरफ, वे दोनों बाबा, चले अब सामने किनारे तक! सुनंदा भी साथ उनके! बड़ी हिम्मत की उसने! और हम, पीछे ही रहे! 

वो आई नदी के बीच में, और बीच में ही रुकी! घूमी, और हाथों से पानी छलछलाया! जैसे जल का आनंद ले रही हो! 

और हैरत की बात! उन तीनों की उपस्थिति का जैसे उसको भान नहीं था! जैसे, वो मात्र निर्जीव ही हों! जैसे, उसको दिख नहीं रहे हों वे तीन! घबराहट थी मुझे! भले ही वो कैसे भी थे, लेकिन ये तो इंसान ही! पल भर नहीं लगता उनका अस्तित्व खत्म होने में! भस्म होने में! ऐसे भस्म, कि भस्म भी शेष न रहे! भूमि पर गिरे ही नहीं! 

और तब वो कन्या, चली किनारे की तरफ। वे सर्प उसके शरीर से लिपट लिपट, नीचे गिरें! फिर लिपटने की कोशिश करें, और फिर गिरें 

आई वो, किनारे तक, उन तीनों से अनभिज्ञ सी! आई,तो सूखी थी! जल उसके संग संग चला आया था! "ठहरो?" चिल्लाये बाबा नेवत्र! 

लेकिन! कोई असर नहीं! जैसे सुना ही न हो! बड़ी हैरत की बात! मैंने ऐसा कभी नहीं देखा था। कोई कन्या हो ऐसी, तो सबसे पहले तो, चेवाट होते हैं संग! लेकिन वो भी नहीं? फिर दूसरी पंक्ति में चेवाों की, महाहिराक्ष हुआ करते हैं! ये बेहद क्रूर हुआ करते हैं! रक्षण में इनसे निपुण


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई नहीं संसार में! वे भी नहीं? कोई गान्धर्व भी नहीं, कोई सखी, सहचरी, वो भी नहीं? ऐसा कैसे सम्भव है। "ठहरो कन्न्या?" बोले बाबा शैशव अब! नहीं सुना, और उठने लगी ऊपर! अपने केशों में हाथ फिराते हुए, 

और उठती गयी, हम देखते रहे उसे, और वो प्रकाश, लोप हुआ! लोप हो गयी वो भी! मैं दौड़ के किनारे पर गया, उनके पास! वे तीनों ऊपर देख रहे थे। वहीं, जहां वो लोप हुई थी। "ये कन्या गान्धर्वी ही है! और, ये पूनम को आती है, तो इसका अर्थ, ये पंचमी और दशमी को भी 

आती होगी!" बोले बाबा नेव्रत! "कैसे पता?" कहा मैंने, "ऐसा ही होता है!" कहा उन्होंने, "लेकिन एक बात?" कहा मैंने, "क्या?" बोले वो, "उसने आप सभी को देखा क्यों नहीं?" कहा मैंने, "ये ही समझ नहीं आया, इस बार, हम यहां क्रिया करेंगे, गान्धर्व-वेध क्रिया!" बोले वो, "उस से क्या होगा?" पूछा मैंने, "क्या होगा? हमारे समान और कोई होगा ही नहीं! हम गान्धर्व-शक्ति के स्वामी होंगे!" बोले 

मैं चुप हो गया! अब समझाना सही नहीं था! वे, समझ ही नहीं सकते थे! शक्ति प्राप्त करने के लिए,अब कुछ भी कर सकते थे। अपने प्राणों को भी आहूत करने को तैयार थे। अं न तो वो सुनते, 

और न ही विवेक काम करता उनका! "चलो अब सब, बहत तैयारियां करनी हैं!" बोले वो, 

और अब चले वो वहां से, हम भी चले! "एक बात पूछू?" बोले शर्मा जी, "पूछो?" कहा मैंने, "उसने इनको देखा क्यों नहीं?" पूछा उन्होंने, "दो कारण हैं इसके!" कहा मैंने, "क्या?" पूछा उन्होंने, "वो गान्धर्व-आवरण में आती है! अर्थात, किसी के द्वारा उसका रक्षण होता है, और उसका सम्पर्क, लगातार इसी कन्या से रहता है, और दूसरा कारण, वो स्वयं!" जवाब दिया मैंने, "स्वयं?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, "समझा नहीं?" बोले वो, "वो स्वयं ही अपनी इच्छा से ऐसा करती है!" बोला मैं, 

"पर वो ऐसा क्यों करेगी?" पूछा उन्होंने, "अब इसका कारण नहीं पता मुझे!" कहा मैंने, "तो कैसे जान सकते हैं?" पूछा उन्होंने, "जान सकते हैं!" कहा मैंने, "कैसे?" पूछा उत्सुकता से! 'वो स्वयं! स्वयं ही ऐसा बताये!" बोला मैं, "क्या ये सम्भव है?" पूछा उन्होंने, "क्यों नहीं!" बोला मैं, अब तक हम गाड़ी के पास आ चुके थे, गाड़ी में बैठे और रवाना हए आ गए वापिस! सीधा अपने कमरों में! दिमाग उलझ गया था बहत! भला वो ऐसा क्यों चाहेगी? कोई चेवाट क्यों नहीं? कोई महाहिराक्ष क्यों नहीं? कोई गान्धर्व, कोई सखी, सहचरी, क्यों नहीं? कौन सी कहानी है इसके पीछे? कुछ तो है? कोई न कोई कारण तो है। कौन सा? यही तो जानना है! कैसे? कोई साधन नहीं है जानने का! सरल तो कोई नहीं! दिमाग पर बोझ ले, मैं सो गया था! 

अगले दिन दोपहर में, हम फिर से घूमने चले गए, कई स्थान हैं वहां, वहीं गए, और दो डेरे ऐसे हैं, जहां मैं अक्सर जाता हूँ, वहाँ भी गए! किसी तरह से चार दिन काटने थे, इसीलिए! 

तो जी, 

हमने कैसे काटे वो दिन, हम ही जानें! खंगाल डाला था हमने तो जैसे मिर्जापुर सारा! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और आ गयी पंचमी! मैं बैठा था शर्मा जी के साथ कमरे में, "आज आएगी वो?" बोले वो, "बाबा ने तो कहा था!" कहा मैंने, "देखते हैं,आ जाए तो ठीक, नहीं तो फिर महीना!" कहा उन्होंने, "हाँ, नहीं तो काम्या की मुसीबत है!" बोला मैं, "हाँ, ये तो है!" बोले वो, "तो आ जाए, सही होगा!" बोला मैं, तभी काम्या आ गयी कमरे में! "आओ काम्या!" बोला मैं, 

आ गयी, और आ बैठी, "काम्या, अगर आज वो नहीं आई तो?" बोला मैं, "जैसा आप कहें" बोली वो, "ठीक है!" कहा मैंने, "आओ, ज़रा चलें बाबा के पास!" कहा मैंने, "आप चले जाओ, मुझे अच्छा नहीं लगता साला कोई भी वहाँ!" बोले वो, मैं हंस पड़ा! काम्या भी हंस पड़ी! "आओ काम्या' कहा मैंने, "चलो!" बोली वो, 

और हम चल पड़े मिलने! वहां पहुंचे, तो तीनों ही बैठे थे! बाबा नेव्रत ने फिर से टेढ़ी निगाह से देखा काम्या को, मैंने भी देखा बाबा को, 

और बाबा शैशव ने बिठाया हमें! "कहाँ की है तू?" पूछा बाबा ने काम्या से! "हरिद्वार की हैं ये!" जवाब दिया मैंने, "हरिद्वार में किस डेरे की?" पूछा बाबा ने, हद कर दी थी बाबा ने तो! "श्री श्री श्री जी के रिश्तेदार हैं, उन्ही के डेरे की!" कहा मैंने, अब हुई बोलती बंद! श्री श्री श्री जी से कोई काँटा भिड़ा था बाबा को, मुझे तो यही लगता था। उनके नाम से थूक गटकने लगते थे बाबा! इतनी भी शर्म नहीं कि, 

कोई आपको भी देख रहा है। बार बार वो काम्या को ही निहारे जाते! अब गुस्सा तो आये, लेकिन किया क्या जाए? "हाँ बाबा? पांच बजे ही निकलना है?" पूछा मैंने, "नहीं, आज चार बजे निकलेंगे और सीधा वहीं जाएंगे!" बोले वो, "कहाँ?" पूछा मैंने, "वही, उसी किनारे पर" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "नाम क्या है तेरे पिता का?" बोले बाबा नेव्रत काम्या से "मनवंत, बाबा मनवंत!" कहा मैंने, "ये नहीं बोलती क्या?" पूछा उन्होंने, "मेरे से बिना पूछे नहीं!" कहा मैंने, "श्मशान उठवाओ इसको लेकर?" बोले वो, "उठा लूंगा!" कहा मैंने, "हमें भी बुलाओ!" बोले वो, बेशर्मी की सारी हदें पार कर दी थीं उन्होंने तो! "आपको किसलिए?" पूछा मैंने, "हम भी मदद करेंगे!" बोले वो, काम्या को देखते हए! "मुझे मदद की आवश्यकता नहीं!" कहा मैंने, "आप क्या जानो! जितनी आयु है आपकी, उतनी तो मैंने श्मशान में गुजार दी!" बोले मज़ाक सा बना के! "काम्या, तुम जाओ वापिस!" कहा मैंने, वो उठी, मैं खड़ा हआ आगे बाबा के,और जब वोओझल हई, तब मैं बैठा! "गुजारी होगी! ज़रूर गुजारी होगी! आप उमदराज़ हैं, जानते ही होंगे अवश्य आप महाप्रबल साधकों को! क्या आप मुझे जानते हो?" पूछा मैंने, "हाँ, मुझे बताया इन्होने,आप महाबल के शिष्य हैं!" बोले वो, "और श्री श्री श्री महाबल जी के शिष्य थे?" पूछा मैंने, "मुझे नहीं पता" बोले वो, "जिनके वो शिष्य थे, मैं उनका ही पौत्र हूँ! जब जान जाओ, तब बात करेंगे अब इस विहस्य पर, और हाँ, काम्या, आपकी पुत्री समान है, अब तो पोती कहूँ तो भी सही है! समझे आप?" बोला मैं, खड़ा हुआ, बाबा शैशव से प्रणाम कर, चला आया वापिस! आया सीधा काम्या के पास, बैठा वहां! 

"हद कर दी बाबा ने तो!" बोली वो, "समझा आया हूँ, बेहद स्पष्ट शब्दों में!" कहा मैंने, "ये अच्छा किया! नज़रें देखी?" बोली वो, "चिंता ही न करो!" कहा मैंने, "अब नहीं बोलेगा, अब


   
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