कर आई थी, गहरे नीले रंग की! उस गोरा रंग, और बढ़ गया था! "चलें?" बोली वो, "हाँ चलो!" कहा मैंने,
और हम दोनों चले फिर, बाहर से सवारी पकड़ी, और एक जगह पहुंचे, पुल की हालत ख़स्ता थी, नाव चल रही थीं! कोई ज्यादा चौड़ी नदी नही थी, लेकिन फिर भी पानी बहुत था उसमे! हम ऐसे ही एक नाव में बैठे, मैंने उसको बिठाया एक जगह! साले कुछ हरामी लोग भी थे उसमे,सुबह सुबह ही, शराब पी आये थे! न जाने कौन सी भाषा में
गाने गा रहे थे। "तुम इधर बैठो, क्षमा करना, आप इधर बैठो!" कहा मैंने, बिठा लिया उसे, नाव के किनारे की तरफ,और उसके संग मैं बैठा! नाव चली, और वे हरामी लोग, पानी में हाथ डाल, पानी छिड़कें! मैंने एक बार मना भी किया, लेकिन समझ नहीं आई उन्हें! उन्हीं में से एक का नाम था भूलावन! उसके साथी उसको इसी नाम से बुला रहे थे! कुल तीन थे वो! मर-गिरल्ले, चलती-फिरती दफ़ा तीन सौ दो! उसने पानी फेंका, पानी गिरा काम्या के घुटने पर, काम्या ने पीछे देखा, मैंने भी देखा, तो तीनों अपनी बत्तीसियां दिखा रहे थे। किनारा आया, और हम जैसे ही उतरे, काम्या चौंकी! पीछे मुड़कर देखा! वही तीनों थे। हंस रहे
थे। "क्या हुआ?" पूछा मैंने उस से, काम्या ने अपना हाथ अपने दायें नितम्ब पर रखा हुआ था! बस! फिर क्या था! मैं समझ गया! गया उन तीनों की तरफ! उस भुलावन को पकड़ा बालों से उसके, और मारा फेंक कर नाव से! अब लोगबाग इकट्ठा! लेकिन बोले कोई नहीं! जब तक वो उठता, तब तक तो मैं उसके मुंह से खून उगलवा चुका था! अपना जूता मार रहा था उसके चेहरे पर। उसका एक साथी आया, और दूसरा भागा। उसके दूसरे साथी को भी मैंने एक दिया खींच कर जबड़े पर, साला, पछाड़ खा कर गिरा नीचे! तब तक मैं भांज चुका था उसको! पेट में, सर पर, घुटनों में दे लात और दे लात! ।
आसपास देखा, और एक डंडा दिखा! काम्या चिल्लाये! रुकने को कहे! लेकिन अब तो उबाल था! हरामज़ादे की इतनी हिम्मत? लिया इंडा, और बजा डाला! क्या टांग और क्या पसलियां! तोड़ दी साले की हड्डियां! और तब, तब लोगों ने रोका मुझे! इंडा लिया हाथ से, वहां के कुछ लोगों ने बात पूछी, तो मैंने बता दिया, उन्होंने बताया कि ये हरामज़ादे ऐसा ही करते हैं! "आओ, चलो काम्या!" कहा मैंने, उसका हाथ पकड़ा, और चला अब सड़क की तरफ, सड़क पर आये, तो सवारी ली,और जा पहुंचे वहाँ,जहां काम था उसे, उसने खरीद लिया जो चाहिए था उसे! और फिर हम हए वापिस, "इतना गुस्सा?" बोली वो, "उस हरामजादे की हिम्मत कैसे हुई इतनी?" बोला मैं, "मर जाता तो?" बोली वो, "ऐसे का तो मरना ही ठीक है!" कहा मैंने, "अब वहां से नहीं जाएंगे!" बोली वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "कहीं बहुत सारे लोग इकट्ठा हो गए तो?" बलि वो,
"उसकी चिंता न करो काम्या!" कहा मैंने, उसने मेरे दायें गाल पर हाथ रखा, और देखा मुझे, मैंने भी देखा, शीशा! बस शीशा था हमारे बीच! "नहीं, वहाँ से नहीं नहीं!" बोली वो, "ठीक है! जहां से जाना है, वहाँ से चलो!" कहा मैंने,
और ले गयी मुझे फिर एक दूसरी जगह, नाव पकड़ी, और हम हुए वापिस फिर!
और हम आ गए वापिस! मुझे ले गयी अपने कमरे में, पानी पिलाया! और बिठाया! मुझे देखे बार बार! अजीब से भाव से! "क्या हुआ काम्या?" पूछा मैंने, "मार ही डालते उसे आप!" बोली वो, "सुनो, यहां विदेशी पीकर, देसी हरकतें नहीं करते, और वो देसी पीकर विदेशी हरकतें कर रहे थे! कैसे छोड़ता फिर?" कहा मैंने, "शराब पी हई थी उन्होंने!" बोली वो, "हमने तो नहीं पी हुई थी?" कहा मैंने, "ऐसा गुस्सा अच्छा नहीं! अब नहीं करना!" बोली वो, "बर्दाश्त नहीं हुआ काम्या! मेरे होते हए वो ऐसा करे? बस, इसीलिए!" कहा मैंने, "और जब आप चले जाओगे तो?" पूछा उसने, "तब भी, फ़ोन कर देना बस!" कहा मैंने,
अब हम दोनों ही हँसे! "चलो अब पढ़ाई करो, मैं चलता हूँ!" कहा मैंने, उठते हुए, "सुनो?" बोली वो, "हाँ" कहा मैंने, "धन्यवाद!" बोली वो, "कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
और मैं निकलने को हुआ! तो आई रास्ते में मेरे! "क्या हुआ काम्या?" पूछा मैंने, "एस क्यों लग रहा है कि मैं आपको बहुत पहले से जानती हूँ?" पूछा उसने, "ये तो पता नहीं!" कहा मैंने, "मुझे ऐसा ही लग रहा है।" बोली वो, "ये तो पता नहीं, लेकिन मैं अब हमेशा जानूंगा आपको!" कहा मैंने,
"आप नहीं बोलिए, तुम बोलिए!" बोली वो, "ये तो पता नहीं, लेकिन अब हमेशा जानूंगा तुम्हें!" कहा मैंने और हंसने लगा! उस दिन पहली बार काम्या की आँखों में मैंने अपनत्व सा देखा था! प्रत्येक साधक यही चाहता है कि उसकी साधिका उसकी मन-माफ़िक़ हो! यही लालच रहा करता है! "मिलता हूँ दोपहर में!" कहा मैंने,
और चला आया बाहर! आज काम्या बदल सी गयी थी, दूरी का वो शीशा बस दरकने को ही था! खैर, मैं आ गया अपने कक्ष में, शर्मा जी बैठेहए थे, बात कर रहे थे फ़ोन पर, मैं बैठा, जूते खोले, चप्पलें पहनी और हाथ-मुंह साफ़ करने चला गया, साफ़ किये और आया वापिस! "हो आये?" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, और सारा वाक़या बता दिया उन्हें! "बहुत बढ़िया किया! सालों को नदी में और फेंक देते! इनकी मैय्या की'त में असमी गैंडे का *इ! वो भी अंडमान-निकोबार के साथ!" बोले वो, मेरी हंसी छूटी! अंडमान-निकोबार! "सही बजाया सालों को!" बोले वो! "अरे इतनी हिम्मत?" बोला मैं, "साले टुल्ल होंगे, सोचा, परदेसी हैं, ये नहीं पता कि तोप और पलीता संग लिए घूमते हैं हम लोग! इनकी गां* मैं तो कबूतर की बीट भरकर, वो जो रेल के इंजन से प्रेशर निकलता है न, वो ही पाइप ठोक देना चाहिए, जो कि मुंह से हॉर्न निकले!" बोले वो, मेरी हंसी छूटी! इतनी हंसी, इतनी हंसी की पेट में दर्द होने लगा! "बस! अब जिंदा भी रहने दो हरामजादों को!" बोला मैं, "कैसे जिंदा? ये हरकतों से बाज आने वाले नहीं। इनकी तो फुल्लो को, सिरके में इबोकर, दीमक की बाम्बी में घुसेड़ दे! जो चूरन बन कर आये बाहर!" बोले वो, मैं फिर से हंसा! पेट में बल पड़ गए! "बस यार बस!" कहा मैंने, "हाँ! साले चुटकबाजी करेंगे। इनकी माँ की *त मैं भैंसे का *ड!" बोले वो, "भैंसे का?" मैंने पूछा, "हाँ, जो वैसे न मरै तो चुभन से तो मरैगी!" बोले वो,
अब भागा मैं बाहर! क्या तर्क दिया था! चुभन!
अब नहीं जाना था अंदर! हंस हंस कर हाल खराब था। अभी तक रेल के इंजन का हॉर्न सुनाई दे रहा था, और अब ये चुभन!
खैर जी! दोपहर में खाना खाया हमने, थोड़ा आराम किया और कोई एक घंटे के बाद, फ़ोन आया काम्या
का! "क्या कर रहे हो?" पूछा उसने, "कुछ नहीं, लेटा हुआ था!" कहा मैंने, "आ जाओ, इधर?" बोली वो, "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "ऐसे ही!" बोली वो, "आता हूँ" कहा मैंने, मैं खड़ा हुआ, जूते पहने, और चल दिया उसकी तरफ! वहां पहुंचा, कमरा खुला था, "काम्या?" कहा मैंने, "आ जाइए!" बोली वो,
और मैं अंदर चला गया, "बैठो!" बोली वो, मैं बैठ गया कुर्सी पर! उसने एक थैली उठायी, संतरे और सेब थे उसमे, संतरा निकाला और छीलने लगी, नज़रें संतरे पर थीं,
और मेरी नज़र, उसके उस गाल के तिल पर! बड़ा मनमोहक सा तिल है वो! भक्क काला! गोर चेहरे पर, बस यही दाग है। बनाने वाले ने,जानबूझकर, नज़रबट्ट बना, ये तिल लगा दिया है उसके! संतरे की फांक छीलती, और मुझे दे देती, नहीं देखती मेरी तरफ, बस छीलती रहती, और उसके रेशे हटाती रहती! "तुम्हारा ये तिल बहुत सुंदर है!" कहा मैंने, "अच्छा ?" बोली वो, "हाँ! चाँद सा लगता है खुले आकाश में!" कहा मैंने, "अच्छा?" बोली हंसकर! "अब यक़ीन करो!" कहा मैंने,
"कर लिया!" बोली वो, "इतनी जल्दी?" कहा मैंने, "आपने कहा, तो कर लिया!" बोली वो, "अच्छा! जो मैं कहूँगा, वो होगा?" कहा मैंने, "कह कर देखिये!" बोली वो, "कह नहीं सकता!" कहा मैंने, "ऐसा क्या है?" बोली वो,
और तब देखा मुझे, मैं तो काँप सा उठा उस समय उसकी आँखें देख! "ऐसा क्या है?" पूछा फिर, "नहीं! कुछ भी नहीं!" कहा मैंने, फिर से फांक दी, मैंने ली, "तुम तो खाओ?" कहा मैंने, "खा लूंगी!" बोली वो, "कब?" पूछा मैंने, बीज निकालते हए, "आप तो खाओ?" बोली वो, "सारे खा जाऊँगा!" कहा मैंने, "खा लीजिये!" बोली वो, "खाओ यार! ऐसे अच्छा थोड़े ही लगता है?" कहा मैंने, मैं आगे बढ़ा, और एक फांक की उसकी तरफ, मुंह की तरफ,
और खिला दी वो फांक उसे! "अब हुई न बात!" कहा मैंने, उसने फिर से एक फांक पकड़ा दी, और दूसरा निकाल लिया! "अब तो बहुत याद आएगी इन संतरों की!" बोला मैं, "मेरी नहीं?" पूछा उसने, "संतरे से मतलब तुम से ही था!" कहा मैंने, अब देखा मुझे! मैंने भी देखा, हल्का करने के लिए, फांक बढ़ा दी आगे! खिला दी फिर! "काम्या?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "कहीं घुमाने चलो, यहां तो वक़्त ही नहीं कटता, और मुझे यहां का क-ख भी नहीं पता!" कहा मैंने,
"कहाँ जाओ?" पूछा उसने, "कहीं भी, एकांत में!" कहा मैंने, "यहां तो जंगल ही जंगल है! सब एकांत ही है!" बोली, मुझे फांक देती हुई, "जहां आराम से बैठ सकें!" कहा मैंने, "अब तो हर जगह गीली होगी!" बोली वो, "क्या पता सूखी भी हो?" कहा मैंने, "ऐसी कोई जगह नहीं!" बोली वो, "क्या यार?" कहा मैंने, "यहां भी तो एकांत है?" बोली वो, "लेकिन यहां और लोग भी तो हैं!" कहा मैंने, "ओहो! उस से क्या?" बोली वो, "एकांत में ज़रा अलग ही बात होती है!"
कहा मैंने, "वो यहां नहीं हो सकती?" बोली वो, "नहीं, दीवारों के भी कान होते हैं!" कहा मैंने, "ये दीवारें बहुत मोटी हैं!" बोली वो, "अब तुम समझ तो हैं नहीं रही?" कहा मैंने, "सब समझ रही हूँ!" बोली वो, अब सेब छीलते हए, "क्या समझ रही हो?" पूछा मैंने, "एकांत चाहिए!" बोली वो, मुस्कुराते हुए! "हाँ! एकांत!" कहा मैंने, तब वो उठी, चप्पल पहनी, और बाहर का दरवाज़ा लगा दिया अंदर से! कर दिया बंद!
आई वापिस, बैठी, और छीलने लगी सेब! "ये क्या किया?" पूछा मैंने, "एकांत!" बोली वो, "अरे ऐसा एकांत नहीं! ऐसे में तो डर लगता है!" मैंने कहा, "डर? कैसा डर?" पूछा उसने,
और सेब काटकर दिया, मैंने लिया, खाया, "डर का मतलब डर!" कहा मैंने, "डर? मुझ से?" बोली वो, "नहीं, अपने आप से!" कहा मैंने,
"वो कैसे।बोली तो
"समझती तो तुम सब हो, बस यूँ कहो, कहलवाना चाहती हो!" कहा मैंने, अब हंस पड़ी! अपनी चिबुक से हाथ छुआते हुए! "तो कहो न?" बोली वो, "कहता हूँ!" कहा मैंने, खड़ा हुआ, और गया उसके पास, बैठा, वो खिसकी थोड़ा पीछे, "खिसको मत!" कहा मैंने,
और खींच लिया कमर में हाथ डालकर आगे, सटा लिया! "ये क्या?" बोली हल्के से, "डर पर काबू कर रहा हूँ!" कहा मैंने, "ऐसे हो जाएगा?" पूछा उसने, "कोशिश करने में क्या हर्ज?" कहा मैंने, फिर से सेब दिया, लिया और खाया! "अब दरवाज़ा खोल दो!" कहा मैंने, "क्यों?" बोली वो, "समझा करो, गोली खाना एक अलग बात है, लेकिन सर पर बंदूक तनी रहे तो वो अलग बात!" कहा मैंने, ज़ोर से हंसी वो! सेब वहीं छोड़ दिया प्लेट में! "माना करो, खोल दो!" बोला मैं, "सच में? खोल दूँ?" बोली वो, "हाँ, दरवाज़ा खोल दो!" कहा मैंने, सेब दिया और मैंने खाया!
और निकालने लगी, तो मैंने थैली ही हटा दी! "समझा करो, खोल दो, नहीं तो गड़बड़ हो जायेगी! बहुत बड़ी!" कहा मैंने, "कैसी गड़बड़?" बोली वो, "क्या करूँ? गड़बड़ जब हो जायेगी तभी मानोगी क्या?" बोला मैं, "अच्छा, बताओ तो सही, कैसी गड़बड़?" पूछा उसने! मैंने हाथ लिया उसका, उठाया, और रखा अपने दिल पर, "देखो कैसे घोड़ा लेकर, भाग रहा है सरपट सरपट!" कहा मैंने, उसने दबाया, थोड़ी देर, "सही तो है?" बोली वो, "ये सही है?" पूछा मैंने,
"और क्या?" बोली वो, "ठीक है! ये सही है, तो फिर ये भी सही है!" कहा मैंने,
और जा बैठा कुर्सी पर! "अब क्या हुआ?" पूछा उसने, "कुछ नहीं, लगाम लगवा रहा हूँ उसे!" कहा मैंने, हंस पड़ी! कमरे में हंसी गूंज उठी उसकी! "तुम ये जानबूझकर कर रही हो न?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "तो खोलो?" कहा मैंने, "आप ये जानबूझकर कर रहे हो न?" बोली वो, "क्या?" पूछा मैंने, "कि दरवाज़ा खोलो!" बोली वो, "कमाल है!" बोला मैं, "अगर ऐसा था, तो खुद क्यों नहीं खोल लिया?" बोली वो, पकड़ा गया! बिलकुल पकड़ा गया। रंगे हाथ और रंगे मुंह! "ऐसा नहीं है!" कहा मैंने, बनायी ढाल शब्दों की और कर दी आगे! "ऐसा ही तो है!" बोली वो, "याद है? नाम नहीं बता रही थीं, और अब बंद कर रखा है मुझे!" कहा मैंने, हंसती रही! खिलखिलाकर! अच्छा लगा! "नहीं खोल रहीं?" पूछा मैंने, "नहीं!" बोली वो, "ठीक है, अब मुझे
न कहना।" कहा मैंने, "क्या?" बोली वो, "कि ज़बरदस्ती हो गयी!" कहा मैंने, "कैसी ज़बरदस्ती?" पूछा उसने, "इधर आओ, बताता हूँ!" कहा मैंने, "आप आ जाओ!" बोली वो, झंडी, हरी तो मिल गयी थी, लेकिन उचित न था। अभी वो मेरी साधिका नहीं थी! "अच्छा रहने दो, पानी पिला दो!" कहा मैंने, वो उठी, और लाई पानी! मैंने पानी लिया और पिया, दो गिलास!
"गरमी लग रही है?" बोली वो, "नहीं तो, क्यों?" बोला मैं, "दो गिलास पानी, जल्दी जल्दी!" बोली वो, "गरमी बढ़ गयी थी!" कहा मैंने, और हंसा! "अब हट गयी गरमी?" पूछा उसने,
और चली अपने पलंग पर, "अब तुम ऐसा कह, फिर से फूक न मारो आंच में!" कहा मैंने, हंस पड़ी! "काम्या?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "कभी किसी साधना में बैठी हो?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली बो, "किसी ने माँगा नहीं?" पूछा मैंने, "माँगा था!" बोली वो, "किस * * * * * ने माँगा था? ओह! क्षमा करना, गाली निकल गयी मुंह से! किसने माँगा था?" मैंने पूछा, वो हंस पड़ी थी, मेरी गाली सुन कर! "दोने!" बोली वो, "कौन दो?" पूछा मैंने, "थे, अब नहीं मांगते" बोली वो, "जाना भी मत!" कहा मैंने, "नहीं जाउंगी!" बोली वो, "और अगर मैं मांगूं तो?" पूछा मैंने, "क्या बोलू? आना चाहिए? या नहीं?" पूछा मुझसे ही, "अवश्य ही!" कहा मैंने, "तो ठीक है! माँगना!" बोली वो!
और मैं खुश! एक प्रबल साधिका बना दूंगा उसको! अपनी विशेष साधिका! विशिष्ट! कोई आँख उठा के भी नहीं देखेगा! माँगना तो दूर की बात! "चलो अब दरवाज़ा खोलो!" कहा मैंने, "आप खोल लो!" बोली वो, मैं गया दरवाज़े तक, चिटकनी हटाई,और खोल दिया दरवाज़ा!
पीछे पलटा, तो मुंह पर हाथ रखे हंस रही थी! होंठ बंद किये! "ये क्या मेरा मज़ाक उड़ाया जा रहा है?" पूछा मैंने, "नहीं नहीं!" बोली वो, "तो हंस क्यों रही हो?" पूछा मैंने, कुर्सी पर बैठते हुए! "डर बाहर धकेल आये इसलिए!" बोली वो, "हाँ, ये बात तो है, धकेल दिया डर बाहर!" कहा मैंने भी हँसते हए! "इसीलिए हंस रही थी!" बोली वो, "इसमें हंसने की क्या बात है?" पूछा मैंने, "यही तो मैं पूछ रही थी कि, इरने की क्या बात है!" बोली वो, "तुम तो हाज़िर-जवाब भी हो! भाई वाह!" कहा मैंने, "अरे नहीं! मैं कोई हाज़िर-जवाब नहीं!" बोली वो, घंटा डेढ़ घंटा बीत चुका था, अब चलने का समय हो चला था, चलूँ और ज़रा आराम कर लूँ। "अब चलता हूँ!" बोला मैं, "क्या हुआ?" पूछा उसने, "ज़रा आराम कर लूँ!" कहा मैंने, "चले जाना! खाना खा लिया?" पूछा उसने, "हाँ, खा लिया, तुमने खाया?" पूछा मैंने, "अभी नहीं" बोली वो, "मैं जाते वक़्त कह दूंगा, अब चलता हूँ!" कहा मैंने, उठा,
और चला बाहर, चला अपने कमरे की तरफ! एक सहायक से कह दिया था खाना भेजने के लिए, और चला आया था अपने कमरे में, शर्मा जी फन्ना के सो रहे थे, मैंने भी जूते खोले, और लेट गया! लेटा तो नींद आई!
और तभी मेरे जूते से कुछ टकराया, मैंने झुक के देखा, तो ये एक नेवला था, छोटा सा! बारिश ने बिलों में पानी भर दिया था, ये बेचारे, और चूहे आदि बेघर हो गए थे! इसीलिए यहां चले आते थे, और चला आया मैं भी, असम से वापिस मिर्जापुर! बारिश ने अभी भी पूरा जोर लगा रखा था! पूरा ईंधन झोंक रखा था! बादल रह रह कर, बिजली कड़काते और उस अँधेरे को, कुछ ही
क्षणों के लिए, चीर कर, चमका देते थे प्रत्येक सजीव और निजीव पदार्थ को! मैं उठा तब, कि घंटा भर, मैं असम में घूमा था, यादें ऐसे ताज़ा थीं कि आज ही वापिस आया है वहाँ से! तभी गुंजन जाती दिखाई दी मुझे, शायद कमरे से ही आ रही थी, मैं उठा, और चल पड़ा काम्या से मिलने! वहाँ पहुंचा,
दरवाज़ा खटखटाया! मैंने आवाज़ दी उसे, तो बुला लिया अंदर उसने, बिठाया, और बैठ गयी खुद भी! एकटक देखा उसको! एकटक! उसके तिल को! उसके मुख को! "क्या हुआ?" पूछा उसने, "एकदम से याद आई तुम्हारी!" कहा मैंने, "अच्छा?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "अच्छा किया न फिर!" बोली वो, "इधर आओ!" कहा मैंने, और खड़ा हुआ, वो भी खड़ी हुई आई मेरे पास, माथे से बाल ठीक किये उसके कानों से भी, और आँखों में झाँका उसकी! अपने दोनों हाथों से चेहरा पकड़ा उसका,
और उसके होंठों पर चंबन दाग दिया! "ओ काम्या!" कहते हए, लगा लिया गले उसको! "मुझे क्षमा कर दो!" कहा मैंने, "किसलिए?" पूछा उसने, "मैंने इन डेढ़ सालों में, तुमसे एक बार भी बात नहीं की, उसके लिए! मैंने अपना हित तो साध लिया, तुम्हें नहीं पूछा, उसके लिए!" कहा मैंने, "कोई बात नहीं, मेरी याद तो आती थी?" बोली वो, "हाँ, कई कई बार!" कहा मैंने, "तो बस ठीक है!" बोली वो, मैंने तो कस लिया उसको! भींच लिया! ऐसी सरल! भोली! हटाया, फिर देखा, और माथे को चूमा उसके! उसके तिल को! कानों के नीचे! "शैशव बाबा आ गए हैं!" बोली वो, "कब?" पूछा मैंने, "वो अम्मा हैं न उधर, उन्होंने बताया!" बोली वो, "अच्छा! मैं तो वहीं बैठा था, वहाँ से तो आये नहीं?" कहा मैंने, "पता नहीं!" बोली वो, घड़ी देखी! शाम ही हो चली थी! "आओ काम्या, मिलकर आते हैं!" कहा मैंने,
"चलिए" बोली वो,
और उसने कपड़े ठीक किये अपने, और चल पड़ी मेरे साथ! वहां पहुंचे, तो उनके कक्ष के पास ही, कुछ लोग खड़े थे, अब यक़ीन हुआ कि, बाबा आ गए थे! "आ गए हैं!" कहा मैंने, "मैं भी तो यही कह रही थी!" बोली वो, "आओ!" कहा मैंने,
और हम चले, लोगों को हटाया वहाँ से, और अंदर जैसे ही चले, एक साध्वी दिखी! उसको मैंने देखा, तो उसमें कुछ बात विशेष लगी, लम्बा कद, पुष्ट शरीर, माथे पर टीका, कलाइयों में रुद्राक्ष! गले में रुद्राक्ष! आयु कोई पैंतालीस वर्ष होगी! चेहरे पर तेज था, चौड़ा चेहरा था उसका, बाल, काले थे अभी तक! "किस से मिलना है?" पूछा उसने, "बाबा शैशव नाथ जी से" कहा मैंने, "और आप कौन हैं?" पूछा उसने, "कहो दिल्ली वाले आये हैं" कहा मैंने, "दिल्ली वाले बहुत आते हैं, नाम बताइये?" बोली वो, उसका ये व्यवहार मुझे, बड़ा ही रुक्ष सा प्रतीत हुआ! अब नाम बताया मैंने उसे अपना, वो अंदर गयी, और आई बाहर, "जाओ" बोली वो, हम अंदर गए, वो हमें घूरती ही रही, कटु-भाव से, कटु-दृष्टि से, देख रही थी! बाबा बैठे हए थे, मुझे पहचान गए! मैंने और काम्या ने चरण छुए उनके, और उन्होंने बिठाया मझे फिर, काम्या को भी! एक लड़की, पानी ले आई,पानी पिया हमने!
और फिर हाल-चाल पूछे, श्री श्री श्री जी के विषय में पूछा, और अन्य कई बातें! "बाबा, हरिहर ने बताया कि आपने याद किया है मुझे, हाज़िर हैं सेवा में,आदेश!" कहा मैंने, "हाँ बुलाया था, आपने यक्ष-गान्धर्वो से साक्षात्कार किया है, और इसीलिए आपकी आवश्यकता थी!" बोले वो, अच्छा! कोई गान्धों से संबंधित जानकारी लेना चाहते थे बाबा! "हाँ बाबा, किया है, आदेश!" कहा मैंने, "सुनंदा?" बोले बाबा, बुलाया किसी सुनंदा को!
और वो साध्वी आई अंदर! अच्छा! तो ये है सुनंदा! तभी ऐसी अकड़! ये तेवर! बाबा की मुख्य साधिका बन गयी थी वो!
"ये है सुनंदा! इसने कुछ ऐसा देखा है, कि हम सभी दुविधा में हैं!" बोले वो, "कैसी दुविधा?" पूछा मैंने, "इस सुनंदाने, नदी किनारे, रात्रिकाल दो बजे करीब, नदी में स्नान करती एक कन्या को देखा है, जल में क्रीड़ा दो ही करते हैं, एक यक्ष, और एक गान्धर्व!" बोले वो, "ये सत्य है!" कहा मैंने, "अब ये नहीं समझ पा रहे हम कि वो यक्ष है या गान्धर्व?" बोले वो, "क्या आपने देखी वो कन्या?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोले वो, ऐसी कन्या? अकेले? अकेले क्रीड़ा? कैसे सम्भव है? "क्या चेवाट नहीं मिले?" पूछा मैंने, "नहीं! कहीं नहीं!" बोले वो, कहीं चेवाट नहीं? ये तो असम्भव है! "आपने कब देखा उस कन्या को?" पूछा मैंने सुनंदा से, "गत वर्ष से निरंतर देख रही हूँ!" बोली वो, गत वर्ष से, अच्छा ! "कभी वार्तालाप नहीं हुआ?" पूछा मैंने, "एक क्षण लगता है, इहलीला समाप्त होने में!" बोली वो, समझ गया था उसका आशय मैं! अब मुझे दुविधा में डाल दिया था उन्होंने तो! "कब आती है स्नान करने?" पूछा मैंने, "पूर्णिमा को!" बोली वो, प्रत्येक पूर्णिमा को! "आभूषण किस प्रकार के हैं उसके?" पूछा मैंने, "जैसे होते हैं!" बोली वो, "देखो सुनंदा, जिस तरह मैं पूछ रहा हूँ, उसी प्रकार उत्तर दीजिये!" कहा मैंने, "जैसे आभूषण होते हैं, वैसे ही हैं!" बोली वो, निपट बुद्धि! बुद्धि-हीन सी लगी मुझे वो! खैर, कोई बात नहीं। और पूछता हूँ मैं! पहली बार कब देखा?" पूछा मैंने, "पिछले वर्ष" बोली वो, "कैसे पता चला उसके बारे में?" पूछा मैंने,
"मुझे बताया था किसी ने" बोली वो, "किसने?" पूछा मैंने, "थे एक बाबा" बोली वो, "अब नहीं हैं?" पूछा मैंने, "नहीं है" बोली वो, "और क्या बताया था?" पूछा मैंने, "और कुछ नहीं बोली वो, "कुछ तो बताया होगा कि उनको कैसे पता चला इस बारे में?" पूछा मैंने, "नहीं बताया" बोली वो, "या आपने पूछा नहीं" कहा मैंने, "ऐसा ही समझ लो बोली वो, अजीब सा रवैय्या था उसका, न उत्तर सही दे, न बात ही सही करे! एहसान सा जताए, वो तो बाबा की शर्म थी, नहीं तो ऐसा जवाब देता, कि ये डेरा छोड़, कहीं पहाड़ में जा छिपती! "मुझे जानती हो?" कहा मैंने, "बाबा तो जानते हैं?" बोली वो, फिर से बेअक्ली! एक अव्वल नमूना! इस बेअक़्ली का शगूफ़ा! "जब पहली बार देखा था तुमने उसे, वो वाक़या सुनाओ" कहा मैंने, "मुझे बाबा ने बताया था, पहले मैं उनके डेरे पर ही थी, संचालक रही, फिर बाबा के पास आ गयी, अब यहीं हूँ, और मैं उसी कन्या की जांच में जुटी हूँ!" बोली वो, "वो तो ठीक है, वो वाक़या सुनाओ!" कहा मैंने, "जैसा मुझे पता चला था, मैं एक जानकार, वसु के साथ ये तथ्य जांचने पहुंचे, हम कोई बारह बजे पहुंच गए थे वहाँ, कोई एक बजे करीब, वहां प्रकाश के पिंड दिखे, घूमते हुए, हम चौंक
गए, वो एक घंटे क ऐसे ही नाचते रहे, कोई दो बजे करीब, प्रकाश फैला, और वहाँ दूधिया प्रकाश फैल गया था, तभी हमने देखा, शून्य में से, एक कन्या उतरी नीचे, जल के बीच, कमर तक डूबी और खेलती रही उसमे!" बोली वो, कुछ ज़्यादा तेज ही एक्सप्रेस चला दी थी उसने, जहां पैसेंजर की ज़रूरत थी, वहाँ दुरंतो चला दी! कोई तथ्य ऐसा नहीं आया सामने जिसको पकड़ा जा सके। अब मैं मुड़ा बाबा के तरफ! "बाबा, आप बताओ, क्या दिखा?" पूछा मैंने, "मैंने बताया तो?" बोली सुनंदा!
"जी, धन्यवाद, अब ज़रा बाबा की सुन लूँ? आज्ञा दें तो?" कहा मैंने, मैं तो खीझ उठा था उस पर, अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था! "हाँ बाबा?" कहा मैंने, "होता तो ऐसा ही है, लेकिन एक बात और, वो नदी के अंदर तक चली जाती है, कमर तक ही डूबी रहती है!" बोले वो, "कोई संग नहीं होता?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "कोई चेवाट नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "ऐसा कैसे हो सकता है?" पूछा मैंने, "यही तो समझ नहीं आ रहा?" बोले वो, "जांच की थी?" पूछा मैंने, "हाँ, की थी" बोले वो, "तब तो मामला गंभीर है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोले बाबा! "लेकिन एक बात और, वो यक्ष है या गान्धर्व, इसका पता देखने से ही पता चलेगा" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "लेकिन मुझे आभूषणों के विषय में बताइये" कहा मैंने, "पूछिए?"बोले वो, "क्या कंधों पर आभूषण होते हैं?" पूछा मैंने, "होते हैं" बोले वो, "जंघाओं पर?" पूछा मैंने, "ये नहीं पता" बोले वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "वौ उतरती है सीधे पानी में!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, बड़ी अजीब सी बात थी ये! ये भी नहीं पता कि यक्ष या गान्धर्व! "अच्छा बाबा, पता चल जाए, तो क्या करेंगे आप?" पूछा मैंने, "हां!! ये की न आपने बात!" बोले वो,
अब आई बू!
किसी प्रपंच की बू!
"यदि ये पता चल जाए, कि वो क्या है, फिर तो हम!!" बोले वो, "फिर हम, क्या?" पूछा मैंने, "देख लेना!" बोले वो, "कोई प्रपंच तो नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं नहीं!" बोले वो, "तो क्या करेंगे?" पूछा मैंने, "क्या नहीं कर सकते?" बोले वो, "वो यक्ष भी हो, या गान्धर्व ही, इतना सरल नहीं!" बोले वो, "ये शैशव क्या है, तब जान जाओगे!" बोले वो,
दम्भ ! दम्भ छलका पात्र से! मुझे अंदर ही अंदर हंसी आ गयी! मैं काम्या को देख, मुस्कुराया! वो भी! सुनंदा, हम दोनों को देखे, उल्लू की तरह! अब मैं खड़ा हुआ! काम्या भी! "ठीक है बाबा! मैं चलूँगा! जितना सम्भव हुआ, बता दूंगा!" कहा मैंने, खड़े हुए, और मेरे सर पर हाथ रखा उन्होंने! मुस्कुराये और आशीर्वाद दिया! हमने प्रणाम किया उन्हें! उस सुनंदा को नहीं! और चले आये वापिस! "तो ये है माजरा!" बोली काम्या! "हाँ!" कहा मैंने, "ये लोग क्या दिमाग से पैदल हैं?" बोली वो, "पैदल तो फिर भी चल रहे हैं,अब लंगड़े होने वाले हैं!" कहा मैंने, "ऐसी कन्या से बैर?" बोली वो, "हाँ, पता नहीं क्या सोच के बैठे हैं!" कहा मैंने, "आपने क्यों कहा जाने के लिए?" पूछा उसने, "जिज्ञासा है!" कहा मैंने, "मात्र जिज्ञासा?" बोली वो, "हाँ, मात्र जिज्ञासा!" कहा मैंने,
और आ गए हम उधर ही,मुझे ऊपर सीढ़ियों पर जाना था, उसे सीधा! "आ जाओ मेरे ही साथ!" बोली मुस्कुरा कर,
"अब चलता हूँ!" कहा मैंने, "आओ न?" बोली वो, "चलो" बोला मैं,और चल पड़ा साथ उसके, गए कमरे में, गुंजन उठ के चली बाहर,
और मैं बैठ गया! "पानी पिलाओ!" कहा मैंने, पानी दिया उसने, और मैंने पानी पिया, दो गिलास, मुझे पानी बहुत पसंद है! पानी पीना चाहिए। "कब जाओगे?" पूछा उसने, "पूर्णिमा को" कहा मैंने, "तो इसका मतलब, पांचवें दिन!" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "मैं भी चलूंगी! मना नहीं करना!" बोली वो, "चलना, नहीं तो कहीं मैं उस सुनंदा को फेंक ही न दूं नदी में!" कहा मैंने हंस कर! वो भी हंस पड़ी! खिलखिलाकर! "पता नहीं क्या सोच के रखा है इस औरत को साध्वी?" बलि वो, "ये!" मैंने हाथ के इशारे से, एक बड़ा सा वक्ष-स्थल बनाया! वो खिलखिलाकर हंसी! "और तो कोई योग्यता है नहीं उसमे!" कहा मैंने, "वैसे है तो तेज वो!" बोली वो, "अरे तेज हो अपने लिए!" कहा मैंने, "आपको तेज पसंद हैं न?" कहा उसने, "मैंने कब कहा?" बोला मैं, "मज़ाक कर रही थी!" बोली वो, पहली बार कब देखा?" पूछा मैंने, "पिछले वर्ष" बोली वो, "कैसे पता चला उसके बारे में?" पूछा मैंने, "मुझे बताया था किसी ने" बोली वो, "किस ने?" पूछा मैंने, "थे एक बाबा" बोली वो, "अब नहीं हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं है" बोली वो, "और क्या बताया था?" पूछा मैंने, "और कुछ नहीं" बोली वो, "कुछ तो बताया होगा कि उनको कैसे पता चला इस बारे में?" पूछा मैंने, "नहीं बताया" बोली वो, "या आपने पूछा नहीं" कहा मैंने, "ऐसा ही समझ लो बोली वो, अजीब सा रवैय्या था उसका, न उत्तर सही दे, न बात ही सही करे। एहसान सा जताए, वो तो बाबा की शर्म थी, नहीं तो ऐसा जवाब देता, कि ये डेरा छोड़, कहीं पहाड़ में जा छिपती! "मुझे जानती हो?" कहा मैंने, "बाबा तो जानते हैं?" बोली वो, फिर से बेअक़्ली! एक अव्वल नमूना! इस बेअक़्ली का शगूफ़ा! "जब पहली बार देखा था तुमने उसे, वो वाक़या सुनाओ" कहा मैंने, "मुझे बाबा ने बताया था, पहले मैं उनके डेरे पर ही थी, संचालक रही, फिर बाबा के पास आ गयी, अब यहीं हूँ, और मैं उसी कन्या की जांच में जुटी हूँ!" बोली वो, "वो तो ठीक है, वो वाकया सुनाओ!" कहा मैंने, "जैसा मुझे पता चला था, मैं एक जानकार, वसु के साथ ये तथ्य जांचने पहंचे, हम कोई बारह बजे पहुंच गए थे वहाँ, कोई एक बजे करीब, वहां प्रकाश के पिंड दिखे,घूमते हुए, हम चौंक गए, वो एक घंटे क ऐसे ही नाचते रहे, कोई दो बजे करीब, प्रकाश फैला, और वहाँ दधिया प्रकाश फैल गया था, तभी हमने देखा, शून्य में से, एक कन्या उतरी नीचे, जल के बीच, कमर तक डूबी और खेलती रही उसमे!" बोली वो, कुछ ज्यादा तेज ही एक्सप्रेस चला दी थी उसने, जहां पैसेंजर की ज़रूरत थी, वहाँ दुरंतो चला दी! कोई तथ्य ऐसा नहीं आया सामने जिसको पकड़ा जा सके! अब मैं मुड़ा बाबा के तरफ! "बाबा, आप बताओ, क्या दिखा?" पूछा मैंने, "मैंने बताया तो?" बोली सुनंदा! "जी, धन्यवाद, अब ज़रा बाबा की सुन लूँ? आज्ञा दें तो?" कहा मैंने, मैं तो खीझ उठा था उस पर, अब बर्दाश्त नहीं हो रहा था! "हाँ बाबा?" कहा मैंने, "होता तो ऐसा ही है, लेकिन एक बात और, वो नदी के अंदर तक चली जाती है, कमर तक ही डूबी
रहती है!" बोले वो, "कोई संग नहीं होता?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "कोई चेवाट नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं" बोले वो, "ऐसा कैसे हो सकता है?" पूछा मैंने, "यही तो समझ नहीं आ रहा?" बोले वो, "जांच की थी?" पूछा मैंने, "हाँ, की थी" बोले वो, "तब तो मामला गंभीर है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोले बाबा! "लेकिन एक बात और, वो यक्ष है या गान्धर्व, इसका पता देखने से ही पता चलेगा" कहा मैंने, "हाँ" बोले वो, "लेकिन मुझे आभूषणों के विषय में बताइये" कहा मैंने, "पूछिए?" बोले वो, "क्या कंधों पर आभूषण होते हैं?" पूछा मैंने, "होते हैं" बोले वो, "जंघाओं पर?" पूछा मैंने, "ये नहीं पता" बोले वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "वो उतरती है सीधे पानी में!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, बड़ी अजीब सी बात थी ये! ये भी नहीं पता कि यक्ष या गान्धर्व! "अच्छा बाबा, पता चल जाए, तो क्या करेंगे आप?" पूछा मैंने, "हां!! ये की न आपने बात!" बोले वो, अब आई बू! किसी प्रपंच की बू! "यदि ये पता चल जाए, कि वो क्या है, फिर तो हम!!" बोले वो, "फिर हम, क्या?" पूछा मैंने, "देख लेना!" बोले वो,
"कोई प्रपंच तो नहीं?" पूछा मैंने, "नहीं नहीं!" बोले वो, "तो क्या करेंगे?" पूछा मैंने, "क्या नहीं कर सकते?" बोले वो, "वो यक्ष भी हो, या गान्धर्व ही, इतना सरल नहीं!" बोले वो, "ये शैशव क्या है, तब जान जाओगे!" बोले वो, दम्भ। दम्भ छलका पात्र से! मुझे अंदर ही अंदर हंसी आ गयी! मैं काम्या को देख, मुस्कुराया! वो भी! सुनंदा, हम दोनों को देखे, उल्लू की तरह! अब मैं खड़ा हुआ! काम्या भी! "ठीक है बाबा! मैं चलूँगा! जितना सम्भव हुआ, बता दूंगा!" कहा मैंने, खड़े हुए, और मेरे सर पर हाथ रखा उन्होंने! मुस्कुराये और आशीर्वाद दिया। हमने प्रणाम किया उन्हें। उस सुनंदा को नहीं! और चले आये वापिस! "तो ये है माजरा!" बोली काम्या! "हाँ!" कहा मैंने, "ये लोग क्या दिमाग से पैदल हैं?" बोली वो, "पैदल तो फिर भी चल रहे हैं. अब लंगड़े होने वाले हैं!" कहा मैंने, "ऐसी कन्या से बैर?" बोली वो, "हाँ, पता नहीं क्या सोच के बैठे हैं!" कहा मैंने, "आपने क्यों कहा जाने के लिए?" पूछा उसने, "जिज्ञासा है!" कहा मैंने, "मात्र जिज्ञासा?" बोली वो, "हाँ, मात्र जिज्ञासा!" कहा मैंने,
और आ गए हम उधर ही, मुझे ऊपर सीढ़ियों पर जाना था, उसे सीधा! "आ जाओ मेरे ही साथ!" बोली मुस्कुरा कर, "अब चलता हूँ!" कहा मैंने, "आओ न?" बोली वो, "चलो" बोला मैं, और चल पड़ा साथ उसके, गए कमरे में,गुंजन उठ के चली बाहर,
और मैं बैठ गया। "पानी पिलाओ!" कहा मैंने, पानी दिया उसने, और मैंने पानी पिया, दो गिलास, मुझे पानी बहत पसंद है! पानी पीना चाहिए! "कब जाओगे?" पूछा उसने, "पूर्णिमा को" कहा मैंने, "तो इसका मतलब, पांचवें दिन!" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "मैं भी चलूंगी! मना नहीं करना!" बोली वो, "चलना, नहीं तो कहीं मैं उस सुनंदा को फेंक ही न दूं नदी में!" कहा मैंने हंस कर!
वो भी हंस पड़ी! खिलखिलाकर! "पता नहीं क्या सोच के रखा है इस औरत को साध्वी?" बलि वो, "ये!" मैंने हाथ के इशारे से, एक बड़ा सा वक्ष-स्थल बनाया!
वो खिलखिलाकर हंसी! "और तो कोई योग्यता है नहीं उसमे!" कहा मैंने, "वैसे है तो तेज वो!" बोली वो, "अरे तेज हो अपने लिए!" कहा मैंने, "आपको तेज पसंद हैं न?" कहा उसने, "मैंने कब
कहा?" बोला मैं, "मज़ाक कर रही थी!" बोली वो, "वैसे ठीक हुआ!" बोली वो, "क्या?" पूछा मैंने, "पूर्णिमा में पांच दिन हैं, नहीं तो भाग जाते!" बोली वो, "तुम्हें अब गोहाटी नहीं जाना?" पूछा मैंने, "नहीं! बाद मैं चली जाउंगी!" बोली वो, मैंने पूछा था कि बाबा शैशव से उसके पिता की बात हो ही जायेगी, और फिर, वो भी वापसी की राह पकड़ेगी! लेकिन वो भी रुक गयी थी! "चलो ठीक है!" कहा मैंने, "और क्या" बोली वो, "चलो आराम करो अब मैं भी चलता हूँ!" कहा मैंने, "चले जाना? रुको अभी" बोली वो,
और बादल गरजे! एकांकीपन में सेंध लगाई उनकी चीख ने! कानों पर, फिर से हाथ रखे उसने! गड़गड़ाहट बहुत तेज थी उसकी! कमरा ही हिल पड़ा था पूरा
का पूरा! "एक बात बताइये आप" बोली वो, "पूछो?" कहा मैंने, "वो कोई भी है, परन्तु वो दीख क्यों रही है सभी को?" पूछा उसने, "सभी को कहाँ केवल उन्ही को जिसने अपने नेत्र पोषित किये हैं!" बोला मैं, "अरे हाँ!" बोली वो, "और वो अब से नहीं, बहुत लम्बे समय से है वहां!" कहा मैंने, "हाँ, सम्भव है!" बोली वो, "कोई न कोई कारण तो है!" कहा मैंने, "कैसे कारण?" पूछा उसने, "कोई कहानी है उसकी, इस धरा से जुड़े रहने की!" कहा मैंने, "अब पता कैसे चलेगी?" पूछा उसने, "वही बताएगी!" कहा मैंने, "ऐसा सम्भव है?" पूछा उसने, "असम्भव क्या है काम्या?" कहा मैंने, "ये बात तो सही है!" बोली वो, "चलो, अब चलूंगा!" कहा मैंने, "आपकी इच्छा!" बोली वो, "आता हूँ बाद में!" कहा मैंने, "कब?" पूछा उसने, "कोई एक-दो घंटे बाद" कहा मैंने, "ठीक है!" बोली अब लेटते हए!
और मैं निकल आया वहाँ से, पहंचा सीधा अपने कक्ष में, शर्मा जी चाय पी रहे थे, मैं जा बैठा, और अब तक की सारी कहानी सुना दी उन्हें! वे भी चौंक पड़े! ऐसी कन्या? "कौन है वो?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं।" कहा मैंने, "कैसे पता चलेगा?" पूछा उन्होंने, "उसको देखकर!" कहा मैंने, "इसी पूर्णिमा को?" पूछा उन्होंने, "हाँ!" बोला में, "ये भी रहस्य खुलेगा!" बोले वो, "हाँ, मुझे भी उत्सुकता है!" कहा मैंने,
और उसके बाद में लेट गया। आराम करने के लिए, लेकिन दिमाग में अभी यादें ताज़ा थीं, इसीलिए, मैं जा पहंचा वहीं से सीधा असम! उसी दिन! उसी समय!
वही, कमरा, काम्या का, वहीं बैठा था मैं उस शाम! कुछ खुटक-पुटक सी चल रही थी हमारी! बारिश पड़ ही रही थी, वो कोहनी टिकाये लेती हुई थी, मैं, कुर्सी पर बैठा था! मैंने कल्प-शिखा के बारे में बताया था उसको, उसुने भी ध्यान से सुना था, कल्प-शिखा भी आने ही वाली थी, उसी शहर, मुझे इंतज़ार था उसका, कम से कम, उत्सुकता से! "सुनी काम्या?" कहा मैंने, "बोलिए?" बोली वो, "सही ढंग से लेटो!" कहा मैंने, "सही ही तो लेटी हूँ?" बोली वो, "न तो लेटी ही हो, न बैठी ही हो!" कहा मैंने, तब वो, तकिया लगा लेट गयी! "अब दिख नहीं रहे आप!" बोली वो, "लो फिर!" कहा मैंने,
और उठकर, उसके पास, बिस्तर पर बैठ गया! "अब ठीक?" कहा मैंने, "हाँ!" बोली मुस्कुरा कर, तभी मेरा फ़ोन बजा, फ़ोन उठाया, तो ये कल्प-शिखा का था, उसको मैंने महीने भर पहले
बताया था कि मैं असम में फलां जगह जा रहा है, उसको भी आना था, अपने संस्थान की तरफ से, शायद आ गयी थी वो! "हाँ? कल्प-शिखा?" बोला मैं,
आवाज़ कटी कटी सी आ रही थी, मौसम की वजह से, "हाँ, बोल रही हूँ! कैसे हैं आप?" पूछा उसने, "मैं बढ़िया! पहुँच गयीं?" पूछा मैंने, "हाँ, आज सुबह ही!" बोली वो, "अच्छा! मैं भी यहीं हूँ! अभी निकल नहीं पाया हूँ!" कहा मैंने, "कहाँ पर हो?" पूछा उसने,
और मैंने जगह बता दी उसको! "कब आ रही हैं?" पूछा उसने, "कल आ जायेगी वो!" बोला मैं, "खुश हो?" बोली वो, "क्यों नहीं!" कहा मैंने, "सुंदर हैं?" पूछा मुझसे, "तुम देख लेना!" कहा मैंने, "चलो, वक़्त कट जाएगा अब आपका!" बोली वो, "ऐसा नहीं है काम्या!" कहा मैंने, "मैं क्या जानूँ?" बोली वो, "चलो छोडो, कल की कल देखते हैं!" कहा मैंने, "जैसी आपकी मर्जी!" बोली वो, "ठीक है!" कहा मैंने, "मुझे मिलवाओगे?" पूछा मुझसे, "अरे! क्यों नहीं!" कहा मैंने, "धन्यवाद!" बोली हाथ जोड़कर। बहुत बातें हुई उस शाम! और मैं वापिस हुआ! हुई शाम! खुले जाम! रात हुई,आराम से खाया खाना हमने! और फन्ना के सो गए! सुबह हुई, फिर दोपहर!
आया फ़ोन कल्प-शिखा का! आ चुकी थी वो, साथ में कोई महिला भी थी! मैं लेने गया था उसको बाहर तक! ले आया! और फिर, एक कक्ष खुलवाया, पानी मंगवया! पिलाया!
कल्प-शिखा सब याद आ गया! उस समय, कल्प-शिखा, पीले रंग की साड़ी में थी! उस से बातें हुईं। खूब सारी बातें! कोई एक घंटे के बाद, मैं उसको लेकर चला काम्या के पास! पहुंचा, काम्या से मिलवाया! काम्या दंग! सच में, बहुत सुंदर है कल्प-शिखा! काम्या ने कोई कसर नहीं छोड़ी! ऐसे घुलमिल गयी कि जैसे, पता नहीं कब से जानती है वो कल्प-शिखा को! मुझे उसका ये व्यवहार, बहुत अच्छा लगा! बहुत अच्छा! बस जी, वे बातें करती रहीं और मैं बैठा रहा। ताकता हुआ, जो बोलता, उसी को! खूब बातें हुईं उनकी! संग-संग खाना भी खाया! और नंबर भी अदले-बदले गए! और इस तरह कोई शाम को कल्प-शिखा ने वापिस जाने को कहा! शर्म अजी से भी मिली! काम्या ने खूब रोकना चाहा उसे, लेकिन उसकी विवशता थी! नहीं रुकी, और फिर हम, मैं और काम्या, छोड़ने गए उसे! चली गयी थी, अब दो महीने के बाद, मिलना था उस से, मुझे, इलाहबाद में! वो ठीक थी, अपना कार्यभार बखूबी निभा रही थी! और क्या चाहिए था! आये वापिस कमरे में काम्या के, और मैं बैठा फिर, वो भी बैठ गयी! "पानी दो यार!" कहा मैंने, पानी डाला, मुझे दिया, खुद ने भी पिया, और बैठ गयी। "कैसी लगी कल्प-शिखा?" पूछा मैंने, "बहुत सुंदर! भली! शांत और सुसंस्कृत हैं!" बोली वो! "मैंने तो पहले ही कहा था!" बोला मैं, "हम्म!" बोली वो, "लेकिन तुम दोनों तो ऐसे रच-बस गयीं जैसे कोई वृक्ष और अमर बेल!" कहा मैंने, हंस पड़ी खिलखिलाकर! "धन्यवाद काम्या!" कहा मैंने, "किसलिए?" पूछा उसने। "उस से तुम मिलनसारिता से मिलीं, इसलिए!" कहा मैंने, "अच्छे इंसान से ऐसे ही मिला जाता है!" बोली वो, "चलता हूँ, आता हूँ सुबह अब!" कहा मैंने,
"अभी तो सात ही बजे हैं?" बोली वो, "समझा करो!" कहा मैंने, "समझती हूँ सब!" बोली वो,
और मैं उठा, चला वापिस! आया कमरे में, और जा लेटा! कोई आठ बजे, हुइक मिटाई! और कोई ग्यारह बजे, निफराम हो, सो गए थे हम! मित्रगण! दो दिन और बीत गए इसी तरह! बारिश थी, कोई क्रिया हो नहीं सकती थी, बस इतना कि काम्या को साधिका का दर्जा दिया जाए, उसको, साधिका-अभरमाल दे दिया जाए! इस विषय में बात करने के लिए, मैं गया उसके पास! अभरमाल ले कर! वो उस समय, अपने कपड़े सुंधा रही थी! "आइये!" बोली वो! मैं जा बैठा वहीं! "सुनो?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली बो, "ये सब बाद में करना, पहले बैठो!" कहा मैंने, उसने रख दिया कपड़े अलग, और बैठ गयी, "बोलिए?" बोली वो, "तुम पर कोई अनावश्यक दबाव नहीं है, सब तुम्हारी राजी है! तुम्हें स्वीकार ही करना पड़े, ये भी आवश्यक नहीं है! तुम स्वतंत्र हो!" कहा मैंने, "मैं नहीं समझी?" बोली वो, . "बता रहा हूँ! काम्या, क्या तुम इस (अपना नाम बोला और परिचय दिया यहां) की साधिका बनना स्वीकार करोगी? ये मेरा अनुनय है!" कहा मैंने, "अवश्य!" बोली वो, मुस्कुराते हुए। "उस समय में, मैं तुमसे स्वयं स्वामी की तरह से व्यवहार करूंगा। स्वीकार है?" बोला मैं, "अवश्य!" बोली वो, "मेरे साधन-पालन में, मृत्युतुल्य कष्ट होगा, स्वीकार है?" पूछा मैंने, "अवश्य!" बोली वो, "मेरी साधिका होने पर, अन्य कोई स्पर्श न करेगा तुम्हें!" कहा मैंने, "अवश्य! कदापि नहीं!" बोली वो, "तुम जब भी, मुक्त होना चाहो, मुक्त हो जाओगे, परन्तु, मुक्ति मैं ही प्रदान करूंगा तुम्हें!" कहा मैंने, "अवश्य!" बोली वो,
"अब खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने, वो खड़ी हुई, और मैंने अब मंत्र पढ़! हाथ उसके माथे पर रखा! फिर सर पर, फिर कंधों पर, और पहना दिया वो अभरमाल! एक माल और दिया, वो क्रिया समय, कमर में बाँधने के लिए!" "आज से ठीक चौदह दिनों तक, इस देह का स्वामी मैं ही हूँ!" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी वो! और, वो अभरमाल ठीक कर लिया उसने, उसके पिता देखते, तो कहते कुछ नहीं, अब वो साधिका थी, और अन्य कोई अब उसको मांग नहीं सकता था। अब वो, मेरे सरंक्षण में थी! मित्रगण। इसी प्रकार वे चौदह दिन भी बीत गए! मैं नित्य उसको कुछ बताता था, उस पर अभिमंत्रण करता था! और इस प्रकार वो चौदह दिन बीत चले थे! पन्द्रहवां दिन, उस दिन दोपहर में, मैं उसके संग बैठा था, अपने कमरे में, उस रोज बारिश नहीं थी, मौसम खुला था, और धूप खिली हुई थी, कोई डेढ़ बजे का समय रहा होगा, शर्मा जी बाहर गए हुए थे! मैं सर टिका, लेटा हुआ था और काम्या, मेरे ही साथ बैठी थी! "काम्या!" कहा मैंने, "जी?" बोली वो, "हम कल या परसों निकल जाएंगे!" कहा मैंने,
चुप! "सुन रही हो?" कहा मैंने, "हाँ" बोली वो, "हम निकल जाएंगे!" कहा मैंने, "जानती हूँ" बोली वो, "चिंता नहीं करना! मैं आता रहूंगा! यहां जब भी आया, तभी!" कहा मैंने, "हम्म" बोली वो, "और काम्या!" बोला मैं, "क्या?" पूछा उसने, मैंने हाथ पकड़ा उसका, रखा सीने पर अपने! "तुम्हारी बहुत याद आएगी!" कहा मैंने, "सच?" बोली वो, "झूठ बोलने से कोई लाभ?" कहा मैंने, "उत्तर दीजिये" बोली वो,
"हाँ, सच!" कहा मैंने, मित्रगण! उसी रात, मुझे काम्या से काम-सुख प्राप्त हुआ!
और उसी रात, कमरे में फड़-फड़ मचती रही! एक कबूतर घुस आया था अंदर! बहुत कोशिश की उसको निकालने की, लेकिन वो निकला ही नहीं! कुछ इर कहिये, कुछ बाहर का अँधेरा! इसी कबूतर को याद दिलाया था मैंने काम्या को! मुझे सब याद है!
और, हआ यूँ था, कि काम्या, पलंग से,नीचे गिरने ही वाली थी कि मैंने पकड़ा था उसको। पीठ के बल गिर जाती! लेकिन इसी चक्कर में, उसकी कमर के बीच में, एक नील पड़ गया था! यही नील मैंने याद दिलाया था उसने! उसके दो दिन के बाद, काम्या से विदा ली हमने, मुझे रोक था उसने, याद है मुझे, लेकिन विवशता थी, मुझे जाना ही था काम ही कुछ ऐसे थे!
और हम रवाना हुए। स्टेशन पर भी, काम्या के फ़ोन पर फ़ोन आते रहे! देर रात तक, मेरी बातें होती रहीं उस से!
और इस तरह, डेढ़ साल बीत गया! ऐसा नहीं, कि मुझे याद नहीं आई उसकी, या मैं भूल गया था, मैं ऐसा व्यस्त हुआ, कि कभी याद ही न रहा कि उसको एक फ़ोन ही कर लें। शर्मा जी आये अंदर, बाहर चले गए थे किसी काम से, और मैं असम की कहने खत्म कर, वापिस मिर्जापुर आ पहुंचा!
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और अब मिली थी मुझे काम्या! वही काम्या! काम्या का चेहरा घूम गया आँखों में! मन किया, अभी जाकर मिल लूँ! लेकिन नहीं! अभी नहीं! बाद में! रात का समय होने को था, हमने किया जुगाड़, और हुए शुरू! आज माल बढ़िया मिला था साथ में! लज़ीज़ और ज़ायकेदार, हम खेंचम-खांच करते रहे! "वैसे बाबा शैशव भी नहीं जान सके?" पूछा उन्होंने, "पता नहीं!" कहा मैंने, "जान तो जाना चाहिए था, कि नहीं?" बोले वो, "हाँ, जान तो जाना चाहिए था!" बोला मैं, उनका फ़ोन बजा, घर से था, कहा कि अभी नहीं पता कितना समय लगे वापसी में!
फिर बंद कर दिया फ़ोन,और रख दिया एक तरफ, "कहानी अब भी कुछ साफ़ नही!" बोले वो, "ये तो है!" कहा मैंने, "चलो देखते हैं!" बोले वो, "अब चल ही जाएगा पता, आई अब पूर्णिमा!" कहा मैंने,
और रात को, तसल्लीबख़्श, आराम से सोये! खूब खर्राटे बजाए! सुबह हुई, और उठे, निवृत हुए, तभी फ़ोन बजा मेरा, मैंने उठाया, तो ये काम्या का था, मैंने पूछा तो बोली कि मैं आऊँ ज़रा उसके पास, कोई काम है। मैं तभी चल पड़ा, पहुंचा वहां, गया कमरे में, तो अपना पाँव पकड़, बैठी थी बिस्तर पर! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "मोच आ गयी!" बोली वो, "कैसे?" पूछा मैंने, "गुसलखाने से निकल रही थी, पाँव फिसल गया!" बोली पाँव दबाते हए, "और तो कहीं चोट नहीं लगी?" पूछा माने, "लगी है" बोली धीरे से, "कहाँ?" पूछा मैंने, "घुटने पर" बोली वो, "दिखाओ?" कहा मैंने,
