वर्ष २०१३ विंध्याचल...
 
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वर्ष २०१३ विंध्याचल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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चौमासे का मौसम था वो! घटाटोप बारिश पड़ रही थी! आकाश था कि, खुल के ही नहीं दे रही 

था। पिछली रात से तो ऐसी मूसलाधार बारिश पड़ रही थी कि अंदर तक के कपड़े नमी सोख चले थे। पानी भर गया था उधर, हमारा कक्ष थोड़ा ऊंचाई पर था और ढलान सी थी, इसीलिए पानी नहीं जम रहा था उधर, नहीं तो उस डेरे में, ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां पानी न पैठ न बनाई हो! हमारे कमरे के बार ही, एक बोरा बिछा था, उस बोरे पर, एक मादा श्वान लेटी हुई थी, काले और सफेद रंग की, उसका पेट देख मालूम पड़ता था कि वो गर्भवती है , और कोई पंद्रह-बीस दोनों में कुछ नन्हे श्वानों को जन्म देने वाली है! मौसम में ठंडक थी, और उसी ठंड से ज़मीन भी 

ठंडी हो चली थी, इसीलिए वो मादाश्वान उस बोरे पर आ लेटी थी। दस बज रहे थे, और ऐसा लगता था कि जैसे सवेरा अभी अभी ही हआ है, जिंदगी ठहर सी गयी थी उस कमरे में तो! कमरे में एक पलंग, एक मेज़, दो कुर्सियां, एक अलमारी, एक घड़ा, और कुछ किताबें-अखबार पड़े थे, दीवार पर, एक पुराना कैलेंडर लटका था, उसमे , एक झील बनी थी, उसके पास हिरण आदि पशु पानी पी रहे थे! "ये कालू नहीं आया अभी तक?" बोले शर्मा जी, "आ रहा होगा!" कहा मैंने, "आधा घंटा हो गया!" बोले वो, "आ जाएगा, कहीं बाहर न गया हो?" कहा मैंने, "बाहर क्या तैर के जाएगा!" बोले वो, "आपने मंगाया ही कुछ ऐसा है!" कहा मैंने, "रेजर ही तो मंगवाया था?" बोले वो, "तो रेजर की यहां क्या फैक्ट्री लगी है?" कहा मैंने, "तो दुकान तो पास में ही है?" बोले वो, "हो सकता है, कही और से लेने गया हो?" कहा मैंने, 

और तभी बादल गरजे! और बारिश तेज हुई! वो मादा श्वान, चौंक कर, कान खड़े कर, उठ गयी! बैठ गए वो, देखा खिड़की से बाहर, "आज न रुकै ये!" बोले वो, "आसार तो यही हैं!" कहा मैंने, 

और तभी कालू आया, छतरी बंद कर, अंगोछे से मुंह पोंछ, जूतियां उतार, छतरी रख, आया अंदर! दे दिया रेजर उन्हें। "अरे कहाँ रह गया था?" पूछा शर्मा जी ने, "दुकान ही न खुल रहीं!" बोला वो, "ये पास वाली?" बोले वो, "बंद है" बोला कालू, हाथ पोंछते हए, "तो कहाँ से लाया?" पूछा उन्होंने, "चौक से" बोला वो, "तभी देर लग गयी?" बोले वो, "हाँ और ये बारिश, सारा रास्ता पानी से भरा पड़ा है।" बोला वो, "भरा पड़ा होगा!" बोले वो, 

"चाय पियोगे?" पूछा कालू ने, "हाँ यार! क्यों नहीं!" बोले वो, "लाता हूँ बनवा कर" बोला वो, 

और छतरी उठा, जूतियां पहन, चला गया! "देख लो, कहाँ से लाया है!" कहा मैंने, "हाँ, चौक से लाया!" बोले वो, रेजर को, पैक से निकालते हुए, औए चले गए गुसलखाने, दाढ़ी बनाने! और मैं बैठा रहा वहीं कुर्सी पर, देखता रहा बारिश पड़ते हुए! बुलबुले बनते, तो उन पर बूंद गिरती, फूट जाते, फिर और बनते! यही तो है जीवन-चक्र! बुलबुले समान ही तो जीवन है हमारा! बुलबुला बनता है, और फूट जाता है! फिर बनता है, और फिर फूट जाता है! बारिश की बूंद,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी के ऊपर तल के पास की हवा को विक्षेपित कर देती है, हवा अंदर जाती है, और बुलबुला बन, बाहर आ जाती है! यही तो है सम्पूर्ण जीवन चक्र! बूंद, वो पिता, पानी, वो माँ, हवा वो आत्मा, और फिर बुलबुला! वो हम! इतना ही क्षणिक जीबन तो है हमारा! इसमें भी हाय-हाय! ये मेरा और वो मेरा! कोई कोई बुलबुला, पानी की बूंदों से बचता बचाता तैर जाता पानी पर! और फिर टकरा कर, या बूंद गिरते ही, स्वाहा! यही तो कहता हूँ, ज्ञान सर्वत्र बिखरा पड़ा है। ग्रहण करने वाला चाहिए बस! 

आ गए शर्मा जी, बना ली थी दाढ़ी, आये, और चेहरा पोंछ, बैठ गए कुर्सी पर! "कैसे झड़ी लगी है!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, "तो आज का कार्यक्रम रह?" बोले वो, "ऐसे रहा तो कैसे जाएंगे?" कहा मैंने, "मैं फ़ोन कर दूंगा!" बोले वो, "करना ही पड़ेगा" कहा मैंने, 

और तभी आया कालू, ले आया था चाय, साथ में ब्रेड-पकौड़े! "अरे वाह यार!" बोले शर्मा जी, अब खाने शुरू किये हमने, चाय पीनी भी! "बैठ जा कालू?" कहा मैंने, "काम है,जाता हूँ" बोला वो, 

और चला गया वापिस! "मजे बाँध दिए इसने तो!" बोले वो,खाते हए। "हाँ, ऐसे मौसम में चाय और ब्रेड-पकौड़े!" कहा मैंने, 

आराम से खाए, और चाय पी, डकार भी आ गयी! 

फिर से बादल गरजे! और बारिश हुई तेज, काला हआ मौसमअन्धकार छा गया! बत्ती तो खैर, 

रात से ही नहीं थी! मोमबत्ती से ही काम चला रहे थे हम, कैसे न कैसे! दोपहर बीत गयी, और तब जाकर थोड़ी राहत हुई! बारिश थमी! लेकिन ये तनिक विश्राम था, बादल बने हुए थे, और कभी कभी, गरज गरज कर, धमका देते ही थे! कोई तीन बजे, फिर से बारिश तेज हो गयी! हम लेटे हए थे तब, खाना खा ही लिया था, कम था नहीं कुछ, बस कमरे में ही कैद से होकर रह गए थे। हम मिर्जापुर के पास ही थे, मिर्जापुर जाना था, काम था कुछ बाबा शैशव नाथ जी से, कोई कार्य था उनका, कुछ पूछना था उन्होंने, आज निकलने का कार्यक्रम था, लेकिन बारिश ने ऐसा नाका लगाया, कि हम वहीं अटक के रह गए! शाम हई, बारिश नहीं रुकी! कीचड़-काचड़ हो गयी थी! बेचारे श्वान बहुत परेशान थे, उनके पास जगह नहीं बची थी कहीं बैठने के लिए, गैलरी में और थड़ियों पर ही बैठने को विवश थे! मुंह छिपा, थर थर कांपते, बैठे थे! हालत खराब थी उनकी! शर्मा जी ने फ़ोन कर ही दिया था वहां, 

शाम हुई! तो हुड़क उठी! तो हुड़क मिटाई अपनी! रात को भोजन किया और ओढ़ ली चादर! सो गए! अब बरसता है तो बरसे! अगली सुबह! बारिश बंद थी! नहाये-धोये। चाय नाश्ता किया, और उठाया सामान अपना! इस से पहले बारिश की झड़ी लगे, और बादल हमें पहचानें, हम निकलना चाहते थे वहां से! मिले बाबा से वहां, आज्ञा ली, और हए विदा! "वक़्त रहते पहँच जाएँ तो बढ़िया!" कहा मैंने, "हाँ, निकल लो बस!" बोले वो, हम आये सड़क पर, सवारी ली बस के लिए, और चल दिए, पहुंचे, बस मिल गयी, बस! अब बैठ गए तो पहुँच ही गए! आखिर जा पहुंचे। बारिश हो चली थी अब! बादलों ने पहचान लिया था हमें! "फिर हो गयी शुरू!" बोले वो, "हाँ, अब तो आ ही गए!" कहा मैंने, एक जगह, एक फल वाले की तिरपाल के नीचे ठहरे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सवारी ली, बात की, और बैठे, चल दिए फिर! और इस तरह हम जा पहुंचे बाबा शैशव नाथ जी के डेरे! अंदर गए तो अशोक जी मिले, 

सेवा-निवृत अध्यापक हैं, अब सेवा करते हैं डेरे में, करीब दस वर्षों से, बाबा शैशव नाथ के जानकार हैं! वे खुश हुए बहूत! ले गए बैठक में! और बिठाया! पानी मंगवाया, पानी पिया हमने फिर! "और कैसे हैं?" पूछा उन्होंने, "सब बढ़िया! धन्यवाद! आप सुनाएँ!" कहा मैंने, 

"सब बढ़िया!" बोले वो, "बाबा कहाँ हैं?" पुछा मैंने, "गए हुए हैं, कल आना था, आज आ जाएंगे!" बोले वो, "अच्छा, कोई बात नहीं!" कहा मैंने, "आओ, कक्ष के लिए" बोले वो, 

और हम चल पड़े संग उनके, उन्होंने चाबियां लीं, और चल पड़े, सीढ़ियां चढ़े, और एक कक्ष खोला, अंदर गए हम, सामान रखा एक मेज़ पर, और बैठे वहीं कुर्सियों पर! "चाय भिजवाता हूँ अभी" बोले वो, 

और चले वापिस! मैंने जूते खोले, चादर बिछाई बिस्तर पर, और लेट गया! "हो रही है बारिश!" बोले वो, "होने दो अब!" कहा मैंने, "हाँ, अब तो आ ही गए!" कहा उन्होंने, "और क्या!" कहा मैंने, तकिया दोहरी की,और बैठा तब मैं, "और कक्ष बनवा लिए हैं बाबा ने!" कहा मैंने, "हाँ, वो उधर!" बोले, बाहर दिखाते हए! बारिश शाम तक चली! वैसे भी चौमासे थे, तो बारिश का ऐसा होना कोई आश्चर्यजनक नहीं था! हां, दिक्कत-परेशानी तो अक्सर बारिश में होती है है! काम कोई नहीं रुकता, चलता रहता है! तो हुई शाम! बारिश बेलगाम लगी हुड़क, ख़ासी कड़क! तो करवाया इंतज़ाम, अशोक साहब ने, उन्होंने बताया कि बाबा आज भी नहीं आ पाएंगे, वो बारिश की वजह से वहीं ठहरे हुए हैं। को बात नहीं, एक दिन और सही, तो हड़क मिटाई,भोजन किया और निफराम सोये। रात में ठंड सी लगी, मौसम ठंडा हो चला था! सुबह हुई, स्नान-ध्यान किया, निवृत हुए! बारिश तो नहीं थी लेकिन बादल बने हुए थे, कोई सात बजे चाय-नाश्ता भी कर लिया, ब्रेड-आमलेट दे गया था सहायक, वही खाया और चाय पी! और फिर हम बाहर का जायजा लेने ज़रा चले बाहर! बाहर तो बारिश का कोहराम था! हर तरफ छाप छोटी थी उसने! पतनाले अभी भी पानी टपका रहे थे! पेड़ों से पानी टपक रहा था, पौधे, अलग ही मजा ले रहे थे, घास पर, यौवन चढ़ आया था! जंगली वनस्पति, श्रंगार में लगी थीं! और बेचारे परिंदे, कक्षों के रौशनदान में पनाह लिए हए थे। हम नीचे उतरे, और चले ज़रा अशोक जी की तरफ, अशोक जी नहीं मिले, एक नए उप संचालक, श्री मान माधव मिले, हम बैठे वहाँ, बात बात में, एक दूसरे से परिचय भी हो गया, श्री श्री श्री जी का ज़िक्र आया तो जान गए फिर! खुश हए, चाय-नाश्ते की पूछी, बता दिया कि अभी 

ही फ़ारिग हए हैं चाय नाश्ते से, और फिर भी, चाय मंगवा ही ली उन्होंने! तो अब चाय पी, और तभी किनकिया बारिश हुई शुरू! बारिश तो इस बार पीछा ही नहीं छोड़ रही थी! तभी गलियारे से, किन्ही दो महिलाओं की बातें करने की आवाज़ आई, वे आयीं और पार हुई, सहसा एक । ठहरी! मैंने देखा, उसने भी देखा, मैंने पहचाना! काम्या! ये तो काम्या है! मैं उठा, चला उसकी तरफ! उसने तभी नमस्कार किया! मैंने भी नमस्कार का उत्तर दिया! "कैसी हो काम्या?" पूछा मैंने, "कुशल से हूँ, आप सुनाएँ!" कहा उसने, "मैं भी ठीक हूँ!" बोली वो, "बाबा कैसे हैं?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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पूछा मैंने, "वो भी ठीक हैं!" बोली वो, "यहां कब आयीं?" पूछा मैंने "परसों!" बोली वो, "किसी काम से?" पूछा मैंने, "हाँ, बाबा को काम था, तो मुझे भी ले आये!" बोली वो, "अच्छा हुआ न! तुम भी तो आ गयीं!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी! काम्या, बाबा मनवंत नाथ की पुत्री है! कोई डेढ़ साल पहले,असम में मेरी मुलाकात हई थी बाबा से, और इस काम्या सै! बहुत अच्छी, व्यवहार कुशल और अच्छी देह वाली है! अच्छी देह, मेरे अनुसार, तंत्र के अनुसार, तांत्रिक रूप से है, मज़बूत, लम्बी-चौड़ी और आयु में, कोई तीस बरस की होगी! तब मेरी साधिका थी वो, चौदह दिन! उस दिन के बाद से आज मिला था मैं उस से! उसके बाएं गाल पर, सीधी तरफ, एक तिल है, इस से और सुंदर लगती है वो! "अब कहाँ जा रही हो?" पुछा मैंने, "वस्त्र दिए थे, वही लेने!" बोली वो, "और ठहरी कहाँ हो?" पूछा मैंने, "नीचे, अंतिम कक्ष में!" कहा मैंने, "चलो मैं मिलूंगा!" कहा मैंने, मुस्कुराई और चली गयी! मैं वापिस आ गया! "ये तो काम्या है न?" पूछा शर्मा जी ने, "हाँ, वही है!" कहा मैंने, "तो बाबा मनवंत भी यहीं होंगे?" बोले वो, "हाँ जी, यहीं ठहरे हैं!" बोले माधव जी! 

"चलो, इसी बहाने उनसे मिल तो लेंगे!" कहा मैंने, "हाँ जी, और क्या!" बोले माधव जी! "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, "चलो!" बोले वो, 

और हम चल पड़े,नीचे ही, गैलरी में,और आखिरी कमरे तक पहंचे, वो बंद था, उसके सामने वाले कमरे में झाँका, तो बाबा अंदर ही थे! खटखटाया! दरवाज़ा खुला, एक अधेड़ सी उम की 

औरत ने खोला, "बाबा से मिलना है" कहा मैंने, "आप कौन?" पूछा उसने, 

अब तक बाबा पहचान चुके थे! "आ जाओ! आ जाओ!" खड़े होते हुए बोले, 

और हम अंदर आ गए, छोड़ दिया रास्ता उस औरत ने! आये, उनके चरण छुए और बिठाया उन्होंने हमें! "कैसे हो बेटे?" बोले बाबा! "आपका आशीर्वाद है!" कहा मैंने, बेटा ही कहते हैं मुझे! फिर अन्य बातें भी हुईं। श्री श्री श्री जी के विषय में और उस औरत को पानी लाने को कहा! "आप कब आये?" पूछा उन्होंने, "कल ही आये थे" बताया मैंने, हम परसों आये थे!" बोले वो, "हाँ, रास्ते में काम्या मिली, उसी ने बताया हमें! तभी मिलने चले आये!" बोला मैं, "अच्छा हुआ न! बाबा से मिलने आये थे?" पूछा उन्होंने, "हाँ, लेकिन बाबा बारिश के कारण कहीं और ही रुके हुए हैं!" कहा मैंने, "हाँ, मुझे भी काम है उनसे!" बोले वो, "अच्छा !" कहा मैंने, पानी आया, तो पानी पिया हमने! उनसे बातें हुई बहुत! और फिर कोई चालीस मिनट बाद, हम चले वापिस! वापिस हुए, तो सामने के दरवाज़े की सांकल खली थी, खटखटा दिया, एक लड़की ने खोला, और बुला लिया अंदर! अब अंदर चले आये, बैठे, शायद काम्या गुसलखाने में थी, आई और खुश हुई। बैठ गयी वहीं, बिस्तर पर! "मिल लिए बाबा से?" पूछा उसने, 

"हाँ, अभी मिलके आये।" कहा मैंने, "अच्छा! चाय पियोगे?" पूछा उसने, "नहीं, जब तुम मिली थीं तब, चाय ही पी रहे थे!" कहा मैंने, "कैसी हो काम्या?" पूछा शर्मा जी ने, "जी अच्छी हूँ, आप कैसे हैं?" बोली वो, "हम भी बढ़िया!" बोले वो, वो, ये सुन, मुस्कुरा पड़ी! "अच्छा, मैं चलता हूँ, आप आ जाना!" बोले शर्मा जी, और चले गए। "ये लड़की कौन है?" पूछा मैंने, "गुंजन!" बोली वो, "वहीं से है? डेरे से?" पूछा मैंने, "हाँ, वहीं से" कहा मैंने, "तुम्हारा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्नातकोत्तर पूर्ण हुआ?" पूछा मैंने, "हाँ, पिछली साल!" बोली वो, "अरे वाह! बहुत बढ़िया!" कहा मैंने, "किस विषय में था?" पूछा मैंने, "समाज-शास्त्र!" बोली वो, "अच्छा! तो अब समाज-शास्त्री हो गयीं तुम!" बोला मैं, "हाँ!" कहा उसने, "आगे जारी रखी पढ़ाई?" पूछा मैंने, "हाँ, रखी है!" बोली वो, "ये बहुत अच्छा किया!" कहा मैंने, "और ब्याह?" पूछा मैंने, "कोई मिला ही नहीं!" कहा उसने, मज़ाक से! "तुमने ढूँढा ही नहीं!" जवाब दिया मैंने, "समय ही नहीं मिला!" बोली वो, "तुमने समय निकाला ही नहीं!" जवाब दिया मैंने, "चलो छोड़ो, आप सुनाओ!" बोली वो, "वही, लीक पर चल रहे हैं!" कहा मैंने, "अच्छा, वो, कल्प-शिखा, कैसी हैं?" पूछा उसने, "अच्छी हैं। पिछले महीने ही मिला था!" कहा मैंने, 

"मुझे बहुत अच्छी लगती हैं वो!" बोली वो, "हैं भी अच्छी!" कहा मैंने, "हाँ ये भी बात है!" बोली वो, "ये भी नहीं काम्या, ये ही बात है!" कहा मैंने, "मान लिया जी, मान लिया!" बोली वो, मैं हंस पड़ा! "गुंजन?" बोली वो, "हाँ दीदी?" बोली गुंजन, "चाय ले आ!" बोली वो, "अभी लायी' बोली, और चली गयी, मैंने भी मना नहीं किया, कोई बात नहीं! "असम के वो दिन याद हैं काम्या?" पूछा मैंने, "एक एक दिन!" बोली वो, "लेकिन कभी सम्पर्क नहीं किया तुमने?" कहा मैंने, "मैं तो आपकी ही प्रतीक्षा कर रही थी! आज तक!" बोली वो! मेरी कुदाल, और मेरा ही पाँव! कुदाल लग गयी थी पाँव में, मेरी खुद अपनी ही कुदाल! मेरा प्रश्न, मेरे ही सर! "नंबर तो था न? कहीं हटा तो नहीं दिया था?" पूछा मैंने, "रुकिए" उसने कहा, उसने अपने बैग से अपना फ़ोन निकाला, और ढूँढा मेरा नंबर, मिल गए थे। "यहीं हैं न?" बोली वो, मुझे फ़ोन देते हुए, मैंने देखे, गले में गुठली सी अटकी। "हाँ, यही हैं!" बोला मैं, "आप दिखाओ? कहीं उड़ा तो नहीं दिया था, यादों की तरह?" बोली, उपहास सा बनाते हए! "फोन तो कमरे में है, और तुम्हारा नंबर है उसमे!" कहा मैंने, "मान लिया!" फिर बैठ गयी, फ़ोन दे दिया वापिस उसे, तभी, गुंजन चाय ले आई थी, चाय रखी उसने, और दी हमें, हमने ले लिया अपना कप, बाहर चली गुंजन फिर, "ये नहीं पियेगी चाय?" पूछा मैंने, "कुछ काम होगा" बोली वो, "कम से कम, बैरन, एक फ़ोन तो कर लेती?" कहा मैंने, चुस्की भरने से पहले, 

"याद है आपको? क्या कहा था, कोलकाता पहुँचते ही फ़ोन करूंगा, शायद आप कोलकाता पहुंचे ही नहीं, पहुंचे तो, कौन काम्या, काम्या ऐसी तो हर डेरे में मौजूद है! बोलो, बैरी?" बोली वो, "हाँ! कहा तो था, याद ही नहीं रहा!" कहा मैंने, मान ली गलती! गलती मानने में ही भलाई थी, नहीं तो अभी चिट्ठी-पत्री सब खुल जाती! बांचनी पड़तीं, तो अपना ही वजन कम पाया जाता! "वैसे कभी याद आई?" पूछा उसने, "कभी नहीं, कई बार!" कहा मैंने, "ये नहीं मान सकती!" बोली वो, "मत मानो" कहा मैंने, "कोई फर्क थोड़े ही पड़ता है?" बोली वो, "पड़ता है" कहा मैंने, "क्या?" पूछा उसने, "थोड़ा सा पड़ता है!" कहा मैंने, "कैसे थोड़ा सा?" पूछा उसने, "अगर न पड़ता, तो तुम रूकती नहीं वहां, आज, बोलो, बैरन?" कहा मैंने, "वाह जी वाह! रुकी मैं, फ़र्क मुझे पड़ा, आपको क्या पड़ा? आप तो उठे भी बाद में?" बोली वो, "नहीं नहीं! सुबह सुबह गुंजन आई थी बताने कि वो वहां से गुजरेंगी, और मैं पकड़ लूँ उनके!" कहा मैंने,और हंसा! चाय खत्म हुई, तो कप नीचे रखा मैंने, "कोई फर्क नहीं पड़ता, अब तो देख भी लिया!" बोली


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो, "अरे छोड़ोन! देखो, बाहर कैसा हसीं मौसम है! कैसा हंसी माहौल! कैसी हंसी मेरे सामने और तुम चटनी में निबौरी फोड़ रही हो!" कहा मैंने! अब हंसी वो! हंस पड़ी! मैं भी हंसा! उसने भी चाय ख़त्म की, और रख दिया कप! "कब तक हो यहां?" पूछा उसने, "शायद कल तक" कहा मैंने, "फिर वापिस?" बोली वो, "हाँ, और क्या?" बोला मैं, "इतनी जल्दी?" बोली वो, "कहाँ जल्दी? आज आठवाँ दिन हआ हमें!" कहा मैंने, "मैंने कहा, आप और नहीं रुक सकते?" पूछा उसने, "असम ले जा रही हो क्या?" पूछा मैंने, "वहां तो आपका मन नहीं लगता!" बोली वो, 

"लेकिन................!!" कहा मैंने, "क्या लेकिन?" बोली वो, "तन तो लग जाता है!" कहा मैंने, मज़ाक में! बिना होंठ खोले मुस्कुरा पड़ी! और हाँ, नज़रें नहीं खींची! "आ रहे हो असम?" बोली वो, "अभी फिलहाल में तो वहाँ का कोई चक्कर है नहीं!" कहा मैंने, "तो घुमाइए कोई चक्कर!" बोली वो, "चक्कर तो कहीं भी घुमाया जा सकता है।" बोला मैं, शरारत से! तभी गुंजन आ गयी, बर्तन उठाये और फिर से चली गयी! "ये लड़की बोलती कम है क्या?" पूछा मैंने, "कम? बहुत बोलती है! लेकिन आपके सामने नहीं बोल रही!" बोली वो, "मैं कौन सी डॉट मार दूंगा उसे?" कहा मैंने, "पता नहीं!" बोली वो, "चलो अब चलता हूँ, शाम को मिलते हैं!" कहा मैंने, "अरे बैठो तो सही?" बोली वो, "अब बैठा नहीं जा रहा!" कहा मैंने, "तो लेट जाओ!" बोली, शरारत से! "तुम बैठो, और मैं ले ! नहीं जी!" कहा मैंने, "अरे लेट जाओ न!" बोली वो, "अरे नहीं, बैठ ही जाता हूँ!" कहा मैंने, उसने मुझे गौर से देखा! निहार, मुझे तो जैसे ओंस ने मारा! "क्या हुआ?" पूछा मैंने, "आप बहुत अच्छे हो सच में! वही अंदाज़! वही निःसंकोचपन, वही बातें करने का अंदाज! नहीं बदले आप तनिक भी!" बोली काम्या! "ऐसा क्या? काश बदल ही जाता!" कहा मैंने, "उस से क्या होता?" पूछा उसने, "इतना वक़्त ज़ाया तो न होता!" कहा मैंने हँसते हए! वो भी हंस पड़ी, खिलखिलाकर! "और आपका गुस्सा!" बोली वो, "मैंने कब किया गुस्सा?" पूछा मैंने, "वो, भुलावन, याद है आपको?" पूछा उसने, 

"कौन भुलावन?" मैंने पूछा, मुझे याद नहीं पड़ रहा था कि कौन है ये भुलावन? "वो नाव याद है, जिसमे हम गए थे?" बोली वो, "हाँ, याद है!" कहा मैंने, "जब हम वहां पहुंचे थे, एक जगह, तो किसी ने मुझे छूने की कोशिश की थी, याद है?" बोली वो, अचानक से बुलबुला उठा दिमाग में मेरे! । "हाँ! याद आ गया! वो बहन का * * भुलावन! आ गया याद!" कहा मैंने, मैंने गाली दे ही दी थी! याद आ गया था मझे वो मादर* * ! "उसकी क्या हालत की थी आपने, याद है?" बोली वो, "हाँ! याद है, साले की हड्डियां तोड़ दी थीं! कहा मैंने, "न छुड़ाते तो, मार ही डालते उसे आप!" बोली वो, "हाँ, वो तो छुड़ा लिया, नहीं तो मर ही जाता!" कहा मैंने, "सिर्फ इसलिए, कि उसने मुझे छुआ था!" बोली वो, मुस्कुरा कर, "सिर्फ़? उसकी हिम्मत हुई कैसे?" कहा मैंने, "शराब पी रखी थी!" बोली वो, "पी रखी थी, तो इतनी ही पी, जितनी झेली जाए? फिर अपनी बहन को बहन कैसे देख रहा था?" कहा मैंने, "अच्छा, छोड़ो अब!" बोली वो, "कोई तुम्हे हाथ लगा दे? वो भी मेरे संग?" कहा मैंने, "अच्छा छोड़ो!" बोली वो, "पानी पिलाओ!" कहा मैंने, वो उठी, पानी डाला गिलास में, जग से, और दे दिया मुझे! मैंने पिया और दिया गिलास वापिस! फिर जा बैठी वो बिस्तर पर, मुझे कोई घंटा बीत चुका था उसके साथ! "अब चलता हूँ!" कहा


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने, "अरे बैठो न?"बोली वो, "समझा करो?" कहा मैंने, "मुझे भी समझा करो, बैरी?" बोली मुस्कुरा कर! बैठ गया, नहीं जाने दिया! "तुम भी वैसी की वैसी ही हो अभी भी!" कहा मैंने, "अच्छा ?" बोली वो, 

"हाँ, न सावन सूखै, न भादों हरै!" कहा मैंने, तो हंस पड़ी! तभी आई गुंजन अंदर! कपड़े रखे उसने, "गुंजन?" बोला मैं, सकपका गयी वो! "जी?" बोली वो, "नाम गुंजन और चुप? ये क्या बात?" बोला मैं, "जी वैसे ही!" बोली वो, "पढ़ रही हो?" कहा मैंने, "हाँ जी" बोली गुंजन, "बहुत बढ़िया! पढ़ते रहना!" कहा मैंने, "जी" बोली वो, कपड़े उठाये, और चली बाहर! "हाँ जी, तो हम कहाँ थे?" पूछा मैंने, "यहीं, इसी कमरे में!" बोली वो, "अरे वो तो ठीक है, वैसे क्या बात कर रहे थे?" कहा मैंने, "अच्छा, हाँ, उस भुलावन की!" बोली वो, "मर गया या जिंदा है अभी?" पूछा मैंने, "पता नहीं, उसके बाद जाना ही नहीं हआ मेरा" बोली वो, बादल गरजे बड़ी ज़ोर से! जैसे धमका रहे हो पृथ्वी को! काम्या ने तो कान बंद कर लिए अपने! 

और खिड़की देखी, कहीं खुली तो नहीं! "कान क्यों बंद किये?" पूछा मैंने, "आवाज़ ही ऐसी थी कान-फाड़!" बोली वो, "हाँ, आवाज़ तो तेज थी!" कहा मैंने, "क्या क्या किया इस डेढ़ साल में?" बोली वो, "बहुत क्रियाएँ कीं, नए नए लोगों से मिला!" कहा मैंने, "कोई काम्या मिली?" पूछा उसने, "नहीं, काम्या तो बस एक ही मिली है अभी तक!" कहा मैंने, "सच?" पूछा उसने, "ये सच की कसौटी मेरे ही सामने क्यों रखी जाती है?" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी! फिर हंस पड़ी! "सच में कोई काम्या नहीं मिली?" फिर से पूछा, "नहीं मिली कोई काम्य, काम्या जी!" कहा मैंने, 

अब फिर से हंसी! मेरे बोलने के अंदाज़ में एक विवशता सी छिपी थी, इसी को भांप, हंसी वो! बाहर देखा उसने! बारिश झमाझम! "मौसम कितना अच्छा है न बाहर?" बोली वो, "चलें फिर? नहाने?" कहा मैंने, "मुझे मत कहना, मैं चल भी दूँगी!" बोली वो, "अरे रहने दो! वैसे ही खांसी-खर्रा का मौसम है ये!" कहा मैंने, मेरे शब्द 'खांसी-खुर्रा' सुन, और तेज हंसी! "और तुम सुनाओ, क्या क्या किया, बैरन?" बोला मैं, "कुछ नहीं, पढ़ाई और पढ़ाई!" बोली वो, "पढ़ाई के अलावा?" पूछा मैंने, "समय ही नहीं मिलता था!" बोली वो, "और जो मिलता तो?" पूछा मैंने, "तो आ जाती आपके पास!" बोली वो, "सच में, या गुब्बारे में हवा फूंक दी?" कहा मैंने, हंस पड़ी ज़ोर से! "मुझे कभी बुलाते तो सही!" बोली वो, "हाँ काम्या, बला ही नहीं सका!" कहा मैंने, "आ भी नहीं सके!" बोली वो, "असम तो आया था, लेकिन तुम्हारे यहां से बहत दूर था!" कहा मैंने, "चाहत हो और इच्छा हो, तो कोई दूरी दूर नहीं!" बोली काम्या! "बोलती रहो। सारी प्राथमिकियां, रोजनामचे में दर्ज किये जा रहा हूँ मैं!" कहा मैंने, "देखना, कहीं मेरा नाम है उसमे?" बोली वो, उचक कर, "तुम्हारा नाम, यहां है!" मैंने सीने पर हाथ रख कर कहा! "उस नाम की लड़की, मेरे जैसी ही है? काम्या जैसी?" पूछा उसने! "तुम बार बार गुलेल क्यों चला देती हो?" पूछा मैंने, "मैंने कब चलायी?" बोली वो, "इधर आओ!" कहा मैंने, "कहाँ?" बोली वो, "किधर?" पूछा, "यहां, मेरे साथ!" कहा मैंने, "उस से क्या होगा?" बिस्तर से उतरते हुए बोली, 

"ठंड बहुत है न, इसलिए!" कहा मैंने, हंस पड़ी, आ बैठी मेरे पास! मैंने हाथ पकड़ा उसका, बेहद गरम था हाथ उसका, दो अंगूठियां थीं, गोरे गोरे हाथ की गोरी गोरी उँगलियों में, फब रही थीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके हाथ मांसल, और गद्देदार हैं! बहुत सुंदर! "सही कहा था न मैंने?" कहा मैंने, "क्या?" बोली वो, "ठंड बहुत है!" का मैंने, हंस पड़ी फिर से! "तुम्हे, वो आखिरी रात याद है?" पूछा मैंने, तो अब नज़रें खींची! आँखें झुकी! "याद है काम्या?" कहा मैंने, "याद है!" बोली वो, "वो कबूतर भी याद है, जो कमरे में घुस आया था?" कहा मैंने, अब तो बहुत तेज हंसी वो! याद आ गया सबकुछ उसे! "नाक में दम कर दिया था उसने! फड़-फड़! फड़-फड़! कभी यहां, कभी वहाँ!" कहा मैंने, "हाँ, याद है!" बोली वो, "और वो, वो,याद है?" पुछा मैंने, "वही?" कहा मैंने, "पता नहीं" बोली वो, "याद नहीं?" पूछा मैंने, "क्या?" बोली वो, "वो बिस्तर से, गिर...........!" बोला मैं, मेरे होंठ पर हाथ रखा उसने। "याद है न!" कहा मैंने, "हाँ, याद है!" बोली वो, "तुम्हारे नील पड़ गया था, यहां! उस पलंग के कोने से, याद है?" पूछा मैंने,उसकी पीठ पर, कंधो के बीच, नीचे की तरफ, हाथ रखते हुए! "याद है!" कहा उसने! "अब तो नहीं है?" पूछा मैंने, "अब कैसे होगा?" बोली वो, "कभी देखा नहीं? दुबारा?" पूछा मैंने, "नहीं" बोली वो, 

"लाओ, मैं देखता हूँ!" कहा मैंने, तो भांप गयी माज़रा सारा! "हहह!" बोली वो! मैं मुस्कुराया! उसका हाथ थामे हुआ था मैं! "अब नील तो मैं देखे बिना नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने, "और फिर, आऊंगा ही नहीं, चाहे नील पड़े, चाहे मरे!" बोली वो, "क्या काम्या! चाशनी में, थैली पलट दी नमक की!" कहा मैंने, 

तो हंस पड़ी। मैं चाहता था, हँसे वो! "अच्छा काम्या! अब चलूँगा!" कहा मैंने, "मेरा मन कैसे लगेगा?" बोली ऊपर देखते हए, मुझे, मैं खड़ा हो गया था! "क्यों, मेरे मिलने से पहले नहीं लग रहा था?" पूछा मैंने, "अब नहीं लगेगा!" बोली वो, "लग जाएगा!" कहा मैंने, "मेरा मन, आपकी तरह नहीं है!" बोली वो, मज़बूरी! अब क्या कहूँ! बैठना पड़ा। "काम्या?" कहा मैंने, "हाँ?" बोली वो, "मैं अधिक बैठा, तो असम पहुँच जाऊँगा, फिर उसी कमरे में, समझी?" कहा मैंने, "तो कोई उस कमरे से बाहर निकाल देगा आपको?" बोली वो, "कौन निकालेगा? बस तुम!" कहा मैंने, "मैं निकाल सकती हूँ?" बोली वो, "लेकिन मैं जाना नहीं चाहता!" कहा मैंने, "क्यों?" बोली वो, "अब हर क्यों का जवाब इतना आसान नहीं होता!" कहा मैंने, "बताओ?" बोली वो, "कमरे में गया, तो.....तो.....तो.....!" कहा मैंने, इतना ही कहा, "तो?" पूछा उसने, "तो क्या? वही, वही?? अरे वही!" कहा मैंने, "क्या वही?" बोली वो, "वही!" कहा मैंने, "बताओ न, क्या वही?" बोली वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक ही लम्हे में, मैंने उसके होंठों को चूम लिया! "ये, यही!" बोला मैं! 

आँखें बंद! लेकिन मेरा हाथ थामे रही, छोड़ा नहीं, गर्म हाथ! "एक काम करते हैं काम्या?" बोला मैं, "क्या?" बोली वो, आँखें खोलते हए! "अब शाम को मिलते हैं!" कहा मैंने, "जाओ, शाम की भी क्या ज़रूरत?" बोली वो, उठते हए, जा बैठी बिस्तर पर! 

मुझे आई हंसी! 

बहुत तेज! "मिलूंगा!" कहा मैंने, न बोली कुछ, "सुना?" बोला मई, न बोली, तकिया और ले लिया, लेटी और रख लिया तकिया मुंह पर! 

और मैं, बाहर! मैं आ गया था बाहर! बारिश अभी भी रिमझिम पड़ रही थी, उस गैलरी में बने झरोखों से, ठंडी हवा के झोंके, बारिश की फुहार को भी अंदर ले आते थे! बदन पर और चेहरे पर वो फुहार पड़ती तो फुरफुरी सी उठ जाती थी, मैं ऊपर सीढ़ियां चढ़ने ही वाला था कि रुक गया मैं, और वहीं उस छोटी सी बैठक में पड़ी कुर्सियों में से एक कुर्सी पर जा बैठा, सामने का दृश्य बहुत शानदार था! बड़े बड़े पेड़ झूम रहे थे बारिश में! जैसे आनंद ले रहे हों, और उनके नीचे लगा एक बड़े पत्तों वाला ताड़ का पेड़, अपने ही अंदाज़ में झूम रहा था! उसके पत्ते अलग अलग दिशाओं में झूमते थे, पानी पड़ता तो पट-पट की तेज आवाज़ होती, और ये आवाज़ फिर लय बन जाती! सुनने । वाले को जहां आनंद देती वहीं देखने वाले को भी आनंद देती! साथ ही लगा नीम्बू का पेड़, झूम रहा था, उसके फूल तो झड़ चुके थे बारिश में, लेकिन जो नीम्बू उस पर लगे थे, हरे हरे रंग के, वो चमक रहे थे! जैसे बल्ब हों! मैं बैठ गया था, प्रकृति का ये अनूठा खेल देख रहा था! दूर, सामने, कक्षों से रौशनी बाहर आ रही थी, कुछ स्त्रियां झाडू लगा रही थीं, शायद पानी निकाल रही हों! इसी बारिश में मुझे डेढ़ साल पीछे ला पटका! मैं असम में था, बाबा गवंग नाथ के डेरे में, ऐसी ही बारिश पड़ रही थी, मैं अपने कक्ष में बैठा, चाय पी रहा था, शर्मा जी भी चाय पी रहे थे, बारिश ताबड़तोड़ थी, कहीं आना नहीं, कहीं जाना नहीं। हम तीन दिनों से यहीं थे! यही उसी डेरे में फंसे हए थे, बाढ़ का डर था, हर कोई बाढ़ के डर से ग्रसित था, हालांकि हम एक ऊंचे स्थान पर थे, 

लेकिन खबर आया करती थी कि आज फलां गाँव में पाई घुस गया, आज फलां गाँव में! बरसाती नदियां उफान पर थीं! वो डेरा भी कट के रह गया था दूसरे स्थानों से! चौथे रोज की बात होगी, उस समय को दिन के तीन बजे थे, मैं कुछ सामान लेने गया था किसी के पास, तारक नाम का एक व्यक्ति था, उसके पास, वो सामान आदि लाया करता है, उसी के पास था, सामान देख लिया था, बढ़िया सामान था उसका, सौदा तय हो गया था, मैं वहांसे निकला, और गैलरी


   
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श्रीशः उपदंडक
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में आया, चला अपने कक्ष की ओर. तो मुझे सामने से आती एक लड़की दिखी, उसके चेहरे पर आकर्षण था, उसका बदन, मांसल, भरा हुआ, और गठीला था, रंग-रूप बेहद कामुक और मधुर था, देखते ही बनता था। उसके केश, नीचे, नितम्बों से भी नीचे तक थे, साड़ी पहनी थी, काले रंग की उसने, कानों में पड़े झुमके, जैसे कैद कर ली गयी थी बरसात की बिजली उनमे! मैं रुक गया, देखता ही रहा उसे, वो गुजर गयी मेरे सामने से! मैं उसके चेहरे का तिल देख सका, उसके गाल पर! मैं उसको तब भी देखता रहा, इठलाती, मदमाती चाल,जैसे, भूमि पर एहसान कर रही हो चलकर, बनाने वाले ने, अबकाश लेकर गढ़ा था उसको! मैं देखता ही रहा उसको, जब तक कि वो मुड़कर, मेरी नज़रों से ओझल न हो गयी! कौन है ये? ऐसी साध्वी? इस डेरे में? किसकी साध्वी है ये? कौन है वो साधक? यही सोचते सोचते मैं चला आगे, सोचा, बन्नू से पूछंगा, बन्न जानता था सभी को उसके गाल का वो तिल, मुझे याद रहा, मैं आ गया कक्ष में अपने,गैलरी में गया, बैठा वहां कुर्सी पर, और तभी बन्नू आता दिखा, केले का एक बड़ा सा गुच्छा लादे हुए! मुझे देखा, प्रणाम किया, रुका, और मैंने पूछा, "बन्न? यहाँ एक साध्वी है, बेहद सुंदर, काले रंग की साड़ी पहनी है उसने, कौन है वो?" पूछा 

मैंने, 

"वो, हाँ जी, काम्या है वो, बाबा मनवंत की पत्री!" बोला वो, "अच्छा! कहाँ ठहरे हैं बाबा मनवंत?" पूछा मैंने, "उधर, वो देखो, वो जो पीले रंग की टंकी है न, उसके साथ, दायें वाला कमरा" बोला वो, "अच्छा, और ये बाबा मनवंत कौन हैं?" पूछा मैंने, "यहीं के हैं, बारिश के कारण फंसे हैं, आप मिल लो उनसे?" बोला वो, "ज़रूर!" कहा मैंने, 

और हाथ उठा, प्रणाम कर, केले का वो बड़ा सा गुच्छा ले, चला गया आगे! काम्या! कितना सटीक नाम है! सार्थक होता है उस पर! कद भी कोई पांच फीट नौ या दस तो होगा ही। और वो साड़ी, भाग खुल गए साड़ी के, ऐसे बदन से लिपट कर! बाबा मनवंत! मिलना पड़ेगा। उसी शाम, मैं और शर्मा जी, नीचे, एक बैठक थी, उसमे टीवी लगा था, खबरें आती थीं, लोग वहीं सुनते थे खबरें, असमी भाषा में,तो हिंदी में अनुवाद हो जाता था उसका! और खबरें सुन लिया 

करते थे, उस शाम, हम वहीं बैठे थे, कि सामने मुझे, वही काम्या, आते दिखी, मैं खड़ा हो गया, चला उसकी तरफ,सोचा, बात कर लेता हूँ! सच में,रहा नहीं गया! मैं चला आगे, आया रास्ते में, उस गैलरी में, और आगे चला, वो मुड़कर, अब उसी गैलरी में आई नीचे ही देख चल रही थी, हाथ में, एक छोटा सा बैग था उसके, मैं आया उसके करीब और वो भी, "सुनिए?" कहा मैंने, उसने चौंक के देखा मुझे, फिर सतर्क सी हो गयी! "कहिये?" बोली वो, "आपका नाम क्या है?" पूछा मैंने, "क्यों? आप जानते हैं क्या मुझे?" बोली वो, "जानता तो पूछता ही क्यों?" कहा मैंने, "तो किसलिए जानना चाहते हैं नाम?" बोली वो, "ऐसे ही, इच्छा है" कहा मैंने, "आपका नाम क्या है?" पूछा उसने, मैंने नाम बता दिया उसको, "कहाँ से हैं?" पूछा उसने, "दिल्ली से" कहा मैंने, "किसलिए जानना चाहते हैं नाम?" पूछा उसने फिर से, "मैंने कहान, ऐसे ही!" बोला मैं, "ऐसे ही नाम नहीं बताया जाता" बोली वो, और चली आगे, "रुकिए?" कहा मैंने, रुक गयी, देखा मुझे, मैं आया करीब उसके, "आप अच्छी लगी, इसीलिए" बोला मैं, "यहां और भी बहुत


   
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श्रीशः उपदंडक
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अच्छे लोग हैं, सभी से नाम पूछा उनका?" पूछा उसने, "आप नहीं बताना चाहती तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने, और वो चली! नहीं बताया नाम अपने मुंह से! नकचढ़ी सी लगती है! कोई बात नहीं, बताएगी, अवश्य ही बताएगी अपना नाम! वो चली गयी, और मैं वापिस हुआ, मेरा पत्तल खाली ही रह गया था! कोई बात नहीं! आ गया वापिस मैं, शर्मा जी के पास, चाय मंगवा ली थी उन्होंने, तो हमने चाय 

अगले दिन, बारिश ने कुछ राहत की सांस ली, थम गयी थी, मौसम भी खल गया था, लेकिन रास्ते बंद थे, अभी कम से कम दो दिन और लगते, रास्ता खुलने में, तो दो दिन तो थे अपने 

पास, उसी दोपहर, मैं फिर से तारक के पास गया था, जैसे ही कमरे में घुसने लगा, मुझे वो ही 

आते दिखी! मैं रुक गया, आज उसने, बैंगनी रंग की साड़ी पहनी थी! ऐसी खूबसूरत लग रही थी, जैसे अभी अभी अवतरण हआ हो उसका इस संसार में कामलोक से! मैं वहीं खड़ा रहा, वो आती गयी, और जैसे ही गुजरी मेरे सामने से, "नमस्कार!" कहा मैंने, उसने देखा मुझे, रुकी नहीं, "नमस्कार" कहती हुई आगे चली गयी! 

और मैं तारक के कमरे में चला गया, बातचीत हुई उस से, और कोई पंद्रह मिनट के बाद, मैं वापिस हुआ, वापिस हुआ तो आगे चला, आगे चला तो मुड़ा, मुड़ा तो सामने से वो ही आती दिखी! मैं रुक गया! वहीं जम गया! इंतज़ार किया उसके आने का, वो आई, "रुकिए?" कहा मैंने, 

और वो रुक गयी! "धन्यवाद!" कहा मैंने, "किसलिए?" बोली वो, "रुकने के लिए!" कहा मैंने, अब, पहली बार, ज़रा सी मुस्कुराहट देखी होंठों पर उसके! "आप सभी को ऐसे ही रोक कर, धन्यवाद करते हैं?" पूछा उसने, "नहीं, सिर्फ आपको रोका, आपको ही धन्यवाद किया!" कहा मैंने, "नाम जानना चाहते हैं न?" पूछा उसने, "हाँ!" कहा मैंने, "फिर तो रोक कर, धन्यवाद नहीं करेंगे?" बोली वो, "नहीं।" कहा मैंने, "काम्या नाम है मेरा!" बोली वो, "अच्छा! धन्यवाद!" कहा मैंने, 

और वो, टमक कर, आगे बढ़ गयी! मिठाई तो रख दी गयी थी पत्तल पर मेरे, लेकिन फीकी! न खाते ही बने, न फेंके ही बने! और 

अब तो, रोकना भी नहीं था उसको! ठीक है, कोई बात नहीं, अब वो खुद ही रोकेगी! आ गया वापिस मैं अपने कक्ष में! काम्य के साथ वो बातचात का दुबारा से अवलोकन किया, बैरन ने कोई भी गुंजाइश न छोड़ी थी सेंध लगाने की! खैर, उस रोज बारिश नहीं पड़ी, मौसम सुहावना हो गया था! खबर आई कि एक रास्ता खुल गया है, शहर पहुंचा जा सकता है। हमारा और कोई काम तो था नहीं यहां, बस अटके ही पड़े थे, रास्ता खुल गया है, तो कल निकल लिया 

जाए, शहर पहुंचा जाए, और वहां से कोलकाता, वहाँ कुछ काम था, वो निबटा कर, वापिस अपने शहर! तो उस शाम, हमने तैयारी कर ली थी! उसी शाम, मैं पानी लेने गया था नीचे, पानी की जगह तो भीड़ सी लगी थी, मैंने इंतज़ार किया, और देखा,वहीं, किसी और लड़की के साथ, काम्या खड़ी थी, मेरी नज़रों में तो आ गयी थी, लेकिन मैं नहीं, मैं धीरे से हटा वहाँ से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर पानी लेने के लिए, एक औरत से, ज़ोर से कहा कि जल्दी जल्दी करे वो, रास्ता बंद हो गया तो यहीं धरे रह जाएंगे, यहां परेशान हो गए हैं हम, बहुत बुरा हाल है आदि आदि! ये सुन लिया, उसने, और मुझे देखा, मैंने भी देखा, मेरा लाई-लंगड़ सही जगह पर जा अड़ा था! उस औरत ने भर दिया पानी, और मैं, उसी की तरफ चला पानी लेकर, छोटा सा मिल्टन का जग था ये, तो उसकोले, मैं चला, और हटाता चला गया सभी को वहां से! आया उसके पास, ज़रा करीब से ही गुजरा, नज़रें मिलीं, और मैं उसकी बग़ल से गुजरा, और चला आगे, लेकिन कान पीछे ही लगे 

"सुनिए?" आई आवाज़! उसी की आवाज़ थी! मैं रुक गया, और देखा पीछे, वही खड़ी थी, "जी, कहिये?" कहा मैंने, "आप दिल्ली से हैं न?" पूछा उसने, "जी, वहीं से हूँ!" कहा मैंने, "रास्ता खुल गया है?" पूछा उसने, "सुना तो है" कहा मैंने, "अच्छा !" बोली वो, "आप यहीं से हैं या कहीं और से?" पूछा मैंने, "यहीं से हूँ, लेकिन जाना गोहाटी है" बोली वो, "अच्छा , वो तो बहुत दूर है यहां से" कहा मैंने, "हाँ, है तो दूर ही" बोली वो, "आप वहीं रहती हैं?" पूछा मैंने, "नहीं, रहती तो यहीं हूँ" बोली वो, "यहीं, इसी डेरे में?" पूछा मैंने, "नहीं, यहां से को तीस किलोमीटर दूर है" बोली वो, "अच्छा, तो आप यहां से गोहाटी जाएंगी" कहा मैंने, "हाँ, किसी को आना था, लेकिन बारिश के कारण नहीं आ पाये वो बोली वो, "अच्छा , हाँ, हम भी अटके पड़े हैं!" कहा मैंने, "बारिश कुछ राहत दे, तो कुछ हो" बोली वो, 

"हाँ ये तो है" कहा मैंने, "आज तोरुकी है वैसे" बोली वो, देखते हुए आकाश को, "एक बात कहूँ? बुरा न मानें तो?" कहा मैंने, "हाँ, कहिये?" बोली वो, "आज मैंने नहीं रोका आपको!" कहा मैंने, हँसते हुए, 

वो भी मुस्कुरा गयी! "चलिए, चलता हूँ, आपसे मिलकर, बहुत अच्छा लगा, कभी चाही उसने, तो जिंदगी में कभी 

बारामुलाक़ात होगी। नहीं तो, कहाँ दिल्ली और कहाँ गोहाटी!" कहा मैंने, और मैं चल पड़ा फिर आगे, पीछे नहीं देखा, नज़रें उलझती और मैं खतावार हो जाता! इसीलिए नहीं देखा पीछे मैंने! आ गया कमरे में अपने! रख दिया पानी, शर्मा जी, सोये हुए थे आराम से! रात की बात होगी, बारिश फिर से पड़ रही थी, मैं तारक के पास गया हुआ था, कुछ सामान लेने, सामान वही हुड़क वाला, और तभी बत्ती चली गयी! हो गया अँधेरा! मोमबत्ती जलायी गयी, मैंने अपना मोबाइल फ़ोन चालू किया, कुछ रौशनी हुई, बोतल ली, और चला उसी रौशनी के सहारे आगे ज़्यादा रौशनी नहीं थी, बस इतनी कि अगला कदम आराम से, सही रखा जाए! ऐसे ही चलता रहा मैं, और जब मुड़ा, तो सामने काम्या ही थी, मैंने मोबाइल की रौशनी उसकी तरफ की, मुझे देखा उसने, उसकी कजरारी आँखों से रौशनी लौटी वापिस, मैंने मोबाइल हटा लिया! रुक गयी थी वो! "इतनी रात में कहाँ घूम रही हो आप?" पूछा मैंने, "ये लेने गयी थी!" बोली वो, तो वो कुछ सामान था, शायद सिलाई-बुनाई का, या फिर ऊन आदि होगी उस थैले में, "मौसम खराब है, और आपको तो वैसे भी इतनी रात में नहीं घूमना चाहिए!" कहा मैंने, "वो क्यों?" पूछा उसने, "भई, औरों का तो पता नहीं, मुझ जैसा कहीं छेड़-छाड़ ही न कर दे!" कहा मैंने, तो हंस


   
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श्रीशः उपदंडक
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पड़ी! मेरे वो शब्द उतार लिए थे कंठ से नीचे! "अँधेरा है, आओ, छोड़ आऊं तुम्हें!" कहा मैंने, "मैं चली जाउंगी!" बोली वो, "अरे कोई टकरा गया तो जल-भुन और जाएगा! उसकी सोचो!" कहा मैंने, फिर से हंसी! मुझे अच्छा लगा उसको हँसते देख! 

"आओ, ये हल्की सी बत्ती है, कोई बात नहीं!" मैंने कहा, 

और चल पड़ा उसको छोड़ने। जामुन खाने की सोची थी, बेल-पत्थर टपक गया था! सीधा हाथ 

ले आया कमरे तक उसको, उसने कमरा खोला अपना, मैंने रौशनी दिखाई अंदर, मोमबत्ती-माचिस आदि ढूंढने के लिए, ढूंढा और मिल गयी! उसने जलायी मोमबत्ती, उस मोमबत्ती की रौशनी में काम्या, अप्सरा सी लगे! उसकी परछाई में भी, उसके कटाव-उठाव-गठाव साफ़ साफ़ दिखाई दें! "अब चलता हूँ मैं!" कहा मैंने, "बैठिये!" बोली वो, 

ओहो! आज तो बम्बे से नहर, और नहर से नदी! बैठ गया फिर मैं उधर ही एक कुर्सी पर, "पानी पिएंगे?" पूछा उसने, "ज़रूर!" कहा मैंने, उसने पानी दिया मुझे, और मैंने पानी पिया, "कभी दिल्ली आई हैं आप?" पूछा मैंने, "हाँ, दो बार!" बोली वो, "इस बार आइये!" कहा मैंने, "कुछ ख़ास इस बार?" पूछा उसने, "अब हम हैं न!" कहा मैंने, मुस्कुरा गयी वो! "रास्ता तो फिर से बंद हो गया होगा?"बोली वो, "हाँ, बंद हो गया होगा! शुक्र है, आप मिल गए, तो दो बातें हुईं किसी से, यहां तो किसी से बात भी नहीं होती हमारी, बस कमरे में कैद ही रहते हैं!" कहा मैंने, 

और फिर बातें हुईं उस से, काशी की, इलाहबाद की, कोलकाता की आपस की, एक दूसरे के बारे में जाना, आदि आदि, फिर उसने अपने पिता के बारे में बताया, वे काफी पकड़ वाले बाबा है, उनके शिष्य ही करीब अस्सी हैं! उसका एक भाई भी है, जो शिक्षण ले रहा है, नेपाल में! "आइये, पिता जी से मिलवाती हूँ!" बोली वो, एक और फाटक खुला! आज तो बारिश के साथ साथ कुछ और भी टपक रहा था! मैंने बोतल वहीं रख दी, और चला उसके साथ, ले गयी मुझे, मिलवाया उनसे, प्रणाम हई, चरण-स्पर्श किया 

और फिर कुछ और बातें, पता चला कि वो श्री श्री श्री जी को जानते हैं। और तब मझे जाना! बताया काम्या को अब मेरे बारे में! ज्यों ज्यों बताते जाते, काम्या की आँखें, उतना ही गहरा मुझे,खोद देती। करीब आधा घंटा रहा उनके साथ मैं, और फिर विदा ली उनसे! 

आया वापिस काम्या के कमरे में, 

बोतल उठायी, और चलने लगा बाहर, "अच्छा काम्या!" कहा मैंने, "दिल्ली कब जाना है?" पूछा उसने, "रास्ता खुले, तो हम रवाना हों!" कहा मैंने, "मिलकर जाइए!" बोली वो, "ज़रूर! आप नहीं कहतीं तो मैं फिर भी आ जाता!" कहा मैंने, मुस्कुरा पड़ी! 

और फिर हआ मैं वापिस! बाहर तक छोड़ने आई काम्या! मैं चलता बना, पीछे मुड़कर देखा, तो खड़ी थी,अँधेरा था, देख न सका चेहरा! आया अपने कमरे में, मोमबत्ती जल रही थी! खाने का सामान लग चुका था सारा! "कहाँ रह गए थे?" बोले वो, 

और तब मैंने सब बता दिया उन्हें! "बाबा मनवंत!" बोले वो, "हाँ जी!" कहा मैंने, "यहीं के हैं?" पूछा उन्होंने, "हाँ" कहा मैंने, "अच्छी बात है!" कहा उन्होंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी बिजली कौंधी! और मैं, असम से मिर्जापुर लौटा! अशोक जी आ गए थे, शर्मा जी भी आ गए थे, चाय मंगवा ली गयी, "यहां बैठे थे?" बोले वो, "हाँ! यहीं था!" कहा मैंने, "मैंने सोचा कि बाबा के साथ होंगे!" बोले वो, "था, आ गया था यहीं!" बोला मैं, चाय की चुस्की ली, बेसन लगी मूंगफली चबाई, और मैं फिर से, मिर्जापुर से असम चला गया! 

उस रात, बिजली नहीं आई! हम खा-पीकर आराम से सो गए थे! 

सुबह हुई, बारिश ही बारिश नहाये-धोये, निवृत हुए, और फिर चाय पी, उसके बाद मैं, फिर से नीचे गया, शर्मा जी के साथ, बारिश तो थी ही, घूमा कहीं जा सकता नहीं था, अतः, एक बैठक में बैठ गए, बाहर का नज़ारा देखते रहे, बिजली कौंध रही थी! मेघ, बार बार धमकियां दे रहे थे! 

और हम, उनकी धमकियों को, सहन कर रहे थे! कोई अन्य विकल्प नहीं था। और तभी वहां से, सामने से गुजरी काम्या, मैरून रंग के सूट में और काली चुस्त पाजामी में! केशों ने तो कहर ढा दिया था। कमर के पीछे तक, नीचे तक चले गए थे, और कमर के पीछे एक बड़ा सा चन्द्रमा बनाते हए! चन्द्रमा, उसी कमर का! उसने हमें देखा, और मैंने उसे, चली आई, नमस्ते की, शर्मा जी से मैंने मिलवाया उसे और उसको शर्मा जी से! "कहाँ जा रही हो?" पूछा मैंने, "चाय के लिए कहने" बोली वो, "बैठो यहां, यहीं आ जायेगी चाय!" कहा मैंने, बैठ गयी वो, वहीं एक कुर्सी पर, अपने बाल संभालते हुए, कि कहीं ज़मीन से न छू जाएँ! मैंने एक सहायक से कहा चाय के लिए, और तीन चाय मंगवा लीं! "बारिश तो आज भी है!" कहा मैंने, "हाँ, रुक ही नहीं रही!" बोली वो, "चौमासे हैं!" कहा मैंने, "हाँ, और यहां तो वैसे भी पड़ती ही रहती है!" बोली वो, "काम्या? तुम्हारी हिंदी साफ़ है बहत, कैसे?" पूछा मैंने, "मेरे पिता जी, जिला हरिद्वार के हैं,मेरी पैदाइश और बचपन वहीं का है!" बोली वो, "ओह! तभी!" कहा मैंने, "हाँ, इसीलिए" बोली वो, "और पढ़ाई करती हो?" पूछा मैंने, "हाँ, अब स्नातकोत्तर कर रही हूँ!" बोली वो, "अरे वाह!" कहा


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने, "समाज-शास्त्र से!" बताया उसने, "बहुत खूब!" कहा मैंने, "सोचा, आगे ज़ारी रखू!" बोली वो, 

"ये तो बहुत अच्छी बात है!" कहा मैंने, चाय आ गयी, उस मौसम में चाय,अमृत समान सी लग रही थी! "ये लो!" कहा मैंने कप देते हुए उसे, ले लिया उसने वो कप, हम चाय पीते रहे फिर, और पीली, कुछ और बातें और फिर चली गयी वो! सी दोपहर, बारिश रुकी, मौसम खुला थोड़ा, आकाश में बादल बने हुए थे वैसे तो, "अब जाकर सांस ली है इसने!" बोले शर्मा जी, "हाँ, जिंदगी बदहाल कर दी इसने तो!" कहा मैंने, "ऐसे रुक जाए दो दिन तो निकल चलें!" बोले वो, "हाँ, लेकिन रुक ही तो नहीं रही!" बोला मैं, "रुकनी चाहिए, हम तो जैसे टापू पर फंस के रह गए हैं!" कहा उन्होंने, "हाँ!" कहा मैंने, उस शाम भी बारिश नहीं हुई, आकाश खुल गया था, बदली थी तो सही, लेकिन पानी गिरेगा, ऐसे आसार नहीं थे। उसी शाम मैं नीचे बैठा था, वहीं बैठक में, बारिश थी नहीं, कि आना हुआ काम्या का, मुझे देखा, तो आ गयी पास मेरे, "बैठो काम्या!" बोला मैं, बैठ गयी, कुर्सी की टांगें सही नहीं थीं, मैंने दूसरी दे दी, और बिठा दिया उसको उस पर, "आज मौसम ठीक रहा है, कल भी ऐसा ही रहे, तो निकल जाएँ यहां सै!" कहा मैंने, "हाँ, हम भी निकलें फिर!" बोली वो, "एक बात कहूँ?" पूछा मैंने, "कहो?" बोली वो, "आपका नंबर मिल जाएगा?" कहा मैंने, "हाँ, क्यों नहीं!" बोली वो, 

और अपने फ़ोन से, कॉल कर दी मेरे फ़ोन पर, मैंने नंबर सुरक्षित कर लिया! और फिर मैंने भी कर दी कॉल, इस तरह पहली बार हम व्यक्तिगत हए! "यहां आना-जाना होता है?" पूछा उसने, "हाँ, साल में एक आद बार!" कहा मैंने, "ये है हमारा पता, कभी आइये उधर!" उसने कहा, और मैंने पता लिख लिया उसका! "धन्यवाद! कभी आना हुआ, तो आपको कॉल करूँगा!" कहा मैंने, "ज़रूर!" बोली वो, "धन्यवाद!" कहा मैंने, 

"आप धन्यवाद बहुत करते हैं!" बोली वो, "किसी किसी को!" कहा मैंने, तो हंस पड़ी! "कल जाना है मुझे अपनी पढ़ाई से ही संबंधित एक जगह" बोली वो, "अच्छा, यहीं पास में है?" पूछा मैंने, "है कोई पांच-छह किलोमीटर!" बोली वो, "अच्छा! साथ में कौन, पिता जी जाएंगे?" पूछा मैंने, "नहीं, मैं अकेली जाउंगी!" बोली वो, "अरे नहीं!" कहा मैंने, "क्यों?" पूछा उसने, "मुझे ले चलो! किसी को देखने भी नहीं दूंगा!" कहा मैंने, 

तो अब हंसी! खिलखिलाकर! "कितनों को रोक लोगे?" बोली वो, "कम से कम जिसको मैं देख रहा होऊंगा!" कहा मैंने, "अच्छा ?" बोली वो, "ले जा कर तो देखो!" कहा मैंने, "तो चलिए फिर!" बोली वो, "कितने बजे?" पूछा मैंने, "कोई नौ बजे!" बोली वो, "ठीक है!" कहा मैंने, फिर चली गयी वो, और भी कई बातें हुईं थीं, वहीं के स्थान के बारे में, उस शाम, भी मैं मिला था उस से, काफी देर तक बातें हई थी हमारी, और फिर रात को, एक बार, मैंने फ़ोन पर भी बात की 

थी उस से! अगला दिन आया, मैं तैयार, शर्मा जी को बता ही दिया था कि मैं काम्या के साथ जा रहा हूँ, उसका कोई काम है! मैं नीचे गए, इंतज़ार किया उसका, तो आती दिखी! साड़ी पहन


   
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