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वर्ष २०१३, रात को जागता वो रास्ता! भयावह और रहस्यमय!

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श्रीशः उपदंडक
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यहां ऐसा कुछ भी न था जिसको कुछ असामान्य कहा जाए, सब वैसा ही, जैसा एक देहात में अक्सर ही होता है, एक जाता हुआ बड़ा सा रास्ता, दोनों तरफ, भूड़ लगी हुई और कुछ जंगली से पौधे! कुछ जगह आक के जंगल, हां जंगल ही कहूंगा, बेहिसाब लगे हुए थे वहां! एक वो, कंटीली झाड़ी, जिस पर पीले रंग के फूल लगे थे, जिन पर किसी की नज़र नहीं पड़ती, जब तक कि बलग़म जान लेने पर आमादा न हो जाए!
"यहां से आगे क्या है?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं, आगे करीब दो किलोमीटर बाद, उलटी तरफ एक रास्ता जाता है, वहां अंदर एक गांव है!" बोले वो,
"फौजी साहब वाला?" पूछा मैंने,
''हां जी!" बोले वो,
"बड़ी दूर बनाया उन्होंने ढाबा?" पूछा मैंने,
"जी उस समय यहां रौनक रहती थी!" वो बोले,
"कैसी रौनक?" पूछा मैंने,
"बस, सवारी रूकती थीं!" बोले वो,
"वो तो अभी भी रूकती होंगी?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"आप उधर देखो?" बोले वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"देखो आप पहले?" बोले वो,
"ये क्या है?" देखते हुए कहा मैंने,
"ये एक मिल है!" बोले वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"ये कब बनी?" पूछा मैंने,
"कभी नहीं बन सकी!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
''सुना था मालिक के साथ कुछ दिक्कत हुई थी!" बोले वो,
"ये कब की बात है?" पूछा मैंने,
"दो साल हुए" बोले वो,
"तब मज़दूर काम करते होंगे?" पूछा मैंने,
"हां, लेकिन कोई छह महीने ही!" बोले वो,
"फिर बन्द हो गयी?" कहा मैंने,
"हां, काम बन्द हो गया!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"हालांकि इस मिल का इस घटना से कोई सीधा सम्बन्ध तो नहीं था, लेकिन पूछना ज़रूरी ही था, वो मिल, मिल नहीं  लगती थी, थी भी दूर ही, अभी सिर्फ पहली मंजिल सी ही बनी थी, करीब दस फ़ीट ही मानो, उसमे भी अब छेद हो गए थे!
"कभी वहां जा कर देखा था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"तो वहाँ के मज़दूर ढाबे पर आते होंगे?" पूछा मैंने,
"बहुत कम!" बोले वो,
''क्यों?" पूछा मैंने,
"खाना उनका वहीँ जो बनता था!" बोले वो,
"ओह, अच्छा!" कहा मैंने,
"कभी कोई दुर्घटना हुई थी उधर?" पूछा मैंने,
"कभी नहीं!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने, और उसे, इस फ़ेहरिस्त से बाहर कर दिया मैंने!
"फौजी साहब का ढाबा कहां था?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोले इशारे से,
"अच्छा, पेड़ों के पार!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"और बिजली आदि?" पूछा मैंने,
"नहीं थी!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कभी कोई इंजन आ जाता था" बोले वो,
"जनरेटर?" पूछा मैंने,
"हां वही!" बोले वो,
"और उधर?" बोले वो,
"उधर?" पूछा मैंने,
"हां, आइये!" बोले वो,
"चलो!" हम चल दिए उधर, आ गए एक तरफ, रुक गए!
"इधर एक खोखा हुआ करता था!" बोले वो,
"किसका?' पूछा मैंने,
"एक नाई था, मसूद!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उसने ही सबसे पहले, कुछ देखा था!" बोले वो,
"सबसे चले?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"कितना पहले?" पूछा मैंने,
"कोई पांच साल पहले, या ज़्यादा!" बोले वो,
"क्या देखा था?" पूछा मैंने,
"उसने उस सड़क पर कुछ लोगों को लड़ते हुए देखा था!" बोले वो,
"दिन में?" पूछा मैंने,
"शाम को!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसने देखा था कि वो कभी लड़ते, कभी हंसने लगते!" बोले वो,
"दोस्त, यारी दोस्ती!" कहा मैंने,
"उसने भी यही सोचा था!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वे लड़के आगे चले गए थे फिर!" बोले वो,
"उधर?" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"फिर?'' पूछा मैंने,
"उसके बाद, मसूद और उसका सहयोगी लड़का, जो कोई चौदह साल का रहा होगा, खोखा बन्द कर, ताला लगा, चल दिए अपने गांव की तरफ!" बोले वो,
"पैदल ही?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, मसूद साइकिल लाया करता था!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अपनी पेटी बांध, चल दिया था!" बोले वो,
"समझ गया, अपना काम-काज निबटा!" कहा मैंने,
"हां जी, आसपास से गांव के लड़के आदि और भी उसी से दाढ़ी बनवाते थे, वो गांव भी आ जाया करता था दो बार हफ्ते में!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो वो चला आगे! करीब एक किलोमीटर चला होगा, कि उस मसूद ने सड़क के किनारे कुछ देखा, साइकिल रोक ली, और जब गौर से देखा, तो होश उड़े! उन लड़कों में से, तीन के सर वहीँ पड़े थे और उनकी लाशें सड़क किनारे झाड़ियों में पड़ी थीं! क्या करता वो, पड़ता हुआ कुछ, वो चला भगा कर अपनी साइकिल!
"ओह!" बोले शहरयार!
"फिर?" पूछा मैंने,
"वो अगले दिन आया और अपने साथ कुछ लोगों को लाया, वहां गया, लेकिन वहां तो कुछ हुआ ही नहीं था जैसे! न लाशें ही और न ही कोई सर! सोचा, पुलिस ले गयी होगी, लग जायेगी खबर, लेकिन कमाल ये, कि कोई खोज-खबर नहीं! कुछ नहीं हुआ, लेकिन मसूद डर गया था, उसने खोखा बन्द कर दिया, किसी ने खरीदा या नहीं, पता नहीं, फिर कभी खोखे पर नहीं आया, है, गांव आता रहा वो, अब उसका लड़का है, वो आ जाता है!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"आगे चलें?" बोले शहरयार,
"हां!" बोले वो,
"एक बात?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले पूरन जी,
"इस बार, मसूद के साथ, वो भागो भागो आवाज़ नहीं आयी?" पूछा मैंने,
"नहीं आयी!" बोले वो,
"वो जगह कहां है?" पूछा मैंने,
"आगे ही है!" बोले वो,
'आओ चलें फिर!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
और हम गाड़ी में बैठ गए, और चल पड़े अब आगे की तरफ! बातें करते रहे, इसी विषय पर, और तब, एक जगह गाड़ी रुकवा दी उन्होंने,
"यहां?" पूछा मैंने,
"यहां भाई साहब का एक्सीडेंट हुआ था जी..." बोले वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"क्या हुआ था? टक्कर?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं पता जी!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"गाड़ी में आग लग गयी होगी बाद में!" बोले वो,
"बाद में?" पूछा मैंने,
"बाद में?'' मैंने पूछा,
"हां जी!" बोले वो,
"नहीं समझा?" पूछा मैंने,
"वो गाडी से बाहर मिले थे" बोले वो,
"बाहर?" पूछा मैंने,
"हां" बोले वो,
''कहां बाहर?" पूछा मैंने,
"दिखाता हूँ!" बोले वो,
"उनकी गाड़ी यहां थी" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"और भाई साहब, वहां..." बोले वो,
"उधर?" पूछा मैंने,
''हां" बताया उन्होंने,
''और वो लड़का?" पूछा शहरयार जी ने,
"वो उधर" बोले वो,
"उधर?" मैं चौंक पड़ा!
"हां जी" बोले वो,
"गाड़ी एक तरफ लगाओ ज़रा?" कहा मैंने,
"अभी" बोले वो,
और गाड़ी एक तरफ लगा दी गयी, हम उतर आये! मैं वहां गया, जहां वो गाड़ी थी...
"वे कहां से आ रहे थे?" पूछा मैंने,
"उधर से" बोले वो,
"पूरब से?" पूछा मैंने,
"हां जी" बोले वो,
"गाड़ी का मुंह किधर था?" पूछा मैंने,
"उधर ही" बोले वो,
"पूरब में ही?" पूछा मैंने,
"हां जी" बोले वो,
"और कोई टक्कर नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"और भाई साहब, उधर?" बोला मैं,
"हां" बोले वो,
''करीब बीस फ़ीट!" बोला मैं,
"जी" बोले वो,
"इसका मतलब, भाई साहब खुद निकल आये थे?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, लेकिन उनका एक पांव टूट गया था" बोले वो,
"टूट गया था?" मैंने फिर से हैरत से पूछा,
"हां, दांया पांव" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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बड़े ही कमाल की बात? ऐसा भला कैसे सम्भव? गौर से देखा जाए तो इस कहानी में, कई होलझोल थे, पहले ये कि गाड़ी पूरब से आ रही थी, घटना के बाद, उसका मुंह पूरब की तरफ हुए मिला? चलो माना, लेकिन ऐसा किस हालत में होता? या तो कोई ज़बरदस्त टक्कर हुई हो? इस हालत में, उस गाड़ी के तो परखच्चे उड़ जाने चाहिए थे, जबकि उनके अनुसार ऐसा नहीं हुआ था? अगर माना जाए  कि ज़ोर से ब्रेक लगाए गए थे तो उसका भी कोई न कोई कारण तो रहा होगा!
चलो मान भी लिया जाए कि ऐसा हुआ, गाड़ी का मुंह पूरब में हुआ, और कोई टक्कर हुआ! हालांकि इसमें बहुत पुलिसिया होलझोल थ, उन पर कोई गौर नहीं किया गया थ! उनके भाई साहब, खुद ही गाड़ी से गाड़ी से कैसे उतर गए थे? किसी ने धक्का मारा था? या ऐसा कौन सा कारण था? मेरी तो समझ से बाहर थी ये बात तो!
अब दूसरी बात, गाड़ी का मुंह कैसे अपने आप पूरब की ओर घूम गया? किसी ने उठाया था? या गाड़ी किसी से बहुत ज़ोर से टकराई थी? अगर टकराई थी, वो जिस तरह की ये टक्कर थी, उसमे दूसरी गाड़ी के भी परखच्चे उड़ ही जाने चाहिए थे! नहीं भी उड़ते, तो भी वहां कुछ न कुछ नुकसान तो होता ही? यदि वो कोई बड़ा वाहन था, तो कौन सा था? और अगर होता तो उसकी चाल इतनी तेज तो नहीं होती? और उस टक्कर की आवाज़ तो, सच में ही सर को भिन्नाने वाली रही होगी! कुछ भी हो, मामला बड़ा ही अजीब और रहस्य से भरा था! 
"क्या लगता है?" पूछा शहरयार जी ने,
"मुझे तो समझ नहीं आ रहा!" कहा मैंने,
"भाई साहब?" वो बुलाते हुए बोले पूरन जी को,
वे आये आगे, उसी जगह को देखते हुए!
"क्या टक्कर रात को हुई थी?" पूछा मैंने,
"सुबह पता चला तो रात को ही हुई होगी?" बोले वो,
"कोई आवाज़ नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"तब क्या हुआ होगा? पूछा शहरयार जी ने,
"पता नहीं अभी तो!" कहा मैंने,
"कोई ताक़त तो नहीं?" बोले पूरन जी,
"कोई अहसास नहीं" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोले वो,
"एक बात पूछूँ?" बोले शहरयार,
"हाँ?" पूछा मैंने,
"वे जो मरे यहां, उन्होंने चिल्ला कर बोला कि भाग जाओ! भाग जाओ, इसका क्या मतलब हुआ?" पूछा मुझ से,
"हाँ, यहीं छिपा है उत्तर!" कहा मैंने,
"कोई ताक़त ऐसी?" बोले वो,
"वो क़ैद करेगी!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"अब?" बोले वो,
"उठाओ मिट्टी!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"अब कोई रास्ता नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
और उन्होंने, रुमाल में मिट्टी भर ली!
"इस से क्या जी?" बोले पूरन,
"पकड़!" कहा मैंने,
"पकड़?" बोले वो, हैरत से,
"निकालता हूँ पता!" कहा मैंने,
"शुक्र है, कुछ पता चले!" बोले वो,
"सुनो?" बोला मैं,
"जी?" बोले शहरयार!
"दो जगह की मिट्टी उठाओ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"एक यहां की और एक...!" कहा मैंने, कुछ सोचते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो हमने एक तो वहां की मिट्टी ले ली! ये ज़रूरी भी था, पकड़ के लिए स्थान की मिट्टी या कोई वस्तु आवश्यक हुआ करती है, अब शक्ति, जिसकी पकड़, लेनी है वो भला क्या है? ये तो एक जुआ खेलना सा ही होता है, इस निर्णय उस पकड़ को पकड़ने वाले के तज़ुर्बे पर ही निर्भर करता है! अब यहां जो मामला था, वो न सिर्फ अजीब ही था, बल्कि जानलेवा भी कब हो जाए कुछ पता नहीं! हमारे पास, कुछ था तो कुछ वाक़यात जो कुछ लोगों के साथ पेश आये थे, और कुछ नहीं! इसके अलावा कुछ भी नहीं!
"एक यहां की?" बोले शहरयार जी,
"नहीं" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"उधर, आगे!" कहा मैंने,
"ठीक" बोले वो,
और हम आगे चले और उस जगह आ गए, जिसे हम पश्चिम की हद कह सकते थे! गाड़ी रुकवा दी मैंने!
"यहां से?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं,
और वे उतर कर चले वहाँ, और झुके, मिट्टी लेने के लिए, मैंने तब तक आसपास नज़र भरी, और फिर से शहरयार जी को देखा! वे ज़मीन पर दोनों हाथ लगाए, रुमाल, एक तरफ रखे, पत्थर से बने बैठे थे! मैं फौरन ही दौड़ा उनके पास! और उनको देखा! जैसे ही हाथ लगाया मैंने, कि उनका बदन तपता हुआ था लगा मुझे, आँखें लाल, पथराई  हुई सी! मैं फौरन ही समझ गया, वो ज़रूर ही किसी लपेट में घिर गए हैं, मैंने फौरन ही एक मन्त्र पढ़ और उनके सर पर दो थाप दीं! थाप लगते ही उन्होंने झटके से खाये! अब तक पूरन जी भी चले आये थे, मैंने इशार से मना कर दिया उन्हें, वे वहीँ रुक गए!
"अब ठीक हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" सांस छोड़ते हुए बोले वो,
"पूरन जी?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"पानी लाओ ज़रा?" कहा मैंने,
पानी आया तो उन्हें पानी पिलाया, उठा कर, सहारा देकर, गाड़ी तक ले आया, और बिठाल दिया गाड़ी में, रुमाल ले आया था मैं साथ अपने!
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"पटना ही नहीं" बोले वो,
"कुछ तो?" पूछा मैंने,
"बदन में कन्धे जैसे जम गए थे मेरे, सांस रुकने लगी थी!" बोले वो,
"कुछ सुनाई भी दिया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
और रुमाल ले, मैं चल पड़ा उधर, झुका, आसपास देखा, कोई नहीं, नीचे बैठा और रुमाल में मिट्टी भर ली, अभी तक कुछ नहीं!
"आप ठीक हो?" बोले शहरयार,
"हाँ!" कहा मैंने,
मैं उठा और फिर से आसपास देखा, कुछ नहीं था! और लौटने लगा, जैसे ही लौट कि कानों में कुछ रेंगता  सा महसूस हुआ! मैं रुक गया वहां! आसपास देखा, कानों में खुजली सी हुई! खुजाया और तभी कुछ सुनाई दिया, पीछे पलटा मैं! बीयाबान! और उस बीयाबान में, वो एक संकरी सी सड़क! आसपास, पौधे लगे थे, पेड़ कहीं भी नहीं! तभी उस सड़क पर कुछ लोग से दिखे!
गौर से देखा, वे करीब दस रहे होंगे, रुके हुए, एक ही जगह! मैं आगे चल पड़ा!
"सुनो?" बोले वे दोनों, मेरे पीछे से,
"रुको?" कहा मैंने,
और आगे बढ़ता चला, वे लोग वहीँ के वहीँ खड़े रहे! एक जगह रुका मैं, वे सभी मर्द ही थे! एक ही कद-काठी के! एक से ही वस्त्र पहने! एक सी ही टोपी पहने, राजस्थानी टोपी पहने! मैं धीरे से आगे बढ़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मैं आगे बढ़ा, वो वहीँ खड़े रहे, और मैं उनके समीप आ गया! करीब दस फ़ीट! एक बड़ी ही अजीब बात थी! वे सब एक ही कद-काठी के, एक ही रूप के, एक ही छंटा के, वर्ण के थे! और एक एक कर वे सभी, लोप होते हुए चले गए! लोप होते और तेज सी गन्ध उठती! मैं उस गन्ध को पहचानने की कोशिश करता रहा और जब वक आखिरी बचा तो मैं चिल्लाया!
"सुनो?" बोला मैं,
वो मुड़ा और मुझे ही देखने लगा! अब एक और अजीब बात! आंखों की पुतलियाँ मुझे तो दुरंगी सी लगीं! पीली और काली सी! वो आगे चला और वो भी लोप हो गया! फिर से एक तेज सी गन्ध उठी! और इस बार मैं उस गन्ध को पहचान गया! ये तेज गुग्गल की गन्ध थी! गन्ध भी ऐसी कि पुराने से गुग्गल जैसी! लेकिन गुग्गल, ये सभी एक जैसे? आखिर इसका अर्थ क्या हुआ!
अचानक से दिमाग के कुएं में ज़ोर की सी आवाज़ हुई! एक जैसी कोई शख़्सियत कौन रखता है? दुरंगी सी आंखें क्यों और किसकी? जो बोला ही नहीं था वहां, उस समय, वो कौन था? अब कुछ आ रहा था समझ! उस गाड़ी से कुछ टकराया था! अवश्य ही टकराया था, होगा! अवश्य ही! जैसे उस सड़क के बीच में अचानक ही कोई पत्थर की दीवार प्रकट हो गयी हो! और ऐसा कौन कर सकता था? कोई प्रेत? सम्भव था! कोई जिन्न, सम्भव था! लेकिन इतना वीभत्स? ये सम्भव नहीं था! कर? कारण ये कि उनका उद्देश्य मारना तो होता लेकिन इस प्रकार से नहीं! तो इस प्रकार, क्या औचित्य था? यहां था उत्तर! औचित्य था, अपनी पहचान बताना! पहचान? भला किसको? इसके पीछे ही कोई कारण था! तभी शहरयार जी को वो कष्ट हुआ और मुझे कुछ दिखाई दिया! तो प्रश्न ये, कि ये है कौन? अब इसका उत्तर मैं जान गया था! ऐसा मैंने मध्य प्रदेश के एक स्थान पर देखा था, और ये थे चोण! अब ये भला कौन? इन्हें अलग अलग नाम से पुकारा जाता है! ये चोण एक प्रकार के देवता और देवी हैं! ये अति-क्रूर रक्षक हैं! ये रक्षण का कार्य करते हैं, कोई जोगी या कोई सिद्ध तांत्रिक इनको सिद्ध कर, किसी स्थान पर स्थापित कर सकता है, क़ैद कर सकता है, ये क़ैद, मियादी होती है, नौ सौ निन्यानवे वर्षों से अधिक की नहीं! ये सिरकटे होते हैं! अति-बली, इतने कि इनके क्षत्र का पहलवान, छलावा भी वो स्थान छोड़ देता है! इस बार जो सामना था, वो अत्यंत ही भयानक था!
मैं लौट तो पीछे देखा, ये शहरयार जी थे!
"क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"शायद मैं, जान गया हूँ!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
अब मैंने उन्हें सब बता दिया, वे भी चौंकते चले गए!
"यहां इनकी उपस्थिति?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई मन्दिर होता है इनका?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तब कैसे ढूंढोगे?" बोले वो,
"आज प्रयास करता हूँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" कहा मैंने,
और हम वापिस हो लिए!
"पूरन जी?" कहा मैंने,
"जी?" कहा उन्होंने,
"यहां से सिवाना कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"गाँव के बाहर है?" बोले वो,
"कुछ सामान चाहिए!" कहा मैंने,
"बाज़ार चलते हैं!" बोले वो,
"यह ठीक!" कहा मैंने,
और गाड़ी हमारी, बाज़ार की तरफ दौड़ पड़ी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम बाज़ार जा पहुंचे, अब जो भी सामान था वहां उपलब्ध, ले लिया था, ये काम सुजान के बस का नहीं था, इबु को भी दो दो हाथ करने पड़ जाते, तब तातार ही इसके लिए सही पड़ता था, लेकिन तातार और इबु के साथ मुसीबत ये थे, कि ये दो लमकाते! अर्थात, डोर छोड़ देते! कहने का मतलब, हम तक थाह मिल जाती उसे! अगर ये चोण ही थे, तब तो मामला, खुलेआम लड़ने-भिड़ने का ही था! चोण तो वैसे भी लड़ाके और रक्त-पसंदः सत्ता है! ये अच्छे से अच्छे के दांत खट्टे कर दें! यहां तो मैं महज़ कुछ ज्ञान की ढाल पर ही लड़ता उनसे!
"और कुछ?" बोले शहरयार,
"सब हो गया?" पूछा मैंने,
"जितना याद था!" बोले वो,
मैंने सामान देखा, सब ठीक ही था, हाँ, कुछ रहा था!
"पत्तल चाहियें!" कहा मैंने,
"ले लेते हैं!" बोले वो,
और उन्होंने एक बण्डल खरीद लिया! रख लिया सामान गाड़ी में! पानी पिया, प्याज की कचौड़ियां खायीं और फि चल दिए वापिस, घर पर आये तो कुछ सामान फ्रिज में रख दिया!
"सुनो?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"ये जो भी है, आप नहीं जानते इसे!" कहा मैंने,
"नाम ही नहीं सुना!" बोले वो,
"अब मेरे संग ही रहना वहां!" बोला मैं,
"हाँ!" बोले वो,
"एक पल भी अलग हुए तो आपदा पड़ जायेगी!" कहा मैंने,
"कैसे?'' बोले वो,
"मैं साथ होते हुए भी साथ नहीं होऊंगा!" बोला मैं,
"बाप रे!" बोले वो,
"हाँ, यही हैं चोण!" कहा मैंने,
"वैसे कोई इन्हें सिद्ध क्यों करेगा?" बोले वो,
"आप बताओ?" बोला मैं,
"बल?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"धन?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"रक्षण?" बोले वो,
"एक प्रकार से!" कहा मैंने,
"किस से?" पूछा उन्होंने,
"सुनो, गाँठ बाँध लो!" बोला मैं,
"जी?" बोले वो,
"कुल एक सौ इकसठ ऐसी विद्याएं हैं, जिनमे रक्षण चाहिए होता है!" कहा मैंने,
"जैसे, चेवाट?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"मृत्यु से भी नहीं!" कहा मैंने,
"फिर क्या?'' बोले वो,
"चोणल-भाटनी से!" कहा मैंने,
"बदल?" बोले वो,
"सही समझे!" कहा मैंने,
"बेहद ही....खतरनाक!" बोले वो,
"हाँ, बेहद!" कहा मैंने,
"भाटनी, माया न?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"समझा मैं!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो मैंने उनके कुछ प्रश्नों का उत्तर दे, समाधान किया! ये मामला बेहद ही अजीब तो था ही, बिना सूत्र वाला भी था! वे चोण ही हों, ये भी तो पता न था! अभी मेरी मनीष जी से बातें हुईं, उन्होंने इन्हें 'चीरा' कहा, उन्होंने बताया कि उस स्थान पर, कई चीरे घूमते रहते हैं, क्या दिन और क्या रात! ये सम्भव है! अधिक जानकारी के लिए मनीष जी से सम्पर्क कर सकते हैं आप सभी!
खैर, सांझ हुई, कुछ भोजन लिया, सामान लिया और तैयार हुए, मेरा बैग शहरयार जी ने ले लिया था, उन्हें मालूम था कि कौन सी वस्तु, कहाँ रखी गयी है!
"पूरन जी?" बोला मैं,
"जी?" बोले वो, हाथ पोंछते हुए,
"चलें क्या?" पूछा मैंने,
"जी चलो!" बोले वो,
"कृष्ण जी कहाँ हैं?" बोला मैं,
"आते ही होंगे!" बोले वो,
"आने दो फिर!" कहा मैंने,
"जी ठीक" बोले वो,
"आए सुनो?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी?" बोले वो,
"चाय-चूय ही बनवा लो?" बोले वो,
"अभी लो जी!" बोले वो,
और आवाज़ दी किसी को, एक लड़का आया, उस से चाय की कही और लड़का चला गया वहां से फिर!
कुछ ही देर में कृष्ण जी भी आ गए!
"राम राम जी!" बोले वो!
"राम जी की जय!" बोला मैं,
"आज तो ठंड बहुत है!" बोले वो,
"हाँ, सांझ से ही!" कहा मैंने,
"रस लोगे?" बोले वो,
"वहीँ पर!" कहा मैंने,
"अच्छा! ओ पूरन?" बोले वो,
"हाँ भाई साहब?" बोले पूरन,
"साथ में कुछ धर लेना? समझे?" बोले वो,
"समझ गया!" बोले वो,
"हाँ!" बोले वो,
"कोई कमरा-कुमरा बना है उधर?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी!" बोले पूरन,
"कोई रहता है?" पूछा मैंने,
"ना जी!" बोले वो,
"कोई तांत्रिक आ जाए तो रहता है!" बोले कृष्ण जी,
"अच्छा!" बोले शहरयार जी,
"लो जी" बोले पूरन जी,
चाय आ गयी थी, सो चाय पीने लगे हम फिर,
"सलाद रख लूँ?" बोले पूरन,
"काट के?" बोले वो,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"रख लो!" बोले कृष्ण जी,
वे बातें कर रहे थे, मैं कुछ सोच रहा था, सोच रहा था कि किस को भेजूं? खोजी तो जाए, लौटे ही न! इबु जाए तो पता नहीं क्या हो! तातार जाए तो कुछ बात बने! कम से कम, खबर तो निकले कुछ!             
तो तार ही जाएगा! बहुत दिन हुए! तातार आया नहीं बाहर! आज आये तो देखें!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो हमने तातार का भोग रख लिया संग अपने! उसको ही जाना था तो उसके लिए ही भोग भी लिया गया था! शेष कुछ अपने लिए भी था, लेकिन अभी तो तातार का काम ही पहले था! तातार और इबु जैसे खबीस कभी सिवाने या श्मशान में नहीं उतरा करते, वे इन्हें अपने लिए योग भूमि या स्थान नहीं कहते!
तो हम वहां पहुंच गए, साथ में दो टोर्च भी ले आये थे, घुप्प अंधेरा था! कोहरा छन-छन कर ज़मीन को चूम रहा था! धुंए के गुबार से उठ रहे थे! हवा में नमी ही नमी थी! बाहर कोई आये गाड़ी से तो पल भर में ही गीला सा हो जाए! और नज़र? कुछ भी नहीं! गाड़ी के रौशनी बस, कुछ ही मीटर दूर जा कर, जैसे वापिस लौट आती थी! सर्दी का नँगा नाच हो, कहा जा सकता था! और सर्दी को भी बुरा नहीं लगता ऐसे सुनते हुए! तो हम चारों गाड़ी से उत्तर गए, बत्तियां चालू ही रखीं, टोर्च जला ली थीं!
"कहाँ से है रास्ता?" पूछा मैंने,
"गाड़ी ले जाऊं?" बोले वो,
"जा सकती है?'' पूछा मैंने,
"अब जहां तक चले?" बोले कृष्ण जी,
"चलो फिर" कहा मैंने,
पूरन जी पैदल चले और शहरयार जी ने स्टीयरिंग-व्हील थम लिया, मन्द मन्द, खण्ड-खण्ड से आगे बढ़ते चले गए! और गाड़ी एक जगह पर आ कर रुक गयी! अन्धकार था यहां! कोई चिता नहीं! यमपुरी से किसी का बुलावा नहीं आया था उस रोज!
"उधर क्या है?" पूछा मैंने,
"कमरा" बोले कृष्ण जी,
"चलो?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
हम उधर के लिए चले, छोटे छोटे से पीपल के से पेड़ लगे थे, एक बड़ा सा पेड़ भी था, उसके नीचे ही लगे थे ये पौधे!
"ये रहा!" बोले वो,
"ये टोर्च दिखाओ?" कहा मैंने,
"लो" बोले कृष्ण जी,
अब मैंने आसपास देखा, घुप्प अन्धकार ही था, नज़र कैसे आये भला कुछ!
"हाँ?" बोला मैं,
"जी?" बोले शहरयार जी,
"उधर देखना?" कहा मैंने,
"उतारने को?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"आया अभी!" बोले वो, और टोर्च पकड़, चल पड़े उधर!
"ये क्या ले आये?" मैंने मुस्कुराते हुए पूछा!
"हण्डा है जी!" बोले वो,
"ये बढ़िया किया साहब!" कहा मैंने,
"कम से कम बुझेगा तो नहीं?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और उधर ही, एक जगह, बिछाये टाट के से गड्ढे पर बैठ गए हम! हवा से राहत मिली तो चैन सा मिला!
"गुरु जी?" बोले शहरयार!
आ चुके थे उधर!
"हाँ?" कहा मैंने,
"है जगह!" बोले वो,
"साफ़?" कहा मैंने,
"क़तई!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम सामान उठा, साथ साथ चले, मैंने गुरु-नमन कर लिया था, उस स्थानाधिपति प्रेतादिगण से आज्ञा ली! सामान निकाल लिया! और रख दिया एक जगह!
"मैं हटूं?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
और टोर्च एक जगह फंसा कर, लौट गए वो!
वे गए तो मैंने कोर्निश की! और पढ़ दिया रुक्का-शाही, तातार का! रुक्का जैसे ही पढ़ा, भारी-भरकम लोहे की सी आवाज़ हुई! तेज सी साँसें उभर चली और ठीक सामने ही, वो तातार, सिपाहसालार मुस्तैद हुआ! मुस्कुराया! अब मैंने उस से बातें कीं और बता दिया उद्देश्य! उद्देश्य जान, तातार झम्म से लोप हुआ, उसके लोप होते ही, भोग का सारा सामान, भक्क से गायब हो गया!
उड़ चला था तातार! अब करना था इंतज़ार! कुछ ही वक़्त बीता कि तातार फिर से हाज़िर हुआ, जवाब दिया और लोप हुआ! अब जो मैंने जाना, उसे जानकर तो मैं भी भौंचक्का रह गया! ये सच में ही चोण थे! ये चोण दो थे, एक मर्द और एक स्त्री! क्यों थे यहां? ये जान लिया था मैंने! और मैं, लौट चला, टोर्च उठायी, और लौट पड़ा, आया कमरे तक, हण्डा जल रहा था, मुझे देखते ही, शहरयार जी खड़े हो गए!
"आओ!" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब सभी शांत हो गए थे, कोहरा भी जैसे उछलते हुए, उसी कमरे में आ कर हमारे साथ आ बैठा था! मैंने जगह देखी और वहीँ बैठ गया! पूरा गद्दा सा ऐसा गीला सा लगा कि जैसे बारिश से उठा कर, यहीं रख दिया गया हो!
"कुछ पता चला?" पूछा शहरयार जी ने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये भर लूँ?" बोले कृष्ण जी,
"हाँ, कहीं कोई आएगा तो नहीं यहां?" पूछा मैंने,
"बीस फर्लांग से ही कोई देख नहीं पा रहा होगा, आएगा कोई कैसे!" बोले वो,
"हाँ, सही कहा!" कहा मैंने,
"हाँ गुरु जी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, ये चोण ही हैं!" कहा मैंने,
"चनावल?" बोले पूरन जी,
"हाँ वही!" कहा मैंने,
"ओह..." बोले शहरयार जी,
"कुछ पूछूँ?" बोला मैं,
"हाँ, क्यों नहीं?" बोले कृष्ण जी,
"यहां कोई पुराना मन्दिर है?" पूछा मैंने,
"मन्दिर?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नहीं जी, कृष्ण?" बोले वो,
"नहीं जी" बोले वो,
"कोई स्थान या आश्रम?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोले दोनों,
"कोई तालाब-तलैय्या?" पूछा मैंने,
'दूर दूर तक नहीं!" बोले वो,
"आसपास कहीं भी?" पूछा मैंने,
"ये भी मुसीबत!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
और जाम बन गए, भूमि भोग दिया, मसान-भोग भी और फिर शुरू हुए हम!
"दोबारा नहीं उतरे?" बोले शहरयार जी,
"कल तक" कहा मैंने,
"ओहो!" बोले वो,
"अब एक काम हो सकता है!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"इबु उतरे!" कहा मैंने,
"अभी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
'' रुको" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई मुसीबत न हो?" बोले वो,
"नहीं होनी चाहिए!" कहा मैंने,
"फिर देख लो?" बोले वो,
"एक काम न करें?" बोला मैं,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"सुबह न भेजें?" बोला मैं,
"जैसी राजी!" बोले वो,
"सुबह ठीक!" कहा मैंने,
और तभी जैसे वहां कोई कूदा! सभी चौबस्त! गुंथ से गए एक-दूसरे में! मैंने बाहर कान लगाए!
"कुछ सुना?" पूछा मैंने,
"नहीं" फुसफुसा के बोले शहरयार जी,
"आओ?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
"आप दोनों यहीं रहो!" कहा मैंने,
"ज..जी" बोले वे दोनों,
और हम बाहर चले आये! टोर्च की रौशनी डाली एक जगह! कुछ भी नहीं था, ज़मीन देखी, कोई निशान नहीं!
"कोई जानवर?" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"क्या करें?" पूछा उन्होंने,
मैं चुप हुआ, थोड़ा सा आगे चला!
"कौन है?" मैंने पूछा,
कोई उत्तर नहीं मिला!
"कोई है?" पूछा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
कुछ पल खड़े रहे हम!
"आओ!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आओ, वापिस चलें!" कहा मैंने,
"कोई जानवर ही रहा हो?" बोले वो,
"हाँ, हो सकता है!" बोला मैं,
और हम वापिस हो गए! अंदर वे दोनों सिमट कर बैठे हुए थे, आवाज़, बस हंडे के जलने की ही आ रही थी! ठंड का समय था, लेकिन फिर भी कुछ दिवाभ्रम से ग्रस्त कीड़े और मकौड़े आ ही पहुंचे थे! उस हंडे के कांच पर, खनन-खनन की आवाज़ आती थी उनके टकराने से! पूरन जी ने, हाथ से एक तरफ सन्केर दिए थे!
"क्या था?" पूछा कृष्ण जी ने,
"पता नहीं!" बोला मैं,
"कोई जानवर रहा होगा!" कहा शहरयार जी ने,
"इतना बड़ा तो कोई जानवर नहीं यहां!" कहा उन्होंने,
"कोई सांड या गाय?" पूछा मैंने,
"ये हो सकता है!" बोले वो,
और हमने दूसरा गिलास खाली कर लिया, पन्नी से निकाल कर, गाजर के टुकड़े निकाल लिए और चबाने लगे!
"धम्म!"
आवाज़ फिर से हुई!
अब तो हम सब चौंके! ये आवाज़ कुछ ऐसी थी कि जैसे किसी ने उस कमरे की दीवार पर कुछ दे मारा हो! या जैसे किसी सांड ने सर झुंझला कर दे मारा हो!
"ये क्या है?" बोले पूरन जी,
"रुको!" कहा मैंने,
और हो गए हम सभी शांत! सुनने लगे, अजीब अजीब सी आवाज़ें आने लगी थीं! कोई पेड़ हिल रहा हो, ऐसा लगता था!
"आना?" कहा मैंने,
"चलो!" बोले शहरयार जी,
हम बाहर आये और छत पर रौशनी मारी! छत पर तो कुछ भी न था! हाँ, छत के पीछे की तरफ से कुछ रौशनी आ रही थी!
'आओ?" बोला मैं,
और हम उस कमरे के पीछे चले! रौशनी थी वहां, जैसे अलाव जलाया गया हो उधर!
"कोई है?" पूछा मैंने,
"हाँ?" आयी आवाज़,
"कौन हो?" बोला मैं,
"आ जाओ?" आयी आवाज़,
"आना ज़रा?" बोला मैं,
''चलिए!" बोले वो,
और हम आगे बढ़ चले, अलाव पास आता चला गया!
"जय जय राधे!" आयी आवाज़,
"राधे राधे!" बोला मैं,
"आ जाओ!" बोला एक आदमी, कम्बल में घुसड़ कर देख रहा था हमें, संग उसके, एक आदमी और था!
"कौन?" पूछा मैंने,
"भोपा हैं जी!" बोला वही,
"क्या कर रहे हो?" पूछा मैंने,
"पूजा!" बोला वो,
"ओझा हो!" बोला मैं,
"ना! भोपा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
'और जी आप?" बोला वो,
"ओझा!" बोला मैं,
"कहाँ के?" पूछा उसने,
"दूर के हैं!" कहा मैंने,
"किसी मामले में आये होंगे?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोले शहरयार,
"हाँ जी?" बोला वो,
"यहां चोण हैं?" पूछा उन्होंने,
"कौन?" पूछा उसने,
"चोण!" कहा मैंने,
"ये क्या होते हैं?" बोला वो,
"आओ, खड़े हो!" कहा मैंने,
"बैठो?" बोला वो ओझा!
"बाद में!" कहा मैंने,
"मन्दिर में हो?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रात बीतेगी?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आएंगे हम!" बोला वो,
"आ जाना!" कहा मैंने,
और हम लौट चले!
"ये तो मदारी हैं!" बोले शहरयार!
"हाँ, काहे वक़्त गंवाएं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस तरह हम वापिस कमरे में आ गए! आये और बैठ गए! हमें देख, उन्हें भी सुकून हुआ! देखा जाए तो अकेला आदमी तो वहां मारे भय के ही सुबह न देख सके! सुनसान, घुप्प अँधेरा और बीयाबान सा क्षेत्र! आदमी चिल्ला के भी पुकारे तो कोई सुन न पाए! हाँ, जंगली जानवर भले ही सुन ले! उस कमरे में तो दरवाज़ा भी नहीं था! चौड़े में आये कोई और चौड़े में ही जाए! या फिर उन जैसे ओझे ही मिलें उधर, जो अलाव जलाकर वहाँ पूजा करें! उन्हें देख, और प्राण चले जाएँ!
"कौन था?" पूछा कृष्ण जी ने,
"ओझे हैं!" कहा मैंने,
"भोपा?" बोले वो,
"हाँ, मानो!" कहा मैंने,
और फिर से तीसरा गिलास खाली कर दिया! अब गर्मी सी दौड़ने लगी थी शरीर में, कम से कम उस ठंडी रात में तो!
"चलें?" बोले शहरयार जी,
"और क्या करना है?" कहा मैंने,
"चलो फिर, निकलो!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
सामान उठाया गया और हम चल पड़े बाहर की तरफ! आज पुष्टि तो हो गयी थी, कृष्ण जी और पूरन, आपस में बतिया रहे थे!
'आपने मन्दिर पूछा था न?" बोले कृष्ण,
"हाँ?" कहा मैंने,
"लेकिन वो खण्डहर है अब!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कहाँ है?" पूछा शहरयार जी ने,
"है तो दूर ही" बोले वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"गाँव से कोई पांच-छह किलोमीटर?" बोले कृष्ण,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बड़ा है?" पूछा शहरयार जी ने,
"बड़ा तो नहीं है" बोले वो,
"कल दिखाइए?" कहा मैंने,
"ज़रूर!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हमारी गाड़ी, सरपट दौड़ पड़ी वापिस! बातें करते करते हम गाँव लौट आये! आये तो बिस्तर लगा मिला, हाथ-मुंह धोये और फिर भोजन भी लग गया! भोजन किया और फिर सो गए!
अगले दिन ग्यारह बजे दिन में....
"कोहरा तो है?" कहा मैंने,
"छंट जाएगा!" बोले पूरन,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम दौड़ पड़े गाड़ी में!
"कितना पुराना मन्दिर है?" पूछा मैंने,
"बहुत पुराना!" बोले पूरन जी,
"किसका है?" पूछा मैंने,
"अब तो टूट-फाट गया!" बोले वो,
"काफी पुराना मतलब!" कहा मैंने,
"हाँ जी" बोले वे दोनों,
चल तो रहे ही हैं!" बोले शहरयार जी,
और हम वहाँ पहुंच गए! सड़क से नीचे की तरफ एक खण्डहर बना था, बेहद ही पुराना, कम से कम चार सौ साल पुराना!
"इसका तो कुछ नहीं बचा!" बोले शहरयार,
"आओ, देखते हैं!" कहा मैंने,
अब मैंने मन्दिर देखा, ये हिन्दू-मन्दिर ही था, लाल रंग के पत्थरों का बना हुआ, लेकिन अब सिर्फ पत्थर ही पत्थर बचे थे, और कुछ भी नहीं!
"बहुत पुराना है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वे दोनों,
"उधर आना?" बोला मैं,
"चलो!" बोले वो,
हम उधर आये, फर्श के स्थान पर बड़े बड़े पत्थर लगे थे, टूटे हुए! कोई पूजन स्थान नहीं शेष था उधर!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"उड़े देखो?" बोले वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"देखो?" बोले वो,
"स्तम्भ?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो?" कहा मैंने,
"कुछ अजीब तो नहीं?" कहा उन्होंने,
"कैसे?" पूछा मैंने,
''आओ, दिखाता हूँ!" बोले वो,
और मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे आगे चले और मैं उनके पीछे, और आ गए एक जगह, ये समतल सी ज़मीन थी, कोई खण्डहर या उसका कोई भाग हैं था यहां, हाँ दो स्तम्भ वहां लगे थे, के नाटे से, गोल और काफी मज़बूत थे!
"ये देखो?" बोले वो,
मैंने नीचे देखा उन स्तम्भों के, उधर दो गड्ढे से बने थे, लगता था जैसे कि वहां कोई चबूतरा सा बना हुआ हो, जो अब वक़्त के साथ मटियामेट हो गया हो!
"क्या विशेष?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है?" बोले वो,
"ख़ास तो कुछ नहीं?" कहा मैंने,
"ये देखो आप!" बोले वो,
"चबूतरा होगा यहां!" कहा मैंने,
"और इधर, बीच में?" पूछा उन्होंने,
अब मैंने उधर देखा! सच में, गौर करने वाली बात तो थी, बीच में स्तम्भ हो, ऐसा तो  नहीं लगता था लेकिन था कुछ अजीब सा ही!
"क्या हो सकता है ये?" बोला मैं,
"क्या कोई गोल सा निर्माण नहीं?" बोले वो,
मैं आगे गया और उधर खड़ा हो कर देखा, सच में, वो स्तम्भ और मध्य के गड्ढे, सभी मिलकर, एक गोल सा निर्माण बनाते थे!
"हाँ, सच कहा!" बोले वो,
"ये क्या हो सकता है?" बोले वो,
"कोई बड़ा सा गोल चबूतरा?" बोला मैं,
"किसलिए?" बोले वो,
"शायद पूजन हेतु?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उधर बीच में भी गड्ढा है!" बोले वो,
"देखा मैंने!" कहा मैंने,
'अब आप जाँच कर लो?" बोले वो,
"देख लूँ!" कहा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोले वो,
एक जगह हम रुके, मन्दिर को देखा, कुछ सोचा,
"यदि मुख पूरब में है इसका तो इधर होना चाहिए?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इसका मतलब ये, जगह पश्चिम में हुई?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इसका मतलब?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"ये मन्दिर नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"कैसे??'' बोले वो,
''मन्दिर, पुराने अक्सर पूरब से आरम्भ होते हैं और मध्य में गर्भ-गृह पश्चात, समाप्त हो जाते हैं! उनके पीछे कोई निर्माण नहीं होता!" कहा मैंने,
"तब तो नहीं है!" बोले वो,
"हाँ, और वो जो निशान हैं, स्तम्भ में?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"शायद मशाल के लिए हों!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"तो ये जगह खाली?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब हुई मुश्किल!" बोले वो,
"सो तो है!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
और हम लौट चले वापिस!
"चलो!" कहा मैंने,
आ गए हम गाड़ी तक! पानी पिया उधर!
"कुछ हाथ आया?" पूछा पूरन जी ने,
"ना!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"चलो ज़रा आगे!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम आगे बढ़ चले! दी ही अजीब समस्या थी, किया जाए तो क्या? कोई सूत्र हाथ नहीं! वैसे ही जैसे किसी छलावे को ढूंढने के लिए निकले हों! हम आगे आगे और छलावा पीछे पीछे! ये मामला भी कुछ ऐसा ही था, छलावा पहलवान किसी की हत्या नहीं करता, हाँ, देह तोड़ देता है, अब चोटों के कारण मौत हो जाए तो अलग बात, और अगर प्रसन्न हो जाए तो कोई चोट बाकी नहीं रहती, देह में जान बढ़ जाती है! कभी-कभार, धन भी दे दिया करता है! मैंने छलावे का दिया धन देखा है, ये रोड़े से, कंकड़ से होते हैं, पिघलाने पर सोना बन जाता है! ये है छलावा पहलवान!
''कहाँ चलें?" बोले शहरयार जी,
"एक मिनट!" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"कोई खबर नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, अब?" बोले वो,
"अब, यहां कुछ न कुछ तो करना होगा!" कहा मैंने,
"खोजी?" बोले वो,
"नहीं!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उन्होंने.
"फ़ातिमा बी की सवारी!" बोला मैं,
"यहां?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"किसी साफ़ जगह!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"पूरन जी?" बोले वो,
"जी?" बोले वो,
"गाड़ी किसी बाग़ की तरफ लो?" बोले वो,
"बाग़?" बोले वो,
"अरे हाँ! कोई बगीचा?" बोले वो,
"एक जगह है!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहीं पास में!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
"वैसे जी?" बोले कृष्ण,
"हाँ?" कहा मैंने,
"ये फ़ातिमा बी कौन हैं?"
"खोज-खबर, चोरी-चकारी जानने के लिए फ़ातिमा बी की सवारी निकाली जाती है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"इनका नाम बड़ी इज़्ज़त के साथ लिया जाता है!" बोले शहरयार जी!
"क्यों नहीं जी!" बोले वो,
और गाड़ी एक जगह मुड़ गयी! आसपास हरियाली सी थी वहां!
"यहां कोई नहर है?" पूछा मैंने,
"बरसाती नदी है!" बोले वो,
"पानी है?" पूछा मैंने,
"अक्सर रहता है!" बोले वो,
"ये तो बढ़िया है!" कहा मैंने,
''हाँ जी, मवेशी लाये जाते हैं यहां!" बोले वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
"शहरयार जी?" बोले कृष्ण जी,
"हाँ साहब?" बोले वो,
"जगह बता देना?" बोले वो,
"देख रहा हूँ!" बोले वो,
"रास्ता बड़ा ही खराब है!" कहा मैंने,
"कोई आता जाता है नहीं यहां!" बोले वो,
"कोई गाँव आदि नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"रुको एक मिनट?" बोले शहरयार जी,
मैंने भी उधर देखा, बड़ी ही बढ़िया जगह थी!
"वो पिलखन के पास?" बोले वो,
"देख कर आओ?" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
और उतर गए गाड़ी से वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे चले गए थे एक तरफ! वो जगह सच में ही शानदार थी! उस बीहड़ में आसरा देती कुछ बनैले पशुओं को, कुछ परिंदों को, और कुछ पानी के परिंदों को! उनकी तेज तेज आवाज़, इस बीहड़ में से कुछ चुप्पी हर बार बाहर निकाल कर फेंकती हो जैसे! हमारे पास ही एक जंगली पेड़ लगा था, अर्जुन का सा पेड़ था वो, उस पर एक जंगली लता चढ़ी हुई थी, उसी पेड़ पर, कुछ परिंदे बैठे हुए थे, छोटे छोटे से, लेकिन उनकी आवाज़ ऐसी तेज कि जैसे चिल्ला रहे हों! कुछ जंगली कौवे भी थे, वे थे तो इसका मतलब जल में जीवन था, मछली आदि रही होगी!
"हाँ जी?" आयी आवाज़,
"हाँ?" कहा मैंने,
"आओ ज़रा?" बोले वो,
"आता हूँ!" कहा मैंने,
और चल पड़ा उधर, ये जगह साफ़-सुथरी हो हरी-भरी थी! घास उगी हुई थी! कुछ जंगली पीले फूल भी खिले थे उधर!
"ये देखो?" बोले वो,
"हाँ, ठीक है!" कहा मैंने,
"पानी लाऊं?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वे गए और मैंने मुआयना किया जगह का!
"ये लो!" बोले वो,
अब मैंने हाथ-मुंह धोये, और उस जगह पर कुछ मन्त्र पढ़े! फिर अपना रुमाल निकाल कर सर पर बाँध लिया, दो बड़े से पत्ते तोड़े और उस जगह, एक-दूसरे पर रख दिए!
"आप जाओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और वे चले वापिस, मैंने उस जगह का एक बार फिर से मुआयना किया, सूक्ष्मता से जांच की, और तब इत्मिनान हुआ! तब मैंने मन्त्र पढ़ने आरम्भ किये, इसमें एक और महाशक्ति का नाम लिया जाता है! उनकी शक्ति अचूक एवं अमोघ होती है!
तब मैंने आँखें बन्द कीं! सामने, अब कुछ न दीख रहा था, अन्धकार ही था! तभी, जैसे सूरज ऊगा और एक महल सा दिखने लगा! उस महल का एक कमर दिखा, कमरे के बीच में एक बड़ा सा फव्वारा और दीवारों पर, गुलाबी रंगों के बड़े बड़े पर्दे! तेज महक आने लगी थी वहां, गुलाब इतर की!
और सहसा ही कुछ पदचाप हुई! कोई आ रहा था, वो आया तो देखा, छह पालकीवान थे वो, दो, पालकीसाज, दो नौला जो पीछे चलते आ रहे थे! ये नौला, हाथ में चंद्रासि-तेग लिए हुए थे! वो पालकी रुकी! और एक आदमी पलट कर मेरी तरफ हुआ!
"सलाम!" कहा मैंने,
"सलाम!" बोला वो,
"एक अर्ज़ी है!" कहा मैंने,
"मामूल क्या है?" पूछा उसने,
"खोज है" कहा मैंने,
"अइनी?" बोला वो,
"गइनी!" कहा मैंने,
"ग़ैबज़?" पूछा उसने,
"जी" कहा मैंने,
"यहीं?" बोला वो,
"जी!" कहा मैंने,
वो पलटा और पालकी तक गया! बातें कीं और फिर से लौटा!
"चरख! शहीद!" बोला वो,
"शुक्रिया!" कहा मैंने,
"बहत्तर अर्फ!" बोला वो,
"जानिब?" बोला मैं,
"मग़रिब!" बोला वो,
"जी!" कहा मैंने,
"और सुलेहा?" बोला वो,
"काफी है!" कहा मैंने,
"बेहतर है!" बोला वो,
और परचनामा मोड़ा उसने, और चल पड़ा आगे पाकी के! नौला, आगे बढ़ चले! मेरी आँखें खुलीं तो अपने वक़्त में आ पहुंचा!
मैं उठा, कोर्निश किया और लौटने लगा वापिस!
"हुआ?" मिले शहरयार जी उधर ही,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मिला?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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"सच में?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, सच में!" बोला मैं,
"क्या है ये?" पूछा उन्होंने,
"वही!" कहा मैंने,
"चोण?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या हैं ये?" पूछा उन्होंने,
"हैं तो शहीद!" कहा मैंने,
"शहीद?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भला ये कैसे शहीद?" बोले वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
और मैं आगे गाड़ी में जा बैठा, वे भी आ गए! बाकी वे दोनों भी अचरज से देखते रहे मुझे!
"आप जानते हैं, पहले यहां यहां युद्ध लड़े जाते थे?" कहा मैंने,
"हाँ, मशहूर है!" बोले वो,
"छोटी छोटी रियासतें कभी कभी बड़ी रियासत की सेना जा जा भिड़ती थीं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"तब कुछ रियासतें बच गयी थीं, क्यों?" पूछा मैंने,
"युद्ध-कौशल?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"यहां कुछ मारण देव होते हैं! ये मृत्यु-देव होते हैं! ये लोक-देवता हैं देवियाँ हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"इनका कार्य मात्र मारण ही है!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
"अब कोई सिद्ध तांत्रिक, यदि किसी सैनिक में, इन मारण देव को उतार दे तो आप समझ सकते हो!" कहा मैंने,
"अब समझा!" बोले वो,
"तो जो, मरा, वो मरा नहीं, हाँ यदि, कर्म हुआ तो शांत हुआ, जो जुझारू रहा और तब मरा, तब वो मारण समेत चोण हो गया!" कहा मैंने,
"अरे बाप रे!" बोले पूरन जी!
"अब इनके सामने जो आया, सर उतार देंगे उसका ये!" कहा मैंने,
"और यही हुआ है यहां!" बोले पूरन!
"हो रहा है!" कहा मैंने,
"और वो बोलना?" बोले वो,
"वो चेतना है!" कहा मैंने,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"ललकार!" बोला मैं,
"ललकार?" बोले वो,
"हाँ? कोई हो, तो आये?" बोले वो,
"मददगार!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बाद ही खतरनाक हैं!" बोले कृष्ण जी,
"हाँ, निर्दयी!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोले वो,
"सामने आये तो कोई न बचे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और इनका ठौर यहां?" पूछा उन्होंने,
"करीब तीस किलोमीटर दूर!" कहा मैंने,
"किस तरफ?" बोले वो,
"दक्षिण!" कहा मैंने,
"दक्षिण?" चौंके पूरन,
"दक्षिण में?" बोले कृष्ण,
"हाँ?" कहा मैंने,
"मेला भरता है कोई?" पूछा उन्होंने,
"ये नहीं पता!" कहा मैंने,
"भरता होगा!" बोले वो,
"कुछ है वहां?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"अभी चलोगे?" बोले वो,
"चलो?" कहा मैंने,
"और क्या? चलो?" बोले शहरयार जी!


   
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