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वर्ष २०१३, रात को जागता वो रास्ता! भयावह और रहस्यमय!

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श्रीशः उपदंडक
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 उस समय रात के कोई साढ़े आठ या पौने नौ का वक़्त रहा होगा, शहरयार जी मेरे साथ ही बैठे थे, उस बड़े से हॉल से कमरे में कुल दस या बारह लोग बैठे थे, सर्दी का मौसम था, गुलाबी ठंड पड़ रही थी! हम नीचे ही, बड़े से गद्दे पर बैठे हुए थे, एक कम्बल और एक जयपुरी रजाई में मैं घुसा बैठा था! वो हॉल जो था, वो काफी पुराना रहा होगा, कम से कम मानो तो पचास बरस की उम्र रही होगी! उसमे पत्थर की जालियां लगी थीं, उन पर अब बड़े से पर्दे डाले गए थे! अंदर और भी गद्दे पड़े थे, हम दरअसल किसी मामले की जांच करने आये थे, शहरयार जी ने पूरे महीने, दौड़ दौड़ कुछ जानकारियां जुटाई थीं! जब कुछ बातों के सवाल उठ खड़े हुए और जब उनका उत्तर नहीं मिला, कोई सटीक सा जवाब नहीं मिला तब मेरे भी कानों पर जूं रेंगी! तो इसी सिलसिले में हम यहां तक चले आये थे! जिनके कहने पर हम यहां तक चले आये थे, वे दोनों ही सरकारी नौकर थे, ज़िम्मेदार पदों पर कार्यरत थे, वे कुछ भी झूठ बोलें या कुछ बढ़ा-चढ़ा कर बताएं, ऐसा भी नहीं था! और सबसे बड़ी और दुःख की बात, कि कृष्ण जी के बड़े भाई साहब की मौत हो गयी थी, उसी रास्ते पर, सर अलग पड़ा था, भतीजा बेहोश था, बाद में वो भी नहीं बच पाया था, जिस से कोई मदद मिल सके..कृष्ण जी, इन सब का ज़िम्मेवार उसी रास्ते को मानते थे, अब उस रास्ते का रहस्य था क्या? यही सब जानने हम यहां चले आये थे, तब मैंने सभी उन लोगों से पूछताछ की, जिनका साबक़ा इस रास्ते से पड़ा हो!
"लो जी, चाय लीजिये!" बोले पूरन,
"हाँ, सर्दी में चाय ही काम आये!" कहा मैंने,
"यहां तो होती भी ज़्यादा है!" बोले वो,
"खुला है न!" बोले शहरयार जी,
"हाँ, तापमान पूछो ही मत!" बोले कृष्ण जी,
"चल रहा है पता!" कहा मैंने,
चाय की चुस्कियां ली गयीं!
"ये रास्ता यहां से कहां पड़ता है?'' पूछा शहरयार जी ने,
"कोई है इधर, दो किलोमीटर!" बोले पूरन,
"अक्सर होता है वहां ऐसा?" पूछा मैंने,
"कई साल से ऐसा हो रहा है!" बोले वो,
"कितना?" पूछा शहरयार जी ने,
"कोई चार साल तो हुए होंगे? क्यों?" पूछा कृष्ण से,
"हाँ, इतना ही मान लो!" बोले वो,
"रास्ता चलता हुआ है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तो साल के इसी वक़्त ऐसा होता है?" पूछा मैंने,
"ज़्यादातर!" बोले वो,
"किसी ने देखा था, आपने बताया था?" पूछा मैंने,
"हाँ, सुधीर ने!" बोले वो,
"कहां है सुधीर?" पूछा मैंने,
"ओ, बुला के ला ज़रा?" बोले एक युवक से,
युवक उठा, खेस सही से लपेटा और चला बाहर, बाहर गया था बुलाने वो!
"क्या करता है ये सुधीर?" पूछा मैंने,
"अपना टेम्पो है" बोले वो,
"खुद ही चलाता है?'' पूछा मैंने,
"कभी कभी भाई भी" बोले वो,
"अच्छा! सामान आदि ढोता होगा?'' कहा मैंने,
"हाँ जी, कर लेता है गुजर-बसर!" बोला वो,
"यहीं रहता है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
चाय ख़तम की और रख दिए कप एक तरफ! रजाई ठीक की, और पांव पसार लिए! और तभी सामने से, एक मंझोले कद का आदमी अंदर चला आया, नमस्ते करता हुआ, जो बुलाने गया था उसे, वो नहीं आया!
"आ सुधीर!" बोले कृष्ण,
"आ गया जी!" बोला वो,
"बैठ यहां!" बोले वो,
और सुधीर वहीँ बैठ गया, रजाई में घुस गया, ठंड सच में ही बहुत ज़्यादा थी उस दिन!
"अरे वो, जो तूने देखा था उस रात सड़क पर, वो बता ज़रा?" बोले वो,
"हाँ जी, देखा था!" बोला वो,
"बता फिर?" बोले वो,
"उस दिन एकादशी थी, दिवाली आने वाली थी और तैयारियां चल रही थीं एक जगह, कुछ पारिवारिक-आयोजन था, मुझे, आटे, चावल आदि की बोरियां वहाँ पहुंचाने के लिए कहा गया था, मैं चल पड़ा था, मुझे दो चक्कर लगाने पड़े थे, वो जो दूसरा टेम्पो था, उसमे कुछ गड़बड़ हो गयी थी, वो उस दिन चल नहीं सकता था, तो मैं सामान छोड़ कर, भोजन करके, उन्होंने बनवा ही रखा था, रात को चला वहां से!" बोला वो,
"एकादशी को?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"कितने बजे चले?" पूछा मैंने,
"कोई साढ़े नौ बजे" बोला वो,
"रात को?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"वो जगह यहां से, कितनी दूर पड़ेगी?" पूछा मैंने,
"करीब, साफ़ रास्ते से जाएँ तो, बारह या चौदह किलोमीटर" बोला वो,
"अच्छा, तो तुम अकेले ही लौटे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"जी, जिस समय मैं चला यही कोई साढ़े नौ बजे होंगे, त्यौहार आने ही वाला था, जगमग हो रही थी हर जगह! बाज़ारों में रौनक थी और देर तक खुल भी रहे थे! तो मैं चल दिया, उस रास्ते से तो मैं रोज ही गुजरता हूँ, चालीस साल हुए, ये पहले कच्चा रास्ता था, अब पक्का हो गया है, गांव भी शहरों से जुड़ गए हैं, तो रास्ता भी चलता ही रहता है, हाँ, अभी बत्ती का बुरा हाल है, बत्ती नहीं सड़क पर, इक्का दुक्का ढाबे हैं, कुछ पंक्चर की दुकानें जिनकी जलती रौशनी से ही कुछ रौशनी मिलती है, नहीं तो कुछ नहीं!" बोला वो,
"हां, अभी भी ज़्यादातर रास्ते ऐसे ही हैं, बत्ती नहीं है अभी भी!" बोले शहरयार जी,
"हां जी!" बोला सुधीर,
"अच्छा फिर?" पूछा मैंने,
"हाँ, तो मैं सीधे ही अपने रास्ते चला आ रहा था, अचानक ही मेरी नज़र अपने दायीं तरफ गयीं, मुझे लगा कि कोई गिरा पड़ा है उधर!" बोला वो,
"सड़क के किनारे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, दायीं तरफ!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने सोचा कोई शराबी होगा, अक्सर सड़क किनारे ही सो जाते हैं, गिर जाते हैं, लेकिन गौर से देखा तो वो सड़क के बीच की तरफ पड़ा था, सोचा कहीं कोई कुचल ही न जाए, सड़क है, किसी को ध्यान रहे, न रहे तो मैंने टेम्पो धीरे कर लिया, मोड़ लिया!" बोला वो,
"ये तो अच्छा किया! अच्छी सोच है आपकी सुधीर!" कहा मैंने,
"तो मैं, उधर गया, उधर जैसे ही देखा, कि मेरे तो होश ही उड़ गए!" बोला वो,
"क्यों? क्या देखा?" मैंने पूछा,
"मैंने देख कि, वो कोई मर्द है, करीब बीस बरस का रहा होगा, हाथों में, एक थैला सा था उसके, लेकिन उसका सर नहीं था!" बोला वो,
"सर नहीं था?" पूछा शहरयार ने,
"हाँ जी, मेरे तो होश उड़े, मैं भाग लिया! तभी...!" उसने थूक गटका, ज़ोर से, उसकी इन बातों पर, वहां जो भी बैठे थे, उल्लू की तरह से सर झुक, उसे ही देखने लगे थे, कोई सामने से, कोई बाएं से और कोई दाएं से!
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"जहां मेरा टेम्पो खड़ा था, वहां एक मील का पत्थर गड़ा है, उस पर वो सर रखा हुआ था, और जी, पता है क्या हुआ फिर?" बोला वो पीला सा पड़ते हुए!
"क्या?'' मैंने भी पूछा,
"वो सर चिल्लाया! कि भाग! भाग! भाग!" बोला वो,
"वो सर चिल्लाया?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"भाग भाग? ये चिल्लाया?" बोले शहरयार जी,
"हाँ जी, बहुत तेज!" बोला वो,
"तो तुम भाग लिए होंगे!" कहा मैंने,
"सामने मौत खड़ी हो, तो आदमी क्या करेगा!" बोला वो,
"हाँ, सही बात!" कहा मैंने,
"कटा सर कैसे बोला जी?" बोला वो,
"अभी तो पता नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा, सर कैसा था?" पूछा शहरयार जी ने,
"जी? सर तो सर ही था?" बोला वो,
"मेरा मतलब खून से सना था?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी! साफ़ एकदम!" बोला वो,
"कोई खून या चोट आदि का निशान नहीं?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"बाल कैसे थे?" पूछा मैंने,
"छोटे छोटे से" बोला वो,
"गर्दन के ऊपर से कटा था?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"अच्छा! उसके बाद कभी देखा?" पूछा मैंने,
"मैं तो गया ही नहीं उतने बजे फिर कभी!" बोला वो,
कमाल की बात! कटा सर! धड़ सड़क पर पड़ा! हाथ में थैला! और उसका कटा सर, बोले, भाग भाग!
''और कुछ?" पूछा मैंने,
"हाँ, उन्होंने देखा था कुछ!" बोले पूरन जी,
"क्या?" पूछा मैंने,
वो सज्जन आगे आये, उम्र करीब पचास की रही होगी उनकी, बेलदारी करते थे सरकारी, शहर में! छुट्टी वाले रोज घर पर आ जाते थे! नाम किशन स्वरुप था उन साहब का!
"आपने क्या देखा था जी?" पूछा मैंने,
"साल भर हो गयी" बोले वो,
"अच्छा, पिछले साल?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो,
"क्या देखा था?" पूछा मैंने,
"रात का वक़्त था वो भी करीब दस बजे होंगे, मैं और एक और है, वो दूसरे मुहल्ले में रहता है, हम दोनों आ रहे थे, देर हो गयी थी, बारिश हुई थी उस दिन बहुत, सवारी मिली नहीं थी, तो एक ट्रक में आ रहे थे हम, दस बजे हमें उस ट्रक वाले ने वहां उतार दिया था!" बोले वो,
"तब बारिश बन्द थी?" पूछा मैंने,
"हां जी, कीच थी, रास्ते पर!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"तो हम बातें करते हुए, चलते आ रहे थे, कि मेरे साथ जो चल रहा था, उसने रोका मुझे, मैं रुक गया, सोचा, पेसाब-फेसाब जाना हो?" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"तो क्यों रोका था?" पूछा मैंने,
"बता रहा हूँ" बोले वो, रजाई खींचते हुए, अपने घुटने के नीचे से, फिर घुटने पर ऊपर सरका ली!
"बताओ?" कहा मैंने,
"उसने रोका कि भाई रुक, देख वहां क्या है?" बोले वो,
"अच्छा, क्या था?" पूछा मैंने,
"जब मैंने वहां देखा, तो मुझे कुछ लोग खड़े दिखाई दिए!" बोले वो,
"लोग?" पूछा मैंने,
"है जी, कोई छह या सात!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मेरे साथ जो चल रहा था, उसने कही कि देखें, कोई एक्सीडेंट तो नहीं हुआ?" बोले वो,
"तो आप गए उधर?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, जाना तो ठीक ही है, किसी की जान बचती हो तो बचने चाहिए, है कि ना?" बोले वो,
"बिलकुल जी!" बोले शहरयार जी!
"तो हम दोनों ही वहां गए! और जब वहां गए तो समझो जी जान ही निकल गयी!" बोले वो,
"ऐसा क्या देखा?" पूछा मैंने,
"लग तो रहा था कि कोई एक्सीडेंट हुआ है, लेकिन वहां जो खड़े हुए थे, उन्होंने एक लाश को पकड़ा हुआ था, लाश कई हिस्सों में कटी हुई थी, और उनमे से एक बोला, कि भाग लो यहां से! भाग लो! फिर सभी ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगे कि भाग लो! भाग लो!" बोले वो,
"तो भाग लिए आप दोनों?'' पूछा मैंने,
"बिलकुल जी! सांस तब ली जब वो मन्दिर पड़ा, घुस गए मन्दिर में!" बोले वो,
"लाश? कई हिस्सों में कटी हुई?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"कई हिस्सों में तो उन्होंने पकड़ी कैसे थी?'' पूछा मैंने,
"एक एक टुकड़ा पकड़ा था, किसी ने हाथ, किसी ने पांव, और एक ने सर पकड़ा था!" बोले वो,
"सर? औरत या मर्द?" पूछा मैंने,
"औरत का लगे था!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"और दिन में कोई चर्चा इस बारे में?" पूछा शहरयार जी ने,
"कोई नहीं! किसी को मालूम नहीं!" बोले वो,
"लोग कैसे थे वो?" पूछा मैंने,
"सभी लड़के से ही थे?" बोले वो,
"कितनी उम्र के लगभग?" पूछा मैंने,
"बीस पच्चीस मान लो?" बोले वो,
"दिन में कोई खबर नहीं?" पूछा मैंने,
"आज तलक नहीं!" बोले वो,
"कृष्ण जी?" पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आपने कोई खोज-खबर ली?" पूछा मैंने,
"नहीं मिली" बोले वो,
"अभी जल्दी में क्या हुआ?" पूछा शहरयार जी ने,
"अभी कोई दस दिन पहले की बात है, वहां एक कार का एक्सीडेंट हुआ, कोई नहीं बचा, हैरत की बात ये, कि कार में जो तीन लोग थे, उनके सर नहीं मिले!" बोले वो,
"अरे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, पुलिस भी हाथ-पांव मार रही है!" बोले वो,
"कुछ पता चला कौन थे वो?" पूछा मैंने,
"हमें नहीं पता जी!" बोले वो,
तभी आ गया सर्दी भगाने का नुस्खा! यानि, सर्दी मिटाने की बूटी! रख दी गयी पास में ही! बढ़िया रम थी! जो लाया था, वो पानी, सलाद और साग ले आया था, ये शुरूआती तैयारी थी! सलाद भी देहाती तरीके से काटी गयी थी, बड़े से प्याज के बस चार चार टुकड़े! गाजर के भी चार और मूली तो लगता था, पत्ते के साथ पूरी ही रख दी हो, छील कर, छोटी छोटी सी थीं!
"वो जो आप बता रहे थे, वो मास्टर जी?" कहा मैंने,
"है जी, वो भी हैं!" बोले वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"ये रहे!" बोले वो,
"अच्छा जी! आप तो दुबके पड़े हो मास्टर जी!" कहा मैंने,
"क्या करें जी! जब मौका मिलता तब बताता!" बोले वो,
मास्टर जी का नाम, प्रताप सिंह था, प्राथमिक विद्यालय में थे शहर में, देहात से रोज जाते और आते थे! एक स्कूटी ले रखी थी, वही साधन था उनका!
"तो मास्टर जी? कब की बात है ये?" पूछा मैंने,
"जी, बात है ये कोई इस सितम्बर की, तेईस तारीख थी!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"उस दिन सोमवार था, मुझे याद है इतवार को सारा दिन घर पर ही रहा था मैं, शहर से कुछ सामान लाना था, ज़रूरी, तो एक फ़ेहरिस्त तैयार कर ली थी, बड़ा लड़का जी, भोपाल में रहता है, वो बैंक में है, छोटा अभी पढ़ रहा है, तो उस दिन छोटा लड़का मोहित चला था मेरे साथ, मुझे विद्यालय छोड़ दिया था और उसकी बुआ जी हैं उधर, वो वहां चला गया था, फूफा के साथ अच्छी बनती है उसकी!" बोले हंसते हुए!
"ये तो अच्छी बात है!" बोले शहरयार जी,
"करो जी शुरू?" बोले पूरन जी,
"हाँ, आओ आप भी?" बोला मैं,
"करो! आया!" बोले वो,
और उठ कर, आ गए पास, दो प्लेट बना दीं उन्होंने, साग के कटोरे हमारे पास सरका दिए! और खुद बनाने लगे पैग! बाहर सर्दी का ज़ोर था! पता चल ही जाता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"हां मास्टर जी?" कहा मैंने,
"बस जी, शाम को ले ली थी!" बोले वो हंसते हुए!
"तो और ले लो?" कहा मैंने,
"बस जी, आप लो!" बोले वो,
तो हमने इस तरह से पहला पैग नीचे कर लिया! रम थी, सर्दी में इस से बेहतर कुछ नहीं और! गर्मी का एहसास तो दिला ही देती है!
"अच्छा मास्टर जी, फिर?" बोले शहरयार,
''हाँ जी, तो मैंने दोपहर बाद, मोहित के बुला लिया था, वो करीब दो बजे पहुंचा, उसने बताया कि फूफा जी भी घर पर ही हैं और बुला रहे हैं, तो हमने कुछ सामान उस तरफ जाते ही ले लिया था और कुछ वापिस जाते हुए ले लेते!" बोले वो,
"हाँ, ठीक! तो ऐसा ही किया?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, वहां से निकलते निकलते, अपने घर तक के लिए मेरा मतलब, सात बज गए, कोई बात नहीं जी, घण्टे भर में हद से हद पहुँच जाते!" बोले वो,
"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"तो हम करीब सात बजे ही, आ लिए अपने उस रास्ते पर, सुनसान तो रहता ही है, जहां हम रुके, वहां से कुछ बीड़ी-बाड़ी ले ली थी, कुछ मोमबत्ती भी, यहां ज़रूरत पड़ती रहती है! आप तो जानो हो!" बोले वो,
"अजी शहरों में भी पड़ती है ज़रूरत तो!" बोले शहरयार जी!
"जी! तो हम फिर आगे चले, जैसे ही अपने रास्ते की तरफ आये, वहां कुछ पेड़ खड़े हैं बड़े बड़े पीपल के, दिन में भी कोई नहीं जाता वहां तो, तो हम वहीँ से निकलने लगे, और तभी मेरी नज़र पड़ी किसी पर!" बोले वो, और चश्मा उतार लिया अपना,
अपने कम्बल के कोने से साफ़ किया और फिर पहन लिया! तब तक मैंने ताज़ा मूली का एक टुकड़ा काट लिया था!
"किस पर नज़र पड़ी?" पूछा मैंने,
"मुझे लगा के एक पेड़ के नीचे कोई लेटा हुआ है!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने लड़के से रुकने को कही, लड़का रुक गया, उसे दिखाया तो वो बोला कोई नशे में होगा छोड़ो! मैंने कहा कि देख तो लें एक बार?" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं गया जी देखने, जैसे ही देखा कि मेरे तो पसीने छूट गए! मैं तो गिरने को हो चला, दौड़ कर पीछे भागा, लड़के से फौरन ही चलने को कही! लड़के ने पूछी कि क्या बात हो गयी? अब बात न बोल पाऊं जी मैं!" बोले वो,
"ऐसा क्या देखा था आपने?" पूछा शहरयार जी ने,
"वो कोई लड़का था, उसका सर कटा हुआ था, सर काट कर किसी ने उसका, उसकी कमर पर रख दिया था!" बोले वो,
"ओह! खूनमखान भी था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, खूनमखान तो क़तई नहीं?" बोले वो,
"अच्छा, इसका मतलब उसे कहीं और मारा गया होगा? है न?" पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, और सुनो अभी तो!" बोले वो,
"क्या?" मैंने भरा हुआ गिलास वापिस रख दिया, उन्होंने बड़े ही भय के भाव में ये बतलाया था!
"जब लड़के ने पूछी कि क्या हुआ, तो मैंने हाथों के इशारे से उसे चलने को कहा, लड़का चलने को तैयार हुआ, तभी क्या देखा मैंने, कि वो सर कटी जो लाश थी, वो खड़ी हो गयी थी! खड़ी तो हुई ही, पेड़ से चिपक गयी! जैसे ऊपर चढ़ने को कर रही हो!" बोले वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"उस पल तो मेरा हार्ट फेल ही हो जाता जी! अभी हम चले ही थे, कि वो सर!!" बोले वो और रुक गए!
गला खखारा अपना, दो तीन बार, मैंने उनको पानी की बोतल दे दी, एक घूंट पानी पिया उन्होंने और चश्मा ठीक किया अपना!
"हाँ जी? वो सर?" पूछा शहरयार जी ने,
"जी वो सर, लुढ़कता हुआ आया अपने आप और बोला भागो भागो भागो!" बोले वो, और पानी फिर से पिया!
अब मैंने और शहरयार जी ने एक दूसरे को देखा! ये कैसी अजीब सी बात? सरकटी लाश पेड़ पर चढ़ने को हो रही थी, और उसका सर, लुढ़कता हुआ आया और भागो भागो बोला!
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर न देखी हमने पीछे! चालीस पढ़ते हुए, हम दोनों ही तेजी से भाग आये! और मन्दिर पर आ कर रुके!" बोले वो,
कुछ पल की खामोशी! 
मैंने अपना गिलास उठाया और आधा खाली कर दिया! और नीचे रख दिया!
"इसका क्या मतलब हुआ?" बोले पूरन जी,
"एक बात जो मैंने यहां देखी है, वो तो साफ़ है!" कहा मैंने,
"वो क्या जी?" पूछा मास्टर जी ने,
"कि यहां जो लोग मिलते हैं, या जो मरे हैं, वो किसी को नहीं मार रहे, बल्कि वो उधर से गुजरते ज़िंदा इंसान को, चेता देते हैं कि भागो भागो यहां से!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले कृष्ण जी,
"इसका मतलब, उनको मारने वाला कोई और ही है! कोई और शह!" कहा मैंने,
"वो न देखी जी हमने फिर!" बोले पूरन जी,
"हाँ, मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ था!" बोला सुधीर,
"और मेरे साथ भी!" बोले बेलदार!
"और मास्टर जी के साथ भी!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले मास्टर जी,
"ऐसी क्या शह हो सकती है?" पूछा शहरयार जी ने,
"ये अभी नहीं कहा जा सकता!" कहा मैंने,
गिलास उठाया मैंने, बाकी पैग खींचा, और गिलास रख दिया नीचे! रुमाल से होंठ पोंछ लिए!
"एक बात बताइये पूरन जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो, और.............!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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मेरे प्रश्न से पूछे जाने से पहले ही जैसे वो मुस्तैद हो गए थे! कभी-कभार ऐसा होता ही है, उनके साथ भी यही हुआ था, जैसे ही वो बोलने को लगे, कि खिड़की एक पर्दा भड़भड़ाया और उस पर्दे को रोकने के लिए लकड़ी का जो टुकड़ा, गुटका सा रखा था, खट्ट से नीचे गिर पड़ा, कौन उठे! सुधीर उठा, गुटका उठाया और फिर से, पर्दे को अंदर सरका, वो गुटका रख दिया! और हमें देखते हुए, नीचे ही बैठ गया! ये महफ़िल तो नहीं थी, लेकिन महफ़िल  से कम भी नहीं थी! सर्दी बार बार नाम सा पूछे जा रही थी! शायद, याददाश्त कमज़ोर थी उसकी, बार बार बताने पर भी भूल ही जाती थी!
"कोहरा है क्या बाहर सुधीर?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, है तो!" बोला वो,
"कड़ाके की पड़ रही है!" बोले शहरयार!
"हर साल का यही है जी!" बोले मास्टर जी!
"हाँ जी?" बोला मैं, पूरन जी से,
"जी जी?" बोले वो,
"एक बात बताइये तो?'' पूछा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"क्या ऐसा कभी पहले भी हुआ है?" पूछा मैंने,
"हमें तो ध्यान नहीं जी!" बोले वो,
"हाँ जी, शहर जाने लगे, तो वहीँ मकान बना लिया, नौकरी हो गयी, यहां बड़े बूढ़े रह गए, कुछ है खेती-खाती, अब गाँव से ये ही नाता है, जड़ तो हमारी यहीं है जी!" बोले कृष्ण जी!
"हाँ, ये तो सही बात है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, सुना है!" बोले एक सज्जन,
"आपने?" पूछा मैंने,
"मैंने तो नहीं, लेकिन बड़े भाई बताते हैं!" बोले वो,
"आप?" पूछा मैंने,
"ये जी, चौकीदार थे, अब यहीं रहते हैं, बाल-बच्चे भी ब्याह दिए!" बोला पूरन जी,
"अच्छा, क्या देखा था भाई साहब ने?" पूछा मैंने,
"वो बताते हैं कि एक रात को उन्हें देर हो गयी थी घर आते आते!" बोले वो,
"ये कब की बात है?" पूछा शहरयार जी ने,
"कोई पांच साल हुए" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो वो थे अकेले ही, रात को कोई दूध का टेम्पो मिला तो वहीँ उतर गए थे!" बोले वो,
"तब रास्ता पक्का था?" पूछा मैंने,
"हाँ, पक्का ही था!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो जब वो रास्ते से इधर को आने को हुए, तो उन्हें एक लड़का मिला सड़क पर!" बोले वो,
"लड़का?" पूछा मैंने,
"जी, कोई बीस बरस का!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वो लड़का उनके पास आया, और बोला, कि बाद के लिए रास्ता कहाँ से है?" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब रास्ता तो सीधा ही था, लेकिन वो जगह बहुत दूर थी वहां, तो उस लड़के को उन्होंने बताया कि रास्ता तो सीधा ही है, लेकिन है बहुत दूर!" बोले वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"लड़के ने कही कि कोई बात नहीं, सुबह तक पहुंच जाए तो भी ठीक! तो सुबह तक तो वो पहुंच ही जाता!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"तो वो लड़का चला गया वहां से?" पूछा शहरयार ने,
"हाँ जी! चला गया!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"अब जब लड़का चला गया तो चले भाई साहब घर की तरफ! गुनगुनाते से, आने लगे अपने रास्ते!" बोले वो,
तभी अचानक से दूसरा पर्दा फड़फड़ाया! इस बार तो छत तक जा लगा! और जो ठंडी हवा की धार सी आयी! जैसे तलवार सी! रजाई की तो जैसे उसने फजीहत ही कर दी! सारी गर्मी सोख ले गयी!
"बड़ी ठंडी हवा है!" कहा मैंने,
"प्रकाश?" बोले कृष्ण जी,
"हाँ जी?" बोला वो, खिड़की के पर्दे को अंदर खोंसता हुआ!
"अरे सही से लगा दे?" बोले वो,
"हाँ, कर रहा हूँ!" बोला वो,
और कसने लगा पर्दे को!
"हाँ जी, फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, तो वो चल पड़े अपने रास्ते, जैसे ही उस रास्ते के पास आये! कि घिग्घी बन्ध गयी जी! सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे!" बोले वो,
"ऐसा क्या देखा?" पूछा मैंने,
"वही लड़का, जिसने  
बाद का पता पूछा था, कटा पड़ा था! उसका सर उसकी कमर पर रखा था और सर बोले जा रहा था, भागो भागो भागो!" बोले वो,
"अरे बाप रे!" बोला कोई उधर ही!
"तो भाई ने देखी न आव न ताव! दौड़ लिए! और जब मन्दिर आया, तब सांस ली उन्होंने! घर आये, तो उलटी-दस्त, बुखार! मरते मरते बचे जी वो फिर!" बोले वो,
"समझ सकता हूं!" कहा मैंने, 
"हौलनाक!" बोले शहरयार जी!
"बिलकुल जी बिलकुल!" बोले वो चौकीदार साहब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सच में जी! ये हौलनाक ही है! सोचिये, किसी ने पता पूछा हो, अच्छा-ख़ासा जवान हो, चला जाए दूसरी तरफ रास्ता पूछा आपसे, और आप आगे जाओ, तो वही आदमी, कटा हुआ मिले! आदमी की तो वो हालत हो, कि न जीते में और न मरते में! ऐसा ही हुआ था चौकीदार साहब के बड़े भाई साहब के साथ! मैं समझ सकता था, रात का माहौल और ऐसा वाक़या!
"तो आपने नहीं देखा कुछ?" बोले शहरयार जी!
"अजी ना!" बोले वो,
"कृष्ण जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"और वो कहां है, सुनील?'' पूछा मैंने,
"आने ही वाला होगा!" बोले वो,
"उसको भी सुनना है!" कहा मैंने,
"हाँ जी, उसने तो जल्दी में ही देखा है!" बोले वो,
"वैसे एक बात है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"ये मामला करीब पांच साल पुराना तो मानो?" कहा मैंने,
"हां जी!" कहा उन्होंने,
"लो!" बोले शहरयार जी, गिलास भरते हुए! और मुझे देते हुए!
"हाँ, रख दो!" कहा मैंने,
''एक की और सुनी थी!" बोले मास्टर जी,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"पूरन?" बोले वो,
"हां?" कहा उन्होंने,
"तुम्हें याद है, वो बाहर एक ढाबा खुला था?" बोले वो,
"वो, हां! याद है!" कहा उन्होंने,
"कौन सा ढाबा?" पूछा मैंने,
"एक खुला था जी, चाय रखता था और खाना भी बनाता था, लोगबाग रुकते भी थे उसके पास, चाय-पानी को!" बोले वो,
"कितने दिन हुए?'' पूछा मैंने,
"दो साल हुए होंगे!" बोले वो,
"क्या हुआ था?" पूछा शहरयार ने,
"दरअसल, वो ढाबा, सुबह खुलता था, एक फौजी का था, हां याद आया! पड़ोस के हैं वो फौजी!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"तो शाम को, लोगबाग आते नहीं थे, तो छह या सात बजे बन्द हो जाता था!" बोले मास्टर जी,
"फिर?" पूछा मैंने,
"एक मिनट?" बोले शहरयार!
"हाँ?" कहा मैंने,
"उस ढाबे में रात को कोई रुकता नहीं था?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले मास्टर जी,
"सामान, बर्तन आदि?" पूछा मैंने,
"कमरा था, पक्का बना हुआ!" बोले वो,
"तो ताला लगाते होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो वो बताते थे कि रात को, उनके यहां, दरवाज़े पर खून के छींटे पड़े मिलते थे! उन्होंने बहुत खोज की, लेकिन कोई पता नहीं चला!" बोले वो,
"कौन से दरवाज़े पर?" पूछा मैंने,
"जहां दरवाज़ा लगता था!" बोले वो,
"अच्छा, बस यही?" कहा मैंने,
"नहीं, सुनो तो सही!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"एक शाम जब फौजी और उनका लड़का, जब वापिस जा रहे थे, सर्दी का समय था वो, तो उनके ढाबे पर दो लड़के आये!" बोले वो,
"बीस बरस के ही?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"तो एक लड़का कहता कि अगर खाने को कुछ है तो दे दो, आपसे देंगे वो!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"अब खाना तो नहीं था, तो मना कर दिया, लड़के आगे चले गए! एक बात उन्होंने देखी थी अजीब, कि उनके पांवों में न जूते थे और न चप्पल!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"फिर मास्टर जी?" बोले शहरयार!
"तो जी बात आयी-गयी हो गयी!" बोले वो,
"बस?'' पूछा मैंने,
"नहीं जी, दो दिन पहले तो उन लड़कों का एक्सीडेंट हुआ था!" बोले वो,
"दो दिन पहले?" मैं चौंका!
"हाँ जी, अखबार में आयी थी, उनकी फोटो, वो पहचान गए थे!" बोले वो,
''ओह! फिर?" बोले शहरयार जी!
"क्या उन्होंने बताई किसी को?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"उन लड़कों का कुछ पता चला?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"तो ढाबा बन्द उसके बाद?" पूछा मैंने,
"डर बैठ गया और बन्द करना पड़ा! अब ज़रा दूर है उनका ढाबा यहां से!" बोले वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"चौराहे पर, आगे, कोई चार किलोमीटर पर!" बोले वो,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा जी!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले मास्टर जी,
"क्या फौजी साहब से बात हो सकती है अगर ज़रूरत पड़ी तो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, नेक आदमी हैं!" बोले वो,
"फिर तो ठीक है!" कहा मैंने,
"अरे वो रेशमी का नहीं बताया?" 
"ये रेशमी कौन?" पूछा मैंने, सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए, और बचते हुए उस से!
"रेशमी है जी एक गांव में, अस्पताल में नौकरी करती है!" बोले वो,
"अच्छा, शादी-शुदा है?" पूछा मैंने,
"हाँ, दो लड़के हैं!" बोले मास्टर जी,
"और आदमी?" पूछा शहरयार ने!
"आदमी जी शहर में काम करता है, भला आदमी है!" बोले वो,
"उसके साथ क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"बताता हूं!" बोले कृष्ण जी,
"हाँ जी, बताइये?" बोला मैं,
"डेढ़ साल हुआ होगा? है न पूरन?" बोले वो,
"हाँ, डेढ़ या सवा साल मान लो?" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस दिन तो रात भी न थी, दोपहर का समय था!" बोले वो,
"अच्छा, गर्मी में?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"तो क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
उस दिन दोपहर में रेशमी आ रही थी, अपनी नौकरी से, साथ में सास थी, सास को पांवों में कुछ तकलीफ है, उसी के इलाज के लिए ले गयी थी!" बोले वो,
"अच्छा, क्या वक़्त होगा?" पूछा मैंने,
"कोई ढाई या तीन बज रहे होंगे?" बोले वो,
"अच्छा! भरी दोपहरी!" कहा मैंने,
"हाँ जी, भरी दुपहरी!" बोले वो,
"तो आगे बताओ?" पूछा मैंने,
उस दिन वो उन पेड़ों के नीचे ही उतरे थे, सवारी से, सास के पाँव में तक़लीफ़ तो थी ही, सोचा रेशमी ने कि कोई मिल जाए तो गांव तक या पास तक छोड़ दे उसे!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"कोई मिला फिर?" पूछा शहरयार जी ने,
"नहीं जी, आध-घण्टा बाद, गांव के लिए चल पड़े वे दोनों ही!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तभी गांव का ही एक आदमी आया पीछे से, दो सवारी पहले ही बैठी थीं उसकी मोटर साइकिल पर, एक को उतार दिया, वो पैदल ही आ जाता! और सास को बिठा दिया!" कहा मैंने,
"ये तो अच्छा किया!" मैंने कहा,
"अच्छा जी, वो चल पड़े, गांव की तरफ से ही कोई आया आदमी, उसका जानकार, वो आदमी उस आदमी के साथ, वापिस लौट गया!" बोले वो,
"मतलब जिसे गांव जाना था?" पूछा मैंने,
"हाँ वही!" बोले वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"तो जी, रेशमी अकेली ही चल पड़ी, और जैसे ही आगे गयी कि एक लड़की मिली उसे वहां!" बोले वो,
"लड़की? कहां?" पूछा मैंने,
"वहीँ मुंडेर पर, उस रास्ते के!" बोले वो,
"कैसी थी वो लड़की?" पूछा मैंने,
"शहरी लगती थी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उस लड़की ने उस से पूछा कि बाद का रास्ता कहां है?" बोले वो,
"बाद का ही?" पूछा मैंने,

"हाँ जी!" बोले वो,
"वैसे ये कोई जगह है?" पूछा मैंने,
"है जी!" बोले वो,
"कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"नब्बे किलोमीटर!" बोले वो,
"फिर?" मैंने कुछ सोचकर पूछा,
"रेशमी ने बता दिया कि रास्ता तो आगे से है, कोई सवारी मिल जायेगी, चली जाए वो!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वो लड़की, लौट चली, और रेशमी अपनी राह चली!" बोले वो,
"अच्छा! फिर?" पूछा मैंने,
"अभी थोड़ी दूर ही चली होगी वो, कि उस लड़की ने आवाज़ दी रेशमी को, कि रुको! रुको!" बोले वो,
"अच्छा? लौट आयी थी क्या वो लड़की?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! वो लड़की लौटी और फिर से ***बाद का पता पूछा, रेशमी ने फिर से बता दिया! लड़की फिर से लौट चली!" बोले आगे वो!
"फिर?" पूछा मैंने, बेसब्री से!
"तो जी रेशमी आगे नहीं बढ़ी, वो वहीँ खड़ी रही, उस लड़की को ही देखते हुए, लड़की भागी जा रही थी और दूर जाकर, ओझल हो गयी, रास्ते चढ़ गयी थी!" बोले वो,
"अच्छा!! फिर??'' पूछा मैंने, अपना गिलास खाली करते हुए!
"अब जी क्या हुआ?" बोले वो, ताली सी पीटते हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
अब तो सभी मास्टर जी को ही देखने लगे थे! उनके सुनाने का ढंग ठेठ देहाती सा था, इस लहजे में, घटना कुछ अधिक समझ आती है, बड़े बड़े शब्द उसके भाव को चुरा सा लेते हैं!
"अब जी, रश्मि चली आगे! अभी कुछ ही दूर गयी होगी कि, वही लड़की! वो ही, उसे सामने से आती दिखी, एक खेत की बटिया से!" बोले वो,
"क्या? बटिया से?" पूछा मैंने,
"है जी! वो ही लड़की!" बोले वो,
"ओह! फिर?" पूछा मैनें,
"अब जी रेशमी समझ गयी! ये तो भूत है! दोपहरी को, अक्सर भूत दिख ही जाते हैं! लेकिन इतना ही नहीं जी!" बोले वो,
"अच्छा? और क्या?" बोले शहरयार!
"अजी उस लड़की ने रेशमी को रोका! अब रेशमी तो गिरने को हो! लेकिन हिम्मत रखी उसने!" बोले वो,
"बड़ी हिम्मत वाली है!" कहा मैंने,
"हाँ जी! तो जी, उसी लड़की ने फिर से पूछा उस से कि ***बाद का रास्ता कौन सा है?" बोले वो,
"तीसरी बार?" बोले शहरयार जी!
"हाँ जी!" बोले वो,
"ओहो!" बोले वो,
"तो रास्ता बता दिया?" पूछा मैंने,
"हाँ, बता दिया!" बोले वो,
"फिर वो चल दी वापिस?" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर न देखी उसने पीछे! उसे दो तीन बार आवाज़ भी आयी, उसने न देखा! फिर आ गया वो मन्दिर! मन्दिर में घुस गयी रेशमी! और उसमे से झांक कर देखा! देख तो बेहोश हो गयी उधर ही!" बोले वो,
"अरे? क्या देखा?" पूछा मैंने,
"उसने बताया कि उस लड़की का सर नहीं था, सर के बिना ही वो उस रास्ते पर, कभी इधर, कभी उधर ऐसे चक्कर लगा रही थी!" बोले वो,
"अरे बाप रे!" बोला सुधीर!
''और उसे कोई पांच मिनट बाद आया होश! बाहर भागी, तो कुछ औरतें जा रही थीं, बिन कुछ बोले, फौरन उनमे शामिल हो गयी! ऐसे बची उसकी जान!" बोले वो,
"किसी को बताया?" पूछा मैंने,
"सभी को!" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
'अब कोई करे क्या?" बोले वो,
"हाँ सही बात!" कहा मैंने,
"रास्ता बन्द हो गया जी!" बोले वो,
"डर के मारे?" बोला मैं,
"और क्या जी?" बोले वो,
"फिर नज़र आयी किसी को?" पूछा मैंने,
"न जी!" बोले वो,
"ये मामला है क्या?" बोले शहरयार जी,
"अजीब ही है!" कहा मैंने,
"ये मारते भी नहीं किसी को?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"चेताते भी हैं!" बोले वो,
"यही अजीब बात है!" कहा मैंने,
"वो चेताएंगे क्यों भला?" बोले वो,
"कुछ उलझा हुआ मामला है!" कहा मैंने,
"बहुत ही उलझा हुआ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कृष्ण जी?" बोले शहरयार,
"जी?" बोले वो,
"गांव में कोई ओझा, गुनिया नहीं है?" पूछा उन्होंने,
"भोपा तो है!" बोले वो,
"उसने नहीं बताया कुछ?" बोले वो,
"अजी ना!" बोले वो,
"किसी ने भी नहीं?" बोला मैं,
"दो साल पहले कोई महात्मा आये थे, उन्होंने कुछ पूजा की थी!" बोले वो,
"अपने आप आये थे?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, बुलाया किसी ने नहीं!" बोले वो,
"कहां ठहरे थे?" पूछा मैंने,
"मन्दिर में" बोले वो,
"और खाना-पीना यहां से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कुछ बताया उन्होंने?" बोले शहरयार!
"नहीं जी!" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"एक सुबह वो मिले ही नहीं!" बोले वो,
"ओह! चले गए होंगे?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, गए या डरा दिए गए!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा शहरयार जी ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सारी बातें सुनीं मैंने, इनमे कुछ समानताएं थीं, जैसे कि जो नज़र आते थे, वे लड़के से ही थे, बीस-बाइस बरस के ही! इनकी संख्या क्या थी, ये भी वैसे पक्का पता नहीं था, छह या सात मान लीजिये, और ये कि सभी का कटा हुआ सर नज़र आता था, सर भागो! भागो! कह कर, लोगों को चेताता भी था! अर्थात, जो नज़र आते थे, उन्होंने किसी को नहीं मारा था! ये अक्सर, रात को ही नज़र आते थे, सिर्फ उस लड़की के अलावा, जो दिन में नज़र आयी थी और उसका भी सर नहीं था! उनका सर किसने काटा था? मारने वाला कौन था? किस जगह ये सब हो रहा था? ये भी साफ़ नहीं था, हाँ, बाहर रास्ते पर, जो बड़े बड़े पीपल के पेड़ थे, वहां अक्सर ही नज़र आये थे, वे दो लड़के जिनके पांवों में चप्पल नहीं थे, उनकी मौत अवश्य ही किसी दुर्घटना में ही हुई थी, इस घटना की बाबत, अखबार में भी छपा था! बस यही अभी तक कुछ ठोस आधार था, और कृष्ण जी, जिनके भाई साहब की मृत्यु उसी रास्ते पर एक्सीडेंट में हुई थी, कोई बचा नहीं था अतः ये नहीं पता चला सका था कि उनकी मौत कैसे हुई थी! क्या हुआ था? एक बात और, यहां क्या कोई और शय थी? जो इन प्रेतों को अपने राजी और डरा धमका कर, यहीं बांधे हुई थी? यदि ऐसा कोई था, तो वो क्या हो सकती थी? यहां का सबसे पुराना मामला, करीब पांच साल पहले का था, इसका मतलब था कि वो शय यहां पर पहले से ही मौजूद थी! सड़क पर हज़ारों आदमी, लोग गुज़रते होंगे, तो शिकार वो लड़के ही क्यों? कोई ख़ास वजह? ये सब सवाल अभी अंधेरे की चादर ओढ़े हुए थे! जांच कहां से आरम्भ की जाए, ये भी अभी तक तो पक्का नहीं था! हाँ एक और चश्मदीद था इस घटना का, सुनील, उसका इंतज़ार हो रहा था, उसके साथ ताज़ा ही कुछ घटा था! हो सकता है उस से कोई दिशा मिले!
अब तक नौ का वक़्त हो चला था, बाहर तो सर्दी का कोहराम मचा था, लोगबाग अपने अपने बिस्तर में जा घुसे थे, इंसान तो इंसान पशु भी सर्दी की मार झेल रहे थे, बेचारे श्वान, बाहर ही उन बड़ी दीवारों के पीछे हवा से बचने के लिए, दुबके बैठे थे! कंपकंपी छूट रही थी उनकी! बाहर जो अलाव जलाये गए थे, उनका ही कुछ आसरा रहा हो उनके पास, नहीं तो कुछ नहीं!
"कृष्ण जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आसपास और भी गांव होंगे?" पूछा मैंने,
"हैं जी!" बोले वो,
"उनमे से भी कुछ लोगों ने देखा ही होगा?" पूछा मैंने,
"हां, देखा है!" बोले वो,
"तो किसी ने पता करने की नहीं सोची?" पूछा मैंने,
"जान जा जोखम कौन ले!" बोले वो,
"ये भी सही है!" बोला मैं,
"एक दो लड़के आये थे, हिम्मत करके, वो भी भाग लिए, उन्होंने जन देखा कुछ जन ना, पता नहीं!" बोले वो,
"प्रकाश?" बोले पूरन जी,
"हां जी, बाबू जी?" बोला वो,
"देख अब बन गया हो तो?" बोले वो,
"देखता हूं!" बोला वो, और चला गया!
"एक बात पूछूं जी?" बोले मास्टर जी,
"हां जी, क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"ये होंगे कौन?" बोले वो,
"अभी तो कुछ नहीं कहा जा सकता!" कहा मैंने,
"वैसे नुकसान तो पहुंचाते हैं ना?" बोले वो,
"यही तो अजीब सी बात है?" कहा मैंने,
"ये जब से सड़क बनी है, तभी से आये हैं!" बोले वो,
"सड़क? रास्ता?" पूछा मैंने,
"हां जी, पक्का हुआ है जब से!" बोले वो,
"ये कब हुआ?" पूछा मैंने,
"आठ-दस साल हुए होंगे?" बोले वो,
"लेकिन यहां तो मामला पूर्ण पांच साल का ही है?" पूछा मैंने,
"जब सड़क बनी थी, तब भी कुछ ऐसा ही हुआ था, याद है मुझे, क्यों पूरन?" बोले वो,
"क्या हुआ था?" बोले पूरन,
"वो तारकोल में आग ना लगी थी?" बोले वो,
"वो तो गलती से लगी थी!" बोले वो,
"उसमे कोई मरा-मुरा था क्या?" बोले शहरयार जी,
"ये तो पता नहीं, लेकिन काम करीब आठ दस महीने बन्द रहा था!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले पूरन जी,
"किस जगह पर?" पूछा मैंने,
"यहां से कोई दो किलोमीटर आगे ही! इधर!" बोले इशारे से वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आग तो किसी गलती की वजह से भी लग सकती है!" कहा मैंने,
"हां, अक्सर गलती की वजह से ही लगती है!" बोले शहरयार जी!
"प्रकाश कहां रह गया?" बोले मास्टर जी से पूरन जी,
"आ रहा होगा!" बोले मास्टर जी,
तभी सामने वाला दरवाज़ा खुला, एक कलाई सी जैकेट और मफलर ओढ़े, टोपी लगाए किसी ने प्रवेश किया, आते ही उसने नमस्ते की और एक तरफ बैठने के लिए जगह ढूंढी!
"आ सुनील!" बोले कृष्ण जी,
"आ गया जी!" बोला वो,
सुनील कोई पैंतीस साल का युवक रहा होगा, भरा-पूरा शरीर और हंसमुख सा दिखाई देता था!
उसने तब चेहरे से मफलर हटाया और दुबारा से नमस्कार की हमें! हमने भी की!
"देर कैसे हो गयी?" पूछा मास्टर जी ने,
"आते आते हो गयी!" बोला वो,
"घर से तो हो कर आया?" बोले वो,
"हां, सामान रखा, और तभी खबर मिली, तब चला आया मैं!" बोला वो,
"और सर्दी कैसी है बाहर?" पूछा पूरन जी ने,
"हड्ड जमा रही है!" बोला वो हाथ रगड़ते हुए अपने!
"पड़ तो ऐसी ही रही है!" बोले शहरयार जी!
"अच्छा सुनील?" बोले कृष्ण जी,
"जी?" बोला वो,
"तू बता, क्या देखा था?" पूछा उन्होंने,
"देखा था? साथ हुआ था जी!" बोला वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"पिछले महीने की बात है, मैं करीब चार बजे, गांव के लिए आ रहा था, अकेला था अपनी मोटरसाइकिल पर, ठंड थी ही, लेकिन कोहरा नहीं था, लेकिन आराम आराम से ही चला रहा था, पास में ही, एक बस भी खड़ी थी, कोई बरात थी शायद उसमे, वे लोग रुके हुए थे और मुझ से एक गांव का रास्ता पूछा था, मैंने बता दिया था और आगे चल पड़ा था!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"करीब दो किलोमीटर आगे ही, मुझे लगा कि मोटरसाइकिल पर कोई आ कर बैठ गया है पीछे!" बोला वो,
"क्या??'' पूछा मैंने हैरानी से!
"हां, एकदम भारी हो गयी थी, मैंने पीछे देखा तो किसी के घुटने दिखाई दिए, मैं घबराया और एकदम तेजी से ब्रेक मारे, अब देखो जी, ब्रेक ही न लगे! या मुझ से डर के मारे लगाए ही न गए!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं तो घबरा गया, चीख निकल गयी, मोटरसाइकिल लहराई, धीरे कर ली थी मैंने, लेकिन सन्तुलन न बना और मैं गिर गया! मैंने फौरन ही पीछे देखा, जो मेरे पीछे बैठा था, लपक कर पेड़ पर कूद गया! मेरी नज़र गयी उस पर! उसका सर नहीं था! सर, मोटरसाइकिल के पीछे ही पड़ा रहा गया था! मैं तो उठ भी न सका! वहीँ बेहोश हो जाता कि वो सर चिल्लाया! भागो! भागो सुनील! भागो! भागो!" बोला वो,
"नाम लिया?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"इस बार नाम लिया?" बोले शहरयार जी!
"हां, मेरा नाम लिया था!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैं जैसे तैसे खड़ा हुआ, मोटरसाइकिल मैंने स्टार्ट की, तो स्टार्ट न हो, पीछे आते दो आदमी रुके, मेरे कपड़े फट गए थे, वे समझ गए, उन्होंने मदद की मेरी! मैं तो कांप रहा था! बता भी न सका! किसी तरह से घर आया! और उस दिन के बाद से, उधर कभी अकेला नहीं गया!" बोला वो,
"क्या उम्र होगी उसकी?" पूछा मैंने,
"कोई बीस साल का रहा होगा!" बोला वो,
"कपड़े?" पूछा मैंने,
"शहरी थे!" बोला वो,
"और वो सर?" पूछा मैंने,
"बाल लम्बे थे, दाढ़ी-मूंछ नहीं थीं!" बोला वो,
"वो बोला था?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"और कुछ?" पूछा मैंने,
"जब वो पेड़ पर कूदा था, तो उसने डाल पकड़ ली थी, जैसे वो आदि हो ऐसे कामों का!" बोला वो,
"ये तो प्रेत के लिए असम्भव नहीं!" बोले शहरयार!
"कुछ भी कहो, मौत से बचा मैं उस दिन!" बोला वो,
"कह सकते हैं!" बोले शहरयार!
"पता नहीं कौन था वो!" बोला वो,
"हां, पता नहीं!" कहा मैंने,
"ये जगह कहाँ है?" पूछा मैंने,
"करीब दो ढाई किलोमीटर मान लो!" बोला वो,
"दिखा दोगे?" पूछा मैंने,
"बिलकुल जी!" बोला वो,
"डर तो नहीं लगेगा?" पूछा शहरयार जी ने मज़ाक़ से!
"आप होंगे जी साथ!" बोला वो,
"ऐसा होता आ रहा है जी यहां!" बोले पूरन जी!
"मामला बड़ा ही अजीब है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले शहरयार जी!
"अब क्या हो?" बोले वो,
"कल देखते हैं?" कहा मैंने,
"जी!" बोले पूरन जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कृष्ण जी, भी हमारे साथ सलाद और रम का आनन्द उठा रहे थे, कमरे में सीमा सी शान्ति थी, कुछ ऐसी शान्ति कि अगर बाहर से कुछ 'हू!' की सी आवाज़ आ जाए तो सब एक दूसरे को ढाल बना लें! या फिर रजाई ही ओढ़ लें! हड्डियां तो कांप ही रही थीं, मांस-पेशियां भी गनगना जाएं एक ही क्षण में!
"कोई और है पूरन जी?" पूछा मैंने,
"हां जी, हैं, अब रात हो गयी है, कल मिलवाता हूँ!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"बहुत बुरा हाल है जी!" बोले वो,
"और सर्दी का टाइम है अब!" बोला सुधीर!
"हां जी, सर्दी के समय तो ज़्यादा ही होता है!" बोला सुधीर!
"समझ गया हूं!" कहा मैंने,
"तो जी इसीलिए आये थे हम आपके पास!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बाकी शहरयार जी से बात हो ही रही थी!" बोले पूरन जी,
"मैंने नहीं सोचा था मामला ऐसा है!" कहा मैंने,
"यही तो बताया इनको!" बोले वो,
बातें होती रही हमारी, एक एक करके सभी नमस्कार कर गए, पूरन जी और कृष्ण जी, वहीँ ठहरे, वहीँ हमारा ठहरने का इंतज़ाम भी था, अब तो गांव भी आधुनिक से हो गए हैं, सुविधाएं मिलने लगी हैं, अब दूरियां शहरों से, आपस के गांवों से, कम हो सिमट गयी हैं! ऐसे बहुत से से रास्ते हैं आज भी! जल्दी में मैंने दिल्ली-बदायूं के एक रास्ते में ऐसा सुना था, वहां भी ऐसा होता है, लेकिन पता चला है, वे सभी मदद वाले हैं, मदद करते हैं, इसीलिए लोगों में भी कोई डर नहीं है उनका! एक ख़ास जगह है, जहां वे लोग हाथ जोड़ लिया करते हैं, सम्भव है, इसी मान-सम्मान के बदल में वे सभी मददग़ार हैं! अब रही यहां की, यहां अभी भी गांव-देहात के आसपास, बीयाबान है, बंजर ज़मीन है दूर दूर तक, तो ऐसे स्थानों से कुछ कहानियां अक्सर जन्म ले ही लेती हैं! ये कोई कहानी नहीं थी, जिन लोगों से बात हुई थी, उनमे कुछ नहीं, बहुत सी समानता थी, ये सभी बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बता रहे थे, इसमें अवश्य ही कुछ न कुछ सच्चाई तो थी ही! और सच्चाई कहां थी, ये नहीं मालूम था! और यही खोजना भी था!
सुबह हुई, फ़ारिग हुए हम, सुबह दूध भी पिया और चाय भी, चाय के साथ परांठे भी मिले! अब सर्दी में तो इनका मजा ही अलग है! रात का साग, सुबह बेहद अच्छा लगता है, स्वाद बहुत बढ़ जाता है! सो हमने वही खाया! 
बजे करीब दस... और हम धूप में आ बैठे, ये एक घेर था, अलग सा बना हुआ, चारपाई बिछा दी गयी थीं, कुर्सियां भी, हम कुर्सियों पर ही बैठे थे! बातें कर रहे थे कि पूरन जी आये, उनके साथ दो युवक थे, दोनों ही युवक शालीन, पढ़े-लिखे और बढ़िया कपड़ों में थे, उन्होंने नमस्कार की हमसे, और बैठ गए वहीँ!
"ये है जी रवि!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"इनकी अपनी दुकान है छोटी सी!" बोले वो,
"किस चीज़ की?" पूछा मैंने,
"परचून की!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जी, और ये है महेश!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये महेश एक जगह नौकरी करता है, ठीक-ठाक ही है काम इसका, अब अपना शुरू करेगा!" बोले वो,
"ये तो अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"हां रवि?" कहा मैंने,
"जी रात को ही पता चला, तो सोचा सुबह मिलूं!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"बताओ रवि!" बोले शहरयार जी!
"कोई छह महीने पहले की बात है ये, मैं अपनी पत्नी के साथ, कोई शाम को, साढ़े साथ या सात मान लो, उसकी दवाई ले कर आ रहा था!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो मैंने देखा, कि उधर जो पेड़ हैं, उधर एक लड़का खड़ा था, एक पांव उस चबूतरे के पत्थर से टिकाये हुए और अपने बैग से कुछ निकालते हुए, या टटोलते हुए!" बोला वो,
"वो लड़का यहां आसपास का नहीं था!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जब मैं अंदर की तरफ मुड़ने लगा तो उस लड़के ने आवाज़ दी, हाथ हिलाकर!" बोला वो,
"अच्छा, फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने अपनी मोटरसाइकिल खड़ी की, पत्नी उतर गयी, तो मैं चला उसके पास! सड़क पर की और चल पड़ा!" बोला वो,
''अच्छा फिर?'' कहा मैंने,
"तो मैं पहुंच, और उस से बात की, तो उसने मुझसे पूछा कि यहां से ***बाद जाने का रास्ता कहां है?" बोला वो,
"मैंने बता दिया उसे!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो वो बोला कि, कितनी दूर है? मैंने कहा कि कोई सौ के आसपास, तो बोला कोई सवारी मिल जायेगी?" बोला वो,
''बात अजीब तो थी नहीं, मैंने कहा कि हां, बस आती है, मिल जायेगी!" बोला वो,
''अच्छा, इसने भी वहीँ का पता पूछा?" मैंने कहा,
"हां जी!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"तो वो बोला कि ज़रा मैं उसका बैग पकड़ लूँ, उसे लघु-शंका त्याग करनी है, बस अभी आया वो!" बोला वो,
"अच्छा! बैग ले लिए फिर?" पूछा मैंने,
"हां जी, लड़का शरीफ ही था, बैग भी कोई बड़ा नहीं था, छोटा सा नीले रंग का बैग था, बैग पर, पेन से कुछ लिखा हुआ था, मैंने पढ़ा तो उसमे एक तारीख थी, ये थी बाइस जनवरी दो हज़ार आठ!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"दो हज़ार आठ?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"बैग में क्या हो सकता था?'' पूछा मैंने,
"हल्का सा ही था बैग, कागज़ ही होंगे!" बोला वो,
"अच्छा, तो वो चला गया?" पूछा मैंने,
"हां जी, वो चला गया था एक तरफ!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उसे दो मिनट हुए, पांच मिनट, मैं ज़रा सोच में पड़ा कि कहां चला गया? और इस तरह से कोई पन्द्रह मिनट बीत गए!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"फिर जी मैं देखने चला गया, आवाज़ दी कई बार, लेकिन कि नहीं वहां? मैंने और आगे जाकर देखा, लेकिन यहां भी कोई नहीं?" बताया उसने,
"ओह....फिर?" पूछा मैंने,
"मैं वापिस लौट पड़ा, जैसे ही लौटा कि मुझे बायीं तरफ, एक झाड़ी के पास, वो गिरा मिला! मैं घबरा गया! क्या हुआ इसे? अचानक से क्या हुआ? अभी तो ठीक था?" बोला वो,
"उसके बाद?" पूछा मैंने,
"मैं चला झाड़ी के पास तक, जैसे ही उस पर नज़र पड़ी! मेरी तो सांस उखड़ गयी! उसके न हाथ थे और न सर ही, सर दूर पड़ा था, उल्टा पड़ा हुआ, हाथ कटे हुए, दूर पड़े थे, एक दूसरे से जुड़े हुए!" बोला वो,
"ओफ़्फ़्फ़!" कहा मैंने,
"मेरी तो हालत खराब हो गयी! समझ नहीं आया कि क्या करूं? वो बैग मैंने वहीँ फेंक दिया और दौड़ चला, तभी आवाज़ आयी उसी की, भागो! भागो! जल्दी! जल्दी!" बोला वो,
"समझ गया!" बोला मैं,
"फिर?" बोले शहरयार जी!
"मैंने न देखा पीछे! पसीने से छूट गए! पत्नी ने कई बार पूछा, कोई जवाब नहीं दिया, बस स्टार्ट करके मोटरसाइकिल अपनी, भाग लिया वहां से, सीधे घर पर ही आ कर रुका! घर पर सभी को बताई तो सभी घबरा गए! क्या करते! भगवान की राजी थी तो जान बच गयी!" बोला वो,
अब यहां एक नयी बात सामने आयी थी, कटे हुए हाथ, बाजू, जो काट कर फेंक दिए गए थे!
"एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"वो जगह, जहां वो पड़ा था, वो कितनी दूर होगी?" बोला मैं,
"कोई पंद्रह मीटर?" बोला वो,
"वहां से सड़क दीखती है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"क्या है वहां?" पूछा मैंने,
"एक तो पेड़ हैं, झाड़ियां और एक टूटी फूटी सी इमारत है, जो अब बस खण्डहर ही है, कुछ नहीं है वहाँ, ज़मीन से मिल चुकी है वो!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"वैसे लड़का कैसा था?" पूछा शहरयार ने,
"अच्छा खासा था!" बोला वो,
"कद काठी?" पूछा उन्होंने,
"मुझ से तो ऊंचा रहा होगा!" बोला वो,
''और रंग रूप?" पूछा मैंने,
"गेंहुआ रंग होगा?" बोला वो,
"कपड़े?" पूछा मैंने,
"अच्छे ही थे!" बोला वो,
"कहीं से आया हो, ऐसा लगता था?" पूछा मैंने,
"हां जी, नहाया-धोया सा!" बोला वो,
"उम्र बीस के आसपास?" पूछा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"पूछा फिर से यही..क्या नाम है.....***बाद ही?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"एक मिनट?" बोले शहरयार!
"जी?" बोला वो,
"उसके हाथ कटे थे?" बोले वो,
"हां!" बोला वो,
"कटे थे या उखड़े थे?" पूछा उन्होंने,
"मतलब?" पूछा उसने,
"मतलब, किसी धारदार हथियार से काटे गए थे या उखाड़ दिए गए थे?" बोले वो,
"ये नहीं देखा, हिम्मत ही नहीं हुई!" बोला वो,
"क्या खून फैला था वहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"ज़रा सा भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं जी" बोला वो,
"मक्खियां उड़ रही थीं उस पर?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"चींटियां या चींटे, कीड़े-मकौड़े?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, सिर्फ मिट्टी में सना हुआ था!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
अब वो चुप हो गया, उसने जो कुछ देखा था, सब बता दिया गया था हमें! कोई चीज़ नहीं छूटी थी इसमें!
''और महेश तुमने?" पूछा मैंने,
"मैंने?" बोला वो,
"हां, कुछ देखा?" पूछा मैंने,

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हां महेश?" कहा मैंने,
"बहुत बुरी बीती उस दिन तो!" बोला वो,
"बहुत बुरी?" पूछा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा शहरयार जी ने,
"उस दिन मुझे गाड़ी पकड़नी थी, सुबह छह बजे की, तो घर से निकले हम जल्दी!" बोला वो,
"हम कौन?" पूछा मैंने,
"मेरे ताऊ जी का लड़का आया था!" बोला वो,
"तो दोनों साथ ही निकले थे?" पूछा मैंने,
"हां, वो मुझे स्टेशन के लिए बिठा देता, उसको वहीँ काम था, वो वहीँ जाता!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो उस दिन बजे होंगे कोई पांच, ना! पांच से कम का वक़्त होगा, पौने पांच मान लो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो हम पहुंचे रास्ते पर, रास्ता साफ़ था, कोई यातायात था नहीं, हां, थोड़ा सा अंधेरा ज़रूर था, लेकिन दीख सब रहा था, मौसम भी बढ़िया था उस दिन!" बोला वो,
"तो हम मुड़ लिए रास्ते पर!" बोला वो,
''एक मिनट रुको!" बोले शहरयार जी!
"जी?" बोला वो,
"उस रास्ते पर, मतलब उन पेड़ों से बाएं?" बोले वो,
"हां जी!" बोला वो,
"तो उस जगह, पेड़ों वाली जगह, कोई न था?" पूछा उन्होंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"हम आराम से ही चल रहे थे कि एकदम, मुझे रोका प्रमोद ने, मैंने झट से ब्रेक लगा लिए!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"मैंने प्रमोद से पूछा, तो प्रमोद ने कुछ जवाब नहीं दिया, बस हाथ के इशारे से कुछ दिखाने लगा!" बोला वो,
"क्या था वहां?" पूछा मैंने,
"वहां जी, तीन सर पड़े थे, कटे हुए, सभी सड़क की तरफ देखते हुए! ऐसे रखे थे, जैसे किसी ने रखे हों सजा कर!" कहा उसने,
"ओह!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"प्रमोद ने कही कि भाग लो जल्दी ही!" बोला वो,
"भाग लिए?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"कोई आवाज़ नहीं?" पूछा मैंने,
"बता रहा हूं!" बोला वो,
"ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
"मैंने भगा दी मोटरसाइकिल! और चले हम तेज गति से! तभी पीछे से आवाज़ आयी!" बोला वो,
"क्या आवाज़?" पूछा मैंने,
"प्रमोद ने पीछे देखा! मैंने भी देखा मोटरसाइकिल रोक कर! और जैसे ही देखा कि आंखों के सामने अंधेरा छाने लगा!" बोला वो,
"ऐसा क्या देखा?" पूछा मैंने,
"पीछे, एक लड़का भागा चला आ रहा था, हाथ में सर लिए! सर बोल रहा था, भागो भागो भागो!" बोला वो असहज सा होते हुए!
"प्रमोद की चीख निकली!" बोला वो,
"सो तो है ही!" बोला मैं,
''और मैंने भगायी गाड़ी तेज!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर क्या जी? फिर नहीं रोकी! आगे एक क़स्बा पड़ता है, वहीँ सांस ली हमने!" बोला वो,
"लड़का कैसा था?" पूछा मैंने,
"कम उम्र का होगा!" बोला वो,
"कितना?" पूछा मैंने,
"पन्द्रह या सोलह?" बोला वो,
"सर तीन थे?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोला वो,
"उनमे ये लड़का भी था?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोला वो,
"कितनी दूर है वो जगह वहां से?" पूछा मैंने,
"कस्बे से?" पूछा उसने,
"नहीं, गांव के रास्ते से!" कहा मैंने,
"कोई दो किलोमीटर?" बोला वो,
''दिखा दोगे?" बोला मैं,
''हां जी!" बोला वो,
"ठीक, बताता हूं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
तभी चाय आ गयी, चाय पीने लगे हम फिर! रवि और महेश, दोनों ही नमस्ते कर, चलते बने वहां से!
"अब देख लो जी आप!" बोले कृष्ण जी,
"हां!" कहा मैंने,
"ये है क्या?" पूछा उन्होंने,
"समझ ही नहीं आया!" कहा मैंने,
"अब?" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"मामला है तो टेढ़ा ही!" बोले शहरयार जी!
"हां! बहुत टेढ़ा!" कहा मैंने,
''ये लो आप!" बोले वो, और..

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने मुझे एक शकरपारे का टुकड़ा दिया था, गुड़ से बना हुआ! ये तो खैर होता ही लाजवाब है! एक खाओगे तो दो-चार का पता ही नहीं चलेगा! वही दिया था, चाय के साथ!
"अब क्या सोचा?" बोले शहरयार,
"चलते हैं!" कहा मैंने,
"हां, देखते हैं!" कहा मैंने,
"कुछ रखना तो नहीं?" बोले वो,
"नहीं, क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"क्या जी?" बोले कृष्ण जी,
"नहीं, कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोले वो,
"पूरन?" बोले वो,
"हां जी?'' बोले वो,
"गाड़ी तैयार है?" पूछा उन्होंने,
"हां!" बोले वो,
"तो ठीक, चल रहे हो?" पूछा उन्होंने,
"चलो?" बोले वो,
"ठीक, चलो!" बोले वो,
"उधर, खम्भे तक आ जाओ, वहीँ मिलता हूं!" बोले वो,
"ठीक है!" बोले कृष्ण साहब!
हमने चाय ख़तम की, और फिर चल पड़े वहां के लिए! यहां बारीकी से मुआयना करना था, कोई चीज़ छूटनी नहीं चाहिए थी, नहीं तो सम्भव था, कोई कड़ी नज़रअंदाज़ हो जाए और कुछ का कुछ समझा जाए!
तो हम उधर आये, एक मारुती वैन थी ये, सिल्वर रंग की, गाड़ी नयी ही थी, आवाज़ भी खन-खन सी थी! गांव के हिसाब से तो उसका रख-रखाव बढ़िया रखा गया था! गाड़ी पूरन ही चला रहे थे, लोकल के लिए लोकल चालक ही बढ़िया रहता है!
तो हाथ जोड़, हम निकल गए वहां से, बाहर का रास्ता पकड़ा, आराम आराम से चल दिए, कोई पन्द्रह मिनट बाद ही, एक मन्दिर दिखा! पुराना सा मन्दिर था वो! घने पेड़ों के बीच बना हुआ! आसपास उसके फूल आदि उग दिए गए थे, साफ़-सफाई कर रखी थी! बड़ी ही ख़ुशी हुई!
"ये ही है वो मन्दिर?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
गाड़ी धीरे कर ली और मन्दिर के सामने रोक ली, हाथ जोड़े सभी ने! 
"कितना पुराना होगा?" पूछा मैंने,
"डेढ़ दो सौ साल तो मानो!" बोले वो,
"ऐसा ही बने है?" पूछा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
''अंदर एक स्थान बनवा दिया है" बोले कृष्ण जी,
"तीज-त्यौहार के लिए?" पूछा मैंने,
"जी!" बोले वो,
"बहुत अच्छी बात है!" कहा मैंने,
''अंदर एक नलका भी लगवा दिया गया है, एक कुआं था कभी, अब तो बन्द सा ही है, नलका लगवाया है, मशीन भी, तो और भी मदद आता है!" बोले वो,
"बहुत ही बढ़िया!" कहा मैंने,
"चलें?" बोले वो,
''हां? चलो?" बोले वो,
"ठीक!" बोले वो,
और गाड़ी आगे बढ़ चली! सामने से एक और कार आ रही थी, उसके चालक ने इशारा किया और रुक गयी हमारी गाड़ी, उन दोनों में बात हुई और फिर, दोनों ही अपने अपने रास्ते बढ़ गए!
"क्या कह रहा था?" पूछा कृष्ण जी ने,
"पूछ रहा था कुछ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
और तब गाड़ी ने लगाया शिर, और हम ऊपर के बड़े रास्ते पर आ गए! गाड़ी एक तरफ लगा कर उन्होंने बाहर झांका!
"वो पेड़ देखते हो जी?" बोले पूरन,
"हां?" कहा मैंने,
"यही हैं वो पेड़!" कहा मैंने,
"उनके पास चलो?" कहा मैंने,
"अभी!" बोले वो,
अब गाड़ी आगे की, आगे पीछे देखा और मोड़ ली गाड़ी, आ गए हम उन पेड़ों के पास! घनी छाया थी यहां! वहीँ एक जगह, गाड़ी, लगा दी और हम उतर गए सभी! मैंने पेड़ों को देखा! विशाल, पुराने बड़े पेड़!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे सभी पेड़, बेहद ही शानदार और बड़े थे! उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में वहां के माहौल का चप्पा-चप्पा छान मारा होगा! अनगिनत ग्रीष्म, वसन्त, वर्षा एवं पतझड़ आदि देखे थे! उनकी बूढ़ी खाल रूपी छालें इस बात की गवाह थीं! दो पेड़ों के नीचे एक चबूतरा सा बना था, जो कि, अब उनकी जड़ों द्वारा बिखेर दिया गया था! चटख गया था वो! कोई ईंट शायद ही बची हो! मिट्टी ज़रूर थी वहां, जिसमे कुछ जंगली झाड़ी, फूल आदि लग गए थे अपने आप ही! एक थोड़ा उनसे दूर ही बरगद का पेड़ भी है, वो थोड़ा अलग ही खड़ा, चुपचाप इन चारों का वार्तालाप सुनता होगा! उसकी उनसे खूब छन गयी होगी, ये उसकी लटकती हुई जड़ों को, उन पीपल के पेड़ों ने सहारा दे कर जतला ही दिया था! तभी, काकड़ सी आवाज़ वाले परिंदे बोले! आवाज़ बहके ही कर्कश हो उसकी, लेकिन उसकी आवाज़, उस समय बेहद ही प्यारी लगी थी! दो बुलबुल भी देखीं हमने उधर! और कुछ लाल से रंग के अलबेलिया परिंदे भी! ये बीज खाते हैं पीपल के और बरगद के! वहीँ पैसा अहाते हैं और वहीँ अपना जीवन काट देते हैं! अगली सन्तति यहीं जन्म लेती हे और यही सिलसिला, लगातार चलता चला जा है!
थोड़ा दूर घास में, एक नेवला भी था, सर उठा, हमें ही देख रहा था! बेहद ही सुंदर सा लगता है ये जीव! चपल, चतुर और चौकस! उसने जायज़ा लिया, और चला गया घास को छानता हुआ!
"ये कितने पुराने पेड़ हैं?" पूछा मैंने,
"ये? पता नहीं जी!" बोले पूरन जी,
"फिर भी?'' पूछा मैंने,
"हमने तो ऐसे ही देखे!" बोले वो,
"कम से कम डेढ़ सौ साल मानो!" बोले शहरयार जी,
"हां जी!" बोले कृष्ण जी,
"बुज़ुर्ग हो गए!" कहा मैंने,
'हां जी, बढ़े बूढ़े!" बोले वो,
"सही कहा!" कहा मैंने,
"यहां कुछ नहीं था जी!" बोले वो,
"नहीं होगा!" कहा मैंने,
"गाँव से ये बहुत दूर लगते थे!" बोले वो,
"हां, तब तो!" कहा मैंने,
"ये तमाम बीहड़ ही बीहड़ था!" बोले वो,
"रहा होगा!" कहा मैंने,
"तब यहां लोग आते थे, टांग चलता था, ऊंट-गाड़ी तब, याद है हमें!" बोले वो,
"बहुत वक़्त बीत गया जी!" बोले पूरन,
"समय उड़ जाता है!" बोला मैं!
"पंख लग जाते हैं!" बोले वो,
"हां और ये, सब गवाह हैं!" बोले कृष्ण जी!
"जब यहां सड़क बनी, तब भी नहीं कटने दिए लोगों ने, देखो आप! सड़क टेढ़ी है यहां से! देखो आप!" बोले वो,
"अरे हां!" कहा मैंने, देखते हुए, वाक़ई, सड़क में घुमाव था वहां!
"गांव वालों ने कटने ही नहीं दिए!" बोले कृष्ण जी!
"ये तो बहुत अच्छा किया आप सभी ने!" बोला मैं,
"वो देखो?" बोले वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"वो खण्डहर!" बोले वो,
''आओ ज़रा?" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
हम आ गए उधर, ये एक टूटा-फूटा सा खण्डहर था वहां, अब तो नाममात्र का ही बचा था, दीवारें बची थीं, आक के पौधों में खूब बसेरा बनाया था यहां! छत कहीं नहीं थी! ये करीब चार कमरों का रहा होगा!
"ये है क्या?'' पूछा शहरयार जी ने,
"पता नहीं!" बोले पूरन,
"कोई सराय?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
"कोई नाका या चौकी सी लगती है!" कहा मैंने,
"अच्छा, महसूल वसूलने!" बोले वो,
''हां!" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोले वो,
"पहले छोटी छोटी रियासतें थीं!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
"तो ये भी रही होगी!" कहा मैंने,
"***बाद का तो नाम है जी!" बोले वो,
''हां, सुना है!" कहा मैंने,
"बड़ा मशहूर रहा है!" बोले वो,
"हां, फिरंगी ने बसाया था ना?" पूछा मैंने,
"हां! बिलकुल! वही! वाह जी!" बोले वो,
"उसे बाक़ायदा उपाधि बख्शी गयी थी!" कहा मैंने,
"कौन थे जी सुलतान?" बोले शहरयार!
"शाह आलम द्वितीय! और उपाधि थी नसीर-उद-दौला!" कहा मैंने,
"वाह! सब याद है आपको!" बोले पूरन जी!
"होना भी चाहिए!" कहा मैंने,
"बिलकुल जी!" कहा मैंने,


   
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