थोड़ी सी दिक्कत हुई उसे!
खांसा,
थूक गटका,
और फिर से सो गया!
फिर से यही किया ऊषल ने!
और अपना नाख़ून उसके एक होंठ पर दबा दिया!
चौंक पड़ा वो!
आँखें खोल दीं!
और ऊषल को वहां देख,
डर आगे वो!
पीछे हट गया!
समझ नहीं सका,
कि ये सपना है?
या हक़ीक़त?
ये सच में,
ऊषल ही है?
और वो ऊषल!
उसके ये डर के भाव देखकर,
हंस पड़ी!
वो आगे हुई,
और आगे,
अब पीछे नहीं हो सकता था औरांग!
वहीँ जमा बैठा रहा!
आँखें फाड़े देखता रहा!
ऊषल उठी,
हलकी से,
और औरांग की पुष्ट जांघ पर,
बैठ गयी!
सारे रसायन सक्रिय हो गए औरांग की देह के!
वो कुछ समझ पाता,
कुछ प्रतिक्रिया कर पाता,
गले से,
कस के लिपट गयी ऊषल!
अब न हटा सका उसको!
"औरांग!" हलके से बोली ऊषल!
औरांग बेचारा बेहोश होने को!
"औरांग! मैं प्रेम करती हूँ तुमसे! बहुत! बहुत!" वो बोल गयी!
और औरांग!
ज्वालामुखी फूट गए कानों में उसके!
दिल में जैसे छेद हो गया!
हक्काबक्का!
क्या करे?
कुछ न सुझे उसे!
हाथ खुले ही रहे उसके!
समझ से बाहर था ये सबकुछ!
"औरांग! मेरा प्रेम स्वीकार करो!" वो बोली,
क्या स्वीकार करे?
प्रेम?
या मृत्यु?
खल्लट को पता चला अगर ये,
तो समझो आयु-लता तभी कटी!
ये तो स्त्री है!
सौ बहाने हैं इसके पास!
ये तो कुछ भी कह कर,
बरगला देगी उसे!
लेकिन ये औरांग?
मार डाला जाएगा उसी क्षण!
दगाबाजों से बहुत नफरत है उस खल्लट को!
आंसू भर लायी वो आँखों में!
और इन आंसुओं ने,
खल्लट का भय,
औरांग में मन से,
बहा दिया पानी की तरह!
भर लिया उसने ऊषल को अपनी भुजाओं में!
हार गया उसका विवेक!
और जीत गयी ऊषल!
उसके गले लगी ऊषल,
मुस्कुरा रही थी!
आँखों में आंसू लिए!
ये आंसू कैसे थे?
ख़ुशी के आंसू!
प्यादा बढ़ चला था एक चाल!
शय देने राजा को!
अब हटी वो!
कार्य पूर्ण हो गया था!
यदि आज ही,
'वो' भी पूर्ण हो जाएगा,
तो बात नहीं बनेगी!
और मथना होगा इस औरांग को!
ढालना होगा,
इस कच्ची मिट्टी सरीखे औरांग को!
वो उठ गयी!
मुस्कुराते हुए!
और कह दिया अगले दिन उसी स्थान पर मिलने को!
इसके बाद,
दरवाज़ा हलके से खोल,
खिसक गयी बाहर!
और औरांग!
दहक रहा था अंदर ही अंदर!
काम-अगन भड़क चुकी थी!
नए नए रसायन बन रहे थे देह में!
समस्त इन्द्रियाँ हठ पकड़ बैठी थीं!
नथुनों में,
उसके,
ऊषल के केशों में लगे,
उस इत्र की सुगंध,
बस चुकी थी!
उसकी भुजाएं,
फड़क रही थीं!
ऊषल को जकड़ने के लिए!
तपन थी!
बहुत तपन!
वो उठा!
और पानी पिया!
मदिरा तो,
कब का उड़ चुकी थी!
अब तो!
ऊषल की मदिरा की चढ़ी थी!
खुमारी तो हो ही गयी थी उसे,
नशा भी हो ही जाना था!
सुरूर में डूब चला था!
ऊषल का स्पर्श,
उसकी जकड़न,
रह रह कर याद आ रही थी!
दिल धड़क रहा था तेज तेज!
विवेक सो चुका था!
ऊषल के सुरूर ने,
काम-सुरूर ने कब का सुला दिया था उसे!
उस रात नहीं सो सका वो!
देह को बहुत मनाया उसने!
पर उसकी पुरुष-देह ने,
स्त्री-देह का स्पर्श ले लिया था!
और मांग अब,
बढ़ती जा रही थी!
पौरुष ललकारने लगा था उसका!
नसें उभर चुकी थीं देह की!
एक अजीब सी लालसा,
मन में जाग चुकी थी!
एक नशा,
जिसे करने को,
अब तड़प सा उठा था औरांग!
सुबह हुई!
रात की घटना याद आई उसे!
फिर से कसक उठी,
सूर्य को देखा,
अभी तो बहुत समय था!
मिलने में,
ऊषल से!
अब तो उसको अपना अस्तित्व उस,
ऊषल के इर्द-गिर्द ही नज़र आने लगा था!
और फिर मध्यान्ह हुआ!
सूर्य को देखा,
समय आँका,
अपना खंजर खोंसा अपने अंगरखे में,
और चल दिया,
मिलने ऊषल से,
पहुँच गया!
लेकिन उस समय तक,
ऊषल नहीं आई थी!
ऊषल ने किसी तरह,
गीली लकड़ी में आग तो लगा दी थी,
फूंक भी मार दी थी,
अब उसको सुलगाना था!
इसी कारण नहीं आई थी अभी तक वो!
समय काटे नहीं कटे औरांग का तो!
पल पल ऐसा लगे जैसे एक अमावस से दूजी अमावस!
तड़प रहा था वो!
सुलग रहा था वो!
और यही तो उद्देश्य तथा उस ऊषल का!
सध के चाल खेल रही थी ऊषल!
एक सधे हुए खिलाड़ी की तरह!
आधा घंटा बीत गया!
लकड़ी सुलगती रही!
धुंआ उठता रहा!
बस फूंक की ज़रूरत थी!
और ये फूंक,
केवल ऊषल ही मार सकती थी!
और तभी!
तभी आई ऊषल!
मुस्कुरा पड़ा देख कर उसे औरांग!
वो भी मुस्कुराई!
अपनी देर का कारण बताया!
ये कि कैसे कैसे आई है वो!
किस किस से बच के आना होता है!
लेकिन प्रेम है!
आना तो पड़ेगा ही!
विवशता है!
औरांग फूला न समाये!
क्या क्या आकृति है ऊषल उसके लिए!
सीना चौड़ा हो जाए उसका!
और तब,
बाजू में भींच लिया उसने उसे!
कसमसा गयी ऊषल!
देह में बवंडर उठ गया औरांग की!
देह कड़ी हो गयी!
रक्त तेज बहने लगा!
उसके हाथ,
रेंगते रहे ऊषल की देह पर!
ऊषल बनावटी आह भरती!
इस से,
ईंधन मिल जाता औरांग की काम-अगन को!
वो बेतहाशा पागल सा हो,
चूमता उसे!
बाजू में भरता!
हाथ चलाता!
और आह भरती हुई ऊषल,
उसको बांधे रहती!
आगे नहीं बढ़ने देती!
यही तो खेल था!
इसी खेल में,
झुलसाना था उसे!
तड़पाना था उसे!
औरांग ने तो,
सारे हथियार डाल दिए थे अपने!
वो पल उसे,
स्वर्ग सरीखे प्रतीत होते!
कितना आनंदमय होता वो सब!
उस ऊषल की कोमल देह को छूना,
उसका आह भरना!
उसका कसमसाना!
उसका समर्पण की मुद्रा में आना!
ये खेल अब रोज होने लगा,
वो रोज आता!
खेल में मोहरा बन,
आगे बढ़ जाता!
और फिर एक दिन!
जब वे मिले,
तो ऊषल चिंतित थी!
औरांग से रहा न गया!
उसकी प्रेयसी,
उसके रहते हुए,
चिंतित हो!
ऐसा कैसे सम्भव है!
उसने पूछा,
तो बता दिया उसने कि,
कल आ जाएगा खल्लट!
ये मेल-मिलाप खत्म अब!
तब कैसे होगी?
ओह!
दिमाग घूम गया औरांग का!
हाँ!
कल आ जाएगा खल्लट!
फिर कैसे होगी मुलाक़ात?
ये तो सोचा ही नहीं उसने?
अब वो भी चिंतित!
वो चलने लगी वहाँ से!
भागने लगी!
रोक लिया उसको!
पकड़ लिया!
नहीं रुक सकती थी!
कारण,
कारण ये कि वो नहीं चाहती कि खल्लट को,
कभी भी इसकी भनक लगे!
नहीं तो अंजाम दोनों को ही पता है!
अंजाम तो जानते ही थे वो!
वो चली गयी फिर!
रात को आने का कह कर!
अब चिंतित सा,
घबराया हुआ,
लौट पड़ा औरांग वहाँ से,
सीधा अपने कक्ष में आया!
और डूब गया सोच में!
अब क्या करेगा वो!
कैसे मिलेगा?
कैसे रहेगा?
क्या किया जाना चाहिए?
सवालों ने आ घेरा उसे!
उठा-पटक शुरू हो गयी!
कभी ऐसा सोचता,
कभी वैसा!
लेकिन हल,
हल नहीं निकलता था!
अब तो ऊषल ही,
कोई राह सुझाये तो सुझाये!
उसे तो मालूम नहीं!
लेट गया थक-हार कर!
और फिर हुई संध्या!
दीप जलने लगे घरों में,
उसने भी जला लिया,
और करता रहा इंतज़ार रात का!
उसकी प्रेयसी आनी थी!
इंतज़ार!
और इंतज़ार!
लेकिन सब बेकार!
नहीं आई थी वो!
रात घिर गयी थी!
तारे निकल चुके थे!
चाँद आ चुके थे नभ में!
लेकिन वो नहीं आई!
इंतज़ार के डंक खाता रहा वो!
बहुत देर तक!
बहुत देर तक!
और फिर रात चढ़ी!
नहीं आई वो उस रात!
तड़पता ही रहा वो!
सोचता रहा,
कि इतनी देर में ही,
उसकी ऐसी हालत हो गयी,
खल्लट के आने के बाद क्या होगा?
कैसे बिताएगा समय अपना?
यही सोचते सोचते,
नींद आई!
और सो गया!
सपने भी उसको उस रात,
ऊषल के ही आये!
हुई सुबह!
और उसको खबर मिली!
रात को ही आ गया था खल्लट!
ओह!
अच्छा!
इसी कारण से!
इसी कारण से नहीं आई!
नहीं आने दिया होगा खल्लट ने!
पूरा महीना दूर था ऊषल से वो!
चिढ उठी उसके मन में!
चिढ!
हाँ!
चिढ!
यही तो बीज बो गयी थी वो ऊषल!
और अब वो बीज,
अंकुरित हो गया था!
यही तो चाहती थी वो!
सफल हो गयी थी ऊषल!
उसका जाल!
अब कसने लगा था,
औरांग को!
छटपटाने लगा था औरांग!
और फिर खबर आई उसके पास,
कि खल्लट ने बुलाया है उसे!
वो चल पड़ा!
सीधा पहुंचा खल्लट के पास!
खल्लट प्रसन्न हुआ!
बहुत प्रसन्न!
गले से लगा लिया उसको!
लेकिन औरांग!
उसकी नज़रें तो किसी और को खोज रही थीं!
ऊषल को!
ढूंढ रहा था वो.
अपनी कनखियों से उसे!
अब हाल चाल पूछा खल्लट ने औरांग से!
औरांग ने अपना हाल-चाल बताया!
खल्लट के पास पोटलियाँ रखी थीं,
खोल कर दिखायीं उसने औरांग को!
इसमें धन था,
अकूत धन!
यही तो काम था खल्लट का!
वो बंजारों की लूट का माल,
सुरक्षित करता,
अपने तंत्र-मंत्र से!
और उसके लिए,
उसको मोटा माल मिला करता!
वो बीजक गढ़ता,
और गाड़ देता था उनको!
इस विद्या में निपुण था खल्लट!
लेकिन औरांग की निगाहें उस धन को नहीं,
अपने 'व्यक्तिगत' धन को ढूंढ रही थीं!
और वो धन न जाने कहाँ रखा था!
ऊषल नहीं थी वहाँ!
अब खल्लट ने एक पेशकश की उस से,
औरांग को जाना था,
हाड़ाओं के पास!
कोई खजाना कीलना था!
और खल्लट थका हुआ था!
महीने भर में आया था वापिस,
अब जा नहीं सकता था हाड़ाओं के पास!
अब चौंका औरांग!
यानि के महीने भर वो भी दूर रहेगा?
नहीं!
ऐसा सम्भव नहीं!
लेकिन बोल नहीं पाया!
कौन बोलता खल्लट के सामने!
किसी की नहीं चलती थी उसके सामने!
खल्लट की बात,
अकाट्य थी,
उसकी इच्छा,
हुक्म था उसका!
और हुक़्मतलफ़ी कोई नहीं कर सकता था!
अब फंस गया था औरांग!
जाना तो निश्चित ही था!
वो भी महीने भर के लिए!
अब कैसे रहेगा वो!
अभी तो एक दिन भी नहीं कट रहा था,
महीने भर कैसे रहेगा वो?
और तभी,
घूंघट किये,
ऊषल आई वहाँ,
दो गिलास रखे,
एक थाली में,
दिल धड़क उठा औरांग का!
उसने गिलास लिया,
अपनी छोटी ऊँगली से,
ऊषल के हाथ को स्पर्श करते हुए,
घूंघट किये हुए थी,
कोई प्रतिक्रिया नहीं आई!
पेय ले लिया गया था,
ये अफीम का पेय था!
दोनों ने पिया!
और फिर निश्चित हो गया जाना औरांग का!
हाड़ाओं के पास!
कल निकल जाना था उसे,
पौ फटते ही!
अपने साथ और आदमी लिए हुए!
अब उठा औरांग!
और विदा ली,
दिल बहुत भारी था उसका,
और ये खल्लट,
खल्लट अब चुभने लगा था उसे!
उस सारे दिन,
उसने प्रतीक्षा की ऊषल की,
ये जानते हुए भी,
की नहीं आ पाएगी ऊषल!
क्योंकि खल्लट वहाँ था!
और उसी शाम,
खबर मिली उसे,
एक लड़की आई थी,
खबर ले कर,
संध्या समय,
बावड़ी पर बुलाया था उसे ऊषल ने!
ये लड़की, विश्वासपात्र थी ऊषल की!
अब जैसे ही खबर मिली उसे,
उसमे संजीवनी का जैसे संचार हो गया!
अपनी प्रेयसी की खबर सुन,
उस से मिलने की इच्छा जान,
चपल हो उठी उसकी देह!
फिर से चिंगारियां फूट पड़ीं!
संध्या ढलने में बस कुछ ही देर बाकी थी!
भाग उठा औरांग!
बावड़ी के लिए,
तेज तेज,
सीढ़ियां चढ़ीं उसने,
और आ गया ऊपर,
पानी भर रहे थे वहाँ लोग,
इक्का-दुक्का,
लेकिन ऊषल नहीं आई थी,
वो एक बुर्जी में जा कर खड़ा हो गया,
बिछा दीं नज़रें रास्ते पर,
और तब,
उसे नज़र आई ऊषल,
साथ में वही लड़की थी,
दिल धड़क उठा!
देह में स्फूर्ति आ गयी!
उसकी प्रेयसी जो आ रही थी!
वो हटा बुर्जी से,
और चला बावड़ी के मुख्य-स्थान की ओर,
उस मध्य में बने रास्ते पर!
सीढ़ियां चढ़ रही थी ऊषल!
धीरे धीरे,
उसका मन हुआ,
भाग छूटे वो वहाँ से,
और जा कर उठा ले अपनी प्रेयसी ऊषल को!
लेकिन उसने प्रतीक्षा की,
और सीढ़ियां चढ़ते हुए,
आ गयी ऊषल वहाँ!
घूंघट हटा लिया!
वो लड़की,
दूर ही खड़ी हो गयी!
और औरांग!
ले गया ऊषल को उस दीवार के पीछे!
भर लिया भुजाओं में!
ऊषल चिंहुक पड़ी!
ये भी एक नीति थी!
भड़काना जो था उसे!
तड़पाना था!
ऊषल का खेल,
बहुत सटीक,
और हर तीर,
अपने निशाने पर लग रहा था!
बिना कोई चूक हुए!
अब अलग हुई ऊषल उस से!
"कल जा रहे हो?" पूछा ऊषल ने,
इस सवाल से,
मुंह कड़वा हो गया उसका!
चीर के रख दिया उसका दिल!
"हाँ, जाना तो पड़ेगा" बोला औरांग,
"और वापसी कब?" पूछा,
"एक माह तो कम से कम" वो बोला,
सीने से चिपक गयी वो उसके!
औरांग के हाथ भी,
भींच बैठे ऊषल को,
"कैसे रहूंगी मैं?" पूछा उसने,
अब वो क्या बताये!
वो तो खुद मरा पड़ा था!
कोई उस से पूछे,
की वो कैसे रहेगा!
उसके बिना!
एक माह!
पूरे एक माह!
"बताओ?" पूछा,
क्या बताये!
कुछ नहीं बोला!
बस,
भींचे रहा वो!
एक और वार हुआ था!
सटीक वार था!
औरांग तो हिल गया था!
"जाना तो पड़ेगा ही" इतना ही बोला वो,
अब हटी,
"मैं प्रतीक्षा करुँगी" बोली ऊषल,
प्रतीक्षा!
वही तो नहीं हो रही थी,
उस, औरांग से!
इतना कह,
