वे सभी अँधेरे में गायब होते चले गए,
और हम उन्हें,
ओझल होते देखते रह गए!
यहां तो कोई,
बड़ा ही खेल चल रहा था!
मेरी सोच से भी बड़ा!
और वे चार पुरुष!
उन्होंने तो और सवालों के,
खूंटे गाड़ दिए थे!
जो धारणा मैं बनाता था,
अगले ही पल,
चकनाचूर हो जाती थी!
दरअसल,
हम जहां से चले थे,
अब भी वहीँ खड़े थे!
कोई सूत्र हाथ नहीं आ रहा था!
मेरी हालत ऐसी थी,
जैसी किसी हारे हुए,
जुआरी की सी होती है!
ये क्या खेल है?
पता नहीं!
ये कौन है पुरुष?
पता नहीं!
ये प्रधान साधिका कौन है?
पता नहीं!
और,
हम क्या कर रहे हैं वहाँ?
पता नहीं!
क्या किया जाए?
पता नही!
कुछ नहीं पता!
कुछ भी नहीं पता!
मात्र खीझ के,
कुछ नहीं लग रहा था हाथ मेरे!
मैं अपना मन मसोस के रह जाता,
एक ऐसा योद्धा,
जिसके तरकश में बाण तो हों,
लेकिन ये सुनिश्चित करने में असफल,
कि कौन सा अस्त्र प्रयोग में किया जाए!
जबकि सारी शत्रु-सेना,
सामने, आँखों से,
गुजरती जा रही है!
वो योद्धा,
अशक्त खड़ा है!
लाचार!
मायूस!
अनभिज्ञ!
मात्र देख ही रहा है,
कर कुछ नहीं पा रहा!
एक ऐसा अशक्त योद्धा!
वे सब चले गए थे वहाँ से,
हम अकेले दोनों ही,
वहाँ रह गए थे,
क्या करें और क्या नहीं,
यही समझ में नहीं आ रहा था,
उलझे हुए थे हम,
किनारे पर आ कर,
पता चलता था कि,
अभी तो सागर बहुत दूर है!
हम फिर चलते,
सागर से मिलने,
लहरें आतीं,
हम छू लेते उन्हें,
न पीछे जाए बनता था,
न आगे जाए,
आगे जाएँ तो कैसे,
और पीछे हटें,
तो और बुरा हाल!
अब हम वापिस चले,
अपनी गाड़ी की तरफ,
दिमाग में विस्फोट हुए जा रहे थे!
लगातार!
हम वापिस हुए,
धीरे धीरे चलते हुए,
और जैसे ही आये वहां,
उधर,
उस हौदी के पास,
एक पुरुष दिखाई दिया,
हम वहीँ भागे,
वो नग्न था,
हाथ जोड़े खड़ा था,
उसके गले,
कमर,
और हाथों में,
रस्सियाँ बंधी थीं,
वो भयभीत था,
हम आगे गए,
उसी के पास,
वो हमे देख,
नीचे बैठ गया!
मेरे कान गरम होने लगे!
किसी सूत्र के हाथ में आने की उत्कंठा से,
मैं जैसे उछल पड़ा!
मैं गया उसके पास,
वो पुरुष,
आयु में कोई चौबीस-पच्चीस वर्ष का रहा होगा,
सजीला जवान था वो,
चौड़े कंधे,
और मज़बूत जिस्म था उसका,
वो रो रहा था,
काँप रहा था,
मज़बूर हो,
ऐसा लग रहा था!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
वो काँप गया मेरी आवाज़ सुनकर,
घुटनों पर बैठा था,
नीचे गिर पड़ा,
अपने आपको संभाला उसने,
और बैठ गया,
उसके हाथ बंधे थे,
वे ही उठाये हुए था वो,
मैंने अपना खंजर निकला जेब से,
वो डरा!
मैंने हाथों के इशारे से,
उसको बैठे रहने को कहा,
वो बैठा रहा,
मैंने अपने खंजर से उसकी वो रस्सियाँ,
काटनी शुरू कईं,
वो बेचारा,
उस रस्सी को ही देखता रहा,
कट गयीं रस्सियाँ,
बड़ी मज़बूत थीं वो,
चमड़े से बनी हों,
ऐसा लगता था!
अब उसके गले की रस्सी काटी मैंने,
फिर कमर की,
और खड़ा किया उसको,
"बिला?" वो बोला,
मुझे कुछ समझ नहीं आया!
मैं फिर से खीझ उठा!
क्या है ये बिला?
"ऊर बिला" वो बोला,
ये कौन सी भाषा है?
मैंने बहुत ज़ोर लगाया समझने का,
लेकिन नहीं समझ सका,
"ऊर बिला?" वो बोला,
अपनी छाती पर ऊँगली रखते हुए!
अफ़सोस!
मैं नहीं समझ सका!
और तभी आवाज़ हुई,
झन्न!
झन्न!
वो भागा वहां से!
ऊर बिला!
ऊर बिला!
ये कहते हुए!
एक मौक़ा हाथ आया था,
वो भी निकल गया!
मैं गुस्से में धधक उठा!
और तभी मेरा फ़ोन बजा!
मेरी जेब में!
मैंने फ़ोन निकाला,
ये श्रुति का फोन था,
मैंने शर्मा जी को दे दिया,
उन्होंने बात कर ली उनसे,
समझा दिया!
और फिर सब शांत!
फिर कुछ नहीं हुआ!
मित्रगण!
हम फिर से कार में चले गए!
और सारी की सारी वो रात,
ऐसे ही ऊंघते हुए निकाल दी,
रातों रोई!
एक बचा!
वो भी सुबह होते ही भाग गया!
वही ढाक के तीन पात!
हम जहां थे,
अभी भी,
वहीँ थे!
सुबह हुई,
और हम अब चले वहाँ से,
पिटे हुए!
हारे हुए!
थके हुए!
मायूस!
खाली हाथ!
हम चल पड़े वापिस,
और तभी मेरा फ़ोन बजा!
ये फ़ोन बाबा जागड़ का था!
मुझे बहुत शर्म आई फोन उठाते हुए!
गाड़ी रोकी,
और अब बात की,
मैंने प्रणाम कहा,
"ऊर बेला!" वे बोले,
मैं चकित!
हैरान!
"ऊर बेला!" वो बोले,
मैं काँप सा गया!
अब उन्होंने रहस्य खोले!
आज उन्होंने सारी जांच कर ली थी!
ऊर बेला!
ये पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास की,
एक बोली थी,
तब ये क्षेत्र बहुत समृद्ध था!
ऐसी महान विद्याओं में!
ऊर बेला का अर्थ है,
कि सुबह!
सुबह मिलूंगा मैं!
क्योंकि उसने अपनी छाती को हाथ लगाया था!
कि मैं, सुबह मिलूंगा!
ये किश्कि भाषा थी!
और ये भाषा उस योगिनी-सम्प्रदाय की मूल भाषा थी!
अब बाबा जागड़ ने आदेश दिया,
कि मैं वापिस जाऊं वहां,
और उस व्यक्ति को ढूँढूँ!
वो वही मिलेगा!
और भाषा की जानकारी के लिए.
वो भाषा मेरे मुंह से,
अपने आप निकलती जायेगी!
ये था चमत्कार बाबा जागड़ का!
बाबा जागड़,
प्राचीन विद्याओं के ज्ञाता हैं!
महान विद्याओं के!
मैंने तभी गाड़ी मोड़ी!
और दौड़ चले वापिस!
तेज तेज चले!
वहाँ पहुंचे,
सूर्य निकल चुके थे!
गाड़ी खड़ी की,
और भाग चले!
वहीँ पहुंचे,
कलुष-मंत्र लड़ाया!
और जो सामने देखा,
वो अजीब था!
उस व्यक्ति के साथ,
वही लड़की खड़ी थी!
जिसके जीभ नहीं थी!
मैं भाग आकर गया वहाँ!
"वाउ बेला अरु!" वो बोला,
मैं यहीं खड़ा हूँ! सुबह से!
ओह!
अब जो शब्द मेरे मुंह से निकले,
वो किश्कि भाषा थी!
मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ!
मैं बाबा जागड़ की जद में था!
मेरी उस व्यक्ति से,
करीब आधा घंटा बात हुई!
क्या शब्द थे,
पता नहीं!
लेकिन बाबा जागड़,
सब समझ रहे थे!
सब!
अब मैं खुश था!
चलो!
कुछ हाथ आया!
मैं प्रसन्न हो उठा!
और वो लड़की,
और व्यक्ति,
भागते हुए,
कुँए में कूद गए!
अब मैं वापिस गाड़ी में आया,
और अब बजा फ़ोन!
और जो मुझे बाबा जागड़ ने बताया,
वो न मैंने कभी सुना,
न पढ़ा!
बहुत विचित्र था!
जो यहां घटा था,
वो कहीं और भी घटा था!
ये प्रतिकार था!
एक कड़वा और सटीक प्रतिवार!
जो लिया था,
एक पुरुष,
खल्लट ने!
कल आपको इस खल्लट के बारे में बताऊंगा!
मुझे कुछ भी समझ नहीं आया था,
बाबा जागड़ ने जो कुछ जाना,
अपने योग-बल, तंत्र-बल से,
मुझे बताया!
जैसे जैसे परते खुलती गयीं,
वैसे वैसे एक कहानी उभरने लगी!
एक वीभत्स कहानी!
एक क्रूर कहानी!
एक प्रतिकार की कहानी!
जब मैंने सुनी,
तो मेरे होश उड़ गए!
आपको यही कहानी सुनाता हूँ मैं अब!
ये स्थान!
ये स्थान अरूरा कहा जाता था उस समय!
यहां चौंसठ योगिनियों की तंत्र-पूजा हुआ करती थी!
मात्र स्त्रियां ही थी इस सम्प्रदाय में,
और इन साधिकाओं में,
सर्वोच्च थी एक महान साधिका,
कर्कली!
ये कर्कली,
इस सम्प्रदाय की संचालिका भी थी,
और सरंक्षक भी!
इस सम्प्रदाय में कुल ढाई सौ साधिकाएं थीं,
किस साधिका को गर्भ-धारण करवाना है,
क्या संतान होनी चाहिए,
किस संतान को रखना चाहिए,
ये सब कर्कली ही निश्चित करती थी!
अब चूंकि,
ये स्त्री सम्प्रदाय था,
अतः कन्या संतान ही विशेष थी यहां!
जिस साधिका को संतान हो जाया करती थी,
फिर वो कभी पूजन में नहीं हिस्सा ले सकती थी!
ऐसे थे यहाँ के नियम! क़ानून!
दिखने में ये स्थान,
आज शांत था!
चुप था!
लेकिन,
यहाँ एक कहानी छिपी थी!
एक क्रूर कहानी!
और ये कहानी यहां से नहीं,
राजस्थान के एक गाँव से शुरू होती थी!
यहां एक समुदाय रहा करता था,
ये सभी, ऐसी ऐसी महान शक्तियों के उपासक थे,
जिनके बारे में आज ज्ञान दुर्लभ है!
और इसी समुदाय का एक प्रधान उपासक था,
खल्लट!
एक महाप्रबल उपासक!
खल्लट की चार पत्नियां थीं,
सभी संग ही रहा करती थीं,
इन्ही चार पत्नियों में से,
सबसे छोटी जो पत्नी थी,
उसका नाम ऊषल था,
खल्लट बहुत प्रेम करता था उस से,
खल्लट का इस पत्नी से,
कोई संतान नहीं थी,
शेष तीन से, दो पुत्र और एक कन्या थी,
ऊषल,
अपने हृदय में प्रेम नहीं,
प्रतिकार पाल रही थी!
पाल रखा था उसने!
खल्लट के हाथों ही,
उसके पिता और दो भाइयों की हत्या हुई थी,
खल्लट ने ऊषल और उसकी माँ को,
छोड़ दिया था,
और अब,
वे भी संग ही रहती थी इनके,
लेकिन ऊषल नहीं भूल पायी थी अपने पिता और,
अपने उन दोनों भाइयों की हत्या,
खल्लट ने, विवाह कर लिया था इस ऊषल से,
ऊषल, इस खल्लट की उम्र के आधे से भी आधी थी!
खल्लट बहुत क्रूर था,
दगाबाजों को,
ऐसी सजा देता था कि,
देखने वाला तो क्या,
सुनने वाला भी मितली कर दे,
जी मिचला जाए उसका!
इसी कारण से,
ऊषल, कभी विरोध नहीं आकर पाती थी उसका!
खल्लट का सिक्का हर जगह चलता था!
खल्लट के संगी-साथी,
बंजारों के लिए,
काम किया करते थे,
ठगों के साथ,
हत्यारों के साथ,
डकैतों के साथ,
कुल मिलकर,
ज़रायमपेशा लोग थे उसके इर्द-गिर्द!
खल्लट, अपने शत्रु का,
समूल नाश कर देता था!
किसी को भी नहीं छोड़ता था!
यहाँ तक कि,
बालक-बालिकाओं को भी,
अपनी ईष्ट देवी समक्ष बलि चढ़ा देता था!
खल्लट का एक मित्र था,
एक संगी-साथी,
नाम था औरांग,
खल्लट उस पर,
आँख मूँद कर विश्वास किया करता था!
और ये औरांग भी खल्लट के लिए,
मान-सम्मान रखता था!
मित्रता निभाता था!
खल्लट,
महाविद्या का पूजन करता था!
और बलि-कर्म किया करता था!
उसका कोई सानी नहीं था!
उसके इस समुदाय में,
सभी ऐसे ही लोग थे!
ये लड़ाकू,
जुझारू और हिसंक थे!
खल्लट ने,
एक से एक,
महाशक्ति को सिद्ध कर रखा था!
वो,
बंजारों के लिए,
तंत्र-मंत्र करता!
उनके खजानों को बांधता,
डकैतों को,
पनाह देता!
उनकी मदद करता,
हिस्सा-बाँट करता!
यही काम था इस खल्लट का!
एक बार खल्लट को जाना पड़ा कहीं,
किसी विशेष कार्य के लिए,
कोई महीना बाहर रहा होगा,
और इधर,
इधर अपना प्रतिकार को जीवित रखने वाली ऊषल,
ऐसा ही अवसर ढूंढने में लगी थी!
और इस से बढ़िया और क्या हो सकता था कि,
औरांग को ही मोहरा बनाया जाए!
ऊषल ने चाल चली,
औरांग पर,
अपना काम-बाण चलाया,
औरांग विचलित नहीं हुआ!
वो जानता था,
कि ऊषल,
पत्नी है उसके मित्र,
खल्लट की,
जानता था वो!
बखूबी!
लेकिन,
इस ऊषल ने,
कोई क़सर नहीं छोड़ी उसको रिझाने में!
उसको बुलाती,
उससे मिलती,
निकटता ज़ाहिर करती,
पास आने के बहाने ढूंढती,
यानि कि,
रिझाने के लिए,
जो किया जा सकता था,
साम, दाम, दंड, भेद सब,
सब करती थी!
लेकिन ये औरांग!
औरांग पर कोई असर नहीं पड़ता था!
वो जानता था,
कि अगर खल्लट को इसकी भनक भी पड़ी,
तो खाल नुचवा देगा वो!
ऊँट का पेट फाड़ कर,
दोनों को ही उसमे घुसेड़ कर,
सिलवा देगा ऊँट का पेट!
और छोड़ देगा उस ऊँट को,
तपती दोपहरी में!
हड्डियां खाल छोड़ देंगी!
खाल,
सिकुड़ जायेगी,
फट जायेगी बुरी तरह!
उसने देखा था खल्लट को,
ऐसी सजा देते हुए!
खुद उसने कई ऊंटों का पेट फाड़ा था!
सजा दी थी,
दगाबाजों को!
लेकिन ये औरत ऊषल!
धधक रही थी प्रतिकार की अगन में!
और ये औरांग!
हाथ नहीं धरने दे रहा था!
ये हाथ धरने दे,
तो बाजी हाथ में आ जाए!
लेकिन बाजी तो अभी खेली ही थी उसने,
एक दिन,
ऊषल रात के समय,
गयी औरांग के पास,
औरांग जागा हुआ था उस समय,
औरांग के कक्ष में,
दीपक जला था,
ऊषल ने इधर-उधर देखा,
और सीधे ही घुस गयी अंदर कक्ष में उसके!
औरांग दंग रह गया!
वो भागा बाहर की तरफ!
लेकिन रोक लिया उसका रास्ता ऊषल ने!
लिपट गयी उस से,
औरांग के होश उड़े!
उसने झिड़क दिया उसे,
वो नीचे गिरी,
चोट लग गयी थी उसको!
घुटने में,
आखिर उसको उठाने में,
मदद करनी पड़ी औरांग को!
औरांग ने हाथ जोड़े,
पाँव पड़े,
कि वो जाए वहां से,
किसी ने देख लिया तो,
अंजाम बहुत बुरा होगा,
लेकिन नहीं मानी ऊषल!
अपनी ज़िद पर अड़ी रही!
औरांग की देह कांपती रही!
और ऊषल,
अभी भी रिझाती रही उसे!
हाँ,
उसके भय को खिलौना बना कर,
खेलती रही!
जब बात नहीं बनी!
यो अगले दिन, एकांत में,
मिलने का वचन ले लिया उसने उस औरांग से!
पहली सीढ़ी चढ़ चुकी थी अब ऊषल!
अभी खल्लट बाहर ही था,
आने में पखवाड़ा था शेष,
और ऊषल,
अभी निबट लेना चाहती थी,
जाल बनाना!
जाल तो वो बुन रही थी,
फंस औरांग रहा था!
ये जाल,
मज़बूत बनाया था उसने,
जो एक बार फंसे,
निकल ही नहीं पाये!
लेकिन औरांग!
औरांग भी कोई मूर्ख नहीं था!
वो सब जानता था,
कि ऊषल ऐसा क्यों कर रही है!
वो बदला लेना चाहती है!
बदला उस खल्लट से,
जिसने उस ऊषल के पिता और भाइयों की,
