वर्ष २०१३ मेवात हरि...
 
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वर्ष २०१३ मेवात हरियाणा की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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कि, ये रक्त आ कहाँ से रहा है?
टोर्च को ऊपर किया,
छत तक ले गया,
वहाँ एक परछत्ती सी थी,
और वहाँ!
वहाँ, लाशें रखी हैं!
बंधी हुई!
किसी भी लाश का सर नहीं था!
रक्त यहीं से आ रहा था!
बड़ा ही खौफनाक मंज़र था वो!
दम घुटने लगा था वहां!
हम नीचे उतर गए फ़ौरन!
नीचे का फर्श देखा,
काला हुआ पड़ा था!
रक्त जमा था उस पर!
जूते भी चिपक रहे थे उसमे!
चिप-चिप की आवाज़ आती थी!
और बदबू?
बदबू ऐसी की सीना फाड़ के रख दे!
हम आगे बढ़े,
आसपास रौशनी डाली!
सामने एक मंदिर सा था,
हम वहीँ गए,
छोटा सा मंदिर था वो!
वैसा ही, जैसा पहला हमने देखा था!
तभी पीछे से आवाज़ हुई!
हम खड़े हो गए,
मंदिर देखने के लिए झुके हुए थे हम!
पीछे देखा,
एक लड़की खड़ी थी!
उम्र कोई होगी उसकी अठारह-उन्नीस बरस!
नग्न थी,
लेकिन बदन पर कोई रंग नहीं था,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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स्तन पर कोई रंग नहीं था,
कोई चिन्ह नहीं था!
वो बस,
अपलक हमे ही देख रही थी!
उसके केश छोटे ही थे,
कंधे तक ही,
बदन था तो मज़बूत,
लेकिन मांसल नहीं था,
पसलियां दीख रही थीं उसकी,
उसके स्तनों के नीचे की,
पेट अंदर हो गया था बहुत,
वो आगे आई,
और रुक गयी,
अब मैंने देखा उसे सही तरह से,
उसका सर,
उसका सर दो भाग में था!
खून नहीं रिस रहा था,
लेकिन खून की लकीर थी वहाँ,
वो बार बार सर खुजाती थी अपना!
एक अजीब से तरीके से,
अपने मणिबंध से!
ये मुझे भुवनिका नहीं लगी!
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
वो डर गयी मेरे सवाल पूछने से!
काँप गयी!
मैं उसका भय भांप गया,
"डरो नहीं, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
नहीं बोल पायी कुछ,
आँखों से आंसू छलक आये उसके,
"बताओ? कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
उसने दोनों हाथ उठाये अपने,
उसके हाथों की,
उंगलियां कटी हुईं थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंगूठे भी,
तरस आ गया उसकी हालत देख कर मुझे!
अब मैं आगे गया,
उसने अपने कटे हाथ की उंगलियां दिखा कर, मुझे रुकने को कहा,
मैं रुक गया,
"घबराओ नहीं" मैंने कहा,
और आगे चला फिर,
वो पीछे हटी,
"डरो नहीं" मैंने कहा,
और मैं आगे गया,
उसका विश्वास बन गया मुझ पर,
यही लगा मुझे,
"कौन हो तुम?" मैंने कहा,
वो सिसकी मार कर,
रो पड़ी!
होंठ काँप गए उसके!
मैं और आगे चला,
उसके करीब ही आ गया,
मात्र एक फुट की दूरी पर,
"बताओ?" मैंने कहा,
वो चुप रही,
एकदम चुप,
बस सुबकती रही,
"बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पोछा,
उसने मुंह खोला अपना,
उसकी जीभ नहीं थी!
काट दी गयी थी!
ओह!!!!!!
मैं क्या कहता?
क्या करता?
वो कैसे बोलती?
सन्न रह गया मैं!
किसने की उसकी ये हालत?


   
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श्रीशः उपदंडक
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उंगलियां काट दीं,
जीभ काट दी,
सर दो-फाड़ कर दिया,
सर का कटोरा,
अलग कर दिया गया था बेचारी का!
उसको देख कर,
यही लगता था कि वो,
अविवाहित ही रही होगी,
अपनी मौत के समय,
किसने मचाया ये नरसंहार यहाँ?
कौन था ऐसा?
अभी भी पहेलियाँ बाकी थीं,
सुलझे नहीं सुलझ रही थीं!
तभी आहट हुई!
जैसे कोई आ रहा हो!
और ये सुन कर,
ये औरत भाग गयी,
लड़खड़ाते हुए!
और हम वहीँ खड़े हो गए!
कोई सीढ़ियां उतर रहा था!
मैंने रौशनी वहीँ डाल रखी थी वहाँ!
और वहाँ एक भुवनिका आई!
वो ठिठक कर खड़ी हो गयी वहाँ!
और हम भी!
उसने मुझे देखा,
मैंने उसे!
वो थोड़ा आगे आई,
मैं आगे चला!
वो रुकी!
मैं रुका!
मानसिक द्वन्द था ये!
उसका और मेरा!
वो अशरीरी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन कभी इंसान थी!
और इसी कारण से,
वो भटकाव में थी!
उसने जो शब्द कहा,
वो मेरी समझ में आ गया!
प्रधान योगिनी बहरूपा!
हाँ!
बहरूपा!
तो ये बहरूपा की साधिकाएं थीं!
वो लगातार जाप करती रही बहरूपा का!
और सीधा भागी मेरी तरफ!
अब मैंने देखा,
उसके हाथ में खड्ग था!
चौड़े फाल वाला खड्ग!
मैंने तभी उत्त्वङ्ग-मंत्र का जाप किया!
भक्क!
भक्क से जल उठी वो!
और नीचे गिरी!
उसने चीख मारी!
खड्ग छूट पड़ा!
रौशनी हो गयी वहां!
और अगले ही पल,
आग शांत हो गयी!
और वो खड़ी!
लेकिन सन्न!
घबराई हुई!

वो खड़ी हुई!
हमे घूरती हुई!
अपने गर्दन टेढ़ी करते हुए,
हमे देखती हुई!
आँखें गोल हो चुकी थीं उसकी!
ये कौन आ गया?
किसने ये उत्तवंग-मंत्र का प्रहार किया?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कौन है?
वो चीखी थी!
और इसी कारण से अब वहाँ,
करीब दस और भुवनिकाएँ आ धमकीं!
सभी अपने हाथों में खड्ग लिए!
सभी,
हमे घेरे हुए!
लेकिन दूरी बनाते हुए!
सभी हमे ही देख रही थीं!
अजीब सी दृष्टि से,
जैसे कभी हम जैसा देखा ही न हो!
सभी आगे बढ़ीं!
अपने खड्ग ऊपर उठाते हुए!
और मैंने फिर से उत्तवंग-मंत्र का जाप किया!
मंत्र जागृत हुआ!
मैंने अपनी और शर्मा जी की देह फूंकी उस से!
मंत्र जाप करने से,
वे वहीँ रुक गयीं!
खड्ग नीचे हो गए!
अब कोई वार नहीं कर सकता था हम पर!
वे हमे देख रही थीं,
और हम उन्हें!
हम भी खड़े थे चुपचाप,
और वे भी!
लेकिन कोई वार्तालाप नहीं था हमारे बीच!
उनकी भाषा न मैं समझ रहा था,
और शायद मेरी भाषा वे!
कैसी अजीब सी स्थिति थी!
और अचानक से जैसे कोई चीखा,
उनकी सबकी गर्दन वहीँ मुड़ गयी!
और वे सभी वहीँ के लिए भाग खड़ी हुईं!
चीख फिर से गूंजी थी!
बड़ा अजीब सा लगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम तो दुश्मन थे उनके,
हमे छोड़,
वे कहाँ भाग गयीं सारी की सारी?
किसलिए?
हम भी भागे वहाँ!
लेकिन यहां तो रास्ता बंद था!
कोई भी रास्ता नहीं था वहाँ!
फिर कहाँ गयीं?
अच्छा!
समझ गया!
अब हम लौटे!
वापिस चले,
यहां, जितना मैंने सोचा था,
उस से कहीं अधिक रहस्य था!
ये पूरा स्थान भूमि के नीचे था!
और हम केवल एक छोटे से स्थान पर थे!
और ये स्थान,
बहुत बड़ा था, बहुत बड़ा!
इसके लिए,
पुनः जांच आवश्यक थी!
अतः,
हमने वापिस लौटना ही उचित समझा!
हम वापिस लौटने लगे,
तभी आवाज़ें आयीं,
ध्यान से सुनीं,
ये किसी युगल के प्रणय-समय की आवाज़ें सी प्रतीत होती थीं,
हम चल पड़े वहीँ,
ये आवाज़ें एक कक्ष में से आ रही थीं,
कक्ष में से,
प्रकाश आ रहा था!
ये अजीब बात थी!
हम चुपके से गए वहाँ!
कक्ष में एक झरोखा था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहीँ से देखा,
एक युगल,
रति-क्रीड़ा में मग्न था,
स्त्री की पीठ हमारी तरफ थी,
पुरुष को देख नहीं पाये थे,
हम हट लिए वहाँ से,
धीरे धीरे निकलने लगे वहां से,
और फिर से सीधा सीढ़ियों की तरफ चढ़े,
और ऊपर आ गए!
वहां से बाहर के लिए चले!
की तभी शर्मा जी को चक्कर सा आया!
वो लड़खड़ा गए,
मैंने संभाला उन्हें!
दरअसल वो किसी पत्थर से फिसल गए थे,
और कोई बात नहीं थी!
हम चढ़ने लगे ऊपर,
की फिर से वहीँ उंगलियां कटी, लड़की दिखाई दी,
हम रुक गए,
रोते हुए,
ये अब साफ़ था कि,
ये लड़की इन,
साधिकाओं में से नहीं थी!
लेकिन थी कौन?
अब पुरुष,
वो पुरुष जो,
रति-क्रीड़ा में था,
वो कौन था?
सवाल फिर से खड़े हो गए थे!
और जवाब,
सभी सवालों के,
सब,
यहीं दबे थे,
इसी स्थान पर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो लड़की वहीँ खड़ी थी,
सुबकते हुए,
मैं उसके पास गया,
वो नहीं डरी अब,
मैंने उसकी हालत देखी,
बहुत दयनीय हालत थी उसकी,
उसको बहुत पीटा गया था,
उसके हाथों,
पांवों,
और गर्दन में,
रस्सियों के निशान था,
उसको बाँधा भी गया था,
ये साफ़ दीखता था,
क्रूरता की गयी थी उसके साथ,
उसने मुझे देखा,
एक अजीब सी दृष्टि से,
मैं हिल सा गया उसकी आँखें देख कर,
वो कहना चाहती थी,
बहुत कुछ,
लेकिन कह नहीं पा रही थी,
उसकी विवशता थी ये,
बेचारी!
फिर से आवाज़ हुई,
बहुत तेज!
जैसे कोई बड़ा सा पत्थर गिरा हो!
और वो लड़की भाग गयी,
अँधेरे में,
हम भी जल्दी से,
ऊपर की तरफ भागे!
सीढ़ियां चढ़े,
और आ गए ऊपर,
बाहर तो,
धुंधलका छा गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सात का वक़्त रहा होगा,
और फिर हम वापिस लौटे,
कार की तरफ,
कार तप रही थी अंदर से,
उसको खुला छोड़ दिया थोड़ी देर,
पानी पिया अब,
पानी भी खौल गया था!
किसी तरह से,
हलक से नीचे उतार पानी,
अब यही निर्णय लिया,
कि आज रात यहीं गुजारी जाए,
सुबह यहां आने में,
और खेचरबाजी हो जायेगी,
अब भूख लगी थी,
अब हम चले वहाँ से,
और बाहर मुख्य सड़क तक चलने के लिए,
मुड़े,
वहां की बाड़ को ताला लगाया,
और निकल पड़े बाहर,
शाम हो चुकी थी अब,
हम बाहर तक आये,
और फिर चले किसी कस्बे की तरफ,
बहुत दूर जाना पड़ा हमे,
आखिर में एक कस्बे में रुके,
वहां खाना खाया,
आराम किया थोड़ा,
और मदिरा पान भी किया,
और फिर धीरे धीरे,
वापिस हुए,
जब हम वापिस आये वहाँ,
तो नौ बज चुके थे,
श्रुति को सब बता ही दिया था,
उस से कह दिया था कि,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हम स्वयं ही फ़ोन करेंगे उसे,
वो डर तो रही थी,
लेकिन विश्वास था उसे!
हम चार दिन से,
टकरा रहे थे यहां की इन शक्तियों से!
लेकिन एक बात बहुत हैरान कर देने वाली थी,
अभी तक,
न तो उद्देश्य ही पता चला था,
न ही कोई कारण,
ये साधिकाएं कहाँ की हैं,
ये नरसंहार क्यों हुआ है,
कोई पुरुष क्यों नहीं है यहां,
उन इक्का-दुक्का के अलावा?
ऐसे बहुत से प्रश्न थे,
जो सर पर,
हथौड़े बजा रहे थे!
हो सकता है,
आज रात कुछ पता चले,
मैं तो यही सोचे चल रहा था,
कि एक बार जड़ हाथ में आ जाए,
तब पेड़ तो फिर मैं उखाड़ ही डालूँगा!

भोजन कर लिया था,
पानी ले ही आये थे,
मदिरा पी ही ली थी!
लेकिन एक सवाल जो सबसे बड़ा था,
वो ये,
कि यहां हो क्या रहा है?
उलझ के रह गए थे हम!
यही सोचते सोचते,
आँख लग गयी!
शर्मा जी अगली सीट पर,
और मैं पिछली सीट पर,
लेट गए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और सो गए,
कुछ देर आराम ज़रूरी था!
कुछ ही देर में,
हमारे खर्राटे बजने लगे!
खिड़की खोल रखी थी हमने,
वहीँ से कभी कभार हवा आ जाती थी,
चांदनी का ही सहारा था वहाँ,
नहीं तो प्रकाश के नाम पर,
कुछ भी नहीं था!
हम कितना सोये,
पता नहीं,
मेरी नींद तो तब खुली जब मुझे कुछ घुंघरू बजने की आवाज़ आई वहां,
पहले लगा कि,
मंझीरे बोल रहे हैं,
घास में,
लेकिन मंझीरे सुर-ताल में नहीं बोलते,
उनकी ताल तो सीधी ही होती है,
मैं खड़ा हुआ,
गाड़ी का दरवाज़ा खोला,
बाहर खड़ा हुआ,
आवाज़ें बहुत तेज थीं!
अब तक,
शर्मा जी भी जाग चुके थे,
वे भी बाहर आ गए,
उन्होंने भी वे आवाज़ें सुनीं,
"ये घंघरु ही हैं न?" मैंने पूछा,
"हाँ, आवाज़ तो ऐसी ही है" वे बोले,
"चलो फिर" मैंने कहा,
''चलिए" वे बोले,
हमने टोर्च ली,
और चल दिए,
आवाज़, बायीं दिशा से आ रही थी,
हम कंकड़-पत्थर पार करते हुए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चल पड़े उधर,
आवाज़ तो लगता था कि,
पास में से आ रही है,
लेकिन वहां था कुछ भी नहीं!
अब मैंने कलुष-मंत्र का सहारा लिया,
मंत्र लड़ा,
और हम दोनों के नेत्र पोषित हुए,
दृश्य स्पष्ट हुआ,
सामने तो कोई नहीं था वहाँ,
पर हाँ,
दूर वहाँ से,
चांदनी जैसा प्रकाश फैला था!
दूधिया रौशनी!
हम वहीँ के लिए चल पड़े,
तभी सामने कुछ मानव से दिखाई दिए,
कुछ बैठे हुए थे,
कुछ खड़े हुए,
कुछ नाचते-थिरकते!
हम धीरे धीरे आगे बढ़े!
मैं रुका,
शर्मा जी को रोका,
अब मैंने अपनी उपस्थिति को गुप्त रखने के लिए,
द्यूम-मंत्र का जाप कर,
स्वयं अपनी और शर्मा जी की देह पोषित कर दी,
मात्र जिन्न और डाकिनी के सिवा,
हमारी गंध अब कोई नहीं ले सकता था!
हम आगे बढ़ चले,
झाड़ियाँ थीं वहाँ,
बड़ी बड़ी!
कुशा की घास थी,
गलती से गलत छू जाएँ,
तो चीर के रख दे खाल को!
ऐसा चीरे के दर्द बाद में हो और खून पहले निकले!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम आगे चलते रहे!
और एक जगह रुक गए!
यहाँ तो सब,
वही साधिकाएं थीं!
कम से कम चालीस!
सभी की सभी उसी पीले रंग में रंगीं!
कुछ नाच रही थीं,
घुंघरू बांधे!
कुछ गा रही थीं!
एक अंजानी सी भाषा में!
ये तो कोई आयोजन सा था!
शायद ऐसा होता रहा होगा वहाँ!
और तभी मेरी नज़र वहाँ बैठे कुछ पुरुषों पर पड़ी!
कोई चार पुरुष खड़े थे उनके बीच!
चारों ही कद्दावर पुरुष थे!
मज़बूत!
सर पर ऐसा साफा बांधे हुए,
कि उनका फुलतरू उनकी कमर तक आया हुआ था!
ये भयभीत नहीं थे!
बल्कि उनके लिए तो,
मदिरा भी परोसी जा रही थी!
वे चारों आराम से खड़े थे!
वस्त्र बढ़िया पहने हुए थे!
तलवारें लटकी थीं म्यान में कसी हुईं,
कमर में बंधी हुई!
अब फिर से दिमाग उछला!
ये क्या?
जो मैंने सोचा था,
इन साधिकाओं के बारे में,
कि ये पुरुष-बलि चढ़ाती हैं,
ऐसा भी नहीं था!
तो फिर ये चार कौन हैं?
जो अभय मुद्रा में खड़े हैं?


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई भय नहीं?
ऐसा कैसे?
शर्मा जी मुझे देखें,
और मैं उन्हें!
सबकुछ सर के ऊपर से गुजर रहा था!
जो नाच रही थीं,
अब वे बैठीं,
और कुछ और उठ गयीं!
तभी एक अलग प्रकार की साधिका नज़र आई,
उसका पूरा बदन काला था!
भक्क काला!
स्तनों को पीले रंग से रंगा गया था!
केश ज़मीन तक आये हुए थे!
बहुत ताक़तवर सी लगती थी वो!
करीब डेढ़-पौने दो सौ किलो के आसपास की औरत!
इतना तो रही ही होगी वो!
सभी साधिकाएं,
उसके सामने दंडवत होती थी!
तब मैंने यही सोचा कि ये,
इनकी प्रधान साधिका रही होगी!
नृत्य समाप्त हुआ,
सभी बैठ गयीं,
वे चारों भी बैठ गए,
और मदिरा परोसी गयी उन्हें!
उन्होंने मदिरा के प्याले थामे,
और खाली करते गए!
फिर वो प्रधान साधिका उठी,
कुछ बोली,
हमसे समझ नहीं आ रहा था,
हमसे कोई बीस मीटर दूर रही होंगी वो!
इसीलिए समझ नहीं आया कुछ भी,
तभी वो प्रधान साधिका एक ओर चली,
और सभी उसके पीछे हो लिए,


   
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