वर्ष २०१३ मेवात हरि...
 
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वर्ष २०१३ मेवात हरियाणा की एक घटना!

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श्रीशः उपदंडक
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अब वहाँ न हौदी थी,
न ही वो कुआं!
वो डरावना कुआँ!
वहाँ पर आये, वे गाड़ी से बाहर निकले,
मैं और शर्मा जी गाड़ी में बैठ गए,
और अब शर्मा जी ने श्रुति को बताना शुरू किया,
कि ये स्थान ठीक नहीं है किसी भी निर्माण के लिए,
फिलहाल में,
यहां बहुत बड़ी गड़बड़ है,
सबसे पहले वो जानना पड़ेगा!
श्रुति ने पूछा कि क्या गड़बड़ है,
तो शर्मा जी ने उनकी बात को टाल दिया,
उनको डराना सही नहीं था!
नहीं तो वे सब डर ही जाते बुरी तरह से,
और तब काम खराब हो जाता!
अभी हम बात आकर ही रहे थे,
कि मुझे गर्मी का भभका सा महसूस हुआ!
लगा कि कोई नज़र रखे है हम पर!
मैं नीचे उतरा,
और छिद्रान्वेषण हेतु,
मैं आगे गया,
वो भभका मेरे साथ बना रहा,
मेरे शरीर में,
खुजली होने लगी!
जैसे एलर्जी में हुआ करती है,
त्वचा पर,
छोटे छोटे दाने उभरने लगे,
मैं खारिश करता,
तो बेहद जलन होती थी!
मैंने शर्मा जी को आवाज़ दी,
और पानी लाने को कहा,
वे फ़ौरन पानी ले आये,
मेरे माथे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाल,
हाथ,
पाँव,
हर जगह ये दाने उभर रहे थे!
भयानक जलन थी उनमे!
मैंने एक घूँट पानी लिया!
और मुंह में रखा!
विद्रक-मंत्र का जाप किया,
नौ बार,
मेरे पसीने छूटने लगे थे!
मेरे पूरे शरीर पर जैसे,
कीड़े रेंग रहे थे!
अब मैंने मंत्र पढ़ते हुए,
वो पानी पी लिया!
पानी पीते ही मुझे,
आराम पड़ने लगा!
वो गर्मी का भभका,
गायब हो गया!
मेरे होश क़ाबिज़ होने लगे!
कौन था ये?
मुझे बड़ा क्रोध आया उस समय!
मैंने फ़ौरन ही,
दुहित्र-मंत्र का जाप किया,
और अपने नेत्र पोषित किये,
ये मंत्र शत-गुना शक्तशाली है कलुष से!
शर्मा जी ने साधा नहीं था,
इसीलिए उनके नेत्र पोषित नहीं हो सकते थे,
मैं यदि करता,
तो नेत्र हमेशा के लिए अपनी ज्योति,
खो बैठते!
मैंने उन्हें वही बने रहने को कहा,
और खुद आगे गया!
कुआं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हौदी,
सब साफ़ नज़र आ रहे थे!
और भी कुछ नज़र आ रहा था!
एक बड़ा सा पत्थर,
जो प्राकृतिक नहीं था!
ये तराशा गया था!
आकार में चौकोर था,
ये पत्थर कोई दस फ़ीट लम्बा,
और कोई पांच फ़ीट चौड़ा था!
ये भूमि के नीचे,
कोई पांच फ़ीट पर गड़ा था!
हौदी और कुँए की तरह,
दो दो फ़ीट पर नहीं!
और यही से खुलता ये राज!
राज! यहां का राज!
इस पत्थर को हटाना ज़रूरी था!
इंसान तो हटाने से रहे!
इसके लिए जे.सी.बी. ही चाहिए थे!
ये पत्थर जहां रखा था,
उस पत्थर के आसपास,
कुछ और भी चौकोर से पत्थर थे!
ये आकार में छोटे थे!
जैसे किसी खम्भे के टुकड़े!
अब मैं वापिस चला,
शर्मा जी को सबकुछ बताया!
वे भी चौंके!
अब मैंने मंत्र वापिस लिया!
आँखों से पानी बह निकला!
मैंने आँखें धोईं,
और हम चले पड़े,
श्रुति और केशव की ओर!

उनके पास आये,
गाड़ी में बैठे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे बड़ी उत्सुकता और कौतुहल से,
जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे,
अब शर्मा जी ने उन्हें बताया,
और कल ही एक जे.सी.बी. मंगवाने को कहा,
श्रुति ने तभी फ़ोन लगाया उस ठेकेदार को,
उस से बातें कीं इस बारे में,
ठेकेदार राजी हो गया कि,
वो करवा देगा प्रबंध इस मशीन का,
हालांकि, वो राजी नहीं था वहाँ काम करने को,
उसको मना कर दिया गया था,
अब वही जाने कि किसने मना किया था उसको!
लेकिन मशीन भेजने को तैयार हुआ था,
ये ठीक था,
आगे मैं देखता कि होना क्या है!
अब हम चले वहाँ से,
हम दोनों ने वापिस अपने स्थान तो जाना नहीं था,
नहीं तो कल फिर से देर हो जाती,
तो केशव के यहीं हमने रुकने का निर्णय लिया,
और हम चल पड़े वहाँ से केशव के घर की ओर,
श्रुति का घर, थोड़ा आगे था,
अतः उनसे नमस्कार कर, हम अब,
केशव के घर की ओर चल पड़े,
और पहुँच गए,
वहाँ जाकर, थोड़ा आराम किया,
और कुछ सोच-विचार!
वो जो स्थान है,
वो कोई महा-तंत्र स्थान लग रहा था!
हाव-भाव, वहाँ के दृश्य, बड़े ही खौफनाक थे,
लेकिन एक बात और,
जो कि विशेष थी,
वहाँ अभी तक कोई भी,
पुरुष नहीं दिखा था!
ये बड़े हैरत की बात थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मात्र स्त्रियां ही थीं!
वो तो स्वयं ही तंत्र-साधिका लगती थीं!
कोई साध्वियां अथवा सहायिकाएं नहीं!
उनका रंग-रूप भी बड़ा ही विचित्र था!
मैंने ऐसा तो कहीं भी नहीं देखा था!
और न ही कभी सुना था!
ये कौन सी शाखा थी,
इस विषय में कोई जानकारी नहीं थी मुझे!
केशव ने भोजन लगवा दिया था,
भूख लगी भी थी,
सो भोजन किया और फिर,
उसके बाद आराम,
संध्या हुई, फिर रात,
फिर अपना थोड़ा-बहुत खाना-पीना हुआ,
और फिर हम सो गए,
सुबह उठे, वही सब, फारिग हुए,
चाय-नाश्ता आदि से भी फारिग हुए,
उसके थोड़े समय पश्चात भोजन किया,
केशव ने श्रुति को फ़ोन लगाया,
श्रुति ने थोड़ी देर में दुबारा फ़ोन करने के लिए कहा,
और फिर श्रुति का फ़ोन आ गया,
ठेकेदार ने इंतज़ाम करवा दिया था उस मशीन का,
बस, अब हम निकल पड़े वहाँ से,
पहले, श्रुति से बात की,
वो आ रही थीं,
हमने इन्तज़ार किया,
कोई बीस मिनट में वो आ गयीं,
और अब हम चल पड़े उधर!
आज रास्ता साफ़ था,
जल्दी ही पहुँच गए हम वहाँ,
और सीधा वहीँ जा कर रुके!
मशीन खड़ी थी वहाँ,
वो ठेकेदार भी था और उस मशीन का चालक भी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं अंदर गया,
और जहां खुदाई होनी थी,
इस स्थान को अभिमंत्रित किया,
फिर मशीन पर भी अभिमंत्रण किया,
मैंने कई बार देखा था कि किसी ताक़त के कारण,
मशीन खराब हो जाती थीं,
या तो चालू ही नहीं होती थीं,
या फिर कुछ न कुछ नुक़सान हो जाया करता था!
इसीलिए अभिमंत्रित जल छिड़का था मैंने मशीन पर,
मशीन का चालक हिम्मतवाला जवान था!
दिलखुश आदमी!
नहीं तो ऐसे चालक मना कर दिया करता हैं मशीन चलाने से,
ऐसी जगहों पर!
लेकिन ये आदमी बढ़िया था!
उसको डर नहीं था!
अब मैंने चालक को सब बता दिया कि क्या क्या, कैसे कैसे करना है,
वो समझ गया,
और हो गया काम शुरू!
मशीन चालू हुई!
और अब हुई उसी स्थान पर खुदाई!
मशीन ने वो जगह उखाड़ डाली!
पत्थर निकल रहे थे छोटे-बड़े!
वो पत्थर हटाता चला गया,
और एक ओर फेंकता रहा उनको,
काफी बड़ा गड्ढा सा करना पड़ा,
समय तो लगा लेकिन वो बड़ा पत्थर आ ही गया!
अब होना था असली काम शुरू!
इस बड़े पत्थर को हटाना था!
पत्थर बहुत बड़ा था, काफी बड़ा!
जुगाड़-तुगाड़ लगाए गए,
और जैसे ही मशीन ने खींचना शुरू किया,
पत्थर बीच में से टूट गया!
ये ठीक हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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काम आसान हो गया!
अब मशीन ने, एक एक करके वो पत्थर हटा दिए,
और जैसे ही पत्थर हटे!
नीचे की तरफ जाता हुआ एक संकरा सा रास्ता दिखाई दिया!
चालक ने देखा,
मैंने देखा,
श्रुति ने देखा,
सभी ने देखा,
दिल धक् से रह गया!
जैसा मैंने सोचा था, वैसा ही हुआ था!
अब मशीन का काम पूरा हो चुका था,
उसको वापिस भेजना था अब!
चालक को श्रुति ने पैसे दिए,
और वो ठेकेदार भी भाग लिया!
किसी अनहोनी के डर से!
वे चले गए वहाँ से!
और अब मैं और शर्मा जी,
आगे बढ़े,
मैंने कलुष-मंत्र लड़ाया,
दृश्य स्पष्ट हुआ!
आज कोई पानी नहीं था वहां!
कोई आवाज़ भी नहीं थी!
हम और आगे बढ़े,
उस नीचे जाते रास्ते को देखा,
ये रास्ता कोई दो फ़ीट ही चौड़ा रहा होगा,
नीचे नहीं दिख रहा था कुछ भी,
हाँ, सीढ़ियां जो दीख रही थीं,
वो कुल पांच-छह होंगी,
एक एक सीढ़ी कोई दो ढाई फ़ीट के रही होगी!
बलुआ पत्थर से बनायी गयी थीं ये सीढ़ियां,
नीचे जाना खतरनाक था!
इसीलिए अब मैंने अभय-मंत्र का जाप किया,
और फिर अपना माथा, और शर्मा जी का माथा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस मंत्र से पोषित कर दिया,
फिर देह-रक्षा, प्राण-रक्षा मंत्र से देह बाँध ली अपनी भी,
और शर्मा जी की भी!
और तभी कुछ ऐसा घटा कि,
मेरे होश उड़ गए!
श्रुति और केशव की चीखें सुनाई दीं!
हम भागे वहाँ से,
केशव साहब गाड़ी से नीचे गिरे पड़े थे,
पूरा शरीर पीला पड़ा था उनका,
श्रुति भी गिरी हुई थी,
आधी कार की सीट पर,
और आधी बाहर,
उनका वक्ष स्थल एकदम गीला था!
रक्त टपके जा रहा था,
किसी ने कोई प्रहार किया था उन पर,
मैंने फौरन ही,
उद्देख-मंत्र का जाप किया,
और मिट्टी की एक चुटकी लेकर,
वहीँ बिखेर दी,
मंत्र का प्रभाव आरम्भ हुआ,
होश आया उन दोनों को,
केशव को उठाया हमने,
रंग सामान्य होता दिखा अब,
श्रुति को भी सीधा बिठाया हमने,
वो रक्त जम चुका था उनके ब्लाउज पर,
होश आया उन दोनों को,
केशव साहब काँप रहे थे,
सामने एकटक देखे जा रहे थे!
कोई देखा था उन्होंने उधर,
इसी कारण से डर गए थे!
शर्मा जी ने उन्हें हिलाया,
झकझोरा,
कई बार नाम पुकारा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन वो जस के तस!
श्रुति,
उनकी आँखें बंद थीं अभी भी,
उनके माथे पर पानी लगाया मैंने,
कुछ तन्द्रा सी टूटी उनकी,
बदन में हरकत हुई,
आँखों की पुतलियाँ,
बंद पलकों में हिलने लगीं,
और एकदम से आँखें खोल ली उन्होंने!
और आँखें खोलते ही,
उन्होंने अपना मुंह खोला!
मैं सन्न रह गया!
उनका मुंह वैसा ही काला था,
जैसे उस औरत का था!
उन्होंने मुंह चौड़ा किया,
अपनी काली जीभ बाहर निकाली,
केशव साहब ये देख,
फिर से अचेत हुए!
फ़ौरन ही कुछ नहीं किया जाता तो,
अनहोनी हो ही जाती!
और दोषी होता मैं!
इसीलिए मैंने अब,
एक प्रबल विद्या का संधान करना आरम्भ किया!
श्रुति उठीं,
मेरी तरफ भागीं,
शर्मा जी ने रोका तो धक्का दे दिया उन्हें!
वे नीचे गिर गए!
विद्या पूर्ण हुई,
और मैंने थूक दिया श्रुति पर!
एक झटका खाया उन्होंने!
और नीचे गिर गयीं कार के बोनट से टकराती हुईं!
बेहोश!
शर्मा जी उठ चुके थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनके बाएं हाथ की दो उंगलियां उतर चुकी थीं अपनी जगह से,
और अब सूजन उभर रही थी!
फिर भी किसी तरह,
केशव और श्रुति को,
उनकी गाड़ी में डाला हमने,
और ले गए वहां से दूर,
एक पेड़ था वहाँ, सेमल का,
वहीँ रोक दी गाड़ी,
अब पानी छिड़का उनके ऊपर!
उन दोनों को होश आया,
श्रुति भी ठीक,
और केशव भी ठीक!
श्रुति का वक्ष-स्थल रक्त से सना था,
ये बात समझ नहीं आई थी मुझे,
उनके न नाक से खून निकला था,
न ही मुंह से?
तो फिर?
और फिर केशव साहब के होश काबिज़ हुए!
श्रुति मारे भय के आँखें बंद किये बैठी रहीं,
जब स्थिति कुछ सामान्य हुई,
तब मैंने पूछा उनसे कि क्या हुआ था?
उनके अनुसार,
जब हम वहाँ दूर खड़े थे,
तो एक औरत आई थी उनके पास,
पता नहीं कहाँ से,
वो सामने खड़ी थी,
और कार के सामने वाले शीशे से अंदर आ गयी!
उसके बाद कुछ याद नहीं उन्हें!
लेकिन वो रक्त?
मैंने श्रुति से पूछा,
वो भय खा गयी थीं!
कुछ न बोलीं,
लेकिन मुझे जानना ही था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने श्रुति को बहुत समझाया,
लेकिन उन्होंने एक बात नहीं सुनी मेरी!
अपनी साड़ी से वो खून-सना ब्लाउज,
ढके ही रहीं!
उस दिन कोई काम न हो सका,
हमे वापिस लौटना पड़ा,
श्रुति मदद नहीं कर रही थीं,
अतः मैं केशव साहब को उनके घर छोड़,
और श्रुति को उनके घर छोड़,
वापिस हो लिया शर्मा जी के साथ,
अपने स्थान के लिए,
रास्ते में एक डॉक्टर से मिले,
हाथ का एक्स-रे हुआ उनका,
हड्डी नहीं टूटी थी,
ये संतोषजनक बात थी,
उनके हाथ पर कच्चा-प्लास्टर चढ़ा दिया गया,
और हम फिर वहाँ से वापिस अपने स्थान आ गए!

दो दिन बीत गए,
न तो हमने ही फ़ोन किया,
और न वहाँ से ही कोई फ़ोन आया,
जब उन्हें ही आवश्यकता नहीं तो,
मेरे सर में क्या खुजली पड़ी है?
मैं भी भूल सा गया,
हाँ, एक मलाल सा बाकी रह गया था,
खैर,
मैं बहुत सोचता रहा इस बारे में,
बहुत सोचा,
और तब मैंने बाबा जागड़ से सलाह ली,
वे खुश हो गए मेरा फ़ोन देख कर,
झट से हाल-चाल पूछ लिए!
मैंने भी बता दिया कि ठीक हूँ मैं,
और मैं सीधा फिर काम की बात पर आ गया,
उन्होंने सारी बात गौर से सुनी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ प्रश्न पूछे,
और जो अब उन्होंने बताया,
वो सुनकर तो जैसे मेरे कान में,
पिघलता हुआ सीसा उड़ेल दिया गया!
उन्होंने बताया कि,
ये बंजार-विद्या का केंद्र है!
इसमें मात्र स्त्री ही इस शक्ति का संधान करती है!
वे जो स्त्रियां मैंने देखी थीं,
वे सभी भुवना हैं!
अर्थात,
साधिकाएं!
ऐसी साधिकाएं जो 'शैव' रूप को सदैव के लिए,
क़ैद रखना चाहती हैं!
ये ऐसा ही केंद्र है!
एक ऐसा ही केंद्र बाबा जागड़ ने,
हिमालय की घाटी में,
नेपाल में, देखा था,
लेकिन वहाँ कोई जागृत नहीं था,
वहाँ पुरुषों के, कई सहस्त्र नर-मुंड भूमि में गड़े थे!
यहाँ पुरुषों की ही बलि चढ़ाई जाती थी!
फिर उन्होंने मुझे आगे के लिए चेताया,
क्या करना है,
और क्या नहीं,
सब बता दिया,
हाँ, जब भी मैं वहाँ जाऊं,
तो कोई स्त्री नहीं हो संग में,
अन्यथा उसे स्तनों और योनि से रक्त-स्राव हो जाएगा!
जान भी जा सकती है,
और किसी अन्य को भी संग न रखूं,
मस्तक फट सकता है!
ये सुना तो सब समझ आ गया!
कि क्यों श्रुति के वक्ष-स्थल में वो रक्त था!
उसको रक्त-स्राव हुआ होगा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब समझ गया!
बाबा जागड़ ने ये भी कहा कि,
उनको हर दिन की जानकारी चाहिए,
और जब मैं वहाँ जाऊं, तो काली-कौड़ी देख-क्रिया आरम्भ करूँ,
ताकि बाबा जागड़ भी देख सकें!
अब क्या था!
अब तो हिम्मत आ गयी!
बाबा जागड़ की देख-रेख में ऐसा होगा तो,
मुझे चिंता नहीं फिर!
लेकिन न तो केशव ही,
और न ही वो श्रुति,
मुझसे सम्पर्क कर रहे थे,
मेरी चिंता बढ़े जा रही थी!
वो दिन भी बीत गया!
ठीक पांचवें दिन,
शर्मा जी से श्रुति ने संपर्क किया,
बहुत रो रही थी बेचारी,
बेटा चार दिन से अस्पताल में भर्ती था,
ओह!
अब समझा कि संपर्क क्यों नहीं किया,
और श्रुति अभी फिलहाल तो ठीक थी,
लेकिन पुण्य साहब बहुत परेशान थे,
वे उस ज़मीन को यूँ ही छोड़ना चाहते थे,
भले ही करोड़ों का नुकसान हो!
लेकिन ये हल नहीं था इसका!
अब वे भुवनाएं,
चिढ बैठी थीं!
और अब शीघ्र ही कुछ किया जाना था,
अन्यथा बहुत बुरा घट सकता था!
मैंने उनसे कहा कि,
हम कल आएंगे वहाँ,
कल मिल जाएँ हमे,
वो मान गयीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मित्रगण!
अब मैंने अपनी आवश्यक क्रियाएँ आरम्भ कीं,
कुछ आवश्यक विद्याएँ उठायीं,
बाबा जागड़ द्वारा प्रदत्त और बतायी हुई विद्याएँ,
सब जागृत कीं,
उस दिन एक और घटना हुई,
केशव साहब भी अस्पताल में दाखिल हो गए,
उनके मस्तिष्क में,
रक्त के थक्के जमे मिले थे डॉक्टर्स को,
उनको दौरे पड़ रहे थे,
इन भुवनिकाओं ने तो जैसे,
त्राहि-त्राहि मचा दी थी!
इसको किसी भी प्रकार से रोकना था,
शीघ्र ही!
और फिर अगले ही दिन,
हम,
अपना सारा सामान लेकर चल पड़े!
सीधा अस्पताल पहुंचे,
श्रुति से मिले,
वे बेचारी रो पड़ीं!
गुहार लगाने लगीं,
उनकी तो दुनिया ही उजड़ रही थी!
और ये बहुत बुरा था देखना!
मैंने उनसे चाबी ली वहाँ की,
वे साथ जाने को तैयार थीं,
हमने मना किया,
मैं नहीं चाहता था कि कोई भी अब हमारे साथ जाए वहाँ,
मामला बहुत खतरनाक था!
कोई भी चूक होने पर,
वो सब तो क्या,
हम भी धराशायी हो जाते!
हम चल पड़े थे वहां के लिए,
तभी मुझे कुछ याद आया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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काली-कौड़ी!
उसके लिए तीन चौराहों की मिट्टी,
चाहिए थी,
तभी देख लड़ती!
मैंने ऐसा ही किया,
हम बादशाहपुर होते हुए,
चल पड़े वहाँ के लिए!
और पहुँच गए हम वहाँ!
वहाँ सन्नाटा पसरा था!
भयानक, मौत जैसा सन्नाटा!
हवा भी नहीं चल रही थी!
मात्र सूर्य ही हमे देख रहे थे!
अब मैंने उस बाड़ का ताला खोला,
उस दरवाज़े को अंदर धकेला,
और गाड़ी अंदर की,
एक जगह एक पेड़ के नीचे,
लगा दी,
पानी लिया,
हाथ-मुंह साफ़ किये,
और उसके बाद,
कलुष-मंत्र,
प्राण-रक्षा मंत्र,
देह-रक्षा मंत्र,
आदि जागृत कर,
देह को पोषित कर लिया,
अब मैंने अपने,
तंत्राभूषण धारण किये,
शर्मा जी को भी धारण करवाये,
और अब हम आगे चले!
वहीँ आ गए!
जहां वो कुआँ था!
वो हौदी थी!
आवाज़ हुई फिर से, बहुत तेज!


   
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