वो और कसती रही!
मेरी तो जान पर बन आई!
और तभी वो चिल्लाई!
बहुत बुरी तरह!
मुझे फेंक मारा उसने!
दूर हटी,
और उसके बदन में,
जगह जगह काले दाग उभरने लगे!
मैं भाग चला वहाँ से!
सीधा शर्मा जी के पास आया!
और फिर वही स्त्री,
एकदम काली होकर,
आ गयी वहां!
अब मामला गंभीर था!
वे सब,
चिल्लाने लगीं!
कान फटने लगे हमारे तो!
स्थिति गंभीर थी अब!
मैंने फ़ौरन ही,
उत्त्वङ्ग-मंत्र का जाप कर लिया!
सशक्त कर लिया अपने आपको!
अब वो,
छू नहीं सकतीं थीं हमें!
वो चिल्लाये जाएँ,
और,
और साधिकाएं आती जाएँ वहाँ!
एक एक करके,
सभी आने लगीं!
कटी-फ़टी,
किसी का हाथ नहीं था,
किसी का पाँव नहीं था,
किसी का सर नहीं था,
किसी का सर दो-फाड़ था,
किसी का भेजा बाहर लटका था,
किसी के स्तन काट डाले गए थे!
किसी के पेट में छेद था,
किसी की छाती में छेद था!
किसी की आंतें बाहर लटकी थीं!
भयानक दृश्य था!
सभी की सभी,
त्रासदी का शिकार थीं!
खल्लट की निर्दयता,
यहां झलक रही थी!
कितना क्रूर रहा होगा वो,
पत्थर,
हिंसक,
सब मालूम पड़ रहा था!
वहां कम से कम,
सौ से अधिक साधिकाएं थीं!
इन्होंने तो मात्र,
शरण दी थी,
उस ऊषल को!
और उसका ये फल मिला था इन्हे!
सभी की सभी,
काट डाली गयी थीं!
और तभी भीड़ छँटी!
चार विशेष साधिकाएं आयीं वहां,
वे हमारी ओर ही आ रही थीं!
और उनके पीछे,
एक घुँघरू बांधे,
एक साधिका थी!
उसने गले में,
अस्थि-माल धारण किया हुआ था!
भुजाओं में,
ऐसी ही अस्थियां पड़ी थीं!
उसके विशाल स्तन,
ऐसे ही मालाओं से ढके थे!
वो साधिका,
पीले रंग में रंगी थी,
वो चारों हटीं,
और वो सामने आई!
अब क्या होगा?
किसलिए आयीं ये?
क्या होगा अब?
हम जीवित रहेंगे अथवा नहीं?
पल पल,
भागे जा रहा था!
समय अपना रथ रोक,
सबकुछ देख रहा था!
हम चुपचाप खड़े थे!
टोर्च लिए,
टोर्च ने भी,
एक दो बार,
अपनी सांस तोड़ दी थी!
बची साँसें इकट्ठी कर,
हमारे साथ बनी हुई थी अभी तक!
वो प्रधान साधिका आगे आई,
इतनी लम्बी-चौड़ी औरत,
मैंने कभी नहीं देखी थी!
ये तो मनुष्य की कोई भिन्न प्रजाति ही लगती थी!
जितना मेरा सीना है,
उतनी तो उसकी एक जांघ थी!
उसकी मज़बूत,
गोल, सुराही जैसी पिंडलियाँ,
बहुत मज़बूत थी!
उसके केश,
बहुत लंबे थे,
कोई दस फ़ीट तक!
चेहरा इतना चौड़ा,
कि, आज का इंसान तो भय खा जाए!
उसका वक्ष-स्थल ऐसा विशाल था,
जैसा मैंने कहीं भी,
कभी भी नहीं देखा!
उसकी कमर,
अपने बदन के हिसाब से तो पतली थी,
लेकिन थी बहुत चौड़ी!
उसकी भुजाएं,
बहुत मज़बूत थीं!
एक हाथ मार दे,
तो आज का भरपूर इंसान कलाबाजी खाते हुए,
सामने जा पड़े!
वो सामने आई,
और खड़ी हो गयी!
लोहबान की सी गंध आई वहां!
"कौन हो तुम?" उसने पूछा,
मैं चौंका!
मेरी भाषा?
और ये आवाज़?
सुनी है कहीं मैंने,
लेकिन कहाँ?
कहाँ?
हाँ!
हाँ!
ये तो मंगला की आवाज़ है!
मंगला!
मेरे एक गुरु की पत्नी,
जो एक वर्ष पहले स्वर्गवासी हुई थीं!
पुत्र समान मानती थीं मुझे,
कोई संतान नहीं थी उनके!
प्रेम बरसाती थीं मातृत्व का मुझ पर!
अब समझ आ गया!
इन योगिनी-साधिकाओं के लिए सब सम्भव है!
सब!
जितना मैं सोच सकता हूँ,
उस से भी अधिक!
अब मैंने अपनी भाषा में परिचय दिया अपना,
शर्मा जी का भी,
और बता दिया,
मैं जान गया हूँ सब!
मैं इतना कहा,
और वे सभी,
रो पड़ीं!
सभी के सभी!
बस वो प्रधान साधिका नहीं!
भन्न!
प्रकाश कौंधा!
सुनहरा प्रकाश!
और वे सभी कटी-फटी साधिकाएं,
अपने मूल रूप में आ गयीं!
सभी अप्सराएं जैसी!
सुंदर!
बहुत सुंदर!
वो और सामने आई!
और मेरे सर पर हाथ रखा!
जैसे आशीर्वाद दिया हो!
भय मिट गया!
एक क्षण में ही,
सारा भय जाता रहा!
वो स्थान,
चमचमा गया!
और फिर वे हटीं पीछे,
सभी जाने लगीं वहाँ से,
सभी,
मैं थोड़ा अचरज में था,
लेकिन वो प्रधान-साधिका,
वो नहीं गयी,
वो वहीँ थी!
वहीँ खड़ी रही!
और फिर,
सभी चली गयीं,
जैसे लोप हो गयीं!
वो खड़ी रही!
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
और एक तरफ इशारा किया,
मैंने वहीँ देखा,
एक साधिका खड़ी थी,
हाथ में कुछ लिए,
वो आई मेरी तरफ,
और कुछ दिया मेरे हाथ में,
ये एक लाल रंग की पोटली सी थी,
धागा भी उसी के साथ सिला हुआ था,
मैंने खोला उसे,
वे देखती रहीं मुझे!
मैंने पोटली खोली,
ये?
ये तो ज़ेवर हैं?
मेरे किस काम के?
एक एक करके सारे ज़ेवर देख लिए मैंने,
और रख दिए वापिस,
और पोटली कर दी उनकी तरफ!
"ऊषल!" प्रधान-साधिका बोली!
और मैं गिरते गिरते बचा!
जैसे पांवों के नीचे से,
ज़मीन निकल गयी हो!
मैं और शर्मा जी,
दोनों ही स्तब्ध थे!
वे सारे ज़ेवर,
उस ऊषल के थे!
जिन्हे अभी मैंने छुआ था!
वो पोटली,
जैसे आग बन गयी मेरे लिए!
आग!
जो न साधे जा रही थी,
न छोड़े जा रही थी!
फिर मेरी हिम्मत नहीं हुई उसको खोलकर देखने की!
नहीं खोली!
मैंने शर्मा जी को दे दी,
"शतलब्ध!" वो बोली,
और चली गयीं!
दोनों की दोनों!
शतलब्ध!
ओह!
मुझे असीम शान्ति हुई!
असीम!
शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता मैं!
मैं बैठ गया वहीँ पर!
शर्मा जी नहीं समझ सके!
शतलब्ध!
अर्थात!
महा-क्रिया!
इस स्थान पर अटकी सभी आत्माओं की मुक्ति!
आगे पथ पर बढ़ जाएँ ये सभी!
मैं तो अपने आपको,
इस धरा का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति मानता हूँ!
जिस समय वो हत्याकांड हुआ होगा,
वो खल्लट,
वो औरांग,
वो ऊषल,
वो दज्जू आदि,
तभी लिख दिया गया होगा,
कि एक व्यक्ति आएगा!
जो शतलब्ध क्रिया करेगा!
और सभी मुक्त होंगे!
सभी!
वो खल्लट भी!
हाँ!
खल्लट भी!
सभी!
हम चढ़ चले सीढ़ियां,
आये ऊपर,
संध्या हो चली थी!
अब सामान नहीं मिल सकता था!
कल ही मिलता!
हम तब,
निकल पड़े वहाँ से,
अपने भोजन के लिए!
भोजन करके आये,
तो आवाज़ें आयीं!
हंसने की,
क्रीड़ा करने की!
हम गए वहां,
नीचे हौदी में झाँका,
साधिकाएं थीं वहां!
सभी देख लेतीं हमें!
हँसते हुए,
मुस्कुराते हुए!
प्रसन्नता हुई!
बहुत प्रसन्नता!
उस रात,
चैन की नींद आई!
सुबह हुई,
और हम अब चले स्नान-ध्यान करने,
स्नान किया,
चाय-नाश्ता किया,
फिर भोजन भी बंधवा लिया,
वापिस आये,
और भोजन किया!
दोपहर में आराम ही किया!
सारी घटनाएँ,
याद आती रहीं!
एक एक किरदार!
उस पोटली में रखे ज़ेवर,
मैंने कई बार देखे!
ऊषल का जैसे,
स्पर्श मिला,
लगा,
औरांग समीप ही खड़ा है!
सब देख रहा है!
ये पोटली आज,
श्री श्री श्री जी के पास है!
उन्होंने ही संभाल के रखी हुई है!
और फिर हुई शाम,
हम अब सारा सामान लेने के लिए निकले!
सामान लिया,
और फिर,
अब हुई रात....................
और उसी रात!
मैंने अपने सभी तंत्राभूषण धारण किये!
अपना सभी आवश्यक सामान और सामग्री निकाले!
भूमि मैंने साफ़ कर ही ली थी!
शर्मा जी,
गाड़ी में ही थे,
अब वहीँ रहना था उन्हें!
वे मुक्ति-क्रिया में,
इस शतलब्ध में,
नहीं बैठ सकते थे!
ये समझा दिया था मैंने उन्हें!
मैं चल पड़ा!
और भूमि नमन किया!
गुरु नमन किया!
बाबा जागड़ को नमन किया!
बाबा जागड़ नहीं होते,
तो आज मैं और शर्मा जी भी,
इसी हौदी में छिपे पड़े होते!
अब अलख उठायी!
सामान सजाया!
और अब शतलब्ध,
महा-क्रिया आरम्भ की!
मुझे दो घंटे लगे,
आरम्भ से अंत तक आने के लिए!
मुझे एक एक किरदार याद आ रहा था!
मित्रगण!
मैंने अलख में तेल झोंका!
ये सरसों का शुद्ध तेल था!
और अब खड़ा हुआ,
महानाद किया!
और फिर,
मेरे सामने,
भीड़ इकठ्ठा हो गयी!
उन साधिकाओं की भीड़!
सभी प्रसन्न थे!
सभी!
काट गया था उनका ये भोग अब!
अब अगली पार जाना था!
योनि-चक्र में समा जाना था!
मैं तेल के छींटे उन पर फेंकता जाता!
और वे लोप होते जाते!
इसी में,
मुझे डेढ़ घंटा लगा गया!
एक एक करके,
सभी लोप होते चले गए!
अंत में,
रह गयी वो प्रधान-साधिका!
वो आगे आई!
और रुकी!
आवाज़ दी किसी को!
अब कौन?
कौन रह गया?
वो लड़की!
जिसकी जीभ नहीं थी!
और वो दज्जू!
उन पर भी तेल छिड़का!
और वे भी लोप!
अब वो साधिका!
वो मुस्कुराई!
और आंसू भर लायी!
मेरे करीब आई!
मुझे कुछ देने लगी,
अपना हाथ बंद करके,
मैंने अपने दोनों हाथ बढ़ा दिए आगे!
ये मानव अस्थियों से बना,
एक धूपदान था!
इसमें, हाथी बने बने हैं!
ऐसे धूपदान मैंने वहां भी देखे थे!
बस फ़र्क़ इतना कि ये,
इस साधिका का अपना था!
मैंने रख लिया,
माथे से हाथ लगाया!
उस साधिका ने,
चारों ओर देखा,
और चौकड़ी मार,
हाथ जोड़,
बैठ गयी!
बह-रूपा मंत्र का जाप करते हुए!
मैंने श्री महाऔघड़ का मंत्र पढ़ते हुए,
तेल के छींटे डाल दिए उस पर!
वो लोप हो गयी!
वो लोप हुई,
और वहाँ की भूमि धसक गयी!
मिट गया नामोनिशान उस स्थान का!
मुझे शान्ति हुई!
महा-शान्ति कहूँगा इसे!
मैं चल पड़ा वापिस!
वस्त्र पहने,
और फिर गाड़ी में बैठा,
एक एक शब्द,
कह सुनाया शर्मा जी को!
हमने,
हाथ जोड़ लिए उस स्थान के!
मित्रगण!
सब समाप्त हो गया!
केशव जी,
पुण्य साहब,
उनका बेटा,
पुण्य साहब के पिता,
सभी उसी रात ठीक हो गए!
और अगले दिन घर भी आ गए जो दाखिल थे!
जैसे कुछ हुआ ही नहीं था!
सब ठीक!
पुण्य साहब,
केशव साहब,
श्रुति जी,
सबने बहुत धन्यवाद किया हमारा!
मुझे वहां भूमि देने को भी तैयार हो गए!
लेकिन नहीं!
मैं ऐसा नहीं कर सकता!
आखिर में,
चौंसठ योगिनी-मंदिर बनवाया गया वहाँ!
जहां आज भी,
श्रुति और पुण्य साहब पूजा किया करते हैं!
वो खल्लट!
वो औरांग!
वो ऊषल,
दज्जू,
यौम,
भुवनिकाएँ,
इतिहास बन गए हैं आज!
लेकिन,
मेरे मन में,
आज भी,
सभी जीवित हैं!
सभी!
साधुवाद!
