भेंट चढ़ गया था!
उसकी क़िस्मत का फैंसला तो उसी दिन हो गया था,
जिस रात वो सराय में मिला था उसे!
लेकिन औरांग!
बेचारा औरांग!
उसका क्या क़ुसूर था?
सिर्फ इतना,
कि वो प्रेम कर बैठा था!
जानते हुए भी,
कि आग से उसकी लपट नही छीनी जा सकती!
फिर भी,
उसने प्रयास किया था!
कैसी अजीब प्रेतलीला है ये!
वो औरांग!
आज भी,
मेवात से,
कोई ढाई सौ किलोमीटर दूर,
घोड़ा दौड़ा रहा है!
एक ऐसी यात्रा,
को कभी समाप्त नहीं होने वाली!
अनंत है उसकी वो यात्रा!
वो रोज,
इस डेरे के लिए आता है,
और रुक जाता है,
कि खल्लट आता ही होगा!
वो फिर लौटता है,
दिल के हाथों मज़बूर,
प्रेम के हाथों मज़बूर,
वो औरांग,
फिर घोड़ा दौड़ाता है!
फिर रुकता है,
लौटता है,
और फिर वापिस आता है!
बेचारा औरांग!
और वो ऊषल!
कभी नहीं मिली मुझे!
शायद,
मुक्त हो गयी होगी,
कहीं अन्यत्र जन्म लिया होगा उसने,
भूल गयी होगी सबकुछ!
मित्रगण!
ऐसे ही हम!
न जाने क्या इतिहास है हमारा!
क्या भूल गए हैं हम!
न जाने क्या इतिहास जुड़ा होगा हमसे!
पता नहीं!
कुछ नहीं पता!
तो ये थी कहानी इस स्थान की!
यौम का क्या हुआ?
पता नहीं!
कभी नहीं जान सका!
ये कहानी सुनकर,
मेरे दिमाग उलझ गया था!
कानों में बस,
चीलों के चीखने की आवाज़ें आती थीं!
ये स्थान!
चुप था!
लेकिन एक इतिहास लिए!
इस खुनी इतिहास लिए!
ये गवाह था,
उस क़त्ल-ए-आम का!
एक प्रेम-कहानी का!
ऊषल और औरांग की,
प्रेम कहानी!
ऊषल के खेल का गवाह!
एक मूक गवाह!
और मित्रगण!
जी चार पुरुष मैंने देखे थे,
उनमे से दो,
वे सभी दज्जू के सहायक थे!
वे भी भेंट चढ़ गए थे,
खल्लट और यौम के युद्ध में!
अभी मैं सोच ही रहा था उनके बारे में,
कि एक आवाज़ हुई!
जैसे किसी को मार रहा हो कोई!
हम भागे,
उस हौदी के पास,
हौदी में झाँका,
कुछ भुवनिकाएँ,
इधर उधर भाग रही थीं!
किसी का हाथ कटा था,
किसी का पाँव!
कोई किसी मृत बालक को उठाये थी,
कोई कटे सरों को लिए भाग रही थी!
बड़ा ही दर्दनाक दृश्य था!
और फिर सब शांत!
घोड़ों की,
टाप सुनाई दी,
घोड़े हिनहिना रहे थे,
घोड़ों के पसीने की,
गंध फैली थी वहाँ!
कभी शान्ति होती,
और कभी चीत्कार!
कालखण्ड में क़ैद,
ये सभी,
अपने अपने उन पलों को,
जिए जा रहे थे!
आखिरी पल!
उनकी रीतियाँ,
उनके प्रचलन!
यही दृश्य,
हमे दीख रहे थे!
मुझे औरांग का बहुत दुःख था,
ऊषल का क़तई नहीं,
ऊषल तो जानती थी अपनी नियति!
लेकिन ये बेचारा औरांग,
बीच में आ गया!
और बन गया एक,
पिटा हुआ मोहरा!
हारा हुआ सिपाही!
कुछ नहीं मिला उसे,
न जीवन,
और न ऊषल!
कुछ नहीं!
रिक्त ही गया वो!
बेचारा औरांग!
वो बावड़ी,
आज भी वहीँ है,
मैं गया हूँ वहाँ,
वो बुर्जी,
अब टूट गयी है!
लेकिन वो रास्ता,
आज भी चलता है!
अब शान्ति फैली थी वहां!
अब कोई शोर नहीं था!
न कोई चीख,
न कोई भाग-दौड़ी!
बस,
सन्नाटा!
और कुछ नहीं!
दस बजे का समय रहा होगा वो दिन का,
अब भूख लगने लगी थी,
तो अब हम हटे वहाँ से,
गाड़ी तक आये,
गाड़ी चालू की,
और निकल लिए वहाँ से,
बाहर जाकर,
ताला लगाया उस बाड़ को,
चाबी संभाली,
और चलते बने वहाँ से,
गाड़ी भगाई,
और एक जगह रुके,
पहले चाय पी,
साथ में मट्ठियाँ भी लीं,
और चाय पीते चले गए,
कुछ देर आराम किया,
और फिर भोजन के लिए निकले,
भोजन किया एक जगह,
फिर कुछ देर आराम,
और फिर वापिस हुए,
अब नहाने का इंतज़ाम करना था,
एक गमछा था हमारे पास,
एक जगह,
एक ढाबा पड़ा,
वहाँ कुछ लोग स्नान कर रहे थे,
हम भी शामिल हो गए,
ठंडे पानी से स्नान किया,
तो स्फूर्ति आ गयी!
ढाबे वाले ने,
एक बड़ी सी हौदी बना रखी थी!
इसी काम के लिए थी ये हौदी!
खैर,
स्नान हो गया था!
ताज़गी आ गयी थी!
अब फिर से वहीँ चाय पी,
ब्रेड-मक्खन लगवा लिया था,
चाय के साथ खींच लिया!
और फिर कुछ देर आराम किया,
वहीँ बिछी चारपाई पर,
कमर सीधी करनी थी,
गाड़ी में तो ऐसा लगता था कि,
जैसे किसी डिब्बे में क़ैद कर दिया गया हो!
एक घंटे से अधिक आराम किया,
मेरी तो आँख ही लग गयी थी!
मैं जागा,
शर्मा जी बैठे हुए थे,
सुट्टा खींच रहे थे!
मैं खड़ा हुआ,
जूते पहने,
और फिर से चल दिए वापिस,
वहीँ के लिए!
वहाँ पहुंचे,
ताला खोला,
और गाड़ी अंदर की,
खड़ी कर दी उस पेड़ के नीचे,
फिर से कलुष-मंत्र जागृत किया,
और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये!
और आगे बढ़े,
वहाँ शान्ति पसरी थी!
तभी मेरे मन में एक विचार आया,
क्यों न,
इस सारे स्थान का मुआयना किया जाए!
ये विचार बढ़िया था!
शर्मा जी को संग लिया,
और चल पड़े,
रास्ते में एक जगह,
एक नाग का जोड़ा दिखा,
हमे ही देख रहा था वो!
नागिन,
अपना छोटा सा फन फैलाये,
नाग के फन के नीचे सरक गयी थी!
ये उसकी रक्षा के लिए किया था उसने,
कि हम यदि कोई वार करें उन पर,
तो नागिन को ही चोट लगे,
उसके नाग को नहीं!
हम रुक गए थे!
वे हमारे रास्ते में ही थे,
बीचोंबीच!
फुफकार भी नहीं रहे थे!
मैंने हाथ जोड़ लिए उनके!
शर्मा जी ने भी,
और हम नीचे ज़मीन पर बैठ गए!
बिना हिले,
वो हमे ही देखते रहे,
जीभ लपलपा कर,
जायज़ा लेते रहे,
कोई दस मिनट के बाद,
वे चले गए वापिस!
पीछे!
हमे देखते हुए!
हम दस मिनट और बैठे,
और अब खड़े हुए,
वे चले गए थे वहाँ से!
अब हम आगे बढ़े,
बहुत लम्बा-चौड़ा दायरा बनाया था हमने!
और एक जगह,
हमे एक गड्ढा दिखाई दिया!
ये गड्ढा काफी बड़ा था!
और जब ध्यान से देखा,
तो उसमे पत्थर लगे थे!
ये मुहाना था शायद अंदर जाने का!
टोर्च हमारे पास थी ही,
छोटे बैग में,
जो मैंने लटकाया हुआ था,
अब हम नीचे चले!
बड़ा झाड़-झंखाड़ था वहाँ!
जो उखाड़ा गया,
वो उखाड़ दिया,
जो नहीं,
वो रहने दिया!
टोर्च जलायी,
नीचे तो सीढ़ियां थीं!
घुप्प अँधेरा था वहाँ!
मकड़ियों के जाले थे,
बहुत बड़ी मकड़ियाँ थीं वो!
अंदर कीड़े-मकौड़े भी होंगे,
कोई ज़हरीला कीड़ा-काँटा भी!
अंदर जाना सुरक्षित नहीं था!
बहुत बुरा हाल था उस जगह का!
हम वापिस आ गए!
ऊपर आये,
एक टोर्च के भरोसे,
अंदर जाना,
आत्म-हत्या करने के समान था!
असम्भव था अंदर जाना,
हम वापिस हुए,
और फिर वहीँ आ गए,
अब उसी दरवाज़े से,
अंदर जाना था,
और कोई तरीका नहीं था!
लेकिन अंदर के रास्ते बड़े ही संकरे थे,
आड़ा-तिरछा हो कर ही,
अंदर जाया जा सकता था!
हम अंदर चले!
पत्थरों पर आराम से आगे बढ़े,
और फिर दायें हुए,
यहां से,
कक्ष में नहीं गए,
हम सीधे गए,
घुप्प अँधेरा था,
गर्मी थी,
हम आगे बढ़ते रहे!
और फिर सामने,
वो रास्ता खत्म हुआ,
वहीँ से सीढ़ियां गयीं थीं नीचे,
हम नीचे उतरे!
आराम से,
बहुत धीरे धीरे,
पत्थर पड़े थे सीढ़ियों पर,
उनसे भी बचना था!
और तभी मुझे गंध आई,
तेल जलने की गंध,
मैं गंध की दिशा में बढ़ा,
दूर एक लौ दिखाई दी,
वहीँ के लिए चला!
तभी बाएं मेरी निगाह गयी,
एक साधिका थी वहाँ,
नग्न,
कोई रंग नहीं था उसके शरीर पर,
स्नान किया हो,
अभी अभी,
ऐसा लगता था!
और तभी एक पुरुष को देखा,
वो भी नग्न,
वो पुरुष नीचे लेट गया,
पुरुष उत्तेजित अवस्था में था,
और फिर वे काम-क्रीड़ा में मग्न हो गए,
ऐसा क्यों होता था यहां,
समझ नहीं आ रहा था,
अब हम आगे बढ़े,
उस लौ की तरफ!
वहाँ एक साधिका बैठी थी!
हमे ही देख रही थी!
बहुत भयानक थी वो!
उसके बड़े बड़े केश,
उसके वक्ष से होते हुए,
सामने भूमि तक पड़े थे!
अपनी चौड़ी आँखों से,
हमे ही देख रही थी!
एकटक!
लौ फड़क रही थी!
उसका प्रकाश फैला था वहाँ!
यहां दीवारों पर,
सर्प कन्यायों के चित्र थे!
बने हुए,
काम-क्रीड़ा में मग्न!
"शुण्डा! शुण्डा! सिम्हि! सिम्हि!" वो बोली,
शुण्डा समझ आया!
और सिम्हि भी!
भण्ड योगिनी हैं ये!
भण्ड!
अर्थात,
उन चौंसठ के अतिरिक्त,
और शेष योगिनियाँ!
शुण्डा वही थी!
सिम्हि भी वही थी!
वो खड़ी हुई,
हमे देखते हुए ही!
और सामने की तरफ बढ़ी!
भय सा छाया मुझे!
वैसे तो वो,
निहत्थी ही थी!
लेकिन उसका शरीर ऐसा विशाल था कि,
मेरे जैसे को,
एक हाथ से पकड़ कर,
ही दीवार पर दे मारती!
सामने आते हुए,
रुक गयी वो!
शर्मा जी को देखा,
"शुण्डा! शुण्डा! सिम्हि सिम्हि!" बोली वो!
फिर एक झटके से मुझे देखा!
और फिर आगे आई,
मैं उसके कंधे तक ही,
आ रहा था,
उस से निगाह मिलाने के लिए,
मुझे अपना सर उठाना पड़ रहा था!
तभी एक किलकारी गूंजी!
मैंने देखा,
मेरे बाएं, एक शिशु आ रहा था,
घुटने चलता हुआ,
वो आ गया उधर,
उस साधिका के पांवों तक!
साधिका ने,
अपने हाथ से, हमे देखते हुए ही,
वो शिशु उठाया,
और शिशु के मुंह में अपना स्तन दे दिया,
वो शिशु,
स्तनपान किये जाए,
और हमे देखे जाए!
समय को स्तम्भन लगा था!
भय व्याप्त था!
लेकिन मैं,
अपने आत्म-विश्वास के भरोसे,
टिका हुआ था!
अभी तक!
बहुत ही खौफनाक मंज़र था!
वो बालक,
स्तनपान किये जाता,
और हमे घूरे जाता,
आँख से आँख मिलाता,
बिना पलक मारे!
और वो साधिका,
अपलक हमे घूरे!
मंत्र से पढ़ती जाए!
तभी पीछे से आवाज़ हुई!
जैसे कुछ गिरा हो!
जैसे कोई बड़ा सा,
पानी भरा,
घड़ा गिरा हो!
और फिर आवाज़ों से लगा कि,
कोई भूमि पर,
रड़क रड़क के आ रहा हो!
रेंगता हुआ,
अँधेरा इतना नहीं था,
लेकिन वो साफ़ नहीं दीख रहा था कि कौन है,
और जब मैंने टोर्च मारी तो देखा,
ये एक स्त्री थी,
उसकी दोनों टांगें,
जाघों के पास से काट दी गयीं थीं!
मांस के लोथड़े अभी भी लटक रहे थे!
खून बह रहा था अभी भी,
वही आ रही थी रेंग रेंग कर!
बहुत बुरा हाल था उसका,
जब वो हाथों से आगे को चलती थी,
तो मुंह से 'अहं' की आवाज़ निकालती थी,
उसको दर्द है,
कष्ट है,
सब पता चल रहा था,
वो आ गयी वहाँ तक,
और इस साधिका के पास आ कर,
लेट गयी,
कमर के बल लेटी,
और हमें देखने लगी!
वीभत्स दृश्य था वो बहुत!
साधारण व्यक्ति तो प्राण ही छोड़ देता उसको देखकर!
फिर से आवाज़ हुई,
दायीं तरफ,
एक और साधिका आ रही थी,
उसका एक स्तन,
कट कर झूल रहा था नीचे,
सफ़ेद चर्बी का झाग सा बना था वहां,
उसकी छाती,
बीच में से चिरी हुई थी!
वो भी वहीँ आ कर खड़ी हो गयी!
इन सभी ने त्रासदी झेली थी!
खल्लट की त्रासदी!
खल्लट मौत बन कर टूटा था इन सभी पर!
"ईज़ा! ईज़ा!" वो जो नीचे लेटी हुई थी, बोली,
"बिश्कि बिश्कि" कटे स्तन वाली बोली!
हमें तो कुछ समझ नहीं आया!
कुछ भी नहीं!
और तभी जैसे मुझ में किसी ने प्रवेश सा किया,
मेरी आँखें मिचीं!
ये क्या था?
नहीं आया समझ!
भाषा सबसे बड़ा रोड़ा था यहां!
मुझे समझ नहीं आ रहा था कुछ भी!
कहूँ तो क्या कहूँ?
समझूँ तो क्या समझूँ?
और तभी!
तभी एक बहुत ही सुंदर स्त्री ने प्रवेश किया वहां!
बहुत सुंदर थी वो!
उसका बदन,
अप्सरा जैसा था!
मैं तो देखता ही रह गया उसे!
अपने गले में,
अपनी पतली कमर में,
फूलों की मालाएं डाली हुई थीं उसने!
केश सुसज्जित थे उसके!
फूल खुंसे हुए थे उनमे,
ताज़ा,
गुड़हल के फूल!
बदन बहुत गोरा था उसका,
सुडौल,
सुगठित!
काम-सुंदरी कहूँ तो भी कम होगा!
कोई रंग नहीं लगा था उसके बदन पर,
और कोई साज-सज्जा नहीं थी!
उसका रूप, ही उसकी सज्जा थी!
ये कौन है?
कोई साक्षात योगिनी?
यही सोच रहा था मैं,
कि वो मुस्कुराई,
मेरे कद से, थोड़ा, कोई दो इंच के करीब,
लम्बी रही होगी वो,
वो मेरे पास आई,
मेरे माथे से,
अपनी ऊँगली छुआई,
मुझे नशा सा होने लगा,
आँखें मिंचने लगी,
पता नहीं कैसा स्पर्श था वो!
मेरी उस से आँखें मिलीं,
मैं डर गया उसको देखकर!
उसने मुझे मेरे कंधे से पकड़ा,
सर्द हाथ था उसका बहुत!
और एक तरफ ले जाने लगी,
मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ लिया,
लेकिन अधिक देर तक नहीं!
उनका हाथ छूट गया मुझसे!
और मैं,
सम्मोहित सा,
उस स्त्री के साथ चलने लगा,
वो एक कक्ष था,
कक्ष में,
नीचे फर्श पर,
फूल बिखरे थे,
गुड़हल के ताज़ा फूल!
उसने और करीब खींचा मुझे,
और सटा लिया अपने से,
मुझे चक्कर सा आ गया था उस समय!
वो नीचे बैठती गयी,
मुझे अपनी गोद में बिठाते हुए सी,
और सच में,
मैं उसकी गोद में ही बैठा था!
उसने मेरी कमर के गिर्द अपने हाथ कस लिए,
और अपनी जांघें खोल लीं,
मैं सम्मोहित सा,
उसका साथ दिए जा रहा था!
और फिर लेटने लगी,
मुझे अपने ऊपर साधे हुए!
फिर उसने अपनी टांगों से,
मुझे गिरफ्त में ले लिया!
ये तो काम-मुद्रा थी!
अब मैंने छूटने की कोशिश की,
सम्मोहन टूटने लगा!
