निकल गयी वो वहाँ से!
नहीं रोक पाया औरांग उसे,
कैसे रोकता!
कैसे?
चली गयी वो!
वो दौड़ के बुर्जी पर पहुंचा,
और देखता रहा उसको जाते हुए,
पीछे मुड़ मुड़ कर,
कलेजा छलनी करती रही उसका!
वो चली गयी!
रास्ता सुनसान हो गया!
वो खुद,
बियाबान में खड़ा था अब!
वो चल पड़ा,
नीचे,
धीरे धीरे,
हल्के क़दमों से चलता हुआ,
जा पहुंचा अपने कक्ष,
बैठ गया,
उठा,
पानी पिया सुराही से,
और खंजर रख दिया अपना,
एक तरफ,
सर के नीचे हाथ रखे अपने,
और ताकता रहा छत को!
रात भर नींद नहीं आई उसे!
क्या ऐसा ही चलता रहेगा?
क्या ऐसी ही रोक-टोक रहेगी?
ऐसे सवालों में खोया रहा!
पौ फटी,
चिड़िया चहचहायीं!
स्वागत किया सूर्य का उन्होंने!
और छह घुड़सवार,
आ खड़े हुए उसके घर के आगे,
आवाज़ दी,
वो चला बाहर,
सांकल लगाई,
ताला लगाया,
और चल दिया बाहर,
सभी से नमस्कार हुई,
बंसा आया था वहाँ!
बंसा!
खल्लट का भतीजा,
अपने पांच साथियों के साथ!
घोड़ा लाया था वो,
उस औरांग के लिए,
औरांग ने घोड़े की जीन कसी,
और बैठ गया ऊपर,
घोड़ा मोड़ा,
और चल दिए सभी!
खल्लट से मिलने!
खल्लट वहीँ खड़ा था!
अब बात हुई औरांग से उसकी!
कुछ समझाया औरांग को,
औरांग की नज़रें घूमी,
तलाश की उसने अपनी प्रेयसी!
छत पर खड़ी थी ऊषल,
घूंघट निकाले!
इतना बहुत था औरांग के लिए!
अब बंसा ने,
माल-ओ-असबाब लाद लिया घोड़ों पर,
और चल पड़े वे सब!
हाड़ाओं के पास!
औरांग!
देह तो ले आया था,
लेकिन दिल पीछे छोड़ आया था!
जान नहीं थी उसमे आज!
बस,
चले जा रहा था!
यात्रा लम्बी थी,
कल ही पहुँचता वो,
रात में,
यदि मौसम साफ़ रहा तो!
चलते गए,
और घोड़े,
हवा से बातें करने लगे!
सारा दिन चले,
रुकते-रुकाते,
पानी पीते,
भोजन करते,
सुस्ताते,
घोड़ों को आराम देते,
चलते रहे,
रात घिरी,
और सराय में जा ठहरे,
कुछ और लोग भी मिले,
ऐसे ही एक मिला उसे,
दज्जू!
ये दज्जू,
सामान आदि पहुंचाया करता था,
एक सम्प्रदाय को!
एक स्त्री सम्प्रदाय को!
वो दज्जू,
वहीँ जन्मा था,
बाद में उसे दूर भेज दिया गया था,
उसकी माँ आज तक वहीँ थी!
वो माँ से मिल भी लेता था,
और सामान भी ले जाया करता था!
दज्जू से,
यारी हो गयी औरांग की उस रात!
अता-पता दे दिया गया एक-दूसरे को!
और सुबह,
वे अपने अपने रास्ते हो लिए!
यात्रा फिर से आरम्भ हुई,
औरांग की,
ऊषल की याद में डूबा औरांग,
चलता रहा!
चलता रहा!
और रात के समय वो पहुँच गए हाड़ा-राज में!
उनका स्वागत हुआ!
फरमान लेते आये थे वो खल्लट का,
अब बंसा ने वो फरमान दिया उस धूरमल को,
धूरमल ने फरमान देखा,
और उनके भोजन,
शयन,
आदि की व्यवस्था की!
हौदियां खुदवाई गयीं!
भूमि का परिमापन किया गया,
बीजक गढ़े गए,
उनको गाड़ा गया,
पूजन-कीलन हुआ,
बलियां हुईं!
और इसी सब में,
पूरा एक माह बीत गया!
औरांग तो घुल गया था!
पानी में पड़े,
लवण-खंड की तरह!
किस से कहे अपनी व्यथा?
जब भी होता अकेला,
ऊषल की यादें,
उसका स्पर्श,
उसकी आवाज़,
उसकी गंध,
साल देते उसे!
भोजन, भोजन न लगता उसे,
पानी, पानी न लगता उसे,
एक माह बीत गया था,
उसके दिन ऐसे बीत रहे थे,
जैसे दीवार पर लकीरें काढ़ता हो रोज!
एक दिन की एक लकीर!
और फिर आया वापसी जाने का समय!
चेहरे पर,
चमक आ गयी उसके!
बदन कड़क हो उठा उसका!
जान में जान आ गयी!
बंसा ने,
सारा हिसाब-किताब किया,
अपना हिस्सा लिए,
और अगले दिन,
पौ फटते ही,
वे रवाना हो लिए वहाँ से,
वापिस जाने के लिए!
औरांग को तो जैसे पंख लग गए!
उसका घोड़ा,
सबसे आगे होता!
संध्या ढलने तक,
वे पहुँच चुके थे सराय पर,
रात वहीँ गुजारी,
भोजन आदि किया,
और फिर सो गए!
सुबह,
फिर से निकल पड़े!
और इसी तरह चलते चलते,
वे रात से पहले,
आ गए वापिस!
अपने स्थान पर!
खल्लट के यहां!
दिल बहुत खुश था औरांग का!
अपनी प्रेयसी के पास आ पहुंचा था औरांग!
इस से पहले,
वो माल-ओ-असबाब,
बंसा को ही सौंप देता था,
और फिर अपने घर चला जाया करता था!
लेकिन उस रोज ऐसा नहीं हुआ!
वो साथ चला बंसा के!
और पहुँच गए खल्लट के यहां!
खल्लट अपने तख़्त पर बैठ था!
नमस्कार हुई सभी की उस से!
खल्लट प्रसन्न हुआ सभी को देख कर!
गले मिला सभी से,
और सबसे पहले,
अपने मित्र,
औरांग से!
लेकिन औरांग!
औरांग तो कुछ और ही ढूंढ रहा था!
वो नहीं था घर में!
कहीं भी!
बालक-बालिकाएं अवश्य ही थे!
खल्लट ने बिठाया सभी को!
सभी बैठ गए,
बंसा ने सारा हिसाब-किताब बता दिया अब!
और सौंप दिया सारा माल-ओ-असबाब उस खल्लट को!
खल्लट ने नज़र भर देखा,
और अपने अनुचरों से,
रखवा दिया सामान अंदर!
और तब,
तब ऊषल आई वहाँ,
एक थाली में,
गिलास लिए!
घूंघट काढ़े!
ओंस की सी बूँदें टकरा गयीं चेहरे से औरांग की!
नज़रों को जैसे जल मिला!
तपती रेत में जैसे,
बारिश पड़ी!
देह उसकी,
तर हो गयी अपनी प्रेयसी की निकटता से!
सभी ने पेय लिया,
और पी गए,
गिलास वापिस रखे,
लेकिन औरांग!
उसने तो अभी बस,
घूँट ही भरे थे!
जानता था वो,
गिलास खत्म होते है,
चली जायेगी वो!
वो घूँट भरता रहा!
और हो गया गिलास खाली!
उसने थाली में रखा गिलास वापिस,
और चली गयी वापिस!
पत्थर से टूट गए उसके सीने पर!
अब सभी खड़े हुए!
खल्लट ने अगले दिन की शाम को सभी को दावत पर बुलाया!
चलो!
एक बहाना तो मिला यहां आने का!
नज़र भर के,
देख ही लेगा वो!
अब वो खड़ा हुआ,
अंदर,
अपने कक्ष में,
दरवाज़े के पीछे छिपी हुई,
ऊषल,
देख रही थी उसे,
मुस्कुरा गयी!
औरांग खुश हो गया!
जोश भर आया!
तरंगें उठ गयीं!
और चल दिए सभी बाहर!
आखिर में जाने वाला, बाहर,
औरांग ही था!
घर पहुंचा!
और आराम किया उसने फिर!
सारी रात सोया आराम से!
और फिर सुबह हुई!
सुबह होते ही,
ऊषल का ध्यान हो आया उसे!
आज शाम!
हाँ आज शाम!
दावत है!
ज़रूर दिखेगी वो!
तो मित्रगण!
सारा दिन किसी तरह से काटा उसने!
शाम के इंतज़ार में!
और फिर हुई शाम!
इत्र-फुलेल लगा,
चल दिया वो,
खल्लट के यहाँ!
दावत तो मात्र एक बहाना ही था!
उसे तो दीदार करना था!
अपनी प्रेयसी ऊषल का!
पहुँच गया वो खल्लट के घर!
और सभी लोग भी आ पहुंचे थे!
अफीम का घोटा पिलाया गया सभी को!
लेकिन प्रेयसी नहीं दिखाई दी!
वो ढूंढता रहा!
देख रही थी उसे,
मुस्कुरा गयी!
औरांग खुश हो गया!
जोश भर आया!
तरंगें उठ गयीं!
और चल दिए सभी बाहर!
आखिर में जाने वाला, बाहर,
औरांग ही था!
घर पहुंचा!
और आराम किया उसने फिर!
सारी रात सोया आराम से!
और फिर सुबह हुई!
सुबह होते ही,
ऊषल का ध्यान हो आया उसे!
आज शाम!
हाँ आज शाम!
दावत है!
ज़रूर दिखेगी वो!
तो मित्रगण!
सारा दिन किसी तरह से काटा उसने!
शाम के इंतज़ार में!
और फिर हुई शाम!
इत्र-फुलेल लगा,
चल दिया वो,
खल्लट के यहाँ!
दावत तो मात्र एक बहाना ही था!
उसे तो दीदार करना था!
अपनी प्रेयसी ऊषल का!
पहुँच गया वो खल्लट के घर!
और सभी लोग भी आ पहुंचे थे!
अफीम का घोटा पिलाया गया सभी को!
लेकिन प्रेयसी नहीं दिखाई दी!
वो ढूंढता रहा!
कोई आधा घंटा बीता होगा,
की वही लड़की फिर से आई वहाँ!
दिल धड़का!
पांवों में पहिये लगे!
दौड़ के पहुंचा उसके पास!
खबर सुनी!
बावड़ी पर जाना था उसको!
ठीक एक घंटे बाद!
लड़की चली गयी!
फिर से वो रुई की फुनगी,
इत्र-फुलेल में डुबोई,
कान में खॉंसी,
और बैठ गया!
किया इंतज़ार!
बार बार बाहर देखे,
और इसी बेचैनी में,
एक घंटा भी काट दिया!
चल पड़ा!
तेज क़दमों से!
कभी दौड़े,
कभी धीमा हो,
फिर दौड़े,
और फिर चले!
लम्बे लम्बे डिग!
जा पहुंचा वहाँ!
ऊपर,
वही लड़की और वो,
ऊषल,
खड़े थे!
सीढ़ियां चढ़ा औरांग!
वो लड़की हटी वहाँ से!
ऊषल आगे चली,
दीवार के पीछे,
औरांग भागा!
उसके पीछे!
और जा लिपटा ऊषल से!
देह का यौवन भड़क उठा!
पौरुष ने डंका बजाया!
चूमता ही रहा उसे!
बार बार!
बार बार!
जब तक,
थक नहीं गया!
साँसें नहीं फूल गयीं!
यही आग तो लगाई थी ऊषल ने!
ऊषल हटी!
उसको देखा!
तरसती आँखों में,
बहुत कुछ मांग रहा था औरांग!
लेकिन नहीं!
नहीं!
बाँध तो बाँध ही दिया था!
बाँध नही टूटने देगी ऊषल!
और नहीं टूटने दिया!
"कैसे हो औरांग?" बोली वो,
"ठीक नहीं, एक माह कैसे रहा मैं, पूछो नहीं" बोला वो,
वो हंस पड़ी!
"मेरी भी हालत ऐसी ही है" वो बोली,
ईंधन झोंक दिया!
लपक के बाजुओं में भर लिया उसको!
"शाम को दावत में नहीं दिखीं?" पूछा उसने,
"खल्लट ने मना किया था" वो बोली!
खल्लट खल्लट!
ये खल्लट!
मन ही मन!
गालियां बरसा दीं उसने!
"क्यों मना किया था?" उसने पूछा,
"अब उसकी मर्जी" वो बोली,
मर्जी!
हाँ!
मर्जी!
गुस्सा सा चढ़ आया औरांग को!
खल्लट!
यही नाम गूंजता रहा उसके कानों में!
बाहों में क़ैद थी ऊषल औरांग के!
औरांग चाह रहा था,
की वक़्त यहीं ठहर जाए!
आगे ही न बढ़े!
पर ये सम्भव नहीं था!
वक़्त तो देखा जाए!
लेकिन वो खल्लट?
उसका क्या हो?
वही तो सबसे बड़ा रोड़ा है उनके बीच!
और ये रोड़ा,
रोड़ा नहीं,
अब तो पहाड़ बनता जा रहा है!
और तभी हट गयी ऊषल!
उसके जाने का समय हो चला था!
कहीं खल्लट ने पूछ लिया तो,
मुसीबत हो जायेगी बैठे बैठे!
न चाहते हुए भी,
भेजना पड़ा उसे!
वो चली गयी,
तेजी से,
सीढ़ियां उतरती हुई!
और रह गया औरांग वहाँ,
अकेला!
ताकता हुआ!
खाली हाथ!
धधकती हुई आग लिए!
शांत तो हुई नहीं थी,
भड़क और गयी थी!
ईंधन और झोंक गयी थी ऊषल!
चला धीरे धीरे वहाँ से,
और उतरा,
अब वापिस हुआ,
अपने घर के लिए चला,
पहुँच गया घर अपने,
अपना खंजर रखा एक तरफ,
और लेट गया,
वो रोड़ा!
वो पहाड़!
याद आ गया उसे!
लेकिन ये रोड़ा,
ये पहाड़,
हटाया कैसे जाए?
सीधे सीधे टकराना तो,
असम्भव है!
इसका अर्थ तो यही हुआ,
की बिना हथियार लिए,
सिंह की मांद में घुस जाया जाए!
और अपनी देह के,
टुकड़े होते हुए देखना!
चुनौती दे नहीं सकता!
फाड़ डालेगा खल्लट!
बग़ावत,
की नहीं जा सकती!
सभी विश्वासपात्र हैं उसके यहाँ!
किसी से कही भी,
तो वो ही तलवार घुसेड़ देगा पेट में,
उसी क्षण!
और ऊषल,
छोड़ सकता नहीं उसे!
अब तो जान से अधिक प्यारी है वो!
तो फिर,
किया क्या जाए!
ये सवाल,
बार बार गूंजता उसके दिमाग में!
हाँ!
एक तरीका हो सकता है!
यहाँ से भाग लिया जाए!
और कहीं दूर जाकर,
बस लिया जाए!
तब कहाँ पता चलेगा खल्लट को?
जितना वो जानता है,
उतना औरांग भी जानता है!
हाँ!
यही सही है!
निकल लिया जाए यहां से!
लेकिन इसके लिए,
ऊषल की सहमति चाहिए,
यदि वो तैयार है,
तो फिर तो कोई बात ही नहीं!
अगर नहीं हुई तैयार,
तो समझना पड़ेगा!
समझ ही जायेगी!
प्रेम अगन चीज़ ही ऐसी है!
प्रसन्न हो उठा औरांग!
वो रात,
शब्द ढूंढने में लगा दी!
शब्द,
समझाने के लिए!
ऊषल को समझाने के लिए!
और फिर दो दिन बीत गए!
कोई खबर नहीं आई ऊषल की!
बहुत बेचैन था औरांग!
तीसरे दिन फिर वही लड़की आई,
और उसको खबर दी,
प्यासे की तरह से,
उसने एक एक शब्द की बूँद का पानी पिया!
शाम को जाना था उसे,
और अभी समय था!
तड़प उठा!
झुलस उठा!
बौखला सा गया!
दिल बल्लियों उछल तो रहा था,
लेकिन समय ने हाँक लगा रखी थी!
बार बार!
अब समय ही आगे न बढ़े!
बड़ी बेसब्री से,
समय काटा उसने,
और संध्या समय,
कुछ समय पूर्व ही,
जा पहुंचा बावड़ी पर!
अब तक न आई थी वो!
वो बुर्जी के भीतर जा खड़ा हुआ,
गड़ा दीं नज़रें सामने के रास्ते पर!
समय बीते जा रहा था!
लेकिन उसका कोई पता नहीं था!
अब तो,
अन्धकार भी छाने लगा था,
उसके दिल में हूक उठी!
क्या हो गया?
किसने रोक लिया?
क्यों नहीं आई?
और फिर सामने,
वही लड़की आते दिखाई दी,
अकेले ही,
