एक सौ पचासवाँ संस्मरण!
संध्या का समय था वो!
मैं उस समय अपने एक जानकार के डेरे में था,
ये डेरा काशी से थोड़ा आगे पड़ता है,
आबादी अब रहने लगी है वहां,
पहले जब ये डेरा बना था,
तब इक्का-दुक्का ही झोंपड़ियां थीं,
लेकिन पक्का निर्माण हुआ है वहाँ,
रास्ता भी बन गया है,
डामर सड़क है अब,
आवागमन भी ठीक-ठाक है,
ये डेरा मेरे एक जानकार भीमा जी का है,
भीमा जी एक समय में,
बहुत प्रबल औघड़ हुआ करते थे,
लेकिन एक दुर्घटना में,
उनका बायां हाथ गंवाना पड़ा था उन्हें,
तभी से वो कोई क्रिया करने योग्य नहीं रहे,
अतः अब उनके छोटे भाई अंजन नाथ ही क्रिया आदि करते हैं,
या उनका पुत्र है,
माधव,
वो किया करता है,
मुझे भीमा जी ने काशी से बुलवाया था,
एक घाड़ क्रिया थी,
जो अब सम्पन्न हो चुकी थी,
और अब अगले ही दिन,
मुझे वापसी काशी और,
वहाँ से फिर वापिस दिल्ली जाना था,
उस दिन दावत का प्रबंध था,
कई और लोग भी आये हुए थे,
कुछ नेपाल से आये हुए थे,
कुछ दूर दूर से,
जैसे कामरूप,
मणिपुर,
उड़ीसा आदि आदि से,
उन सभी से मिलना बहुत अच्छा रहा था!
रात हुई तो अब दावत आरम्भ हुई,
बढ़िया प्रबंध था भोजन का!
मदिरा का और अन्य सभी!
छक के मदिरा पी,
छक के खाया,
और फिर कोई रात बारह बजे,
मैं और शर्मा जी,
अपने कक्ष में चले!
बिस्तर पर गिरे,
और सौंप दिया अपना बदन बिस्तर को!
कहाँ तो तकिया था,
कहाँ सिरहाना,
कहाँ दामन,
कुछ नहीं पता!
और भरने लगे खर्राटे दबा कर!
खूब सोये!
और जब सुबह उठे,
तो नौ बज रहे थे!
बहुत से तो अभी भी सो ही रहे थे!
सन्नाटा पसरा था डेरे में,
हम नहाये-धोये,
और फिर चाय आदि पीने गए,
फिर आराम किया,
और फिर बाद में भोजन किया!
दोपहर बाद,
सभी से मिलने के उपरान्त,
हम कशी के लिए निकल गए,
दो-ढाई घंटे में वहाँ पहुँच गए!
सीधा अपने डेरे गए!
और आराम किया हमने वहाँ!
उस रात नहीं पी दारु,
कल की महक दारु की,
अभी तक नहीं गयी थी!
रात को भोजन किया और,
सो गए!
सुबह वही दैनिक-कर्म आदि!
कोई नौ बजे होंगे,
मेरे पास,
फ़ोन आया एक महिला का,
ये महिला मेरे एक जानकार के मातहत आयीं थी,
तभी सम्पर्क किया था उन्होंने,
ये हरियाणा के मेवात क्षेत्र में रह रही थीं,
उन्होंने बताया कि उनके,
पति महोदय ने एक भूमि खरीदी थी वहाँ,
एक फार्म-हाउस बनवाने के लिए,
लेकिन जिस दिन से काम आरम्भ हुआ था,
उसी दिन से जैसे किसी की,
नज़र मार गयी उन्हें,
पति के साथ कार-दुर्घटना हो गयी,
पसलियां टूट गयीं,
और बायीं टांग में,
रॉड डालनी पड़ी,
उनके बेटे के सर में भयानक पीड़ा हुई है तभी से,
इलाज चल रहा है,
अभी छोटा है,
पति का काम है फाइनेंस का,
वो खतम सा हुआ पड़ा है,
जिन्होंने पैसे देने थे,
कोई नहीं दे रहा,
ऐसी ऐसी कुछ समस्याएं उन्होंने बतायी थीं!
मैंने यही कहा कि मैं दो दिन बाद दिल्ली आऊंगा,
आप एक बार मिल लें,
और फ़ोन काट दिया,
और फिर अगले दिन हम वहाँ से निकल पड़े,
पहुँच गए दिल्ली,
जिस दिन पहुंचे,
फिर से उन महिला का फ़ोन आ गया,
उन्होंने पूछा कि हम आये हैं या नहीं!
मैंने बता दिया कि हम आज ही आये हैं,
वे कल आ जाएँ मिलने के लिए,
मिलने का स्थान भी बता दिया,
तो वो दिन भी बीत गया,
और आया अगला दिन,
हम उस स्थान पर पहुँच चुके थे,
और वो महिला नियत समय पर,
आ चुकी थीं!
उनसे नमस्कार हुई,
और फिर हम बैठे,
अब उनसे समस्या पूछी,
तो उन्होंने वही सारी बातें दोहरा दीं,
कुल मिलाकर,
बात ये थी कि,
जब से वो ज़मीन खरीदी थी,
तभी से वहाँ समस्या आई थी,
समस्या नहीं,
समस्याएं!
इन महिला का नाम श्रुति है,
एक बात और,
श्रुति के साथ कुछ नहीं हुआ था,
वो ठीक थी,
उनके पति पुण्य के साथ,
और उनके बेटे के साथ,
और उनके ससुर साहब के साथ ही,
ये समस्याएं आई थीं,
ससुर साहब के अंडकोषों में समस्या आई थी,
वे चल-फिर नहीं सकते थे,
शायद हर्निया हो,
लेकिन हुआ ज़मीन खरीदने के बाद से,
और वहाँ काम शुरू करने के दिन से!
मैंने पूरी बात सुनी,
लेकिन अभी तक मुझे कोई शक नहीं हुआ,
ये कोई,
संयोग भी हो सकता है,
अब मैंने बात की उनसे,
"ये संयोग भी तो हो सकता है?" मैंने कहा,
"नहीं गुरु जी" वो बोली,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"जिस रोज काम शुरू हुआ, पूजा हुई, उसी रोज जो हमारे पंडित जी हैं, बीमार पड़ गए, और धीरे धीरे उनकी सुनने की शक्ति ही खत्म हो गयी, आज तक इलाज चल रहा है" वो बोलीं,
ये बात नयी थी!
"और कुछ?" मैंने पूछा,
"जो ठेकेदार आया था, उसने भी मना कर दिया, बोला सपना आया है उसको, कि यहां काम नहीं होगा" वो बोलीं,
ये भी नयी बात थी!
"और गुरु जी?" वो बोली,
"जी?" मैंने कहा,
"जी मज़दूर वहाँ रहने आये थे, उनके बच्चे रात को रोते थे, हर वक़्त, इस से भी फ़ैल गया, और मज़दूरों ने भी मना कर दिया" वो बोली,
बच्चे रोते थे?
ये शक पैदा करने वाली बात थी!
अब एक ही काम करना था,
उस ज़मीन का मुआयना करना!
तभी कुछ पता चलता,
ऐसे कोई फायदा नहीं था,
"मैं वो ज़मीन देखना चाहूंगा" मैंने कहा,
"जब आप आदेश करें" उसने कहा,
और इस तरह दो दिन बाद का,
रविवार का कार्यक्रम,
हो गया निर्धारित!
अब हम वापिस हुए,
उसने धन्यवाद कहा,
और चली गयीं!
"वहाँ ऐसा क्या हो सकता है?" पूछा शर्मा जी ने,
"देख के ही पता चलेगा" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
अब हम भी उठे,
और चल पड़े अपने निवासों की ओर,
अगले दिन मिले,
और चल पड़े अपने स्थान की ओर!
वहाँ पहुंचे,
और फिर लगे अपने कार्यों में!
मेरी एक साध्वी आई,
रिप्ता!
बैठी मेरे संग!
"कैसी हो रिप्ता?" मैंने पूछा,
मुंह बना लिया उसने,
बाइस वर्ष कि है अभी,
बचकानापन नहीं गया है!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वो, दानू आया था" वो बोली,
"यहां आया था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"क्यों आया था?" मैंने पूछा,
"मुझे लेने" वो बोली,
"तुझे लेने?" मैंने पूछा,
"हाँ, मुझे लेने" वो बोली,
"उसकी इतनी हिम्मत?" मैंने कहा,
शर्मा जी का भी जबड़ा भिंच गया!
"जब मैं यहां नहीं था तब आया था?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"क्या कह रहा था?" मैंने पूछा,
"बैठने को, मुझे थप्पड़ मारा उसने" वो बोली,
रो पड़ी बेचारी!
"चुप हो जा! आ मेरे साथ" मैंने कहा,
उसको उठाया मैंने,
और ले गया साहू के स्थान पर,
साहू के कमरे में दो आदमी बैठे थे,
मैंने पूछा कि कहाँ हैं साहू जी?
तो बोले शाम तलक आएंगे,
गए हैं हापुड़,
किसी काम से,
"और ये दानू कहाँ है?" मैंने पूछा,
अब साले दोनों ही,
एक दूसरे का मुंह ताकें!
"कहाँ है साल रंडी का बीज?" शर्मा जी ने पूछा,
"पीछे में है" एक बोला,
अब हम चले पीछे,
तो हराम का बीज,
चारपाई पर बैठा,
ताश खेल रहा था!
हमे देखा,
उस रिप्ता को देखा,
तो मूत निकलने को हुआ उसका!!
"तू आया था रे?" मैंने पूछा,
चुप!
चुप हरामजादा!
इस से पहले मैं कुछ कहता,
शर्मा जी आगे बढ़े,
और साले के पेट में
एक लात जमा दी,
चीख निकली उसकी!
साल बस पांच फ़ीट का है,
और बदमाश समझता है अपने आपको!
उसे साथी भागे अब!
"साले बच्ची को हाथ लगाया तूने?" बोले शर्मा जी,
और जूतम-पट्टी शुरू!
मैं भी हो गया शुरू!
साले को उठा उठा के भांजा!
मर गया! मर गया!
माफ़ कर दो!
अब नहीं करूँगा!
यही बोलता रहा!
शर्मा जी ने,
उसके बाल ही उखाड़ डाले!
मैंने मार मार के,
साले का मुंह सजा दिया!
दोनों आँखें काली पड़ गयीं उसकी!
"तेरी इतनी हिम्मत, कि तू वहाँ आये?" मैंने कहा,
साला पाँव पड़ गया!
शर्मा जी ने उसके बाल पकड़ के उठाया उसे!
"इधर आ रिप्ता! मार साले के दो-चार खिंचा कर!" बोले शर्मा जी!
रिप्ता की हिम्मत नहीं हुई!
शर्मा जी ने साले की ऐसी धुनाई की, कि अगले एक महीने तक,
सीधा हो कर नहीं चल सकता था!
दाढ़ी फाड़ दी उसकी!
साले के होंठ.
चिंपैंजी जैसे कर दिए!
खून में नहला दिया उसको!
उसके दो चार साथी आये थे दौड़े दौड़े,
लेकिन हमको देख,
फूंक सरक गयी थी उनकी!
जब वो नीचे गिरा,
तो दो दो और लात जमाईं उसको!
ज़मीन चाट रहा था अब वो!
"अगर अब कभी, तूने क़दम रखा उधर, तो नंगा करके भगा दूंगा यहां से!" मैंने कहा,
और थूक आकर उसके ऊपर,
हम आ गये अपनी जगह वापिस!
संग, रिप्ता को भी ले आये,
"अब ठीक है? सिखा दिया न पाठ?" मैंने पूछा,
वो मुस्कुरा गयी!
"चल अब पानी पिला दे" मैंने कहा,
वो बाहर गयी,
और मैं और शर्मा जी भी बाहर ही चले,
हाथ धोने, खून लगा था,
उस हरामज़ादे का हाथों पर,
अब साफ़ किया,
अच्छी तरह से,
और फिर तौलिये से पोंछ कर,
वापिस आये,
हाथ में पानी लिए खड़ी थी रिप्ता,
मैंने पानी ले लिया,
पिया और गिलास दे दिया उसे,
उसने और पानी के लिए पूछा,
मैंने मना कर दिया,
हाँ, शर्मा जी ने पानी मंगा कर पिया था,
इतने में, मैं अंदर आ गया था,
अब शर्मा जी भी अंदर आ गए,
बैठे,
"साहू जी की बुद्धि चल गयी है, लगता है, कैसे कैसे बेगैरत इंसानों को बुला लेते हैं" वे बोले,
"आज बात करूँगा उनसे" मैंने कहा,
"हाँ, साफ़ साफ़ कह देना, कि यहां हमारी अनुपस्थिति में कोई घुसने की हिमाक़त न करे, नहीं तो मैं समझा दूँ उन्हें?" वे बोले,
"संग ही रहना, बात करूँगा मैं" मैंने कहा,
"बताओ, साले की इतनी हिम्मत हो गयी कि लड़की के मना करने पर, थप्पड़ मार दिया" वे बोले,
"सोच रहा होगा कि कुछ कहेंगे तो हैं नहीं" मैंने कहा,
"साले को दो और लगाउँगा साहू के सामने" वे बोले,
मैं हंस पड़ा!
"वैसे ही अब तो सूजा पड़ा है वो!" मैंने कहा,
"जब तक इस कमीने की **** नहीं सूजेगी, तब तक इसको अक़्ल नहीं आने वाली!" वे बोले,
मैं हंस पड़ा!
"साले का हगना, मूतना सब बंद होना चाहिए!" वे बोले,
"हो ही गया है!" मैंने कहा,
तभी रिप्ता आई,
उसने खाने के बारे में पूछा,
भूख तो लगी थी,
मंगवा लिया,
उसने खाना लगवा दिया,
और हम खाना खाने लगे,
खा लिया खाना,
और अब किया आराम,
बर्तन ले गयी थी रिप्ता,
मैंने उसको भी खाना खाने को,
कह दिया था,
मुस्कुराती हुई,
चली गयी!
फिर हुई शाम!
मेरे सहायक ने बताया कि,
साहू जी आ गये हैं,
अब मैं और शर्मा जी उठे,
उनके तरफ का फाटक खोला,
और चल दिए अंदर,
वहाँ जो नशेड़ी, सुल्पेबाज बैठे थे,
सभी खड़े हो गए!
मैं साहू जी के कमरे में गया,
वे वहाँ नहीं थे,
एक महिला से पूछा,
तो पता चला, दानू के कमरे में गए हैं,
अब मैं भी वहीँ चला,
शर्मा जी के संग,
दानू रो रहा था,
पट्टियां बंधी थीं उसके!
दवा ले ली थी उसने!
दवा भी तो ये 'बंगाली डॉक्टर' से लेते हैं!
जिनके पास, खारिश से ले कर एड्स तक का गारंटीशुदा इलाज है!
"नमस्कार साहू जी!" मैंने कहा,
उन्होंने मुझे देखा,
"नमस्कार!" वे बोले,
"इसका ये हाल आज हमने ही किया है" मैंने कहा,
दानू नज़रें बचाये!
साहू जी उसी को देखें!
अब मैंने शुरू से लेकर आखिरी, सारी बात, कह सुनाई उन्हें,
अब आया उन्हें गुस्सा!
"तेरी मैया की **! अपनी मैया *दाने गया था वहाँ? बहन**, तुझे मैंने मना किया था, कि वो हैं नहीं वहाँ, वहाँ नहीं जाना, फिर क्यों गया था?" साहू जी ने दानू के बाल पकड़ के हिला दिया बुरी तरह से!
और अपनी छड़ी से उसके घुटनों पर,
दो तीन चपड़ लगा दिए!
अब तो दानू माफ़ी मांगे!
रोवे ही रोवे!
हाथ जोड़े!
और साहू जी,
उसके कुनबे की 'महा-गाथा' उसे सुनावैं!
उसकी माँ, बहन से लेकर दूर रिश्तों तक की बखिया फाड़ डाली!
"सही किया जी, इस साले को मैं खुद बधिया कर दूंगा अगर मुझे कुछ भी पता चला तो, एक काम करो आप, उन लड़कियों से कहो, बे-रोकटोक आएं यहां और मुझे बताएं कि किस कुत्ते ने भौंका है, बस फिर मैं जानूँ" वे बोले,
"कह दूंगा साहू जी!" मैंने कहा,
"सुन ओये? साले भिन्डी काट के फेंक दूंगा नदी में, जो मैंने सुन ली अब कोई बात, समझा?" बोले साहू जी,
उस दानू को समझाते हुए,
"इसे भगाओ साले को यहां से!" बोले शर्मा जी,
"बिलकुल! ओये? साले सीधा होते ही उठा ले बोरिया-बिस्तरा अपना यहां से, समझा?" बोले साहू जी!
दानू ने गर्दन हिलायी!
अब निकले हम बाहर,
सारे नशेड़ी,
कन्नी काटने लगे!
"आओ, चाय पीते हैं" वे बोले,
मेरे और शर्मा जी के कंधे पर हाथ रखते हुए!
हम चल दिए,
उनके कमरे में पहुंचे,
उन्होंने बिठाया,
हम बैठे,
"कहाँ गए थे, काशी?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, वहीँ" मैंने कहा,
"निबट आये?" वे बोले,
"हाँ" मैंने कहा,
"अच्छा हुआ" वे बोले,
तभी पानी ले आया एक सहायक,
हमने पानी पिया,
"आप कहाँ गए थे आज?" मैंने पूछा,
"गढ़-गंगा गया था, ब्याह था एक" वे बोले,
"अच्छा, दावत खा के आये हो!" शर्मा जी ने कहा,
"क्या दावत! अब तो घुटने जवाब देने लगे हैं!" वे बोले,
हाथ फेरते हुए घुटनों पर,
और तभी चाय आ गयी!
अब चाय पी हमने!
साथ में नमकीन थी,
वो भी खायी,
"उन लड़कियों से कह दो, डरे नहीं, कोई बात हो, तो मुझे बताएं, उनके सामने ही लाठी भांज दूंगा उन पर" वे बोले,
"पता है! आप थे नहीं यहां, नहीं तो आपसे ही मिलने आये थे हम" मैंने कहा,
"नहीं, सही किया साले के साथ, अक़्ल ठिकाने आ गयी होगी अब तो" वे बोले,
"एक बार और समझा देना उसे" मैंने कहा,
"बिलकुल! उसे क्या, सभी को!" वे बोले,
चाय पी ली थी!
अब नमस्कार कर,
हम वापिस हुए,
आये सीधे अपने कक्ष में,
रिप्ता आई,
उसने पूछा,
बता दिया उसे सबकुछ!
अब चैन पड़ा उस नन्ही जान को!
रात को,
खाना-पीना हुआ और सो गए,
शर्मा जी वहीँ रहे थे,
सुबह हुई,
और फिर मैं और शर्मा जी,
चले अपने निवास की ओर,
और शाम को फिर से मिले,
चले वापिस अपने स्थान की ओर,
बाज़ार गए थे पहले,
रिप्ता के लिए वस्त्र खरीदे,
कुछ कुर्ते-कुर्तियां, और अंतःवस्त्र आदि,
पहुंचे अपने स्थान,
और दे दिए उसे वो वस्त्र!
खुश हो गयी!
अब हम बैठे अपने कक्ष में,
और आराम किया था,
गुलाबी और नीले फूलों वाली,
कुर्ती पहन कर आई रिप्ता!
क्या खूब लग रही थी!
मैंने कहा उसे कि,
शीशा मत देखना,
नहीं तो खुद की ही नज़र लग जायेगी!
चलो खुश हुई वो!
और खुश हुआ मैं भी!
उस रात भी खाना-पीना खाया और आराम से सो गए!
अब हुई सुबह!
स्नान-ध्यान हुआ,
चाय-नाश्ता हुआ,
और फिर किया शर्मा जी ने श्रुति को फ़ोन!
वे हमारे फ़ोन की ही प्रतीक्षा कर रही थीं,
हमने समय निश्चित किया,
और निकल पड़े वहाँ से,
पहले उनके घर जाना था,
घर उनका दिल्ली के आखिरी कोने पर है,
और दिल्ली में यातायात ऐसा है कि,
आप पैदल चल लो,
तो जल्दी पहुँच जाओगे!
क़दम क़दम पर बत्तियां,
और भीड़ भाड़!
ऐसा लगता है कि,
शाम तक दिल्ली खाली हो जायेगी!
सभी भाग रहे हैं इधर से उधर!
आखिर तीन घंटे की उस,
महायात्रा को निबटा कर,
हम उनके घर पहुंचे!
उन्होंने स्वागत किया हमारा,
उनकी आयु कोई पैंतीस-सैंतीस ऐसी ही होगी,
उन्होंने अब सभी से मिलवाया हमे,
हम सभी से मिले,
उनके पति पुण्य से भी,
उनकी हालत खराब थी,
फिर भी बेचारे किसी तरह से हमसे बातें करते रहे,
मेरे वो जानकार भी आ गए थे,
जिन्होंने मेरे बारे में बताया था इनको,
अब कहानी सुनी पूरी,
लगभग वही थी,
जैसा श्रुति ने सुनाया था,
अब बस जगह देखना बाकी था,
हमने चाय पी वहाँ,
कुछ मीठा भी खाया,
और फिर श्रुति और मेरे वो जानकार, केशव,
चल पड़े हमे वो जगह दिखाने के लिए,
अब हम मेवात के लिए निकल पड़े,
यहाँ भी भीड़-भाड़ थी बहुत!
अब तो बड़े बड़े वाहन भी थे सड़क पर!
और यहां के गति-अवरोधक!
पहाड़ जैसे हैं!
छोटी गाड़ियां तो,
टेढ़ा करके निकालनी पड़ती हैं!
खैर,
हम चलते रहे,
और फिर एक संकरा सा रास्ता आया,
अब वहाँ मोड़ ली गाड़ी,
और चल पड़े!
बंजर सा क्षेत्र था ये,
लेकिन बीच बीच में,
आलीशान फार्म-हाउस बने हुए थे!
हम चलते रहे!
और फिर से,
एक रास्ते पर मुड़े,
और वहाँ जाकर रुके,
जहां एक बाढ़ सी बनी हुई थी,
सामान रखा हुआ था वहाँ, निर्माण का!
मैं गाड़ी से उतरा अब!
और आसपास देखा,
सामान्य ही था सबकुछ,
कुछ गड़बड़ तो नहीं दिख रही थी!
मैं आगे गया थोड़ा,
और ज़मीन पर थाप दी,
एक मंत्र पढ़ते हुए,
सब ठीक था!
कम से कम वहाँ तो,
जहां मैंने वो थाप दी थी!
जगह बहुत बड़ी थी थी वो!
कई एकड़ में फैली थी,
जगह जगह जाकर जांच नहीं हो सकती थी,
तब मैंने कलुष-मंत्र चलाया,
