वर्ष २०१३ मानेसर की...
 
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वर्ष २०१३ मानेसर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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और तभी आया वहाँ मदना! इस बार गुस्से में था वो! "बाबा?" बोला मदना! "मना करो, कंडु को मना करो!" बोला मदना, बाबा उठे, 

आये सामने मदना के! क्रोधित! "मदना? ये मेरा आदेश नहीं इच्छा है! और इच्छा का मान तो तू रखता है न! मैं तो पिता हूँ 

तेरा। इसे आदेश मान, या इच्छा!" कंधे पर हाथ रखते हए बोले बाबा! "लेकिन, ये सब किसलिए?"बोला वो, "अपमान! मेरा अपमान किया है उस वैज ने!" बोले बाबा, "इसमें कौन सा अपमान?" बोला मदना, अब आँखें हुई लाल! हुए और क्रोधित! "जैसा मैंने कहा, वही होगा" बोले वो, "तब मैं साथ नहीं दूंगा, मैं बता दूंगा बाबा वैज को!" बोला मदना, 

अब क्या था! क्रोध फूट पड़ा बाबा का! कंधे पर एक हाथ मार खींच कर! 

वो लड़खड़ाया, तो बाबा ने उसके घुटनों में एक लात और जमा दी! "पकड़ लो इसे, निकलने मत देना कहीं!" बाबा ने गुस्से से कहा! बाबा के विश्वस्त झपट पड़े मदना पर, पकड़ लिया उसको! "अपमान का बदला क्या होता है मदना, ये भी सीख लेगा तू अब!" बोले बाबा, "नहीं। कुछ नहीं करना, कुछ नहीं करना वहां!" बोला मदना, "ले जाओ इसको, बंद कर दो!" बोले वो, वे आदमी ले गए खेंच कर उसको! चिल्लाता रहा। गुहार लगाता रहा! कभी गिर जाता! तो उठा लिया जाता! 

और बाबा! 

गुस्से में फुनकते हुए, लौट पड़े वापिस! अपने साथियों के साथ! अँधेरा छाया और दृश्य ओझल हुआ! मेरी हालत खराब हुई अब! साँसें बहुत तेज हो उठीं थीं! लगता था जसि अभी हृदयाघात होगा! किसी तरह से संभाला मैंने अपने आपको! पानी पिया थोड़ा सा, और फिर, सारी कहानी से अवगत करवाया मैंने शर्मा जी को! अब कहानी पानी की तरह से साफ़ हए जा रही थी! लेकिन बाबा दवैज ने क्या इंतज़ामात किये थे, ये नहीं पता चला था! न ही कोई ज़िक्र हुआ था, इतना पता चला था कि उनके डेरे में कोई तीन सौ लोग हैं, आधा मानें तो करीब डेढ़ सौ पुरुष होंगे, वे ही रक्षा करेंगे डेरे की अब! लेकिन वहाँ बाबा लहटा ने पक्का ही इंतजाम कर दिया था, कंड़ बंजारा तो था ही, उसने कहा बंजारे को भी शामिल कर लिया होगा! तो इनका पलड़ा बहुत भारी था, कहाँ डेढ़ सौ और कहाँ साढ़े चार सौ या पांच सौ, वो भी पेशेवर, स्पष्ट था कि बाबा वैज के साथ साथ सभी अब मौत के पाले में खड़े थे! या तो बाबा वैज ही कुछ चमत्कार करते, या फिर कोई बीच का रास्ता निकलता! लेकिन बाबा दवैज और बाबा लहटा, सब जानते थे अपना अपना सामर्थ्य! अब 

ये लड़ाई तंत्र की न हो कर अब हथियारों की लड़ाई बन गयी थी! "तो अब मदना ने मना किया था!" शर्मा जी बोले, "हाँ, उसने मना किया, विरोध किया" मैंने कहा, "उसको बंद करवा दिया, कि कहीं बाहर न निकले!" वे बोले, "हाँ, ताकि बाबा वैज तक खबर ही न पहुंचे!" वे बोले, "बहुत बुरा हुआ, जो भी हुआ, अब अंदाजा लगाया जा सकता है। वे बोले, "हाँ, ये बेचारे अभी तक यही हैं, सारे के सारे" मैंने कहा, "हाँ, सारे के सारे" वे बोले, "अब अंतिम पड़ाव आ पहँच अहै इस कहानी का, इस दर्दनाक कहानी का" वे बोले, "हाँ, अब कुछ और नहीं बचा" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बेचारे" वे बोले, "हाँ, लाचार" मैंने कहा, "अब भूमिका देखनी होगी उस मदना की!"वे बोले, "हाँ, वो बंद था, यहां कैसे आया?" मैंने कहा, "हाँ, वही" वे बोले, उन्होंने पानी पिया, मुझसे पुछा, तो मैंने मना कर दिया! लें अब मेरी हालत नहीं थी ऐसी कि मैं पुनः प्रवेश करूं शीघ्र ही, ये बात शर्मा जी भी जानते थे, मेरे सीने में दर्द था, हाथ-पाँव कांपने लगे थे, मेरी कमर, बुरी तरह से अकड़ी थी, क्योंकि, प्रवेश के बाद, शरीर अकड़ जाया 

करता है, मैं अब अगर प्रवेश करता, तो निश्चित ही, उस बोझ के कारण प्राण त्याग सकता था, मैंने थोड़ा विश्राम करने का निर्णय लिया! मैंने उन्हें बता दिया था, मैं शरीर से थका था, मन से नहीं, प्रयास करना था कि आधे एक घंटे बाद, मैं पुनः प्रवेश करूँ! मैं आराम करने के लिए लेट गया, सर के नीचे, एक पोटली सी रख ली, इस पोटली में सामान था मेरा! 

मैं और शर्मा जी, उस दृश्य की कल्पना किया जा रहे थे, सोच रहे थे कि कितना वीभत्स नज़ारा रहा होगा उस समय का! उन हैवानों ने किसी को नहीं बख्शा था, किसी को भी नहीं! दया नाम की कोई वस्तु या भाव, था ही यही उनके पास, वे बस रक्त के प्यासे थे, बाबा लहटा, अपने अपमान का बदला चुकाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ना चाहता था! अब घृणा होने लगी थी मुझे उस बाबा लहटा से! अचानक से वहाँ चीख-पुकार मच गयी! मैं झट से उठा, शर्मा जी भी चौंक पड़े! लोगों के भागने की, चिल्लाने की, शिश* * के रोने की, औरतों की, तलवार टकराने की आवाजें आ रही थीं! लगता था, अँधेरे में कोई संग्राम लड़ा जा रहा है। घोड़े हिनहिना रहे थे, मरने-मारने की आवाजें बहुत तेज आने लगी थीं। हर तरफ! हर दिशा में! हमारे चारों तरफ! हमारे शरीर में फुरफुरी सी दौड़ गयी! हम खड़े हो गए! हम जैसे किसी युद्ध के बीच खड़े थे! भीषण नरसंहार ज़ारी था, घोड़ों के खुरों की आवाज़ हमारे पास से गुजर जाती थी! 

और फिर एक ही पल में सब शांत हो गया। सब शांत! फिर से रात का सन्नाटा पसर गया! हमें लगा कि हमको जैसे समय ने उसी समय में ला खड़ा किया हो। और अब वापिस उतार दिया हो। हम जैसे ही बैठने लगे, सामने कुछ नज़र आया! कोई खड़ा था, लेकिन ये कौन था? हम उठे, और चले उसकी तरफ, पहचाना, वो मदना था, दुखी, आँखें नीचे किये हए, लाठी छोड़ दी थी उसने! और बैठा गया था वहीं! "मदना?" मैंने कहा, उसने ऊपर देखा मुझे, "मैं जान गया हँ सबकुछ" मैंने कहा, उसने सर हिलाया, 

और आँखें नीचे कर लीं, "अब मैं पुनः प्रवेश करूँगा और सत्य जान जाऊँगा, शेष जो बचा है" मैंने कहा, "अब कोई आवश्यकता नहीं प्रवेश की" वो धीरे से बोला, मैं चौंका! "क्यों मदना?" मैंने पूछा, 

"अब, मैं स्वयं बताऊंगा तुम्हे" वो बोला, इसे से अधिक मैं क्या चाहता? मदना, स्वयं बताये तो हम भाग्यशाली ही हुए! वो उसी कालखण्ड में था। बस, अभी भी यात्रा किया करता था उस समय से, इस समय तक! "मेरी गलती नहीं थी, मेरा कोई लेना-देना नहीं था, मैं नहीं चाहता था कि ऐसा हो, लेकिन नहीं रोक पाया मैं, जब आया, तो बहुत देर हो चुकी थी, मैंने आखिरी छोर ही पकड़ा था, मेरी कोई गलती नहीं थी...."वो बोला, रो कर, सीने में बहुत दुःख था उसके, दुःख! उस नरसंहार का, और एक प्रायश्चित! लेकिन वो प्रायश्चित था क्या? ये तो मदना ही बता


   
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श्रीशः उपदंडक
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सकता था! "क्या हुआ था मदना? उसके बाद?" मैंने पूछा, उसने पीछे देखा, जहाँ वो कुआँ था, वहीं देखा, फिर मुझे देखा, "कंडु अगले दिन आया था, संग कद्दा को लेकर, मुझे जो खबर मिली मेरे खबरियों से, वो ये कि उनके पास अब कोई चार सौ लोग थे, कुछ बाबा लहटा के भी थे, उन्होंने निर्णय ले लिया था, निर्णय लेने की रात्रि को देवी-पूजन हुआ, बलि-कर्म हए, और अगले दिन, मध्यान्ह में वो कुकृत्य करने माँ मंसूबा तैयार हो गया......" वो बोला, "फिर?" मैंने उत्सुकता से पूछा, "जब मैं उस कमरे से बाहर आया, मुझे मेरी माँ की मदद से छुड़वाया गया था, उस दिन डेरे में मात्र चार पुरुष थे, तीन वृद्ध और एक मैं, बाकी सारे रवाना हो चुके थे, मैं घबरा गया था, माँ को दिए वचन को तोडा मैंने, और कोई तीन घटी। २४ मिनट गुणा ३) पश्चात, वहां से अपना घोडा ले, अपने हथियार ले, रवाना हो गया, मैं सीधा वहीं जाना चाहता था, अतः किसी के रोके नहीं रुका" वो बोला, और चुप हो गया, कुछ पल बीते, मेरे दिल की धड़कन ने तो संग्राम छेड़ दिया था मेरे विरुद्ध! "फिर मदना?" मैंने पूछा, वो चुप रहा, सिसकियाँ सी ले रहा था, 

अपने घुटने पर हाथ लगाता था बार बार, "फिर?" मैंने पूछा, अब मै बैठ गया था, शर्मा जी भी बैठ गए थे, वो चुप रहा, 

और अचानक ही, रो पड़ा बहुत तेज! बहुत तेज! जैसे सारा का सारा दुःख उमड़ पड़ा हो आज सीने का! फफक फफक के रो रहा था मदना! 

"मदना?" मैंने कहा, उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा, एकदम ठंडा हाथ, बर्फ सा ठंडा! "मैं सीधा यहां पहुंचा, यहाँ लाशों के अम्बार लगे थे, मैं उनको लांघता आगे बढ़ रहा था, संग्राम तो समाप्त हो चुका था, लेकिन मुझे तलाश थी, तलाश बाबा वैज की, और उस दिज्जा की,..............तभी मुझे आवाज़ आई, किसी आक्रान्त स्त्री की, मैं आगे बढ़ा, ये दो स्त्रियां थीं, मैं भागा आगे, चिल्लाया, दिज्जा! दिज्जा! मैं, मैं रक्षा करूँगा तेरी! रुक जा! रुक 

जा! वहां खड़े हुए, उन दो लोगों ने घेर रखा था उसको, और.......इस से पहले मैं कुछ कर पाता, दिज्जा.....ने कुँए में छलांग लगा दी, उस......उस कुँए में...." वो रोते हुए बोला, "बहुत बुरा हुआ मदना ये सब.." मैंने कहा, "सब रुक सकता था....सब...........लेकिन नहीं माने बाबा लहटा' वो बोला, "हाँ, रुक सकता था...सच में रुक सकता था" मैंने कहा, "मैंने उन दोनों आदमियों को काट दिया, और कँए में आवाज़ दी, कोई आवाज़ नहीं आई, वो दूसरी लड़की रेवनि, उसने अपने आपको खंजर से मार लिया था.......मैं पागल हो गया था, जो लोग छिप कर अपनी जान बचाने में सफल हो गए थे, वे अब भाग रहे थे वहां से, मैं यही चिल्लाता जा रहा था रुको! रुको! मैं रक्षा करूँगा तुम्हारी!" वो बोला, "ओह....." मैंने कहा, इसीलिए ये रक्षक है उनका! 

आज भी। आज भी रक्षा कर रहा है उनकी "मेरी गलती नहीं थी" वो बोला धीरे से, 

भरे हए गले से, मैं चुपचाप उस दृश्य की कल्पना कर रहा था कि क्या हआ होगा! "मदना? वो इंसानी कलेजे?" मैंने पूछा, "पूजन के लिए, बाबा लहटा ने मंगवाए थे उन आदमियों से" वो बोला, "जब तुम यहाँ आये थे, तो बाबा लहटा के आदमी जा चुके थे?" मैंने पूछा, "हाँ, जा चुके थे, जो बचे थे, लूटपाट करने वाले, दो चार, वो मेरे आने से भागा निकले थे, दो 


   
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श्रीशः उपदंडक
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को मैंने काट ही दिया था" वो बोला, मैं फिर से शांत हुआ! मदना के कंधे पर हाथ रखा, धूल का गुबार उठ पड़ा! "मदना?" मैंने कहा, उसने मुझे देखा, 

"एक सवाल" मैंने कहा, उसने अपनी आँखों से उत्तर दिया कि पूछो! "बाबा वैज? उनका क्या हुआ?" मैंने पूछा, वो चुप तो था, अब गुमसुम हो गया था, "बताओ मदना?" मैंने पूछा, "बाबा वैज, अपने साथियों के साथ, डेरे वालों को बचाने के लिए, अपने प्राण दे बैठे.........मैंने उनकी मृत देह देखि थी, उनको काट दिया गया था, बाबा का सर, उनके ऊपर पड़ा था, वहाँ कोई नहीं था, कोई भी, मेरे सामने उस समय यदि बाबा लहटा भी होते, तो मैं उनका भी क़त्ल कर देता, मुझे ऐसा क्रोध था उस समय...." वो बोला, दांत भींचते हए, "और वो केषक?" मैंने पूछा, "केषक.....केषक एक झोंपड़े में, मृत पड़ा था, अपनी माँ के साथ दोनों को ही काट दिया गया 

था साथ साथ, मैंने ही उस केषक का, वो हाथ काटा था, ताकि..........." बोलते बोलते वो रुका, "ताकि?" मैंने पूछा, उसने देखा मुझे गौर से........काफी देर तक...... "मैं समझ सकता हूँ" मैंने कहा, मैं समझ गया था, मित्रगण, बस इतना ही बताऊंगा कि, केषक फिर से जन्म ले! उस हाथ की मदद से, इसमें कोई प्रश्न नहीं पूछना आप! मैं उत्तर नहीं दूंगा! अब वो खड़ा हुआ, हम भी खड़े हो गए उसके संग, हम उस मदना के कंधे तक ही पहुंच रहे थे, अब मुझे सारी हक़ीक़त पता चल गयी थी, "वो हाथ किसने रखा था उस पात्र में?" मैंने पूछा, "नेतपाल ने" वो बोला, "क्या नेतपाल, उस नरसंहार में नहीं आया था?" मैंने पूछा, "नहीं" वो बोला अजीब सी बात थी ये! "वो मेरी छोटी माँ का लड़का है, मेरा भाई" वो बोला, "अच्छा ......" मैंने कहा, "तो उसने वो पात्र यहाँ गाड़ा होगा!" मैंने कहा, "हाँ" वो बोला, 

"लेकिन ............मदना?" मैंने पूछा, "यही कि मैं यहां क्यों?" वो बोला, मेरे चेहरे का रंग बदल गया...........हां! यही! यही! वो चुप हो गया था वो बोलकर, मैं भी चुप था और शर्मा जी भी चुप, बस वक़्त ही था जो चल रहा था, नहीं तो सभी स्थिर थे वहां! हमारी सोच, कल्पना, विवेक, सब स्थिर पड़ चुके थे! 

और वो मदना, आकाश में देखता हुआ, शायद वो पल तोड़ था जब वो उस समय में था, उसने गर्दन नीचे की, उस ज़मीन को देखा, और फिर उस कुएं को, मदना, इस ज़मीन के कण कण से जुड़ा हुआ था। उसने अपने पाँव के अंगूठे से उस ज़मीन को खुरचा, और फिर गर्दन को ऊपर उठाया और मुझे देखा! अब हल्की सी मुस्कुराहट उसके होंठों पर रेंगी! पहली बार! पहली बार मैंने उस मदना को मुस्कुराते हुए देखा था! । "क्या मेरे पास अब खोने के लिए कुछ था?" उसने मुझसे प्रश्न किया, मैं हकबका गया प्रश्न सुनकर! "नहीं मदना!" मैंने कहा, 

वो थोड़ा सा आगे गया, और फिर लौटा, "मैं उसी समय, गुस्से में वापिस चला, वापिस, अपने पिता लहटा के पास, अब मेरी आँखों में खून उतर आया था, मैं भूल गया कि वो मेरा बाप है, सोचा, इतने मरे तो एक और सही! मैं दौड़ लिया वहाँ से, बहुत क्रोध था मुझे, मेरा घोडा बहुत तेजी से भागे चला जा रहा था। जब में आधे में आया, तो घोड़े की लगाम कस ली, घोडा रुक गया। मैंने पीछे देखा......." वो बोलते बोलते रुका, फिर से सुबक उठा! फिर से गला रुंध गया


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसका, "फिर मदना?" मैंने कहा, एक लम्बी सी आह भरी उसने, जैसे मन को, दिल को समझाया हो उसने! "दिज्जा.........दिज्जा!"वो बोला, 

और सर पकड़ के रो पड़ा! मैं समझ गया कि लगाम क्यों कीं! क्यों रोका घोड़े को उसने! क्यों पीछे देखा! मैं जान गया था, उसके सर पकड़ने से मैं जान गया था! दिज्जा! वो दूर जा रहा था दिज्जा से! दूर! अब दिज्ज की रूह तो न थी उसके जिस्म में, लेकिन दिज्जा का जिस्म तो था!! "फिर मदना?" मैंने पूछा, "मेरा क्रोध, सब धुआं हो गया, मुझे दिज्जा का चेहरा याद आ गया! मैं रुक गया वहीं! सीना फट पड़ा मेरा! दिज्जा...." वो बोला, रोते रोते! 

सच कहता हूँ, आँखें मेरी भी नम हो उठी थीं, शर्मा जी की भी! मैं उस मदना का दर्द समझ सकता था, बहत दर्द उठाया था उसने! "मदना? एक सवाल पू?" मैंने कहा, "हाँ?" वो बोला हल्के से, "दिज्जा ने मना क्यों किया तुमसे ब्याह के लिए?" मैंने पूछा, उसका रोना, मुस्कुराहट में बदल गया! जैसे, ये सवाल आज किसी ने कितने बरस बाद पूछा हो! "बताता हूँ" वो बोला, मैं इंतज़ार करने लगा, "वो नहीं चाहती थी कि मैं वो लूट का माल, बंजारों का माल उसके पिता को बेचं! मैं उसको कहता था कि बाबा लहटा का आदेश होता है, करना विवशता है, लेकिन वो नहीं मानती थी, मुझसे बात करना तक छोड़ दिया था, और जब चंदन, उसके पिता से मेरे पिता ने बात की ब्याह की, तो उसने मना कर दिया.....मैं इसलिए कुछ नहीं बोलता था, कि एक दिन मैं ये काम हमेशा के लिए छोड़ दूंगा.............लेकिन........" वो ये कहके फिर से गंभीर हो गया! मैंने अब कुछ नहीं बोला! मैं अब समझ गया था! "हाँ, तो तुम रुक गए थे रास्ते में" मैंने कहा, "हाँ, मैं पागल हए बैठा था, दिज्जा की यादें मुझे काटे जा रही थीं, मैं नहीं रह सकता था उसके बिना, आखिर में मैंने, एक पेड़ में वाह, घोड़े से बंधी रस्सी ली, फंदा बनाया, घोड़े पर खड़ा हुआ, फंदा गले में डाला..........और......" वो बोला, "बस! बस! बस मदना!!" मैंने कहा, मैंने बात पूरी नहीं होने दी उसकी, उसने आत्म हत्या कर ली थी, दिज्जा के पास जाने के लिए! 

कुछ पल शान्ति! मैं भी जैसे, उस पेड़ के पास जाकर, उस लटकती मदना की लाश को देख रहा था! 

और तब कुछ ध्यान आया मुझे! मैंने अपने गले में उसकी दी हई वो चैन उठायी, और उसको देखा, "ये....दिज्जा की ही है?" मैंने पूछा, 

वो मुस्कुराया! "नहीं! ये मैंने ली थी, दिज्जा को देने के लिए!" वो बोला,"और तुमने मुझे दी, कि ये मैं दिज्जा को दे, क्योंकि दिज्जा तुमसे बात नहीं करती, है न?" मैंने कहा, 

वो रो पड़ा! फफक फफक कर! अपना सर, अपने हाथों से पकड़ कर! कोहनियों से, अपना चेहरा ढक कर! मैंने उसकी एक कोहनी नीचे की, "लेकिन मदना, मुझे......दिज्जा कहीं नहीं मिली, कहाँ है दिज्जा?" मैंने कहा, उसने मुझे देखा, हल्की सी हंसी आई उसे! "वो, वो बताएँगे!" उसने एक तरफ इशारा किया! मैंने वहीं देखा, 

और मदना, लोप हो गया!! वहाँ बाबा वैज खड़े थे! और भी कई सारे लोग!! जो अब प्रेत थे! मैं दौड़कर वहाँ पहुंचा! बाबा वैज, बहुत दुखी थे, बहुत दुखी! मैं पहुंचा, तो प्रणाम किया! वे मुस्कुराये, एक झूठी सी हंसी! "और इस तरह हम काल के दास बने!" वे बोले, "काल के दास?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने कहा, "हाँ, काल के दास!" वे बोले, "किसने बनाया?" मैंने पूछा, क्योंकि उनके भाव से, मैं जान गया था कि आखिरी खेल और 

खेला गया था बाबा लहटा द्वारा! बाबा लहटा ने तो, सारी हदें पार कर दी थीं! "जान नहीं सके?" वे बोले, "जान गया बाबा! सब जान गया!!" मैंने कहा, "ये नहीं पूछोगे कि दिज्जा कहाँ है?" वे बोले, मेरे तो कान लाल हो गए! ये मैं कैसे भूल गया!! "हाँ बाबा, कहाँ है वो दिज्जा?" मैंने पूछा, "यहीं है!" वे बोले, यहीं? लेकिन? वहाँ तो नहीं थी? वे मुस्कुराये, और उसी क्षण, दिज्जा प्रकट हुई। मेरी तो सांस अटकते अटकते बची! वही दिज्जा! वही रूपसी दिज्जा! मेरे सामने! "सुरक्षित है" वे बोले, "लेकिन बाबा......वो मदना?" मैंने एक प्रश्न किया! 

प्रश्न ये, कि मदना भी यहीं है, और दिज्जा भी, तो ये आपस में मिले कैसे नहीं? कैसे नहीं मिलते? क्यों वो चैन मुझे दी गयी? ये था प्रश्न! वे आगे बढ़े, मेरे कंधे पर हाथ रखा! मुस्कुराये! "हम बंधे हैं, वो नहीं, वो स्वेच्छा से ही यहां है!" वे बोले, 

ओह!! बाबा लहटा! बाँध गया इन सभी को!! हमेशा के लिए! नहीं बाँधा तो उस मदना को! वो तो पत्र था! मदना बाहरी है। बाबा वैज के आवरण में नहीं आ सकता! ओह! समझ गया! वाह मदना तेरा प्रेम!! वाह! मैंने तभी वो चैन उतारी गले से! और बाबा को दी! "बाबा, ये मदना ने मुझे दी थी, दिज्जा को देने के लिए!" मैंने कहा, जैसे ही मैंने कहा, दिज्जा के रोने के स्वर गूंज उठे!! "बाबा! अब आप काल के दास नहीं रहे! मुझे आना था! सो आया! दासता का अंत हुआ! मैं करूँगा आप सभी को मुक्त!" मैंने कहा, 

और जैसे ही कहा, बाबा ने मुझे गले से लगा लिया! "मैं आऊंगा! शीघ्र ही आऊंगा!" मैंने कहा, और चरण-स्पर्श करता, वे सभी लोप हो गए!! मैं पीछे भागा! शर्मा जी के पास! 

और तभी मदना प्रकट हुआ! प्रकट होते ही, मुझे गले से लगा लिया!! "मदना! दिज्जा अवश्य ही मिलेगी तुम्हे! अवश्य ही!!" मैंने कहा, वो खुश था। मैंने वो चैन दे दी थी बाबा को! वो जान गया था! "मैं शीघ्र आऊंगा मदना" मैंने कहा, "रुको, उस तांत्रिक को मैंने इसलिए मारा कि मैं नहीं चाहता था कि यहाँ का कोई भी धन, जेवर, उसके हाथ लगे, ये सब केषक की अमानत है और वो बीजक, अभी तीन और हैं,ये भरमाने के लिए हैं!" वो बोला, "समझ गया मैं मदना! सब समझ गया!" मैंने कहा, 

और उस समय, वो लोप हुआ!! मित्रगण! 

अब सारा खुलासा हो चुका था! कहानी का अंत होना था, हो गया! मैं एक निश्चित तिथि पर वहाँ गया, और सबसे पहले वो 'श्राप काटा जिसमे वे सभी कैद थे! बाबा बहुत प्रसन्न हुए थे। उन्होंने कहा, कि मुझे बदल में क्या चाहिए, तो मैंने बस आशीर्वाद ही माँगा! और कुछ नहीं! वे सभी उस रात्रि मुक्त हो गए थे! 

और फिर मदना!! मदना भी आया उसी रात! बहुत प्रसन्न था आगे बढ़ने के लिए! अपनी दिज्जा से मिलने के लिए! और दिज्जा, अब वो उस से बात करेगी! वो प्रतीक्षा में है उसकी! मदना को भी मुक्त कर दिया! जाने से पहले, मुझे कुछ दे गया था! वो आज भी है मेरे पास! बता नहीं सकता कि 


   
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श्रीशः उपदंडक
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क्या ! मित्रगण! बाबा लहटा अपनी पूरी आयु नहीं जी सके थे, एक वर्ष के पश्चात, उनकी भी बीमार रहने के कारण मृत्यु हो गयी थी! शायद, प्रायश्चित करने के लिए एक यही मार्ग था, या उस से अधिक नहीं था उनके पास अदा करने के लिए! अब वो रमिया बाबा! बाबा से बातें हुईं, वे मान गए थे। उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, उनका पुत्र प्रेम करता था पूनम से, तो मान गए! उनका विवाह, कोई दो महीने बाद हो गया था। हाँ, मैं नहीं जा सका 

था! मैं बाद में गया था! मित्रगण! इस संसार में, अनगिनत रहस्य दबे पड़े हैं! अनगिनत! न जाने कितने बाबा बैज! कितने 

मदना! कितनी दिज्जा! और कितने ही लहटा! बस, कभी कभी इतिहास और समय, मिलकर उस छिपे हए अंश को निकाल दिया करते हैं, और कभी-कभार, ये अंश अक्सर टकरा जाया करता है हमसे! मैं ऐसे ही अंशों की खोज में हूँ! कुछ मिले, कुछ मिलने बाकी हैं!

---------------------साधुवाद! -----------------------


   
rajeshaditya reacted
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