वर्ष २०१३ मानेसर की...
 
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वर्ष २०१३ मानेसर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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रही होगी, गले पर भस्म मली थी शायद, और माथे पर एक टीका था काले रंग का! नेतपाल और मदना, चले बाबा की तरफ,और गिर पड़े पांवों 

"दिज्जा का पता चला?" पूछा उस बाबा ने, "नहीं बाबा" बोला मदना, अब गुस्सा सा किया बाबा ने! 

और चल पड़े वापिस! "बाबा लहटा?? बाबा लहटा?" बोला नेतपाल, लेकिन बाबा ने सुना नहीं! और एक झोपड़ी ने प्रवेश कर गए! बाबा लहटा!! ओह! तो ये हैं बाबा लहटा! मैं उनके डेरे पर हूँ! मदना यहीं रहता है। और ये नेतपाल तो मुझे कोई खबरी सा लगा। ये लोग भी संदिग्ध ही लगे! जैसे लूट का माल खरीदते हों, और उसके औने-पौने दाम देते हो! मैंने देख लिया था बाबा लहटा को! और तभी अँधेरा छाया! और मैं फिर से वापिस हुआ अपने संसार में खांसता हुआ मैं उठा, दम घुटते घुटते बचा था, ऐसा लगा! मैं उठ बैठा! शर्मा जी ने फिर से हाथ फेरा मेरी कमर पर! 

और बोतल दी पानी की खोलकर, मैं दो घुट पानी पिया और तब सामान्य हआ! 

"कुछ देखा?" वे बोले, "हाँ!" मैंने कहा, "कौन?" वे बोले, "बाबा लहटा! मदना! नेतपाल और बाबा लहटा का डेरा!" मैंने एक ही सांस में कह डाला! "डेरा? तो क्या ये डेरा बाबा लहटा का है?" उन्होंने पूछा, "नहीं, ये डेरा नहीं" मैंने कहा, "तो फिर?" वे बोले, "बाबा लहटा का डेरा राजस्थान में है, शायद अलवर की तरफ" मैंने कहा, "अच्छा !!" वे बोले, 

और अब मैंने उन्हें फिर से सारी कहानी बतायी! "अच्छा! लूट का माल!" वे बोले, "हाँ, यही लगता है" मैंने कहा, "तो यहां क्या लूट हई थी?" वे बोले, "नहीं, ऐसा तो नहीं लगता" मैंने कहा, "तो बाबा लहटा का पुत्र मदना, यहां कैसे?" वे बोले, सवाल बहुत बड़ा था! और उत्तर नदारद! "ये तो मुझे भी नहीं पता" मैंने कहा, "मैं अजंधा-प्रवेश में कड़ियाँ देख रहा हूँ" मैंने कहा, "हाँ, अब कुछ पता चलने लगा है" वे बोले, "क्या मैंने कुछ कहा था?" मैंने पूछा, "नहीं, कुछ नहीं" वे बोले, "कहानी अभी भी दबी हुई है" मैंने कहा, "हाँ, अभी भी दबी है" वे बोले, "लेकिन पता तो करना ही है" मैंने कहा, "मैंने कुछ कहा था क्या?" मैंने पूछा, "हाँ, एक नाम है ये शायद, दिज्जा " वे बोले, "हाँ, बाबा लहटा ने पूछा था दिज्जा के बारे में" मैंने कहा, फिर, और पानी माँगा, पानी दिया उन्होंने, मैंने पानी पिया, फिर से लेट गया! ऊपर तारे चमक रहे थे। उसी वक़्त के गवाह थे ये सब के सब! वो, वो चाँद, सब देख चुके थे! बस हमें देखना था अब! 

मैंने आँखें बंद की, ध्यान लगाया, मन्त्र पढ़े, 

और मेरा दम घुटा! मेरे शरीर में जुम्बिश हुई! और फिर मैं मूर्छित हुआ! और इस बार मैं एक अलग ही स्थान पर पहुंचा! हरा-भरा सा स्थान था वो! हर तरफ पेड़ लगे थे! आसपास खेती भी हो रही थी! भूमि उपजाऊ है, पता चलता था! मैं आगे चला, तो सामने मुझे अरसी दिखी, एक और महिला संग, सर पर घड़ा उठाया हुआ था , ने, ग्रामीण वेशभूषा था उनकी! मैं उनके संग ही चला! वे बतियाते हए अपना रास्ता नाप रही थीं। वे चलते चलते, एक बड़े से डेरे में प्रवेश कर गयीं! ये डेरा बहुत बड़ा था! हर तरफ बगियाही बगिया थीं! फूल खिले थे बेहतरीन! सुगंध फैली थी! वहाँ और भी पुरुष और महिलायें थीं, सभी ने एक न एक वस्त्र पीले रंग का ही पहना


   
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श्रीशः उपदंडक
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था! शायद पहचान हो ये वहाँ की! अरसी एक घर में, झोंपड़ी में घुस गयी, दूसरी औरत आगे चली गयी! और मैं वहाँ अकेला ही खड़ा रहा! अचानक ही कुछ लोग आये वहां, ये किसी और डेरे से थे, या किसी अन्य गाँव के, वे दौड़े से जा रहे थे, कुल अठारह या बीस आदमी रहे होंगे। उनमे से किसी ने भी पीला वस्त्र नहीं पहना था! मैं वहीं खड़ा था, अब उनके पीछे हुआ, एक जगह कुछ औरतें थीं वे निकल लीं वहाँ से, और उस डेरे के लोग इकट्ठा होने लगे। वे जो आये थे, इकट्ठा ही खड़े थे। और उधर से जिसने कमान संभाली थी, वो जम्भाल था! वही पहलवान! जिसने पत्थर फेंक के मारा था! कोई झगड़ा सा हआ था! लेकिन मारपीट नहीं हई थी, आखिर में जब उस जम्भाल के बहुत सारे पहलवान इकट्ठा हो गए तो वे बीस आदमी निकल लिए वहाँ से! जम्भाल से कुछ बातें हुईं थीं उनकी, एक व्यक्ति था उनमे, उसके पास कटार पड़ी थी कमर में, वही बातें कर रहा 

था! और फिर वे चले गए, न नमस्ते और न ही हाथ जोड़े, कोई विषय था शायद लड़ाई झगड़े 

वे लोग चले गए थे वहाँ से! 

और अब डेरे के कई लोग आपस में ही बतियाने लगे थे! जम्भाल उनका सरदार सा लगा मुझे! औरतें फिर से आने लगी वहां, और धीरे धीरे मामला शांत हो गया! अब डेरे के लोग, अपने नित्य कार्यों पर लग गए थे! मैं वहीं खड़ा था, सब देख रहा था, उनका ही हिस्सा था मैं उस समय तो! मैं तो समय के यान पर बैठ, पीछे आ चुका था! कोई आधे घंटे के बाद, कोई दस लोग आये वहाँ, उनमे से एक बाबा वैज थे! वे सब लोग अपने अपने घोड़ों से आये थे। बाबा वैज एक जगह बैठे, तो सभी ने घेर लिया उन्हें, 

और तब जम्भाल ने सारी बात बता दी उनको, बाबा वैज जैसे गुस्सा हो गए! और तभी के तभी वहाँ से अपने साथियों के साथ रवाना हो लिए!! कहना के लिए? ये नहीं पता!! और तभी अँधेरा सा छाया! और मैं उठ बैठा! चेतना जाएगी, तो मेरे हाथ-पाँव सुन्न पड़े थे। शर्मा जी ने मदद की, और जब खून का दौरा ठीक हुआ, तो हाथ-पाँव भी ठीक हो गए! लेकिन साँसें बहत तेज थीं मेरी! पानी माँगा, और पानी पिया मैंने, दो घंट, हलक सुख चुका था बुरी तरह से! अब सामान्य हुआ! शर्मा जी मुझे ही देख रहे थे, मेरे सर से मिट्टी हटाई उन्होंने! "कुछ दिखा?" वे बोले, "हाँ!" मैंने कहा, "कौन?" वे बोले, "जम्भाल और बाबा वैज!" मैंने कहा, "अच्छा !!" वे बोले, "हाँ, लेकिन वहाँ कोई झगड़ा हुआ था" मैंने कहा, "कैसा झगड़ा?" वे बोले, "वो बाबा वैज का ही डेरा था, वहां बाबा वैज नहीं थे, हाँ कुछ लोग आये थे, धमकने या कुछ पूछने, ये नहीं पता, तब बाबा वैज को बताया गया, और वे रवाना हो लिए थे" मैंने कहा, "कहाँ के लिए?" वे बोले, "पता नहीं" मैंने कहा, "ओह, तो झगड़ा हुआ था" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "विरोधी कौन हैं ये नहीं पता?" वे बोले, "नहीं, नहीं जान सका" मैंने कहा, "पता नहीं कैसा झगड़ा हुआ था" वे बोले, "नहीं पता" मैंने कहा, फिर कुछ देर बातचीत! 

और फिर कुछ देर बाद, मैं लेट गया! फिर से ध्यान लगाया, और फिर मेरा दम घुटा! मैं मूर्छित हुआ! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और अब मैं ऐसी जगह पहुंचा था, जहां घर ही घर बने थे! लोगबाग इकडे हुए खड़े थे, कोई लाठी-डंडा तो नहीं था, न ही कोई शस्त्र! 

और तभी मुझे बाबा वैज दिखे!! उन लोगों के बीच! 

और जिनसे बात हो रही थी, वे कौन है, नहीं पहचान सका था मैं! और तभी मुझे एक और जाना-पहचाना चेहरा दिखा! ये मदना था!! अब आया समझ! मदना और वैज बाबा! ये थे विरोधी एक दूसरे के! लेकिन कारण क्या था? किस वजह से ये नौबत आई थी? ऐसी क्या बात हई थी? 

और ये जगह, है कौन सी? बहुत सारे प्रश्न मन में कुलबुला गए!! और मैं, वहीं उन सभी को देखता रहा!! और फिर................... एक बात तो स्पष्ट थी अब, कि बाबा दवैज और उस मदना के पिता बाबा लहटा का कोई या तो लेन-देन था आपस में, या अन्य कोई और बात थी, लेन-देन इसलिए कि बाबा लहटा का कार्य मुझे संदिग्ध लगा था, और ये भी कि मुझे बाबा दवैज ऐसे नहीं लगते थे, वे सच्चे साधक ही लगते थे, जो ऐसे कार्यों से दूर ही रहा करते हैं! बात कुछ और ही थी, लेकिन मुझे पता नहीं था इसका, और अब यही जानने की उत्कंठा मेरे मन में उछल रही थी! लेकिन मैं ये जानें कैसे? किस से जान सकता हूँ? और तभी बाबा बैज खड़े हुए, और अपने उन साथियों के साथ निकल लिए वहां से, बाबा वैज बहुत गुस्से में थे। जिस तरह से निकले थे, उस से पता चलता था कि समस्या हल नहीं हई है,कोई समझौता नहीं हो पाया है और बात अभी तक वहीं की वहीं हैं। वे लोग जब चले गए, तो वहाँ अब मदना भी निकला अपने साथियों के साथ, और मैं लौटा फिर वापिस अपने संसार में, ये कड़ी देखनी थी, देख ली थी, एक कदम आगे बढ़ गया था मैं! मैं खांसता हआ उठा, और शर्मा जी से पानी माँगा, पानी पिया, और अब तक जो हुआ था, वो बता दिया उन्हें, नाम मैंने कोई नहीं लिया था, इसके बारे में पूछा भी था मैंने, अब तक ये तो जाना कि बाबा लहटा और बाबा वैज, इनके बीच किसी बात को लेकर मनमुटाव था, 

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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन अब एक बात और, बाबा त्रिभाल कौन हैं? और हैं कहाँ? इतनी बड़ी घटना हो रही है, घटनाक्रम लगातार बदले जा रहा है,तो बाबा त्रिभाल कहाँ हैं? जम्भाल ने यही कहा था कि त्रिभाल बाबा यहीं हैं,मदना ने भी यही कहा था कि बाबा त्रिभाल यहीं हैं,यदि यहीं हैं, तो 

कहाँ है? क्या उनको भी जगाया जाए? क्योंकि अभी तक उनका कोई भी जिक्र नहीं आया था, बाबा वैज ने तो कुछ बताया ही नहीं था, अब यही जानना था मुझे, बाबा त्रिभाल के विषय में पता चलता तो सम्भव है ये गुत्थी और सुलझने के करीब आ जाती! मैं फिर से लेट गया, मंत्र पढ़े, सांस सी घुटी और मैं अचेतावस्था में पहुँच गया, फिर जैसे मेरे नेत्र खुले, मैं एक ऐसे स्थान पर पहुंचा, जो उस डेरे में ही था, लेकिन बहुत दूर था, दूर एकांत में, उस समय वहाँ अमरक और शीशम के पेड़ लगे थे, बड़े बड़े पेड़ थे वे, वहीं थोड़ा दूर एक झोंपड़ा सा बना था, और वहाँ कई चबूतरे बने थे, वहाँ ठंडक थी,समय से पता चलता था कि दिन का कोई आठ या नौ बजे के आसपास का समय रहा होगा, कुछ लोग चले आ रहे थे वहां, मैं आगे थे काफी, एकतरफ हट गया, उन लोगों को वहाँ तक आने में कुछ समय लगा, वे लोग कुछ सामान ल रहे थे अपने सरौं पर इकट्ठा करके, और उनके पीछे हर उम के लोग पीछे पीछे आ रहे थे, और वे सामान वाले लोग वहाँ से निकल गए, वे कोई बीस रहे होंगे, अब मेरी सप्त-आँख भी आगे बढ़ी, और जब आँख रुकी तो सामने एक बड़ा सा चबूतरा बना था, आज सजा था वो चबूतरा, लोग पूजा-पाठ कारण एलगे थे वहाँ, और तभी में नज़र पड़ी कुछ लोग आ रहे थे वहाँ, और उन लोगों में, बाबा बैज भी थे, स्पष्ट था कि ये डेरा उन्ही का था! लेकिन ये चबूतरा? और तभी जयनाद सा गूजा! बाबा त्रिभाल की जय जयकार हो उठी! अब समझ गया, बाबा त्रिभाल की ही समाधि है ये! मूर्त रूप से वे अपना शरीर छोड़ चुके हैं। और बाबा वैज ही उनके पुत्र हैं! क्योंकि अब समस्त संचालन बाबा वैज के हाथों में ही था! और फिर मैंने देखा, एक किशोर, जिसने फूल अर्पित किये थे उस चबूतरे पर और पाँव छुए थे, 

अचानक से मुझे ध्यान आया!! केषक!! बाबा बैज का पुत्र! हाँ! यही है वो केषक! अचानक से ही मेरी सुप्त-आँख बंद हुई और मैं वापिस हुआ! इस बार भी उठा! खांसा और पानी पिया, हलक सूख गया था, कांटे से चुभ रहे थे। "कुछ पता चला?" वो बोले, "हाँ! दिखा!" मैंने कहा, "कौन?" वे बोले, "बाबा त्रिभाल की समाधि, बाबा वैज और उनका पुत्र केषक! वहीं केषक जिसका वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वौ हाथ है, वही केषक!" मैंने कहा, "अच्छा !!" वे बोले, "तो बाबा समाधिलीन हो चुके थे, बाबा बैज के सामने ही?" वे बोले, 

"हाँ, हो चुके थे, और ये डेरा उन्ही का है" वे बोले, "तो संचालन अब बाबा वैज का था" वो बोले, "हाँ, वही थे" मैंने कहा, 

अब मैं उठ गया था, शरीर में थकावट भरी पड़ी थी! मुझे तो चक्कर से आने लगे थे, जैसे मेरी प्राण-वायु का हास हए जा रहा हो, मेरी पेट में भी दर्द होने लगा था, छाती में भी हल्का हल्का दर्द था, अभी तो बहुत रात बाकी थी, एक भी प्रेतात्मा उस समय वहाँ प्रकट नहीं हुई थी, सभी अपने अपने आवरण में ही थे! अब कुछ चरित्र जीवंत हो चुके थे, अब रह गया कोई, तो वो दिज्जा! ये दिज्जा कौन है? इस दिज्जा का क्या लेना-देना इन दोनों से ही, जैसा कि बाबा लहटा ने नेतपाल और मदना से पूछा था उस दिज्जा के बारे में, अब ये दिज्जा है कौन, कोई स्त्री या कोई पुरुष? अब दो प्रश्न सर उठाये खड़े थे, एक ये दिज्जा, और दूसरा वो कारण, जिसकी वजह से इनमे मनमुटाव हुआ था! "शर्मा जी?" मैंने कहा, "जी?" वे बोले, "ये दिज्जा ही मुझे वो कारण लगता है" मैंने कहा, "उनके बीच विरोध का?" वे बोले, "हाँ, यही है शायद" मैंने कहा, "सम्भव है" वे बोले, मैंने एक चूंट पानी और पिया, थोड़ा सा आराम किया, कोई आधा घंटा, थोड़ा आराम हुआ और उसके बाद मैं, फिर से लेट गया! मंत्र पढ़े, और दिज्जा के विषय में मैं जानने के लिए फिर से अजंधा-प्रवेश 

कर गया! मेरी सुप्त-आँख खुली, वो कोई त्यौहार का सा दिन लगा मुझे! जी लोग दीख रहे थे वहाँ, वे सभी बने-ठने से थे। क्या पुरुष और क्या स्त्रियां, और क्या अन्य! मैं शायद उसी स्थान पर था! बाबा वैज के स्थान पर ही! घरों में भी सजावट थी, झोपड़ों के प्रांगण को, दीवारों को ताजे गोबर और मिट्टी से लेपा गया था, चित्र बनाये गए थे सफ़ेद और पीले रंग से! घरों के बाहर दीये रखे थे, एक स्थान पर, कुछ लोग बैठे हुए थे, बतला रहे थे एक दूसरे से, और तभी मेरी नज़र कुछ आती हुईं स्त्रियों पर पड़ी, स्त्रियां सजी-धजी थीं! कुछ स्त्रियां विवाहित र्थी, सिन्दूर लगाया हुआ था उन्होंने, मांग-कड़ला पड़ा था उनमे, और कुछ अविवाहित थीं, वे आ रही थीं उधर से ही, वे मर्द लोग, उठ खड़े हए, और अपनी पीठ उनकी तरफ करके बैठ गए थे, वे स्त्रियां वहाँ से गुजरी तो एक खास स्त्री पर, यूँ कही एक लड़की पर, में निगाह 

पड़ी, वो उनमे से सबसे अलग दिख रही थी! गज़ब की संदर थी वो! गोरा-चिट्टारंग था उसका, सुगठित देह थी उसकी! केश अच्छी तरह से बांधे गए थे उसके! गहरा लाल रंग का 

घाघरा सा था उसका! ऊपर पीले रंग की कमीज सी थी, एक अलग ही तरह की कमीज़, उसमे सामने बटन नहीं थे, रस्सियाँ सी थीं, सुतलियाँ जैसी, हाथों में आभूषण थे उसके, गले में भी, उसके सिन्दूर नहीं था सर में, वो अविवाहित थी! मैं उसके उस मनमोहक सौंदर्य 

को देखता ही रह गया। उन स्त्रियों का कोई विशेष प्रयोजन था, क्या, ये नहीं पता था, मैं अजंधा-प्रवेश में था, और जो मुझे दीखता था उसका कोई न कोई प्रयोजन हुआ करता था। अतः, मैं उनके पीछे पीछे हुआ अब! वे एक जगह पहुंची, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और रुक गयीं, ये एक कुण्ड सा था, अधिक बड़ा नहीं था, छोटा सा, पास में ही कुछ पिडियां थीं, अब वे स्त्रियां वहां रुक गयीं, और पूजा-पाठ आरम्भ हुआ, साथ लायी हुई वस्तुएं, फूल इत्यादि पूजन पश्चात उसमे डाल दिए गए, उसके बाद, अपने हाथ और पाँव, उस कुण्ड के पानी से साफ़ किये, और वे सभी वापिस हईं! मैं फिर से संग चला उनके! तभी रास्ते में एक और महिला मिली, ये महिला वृद्ध थी, सभी ने उसके चरण छुए, और मुझे उस स्त्री के स्वर सुनाई दिए, पहली बार! पहली बार मैंने ऐसे स्पष्ट स्वर सुने! दिज्जा! उस स्त्री ने नाम लिया उसी स्त्री का चेहरा थामे हए! मुझे झटका लगा! ये है दिज्जा! वो रूपसी! वो 

शुभांगिता, वो मोहिका दिज्जा!!! बस! अँधेरा छाया! मैं खांसते हुए उठा, फन्दा सा लग गया था गले में! ऐसी ज़बरदस्त खांसी उठी थी! शर्मा जी ने संभाला मुझे! और पानी दिया, मैंने एक घुट पानी पिया, दिल ज़ोर से धड़क रहा था! बहुत ज़ोर से! उसको सामान्य होने में, कोई पांच मिनट लग गए थे! सच कहूँ, मैं अभी तक उस रूपसी दिज्जा के सौंदर्य को निहार रहा था उस शून्य में! "कुछ दिखा?" वे बोले, "हाँ!!" मैंने ज़ोर से कहा, "क्या?"उन्होंने भी ज़ोर से पूछा, "दिज्जा!" मैंने कहा, "अच्छा!" वे बोले, "हाँ!!" मैंने कहा, "कौन है ये दिज्जा?" वे बोले, "एक अत्यंत ही रूपवान अविवाहित स्त्री!"मैंने कहा, 

"क्या? दिज्जा एक स्त्री है?" वे चौंक के बोले, "हाँशर्मा जी" मैंने कहा, "अब मामला उलझ गया है!" वे होंठ पर हाथ रखते हुए बोले, "हाँ, मुझे अनुमान है" मैंने कहा, "ये दिज्जा है कहाँ?" वे बोले, "बाबा वैज के स्थान पर" मैंने कहा, "ओह.." वे बोले, "हाँ, वहीं है" मैंने कहा, "तो बाबा लहटा को क्या काम उस से?" वे बोले, "यही तो है वो कारण" मैंने कहा, "निःसंदेह अब तो!" वे बोले, "हाँ, यही है वो कारण!" मैंने कहा, सच है!! यही बना होगा एक कारण उस नरसंहार का! लेकिन अभी भी गुत्थी उलझी हुई थी! वो दिज्जा, वर्तमान में नाम होगा वो, दीक्षा! बाबा लहटा ने उसके बारे में पूछा था! "एक बात और?" वे बोले, "क्या?" मैंने कहा, "अगर दिज्जा बाबा बैज के पास है,और वहीं आवास है उसका, तो ये बात बाबा लहटा को पता होगी, तो बाबा लहटा पूछेगे क्यों?" वे बोले, प्रश्न बहुत तीखा था! बहुत ही दमदार! "हाँ ये भी बात है" मैंने कहा, "कारण वही है, लेकिन अभी भी बात अधूरी है" वे बोले, "लगता तो यही है" मैंने कहा, लेकिन मित्रगण! मुझसे तो उस दिज्जा का चेहरा भूला ही नहीं जा रहा था। क्या सौंदर्य था उसका!! जैसे, रति ने स्वयं ही अपना सबसे दीर्घ अंश उसको प्रदान किया हो!! "मैंने कोई नाम लिया?" मैंने पूछा, "नहीं" वे बोले, मैं चुप हुआ! लेकिन फिर से दिज्जा के सौंदर्य में अटक गया!! 

अब ये कि, वो दिज्जा कारण कैसे बनी होगी? क्या उस रूप? मादकता? या अन्य कोई कारण? ये अब जानना बेहद ज़रूरी था! और इसके लिए मुझे फिर से अजंधा-प्रवेश करना था! इसीलिए, मैं पुनः, लेट गया!!! अब तक कहानी के सिरे मिल चुके थे, बस उन्हें गूंथना बाकी था, बाबा बैज के कारण ही मैं इस अज़ंधा-प्रवेश क्रिया में विचरण कर रहा था! मुझे हल तो मिलता था, लेकिन बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं जितनी उन लोगों की हुआ करती थी, हम आज भले ही आधुनिक हैं, यदि आधुनिक साधन हटा लिए जाएँ तो हम उन आदिवासियों के गुलाम बनने लायक भी नहीं जिन्होंने आग ढूंढी थी, श्रम कर के शिकार किया करते थे! दूर दूर तक दौड़ दौड़ कर, आज तो


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमारे पास जूते हैं, फिर भी आधा किलोमीटर दौड़ने पर ही जीभ बाहर निकल आती है। इसीलिए कहा कि मेरी बुद्धि इतनी कुशाग्र नहीं थी, कि मैं हल जोड़ता! हालांकि, सोच तो मैं सही रहा था, निर्णय भी सही ले रहा था, लेकिन तारतम्यता बिठा रहा था! अजंधा-प्रवेश मुझे एक सिरे तक ले आती थी, और उसके बाद मुझे ही आगे-पीछे बढ़ना पड़ता था, यहां मुझे अपने विवेक से काम लेना पड़ता था! मैं फिर से लेट गया था और फिर से मंत्र पड़े, और इस बार कुछ ठोस दिखे, कुछ सटीक पता चले, इसी के विषय में सोच, मंत्र पढ़ा, प्रवेश कर गया था! इस बार मैं एक नयी ही सी जगह आया, भू-दृश्य देखा, तो हरियाली इतनी नहीं थी, जितनी उस डेरे पर थी, उस अर्थात बाबा त्रिभाल के डेरे पर, ओह! अब समझा, मैं बाबा लहटा के डेरे पर था, यहाँ तो जो लोग थे, वो मुझे डेरे वाले नहीं, कोई डाकू या बंजारे से लगते थे, लम्ब तड़ग आदमी! ऐसी ही औरतें! इस डेरे में जो घर बने थे, वे भी अलग थे, पत्थरों का प्रयोग किया गया था, कच्ची मिट्टी का प्रयोग कहीं कहीं ही था! मैं एक जगह चला, यहां एक कुआँ था, कुछ लोग पानी निकाल रहे थे उसमे से, कुछ स्त्रियां भी थीं, कुछ बातचीत चल रही थी, लेकिन ठेठ भाषा थी, मैं नहीं, जान सका था उसका अर्थ, कि नाम नहीं समझ आ रहा था, कोई स्थान नहीं, कोई शब्द नहीं। अचानक ही, मुझे किसी के शब्द सुनाई दिए, 'खूसा', रहेस्सा आदि से शब्द थे! मैं पीछे मुड़ा, देखा तो ये मदना था, अपने चार साथियों के संग ही आ रहा था, उस दिन ठंडक थी, हवा तेज चल रही थी, उन्होंने खेस से ओढ़ रखे थे! मैं लपक के उनके साथ हुआ, वे एक जगह आ कर रुके, ये एक चबूतरा सा था, पीपल के पेड़ों से गिरते उनके बीज, जो कि अब मीठे हो चले थे, बंदर खा रहे थे, उस चबूतरे पर, कुछ फल भी पड़े थे, शायद बंदरों के लिए रखे गए हों, चींटी और चैंटे दौड़ रहे थे उस चबूतर पर, वे पाँचों वहीं आकर बैठे थे। 

उनमे बातचीत हुई, एक व्यक्ति ने, जिसका नाम बार बार मदना गोपा ले रहा था, उस चबूतरे पर, खड़िया मिट्टी से कुछ लकीरें खींची, और उन लकीरों पर कुछ बिंद काढ़े, ये कोई नक्शा आदि सा था, कोई रास्ता या कोई ऐसी योजना, जो भविष्य में स्थान लेने वाली थी। मुझे कुछ भी नहीं समझ आया, वो उनकी कोई स्थानीय भाषा रहीहोगी, स्वर तो गूंजते, लेकिन अर्थ समझ नहीं आता था, झुंझला जाता था मैं! फिर उनमे से तीन आदमी चले गए, 

और अब वहां मात्र वो मदना और वे और व्यक्ति रह गया, गोपा भी जा चुका था, इस आदमी का नाम नट्टी था, यही बोल रहा था मदना उसको! दोनों में कानाफूसी सी हुई, और फिर दोनों ही उठकर, अलग अलग हो लिए! मैं मदना के संग ही चला, मदना को रास्ते में और भी कई लोग मिलते थे जिनसे उसको प्रणाम सुनने को मिलता! प्रणाम ही रहा होगा वो, क्योंकि वे लोग हाथ जोड़ कर उस से मिला करते थे! मदना एक मंदिर में घुसा, उसी मंदिर में, जहां वो धनुष बना था, बाण के साथ, अंदर चला, कुछ औरतें बाहर आयौं, तो वो, एक तरफ बढ़ चला, ये एक पत्थर से बना कमरा था, उसके बाहर एक चटाई सी बिछी थी, साथ में एक बड़ी सी ओखली रखी थी, उसका मूसल कोई छह फ़ीट का रहा होगा! वो मदना, वहीं आ कर बैठ गया, और कोई थोड़ी देर बाद, दो वृद्ध स्त्रियां आयीं वहाँ, एक अंदर चली गयी कक्ष में और दूसरी चटाई की तरफ बढ़ी, मदना ने उठ कर उसके पाँव छुए! अब उनमे जो बातें हैं, मुझे मात्र एक दो शब्द


   
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श्रीशः उपदंडक
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सुनाई दिए, दरअसल समझ में आई, एक दिज्जा और दूसरा नाम था बाबा बैज का! औरत कुछ बोलती, और मदना उसकी हाँ में हाँ मिलाता! फिर कुछ ही देर में, बाबा लहटा आये वहां, उनके संग दो आदमी थे, एक नेतपाल और एक अनजान व्यक्ति, उस व्यक्ति के पास में एक खड्ग था, उस पर अभी भी रक्त लगा था, वे दोनों, मदना और वो औरत उठ गए, वो औरत वहाँ से उठकर, अंदर कक्ष में चली गयी, और मदना ने आगे बढ़कर, बाबा लहटा के पाँव छुए, वो खड्ग वाला व्यक्ति, चला गया वहां से, बाबा लहटा से बात करके! अब वे तीन रह गए! बाबा लहटा, मदना और वो नेतपाल! वे सभी बैठ गए अब वहीं! "कुछ पता चला?? बाबा लहटा ने गरजदार आवाज़ में पूछा, ये भाषा मुझे समझ आई! "हाँ' मदना ने कहा, "कहाँ है?" बाबा लहटा ने दाढ़ी पर हाथ मारते हुए पूछा, "वैज के यहां" बोला मदना, "किसी ने देखा?" बाबा ने पूछा, "हाँ' बोला मदना, "किसने?" पूछा बाबा ने, 

"रंधो की जोरू ने" बोला मदना, बाबा चुपहुए! कुछ सोचा-विचारा! "बात की तूने?" बोले वो, "नहीं" वो बोला, "करके देख" बोले वो, "वैज नहीं मानेगा" बोला मदना, बाबा चुप! फिर से सोचा कुछ! "मैं चलता हूँ" बोले बाबा, 

अब वे दोनों, चौंक पड़े! "मैं चलता हूँ कल" बोले बाबा, अब बाबा बोलें, तो हिम्मत किसकी? "नेतपाल, जा खबर कर उसे" बोले बाबा, "जी" बोला नेतपाल, "लेकिन बाबा......" बोला कुछ मदना, "क्या?? बोल? बोल?" बोले बाबा, "वैज नहीं मानेगा" वो बोला, बाबा फिर से चुप! बाहर देखा, "तू चल मेरे साथ कल" बोले बाबा, 

और खड़े हो गए! वे दोनों भी खड़े हुए, हाथ जोड़े, और खड़े रहे, बाबा लहटा, चल दिए वहाँ से! अब वे खड़े रहे वहाँ! अवाक! लगता था जैसे कि मदना के मन में संशय हा कोई! जो, वो कह नहीं पाया है! बस! अँधेरा छाया! 

और मैं उठ गया। इस बार नहीं खांसा! शर्मा जी ने हाथ फेरा कमर पर! मेरे माथे पर, गर्दन पर पसीने ही पसीने थे! अपने रुमाल से पोंछे उन्होंने! "पानी" मैंने कहा, मुझे पानी दिया, मैंने पिया, "अब क्या पता चला?" वे बोले, 

"बाबा लहटा!!" वे बोले, "क्या बाबा लहटा?" वे बोले, "बाबा लहटा जा रहे हैं, मिलने" मैंने कहा, विस्मय से! "कहाँ?" वे अचरज से बोले, जिज्ञासा भरा अचरज! "मिलने, बाबा वैज से!" मैंने कहा, अब वे सोच में डूबे! "मिलने नहीं, बीज बोने! उस नरसंहार का बीज बोने!" वे बोले, "हाँ, सच कहा" मैंने कहा, एक घुट पानी और पिया मैंने! "वो बात करने जा रहे हैं, उस दिज्जा के लिए!" वे बोले, "हाँ, बात करने ही मैंने कहा, "लेकिन एक बात?" वे बोले, "क्या?" मैंने पूछा, "ये दिज्जा, बाबा वैज की कौन है? बेटी? बहन तो नहीं लगती? कोई रिश्तेदार?" वे बोले, ये सवाल भी दमघोंटू था! सवाल में वजन था। 

और ये जानना भी बेहद ज़रूरी था कि वो उनकी लगती क्या है? "हाँ, ये ज्वलंत प्रश्न है" मैंने कहा, "और इसके जवाब में ही, सारी कहानी का मूल है!" वे बोले, "हाँ! ये तो सच है" मैंने कहा, मित्रगण! तभी वहाँ, हमारे सामने, कोई बीस फीट दूर, किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई!! हम


   
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श्रीशः उपदंडक
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लपक के खड़े हो गए! "कौन है?" मैंने कहा, उत्तर नहीं मिला, बस स्दन अब सुबक में बदल गया था! "आओ" मैंने कहा, "चलो" वे बोले, हम आगे बढ़े, और उस जगह आये, 

"कहाँ हो?" मैंने पूछा, सुबकने की आवाज़ आई थोड़ा और सामने से, हम वही के लिए बढ़े। 

और जब बढ़े, तो सामने एक गड्ढा हुआ पड़ा था! शर्मा जी के पास टोर्च थी! "टोर्च इधर मारो' मैंने कहा, उन्होंने टोर्च की रुष्णी डाली वहाँ! वहां!! वहाँ एक कुआँ सा था! एक छोटा सा कुआँ, कोई चार फ़ीट चौड़ा! "ये तो कोई कुआँ है?" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, अब मैंने उनसे टोर्च ली, उसके तले में मारी, कुछ नहीं था वहां, बस मिट्टी और पत्थर! हाँ, उसकी दीवारों की लखौरी ईंटें,अभी भी वैसी ही थीं, जैसी उस समय रही होंगी! सुबकने की आवाज़ फिर से आई! मैंने रौशनी डाली! लेकिन कोई नहीं था वहाँ पर... आवाज़ उसी कँए से आ रही थी, लेकिन कुँए में कोई नहीं था, और न ही कोई आसपास,अब ये स्त्री कौन है, येभी नहीं पता था, बस इतना कि उसकी सिसकियों में कुछ बहुत ही बड़ा राज था! मैंने टोर्च की रौशनी अच्छी तरह से मारी थी उसमे, लेकिन कुछ नज़र नहीं आया था, न ही कुँए आदि में कोई सुरंग आदि थी, न ही कोई अन्य ऐसा छेद, जहां से कुछ पता चलता! आवाज़ फिर से आई, फिर से सुबकने की आवाजें आयीं! "कोई है?" मैं चिल्लाया, कोई उत्तर नहीं आया! "कौन है, सामने तो आओ?" मैंने पूछा, लेकिन कोई सामने नहीं आया उस समय! अब समझ से बाहर था ये मामला! "आओ वापिस" मैंने आखिर कहा शर्मा जी को, "चलो" वे बोले, 

जैसे ही हम मुड़े वापिस, कोई औरत बुक्का फाड़ के रोने लगी! हम पलटे, पीछे देखा, तो कोई नहीं था, हाँ, उस कुँए से कुछ दूर ही, ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे 

कोई खड़ा हो वहां, मैंने टोर्च की रौशनी मारी वहां, कोई तो था वहां, उन पत्थरों के बीच, कोई न कोई तो था! "ज़रा आना?" मैंने कहा, "चलो" वे बोले, 

और हम आगे बढ़ चले, उस कुँए से थोड़ा आगे के लिए, जहां वो खुदाई करवाई गयी थी! आवाज़ आ रही थी, लगातार कोई औरत रोये जा रही थी, और जैसे ही हम वहां गए, कोई दौड़ कर, उस खुदाई वाली जगह में कूद पड़ा! हम भागे वहाँ के लिए! और आ गए वहाँ, नीचे रौशनी मारी, कोई नहीं दिखा! "कौन है?" मैंने पूछा, कुछ उत्तर नहीं! "कोई है क्या?" मैंने पूछा, मैं नीचे बैठा, और दायें-बाएं रौशनी डाली, "कोई है?" मैंने पूछा, लेकिन कोई नहीं था वहां! मैंने रौशनी मारी और अंदर, लगा, कोई औरत घुटने मोड़ दीवार के संग बैठी हुई है वहाँ अंदर, "कौन है वहां?" मैंने पूछा, कोई उत्तर नहीं आया, वो रस्सी वहीं टंगी थी, मैंने रस्सी को पकड़ा और टोर्च शर्मा जी को दी, वे मेरे ऊपर रौशनी डालते रहे, और जब मैं कोई चार फ़ीट नीचे चला गया तो टोर्च मैंने ले ली उनसे, अब लटके लटके ही मैंने रौशनी डाली उधर, वहां एक लड़की बैठी थी, मुझे ही घूर रही थी! मैं कुछ और नीछे आया! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, अब वो खड़ी हुई, उसने ऊपर कोई वस्त्र नहीं पहना था, और रक्त लगा था उसके बदन पर, जैसे किसी ने मारा-पीटा हो उसे! अब मैं नीचे उतर आया था, "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, कुछ न बोली, सामने आई धीरे धीरे, उसके पांवों से पत्थर दब रहे थे, खरड़-खरड़ की आवाज़ आ रही थी! वो आ खड़ी हई, उसने अपने दोनों हाथ आगे किये, पहले उसके वो हाथ मुझे दिख नहीं रहे 


   
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श्रीशः उपदंडक
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थे, जब सामने किये, तो हाथ बंधे हुए थे उसके, उसके स्तन छिले हुए थे, घाव बने थे, कंधे पर और चेहरे पर छिलने के निशान थे, "क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा, "रेवनि" वो सुबकते हुए बोली, "ये किसने किया तुम्हारा हाल?" मैंने पूछा, "वो, वहां" उसने पीछे इशारा किया, मैंने टोर्च मारी वहाँ, तो कोई खड़ा था वहाँ! कोई मर्द था, हाथ में एक इंडा सा लिए, सर गंजा था उसका, कपड़े खून से लथपथ थे उसके! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, वो कुछ न बोला, 

और तभी किसी की आवाज़ आई वहां, जैसे किसी ने खदेड़ा हो उसको! वो फौरन ही पीछे भाग गया! और फिर न लौटा, अब वो लड़की ही रह गयी थी वहां, "क्या उसने मारा तुम्हे?" मैंने पूछा, उसने सर हिलाया, "कौन है वो?" मैंने पूछा, उसने फिर से दोनों हाथों से इशारा कर दिया पीछे की तरफ, मैंने फिर से टोर्च मारी, लेकिन कोई नहीं था उधर! फिर वो लड़की भी पीछे हटी, और हटते हटते भाग खड़ी हुई। अब ये लड़की कौन थी? किसलिए आई थी? कुछ बताया क्यों नहीं? 

और वो, वो मर्द कौन था? उसको खदेड़ा किसने था? अब नए सवाल आ खड़े हुए थे। मैं बाहर निकला वहाँ से, और दौड़ पड़ा उस क्रिया-स्थान के लिए! थोड़ा पानी पिया, 

और लेट गया, अब फिर से अजंधा-प्रवेश हेतु मंत्र पढ़ने लगा! और कुछ ही पलों में, मेरा दम सा घुटा, बदन में जुम्बिश हुई, और नेत्र बंद हुए! इस बार मैं एक ऐसी जगह पहुंचा, जहां हरा-भरा सा स्थान था, आसपास काफी घने पेड़ पौधे लगे थे, फूल लगे थे, पीले, नीले, लाल, सफ़ेद! बहुत ही पावन सा माहौल था वहाँ! एक लम्बा-चौड़ा सा मैदान था वहाँ, सामने कुछ झोपड़े से बने थे, एक अस्तबल भी था, कुछ लाल और सफेद घोड़े अपनी दुम हिला रहे थे। वहाँ उधर ही, एक स्थान गोबर से लीपा गया 

था, उस स्थान पर, दरियां सी बिछी थीं, आसपास कोई नहीं था, न कोई स्त्री और न कोई पुरुष,हाँ, कुछ श्वान अवश्य ही टोह मारे जा रहे थे वहाँ! आसपास लगी बेलों पर सब्जियां लगी थीं, तोरई,घीये,सीताफल आदि आदि, ग्रामीण खूबसूरती का बेहतरीन नज़ारा था वहां! तभी कुछ अफरातफरी सी मची, कुछ लोग भागते हुए आये वहां, और आनन-फानन में वहां बने कक्षों में घुस गए, वे कुल बीस बाइस आदमी रहे होंगे, क्यों घुसे पता नहीं! और फिर मैंने देखा, कि बाबा वैज,और उनके संगी-साथी, और साथ में उनके बाबा लहटा, 

मदना, वो नेतपाल आदि सब आ रहे थे। कोई स्त्री नहीं थी, बस पुरुष ही पुरुष! कुल मिलाकर, कोई डेढ़ सौ लोग! माहौल ऐसा जैसे पंच बैठने जा रहे हों, जैसे पंचायत लगने वाली हो! वे सब लोग आ बैठे थे। उसी दरी पर, वे सब तो नहीं, बाकी लोग अलग अलग खड़े थे, बाबा वैज के लोग एक तरफ, और बाबा लहटा के एक तरफ! बाबा लहटा शांत थे, और बाबा वैज भी शांत! हाँ, वो जो लोग थे, वे अवश्य ही विचलित थे! बाबा लहटा और बाबा वैज, एक साथ बैठे, आमने सामने, बब दवैज के संग, वो जम्भाल आदि बैठे थे, और बाबा लहटा के संग, वो मदना और वो नेतपाल थे! पहले दोनों में प्रणाम हुई! हाथ जोड़ कर! फिर दो लोटे रखे गए उन दोनों के सामने, वे लोटे उठा लिए गए,और उसमे से, थोड़ा थोड़ा 


   
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श्रीशः उपदंडक
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सा जल, सभी अपने अंजुल में डाल पीते चले गए। ये शायद अफीम का घोटा था! "दिज्जा यहीं है?" बोले बाबा लहटा! "हाँ!" बाबा वैज बोले! "क्यों?" बाबा लहटा ने पूछा, "स्वेच्छा से!" वे बोले, अब चुप हुए बाबा लहटा! मदना को देखा, मदना ने आँखें झुका ली! "चंदन क्या कहता है?" लहटा बाबा ने सवाल पूछा, "पता नहीं, मेरी बात नहीं हुई" बोले बाबा वैज! "चंदन तो कहता है उसको भगा दिया?" बोले लहटा, "नहीं भगाया" वे बोले, "वो क्यों कहता है ऐसा?" पूछा बाबा लहटा ने, "उस से पूछो" बाबा वैज ने कहा, "पूछ लिया है" बोले वो! 

"उसको ले आते?"बाबा दवैज बोले, "आया है" बोले वो, 

और फिर बुक्कल मारे एक व्यक्ति आया सामने, वो बैठा था वहीं भीड़ में, उसने बुक्कल हटाया! तो मैं देखते ही चौंका!! ये तो वही व्यक्ति है, जो उस गाँव में था! जिसके यहाँ ये मदना आया था, वो पोटलियाँ लेकर! और फिर मदना के आदमी वहाँ से दूसरी पोटली ले गए थे! तो इसका नाम चंदन है! लेकिन?....... "बता चंदन" बोले लहटा बाबा, "मैं आया था, लेकिन बाबा वैज नहीं मिले थे" वो बोला, "कौन मिला था?" पूछा लहटा बाबा ने, "ये, ये मिला था" वो बोला, ये! मतलब वो जम्भाल! "इसने मना किया?" बोले बाबा लहटा! "हाँ" वो बोला, "क्या कहा इसने?" पूछा बाबा ने, "कि बाबा वैज नहीं हैं,जा अभी, बाद में आना, जब दिज्जा के बारे में पूछा तो मनाकर दिया इसने" वो बोला, "ये बाप है उसका!" बोले लहटा! "तो मुझे क्यों नहीं मिला?" बोले बाबा वैज! "आया तो था?" बोले लहटा! "मैं नहीं था यहां, इसको बाद में आना चाहिए था" बोले बाबा, "अब? अब आया है न?" बोले लहटा बाबा, "हाँ, तो?" वे बोले, "बुलाओ उस दिज्जा को" बोले लहटा, "बुलवा लेता हूँ, लेकिन होगा वही, जो वो चाहेगी" बोले बाबा वैज, "ठीक है" बाबा लहटा बोले, अब चंदन बैठा, 

और एक आदमी चला वहां से, बुलाने उस दिज्जा को! शांति पसर गयी वहां! अब न कोई कानाफूसी हो, और न ही कोई देख-दिखाई! लेकिन वो मदना, आँखें नीचे किये हुए,चुपचाप बैठा था, बाबा लहटा ने कई बार देखा उसको, लेकिन 

उसने नज़रें न उठायीं अपनी! अब कोई आँखों से आँखें नहीं मिला रहा था किसी से भी, बस दो आदमियों के अलावा! एक बाबा वैज़ और दूसरे बाबा लहटा! वही जैसे एक दूसरे को तोल रहे थे नज़रों ही नज़रों में! एक बात स्पष्ट थी, बाबा लहटा मुझे क्रूर, और क्रोधी लगते थे, हाँ, सध के कदम रखने वाले अवश्य ही थे! और बाबा वैज, दया से भरे थे। उनके चेहरे पर, कोई ईर्ष्या-द्वेष, छोटा-बड़ा कुछ नहीं था, ऐसा कोई भाव नहीं था! लेकिन वो बाबा लहटा से कहीं कम हों, ऐसा भी नहीं था! बाबा वैज, बाबा त्रिभाल के पुत्र थे! बाबा त्रिभाल की शिक्षा उनके व्यक्तित्व और बोलचाल से झलकती थी! 

और तभी सभी की नज़र कुछ आती हुई स्त्रियों पर पड़ी। मैंने भी देखा, लेकिन इस भीड़ में एक ऐसा भी था, जिसने नहीं सर उठाया था अपना, और वो था मदना! मदना अभी भी सर नीचे किये ही बैठा था, शांत लेकिन सचेत! मैंने कुछ और भी देखा, वो रेवनि! वो रेवनि भी थी उस दिज्जा के साथ, उसके दायें चलती हुई वो भी आ रही थी, वही रेवनि, जो कुछ देर पहले मुझे


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस सुरंग में मिली थी, लहूलुहान सी, कुछ और भी स्त्रियां थीं वहाँ! और हाँ, वो किशोर, केषक, वो भी आ रहा था उनके साथ, अठारह का रहा होगा उम में! मैं उसके कद के 

अनुसार ही किशोर कह रहा हूँ उसको! वे आयीं, कुछ स्त्रियां पीछे ठहर गयौं, और रेवनि संग, वो दिज्जा आगे आ गयी, लेकिन बैठी नहीं, न रेवनि और न ही दिज्जा! उन दोनों ने सभी को प्रणाम किया। अब बाबा बैज ने बाबा लहटा को देखा! 

और वो मदना,अपने आप में सिकुड़ गया था। सर नीचे लटकाये, शांत बैठा था, बाबा लहटा ने, बहत बार देखा था उसे, और इसीलिए, नेतपाल ने, उको एक बार कोहनी भी मारी थी! लेकिन मदना ने, सर नहीं उठाया था अपना! अभी तक! लहटा बाबा ने सर उठाया, और उस दिज्जा को देखा, फिर उसके बाप, चंदन को देखा, और फिर बाबा दवैज को, आँखों के भाव बदल चुके थे बाबा लहटा के! "दिज्जा, पुत्री?" बोले बाबा लहटा! काँप गयी बेचारी दिज्जा। पाँव लड़खड़ाने लगे थे उसके! "अपने इस पिता की नहीं सुनोगी?" बोले बाबा लहटा! अपने इस पिता, उस चंदन को, जो बगल में बैठा था! कुछ न बोली वो! चुपचाप, आँखें नीचे किये हए,खड़ी रही! लोग अपनी साँसें थामे, सब देखे जा रहे थे! "हम ले जाने आये हैं तुझे" बोले बाबा लहटा! 

बेचारी, कहीं गिर ही न जाए! ऐसा लगा उस समय मुझे! चुप ही रही!! कुछ पल की शान्ति, 

और तब बाबा लहटा ने देखा चंदन को, चंदन समझ गया, और उठा, "बेटी, चल हमारे साथ" वो बोला, कुछ न बोली! चुप खड़ी रही। "चल बेटी?" वो बोला, और उसका हाथ पकड़ने के लिए हाथ आगे बढ़ाया चंदन ने! 

और तभी, तभी वो दिज्जा, पीछे आ खड़ी हई बाबा वैज के! बाबा दवैज ने चंदन की आँखों में झाँका! 

और चंदन झटके से हाथ पीछे खींचता हुआ, वापिस बैठ गया, "वैज?" बोले बाबा लहटा! बाबा वैज ने अब देखा बाबा लहटा को! "मदना से अच्छा वर कहीं नहीं मिलेगा इसको" बोले बाबा लहटा, और उस मदना को देखा, मदना सर झुकाये बैठा था, पसीना बह रहा था चेहरे से! "मिलेगा या नहीं, मैं नहीं जानता, न जानना ही चाहता, प्रश्न ये नहीं था, प्रश्न था, दिज्जा से पूछने का, और आप समझ गए होंगे, कि दिज्जा की इच्छा नहीं!" साफ़ बोला बाबा वैज 

बाबा लहटा को काटो तो खून नहीं! चेहरा तमतमा उठा! "मैं समझ गया वैज!" वो बोले, "आप भी समझ गए होंगे" बोले बाबा दवैज, "मैं समझ गया कि तुमने ही भड़काया है इसे! अच्छा होता कि इसको समझाते!" बोले बाबा लहटा! "समझाना और न समझाना मेरा काम नहीं, बात इच्छा की है, दिज्जा, रेवनि की सखी है, और रेवनि इस जम्भाल की पुत्री, अर्थात मेरी पुत्री, और इस प्रकार, ये दिज्जा भी मेरी पुत्री ही हुई!" बोले बाबा वैज! बाबा लहटा का पारा चढ़ने लगा! उन्होंने अपने सभी साथियों को देखा! 

और झट से खड़े हो गए, वो मदना भी, सर नीचे झुकाये! 

"जाओ पुत्री फैसला हो गया" बोले बाबा वैज! ये सुनते ही, दिज्जा उस रेवनि के संग, चली गयी वहां से! "वैज, अवसर है अभी, समझा देना उसको" बोले बाबा लहटा! "समझा दिया है, चली गयी है" वे बोले, अब दांत भींचते हुए, गुस्से में, बाबा लहटा पलटे! और चल पड़े वापिस! वे


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे ही चले, बाबा बैज के सभी साथी, उनके साथ चल पड़े, बाहर तक छोड़ने! रह गए बाबा वैज वहाँ! और उन झोंपड़ों में से वो बीस-बाइस आदमी, अपने अपने हथियार लेकर, आ गए बाहर! वे भी दौड़ पड़े, उन लोगों के पीछे! फैसला हो गया था! दिज्जा अब यहीं रुकने वाली थी! 

यहीं बाबा वैज के स्थान पर! 

और तभी जम्भाल आया उधर, "चले गए" बोला जम्भाल, "अच्छा है" वे बोले, "लेकिन बाबा, ये बाबा लहटा........" वो बोला तो बात काट दी बाबा वैज ने, "जानता हूँ, दाँदणा है!" वे बोले, "हाँ बाबा!" वो बोला, "सुरक्षा बढ़ा दो जम्भाल" वे बोले, "जी बाबा' बोला जम्भाल, और प्रणाम कर, चला गया वहां से! 

और तभी अँधेरा छा गया! मैं उठ गया! छाती पर जैसे पत्थर रखा हुआ था! तेज तेज साँसें आ रही थीं! शर्मा जी ने संभाला मुझे! "पानी" मैंने कहा, उन्होंने पानी दिया, 

और मैंने पानी पिया! "सब पता चल गया!" मैंने कहा, "क्या सब?" वे बोले, चरम उत्कंठा के शिकार थे वो!! पसीने पोंछते हए अपने हाथों से, मेरा सर भी साफ़ कर देते थे अपने रुमाल से! "बाबा लहटा से मिले बाबा वैज" मैंने कहा, 

"अच्छा, फिर?" वे बोले, "दिज्जा नहीं गयी संग अपने बाप के" मैंने कहा, "अच्छा, और वो मदना?" वे बोले, "वो, सर नीचे किये बैठा रहा, बस!" मैंने कहा, "अच्छा, और लहटा बाबा?" बोले वो, "कुछ समय देकर गए हैं" मैंने कहा, "अच्छा ..."वे बोले, 

अब मैंने और पानी पिया! और फिर सारी कहानी से अवगत करवाया उन्हें! "वही हुआ, ये दिज्जा के कारण ही हुआ था" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "लेकिन वो मदना?" वो बोले, "समझा नहीं?" मैंने कहा, "वो सर नीचे किये क्यों बैठा रहा?" बोले वो, "पता नहीं, एक बार भी सर नहीं उठाया उसने" मैंने कहा, "अब यहाँ फिर से पेंच यही" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा, "वो तो उसकी ब्याहता हो जाती, लेकिन उसने देखा क्यों नहीं?" वे बोले, "ये समझ नहीं आया" मैंने कहा, "सुरक्षा बढ़ा दी गयी, हम्म" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "इसका अर्थ.." वे बोले, "क्या अर्थ?" मैंने कहा, "इसका अर्थ, कि वो बाबा लहटा बहुत ढाँढणा है! ढाँढणा अर्थात, कमीन फ़ितरत का इंसान! 

वो इसको अपमान समझेगा! और इसका बदला ज़रूर लेगा!" वे बोले, "इसकी बिसात तो बिछ गयी है!" मैंने कहा, "हाँ, शतरंज के मोहरे, साफ़ किया जा रहे हैं!" वे बोले, "हाँ, सच मैं" मैंने कहा, "लहटा बदला तो ज़रूर लेगा!" वे बोले, "उसने जब अवसर कहा था, तभी इसका पुट दे दिया था!" मैंने कहा, "अब..अब हुआ है खेल शुरू!" वे बोले, 

"हाँ, बिसात बिछ चुकी है। मैंने कहा, "अब यही देखना है" वे बोले, मैंने फिर से पानी पिया! ज़्यादा नहीं पी रहा था! नहीं तो लघु-शंका त्यागने की मुसीबत हो जाती! मैंने जैसे ही पानी की बोतल रखी, वही आवाज़ गंजी! "होम! होम!" हमारे कान खड़े हो गए!!! ये होम, होम की आवाज़ बहुत ही तेज और भारी होती थी, लगता था जैसे कोई होमाग्नि में कुछ होम-सामग्री आदि डाल रहा हो! या कोई महा-विक्रा मंत्र का जाप कर रहा हो! इस 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आवाज़ का स्रोत वो गड्ढा ही था, लेकिन वहाँ मात्र एक सुरंग थी, जो अब खुदवा दी गयी थी, 

और उसके नीचे एक संकरा सा रास्ता ही था, अन्य कुछ नहीं! ये रास्ता दूर तलक कहाँ जाता था, ये भी नहीं पता था, स्थान बहुत बड़ा था और उसके प्रत्येक भाग को जांचना और देखना, सम्भव नहीं था! आवाज़ एक आद बार ही आती थी, उसके बाद शांत हो जाती थी, लेकिन ये एक रहस्य ही रहा! अब तक घटनाक्रम हम जान ही चुके थे, बाबा लहटा ने अवसर दिया था बाबा वैज को, कि वे एक बार समझा दें उस दिज्जा को, लेकिन बाबा 

वैज ने अपना फैसला सुना दिया था साफ़ साफ़! इस से बाबा लहटा भड़क गए थे! अब तक ये साफ़ हो चुका था कि यहां इस नरसंहार में कौन कौन टकराये थे, हमें यहां बाबा त्रिभाल के डेरे के तो प्रेत मिले थे, लेकिन बाबा लहटा के डेरे से कोई नहीं, अगर कोई हो भी, तो नज़र नहीं आया था, बस उस मदना के अलावा! अब ये भी एक बड़ा सवाल था, एक अबूझ पहले थी, कि मदना यहां क्या कर रहा था? यदि मदना यहां था, तो फिर बाबा लहटा कहाँ हैं? नेतपाल भी मिला था हमें,अपने जानवर हांकता, और कोई नहीं, बस ये दो ही थे! और ये नेतपाल, इस मदना से दूर था, एक दूसरे छोर पर! सवालों का कुआँ अभी भी था हमारे सामने, भरा नहीं था! अभी भी उसमे गहराई शेष थी! और ये गहराई, तब भरती जब हमें सारी कहानी पता चल जाती। मैं अब तक कई बार अजंधा-प्रवेश कर चुका था, उसी की बदौलत अब तक ये कहानी पता चली थी। इस कहानी में पग पग पर पेंच थे, वो निकालने पड़ते थे, और तब आगे का रास्ता मिलता था! मैंने इस बार पुनः अजंधा-प्रवेश किया, और जा पहुंचा एक जाने पहचाने स्थान पर! बस अंतर ये था कि उस समय रात्रि थी वहाँ, मैं जहां पहुंचा था, वहाँ एक बड़ी सी अलख उठी हुई थी, सामने कई बड़े पात्र रखे थे! उनमें भोग का सारा सामान आदि रखा था, लेकिन कोई मंत्रोच्चार आदि नहीं हो रहा था, वहां करीब बीस लोग इकट्ठा हए थे, उनमे, मदना भी था, नेतपाल नहीं था, बाबा लहटा, एक ऊंचे से चबूतरे पर, बिछे आसन पर बैठे थे! अब मैंने कुछ 

स्वर सुने, कुछ वार्तालाप! "गोपा, तूने किया अपना काम?" पूछा बाबा ने, "हाँ, मुझे चंदन ने बताया कि रंधो की जोरू ने बताया है कि वहाँ सुरक्षा बढ़ा दी गयी है" वो बोला, "वो तो मालूम ही था' बोले बाबा, "आदेश कीजिये" गोपा बोला, "कुल कितने हरफू हैं वहाँ?" पूछा बाबा ने, "कोई तीन सौ होंगे" वो बोला, "तीन सौ......." बोले बाबा और कुछ सोचा उन्होंने, "सुन, कंडु को बुलाओ कल" बोले वो, "जी' वो बोला, मदना ये सुन, कि कंडु को बुलाओ, उठ गया वहाँ से, और जाने लगा बाहर, "मदना?" बाबा ने गुस्से से कहा, मदना रुका, लेकिन पीछे नहीं देखा उसने, "इधर आ" बोले बाबा, 

अब पलटा वो, बेमन से, "तुझे देख रहा हूँ, क्या बात है?" बोले बाबा, "कंड लोहाट बंजारा, किसलिए?" बोला मदना, "वो तो तू भी जानता है?" बोले बाबा, "बात भी तो की जा सकती है?" वो बोला, "बात की नहीं क्या?" बोले बाबा, "दोबारा प्रयास किया जा सकता है" बोला वो, "नहीं, उसने अपमान किया मेरा? देखा नहीं?" अब गुस्से से बोले बाबा, "कैसा अपमान? आपने इच्छा ही पूछी थी दिज्जा की? उसने बता दी, तो अब? अब क्या 


   
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श्रीशः उपदंडक
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आवश्यकता?" बोला वो, "आवश्यकता?" अब खड़े हुए बाबा, और बढ़े उसकी तरफ, मदना ने सर झुका लिया नीचे, "दिज्जा वहाँ नहीं रहेगी, समझा?" बोले बाबा, "कोई आवश्यकता नहीं है, वो नहीं मान रही, उसकी इच्छा" बोला मदना, "मदना?" गुस्से में काँप उठे बाबा! 

और मदना के होश उड़े! 

भाग लिया मदना वहाँ से, सभी चुप वहाँ! "कंड़ को बुलाओ कल" बोले बाबा और निकल दिए वहाँ से! 

और मैं अब वापिस हुआ! मेरी आँख खुल गयी! मेरी साँसें अनियंत्रित थीं! शर्मा जी ने संभाला मुझे! कमर पर हाथ फेरा! "क्या देखा?" वे बोले, अब मैंने उन्हें सारा घटनाक्रम बता दिया! सुन कर वे अब अवाक! "मदना ने मना किया?" बोले वो, "हाँ" मैंने कहा, "यहां अब मदना के बारे में, मेरी सोच बदल गयी" वे बोले, "हाँ, मेरी भी" मैंने कहा, "तो मदना नहीं चाहता था कि कोई नरसंहार हो" वे बोले, "हाँ, उसने स्वीकार कर लिया था दिज्जा की इच्छा को मैंने कहा, "लेकिन बाबा लहटा ने नहीं, उनको ये अपमान लगा अपना" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "गुत्थी उलझी हई है बहुत" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, "मदना आया, नहीं आया, ये जानना है अब" वे बोले, "कहाँ आया?" मैंने पूछा, "उस कंड़ बंजारे के साथ!" वे बोले, "अच्छा!" मैंने कहा, "उन्होंने कंडु बंजारे को बुलाया है, कि उस डेरे में तीन सौ हैं जो सुरक्षा में लगे हैं, और इस बंजारे के पास, ऐसे बहुत आदमी होंगे, जो ऐसा ही काम किया करते होंगे" वे बोले, "यक़ीनन" मैंने कहा, "इसका मतलब, लहटा का ही काम है ये, उस मदना का नहीं" वे बोले, "हाँ, अब तो यही लगता है" मैंने कहा, अब हम चुप हए थोड़ी देर, वो अपने हिसाब से सोचें, और मैं अपने हिसाब से! 

मैंने पुनः प्रवेश किया, 

और ध्यान लगाते हए, मैं एक जगह पहंचा, वो दिन का समय था, सभी बैठे थे उधर, बाबा लहटा, गोपा, नट्टी लेकिन मदना नहीं था वहाँ, नेतपाल भी नहीं, और हाँ, एक भारी-भरकम शख़्श बैठा था वहां, अपने ही जैसे चार और लोगों के साथ, बाबा लहटा, अपने चबूतरे पर 

बैठे थे! 

"कंडु?" बोले बाबा, तो ये था कंडु लोहाट बंजारा! "आदेश" वो हाथ जोड़ते हुए बोला, "तैयार हो जा" बोले वो, "आदेश" बोला कंडु, "कितने हरफू हैं तेरे पास?" पूछा बाबा ने, "हैं करीब दो सौ" वो बोला, "अच्छा, और चाहिये तो?" बोले बाबा, "मिल जाएंगे, कहा से बात कर लेंगे, लेकिन हिस्सा-बाँट मांगेगा वो" वो बोला, "यहां कोई हिस्सा-बाँट नहीं, हाँ, जो चाहिए, यहां से मिल जाएगा" बोले बाबा, "जैसा आदेश" बोला वो, "बात कर कहा से" बोले बाबा, "आज ही कर लूँगा" वो बोला, "हाँ, करके, मुझे बता" बोले वो, "जी" वो बोला, 

और खड़ा हुआ, हाथ जोड़े, और चल पड़ा वापिस अपने साथियों के साथ! "गोपा?" बोले बाबा, "मदना कहाँ है?" पूछा बाबा ने, "कल से नहीं देखा उसको" वो बोला, "उसको ढूंढो" बोले वो, "जी" वो बोला, "रम्मन?" बोले बाबा, "जी, आदेश?" बोला वो, "तैयारी करो" बोले बाबा, "आदेश" वो बोला, 


   
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