करवा दें खुदाई! मैं उठा, और शर्मा जी के पास तलक गया, मुंह में अभी भी उस सड़ांध के कण चिपके थे, मुंह बकबका सा हो गया था, मेरी आँतों में जैसे अंतःसाव सा होने लगा था। "आओ शर्मा जी" मैंने कहा, उन्होंने भी थूका और चल दिए मेरे साथ, "कल खुदाई करवाते हैं" मैंने कहा, "हाँ, ज़रूरी है" वे बोले, हम आ गए थे पलंग तक, अब पानी लिया, कुल्ला किया और मुंह पोंछा, तब जाकर चैन
पड़ा! "यहां है तो कोई बड़ा ही रहस्य" वे बोले, "हाँ, ये तो है" मैंने कहा, मैं लेट गया था, पलंग पर जगह कम थी, करवटें लेकर ही सोया जा सकता था, इसीलिए मैंने करवट बदल ली, तो शर्मा जी भी लेट गए, लेटने से पहले हमने अपने जूते साफ़ कर लिए थे,पैंट भी पानी से साफ़ कर ली थी, उतार कर रख दी थी वहीं, सुबह तक सूख ही जाती, "खाना?" वे बोले, "अरे हाँ" मैंने कहा, शर्मा जी ने खाना खोल लिया, हमने खाना खाया फिर, और फिर से लेट गए, घड़ी देखी, तो डेढ़ बज चुके थे! लेकिन इस रहस्य ने हमारी भूख-प्यास सब उड़ा दी थी! अब कल खुदाई हो, तो कुछ आगे बात बने! रात कोई तीन बजे, फिर से आवाजें आने लगी, मेरी आँख खुली, मैंने शर्मा जी को जगाया, वे जागे, "सुनो' मैंने कहा,
आवाजें कुछ ऐसी थीं जैसे कोई किसी जानवर को हाँक रहा हो, जैसे अपने बैल या भैंसे को हाँक रहा हो! 'हयो, हयो!" ऐसी आवाज़ थी वो! अब रात को तीन बजे, कौन हाँकेगा अपना जानवर। मैं खड़ा हुआ, शर्मा जी भी खड़े हए, मैंने पैंट पहनी, शर्मा जी ने भी, पैंट अभी तक गीली थीं, फिर जूते पहने, जूते सूख चुके थे, हाँ, पैंतावा अभी भी गीला था! "आओ" मैंने कहा, वे चल पड़े मेरे साथ, हम उसी आवाज़ की दिशा में चल पड़े! हम आगे बढ़े,टोर्च की रौशनी जलायी मैंने, और चले आगे, ठीक सामने कोई खड़ा था, लेकिन कोई जानवर नहीं था वहां! हमारी रौशनी देखा कर, वो ठहर गया था! हम पहुँच गए थे उसके पास, वो लम्बा-चौड़ा युवक था, सफ़ेद कुर्ते और धोती में, लम्बाई में कोई सात फ़ीट होगा, पहलवानी जिस्म था उसका! हाथ में एक सांटा ज़रूर था उसके हाथ में, सांटा, जिस से जानवर को हांका जाता है! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, "नेतपाल" वो बोला, बिना किसी संशय के बिना किसी घबराहट के! और बिना किसी भय
के! मुझे बहुत अच्छा लगा! "यहीं रहते हो?" मैंने पूछा, "हाँ, आगे ही" वो बोला, "कहाँ जा रहे हो?" मैंने पूछा,
"पैंठ से आ रहा हूँ"वो बोला, "जानवर लाये हो?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोला, "कुछ जानकारी चाहिए, पूछ सकता हूँ?" मैंने पूछा, "हाँ, पूछो?" वो अपना चेहरा साफ़ करते हुए बोला, "ये मदना कौन है?" मैंने पूछा,
वो जैसे काँप गया! "बताओ?" मैंने पूछा, कुछ नहीं बोला वो! चुपचाप ही रहा! "जानते हो मदना को?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोला, "कौन है?" मैंने पूछा, "बाबा लहटा का बेटा" वो बोला, बाबा लहटा का बेटा? अब सर पर लट्ट घूमा! "कहना मिलेगा मदना?" मैंने पूछा, "पता नहीं" वो बोला, "तुम ले जाओगे?" मैंने एक अजीब सा सवाल क्या, वो पलटा! और चल पड़ा आगे,
तेज तेज कदमों से! मैंने आवाज़ भी दी, लेकिन नहीं ठहरा वो! जैसे डर गया था वो! "बाबा लहटा!" मैंने कहा, "हाँ, और वो मदना बेटा है उनका!" वे बोले, "अब सारी कहानी इसी मदना और इन बाबा लहटा के इर्द-गिर्द घूम रही है" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "कल पता करता हूँ इस मदना के बारे में मैंने कहा, "कैसे?" वे बोले, "हाज़िर करके!" मैंने कहा, "किसको?" वे बोले, "मदना को!" मैंने कहा, "अच्छा!!" वे जोश से बोले! "अब चलो वापिस" मैंने कहा,
और हम वापिस हुए! और जब वापिस हुए तो हमारा वो पलंग, ख़ाक़ हो चुका था! अब सिर्फ
उसके लोहे के पाइप ही बचे थे। आसपास कोई आग नहीं थी, और न ही कोई चिन्ह! ये प्रेत माया थी! और कुछ नहीं! "ये क्या?" वे बोले, "किसी इन धमकाया यही, कि खुदाई न की जाए!" मैंने कहा,
और तभी किसी के हंसने की आवाज़ आई! एक मर्दाना हंसी! हम पीछे पलटे! पीछे कोई नहीं था! "कौन है? सामने आओ?" मैंने कहा, तभी एक बड़ा सा पत्थर आ कर गिरा सामने! हमारे सामने! "चला जा! जा!" आवाज़ आई! "है कौन तू?"मैंने पूछा, फिर से एक पत्थर गिरा! "सामने आ?" मैं चिल्लाया,
और जो सामने आया, वो एक पहलवान सा आदमी था! सिर्फ लंगोट ही बांधे थे! सर गंजा था, बाजुओं में गंडे बंधे थे। कमर पर, एक रस्सी सी बंधी थी! उसके हाथ में पत्थर था, कोई पचास किलो का पत्थर! "क्या चाहता है?" मैंने पूछा, "निकल जा यहां से!" वो चिल्लाया, "क्यों?" मैंने पूछा, "आग लगा दूंगा तुझे, सुखा दूंगा!" वो बोला, "हमने क्या बिगाड़ा?" मैंने पूछा, जानबूझकर! "तेरी हिम्मत कैसे हुई बाबा त्रिभाल की भूमि पर आने की?" वो चिंघाड़ा! बाबा त्रिभाल! अब ये नया नाम था! तो ये ज़मीन बाबा त्रिभाल की रही होगी! अब इसको और कुपित करना था। ताकि कुछ और राज खुल सकें। "ठीक है, हम चले जाएंगे, लेकिन मैं कुछ पूछना चाहता हूँ" मैंने कहा, "जा! काटण! चला जा, नहीं तो आग लगा दूंगा तुझे!" वो बोला, काटण! मुझे नहीं पता इसका अर्थ क्या था! "और अगर नहीं जाएँ तो?" मैंने उकसाया उसकौ! "तेरी ये हिम्मत?" वो बोला,
और फेंक दिया पत्थर सामने! हम आगे भागे, और पत्थर हमारे सर के ऊपर से पीछे जा गिरा! वो गुस्से में था, इसीलिए मैंने मौका ताड़ा और एवंग-मंत्र का जाप कर लिया! शर्मा
जी का हाथ पकड़ा, और उनके हाथ पर थूक दिया, उन्होंने वो थूक अपने माथे से रगड़ लिया! अब हम दोनों ही पोषित थे!
अब उसने अपनी पहलवानी दिखाएं एकी ठानी। भाग पड़ा हमारी ओर! मैं भी आगे भागा!
और एक ही पल मैं, वो रुक गया!! उसने मंत्र-गंध आई थी! "क्या हुआ?" मैंने हँसते हुए पूछा, वो चुप! हैरान था। "अब नहीं दिखानी पहलवानी?" मैंने कहा, "जा, चला जा! जा!" वो बोला, "चला जाऊँगा! ये बता तू है कौन?" मैंने पूछा, अब जैसा उसका जिस्म, वैसा ही नाम!! जम्भाल! जम्भाल नाम था उसका!! "जम्भाल? ये बाबा त्रिभाल कहाँ हैं?" मैंने पूछा, "यही हैं" वो बोला, "कहाँ?" अब मैं चौंका! यहां? यहां तो कहीं नहीं? "कहना हैं बाबा जम्भाल?" मैंने पूछा, जम्भाल पीछे हटा! मैं आगे बढ़ा! "रुक जा!" मैंने कहा, वो रुका, मुझे देखा, "सुनो जम्भाल! एक
सवाल और" मैंने कहा, वो मुड़ा मेरी तरफ! "ये, मदना कौन है?" मैंने पूछा, उसने सुना, और भागा! दूर अँधेरे में लोप हुआ! सन्नाटा! सन्नाटा पसर गया था! झींगुर और मंझीरे भी शांत थे! "बाबा त्रिभाल!" मैंने कहा, "हाँ, एक नया नाम" वे बोले,
"अब तीन नाम हैं, बाबा लहटा, मदना और ये बाबा त्रिभाल!" मैंने कहा, "और यही किरदार लगते हैं वे बोले, "हाँ यही हैं" वे बोले, अब हम लौटे! वो बड़ा सा पत्थर, टूट गया था! दो टुकड़े हो गए थे उस के! "अरे? ये देखो?" वे बोले, "क्या?" मैंने पूछा, "पत्थर पर खून?" वे बोले, "खून?" मैंने कहा, "देखो?" वे बोले, टोर्च की रोशनी में देखा मैंने, वहाँ सच में खून लगा था! "लेकिन उसके हाथों तो कोई खून नहीं था?" मैंने कहा, "हाँ, उस वक़्त नहीं था" वो बोले, "अजीब बात है" मैंने कहा, घड़ी देखी, पांच का समय होने को चला था! अब सोने का तो मतलब ही नहीं था, पलंग का कंकाल सामने पड़ा था! कंबल, चादर, सब जल गए थे! शुक्र है कि पैंट पहन ली थी, नहीं तो पैंट भी जल जाती!!!
और फिर सुबह हुई! सुबह कोई सात बजे दीप साहब और सुरेश जी आने ही वाले थे! उसके बाद हमें उनके घर जाना था, थोड़े अपने कपड़े भी धोने थे, मछुआरे लगने लगे थे हम सुबह तक तो! वे आये, उनसे बात हई, हमें सकुशल देख, वे खुश हए, अब शर्मा जी ने उनको जो बताना था वो बता दिया, जो छिपाना था वो छिपा लिया, फिर हम उनके घर चले, सीधा स्नान करने और निवृत होने गए हम, उसके बाद चाय-नाश्ता किया, कुछ खाया भी, भूख लगी हुई थी बहुत! कपड़े दे दिए थे धुलने के लिए, अब जे.सी.बी. मशीन का इंतज़ाम करना था, उसके लिए दीप साहब ने अपने एक जानकार से बात की, दिन में कोई दो बजे, मशीन वहाँ पहुँच गयी थी, और हम दो बजे ही, खाना खा कर, हम निकल पड़े थे, वहाँ कोई डेढ़ घंटे में पहुंच गए थे, हाँ, कपड़े धुले हुए और इस्त्री किये हुए मिल ही गए थे। इस बार फिर से चादर, कंबल ले आये! पलंग नहीं लाये थे! ज़मीन पर ही सोना था। तो हम वहाँ करीब साढ़े तीन बजे पहुंचे, जे.सी.बी.मशीन वाला चालक, हिम्मत वाला व्यक्ति था, उसको साफ साफ़ बता दिया था कि, किस वजह से हम यहां खुदाई करवा रहे हैं, उसने मुस्कुरा के जवाब दिया था कि कोई बात नहीं, कुछ धन निकल जाए तो कूड़ा-करकट जो बचे, वो उसको दे दिया जाए! मैंने वायदा कर लिया कि अगर कुछ ऐसा निकलता है, तो उसको भी हिस्सा मिलेगा, अब मैंने खुदाई करने से पहले, उस भूमि पर, कुछ दाने फेंके, पीली सरसों के दाने!
और फिर खुदाई करने के लिए, मैंने निशान भी लगा दिए थे! अब लेके ऊपरवाले का नाम, वो चालक, नाम किशोर था उसका, चढ़ गया मशीन पर, और की मशीन चालू! और लगा अब खुदाई करने! हम वहीं खड़े थे, वो दीप साहब और सुरेश साहब, बाहर थे गाड़ी में! अभी कोई दस बार ही खुदाई हुई थी, कुल दस बार मिट्टी उठायी थी, कि मशीन बंद हो गयी! बहत कोशिश की चलाने की, लेकिन नहीं चली, अब किशोर भी घबरा सा गया, उसने उतर कर, मशीन की जांच की, सबकुछ ठीक था, मैंने तब फिर से सरसों के दाने फेंके, और मशीन चलाने को कहा, लेकिन मशीन नहीं चली! किसी ने रोक दिया था उसको! अब हिम्मत हार
ली उसने, और जैसे ही वो उतरा नीचे, मशीन चालू हो गयी! वो घबराया! लेकिन मैंने उसको कहा कि हिम्मत न हारे, और खुदाई करे! वो फिर से जुट गया! और इस बार खुदाई होने लगी हमारे मन-माफ़िक़! करीब आधे घंटे के बाद ही, उस गड्ढे से थोड़ा दूर, जहां ये खुदाई चल रही थी, वहाँ पत्थरों का एक निर्माण सा दिखा! अब मैंने मना कर दिया, उसने अब मशीन पीछे ले ली! कुछ नहीं मिला था, वो ये जानता था, बस उसके बाद अपनी मज़दूरी लेकर, चला गया!
और अब रह गए हम वहाँ! मैं और शर्मा जी! "आओ ज़रा" मैंने कहा, "चलिए" वे बोले, हम उस जगह गए अब जहां खुदाई हुई थी! वहां पत्थरों से बनी कुछ दीवारें निकली थीं, कुछ दीवारें अभी भी ज़मीन के अंदर ही थीं, बस, इतना कि हमे अब राह मिल गयी थी जिस से हम आगे बढ़ पाते! "ये दीवारें हैं" मैंने कहा, "हाँ" वे बोले, "उधर आओ" मैंने कहा, "चलो" वे बोले, हम उधर गए जहां वो सुरंग होनी चाहिए थी! "यहीं होनी चाहिए सुरंग" मैंने कहा, "होनी तो यहीं चाहिए" वे बोले, "वो पत्थर हटवाओ ज़रा" मैंने कहा, "आओ" वे बोले, इस तरह से हमने एक पत्थर को बड़ी मेहनत से हटाया, जान निकल गयी उस पत्थर को हटाने में! लेकिन उस से एक फायदा हुआ, नीचे एक संकरा सा रास्ता दिखाई देने लगा था! "ये रही वो सुरंग" मैंने कहा,
"हाँ! वही है वे बोले, "टोर्च लाइए मैंने कहा, वे टोर्च लाये और मुझे दी, मैंने नीचे रौशनी डाली, नीचे कूड़ा-करकट सा पड़ा था, कपड़े से थे, कुछ गुदड़ियाँ सी थीं, सुरंग में उतरने के लिए रास्ता भी नहीं था, ऊपर से कूदते तो ऊपर चढ़ नहीं पाते! क्या किया जाए? सीढ़ी हम लाये नहीं थे! "आप एक काम करो" मैंने कहा, "बोलिए?" वे बोले, "दीप साहब से कहिये कि सीढ़ी का इंतज़ाम करें एक" मैंने कहा, "कहता हूँ" वे बोले और चले गए। मैं वही नीचे टोर्च की रौशनी मारता रहा, कुछ भी असामान्य नहीं लगा था! दीवारों के पत्थर भी झड़ने लगे थे, मशीन के बोझ से, कुछ पत्थर और मिट्टी भी नीचे गिर गयी थी! कुछ नहीं दिखा तो मैं वापिस चलने को हआ, थोड़ा आराम करता, पानी पीता! माँ वापिस चलने को हुआ तो मेरे बाएं उस गड्ढे में से कुछ आवाज़ आई! मैं भागा उस तरफ, गड्ढे में झाँका, तो वहां कोई नहीं था! हाँ, अब सुरंग में प्रकाश फैला हुआ था! पश्चिम में जाते सूर्य की रौशनी अंदर आ रही थी। मैं करीब दस मिनट बैठा रहा वहाँ, और फिर वापिस हआ, आ गया वहीं पर, जहां चादर बिछी थी, शर्मा जी आ रहे थे, मैंने पानी की बोतल खोली, और पानी पिया। वे आ गए! बैठे। "कह दिया?" मैंने पूछा, "हाँ" वे बोले, "कहाँ गए हैं?" मैंने पूछा, "कह रहे थे कोशिश करते हैं" वे बोले, "ठीक है" मैंने कहा, हमने करीब एक घंटा इंतज़ार किया, और तब दीप साहब आये वहाँ, सीढ़ी नहीं मिली थी, हाँ, एक मोती सी रस्सी ले आये थे वे! इस से भी काम बन जाता! मैंने रस्सी ले ली, और दो दो फीट पर एक एक गाँठ लगा दी उसमे, इस से नीचे उतरा जा सकता था! अभी दिन का अवसान होने में समय था, इसीलिए फौरन ही जांच करने के लिए दौड़ पड़े! उस गड्ढे के पास एक पेड़ था, कीकर का पेड़, वहां रस्सी में दौबल-गाँठ मारी, और ले आये उसको उस सुरंग के मुहाने तक,जहां हमने खुदाई करवाई थी! अब तय ये हआ कि मैं नीचे जाऊँगा, शर्मा जी, मेरे साथ फ़ोन पर सम्पर्क में रहेंगे! वे ज़िद कर रहे थे कि वो भी साथ चलेंगे, लेकिन मैंने मना किया उन्हें, नीचे जो रास्ता था वो संकरा था बहुत! कहीं कोई
मुसीबत होती, तो आफत आ पड़ती! मैंने उन्हें समझाया! और फिर मैंने दो विद्याओं का संधान कर लिया! एक मंत्र का भी, ये औलुष मंत्र है। कोई भी अशरीरी ताक़त आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती!
अब मैं नीचे उतरा! जैसे ही उतरा, ठंडी सी हवा आई! मेरे पाँव नीचे टिके, वे कपड़े ही थे, सूती से कपड़े, और कुछ बाल भी थे, मैंने सामने टोर्च की रौशनी मारी सामने! सामने घुप्प अँधेरा था! और पता नहीं कहाँ जा रहा था वो रास्ता! एक मन किया, आगे जाऊं, एक मन किया नहीं, वापिस जाऊं! आखिर में आगे चला, रास्ता बस तीन फ़ीट चौड़ा ही था, कहीं कहीं पत्थर पड़े थे वहां, सन्नाटा पसरा था वहां! फ़ोन बजा! फ़ोन उठाया, "कुछ दिखा?" वे बोले, "कुछ नहीं" मैंने कहा, "आ जाओ फिर ऊपर वापिस" वे बोले, अब इसमें ही भलाई दिखी! मैं वापिस हुआ, और जैसे ही वापिस हुआ, किसी की फुसफुसाहट आई, मैंने फौरन ही टोर्च उधर की, वहां कुछ नहीं था! नीचे वो वस्त्र और बस दीवारें! और कुछ नही! लेकिन फुसफुसाहट तो आई ही थी! मैंने गौर से देखा, टोर्च की रौशनी मारी सामने, कुछ नहीं था, और नीचे, वहां भी कुछ नहीं था, और तभी मेरी निगाह बायीं दीवार पर पड़ी। उस दीवार के मध्य से, किसी स्त्री की टांग बाहर निकली हुई थी! ऊपर जांघ तक! टांग मुड़ी हुई थी, टांग में, हंसली पहनी थी उसने, पाँव में माहवर लगाई हुई थी, कोई आठ फीट दूर होगी! मैं उसको ध्यान से देखने लगा!
और तभी दूसरी दीवार से, दायीं दीवार से, एक हाथ निकला, पूरा कंधे तक! ये तो बहुत ही अजीब सा दृश्य था! मित्रगण! उसके बाद तो उन दीवारों से, न जाने कितनी टांगें, और कितने ही हाथ, बाहर निकलने लगे। अब मैं पीछे हआ, फोन काटा नहीं था, और शर्मा जी लगातार 'हेलो,हेलो चिल्लाये जा रहे थे! "मैं आ रहा हूँ वापिस!" मैंने कहा,
और अब मैं भाग लिया आगे! पीछे मुड़कर नहीं देखा मैंने! रस्सी तक पहुंचा और चढ़ने लगा! मुझे लग रहा था कि कोई भी, किसी भिस माय, मेरी टांगें पकड़ लेगा और नीचे खींचेगा! हालांकि मेरी देह पोषित थी मंत्रों से! लेकिन इंसानी भय और उसकी देह का ये अपना ही रक्षण हुआ करता है! मैं जल्दी जल्दी ऊपर चढ़ा, मेरा हाथ खींचा शर्मा जी ने! मैंने साँसें थामी अपनी! और अब उन्हें सबकुछ बता दिया! वे भी घबरा गए थे!
"अब यहां आपको कुछ करना ही होगा" वे बोले, "हाँ, अब अन्य विकल्प नहीं" मैंने कहा! "अभी चलते हैं। वे बोले, "ये ठीक है" मैंने कहा, हमने रस्सी ऊपर खींच दी थी, लेकिन पेड़ से बंधे रहने दी! "नीचे तो बहुत बुरा हाल है!" मैंने कहा, "यहां तो हर तरफ ऐसा ही है" वे बोले! "चलो" मैंने कहा, हमने चादर उठा ली, कंबल भी और पानी की बोतल भी। और चल पड़े वापसी! "कल आते हैं यहां" मैंने कहा, . "हाँ, अब ऐसे ही बात बनेगी" वे बोले, "मैं आज रात कुछ और आवश्यक विद्याएँ साध लूँगा, और कल, एक महा-भोग के बाद,
यहां आ जाएंगे" मैंने कहा, "ये ठीक है" वे बोले, "छका के रख दिया है बुरी तरह से" मैंने झुंझला के कहा, "अब कल ही पता चलेगा!" वे बोले,
और जब हम बाहर आने ही वाले थे, कि एक आवाज़ आई, हम रुक गए, कोई हमारे दायें खड़ा था! हाथों में टोकरा सा लिए। "आना ज़रा?" मैंने कहा,
वे चल पडे. उस आदमी ने टोकरा रखा, ये आदमी भी पहलवान जैसा था! बहुत मज़बूत जिस्म का! हम आगे बढ़े, और वो पीछे हटा! और जब हम टोकरे के पास आये, तो लोप हुआ वौ! टोकरे पर कपड़ा पड़ा था, मैंने कपड़ा हटाया, तो उसके अंदर... ......... मैंने कपड़ा हटाया, तो उसमे एक पोटली सी पड़ी थी, पोटली भी अच्छी-खासी बड़ी थी। मैं नीचे बैठा, हाथ से उस पोटली को छुआ, तो कुछ कठोर सी वस्तु लगी उसके अंदर! अब मैंने उस पोटली को उठाया, और देखा, पोटली में वजन था,टोकरा भी कडे के पेड़ के रेशे और इंडियों से बना था, काफी बड़ा टोकरा था वो, मैंने अब वो पोटली खोली, शर्मा जी भी बैठ गए थे वहीं, पोटली एक सुतली जैसे धागे से बंधी थी, मैं उस उड़सी हुई सुतली को खोलने लगा, और फिर खोल लिया, अब उस पोटली का मुंह खोलने लगा, जब पोटली खुली तो मैंने अब उसका मुंह चौड़ा किया, अंदर झाँका, तो अंदर मिट्टी सीथी, कुछ पत्थर भी थे, मैंने वो मिट्टी
और पत्थर उस टोकरे में खाली कर दिए, और जब खाली किये, तो उसमे एक अजीब सी
वस्तु निकली, एक पात्र सा, ये पात्र कांसे का बना था, कांसे के उस पात्र पर, एक ढक्कन सा चढ़ा था, ये ढक्कन भी कांसे का ही बना था! रांगे से उसको जोड़ा गया था। मैंने उस पात्र को साफ़ किया,और जब साफ़ हआ वो, तो उस पर मुझे एक रेखा दिखाई थी, एक बड़ी सी रेखा, उस रेखा में स्वास्तिक के चिन्ह बने हुए थे, और वे सभी चिन्ह एक दूसरे से जुड़े हुए थे! एक बेहद ही कुशल पच्चीकारी का उत्कृष्ट नमूना था ये! उस रेखा के आसपास, वलय खाती
और भी अन्य रेखाएं बनी थीं! कुछ सीधी रेखाएं भी थीं, जिनमे पुष्प जैसी आकृतियाँ बनी थीं! बहुत ही सुंदर पात्र था वो! बस अब खोलकर देखना था उसको, रांगा अधिक मज़बूत तो नहीं होता, लेकिन इसमें यदि कोई बहुमूल्य वस्तु थी तो अवश्य ही रांगा भी मज़बूती से डाला गया होगा! मैंने एक चाबी से उसको खोलने की कोशिश की, बहुत जान लगाई, लेकिन नहीं खुला वो ढक्क्न! फिर शर्मा जी ने उस ढक्कन को हटाने की कोशिश की, उनसे भी नहीं हटा! "मैं अभी आया" वे बोले, "कहाँ चले?" मैंने पूछा, "कोई पेंचकस लाता हूँ गाड़ी में से" वे बोले, "ठीक है" मैंने कहा, वे गए और मैं उसी में जूझता रहा, कमाल का रांग लगाया था उन्होंने, जिसने भी लगाया था! और दिल में ये धड़कन और तीव्र आकांक्षा, कि इसमें है क्या! थोड़ी देर में ही शर्मा जी आ गए, ले आये एक पेंचकस बड़ा सा!अब उन्होंने कोशिश की, और इसी कोशिश में, उस ढक्कन और पात्र के बीच, एक छेद सा हो गया! बस फिर क्या था! मैंने घुसेड़ा उसमे पेंचकस और लगा खोलने! कभी मैं, और कभी शर्मा जी! और इस तरह से, वो ढक्कन हट गया! अब उसके अंदर देखा, तो अंदर भी एक पोटली निकली! काले रंग की!
अब उसको लगे खोलने! उसका धागा इतना लम्बा था कि जैसे हम उस पोटली के कपड़े को ही उधेड़ रहे हों! और आखिर में वो पोटली खोल ही ली! और उसमे से जो निकला, उसको देखकर तो आँखें ही हिल गयीं। ये एक कटा हुआ सा हाथ था, सूखा हआ, किसी किशोर का रहा होगा, कलाई से काट दिया गया था वो हाथ, हाथ में सिलाई हुई, हुई थी, जैसे कई उँगलियों और अंगूठे को सीला गया हो! मामला खोपड़ी के ऊपर से चला गया! अब कोई हमें ये हाथ क्यों
देगा? उसके पीछे क्या औचित्य है? कौन ऐसा चाहता है? और फिर, ये हाथ किसका है? और ऐसी नफासत से काहे रखा गया है? नए नए सवाल दिमाग में उपज गए!
अनचाही खेती सी हो गयी! "अब इसका क्या अर्थ?" मैंने पूछा, "पहले बीजक, फिर वो मदना, फिर अरसी, और अंट-शंट, और अब ये हाथ! क्या पहेली है
ये!" वे बोले, "डालो इसको पोटली में मैंने कहा, उन्होंने डाल दिया, "अब रख दो पात्र में मैंने कहा, "मुझे दो" मैंने कहा, अब मैंने वो पोटली और पात्र, वहीं रख दिए टोकरे में! "इसको लेना नहीं?" वे बोले, "यदि हमारे लिए ही भेजा गया है, तो ये कल भी यहीं होगा, नहीं हआ, तो ये कोई खेल है" मैंने कहा, "समझ गया" वे बोले, "आओ, अब वापिस चलते हैं"मैंने कहा, "चलिए" वे बोले,
और अब हम वापिस चले, पीछे मुड़कर देखा, तो टोकरा वहीं था! हम आ गए बाहर उस 'भूतिया-ज़मीन' से! आये वापिस, और जा बैठे गाड़ी में! अब दीप साहब से बात हई, और उनको बता दिया कि कल यहां एक क्रिया करनी होगी, और फिर हम यहां आएंगे! वे मान गए, अब हमने उन्हें वापिस चले को कहा, सीधे हमारे स्थान के लिए! उन्होंने खाने की ज़िद की, तो हमने समझा दिया कि खाना वहीं खा लेंगे। फिर भी रास्ते से, उन्होंने मदिरा की दो बोतलें और खूब सारा मसालेदार सामान बंधवा दिया! और हमें छोड़ दिया, अब उन्हें कल शाम को आना था वापिस! हम अंदर आये, और मैं अपने कक्ष में गया, शर्मा जी लघु-शंका त्याग के लिए अलग चले गए थे! मैं कमरे में आया, और धम्म से बिस्तर पर गिर पड़ा! तब तक शर्मा जी भी आ गए! उन्होंने पानी के लिए कह दिया था! सहायक आया और पानी दे गया! "हालत पस्त हो गयी" वे बोले, "साथ में दिमाग भी" मैंने कहा, "ऐसा नहीं देखा मैंने कुछ भी" वे बोले, "सच में" मैंने कहा, "वो टोकरा वहीं हुआ तो?" वे बोले, "हुआ तो क्रिया में रखेंगे"मैंने कहा, "अच्छा " वे बोले, "कैसा वीभत्स नज़ारा था वो" वे बोले,
"हाँ, बहुत ही अधिक मैंने कहा, तब मैं हाथ-मुंह धोने गया, और वापिस आया, शर्मा जी सामान खोल रहे थे, मैं सहायक को आवाज़ दी, तो वे बोले कि वो पानी लेके आ रहा है। पानी आ गया!
और हम हुए शुरू! खाया-पिया! कुछ और बातें इस बारे में ही! रात को कोई बारह बजे, मैं क्रिया-स्थल में पहुंचा, और विद्याएँ साध ली, मंत्र साधे, कुछ सामग्री भी रख ली बैग में, इसकी आवश्यकता थी कल! उसके बाद मैं स्नान करने के पश्चात सो गया, चार बज चुके थे, नींद आ गयी वो भी बहुत बढ़िया! सुबह हुई। फिर दोपहर! मैंने फिर से क्रिया-स्थल का रुख किया! और अब एक पूजन किया। इसमें गुरु-आज्ञा लेनी होती है,सो आज्ञा ली और उसके बाद,अपने ईष्ट को महा-भोग दे दिया। अब उनकी छत्रछाया में था मैं! शाम को, सात बजे, दीप साहब आ गए! उनसे बातें हुईं और हम अब चले। उन्होंने काफी सारा सामान खरीदा हआ था, वो आज काम आता हमारे लिए! मैंने अपना बड़ा बैग ले ही लिया था, और अब निकल पड़े! जब वहाँ पहुंचे, तो दस बज चुके थे! आज एक पेट्रोमैक्स भी था साथ में, ये बढ़िया किया था दीप साहब ने! टोर्च भी दो ले आये थे! "आओ शर्मा जी" मैंने अपना बैग उठाते हए कहा, "चलो" वो बोले, उन्होंने
दूसरा सामान उठा लिया था! "यहाँ रख दो सामान" वे बोले, मैंने रख दिया और अब वो पेट्रोमैक्स जला लिया। रौशनी हो उठी वहां! "आना ज़रा" मैंने कहा,
वो चल मेरे साथ! हम वहाँ चले जहां कल शाम हमने वो टोकरा छोड़ा था!! "ये यहीं है" वे बोले, "हाँ!" मैंने कहा,
"उठा लूँ?" वे बोले, "उठा लो" मैंने कहा,
और जैसे ही उठाया, उसमे एक सांप आ घुसा था। सांप देखते ही हाथ खींच लिया उन्होंने! "ये कहाँ से आ गया!" वे बोले, "कोई बात नहीं, एक लकड़ी ले आओ" मैंने कहा,
वे एक लकड़ी ले आये, बड़ी सी, मुझे दी, मैंने सांप को बाहर निकाल लिया, और छोड़ दिया एक तरफ, रुस्सेल्स वाईपर था वो! अधिक बड़ा नहीं था, लेकिन था जहरीला! "अब उठा लो" मैंने कहा, उन्होंने उठा लिया वो पात्र! "आओ मेरे साथ" मैंने कहा, अब हम एक जगह आ गए, यहाँ एक चादर बिछाई,और बैठ गए! "बैग में से थैला निकाल लो" मैंने कहा, उन्होंने निकाल लिया, दिया मुझे, मई उसमे से, तंत्राभूषण निकाले, और मंत्र पढ़ते हुए उनको धारण करवा दिए! और खुद भी पहन लिए! एक भुजबंध भी पहना! "पानी और गिलास निकाल लो" मैंने कहा, उन्होंने निकाल लिए। "अब बनाओ गिलास" मैंने कहा, उन्होंने बनाये दो गिलास! अब मैंने स्थान-भोग दिया, फिर ईष्ट भोग और खींच लिया वो गिलास! उन्होंने भी ऐसा किया और खींच गए गिलास अपना! "वो सामान निकाल लो" मैंने कहा, "ये भी?" उन्होंने छोटे बैग के लिए कहा, "हाँ, ये भी" मैंने कहा,
और फिर दो दो गिलास और खेंच लिए!! अब मैंने अलख में ईंधन झोंका! और एक और नयी क्रिया करने के लिए तैयार हआ, इसमें भी मुझे हाज़िर करना था बाबा बैज को, बाबा वैज क्या थे, क्या नहीं, कैसा व्यवहार करेंगे, क्या क्रोधित होंगे, या मदद करेंगे, कुछ पता नहीं था मुझे! मुझे तो बस मदना ने बताया था कि मैं यदि जानना चाहता हूँ तो बाबा वैज को जगाऊँ! अब बाबा वैज जागें,तो ही पता चले! जब मैंने क्रिया आरम्भ की थे तो आसपास मुझे लगने लगा था कि जैसे अन्य कोई और भी वहाँ उपस्थित हो गए हैं, जैसे वो जान गए हैं कि ये क्रिया कैसे हो रही है , किसलिए हो रही है। मेरी क्रिया आगे बढ़ी, और जैसे जैसे क्रिया आगे बढ़ी,मुझे घबराहट
होनी शुरू हई,अब बस कुछ ही पलों में, क्रिया समाप्त होनी थी, इसीलिए मैं भी चाक-चौबंद
सा बैठ गया था! आखिर में किया समाप्त हुई, और मैंने मांस का एक अभिमंत्रित टुकड़ा सामने फेंका। जैसे ही टुकड़ा नीचे गिरा, भक्क से आग जल उठी उसमे! कोई बहत बड़ी शक्ति वहाँ उपस्थित थी! हमारी नज़रों से ओझल! अब यहीं पर भय आ घेर लेता है। जब आपके देख-मंत्र काम नहीं किया करते,तब ऐसा ही होता है। और तभी भूमि की मिट्टीउड़ी, गुबार से उठ गए! औ जगह जगह आग निकलने लगी भूमि से! मैं खड़ा हुआ, अपना त्रिशूल उठाया, और चौबंद हो गया! शर्मा जी भी टकटकी लगाये सारा नज़ारा देख रहे थे। तभी चीत्कार सी उठीं। और वहाँ कुछ अन्य प्रेतात्माएँ प्रकट हुईं! सभी इधर उधर भागती हई! वे सभी अलग अलग जगह से आ रही थीं, और एक खास जगह आ इकट्ठा हई थीं। वे कुल पच्चीस या तीस रही होंगी। मैं समझ
गया था कि मैंने किसी बहुत ही शक्तिशाली बाबा को जगा दिया है! अब आगे क्या होगा, सोचकर, हाथ में पकड़ा त्रिशूल भी कांपने लगा था! कहीं कोई सिद्ध हए तो? तो क्या होगा? मैं कारण क्या बताऊंगा? सर में सवाल घुमने लगे! उनकी लताएँ मेरी सोच की दीवारों पर चिपट कर आगे बढ़ने लगी! और तभी जैसे एक महानाद सा हुआ! किसी ने जयकार सी की! और उन पच्चीस-तीस प्रेतात्माओं ने अपने बीच से किसी को रास्ता दिया! और जो मैंने देखा, शर्मा जी ने देखा, तो मारे भय के मुक्कु बंध गया! सामने से एक बाबा चले आ रहे थे, उम में कोई होंगे साठ वर्ष तक के, या पचास के भी हो सकते थे, उनका शरीर मालाओं और तंत्राभूषणों से ढका था। माथे पर पीला त्रिपुण्ड था, हाथ में एक बड़ा सा वृहद-त्रिशूल था, जिसका कुल फाल का परिमाप, मेरी छाती से भी बड़ा ही होगा! दूसरे हाथ में एक यमदण्ड था, यमदण्ड अब कोई नहीं रखता, कोई है भी तो कहीं दूरदराज में, ये उसके दर्जे की निशानी है, ये धातु से बना होता है, अस्त्र की तरह, लेकिन इसमें चमड़े के कई टुकड़े हआ करते हैं! जो लटकते रहे हैं, आप इसको कोड़ा। समझिए! शर्मा जी भी खड़े हो गए! उन बाबा की दाढ़ी-मूंछे काली-सफ़ेद मिश्रित थीं, दाढ़ी काफी लम्बी थी, जटाएँ बहत भारी और सर पर, जैसे टोकरा रखा हो, ऐसे रखी थीं, या बंधी थीं! वे मुझसे कोई बीस फीट दूर खड़े थे, हमें ही ताकते हुए! वे आगे चले, और वे प्रेतात्माएँ भी उनके सग चलीं! ये प्रेतात्माएँ, औरत और मर्द दोनों ही थे, लेकिन जिनसे हम मिले थे, वे नहीं थे इसमें। उन सभी ने काले वस्त्र धारण किया हुए थे, बाबा वैज ने भी काल ही वस्त्र धारण किया हुआ था। वे आगे बढ़े तो हम कांपे अब! बाबा का कद कोई सात फेट तो होगा ही, चौड़े कंधे थे, भुजाएं मोटी और मांसल थीं, जांघे किसी पेड़ के तने समान थीं, वे आगे बढ़ रहे थे, उन सभी के साथ और मैं किसी आशंका से पीड़ित होने लगा था! वे रुके, कोई दस कदम पर, मेरी तरफ यमदण्ड किया, मुझे ओ कोड़े का सा आभास हुआ अपनी छाती पर, ऐसा कि जैसे चमड़ी खींच ली हो एक ही बार में। वे आगे बढ़े, कोई चार फ़ीट
और, अब मई उनका चेहरा देखा, वे क्रोध में नहीं थे! मेरी आशंका ने दम तोड़ा अब! भय ने भी अपना स्थान छोड़ने के लिए तैयारी कर ली थी, मैं झट से हाथ जोड़ लिए उनके! शर्मा जी ने भी! "कौन हो तुम?" एक गरजदार आवाज़ में पूछा उन्होंने! मैंने अपना सम्पूर्ण परिचय दे दिया उन्हें! मन में पाप नहीं था, इसीलिए सब बता दिया था मैंने! "आप ही बाबा बैज हैं?" मैंने हकलाती आवाज़ में पूछा, "हाँ, क्यों जगाया मुझे?" उन्होंने पूछा, "मुझे....मदना ने बताया था" मैंने कहा, उन्होंने जैसे ही नाम सुना मदना का, आँखें चौड़ी हो गयीं उनकी! "किसलिए? क्या प्रयोजन है?" उन्होंने पूछा, "यहां एक बाबा आये थे मोहन, उनकी मृत्यु हो गयी, ऐसी ही किसी प्रेतात्मा ने मार डाला उन्हें, मैं यही जानने आया हूँ" मैंने कह दिया, "मदना" वे बोले, "मदना ने ही मारा होगावे बोले, "लेकिन बाबा क्यों?" मैंने पूछा, "जान जाओगे" वे बोले, वे चुप हुए, और अपना त्रिशूल भूमि में गाड़ दिया, और उसकी टेक ले, वो खड़े रहे, मुझे देखते हुए, फिर अपना त्रिशूल छोड़ा, और सामने आये, मेरी कंपकंपी छूटी! वे आये, और ठीक मेरे सामने खड़े हो गए, मैं उनके कंधों तक आ रहा था, मेरी भुजाएं तो सरकंडे समान लग रही थीं उनके आगे! उनकी विशाल सी छाती में मेरे जैसे दो समा सकते थे। उनका
चेहरा बहुत चौड़ा था, माथा बहत प्रबल! उन्होंने हाथ उठाया, मेरे सर पर रखा, आहिस्ता से,
और मेरी आँखें बंद हो गयीं। उसके बाद...............उसके बाद मैं नीचे गिर पड़ा! कुछ ही पलों में आँख खुली मेरी, और मैंने ऐसा व्यवहार किया जैसे कि मैं अनजान और अज्ञात सा व्यक्ति हैं! क्या कर रहा हूँ मैं वहां? शर्मा जी हैरान थे। मैं उनको भी नहीं पहचान रहा था। चारों तरफ देखता था, और फिर से मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया, और मैं फिर से गिर पड़ा! जब आँख खुली, तो वहां शर्मा जी के अलावा और कोई नहीं था! अचानक से सब याद आ गया! मुझे उस मूर्छा-अवस्था में कुछ दिखाई दिया था। कुछ विशेष से स्थान, कुछ विशेष से व्यक्ति, जिन्हे मैं अब पहचान सकता था! सच में, मैं पहचान सकता था उन्हें! बाबा वैज ने मुझमे कुछ उत्तरों के कण भर दिए थे! जैसे मेरे हाथ नक्शा लग गया था किसी स्थान का! मुझे एक आवाज़ अभी तक याद थी, बाबा वैज की ही आवाज़ थी वो!
'अजंधा-प्रवेश करो!' अजंधा-प्रवेश, ध्यान की एक विशेष अवस्था है, ये तांत्रिक ध्यानावस्था है, इसमें प्रवेश हेतु, एक क्रिया की आवश्यकता पड़ा करती है, और ये क्रिया, मात्र अमावस की रात को ही सम्भव है! अमावस आने में अभी दो दिन थे। मैं अब विचलित होने लगा, शर्मा जी बार बार मुझसे, यही पूछते रहे कि मैं ठीक हूँ या नहीं? "बाबा वैज कहाँ गए?" मैंने पूछा, "चले गए थे वो तभी के तभी" वे बोले, अब समझ आ गया कि हआ क्या था! मैंने अब शर्मा जी को सब बता दिया, कि मुझे दो दिन बाद यहीं इसी स्थान पर अजंधा प्रवेश करना है! और उसके बाद एक एक रहस्य खुलते चले जाएंगे। यहां क्या हुआ था, सब पता चल जाएगा! बाबा लहटा, बाबा त्रिभाल, वो मदना और बाबा वैज, सब के विषय में मैं जान सकूँगा। अब हम वहाँ से चले वापिस, अब अमावस को ही आना था यहां, उस प्रवेश हेतु मुझे अपने आपको तैयार भी करना था, अतः, हम उस रात दीप साहब के घर पर ठहरे, और फिर सुबह अपने स्थान पर चले गए! इन दो दिनों में मैंने अपने आपको तैयार कर लिया! शर्मा जी से कह दिया, कि जब भी मैं कुछ बोलूं उस प्रवेश के बाद, तो उसको एक कागज़ पर लिख लें, क्योंकि मैं उनको नहीं सुन सकता था, उनको क्या, किसी को भी नहीं। मैं मूर्छित-अवस्था में पहुँच जाऊँगा! उन्हें मेरी देह को सुरक्षित रखना होगा, कोई कीड़ा-काँटा मुझे काटे नहीं! वे ये कार्य भली-भांति जानते थे! मुझे न पर पूर्ण विश्वाश था!
और फिर दो दिन बीत गए! मैं अपने स्थान से चल पड़ा शर्मा जी के साथ, दीप साहब लेने आये थे, उनके मुलाक़ात हुई, हाल-चाल जाने गए! और हम चल दिए उनके साथ उस शाम को, उस स्थान के लिए! हम जा पहुंचे वहां!
आज मुझे वो स्थान, जाना-पहचाना सा लग रहा था। जैसे मैं न जाने कब से जानता होऊ इस बारे में कुछ लोग जो खो गए हैं, इस भौतिक उजाले से दूर, अन्धेरी दुनिया में हैं, उनसे मिलने का समय आ चुका है! मैं और शर्मा जी, एक चादर लेकर, और मैं अपन सारा सामान लेकर, जा पहुँहे, उसी जगह जहां दो दिन पहले हमने क्रिया की थी! साफ़-सफाई की, जल छिड़का, पूजन किया! और जो भी आवश्यक कार्य थे, सब पूर्ण किये! "लो शर्मा जी" मैंने कहा, मैंने उन्हें
तंत्राभूषण दिए थे! उन्होंने ले लिए, मैंने अपने भी निकाल लिए, और मंत्र पढ़ते हुए, उनको भी पहनाये, और
स्वयं भी पहन लिए!
"शर्मा जी?" मैंने कहा, "हाँ?" वे बोले, "दुआ करें कि आज ये कार्य हो जाए" मैंने कहा, "हाँ हाँ, क्यों नहीं" वे बोले,
और दोनों हाथ जोड़कर, उन्होंने कुछ माँगा उस ब्रहमेश्वर से! "मैं जब क्रिया आरम्भ अकरूंगा, आप इंधन झोंकना" मैंने कहा, "अवश्य" वे बोले, "एक बात और" मैंने कहा, "क्या?" वे बोले, "जब मैं अजंधा-प्रवेश करूँगा, तो तब आप कहीं नहीं जा सकते, लघु-शंका के लिए भी नहीं" मैंने कहा, "जानता हूँ" वे बोले! अब सारा सामान सजाया, और नौ दीये लगा दिए! "ये एक एक दीया चारों दिशाओं में लगाइये, मैं कोणों में लगाता हूँ" मैंने कहा, "जी' वो बोले,
और एक एक दिया उन्होंने चारों दिशाओं में लगा दिया, मैंने चारों कोणों में लगा दिए,
और एक जो बचा, वो हमारे सामने ही लगा दिया था। अब किया महानाद! अलख उठायी! गुरु-नमन, गुरु-आज्ञा, श्री महाऔघड़ का वंदन आदि सब किया! और अघोर को नमस्कार किया! फिर देह को सजाया! श्रृंगार किया! त्रिपुण्ड धारण किये।
और क्रिया आरम्भ कर दी। शर्मा जी, ईंधन झोंकते जाते! मित्रगण! कोई एक घंटे के बाद, क्रिया पूर्ण हुई, और जैसे ही मैं उठा, सामने कोई दिखा! वो मदना था, मैं चल पड़ा उसके पास! वो मुझे देख, सामने आया। रुका, और मैं पहुंच गया वहाँ पर! "मदना?" मैंने कहा,
"हाँ" वो बोला,
आवाज़ में दर्द था, चेहरे पर भय! "क्या बात है मदना?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं" वो बोला, "मदना, मैं अजंधा-प्रवेश करने वाला हूँ" मैंने कहा, "हाँ, जानता हूँ" वो बोला, "मुझे बाबा वैज ने कहा" मैंने बताया, "जानता हूँ" वो बोला,
अब मैं चुप हुआ, वापिस जाने को था कि, मेरा कंधा पकड़ लिया उसने, "क्या बात है मदना?" मैंने पूछा, "ये" वो बोला, अपना हाथ आगे करके, "ये क्या है?" मैंने पूछा, "लो" वो बोला, मैंने हाथ आगे किया, उसने अपनी मुट्ठी मेर हाथ में खोल दी, ये तो स्वर्ण की चैन सी थी, गोल-गोल दाने थे उसमे, भारी भी बहुत थी! "इसका क्या करना है?" मैंने पूछा, "जान जाओगे" वो बोला, "मुझे बताओ?" वो बोला, "जान जाओगे" वो बोला,
और पीछे हटा, और फिर लोप हुआ! मैं भी वापिस, अपने क्रिया-स्थान पर आ गया! मैं वहां पहुंचा तो वो चैन मैंने शर्मा जी को दे दी, शर्मा जी ने वो चैन सामने रखे थाल के अंदर रख दी, कम से कम सौ या सवा सौ ग्राम की होगी वो चैन, कौन पहनता होगा ऐसा भारी भरकम ज़ेवर! इसके लिए तो गरदन नहीं, पेड़ का तना चाहिए! मैंने अब कुछ और मंत्र पढ़े और फिर अपनी देह को पोषित किया, एक जगह जहां मैंने चादर बिछाई थी, अब वहां लेट गया, मेरा दम सा घुटा और मैं मुर्छित हो गया! ये सब उन मंत्रों का प्रभाव था! शर्मा जी कागज़ लेकर, पेन लेकर मेरे सिरहाने आ बैठे थे। इस ध्यानावस्था में मेरी आँख खुली, भौतिक आँख नहीं! सप्त-आँख! ये हम सभी के पास है। लेकिन हम इसका प्रयोग करना
नहीं जानते! आप समूचे विश्व का भमण कर सकते हो इस से! समस्त ब्रह्माण्ड में भ्रमण कर सकते हो! आप जहाँ जाना चाहें, जा सकते हो! आपको आपकी देह नहीं दिखाई देगी, लेकिन आपको अपनी आँखों से जैसा दीखता है, वैसा देख सकते हो। छ सकते हो, सुगंध ले सकते हो! वही सुप्त-आँख मैंने जागृत की थी! मैं उसी स्थान पर खड़ा था, लेकिन वहाँ कोई नहीं था! न तो मैं! न शर्मा जी! न ही कोई प्रेतात्मा! कुछ नहीं था वहाँ! दिन का प्रकाश था वहाँ! लेकिन आकाश में सूर्य नहीं थे! वहाँ भौतिकता तो थी, लेकिन अपने अति-सूक्ष्म रूप में! अब मैं इस विषय में अधिक नहीं पडूंगा, नहीं तो ये विषय बहुत ही गूढ़ और विस्तृत हो जाएगा! तभी मेरे कानों में, कुछ लोक-गीत के से स्वर गूंजे! कई स्त्रियां, एक समूह बना कर, जा रही थीं, मैं वहीं की ओर चला। उनके पास पहचा, आसपास पानी भरा पड़ा था, कई गड्ढे पानी से लबालब थे, वे स्त्रियां एक पगडंडी पर चल रही थीं, जो कुछ ऊंचाई पर थी, सामने एक स्त्री, सर पर कलश ले कर जा रही थी, जैसे कुआ-पूजन हो! उनके स्वर बहुत सुरीले से थे! उनकी वेशभूषा ग्रामीण थी, सभी ने चूंघट किया हुआ था, कोई पुरुष आ रहा होता, तो रुक जाता था, और उन्हें रास्ता दे दिया करता था, पुरुषों के भी वेशभूषा ग्रामीण ही थी! वे स्त्रियां करीब पच्चीस तो रही होंगी! मैं उनके पीछे पीछे चल पड़ा! जहां वो जाती, मैं जाता, जहाँ वो मुड़ती, मैं मुड़ जाता था, मैं तो वहाँ भौतिक रूप में नहीं था, लेकिन फिर भी वहीं था! यही है अजंधा-प्रवेश! वे औरतें एक तरफ चलीं, वहां कीचड़ थी, इसीलिए कुछ उछल कर पार करतीं, तो कुछ लांघ कर, कलश वाली स्त्री से कलश ले लिया गया था, उन्होंने फिर से समूह बनाया, और चल पड़ीं, कुश के घास दोनों तरफ लगी थी, हरी हरी, बड़ी बड़ी घास! अचानक से मेरी नज़र एक जगह पड़ी! वो एक मंदिर था! सफ़ेद रंग का मंदिर, थोड़ी ऊंचाई पर बना था, गौर से देखा, तो ये वहीं खंडहर था, जो मैंने अपनी भौतिक आँखों से देखा था! वो अब जीवंत था! उसके साथ ही एक छोटी कुइयां भी थी, उस पर घिरनी लगी थी, लेकिन ये कुइयां अब इस संसार में नहीं थी, वो डब्ड चुकी थी मिट्टी और पत्थरों के बीच! आज तो नामोनिशान भी नहीं था उसका, और अब, जब मैं उसको देख रहा था, तो अपनी शान और पवित्रता को थामे हुई थी, गर्व से! वे औरतें वहीं रुकी! लोकगीत जारी रहा, मैं सब देख रहा था!! सब सुन रहा था! तभी मंदिर से बाहर दो लोग आये, एक पंडित जी थे, और एक उनका कोई सहायक, उन्होंने उस कलश वाली स्त्री से कुछ बात की, और अब पूरा कर्म-काण्ड करवाया, एक बूटी सी औरत ने, अपने घाघरे पर लटकी, एक पोटली से, कुछ सिक्के दिए पंडित जी को, सिक्के सोने के थे, या चांदी के, नहीं दिखा था! मुट्ठी से मट्टी में दिए गए थे सिक्के!! वे औरतें अब वापिस चलीं, गीत गाते हुए, मैं अब नहीं चला उनके पीछे, मैं आगे चला, वो मंदिर देखा, पत्थरों से बना, एक भव्य मंदिर था! ध्वज लगा था ऊपर, वायु नहीं थी तो शांत हीथा। मंदिर में एक ही
दरवाज़ा था, कोई पंद्रह फ़ीट का रहा होगा, किसी रजवाड़े या सेठ ने बनवाया हो, ऐसा लगता था! तभी एक व्यक्ति आया वहाँ, पहलवान जैसा! मंदिर को प्रणाम किया, ऊपर चढ़ा और वो जो सहायक था, वो बाहर आया, उस आदमी ने कुछ दिया उसको थैले में, उस सहायक ने रख लिया, कुछ बातें हुईं उनके बीच, मैं नहीं सुन सका, करीब नहीं था मैं उनके इतना! बस इतना
सुना, नरसिंहपुर, वो भी तब, जब वो आदमी लौट रहा था तो तेजी से बोला था! मुझे नहीं पता था ये नरसिंहपुर है क्या? कोई गाँव होगा या कोई कस्बा! शायद! लेकिन मुझे वो नहीं दिखा, जो मैंने देखना चाहा था, मैं उस मंदिर से आगे चला, रास्ते में बहुत पानी भरा था, रास्ता भी बेहद खराब था, खेत भी नहीं थे वहां, जंगल ही जंगल था, मैं चलता रहा, मैं न तो गीला ही होता था, और न ही उस कुश घास का शिकार! नहीं तो काट दिया करती है वो! मैं एक ऐसी जगह आया, जहां पर एक नदी सी बह रही थी, ये शायद बीजक वाली नदी थी, बरसाती नदी थी वो, कहीं चौड़ी और कहीं संकरी, कहीं कहीं तो ट्टी हुई थी, बीच बीच में टापू से बने थे, और रास्ता भी था, कोई भी गुजर सकता था। तभी पीछे से मुझे कुछ आवाजें आयीं, जैसे घुड़सवार आ रहे हों! और वो भी कई सारे! और यही हआ, करीब दस घुड़सवार गुजर गए धड़धड़ाते हए! सभी ने बुक्कल मार रखा था, वे नदी के उस रास्ते से, पानी बिखेरते हए दौड़ गए! और तभी मेरी आँखों के सामने अँधेरा छाया!
और मैं लौटा अपने संसार में! उठ बैठा!! शर्मा जी ने मेरी कमर पर हाथ फेरा, मैं तेज तेज सांस ले रहा था!! "क्या हुआ?" वे बोले, "कुछ नहीं" मैंने कहा, "कोई दिखा?" वे बोले, "नहीं" मैंने कहा,
और अब तक जो देखा था, वो बता दिया, और अब सामान्य हो गया था! "वो, वही मंदिर है, नदी इसके पीछे ही बहती है" मैंने कहा, "अच्छा" वे बोले, "लेकिन कोई दिखा नहीं?" वे बोले, "कोई भी नहीं" मैंने कहा, हमारे दीये जल रहे थे और बहुत अच्छे लग रहे थे! उनका मद्धम प्रकाश कई कीटों के लिए कौतुहल का विषय बन गया था। कई टिमटिमा रहे थे! मैं फिर से लेट गया।
और मंत्र पढ़ने लगा! और तभी मेरी छाती पर कुछ गिरा!! मैं उठ गया! मंत्रोच्चार टूट गया था, मैंने वो वस्तु उठायी, ये एक कंठ-माल था, किसी ने फेंका था मेरे लिए! कि मैं धारण कर लूँ, लेकिन फेंकने वाला था कौन? शायद मदना ही होगा! वही होगा! मैंने कंठ-माल धारण कर लिया, ये
मनके से थे, काले रंग के, मज़बूत सूत के धागे में पिरोये हुए थे! "मदना?" वो बोले, "हाँ, वही होगा" मैंने कहा, मैं फिर से लेटा, ध्यान लगाया, और मेरी साँसें तेज हुईं, और कुछ ही पलों में, मैं भौतिकता छोड़, सूक्ष्म-भौतिकता में पहँच गया। समय शाम के करीब का था, मैं किसी गाँव के प्रवेश रास्ते पर खड़ा था, लेकिन गाँव कौन सा था, ये नहीं पता, आज तक नहीं पता! हाँ, इतना कि बाहर एक कुआं था, चारों और गोल चबूतरा बना था, उसमे गोल गोल सीढ़ियां बनी थीं पत्थरों की, साथ में पीपल के बड़े से पेड़ थे वहाँ! मैं अंदर चला, ग्रामीण माहौल था वहाँ! इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आ रहे थे, कुछ खेतीहर रहे होंगे वे लोग, अब लौट रहे थे, घरों में से, घर जो कि कच्ची मिट्टी से बने थे, मोटी मोटी दीवारें थीं उनकी, छप्पर पड़े हुए थे उनपर, धुआं सा निकल रहा था, शायद चूल्हे चढ़े हों! मैं यहाँ क्यों आया? किसलिए?
यहां मेरा क्या काम? वो भी इस गाँव में? तभी कोई पांच-छह घुड़सवार दिखे, आ रहे थे गाँव में से ही, बुक्कल मारे, ये वही घुड़सवार रहे होंगे, जो मैंने उस नदी के पास देखे थे! वे एक जगह
रुके, एक घर के आगे, घर उस गाँव के हिसाब से अच्छा बना था, बाहर चित्रकारी सी बनी थीं। खड़िया जैसे सफ़ेदज्योमितीय आकार से बने थे! एक घुड़सवार उतरा, घर के दरवाजे पर लगे बड़े से कन्दे को बजाया, और पीछे हट गया। उसके पास दो पोटलियाँ थीं, कोई आदमी बाहर आया, आदमी ने सफ़ेद रंग का साफा बाँधा था, वो उन सभी को अंदर ले गया, एक एक करके! और कोई थोड़ी देर बाद, वे सभी बाहर आये, और जो सबसे आखिर में बाहर आया, एक पोटली लेकर, उसको मैंने पहचान लिया! मैं चौंक पड़ा!! वो मदना था!! मदना! सजीला सा युवक, गठीला सा युवक!
आँखों में चमक लिए हए, काजल लगाया हआ था उसने! वो घोड़े पर चढ़ा और हो गए सभी रवाना!! मेरे सामने से ही गुजरे! मैं भागा उनके पीछे, लेकिन तभी ठोकर सीखायी, अँधेरा
छाया और मैं वापिस अपने संसार में!
आँखें खुल गयीं! साँसें धौंकनी जैसी तेज! शर्मा जी ने थाम लिया मुझे! मेरी कमर पर हाथ फेरा! माथे पर फेरा!
और पानी की बोतल दे दी मुझे खोलकर! मैंने पानी पिया!
और साँसें नियंत्रित की अब! "कोई दिखा?" वे बोले, "हाँ!! हाँ!" मैंने कहा! "कौन?" वे बोले, "मदना!" मैंने कहा! "मदना?" वे चौंके! "हाँ मदना!!" मैंने कहा, "और कोई?" उन्होंने पूछा, "और कोई नहीं" मैंने कहा, मुझे पसीने आ गए थे बहुत! पसीने पोंछे! कुछ देर ऐसे ही बैठा! "मैं कोई नाम लिया?" मैंने पूछा, "हाँ, नरसिंहपुर" वे बोले, "अच्छा" मैंने कहा,
और अब उन्हें सारी बात बतायी, वो गाँव शायद यही था, नरसिंहपुर! "तो मदना नरसिंहपुर जाय करता था" वे बोले, "हाँ, कोई सामान की अदल-बदल करने" मैंने कहा, "सामान?" वे बोले, "हाँ, उनके पास दो पोटलियाँ थीं, वापसी आये तो एक ही थी। मैंने कहा, "अच्छा !" वे बोले, "अब यहां मामला गंभीर होता है" वे बोले, "कैसे?" मैंने पूछा,
"वो सामान क्या था?" वे बोले, "पता नहीं" मैंने कहा, "क्या धन?" वे बोले, "हो सकता है" मैंने कहा, फिर कुछ क्षण बीते!
उर मैं फिर से लेट गया! मंत्र पढ़े, आँखें बंद की!
और मेरा दम घुटा! मैं फिर से मूर्छित!!!
और इस बार मैं एक अजीब से स्थान पर था! खुला मैदान! बीहड़ सा क्षेत्र! दूर दूर तक कोई नहीं! न आदमी, न ही कोई जानवर! कोई पेड़ भी नहीं। बस झाड़ियाँ ही झाड़ियाँ! नागफनी,
और जंगली से पौधे थे वहाँ! और कुछ नहीं! कहाँ जाऊं,कहाँ न जाऊं, कुछ नहीं पता!
खैर, एक दिशा में बढ़ा मैं! वहाँ कुछ पेड़ से लगे थे! वहीं चला!
और एक जगह पहुंचा!! यहाँ कुछ जानवर से दिखे मुझे। मैं आगे चला, ये मवेशी थी, कुछ चरवाहे से भी दिखे, मैं वहीं चला! और एक व्यक्ति पर नज़र पड़ी मेरी! नेतपाल! वो मवेशी हांकता नेतपाल ही था! वो हाँक रहा था अपने मवेशियों को! मैं चला उधर ही, और तभी वो बैठ गया एक जगह, साथ लाये बर्तन में पानी था उसके, उसने बर्तन खोला और पानी पिया! फिर आँखों पर भी मारा! मैं और आगे चला......... नेतपाल सामने बैठा था, लकिन अभी तक
एक बात समझ नहीं आई थी, मदना तो पुत्र था बाबा लहटा का, तो फिर ऐसे काम क्यों कर रहा था? और फिर बाबा लहटा कहाँ थे अभी तक? ये पहेलियाँ बहत ही अजीब सी थीं, ये नहीं सुलझ पा रही थीं। नेतपाल पर ही नेत्र गढ़े थे मेरे! तभ एक और आदमी आया उसके पास, ये ठेठ राजस्थानी परिवेश था, और जो उनकी बोली थी, वो भी राजस्थानी थी! वे दोनों बातें उसी बोली में कर रहे थे, लेकिन
आजकी राजस्थानी से अलग थी ये भाषा, खड़ी बोली सी लगती थी! तो मैं क्या राजस्थान में था इस समय? हाँ! हो सकता है! वैसा ही भूगोल था वहाँ! वो नागफनी, वो कीकर के पेड़, हाँ, मैं राजस्थान में ही था! तभी कुछ आदमी और आये वहाँ! उन्हें देख, नेतपाल खड़ा हो गया, उसने किसी को आवाज़ दी, तो कोई लड़का आया भागा भागा, शायद दूसरी ओर था वो पहले! नेतपाल ने उस लड़के से कुछ कहा, और उन चारों आदमियों के साथ चल पड़ा, उन
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आदमियों के पास पोटलियाँ थीं, कुल चार पोटलियाँ! वे चले तो मैं भी चला! वे करीब एक किलोमीटर चले होंगे, कि एक डेरा सा दिखा!! ये डेरा ही लगता था। उसमे एक मंदिर भी था, लाल रंग का मंदिर, और उस मंदिर पर धनुष और बाण बने थे! काले रंग से। वे पाँचों के पाँचौ अंदर चले, मैं भी अंदर आ गया था! नेतपाल के संग आये आदमी एक जगह रोक दिए गए, और नेतपाल आगे चला गया, थोड़ी देर में जब आया, तो उनके संग दो व्यक्ति थे! एक मदना और एक कोई और! उनमे आपस में बातें हुई कुछ,और उस साथ आये आदमी ने, वो पोटलियाँ ले ली! और चला गया वापिस! और जब वापिस आया, तो दो पोटलियाँ लाया था, दोनों छोटी छोटी थीं, नेतपाल बहीं रुक गया, और वे चारों के चारों, वापिस चल दिए! अब नेतपाल को वो मदना लेकर चला अपने संग, और एक अहाते में बिछी चारपाई पर बैठ गए वे! और तभी वहाँ कोई आया, उसको देख सभी खड़े हो गए, ज़मीन से माथा लगाने लगे। वो यक़ीनन कोई बाबा था! काले रंग के चोगे में, भयानक सा लगता था! केश कमर तक थे, दाढ़ी बीच में से सफ़ेद थी, हाथों में मालाएं ही मालाएं थीं, गले में मालाएं ही मालाएं! आँखों मैं काजल लगा था, कमर में एक रस्सी बंधी थी, सन की सी रस्सी! शरीर भारी-भरकम, कद्दावर बाबा थे वो, उम कोई साठ की
