वो एक सुनहरी सी शाम थी! क्षितिज पर, सूर्यदेव की लालिमा छायी हुई थी! दिन भर के थके-मांदे सूर्यदेव अब अस्तांचल में विश्राम करने जा रहे थे! पृथ्वी पर दिवस का अवसान हो चुका था, आकाश में पक्षी अपने अपने घरौंदों की ओर उड़ चले थे! बगुले धनुष का आकार बनाये, अपने सर्वश्रेष्ठ साथी के पीछे पीछे उड़ते जा रहे थे! अब विश्राम का समय था! मैं शर्मा जी के साथ बैठा था, ये रास्ते का एक ढाबा था, चारपाई बिछी हुई थी, हमारी तरह और भी मुसाफिर चाय आदि का लुत्फ़ ले रहे थे। हमने भी चाय के लिए के अपनी वो यात्रा रोकी थी! हम बदायूं से वापिस आ रहे थे! एक मेरे जानकार मुल्ला जी के बेटे का निकाह था, वही से दावत उड़ा कर वापिस आ रहे थे! अभी दिल्ली कोई एक सौ बीस किलोमीटर दूर थी, चाय की तलब लगी थी तो चाय पीने हम रुक गए थे! शाम घिर चुकी
थी, स्थानीय लोग भी अपने अपने घरों की ओर लौट रहे थे, कोई ईंधन ला रहा था, तो कोई मवेशियों का चारा, तो कोई अपनी साइकिल पर, बाज़ार से कुछ सामान ले, वापिस घर जा रहा था! फलों वाले ठेले और चाँट-पकौड़ी वाले ठेलों पर अब हंडे जलने लगे थे! औरतें अपने अपने बूंघट काढ़े आ-जा रही थीं, कुछ ने सामान उठाया हुआ था, और कुछ रुक कर सवारी के इंतज़ार में थीं। ठीक सामने ही एक देसी शराब का ठेका था, वहाँ तो ऐसी भीड़ लगी थी कि जैसे कल ठेका बंद हो जाएगा! जैसे आज मुफ्त बंट रही हो! लोग वहीं अंदर घुसते, और आराम से बैठ कर मदिरा का आनंद लेते! बाहर एक ठेला लगा ता, उस पर उबले अंडे और ऑमलेट, और उबले चनों का सारा जुगाड़ था! लोग उसे भी घेर के खड़े थे! वो छोटासा कस्बा था जो अब जीवंत हो उठा था! ये है मेरा भारत देश! इसीलिए मैं स्वर्ग की भी कल्पना नहीं करता! इसकी मिट्टी से पावन तो गोरोचन भी नहीं! हमने चाय पी, और पैसे दिए उसके, पैसे खुले थे नहीं, तो वो खुले करवा लाया, दे दिए हमें! "भाई साहब, यहाँ अंग्रेजी ठेका है क्या?" मैंने पूछा, उस दुकानदार से, "हाँ, है न! यहां से आगे जाओगे तो उलटे हाथ पर पड़ेगा, कोई दो सौ कदम पर" वो इशारा करके बोला, "शुक्रिया" मैंने कहा, अब हम चले वहाँ से, गाड़ी में बैठे, और धीरे धीरे गाड़ी आगे बढ़ायी, कोई दो सौ कदम पर एक ठेका था! ठेके में सामने जाली लगी थी, और उस जाली में एक जगह थी, जहाँ से बस एक हाथ ही अंदर जा सकता था! शर्मा जी उतरे, और गए वहाँ, एक बोतल खरीद ली उन्होंने, और आ गए वापिस, बोतल मुझे पकड़ाई,मैंने पीछे सीट पर रख दी, और अब हम चले वहां से, आगे एक जगह, एक होटल था, यहाँ जुगाड़ हो सकता था, शर्मा जी उतरे और
चले अंदर, फिर मुझे इशारा किया, मैं समझ गया कि जुगाड़ हो गया है! गाड़ी को ताला लगाया, बोतल उठायी और चल दिए होटल में! अंदर एक जगह बिठाया उसने हमें, और खाने का आर्डर भी ले लिया, मैंने तो मसालेदार ही खाना था, तो बोल दिया, शर्मा जी ने दाल मंगवा ली, साथ में सलाद, उसने देर न लगाई, सारा सामान, बर्फ आदि सब दे गया! "लो जी! हो जाओ शुरू" मैंने कहा, हम शुरू हुए फिर!
खाना भी लगा दिया गया! खाना बढ़िया था! अच्छे से खाया, पैसे दिए, और अब चले वापिस! और इस तरह हम रात के दस बजे अपने स्थान पर पहुंच गए। वहां पहुंचे, तो पता चला, बाबा मोहन आये हए हैं। बाबा मोहन काशी के हैं, अक्सर दिल्ली आते समय मेरे पास से हो कर जाते हैं। मैं और शर्मा जी सीधे उन्ही के पास गए! नमस्कार हुई उनसे! उनके साथ उनका एक चेला
भी था, कपिल नाम है उसका, वे बहत प्रसन्न हए! उसने खाने आदि की पूछी तो बताया उन्होंने कि खाना तो खा लिया है, और 'प्रसाद' भी ग्रहण कर लिया है! अब मैंने उन्हें आराम करने की कही, बाकी बात बाद में सुबह! मैं अपने कक्ष में आ गया था, कपड़े उतार रहा था कि पूनम आ गयी अंदर, पूनम अभी कोई महीने भर पहले ही आई थी यहाँ, पूनम ने खाने की पूछी तो मैंने कहा दिया कि खाना तो खा लिया है हमने, और अगर उसने नहीं खाया है तो खा ले, टेढ़ा सा मुंह बना कर चली गयी वो! मुझे हंसी आ गयी उसकी इस हरकत पर! कपड़े बदले, हाथ मुंह धोये और पकड़ ली खटिया! तसल्ली से सोये हम! शर्मा जी मेरे साथ वहीं रुके थे! सुबह हुई साहब! नहाये-धोये हम!
और फिर चाय-नाश्ते का हुआ समय! पूनम ही आई थी, उस से चाय की कही, वो चली गयी चाय बनाने के लिए, अब तक बाबा मोहन और कपिल भी आ बैठे थे हमारे साथ! "और बाबा, कैसे हो?" मैंने पूछा, "कुशल से हूँ"वे बोले, "और कपिल तू?" मैंने पूछा, "कुशल से" वो बोला, "कहाँ जा रही है सवारी?" मैंने पूछा, "यहीं, मानेसर के पास" वे बोले, "अच्छा! कोई काम?" मैंने पूछा,
"हाँ, है एक काम" वो बोले, मैंने काम नहीं पूछा उनसे! "और बाबा चरण ठीक हैं?" मैंने पूछा, "हाँ, आजकल कलकत्ता गए हुए हैं। वे बोले, "अच्छा अच्छा!" मैंने कहा, अब तक चाय आ गयी! हमने अपने अपने कप उठा लिए, साथ में नमकीन और बिस्कुट थे, वही ले लिए! चाय बहुत बढ़िया बनायी थी, अदरक डाल कर! बहुत ही बढ़िया थी चाय! कोई साढ़े ग्यारह बजे, बाबा मोहन को खाना खिलाया, कपिल को भी, हमने भी खा लिया था, और तब वे चले गए थे वहां से, उनको हफ्ते में वापिस आना था, मेरे पास से ही होकर जाते वो! दोपहर में शर्मा जी भी चले गए! अब शाम को आते वो मेरे पास! मैं अपने कमरे में ही आराम कर रहा था कि पूनम आ गयी अंदर, "आओ पूनम, बैठ जाओ" मैंने कहा, वो बैठ गयी,आँखों में आँखें डाले। "गुस्सा हो क्या?" मैंने पूछा, "नहीं" वो बोली, "तो फिर?" मैंने पूछा, "कब जाएंगे?" उसने पूछा, "अच्छा! हाँ, चलो इस इतवार छोड़ आता हूँ तुम्हें" मैंने कहा, इतवार आने में अभी तीन दिन थे! "ठीक है?" मैंने कहा, "ठीक है" वो बोली, "यहाँ क्या परेशानी है?" मैंने पूछा, "कोई परेशानी नहीं" वो बोली, "मैं समझ गया!!" मैंने कहा! "क्या?" वो बोली, मैं हंसने लगा! "बताओ न?" उसने पूछा, "वो...अजय!" मैंने कहा, चेहरा लाल हो गया उसका! सर झुका लिया! "है या नहीं, सच बताओ!" मैंने कहा,
उसने सर हिलाकर हाँ कही! "वैसे लड़का अच्छा है! ब्याह की बात चलाऊँ?" मैंने कहा, चौंक पड़ी। अंदर ही अंदर, मन में लड्डू फूट पड़े। "उसके पिता बाबा रमिया मेरा कहा नहीं काटेंगे! मान जाएंगे!"मैंने कहा, शांत! शांत बैठी रही। "चलो ठीक है पूनम, इस इतवार छोड़ आता हूँ!"
मैंने कहा, उसने सर हिलाकर हाँ कहा! भोली-भाली है ये पूनम! अधिक पढ़ी-लिखी नहीं है! गाँव की है, लेकिन रूप-रंग में किसी से कम नहीं! देह ऐसी कि कोई भी देखे तो चंबक लग जाए नेत्रों को! "तुमने ये बात अपनी माँ से बतायी है?" मैंने पूछा, "हाँ" वो बोली, "मन ने क्या कहा?" मैंने पूछा, "कुछ नहीं कहती माँ" वो बोली, जानता था, किसलिए कुछ नहीं कहती, बाबा रमिया पहुंचे हुए थे और वो लड़का अजय, वो अपने पिता के नक्शेकदम पर ही था! और ये बेचारी पूनम! प्रेम कर बैठी थी उस से! "अजय प्रेम करता है तुमसे?" मैंने पूछा,
सर हिलाकर हाँ कही! "फिर चिंता न करो! आराम से रहो! इस इतवार चलता हूँ। मैं सामान भी ला दूंगा तुम्हारा, ठीक है?" मैंने कहा, सर हिलाकर हाँ कही फिर से! बिना नज़रें मिलाये उठी और चली गयी बाहर! एक हल्की सी हंसी, मेरे होंठों पर तैर गयी! उसी शाम को शर्मा जी आ गए थे, साथ साथ ही हमने खाना-पीना किया और फिर रात को शर्मा जी वहीं ठहरे, हमारी बातें होती रहीं, मैंने उनको बताया कि हमको इतवार को निकलना है हरिद्वार, इस पूनम को छोड़ कर आना है इसकी माँ के पास, वे राजी हो गए, उसके बाद हम सो गए! सुबह हुई तो हम फारिग हए, चाय-नाश्ता कर लिया था हमने, शर्मा जी चले गए थे उसके बाद, इस तरह शनिवार आ गया, शनिवार को मैं और शर्मा जी बाज़ार गए, कपड़े-लत्ते खरीदे उसके लिए, और जो भी औरतों का अटरम-शटरम हआ करता है, खरीद लिया था, पूनम को पसंद आता, मुझे यक़ीन था! सामान खरीद लिया तो वापिस हए, और अपना सामान भी खरीद लिया फिर! अपने यहां पहुंचे, और फिर सीधा अपने कक्ष में!
पूनम नज़र नहीं आ रही थी, मैं बाहर गया, आसपास देखा, तो कहीं नहीं थी, एक सहायक से पूछा तो पता चला कि कपड़े लेने गयी है, जो दिन में सुखाये थे! मैं वापिस कक्ष में आ गया फिर, सामान आदि एक तरफ रखा, सहायक से पानी माँगा पीने के लिए, वो पानी लाया और फिर पानी पिया मैंने, शर्मा जी ने भी पानी पी लिया था! आधे घंटे के बाद पूनम आई, कपड़ों का ढेर ले आई थी! "आओ पूनम, रख दो इनको यहाँ" मैंने कहा, उसने बिस्तर पर रख दिए कपड़े सारे, "सुनो, ये लो" मैंने कहा,
और उसके नए कपड़े उसको दे दिए! खुश हो गयी थी बहत! "अब जो पसंद आये ज़्यादा, वो पहन के चलना" मैंने कहा, वो मुस्कुराई और चली गयी अपना सारा सामान लेकर! अब शाम ढली! सहायक को बुलाया, सामान आदि मंगवाया और किया अपना काम शुरू फिर! बाद में खाना खाया और चैन की बंसी बजाई अपने पलंग पर! सुबह सुबह मैं उठा, बाहर आया, कुल्ला-दातुन की, तो पूनम आ रही थी, नमस्ते हुई उस से, वो स्नान कर आई थी, बाल खुले थे तो बाल फटकार रही थी! "चाय पिला दो पूनम, कल से तो तुम होंगी नहीं यहाँ!" मैंने कहा,
वो हंसी और चली गयी। इतने में मैं स्नान कर आया, जब आया तो शर्मा जी भी उठ चुके थे, उन्होंने भी अपने वस्त्र उठाये और स्नान करने चले गए! वे जब वापिस आये, तो चाय ला चुकी थी पूनम, साथ में नमकीन थी, और कुछ मड्डियां, चाय के साथ बढ़िया लगती हैं ये! "सुनो पूनम, चाय पी लो तुम भी, तैयार हो जाओ फिर, खाना रास्ते में ही खा लेंगे" मैंने कहा, उसने सर हिलाया, और चली गयी! कोई आधे घंटे में वो भी तैयार थी, और हम भी! अपने सिलेटी रंग के
कुर्ते और पाजामी में गज़ब लग रही थी पूनम! मैंने उसको घुमा-फ़िराक देखा, कुरता जंच रहा था उस पर! और इस तरह हम कोई नौ बजे से पहले, हरिद्वार जाने के लिए तैयार हो गए थे! और हम निकल पड़े, सहायक को बताया कि कल या परसों में वापिस आ जाएंगे! हम निकले अब वहां से, सुबह सुबह यातायात अधिक नहीं होता, आराम से चलते ही रहे, गाड़ी तेज नहीं भगाई थी हमने, रास्ते में एक जगह कोई बारह बजे, रुके, और भोजन किया हमने! और फिर आगे बढ़ गए! कोई तीन बजे हम हरिद्वार पहँच गए थे! यहाँ आकर हमने चाय पी, हल्का-फुल्का खाया, और फिर पूनम की माँ के स्थान की ओर चल पड़े। पूनम की
माँ बाबा हरदा के यहाँ रहा करती थी, हमें वहीं जाना था! और वो स्थान यहाँ से कोई पच्चीस किलोमीटर पूर्व में पड़ता था! हरिद्वार में अक्सर ही भीड़-भाड़ रहा करती है, यहीं अटक गए थे हम, किसी तरह से निकले हम वहां से और आ आगये एक खुले रास्ते पर। और इस तरह कोई पांच, सवा पांच बजे, हम बाबा हरदा के स्थान पर पहुँच गए! बाबा हरदा मेरे भी जानकार हैं, अतः उनसे मिलना सबसे ज़रूरी था! मैंने पूनम को भेज दिया था उसकी माँ के पास, कि हम अभी आ रहे हैं उनके पास! वो चली गयी थी, अपना बैग लेकर! और अब हम बाबा हरदा के पास चले मिलने! एक सहायक मिला, उस से बात हुई,
और वो हमको ले गया बाबा हरदा के पास! हम अंदर गए! बाबा पंखा झल रहे थे, बत्ती नहीं थी। नमस्कार हई उनसे! उनके चरण छुए! वे प्रसन्न हुए! "आओ बैठो वे बोले,
और सहायक को आवाज़ देकर, पानी मंगवा लिया! पानी पिया जी हमने वहाँ! "और, कैसे रास्ता भटके आज?" वे बोले, "ऐसे ही, वो प्रेमा की लड़की पूनम थी मेरे यहां, आई थी किसी के साथ, वो तो आगे चले गए, वो मेरे यहाँ रह गयी, आज उसे ही छोड़ने आया हूँ" मैंने कहा! "अच्छा! अच्छा!" वे बोले, बाबा हरदा से बहुत बातें हुईं, कुछ मेरे विषय में, कुछ उनके विषय में और कुछ अन्य जानकारों के विषय में, फिर हम उठे वहाँ से और चले पूनम से मिलने के लिए! वहाँ पहंचे, तो पूनम और उसकी छोटी बहन भी मिली अपनी माँ के साथ! बहुत खुश थी पूनम आज! आखिर माँ के पास आ गयी थी, और फिर अजय! कोई दूर नहीं था वहाँ से! अब उसकी माँ से बातें हुईं हमारी, उस लड़के अजय के बारे में, कुल मिलाकर यही निष्कर्ष निकला कि चाहती तो वो भी हैं कि पूनम का ब्याह उसी से हो जाए, लेकिन बाबा रमिया नहीं मानेंगे, किसी भी तौर पर नहीं। ये सत्य भी था, बाबा रमिया का रसूख था। उनका डेरा भी काफी बड़ा था, वहां उन्होंने कुछ ज़मीन कुछ पैसे कमाने के लिए रखी थी, वहां शादी ब्याह आदि हुआ करते थे, कुछ अन्य पार्टियां भी, आय बढ़िया थी उनकी, इसमें कोई शक नहीं था! लेकिन बात करने में कोई हर्जा नहीं था! मैंने यही कहा कि मैं स्वयं ही बात करूँगा! अब मैं उठा, तो पूनम आई मेरे पास! "हाँ! बोलो" मैंने कहा,
मुझे एक तरफ ले गयी वो! "बोलो?" मैंने कहा, "बात बन जायेगी?" उसने पूछा, "अवश्य!" मैंने कहा,
आंसू भर लायी आँखों में! "अरे! पागल हो क्या! चुप! मैंने कहा न, बन जाएगी बात" मैंने कहा,
आंसू पोंछे उसने! "उस से मिलना, लेकिन कुछ ऐसा मत करना कि हम सबकी इज़्ज़त खराब हो" मैंने साफ़ साफ़ का दिया था। वो चुप थी! "समझ में आया या नहीं" मैंने कहा, सर हिलाकर हाँ कही उसने! "अब चलता हूँ, कल जाने से पहले आऊंगा, कल सुबह बात करने जाऊँगा बाबा रमिया से" मैंने कहा!
अब मैं बढ़ा शर्मा जी की तरफ, मुझे देख खड़े हुए वो, प्रेमा ने हमें रोका कि आज तो यहीं ठहर जाते, पूनम ने भी ज़िद पकड़ी, लेकिन वहां नहीं रुकना था! अतः मना कर दिया। और फिर बाबा हरदा से भी मिले, उनसे भी बहाना किया कि कुछ ज़रूरी काम है, नहीं तो रुक जाते!
और इस तरह हम वहां से निकल पड़े! हाँ, जाने से पहले, मैं पूनम को कुछ पैसे दे आया था, कभी बात करनी हो तो कर लेती! अब हम सीधा अपने जानकार बाबा अर्क के पास पहुंचे! बाबा अर्क मलंग बाबा हैं! आयु में कोई साठ-पैंसठ वर्ष के हैं लेकिन पूरे दिलदार! सौ किलो सोने का बोरा, गंगा जी मैं बस इसीलिए फेंक दिया कि भारी बहुत था! ऐसे हैं बाबा अरूं! बाबा अर्जी ने सोने का बहुत काम किया है। वे यही काम किया करते हैं! और उन्होंने अपने ऐसे कुल नौ स्थान बना रखे हैं! हम वहीं पहंचे! बाबा अरु हमें देख ऐसे प्रसन्न हुए जैसे स्वयं हम उनके ही पुत्र हों! गले से लग गए, पाँव छूने का मौका ही नहीं दिया! हाथ पकड़ कर, बिठा लिया नीचे! "मुझे खबर क्यों नहीं की लाला?" मुझसे बोले, मुझे लाला ही बोलते हैं वो! शुरू से ही! अब उन्हें सारी बात बतायी! और ये भी कि किसी तरह से बाबा रमिया को मनवाओ! बाबा अरु ने आश्वासन दिया, कि अगर बेटी प्रेम करती है तो अवश्य ही मनाएंगे उन्हें! "चलो वो कल देखेंगे! थके होंगे, 'मालिश; करवाओगे?" उन्होंने पूछा,
मैं हंस पड़ा! उनकी मालिश का अर्थ आप समझ समझ गए होंगे! "अरे नहीं बाबा!" मैंने कहा, "कभी थकते नहीं हो क्या?" मेरे कंधे दबाते हुए बोले! "कैसी थकान! बल्कि मालिश के बाद हगी थकान!" मैंने कहा, "अरे एक बार देख तो लो!" वो बोले, इस से पहले मैं उन्हें कुछ कहता, आवाज़ दे दी अपने सहायक को! और किसी को बुला भेजा! अब मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम!! हालांकि मैंने बहुत मना किया। लेकिन नहीं माने!
और कुछ देर बाद, सहायक तो नहीं आया, लेकिन तो हष्ट-पुष्ट सी लड़कियां ज़रूर आ गयीं। उम होगी कोई चौबीस-पच्चीस वर्ष उनकी! उनके चेहरे देख कर लगता था कि जैसे गढ़वाल या नेपाल की तरफ की होंगी वो! "इधर आओ" बाबा बोले, अब अब हमारे रंगीन मिज़ाज हैं, सभी जानते हैं उनके इस स्वाभाव के बारे में! सारी वाजीकारक औषधियों के ज्ञाता हैं, ऐसी कोई औषधि नहीं होगी जो न बनायी हो और न खायी हो उन्होंने! वे आ गयीं उधर, "बैठ जाओ" वे बोले,
वे बैठ गयीं। "ये हमारे खासमखास हैं। इनकी मालिश होनी है!" वो बोले, हँसते हुए! अब मैं कभी उन्हें देखू, कभी शर्मा जी को, और शर्मा जी मुझे देख, मंद मंद मुस्कुराएं! बड़ी बुरी बीती! "अरे बाबा रहने दो!" मैंने कहा! "रहने कैसे दो!" वे बोले, मैंने माथा पकड़ा अपना! "निम्मी, ले जाओ हमारे साब को" बोले बाबा, वे मुस्कुराई और मेरा हाथ पकड़ लिया! लेकिन मैं उठा नहीं उनसे! वे कोशिश करती रहीं, लेकिन नहीं उठा मैं! "अरे बैठ जाओ वहाँ" मैंने कहा, उन्होंने छोड़ा
मुझे, और खड़ी हो गयीं! अब बाबा खड़े हए, मैं भी खड़ा हुआ! "मालिश करवा लो, फिर आराम से बैठेंगे!" बाबा ने कहा, हँसते हुए! मुझे भी हंसी आ गयी!
"नहीं बाबा! मालिश बाद में, पहले कुछ हो जाए!" मैंने कहा, "जैसी आपकी मर्जी वे बोले, अब वे लड़कियां जाने लगी! "रुको, सामान ले आओ" बोले बाबा, वे लड़कियां चुपचाप चली गयीं! मित्रगण ऐसी
लड़कियां सर्रा कही जाती हैं। इनका कोई लेन-देन नहीं क्रिया आदि से, ये बस 'थकावट दूर करने के लिए ही होती हैं! अक्सर असम की तरफ और नेपाल में चलन है इनका, जैसे देवदासी हआ करती थीं ठीक वैसी ही, लेकिन ये पैसे आदि नहीं लेती, मेरा कभी साबका नहीं पड़ा, अधिक ज्ञात नहीं! अब बाबा तो बाबा ही हैं! घाट घाट का पानी पिया है, खूब तैरे हैं। उन्हें पता हो तो पता हो!
खैर, सामान आ गया! ठंडा पानी, बर्फ, दो शराब की बोतल, सलाद, पकौड़ियाँ, था कुछ ऐसा ही, रख दिया उन्होंने वहीं गिलास आदि सब रख दिया! और चली गयीं वहाँ से! "पसंद नहीं आयीं?" बाबा ने पूछा, "क्या बाबा! आप भी!" मैंने कहा, "और भी हैं वैसे!" वे बोले, मैं हंस पड़ा! बाबा का अब इस उम में ये हाल है तो जवानी कैसी बीती होगी उनकी! पूरे अफ़लातून रहे होंगे। हमने खाना पीना शुरू किया, "वो आशीष कहाँ है?" मैंने पूछा, "लखनऊ में है" वे बोले, "पढ़ाई करने?" मैंने पूछा, "हाँ" वे बोले,
आशीष बेटा है उनका, उस से बड़ी लड़की का ब्याह कर दिया है बाबा ने! "बढ़िया है!" मैंने कहा, "ये कहाँ से पकड़ लाये?" मैंने पूछा, "ये! चन्द्र ले आया है नेपाल से!" वे बोले! "क्या बाबा! आप भी वैसे कमाल हो!" मैंने कहा!
खैर, हमारा खाना-पीना हो गया था। अब खटिया मिले तो चैन आये! बाबा ने मुझे एक कमरा दिया, अपने ही पास वाला, शर्मा जी को एक अलग कमरा दिया! अब मैं उनकी मंशा
ताड़ा! आज तो 'थकवा' के ही मानेंगे बाबा!
खैर अब जो हो सो हो! मैं चला गया अपने कमरे में! और कर लिया कमरा बंद अंदर से! कपड़े नहीं उतारे थे अभी, कहीं कोई मुसीबत' न आ जाए। इसलिए!
और यही हुआ! दरवाजे पर दस्तक हुई। मेरे कानों में बजी घंटी। आ गयी मुसीबत! मैं उठा, दरवाज़ा खोला, तो सामने एक बहुत सुंदर सी लड़की खड़ी थी! मन में लालच आया मेरे! लेकिन फिर काबू किया! वो अंदर अाना चाहती थी, लेकिन मैंने नहीं अाने दिया! बहुत समझाने पर, कि मेरी तबीयत खराब है, उसको भेजा! दरवाज़ा किया बंद! और अब कपड़े उतार लिए! अब सो गया आराम से, खर्राटे मार कर! अब कोई भी
आये, अब सुबह ही खुलना था दरवाज़ा!
और फिर सुबह हई। करीब नौ बजे नींद खुली! अब नहाये-धोये हम सभी गुसलखाने बाहर बने थे, वहीं नहाये! फिर दूध मिला पीने को! और फिर बाबा से बात हुई हमारी! "रात बढ़िया गुजरी?" पूछा उन्होंने, "हाँ जी! बहत बढ़िया!" मैंने कहा, "मालिश बढ़िया रही?" वे बोले, "बहुत बढ़िया!" मैंने कहा, शर्मा जी मुस्कुराएं! अब उन्हें बाद में ही बताना था कि हुआ क्या था!
हल्का-फुल्का खाया हमने, और हम कोई दस बजे, बाबा रमिया के स्थान के लिए निकल पड़े, बाबा अरु भी साथ ही चले, वहां पहुंचे, तो पता चला कि बाबा रमिया तो महीने बाद आएंगे! गए हुए हैं कहीं! अब क्या करते! हम पूनम के पास चले, उसको समझाया और उसकी माँ को भी, और उसके बाद बाबा अरु को उनके स्थान पर छोड़ा, और विदा ली हमने, अब दिल्ली वापसी करनी थी!
और हम दिल्ली वापिस हो गए तभी के तभी! रास्ते में रुके,खाना खाया, चाय आदि पी,और फिर वापसी हुए! कोई छह बजे हम वापसी अपने स्थान पहुंचे! शर्मा जी अगले दिन घर के लिए निकले, मैं भी साथ ही चला, अपने घर गया, दो दिन रहा
और फिर शर्मा जी से मिला, उसी दिन मैंने बाबा मोहन को फ़ोन किया, लेकिन फ़ोन किसी ने भी नहीं उठाया, हम अपने स्थान पर वापिस आ गए फिर! तीन दिन और बीते, बाबा मोहन का कुछ पता नहीं चला था, फिर से फ़ोन किया तो फ़ोन बंद मिला, न जाने क्या हुआ? अब तक तो वापिस आना था उन्हें?
तीन दिन और बीत गए, कोई पता नहीं, कोई खबर नहीं!
और अगले दिन कपिल का फ़ोन आया, उस से एक खबर लगी कि बाबा अस्पताल में भर्ती हैं, वो भी था लेकिन बाबा की हालत खराब है, मैंने पता लिया और उसी दिन अस्पताल जा
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पहंचा, वे गुड़गांव के एक अस्पताल में दाखिल थे, उनके साथ क्या हुआ था, मैंने पूछा तो कोई नहीं बोले! कपिल ने इतना बताया कि वो बता देगा, लेकिन अभी उसको बोलने में दिक्कत है, उसकी जीभ में टाँके लगे हैं। अब उनके साथ जो लोग थे, उनमे से दो ऐसे थे जिनका ही काम ये बाबा मोहन कर रहे थे, काम एक ज़मीन का था, उस ज़मीन में किसी ने
अकूत धन-दौलत होने की पुष्टि की थी!
और जब मुझे पता चला कि बाबा मोहन इसी काम के लिए गए थे, तो पहले तो गुस्सा आया, फिर हालत पर तरस, किसी शक्ति से टकरा गए थे वो, और अब ये हाल हुआ था उनका! ठीक चौथे रोज, बाबा की मौत हो गयी, उनके शरीर के अंदरूनी अंग बुरी तरह से कुचल गए थे, चिकित्स्क जितनी कोशिश कर सकते थे की थी! कोई हफ्ता बीता, कपिल के टॉके अब ठीक थे, मेरी उस से बात हुई, "क्या हुआ था?" मैंने पूछा, "सब कुछ ठीक था लेकिन.." वो बोला, "लेकिन क्या?" मैंने पूछा, "एक रात खुदाई शुरू हुई थी, ज़मीन में से आग निकली थी, बाबा ने बंद की, फिर पत्थर पड़ने लगे, वो भी बंद किया, और फिर किसी ने उमें उठाकर इतना मारा, इतना मारा कि मैं तो बेहोश हो गया था, और बाबा को क्या हुआ था, मुझे नहीं मालूम" वो बोला, अब वहां दो लोग थे, एक दीपांकर साहब और एक सुरेश जैन साहब, ज़मीन दीपांकर साहब की थी, अब मैंने उनसे पूछा, "क्या हआ था उस रात?" मैंने पूछा, "हमें नहीं मालूम जी वे बोले, "आप कहाँ थे?" मैंने पूछा, "घर पर" वे बोले, "आपको खबर किसने दी?" मैंने पूछा, "पुलिस ने खबर दी थी, बाबा सड़क किनारे पड़े हुए थे" वे बोले,
और पुलिस ने वहाँ लगे बोर्ड से उनका नंबर निकाला था, इस तरह खबर लगी थी उनको... अब मैं सोच में पड़ा, बाबा मोहन अच्छे-खासे, तांत्रिक थे, लेकिन वे भी चपेट में आ गया? कैसे खा गए गच्चा? कौन सी शक्ति है ऐसी जो बाबा मोहन को लील गयी? कपिल तो बताने से रहा, और दीपांकर और सुरेश को कख नहीं मालूम! तो अब बेहतर यही था कि स्वयं उस ज़मीन की जांच की जाए! मैंने इस विषय में दीपांकर साहब से बात की, "दीप साहब?" मैंने कहा,
"जी?" वे बोले, "मैं आपकी ज़मीन देखना चाहता हूँ" मैंने कहा, "जी ज़रूर" वे बोले, "कब दिखाएँगे?" मैंने पूछा, "आज ही चलिए" वे बोले, "ठीक है, चलते हैं" मैंने कहा, कपिल के रहने और देख-रेख के लिए पूरे इंतजाम कर दिए गए थे, अब वो स्वास्थ्य लाभ ले रहा था, मैं जितना जानना चाहता था, उतना तो नहीं बता पाया था वो, लेकिन फिर भी कुछ न कुछ अवश्य ही जान गया था, जैसा उसने देखा था वहां, उसने यही बताया था की पहले ज़मीन में से आग निकली थी, फिर पत्थर पड़ने लगे थे, और जब पत्थर पड़ने बंद हए, तो उन दोनों को किसी ने उठा-उठा के पटका था, इन्ही चोटों के कारण बाबा मोहन घायल हुए थे बुरी तरह और अंदरूनी चोटों के कारण उनकी मौत हई थी! कोई आधे घंटे के बाद, हम सभी निकले उस ज़मीन को देखने के लिए, ये ज़मीन मानेसर के पास थी, और काफी बड़ी ज़मीन थी वो! हम पहुँच गए थे कोई डेढ़ घंटे में,सुरेश और दीप साहब तो डरे हुए थे, वे दूर ही खड़े रहे, मैं और शर्मा जी वहां जाने को तैय्यार हुए जहां वो खुदाई शुरू हुई थी, हम उस ज़मीन में अंदर चले, अंदर पेड़ पौधे लगे थे, जंगली घास और झाड़ियाँ थीं वहाँ, ज़मीन भी ऊबड़-खाबड़ ही थी, पत्थर पड़े थे बड़े बड़े, हम उस जगह आ गए जहाँ वो गड्ढा थे, ये करीब तीन फ़ीट चौड़ा और एक ही फ़ीट खुदा होगा, आसपास ऐसा कुछ नहीं था जी संदिग्ध होता, हाँ, पत्थर ज़रूर पड़े थे वहाँ! और वे पत्थर भी वहाँ के नही लगते थे, वहाँ के पत्थर लाल थे, और ये नदी के से पत्थर लगते थे! यही बरसे होंगे उन पर, यही सोचा मैंने! "ये पत्थर अजीब हैं या नहीं?" मैंने शर्मा जी से कहा, उन्होंने एक पत्थर उठाया, उसको उलट-पलट के देखा, "हाँ, नदी के से पत्थर लगते हैं ये" वे बोले, "यही हैं वो पत्थर" मैंने कहा, वहाँ बहुत सारे ऐसे पत्थर पड़े थे। कम से कम आधा ट्रक "आप ज़रा दूर हटिये" मैंने कहा, वे हटे, तो मैं गड्ढे में उत्तर कर खड़ा हो गया, अब मंत्र पढ़ा, कलुष मंत्र, और अपने नेत्र पोषित किये,और खोल दिए नेत्र! जैसे ही खोले, मुझे भयानक गर्मी सी चढ़ गयी! लगा जैसे उस गड्ढे से आग निकल रही हो! मुझे बाहर आना पड़ा! मेरे जूते के तलवे भी नरम पड़ने लगे थे। ऐसी गर्मी थी उस गड्ढे में। लेकिन कलुष-मंत्र से कुछ अंदर खास नहीं दिखा, नीचे
पत्थर ही पत्थर थे, कहीं कहीं चूना था, और कुछ नहीं, दूर तलक यही सब था! आखिर में मैंने कलुष मंत्र वापिस लिया, जैसे ही लिया, बदन की गर्मी भी शांत हो गयी! "कुछ दिखा?" शर्मा जी ने पूछा, "नहीं, कुछ भी नहीं" मैंने कहा, तभी शर्मा जी को छींक आई, और उनकी नाक से खून की बूंदें टपकने लगी! उन्होंने पहले तो हाथ से देखा, और फिर रुमाल से, खून रिस रहा था नाक से, और ये सामान्य नहीं था! "पीछे हटो!" मैंने कहा, वे पीछे भागे! मैं भी संग भागा! "बस, रुक जाओ" मैंने कहा, वे रुके, तो मैंने एक देह-रक्षा मंत्र पढ़ा, ज़मीन से मिट्टी की एक चुटकी उठायी और उनके माथे से रगड़ दी, खून बंद हो गया। मैंने पीछे मुड़के देखा, ये ज़मीन कुछ कह
रही थी हमसे! धमका रही थी! दुबारा न आने को कह रही थी! "यहां कोई गड़बड़ है" वे बोले, "हाँ, बहत बड़ी" मैंने कहा, हम वहीं देख रहे थे। एकटक! "लेकिन यहां है क्या?" मैंने पूछा अपने आपसे! शर्मा जी चुप रहे! "आप यहीं रहिये, मैं आता हूँ" मैंने कहा, "मैं भी चलता हूँ" वे बोले, "नहीं, यहीं रुको" मैंने कहा, अब वे रुक गए, और मैं आगे बढ़ गया! उस गड्ढे के पास पहुंचा! जैसे ही देखा, लगा गड्ढा नीचे को धसक रहा है। मैं पीछे हटा, गड्ढे के किनारों पर रखी मिट्टी और पत्थर अंदर गिरने लगे! मैं ये खड़ा खड़ा देखता रहा! अजीब सा नज़ारा था! थोड़ी देर में पत्थर और मिट्टी बंद हो गए गिरना, मैं आगे बढ़ा और अब गड्ढे को देखा, गड्ढा अब गहरा हो गया था। और तभी आवाज़ सी आयीं 'होम' जैसे कोई बुदबुदाया हो! मुझे यक़ीन नहीं आया! गड्ढा करीब नौ फीट गहरा हो चूका होगा! मैं ऊपर, किनारे पर बैठा था उसके, और फिर से आवाज़ आई होम' ये आवाज़ बहुत दीर्घ आवृति की थी! जैसे किसी खुले कक्ष में कोई यही बुदबुदा रहा हो! यहां क्या हो रहा था? कैसी माया थी यहाँ?
किसने प्राण लिए बाबा मोहन के? किसने घायल किया उस कपिल को?
अब सवाल गहरे होते गए! सवाल नाचने लगे दिमाग में! ढिंढोरा पीट डाला उन्होंने तो! आखिर में मुझे एक ही रास्ता दिखाई दिया! कि अब इबु को हाज़िर किया जाए! मैंने शाही रुक्का पढ़ा उसका! और भड़भड़ाता हुआ इबु हाज़िर हुआ! मुझे देखा, और जाना गया की मैं परेशान हूँ! मैंने उद्देश्य कहा उस से! वो एक बार लोप हुआ, और फिर हाज़िर, और दूर खड़ा दिखाई दिया, और फिर लोप! ये बड़ी अजीब सी बात थी! ऐसा नहीं करता इबु कभी! वो जहाँ
खड़ा दिखाई दिया था, मैं वहाँ भागा, झाड़ियों से बचता बचाता! और आया यहां! यहाँ जमीन समतल थी। लेकिन वहाँ था कुछ नहीं! मैंने फिर से कलुष-मंत्र पढ़ा, नेत्र पोषित किये,और नेत्र खोल दिए! और जैसे ही खोले मैंने अपने नेत्र, मेरे होश उड़ गए। मेरे नीचे, मिट्टी में, कम से कम सौ से अधिक लाशें पड़ी थी, कटी-फटी और सभी के सभी एक ही उम जैसे लगते थे, कोई इक्कीस-बाइस बरस के जवान! सभी के शरीर नग्न थे, कमर में एक काले रंग का फन्दा सा पड़ा था। ये सभी पुलिंदे में बंधे हों, ऐसा लगता था, लेकिन वे सब करीब तीस-चालीस फ़ीट नीचे होंगे, मैं बस अंदाजा ही लगा सकता था! मैं अभी वही सब देख रहा था की मुझे पीछे मेरी, कदमों की आहट सुनाई दी, वे शर्मा जी थे! नहीं माने थे, मुझे दूर जाता देख, भाग आये थे। "कुछ दिखा?" उन्होंने पूछा, "रुको मैंने कहा,
और अब मैंने उनके नेत्र पोषित किये, "खोलो नेत्र अपने"मैंने कहा, उन्होंने जैसे ही खोले, गिरते गिरते बचे! "ये क्या है? हर तरफ बस यही सब?" वे बोले, "पता नहीं क्या है, लेकिन ये सभी मारे गए हैं, हत्या की गयी है इन सभी की" मैंने कहा, "है भन * !! ऐसा नर-संहार?" वे बोले, "हाँ, ऐसा नर-संहार!" मैंने कहा, "किसने किया होगा ये?" वे बोले, "पता नहीं" मैंने कहा, "आगै चलते हैं थोड़ा" वे बोले, "चलिए" मैंने कहा, और हम आगे चले! आगे गए थोड़ा तो रुके!
"वो क्या है सामने?"वे बोले, नीचे देखते हुए, "आगे चलते हैं" मैंने कहा, हम आगे चले, अब देखा नीचे, "ये कोई मूर्ति सी लगती है" वे बोले, "हाँ, लगती तो है" मैंने कहा,
वो मूर्ति थी या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता था, उसके हाथ तोड़ दिए गए थे, किसकी है, ये भी नहीं पता था, औंधी पड़ी थी, नग्न-स्वरुप था उसका, केश पीठ पर ही बने थे, और पीठ पुरुष की है या किसी स्त्री की, पता नहीं चल रहा था, कमर से नीचे का हिस्सा भी तोड़ दिया गया था, और वहां कहीं नहीं पड़ा था, यहाँ बहुत कुछ ऐसा था, जिसने दिमाग और सोच के तार झनझना दिए थे! प्रश्न दिमाग में कीड़ों की तरह से कुलबुलाने लगते! ये स्थान क्या है? सबसे बड़ा सवाल यही था!
वो मूर्ति कम से कम बारह फीट की रही होगी, उसके आकार से तो यही लगता था, लेकिन उस मूर्ति के आसपास और कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जिस पर गौर किया जाए, वहाँ पत्थर ही पत्थर थे, और कुछ नहीं, हाँ, चूना ज़रूर था वहाँ बिखरा हुआ, सफ़ेद चूना, "आओ, आगे चलते हैं" मैंने कहा, "चलिए" वो बोले, हम और आगे चले, यहां से दीप और सुरेश साहब की गाड़ी, दीख ही नहीं रही थी, शायद जंगली पेड़-पौधों की वजह से! "ये क्या है?" वे बोले, और रुके, "हाँ? क्या है ये?" मैंने पूछा, "कोई चाकी है क्या?" वो बोले, "चाकी के पाट में ऐसे दाने से क्यों उभरे होंगे?" मैंने कहा, "हाँ, तो फिर ये है क्या?" वे बोले, नीचे एक बड़ा सा पत्थर का चाक था, उसके बीच में एक छेद था, करीब बारह इंच का रहा होगा, उसी को देख कर हम अटक गए थे! "क्या किया जाता होगा इसका?" वे बोले, "पता नहीं, अजीब सा ही चाक है!" मैंने कहा, हम और आगे बढ़े। "अब ये क्या है?" वे बोले,
नीचे, पत्थर के अजीब अजीब आकार वाले घन से रखे थे! कोई भी एक आकार दूसरे से नहीं मिलता था, हाँ, बस तला जो था, वो सपाट था, जैसे उसको भूमि पर रखा जाता हो वहाँ से! "मेरी समझ से तो बाहर है" मैंने कहा, "मेरी समझ से भी" वे बोले, "आगे चलिए" मैंने कहा, "चलो" वे बोले, हम आगे गए, नीचे ज़मीन में पत्थर ही पत्थर थे! एक पेड़ आया, नीम का पेड़ था वो, छाया बढ़िया थी उसकी, सो हम बैठ गए उसके नीचे, दो बड़े बड़े पत्थरों पर! मैं अभी तक उन लाशों के बारे में ही सोच रहा था, ध्यान वहीं अटका था मेरा अभी भी! "वे लाशें, कौन हैं?" मैंने पूछा, "पता नहीं, मुझे तो ये स्थान ही अजीब सा लग रहा है" वे बोले, "हाँ, है तो अजीब ही" मैंने कहा, "यहाँ अभी तक कोई धन तो दिखा नहीं? बाबा मोहन ने कैसे हाँ कर दी?" वे बोले, शंका सही थी! धन तो अभी तक कहीं नहीं था वहाँ! नहीं दिखा था अभी तक! "हाँ, कैसे हाँ कर दी? देख तो लगाई ही होगी?" मैंने भी कहा, "कहीं माया में तो नहीं फंस गए?" वे बोले, "माया-नाशिनी विद्या तो थी उनके पास?" मैंने कहा, "फिर कैसे फंस गए?" वे बोले, "यही समझ नहीं आ रहा कि कैसे" मैंने कहा, "आगे चलें या वापिस?" वे बोले, "आगे चलते हैं, हो सकता है कुछ दिख जाए?" मैंने कहा, "चलिए फिर वे बोले,
और हम आगे चले फिर, अभी की चालीस-पचास कदम ही चले होंगे की हम दोनों ही ठिठक कर रुक गए! मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ लिया था! "ये क्या हैं?" वे बोले, "भांड लगते हैं। मैंने कहा, "पत्थर के भांड?" वे बोले, "सम्भव है" मैंने कहा, "लेकिन ये सभी ढके हुए हैं?" वे बोले, "हाँ, और शायद यही होगा धन!" मैंने कहा, वे आगे चले गए, वो भांड करीब बीस फीट नीचे थे, सभी पत्थरों के चाकों से ही ढके हए!
"एक मिनिट! यहां आइये, जल्दी!" वे बोले, "कुछ है क्या?" मैं आगे बढ़ता हुआ बोला, "आइये तो सही?" वे बोले,
और मैं पहुँच गया वहां! "ये क्या है?" मैंने स्वयं से पूछा, "किसी स्त्री की लाश लगती है" वे बोले, वहां एक भांड था खुला हुआ, करीब छह फ़ीट ऊंचा, उसमे कमर से ऊपर का भाग उसका भांड के अंदर था, कूल्हे बाहर थे, पांवों के साथ, दोनों हाथ भी बाहर ही थे, हाथों में कंगन थे, और हाथ में रस्सी भी पड़ी थीं, कलाइयों में बंधी हुई! "इसकी भी हत्या ही हुई होगी!" मैंने कहा, "हाँ, यही लगता है" वे बोले, "तो कहीं इन भांडों में ऐसी ही लाशें तो नहीं?" मैंने पूछा, "सम्भव है,ये तो खोदने पर ही पता चलेगा" वे बोले, "हाँ" मैंने कहा, हम और आगे चले, और ठिठक कर रुक गए!!! "हे भ*****!!!!" वे बोले! "अरे बाप रे!" मैंने कहा, मेरे मुंह से निकला! वहां नीचे पत्थर पड़े थे, और उन पत्थरों में लाशें पड़ी थीं, किशोर, किशोरियां, जवान मर्द
और औरतें, सभी के सभी कटे-फटे! कइयों कि तो खाल ही उतार ली गयी थी! कइयों का जिस्म जला दिया गया था! शरीर पर घाव ही घाव थे! हाथ-पाँव, सर कटे पड़े थे वहाँ! बहुत ही ख़ौफ़नाक नज़ारा था वो! "वो! वो देखिये!" वो चिल्लाये! मैं भागा वहाँ! "ओह!!! कौन होगा वो जल्लाद!" मैंने कहा, वहाँ एक स्थान पर, छोटे छोटे बा*क-बाली ऐं कटे पड़े थे। जैसे सभी को इसी जगह इकठ्ठा किया गया हो, और एक एक करके काट दिया गया हो! कलेजा काँप उठा! पत्थरों से शायद
वे शिशु कुचल के मार दिए गए थे, कौन होगा वो? जिसने ऐसा कोहराम मचाया होगा यहां? कौन होगा वो बेरहम और पत्थर दिल इंसान! "कैसा बेरहम होगा वो इंसान, लानत है" वे बोले, "सही में, बेरहम! क़ातिल!" मैंने कहा, वो दृश्य देखा नहीं जा रहा था, अतः वहाँ से हट गए हम! लेकिन हम दोनों ही काँप उठे थे वो
दृश्य देख कर, ऐसा भयानक नर-संहार? किसने अंजाम दिया होगा? "क्या हुआ था यहां, अब जानना होगा' मैंने कहा, "हाँ, गुरु जी" वे बोले, "आगे चलें?" वे बोले, "चलो" मैंने कहा,
और हम आगे चले फिर, कोई सौ कदम चले होंगे की कुछ दिखा फिर से, नीचे ही! "ये क्या है अब?" मैंने कहा, शर्मा जी ने गौर से देखा, नीचे बैठते हए! "ओह!" वे बोले, "क्या हुआ?" मैंने कहा, "देखिये, मुझे तो इंसानी कलेजे लगते हैं?" वे बोले, मैं नीचे बैठा, और देखा, "हाँ वही हैं" मैंने कहा! मित्रगण! वहां सैंकड़ों ऐसे इंसानी कलेजे गुंथे पड़े थे एक दूसरे से! जैसे इकट्ठा किये गए हों वे
सब वहाँ! जिनकी हत्या हुई होगी, उनके कलेजे रहे होंगे ये! "ये जगह कोई डेरा है क्या?"शर्मा जी ने कहा, "लगता ऐसा ही है अब तो" मैंने कहा, "लेकिन रिहाइश का क्षेत्र नहीं है यहां कोई भी?" वे बोले, "हाँ, वही मैं भी देख रहा हूँ" मैंने कहा, "आगे चलते हैं वे बोले, "चलिए" मैंने कहा,
और हम दोनों आगे बढ़ गए! जो नज़ारा देखा था, उस से अभी तक कंपकंपी छूट रही थी शरीर में। "ये कोई लूटपाट का मामला नहीं लगता मुझे तो वे बोले, "है ही नहीं" मैंने भी समर्थन किया, "लूटपाट में तो सब लूट लेते वो, यहां कई लाशों के शरीर पर आभूषण अभी भी हैं" वे
बोले, "हाँ, मुझे कोई व्यक्तिगत शत्रुता लगती है ये" मैंने कहा, "हाँ कोई रंजिश" वे बोले, "हाँ, उसी का फल है ये नरसंहार" मैंने कहा, "वो क्या है?" मैंने देखा एक जगह कुछ और कहा,
वो ज़मीन के ऊपर बना कोई खंडहर सा था! "चलके देखते हैं" वे बोले, "चलिए" मैंने कहा,
और हमने वहाँ के लिए अपने कदम बढ़ा दिए! पहुंचे वहां, ये कोई खंडहर सा था, लाल रंग के पत्थरों से बना, छूने से चिना गया था, और बीच बीच में कहीं गारा भी दिख रही थी, अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था वो खंडहर, बस दीवार, और कुछ पत्थर ही शेष बचे थे, ज़्यादा बड़ा भी नहीं था, बस कोई तीस-चालीस गज में ही बना था, ऊंचा रहा होगा कभी, लेकिन अब तो चार फ़ीट ही शेष था, अंदर अब झाड़-खंखाड ही थे, लम्बी लम्बी सूखी सी घास थी, मदार के पौधे लगे हए थे, कुछ बरौं ने दीवार में छत्ते भी बना लिए थे, कुछ कोटरों में, परिंदों ने अपने घोंसले बना लिए थे, अब ये खंडहर उन्ही का था, वही थे इसके स्वामी अब! "ये है क्या?" वे बोले, "पता नहीं" मैंने कहा, "कोई मंदिर?" वे बोले, "हो सकता है" मैंने कहा, "अगर मंदिर है तो, यहां कभी आबादी रही होगी' वे बोले, "हाँ, यक़ीनन" मैंने कहा, "पता नहीं किसने बनवाया होगा, इतिहास के गर्भ में छिप गया है अब सब" वे बोले, "आज जुबान ही नहीं है इसकी, नहीं तो कभी ज़रूर बोलता होगा, किसी समय! अपने समय में!" वो उसको हाथ लगा के बोले! "हाँ! एक दिन शान से खड़ा हुआ होगा! लोगबाग आते जाते होंगे! बहत वक़्त देखा है इसने! बस मूक खड़ा है, अकेला जो रह गया है!" मैंने भी हाथ लगाकर कहा उसको! मैं कह ही रहा था और शर्मा जी का कोई जवाब नहीं आया, मैं पीछे पलटा, तो वो शांत खड़े, देख रहे थे सामने कहीं! "क्या हुआ?" मैंने पूछा, वे कुछ नहीं बोले, बस हाथ सामने कर दिया अपना, मैंने वहीं देखा, और ठिठक गया! सामने दूर, उस नीम के पेड़ के पास, दो महिलायें थीं, उनका कद आज की महिलाओं से कहीं ऊंचा था, कम से कम साढ़े छह फ़ीट या सात भी हो सकती थीं, वे चहलकदमी सी कर रही
थीं, जैसे कुछ ढूंढ रही हों वहाँ! वो जब पेड़ के सामने आती, तो पेड़ उनमे से आरपार दीखता था, यक़ीन से वो इंसानी महिलायें नहीं थीं! वे प्रेतात्माएँ ही थीं! "आओ" मैंने कहा, "चलो" वे बोले,
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और हम आहिस्ता आहिस्त चलने लगे, वे चौंक न जाएं, इसीलिए बीच बीच में रुक जाते थे, न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो उनकी! इसलिए चौकस भी थे! हमारा फांसला कम होता गया! अब साफ़ दीख रही थर्थी हमें वो! हाँ, वो सात फ़ीट की ही रही होंगी, मुझसे भी एक फीट ज़्यादा, सफ़ेद और पीले रंग के कपड़े पहने थे उन्होंने, पीला रंग का एक घाघरा सा था, घुटनों के नीचे तक, पाँव में जूतियां थीं, लाल रंग की, हाथों में, पांवों में और कमर में, चांदी के आभूषण थे, सर पर ओढ़नी थी उन दोनों के, देह बहुत मज़बूत थी उनकी, ठेठ देहाती महिलायें लगती थीं
वो! रंग बेहद साफ़ था उनका, और उम कोई पच्चीस बरस के आसपास होगी उन दोनों की! हम थोड़ा करीब आये उनके, तो एक की नज़र हम पर पड़ी। उसने दूसरी को कुछ कहा, और
वो भी उसके संग खड़ी हो गयी! हम रुक गए थे तभी! उनके हाथ खाली थे उस समय! "डरो नहीं!" मैंने कहा, दरअसल वो पीछे हुए जा रही थीं! धीरे धीरे! मुझे कहना पड़ा! वे रुक गयीं! "घबराओ नहीं, मैं कोई हानि नहीं पहचाउंगा तुम दोनों को" मैंने कहा,
वे रुक गयी थीं, अब हम आगे बढ़े! इतना आगे कि उनके और हमारे बीच कोई छह फीट का फासला हो गया था! हम खड़े हो गए, वो हमें शांत खड़े होकर, टकटकी लगाए देख रही थीं, उनको अजीब से लग रहे होंगे हम! या फिर, बरसों से कोई जीवित इंसान देखा ही नहीं होगा उन्होंने! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा,
वे चुप खड़ी रहीं! "बताओ?" मैंने पूछा, फिर से चुप! मैं आगे बढ़ा तो एक चिल्लाई, "पथिया! पथिया!" अब ये पथिया कौन है, ये नहीं मालूम चला, क्योंकि कोई आया नहीं था वहाँ! वो दो बार चिल्ला कर चुप हो गयी थी, और मैं पीछे लौट आया था! "मैं कोई नुकसान नहीं पहुंचाउंगा, वचन देता हूँ मैं" मैंने कहा, और नीचे बैठ गया, घुटनों पर, फिर उकडू बैठ गया! वे मुझे ही देखती रहीं! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, कोई जवाब नहीं दिया उन्होंने! जैसे मेरी भाषा समझ नहीं आ रही हो उन्हें! और यही बात थी! अब उनकी वेशभूषा राजस्थानी सी थी, ओढ़नी से तो यही लग रहा था, थोड़ी बहुत मैं बोल लेता हूँ, तो अब मैंने उसी भाषा में पूछा,
"कौन हो तुम?" मैंने पूछा, "रक्कू" एक ने कहा,
अब शायद नाम था उसका ये! रक्कू! "यहां क्या कर रही हो तुम?" मैंने पूछा, "बालक ढूंढने" वो बोली,
ओह! बालक ढूंढने आई थी वो! लेकिन कौन बालक? "कौन बालक?" मैंने पूछा, "इसका बालक" वो बोली, "यहां तो नहीं है?" मैंने कहा, "खेलने गया था" वो बोली, "अच्छा!" मैंने कहा, "ये कौन सा गाँव है?" मैंने पूछा, "पता नहीं" वो बोली, "तुम कहाँ से हो?" मैंने पूछा, कोई जवाब नहीं दिया! कोई भी जानकारी हाथ नहीं लगी। पता भी नहीं चला कि वे दोनों इसी स्थान से ताल्लुक रखती हैं या किसी अन्य स्थान से! कुछ पता नहीं चला! तभी वे दोनों मुड़ीं, "रुको' मैंने कहा, उन्होंने नहीं सुना, और चलती रहीं, फिर दोनों एक साथ चलते ही ज़मीन से उठ गयीं और लोप हुईं! "प्रेतात्माएँ!" शर्मा जी बोले, "हाँ" मैंने कहा, "लेकिन कुछ बताया नहीं उन्होंने" वे बोले, "हम परदेसी हैं" मैंने कहा, "हम्म, यही बात होगी" वे बोले, अब हम आगे चले, और जैसे ही चले, हमें वहां गैंदे के फूल बिखरे मिले! करीब पांच-छह! अब ये कहाँ से आये? उन औरतों ने तो गिराये नहीं थे! दिमाग का एक और दरवाज़ा बंद हुआ भड़ाक से! मैं नीचे झुका, फूल उठाये, "ये देखो" वे बोले,
और जैसे ही मैंने शर्मा जी को फूल दिया, फूल भक्क से जल उठा! ये देख हम चौंक उठे! मेरे हाथ में वो फूल थे, मैंने ज़मीन पर गिराये सभी, और सभी जल उठे। "ये क्या?" शर्मा जी बोले! "मैं समझ गया हूँ!" मैंने कहा, "क्या?" वो बोले, हैरत में थे! "कि कोई खेल रहा है हमसे!" मैंने कहा, "कैसे?" वे बोले, "पहले प्रेतात्माएँ! अब ये फूल! जो राख हए!" मैंने कहा, लेकिन उन्हें समझने में
देर लगी! "ये कोई लूटपाट का मामला नहीं लगता मुझे तो वे बोले, "है ही नहीं" मैंने भी समर्थन किया, "लूटपाट में तो सब लूट लेते वो, यहां कई लाशों के शरीर पर आभूषण अभी भी हैं" वे "हाँ, मुझे कोई व्यक्तिगत शत्रुता लगती है ये" मैंने कहा, "हाँ कोई रंजिश" वे बोले, "हाँ, उसी का फल है ये नरसंहार" मैंने कहा, "वो क्या है?" मैंने देखा एक जगह कुछ, और कहा, वो जमीन के ऊपर बना कोई खंडहर सा था! "चलके देखते हैं। वे बोले, "चलिए" मैंने कहा,
और हमने वहाँ के लिए अपने कदम बढ़ा दिए! पहुंचे वहां, ये कोई खंडहर सा था, लाल रंग के पत्थरों से बना, छूने से चिना गया था, और बीच बीच में कहीं गारा भी दिख रही थी, अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था वो खंडहर, बस दीवार, और कुछ पत्थर ही शेष बचे थे, ज़्यादा बड़ा भी नहीं था, बस कोई तीस-चालीस गज में ही बना था, ऊंचा रहा होगा कभी, लेकिन अब तो चार फ़ीट ही शेष था, अंदर अब झाड़-खंखाड ही थे, लम्बी लम्बी सूखी सी घास थी, मदार के पौधे लगे हुए थे, कुछ बरौं ने दीवार में छत्ते भी बना लिए थे, कुछ कोटरों में, परिंदों ने अपने घोंसले बना लिए थे, अब ये खंडहर उन्ही का था, वही थे इसके स्वामी अब! "ये है क्या?" वे बोले, "पता नहीं" मैंने कहा, "कोई मंदिर?" वे बोले, "हो सकता है" मैंने कहा, "अगर मंदिर है तो, यहां कभी आबादी रही होगी वे बोले,
"हाँ, यक़ीनन" मैंने कहा, "पता नहीं किसने बनवाया होगा, इतिहास के गर्भ में छिप गया है अब सब" वे बोले, "आज जुबान ही नहीं है इसकी, नहीं तो कभी ज़रूर बोलता होगा, किसी समय! अपने समय में!" वो उसको हाथ लगा के बोले! "हाँ! एक दिन शान से खड़ा हुआ होगा! लोगबाग आते जाते होंगे! बहुत वक़्त देखा है इसने! बस मूक खड़ा है, अकेला जो रह गया है!" मैंने भी हाथ लगाकर कहा उसको! मैं कह ही रहा था और शर्मा जी का कोई जवाब नहीं आया, मैं पीछे पलटा, तो वो शांत खड़े, देख रहे थे सामने कहीं! "क्या हुआ?" मैंने पूछा,
वे कुछ नहीं बोले, बस हाथ सामने कर दिया अपना, मैंने वहीं देखा, और ठिठक गया! सामने दूर, उस नीम के पेड़ के पास, दो महिलायें थीं, उनका कद आज की महिलाओं से कहीं ऊंचा था, कम से कम साढ़े छह फ़ीट या सात भी हो सकती थीं, वे चहलकदमी सी कर रही
थीं, जैसे कुछ ढूंढ रही हों वहाँ! वो जब पेड़ के सामने आतीं, तो पेड़ उनमे से आरपार दीखता था, यक़ीन से वो इंसानी महिलायें नहीं थीं! वे प्रेतात्माएँ ही थीं! "आओ" मैंने कहा, "चलो" वे बोले,
और हम आहिस्ता आहिस्त चलने लगे, वे चौंक न जाएं, इसीलिए बीच बीच में रुक जाते थे, न जाने कैसी प्रतिक्रिया हो उनकी! इसलिए चौकस भी थे। हमारा फांसला कम होता गया! अब साफ़ दीख रही थर्थी हमें वो! हाँ, वो सात फीट की ही रही होंगी, मुझसे भी एक फ़ीट ज़्यादा, सफ़ेद और पीले रंग के कपड़े पहने थे उन्होंने, पीला रंग का एक घाघरा सा था, घुटनों के नीचे तक, पाँव में जूतियां थीं, लाल रंग की, हाथों में, पांवों में और कमर में, चांदी के आभूषण थे, सर पर ओढ़नी थी उन दोनों के, देह बहत मज़बूत थी उनकी, ठेठ देहाती महिलायें लगती थीं वो! रंग बेहद साफ़ था उनका, और उम कोई पच्चीस बरस के आसपास होगी उन दोनों की! हम थोड़ा करीब आये उनके, तो एक की नज़र हम पर पड़ी! उसने दूसरी को कुछ कहा, और
वो भी उसके संग खड़ी हो गयी! हम रुक गए थे तभी! उनके हाथ खाली थे उस समय! "डरो नहीं!" मैंने कहा, दरअसल वो पीछे हुए जा रही थीं! धीरे धीरे! मुझे कहना पड़ा! वे रुक गयीं! "घबराओ नहीं, मैं कोई हानि नहीं पहुंचाउंगा तुम दोनों को मैंने कहा,
वे रुक गयी थीं,
अब हम आगे बढ़े! इतना आगे कि उनके और हमारे बीच कोई छह फ़ीट का फांसला हो गया था! हम खड़े हो गए, वो हमें शांत खड़े होकर, टकटकी लगाए देख रही थीं, उनको अजीब से लग रहे होंगे हम! या फिर, बरसों से कोई जीवित इंसान देखा ही नहीं होगा उन्होंने! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, वे चुप खड़ी रहीं! "बताओ?" मैंने पूछा, फिर से चुप! मैं आगे बढ़ा तो एक चिल्लाई, "पथिया! पथिया!" अब ये पथिया कौन है, ये नहीं मालूम चला, क्योंकि कोई आया नहीं था वहाँ! वो दो बार चिल्ला कर चुप हो गयी थी, और मैं पीछे लौट आया था! "मैं कोई नुकसान नहीं पहुंचाउंगा, वचन देता हूँ मैं" मैंने कहा, और नीचे बैठ गया, घुटनों पर, फिर उकडू बैठ गया! वे मुझे ही देखती रहीं! "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, कोई जवाब नहीं दिया उन्होंने! जैसे मेरी भाषा समझ नहीं आ रही हो उन्हें! और यही बात थी! अब उनकी वेशभूषा राजस्थानी सी थी, ओढ़नी से तो यही लग रहा था, थोड़ी बहुत मैं बोल लेता हूँ, तो अब मैंने उसी भाषा में पूछा, "कौन हो तुम?" मैंने पूछा, "रक्कू" एक ने कहा, अब शायद नाम था उसका ये! रक्कू! "यहां क्या कर रही हो तुम?" मैंने पूछा, "बालक ढूंढने" वो बोली,
ओह! बालक ढूंढने आई थी वो! लेकिन कौन बालक? "कौन बालक?" मैंने पूछा, "इसका बालक" वो बोली, "यहां तो नहीं है?" मैंने कहा, "खेलने गया था" वो बोली, "अच्छा !" मैंने कहा, "ये कौन सा गाँव है?" मैंने पूछा, "पता नहीं" वो बोली, "तुम कहाँ से हो?" मैंने पूछा,
कोई जवाब नहीं दिया!
कोई भी जानकारी हाथ नहीं लगी! पता भी नहीं चला कि वे दोनों इसी स्थान से ताल्लुक रखती हैं या किसी अन्य स्थान से! कुछ पता नहीं चला! तभी वे दोनों मड़ी, "रुको" मैंने कहा, उन्होंने नहीं सुना, और चलती रहीं, फिर दोनों एक साथ चलते ही ज़मीन से उठ गयीं और लोप हुई! "प्रेतात्माएँ!" शर्मा जी बोले, "हाँ" मैंने कहा, "लेकिन कुछ बताया नहीं उन्होंने" वे बोले, "हम परदेसी हैं" मैंने कहा, "हम्म, यही बात होगी" वे बोले,
अब हम आगे चले, और जैसे ही चले, हमें वहां गेंदे के फूल बिखरे मिले! करीब पांच-छह! अब ये कहाँ से आये? उन औरतों ने तो गिराये नहीं थे! दिमाग का एक और दरवाज़ा बंद हुआ भड़ाक से! मैं नीचे झुका, फूल उठाये, "ये देखो" वे बोले,
और जैसे ही मैंने शर्मा जी को फूल दिया, फूल भक्क से जल उठा! ये देख हम चौंक उठे! मेरे हाथ में वो फूल थे, मैंने ज़मीन पर गिराये सभी, और सभी जल उठे! "ये क्या?" शर्मा जी बोले! "मैं समझ गया हूँ!" मैंने कहा, "क्या?" वो बोले, हैरत में थे! "कि कोई खेल रहा है हमसे!" मैंने कहा, "कैसे?" वे बोले, "पहले प्रेतात्माएँ। अब ये फूल! जो राख हुए!" मैंने कहा,
लेकिन उन्हें समझने में देर लगी! त्रिकोण कुछ ऐसा बनाया था कि उसमे दो और त्रिकोण भी बनाये गए थे, एक दूसरे से छोटे, और एक शब्द लिख दिया गया था उस अंदर वाले त्रिकोण के
