वो मस्तक उड़ता चला गया! ये तो मुझे भान था, कि वो अब आएगा कहाँ! मैं तैयार था! हर लिहाज से!
"साधिके?" कहा मैंने,
'आदेश नाथ?" बोली वो.
"तैयार हो?" पूछा मैंने,
"आपके संग?" पूछा उसने,
"हाँ!" दिया जवाब!
"अंतिम श्वास तक!" बोली वो!
"तो देखो! सामने!" कहा मैंने,
उसने देखा! एक प्रल्प-बिंदु समक्ष, सामने आया था!
"ये?" बोली वो,
"क्रीड़-तंत्र!" कहा मैंने,
"क्रीड़?" पूछा उसने,
"हाँ, क्रीड़!" कहा मैंने,
वो जो सामने था, वो मस्तक था! मैं ये जानता था!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"यहां चली आओ!" कहा मैंने,
वो उठी, और मेरे आसन पर, आ शरण ली!
और तभी!
तभी उस मस्तक ने, वहां अपनी आमद दर्ज़ करा दी! वो हंसा! हंसा! अट्ठहास लगाया! उस बालूनाथ के स्वर में! भयानक शोर मचा दिया उसने! ये औसनिक-महाविद्या थी! इस महाविद्या की अधिष्ठात्री श्री कमला माँ की प्रधान सहोदरी, ज्योत्स्ना हैं! ज्योत्स्ना माँ, तंत्र में क्रूर स्वभाव वाली, उत्तेजक एवं विजय-तत्व को इंगित करती हैं! श्री माँ हिंगलाज के बाएं शस्त्र-केपच की महा-वाहिनि भी यही हैं! औसनिक-महाविद्या से ही शव-क्रिया आरम्भ हुआ करती है, मुर्दे में हलचल, प्राण-संचार आदि इसी विद्या द्वारा पूर्ण किया जाता है!
अपने आद्य-रूप में माँ ज्योत्स्ना, तेरह बरस की सी प्रतीत होती हैं, देह, दरम्यानी है, माथा, पीले रंग की ज्वाल से ढका होता है, देह नग्न हुआ करती है, अस्थियों व मानव् -चर्म से निर्मित आभूषण इनकी शोभा बढ़ाते हैं! इनका वाहन, मादा-हिरण है, नेत्र, अग्नि-समान दहकते रहते हैं, जिव्हा, लाल ही रहती है, दायें हाथ में खप्पर एवं बाएं हाथ में, त्रि-खण्डिका खड्ग धारण करती हैं!
इनके कुछ सर्व-साधारण एवं सरल से उपाय आपको बताता हूँ, आजमाएं एवं लाभ उठायें, इनका मंत्र आदरणीय कुमार साहब से प्राप्त कर लें!
पहला प्रयोग,
यदि स्त्री गर्भवती हो, तो गर्भ की रक्षा हेतु, एक काला सूती कपड़ा ले, एक मीटर के करीब, इस कपड़े को उस गर्भवती स्त्री के नीचे रख दें, तीन रात्रि वो स्त्री उस पर शयन करे, चौथी रात्रि उस कपड़े को तीन हिस्सों में काट दें, स्त्री ही काटे, अब उसका पति, किसी बहती नदी अथवा नहर में उस कपड़े को प्रवाहित कर दे, प्रसव भी आराम से हो जाएगा, और गर्भ की रक्षा भी! प्रवाहित करते समय माँ ज्योत्स्ना का मंत्र इक्कीस बार जपना है! प्रसव पश्चात, सवा लीटर दोष श्वानों को पिला दीजिये!
दूसरा प्रयोग,
सरकारी नौकरी हो, या प्राइवेट नौकरी, कोई विपत्ति आन पड़ी हो, नौकरी जाने का खतरा हो, झूठा आरोप लग गया हो, उन्नति के अवसर न मिल रहे हों, तो ये प्रयोग करें! तीन सौ ग्राम, बकरे की कलेजी खरीद लें, इसमें एक चुटकी हल्दी, एक चुटकी नमक एवं एक चुटकी काले तिल मिला दें! अब किसी मिट्टीके बर्तन में इन्हें बाँध लें, काले रंग के कपड़े से मुंह बांध दें, अब इक्यासी बार वो मंत्र पढ़ते हुए, इस बर्तन को हिलाएं, तदोपरांत किसी बहती नदी अथवा नहर में प्रवाहित कर दें! महा-अभीष्ट होगा! चाहे कोई भी खिलाफ हो, आपका अहित नहीं हो पायेगा! उद्देश्य पूर्ण होते ही, श्वानों को, सवा लीटर दूध पिला दें!
तीसरा प्रयोग,
बालक ने, यदि गण्ड-मूल नक्षत्र में जन्म लिया हो, स्मरण रहे, कन्या के गण्ड-मूल का कोई आधार नहीं होता, अतः उसके प्रपंच में न पड़ें! तब एक मिटटी का बर्तन लाएं, अब इसमें, पांच तरह के फूल, पांच तरह के अन्न, पांच तरह के फलों के बीज और पांच चौराहों की मिट्टी, डाल लें, और इस मंत्र को एक सौ इक्कीस बार पढ़ते हुए, हर दशांश पर, एक बार बर्तन हिला दें, जब पूर्ण हो जाए तब, इस बर्तन को, किसी सूखे, निर्जन स्थान पर, गाड़ आएं! सम्भव हो सके तो पांच कन्यायों को भोजन करा, ओढ़नी दे दें, अन्यथा, एक से भी प्रयोजन सिद्ध हो ही जाएगा! गण्ड-मूल नक्षत्र अब बालक का कुछ अहित न कर सकेंगे, न ही उसके परिवारजन का!
चौथा प्रयोग,
कन्या ब्याह लायक हो, परन्तु, विवाह न होता हो, तब किसी भी शनिवार वाले दिन, एक पीले कनेर का पुष्प उस से तोड़ने को कहें! घर ले आएं और वो कन्या उस पुष्प को मस्तक पर रख, इक्कीस बार माँ ज्योत्स्ना का मन्त्र पढ़े! उसके बाद, किसी कपड़े में उस पुष्प को, बाँध कर घर में रख दे! रिश्ता आएगा, विवाह भी होगा, विवाह पश्चात, इक्यावन दिनों के भीतर उस पुष्प को, नदी में सिला देना है! दान स्वरुप, किसी कन्या के विवाह में, धन-रशि का दान भी चलेगा, ये दान, इक्यावन रूपये से लेकर आपकी समर्थता पर निर्भर करता है!
पांचवां प्रयोग,
कारोबार पर नज़र लगी हो, काम न हो पा रहा हो, किसी का किया-कराया लगता हो, मन में चिंताएं भरी हों, कारोबार, फल-फूल न रहा हो, तो ये प्रयोग करें, एक मिट्टी का दिया लें, उसको हल्दी के पानी से धो लें, तीन रात तक, उस दीये को, इस मंत्र का इक्यावन बार जाप कर, जलाएं, सारी समस्याएं नष्ट हो जाएंगी! ऐसा होते ही, श्री माँ ज्योत्स्ना के भोग के रूप में, दो प्रकार की सब्जियां, जैसे आलू और सीताफल, पूरियों के लिए आटे का यथासम्भव दान, कहीं भी कर दें!
अब घटना!
तो वो मस्तक, हवा में लटका, सामने ही था! वो अट्ठहास लगाता फिर चुप हो जाता! घूरता और नज़रें चलाता! मैं त्रिशूल लिए तैयार था!
"जा! लौट जा!" बोला वो, स्वर में, बालू नाथ के! गरज कर!
"ह्रौं ह्रौं खः............................................... हमबन!" मैंने जपा!
वो पीछे हुए, और फिर से लौटा!
"जा! तेरे प्राण नहीं लूंगा!" बोला वो,
"तू ले भी नहीं सकता बालू नाथ!" कहा मैंने,
उसने अट्ठहास लगाया ज़ोर से!
मैंने भी अट्ठहास सा लगाया तभी!
"मूर्ख!" गरजा वो मस्तक!
"जा! सरणू को बचा!" कहा मैंने,
वो फिर से हंसा! ज़ोर से!
"जा! लौट जा! जहां से आया, वहीँ को जा!" कहा मैंने,
वो पलटा! ऊपर की ओर चढ़ा! फिर से नीचे हुआ!
और इस बार, समीप चला आया!
नज़र से नज़र मिली!
उसकी आँखें बस, बाहर आने को ही थीं! ऐसे रूप में था वो!
"जा!" कहा मैंने,
उसने इस बार अट्ठहास नहीं लगाया, आसपास देखा! अलख को देखा!
मैं तब आगे बढ़ा!
"अंतिम अवसर!" कहा मैंने,
''अंतिम!" बोला वो,
"हाँ, अंतिम!" कहा मैंने,
''अंतिम!" बोला वो,
उसने तब मुंह फाड़ा अपना! चौड़ा, और चौड़ा!
"लौट जा! लौट जा!" अब बोला वो!
मैं हंस पड़ा! वो बार बार, मुझे उकसाए जा रहा था!
"जा! उस सरणू को बचा!" कहा मैंने,
तभी दहाड़ा वो! और आग की एक लपट निकली मुंह से उसके! पूरे मस्तक को आग ने लील लिया! ये वार था उसका! वो फटता, बिखरता और हमारे प्राण हर लेता! परन्तु मैं तैयार था! मैंने कुवंचिनि-विद्या से उस स्थान को सुरक्षित किया हुआ था! इस से अहित होना असम्भव ही था! वो मस्तक, गरजा! बालू नाथ के स्वर में! ज़ोर ज़ोर से घूमने लगा! मैंने उसे नज़रों में ही बांधे रखा! अचानका इ उसका आकार बढ़ा, और गरजते हुए, वो फट पड़ा! अंगार से वो स्थान नहा गया! हर तरफ अंगार बिखरने लगी! वो अंगार, हमारे ऊपर भी पड़ी, लेकिंन, कुछ फ़ीट ऊपर ही ठंडी हो कर! भेजे के जलते हुए टुकड़े, जहां-तहाँ बिखर गए! जहां बिखरते, आग जल उठ जाती! हम, सुरक्षित थे, कोई अहित न हुआ था हमारा!
मैं तब बैठा नीचे! अपनी साधिका को देखा! वो अभी तक उस जलती हुई, बची हुई आग को देख रही थी! विस्मय से!
"साधिके?' कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"यहां आओ?" कहा मैंने,
वो मुस्कुराई, और मेरे पास चली आई!
"यहां बैठो!" कहा मैंने,
और बिठा लिया उसे अपने साथ मैंने!
उठाया मैंने एक माल, उसको अभिमंत्रित किया और बढ़ाया उसकी तरफ!
"गर्दन आगे करो?" कहा मैंने,
उसने आगे की गर्दन अपनी!
"और आगे?" कहा मैंने,
अब उसने झुका ली गर्दन अपनी!
"ये लो!" कहा मैंने, और बाँध दिया वो माल उसकी गर्दन में! उसने छू कर देखा उसे! और फिर मुस्कुरा गयी!
"घबरा तो नहीं रहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
"बस, अभी तो आरम्भ में ही हैं हम!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"जाओ, अपने स्थान पर जाओ भद्रे!" कहा मैंने,
वो उठी, और चल पड़ी, अपने स्थान पर, आ, बैठ गयी!
और तब मैंने देख पकड़ी! उस बालू नाथ की! बालू नाथ ने, अलख छोड़ दी थी, और उसके सामने बने एक मिट्टी की ढेरी का, जो चबूतरा सा बना था, उस पर आ बैठा! ये मेरे लिए सब नया था! मैंने ऐसा कभी न देखा था!
"येवू दे?'' बोला वो,
येवू, अर्थात बीच में से छेद हुआ, हुआ चाक़ू! इसको, किसी को हलाक करते समय, बीच में ही घोंप कर छोड़ दिया जाता है, और जब बाहर खींचा जाता है तो अंतड़ियों को, या अन्य अंग को, जिसमे, घाव से फौरन ही सूजन आ जाती है, खींच लिया जाता है, मौत, शर्तिया ही होती है! जंगली-सूअर का शिकार इसी से हुआ करता था, जब बंदूकें नहीं थी आसानी से उपलब्ध!
उसको एक कन्या ने, येवू दिया, ये करीब बारह इंच का था, इसका हत्था सफेद हड्डी से बना था, पकड़ की पूरी जांच की गयी होगी!
"इधर आ?" बोला वो,
तब सरणू आगे बढ़ा! उसके पास तक पहुंचा!
"सुन, बोरा उठा ला!" बोला वो,
सरणू, बोरा ले आया एक, ले लिया वो बोरा बालू नाथ ने, तब येवू से वो चबूतरा उसने खोदना शुरू किया! अपने नीचे नीचे! हर तरफ से! वो कर क्या रहा था, मुझे नही मालूम था, मेरे लिए तो ये, पहली बार ही था, ऐसा कुछ देखना! वो क्यों खोद रहा था, पता नहीं, क्या खोद रहा था, पता ही नहीं! किसलिए खोद रहा था? वही जाने!
''साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"सुपत्र-माल निकालो, जल्दी!" कहा मैंने,
""उसमे है?" पूछा उसने, एक बैग की तरफ इशारा करते हुए!
"हाँ, जल्दी करो!" कहा मैंने,
वो दौड़ी गयी, और निकाल लायी, ये एक डोरी सी होती है, मुझे दी उसने, मैंने झट से ली! मेरी समझ में कुछ कुछ आने लगा था तब तक!
"सुनो?" कहा मैंने,
"बैठो, यहां बैठो!" कहा मैंने,
वो बैठ गयी, और तब मैंने उसकी कमर में वो माल बाँध दिया, दूसरा सिर लिया, और अपने घुटने से बांध लिया, मंत्र जपा और अलख की भस्म ली, ये भस्म, मैंने उसको भी चटाई और खुद भी चाट ली, अब जो हो रहा था वो भयानक ही होना था!
ऐसे ही अडिग रहना था हमें! भय मार रहा है, नहीं दिखना चाहिए था! अभी तक तो भय नहीं था, न उस पर ही और न मुझ पर!
वहाँ.....
उसने वो चबूतरा खोद लिया था, और उसने जो चार मस्तक निकाले थे उसमे से, वो कन्यायों के मस्तक थे! किसी कन्या घाड़ के चार मस्तक, चार घाड़ों के मस्तक! प्राचीन विद्याएँ, भीषण और क्लिष्ट हुआ करती थीं, तब तो नर-बलि भी आम ही हुआ करती थी, बाद में इसको निषिद्ध कर दिया गया था! आज तक निषिद्ध है! इसका जो पालन नहीं करेगा, उसके लिए दंड का प्रावधान ही है, उसे सौंप दिया जाता है पुलिस में, और क़ानून अपना काम करता है फिर!
तो ये भीषण प्रचलन बंद हुआ, निषिद्ध हुआ तो कई क्रियाएँ भी इसके साथ ही निषिद्ध हो गयीं! अन्यथा, तंत्र में वो शक्ति है, कि मरा आमदी भी जी उठे! ऐसी ऐसी सघोर विद्याएँ हैं, कि आप समस्त ब्रह्माण्ड का भ्रमण कर लें! ज्ञान जुटा लें! लेकिन आज ऐसा कोई नहीं करता, अब तो एक-आद प्रेत ही सिद्ध हो जाए तो अपने आप को तंत्र-सम्राट घोषित कर देते हैं लोग! जबकि तंत्र तो वो नदी है, जिसका कोई अंत नहीं!
उसने मस्तक निकाल लिए थे, उनको केशों से पकड़ कर, एक स्थान पर रख दिया था, उन पर मदिरा के छींटे छिड़के गए थे! सप्त-सामग्री छिड़की गयी थी!
''सरणू?'' बोला वो,
"जी?" बोला हाथ जोड़े हुए सरणू!
"कन्या को बुलाओ?" बोला वो,
सरणू ने आवाज़ दी, और एक कन्या दौड़ी चली आई वहां, ये अठारह बरस की रही होगी कम से कम!
"बैठ जा!" बोला वो,
कन्या नीचे बैठ गयी!
"मुख खोल?" बोला वो,
उस कन्या ने मुख खोला,
अपनी कलाई बधाई आगे, मंत्र पढ़ा और अपनी कलाई चाट ली उसने, दांतों से काट ली थी, रक्त छलछला गया था उसी क्षण! और तब उसने, रक्त की कुछ बूँदें उस कन्या के मुख में टपका दीं! जैसे ही मुख में रक्त गया, वो कन्या, हुंकार भर उठी!
हो गयी खड़ी! चिल्लाने लगी! हुंकार भरने लगी! नाचने लगी! केशों से खेलने लगी! बार बार, उस रक्त-पात्र की ओर भागे! और रोके बालू नाथ उसे! कुछ वचन बंधे! कुछ माँगा गया बदल में! कुछ लिया-दिया की बातें होने लगीं!
षंड-शिशिका!
स्वर गूँज उठे! जैसे ही गूंजे, मेरा रोम-रोम खड़ा हो गया! हैरत हुई मुझे! षंड को इसने सिद्ध किया हुआ था! ये सच में ही एक बहुत विलक्षण सी बात थी! षंड के विषय में, मैं आपको बताता हूँ!
षंड-शिशिका, इसके विषय में मैं आपको एक गूढ़ जानकारी देता हूँ! आपने माँ छिन्नमस्ता/छिन्नमस्तिका की तस्वीर, मूर्ति आदि अवश्य ही देखी होगी! उसमे आपने देखा होगा कि उन्होंने अपना मस्तक काटकर अपने हाथों में पकड़ा हुआ है, धड़ में से दो रक्त की धरें फव्वारे के रूप में बाहर छिटक रही हैं, जिन्हें दो कराली-स्त्रियां अपने मुख में ले, रक्त-पान कर रही हैं! ये कराली-स्त्रियां माँ छिन्मस्ता की सेविकाएं हैं, एक का वर्ण काला होता है और एक का गौर, जिसका काला होता है वो डाकिनी होती है और जिसका गौर, वो शाकिनि! ये डाकिनियाँ और शाकिनियाँ कुल मिलाकर, नौ सौ बहत्तर हैं! इनमे से, कुछ डाकिनियाँ, लोपमान ही रहा करती हैं! इनकी कुल संख्या, चौरासी है! इन्हीं चौरासी डाकिनियों की आराध्या ये षंड-शिशिका है!
तो मैं हैरान हुआ था कि इस बालू नाथ ने, सिद्ध किया हुआ था इस षंड को! आज सम्भवतः ही कोई इक्का-दुक्का हो तो हो, अन्यथा, वर्ष भर की साधना कर, उसको प्रसन्न करना, कोई मामूली बात नहीं!
जब षंड प्रसन्न होती है तो महा-विद्या दिया करती है! ये अचूक एवं अमोघ ही हुआ करती है! अब मुझे क्या करना था? या तो समकक्ष ही कोई हो, अथवा उस से ऊपर ही कोई और! तब, मुझे आह्वान करना था एक महा-विद्या का! ये महा-विद्या है नर-चरिका! उसने षंड का आह्वान कर ही लिया था! अब या तो मैं क्षमा मांग लूँ और जीवन दान प्राप्त हो! या, मैं इसी द्वन्द में खेत रहूँ!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"वृक्क उठाओ?" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
सामने रखे थाल में से, वृक्क उठा कर ले आई वो, दे दिए मुझे,
"वो, सुआँ भी?" कहा मैंने,
'हाँ!" बोली वो,
उसने दिया मुझे, उसमे मानव-केश से बनी सुतली बंधी थी, ये केश, किसी ऐसे मानव के होते हैं जो जन्म से ही नेत्रहीन हो, ये सब तांत्रिक सामग्रियाँ हैं!
"ये लो!" कहा मैंने,
मैंने उसको वो वस्तुएं दे दीं,
"इन वृक्कों को, इस से सी दो!" कहा मैंने,
"ऐसे, यहां से?" पूछा उसने,
"हाँ, इस कोने से!" बताया मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
उसने वही किया, मज़बूती से सी दिए वो,
"लीजिये नाथ!" बोली वो,
"इधर आओ!" कहा मैंने,
वो आई मेरे पास,
"मेरी जंघाओं पर, चढ़ जाओ, देखो, भूमि से स्पर्श न हो पाओ तुम!" कहा मैंने,
"जी! बोली वो,
उसने एक बार, दो बार प्रयास किया, बायां पाँव न संभाल पा रही थी वो!
"पहले संतुलन बनाओ!" कहा मैंने,
मैंने मदद की उसकी, और वो खड़ी हो गयी!
"अब, मेरे गले में पहना दो इसे!" कहा मैंने,
"जी नाथ!'' बोली वो,
और उसने पहना दिया!
"उतर जाओ, और मेरी जंघाओं पर ही बैठी रहना!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
"तत्क्षण ही, महा-भंजनी का वार होगा, अडिग रहना!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
"भूमि से मत छू जाना, आस्था!" कहा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
उस उस अवस्था में बिठा लिया था मैंने, कुछ इस तरह कि उसके शरीर का कोई भी भाग, भूमि से स्पर्श नहीं कर पा रहा था, इसे, असुंद-मुद्रा कहते हैं! ये मुद्रा आपको, खजुराहो एवं कोणार्क के सूर्य-मंदिर में देखने को मिल जायेगी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"अब मैं, नर-चरिका का संधान करूंगा! श्वास पर नियंत्रण रहे!" कहा मैंने,
"अवश्य ही!" बोली वो,
मैंने तब नर-चरिका का संधान आरम्भ किया! अपने दायें रखे, रक्त-पात्र से छींटे लेता और अलख में झोंक देता! चड़क-चटक की सी आवाज़ें गूँजतीं! रक्त जलता तो गंध आती! इस से काले रंग का धुआं उठने लगता है, ये धुआं संघनित होता है, नथुनों में जाए तो लगता है, वहीँ अटक गया है, इसी कारण से मैंने साधिका को, पहले ही चेता दिया था!
मैं संधान करता चला गया! और रक्त के छींटे झोंकता रहा! अपनी साधिके के सरीर से, मंत्र पढ़ मैं वो रक्त लगा दिया करता था, अपने माथे, एड़ियां, जंघाएँ, उदर, छाती और ग्रीवा पर लगाता चला गया!
तभी! ज़ोर का सा धमाका सा हुआ! ये धमाका तो नहीं था, हूँश जैसी आवाज़ हुई थी! ठीक सामने, बंधे हुए वे चारों मुंड चले आये थे! साधिका को ये देख, झुरझुरी सी चढ़ गयी थी! मैंने उसको, उसके गले में हाथ डालकर, पकड़ लिया था, दबा लिया था, ताकि, उसका कोई भी भाग, भूमि से स्पर्श न कर पाये!
"संतुलन बनाओ साधिके?" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"वो षंड-विद्या है!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"हम, नर-चरिका से बंधे हैं, घबराओ नहीं!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
वो चारों मुंड, किसी खिले हुए फूल समान, हिल रहे थे, घूम जाते थे, रक्त टपक रहा था गर्दन से उनकी! उनके मस्तक में, चौबे ठुके हुए थे, जिनके सिक्के जैसे सर थे!
"लौट जा!" मैंने पुकारा!
वे चारों, अट्ठहास करते हुए हँसे!
बोलते, तो सब एक साथ!
हँसते, तो सब एक साथ!
कोई साधरण मनुष्य देख ले, तो देह का चोला त्याग दे! यमपुरी का ही दरवाज़ा खुला मिले फिर!
"लौट जाओ!" कहा मैंने,
फिर से अट्ठहास हुआ!
"हाड़ल!" गूंजा स्वर!
ये बालू नाथ का स्वर था! वो हंस रहा था!
"इस विद्या से कोई नहीं बचता! प्राण शेष ही नहीं रहते! द्वन्द में अमोघ-अस्त्र है ये षंड-विद्या! तूने तो, सम्भवतः, सुना भी न होगा!" गरजा वो! दहाड़ा!
"बालू नाथ!" मैंने कहा,
इतने में ही वो मुंड, करीब आने लगे!
"ठहरो?" कहा मैंने, त्रिशूल उठाये हुए!
"बालू नाथ! मैं नर-चरिका में बंधा हूँ!" कहा मैंने,
''असम्भव!" बोला वो,
'आजमा लो!" कहा मैंने,
उसका अट्ठहास गूंजा उसके बाद! और वे मुंड, आकाश की ओर उड़ते हुए, लोप हो गए! साधिका ने देखा उधर, चुपचाप सी होकर! उसका पूरा बदन बर्फ की तरह से ठंडा हो गया था! स्पष्ट था, उसने ऐसा कभी देखा ही नहीं था! देखा क्या, सुना भी नहीं होगा!
"लौट गए?'' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" पूछा उसने,
"हाँ! नहीं! वो लोप हुए हैं मात्र!'' कहा मैंने,
और तब मैंने ऊपर देखा, आसमान साफ़ था, तारे चमक रहे थे, हल्की सी बयार बहने लगी थी!
और कुछ ही क्षणों में, चीत्कार मचाते हुए वे चारों मुंड चले आये उधर ही! ऊपर से नीचे! द्रुत-गति से! नीचे आते ही, वे अलग अलग हो ये! मुंह फाड़े, गोल-गोल चक्कर से काटने लगे! मैं और मेरी साधिका, दम साधे, उन्ही को देखे जा रहे थे! वे बुदबुदाते थे कुछ! ये मंत्र-ध्वनि थी! ये स्वर-पाशि, मात्र बालू नाथ की थी!
अचानक ही एक मुंड झपटा हमारी तरफ! साधिका ने मारी जैसे उछाल! मैंने दोनों हाथों से पकड़ लिया उसको, नहीं छोड़ा! वो मुंड जैसे ही उस घेरे में घुसा, भड्ड की आवाज़ करता हुआ, फट गया! नर-चरिका ने लील लिया था उसे! जैसे ही वो मुंड फटा, दूसरा लपका और वो भी फट पड़ा! मांस और भेजे के गरम गरम लोथड़े, जलते हुए ज़मीन से जा चिपके! वो भेजे के टुकड़े काले पड़े हुए थे, अर्थात वो घाड़, कम से कम दो दिन पुराने थे, ज़मीन में इसी लिए गाड़े गए थे कि इनकी देह की नमी, जल्दी ही शुष्क न हो! और इस तरह, वे चारो मुंड फट पड़े! नर-चरिका ने अपना काम कर दिया था! मांस की दुर्गन्ध फ़ैल उठी थी! वो राख होते जाते और नष्ट होते जाते! साथ ही साथ वो दुर्गन्ध भी!
"उठो साधिके!" कहा मैंने,
और वो झट से उठ खड़ी हुई! मैं भी उठ गया! उसको खींच कर अपनी तरफ किया! देखा उसकी आँखों में!
"तुम घबरा गयी थीं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" वो अभी भी डर के बोली!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मैंने ऐसा कभी नहीं देखा!" कहा उसने,
"सुना भी नहीं होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ, सुना भी नहीं!" बोली वो,
''अभी तो आगे आगे देखती जाओ!" कहा मैंने,
वो फिर से डरी!
"साधिके?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"मत घबराओ, कोई कुछ नहीं कर पायेगा!" कहा मैंने,
"आप जो हो!" बोली डर को छिपाते हुए!
"यदि भय हो, तो लौट सकती हो!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"प्राण भी जा सकते हैं!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोली वो,
"तैयार?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
'अब तो न घब्राओगी?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''अब अगर ऐसा हुआ साधिके, तो मैं ही तुम्हें भेज दूंगा वापिस!" कहा मैंने,
"अब न होगा ऐसा!" बोली वो,
"वचन?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''जाओ, बैठ जाओ एप आसन पर!" कहा मैंने,
वो गयी, तो मैंने अपने गले से वृक्क-माल उतारा! दो सौ ग्राम के वो वृक्क, अब मात्र बीस ग्राम के ही रह गए थे! नर-चरिका ने सोख लिया था उन्हें! मैंने वो वृक्क, अलख में झोंक दिए!
अब आसन पर बैठा मैं, और लगाई देख! देख पकड़ी गयी! वुर तब मैंने नज़ारा देखा वहां का! बाबा बालू नाथ, अपने आसन पर बैठा था, कलाई पर बंधी घड़ी की चेन, चमक रही थी! लगा रहा था कि जैसे प्रकाश फूट रहा हो उसकी कलाई से! और सरणू, अलख में ईंधन झोंक रहा था!
"सरणू?" चीखा मैं,
दोनों ने देखा सामने!
"थक गया?" पूछा मैंने,
सरणू खड़ा हुआ! उठाया चिमटा, खड़काया और फिर, अलख की परिक्रमा करने लगा! तीन चक्कर लगाने के बाद, वो आ बैठा वापिस! उसने तब एक लड़की को आवाज़ दी, लड़की से कुछ कहा, लड़की पीछे गयी, पेड़ से लटका एक थैला उतारा, और ले चली सरणू के पास! सरणू ने थैला लिया थैला, डोरी से बंधा था, उसने डोरी खोली और थैला नीचे कर दिया!
और जो झोले में से निकला, वो एक सांप था! सांप को शायद, धतूरे का अर्क चटाया हुआ था, सांप शिथिल पड़ा था बिलकुल ही!
"मदार-सर्पिणी!" गूंजे स्वर!
ये स्वर, वाचाल के थे! वो भांप गया था!
जो सर्प, मदार के पौधे के नीचे वास करता है, उसके विष में अमरत्व समान गुण हुआ करते हैं! ये सर्प, अधिकाँश रूप से, वल्लभ-नाग होता है, वल्लभ-नाग का रंग पूरा काला नहीं होता, ये भूरा, हल्का सा स्लेटी रंग का होता है! ये नाग, काले नाग से वजन ने वजनी, लम्बाई में लम्बा और विष में अधिक, दोगुना विषैला होता है!
इसके दोनों दांतों को, सोने के ताबीज़ में पढ़ कर यदि पहना जाए तो काया निरोगी रहती है, किसी विष का प्रभाव नहीं होता! ज़हर-मोहरा पत्थर बनाने में, इसी सांप की चर्बी का प्रयोग होता है! सर्प-हत्या दोष है, महा-दोष, कभी भी सर्प-हत्या के पाप का भागी नहीं होना चाहिए, ये पाप, वंश में प्रायश्चित होने तक, अनवरत रूप से चलता रहता है! या तो पुरुष-संतान नहीं होगी, अथवा कन्या-संतान भी न होगी, होगी तो कुलघातक होगी, बपौती नष्ट करने वाली, कुल-मान को दाग लगाने वाली होगी! इसीलिए सर्प-हत्या नहीं करनी चाहिए!
लेकिन इस मदार-सर्पिणी में, इस सर्प की हत्या होना तय था! ये अभिमंत्रण था, मेरे यहां का माहौल विषैला हो उठता, श्वास-ग्रंथि कार्य नहीं करती, फलतः प्राण हर लेती ये विद्या! ये एक कुटिल-चाल थी इस सरणू की!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"उस झोले में, संदिया पड़ी है, निकाल लाओ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
संदिया! संदिया एक जड़ी है, चंदन जैसे महकती है! लेकिन ये विष-हरण बूटी है! लोहबान में, इसका प्रयोग किया जाए तो कीड़े-मकौड़े जीवित नहीं रहते! ये छिपे हुए कीटों को भी मार डालती है! तंत्र में संदिया के तीन प्रयोग है, एक, ये वाजीकारक है, दो, ये आयुवर्धक है और तीन, ये बाँझ-स्त्री को भी संतान दे दिया करती है!
"ये लीजिये!" बोली वो,
"बैठो यहां!" कहा मैंने,
"जी!" बैठी वो,
"ये संदिया है!" कहा मैंने,
"देखी है मैंने!" बोली वो,
"कहाँ होती है?" पूछा मैंने,
''तालाब सूख जाने पर!" बोली वो,
"हाँ, गाँठ के रूप में!" कहा मैंने,
"हाँ! नेवला खाता है इसे!" बोली वो,
"बिलकुल ठीक!" कहा मैंने,
"इसका यहाँ क्या प्रयोग?" पूछा उसने,
"मदार-सर्पिणी!" कहा मैंने,
''वो क्या है?" पूछा उसने,
''अभी देख लेना!" कहा मैंने,
मैंने वो संदिया, टुकड़ों में तोड़ ली, रगड़ ली!
"ये लो!" कहा मैंने,
"क्या करना है?" पूछा उसने,
''अलख के पास बैठना!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"जब मैं कहूँ, कि फेंको, तब अलख में झोंक देना!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
"विलम्ब न हो!" कहा मैंने,
"नहीं होगा!" बोली वो,
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
"उधर?" पूछा उसने,
"हाँ, अभी!" कहा मैंने,
वो उठी और अलख के पास जा बैठी!
मैं अपने आसन पर बैठा, और देख लड़ाई!
कमाल था!
सांप नहीं था वहाँ! शायद, मना कर दिया था बालू नाथ ने उसे! हाँ, सरणू वहां नहीं था, वो शायद, कुछ सामान लेने गया था या फिर किसी और कारण से!
"आ जाओ वापिस!" कहा मैंने,
"अब नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
''वापिस रख दूँ?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
बालू नाथ जानता था कि ये मदार-सर्पिणी कुछ न कर पाएगी! देख तो उसकी भी लगी थी! वो क्या करने वाला है, ये मैं वाचाल से ही जानता था!
"हो जा तैयार!" आई आवाज़ उस बालू नाथ की!
मैंने झट से उसी को देखा!
वो खड़ा हुआ, अलख तक गया, और आँखें बंद कर लीं अपनी!
उसने नेत्र बंद कर लिए थे अपने! अलख का प्रकाश, उसकी उठती, भड़भड़ाती लौ, टकरा जाती थी उस वृद्ध औघड़ से! उस कद, विशाल, देह दुरुस्त एवं, आत्मविश्वास तो जैसे पर्वत समान था! मैं, जब भी उसको देखता तो उसका प्रबल रूप समक्ष आ जाता था! उसकी वाणी, कठोर नहीं थी! हँसता था, तो जैसे वज्र खनक रहा हो, ऐसा प्रतीत होता था! अब ये तो पूरी तरह से स्पष्ट था, कि ये द्वन्द, मेरे और सरणू के बीच नहीं था, ये द्वन्द, मेरे और बालू नाथ के मध्य था! एक बात और, वो कुछ भी करता, तो छिपाता नहीं था, बल्कि जैसे चुनौती दे रहा हो, ललकार रहा हो, ऐसे करता था! अब तक मुझे ये नहीं समझ आया था कि इस जैसा प्रबल औघड़, इस लम्पट सरणू का साथ क्यों दिए जा रहा था! कुछ न कुछ कार तो अवश्य ही था, नहीं तो, सरणू की कोई औक़ात ही नहीं थी कि वो बालू नाथ जैसे भीषण औघड़ के साथ, बैठ भी जाए!
"हाड़ल!" बोला वो,
अचानक से नेत्र खोले हुए!
"हाड़ल, आ! दिखाता हूँ तुझे! दिखाता हूँ तुझे कि मैं कौन हूँ! मैं बालू नाथ हूँ! बालू नाथ!" बोला वो,
"बढ़ आगे बालू नाथ!" कहा मैंने,
"संभाल!" बोला वो,
और अलख में ईंधन झोंका उसने, खड़े खड़े ही! उसकी मालाएं खनक उठीं! उसका बड़ा सा त्रिशूल जो बाएं गड़ा था, उखाड़ लिया उसने तब!
''सरणू?" चीखा वो!
सरणू, दोनों हाथ जोड़े, किसी चाकर सा, आगे बढ़ता चला गया! बाबा ने बात की कुछ उस से! और सरणू ने सुनी! सरणू के कंधे पर थाप दी बालू नाथ ने, और बालू नाथ, ठहाका मारते हुए, दौड़ता चला गया पीछे!
"हाड़ल! अंत निकट है!" बोला वो,
''बालू नाथ! ये तो तू भी जानता है!" कहा मैंने,
"हाँ! सच कहा तूने! जानता हूँ मैं!" बोला वो,
"तो बढ़ बढ़ के बातें न बना!" कहा मैंने,
उसने एक ज़ोरदार सा अट्ठहास लगाया! जबड़े का मांस, फैला और नेत्र छोटे हो गए! केश झूल उठे उसके!
"अंत देखेगा तू! शीघ्र ही! बस, शीघ्र ही!" बोला वो,
"मुझे प्रतीक्षा है बालू नाथ!" कहा मैंने,
"प्रतीक्षा समाप्त!" बोला वो,
और तब, सरणू, एक स्त्री को लाया वहां! उसकी आयु, करीब सत्ताईस या अट्ठाइस रही होगी, स्थूल-देह थी उसकी, रंग गेंहुआ और अंग-प्रत्यंग पुष्ट थे, वो मुझे कोई कौरी-साधिका सी लगी, कौरी-साधिका, वो साधिका जो तीक्ष्ण क्रियायों में अक्सर ही बैठा करती है!
उस स्त्री का नाम, उसने, नीता लिया, शायद यही नाम रखा गया होगा उसका साधनाओं में, उस स्त्री नीता से सभी वस्त्र उतरवा दिए उसने, इसमें, दो कन्यायों ने मदद की उसकी, उसके बाद, वो अलख के पास बिछे, आसन पर जा लेटी, तब, उसकी देह को दग्ध किया बालू नाथ ने, चिन्हित किया चिन्हों से, केश खोल दिए गए, भस्मादि लेप दिए गए! फिर उसको बैठने को कहा गया, वो बैठ गयी!
तब बालू नाथ ने, अपना त्रिशूल लहराया, पढ़ा मंत्र और उस स्त्री के उदर से छुआ दिया! वो स्त्री त्रिशूल से छूते ही, पीछे जा उछली! कोई साधरण सा मनुष्य हो, तो उसके कूल्हों का मांस उखड़ आये, इस तेजी से वो पीछे सरक गयी थी! तब, दहाड़ा वो बालू नाथ! और मन्त्र पढ़ा! मंत्र पढ़ते ही, उस स्त्री पर थूक दिया उसने!
वो स्त्री, बैठी बैठी ही, झूमने लगी! साँसें उखड़ने सी लगीं उसकी! दोनों हाथ उठाती, आपस में टकराती, उठने की कोशिश करती, सर हिलाती, आसपास, देखती, थूकती, फिर से झूमने लग जाती!
"रे हाड़ल?" बोला वो,
मैं चुप, उस स्त्री को देख रहा था मैं, वो उठने का प्रयास करती, तो बाबा अपने पाँव का अनूठा छुआ देता उसे! उसके पुकारने से मेरा ध्यान, खुला, देख का जाल, बाबा पर पड़ा!
"रे हाड़ल?" बोला वो,
"बोल बालू नाथ?" कहा मैंने,
''अंत आ गया!" बोला वो!
अब मैं हंसने लगा! तेज तेज!
"देख! देख! भुवनिका इष्माण्डि!" बोला वो गरज कर!
और जैसे ही मैंने सुना, मेरे कानों में जैसे पिघलता हुआ सा कांच घुसा! जैसे, मेरे जबड़े में, किसी ने पतले फाल का भाला उतार दिया हो, गला बींध दिया हो!
ये मैंने क्या सुना?
क्या सुना मैंने?
क्या कहा उसने?
भुवनिका ईष्माण्डि?
यही? यही सुना मैंने? तो क्या.................???
नहीं नहीं! वहम है मेरा ये! ऐसा कैसे सम्भव है? भला इष्माण्डि भुवनिका कैसे प्रसन्न हुई होगी इस से? नहीं! मेरा वहम ही है ये!
"हाड़ल?" बोला वो, छाती पर हाथ मारते हुए अपने!
मैं चुप! प्रतीक्षा करूँ! प्रमाणित हो जो मैंने सुना!
"इष्माण्डि भुवनिका!" बोला वो,
क्या? मैं झट से सकते में आ गया! मुझे अपने बदन से, गरमी सी फूटती लगी! ऐसा, भला कैसे सम्भव है?
''अंत! कहा था न मैंने?" बोला वो, दहाड़ कर!
और वो सरणू, जैसे, हँसते हँसते, गिरने को तैयार!
इष्माण्डि भुवनिका! सरंक्षण प्राप्त है इसे, चौंसठ योगिनियों का! अमोघ होती है इसकी शक्ति! अब मेरे पास क्या था? क्या था ऐसा?
"काकड़ा? कर्णी?" चीखा मैं!
कोई उत्तर नहीं!
जान गया था मैं, कि उसके पास, कोई उत्तर नहीं!
अब, पहली बार, मुझे भय ने दंश मारा! मेरे पांवों में पसीना आ गया! क्या करना चाहिए मुझे?
"वाचाल?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
वाचाल भी चुप!
''वाचाल?" कहा मैंने!
"लोहितांग!" आई आवाज़! गूंजे स्वर! ये वाचाल था! अट्ठहास लगाया उसने, और जैसे मुझे सांस मिली!
लोहितांग! ये महा-आसुरी महाशक्ति है! नभोत्तर में वास करती है! डामरी-विद्या की भौमिक-शाखा की अधिष्ठात्री है! वर्ण में गौर, कद में भीषणा, रूप में, मदनी सी, और स्वभाव में, रक्त-पिपासु होती है! बंजारे लोग, इसका आह्वान करते हैं आज भी!
आधा चन्द्र, चन्द्र पर पताका, इसका चिन्ह है! रात में महाबली होती है, आसुरिक-बल से परिपूर्ण होती है! मात्र ग्यारह रात्रि साधना-काल है इसका! चौबीस, बलि-कर्म से पूज्य है! लोहितांग, अन्य महाशक्तियों का आशीष भी प्रदान कराती है! ये विशेषता है इसकी!
''साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"वो, ब्रह्म-कपाल लाओ, शीघ्र ही!" कहा मैंने,
वो दौड़ कर गयी, कपाल उठाया और माथे से लगा, दिया मुझे!
''वो, रजत-दीप प्रज्ज्वलित करो!" कहा मैंने,
''अभी, नाथ!" बोली वो,
और मैंने तब........
आनन-फानन में रजत-दीपक प्रज्ज्वलित करवाया गया, आस्था ऐसे कार्यों में निपुण थी, देर न लगाती थी वो! और जैसे जैसे समय भी बीते जा रहा था, वो बरबस मेरी तरफ ही बंधे जा रही थी! उसका विश्वास, मुझ पर भदे ही जा रहा था, और ये बहुत अच्छा था, इस समय के लिए! मेरे पास कोई और तो था नहीं, जिस की मैं, उस समय मदद लेता! मेरे पास मेरी ये 'नयी-नवेली' सी ही साधिका थी!
"एक काम और?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोली वो,
"उस घाड़ को देख आओ!" कहा मैंने,
"जी अभी!" बोली वो,
वो गयी वहां तक, उसको छू कर देखा, अभी उसमे लीजपन था, लीजपन मायने, अकड़न नहीं आई थी उस घाड़ में! अकड़न आ जाए तो घाड़ का अवसान हुए जा रहा है ऐसा जान लेना चाहिए!
वो आई वापिस, और खड़ी हो गयी उधर ही!
"ठीक है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"ये रजत-दीप, उसके सिरहाने रख आओ!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
उसने वो छोटा पात्र उठा लिया, जिसमे वो रजत-दीप जला था और उस घाड़ के सिरहाने रख दिया! और आ गयी वापिस!
''साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
''अपना स्थान ग्रहण करो!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" बोली वो,
अलख में ईंधन झोंका, और तब मैंने अपने देख लड़ाई! वाचाल की देख उलझी उधर, बालू नाथ ने देख पकड़ी! मैंने देखा कि वो स्त्री, अब विक्षिप्तों की तरह से झूमने लगी थी! वो भूमि पर, किसी श्वान की भँति, दोनों हाथों पर, पांवों पर, चल रही थी, जिव्हा बाहर थी उसकी, उसका उदर, तेजी से ऊपर-नीचे हो रहा था, वो बीच बीच में चीखें मारने लगती! उठने की कोशिश करती, तो बालू नाथ, अपने पाँव से उसको गिरा देता! ये आह्वान था उस भुवनिका इष्माण्डा का!
"अर्रा?" चीखा बालू नाथ!
"भौर! भौर! भौर!" चीखी वो स्त्री!
"अर्राट?" चीखा बालू नाथ!
"भौर! भौर भौरसस्स्स्स्स्स्र!! चीखी वो, हुई घुटनो पर खड़ी, झुकी आगे, और अपने स्तन, दोनों स्तन ऐसे खींचे के पूरा वक्ष-स्थाल ही लाल हो गया! वो अब प्रबल आवेग में थी! ये आह्वान और आमद से पहले की स्थिति थी!
"इष्माण्डा?" चीखा बालू नाथ!
''हिर्सव्व्व्व्!!" कहते हुए, चीखी वो! झूमने लगी थी फिर से, नाक और मुंह, दोनों से श्वास भर्ती थी और छोड़ देती थी एक साथ!
वहां अभी कुछ समय था, मुझे लोहितांग का आह्वान करना था, लोहितांग लोप-अवस्था की सत्ता है, इसकी कौटिभि-महाविद्या को ही जागृत करना था मुझे! मैं ढंग से जाप करता, तो बारह से चौदह मिनट के भीतर, इस विद्या का संधान कर सकता था! परन्तु इसके लिए, मुझे मेरी साधिका में, अरूमा-सहचरी को स्थान देना था, यही सहचरी, लोहितांग का मार्ग प्रशस्त करती है! यूँ कहिये कि यही अरूमा ही, हाँकिनि होती है इस लोहितांग महा-आसुरी की!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"मुझे स्थापन करना है!" कहा मैंने,
"मैं तैयार हूँ!" बोली वो,
"सोच लो साधिके?" कहा मैंने,
''सोच लिया है!" बोली वो,
"जय श्री भैरव नाथ! भैरव जी कृपा करें!" कहा मैंने,
"जय भैरव नाथ!" बोली वो,
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
वो अपने स्थान से उठी, मेरे स्थान तक आई,
"शेष वस्त्र उतार दो साधिके!" कहा मैंने,
उसने वस्त्र उतारे और वस्त्रहीन हो गयी, इस करना ही विधान है, इस समस्त देह को ही सूक्ष्म प्राप्ति हेतु, स्थूलत्व को ही भौतिक माना जाता यही, अतः, उसने मेरे आदेश का पालन किया और मैं इस अभिचार में, एक क़दम आगे, और लांघ गया!
"साधिके?" कहा मैंने,
''आदेश नाथ?'' बोली वो,
"मेरे आसन पर, उर्ध्व-मुद्रा में लेट जाओ!" कहा मैंने,
'अवश्य नाथ!" बोली वो,
और वो जा लेटी उड़े, मैंने तंत्र-सामग्री वाला पात्र लिया और अब उसकी देह पर चिन्ह अंकित करने आरम्भ किये, ये मैं अत्यंत ही सधे हुए रूप से कर रहा था, विलम्ब करना नहीं था! चूक की कोई गुंजाइश शेष नहीं थी!
"अब प्रल्ल्भ-मुद्रा!" कहा मैंने,
उसने करवट बदली, अपनी खोनी को सर के नीचे रखा, दायें, और मैंने फिर से चिन्हांकन आरम्भ किया! अधिक समय नहीं लगा!
"बैठ जाओ साधिके!" कहा मैंने,
वो बैठ गयी, इसमें, अपने पाँव की एड़िया एक ख़ास कोण पर, कूल्हों के नीचे टिकाई जाती हैं, इस से, नाभि-चक्र को बल मिलता है, आमद, सरल हो जाती है किसी विशेष सत्ता की!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आमद का अवसर, प्रथम है?'' पूछा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"भय तो नहीं?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
मैं आगे बढ़ा, उसके गले से, उसके केश आगे की ओर कर दिए, एक एक कंधे पर, बाँट दिए, केश खोल दिए थे, कोई बंधन शेष नहीं रहना था उनमे, अन्यथा, ये उसको चोट पहुंचा सकता था, मैंने कई साधिकाओं को देखा था, जिनके नेत्रों में दोष हो गया था, ऐसी आमद के दौरान और ये, सालों तक चलता रहा था!
''साधिके?'' कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"अब मैं अभिचार-कर्म आगे बढ़ाता हूँ!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
मैं थोड़ा सा, पीछे हटा, मदिरा का पात्र लिया, मदिरा परोसी उसमे, अधिक मात्रा में, अपने पात्र में, अपने लिए परोसी मदिरा, मंत्र पढ़ा और लाया वो पात्र उसके पास!
"ये लो साधिके!" कहा मैंने,
उसने हाथों में लिया पात्र!
"भोग स्वीकार करो!" कहा मैंने,
तब मैंने, और उसने, वो पात्र कुछ ही क्षणों में, खाली कर दिए, पात्र लिए मैंने, और रख दिए एक तरफ! अलख की ओर घूमा, और अलख में ईंधन झोंका! कुछ पल बीते, करीब पांच मिनट होने दिए!
"साधिके?" कहा मैंने,
वो चुप!
"साधिके?" कहा मैंने,
फिर से चुप!
मदिरा का असर होने लगा था!
"साधिके?" पूछा मैंने,
उसने, अपनी जंघाएँ, खोल दीं, जैसे नियंत्रण न रख पायी हो वो उन पर, अब उचित समय था! उस अरूमा के स्थापन का! इस साधिके की देह में!
''साधिके?'' कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं! मेरी तरफ, देख भी न सकी वो!
साधिका पर अब मदिरा का असर हो चला था, उसने जैसे अपनी सुध-बुध खो दी थी! अब उसे मेरे आदेशों का अनुपालन करना था, मैं उसमे अरूमा को स्थान देता और ये अरूमा ही, मार्ग प्रशस्त करती लोहितांग महा-आसुरी का! लोहितांग के कुछ मंदिरों के भग्नावशेष आज भी तिब्बत, पूर्वी-भारत, सिक्किम आदि के आसपास मिल जाया करते हैं, कुछ इसे अप्सरा कहते हैं और कुछ डाकिनी! परन्तु, ये एक महा-आसुरिक शक्ति है! लोहितांग को लोहितांगी, लोहता, लोहिता एवं लुहाती भी कहा जाता है, कई स्थानों पर, इसका उल्लेख भी प्राप्त हो जाया करता है!
"साधिके?" मैंने पुनः आवाज़ दी!
अबकी बार, उसने अपना सर उठाया, आँखों में मदिरा तैरने लगी थी, लाल हो चली थीं उसकी आंख्ने, चेहरे पर, पसीना छलक आया था, देह जैसे खुलने को थी, जोड़-जोड़ उसका जैसे, अलग होने को मचल रहा था! तभी मैंने अलख में, शालवशुण्डी डाली, ये अभ्रक जैसी कड़क और मुलायम दोनों ही प्रकार की, रंग में लाल और स्वाद में कसैली जड़ी है, ये जंगलों में अक्सर मिल जाया करती है, आमद के स्थान पर, इस जड़ी को लोहबान की तरह से जलाया जाता है, आजकल इसका प्रयोग कम ही किया जाता है, आजकल आह्वान कम, और 'पकड़' ज़्यादा होने लगी है, जैसे मुवक़्क़िल आदि से पकड़वा लेना, लेकिन ये कार्य-क्षेत्र छोटा एवं सीमित है, तन्त्रोत्थान हेतु, सोपान चढ़ना ही अत्युत्तम माना गया है!
तो मैंने अलख में शालवशुण्डी झोंक दी थी, आसपास का महल बेहद हल्का और शांत हो चला था, औंधिया अपनी ज़ोरुआ संग, बना हुआ था उसी स्थान पर! उसके होते हुए, किसी अन्य प्रकार की बाधा उत्पन्न हो ही नहीं सकती थी! मैंने बीच बीच में औंधिया और उसकी लुगाई को भोग दे दिया करता था!
तब मैं खड़ा हुआ, लिया अपना त्रिशूल और लिया वो शिशु-कपाल संग, अलख पर जा बैठा, अब मंत्रोच्चार में जुट गया! अलख में प्रत्येक मंत्र की समाप्ति पश्चात, रक्त के छींटे छिड़क दिया करता था! मुझे अधिक समय नहीं लगा! और अलख से उठ गया मैं, मेरी साधिका, सुध-बुध खो, भूमि पर, पेट के बल लेट गयी थी, उसके दोनों हाथ, उसके उदर के नीचे पड़े थे दबे हुए, मैंने वो निकाले, उसको होश में लाने के लिए, कुछ जल लिया हाथ पर, और उसको पलटा, उसके मुख पर, गले पर, छाती पर, जल लगा दिया, थोड़ी ठंडक पहुंची तो नेत्र खोल लिए उसने!
"साधिके?" कहा मैंने,
लड़खड़ायी सी आवाज़ में, उसने आदेश बोला!
"उठो!" कहा मैंने,
मैंने सहारा देकर, उसको उठाया, और बिठा दिया, उसने संतुलन बनाया अपना, और बैठ गयी! मैं भी अब उठ खड़ा हुआ, लिया शिशु कपाल अपने हाथ में, और बढ़ा आगे, उसकी तरफ!
''चौकड़ी मार लो साधिके?" कहा मैंने,
उसने चौकड़ी मार ली, बैठ गयी,
"ये लो, इसको अपने हाथों से ऐसे पकड़ो, कि इसका मुंड, तुम्हारे नाभि-स्थल को छुए!" कहा मैंने,
''ऐसे?" उसने पूछा,
"नेत्र-कोटर, सम्मुख रखो!" कहा मैंने,
"ऐसे?" बोली वो,
"हाँ, ठीक! ऐसे ही! अब हिलना नहीं!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"तैयार हो?" पूछा मैंने,
"जी!" बोली वो,
मैंने तब, उठाया त्रिशूल ऊपर! और किया मंत्रोच्चार! ह्रौं-ध्मां शब्दों से श्मशान जैसे मस्त हो, नाचने लगा हो! जैसे बहार आने से, पतझड़ कूच कर गया हो! जैसे, तपती दोपहरी में कोई बदली, आ बरसे! ऐसे वो श्मशान प्रसन्न हुआ था!
और इस तरह, मैंने अरूमा का महामंत्र पढ़ते हुए, अपनी साधिका के मस्तक से अपने त्रिशूल का फाल छुआ दिया! उसने तीन बार तेज तेज झटके खाए! नेत्र बंद कर लिए अपने! शिशु-कपाल को जकड़ लिया हाथों में! और अचानक ही!
अचानक ही वो उठ खड़ी हुई! सीधा दौड़ी मेरी तरफ, और मेरे केश पकड़ लिए! अब वो आस्था नहीं थी! उस में, एक एक करके, नौ सहचरियां आतीं और जातीं! मैं तो ये जानता था, अतः, चुप रहा! मेरे केश छोड़ दिए! भूमि पर, अपने घुटने मोड़, कपाल संग जैसे खेलने लगी वो! मैंने तब ही, महामंत्र पढ़ा, अरूमा का! नेत्र अचानक से पीले हो उठे उसके! चौड़े! भयंकर! होंठ, चौड़ा गए! माथे पर, शिकन उभरने लगीं!
अचानक ही, उसने एक ज़ोरदार झटका खाया! और आसन के करीब ही, वो जा गिरी! मैं भागा उसके पास जाने को! मेरे जाने से पहले ही, वो उठ बैठी!
"प्रह्लल!!" चीखी वो!
मैंने सर झुका लिया अपना!
"प्रह्लल!" फिर से चीखी वो!
मैंने फिर से सर नवाया!
वो एक ही झटके में उठ खड़ी हुई! एक ही झटके में, जैसे कोई स्प्रिंग! बल्कि, उस से भी तेज! मेरे सम्मुख आई!
"प्रह्लल?" बोली वो,
"रक्षा!" कहा मैंने,
उसने आसपास देखा, भूमि और आकाश ही! फिर मुझे देखा, और मेरे केश पकड़ कर, ऊपर से, मुझे उठा लिया भूमि से! मैंने न त्रिशूल ही छोड़ा, न ही अपना कोई तंत्र-माल टूटने दिया!
''रक्षा!" कहा मैंने,
एक लम्बी सी स्वास भरी उसने! गरम थी बहुत! भयानक सा ताप था उसमे! उसने मुझे नीचे छोड़ दिया फिर!
आकाश का अवलोकन किया! फिर मुझे देखा, दांत भींचे अपने, चौड़े नेत्रों से घूरा मुझे, और फिर, एक अट्ठहास!
यही है अरूमा-सहचरी! अरूमा-सहचरी अत्यंत ही क्रूर स्वभाव वाली होती है! इसकी साधना, नौ रात्रिकाल है, नौ बलि-कर्म से पूज्य है! निर्जन, उजाड़ स्थान पर, वृद्ध स्त्रियों के केशों से बने आसन पर बैठ कर, गूलर से नई माला लेकर, जिसमे चौंसठ गूलर गुंथे हों, अलख उठाकर, स्थान, कीलित कर, इसकी साधना का विधान है! सम्मुख नहीं आती, स्वर में ही बातें किया करती है, अतः, इस समय पर, एक कुशल एवं प्रवीण साधिका की परम आवश्यकता पड़ती है! ऐसे कि, मुझे पड़ी थी, इस साधिका, आस्था की! सिद्ध हो जाने के पश्चात, त्वरित फल दिया करती है! परन्तु, बलि-कर्म का विधान, निभाना अत्यंत ही आवश्यक होता है!
वो कभी अपने नेत्र बंद करती, और कभी खोल देती!
एक एक क्षण, अब काटना भारी पड़ रहा था! वो इष्माण्डा अभी तक क्यों नहीं प्रकट हुई? या उसको कोई महा-विरातिक महाविद्या? क्या कारण है? मैं कब तक, अरूमा का स्थापन करूंगा? इसके वेग, अतिचार, हल्ल्भिका से, इस साधिका की मेरु-दंड ही न टूट जाए कहीं? कहीं, पसलियां ही न खुल जाएँ? वैसे श्वास तो सामान्य ही थी उसकी! श्वास, साधिका की ही थीं!
तब मैंने, त्रिशूल लिया! और उस साधिका को, महा-रूढ़िका मन्त्र के घेरे में लिया! आसन पर बिठा लिया! उसका अट्ठहास गूँज जाता वहां! वो बाएं, इतना झुक जाती कि जैसे कन्धा, भूमि को छू जाए! और ऐसे ही दायें भी! ऐसे ही सामने और ऐसे ही पीछे!
बस! यही तो डर था मुझे, कहीं साधिका की देह में कोई दोष न उपज आये! कहीं अस्थि-क्षय ही न हो जाए!
"प्रह्लल?" चीख कर बोली वो!
अपना माथा, भूमि से लगाये हुए!
"रक्षाम!" कहा मैंने,
"प्रह्लल!!" बोली वो,
अब अट्ठहास लगाते हुए!
"रक्षाम!!" कहा मैंने,
तभी भीषण सा शोर हुआ! कुछ जैसे जलकर, बुझा! कुछ समझ नहीं आ सका! जैसे कोई तारा ही टूटा हो, भयानक शोर के साथ! मैं उठ खड़ा हुआ!
कुछ न कुछ तो था! कुछ न कुछ!
वो साधिका भी, उठ खड़ी हुई!
अट्ठहास सा भरा उसने!
और श्मशान में उसका अट्ठहास दूर तलक कौंधता चला गया! ये अट्ठास, चीख भरा, गला फाड़ता सा हुआ और क्रंदन जैसा था!
अगले ही पल.................!!
अगले ही पल, ठीक सामने ही, श्मशान की भूमि पर, कुछ हलचल सी दिखाई दी! ये कोई जानवर तो नहीं था, ये तो तय था! जानवर के आने का तो कोई सवाल था ही नहीं! और एक बात, साधिका का ध्यान खिंचा था उस तरफ, वो धीमे से आगे बढ़ी थी, और फिर पाषाण की मूर्ति की तरह शांत खड़ी हो गयी थी! वहां अवश्य ही कुछ न कुछ ऐसा असहय ही था, जिस पर वो साधिका/अरूमा, कुछ भी पुकारिए, बरबस, एकटक, नज़र रखे हुए थी! मुझे कुछ स्पष्ट नहीं दीख पा रहा था, अतः, मैं आगे बढ़ा! धीरे धीरे! अब न कोई शोर था न कोई अन्य ही आवाज़! मैं सम्भलते हुए आगे बढ़ा! कौतुहल से, पसीना छलछला गए थे मेरे तो!
मैं गया और साधिका के संग आ खड़ा हुआ, सामने देखा, सामने तो अभी भी अँधेरा सा ही था, अलख का प्रकाश यहां तक पहुंच तो रहा था, लेकिन था बड़ा ही मद्धम सा, अलख, हमारे पीछे उठी हुई थी, हमारी परछाइयाँ भी उधर ही, सामने पड़ रही थीं! मैंने तब ज़ोर लगाया अपनी आँखों पर! देखने की कोशिश की! बड़ी ही मुश्किल से मुझे कुछ दीखा! देखने में ये लगता था कि जैसे कोई छोटी सी पोटली पड़ी हो, हरे से रंग की! लेकिन उस पोटली में हरकत सी हो रही थी, या तो कुछ था उस पोटली में, या फिर, वही कुछ और था! मैंने अभी ध्यान दे ही रहा था कि मैं चौंक पड़ा!
साधिका ने एक हुंकार सी भरी, मुख बंद किये हुए ही! मैंने उसकी तरफ देखा, आँखें ऐसे बाहर, जैसे निकल कर बाहर ही उछल जाएंगी! चेहरे पर ऐसा क्रोध कि टुकड़े कर दे अपने शत्रु के पल भर में ही!
सच कहता हूँ, उस पल मैं कुछ न भांप सका था कि ये सब क्या हो रहा है, ये बालू नाथ की कौन सी, अज्ञात विद्या थी, किस से पाला पड़ा था मेरा! हाँ, साधिका क्रोध में थी इसका मैं अर्थ समझ सकता था!
अचानक ही, उस स्थान से, किसी शिशु के रोने की आवाज़ आई! जैसे उसने कोई सिसकी सी भरी हो! पाँव तले ज़मीन खिसकने को गो जाती किसी की भी, अगर कोई साधारण मनुष्य उसे सुन लेता तो! वो सिसकी ऐसी लम्बी थी कि कम से कम आधा मिनट, एक ही सांस में चलती ही रहती थी!
अब कुछ समझ नहीं आये! कुछ ही नहीं! मुझे तो इष्माण्डा भुवनिका की प्रतीक्षा थी, लेकिन ये शिशु?
ये कैसा अजीब सा कलाप था? ये कैसी विद्या? अरोहण-विद्या कही जाती है ये, जिसमे शिशुओं या भ्रूण का प्रयोग किया जाता है, परन्तु हंतक-क्रिया के लिए, किसी शिशु का प्रयोग होता हो, ऐसा नहीं सुना था मैंने, न तो सुना ही था और न देखा ही था, हाँ, आज वो ही देख रहा था मैं, पहली बार!
"प्रह्लल?" गरज कर बोली वो!
हाथ बंध गए थे उसके! भुजाएं फड़कने लगी थीं! मैंने आह्वान किया था, इसीलिए तनिक विश्वास अवश्य ही था कि कुछ अहित नहीं होगा मेरा, लेकिन यहां तो बात कहाँ से कहाँ जा रही थी! मैंने इसी आपदा नहीं देखी थी कहीं! अरूमा का इस प्रकार क्रोध में आना, पहले दो बार देखा था, परन्तु, इस प्रकार फड़फड़ाना, आज पहली बार ही देख रहा था, झूठ नहीं बोलूंगा, उस समय, पल भर के लिए, मेरे हृदय में, भय की रेखा खिंच ही आई थी!
और अचानक ही, साधिका भाग छूटी! मैं उसके पीछे पीछे भाग लिया! साधिका आगे भाग रही थी, जो मैंने देखा, मैं तो ठिठक कर ठहर गया! मेरे पाँव जहां के तहाँ जम चले!
सामने एक शिशु बैठा था, वो कन्या थी, घर्र-घर्र की सी आवाज़ आ रही थी, शायद उसकी छाती से या फिर पेट से, उसकी देह पर, रक्त लिपा था! स्पष्ट था, ये शिशु-घाड़ तो था नहीं! ये किसी क्रिया का ही भाग था!
अचानक से वो शिशु चिल्लाया! कान फटने को आ गए! मंत्रों से न बंधा होता तो बहरा ही हो जाता मैं तो! और एक अजीब सा बदलाव देखा मैंने! वो कन्या, अब बढ़ने लगी थी! जैसे अब हुई साल भर की, और अब दो साल की, और अब, चार साल की! मैं तो साँसें थामे सब देख रहा था! ये कैसी विशिष्ट, अति-विशिष्ट सी महाक्रिया रच डाली थी इस बालू नाथ ने! न चाहते हुए भी, मैंने उसका लोहा मान लिया! मानना ही पड़ा! कोई मूर्ख ही हो, जो अस्वीकारता उसे!
सहसा ही मेरी साधिका गुर्राते हुए सी, जा झपटी उस पर! कन्या ने फिर से रूप छोटा किया अपना, जैसे भय खा गयी हो! साधिका ने, पहले उसकी छाती पर रखा एक पाँव, चीखी बहुत तेज! और उखाड़ दी एक बाजू! फिर दूसरी और फिर उदर चीर ही डाला अपने हाथों से! उठा पड़ा धूम्र-वलय उधर! अब कुछ न दिखे! कुछ पलों में जब हटा, तो मेरी साधिका, लम्बी लम्बी साँसे लेते हुए, ज़मीन पर पड़ी थी! और उस कन्या का अब कोई नामोनिशान ही शेष नहीं था! न उखड़े अंग, न रक्त ही, और न ही रक्त के कुछ निशान, न ज़मीन पर ही रक्त की बूँदें!
अर्थात, जैसे आरम्भ हुआ था, वैसे ही समाप्त हो गया! क्या भुवनिका इष्माण्डा, लौट गयी? क्या यही कन्या उसका प्रतिरूप थी? क्या अरूमा ने ही ऐसा कर दिखाया था? ऐसे ऐसे वज्र रुपी सवाल मन में उपज गए सरकंडों की तरह!
मेरे होश काबिज़ हुए!
जैसे मैं सकते से बाहर आया!
''साधिके? साधिके? आस्था? आस्था?" चिल्लाता हुआ, मैं दौड़ पड़ा उसकी तरफ! उसकी साँसे ऐसी तेज चल रही थीं कि आप सुन सकते थे उसके हृदय-स्पंदन!
मैंने फौरन ही उठाया उसको, और चल पड़ा अलख की तरफ! जैसे ही बीच रास्ते में पहुंचा, फिर से वैसा ही शोर गूंजा! कोई भागा हो जैसे मेरे करीब से! लम्बे लम्बे डिग भरते हुए! मैं रुक गया!
"कौन?" चीखा मैं,
कोई उत्तर नहीं मिला!
मैं आगे बढ़ा, थोड़ा सा, तो पीछे से, जैसे किसी ने छाती फटकारी हो अपनी!
"कौन यही?" मैंने पूछा पीछे मुड़ते हुए!
कोई नहीं था वहां! ये मेरा वहम हो, ऐसा भी नहीं था! मैं फिर से आगे बढ़ा! और फिर से, वैसा ही शोर हुआ! ये शोर ऐसा था, कि जैसे एक साथ सैंकड़ों स्त्रियों की रुलाई फूट पड़ी हो! ऐसा था वो शोर!
"कौन है?" पूछा मैंने,
''सामने आओ?" कहा मैंने,
"सामने, समक्ष आओ?" कहा मैंने,
कोई नहीं आया!
कोई शोर न हुआ फिर!
कुछ पल ऐसे ही बीत गए! मैं, उसको ले, आगे बढ़ता चला गया! मैं आ गया अलख तक, आसन पर लिटा दिया उसे, जल लिया, छींटे मारे, उसे होश नहीं आया! जैसे वो, गहराई में कहीं डूब गयी थी! मैंने नब्ज़ टटोली उसकी, नज़ तो बोल रही थी, लेकिन, देह शिथिल थी उसकी! उसकी देह, शनैः शनैः जैसे, ठंडी हुए जा रही थी! अब मेरी चिंताएं बढ़ने लगीं!
और तभी अट्ठहास गूँज पड़ा! अट्ठहास, उस बालू नाथ का!
''अंत!" बोला वो,
मैं उठ खड़ा हुआ!
''अंत! यही कहा था न मैंने?" बोला वो,
और फिर से अट्ठहास!
मैं कुछ न बोल सका! बोलता भी क्या भला?
"बालक! ओ बालक! अरूमा तो आई ही नहीं!" बोला वो,
क्या?????????
कौन नहीं आई?
अरूमा? अरूमा? नहीं आई?
"हाँ! नहीं आई! ओ बालक! अंत! अंत!" बोला वो, उसके स्वर गूंजे थे!
वाचाल चुप! कर्णी चुप! मैं चुप! नहीं समझ आया उसका आशय! क्या कहना चाह रहा था वो? क्या अर्थ था उसका?
"बालू नाथ?" अब गरज के बोला मैं,
अट्ठहास गूंजा उसका! उस अट्ठहास में, विजय की सुगंध आने लगी थी उसे!
"तेरा आशय नहीं समझा मैं!" कहा मैंने,
"बताता हूँ बालक! थम!" बोला वो,
"अरूमा! कैसे आती?" बोला वो,
ये? ये क्या कह रहा था वो? मुझे समझ ही नहीं आ रहा था उसके कहने का मतलब! सच में, ज़रा सा भी नहीं! ज़रा सा भी नहीं!
"नहीं समझा मैं तेरा आशय बालू नाथ!" कहा मैंने,
''समझाता हूँ, बालक! समझ ले!" बोला वो,
"तूने आह्वान किया लोहितांग का! है या नहीं?'' बोला वो,
"हाँ, किया!" कहा मैंने,
"क्या मैं अनभिज्ञ था?'' पूछा सुने,
"नहीं!" बोला मैं,
"हूँ! तूने अरूमा का आह्वान किया?" बोला वो?,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हूँ! शत्रु की थाह न लेना, उसके प्रपंच में फंस जाना, उसके क्रिया-कलाप में देख लगाना, सेंध लगाना, नियम-अनुनियम आदि में समय का नाश करना, यही तो पराजय है!" बोला वो,
सटीक! एकदम सटीक! मुझे स्वीकार करने में कोई गुरेज़ नहीं! कोई अपमान नहीं इसमें! यही तो यही सत्य! उसने कुछ भी असत्य नहीं कहा!
"है या नहीं?" बोला वो,
"हाँ बालू नाथ! सत्य!" कहा मैंने,
''वो प्रपंच, मेरे नहीं, इसके थे, इस शरण नाथ के, सरणू के! नाह! मेरे नहीं! मैं प्रपंची नहीं हूँ! मैं छिप कर, बलात, धोखे से, छद्म-रूप में, द्वन्द न तो लड़ने की हिमायत ही करता हूँ और न ही कभी लड़ता ही हूँ!" बोला वो,
मैं हैरान!
ये क्या क्या कहे जा रहा है वो?
कहीं, एक और प्रपंच तो नहीं?
कहीं ये भी तो, किसी रणनीति का हिस्सा तो नहीं?
"बालक! तू मेरा, कोई शत्रु नहीं!" बोला वो,
क्या? क्या कहा उसने? मैं तो ऐसा चौंका, कि गिर न जाता कहीं लड़खड़ा कर!
"हाँ, तू न मेरा शत्रु है, न मैं तेरा ही! मैं तुझे भी जानता हूँ, तेरी थाह भी और तेरा मंतव्य भी!" बोला वो!
ये तो ज़बरदस्त मानसिक आघात पहुंचाने के लिए काफी था! इस से, सामने वाले का सामर्थ्य अवश्य ही मोम हो जाता, भले ही पल भर के लिए! उसको इस बालू नाथ में, न कोई शत्रु दिखाई देता, न कोई प्रपंची, यदि मित्र भी न दिखाई दे, तो भी! ये मानसिक-युद्ध लगता था!
"और उत्तर कि क्यों? कैसे? किस कारण से? ये भी द्वंदान्त तक, तू जान ही जाएगा!" बोला वो,
और फिर अट्ठहास किया उसने! फिर से ढंग बदल गए उसके तो!
''और सुन बालक?" बोला वो,
''अरूमा को प्रकट होने ही नहीं दिया मैंने!" बोला वो,
क्या? मुझे तभी कंपकंपी छूटी!
अट्ठहास लगाया उसने, एक ज़ोरदार अट्ठहास! भयानक सा अट्ठहास! अब तो मुझे भी, उसकी विजय-पताका के फड़फड़ाने की मंद-मंद आवाज़, कानों में आने लगी थी!
"अरूमा आई ही नहीं, वो तो मेरी बांदी थी!" बोला वो,
मरते में जैसे, दो लात और लगीं!
"क्रिया-दग्धीकरण सीख लेता, तो बच जाता! अंत नहीं होता! कम से कम, चतुर्थ चरण तक चला आता, सम्भव है, मेरी दया का पात्र बन जाता! छोड़ देता तुझे! बख्श देता तेरे प्राण!" बोला वो,
"बस? बस बालू नाथ!" कहा मैंने,
"ज़ोर शेष है तुझमे अभी?' बोला वो,
"अंतिम श्वास तक लड़ना ही सीखा है मैंने बालू नाथ! क्या सोचता है तू? तेरी इन भभकियों से, तेरे इस शक्ति-बखान से, मैं भयभीत हो जाऊँगा?" चीख कर कहा मैंने,
अट्ठहास भरा उसने! मदिरा की बोतल छीनी हाथ से सरणू के, और गटकने लगा! मुंह पोंछा अपना! फिर से अट्ठहास करने लगा!
"जा बालक! अब तैयारी में जुट जा! अब तक मात्र क्रीड़ा-समय था, अब तुझे वो दिखाता हूँ, जिसकी तूने कभी कल्पना भी न की होगी! जा! और हाँ, वचन भी दिए देता हूँ अंत से पहले, तुझ से अवश्य ही पूछूंगा! तूने हाँ कही तभी अंत होगा! जा बालक! जा! दिया वचन तुझे! बालू नाथ हूँ मैं खेमजटा औघड़ का ज्येष्ठ पुत्र हूँ! जा बालक!" बोला वो,
उसने अपने पिता का नाम लिया था, मुझे नहीं पता था नाम ये, न मैंने कभी सुना ही था, यदि बालू नाथ ऐसा है, तो उसके पिता कैसे होंगे! पता नहीं, मन ही मन, उन्हें, प्रणाम कर ही लिया मैंने!
एक बात और मित्रगण!
ये बालू नाथ, शत्रु नहीं है, उसने ऐसा कहा? क्या प्रयोजन? क्या कारण? कहीं कोई मानसिक-झंझावत तो नहीं!
और फिर वो लम्पट, कायर, प्रपंची सरणू, उसका क्या औचित्य शेष रहा फिर? उसने चुनौती दी, किसके बल पर? बाबा बालू नाथ के?
"और हाँ, सुन बालक!" बोला वो,
मुझे बालक, बालक बोल बोल जैसे बार बार खंजर भोंके जा रहा था बालू नाथ! और सच पूछिए साहब लोग, तो अब मेरे मन में भी दो-फाड़ हो गए थे, एक कुछ कहता था और एक कुछ और, एक दिलासा देता था की, कुछ अहित नहीं होगा और एक ये, की इस से बड़ा, महाभट्ट औघड़, शायद ही अब कभी देखने को मिले, यदि प्राण बच गए तो!
मैंने एक बार फिर से, श्री महाऔघड़ का नाम पुकारा! अलख-नाद भरा! अलख में ईंधन झोंक मारा मैंने!
ठीक है! अब ऐसा ही सही! बालू नाथ! तू अगर महाभट्ट औघड़ है, तो मैं भी कहीं न कहीं किसी महाभट्ट का शिष्य भी हूँ! जीते जी तो, पराजय स्वीकार करूंगा नहीं! कदापि नहीं, मरते दम तक नहीं!
"अघलू?" बोला वो,
ओहो! जले पर नमक छिड़क दिया!
"ओ! अघलू!" बोला वो,
और फिर, उपहास भरे, स्वर में हंसने लगा! अघलू मायने, नया-नया! जिसे जोश बहुत होता है, जो सोचता है, बस, अब हुआ और अब हुआ! उपहास में अघलू ही कहा जाता है उसे!
"अघलू?" बोला वो!
मैं गुस्से में फनफनाता हाउ उठ खड़ा हुआ!
''सुन अघलू! साधिका को, वृणोमिक-शैलाभि से, चेता ले! जा! कसर नहीं छोड़ता ये बालू नाथ!" बोला वो,
अरे!!
ये मेरे मस्तिष्क में क्यों नहीं आया?
कमाल है? कहीं मानसिक-संतुलन तो नहीं डगमगाने लगा मेरा?
कहीं, यही तो उद्देश्य नहीं था इसका?
"चल! आ जा! बढ़ आगे! बढ़! शाबाश! आ जा!" बोला वो,
उपहास!
उपहास भरे से स्वर!
क्या ये दम्भ था?
क्या लगता है आपको मित्रगण? ये दम्भ था? राय दें, बताएं ज़रूर!
''चल! अब घाड़ संभाल! चल!" बोला वो,
और यहां!
यहना मुझे अपनी हालत पर तरस आने लगा! मैं तो न चाहते हुए ही, जैसे उसके आदेशों का पालन करने लगा था!
"देख काट रहा हूँ! चल! जगा! जगा मुझे!" बोला वो,
दांत भींच लिए मैंने! गुस्सा भड़कने लगा मेरा!
"साधिके?" मैंने झुंझला कर हिलाया उसे और पूछा!
न हिली वो, कोई हरकत ही नहीं! ढीली-ढाली!
''आस्था?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
तभी याद आया कुछ! सलाह, सलाह बालू नाथ की! हाँ, शैलाभि से जगना होगा इसे! ये अचेत नहीं है, बस, डूबी हुई है, इसे लाना होगा बाहर! शैलाभि, यही किया करती है!
मैंने वहीँ बैठ, शैलाभि का जाप आरम्भ किया, मिट्टी की चुटकियाँ उठाता जाता और उसकी देह पर फेंके जाता! मित्रगण, अब बात शैलाभि की आई यही तो आपको एक प्रयोग बता रहा हूँ इसका, आप जानते हैं, हर वर्ष डेंगू, मलेरिया और टाइफाइड का जैसे विस्फोट हो जाता है हमारे देह में, लोग, बिना इलाज के, या बिना जाने इन रोगों के विषय में, लापरवाही के कारण, प्राण त्याग कर दिया करते हैं, दुःख तब होता है, जब छोटे छोटे बच्चों को ये ग्रास बनाते हैं, यहां भी मुख्य कारण ये लापरवाही ही है! जब तक मरीज़ो को दाखिल किया जाता है, उसके आधे प्राण तो चले ही जाया करते हैं, मैं आपको एक मंत्र दे रहा हूँ, आप इस मंत्र का प्रयोग करें, रोगी के सिरहाने आप, एक दीया प्रज्ज्वलित करें, सरसों के तेल का, दीया प्रज्ज्वलित करने से पहले , इक्कीस बार इस मंत्र को जपना है, कोई भी जप सकता है, जपने के बाद, इक्कीसवें मंत्र पर, उस दीये के तेल से, रोगी के पाँव के मध्य एक बूँद तेल मल देना है, डॉक्टर की चिकित्सा न रोकें, दवा अपना काम किया ही करती है, इस मंत्र से, दवा दोगुने रूप में प्रभावी हो, अवश्य ही लाभ करेगी, कम से कम तीन दिन और अधिक से अधिक पांच दिनों तक ऐसा करें, प्रातः एवं संध्या-समय! एक ही दिन में प्रभाव दिखाई देने लगेगा! मंत्र जो पहली बार जपे, शेष दिन भी वही जपेगा, ये नियम है! अतः, सावधानी रखें!
मंत्र है-
!!एम् एम् रोगनाशिके श्री शैलाभि हुम्म फट्ट!!
मरीज़ के ठीक होने के पश्चात, कोई भी नमकीन पकवान किसी निर्धन अथवा वृद्ध को खिला दें! बस, यही नेग है इसका!
हाँ, अब घटना का वर्णन!
कुछ ही पलों में, मेरी अचेत साधिका ने नेत्र खोले अपने, और चौंक कर उठ बैठी वो! आसपास देखा उसने! मुझे देखा, पहचाना! और फिर, भाव सामान्य से हुए उसके!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"अब कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, परन्तु, मुझे हुआ क्या था?" पूछा उसने,
"ये समय नहीं ये बताने का, बाद में उत्तर दूंगा!" कहा मैंने,
"आदेश करें?" बोली वो,
''आओ!" कहा मैंने,
और उसको, उसका हाथ पकड़ कर, उठाया मैंने,
"आओ, इधर आओ!" कहा मैंने,
हम दोनों घाड़ तक गए, अब घाड़ से चादर हटा दी, लपेट कर, एक तरफ रख दी, घाड़ के पांवों की तरफ खड़े हुए हम, प्रणाम किया, उसका धन्यवाद किया, मृत्योपरांत भी कुछ काम आया, इसका ध्यान रखा! उसका पूजन आरम्भ करना था अब!
''साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"सुगन्धि लाओ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और जा कर, एक डिबिया ले आई!
"ये लीजिये!" कहा उसने,
मैंने ली, और डिबिया खोली, सुगन्धि ली ऊँगली पर, उसके गले, चिबुक, माथा, उदर, श्रोणि-स्थल, कांख आदि पर लेप कर दिया!
"ये लो! सिन्गिका ले आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
वो गयी, डिबिया रखी और ले आई एक थैली!
"लीजिये!" बोली वो,
"इस से, इसके पांवों के अंगूठे बाँध दो साधिके!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
वो बांधती रही, कुछ ज़ोर लगाना पड़ रहा था, जंघाएँ उस घाड़ की भारी थीं, इसलिए, मैंने मदद की, और बाँध दिए अंगूठे उसके फिर!
"वापिस रख आओ, और लेपन ले आओ!" कहा मैंने,
''हाँ, अवश्य!" बोली वो,
वो गयी, सिगिका रखी वापिस, ले आई लेपन!
"आओ, मध्य-भाग के बाद, तुम लीपन करना!" कहा मैंने,
"जी नाथ!" कहा उसने,
अब मैंने उसके, ऊपर के भाग को लीपा उस लेपन से, शरीर को सभी आबंधों से मुक्त कर दिया, मंत्र पढ़ा, त्रिशूल छुआया और फिर त्रिशूल कंधे पर रख लिया!
''साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"लेपन आरम्भ करो!" कहा मैंने,
और उसने लेपन कर दिया!
"अब मेरी मदद करो, उठाओ इसे!" कहा मैंने,
उसने पकड़े पाँव और मैंने कंधे, हाथ वक्ष से सटाये थे उसके, ले आये आसन पर! रख दिया घाड़ वहां पर!
''साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोली वो,
"जाओ, स्वच्छ हो जाओ!" कहा मैंने,
वो गयी, और जल से, हाथ-मुंह धो लिए!
आ गयी वापिस!
"यहीं रहो! मैं आया!" कहा मैंने,
"जी!" कहा उसने,
मैं गया और स्वच्छ हुआ, आया वापिस!
''साधिके, भस्म-स्नान करो!" कहा मैंने,
अब हमने, भस्म-स्नान किया! पूर्ण लेपन किया!
और तब!
तब औघड़ तैयार हुआ!
'साधिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
''अब का द्वन्द, महाभीषण एवं पाश्विक सा होगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"जाओ! आसन ग्रहण करो!" बोला मैं,
वो गयी, और मैंने पाँव में डाले अस्थि-माल अपने! पढ़े मंत्र! श्री भैरव नाथ जी के लौह-मंत्र जप डाले! देह, प्राण, स्थान, कूर्प, एन्थिक आदि सशक्त कर लिए!
जय महाऔघड़!
जय महाकाल!
और झोंक दिया अलख में भोग! अलख लपलपाई ज़ोर से!
और तब!
तब, तब मैंने आसन बनाया उस घाड़ को!
'साधिके?" बोला मैं!
'नाथ?" बोली वो,
"मदिरा!!" कहा मैंने,
"आदेश! अलखादेश!" बोली वो,
लायी कपाल-कटोरा! भरा मदिरा से! उठाया त्रिशूल और गटक लिया पूरा कटोरा!
"बैठ जाओ साधिके!" कहा मैंने,
घाड़ पर, खड़ा हुआ मैं!
खड़काया चिमटा अपना!
"बालू नाथ! सतर्क!" कहा मैंने,
"सतर्क! बालू नाथ! सतर्क!" कहा मैंने, चीख कर!
तभी, देख पकड़ी मैंने, ये बालू नाथ की देख थी! वो, अलख पर, आराम से बैठा था, कोई चिंता नहीं, कोई फ़िक़्र नहीं, कोई असमंजस नहीं!
"तैय्यार? बालक?" बोला वो,
"बालू नाथ! हाँ, तू आयु में दोगुने हो मुझ से! प्रणाम सर्वप्रथम! परन्तु, न मैं बालक ही हूँ और न ही अघलू!" कहा मैंने,
"ये तो ज्ञात है मुझे!" बोला वो,
"तो? सतर्क!" कहा मैंने,
''सतर्क?" बोला वो, और लगाया अट्ठहास!
"हाँ बालू नाथ, सतर्क!" कहा मैंने,
"ये बालूनाथ, सदैव, सतर्क ही रहता है!" कहा उसने!
"नहीं! नहीं!" कहा मैंने,
फिर से अट्ठहास गूंजा!
"बालू नाथ?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोला वो,
"इस सरणू को आगे कर!" कहा मैंने,
"मेरे जीते जी नहीं!" बोला वो,
जीते जी नहीं? तब तो द्वन्द, किस करवट बैठे, ये तो समय ही जाने! अनुभव, बहुत बड़ी बात है! बहुत बड़ी! आप कताब पढ़ सकते हो, राय ले सकते हो, परन्तु, जिस राह जो गुजरा हो, सो तो, वही जाने!
"बालू नाथ! इस सरणू का तो मैं नाश करूंगा ही करूंगा!" कहा मैंने,
हंसा वो! हंसा! जंघा पर, हाथ मारते हुए!
"अब समझा?" बोला वो,
"क्या बालू नाथ?'' पूछा मैंने,
"इसकी प्राण-रक्षा का वचन दिया है मैंने!" बोला वो,
"प्राण-रक्षा? कैसे?' पूछा मैंने,
"सुन......" जैसे ही बालू नाथ बोले लगा, सरणू ने, इशारा कर दिया कि न बताया जाए मुझे!
लेकिन, अपनी भी तो खोपड़ी औघड़िया है! खुल गयी खुपड़िया! पड़ गया तेल! आ गया समझ, अघरू का खेल!
"समझ गया!" कहा मैंने,
"तू नहीं समझता, तो कनपटी पर पड़ता तेरे, तब समझाता तुझे!" बोला वो!
फिर से मेरे करीब!
फिर से सेंध लगाई बालू नाथ ने!
एक युक्ति सूझी! हूँ! क्यों न, कुछ खेला जाए? क्यों न!!
"बाबा?" बोला मैं,
"बाबा?" बोला वो, थोड़ा झेंपा वो!
"हाँ, बड़े बाबा मेरे!" कहा मैंने,
अट्ठहास गूँज उठा!
"सोरठू? गिबान न कर!" बोला वो!
सोरठू! गिबान!
ओह! अब तो मैं समझ गया था! बाबा बालू नाथ, मेरा अहित न करेंगे! जान गया था मैं अब! सोरठू, मायने वो औघड़, जो अभी कुछ ऋण में हो, अर्थात, कम हो, अर्थात कुछ रह गया हो! गिबान मायने, सच को झूठ मानना! और खामियाजा उठाना!
"अलख!" चिल्लाया सरणू तब!
सरणू!
वो चिल्लाया! जैसे, आदेश दिया हो बाबा को उसने!
"सोरठू?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हो जा तैयार!" बोला बालू नाथ!
और तब,
देख में, मैंने देखा, बाबा बालू नाथ, अलख में ईंधन झोंके जा रहे थे, और वो सरणू, अब कुछ करने के मिजान में था! सरणू! कायर! लम्पट!
उनका वार्तालाप हुआ आरम्भ!
"आदेश करें?" बोला सरणू!
"कैसा आदेश, सरणू?" बोला बालू,
"क्या करना है?" पूछा उसने,
"घाड़, पर, अविलम्ब आरूढ़ हो जाओ!" बोला वो बालू,
''फिर?" पूछा उसने,
"फिर? देखो!" बोला वो,
तब सरणू, घाड़ पर, बिन-पूजन के, आरूढ़ हो गया! कमाल था! ये कैसा आदमी था? जिसे, कुछ पता भी नहीं?
''देखो? क्या?" बोला वो,
"जाओ, आरूढ़ हो जाओ!" बोला बालू!
"मुझे, भान हुआ कुछ!" बोला सरणू!
"कैसा भान?" पूछा बालू ने!
''आपने, प्राण नहीं लिए उसके?" बोला वो,
"किसके?" पूछा उस से,
"उस, उस ब्रह्म-कपाली के?" बोला वो,
"इतना सरल है?" पूछा बाबा ने,
"आपके लिए तो है?" बोला वो,
हंसने लगे बाबा! हँसे, घुटने को खुजाया उन्होंने!
"सरणू?" बोले वो,
"हाँ?" बोला वो,
''अब तक, अर्थी आ जाती!" बोले वो,
"अर्थी? किसकी?" पूछा उसने,
''तेरी!" बोले वो!
वो जैसे उछला!
"क्या?" चौंक कर पूछा उसने!
"सुन! अब सुन! महाबल नाथ का नाम सुना है?" पूछा उस से,
"नहीं?'' बोला वो,
"सुन लेता, तो अच्छा होता!" बोले वो,
"क्यों?" पूछा उसने,
"क्या सोचता है? वो बांदी मेरी थी?" पूछा उन्होंने,
"क्या? फिर?" पूछा उसने!
"मेरी बांदी, प्रकट ही नहीं हुई सरणू!" बोले वो,
"क्या?" बोला वो,
"सलाह दूँ?'' बोले वो,
"कैसी सलाह?" पूछा उसने,.
"जा! क्षमा मांग ले!" बोले वो,
"किस से?'' पूछा उसने,
"द्वन्द लड़ने वाले से!" बोले वो,
तब, निर्लज्ज! वो सरणू! फट के पड़ा!
"वाह बाबा वाह! मेरे शत्रु की, मुझ पर ही लगिली?'' बोला वो!
"शत्रु?" बोले वो,
"हाँ, शत्रु!" कहा उसने,
"तेरा शत्रु? मुग़ालता हुआ उसे!" बोले वो,
"क्या?" बोलते हुए, उठ खड़ा हुआ वो और!
और फिर........................और!!!
उन दोनों के बीच बहस छिड़ गयी थी! इस सरणू को लगता था कि बालू नाथ मेरा अहित नहीं कर रहा! बल्कि, मुझे और मार्गदर्शन किये जा रहा है, इसीलिए उसने लगिली बोला था, कि शत्रु की तारीफ़ करना! बाबा बालू नाथ एक तरफ जहां अपना ही खेल खेल रहे थे, वहीँ सरणू को भी वचन दे रखा था, मुझ से भी कहा था कि उसके जीते जी तो वो अहित नहीं कर पायेगा कोई इस सरणू का! और ये बात सत्य ही थी! जब तक बालू नाथ आड़े आएगा, कोई शायद ही अहित कर पाये सरणू का! सरणू को जैसे संजीवनी-वृक्ष के नीचे आश्रय मिला हुआ था!
"अघप्प! आगे बढ़!" आया स्वर!
ये स्वर बाबा बालू का था, विश्वास से भरा हुआ, जैसे सब पता हो कि आगे होने क्या वाला है! मुझे भी अब तक कुछ कुछ अक़्ल इजाफा सा लगने लगा था! ये प्राचीन विद्याओं का जानकार औघड़, कोई कच्ची गोलियां नहीं खेला था! जो बैठे बैठे ही, क्रिया-दग्धीकरण में निपुण हो, उसका कोई भला कैसे अहित करेगा? या तो कोई उसका समकक्ष हो, या फिर उस से दर्ज़े में कहीं ऊँचा!
खैर, यहां दर्ज़े की बात नहीं थी, यहां तो जैसे गुरु-आन भिड़े हुए थे, एक तरफ गुरु श्री इस बालू नाथ के खेमजटा की आन और एक तरफ मेरे गुरु श्री की आन! जीतेगा वही, जो सट के चलेगा, सत्य-मार्ग पर चलेगा, जो विवेक का साथ थामे चलेगा, जो, न्याय के संग, न्यायिक मार्ग पर, समन्वय की दृष्टि रखते हुए आगे बढ़ेगा!
मुझे, भला उसने क्यों सलाह दी थी कि मैं घाड़ से ये द्वन्द आरम्भ करूँ अब? जानते हैं मित्रगण? क्यों? घाड़ का आसन हो, तो क्रिया-दग्धीकरण नहीं किया जा सकता! इसीलिए, घाड़ का आसन उपयोग में लाया जाता है! और इसीलिए, मुझे सलाह भी दी थी बालू नाथ ने!
अब, या तो मैं पीछे हट जाऊं या फिर, ऐसा भीषण द्वन्द हो कि फिर, न आगे पता चले और न पीछे, न होश ही रहे और न जोश! बस, तन्मयता! बस, एकलयता!
"अघप्प! चल! बढ़ आगे!" आया स्वर उस बालू नाथ का! और तब, तब जैसे कुछ समझ में पड़ा उस सरणू की, इसीलिए, हाथ में कपाल लिए, उठा वो, और लगाया एक ठहाका! कपाल हाथ में उठाया था, ये चेतावनी और उसकी प्रबलता, दोनों का ही सम्मिश्रण था! सरणू अभी तक तो, मुझे कोई प्रबल औघड़ न लगा था, अभी तक तो समस्त बागडोर इस वृद्ध औघड़ ने संभाली थी!
"चल सरणू! हो जा तैयार!" बोला बालू नाथ!
मुझे इशारा मिला! समझ गया मैं! वाह बालू नाथ वाह! क्या ऊँचा खेल, खेल रहा है तू! समझ गया! अब कोई वार नहीं होगा, अब सरणू को सरंक्षण मिलेगा उसका! और सरणू, क्या माद्दा रखता है, ये मैं भी जान लूँ! बहुत खूब बालू नाथ! बहुत खूब!
"हे? क्या सोचता है? भय खा गया सरणू से? तुझे चेताया नहीं था? बताया नहीं था? देख! देख क्या हाल करता है ये सरणू तेरा!" चीख कर बोला सरणू!
मुझे, न जाने क्यों, हंसी आ गयी! हंसी, उसकी मूर्खता पर! क्या चेताया था उसने मुझे! क्या बताया था उसने मुझे! अर्थहीन! कामी! अवसरवादी!
"हो जा तैयार! होज्जा! होज्जा!" चीख कर बोला वो!
"मैं तैयार हूँ लम्पट! बढ़! बढ़ आगे!" कहा मैंने,
तब, गया अलख तक वो! उठाया खंजर! चीरा अपना बायां हाथ, लगाया एक चीरा और अलख में टपका दिया कुछ बूंद रक्त! जपे कुछ मंत्र!
"ब्रह्मेश्वरी!" स्वर गूँज उठे वाचाल के!
वाचाल, मुस्तैद था, फौरन ही भांप गया! बता दिया उसने, ब्रह्मेश्वरी! ये तांत्रिक-ब्रह्मेश्वरी है!
रौम्यरूपा के नाम से उल्लेख होता है इसका! यक्षिणी गणिका कही जाती है! महाक्रूर एवं महाभीषण रूप होता है इसका! गज वाहन है इसका! भैरवी-सहायिका के रूप में पूज्य होती है! वीरांगनाओ में इसका पूजन किया जाता है! मानव-चर्म से निर्मित वस्त्र धारण करती है, केश रुक्ष है, देह स्थूल, भारी और धीमे चलने वाली होती है! रूप में, धुंए समान इसका रंग है! इक्यासी महाप्रेतों द्वारा एवं चौरासी महा-डामरियों द्वारा सेवित है! इसका साधना का काल मात्र सात रात्रि है! ये महामारण, उच्चाटन, विद्वेषण आदि जैसे कर्मों में विशिष्ट स्थान रखती है! कूर्प-सुंदरी इसकी शक्ति है! इरालिका इसकी संचरण-वाहिनि है!
इसका पूजन, किसी निर्जन स्थान पर, त्यागे हुए कुँए के समाप बैठ कर, हिरण के दांतों से बनी माला द्वारा, एवं, रीछ के बालों से निर्मित आसन पर विराजित होकर, किया जाता है! भानगढ़ में जो जादूगर, औघड़ था, सिंधु-सेवड़ा, वो इसी ब्रह्मेश्वरी का साधक था, कहते हैं, बतलाया जाता है कि उसने, इसे सिद्ध किया था! मैं इस पर मोहर नहीं लगता, न ही इसे प्रामाणिक मानता हूँ!
खैर, उसने ब्रह्मेश्वरी का आह्वान करने की ठानी थी! मैं भी सजग था, तत्पर था! ब्रह्मेश्वरी की महा-विद्या एवं, फलन से मैं अनभिज्ञ नहीं था!
"महा-रूढ़ा!" स्वर गूँज उठे!
कर्कश से स्वर, जैसे दो, खुरदुरे से पाषाण आपस में गुंथ गए हों! महारूढ़ा! ये मसानी महाशक्ति है! इसका वास, उरभमंडल है, अर्थात कोई गुप्त सी झील, जो एकांत में पड़ती हो, जिसके चारों ओर एक जैसा ही परिदृश्य हो! भारत में, रूप-कुण्ड की झील! झील एवं कुण्ड में अंतर होता है! झील का स्रोत होता है बाहरी, जैसे कोई झरन, नदी, सहायक नदी-शाखाएं, पहाड़ी-नदियां, परन्तु कुण्ड, भूमिगत-जल से निर्मित होता है! इसका पानी न तो घटता है है, और न बढ़ता ही है! कुण्ड के चारों ओर बंध बनाने से, सीढ़ियां या घाट बनाने से, कुण्ड फिर कुण्ड नहीं रहता! वो मात्र स्नान करने का कुण्ड ही रह जाता है, जिसे साधारण सी भाषा में हम, कुण्ड ही कहेंगे!
हाँ तो महारूढ़ा!
मसानी-महाशक्ति!
इसकी साधना का विधान, इक्कीस रात्रिकाल है! नौ बलि-कर्म से पूजित है, इसकी साधना, श्मशान में, मसान को साधने के बाद ही सम्भव हो पाती है! वट-वृक्ष के नीचे, नग्न रूप में, लौह से निर्मित त्रिशूल एवं अस्थि से बने, डमरू के संग हुआ करती है! स्मरण रहे, ये त्रिपुर-भैरवी की भी महा-सहोदरी है, अतः, कोई भी चूक, प्राणघाती ही होती है! साधक अकेला ही हो, जब ये प्रसन्न होती है, तो पुष्प-वर्ष होती है, रजक के छोटे फूल हवा में तैरने लगते हैं!
"साधिके?'' कहा मैंने,
'आदेश!" बोली वो,
"नपुंसक-कपाल, पीछे रख दो!" कहा मैंने,
"आपके?" पूछा उसने,
"नहीं, दृषि में, देखता हुआ हमें!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
उसने कपाल उठाया, और एक छोटा सा आसन भी, रुई से बना, बिछाया और रख दिया कपाल उस आसन पर! आ गयी मेरे पास!
"तुरंगे?" कहा मैंने,
"नभादेश नाथ?" बोली वो,
"मदिरा का भोग दो उसे!" कहा मैंने,
उसने मदिरा उठायी, और उसके मुख में, छींटे छिड़क दिए! फिर लौट आई!
रख दी बोतल वहीँ!
"परोस दो, साधिके!" कहा मैंने,
उसनेएक बड़ा सा प्याला बनाया, और दिया मुझे!
अलख-नाद किया मैंने!
एक काल-नाद! महाकाल-नाद!
और गटक गया उस मदिरा को! किया प्याला वापिस!
"साधिके?'' बोला मैं,
"नाथ?" बोली वो,
"हस्त-अस्थियां!" कहा मैंने,
उसने उठायीं, माथे से लगाईं, और रख दीं मेरे समीप!
"जाओ साधिके!" बोली वो,
वो वापिस लौट गयी!
''औंधिया?" चिल्लाया मैं!
"डटा रह!!" कहा मैंने,
"रेंगणा?" चीखा मैं,
"डटी रह!" कहा मैंने,
"वाचाल?" चीखा मैं,
हुंकार! महा-हुंकार!
"डटा रह!" कहा मैंने, चीख कर!
"कर्णी?" चीखा मैं,
''डटी रह!" बोला मैं,
सब मुस्तैद! होशियार, चाक-चौबंद!
मैं हुआ खड़ा! और एक अट्ठहास भरा! अलख तक गया, ईंधन झोंका! की परिक्रमा! और हुआ वापिस!
आ बैठा घाड़ पर!
अब मैंने आह्वान आरम्भ किया! सामने रखा भोग-थाल सरका लिया था अपने पास! उसमे से कुछ मांस के टुकड़े ले लिए थे, एक एक मंत्र पर, एक एक टुकड़ा अलख में झोंके जा रहा था मैं! अलख, चटर-पटर कर, सबकुछ भसके जा रही थी! अलख का पेट जितना भरा होगा, वो आपको उतना ही अधिक उठाएगी ऊपर! मांस जलने की गंध हर तरफ फैली थी! पेड़ों पर उल्लू आदि सब बेचैन हो उठे होंगे! चमगादड़, बेचैन से हो, इधर-उधर फड़के जा रहे थे! कीट-पतंगों का तो अलख के करीब हुजूम सा जमा हो जाता था, अलख के ताप से, वे भी परलोक सिधार जाते थे! मांसाहारी, निशाचरी पक्षी, कभी-कभार चक्कर लगा लिया करते थे उधर! लेकिन अलख के ताप से दूर ही रहते थे वो!
मैं आह्वान में जुटा था! आह्वान महारूढ़ा का! महारूढ़ा, का मंत्र बहुत छोटा सा होता है, ये महारूढ़ा, शत्रु-भंजनी, रोग-नाशिनि एवं, असाध्य रोगों को दूर रखती है! जिसको अपस्मार, मिर्गी, फालिज, पक्षाघात, विस्मृति दोष हो, उसके लिए ये प्रयोग किया जा सकता है! जिस व्यक्ति को ऐसा कोई रोग हो, तो अनार की डंडी से एक कलम बनाएं, अब एक ढाक का ताज़ा पत्ता, अर्थात, सूखा न हो, छिद्रित न होइ, कीटों द्वारा खाया न हो, ऐसे पत्ते पर, उस रोगी का, हल्दी की स्याही से, भूमि पर चौकड़ी मार, लकड़ी की वस्तु पर रख, तीन बार नाम लिखें और तब ये पत्ता, श्मशान में डाल आएं, ऐसा इक्कीस दिन करें, लाभ होगा, या होने लगेगा, जब व्यक्ति, दिखने लगे कि अब ठीक है, श्मशान में या तो अन्न का, या शुद्ध सरसों के तेल का यथासम्भव दान कर दें! जय श्री भैरव नाथ!
तो मैं आह्वान में लीन था! नेत्र बंद कर लेता और फिर खोल देता! मैं निरंतर अलख में भोग झोंकता रहता! मांस की चर्बी ईंधन में दोगुना सा ईंधन प्रदान किया करती!
बीस मिनट बीते और फिर करीब आधा घंटा! अचानक से ही माहौल में ताप बढ़ने लगा! ताप बढ़ा तो जैसे समय को टेक लगी! टेक लगी, तो जैसे उसके पहिये थमे, पहिये थमे तो जैसे स्थिर हुआ वो, स्थिरता आई तो चलन आरम्भ हुआ यहां मंत्रों का!
''आजै आजै.....ऋद्धम् हरवः हुरवः.............................................फट्ट!" मंत्रों से, समस्त श्मशान गूँज उठा! जैसे श्मशान में, पटाखे से जल उठे हों, ऐसा माहौल सा हो उठा! ये आमद का समय था, प्रकट होने का! महारूढ़ा के सेवकगण पहले प्रकट हुआ करते हैं! वे स्थान-लेपन, चक्षण, अभ्युरन्थन आदि किया करते हैं, इन्हें हम, साफ़-सफाई कह सकते हैं!
आकाश में जैसे रंगों की बहारें छूट पड़ीं! जैसे छोटे छोटे से प्रकाश के कण आपस में टकराने लगे हों! कुछ श्वेत से, कुछ पीत-वर्ण, कुछ नीलाभ कुछ रक्ताभ! मंत्र बज रहे थे, उच्चारण चल रहा था, स्थान, जागृत होने लगा था!
और वहाँ!
वहां सरणू, अलख पर बैठा, हाथ नचाते हुए, मंत्र पढ़े जा रहा था! बार बार चीखता था, फूंक मारता था, कंधे सशक्त किया करता था और बालू नाथ, नेत्र बंद किये, सबकुछ सुने जा रहा था! सहसा ही वो हंसने लगा! उठा वो!
''आद्या-ब्रह्मिका!!" चिल्लाया वो!
छाती पीटी उसने अपनी!
''आद्ये-ब्रह्मिके!" चीखा वो!
बालू नाथ ने नेत्र खोले, अलख को देखा, फिर सरणू को, और फिर आसपास देखा, अपने वृद्ध नेत्र, तीन-चार बार झपकाये, और पुनः बंद कर लिए!
"ब्रह्मिके!" चीखा वो!
उठा, तेजी से, और भोग-थाल उठाया, सर पर रखा! और चला आगे, उस चबूतरे के पास, एक आसन रखा था, रख दिया भोग-थाल वहां!
वापिस लौट अलख पर!
फिर से मंत्र जपने लगा!
''प्रकट हो! प्रकट हो ब्रह्मिके!" बोला चीख कर!
बाबा बालू नाथ ने नेत्र खोले अपने, अपनी कम में लटकी एक थैली सामने की, खोली, और निकाल लिया कुछ! अपने माथे से लगाया, अपनी छाती से लगाया और फिर माथे से! और झोंक दिया वो अलख में! अलख में नीले रंग की अग्नि दहक उठी!
उठ खड़े हुए बाबा बालू नाथ! चले अलख के समीप तक! अलख को गौर से देखा! और पलटे वापिस सरणू तक! और सरणू से कुछ हुआ वार्तालाप!
सरणू ने कान लगा कर सुना! और फिर हंसने लगा!
बाबा लौट पड़े, जा बैठे अपने आसन पर, कर लिए नेत्र बंद अपने! और सरणू! सरणू चला अलख की तरफ! झोंका ईंधन, जैसे बहुत क्रोध में हो!
"हे?" चिल्लाया वो!
मैंने पकड़ी श्रवण-देख!
"हे? अंत आने वाला है!" बोला वो,
''आजमा ले सरणू!" कहा मैंने,
"ब्रह्मिके, नाश करेगी तेरा!" बोला वो,
''भेज सरणू!" कहा मैंने!
"तू समझाये नहीं समझा!" बोला वो,
'तू भी!" कहा मैंने,
"यहीं अंत होगा तेरा!" बोला वो,
अब मैं खड़ा हुआ, उठाया त्रिशूल, लहरा दिया! ये विजय-मुद्रा थी! उस कपटी ने, ठीक यही किया, ठीक ऐसा ही! मैं बिना हँसे नहीं रह सका!
"बस कुछ ही पल शेष!" बोला वो,
"यही बोला था वो!" कहा मैंने!
वो चुप! दांत भींच लिए उसने! समझ तो गया ही था आशय मेरा!
तभी भम्म की आवाज़ हुई उधर! बाबा बालू नाथ के सिवाय, कोई न ठहर सका अपने पांवों पर! जैसे हवा उन्हें आज खदेड़ ही ले जाए संग और जा, डुबो दे पीछे बहती नदी में ही!
वो लड़खड़ाया!
और दहाड़ा फिर! उठाया त्रिशूल अपना! और अलख के चारों ओर, करने लगा नृत्य फिर!
"बंधन! बंधन! षटचुक बंधन!" बोलते बोलते, नाचता रहा!
रुका फिर! बैठा उधर! गाड़ा, अभिमान से त्रिशूल अपना! और झोंका अलख में ईंधन!
"ब्रह्मिके?" चिल्लाया वो!
और दिया अलख में रक्त-भोग!
"प्रकट हो!" बोला वो,
और इधर!
अंगार सी दहकने लगी इधर! महारूढ़ा के सेवकगण, कब प्रकट हो जाएँ और कब, नेत्र ही जम जाएँ, कुछ पता नहीं था, हाँ, अभी, सिलियाणी-स्वर न गूंजा था! लोहकटी जैसा स्वर! ये पहचान है महारूढ़ा के सेवगणों की आमद की! चारों दिशाओं में से, इस लोहकटी के रुआंसे के स्वर गूंजने लगते हैं! ये लोहकटी लोमड़ी होती है, बस, इसकी गर्दन भारी, और कंधे ऊँचे होते हैं, लोग इसे भी लोमड़ी ही कहते हैं, शेष कोई बड़ा अंतर नहीं होता दोनों में!
'आद्या?" चीखा वो!
"महारूढ़ा!" चीखा मैं,
"घात!" बोला वो,
"रक्षाम!" बोला मैं,
उसने अपने गुरु श्री का नाम लिया!
और मैंने, अपने गुरु श्री का नाम लिया!
"जी श्री आद्या-माहेश्वरी!" चीखा वो!
"जय श्री आद्ये-कल्पेश्वरी!" बोला वो,
एक आशीषा-स्वरूप! एक संहारक-स्वरूपिणि!
"तेरा अंत आया!!" बोला वो,
"मैं तैयार हूँ!" कहा मैंने,
अब दोनों ही तरफ, महामंत्रोच्चार आरम्भ हुआ! मेरी साधिका, टुकर-टुकर मुझे ही देखे जाए! मैं ही, कदि-कदि, नज़र भर लेता था उस पर!
कुछ पल बीते!
इसी तरह, कुछ और पल!
और तब मैं खड़ा हुआ! उठाया वो ब्रह्म-कपाल, रखा घाड़ पर! और किये प्रशोंत्तर उस से! ये, स्व-गुह्यता का दौर होता है! अर्थात, स्वयं से ही प्रश्न और स्वयं से ही उत्तर!
भूमि में हुआ कम्पन्न सा! पाँव डगमगाए तभी!
"साधिके?" बोला मैं,
वो घबरा गयी थी! खड़ी हो गयी थी!
"घाड़ पर विराजो!" कहा मैंने,
वो दौड़ी, और चढ़ गयी घाड़ पर!
और फिर.................!!
अभी मैं साधिका से बात ही कर रहा था कि अचानक से, गरम गरम रेत गिरने लगी नीचे! जैसे महीन सी मिट्टी! जैसी अक्सर नदी किनारों पर हुआ करती है, रेत सा! ये बेहद गरम था! त्वचा पर गिरता, तो जलाव पैदा करता था! लेकिन पड़ते ही, फिर शांत हो जाता था! ये तंत्राभूषण के प्रभाव से बचाव हो रहा था!
''साधिके?'' चिल्ला के बोला मैं,
"नाथ? नाथ?" बोली वो,
"नहीं! उतरना नहीं! बैठ जाओ! बैठ जाओ साधिके!" कहा मैंने,
वो हड़बड़ाहट में घाड़ पर जा बैठी! घाड़ पर, संतुलन बनाना, मुश्किल काम होता है, आस्तियां चुभती हैं, कहीं कहीं, कभी-कभार गुदगुदी सी होने लगती है, स्त्री-घाड़ पर, उदर पर बैठा जाता है, पसलियों से नीचे, श्रोणि-स्थल से थाह मिलती है, और कूल्हे, टिक जाते हैं! पुरुष-घाड़ की छाती पर विराजा जाता है! स्त्री-घाड़ का पेट नहीं फूलता इतनी शीघ्रता था, अंदरूनी अवयवों के कारण, पुरुष घाड़ का पेट फूलने लगता है, आँतों के कारण, नाभि-स्थल, जैसे फटने को तैयार हो जाता है, अतः सावधानी अति-आवश्यक होती है!
"कुछ ही हो साधिके, घाड़ से उतरना नहीं! हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने,
"आज्ञा नाथ!" बोली वो,
"संतुलन बनाये रखो, केश पकड़, लो, वक्ष-स्थल का सहारा लो, समझीं साधिके?" कहा मैंने, चेताते हुए उसे!
''आज्ञा नाथ!" बोली वो,
भूमि में फिर से कम्पन्न हुई! फिर से पाँव डगमगाए! साधिका भी डोल गयी, मुंह से हल्की से चीख सी निकल गयी! मैं दौड़ा उसकी तरफ! गया उसके पास! और उसको, उसके कंधे से पकड़, सही किया, ताकि वो गिरे नहीं!
"ये क्या हो रहा है नाथ?'' पूछा उसने,
मैं हंसा! गाल फाड़ फाड़ के हंसा!
"ये ही तो है मसानी-माया साधिके! ये ही तो है श्मशान की वास्तविकता!" कहा मैंने,
वो इस बार घबरा गयी! मुझे इस रूप में देख, इस बार उसके होश उड़ने लगे!
"डरो नहीं! बिलकुल नहीं!" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
"बोलो?" कहा मैंने,
"कुछ होगा क्या?'' पूछा उसने,
"मेरे होते? नहीं साधिके!" कहा मैंने,
तभी कड़ाक की सी आवाज़ गूंजी!
सामने, शून्य में, जैसे बिजली की दो तारें आपस में उलझ गयी हों! पीले रंग की पतली सी रेखाएं जहां-तहाँ दौड़ चलीं! जैसे, कोई धमाका हुआ हो! जैसे बारूद तैयार हुआ हो फटने को! कड़ाक!! फिर से चिंगारियां चमकीं! महीन महीन रेखाएं, एक दूसरे पर चढ़ती हुईं काट गयीं आपस में एक दूसरे को!
"ये ब्रह्मिका की आमद है!" कहा मैंने!
"ब्रह्मिका?'' उसने आश्चर्य से पूछा!
"हाँ साधिके! प्रलयंकारी ब्रह्मिका!" बोला मैं,
उसने शून्य की तरफ, फिर से आँखें गड़ा दीं अपनी!
"ना घबराओ!" कहा मैंने,
उसकी हुईं साँसें तेज तब!
"लौटना होगा! इसे लौटना होगा साधिके!" कहा मैंने,
वो कसमसाई, संतुलन ठीक किया अपना!
"साधिके?' बोला मैं,
"आदेश?" बोली वो,
"बाहर नहीं आना!" कहा मैंने,
''आज्ञा नाथ!" बोली वो,
"इसे लौटना होगा!" बोला मैं,
और लगाया एक जम कर अट्ठहास मैंने!
"सरणू?" चीखा मैं!
उसने सर उचका के देखा!
"वचन दिया! यदि इस ब्रह्मिका ने, रत्ती भर भी अहित किया तो तेरे समक्ष सर झुका कर चला आऊंगा मैं! मान लूंगा हार अपनी! सौंप दूंगा तुझे प्राण अपने!" कहा मैंने,
जम कर हंसा वो!
खुल कर, जांघ पीट पीट कर!
''अब खेल देख! देख खेल!" कहा मैंने,
उठायी मदिरा की बोतल और गटके कुछ घूँट! देह में गरमी का संचार हुआ! ध्यान केंद्रित हुआ! अलख में, एक घूँट झोंक मारी मारी!
अलख लपलपाई! जैसे, मुंह फाड़, और मांगी हो उसने मदिरा! मैंने मांस के टुकड़े लिए, कलेजी के, एक डंडी में खोंसे, और अलख पर भून लिए! बैठा पीछे फिर! उन कलेजी के टुकड़ों से उठती हुई भाप को, नथुनों में जगह दी! और टुकड़ा तोड़, खाता चला गया मैं! खाता जाता और मंत्र पढ़ता जाता! मदिरा से, गले में नीचे धकेलता चला जाता!
ढप्प! ढप्प!
गिरने लगी अस्थियां! सफेद सफेद! काली काली! पिंजर! मस्तक की हड्डियां! राख! चीथड़े से, ये चर्म होती है! आमद होने लगी! महारूढ़ा के सेवकों की आमद!
"प्रकट! प्रकट!" चीखा मैं!
हो गया खड़ा! झूमने लगा!
चीखने लगा! बावरा सा हो गया! अब न दिखे कुछ! बस अलख! अलख, वो स्थान और अपना लक्ष्य!
"सरणू?" चीखा मैं,
सरणू था तब!
हाथ में कपाला था उसके, चाटा सरणू ने उसे! किया तिलक रक्त से कपाल को! और रक्त-पात्र ले, पीने लगा वो रक्त! रक्त, गधा था, मुंह के दोनों किनारों से, टपकने लगा था! हाथ रख लिया! इकट्ठा करने लगा! रक्त-पात्र खाली इया, और अंजुल में भरा रक्त, चाट गया!
''आद्ये? प्रकट!!" चिल्लाया वो!
"महारूढ़ा! प्रकट!" इधर मैं चिल्लाया!
विद्या से विद्या भिड़ने को तैयार! सो सत्ताएं आपस में उलझने को तैयार! अग्नि अपने शिखर पर पहुंचने को तैयार!
''आमद! आमद! प्रकट! रक्षाम!" चीखा मैं!
तभी! तभी, अगले ही क्षण!
भूमि खदकी!
जैसे नीचे कोई उबाल आया हो! ठीक वैसे! मेरी साधिका, पीठ के बल पीछे जा गिरी! मैं दौड़ा! बाह लिया उधर! उठाया उसे पकड़ कर! और बिठा दिया घाड़ पर! कांपने लगी थी वो तो!
''साधिके?" चीखा मैं!
अब मुझे, बेहद गुस्सा! बेहद!
"समझ नहीं आता?" चीखा मैं,
"संतुलन नहीं बना नाथ....." बोली वो,
"जाओ! जाओ अभी!" कहा मैंने,
"कहाँ नाथ?" पूछा मैंने,
"भागो? जाओ?" चिल्ला के बोला मैं!
"कहाँ नाथ?" पूछा उसने,
मैंने गुस्से में, उसके केश पकड़ लिए! आवेग में आ गया था! छोड़ा उसे! वो कांपने लगी थी! डर के मारे, नीचे बैठ गयी, मेरे पाँव पकड़ लिए, रोने लगी!
''अब न होगा! अब न होगा मेरे नाथ! क्षमा! क्षमा!" बोली वो!
मैं नीचे झुका! उठाया उसको!
''जा साधिके, घाड़ पर जाओ!" कहा मैंने,
उसने देर न लगाई, और जा बैठी घाड़ पर!
''वहीँ रहना! संतुलन न खोना! न खोना मेरी साधिके!" कहा मैंने,
"जी नाथ! अब नहीं!" बोली वो,
जिस प्रकार से वो बैठी थी, मुझे पक्का यक़ीन था वो अवश्य ही ढुलक जायेगी उस पर से! इसीलिए मैं गया उसके पास, और उसको ठीक ढंग से बिठाया मैंने, दरअसल, आस्था का शरीर थोड़ा सा भारी थी, मांसल और गठा हुआ सा, उसको अधिक स्थान की आवश्यकता पड़ रही थी, इसीलिए मैंने उसके कूल्हों को, व्यवस्थित किया इस बार और टिका दिया उसे घाड़ पर!
"यदि, संतुलन गंवाने लगो तो, केश पकड़ लेना!" कहा मैंने,
अभी मैंने कहा ही था, कि चराक! की सी तेज आवाज़ गूंजी! उसका ध्यान मुझ पर से चूका और मारे भय के, वो बायीं तरफ ढुलक गयी! बेचारी, काँप उठी थी! पर मुझे दया आई उस पर! इसमें, उसकी कोई गलती नहीं थी, वो भला, घाड़ का आसन कैसे प्रयोग करती? उसने कदापि प्रयोग न किया होगा!
"आस्था?" कहा मैंने,
"नाथ?" बोली रुआंसी सी!
"कोई बात नहीं, एक काम करो, लेट तो सकती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, प्रयास कर लेती हूँ!" बोली वो,
"लेटो फिर!" कहा मैंने,
वो लेती, तो घाड़ के वक्ष उसको तंग से करने लगे, मैंने एक एक टांग, उसकी, फिर से व्यवस्थित कर दी, और इस बार उसके जैसे उस घाड़ ने, कस लिया!
"अब ठीक हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, लगता है!" बोली वो,
फिर से स्पंदन हुआ! इस बार तो मैं भी, उस पर गिरते गिरते बचा! लेकिन वो नहीं डिगी थी, ये अच्छा हुआ था!
''हाँ, अब ठीक है!" कहा मैंने,
शव को आसन बनाये, मेरी वो भोली-भाली साधिका, लेटी रही उस शव पर! और मैं, तब आह्वान के अंतिम चरण में जान एके लिए अलख पर जा पहुंचा!
मैं अलख पर पहुंचा, अलख, कुम्हला गयी थी, अलख पर पहुंचते ही, ईंधन झोंका उसमे! लपट उठने लगी! और तब मैं उस आह्वान के अंतिम चरण में जा पहुंचा! यहां मुझे, कपाल-फोड़ा जैसा एक मंत्र पढ़ना था, उसकी अधिष्ठात्री का मंत्र जपना था, तब, महारूढा, आरूढ़ हो जाती, चल पड़ती अपने साधक की रक्षा हेतु!
और वहां!
वहां तो जैसे मेला सा लगा था! चार और औघड़ आ बैठे थे वहां! वे सब, इसी सरणू के चेले-चपाटे रहे होंगे! अलख के समीप ही, अलख-गान कर रहे थे! अलख में ईंधन झोंक रहे थे, सरणू, नाच रहा था हाथ में कपाल लिए, कभी चूम लेता, कभी सर पर रख लेता और कभी झूमने लगता! बाबा बालू नाथ, अभी भी शांत ही बैठे थे, अब आँखें खोल ली थीं उन्होंने, अलख को घूरे जा रहे थे!
दौड़ा दौड़ा आया सरणू अलख तक! और आ बैठा, कपाल, गोद में रखा उसने, मदिरा परोसी गयी, मदिरापान किया उसने तब! और महामंत्र पढ़ने लगा! वो पढ़ता जाता, और वे चारों औघड़, उसके पीछे पीछे गाने से लगते! कभी कोई उठता, झूमता, पाँव पटकता! नाचता, जाता, चिल्लाता और कोई कोई छाती पर मुक्के बरसाता अपनी!
ब्रह्मिका की अधिष्ठात्री हैं श्री माँ कमला! इन्हीं की सहोदरी हैं ये मुख्य रूप से! तो अब उन्हीं का जमील पढ़ा जा रहा था, श्री माँ कमला से, विनती की जा रही थी कि उन्हें भेजा जाए, वे देख में रख लें, उन्हें आन लगी है, ब्रह्मिके को भेजा जाए, आन की खातिर! अघोर-तंत्र की खातिर, नाथों की खातिर, योगियों की खातिर! अपने साधकों की रक्षा की खातिर!
यही तो सब मैंने भी कर रहा था! ब्रह्मिके का बल, अंकों में गणन किया जाए तो अपार है, आठ आएगा, दस में से! और महारूढा का बल भी समान है, तो फिर समकक्ष ही क्यों? यहां प्रश्न समकक्षता का नहीं है, यहां प्रश्न त्वरित-फल का और निर्णय का है! महारूढ़ा परम-शक्तिशाली सत्ता है! अमोघ वार करने में निपुण है, परन्तु, अपने साधक की रक्षा करने में, सदैव ही तत्पर रहती है!
और तब मैंने पढ़ने शुरू किये अंतिम आह्वानिक महामंत्र! हस्त-अस्थियों को एक दूसरे से टकराने की एक मधुर सी आवाज़ निकलती है! जैसे, खाली, पीतल का बर्तन बजाया जा रहा हो, जल के समीप! ऐसी ही आवाज़! अस्थि में छेद कर, उसको बाँध दिया जाता है, इसे पुंगा कहा जाता है! इसको पहले कानों से, फिर माथे से, फिर गले से और फिर नेत्रों से छुआया जाता है और तब बजाया जाता है! मैंने बजाना आरम्भ किया!
वहां भी, पुंगा बजने लगी थी! ऐसे आवाज़ें निकल रही थीं कि जैसे किसी ठूंठ पेड़ पर, कोई कठफोड़वा कोटर बनाने में लीन हो!
लीन तो हम भी थे! पुंगा बजाने में!
''नाथ?" आई आवाज़,
ये साधिका थी!
"क्या हुआ साधिके?'' पूछा मैंने,
"तनिक आइये?'' बोली वो,
मैं गया उसके पास, सबकुछ तो ठीक था?
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मेरे पेट में पीड़ा होने लगी है" बोली वो,
"कैसी पीड़ा?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं, असहनीय है बहुत!" बोली वो,
"मूत्र-वेग तो नहीं थामा?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"फिर?' पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोली वो,
मैंने कुछ सोचा!
"अच्छा, उठो!" कहा मैंने,
उसका हाथ पकड़ा, और उठा लिया उसे! आँखें नीचे कर लीं उसने,
"आओ साधिके!" कहा मैंने,
और उसका हाथ थाम, मैं ले आया उसे अलख तक!
"बैठो!" कहा मैंने,
बैठ गयी वो,
मैंने पेट का मुआयना किया उसके, सबकुछ ठीक था, कोई गड़बड़ नहीं लग रही थी उसे!
"माहवारी का समय तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं नाथ!" बोली वो,
'रुको!" कहा मैंने,
मैंने भस्म ली, अभिमंत्रित की,
"मुख खोलो!" कहा मैंने,
उसने मुख खोला, और मैंने चटा दी उसे, उसकी जिव्हा पर रख दी!
"इसे निगल जाओ!" कहा मैंने,
वो निगल गयी!
"कुछ क्षण बस!" कहा मैंने,
''क्षमा........." बोली वो,
"साधिके! कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कोई विघ्न तो नहीं?" पूछा उसने,
'अब जो है, सो है!" कहा मैंने,
चराक चराक!!
बिजली सी कड़कने लगी!
मैंने फौरन ही पुंगा उठा ली, और बजाने लगा!
''ईंधन! ईंधन झोंको!" कहा मैंने,
उसने तत्परता से ईंधन झोंका!
और तब मैं, उठ खड़ा हुआ, पुंगा बजाता जा रहा था! कुछ सुनाई देने लगा! अजसिे दूर से कहीं, कहीं बहुत दूर से, आकाश में घने से मेघ, चढ़े चले आ रहे हों! जैसे अथाह जल-राशि, लीलने सभी को, बढ़ती आ रही हो उधर!
"साधिके? साधिके?" मैंने बैठे हुए, चीखते हुए बोला!
