वर्ष २०१३ पूर्वांचल...
 
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वर्ष २०१३ पूर्वांचल के एक स्थान की घटना!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो हम जा पहुंचे चंचल जी के डेरे! यहां से करीब पांच किलोमीटर रहा होगा ये डेरा! यहाँ डेरे अधिक और अन्य बसावट ज़्यादा थीं, मैंने तो यही देखा! खैर, जब हम वहां पहुंचे, और साधिकाएं दिखीं तो मुझे दो साधिकाएं पूर्ण सी लगीं, इनमे से एक थोड़ी कच्ची थी, लेकिन शिक्षण से वो पूर्ण की जा सकती थी, और दूसरी थी आस्था, ये कुशल एवं पूर्ण साधिका सी प्रतीत होती थी मुझे! वो पहले भी अन्य तीक्ष्ण-क्रियायों के निष्पादन में भाग ले चुकी थी, भयहीन थी और साहसी भी थी! किसी भी अनिष्ट की आशंका से घबराती नहीं और उसका मानसिक-स्तर भी संतुलित ही रहता! ऐसी ही साधिका पूर्ण कही जाती है! तो मैंने उस से ही बात की!
"आस्था नाम है तुम्हारा?'' पूछा मैंने,
"जी हाँ!" बोली वो,
"तीक्ष्ण-क्रियायों में भी भाग लिया है?" पूछा मैंने,
"हाँ, लिया है!" बोली वो,
"क्या उम्र है तुम्हारी?" पूछा मैंने,
"छब्बीस वर्ष!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कभी किसी अनिष्ट से साबका पड़ा है?" पूछा मैंने,
''दो बार!" बोली वो,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"एक बार घाड़ खड़ा हो गया था, उसे गिराया था!" बोली वो,
"और दूसरा?" पूछा मैंने,
"एक साधक का सर फट गया था, फट कर, मेरी गोदी में टुकड़े आ गिरे थे!" बोली वो!
इसका अर्थ था, उसमे साहस था! ऐसी परिस्थिति का वो सामना कर सकती थी! उसने अपना मानसिक-संतुलन नहीं खोया था, यही आवश्यक होता है!
"आस्था?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"इस बार, स्थिति और विकट हुई तो?" पूछा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोली वो,
"टिकी रहोगी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''वचन?" बोला मैं,
"हाँ, शपथ!" बोले हँसते हुए वो!
हालांकि, वचन और शपथ, ये मायने नहीं रखते, ये नियमो का उल्लंघन करना ही हुआ, मैं यूँ कि कह दिया था और उसने भी यूँ ही उत्तर दे दिया था! मुझे ये आस्था, जीवंत, जुझारू और उचित लगी! उसकी देह, कद-काठी भी मज़बूत थी! वो यदि द्वन्दान्त तक मेरा साथ देती, तो निःसंदेह मैं धूल चटाने में ज़ख्म हो जाता अपने शत्रुगण को!
"ठीक है आस्था!" कहा मैंने,
"कब आना होगा मुझे?" पूछा उसने,
"कल, संध्या समय तक!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"वो आपको लेने आ जाएंगे!" कहा मैंने,
"उचित है!" कहा उसने,
"ठीक!" कहा मैंने,
"आ जाउंगी!" बोली वो,
"कोई शर्त?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"बाद में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तेरा-मेरा?" पूछा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोली वो,
"आज्ञा है?" पूछा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो!
और मैं निकल आया वहां से! आस्था सच में ही एक कुशल साधिका थी! उसको उचित मार्गदर्शन मिलता तो निःसंदेह वो शीर्ष तक पहुँच सकती थी! इसमें कोई संदेह नहीं था! मैं काफी प्रभावित हुआ था उस से, उसके उत्तर से और उसकी वाक्-प्रतिभा से!
मैं आ गया बलदेव के पास, शर्मा जी, बाहर ही टहल रहे थे, हाथ में चाय का गिलास था उनके, मुझे देखा तो मेरे संग अंदर ही चले आये थे! मैं अंदर आ कर बैठा!
"बनी बात?" पूछा बलदेव ने!
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा चंचल जी ने!
''आस्था!" कहा मैंने,
"यही मैंने भी कहा था!" बोली चंचल!
"विशेष ही साधिका है!" बोला मैं,
"रख लो संग फिर!" बोली चंचल!
"अरे नहीं जी!" कहा मैंने,
"कहीं नहीं मिलेगी ऐसी!" बोली वो,
"ये तो सच है!" कहा मैंने,
"पढ़ी-लिखी है, उच्चारण भी साफ़ है!" बोली वो,
"हिम्मत वाली है! अदम्य साहसी है!" कहा मैंने,
"ये तो है ही!" बोली वो,
"यही विशेषता है उसमे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो!
"कहाँ कि है?" पूछा मैंने,
"रक्सौल की!" बोली वो,
"लगती तो नहीं!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"हिंदी साफ़ है उसकी!" कहा मैंने,
"बाप की दो औरतें थीं उसके!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"ये दूसरी से है!" बोली वो,
"इसकी माँ, रुद्रपुर की थी!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"साफ़-सुद्ध भी है!" बोली चंचल!
"हाँ!" कहा मैंने,
''तो कब ले जाओगे?" पूछा उसने,
"क्यों बलदेव जी?" पूछा मैंने,
"कल शाम को?" बोला बलदेव!
"ठीक है!" बोली चंचल,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वापसी?" पूछा चंचल ने,
"अगले ही दिन?" कहा मैंने,
"चलो, कोई बात नहीं!" बोली वो,
"अच्छा फिर!" बोला बलदेव!
"ठीक!" कहा चंचल ने!
''तो कल शाम को!" कहा बलदेव ने!
"हाँ!" बोली वो,
"अच्छा जी, नमस्ते!" कहा मैंने,
''अच्छा जी!" बोली चंचल!
और हम लौट पड़े वहां से, बैठ गए गाड़ी में आकर, गाड़ी आगे बढ़ चली!
"कोई कमी तो नहीं?" पूछा बलदेव ने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पसंद है न?'' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"नहीं तो और भी हैं!" बोला वो,
"नहीं, ये ही ठीक है!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"पूजन के बाद, उसको नियम बता दिए जाएंगे!" कहा मैंने,
"हाँ जी! तब वो पूज्य हो जायेगी!" बोला वो,
"हाँ, शक्ति-स्वरूपा!" कहा मैंने!
"जय माँ भूतेश्वरी!" बोला वो!
"जय माँ भूतेश्वरी!" हम सभी बोल पड़े!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वहां से सीधे बलदेव के स्थान पर ही आये, यहां काफी काम था मुझे बलदेव से! स्थान तो तय हो चुका था और साधिका भी मिल चुकी थी, अब कुछ विशेष था तो था एक स्त्री-घाड़, नपुंसक-घाड़ के लिए मुझे बड़े बाबा ने मना कर दिया था, चूंकि उसको वहन करने के पश्चात मुझ पर कुछ पाबंदियां आयद हो जातीं और मैं कम से कम एक सौ छियासी दिवसों तक, कोई क्रिया नहीं कर सकता था! मात्र, उस मस्य बस विद्या-संचरण, जागरण एवं संवर्धन ही कर सकता था! इसीलिए मुझे मनाही कर दी थी नपुंसक-घाड़ प्रयोग करने हेतु!
तो हम आ गए थे ब्लडवे के स्थान पर, आते ही, विश्राम किया, चाय मंगवा ली थी, सो चाय पी रहे थे, साथ में कुछ हल्का-फुल्का भी खा ही रहे थे! भूख तो लग ही रही थी, संध्या होने में अभी समय शेष था, बस कुछ पेट में जाए तो चैन मिले, यही स्थिति थी!
"बलदेव?" कहा मैंने,
"जी?" कहा उसने,
"कल मैं साधिका से यहीं मिलना चाहूंगा, मेरे पास अन्य कोई स्थान नहीं है यहां!" कहा मैंने,
"ये भी भला कोई कहने की बात है! आपका ही स्थान है! आपसे तो अब वैसे भी आत्मीयता हो चली है! आप इस स्थान को अपना ही मानिए! कभी भी आएं, जाएँ, सदैव आपका स्वागत है!" बोला वो!
उसका ये स्नेह देख, मैं तो भाव-विभोर हो उठा! मैं तो पहली बार ही बलदेव से मिला था लेकिन उसने तो ऐसे मेरी मदद की थी कि जैसे न जाने कब से मेरा स्नेही परिचित हो वो! जैसे अनेक बरसों से!
"अब आपको कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं! हाँ, कुछ कहना चाहूंगा!" बोला वो,
"हाँ, अवश्य!" कहा मैंने,
"आप एक काम क्यों न करें?" बोला वो,
"बताएं?" कहा मैंने,
''आप उस कन्या को भी यहां ले आएं, द्वन्द-रात्रि को मैं चकाक्ष-चक्र में सुरक्षित रखूंगा उसको!" बोला वो!
कमला था! बलदेव तो माहिर था! मुझसे भी दो क़दम आगे था! मैं बहुत प्रभावित हुआ! ये कोना मुझ से अनदेखा कैसे रह गया था?
"वाह बलदेव! समझ लो, आपने मेरी सारी समस्याओं का अंत कर दिया!" कहा मैंने,
"ऐसा न कहें! मेरा कर्तव्य भी है ये!" बोला वो!
"ये बहुत अच्छा रहेगा!" कहा मैंने,
"मैं उसको, चक्र में सुरक्षित कर, आपके साथ चल पडूंगा!" बोला वो,
"बहुत अच्छा!" कहा मैंने,
"मैं जानता हूँ कि द्वन्द का अंत क्या होगा!" बोला वो,
"अच्छा, कैसे?'' पूछा मैंने,
''आपके व्यक्तित्व से मैं भली-भांति परिचित हो गया हूँ!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"किसी भी व्यक्ति का आत्म-विश्वास उसकी सफलता की कुंजी होता है!" बोला वो!
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
और भी बहुत सी बातें होती रहीं! काफी कुछ, जमा-घटा हुआ! कुछ गुणा-भाग भी! कुछ निष्कर्ष भी निकाले गए! रणनीति बनाई गयी! एक फेहरिस्त भी बनाई गयी कि किस किस वस्तु की अहम आवश्यकता थी मुझे!
"बलदेव?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"मुझे एक स्त्री-घाड़ चाहिए होगा!" कहा मैंने,
"चिंता ही न करें!" बोला वो,
"हो जाएगा न प्रबंध?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"उस स्थान तक आ जाएगा?'' पूछा मैंने,
"वहीँ मिल जाएगा!" बोला वो,
''अच्छा?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बिसन से कह दिया है!" बोला वो!
''अरे वाह बलदेव!" कहा मैंने,
"चूक न रहेगी कुछ!" बोला वो,
"सच में!" कहा मैंने,
"क्या जी?" बोला वो,
"ये द्वन्द आपका ही रहा!" कहा मैंने,
"अरे!!" बोला वो,
"सारा श्रेय आपका!" बोला मैं!
"बड़प्पन है जी आपका!" बोला वो,
"नहीं जी!" बोले शर्मा जी,
"अब छोड़ें आप!" बोला वो,
"अच्छा, चलते हैं अब!" कहा मैंने,
'एक मिनट!" बोला वो,
"बताएं?" कहा मैंने,
"कुछ दिखाता हूँ!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
''आइये!" बोला वो,
"चलो बलदेव!" कहा मैंने,
ले चला वो हमें, एक अलग सी जगह!
"वो देख रहे हैं?" पूछा उसने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो बाबा की समाधि है!" बोला वो,
''अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"और वो?" बोला वो,
"हाँ, वो बड़ी सी झोंपड़ी?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो क्रिया-स्थल है!" बोला वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"पिता जी ने जहाँ बनाई, वहीँ है आज भी!" बोला वो,
"ये अच्छा किया!" कहा मैंने,
''यहां आइये!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
सामने एक कक्ष था, ताला लगा था, जेब से चाबी निकाली उसने, खोला दरवाज़ा, एक और दरवाज़ा, वो भी खोला!
''आइये!" बोला वो,
जलायी लाइट!
"वाह!" कहा मैंने,
"ये है सारा साजो-सामान!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
''वो रहा नपुंसक-कपाल!" बोला वो,
"बहुत ही बढ़िया!" कहा मैंने,
मैंने उठा कर देखा, बड़ा ही वजनी था! बड़ा भी था!
"वजनी है बहुत?' कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"विशेष है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी! शम्मम-नपुंसक का है!" बोला वो!
"ओहो!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"मैंने पहली बार देखा!" कहा मैंने,
"पिता जी का है!" बोला वो,
"उन्होंने मंगवाया होगा?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी, सौ साल से भी अधिक पुराना है!" बोला वो!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"और ये देखिये, बाल-सिंघी!" बोला वो!
"कम्माल है बलदेव!" कहा मैंने,
"ये विशिष्ट हैं!" बोला वो,
"सो तो हैं ही!" कहा मैंने,
"ये, समस्त सिंघी-माल!" बोला वो!
"देख रहा हूँ!" कह मैंने,
"ये, कर्णव!" बोला वो!
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये भदन्ति!" बोला वो!
"चमत्कार!" कहा मैंने,
"ये, सूक्तपाणि!" बोला वो!
"ये सब, कहाँ से लिया?'' पूछा मैंने,
"कुछ बपौती, कुछ अपने आप!" बोला वो!
"मान गए भाई!" बोले शर्मा जी!
"ये देखो आप!" बोला वो,
"ओह!!" कहा मैंने,
"शगद्र-योनि!" बोला वो!
"ओह!!!" निकला मेरे मुंह से!
"ये कैसे मिला?" पूछा मैंने,
"ये साहब, तिब्बती है!" बोला वो!
"वाह!" बोले शर्मा जी!
"तो आपको, कोई चिंता नहीं होनी चाहिए! यहां सब है!" बोला वो!
"भाई बलदेव!" बोले शर्मा जी!
"जी?'' बोला वो!
"अब मैं, क्या कहूँ?" बोले वो!
"कहिये?" बोला हँसते हुए!
"समझ लो, अब कोई कमी नहीं!" बोले वो!
"तभी तो कहा मैंने!" बोला वो!
"कुछ सामान मुझे चाहिए होगा!" कहा मैंने,
''सब आपका ही है!" बोला वो!
"बस ठीक!" कहा मैंने,
"आइये!" बोला वो,
और हम बाहर आये,
उसने ताला लगाया, और चला हमारे साथ!
"अब चलते हैं!" कहा मैंने,
"भोजन?'' बोला वो,
"अब नहीं!" कहा मैंने,
"ऐसे कैसे?'' बोला वो,
"कल!" कहा मैंने,
"खा जाते!" बोला वो,
"बस!" कहा मैंने,
"चलिए, कल!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आइये, मैं चलता हूँ!" बोला वो,
और हम उसके साथ साथ चले!
आये बाहर तक!
'तो कल आ रहे हैं न?" पूछा उसने,
"पक्का!" कहा मैंने,
"अब तीन दिवस शेष हैं!" बोला वो!
"हाँ, अब यहीं पर!"" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो!
और तब हमने विदा ली, सवारी पकड़ी, फिर बस, और फिर अपनी जगह पहुंचे! आराम किया तब!
"ये बलदेव तो कमाल है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ यार!" कहा मैंने,
"इतना सब?" बोले वो,
"बपौती है!" कहा मैंने,
"पारखी भी है!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"कल हो गयी त्रियोदशी!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोले वो,
मित्रगण!
इस त्रियोदशी का बड़ा महत्व है! बड़े से बड़ा काम, इस पर निबटाया जा सकता है! इस दोष-हीन है! कोई दोष नहीं इस पर! कभी बताऊंगा मैं आपको इसका महत्व!
मैंने कुछ ही देर बाद, फ़ोन किया रिपुना को, और बता दिया कि कल, हम कहाँ जाने वाले हैं, उसने सवाल तो बहुत किये, लेकिन मैं डिगा नहीं! बस एक ही दिशा! जाना है, तो जाना है!
अगला दिन,
करीब आठ बजे ही, हम रिपुना के पास पहुँच गए थे, अपना सामान लेकर! वो भी तैयार थी, सो देर न की, और निकल लिए, सीमा को बता ही दिया गया था, तो हम, करीब बारह बजे से पहले, पहुंचे वहाँ! कक्ष तैयार मिले हमें! बलदेव था नहीं वहां! उसको दोपहर बाद आना था! दोपहर में भोजन कर लिया था, और अब इंतज़ार था, तो बलदेव का!
फिर बीती दोपहर भी!
आया बलदेव!
हुई बात, मुलाक़ात!
"आओ बलदेव, मिलवाता हूँ रिपुना से!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
ले गया पास वाले कक्ष में, और मिलवा दिया उसको! करीब आधे घंटे हम ठहरे वहां!
अब साँझ होने वाली थी!
जगदीश रवाना हो गया था आस्था को लेने के लिए! आज कुछ जांच होनी थी आस्था की! ये बेहद ज़रूरी होता है! अन्यथा, कुछ भी अनिष्ट हो सकता है!
शाम करीब छह बजे, आस्था आ गयी! प्रसन्न थी वो!
"कैसी हो?" पूछा मैंने,
"ठीक, आप?'' पूछा उसने,
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"मैं भी!" बोली वो,
"थकी तो नहीं?" पूछा मैंने,
"अरे नहीं!" बोली वो,
"आओ फिर!" कहा मैंने,
"चलिए!" बोली वो,
बलदेव साथ चला, जाना था क्रिया-स्थल! वहां पहुंचे, खोला वो, और हम अंदर गए, बलदेव हुआ वापिस! अब रह गए मैं और वो आस्था!
"पिता का नाम?" पूछा मैंने,
बता दिया,
"माँ का नाम?"
बता दिया!
"उद्देश्य?" पूछा मैंने,
बता दिया!
"बंधन हेतु तत्पर साधिके?'' पूछा मैंने,
"तत्पर!" बोली वो!
फिर आरम्भ हुई जांच!
और...


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब हुई जांच आरम्भ! मैंने जांच के सोलह प्रकार जाँचे, सोलह में से, चौदह में वो परिपूर्ण थी, शेष दो रह गए थे, उनको, अब इन दो दिनों में पूर्ण करना था! मैंने उसको मार्गदर्शित कर दिया था! अब कल से मुझे भी तैयारियां करनी थीं! कुछ विद्याएँ संचरित करनी थीं, जागृत करनी थी, मंत्र जागृत करने थे, अपनी वस्तुएं जांचनी थीं! फिर मेरे तन्त्राभूषणों को भी पूजना था, उनमे प्राण संचरित करने थे! कमलिनी-महाविद्या से पोषण करना था उन्हें! उस रात तक, मैंने साधिका को बहुत कुछ बताया कि किस समय मुझे क्या करना है और उस क्षण में उसका मूल कार्य क्या होगा, तनिक भी विलम्ब घातक सिद्ध हो जाना था! उसको मेरे साथ डटे रहना था, उसकी रक्षा का भार मेरे ऊपर था, जब तक मैं जीवित था, तब तक उसको कोई अहित नहीं कर सकता था! ये वचन मैंने उसको दिया था!
और तब, अंतिम चरण, जांच का आरम्भ हुआ,
"साधिके?'' कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"यदि मन में, संदेह हो, भय व्याप्त हो, कुछ शेष हो कहने के लिए, कोई सलाह हो, मशविरा हो, कोई उचित उपाय एवं निदान हो, तो तुम स्वतंत्र हो स्पष्ट करने के लिए, मैं उस पर विचार अवश्य ही करूंगा!" बोला मैं,
"कुछ शेष नहीं!" बोली वो,
"भय?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"कोई मार्गदर्शन?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
"तुम्हें कल और आगामी दिवस पर, नौ बार कुल, योनि-प्रक्षालन करना होगा, ये अनिवार्य है!" कहा मैंने,
"अवश्य!" कहा उसने,
"दृढ-संकल्प उठाती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने!
''और अब, अंतिम एवं विशेष, क्या किसी भी प्रकार का प्रलोभन तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो!
"प्रसन्न हुआ मैं साधिके!" कहा मैंने,
"मेरा अहोभाग्य!" बोली वो,
"उठो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
उठ गयी, तब मैंने मंत्र पढ़ते हुए, उस कमर पर, एक सफेद कच्चे सूत की डोरी बनाते हुए बाँध दिया!
"घूमो पीछे!" कहा मैंने,
मेरे सम्मुख हुई वो,
तब मैंने उसके गले में, वैसी ही डोरी बाँध दी,
"बायां हाथ आगे करो!" कहा मैंने,
उसने आगे किया, और मैंने डोरी बाँध दी उसमे भी!
''अब, तू वही करोगी, जैसा मैं तुम्हें आदेश दूंगा!" कहा मैंने,
"अवश्य!" कहा उसने!
'शेष नियम तो तुम्हें पता ही होंगे?'' पूछा मैंने,
"हाँ, लेकिन कुछ पूछना है!" बोली वो,
"पूछो!" कहा मैंने,
"मुझे वाम आसनिय होना है?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"समझ गयी!" बोली वो,
"और कुछ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"जाओ, अब विश्राम करो, जो बताया, उसको कंठस्थ कर लो! पांच घटी पहले मैं तुमसे अब पुनः मिलूंगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
"आज्ञा है?" पूछा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
अब मैं वहां से निकल आया! उसे अपने एकांत के कक्ष में शयन करना था, और मुझे एक पृथक कक्ष में अलग! मुझे कुछ महामंत्र भी कंठस्थ करने थे! व्यूत-क्रिया और नेभ-क्रिया भी चलित में लानी थीं! मुझे वीर्य-प्रवाह रोकना था, कुन्द-महाकुन्द प्रक्षालित करना था! ये अत्यंत आवश्यक होता है, द्वन्द, साधना क्रिया के मध्य यदि कुछ चूक हो जाए, तो वो क्रिया, त्याज्य हो जायेगी, सदा के लिए! मैं कक्ष में आया, और अपने शेष कार्यों में जुट गया!
रात्रि हुई!
मध्य-रात्रि आन पहुंची!
और इस प्रकार, मैं मंत्रों में लीन होता चला गया! अपने आपसे विरक्त सा हुए चला गया! मुझे मेरे अंतःकरण में मात्र मंत्र-ध्वनि ही सुनाई देने लगी! ऐसा ही होता है! सर्वस्व दांव पर लगाया जाता है, मात्र विद्याएँ, मंत्र, महामंत्र, शौषिभ आदि ही आपका साथ देते हैं उस समय! आप, स्वयं ही अपने खेवनहार हुआ करते हैं! अन्य कोई मदद नहीं! मदद के लिए, गुहार आवश्यक है! इसीलिए, सदैव तत्पर रहा जाता है!
अगला दिन!
बिता दिया!
किसी से कोई वार्तालाप नहीं! बस अपने ही आवश्यक कार्य! समस्त रात्रि मैं अलख के हाथ जोड़े रहा! गुरु-वंदन करता रहा! उनका आशीष मिले, मंगलकामना करता रहा! भोग चढ़ाता रहा! मंत्र-ईष्ट एवं ईष्टा का पूजन करता रहा!
उश्र, मेरी साधिका, जैसा उसको बताया गया था, करती रही! इस से, उसके देह का, मन का, अन्तःमन का सशक्तिकरण होता चला गया! वो जितना सशक्त बनती, लाभ उतना, मुझे ही प्राप्त होता!
अगला दिन!
इस दिन मौन-व्रत था मेरा!
ये अंतिम दिवस हुआ करता है! मेरे पास, कोई ओक-जोख(नज़र, देख, लागली, पकड़, कुमरी, ताहा) नहीं गुजरी थी! इस से स्पष्ट था कि सरणू निश्चिन्त था! सरणू ने श्रेष्ठ का अंजाम देखा था और फिर भी निश्चिन्त था! उसका ये आत्मविश्वास, एक बार को तो मुझे भी ठंडा पसीना दिला दिया करता था! वो दिन, उमड़ते-घुमड़ते विचारों में बीत गया! और फिर रात भी!
और उस दिन! जिस दिन अमावस थी! मैंने एक पूजन किया! एक भोग अर्पित किया अपने ईष्ट को! मौन-रत भंग किया! अब अपनी साधिका के अतिरिक्त सभी से मिला! सारा सामान ढंग से रख लिया! बलदेव और शर्मा जी ने बहुत मदद की मेरी! और जाने से छह घंटे पहले, मैंने गया रिपुना के पास! उसको देखा मैंने! वो तो ऐसी हो गयी थी जैसे जैव-द्रव्य चूस लिया हो ऊष्मा ने किसी लता का! काँप सी रही थी वो! आँखों में भय! आंसुओं के निशान पलकों पर देखे जा सकते थे! जब मैं अंदर गया, तो वो रोक न सकी अपने आपको! दौड़ते हुए, आकर, लिपट गयी मुझ से! और रुलाई फूट पड़ी उसकी!
"रिपुना?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं आया!
"रिपुना?'' कहा मैंने,
कोई उत्तर, फिर से नहीं!
"नहीं रिपुना!" कहा मैंने,
फिर से रुलाई फूटी उसकी!
"हुआ क्या?'' पूछा मैंने,
वो ना में सर हिलाती रही! मुंह से एक शब्द न निकला उसके!
"नहीं रिपुना!" कहा मैंने,
नहीं बोल पायी कुछ भी!
"रोना नहीं रिपुना! अब विजय का अवसर आने को है! रोओ नहीं!" कहा मैंने,
फिर से जा चिपकी! और रोये ही जाए! न रुके एक पल के लिए भी! मुझे बहुत दया आई उस पर, उस क्षण!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"रिपुना?" कहा मैंने,
"नहीं...नहीं....!" बोली वो,
"क्या नहीं रिपुना?'' पूछा मैंने,
"सब की वजह मैं ही हूँ, मैं!" बोली वो, रोते रोते!
"नहीं रिपुना!" कहा मैंने,
"नहीं, मैं ही हूँ!" बोली वो,
"सुनो रिपुना! ऐसा मत सोचो!" कहा मैंने,
"नहीं...नहीं!!" बोली वो,
"पागल लड़की! ऐसे नहीं रोते! चुप हो जाओ अब!" कहा मैंने,
और उसके आंसू पोंछे मैंने! मैं पोंछता जाता और वो फिर से बहाये जाती!
''अब चुप!" कहा मैंने,
सिसकियाँ ले रही थी! चुप होने का प्रयास करती तो सिसकियाँ उभर जातीं!
"चुप! अब चुप!" कहा मैंने,
किसी तरह से समझाया बुझाया उसे!
"सुनो! मैं जा रहा हूँ! बलदेव आएंगे! जैसा कहें करना!" कहा मैंने,
न हाँ, न, ना!
"सुन रही हो न?'' पूछा मैंने,
नहीं सुन रही थी! खोयी हुई थी कहीं!
"रिपुना? सुनो?" कहा मैंने,
और तब तन्द्रा भंग हुई उसकी!
"सुना तुमने?" कहा मैंने,
नहीं बोली कुछ!
"बलदेव आएंगे, वो जैसा कहें, वैसा करना!" कहा मैंने,
न हाँ, और न ही फिर से, ना!
"अब चलता हूँ!" कहा मैंने,
मैं मुड़ने लगा, जैसे ही मुड़ा, मेरा कंधा पकड़ लिया!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"मुझे भी ले चलो?" बोली फिर से, रोते हुए!
"तुम क्या करोगी?" पूछा मैंने,
"मैं, संग रहूंगी, संग, आपके!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों? क्यों?" बोली हाथ जोड़ते हुए!
मैंने उसके हाथ पकड़े, खोले, और नीचे किये! आंसू पोंछे!
"नहीं, सबसे बड़ा अहित यदि कुछ होगा, तो वो तुम्हारा! मैं तो जीते जी हार जाऊँगा रिपुना! नहीं! मुझे हारना नहीं है! नहीं रिपुना, तुम यहीं सुरक्षित रहोगी!" कहा मैंने,
"मत करो अलग...मुझे मत करो अलग अपने से??" बोली चीख कर!
"ये क्या कर रही हो तुम? संतुलित रो? क्यों मेरी परेशानी बढ़ा रही हो?" कहा मैंने खीझ कर इस बार!
"मुझे ले चलो? संग अपने, संग रहूंगी!" बोली वो, धीमे से!
''पागल न नो तुम!" कहा मैंने,
"ले चलो! ले चलो?" बोली वो!
"रिपुना? सोचो? ज़रा सोचो? ज़रा सा? मुझ पर विश्वास नहीं?" पूछा मैंने,
"है, अपने से ज़्यादा!" बोली वो,
"तो मानो मेरा कहना!" कहा मैंने,
"ये नहीं, ये नहीं!" बोली वो, और फिर से लिपट गयी!
फिर से मोटे मोटे आंसू!
"रिपुना? समय बीत रहा है! समझो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तुम्हें मेरे सर की सौगंध रिपुना!" कहा मैंने,
वो एक झटके से हट गयी!
धीरे धीरे पीछे हुई! मुड़ी, तेज क़दमों से भागी सी, और अपने बिस्तर पर जा गिरी! फफक फफक के रोने लगी!
मैं आगे बढ़ा! गया उसके पास! उसके सर को छुआ! लपक कर मेरा हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया! खींचने लगी मुझे!
"सुनो रिपुना! यहीं रहना! मैं लौटूंगा! अवश्य ही लौटूंगा!" कहा मैंने,
वो फिर से रो पड़ी! तेज! इस बार, चीत्कार के साथ!
पूरा कमरा सर पर उठा लिया उसने तो!
मैं हटा पीछे! हटा, उसको देखते हुए! उसने जैसे ही देखा, मैं जाने वाला हूँ, बिस्तर से उछली और दौड़ पड़ी मेरी तरफ! वो ऐसे बर्ताव करने लगी थी कि जैसे मानसिक-आघात पहुंचा हो उसे, विक्षिप्त जैसी!
"मत जाओ मुझे छोड़ कर! मत जाओ!" बोली वो,
"रिपुना??" इस बार मैं गुस्से से चीखा!
वो काँपी खड़े खड़े!
"होश में आओ?" चीख कर बोला वो!
उसकी आँखें मिंची!
"क्या है ये सब? हैं?" पूछा मैंने,
आगे आया, उसके पास!
"क्या है ये? दिमाग चल गया है क्या? पागल हो गयी हो? होश में आओ? सुन नहीं रही हो? सुनो? यहीं रहना है तुम्हें! समझीं?" बोला मैं चीख कर!
कांपने लगी! जांघें काँप उठीं उसकी!
मेरा दिल काँप उठा! उसकी वो हालत देख, मेरे दिल में टीस उभर आई! मैं तो दहल गया अंदर तक! जी किया, उसको गले लगा लूँ!
मैं आया उसके और करीब!
आंसू सूख चुके थे उसके!
अब भय व्याप्त था आँखों में!
"रिपुना!" धीरे से बोला मैं,
और पकड़ा उसका हाथ! किया पास उसे, फिर, और पास लाते हुए, उसका माथा चूम लिया! मुझ से उसकी वो हालत न देखी गयी!
"मुझ पर विश्वास रखो!" कहा मैंने,
कुछ न बोली!
"सच कहता हूँ! सच कहता हूँ! उखाड़ फेंकूंगा उनको!!" कहा मैंने,
मेरे हाथ पर, उसके हाथों की पकड़ हुई सख्त तब!
"जिसने तुम्हारे लिए अपशब्द कहे, नहीं छोड़ने वाला मैं उसको!" कहा मैंने,
नहीं बोली कुछ भी!
"सब देख लेंगे!" कहा मैंने,
उसने मेरा हाथ में अपनी उंगलियां फंसा लीं!
"रिपुना! मैं लौटूंगा!" कहा मैंने,
और अपने हाथ को, मुक्त कराया उस से! चला पड़ा एक झटके से बाहर की तरफ! नहीं देखा मैंने उसे पीछे! मेरी डाँट या चीख का माक़ूल असर हुआ था उस पर! वो सहम गयी थी! और अब इंतज़ार था उसे! इंतज़ार, मुझे पुनः देखने का!
मैं आया बाहर! चला साधिका के कक्ष की तरफ! वो तैयार थी! मुझे देखा, तो प्रणाम किया उसने!
"चलें आस्था?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
उसके माथे पर, सप्तपुंज काढ़ा मैंने तब!
''आओ आस्था!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े बाहर की तरफ! सामने ही गाड़ी खड़ी थी, शर्मा जी, बलदेव, जगदीश हमें ही देख रहे थे, सारा सामान रखवा लिया गया था! शेष, बिसन के यहां से उपलब्ध हो जाना ही था!
''आइये, बैठिये!" बोला बलदेव!
'आओ आस्था!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
वो बैठी, फिर मैं! फिर हम सब बैठ गए एक एक करके!
"चलें?" पूछा बलदेव ने!
"हाँ, चलिए!" बोला मैं,
"जय माँ भूतेश्वरी! आशीष तेरा! आशीष तेरा!" बोला बलदेव!
और हम सभी ने, दोहरा दिया उसको!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी सरपट दौड़ पड़ी हमारी! मेरे मन में कोई भय नहीं था, मुझे अभी वहां पहुँच कर, श्री जी से बात करनी थी, आदेश लेना था, आज्ञा लेनी थी! फिर तो समक्ष कोई भी हो! कोई भी, फिर पीठे हटने वाला नहीं था मैं! चाहे मृत्यु-वरण ही क्यों न करना पड़े! पीठ-पीछा दिखाना नहीं था! एक ही लक्ष्य! एक ही उद्देश्य! विजय! बस विजय! मुझे रह रह कर, रिपुना का ख्याल आ रहा था! जाने क्या सोच रही होगी, जाने क्या कर रही होगी! क्या बही भी आँखों में से आंसू निकल रहे होंगे? क्या अपनी आँखें ही सुजा बैठी है? ये सब मैं किसके लिए कर रहा था? मात्र रिपुना के लिए? नहीं, स्त्री-शक्ति को पहचानिये! स्त्री का मान कीजिये! वो शक्ति है, जब तक शांत है, शांत है, जब भड़कती है तो स्वयं अघोरेश्वर को भी कमल-शयन बनना पड़ता है! ये है उसकी शक्ति! फिर कोई रोके नहीं रोक सकता उसे! कोई थामे, नहीं थाम सकता उसे! उस मान-मर्दन न कीजिये! अपमान न कीजिये! उसकी क्षीण न समझिए! उसको हिक़ारत से न देखिये! वो भोग-विलासिता की वस्तु नहीं है! वो कोई सम्पत्ति भी नहीं है! वो मुक्त है! शक्ति को कौन क़ैद कर सकता है? कोई नहीं! है कोई? नहीं, कोई नहीं! पुरुष तो मात्र बाह्य है! सृष्टि तो स्वयं ही शक्ति है! पुरुष बीज है! पुरुष यदि शक्ति के किसी अंश भर तक भी काम आये तो ये उसका सौभाग्य है! नौ माह, स्त्री किसी पुरुष संतान को अपने गर्भ में सुरक्षित रखती है! उसका संचरण करती है! दुग्ध-पान कराती है, देखभाल करती है! शिशु, उसकी गोदी में, कितना सुरक्षित महसूस करता है अपने आपको! पिता को तो वो, उसकी आवाज़ से आदि होने पर पहचानता है, गंध से पहचानता है! तो स्त्री का महत्व, पुरुष से कहीं अधिक है! कहीं अधिक! आप स्वयं प्रकृति को देख लिए, अनुपम एवं मोहक संज्ञाएँ सब स्त्री-कारक हैं! नदी! वायु, सृष्टि! सुंदरता! दया! करुणा! आस्था! श्रद्धा, पूजा, भक्ति, शरण आदि आदि! और अब देखिये, क्रोध, पत्थर, काँटा, लालच, काम, अर्थ, धन! समझे न आप मेरा आशय! जब प्रकृति में ही स्त्री का मान सर्वोपरि है, तो हम कौन हैं! क्या बिसात हमारी! जब जब शक्ति को कृष आता है तो वो दावानल बन जाती है, अग्नि का रूप धारण करती है! तब, नाश होता है! चहुँदिश नाश! सर्वनाश!
तो हम वहां पहुँच गए थे! अभी हमारे पास, कुल मिलकर, साढ़े तीन घंटों का समय था! अब सबसे पहले जो कार्य था वो था, सामान और सामग्री देखना! सब देखा गया, बलदेव ने मदद की! मेरा सारा आवश्यक सामन, उस कोठरी में पहुंचा दिया गया, जहाँ से कुछ ही दूर, मेरा द्वन्द-स्थल बना था! चुना गया था! और तब, तब मैंने एकांत में जा कर, श्री जी से बात की! वहां श्री-दीप प्रज्ज्वलित कर दिया गया था! निरंतर नज़र बनी रहेगी, ये बता दिया गया था! क्या करना है, क्या नहीं, सब दोहरा दिया गया था! और अंत में, विजय-श्री का आशीर्वाद! जैसे मेरे शरीर में, अग्नि का संचार कर गया! भुजाएं फड़क उठीं! भृकुटियां तन गयीं!
''आइये इधर!" बोला बलदेव!
हम चले कोठरी की तरफ, वहां जा पहुंचे!
"ये ब्रह्म-कपाल!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये शम्मम-कपाल!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये चौबीस हस्त-अस्थियां!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये, दो, मेरु-माल!" बोला वो,
मेरु-दंड से बनी मालाएं!
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये रुण्ड-भद्रा!" बोला वो,
आत्माराम का वाम खंड!
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये ओसानी-अस्थि!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
ओसानी अर्थात, स्त्री के गर्भाशय के पास की अस्थि! ये सशक्तिकरण के कार्य में उपयोग हुआ करती है! अक्सर, औघड़, इसको अपनी कमर में धारण किया करते हैं!
"ये दो शिशु-कपाल!" बोला वो,
"उचित है!" कहा मैंने,
"ये मेख!" बोला वो!
स्त्री-मासिक-स्राव और रक्त से पोषित हुई भस्म!
"ठीक!" कहा मैंने,
"ये संग्राणी!" बोला वो,
ये एक औषधि है! रक्त-स्राव हो रहा हो, तो छुआइये, रक्त, पल भर में बंद! अक्सर, जिव्हा आदि को चीर कर रक्त निकाला जाता है, तब इसको चूसा या लगाया जाता है!
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"ये सुरतानि!" बोला वो,
ये साधिका के गले के लिए होती है!
"ठीक!" कहा मैंने,
"अवधूनिका है ये!" बोला वो,
अलख-ईन्द्ह में देर तक जलती है!
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"ये रूद्र-हंगा!" बोला वो!
दांतों की माला! भिन्न-भिन्न पशुओं के दांतों की माला! तांत्रिक-आभूषण!
''कपाल-मेषणी!" बोला वो!
माथे की हड्डी! नपुंसक की!
"नखोदर!" बोला वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"ये, षीषिभा!" बोला वो,
पात्र! अस्ति से निर्मित पात्र!
"ये उरु-पात्र!" बोला वो!
"वाह!" कहा मैंने,
"और ये, आपका आसन!" कहा उसने!
'बलदेव!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"एहसान हुआ आपका!" कहा मैंने,
"क्या क्या कहते रहे हैं आप भी!" बोला वो!
"चलिए, मिलता हूँ फिर!" कहा मैंने,
"हाँ, स्नान कर लीजिये! फिर मैं घाड़ दिखाता हूँ!" बोला वो,
"हाँ! अवश्य ही!" बोला मैं!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं चला गया स्नान करने! स्नान किया और वस्त्र पहन, आ गया वापिस बलदेव के पास, बलदेव और बिसन वहीँ बैठे थे,
"आइये, बैठिये!" बोला बलदेव!
"क्या रहा?" पूछा मैंने,
''अभी एक घंटा और लगेगा!" बोला वो,
"ठीक है, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"आ जाए तो मैं चलूँ फिर, वहां रिपुना के लिए काम करूँ!" बोला वो,
"हाँ, सही बात है!" कहा मैंने,
"तब तक, आराम कर लीजिये?" बोला वो,
''अब क्या आराम करना!" कहा मैंने,
"सो तो ठीक ही है!" कहा उसने,
'वो शर्मा जी कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"उधर हैं!" बोला वो,
वहां कुछ कक्ष बने थे, उन्हीं में से किसी में थे!
"अच्छा!" कहा मैंने,
''और वो साधिका?" पूछा मैंने,
"मिलेंगे?" पूछा उसने,
"हाँ" कहा मैंने,
''आइये!" बोला वो,
''चलिए!" कहा मैंने,
अब हम बाहर आ गए थे, बाहर अब, कुछ अँधेरा छाने लगा था, कहीं कहीं बत्तियां जलने लगी थीं, हम जगह बनाते हुए, एक तरफ चलते रहे, एक जगह कुछ कक्ष से दिखे, यहां कुछ महिलाएं भी थीं, यहीं कहीं थी वो आस्था!
"कहाँ बिसन?" पूछा बलदेव ने,
"वहाँ चले जाओ!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"जाइए, और वहीँ आ जाइए फिर!" बोला वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
मैं चला गया एक कक्ष के अंदर! यहीं बैठी थी आस्था, स्नान आदि से निवृत हो चुकी थी! मैं जा बैठा उसके पास!
"निबट लीं?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"अब क्या देरी है?" पूछा उसने,
"बस, कुछ आ रहा है!" कहा मैंने,
''अच्छा!" कहा उसने,
''एक घंटा और लगेगा अभी!" बोला मैं,
"कोई बात नहीं!" बोली वो,
''आस्था?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"यदि तुम्हें लगे कि पलड़ा कमज़ोर है, तो वही करना जो उचित है!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा उसने,
"तुम्हारी भलाई के लिए!" कहा मैंने,
''वो मैं जानूँ!" बोली वो,
"ये तो है ही!" कहा मैंने,
"एक बात और बताओ?" पूछा मैंने,
"पूछिए?" बोली वो,
"इस क्षेत्र में कब से हो?" पूछा मैंने,
"करीब चार वर्ष से!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"रुद्रपुर की थीं माँ तुम्हारी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तभी हिंदी सही है तुम्हारी!" कहा मैंने,
''अच्छा?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''आप दिल्ली से हैं?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
''कभी आई हो उधर?" पूछा मैंने,
''दो बार!" बोली वो!
''अच्छा!" कहा मैंने,
तभी बाहर एक महिला आई, बुलाया उसने मुझे, मैं गया, तो उसने बताया कि बिसन और बलदेव बुला रहे हैं!
"आओ आस्था?" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोली वो,
और चल पड़ी मेरे साथ!
हम पहुंचे उनके पास!
''आ गया घाड़!" बोला बिसन!
"अच्छा, दिखाओ?" पूछा मैंने,
''चलो!" बोला वो,
हम चल पड़े, एक जगह आये, यहां कुछ लोग भी खड़े थे, शायद परिजन थे उस घाड़ के, क्रिया-पश्चात यहीं दाह-संस्कार हो जाना था उसका, इसीलिए आये थे!
''आइये!" बोला बलदेव!
हम गए अंदर, बर्फ की सिल्लियों के बीच एक घाड़ रखा था, मैंने चेहरा देखा उसका, आयु करीब तीस बरस रही होगी उसकी, देह भी दरम्यानी थी, मृत्यु का कारण, सांप का काटना था, ऐसा बताया गया था, लेकिन देह पर नीली आभा नहीं थी, मुझे थोड़ा संदेह हुआ! फिर पता चला कि कारण कुछ और ही था, चिकित्सीय-प्रमाण थे उनके पास! देह में विष का सा स्राव हुआ था, जिस वजह से मृत्यु हुई थी!
"इनको बाहर भेजिए!" कहा मैंने,
बिसन ने सभी को बाहर भेजा फिर!
मैंने तब उस घाड़ का निरीक्षण किया, सबकुछ ठीक था, लेकिन एक सबसे बड़ी समस्या दिखाई दी मुझे! उस घाड़ के पांवों में फ़र्क़ था! एक छोटा और एक बड़ा, चलने में वो अवश्य ही लंगडाया करती होगी!
दिल ज़ोर से धक्! ऐन वक़्त पर सदमा सा लगा!
मैं आया बाहर, और बुलाया बलदेव को! उसको दिखाया तो वो भी चिंतित हो उठा! हमारे पास दो घंटे बचे थे, इतनी जल्दी कैसे हो प्रबंध?
''अब?" बोला मैं,
"कोशिश करता हूँ!" भागता भागता गया वो बाहर!
"आओ आस्था!" बोला मैं,
और ले आया उसे वापिस, उसी जगह, जहाँ हम बैठे थे पहले! अब मन में चिंताओं के बादल छाने लगे थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब ये समस्या अपने आप में, बहुत बड़ी थी! अब क्या किया जाए? काया प्रबंध हो जाएगा? न हुआ तो? न हुआ तो, बांधव-क्रिया करनी होगी, परन्तु, उसके लिए समय नहीं! तो अब?
"क्या हुआ?" बोली आस्था!
"तुमने देखा तो?" कहा मैंने,
''तो?" बोली वो,
"अर्थपूर्ण नहीं ये प्रश्न!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"तुम नहीं जानती!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो,
"अरे? नहीं जानतीं?" कहा मैंने,
"कैसे?" बोली वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
कुछ देर शान्ति!
कुछ पल, विराम!
"नहीं बताओगे?" बोली वो,
"आस्था?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"अब बस, डेढ़ घंटा शेष है!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो,
"कमाल है!" मेरे मुंह से निकला!
अब ये उसकी अनभिग्यता थी या कुछ विश्वास, वो ही जाने!
मैं चुप!
मुंह लटकाये, चुप!
"हूँ? देखो आप अब!" बोली वो,
उसने ये बोला, और बाहर आहट हुई! मेरे खड़े हुए कान! दौड़ा मैं बाहर के लिए! बाहर, एक व्यक्ति खड़ा था!
'आइये, जल्दी आइये!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
मैं चला तेज तो मेरे पीछे, वो आस्था भी!
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"घाड़ आ गया है!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने, हतप्रभ सा हो कर!
"हाँ!" बोला वो!
अब तो पांवों में लगे पहिये!
"चलो!" कहा मैंने,
पहुंचा मैं वहां!
बलदेव मिला वहां, जेब से, कुछ पैसे दे रहा था किसी को!
"बलदेव?" कहा मैंने,
"हाँ! आओ!" बोला वो!
मेरा हाथ पकड़, ले चला मुझे!
आये हम एक कक्ष में!
"ये देखिये!" बोला वो!
एक घाड़!
बीस-बाइस की युवती!
हृष्ट-पुष्ट!
मज़बूत कद-काठी!
देह, गौर!
"कारण?" पूछा मैंने,
"डूबने से!" बोला वो!
अब की मैंने जांच! पूर्ण! समस्त लब्धि-पूर्ण!
"पूजन-स्थल में ले जाओ!" बोला वो!
और उस घाड़ को, ले जाया गया उधर, बलदेव भी साथ ही चला गया था, और इधर! इधर मैंने नज़र डाली आस्था पर! आस्था! वाह आस्था! तू सच में ही है आस्था!
समस्त पूजन हुआ आरम्भ! श्रृंगार किया गया उसका! योनि-प्रदेश, आदि का पूजन हुआ! इसमें, करीं चालीस मिनट लगे! और उसके बाद! मैंने अपने क्रिया-स्थल की राह पकड़ी! वहां गया, उठाया अपना सामान! आस्था को लिया संग! बस, यहां से अब सब पीछे छूट गए थे! मेरे उस स्थल पर, वो घाड़, पहुंचा दिया गया था! हम वहां पहुंचे! स्थान देखा! और हुए तत्पर! अभी पचास मिनट शेष थे!
"साधिके?" कहा मैंने,
"जय जीवोषा!" बोली वो,
"जय जीवोषा!" कहा मैंने,
"जय, धण्याती!" बोली वो,
"जय धण्याती!" कहा मैंने,
"स्थान दीजिये?" बोली वो,
आस्था तो सच में ही कमाल थी! सच में!
मैंने तभी, निरासन बिछा दिया, फिर अपना भी! परन्तु अभी तो औघड़-श्रृंगार शेष था! इस श्रृंगार से तो, देवराज इंद्र भी थर्रा जाते हैं! देव भी, कंदराओं में, जा शरण ढूढ़ते हैं!
"साधिके?" बोला मैं,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"संग?" कहा मैंने,
"श्वा तक!" बोली वो,
"एराची?" बोला मैं,
"तोराची!" बोली वो
डामरी! महा-डामरी!
"साधिके?" बोला मैं,
"आदेश?" बोली वो!
"संगिनी?" बोला मैं,
"आदेश!" बोली वो!
"ला! पिटारी ला!" कहा मैंने,
लायी पिटारी! दी मुझे!
'वो, वो ला तो ज़रा!" कहा मैंने!
"आदेश!" बोली वो!
उठा मैं तब! खोली पिटारी! निकाली भस्म! और वस्त्र-त्याग किया!
''साधिके?" बोला मैं,
"आदेश?" बोली वो,
"संहुँ आ!" कहा मैंने,
वो आई, वस्त्रहीन हुई, और लेट गयी आसन पर, तब मैंने, उस सँहु से उसके देह पर, चिन्ह दागने आरम्भ किये! अब मैं, मैं नहीं था! मैं, अब वो था! एक मसानी औघड़! मसानी! पूर्ण मसानी औघड़! मैंने उसकी देह पर, इक्कीस चिन्ह अंकित किये!
"साधिके?'' बोला मैं,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"कुरूपम्!" कहा मैंने,
अर्थात, मन में कुछ भी हो, मेरे प्रति, तो कह दो! जो चाहो! नहीं तो, इसके बाद, हम दो नहीं, एक हैं, एक, एक अंगीकार हों!
"हे महाऔघड़??" अंगीकार? अंगीकार? अंगीकार?"" चीखा मैं,
और इस प्रकार, द्वन्द में, मेरा क़दम, पहला क़दम, जा पड़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब अपनी साधिका का हाथ पकड़, आया उस स्थान पर, जो अब मेरी, प्रातःकाल तक, इस द्वन्द के अंत तक, कर्मभूमि होनी थी! महायोगिनी को नमन किया, चौंसठ योगिनिंयों को प्रणाम किया! दिक्पालों को नमन किया, भूमि, व्योम, आकाश आदि को नमन किया, स्थान-नमन किया! गुरु-नमन किया! समस्त गुरुजनों का आशीष मिले, सत-कामना की! भूमि का नपन किया, चौबीस हाथ, नपन पश्चात, आसन स्थापित किया! सारा आवश्यक सामान निकला लिया, भोग-थाल, भोग, मदिरा, अवधूनिका, माल, गंडे, तंत्राभूषण और फिर, त्रिशूल निकाला अपना! फिर चिमटा! आज चिमटा खड़कना था! इस तरह से, सारा सामान निकाल लिया, हाथ भर की दूरी पर रहे, इसका खूब ध्यान रखा आस्था ने! तब, मैंने भस्म-स्नान किया, अपनी साधिका को भस्म-स्नान करवाया! तदोपरांत, देह-रक्षा, प्राण-रक्षा मंत्र फूंक लिए! आमिष-जामिष, होम-लोम आदि से पोषण किया, स्थान को कीलित किया! और एक महानाद करते हुए, त्रिशूल, गाड़ दिया भूमि में! अब अलख उठाने के लिए, आज्ञा ली, श्री आदि-औघड़नाथ का आदेश लिया! द्वन्द की अलख में, चौबीस वस्तुओं की आहुति आवश्यक हुआ करती है, सो दी! इसमें एक वस्तु, साधक का रक्त भी हुआ करता है! मैंने बाएं अंगूठे के नीचे एक चीरा सा लगाया था, यहीं से दिया था अलख में रक्त! अलख चटपटा चली थी! जैसे उसने अपना मुख खोल लिया हो! चौड़ा लिया हो और जैसे अब तैयार हो, महा-भक्षण के लिए!
"जय महाऔघड़! जय श्री भैरव नाथ! जय माँ आद्या कुमारी! आदेश! आदेश! आदेश! अलखादेश!" चिल्लाया मैं!
मेरे संग, मेरी साधिका ने भी अलखादेश कहा!
"कात्ये?" बोला मैं,
"नाथ?" बोली वो!
(मैं हिंदी में, सरल शब्द ही प्रयोग किया करता हूँ, नहीं तो भाषावली, यहां, पृथक हुआ करती है! समझ नहीं आएगी इसीलिए, इसीलिए कुछ शब्द, अतार्किक एवं असंगत से प्रतीत हो सकते हैं!)
"कपाल-कटोरे निकालो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
उसने कपाल-कटोरे उठा लिए, और मेरे दोनों घुटनों के पास, रख दिए!
"कात्ये?" बोला मैं,
"आदेश?" बोली वो,
"दीप प्रज्ज्वलित कर दो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
कुछ ही देर में, नौ दीये, व्याव्य-कोण में स्थापित कर, अलखाग्नि से प्रज्ज्वलित कर दिए उसने! अपने कार्य में कुशल थी आस्था! बस एक बार कहो, समझ जाती थी! ये सबसे बड़ा संबल होता है!
"आओ कात्ये!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
और मेरे सम्मुख आ बैठी!
"परोसो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
उसने तब, कपाल-कटोरों में, मदिरा परोसी! मैंने ऊँगली डुबोकर, छिड़क कर, अलख में छींटे दिए! स्थान पर दिए, और कपाल-कटोरे को, माथे से लगाया, ऐसा, आस्था ने भी किया!
"पी जाओ!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
तब मैंने और आस्था ने, कपाल-कटोरे मुख से लगाये, मदिरा कंठ से नीचे उतार दी! रक्त में गर्मी बढ़ गयी! और फिर, कपाल-कटोरे, रख दिए वापिस भूमि पर!
"सौम्ये?" कहा मैंने,
"हाँ नाथ?" बोली वो,
"ब्रह्म-कपाल स्थापित करो!" कहा मैंने,
"अवश्य नाथ!" बोली वो,
निकाला ब्रह्म-कपाल उसने, मेरे माथे से छुआया फिर अपने माथे से, और रख दिया सम्मुख! उसके नेत्र-कोटर हमारी ओर थे!
"अब शम्मम-कपाल, इसे, नौ हाथ दूर, वहाँ स्थापित कर दो!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
और उसने वही किया! कर दिया स्थापित!
"वो दोनों शिशु-कपाल, ज्योतिर्-मुद्रा में, त्रिशूल से टांग दो!" कहा मैंने,
"हाँ नाथ!" यही कहा उसने! और यही किया!
"अब ये दीप, उन मुण्डों पर सजा दो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
इस प्रकार, उसने, अपना प्रत्येक कार्य, पूर्ण रूप से, कुशलता के साथ, पूर्ण कर लिया था! उसकी कार्यकुशलता में सच में ही एक लय थी! एक लय! जिसे मैं सुन पा रहा था, जान पा रहा था! आस्था, सच में ही आस्था थी!
"आओ! बैठ जाओ!" कहा मैंने!
वो अपने स्थान पर आ बैठी!
"ठीक हो?" पूछा मैंने,
"हाँ साधक!" बोली वो,
मैंने नेत्र बंद किये! कुछ बुदबुदाया!
खोले एक झटके से नेत्र अपने!
''औंधिया? ओ औंधिया? औंधिया?" चीखा मैं,
फट-फट की आवाज़ हुई! तीन बार! जैसे किसी ने कोई वस्त्र फटकारा हो!
''आ जा! आज औंधिया!" कहा मैंने,
तीक्ष्ण दुर्गन्ध का भभाका सा उठा!
"आ औंधिया! ले! ले! भोग स्वीकार कर!" कहा मैंने,
और उछाल कर दिया सामने एक मांस का टुकड़ा! वो भूमि पर न गिर पाया, हवा में ही लोप हो गया!
"रेंगणा? कहा रह गयी?" बोला मैं,
अट्ठहास सा हुआ! दूर! सामने!
"आ जा! पीछे क्यों रहे? आ जा! आजा लज्जो!" कहा मैंने,
तेज वायु चली! और मैंने मांस का टुकड़ा उछाला! वो भी लोप!
"जाओ! हो जाओ चौबंद! भूत-प्रेत! अफला-डफला, हाकर-चाकर! कोई न बचे! जाओ! जाओ, हो जाओ चौबंद! उठाओ शमशीर और खड्ग! जाओ!" कहा मैंने,
तेज वायु समाप्त! तीक्ष्ण गंध समाप्त!
मसान और मसानी, हो गए चौकस! अब न कोई आ पाता और न ही कोई जा पाता! ये सबसे पहले की शर्त है! अक्सर होता क्या है, साधनाओं की किताबें पढ़ीं, बिना गुरु के ज्ञान बंटोरा, साजो-सामान किया इकट्ठा, श्मशान वाले से की बात, धनादि की, बनी बात, जा बैठे श्मशान में, और कर दी साधना आरम्भ! अब हुआ क्या? हुआ ये, कि प्रेत ही, रूप धर-धर आने लगे! कभी कुछ और कभी कुछ! साधक सोचे, बड़ा ही सरल! सोपान चढ़ता चला जा रहा हूँ! और हुआ क्या फिर? मसान प्रकट हुआ, उस ईष्ट के रूप में, जो साध्य है उसका! और तब! खेल खतम! श्मशान का तो रखवाला है मसान! वासी है! इसकी आज्ञा बिना तो कुछ किया ही नहीं जा सकता वहाँ! दाह-संस्कार में भी, सात्विक-रिवाज में भी, इसका अनुपालन किया जाता है! अर्थी, पलट दी जाती है! है या नहीं? वो किसलिए? कि इस संसार में ये जब तक था, संसार का ही था! अब ये आपका हुआ! आज्ञा दीजिये, ताकि ये परम-धाम की ओर अग्रसर हो, लो! बदल दी दिशा इसकी! अब ये कहीं नहीं जाएगा, अब आपके सुपुर्द!
तो ऐसी तीक्ष्ण क्रियाएँ, कदापि बिना समर्थ गुरु के नहीं करनी चाहियें! गुरु भी, प्रयास करवाता है, कुशलता परखता है आपकी! उच्चारण कैसा है, श्वास कैसी है, ध्यान कैसा है, मानसिक-संतुलन कैसा है आदि आदि! और तब जा कर, वो उस काबिलियत के अनुसार ही, आगे ले जाता है अपने शिष्य को!
खैर,
"वनलोपा?" चिल्लाया मैं!
खड़ा हुआ!
"मार्ग प्रशस्त कर!" कहा मैंने,
ये एक नयी शक्ति है! एक अलग ही! इसकी आज्ञा भी आवश्यक है! आह्वान से पहले! आह्वान, अब, करना था वाचाल महाप्रेत का और, कर्ण-पिशाचिनी का!
मैं बैठ गया!
ध्यान लगाया वनलोपा का!
और तब, महामंत्र जपने लगा मैं वाचाल-महाप्रेत का! कुल दस मिनट ही लगे! कि महा-अट्ठहास गूंजा! जैसे भूमि हिली! जैसे आकाश कांपा! जैसे पेड़, बस अभी उखड़े!
"वाचाल! प्रकट हो!" कहा मैंने,
अट्ठहास! महा-अट्ठहास!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वाचाल का अट्ठहास गूंजता रहा! और झक्क की एक तेज आवाज़ करते हुए, वाचाल, वो राजसिक महाप्रेत प्रकट हुआ! भीग तैयार था! भोग स्वीकार हुआ और उसके बाद, वाचाल महाप्रेत, मुस्तैद हो गया! मुस्तैद होते ही, उस माहौल में गंभीरता सी भर गयी! श्मशान जैसे स्थिर हो गया हो! जैसे  उसकी साँसें थम चली हों! आचाल का वास, कहीं और होता है! उसका इसीलिए आह्वान किया जाता है! मुख्य रूप से उसका कार्य, द्वन्द एवं सुरिद्रा कार्यों में ही प्रयुक्त हुआ करता है! ये महाभीषण महाप्रेत है! मुक्त रहता है, दासता इसको पसंद नहीं! आह्वान से प्रकट होता है! वचन में बंध जाता है! श्री महा कालिका इसकी महा-ईष्टा हैं! रंग-रूप में गौर वर्णीय, कद-काठी में भीमकाय होता है! सर पर, स्वर्ण-पट्ट धारण करता है! भुजाओं में भुज-बंध होते हैं! वक्ष पर, मालाएं एवं पीत-माल धारण करता है! काले-सुनहरी वस्त्र इसकी आभा बढ़ाते हैं! देह विशाल, पाषाण-समान और स्थूल होती है! स्वर, हाड़ कंपा देने वाला होता है! इसकी साधना अति-तीक्ष्ण साधना होती है! इक्कीस रात्रि-कालीन साधना है इसकी! चौदह बलि-कर्म से पूज्य है! मदार की लकड़ी से पूजा की जाती है, शीशम की लकड़ी से बने मनकों से! नदी किनारे बने श्मशान में इसकी साधना का विधान है! तीन रात्रि-काल पश्चात साधक की ये, दिखने लग जाता है, दो अश्वों के रथ पर सवार सा दिखाई पड़ता है! एक क्षण के कुछ प्रति-क्षणों के लिए! साधना-काल पूर्ण होते होते, ये अवधि बढ़ती चली जाती है और इक्कीसवीं रात्रि ये सम्मुख आ प्रकट हो जाता है! ये प्रश्न नहीं पूछता, एक वर मांगने को कहता है अब ये साधक पर निर्भर करता है कि वो इस से क्या मांगे!
तो वाचाल प्रकट हो गया था! और मुस्तैद भी! अब मुझे कुछ समय पश्चात ही, महा-कौरिक कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान करना था! क्लिष्ट से क्लिष्टतम साधनाओं में से एक साधना है इस कर्ण-पिशाचिनी की! ये कभी पत्नी बन, कभी शैय्या-सखी बन, कभी पीड़ा का संचार करती है! चालीस रात्रि-कालीन साधना है इसकी! जब सिद्ध हो जाती है, तो ये कार्य-सिद्धि में अचूक फल देती है! इस साधना को पूर्ण करने के पश्चात वर्ष में दो बार, पुनः इसका आह्वान करते रहना पड़ता है! ये काम-पिपासु है! इसका भी ख़याल रखा जाता है! ये मनुष्य का रूप धरे तो समस्त स्थूल-तत्व धारण कर लेती है! रक्त का प्रवाह भी इसको होता है!
"सौम्ये?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"रिपुषा दे मुझे!" कहा मैंने,
वो उठी, झुकी, सामान में से, एक डमरू निकाल लिया, डमरू खड़काया गया! मंत्र पढ़ा गया!
डमरू के विषय में मैं पहले ही आपको बता चुका हूँ कि इसका निर्माण कैसे होता है! डमरू को, मसान-वाद्य भी कहा जाता है! सिंगी संग बजाने से, मसान तो क्या, लोपाक्ष भी थर्रा उठता है!
"साधिके?" कहा मैंने,
''आदेश नाथ?" बोली वो,
"कौथ का तेल दो!" कहा मैंने,
कौथ का तेल, पांच पक्षियों की चर्बी से निर्मित होता है! स्मरण रहे, किसी पक्षी को मारा नहीं जा सकता! वो स्वयं ही मरा हो! ऐसा तेल मिलना , दुर्लभ है! यदि ये तेल, चक्षुओं में डाला जाए, तो कलुष एवं दुहित्र सरीखा कार्य करता है! समस्त अशरीरी आपकी दिखने लगेंगे! तेल बनाने के बाद, इसका शोधन होता है और फिर सिद्ध! ये देखने में सफेद, चिकनाई-रहित एवं सुगन्धिपूर्ण होता है! इस से उठती गंध, कर्ण-पिशाचिनी को खींच लाया करती है! तो मैंने उसका एक दिया बनाया और प्रज्ज्वलित कर दिया! ब्रह्म-कपाल के सम्मुख रख दिया! और तब मंत्रोच्चारण आरम्भ कर दिया! फिर रुका!
"सौम्ये?'' बोला मैं,
''आदेश?" बोली वो,
"उठ जा!" कहा मैंने,
वो उठ गयी! सामने जा खड़ी हुई!
"मेरे संग जपो!" कहा मैंने,
"ख्राम ख्राम हौम स्फुम्.................................................................फट्ट!" जपा मैंने,
कुल इकत्तीस बार!
उसने भी, कुल इकत्तीस बार!
''आ, कात्ये?" कहा मैंने,
उसको मैंने अपनी जंघा पर बैठने का इशारा किया था, वो आई, और बैठ गयी! वो जो मंत्र पढ़ा था मैंने, वो कर्ण-पिशाचिनी के प्रबल वेग से बचने के लिए था, अन्यथा, बहुत दूर तक, उछले चली जाती आस्था! जंघा पर स्थान दिया था, ताकि वो मेरा ही अंग हो, ऐसे और इसलिए!
"कैलाभे?'' बोला मैं,
''आदेश नाथ?" बोली वो,
"दुपंड नृत्य!" कहा मैंने,
''आदेश!" बोली वो,
और एक विशेष मुद्रा में, कूल्हों पर हाथ टिका, उसने नृत्य आरम्भ किया, मेरी परिक्रमा करनी थी उसे, एक बार, तदोपरांत, आसन संभाल लेना था उसे अपना!
मैं मंत्र पढ़ते चला गया, वो नृत्य-लीन हुए चली गयी! परिक्रमा पूर्ण हुई!
''कात्ये?'' कहा मैंने,
"आदेश!" उफनती हुई साँसों से आवाज़ निकली उसकी!
''स्थान ग्रहण करो!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोली वो,
स्थान ग्रहण कर लिया अपना!
और तब मैंने भीषण मंत्रोच्चार आरम्भ किया! श्मशान गूँज उठा! समय को स्थिर होना पड़ा उस स्थान पर! आधे घंटे में ही, वहां का ताप बढ़ने लगा! भीषण दुर्गन्ध आने लगी! पसीने छलछला गए! अलख चटक-चटक करने लगी!
और तब, तब वो महाभीषणा कर्ण-पिशाचिनी भीषण अट्ठहास करती हुई, प्रकट हो गयी! आस्था के नेत्र बंद हो गए! श्रवण-शक्ति रुक गयी! श्वास थमने लगी!
"भोग! हे भीषणा! भोग!" कहा मैंने,
आवाज़ें हुईं!
जैसे भूमि में भूकम्प उठा हो!
तेज वायु बह चली!
दीयों की लौ, ऊँची हो गयी!
और अगले ही पल, वो भी चौबंद हो गयी! हो गयी मुस्तैद!
"सौम्ये?" बोला मैं,
कोई उत्तर नहीं!
"भद्रे?" कहा मैंने,
कोई उत्तर नहीं!
"कृतिके?" बोला मैं,
अब भी कोई उत्तर नहीं!
मैंने चिमटा उठाया, नोंक को चूमा, माथे से छुआ उसे!
"कात्ये?" चिल्लाया मैं,
कोई उत्तर नहीं, पुनः!
"साधिके?'' अ फिर से चिल्लाया!
"हाँ! नाथ!" बोली वो,
"कुशल से हो?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"वहीँ ठहरो!" कहा मैंने,
मैं उठा, अलख की भस्म ली! गया उसके पास!
"मुंह खोलो सौम्ये?" कहा मैंने,
उसने मुख खोला अपना!
मैं झुका, और उसके मुख में, वो भस्म, रख दी!
"निगलना नहीं!" कहा मैंने,
उसने हाँ में सर हिलाया अपना!
"उठो!" कहा मैंने,
वो उठी!
"सामने आओ!" कहा मैंने,
मेरे सम्मुख आई वो!
मैंने चिमटा, उसके सर से छुआ दिया!
"निगल जाओ!" कहा मैंने,
उसने जैसे ही निगला! सामान्य हो गयी वो! मुस्कुरा कर, देखा मुझे! मैं भी मुस्कुरा गया! उसकी सुरक्षा का सारा ज़िम्मा मेरे हाथ था, उस प्रबल वेग की चपेट में थोड़ा सा आ ही गयी थी वो! इसी के कारण, उसके उन अंगों का ह्रास होने लगा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब सामान्य हो चली थी आस्था! जैसे कुछ हुआ ही नहीं था! ये सच है, जब भी कोई सामान्य व्यक्ति, इन ऊर्जावान अशरीरियों के सम्पर्क में आता है, तो उनके अंगों की शक्ति का ह्रास होने लगता है! मस्तिष्क दिग्भ्रमित होने लगता है! देह में वायु सी भरने लगती है! परन्तु, वजन घटने लगता है! कुछ ऐसा ही हुआ था पलों के लिए आस्था के साथ, हालांकि मैंने उसको मत्रों से सींचा था, परन्तु अपवाद सदा ही आड़े आ जाते हैं! शायद, कोई त्रुटि रह गयी हो! यही कारण रहा होगा!
"साधिके?'' कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"घाड़ का निरीक्षण करो!" कहा मैंने,
''हाँ!" बोली वो,
वो गयी, चादर उठायी घाड़ से, उसको देखा और चादर रख दी फिर से वापिस, लौटी, और आई मेरे पास!
"हाँ?" पूछा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''अलख में ईंधन झोंको!" कहा मैंने,
''अभी!" कहा उसने,
वो गयी उधर और अलख में ईंधन झोंक दिया! अलख लपलपा के उठी ऊपर तक! अलख अब तैयार थी!
''सौम्ये?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
''सब ठीक?" पूछा मैंने,
"हाँ नाथ!" बोली वो,
"स्थान ग्रहण कर लो! और हो जाओ तैयार!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
और कर लिया स्थान ग्रहण अपना!
अब उठाया मैंने अपना चिमटा, माथे से छुआया, खड्का दिया! बज गया घंटाल! देख जा लड़ी अब! और गया द्वन्द आरम्भ!
देख लड़ी, और मैंने जो देखा, वो सच में विस्मित कर देने वाला था! उस दूरस्थ श्मशान में, दो अलख उठी थीं! बड़ी बड़ी अलख! जैसे भूमि में से, अग्नि फूट रही हो! दो कन्याएं थीं वहां! साज-श्रृंगार किये हुए! ये वयस्क ही थीं! उन पर तामूल-चिन्ह काढ़े गए थे! एक अलख के सम्मुख बैठा था वो सरणू और दूसरी के सम्मुख, वो बालू नाथ! देखने से ही वो कोई विशेष सा साधक प्रतीत होता था! लम्बा-चौड़ा शरीर था उसका! सफेद दाढ़ी और मूंछें! काले रंग का कपड़ा बांधे था वो! उसके धूसर केश, झूल रहे थे कंधों तक! वक्ष, सजा था तांत्रिक आभूषणों से! आयु में, करीब सत्तर वर्ष का रहा होगा! लेकिन देह से, चालीस का सा ही लगता था! ये शायद मंत्र-योग बल के कारण था! जैसे ही देख भिड़ी! सरणू ने गाल बजाए! ठहाके मारे! और बालू नाथ, अलख में पौनया करता चला गया! अर्थात मंत्र पढ़ते हुए, अलख को सशक्त करता चला गया! उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा था कि किसी की देख लड़ी है! कोई सम्मुख है द्वन्द में! ऐसा कुछ ही नहीं दिख रहा था! वो भयहीन सा बैठ था! अपने आप में मस्त हुए!
ये देख, वाचाल की हुआ करती है, वही तस्वीर बनाया करता है मस्तिष्क में, और सबकुछ नेत्रों के सामने चलचित्र सा प्रकट हुए चला जाता है! न केवल दीखता है, वरन स्वर भी सुनाई देने लगते हैं! वाचाल का स्वर गूंजा! भुंड-मेखला की देख थी उसकी! भुंड-मेखला, मेखला यक्षिणी की सहोदरी है! देख कार्य में बहुत कार्य करती है, परन्तु द्वन्द में ही! अन्य किसी और प्रयोजन में नहीं! जो मेरा कार्य, दो मिल कर कर रहे थे, वो यही अकेली भुंड-मेखला कर रही थी! ये तो मैं जान गया था,ये देख-शक्ति, इस लम्पट सरणू की तो हो ही नहीं सकती थी! इसका श्रेय उस बालू नाथ को ही जाता था!
उनके सामने भी एक घाड़ रखा था, स्त्री-घाड़, उसका श्रृंगार किया गया था! उसके हाथ पीछे, कमर से बाँध दिए गए थे! कारण तो वही बालू नाथ ही जाने!
"अब न जाएगा वापिस!" गूंजे स्वर उसके!
मैं मुस्कुराया!
"अब न जाएगा, सुना?'' चीखा वो!
तब अचानक ही, बालू नाथ उठा! उठाया त्रिशूल! किया आकाश की तरफ! आगे आया! त्रिशूल लहराया और दी पाँव की थाप भूमि पर! जैसे ही थाप दी, मेरे यहां रखा घाड़, करीब दो फ़ीट ऊपर उछल गया!
क्या सामर्थ्य था!
क्या अपार बल!
क्या सिद्धि-बल!
और क्या तत्परता!
मैं दौड़ पड़ा घाड़ की तरफ! यक्ष्मेक्ष का ध्यान किया और उस घाड़ के उदर पर, पाँव रख दिया! घाड़, उसके बल से, घूमने सा लगा! जैसे, मेरे पाँव के नीचे से निकलने को अड़ा हो! जैसे उसमे, जान डाल दी गयी हो! कमाल की विद्या था उसकी, बालू नाथ की!
"लौट जा!" आई एक भरी भरकम सी आवाज़!
"हाँ! जा! माफ़ करता हूँ!" ये आवाज़ सरणू की बजी तब!
मैंने पाँव हटाया अपना उस घाड़ से!
आया अलख तक! उखाड़ा त्रिशूल, शिशु-कपाल वहीँ रखे, पढ़ा मंत्र! लहराया त्रिशूल और दी थाप एक भूमि पर! सरणू के हाथ से चिमटा जा गिरा दूर! नीचे, पीछे की तरफ! सरणू भागा उसको लेने! और तब, होंठों पर मुस्कराहट आ गयी उस बालू नाथ के!
''वाह! अपार! वाह!" बोला तालियां बजाते हुए वो!
सरणू दौड़ा दौड़ा आया उधर, और तब, हाथ आगे किया उसने, रोक दिया सरणू को! सरणू रुक गया! आगे आया बालू नाथ!
बालू नाथ ने मेरा नाम पुकारा! और ठहाका मारा! मेरे गुरु श्री का नाम पुकारा और फिर से ठहाका मारा! उपहास किया उसने! मुझे भड़काया था उसने! यही रणनीति होती है! मानसिक-संतुलन गड़बड़ा जाए और उद्देश्य सिद्ध हो अपना!
तोल-मोल, आव-भाव चल रहा था हमारे बीच!
"जा! लौट जा! दूर तक जाना है!" बोला वो,
मैं कुछ नहीं बोला!
"नहीं जाना? ठहरना है?" पूछा बालू नाथ ने!
मैं अब भी कुछ नहीं बोला!
"तेरी मर्ज़ी!" बोला वो,
वो लौटा पीछे! जा बैठा अलख पर! पढ़ा मंत्र! अलख में झोंका ईंधन!
अब आया सरणू आगे!
उठाया त्रिशूल! लहराया तीन बार! और गाड़ दिया भूमि में!
लौट जा!
मैंने उठाया चिमटा! चिमटा और त्रिशूल, आपस में छुआ दिए! रख लिए कंधे पर!
मरते दम तक नहीं!
उसने फिर से कुटिल सी हंसी हंसी!
"न बचेगी! रन्नो न बचेगी!" कहा उसने!
"थू!" मैंने थूका तब!
"श्रेष्ठ कमज़ोर था! मैं नहीं!" बोला वो,
मैं हंसने लगा!
"तुझे दिखाऊंगा! दिखाऊंगा तेरी बीजा!!" बोला वो,
"थू!" फिर से थूका मैंने!
बालू नाथ ने, आवाज़ दे, सरणू को बुला लिया! बिठा लिया उसके स्थान पर! और अब, मंत्रोच्चार आरम्भ होने लगा, सरणू, अलख में ईंधन झोंके जाए! खूब नीति खेली थी उन्होंने! वार, बालू नाथ करेगा! रोक सरणू करेगा!
प्रथम चरण आरम्भ हो गया!
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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अलख में ईंधन झोंका जाने लगा! वहां भी और यहां भी! अलख तो जैसे भड़ाके छोड़े जा ही थीं महाताप के! आज अलख भिड़ने चली थीं! अलख ही तो प्राण हुआ करती है एक औघड़ के! विशेष कर, एक द्वन्द में!
तभी देख काटी गयी! मैंने ही काटी! अभी विशेष कुछ नही था, मैंने अलख में अवधूनिका और झोंकी!
"सौम्ये?' कहा मैंने,
"हाँ अलखनाथ!" बोली वो,
"अपने तंत्राभूषण पहनो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
और तब उसने, अपने विशेष तंत्राभूषण धारण कर लिए!
"भद्रे?'' कहा मैंने,
''जी?" बोली वो,
"परोसो!" कहा मैंने,
"सौभाग्य!" बोली वो!
सौहागया? यही बोली न वो?
"कृतिके?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"रुको! रुको!"कहा मैंने,
रुक गयी वो, बोतल, वहीँ रख दी!
"सौभाग्य!" कहा मैंने,
"दान माँगा है!" बोली वो,
"मांग लो भद्रे! चुराओ नहीं!" कहा मैंने,
समझदार थी! बहुत ही समझदार! सच में, ऐसी साधिका संग हो, तो ऐसी कोई महासिद्धि नहीं जो पूर्ण न हो सके! यक्षिणी-भेदन में तो पारंगत ही हो जाए कोई भी साधक! उसने बोला था सौभाग्य! अर्थात! उसने, वरदहस्त माँगा था! कि मैं, उसकी, अपनी ही, किसी साधना में सहायक बनूं! साथ दूँ उसका! उसका ऐसा कहना, वैसे तो अनुचित नहीं था, परन्तु, मुझ से आज्ञा लेनी आवश्यक थी! उसने नहीं ली थी,  इसीलिए उसने भांप लिया था और फौरन ही, दान का नाम दे दिया था उसे!
मैं मुस्कुराया! वो भी मुस्कुराई!
"आस्था!" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"आगे जाओगी बहुत!" कहा मैंने,
"सच में?" पूछा उसने!
"हाँ! सच में!" कहा मैंने,
"सौभाग्य!" बोली वो,
"अब परोसो!" कहा मैंने,
उसने दो प्याले परोसे! एक मुझे दिया और एक स्वयं लिया!
''आओ!" कहा मैंने,
वो आई, सम्मुख बैठी!
"ग्रहण करो!" कहा मैंने,
और तब, मैंने और उसने, प्याले मुख से लगा लिए!
"जय श्री भैरव नाथ!" कहा मैंने,
और चिमटा खड़खड़ा दिया!
सहसा ही, देख पकड़ी मैंने! ये देख वहीँ से आई थी!
"वाचाल!" कहा मैंने,
अट्ठहास गूंजा!
मैंने किये नेत्र बंद अपने! और दृश्य स्पष्ट हुआ! वहां, उस घाड़ को बंधन मुक्त कर दिया गया था! घाड़, सामने लिटा दिया गया था! उसके ऊपर, उदर पर, एक बड़ा सा दीप जला दिया गया था! उसकी जंघाओं पर, सुक्तिकाएँ बाँध दी गयीं थीं! ये केले के पत्तों से बनाई जाती हैं! मैं ये देख कर, हैरान हुआ! ऐसा तो, बहुत ही कम देखने में आता है! और ऐसा, पुराने समय में हुआ करता था! अब एक बात और साफ़ हुई, ये बालू नाथ, प्राचीन विद्याओं का जानकार था! और यदि मैं सही था, तो ये द्वन्द, महाभीषण होने जा रहा था!
"कृतिके?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोली वो,
"उठो!" कहा मैंने,
वो उठी! मुझे देखा!
"तुम, उस घाड़ के पीछे जा कर खड़ी हो जाओ!" कहा मैंने,
उसे अजीब सा लगा कुछ!
"जाओ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
चली गयी वो, हो गयी वहाँ जाकर, खड़ी!
मैंने उसे, किसी सोच को मन में रख कर भेजा था! दरअसल, मैं इस बालू नाथ को छेड़, कुछ देखना चाहता था! कुछ जानना चाहता था, थाह लेना चाहता था! इसीलिए, मैंने, मांस का एक टुकड़ा लिया, उसमे सुआं घुसेड़ा, और रख दिया कपाल के सर पर!
वहां, अट्ठहास सा गूंजा!
कोई दहाड़ा बहुत तेज!
अब न तो ये, सरणू ही था और न ही वो बालू नाथ! मैं समझ गया! कोई मुस्तैद था वहां! यही देखना था मुझे! लेकिन कौन?
"हे कर्णी?" बोला मैं,
एक और टुकड़ा उठाया! अलख में झोंक दिया!
"जा! जा!" कहा मैंने,
मंत्र पढ़ा एक! एक ही श्वास में!
"कर्णी?" कहा मैंने,
लेकिन कर्णी?
कोई उत्तर नहीं! कोई सम्पर्क नहीं! क्या हुआ? वो शांत कैसे? क्या, उसको बाँधा गया था? लेकिन ये तो....नियमों का उल्लंघन करना हुआ? अस्त्र-शस्त्र नहीं छीने जा सकते! पूर्ण अवसर दिया जाता है, हर कसर का जवाब दिया जाता है! तो फिर...कोई उत्तर क्यों नहीं? क्या हो रहा था? मन में थोड़ी आशंका सी उभरी!
"कर्णी?" चीखा मैं!
कोई उत्तर नहीं! कोई अट्ठहास नहीं! कोई चेत नहीं! कोई भान नहीं! ये क्या हुआ? कैसे सम्भव है?
मैंने फौरन ही, उरुख पढ़ा!
खड़ा हुआ! अलख तक आया! एक मंत्र पढ़ा! भस्म ली! और बैठ गया! एक चौखंड काढ़ा! हाथ रखा और नेत्र बंद किये! कुछ दिखा!
और जो दिखा! वो भयंकर था! ये तो बंधन था, कपाल-शुण्डिका का! यदि आई आपको कपाल-शुण्डिका?
पहचाने आप?
याद आया आपको?
हाँ! वही कपाल-शुण्डिका! उसी का बंधन था ये! कर्ण-पिशाचिनी, दग्ध थी! कैसे काटती वो उस बंधन को!
"हरामजादा!" मेरे मुंह से निकला!
और उधर, उधर ठहाका गूंजा! बालू नाथ ने मारा ठहाका तो वो सरणू भी ठहाका मार उठा! मुझे बेहद गुस्सा! बेहद गुस्सा!
मैं पाँव पटकता हुआ अपने आसन पर आया! उखाड़ा त्रिशूल! उठाया ब्रह्म-कपाल! लगाया माथे से, पढ़ा एक महामंत्र! और जैसे ही रखा मैंने भूमि पपर उसे, अट्ठहास गूँज उठा कर्ण-पिशाचिनी का! वो अब बंधन-मुक्त थी!
उनके ठहाके, तत्क्षण ही बंद हो गए!
"सरणू?" चीखा मैं!
सरणू हुआ खड़ा!
"सरणू? तेरा वो हाल करूंगा, वो हाल करूंगा कि तेरे बाद, कोई नाम नहीं लेगा तेरा! कलंक होगा तू!" कहा मैंने,
उसने गाल बजाए! बालू नाथ खड़ा हुआ! भांप गया था गंभीरता मेरी! उसने सरणू के कंधे पर हाथ रख, पीछे किया!
"मान जा!" अब धीरे से बोला वो!
"थू!" कहा मैंने, फेंका थूक नीचे!
"मान जा! लौट जा!" बोला बालू नाथ!
मैंने कोई ध्यान नहीं दिया!
'साधिके?' बोला मैं, तेजी से!
"आदेश?" बोली वो, वहां खड़े खड़े ही!
''आ जा!" कहा मैंने,
वो आने लगी मेरे पास!
"मैं, बालू नाथ!!" आया स्वर कानों में!
मैं उठा खड़ा हुआ! सुनने लगा!
"मैं, बालू नाथ!"" फिर से स्वर गूंजा!
"बालू नाथ! बढ़! अब बढ़ आगे!" कहा मैंने!
और तब, त्रिशूल, विजय-मुद्रा में लहरा दिया अपना!
द्वन्द, अब, आरम्भ हो चला था! आरम्भ!


   
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"आगे बढ़! " चीखा मैं!
क्रोधातिरेक से भर उठा था मैं उस समय! उसने अपनी नीचता का परिचय दे दिया था, आगे न जाने क्या करे ये! इसीलिए सम्भल के रहना था! ये मेरी साधिका पर भी वार करता! सम्भव था ऐसा! परन्तु, मैं तैयार था! सबसे पहले शत्रु-बल को परखा जाता है, फिर छकाया जाता है! फिर उसको पूर्ण अवसर दिया जाता है अपनी हूल सुधरने का, परतु, वो नहीं समझे, तो, फिर उसका नाश करना ही उचित होता है! यही न्यायसंगत भी है!
मेरी देख फिर से लड़ी! देख पकड़ी गयी! बालू नाथ ने देख पकड़ी थी! वो हंसा! दहाड़ा और उठा खड़ा हुआ! अपने गले से, मेरु-दंड से बनी एक माला निकाल ली! मैं समझ गया वो कोई प्रपंच करने को अग्रसर है!
''साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश नाथ?" बोली वो,
"उठो! उठो शीघ्र ही!" कहा मैंने,
वो झट से उठी!
"इधर, मेरे पास, आ बैठो!" मैंने तेजी से कहा,
इस से पहले कि मेरा वो वाक्य समाप्त होता, मेरे यहां पर रखा घाड़ हिला, और घूमने लगा! हवा ने ढाई फ़ीट करीब उठ गया! केश भूमि को स्पर्श करने लगे उसके, हाथ झूल गए दोनों! ये दृश्य देख, पल भर के लिए, आस्था भी भौंचक्की रह गयी!
मैं झट से उठा! भागा उस घाड़ की तरफ! वो रुका, उसकी टांगें खुलीं और जैसे कोई उसे चीर ही देगा बीच में से, ऐसे टांगें खुलने लगीं! मैंने हाथों से प्रयास किया! बात नही बनी! उसके हाथ झूलते और मेरी देह से टकराते! यदि, एक अस्थि भी टूट जाती, तो वो घाड़ मेरे किसी काम का शेष नहीं बचने वाला था! मैंने तभी, अरोत्तमा महा-रुद्रा के मंत्र का जाप किया! और अपना त्रिशूल अभिमंत्रित कर, छुआ दिया उसे! घाड़, आहिस्ता आहिस्ता नीचे होता चला गया! मैंने तभी देखा उसे, उसके हाथ, दोनों, उसके वक्ष पर रखे, टांगें सीधी हो गयी थी! हाँ, मुख-द्वार से कुछ श्वास जैसी आवाज़ें आने लगी थीं!
मैंने देर नहीं की! पलटा मैं वापिस! बैठा अलख पर, लिया एक टुकड़ा मांस का, किया अभिमंत्रित! अपनी एक जटा तोड़ी, और लपेट दी उस मांस के टुकड़े पर, लगा दी आन, अरोत्तमा को! और कर दिया अलख में समर्पित! चटाक! चटाक की आवाज़ गूंजी! और वहां!
वहां जो घाड़ रखा था, उठा हवा में! जैसे ही पकड़ने को भागे वो! घाड़ झूला, और दूर जा गिरा! भागा सरणू उसके पास! जैसे ही आया उसके पास, घाड़ की गर्दन, उसके वक्ष के नीचे पड़ी मिली उसे! गर्दन की हड्डी टूट गयी थी! वो घाड़, अब बेकार हो चला था! मैं जानता था, मैंने नियमों का उल्लंघन किया था! लेकिन इस परिपेक्ष्य में ऐसा करना उचित भी था! उन्होंने दो बार ऐसा वार किया था मेरे यहां रखे घाड़ पर! उनका घाड़ हुआ बेकार!
हंसा! वो बालू नाथ हंसा! गया आगे, सरणू के कंधे पर रखा हाथ, और सरणू, दौड़ता चला गया वहां से! जैसे भाग गया हो!
कुछ पल की शांति बिछी!
सन्नाटे ने ज़ोर पकड़ा!
अलख की चटक-चटक ही गूंजती रही!
और तब, वहां, एक नया घाड़ लाया गया! यानि कि, वे हर तरह से तैयार थे! जैसे, मेरा ही दमखम जांचा हो बालू नाथ ने!
फिर से हंसा बालू नाथ! संग इस बार, सरणू भी! घाड़, रख दिया गया पुनः! और सरणू ने, जाकर, अपना आसन संभाला!
"क्या समझा!! हा! हा! हा!" बोला बालू नाथ!
मैं चुपचाप देख रहा था, सुन रहा था!
"क्या समझा!" बोला वो फिर से!
अलख में रक्त-भग दिया उसने! छींटे छिड़के!
मुझे कोई हैरानी नहीं हुई! वो स्थान सरणू का था! उसके पास घाड़ों की क्या कमी होती! कोई भी नहीं! बालू नाथ ने जैसा कहा होगा, उसने वैसा ही किया होगा!
अचानक से स्वर गूंजे! वाचाल के भीषण से स्वर!
"मलयवामिनि!"
ये महा-अघोर विद्या है! इस विद्या से, किसी भी शत्रु की देह का भंजन, मात्र पलों में ही किया जा सकता है! अग्नि में झोंका जा सकता है! परन्तु, मैं आपको, अरोत्तमा के विची में कुछ बता दूँ! अरोत्तमा, माँ बड़-मेखला की सहोदरी है! बड़-मेखला, अर्थात रात्रि के चतुर्थ प्रहर में, श्री महा कालिके की सेविका! इस समय इसका ही वर्चस्व हुआ करता है! सत्ता विद्यमान रहा करती है इसकी! इसी समय, इसकी सहायता से, ब्रह्म-राक्षस को सिद्ध किया जाता है!
यदि, चौरासी ढेले मिट्टी के, इस अरोत्तमा के मंत्र का जाप करते हुए, नदी में प्रवाहित कर दिए जाएँ, तो कैसा भी रोग हो, कट जाता है! मिट्टी के ढेले, श्मशान की मिट्टी के होने चाहियें!
यदि, चौरासी बताशे, इसका मंत्र पढ़ते हुए, किसी प्रेत-बाधाग्रस्त व्यक्ति से उतार दिए जाएँ और भूमि में गाड़ दिए जाएँ तो प्रेत-बाधा का नाश हो जाता है!
यदि, शत्रु प्रबल हो जाएँ, अकारण ही बाधाएं आ जाएँ, और कोई अन्य विकल्प ही शेष न बचे तो चौरासी पत्ते मदार के, एक काले रंग के धागे में पिरोकर, पिलखन के पेड़ की जड़ में रख दिए जाएँ, तो शत्रु-बाधा का नाश हो जाता है!
अचानक से देख टूटी मेरी!
मैंने फिर से देख लगायी!
इस बार, फिर से टूटी!
स्पष्ट था, कोई काट रहा था! कौन काटता! वही बालू नाथ!
मैंने, वाचाल को, कुछ विश्राम दिया! गरुक्षिका-महाविद्या से देख लड़ाई! देख जा टकराई! पकड़ ली गयी! वाचाल, फिर से सशक्त हो उठा!
"साधिेक?" कहा मैंने,
''आदेश?" बोली वो,
"शम्मम-कपल लाओ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली वो,
वो ले आई, दिया मुझे!
''साधिके!" कहा मैंने,
"लेट जाओ!" कहा मैंने,
वो लेट गयी!
"नेत्र बंद!" कहा मैंने,
किये उसने!
मैं खड़ा हुआ, उसको लांघ गया! फिर से लांघा!
और अब, वापिस बैठा!
"सौम्ये?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"बैठ जाओ!" कहा मैंने,
वो उठ बैठी!
जैसे ही बैठी, उसके आँखों का रंग बदला! वैसा ही, जैसा मैं चाहता था!
''साधिके?'' कहा मैंने,
"रुद्रा!!" बोली वो,
अंगड़ाई लेते हुए! उसको अंगड़ाई लेते देख, मैं मुस्कुरा उठा! मैंने अपना त्रिशूल वापिस गाड़ दिया, और बैठ गया नीचे! साधिका के सर पर हाथ फिराया!
''शांत! शांत रुद्रा!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक मसानी शक्ति का प्रवेश कर दिया था साधिका पर! ताकि उसे कोई अहित छू ही नहीं पाये! इस शक्ति को मसान-रुद्रा कहते हैं! मैं नहीं चाहता था कि उस मलयवामिनि, विध्वंसक से कोई अहित पहुंचे उसको! मलयवामिनि, ये महामारण विध्वंसक है, इसकी सिन्धुशण्डा, सिंधुदुर्गा, सिंधुवमि कहा जाता है! जिस प्रकार, घाल छोड़ी जाती है, यानि की हंडिया, थाली, थाल, परं हरने के लिए, उसी प्रकार इस से अभिमंत्रित अस्थि छोड़ी जाती है, ताकि ये सम्मुख पहुंच, शत्रु का काम तमाम कर दे! इस विध्वंसक को रोकने के लिए, काट करने के लिए इसी, मलयवामिनि का पश्च-जाप किया जाता है! तब ये संहारक नहीं हुआ करती और लौट जाया करती है, फिर नहीं लौटती!
"हुम्म्म!" ली अंगड़ाई साधिका ने!
उसके बदन में, खुमारी उभरी हुई थी! मसान-रुद्रा कामायनी हुआ करती है, काम-पिपासा से सदैव लिप्त रहा करती है, कई साधकों की साधना, बस इसी पर आ कर, समाप्त हो जाया करती है! वे इसके काम-वेग से बच नहीं पाते और वे ही इस सम्मोहन से सम्मोहित हो कर, 'त्याग' कर दिया करते हैं!
"वेषण?" बोली वो,
मैंने नहीं सुनी उसकी बात!
"वेषण??'' बोली वो!
मैंने मात्र देखा उसे, उसका रंग, देह का रंग, लाल हो चुका था जैसे, रक्त, ऊपरी चर्म में बह रहा हो! ये मात्र काम-अति थी! और कुछ नहीं!
"अर्हण?" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा!
वो भी मुस्कुरा पड़ी, और खिसक कर पास चली आई!
"रुक जा!" कहा मैंने,
वेषण! अर्थात, सुख की खोज में निकला साधक! अर्हण अर्थात, समस्त सुखों को प्राप्त करने वाला सौभाग्यशील साधक!
यही तो है इसका प्रलोभन!
एक लालच! इस लालच में जो फंसा एक बार, फिर न निकला वो!
मैंने फिर से देख लड़ाई! देख पकड़ी गयी! अलख उठी हुई थी! अस्थियों का एक ढेर, सामने रखे पीतल के पात्र में रखा था, अभिमंत्रण चल रहा था उसका! सम्भवतः, वो जानता तो होगा, कि मैं ये काट कर ही लूंगा, फिर क्या प्रयोजन हो सकता था उसका मलयवामिनि को भेजने का! हो सकता था, शायद वो जाँचे, या फिर, कुछ और ही छिपा प्रयोजन रहा हो! खैर, अभी तो मुझे बचाव करना था, अपना! साधिका तो सुरक्षित ही थी!
"सिंधुदुर्गे मवषतौतिले क्षिम क्षिम.....................................!!" गूँज उठे जागृत करने के मंत्र! उठ खड़ा हुआ बालू नाथ!
एक मुट्ठी बढ़ाई आगे और उठा ली, एक बड़ी सी अस्थि, ये काँधे की अस्थि सी लगती थी! उठा कर, अपने माथे से छुआई! मंत्रोच्चार चलता जा रहा था उसका, वो उसको, अपने मस्तक, कमर, उदर से छुआ, प्राणोदय करता जा रहा था उसमे! और मैं, यहां!
उखाड़ा अपना त्रिशूल! झोंका अलख में ईंधन! तभी, मेरे पाँव की पिंडलियों को सहलाया उसने, साधिका ने, मेरा ध्यान ज़रा सा चूका!
"रुक! रूद्र! रुक!" कहा मैंने,
और उसको, उसके कंधे से पकड़, पीछे कर दिया!
''रुक! जा पीछे! पीछे!" कहा मैंने,
वो पीछे लौटी, ज़मीन पर बैठे बैठे ही! आहें भर्ती हुई! मुझे देखती हुई, मैंने नज़रें हटाईं उस से! और अलख पर टिका दीं तब!
"अरुष महातौतिले क्षिम क्षिम अर्हुम....................................." का किया जाप अब! ये पश्च-जाप था इसी मलयवामिनि का! अब समय न था देख लड़ाने का! बस, प्रतीक्षा थी कि कब्ब वो प्राणहरणी अस्थि वहां पहुंचे और खंडित हो या फिर, लौट जाये!
मैं मंत्रोच्चार करता रहा! करता रहा और तभी, कुछ ही मिनट में, सामने की ओर से, कोई आग का जलता सा पिंड, चला आ रहा था, उसमे से तेज फिरकी जैसी आवाज़ आ रही थी, हालांकि वो घूम नहीं रहा था! आग जा रंग, गहरा नीला और पीले रंग की आभा से ढका था!
उस आग के पिंड ने, गति धीमी की अपनी! और वहीँ आ रुका! जैसे ही स्थिर हुआ, उसमे से जैसे तेल की बूँदें टपक रही हों, ऐसे कुछ टपक रहा था! उसका आकार अब धीरे धीरे बड़ा और विस्तृत होने लगा था! यही है, महाघालिका! मलयवामिनि!
"लौट जा!" चीखा मैं,
वो नहीं हिला!
"लौट जा, आदेश दिया तुझे!" कहा मैंने,
वो हिला, हिला और ऊपर नीचे हुआ!
मैंने पुनः जाप आरम्भ किया! किया त्रिशूल उसकी तरफ!
"मलया? सुरंगिणि! लौट जा!" कहा मैंने,
ऐसे ही भगाते हैं इसे, नाश करते हैं इसका! जैसे किसी की कोई हंडिया पकड़ी जाती है तब! तब वो भी शोर किया करती है! चीत्कार मचाया करती है!
"जा?" कहा मैंने,
किया इशारा उसे पीछे जाने का!
"जहाँ से आई, वहीँ को जा?" चीखा मैं!
अब हिलने लगा वो!
और तब, उसने की परिक्रमा आरम्भ अपनी! यही करती यही ये! यही करने लगी! मैंने अपनी नरज़रेँ नहीं हटाईं उस से! देखने लगा उसको!
परिक्रमा, अब तेज की उसने!
"नहीं?" बोला मैं, चीख कर!
कोई असर नहीं उस पर तो!
"नहीं?" बोला मैं!
अब भी कोई असर नहीं!
मैंने आगे पाँव बढ़ाया अपना! किया त्रिशूल आगे, अलख में छुआया और किया आलद-मुद्रा में! किये फाल आगे!
"मलय? जा! अंत हो!" कहा मैंने,
और तब, मैंने आलद-मुद्रा में त्रिशूल लहराते हुए, मलयनाशिनि का महामंत्र पढ़ दिया! अगले ही क्षण, वो आग का गोल, छोटा, छोटा और छोटा होता चला गया!
उका प्रकाश, लोप होता चला गया! पानी के फव्वारों की तरह से, तेल बिखरने लगा उसमे से! वो नीचे, और नीचे होने लगा!
ढप्प!
ढप्प की आवाज़ करता हुआ, नीचे जा गिरा वो! गिरते ही प्रकाश लोप हुआ उसका, आग थम गयी उसकी मैं दौड़ा उस तरफ! अभी मेरे कुछ काम का था वो! जैसे ही देखा उसे, वो चूर्ण होने लगा! सूखता चला गया और कुछ ही क्षणों में, राख बन गया! न आया हाथ मेरे!
मैं लौटा!
आया अलख तक!
साधिका, लेट गयी थी!
मैं तब, बैठा अलख पर! और लिया त्रिशूल! अख्वंदन किया उसका, और छुआ दिया साधिका से! साधिका का बदन ऐंठा उसका,
 कमर ऊपर की, और झप्प!
"सौम्ये?" कहा मैंने,
उसने नेत्र खोले!
"सौम्ये?" पूछा मैंने,
"नाथ?" बोली वो,
अब सब ठीक था! मसान-रुद्रा जा चुकी थी! उसका धन्यवाद किया मैंने तब!
''आओ साधिके!" कहा मैंने,
वो तभी उठ बैठी! मुझे देखा, आसपास देखा!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कुछ अंतराल सा, हुआ था?" पूछा उसने,
और मैंने लगाया ठहाका तब!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कुछ अंतराल? है न नाथ?" बोली वो!
'आस्था!" कहा मैंने,
"जी नाथ?' बोली वो,
"सच में, तुम एक प्रबल साधिका हो!" कहा मैंने,
"बताएं, कैसे नाथ?' पूछा उसने, हाथ जोड़ते हुए!
"कम ही इस अंतराल को जान पाती हैं, और तुमने भांप लिया साधिके!" कहा मैंने,
"मुझे सच में ही लगा ऐसा!" बोली वो,
"क्या और कैसा साधिके?" पूछा मैंने,
"मुझे लगा, अन्धकार और गहरा गया है! प्रकाश, दीप-लौ, मुंड-लौ और गहरा गए हैं उनके प्रकाश का क्षेत्र विस्तृत एवं वृहद हो गया है!" बोली वो!
ओह!! ओह!!
ये क्या कहा उसने!
कहाँ थी ये अभी तक?
मैं तो भौंचक्का सा रह गया!
यूँ जानो कि, स्वर्ण-भंडार, किसी श्याम जलराशि में, अस्तित्व-विहीन सा बिछा है! जैसे, काले मेघों में छिपी हुई दामिनी!
"ऐ?" कहा मैंने,
"जी नाथ?" बोली वो,
"इधर आओ?" कहा मैंने,
''समीप?" पूछा उसने,
"हाँ साधिके!" कहा मैंने,
वो आई, और बैठ गयी मेरे पास, मैंने अपने दोनों हाथों में, उसका चेहरा भर लिया! वो तनिक भी विचलित न हुई! बस, मुझे ही देखे जाए! मैं मुस्कुरा उठा! उसको करीब लाया और उसके माथे को चूम लिया!
"हे, शैलिके!" कहा मैंने,
"आदेश नाथ!" बोली वो,
"तुम स्वयं, स्वयं नहीं जानतीं अपना भार! नहीं जानतीं अपने आप को!" कहा मैंने,
वो न समझी मेरा एक भी शब्द!
कैसे समझती? साधक तो, अपना कार्य कर, भूल ही जाते हैं उनको! वो तो मात्र निमित्त ही हुआ करती है, और इसके अतिरिक्त कुछ नहीं!
"विपुस्व!" स्वर गूंजे तभी कर्कश से स्वर! स्वर, उस कर्ण-पिशाचिनी के!
"साधिके?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोली वो,
"अपने आसन पर जाओ, अभी!" कहा मैंने,
वो चली गयी, कोई प्रश्न नहीं किया उसने! यही बात, मुझे उसमे, सबसे महत्वपूर्ण लग रही थी! वो आदेशों का पालन, जी-जान से कर रही थी! एक विशेष सी साधिका जैसे!
मैं खड़ा हुआ! और वाचाल की देख लड़ी! मुझ तक उलझी और मेरी देख, वहां पकड़ी गयी! और जो मैंने देखा, वो सच में ही वीभत्स था! वीभत्स!
निःसदेह! ये बालू नाथ, प्राचीन विद्याओं का ज्ञाता था! अब जो वो प्रयोग करने जा रहा था, वो भी अति-तीक्ष्ण विद्या-प्रयोग था! मैंने भला ऐसा क्या देखा?
देखा! देखा मैंने कि,
एक मस्तक, कटा हुआ, किसी बालक का...
उसका धड़, तीन हिस्सों में कटा हुआ! टांगें, बंधी हुईं केशों से बनी रस्सी से! उसके हाथ, उकी आँतों से बंधे हुए! जैसे कोई गठरी हो! और उस गठरी के ऊपर, माथे पर तिलक सजाये हुए, उसका मस्तक! ऑंखें खुलीं! मुख बंद! सर में, ऊपर की तरफ, नभु-स्थल पर, एक माला उसकी मुंड में खुँसी हुई! उस बालक की आयु, मात्र, आठ या नौ बरस रही होगी, उसके जननेंद्रिय, बाँधी हुई थी, सफेद रंग के दूबा-प्रवाल से! ये दूबा-प्रवाल, एक फफूंद हुआ करती है, ये अक्सर, गूलर के ठूंठ पेड़ पर ही जमा करती है, बारिश के मौसम में, ये किसी सर्प के समान बढ़ जाया करती है, इसमें, स्त्री-योनि की आकृति एवं गंध का समावेश हुआ करता है, यदि इस फफूंद से, आपने किसी देव-स्थल को भी बाँध दिया, तो कोई देव भी इसे भंग नहीं कर पायेगा! इसको, श्री आद्य-कालिका का वर प्राप्त है!
अब इस से, उनका प्रयोजन क्या?
सरल है समझना!
प्राण-संचरित होंगे इस मस्तक में! नवासी महा-भूषणा, निमिकाएँ वास करती हुईं, शत्रु-भंजनिका का रूप धरेंगी! वाह! खूब आखेटक था ये बालू नाथ!
परन्तु!
बाबा ऋद्धा! वे तो सीखा चुके थे मुझे ये प्रपंची विद्याएँ! यही तो आवश्यक हुआ करती हैं! बाबा ऋद्धा, सक्षम थे! आज यदि यहां, इस स्थल पर होते, तो इस बालू नाथ की एक भी विद्या, चलन में ही कार्य न करती! स्थिर हो जाती! कुवंचन(हस्तांतरण) हो जाता उनका! खैर, कोई बात नहीं! उनका एक एक शब्द, अब मेरे कानों में पड़ने लगा था!
"सोगरू?" आई आवाज़!
ये आवाज़, स्वयं, बालू नाथ की थी! सोगरू, वो पशु, जिसे अब, बलि के लिए ले जाया जा रहा हो! सोगरू!
"समय हुआ?" बोला वो,
मैं हंसा तब!
"हुआ?" पूछा उसने,
"ऐ? इसे आगे कर! इस, लम्पट को!" चीखा मैं!
बाबा बालू नाथ भी हंसने लगा! पता नहीं क्यों! लम्पट शब्द पर, या फिर, मैंने जो कहा, उस पर!
"अंत!" बोला वो,
"किसका?" चीखा मैं,
"तेरा!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"विश्वास नहीं?" बोला वो,
"सच में, ही नहीं!"" कहा मैंने,
"मरुतकण्टा! ये....ये!" चीखा वो!
अब मैं हंसा! तेज, ज़ोर ज़ोर से!
"ज्ञकिक्ष! ये!" कहा मैंने,
और लहरा दिया त्रिशूल!
वो वो लम्पट! लम्पट सरणू कुछ न जान पाया! एक शब्द भी नहीं! ज़ाहिल इंसान! एक शब्द भी न समझ पाया वो! मैंने, चेता दिया था इस बालू नाथ को! वो वो, समझ भी गया था!
"समय!" बोला वो,
"आ!" कहा मैंने,
मंत्रोच्चार करते हुए, उसने, वो मस्तक उठाया, उसको चूमा नाक पर, उसकी माला, अपने हाथों में ली, संगचक्र-मुद्रा में ले, उछाल दिया मस्तक!
मस्तक, आगे गिरने लगा, लेकिन! हवा में तैरा! जैसे किसी जाल पर गिरा हो वो!
"णक्षुक! प्लबनक्षुक! आहिरमक्ष!..............................फट्ट! एहिं फट्ट! दुह फट्ट! त्रिम फट्ट!" जपा मैंने, त्रिशूल को किया अभिमंत्रित! और हो गया तैयार!
वहाँ, वो मस्तक, घूमा! रक्त की धाराएं फूट चलीं उसमे से! और बालू नाथ! अट्ठहास! ज़ोरदार अट्ठहास!
"बालू नाथ!" कहा मैंने,
''सोगरू!" बोला वो,
''आ!" कहा मैंने,
"त्रि-पुंडम..................................................फट्ट!" बोला वो, और झोंका अलख में रक्त! मांस के टुकड़े! आँतों से निकाला हुआ स्राव-मिश्रण!
"ऐवरीक तमिकी..................................ह्रां भौं फट्ट!" चीखा वो!
और वो मस्तक, उछला हवा में! चढ़ता चला गया! ऊपर! और ऊपर! जब तक, ओझल न हो गया आँखों से!


   
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