वर्ष २०१३ पूर्वांचल...
 
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वर्ष २०१३ पूर्वांचल के एक स्थान की घटना!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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किसी तरह उस धकापेली वाली बस में ज़िंदा रहे! बस न चले लोगों का, नहीं तो गोद या कन्धों पर ही बैठ जाएँ! बालकों की बात अलग है, उनको तो बिठाया जा सकता है! भीड़ ऐसी भर लेते हैं ये बस वाले कि जैसे परमिट बस आज तक का ही हो! किसी तरह से पहुंचे हम वहाँ! दो घंटे की यात्रा ऐसी कि पैदल पैदल हिमालय हो आये हों जैसे! उतरे हम बस से! और ली चैन की सांस!
"बहन**! बस थी या पिंजरा!" बोले वो, चेहरा पोंछते हुए!
"पिंजरे से भी बदतर!" कहा मैंने,
"इस से तो आदमी पैदल आ जाए या साइकिल ले ले!" बोले वो,
मैं हंसा! काफी तेज हंसा!
"पैदल कैसे आओगे यार?" कहा मैंने,
"कम से कम दम तो न घुटेगा!" बोले वो,
"बस तो ऐसी ही होती हैं!" कहा मैंने,
"तो कोई क़ायदा भी होता है!" बोले वो,
"कैसा क़ायदा!" बोला मैं,
"मादर** ने आदमी के ऊपर आदमी चढ़ा रखा है! औरतों का तो सैंडविच ही बना दिया!" बोले वो,
"हाँ, ये बात तो है!" कहा मैंने,
अब पकड़ी सवारी, पैसे तय हुए और हम चल पड़े बलदेव के पास जाने के लिए, बलदेव को फ़ोन कर ही दिया था हमने, यहां पहुँचते ही!
और हम जा पहुंचे वहां! वहाँ पहुंचे तो बलदेव से मुलाक़ात हुई! हाथ-मुंह धुलवाए गए और फिर, हम एक खुली सी जगह पर आ बैठे! बढ़िया छांवदार जगह थी वो! कुर्सियां बिछी थीं और एक चारपाई भी लगी थी!
हम जा बैठे कुर्सियों पर! पेड़ों पर, कबूतर, फ़ाख्ते और दूसरे पक्षी बैठे थे, सभी अपनी अपनी पहचान बता रहे थे! दो श्वान, आपस में ही खेल रहे थे, एक मिट्टी खोद रहा था तो दूसरा उसे तंग कर रहा था! दोनों ही खुश थे! उनकी धीरे धीरे हिलती पूछें सब बता रही थीं!
बलदेव भी आ बैठा था, कुछ कहा था उसने किसी से, काम करने वाले किसी आदमी से!
"कब आया खादू?" पूछा मैंने,
"सुबह ही आ गया था!" बोला वो,
"रात को वहीँ रहा था?" पूछा मैंने,
"और जी!" बोला बलदेव!
"खादू का जादू चला होगा जी!" बोले शर्मा जी!
मैं और बलदेव, खुल कर हँसे ये सुनते ही!
"चलाने दो यार जादू!" कहा मैंने,
''हाँ हाँ! ठीक है!" बोले शर्मा जी,
पानी लाया गया, हमने पानी पिया फिर! ऐसा लगा जैसे कुँए का सा मीठा पानी हो वो! ठंडा और स्वाद वाला पानी! ये घड़े का कमाल था! मिट्टी की सौंधी सौंधी महक गले में उतरी थी उस पानी के साथ!
"रमेश?" बोला बलदेव,
"हाँ जी?" बोला वो, गिलास उठाते हुए!
"खादू को देख, कहाँ है, भेज उसे!" बोला बलदेव,
"अभी भेजता हूँ!" बोला रमेश, गिलास रख, चल पड़ा वापिस!
"और सुनाओ बलदेव!" कहा मैंने,
"बस जी, कट रहा है वक़्त!" बोला वो,
"काशी आते जाते हो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, घर भी है वहाँ, चाचा वहीँ हैं!" बोला वो!
''अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां भी आते हैं वो सभी!" बोला वो,
"बढ़िया है!" कहा मैंने,
तब, सामने से आता दिखाई दिया खादू! बढ़िया सा सफेद कुरता पहने, धोती पहने, आ रहा था, मुंह पोंछते हुए अपना! आया, और नमस्ते की!
''आ भाई खादू!" बोले शर्मा जी,
"आ गए जी!" बोला वो,
"बैठ जा!" कहा शर्मा जी ने,
बैठ गया खादू चारपाई पर!
"और! चलाया जादू रात भर?" बोले शर्मा जी,
हंस पड़ा खादू!
"खूब जी!" बोला वो,
"वाह! बढ़िया यार!" बोले शर्मा जी!
"हाँ जी! कल शाम ही जा पहुंचा था मैं तो!" बोला वो,
''अच्छा किया!" बोले वो,
"अच्छा, खादू?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"कौन आया साथ में?'' पूछा मैंने,
"एक तो आरती है, एक उसका भाई है, बुआ का लड़का, सुरिंदर" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"ये अच्छा किया तूने!" बोले शर्मा जी,
"आरती कहाँ है?" पूछा मैंने,
"यहीं है?" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बुलाऊँ?" पूछा उसने,
"वहीँ मिल लेंगे!" कहा मैंने,
''अच्छा जी!" बोला वो,
"ये सुरिंदर कब से है वहाँ?" पूछा मैंने,
"वो नहीं है, वो तो आया है कहीं से, उस से मिलने!" बोला वो,
"तो साथ क्यों आया?" पूछा मैंने,
"शहर जाएगा न!" बोला वो!
''अच्छा!" कहा मैंने,
"और ये आरती कब से है वहां?" पूछा मैंने,
"हो गए कोई सात-आठ साल!" बोला वो,
''अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"तेरे तो विश्वास में है वो?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
''फिर तो ठीक है!" कहा मैंने,
"आओ बलदेव!" कहा मैंने,
''आप मिल आओ!" बोला वो,
''चल लो?" पूछा मैंने,
"यही हूँ, आप आराम से मिल आओ!" बोला वो,
''आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
"ले जा खादू!" बोला बलदेव!
''हाँ जी, आओ!" बोला वो,
''चल!" बोले शर्मा जी!
अब खादू ले चला हमें अपने साथ!
"कहाँ की रहने वाली है ये आरती?" पूछा मैंने,
"जिला गोंडा!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"गाँव के पास की ही है!" बोला वो,
"अच्छा, तभी तो जादू दिखाता है!" बोले शर्मा जी,
हंस पड़ा खादू!
"क्या जादू!" बोला वो!
और हम आगे चलते रहे उसके साथ!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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खादू हमें एक कमरे के सामने ले आया था, वहां और भी अकमरे बने थे, ये उस डेरे के कर्मचारियों और वासियों के लिए बने थे, सभी कमरे एक जैसे ही थे, छत पर कड़ियाँ पड़ी थीं, दीवारों में, चौखटों के साथ, आले बने थे, कुल मिलाकर, गाँव-देहात जैसा ही माहौल था! उधर ठीक बेच में एक बड़ा सा बरगद का पेड़ था, उसमे धागे बंधे हुए थे, मिट्टी के सकोरे, दीये, दीपदान आदि रखे थे, यहां भी बंसरी वारे साहब जी की प्रतिमा स्थापित थी! मेरे तो मुंह से उन्हें देखते ही, ''जय मेरे दाऊ जी महाराज, जय रेवती मैय्या!" बरबस निकल आया था! उनके साथ ही, गणेश जी विराजमान थे, और एक शिव-लिंगम् भी स्थापित था! मैंने और शर्मा जी ने हाथ जोड़े, प्रणाम किया!
''आप ठहरिये, मैं आता हूँ!" बोला खादू,
"हाँ, ठीक!" बोले शर्मा जी!
हम वहीँ ठहरे रहे, वहां शिव-लिंगम् के पास, कुछ श्वान के बच्चे आ गए थे, प्रसाद और दूध पी रहे थे मजे से! रोज ही खाते होंगे, पीते होंगे, इसीलिए मोटू हो गए थे! थे बड़े ही प्यारे, लाल-सफेद और काले-सफेद! उछल-कूद रहे थे, गिर जाया करते थे एक दूसरे से टकरा कर!
"मजे ले रहे हैं!" बोले शर्मा जी,
"अजी क्या कहने!" कहा मैंने,
"हैं भी तो कैसे गोल-मटोल से!" बोले वो,
"खुला खाते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई भी दे देता होगा!" बोले वो,
"हाँ, बदले में, चौकीदारी करते होंगे!" कहा मैंने,
"हाँ, किसको घुसने दे रहे हैं ये फिर!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आ जाओ जी!" बोला खादू, अंदर से आया था वो!
अब हम अंदर गए, जूते खोल दिए थे, रख दिए थे बाहर! अंदर गए तो एक चालीस बरस की पतली सी महिला दिखी, यही थी शायद आरती, शायद क्या, वही थी, और कोई दूसरी औरत न थी वहां! उसने नमस्ते की, तो हमने भी की!
"बैठो जी!" बोला खादू!
बैठ गए हम वहां एक पलंग पर!
"पानी लाऊँ जी?" पूछा उसने,
"हाँ, ले आओ!" कहा मैंने,
चला गया बाहर खादू!
''आप ही हो आरती?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोली वो,
"सरणू के डेरे पर हो न?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"कब से?' पूछा मैंने,
"नौ बरस हुए" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''एक बात बता आरती?" बोले शर्मा जी,
चौंक पड़ी वो औरत!
"अरे डर मत! सुन, सरणू के बारे में क्या जानती है?" पूछा शर्मा जी ने,
तभी खादू आ गया, पानी घाला उसने गिलास में, और दिया हमें, हमने पिया पानी फिर!
"किस बारे में?" पूछा आरती ने,
"उसके सामर्थ्य के बारे में?" बोले शर्मा जी,
"जोर! जोर आरती!" बोला खादू!
"बहुत जोर है" बोली वो,
"अच्छा, कितना?'' पूछा उन्होंने,
"बहुत" बोली वो,
'खादू, तू पूछ!" कहा मैंने,
अब उसने बातें कीं उस से, अपनी ही भाषा में, अपनी स्थानीय भाषा में! कुल बीस मिनट तक! और तब मुझे बतायीं उसने, इसमें से दो बातें विशेष थीं! एक ये, कि सरणू कभी अकेला द्वन्द नहीं करता, उसका गुरु-भ्राता, बालू नाथ उसके साथ रहता है, ये बालू नाथ, बहुत ही ताक़तवर है और इसका डेरा कहीं दूर पहाड़ों में है! मैंने तो कभी नाम भी नहीं सुना था इस बालू नाथ का! और दूसरी बात जो विशेष थी, वो ये की सरणू के पास, वो सबकुछ था जो एक प्रबल औघड़ के पास हुआ करता है! बस, यही लगा हाथ हमारे! और कुछ नहीं! और जब हम उठने को लगे तब एक और बात पता चली! इस बात से मुझे हैरानी हुई! आरती ने बताया की उसने एक बार उसको ऐसा करते देखा भी था, वो दो छोटी कन्यायों को, दायें-बाएं बिठाकर, साधना करता था! इस बात से मैं, सच में ही हैरानी में पड़ा! अर्थात, वो महावैष्णवी की साधना करता था! ये महावैष्णवी महाशक्ति होती है! नाम से वैष्णवी है, परन्तु है महाप्रबल महातामसिक महाशक्ति! ये महाशक्ति असम और पूर्वी बंगाल में पूज्य है!
अब उसका दम्भ समझ में आने लगा था! खैर, ह उठ गए वहां से! जूते पहने और वापिस हुए, खादू वहीँ रह गया था, हम सीधा बलदेव के पास तक चले आये, बलदेव था नहीं वहां पर, तो हम वहां आ बैठे!
"ये महावैष्णवी क्या है?" पूछा उन्होंने,
"पीत-वस्त्रधारी, षोडश-शस्त्रधारणिनि, महाकपालि और नेरमुध महाशक्ति है ये!" कहा मैंने,
""कुछ समझ आया, और कुछ नहीं!" बोले वो,
"क्या नहीं आया समझ?" पूछा मैंने,
"ये नेरमुध क्या है?" बोले वो,
"अर्थात शत्रु का अंश भी न रहे, ऐसी महाघातिनि संहारिका है ये!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"हाँ, और यही चिंता का विषय है!" कहा मैंने,
"सच में?" बोले वो,
"हाँ, मैंने कभी नहीं ध्याया इसको!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"मदद!" कहा मैंने,
"किस से?" पूछा उन्होंने,
"बता दूंगा!" कहा मैंने,
"मतलब, राह आसान नहीं!" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"श्रेष्ठ से श्रेष्ठ है ये!" बोले वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"क्या कोई उपाय नहीं?" बोले वो,
"है!" कहा मैंने,
"तो क्या चिंता?" बोले वो,
"है!" कहा मैंने,
''वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"मुझे वज्रक-श्मशान चाहिए!" कहा मैंने,
"क्या??" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''वो कहाँ मिलेगा?" पूछा उन्होंने,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"मिल तो जाएगा?" बोले वो,
"उम्मीद तो है!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"मुझे नहीं थी ऐसी उम्मीद!" कहा मैंने,
"मैंने भी नहीं सोचा था!" बोले वो,
"अब वज्रक ही चाहिए!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
"वज्रक वही न? समाधि वाला?" बोले वो,
"हाँ, वही!" कहा मैंने,
"अब मिलेगा कहाँ?" पूछा उन्होंने, अपने आप से ही!
'आज करता हूँ बात!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तभी रमेश आया उधर, चाय ले आया था, साथ में दो दो कचौड़ियां भी लाया था, रख दीं उसने, और हमने चाय ले लीं!
"बलदेव कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"कोई आया है, मिल रहे हैं उनसे" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"और लाऊँ कचौड़ियां?" पूछा उसने,
"नहीं, बहुत हैं ये ही!" कहा मैंने,
''अच्छा जी!" बोला वो,
और चला गया फिर वहां से,
''आलू की हैं!" बोले वो,
"हाँ, मिर्चें बहुत डाली हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, तेज हैं!" बोले वो,
"हवा खराब कर दी, गरम गरम चाय ने तो इसके साथ!" मैंने कहा, रुमाल से अपने नाक पोंछते हुए!
"आग लगा दी मुंह में!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
फिर भी, हम आराम आराम से खाते रहे! तीखे मसाले का भी एक अलग ही ज़ायक़ा रहा करता है! राजस्थान, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर में ऐसा ही तीखा खाना खाया जाता है अधिकाँश! इसका अलग ही मजा है!
''अरे बाप रे!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा! वो अपनी जीभ निकाल, बार बार देख रहे थे उसे!
''आज तो पेट में रखे कोयले, दहकते हुए!" कहा मैंने,
"सुबह पता चलेगा ये तो!" बोले वो!
मैं फिर से हंसा! सुबह वाली बात पर!
''अच्छा, एक बात बताइये?" पूछा उन्होंने,
"पूछो?" कहा मैंने,
"मैंने ये नाम पहली बार सुना, महावैष्णवी, वैष्णवी तो सुना है!" बोले वो,
"हाँ, ये अलग हैं और वो अलग!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"आप यूँ समझ लो, कि ये महावैष्णवी, संहारक-वाहिनि हैं माँ तारा की!" कहा मैंने,
"ओहो! ये तो महारुद्राणि हुईं?" बोले वो,
"हाँ, अब पहचाने आप!" कहा मैंने,
"लेकिन एक बात और?" बोले वो,
''वो क्या?" पूछा मैंने,
"ये सरणू, मुझे ऐसा पहुंचा हुआ तो लगता नहीं?" बोले वो,
"इसका उत्तर मिल तो गया?" कहा मैंने,
"क्या उत्तर? कैसा उत्तर?'' बोले वो,
"बालू नाथ!" कहा मैंने,
''अच्छा! अच्छा!" बोले वो!
''वो बालू नाथ क्यों रहता है उसके साथ हमेशा? इसीलिए!" कहा मैंने,
"अब आ गया समझ!" बोले वो,
"मैं तभी समझ या था!" कहा मैंने,
"मुझे यही खटका था! मैंने सोचा कोई सहायक की भूमिका निभाता होगा वो!" बोले वो,
"भूमिका निभाने, पहाड़ों से आएगा वो?" कहा मैंने,
"अब पड़ी खोपड़ी में बात!" बोले वो,
"अब ये बालू नाथ कौन है, मुझे तो ज्ञात नहीं, और मुझे नहीं लगता कि कोई जानता भी होगा उसको यहां!" कहा मैंने,
"तो खेल उसी का है, खिलाड़ी वही ठहरा फिर तो?" बोले वो,
"हाँ, देखा जाए तो!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो,
तभी बलदेव भी आ गया वहां! बैठा!
''चाय पी ली?" पूछा उसने,
"हाँ, कुछ ही देर हुई!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोला वो,
"हाँ, कचौड़ियां भी खा लीं!" कहा शर्मा जी ने!
''अच्छा! बात हुई उस औरत से?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या निकली? कुछ चला पता?" पूछा उसने,
"हाँ, बताता हूँ!" कहा मैंने,
अब मैंने उसे, सारी बात बताई! एक एक बात! वो चौंकता चला गया!
"इस बालू नाथ का नाम सुना है?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं जी!" कहा उसने,
"हम्म!" बोले वो,
"ये तो गुर्गा निकला!" बोला वो!
"हाँ, मैंने न सोचा था!" बोला मैं,
''अब?" पूछा उसने,
"कोई बात नहीं, करते हैं बात!" कहा मैंने,
"मैं भी पूछता हूँ कहीं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई पुराना ही बता पायेगा!" बोला वो,
"ये तो है!" कहा मैंने,
"देखता हूँ!" बोला वो,
"ठीक है, पता कीजिये!" कहा मैंने,
''हाँ!" बोला वो,
"अरे हाँ?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"यहां कोई, वज्रक-श्मशान है?" पूछा मैंने,
"वज्रक?" पूछा उसने,
"हाँ?" कहा मैंने,
"है तो सही, नदी के उस पार है!" बोला वो,
"पूरब में?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"कोई जानकारी है?" पूछा मैंने,
"उसकी चिंता न कीजिये!" बोला वो,
''सच में?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"ये तो खूब रही फिर!" बोले शर्मा जी!
'हाँ जी!" बोला वो,
''अच्छा, खेड़प(समाधि, तंत्रज्ञ की) किसकी है?" पूछा मैंने,
"एक थे बाबा.....क्या नाम था...??'' सोचने लगा वो!
हमने वक़्त दिया सोचने का उसे!
"हाँ! रजंग नाथ जी की!" बोला वो!
"जय रजंग नाथ जी की!" कहा मैंने,
"जय हो!" वे दोनों बोले!
''आइये, भोजन हो जाए अब!" बोला वो,
"इसकी क्या आवश्यकता?" पूछा मैंने,
''अब समय है!" बोला वो,
''अच्छा, चलो!" कहा मैंने,
''आओ जी!" बोला वो,
और हम, उसके साथ चल पड़े, भोजन करने के लिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भोजन भी कर लिया! भोजन बड़ा ही स्वादिष्ट था! दाल-भात, सब्जी, अचार, दही और सलाद! यूँ समझिए कि जम कर खाया हमने! घर जैसा ही स्वाद लगा! डेरे की महिलाओं ने ही बनाया था तो स्वाद आना लाजमी ही था! चटनी जो सिल-बट्टे से पीसी गयी थी, अनारदाना डाल कर, उसने तो मजा ही बाँध दिया था! ऐसा ज़ायक़ा कि ऊँगली चाट लीजिये आप! खाना खाने के बाद, दूध में पत्ती लगवायी गयी और बनायी गयी चाय! चाय पीने के बाद, हमने फिर विदा ली! वज्रक के विषय में कुछ पता चलते ही, बलदेव सूचित कर देता हमें! और एक नियत समय पर, हम देखने चले जाते उसे, बात कर आते!
हम लौटे फिर, फिर से वैसी ही बस मिली, क्या करते, जाना तो था ही, सो बैठ गए! कुछ देर तो खड़े ही रहे, और फिर सीट भी मिल गयी! अब आराम से बैठ गए! ढाई घंटे के बाद, हम उस जगह पर पहुंचे! उस रोज भीड़ बहुत थी वहाँ! शायद कोई मेला आदि लगा था, लोग आ-जा रहे थे! उस शाम कुछ सामान खरीदा हमने! और लौट चले वापिस सवारी पकड़ कर! वहां से सीधा हम रिपुणा के पास पहुंचे, रिपुना जैसे हमारा ही इंतज़ार कर रही थी! ढेर सारे सवाल दाग दिए उसने! एक एक करके सभी सवालों का जवाब दिया मैंने! कुल एक घंटा हम वहां रुके, और फिर हम अपनी जगह के लिए वापिस हुए!
आये अपनी धर्मशाला, आज कोई बारात सी ठहरी हुई थी वहां, बड़ी भीड़ थी वहां! हम अपने कमरे में गए, कुछ देर आराम किया और फिर स्नान आदि से फारिग हो गए! और फिर हमने शुरू किया अपना कार्यक्रम! पानी ले ही आये थे, और धीरे धीरे हम आगे बढ़ते रहे, दिमाग में नए नए सवाल पैदा हो रहे थे, दरअसल, मैं महावैष्णवी के विषय में जो जानता था, वो बाबा शाल्व और ऋद्धा बाबा के द्वारा प्रदत्त जानकारी से ही जानता था! उनके अनुसार, अब उसके साधक बहुत ही कम बचे हैं, जो हैं भी, वे सम्मुख नहीं आते! दूर ही वास करते हैं, एकांत में! और ये बालू नाथ भी कुछ ऐसा ही था, बकौल आरती, वो पहाड़ों में वास करता था!
"क्या सोच रहे हैं?'' पूछा उन्होंने,
"इसी बालू नाथ के बारे में!" कहा मैंने,
''वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"जैसा मुझे बताया गया था, ये बालूनाथ, ठीक वैसा ही है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"एकांत में, पहाड़ों पर!" कहा मैंने,
"एक काम जो करो?'' बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
''आप श्री जी से बात करो?" बोले वो,
मैंने कलाई-घड़ी देखी, आठ बजे थे! बात तो की जा सकती थी!
"मिलाऊँ फ़ोन?" बोले वो,
"हाँ, मिलाइये?" कहा मैंने,
"ये लो, मिलाता हूँ!" बोले वो,
और मिला दिया, गयी घंटी, दिया मुझे!
फ़ोन पहले किसी और ने उठाया, जब मैंने पूछा श्री जी के विषय में तो मेरी बात हुई फिर उनसे! मैंने प्रणाम किया और अब तक की सारी बातें, एक एक, सब बता दीं उन्हें! वो पूछते जाते, और मैं उत्तर दिए जाता! उन्होंने फिर मुझे आधे घंटे बाद फ़ोन करने को कहा, और फ़ोन कट गया!
"क्या कह रहे हैं?" पूछा उन्होंने,
"सुन ली है सारी बात, अभी आधे घंटे में दुबारा बात करनी है!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
''अब निकल जाएगा कोई हल!" बोले वो,
"मुझे ही उम्मीद है!" कहा मैंने,
"निश्चिन्त रहो आप!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आधा घंटा बीता, लेकिन ये आधा घंटा तो मुझे आधी ज़िंदगी बराबर लगा! कट के ही न दे! एक एक मिनट, एक एक घंटे जैसा!
"मिलाओ फ़ोन!" कहा मैंने,
''अभी लो!" बोले वो,
मिला दिया फ़ोन, गयी घंटी, मुझे दे दिया!
अब सीधी उन्ही से बात हुई मेरी! कम से कम बीस मिनट तक बातें होती रहीं! उन्होंने मुझे बहुत कुछ बताया! क्या करना है, कैसे करना है, क्या तैयारियां करनी हैं, क्या नहीं करना है आदि आदि! और तब मैंने, प्रणाम किया उन्हें! फ़ोन कट गया!
"हाँ?" बोले वो,
''अब आई बात समझ!" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उन्होंने!
"एक तो वज्रक श्मशान! एक नपुंसक-कपाल, दो ब्रह्म-कपाल! दो साधिकाएं, जिन्हें तीन दिवस पहले, क्रिया-शोधन में बैठना होगा! इस द्वन्द से पहले, वो मुझे कुछ और भी बताएंगे!" कहा मैंने,
"हम्म! निकला न रास्ता?" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"और फिर, काशी है कितना यहां से? डेढ़ सौ होगा?" बोले वो,
"हाँ , इतना ही!" कहा मैंने,
"तो बस!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''अब ये लो भाई!" बोले वो, मुझे गिलास देते हुए!
अब कुछ हल्का सा महसूस करने लगा था मैं, एक अदृश्य सा वरदहस्त था जैसे मेरे सर पर! जैसे मैं किसी के सरंक्षण में होऊं! और सरंक्षण हो वो भी यदि श्री जी का, तो फिर तो मैं किसी से भी भिड़ जाऊं!
"हो जाओ निश्चिन्त!" बोले वो,
तभी फ़ोन घर्राया मेरा! मैंने उठाया, ये बलदेव का था! मैंने बात की उस से, उसने भी एक अच्छी खबर दी, वज्रक के विषय में बात चल निकली थी, और हमे कल, कोई ग्यारह बजे, उसके पास आ जाना था!
"ये लो अब!" बोले वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"क्या कहा था!" बोले वो,
"उम्मीद के अनुसार!" कहा मैंने,
"सब ठीक होगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो फिर कल!" बोले वो,
"हाँ, चलते हैं!" बोले वो,
तो उस रात, खा पी कर हम आराम से चादर तान सो गए! बढ़िया नींद आई! कोई चिंता नहीं! जैसे कड़ी से कड़ी जुड़े जा रही थी अपने आप!
अगला दिन....अगली सुबह.....
हम फारिग हुए! चाय-नाश्ता ही कर लिया और निकल पड़े! पहुंचे रिपुना के पास, उसको बताया सबकुछ और चल पड़े वहां से!
सवारी ली, बैठे और बस-अड्डे आ पहुंचे! बस भी मिल गयी और जगह भी! बस चली करीब दस मिनट के बाद!
"जंच जाए तो काम अच्छा ही होगा!" कहा मैंने,
'देख लेते हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे बलदेव ने कहा है, तो जंच ही जाएगा!" बोले वो,
"ऐसा ही हो!" कहा मैंने,
"ऐसा ही होगा!" बोले वो,
"अच्छा होगा फिर तो!" कहा मैंने,
'हाँ, सब अच्छा!" बोले वो,
करीब ढाई घंटे में, हम वहां जा पहुंचे, और कुछ ही देर में, हम बलदेव के डेरे के सामने खड़े थे! सामने ही कुछ और लोग भी खड़े थे! डेरे के थे, या कहीं से आये थे वे लोग!
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो हम जगह बनाते हुए डेरे में गए! आज बड़ी ही भीड़ सी थी यहां भी! न जाने क्या उपलक्ष्य था, और यदि होता तो शायद, बलदेव हमें बताता तो ज़रूर! कुछ लोग साजो-सामान भी लाये थे अपने साथ, प्रथमदृष्टया यही लगता था की कहीं से कोई टोला आया है, जिसे स्थान चाहिए ठहरने के लिए! खैर, हम अंदर गए, और रमेश दिखा, उस से बातें हुईं और वो हमें ले चला एक जगह, यहां बिठाया, यहां और कोई न था, बिठाने के बाद, पानी के लिए चला गया वो!
"कोई टोला ही आया है!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, शायद!" कहा मैंने,
"तब कैसे जा पाएंगे?" बोले वो,
"देखते हैं!" कह मैने,
पानी लाया गया, दिया गया हमें और हमने पानी पिया!
"बलदेव कहाँ हैं रमेश?" पूछा मैंने,
"आ रहे हैं अभी, यहीं हैं!" बोला वो,
"अच्छा! बाहर भीड़ सी कैसी है?' पूछा मैंने,
"कुछ लोग आये हैं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"इसीलिए भीड़ है!" बोले शर्मा जी, गिलास रखते हुए!
"हाँ जी!" बोला वो!
वो चला गया, और तब, कोइ दस मिनट के बाद, बलदेव का आना हुआ!
"नमस्ते!" बोला वो,
"नमस्ते!" कहा हम दोनों ने!
"क्षमा चाहूंगा!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ लोग आ गए हैं, उन्हीं के कारण देर हुई!" बोला वो,
"कोई बात नहीं जी!" बोले शर्मा जी,
"रोमी? ओ रोमी?'' बोला वो,
और तब वो कल वाली महिला आई उधर, सर पर पोटली उठाये हुए थी,
"चाय भिजवा दे!" बोला वो,
उसने सर हिलाया और चली गयी!
"हाँ, ये लोग आये हैं, पटना से" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वो पिता जी के जानकार थे, उन्हीं के स्थान से आये हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, तो मैंने आपको कल बताया था कि वज्रक की बात बन गयी है!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"आप चलेंगे अभी?'' पूछा उसने,
"हाँ, क्यों नहीं?'' पूछा मैंने,
"मैं आता हूँ अभी फिर, चाय पीजिये आप तब तक!" बोला वो,
"ठीक है, कोई दिक्कत हो तो किसी और को भेज दो?" कहा मैंने,
"नहीं! वो छोटा भाई देख लेगा यहां तो!" बोला वो,
''अच्छा, ठीक!" कहा मैंने,
वो चला गया, और रमेश आया फिर, चाय ले कर! साथ में कुछ पकौड़ियाँ ले आया था! रख दीं उसने!
"लो जी!" बोला मैं,
"ओहो! फिर से मिर्चें!" बोले वो,
रमेश हंसने लगा!
"कल मिर्चें लगीं?" पूछा उसने,
"हाँ यार!" बोले शर्मा जी,
"हरी मिर्चे ही हैं!" बोला वो,
"ततैया मिर्चे हैं भाई!" बोले वो,
"ना तो?" बोला वो,
"मज़ाक कर रहा हूँ यार!" बोले वो!
"अच्छा! कचौरियां भी ले आऊं?' बोला वो,
"नहीं! यही बहुत हैं!" कहा मैंने,
''अच्छा जी!" बोला वो,
और लौट गया!
"लो जी! खाओ सीतापुरी मिर्चों की पकौड़ियाँ!" कहा मैंने,
"सीतापुरी! हे!हे!हे!" हंसने लगे वो!
"हाँ, मिर्चों वाली!" कहा मैंने,
और हमने खाने शुरू कीं तब!
"उरा! बहन**! कल जैसी ही मिर्चें हैं!" बोले वो,
मैं हंस पड़ा उनकी लहजा सुन कर!
"खा के देखो?' बोले वो,
"अभी!" कहा मैंने,
मैंने तब एक प्याज की पकौड़ी ली, मिर्चें ऐसी कि जैसे कहलता हुआ पानी गले में उतार दिया हो!
"ये तो भाई जानलेवा हैं!" कहा मैंने,
''सीतापुरी मिर्चें!" बोले वो,
"मेरे बस की नहीं हैं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उन्होंने!
"ना जी!" कहा मैंने,
"अरे खाओ ना?" बोले वो,
"ना!" कहा मैंने,
"बस?" बोले वो,
"हाँ, बस!" कहा मैंने,
"ये, आलू खाओ!" बोले वो,
"आप ही खाओ!" कहा मैंने,
बस, ऐसे ही बतियाते बतियाते, चबाते चले गए हम!
"जान बची लाखों पाये!" कहा मैंने,
"मिर्चों के पानी में ही बेसन फेंटा दीखै!" बोले वो!
हंसी छूटी मेरी! बहुत तेज!
"अब लगी पेट में आग!" बोले वो,
"इनो ले लेना एक!" कहा मैंने,
"देखेंगे!" बोले वो,
कुछ देर ऐसे ही बातें कीं हमने!
"आ रहा है बलदेव!" बोले वो,
मैंने सर घुमा कर देखा, आ रहा था वो!
"आओ फिर!" कहा मैंने,
''चलो जी!" बोले वो, एक डकार लेते हुए!
''अरे राम बचाइयो!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"छाती में जलन सी उठी!" बोले वो,
"और भसक लो, सीतापुरी मिर्चें!" कहा मैंने,
हंसने लगे वो!
आ गया बलदेव! मिले हम उस से!
''चाय ले ली?" पूछा उसने.
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलें फिर?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"यार बलदेव?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, शर्मा जी?'' बोला वो,
"ये मिर्चें यार तुम, इतनी क्यों खाओ?'' बोले वो,
"ज़्यादा लगीं?" पूछा उसने,
"ज्वालामुखी सा जल उठा है पेट में!" बोले वो!
हंसने लगे हम उनके ज्वालामुखी पर!
"केले खा लेना अभी! मंगवाऊँ?" बोला वो,
"अरे नहीं!" बोले वो,
और हम आ गए बाहर तक, उस बड़े से फाटक तक, रुक गया बलदेव, और हम भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ देर रुके रहे हम, सोचा शायद कोई और भी आ रहा होगा, जो मदद कर रहा हो!
"कोई आ रहा है क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"कौन भला?" पूछा मैंने,
"गाड़ी!" बोला वो,
"ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
और कुछ ही देर में, एक वैन आ गयी वहां, बाहर हुई खड़ी!
''आइये!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम गाड़ी में आ बैठे फिर, और बलदेव ने चालक को बताया कुछ, समझाया रास्ता शायद! गाड़ी बढ़ चली आगे फिर!
"दूर है क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं, बस कोई आठ-नौ किलोमीटर!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अब पहुंचे!" बोला वो,
गाड़ी बढ़ती रही आगे, रास्ता साफ़ ही मिला था, पुल पार किया और मुड़ गए फिर बाएं हाथ के लिए, गाड़ी आगे दौड़ने लगी! यहां मंदिर बने थे, छोटे-बड़े, हर तरह के! दूर से ही घाट भी दीख रहे थे, लोगबाग आ-जा रहे थे उधर! कहीं कहीं, सड़क किनारे, खोमचे भी पड़े थे! पूजा-पाठ की सामग्रियाँ थीं वहां! कहीं कहीं, कुछ फल वाले भी खड़े थे, कुछ प्रसाद वाले भी, कोई फूल बेक रहा था और कोई सामग्री आदि!
"कोई बड़ा मंदिर है क्या यहां?" पूछा मैंने,
"बहुत हैं जी!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
फिर सबकुछ पार किया, और तब, गौशालाएं, आश्रम और अखाड़े से आने लगे, दूर दूर तक खाली मैदान से! जोहड़ थीं वहां, जहाँ जल-सोख तैर रही थीं उनके पानी पर! आसपास, बगुले और दूसरे पक्षी भी जल-क्रीड़ा में मग्न थे!
"बस यहां से पास ही है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
अब गाड़ी कटी एक कच्ची जगह के लिए, जगह भले ही कच्ची थी, लेकिन थी ठोस, आराम से चलते चले गए! यहां मिलने लगे कुछ डेरे! छोटे-बड़े! मंदिर बने हुए थे उनमें! झंडे लहरा रहे थे उन पर लगे हुए! स्वास्तिक और ॐ के चिन्ह बने थे, कहीं कहीं, नाग बने थे!
"आ गए बस!" बोला बलदेव!
अब हम जहां आये थे, यहां से नदी का किनारा बस थोड़े ही दूर था! नदी किनारे ही बना था वो वज्रक श्मशान! अक्सर ऐसा ही होता है! अंत्येष्टि उपरान्त, अवशेष बहा दिए जाते हैं फिर नदी में ही!
"आ गए!" बोला वो,
उसने ड्राइवर से कुछ कहा और गाड़ी, एक बड़े से पीपल के पेड़ के नीचे आ खड़ी हुई! आसपास, खुली सी जगह थी, दो जगह कमरे से पड़े थे! लेकिन वो खाली ही थे! जैसे वाहन खड़े करने की कोई जगह बनाई गयी हो!
"आओ जी!" बोला वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
हम चले दायें और नीचे के लिए एक ढलान सी आई! उतरने लगे वो ढलान! फिर चार सीढ़ियां, वो पार कीं, अब आ गए थे हम किसी श्मशान में! यहां लकड़ियाँ, जलावन और अन्य घड़े आदि पड़े थे! कुछ लोगबाग भी दिख रहे थे! एक जगह, अर्थी लायी जा रही थी!
"यहां से आइये!" बोला वो,
ये मार्ग, मुख्य-स्थान से अलग जाता था, देखा जाए तो ये श्मशान का पश्चिमी भाग था, यहां शायद, विशेष जन ही आ सकते थे! एक जगह मुड़े हम! यहां एक फाटक था, फिर एक दरवाज़ा, दीवार काफी ऊँची थी वहां की, फाटक अब नाम मात्र को ही था, शायद दरवाज़ा लगा दिया गया था बड़ा सा, इसीलिए! दीवार सफेद रंग से पुती थी, दीवार पर, मंत्र लिखे थे, नीले रंग की स्याही से, सारे के सारे मंत्र श्री महाऔघड़ नाथ जी के थे! यहीं तो वास करते हैं वे! श्मशान-वासी हैं वो! मसानी हैं! औघड़ हैं! यही है उनकी प्रवृति! अंत-बिंद प्रेमी हैं! यहीं है उनका वास!
दरवाज़ा खटखटाया गया!
कुछ ही देर में, एक किशोर ने दरवाज़ा खोला,
"बिसन है अंदर?'' पूछा बलदेव ने,
"हाँ जी, आ जाओ!" बोला वो किशोर!
"आओ जी!" बोला बलदेव!
"चलो!" कहा मैंने,
हम अंदर चले तब, किशोर हमें रात बताता रहा! यहां अब कक्ष बने नज़र आ रहे थे, छोटे-बड़े, हर तरह के! और इस तरह, वो किशोर ले आया बिसन तक हमें! अब मुलाक़ात हुई बिसन से बलदेव की! कुछ बातें हुईं और वो बिसन, ले चला हमें एक दूसरी जगह की ओर!
''आओ जी!" बोला बलदेव!
"हाँ!" कहा मैंने,
अब हम एक खुली सी जगह पर आ गए थे! यहां चबूतरे बने थे, पिंडियां बनी थीं, बड़े बड़े पेड़ लगे थे, नदी का किनारा तो दूर था यहां से!
"समाधि कहाँ है?" पूछा शर्मा जी ने,
"उधर है, देखोगे?'' बोला बिसन,
"हाँ, दिखाओ!" बोले वो,
''आओ फिर!" बोला वो,
और हम चल पड़े उसके पीछे!
एक जगह आये! यहां आड़ू के पेड़ लगे थे, और इन्हीं आड़ू के पेड़ों के बीच में, एक बड़ी सी समाधि बनी थी! एक चिमटा गड़ा था, एक त्रिशूल! एक बड़ी सी अलख! जो अभी तो शांत थी! दीये लगे थे बड़े बड़े! लोहे के दीये! मेहँदी के फलों से बनी मालाएं टँगी थीं वहां! मनकों की मालाएं पड़ी थीं उधर!
"ये है!" बोला बिसन!
हमने हाथ जोड़े! ध्यान किया!
"जय बाबा रजंग नाथ जी!" बोला मैं,
मेरे पीछे सभी ने हाथ जोड़, बोला ये!
"कब रहे थे बाबा?" पूछा शर्मा जी ने,
"सौ साल हो गए जी!" बोला वो,
"अच्छा, बनावट नयी है?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"बाबा यहीं के थे?'' पूछा उन्होंने,
"बनारस के थे!" बोला वो,
"अच्छा!" बोला मैं,
"उनके पुत्रादि?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं!" बोला वो,
"ओह!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"बिसन?" बोला बलदेव,
"हाँ?" कहा उसने,
"वो बताया था न मैंने?" पूछा उसने,
"हाँ?'' बोला वो,
"यही हैं वो!" कहा उसने,
''अच्छा जी!" कहा उसने,
"दिखाओ?" बोला बलदेव!
"हाँ, आओ!" बोला वो,
और ले चला साथ अपने!
"वो क्या है?'' पूछा मैंने,
"स्थली है!" बोला बिसन.
"कोई रहता है वहां?'' पूछा मैंने,
"हाँ, हैं दो चार! सीकाण!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
और हम, चलते रहे उसके पीछे पीछे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक जगह आई! वहां रुक गया बिसन! यहां एकांत था, और शान्ति भी थी! यहां पूजन होता था, ये भी पता चलता था! धूनी रमाई जाती थी, ये भी पता चलता था! कुल मिलाकर, जैसी जगह चाहिए थी, मिल गयी थी! ये जगह ठीक वैसी ही थी, जैसा मैं चाहता था!
"ठीक लगी आपको?" बोला बलदेव!
"हाँ, बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"कब चाहिए?" पूछा बिसन ने,
"बता देंगे, दो-तीन दिन पहले!" कहा बलदेव ने!
"ठीक है!" बोला बिसन,
"आओ जी!" बोला बलदेव!
"चलो!" कहा मैंने,
"चाय-शाय?'' बोला बिसन!
"अरे नहीं, पी कर ही चले थे!" बोले शर्मा जी,
"और कुछ?" बोला वो,
"न जी!" बोला मैं!
''चलें अब?" बोला बलदेव!
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोला वो,
और हम, निकल पड़े बाहर के लिए, आये बाहर, ड्राइवर गाड़ी में ही बैठा था, उसने हमें देखा तो गाड़ी की स्टार्ट, लाया हमारे पास, हम बैठे और चल पड़े वहाँ से वापिस!
आ गए पुल तक! पार किया पुल!
"एक काम करो बलदेव?" पूछा मैंने,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"हमें बस-अड्डा छोड़ दो!" कहा मैंने,
"अरे! साथ चलो, भोजन आदि करो?'' बोला वो,
"बस बलदेव! जितना तुमने किया है, कर रहे हो, वही बहुत अधिक है! ये उपकार रहा आपका हम पर!" बोला मैं,
"क्या कह रहे हैं आप!" बोला वो,
"सही तो कह रहा हूँ!" कहा मैंने,
"अगर पिता जी होते, तो इस से भी ज़्यादा ही करते!" बोला वो,
"आपने ठीक वैसा ही तो किया है!" बोला मैं,
''अब क्या कहूँ मैं!" बोला वो,
"कुछ नहीं, छोड़ दो, वक़्त बच जाएगा हमारा!" कहा मैंने,
"ठीक है! जैसी आपकी इच्छा!" बोला वो,
ड्राइवर से कहा उसने, और ड्राइवर ने, गाड़ी बढ़ा दी बस-अड्डे की तरफ! वहां उतरे और फिर विदा ली उनसे, बस पकड़ी, हुए वापिस फिर! ढाई घंटे में पहुंचे वहां!
पहले अपने यहां आये, स्नान किया, कुछ भोजन भी किया और फिर कुछ आराम! छह बजे करीब, रिपुना के पास चला गया मैं, शर्मा जी सो रहे थे, बता दिया था उन्हें!
आया मैं रिपुना के पास! वो भी स्नान करके ही आई थी, बैठी हुई थी, सीमा से बातें करते हुए, मुझे देखा तो सीमा बाहर चली गयी! और मैं बिस्तर पर बैठ गया!
"कैसी हो, ओ लड़की?' पूछा मैंने! हँसते हुए!
वो भी मुस्कुरा पड़ी!
''अच्छी ही हूँ!" बोली वो,
"ही? इसका क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"आपको फुर्सत ही नहीं!" बोली वो,
"अब काम ही ऐसा आ फंसा है!" कहा मैंने,
"क्या काम?'' पूछा उसने,
"अरे उसी सरणू का!" कहा मैंने,
"कुछ फिर हुआ क्या?'' पूछा उसने,
"नहीं, और कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोली वो,
"कुछ नहीं! तुम बताओ, सब बढ़िया?" पूछा मैंने,
"हाँ, सब बढ़िया!" बोली वो!
"नेतराज से भी कोई खबर नहीं आई अभी तक!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मेरे पास फ़ोन आये थे!" बोली वो,
मैं चौंका!
"किसके?" पूछा मैंने,
"दीदी के!" बोली वो,
"बात हुई?'' पूछा मैंने,
"मैंने काट दिए फ़ोन!" बोली वो,
"बात तो करतीं?" पूछा मैंने,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"कुछ पता ही चलता?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा, तुम्हारी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"और सुनाओ! कहाँ घूम रहे हो आजकल?'' पूछा उसने,
मैं हंस पड़ा! हंसी न रुके!
"ऐसा मैंने क्या पूछा?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"तो जवाब दो?" बोली वो,
"घूम नहीं रहा, तैयारी में लगा हूँ!" कहा मैंने,
"इसका मतलब कट जाओ बिलकुल?" बोली वो,
"कट जाओ?" कहा मैंने,
"और क्या?" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"जानते हो आप!" बोली वो,
"सुबह, दोपहर, शाम, रात, बातें नहीं करता तुमसे?" पूछा मैंने,
"फ़ोन पर?'' बोली वो,
"तो?'' पूछा मैंने,
"अब समझ गयी मैं!" बोली वो,
"अब क्या समझ लिया?'' पूछा मैंने,
"समझ गयी!" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बस, समझ गयी!" बोली वो,
"बताओ तो?" पूछा मैंने,
"वहीँ हो न व्यस्त?'' पूछा उसने,
"कहाँ?'' पूछा मैंने,
"वहीँ! यहीं!" बोली वो,
''साफ़ साफ़ बोलो?" कहा मैंने,
"शोभा? शोभना?" बोली वो,
अब हंसी छूटी मेरी!
"वाह वाह!" कहा मैंने,
"मैंने मज़ाक किया?'' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने!
"सुनो, सुनो! ज़्यादा दिमाग पर ज़ोर न डालो! समझीं?" कहा मैंने,
"सही समझी न मैं?' बोली वो,
"ना!" कहा मैंने,
"सच?" बोली वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"रहने दो!" बोली वो,
"रहने दिया!" कहा मैंने,
"गुस्सा आने लगा है मुझे!" बोली वो,
"अरे? किस बात पर?'' पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे नहीं पता!" बोली वो,
"क्या बात है? आज तुनकमिजाजी ज़्यादा है कुछ?" कहा मैंने,
"आपसे मतलब?" बोली वो,
"अरे? फिर किस से मतलब?" पूछा मैंने,
''आप करो ऐश!" बोली वो,
"ऐश! ऐसी ऐश न करवाये भगवान किसी से भी!" कहा मैंने हाथ जोड़ते हुए!
"हुंह?" बोली वो!
"अब गुस्सा किस बात पर हो, ये तो बताओ?" कहा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"होती रहो गुस्सा! मैं चला!" बोला मैं,
"कहीं नहीं जाना!" बोली वो,
"जाना भी नहीं, सुनाना भी नहीं! कमाल है!" कहा मैंने,
"जब फुर्सत मिलती है, तभी आते हो न इधर?" बोली वो,
"ये तो लाजमी ही है!" कहा मैंने,
"और क्या क्या लाजमी है?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं जी!" कहा मैंने,
मुझे देखा, आँखें तरेड़ते हुए और झुका लीं आँखें!
"अच्छा सुनो!" कहा मैंने,
"हाँ?'' बोली वो,
"पहले ये गुस्सा हटाओ?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा सुनो! आओ कहीं घूमने चलते हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
''आओ तो सही पहले?'' कहा मैंने,
"बताओ तो सही पहले?" बोली वो,
"आज क्या हो गया तुम्हें?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"तो चलो, उठो फिर, कुछ बात भी करनी है!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उसने,
"देख लेंगे?" कहा मैंने,
"घाट पर चलें?'' बोली वो,
"अच्छा, बढ़िया जगह है, चलो!" कहा मैंने,
"आप बैठो, आई बस!" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
इसी नाज़ को तो बचाना था! इसी अल्हड़पन को तो बचाना था! इसी स्वच्छ्न्दता को तो बचाना था! इसी कली को तो बचाना था! कुचलने से! उस सरणू के पाश से! गुस्सा थी, कोई बात नहीं! करना ही पड़ेगा बर्दाश्त! कोई बात नहीं! करना भी पड़ता है!
वो तैयार हो कर आ गयी! और मैं उसको ले कर निकल पड़ा! बाहर तक आये और पकड़ी सवारी हमने घाट तक जाने की!
"आरती का समय भी हो रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ! इसीलिए कहा!" बोली वो,
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"रहने दो!" बोली वो,
"रहने दो?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं जानते!" बोली वो,
अब बात बढ़ाने से कोई लाभ नहीं था! चुपचाप, हथियार डाल दो, और कर लो हाथ खड़े!
"अच्छा जी! कुछ नहीं जानता मैं! बालक हूँ!" कहा मैंने,
हंस पड़ी वो!
वो जीत गयी थी इसीलिए!
और हम आ गए घाट पर, बड़ी भीड़म-भाड़! आदमी पर आदमी चढ़े! ऐसी हालत, कि भभके के मारे आ जाएँ चक्कर!
"इधर से!" कहा मैंने,
अब किसी महिला के साथ ऐसी जगह फंस जाओ तो हालत बड़ी ही खराब हो जाती है! सिरफिरे, लफंगों की कोई कमी नहीं! एक ढूँढोगे तो कतार से खड़े मिल जाएंगे! बड़ी मुश्किल से उसको बचा-बचू के लाया जी मैं!
"यहीं ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
बिठा लिया उसे उधर ही!
"आराम से बैठी हो न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
कुछ ही देर में, आरती होने लगी! जैसे स्वर्ग में पहुँच गए हों! पानी में झिलमिलाते वो दीये ऐसे लगें कि जैसे दहकते हुए अंगार पानी पर नाच रहे हों! कैसा पावन माहौल था वो! धूपबत्ती, अगरबत्ती, फूल सभी की मिश्रित सुगंध फ़ैल उठी!
कुल आधा घंटा!
आधा घंटा ऐसा ही रहा! और भीड़ छंटने लगी!
"चलें?" पूछा मैंने,
"जगह बनने दो!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अरे हाँ?" बोली वो,
"क्या?' कहा मैंने,
"क्या बात करनी थी?" पूछा उसने,
"हाँ, अच्छा किया जो याद दिलाया!" कहा मैंने,
"बताओ?" बोली वो,
"क्या कभी, रिपुना, तुमने बालू नाथ का नाम सुना है?'' पूछा मैंने,
"बालू नाथ?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कभी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" कहा उसने,
''अच्छा?' कहा मैंने,
"क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"बताओ तो?" बोली वो,
"रहने दो!" कहा मैंने,
"अरे? हो सकता है ध्यान आ जाए?" बोली वो,
तब मैंने उसको टुकड़ों में बताया कुछ! वो सुनती रही!
"याद आया कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
''तो छोड़ो फिर!" कहा मैंने,
"बात क्या है?'' पूछा उसने,
"जानती हो?" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये बालू नाथ आएगा!" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने,
"सरणू की मदद करने!" कहा मैंने,
"ओह...." बोली वो और हेप रही!
"आने दो!" कहा मैंने,
"मतलब कोई रास्ता नहीं?" पूछा उसने,
"ना!" कहा मैंने,
"ओह.." फिर बोली वो,
"देख लेंगे!" कहा मैंने,
और वो हुई गुमसुम तब!
''अब तुम क्यों परेशान हो चलीं?" पूछा मैंने,
''ऐसे ही!" बोली वो,
"सुनो?" कहा मैंने,
"क्या?'' पूछा उसने,
"तुम मेरी इस वक़्त, सबसे बड़ी ताक़त हो!: कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
"तो?" कहा मैंने,
''तो क्या?'' पूछा उसने,
"समझो फिर?" कहा मैंने,
"हाँ, समझती हूँ!" बोली वो,
"अच्छा, चलो अब!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
और मैं उसको ले, लौट चला वहां से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वापसी में, रिपुना को उसकी जगह छोड़ा, खूब समझाना पड़ा उसे! उसके दिमाग की सुइयां बार बार एक ही जगह आ कर जाम हो जाती थीं, तो गरारियों में ज़रा सी जुम्बिश की ज़रूरत थी, समझाने की, जितना समझा सका, समझा दिया! और फिर वापिस हुआ अपनी जगह आने के लिए! वहां पहुंचा तो शर्मा जी ने चाय मंगवाई हुई थी, अब दो कह दी गयीं, चाय पी और फिर रात से थोड़ा पहले, भोजन कर, सो गए थे हम!
अगली सुबह, आज कोई और काम नहीं था, कुछ काम जो अब शेष थे, वो उस खबर के बाद ही तय किये जाने थे! मोटे स्तर पर तो, हमने सभी काम निबटा लिए थे, अब सबसे अहम ज़रूरत जो थी वो थी, दो साधिकाओं की, इसका प्रबंध भी बलदेव से ही कहना पड़ता, करने को, अन्यथा, मुझे ही कहीं हाथ-पाँव मारने पड़ते! साधिकाएं दो क्यों? दो की ही आवश्यकता थी, श्री महावैष्णवी की साधना में भी दो, कुँवारी कन्याओं द्वारा पूजन किया जाता है! कुण्ड-मातङ्गा में तीन और भष्ट-मातङ्गा में चार का! स्त्री, शक्ति का प्रतीक है तंत्र में! अफ़सोस, कई साधक उन्हें मात्र विलासिता की तुच्छ सी वस्तु मानने की भयंकर भूल कर दिया करते हैं! पलट में, यही भूल उनका सर्वनाश कर दिया करती है! साधिकाओं की जांच, वग्यता आदि की जांच भी परम आवश्यक हुआ करती है, प्रत्येक स्त्री अथवा कन्या, साधिका नहीं बन सकती! शारीरिक रूप से उसमे कुछ विशेषतायें अवश्य ही होनी चाहियें! मैं आपको बताता रहा हूँ कि किस प्रकार, हाँसुल-अस्थियां पुष्ट एवं संतुलित होनी चाहियें! उसी प्रकार, ग्रीवा, तनी हुई, बिना झुकाव की होनी चाहिए! स्तनों का आकार, स्थल, सममापी होना चाहिए, केश काले, भौंहें समान, नथुने, एकसार, ओंष्ठ बंद रहते हों, ऐसी वरीयता है! फिर नाभि-स्थल, नाभि उन्नत न हो, हाँ, योनि-प्रदेश सर्वोन्नत होना आवश्यक है! नितम्ब सुडौल और एकसार होने चाहियें, जंघाओं में, अवतलता, निम्नोतल नहीं होना चाहिए, घुटनों की कटोरियाँ, स्पष्ट रूप से नहीं दिखनी चाहियें, पिंडलियाँ, नितम्ब के साथ, एकरूपी, एक लंबवत रेखा द्वारा जांचा जाए तो, ऐसा होना चाहिए! अंग-भंग, अग्नि से झुलसी अथवा जली त्वचा, त्वचा संबंधी रोग हों तो निषेधित है, कोई संक्रामक रोग न हो, देह में, वक्र न हो, आदि आदि विशेषतायें देखी जाती हैं, तब जाकर, कोई साधिका अपने पूर्णत्व को प्राप्त होती है, इसी से उसका दर्ज़ा बनता है! और उस समय, मुझे ऐसी ही साधिकाओं की आवश्यकता थी!
उस दिन, करीब एक बजे, फ़ोन बजा, मैंने फ़ोन उठाया, तो ये नेतराज का फ़ोन था! मैंने फ़ोन चालू किया!
"हाँ नेतू!" कहा मैंने,
"नमस्ते!" बोला वो,
"नमस्ते!" कहा मैंने,
"कैसे हो?" पूछा उसने,
"ठीक, तू सुना!" कहा मैंने,
"मौज!" बोला वो,
"कैसे फ़ोन किया?'' पूछा मैंने,
"पता तो होगा?" बोला वो,
"हाँ, पता तो है!" कहा मैंने,
"तुमने कोई कसर तो छोड़ी ही न!" बोला वो,
''आगे बोल!" कहा मैंने,
"कोई आ गया है!" बोला वो,
"बालू नाथ!" कहा मैंने,
"हैं? बड़े तेज आदमी हो यार!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई ठोला(भेदिया) है यहां तुम्हारा?'' बोला वो,
"ना तो!" कहा मैंने,
"फिर कैसे जानी?'' बोला वो,
"कच्ची गोलियां तो हमने भी नहीं खेलीं!" बोला मैं,
"मानना पड़ेगा भाई!" बोला वो,
"एक बात तो बता?'' पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये बालू नाथ आया कहाँ से है?" पूछा मैंने,
"गोलाघाट!" बोला वो,
''अच्छा! समझा अब!" बोला मैं,
"समझे?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"उसने भी यही कहा है कि कोई मध्यम-मार्ग निकाल लिया जाए!" बोला वो,
"ये नहीं बताया उसे कि सरणू के खून में ऐसा नहीं?" कहा मैंने,
"ऐसा न कहो यार!" बोला वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"अब न कहो!" बोला वो,
"अच्छा, सरणू क्या बोला फिर?" पूछा मैंने,
"बोले कि सब मार्ग बंद हैं अब!" कहा उसने,
''सही तो कहा उसने!" कहा मैंने,
"क्या सही?" बोला वो,
''सभी मार्ग बंद हैं!" कहा मैंने,
"वो तो तुमने किये हैं यार!" बोला वो,
"मुझे क्या गर्ज़ पड़ी है!" कहा मैंने,
"तुमने ही तो बात बढ़ायी है?" बोला वो,
"खैर छोड़!" कहा मैंने,
"छोडो फिर!" बोला वो,
"और सुना?" कहा मैंने,
"कब आऊँ?" पूछा उसने,
"पत्री लेकर?" पूछा मैंने,
"और क्या!" बोला वो,
"जब मर्ज़ी आ जा!" कहा मैंने,
"सोच लो!" बोला वो,
"सोच लो? क्या?'' पूछा मैंने,
"बालू नाथ!" बोला वो,
"देख नेतू!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"बालू नाथ से मेरा कोई बैर नहीं, हाँ, जानते हुए भी वो अगर सरणू का साथ ही देगा, तो मेरे लिए अब न बालू नाथ कम और न ये सरणू ही कम! दोनों एक ही हैं!" कहा मैंने,
"क्या समझते हो यार?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"जंवाईं हो क्या भगवान के?" बोला वो,
"ना! लेकिन सरणू तो है?" पूछा मैंने,
"तुम्हारे में ये सबसे बड़ी कमी है कि सुनते नहीं!" बोला वो,
"अब तू सुन!" कहा मैंने,
"क्या, बोलो?" बोला वो,
"एक सलाह दूँ तुझे?" पूछा मैंने,
"कैसी सलाह?" पूछा उसने,
"द्वन्द के समय, चौकी न भरियो किसी की भी!" कहा मैंने,
"हैं?" बोला वो,
"समझा?" कहा मैंने,
"ना?" बोला वो,
"अपने असली बाप सरणू से पूछ लियो!" कहा मैंने,
वो कमीन इंसान, फट फट के हंसने लगा!
"खैर!" बोला वो,
"हूँ?" कहा मैंने,
''अब तुम जानो!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैंने तो समझाया ही!" बोला वो,
"तुझ जैसा तो समझदार है ही कौन!" कहा मैंने,
"कुछ भी कहो अब!" बोला वो,
"आ, कब आएगा?'' पूछा मैंने,
''आज आता हूँ, फ़ोन कर दूंगा!" बोला वो,
"इंतज़ार है!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फ़ोन कटा और रख दिया मैंने! शर्मा जी भी आ गए थे बाहर गुसलखाने से!
"किसका फ़ोन था?'' पूछा उन्होंने,
"उसी, नेतू का!" कहा मैंने,
"क्या बक रहा था?' पूछा उन्होंने,
अब सारी बात बताई मैंने उन्हें! उन्होंने सुनी!
"अच्छा, तो आ रहा है आज?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आने दो साले को!" बोले वो,
"हाँ, आज साफ़ हो जाएगा!" कहा मैंने,
"कब तक आएगा?" पूछा उन्होंने,
"कह रहा था फोन करेगा?" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
दो घंटे और बीत गए, भोजन आदि से निवृत हो लिए थे हम! कमरे में ही बैठे रहे, इंतज़ार कर रहे थे उस नेतू का! देखें, क्या कहता है!
और इस तरह, करीब तीन बजे के आसपास, नेतू का फोन बजा, वो उधर के लिए निकल चुका था और कोई आधे घंटे में हमारे पास आने वाला था!
"आ रहा है!" कहा मैंने,
"आन दो साले को!" बोले वो,
और इस तरह, नेतू भी आ गया, संग उसके, उसी डेरे का एक और आदमी भी आया था, अपने आपको खलीफा हो कहीं का, ऐसा दिखा रहा था, बार बार उचक-उचक कर देखता था हमें!
''आ जा नेतू!" कहा मैंने,
''आ गए जी!" बोला वो,
"क्या खबर लाया?'' बोला मैं,
"खबर क्या है!" बोला वो,
'फिर?" पूछा मैंने,
"बुलावा है!" बोला वो,
"बुलावा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"किसका बुलावा?'' पूछा मैंने,
"बालू नाथ का!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"एक बार बात कर लो?" बोला वो,
"सुन नेतू!" कहा मैंने,
''अब क्या?'' पूछा उसने,
"भाड़ में जाए ये बालू नाथ, ये सरणू अब!" कहा मैंने,
हंस पड़ा नेतू!
"मतलब ये जानूँ मैं, कि अब कुछ नहीं!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पछतावा होगा!" बोला वो,
"होने दे!" कहा मैंने,
"तो बोलो कब?" बोला वो,
"जब तुम लोग चाहो?" कहा मैंने,
"इस मावस?" बोला वो,
हिसाब लगाया, आठ दिन शेष थे!
'हाँ, ठीक है!" कहा मैंने,
"फिर सोच ले?" अब बोला वो खलीफा!
"नेतू, इसको बोल, अभी, इसी वक़्त यहां से निकल जाए!" कहा मैंने,
"अबे जानता नहीं तू?' बोला वो आदमी!
"खड़ा हो बहन के **! निकल साले!" बोला मैं, उसका हाथ पकड़ते हुए! नेतू ने बीच-बचाव कराया और वो आदमी, लम्बे लम्बे क़दम भर, निकल गया बाहर! गालियां देते देते!
"तेरा जीजा है ये?" पूछा शर्मा जी ने,
''अरे छोड़ो न!" बोला वो,
"नेतू, अब मिलेंगे हम बाद में! अब तू भी यहां से रवानगी डाल दे!" कहा मैंने,
"मिलेगा तो तब जब ज़िंदा रहेगा!" बोला वो,
और तभी मैंने खींच कर दिया उसके गाल पर एक तमाचा! हिल गया वो! आँखें फाड़ फाड़ देखने लगा! एक चूं न निकली मुंह से उसके!
"निकल! अभी निकल! तेरी माँ का ***! सूअर के **! निकल हरामज़ादे!" कहा मैंने,
गुस्से में, पाँव पटकता, दौड़ पड़ा बाहर!
"मरेगा! साले, कुत्ते! मरेगा!" बोला वो,
मैं भागा उसके पीछे! और उसने लगाई दौड़! भाग गए दोनों के दोनों! आसपास के सभी लोग देखने लगे थे हमें!
"भाग गया बहन का **!" बोले शर्मा जी!
"इस माँ के ** को ज़्यादा ही बिठा लिया था सर पर!" कहा मैंने,
"मैं तो कहने ही वाला था!" बोले वो,
"आओ यार ज़रा!" कहा मैंने,
"कहाँ?' बोले वो,
"बात करनी है कुछ!" कहा मैंने,
''चलो!" बोले वो,
आये हम कमरे में और बैठ गए!
"क्या करें?" पूछा मैंने,
"आप बात करो?" बोले वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"श्री जी से, सब बताओ?" बोले वो,
"बताओ नहीं, जाना पड़ेगा!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"निकलते हैं!" कहा मैंने,
''आज?" बोले वो,
''आज बात कर लूँ पहले!" कहा मैंने,
"हाँ, ये ठीक है!" बोले वो,
"लाना फ़ोन?" कहा मैंने,
उन्होंने फ़ोन दिया मुझे, मैंने मिलाया!
"घंटी गयी?" पूछा उन्होंने,
"जा रही है!" कहा मैंने,
किसी और से बात हुई, श्री जी उपलब्ध नहीं थे उस समय!
"क्या हुआ?'' पूछा उन्होंने,
"हैं नहीं!" कहा मैंने,
"थोड़ी देर बाद कर लेना?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चाय मंगवाता हूँ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वो नीचे गए, और मेरा फ़ोन बजा! उठाया, ये श्री जी थे! प्रणाम हुई उनसे! और मैंने सब बता दिया उन्हें! उन्होंने भी मिलने को ही कहा! बिन मिले बात ही न हो पाती! मैंने हमे भर दी, कल निकल जाते वहां के लिए!
आये शर्मा जी अंदर!
"बात हो गयी!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उन्होंने!
"कल निकलते हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
''सुबह ही निकलो फिर?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रिपुना?" बोले वो,
"संग जायेगी!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोले वो,
"इस से कुछ बात हो?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
चाय आ गयी, और हम चाय पीने लगे फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसी शाम मैं गया रिपुना के पास, और उसको सबकुछ बताया, समझाया, ये ही कि अब न तो अफ़सोस मनाने का ही समय है और न ही किसी मध्यम-मार्ग को ढूंढने का! बस, वो कल तैयार रहे, कल सुबह हम निकल रहे हैं काशी के लिए! वहां जाना बेहद ज़रूरी है हमारा! उसने हामी भर दी, और इस तरह से हमारा कार्यक्रम तय हो गया! मैंने काशी में खबर कर ही दी थी कि हम दोपहर तक या दोपहर बाद तक पहुँच जाएंगे! और हमने तैयारी कर ली सारी की सारी!
अगला दिन आया, हमने जल्दी से ही सारे काम निबटा लिए थे, चाय भी बोल दी थी, रिपुना को फोन भी कर दिया था, वो तैयार हो चुकी थी! सामान अपना सारा, बाँध चुकी थी! चाय आई, चाय पी, कुछ खाया भी उसके साथ और निकल पड़े फिर!
रिपुना के पास पहुंचे, उसका सामान लिया, और उसको साथ ले, चल पड़े बस अड्डे की तरफ! अब बस की हाड़-तोड़ यात्रा सामने थी, करनी ही थी! कुछ देर किसी खाली बस का इंतज़ार किया और मिल गयी, तीन सीट वाली सीट भी मिल गयी, और हम जा बैठे, बस करीब दस मिनट के बाद, रवाना हो गयी!
"कितना टाइम लग जाएगा?" पूछा शर्मा जी ने,
"बस से तो पता नहीं, ट्रेन से ढाई घंटा लगा जाता है!" कहा मैंने,
"अब ये नॉन-स्टॉप ले जाए तो बात बने!" कहा उन्होंने,
''अजी नॉन-स्टॉप!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"ये क्या पेरिस है?" पूछा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
"तो सोचो आप!" कहा मैंने!
"हाँ, कोई बकरी वाला भी हाथ दे देगा तो खुद बस के अंदर और बकरी छत पर!" बोले वो!
मैं हंसा! रिपुना भी हंस पड़ी! आगे बैठे हुए एक सज्जन भी हंस पड़े हमारी बात सुनकर!
"भाई साहब?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोले वो सज्जन!
"ये काशी कब तक लगाएगी?" पूछा शर्मा जी ने,
"कम से कम चार घंटे! अगर रास्ता मिला साफ़ तो!" बोले वो सज्जन!
"लो जी! नींद की एक शिफ्ट तो लग जायेगी फिर!" बोले वो,
''और क्या जी! सो जाओ!" बोले वो सज्जन!
''चार घंटे?" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले शर्मा जी!
"तीर-कमान बन जायेगा कमर का तो!" कहा मैंने!
"हाँ! काशी जाते ही, तीर छोड़ लेना उस से!" कहा उन्होंने, हँसते हुए!
"हाँ डोरी आप बाँध देना!" कहा मैंने,
''अजी बड़े शौक़ से!" बोले वो,
'चार घंटे तो तब, जब रास्ता मिले साफ़!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं तो गयी भैंस पानी में!" बोले वो,
"हाँ यार!" कहा मैंने,
बातें करते रहे, जब तक कि उबासियां नहीं आने लगीं! बस कभी रूकती, कभी रेंगती, कभी तेज चलती! नींद आने लगी! ऊँघने लगे हम तो!
"मैं तो सोया अब!" बोले वो,
''सो जाओ!" कहा मैंने,
''आप भी टिक जाओ अब!" बोले वो,
"अभी!" कहा मैंने,
थोड़ी ही देर में, शर्मा जी तो ढुलक गए सीट पर! सो गए आराम से! मैंने भी करवट सी बदल ली!
"नींद आई क्या?' पूछा मैंने रिपुना से!
"नहीं!" बोली वो,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
''आपको आई?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं आती!" कहा मैंने,
"अच्छा है!" बोली वो!
"बस मेरी टांगें नहीं मुड़तीं बस में!" कहा मैंने,
"मैं जगह बनाती हूँ!" बोली वो,
थोड़ा इधर उधर हुई और मैंने टांगें खोलीं फिर!
''अब ठीक?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
बातें करते करते, इधर उधर कसमसाते हुए आखिर जी हम आ पहुंचे काशी! २ बज चुके थे! हालत ऐसी कि खटिया मिल जाए तो जा पसरें उस पर!
"अरे मर गया रे!" बोले शर्मा जी!
"क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"ऐसा लगा रहा है कि!" बोले वो,
"कैसा?" पूछा मैंने,
"जैसे रेगिस्तान पार किया हो पैदल पैदल!" बोले वो!
मैं हंसा! रिपुना हंसी!
"आओ यार, चाय पियें!" कहा मैंने,
"हाँ, सख्त ज़रूरत है!" बोले वो,
बढ़िया सी चाय बनवायी! पी और फिर आगे चल पड़े!
"यहां से अब फिर से सवारी!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली रिपुना!
ली सवारी, की तय! और चल पड़े! की नदी पार! और साहब, डेढ़ घंटे के बाद, हम वहां जा पहुंचे! वहां पहुंचे तो यादें ताज़ा हो गयीं! कुछ आवाज़ें आने लगीं कानों में! कुछ डाँट! कुछ लताड़! कुछ फटकार! मुस्कराहट!
और फिर हम अंदर चले!
"आओ!" कहा मैंने,
अंदर का माहौल देखा! सब बदला बदला सा था! मैं काफी दिनों के बाद आया था यहां! अंदर आया तो पहचाना सभी ने! फिर तो भीड़ सी लग गयी! कुछ नए, कुछ पुराने! कुछ नयी सी जगहें! कुछ पुरानी सी जगहें! वो खुला सा मैदान! और वो पुरानी क्रिया-स्थली!
"आ जाओ!" बोला गंगू!
"और भाई गंगू!" बोले शर्मा जी!
लिया गंगू और दूसरे एक आदमी ने सामान हमारा!
"बस शर्मा जी, बढ़िया!" बोला वो!
"पीतम कहाँ है?" पूछा उस से!
"यहीं है!" बोला वो,
"बुला उसे!" बोले वो!
"आता होगा अभी!" बोला गंगू!
"गंगू?" बोला मैं,
"जी?" बोला वो,
"बड़े बाबा हैं क्या?" पोछा मैंने,
'ना!" बोला वो,
"कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
''साँझ तक आ जाएंगे!" बोला वो,
"कहाँ गए हैं?" पूछा मैंने,
"गए हैं जी! सुबह से!" बोला वो!
''और कौन है?" पूछा मैंने,
आ गया कमरा! खोला गया! और हम अंदर गए!
"अभी तो केसू हैं!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"पानी ला रे?" बोला गंगू, दूसरे आदमी से!
वो चला गया आदमी, और हम बैठ गए!
"कहाँ हैं केसू बाबा?" पूछा मैंने,
''ओसारे संग!" बोला वो,
"चलते हैं अभी!" कहा मैंने,
पानी आया, और पानी पिया हमने!
"लक्ष्मी है?" पूछा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"कहाँ गयीं?" पूछा मैंने,
''ऋषिकेश!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बेटी है न उसकी?" बोला वो!
"हाँ हाँ, पता है!" कहा मैंने,
"हाथ-मुंह धुलवा दे!" कहा शर्मा जी ने,
''हाँ जी, आओ!" बोला वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पानी पिया और फिर हाथ-मुंह भी धो लिए, अंगड़ाई ली, कमर सीधी की मैंने तो! गंगू कपड़ा लिए खड़ा था, हाथ-मुंह पोंछे अपने, फिर शर्मा जी ने भी चेहरा-हाथ धोये अपने! दिया उन्हें कपड़ा और चले हम कमरे की तरफ! आये कमरे में, सकुचाई सी बैठी थी रिपुना!
"गंगू?" कहा मैंने,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"पार्वती है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, है!" बोला वो,
"ज़रा बुलवा तो सही?" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोला वो,
और खुद ही चला गया! पार्वती बहुत पुरानी है यहां! करीब अठारह-उन्नीस सालों से यहीं है! यूँ कहो कि ज़िंदगी यहीं काट दी तो कोई बड़ी बात नहीं! अब तो पचास से भी ऊपर की हो गयी है! बड़ी बहन की तरह है! पाँव छूता हूँ उसके मैं!
आई तेज क़दमों से चल कर! मैं खड़ा हुआ! फ़ौरन ही झुका उसके पांवों की तरफ, छुए पाँव!
"कैसा है रे?'' बोली अपने ही अंदाज़ में!
"अच्छा हूँ बहन! तू कैसी है?" पूछा मैंने,
"ज़िंदा हूँ अभी!" बोली वो,
"अरे! मरे तेरे दुश्मन!" कहा मैंने,
"कब आया?" पूछा उसने,
"अभी, हाल ही!" कहा मैंने,
"पानी पिया?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अरे कैसी है पार्वती तू?" पूछा शर्मा जी ने!
"अच्छी हूँ! तुम कैसे हो?" पूछा उसने,
"ज़िंदा हूँ अभी!" बोले वो,
"तो ज़िंदा ही रहोगे!" बोली वो!
"पार्वती?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
"ये रिपुना है! दूर से आई है! इसके हाथ-मुंह धुलवा लाओ!" कहा मैंने,
"आ बेटी! गुड़िया, आ!" बोली वो!
"जाओ रिपुना!" कहा मैंने,
रिपुना को ले, चली गयी पावती! सारे बाल सफेद हो चले थे उसके! वक़्त कैसे तेजी से भागता है, पता ही नहीं चलता!
"बड़े बाबा कहाँ गए हैं?" पूछा मैंने,
"बड़े बाबा आज सुबह से, सामू धोरे गए हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, साँझ तलक आ जाएंगे!" बोला वो,
"और बाबा काश्व? शाल्व, सभी साथ में होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ, सभी साथ में हैं!" बोला वो!
''और बाबा केसू ना गए?" पूछा मैंने,
"यहीं भी तो कोई चाहिए, है कि ना?' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''वैसे खबर ही, कि आप आ रहे हो!" बोला वो,
"बड़े बाबा ने बताई?" पूछा मैंने,
"हाँ, कह जो गए थे!" बोला वो,
इतने में ही, वो दूसरा आदमी, ले आया दूध! दिया हमें एक एक गिलास भर कर!
"डंगर रखे हैं अभी?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"बढ़िया!" कहा मैंने,
"ओ रे दीपू?" बोला वो,
'हाँ जी?" बोला वो आदमी,
"जाने हैं कौन हैं ये?" बोला वो,
"ना जी, नाय पहचानौ!" बोला वो,
"इनकौ ही है ये बसेरौ!" बोला वो,
"अच्छा जी?" बोला वो,
"हाँ!" बोला गंगू!
"कहाँ का है दीपू?" पूछा मैंने,
"जट्टारी कौ!" बोला वो,
"टप्पल माईं कौ?" पूछा मैंने,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और सुना गंगू!"  कहा मैंने,
"बस!" बोला वो,
"तेरा लड़का क्या कर रहा है?'' पूछा मैंने,
"कछु न!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"पढ़ाई कर रहा था वो तो?" पूछा मैंने,
"फेलम-फेल!" बोला वो!
मैं हंस पड़ा! शर्मा जी भी हँसे!
"काटेगौ सायरौ घास, और कहा!" बोला गंगू!
''अच्छा, चल बाबा केसू के पास चलें!" कहा मैंने,
"हाँ, आओ!" बोला वो,
'दीपू, कमरा कर दे साफ़, आते हैं हम!" बोला गंगू!
और हम निकल गए बाहर! रिपुना को बिना दूध पिलाये तो आने ही नहीं देती पार्वती! इसीलिए हम चले थे बाबा केसू के पास जाने को! बाबा केसू तीन महीने इधर, और तीन महीने कहीं और, ऐसे रहते हैं! अब रहने लगे हैं अधिकतर यहां, नहीं तो नेपाल में ही जा बसे थे वो तो! तो हम उस पेड़ों वाले जगह को पार करते हुए आगे बढ़ते चले गए! पुराना समय याद आ गया! उस समय यहां दंगल सा हुआ करता था, अखाड़ा मान लीजिये! पास में ही ढोर-डंगर बंधा करते थे! और पहलवान आदि अपना दमखम दिखाया करते थे!
"ये नयी बनाई है जगह?" पूछा मैंने,
"हाँ, चौमासे के बाद ही!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उधर हैं बाबा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और हम जा पहुंचे! एक कमरे के बाहर आ खड़े हुए! जूते उतारे, बाबा केसू आराम कर रहे थे, पास में उनके, उनके कुछ सहयोगी बैठ थे!
"प्रणाम बाबा!" कहा मैंने,
चौंक के देखा उन्होंने! आवाज़ पहचान ली थी मेरी!
हुए खड़े! और मैंने झुक कर पाँव छुए उनके! उन्होंने मेरे कंधों पर दी थाप! फिर शर्मा जी ने छुए पाँव उनके!
''अरे रे! कब आया" पूछा उन्होंने,
"बस अभी!" कहा मैंने,
''आ, बैठ, बैठो शर्मा जी!" बोले वो,
हम दोनों बैठ गए!
"गंगू?" बोले वो,
"हाँ बाबा?' बोला वो,
"जा! चाय बनवा, दूध में पत्ती लगवा दे!" बोले वो,
"अभी बाबा!" बोला वो, और चला गया!
"कैसा है?" पूछा मुझे देखते हुए!
''आशीर्वाद है आपका!" कहा मैंने,
"और तुम शर्मा जी?'' पूछा उन्होंने,
"आपका आशीष!" बोले वो!
"बहुत दिन बाद आया भाई तू तो?" बोले वो,
"इलाहबाद के पास आया था, सोचा होता जाऊं!" कहा मैंने,
"बहुत अच्छा किया!" बोले वो,
"आज सभी गए हुए हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, सभी!" बोले वो,
"आप नहीं गए?" पूछा मैंने,
"यहां भी तो कोई रहेगा न?" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"रहीमा मिला?'' पूछा उन्होंने,
"नहीं तो? यहीं है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहीं था अभी तो!" बोले वो,
रहीमा मेरा जानकार है, किसी और डेरे का! आया हुआ होगा यहां वो! बढ़िया आदमी है! मेरी खूब छनती है उस से! बाबा केसू जानते हैं इस बारे में!
"आता ही होगा!" बोले वो,
''अच्छा, देख लेंगे!" कहा मैंने,
"तेवत खत्म हो लिए!" बोले वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"दो महीने होने को आये!" बोले वो,
"ओहो!" कहा मैंने,
 

   
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श्रीशः उपदंडक
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बाबा तेवत अपने समय के माने हुए साधक हुआ करते थे, नेपाल तक साख थी उनकी! उड़ीसा में उनके एक पुत्र का डेरा भी है! हालांकि मेरी उनसे कुछ अधिक जान-पहचान नहीं थी, लेकिन उनकी सिखाई हुई कई विद्याएँ मेरे पास हैं! मैं ऋणी हूँ उनका, मुझे दुःख तो हुआ, परन्तु संतोष भी कि पूर्णायु भोग प्राप्त कर, चलते फिरते ही उन्होंने प्राण त्याजे थे!
पत्ती लगा दूध आया और हमने पिया! उसके बाद बाबा से और भी बातें हुईं, फिर हम अपने कक्ष की ओर चल दिए! जब वहां आये तो पार्वती बैठी थी रिपुना के संग! हम भी अंदर चले ही आये थे! बैठे उधर!
"गंगू?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"एक और कक्ष का प्रबंध करो!" कहा मैंने,
"वो तो हो ही गए तैयार! आओ?" बोला वो!
"आओ रिपुना!" कहा मैंने,
और रिपुना, पार्वती से बतिया कर, साथ चली हमारे, सामान वहीँ रखा रहने दिया था, ये बाद में आ जाता! जिस जगह हम आये, उस जगह नए कक्ष बना दिए गए थे! बड़े बड़े से कक्ष थे वो!
"ये लो!" बोला वो,
और कुण्डी खोल दी! आये हम अंदर!
''अच्छा है!" कहा मैंने,
"और गुड़िया के लिए, ये वाला!" बोला गंगू!
"ठीक!" कहा मैंने,
"कुछ चाहिए हो तो बता देना!" बोला गंगू!
"हाँ, बता दूंगा!" कहा मैंने,
''आओ रिपुना!" कहा मैंने,
उसको लिया और उसके कक्ष में ले गया!
"बैठो!" कहा मैंने,
"ये किसका स्थान है?" पूछा उसने,
"मेरा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"हाँ! मेरा!" कहा मैंने,
"सच कहो?" बोली वो,
"हाँ हाँ! यक़ीन करो!" कहा मैंने,
"सच में?' बोली वो,
"हाँ, बताता हूँ!" कहा मैंने,
और तब, मैंने उसको सारी बात बताई! और तब जाकर उसको यक़ीन आया!
"बहुत ही सुंदर स्थान है!" बोली वो,
"हाँ! बहुत ही सुंदर!" कहा मैंने,
"बहुत ही अच्छा लगा मुझे तो!" बोली वो!
"अच्छा! कुछ खाना-पीना है?" पूछा मैंने,
"अभी नहीं!" बोली वो,
"फिर?" कहा मैंने,
"थोड़ी देर में!" कहा मैंने,
'चलो, साथ ही खाएंगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"अब आराम करो, मैं आऊंगा बाद में!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
जैसे ही मैं बाहर निकला, सामान लाया गया था, अपना अपना सामन रखवा लिया हमने! गंगू के साथ  दो आदमी आये थे, वो ही लाये थे!
"खाना तैयार है!" बोला गंगू!
"बस थोड़ी देर में!" कहा मैंने,
"ठीक, मैं लगवाता हूँ थोड़ी देर में!" बोला वो,
'हाँ!" कहा मैंने,
अब आया मैं शर्मा जी के पास, वे लेट गए थे! मैं बैठा उधर ही!
"चार बज गए?' बोले वो,
"ज़्यादा!" कहा मैंने,
"कितने?" पूछा उन्होंने,
"पांच का समय होने वाला है!" कहा मैंने,
"अब भूख लगने लगी है!" बोले वो,
''आ रहा है खाना!" कहा मैंने,
''अच्छा अच्छा!" बोले वो,
"कह दिया है मैंने!" कहा मैंने,
''अच्छा, बड़े बाबा कब तक आ जाएंगे?" पूछा उन्होंने,
"शायद आठ बजे तक!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
कुछ देर बातें हुईं, और फिर खाना लगवा दिया गया, हम सभी ने खाना खा लिया फिर! भूख तो लगी ही थी! खाना खाने के बाद, हम सो गए थे, आराम करने के लिए! बस यात्रा की थकावट थी ये!
नींद खुली मेरी करीब सात बजे! शर्मा जी अभी भी सो रहे थे! मैं उठा, पानी पिया, अभी अँधेरा नहीं हुआ था, मैंने जगाया शर्मा जी को! वे जागे!
"कितना वक़्त हुआ?" पूछा उन्होंने,
"सात बजे हैं!" कहा मैंने,
"बड़ी जल्दी?" बोले वो,
"सोये भी तो घोड़े बेक कर!" कहा मैंने,
"हाँ, थक गए थे!" कहा उन्होंने,
और मित्रगण!
करीब नौ बजे, खबर आई मेरे पास!
गंगू ही आया था बताने की बड़े बाबा आ गए थे! और उस समय, अपने कक्ष में थे वो! आ तो पहले ही गए थे, लेकिन पूजन आदि से निबट कर, अब फारिग हुए थे वो! ये सुनते ही, मैं और शर्मा जी, दौड़ पड़े उनसे मिलने के लिए!
उनके कक्ष के द्वार पर, दो दीये जल रहे थे! हमने नीचे ही, सीढ़ी से नीचे ही जूते खोल दिए और चल पड़े अंदर! अंदर आये तो सामने ही बैठे थे श्री जी! मैंने प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़े, और बढ़ चला आगे! वो खड़े हुए और मैंने उनके चरण छुए! बाबा शाल्व भी संग थे, उनके भी चरण छुए!
''आओ, बैठो!" बोले वो,
आज्ञा मिली, तो बैठ गए हम!
"कब आ गए थे?" पूछा उन्होंने,
"ढाई बजे!" कहा मैंने,
"सब कुशल-मंगल?" पूछा उन्होंने,
''आपका आशीर्वाद है!" कहा मैंने,
''और आप शर्मा जी?" पूछा उन्होंने!
"सब आशीर्वाद है आप सभी का!" बोले वो!
अब और भी बातें हुईं! कुछ नयी, कुछ पुरानी, कुछ मैंने कही, कुछ उन्होंने सुनी, कुछ उन्होंने कही, कुछ मैंने सुनी!
"कौन है ये सरणू?" पूछा बाबा शाल्व ने!
तब मैंने बता दिया उहें सब! उन्होंने सुना सब क़िस्सा!
"कन्या को लाये हो?" बोले बाबा शाल्व,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कल बात करेंगे उस से!" बोले वो,
और तब बात छिड़ गयी बालू नाथ की! उस गोलाघाट वाले औघड़ बाबा बालू नाथ की!
"तुमने देखा किसी ने उसको?" पूछा बाबा ने!
"नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"गोलाघाट?" पूछा उन्होंने,
"जी!" कहा मैंने,
"यहां कौन है वहां से?'' पूछा श्री जी ने, शाल्व बाबा से!
"वहां से तो कोई नहीं!" बोले वो,
"मालूम करो!" बोले वो,
"कल करवाते हैं!" बोले वो,
"महावैष्णवी ही बताया था न?" बोले श्री जी!
"जी!" कहा मैंने,
"कोई चिंता नहीं!" बोले वो,
अब जैसे ही उन्होंने कोई चिंता नहीं कहा, मेरी तो सारी चिंताएं ही चिता बन गयीं! जब उन्होंने कह दिया, तो काहे की चिंता!
"महावैष्णवी विद्याएँ संचरित किया करती हैं, प्रत्यक्ष मृतात नहीं!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई भय नहीं!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"कल इस विषय में बताता हूँ!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"आज विश्राम करो!" बोले वो,
"जैसी आज्ञा!" कहा मैंने,
और हम दोनों, चरण छू उनके, आ गए बाहर! अब खुश था मैं! बहुत खुश!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अगले दिन, मेरा अधिकतर समय वहीँ कटा! मैं उधर बने मदिर भी गया, घंटे भर से अधिक रहा मैं, मुझे उस दिन बहुत सी बातें इन महावैष्णवी के विषय में जानने को मिलीं! कुछ नए तथ्य और कुछ नए से गूढ़ रहस्य! मुझे कुछ नियमों का पालन भी करना था, मूल रूप से, मेरे पास जो कुछ भी था, उस समय, वो श्री जी की देन ही था, ऐसे मेरी झोली भर दी थी उन्होंने! क्या करना है, क्या नहीं, ये सब बता दिया गया था! जो जो आवश्यकताएं थीं, वे भी पूर्ण कर ली गयी थीं! स्मृति-मंत्र आदि का संधान कर लिया गया था!
इस प्रकार, चार दिन जैसे मुझे यहां प्रशिक्षण मिलता रहा, मैं एक एक शिक्षा को गाँठ बांधे जाता था! और कैसे करना है, ये भी जाने जाता था! क्या क्या आवश्यकता है, ये भी जान लिया था!
पांचवें दिन, मैंने वहां से आज्ञा ले विदा ली, मुझे उस परिणाम के बाद, यहां लौट कर आना था, एक पूजन था, वो पूर्ण करना था इसीलिए! वो पूजन त्रयोदशी से आरम्भ हो, अमावस तक होना था! गुरुजनों का आशीर्वाद ले, हम वहां से लौट पड़े थे! थकाऊ यात्रा के बाद, संध्या समय हम वहां आ पहुंचे थे! अब मुझे कुछ काम थे यहां, जो बलदेव की सहायता से पूर्ण करने थे! अब चूंकि संध्या बीत ही चुकी थी, अतः अब कल ही बात करना उचित था, और ऊपर से, थकान भी बहुत थी! इसीलिए, कल बलदेव से सम्पर्क करना ही ठीक था! रिपुना को उसकी जगह पहुंचा दिया गया था! और हम अपनी जगह आ गए थे, भोजन किया और सो गए उसके बाद!
अगला दिन...
रिपुना को इत्तिला कर दी थी हमने, बता दिया था कि हम बलदेव के पास जा रहे हैं, काम है, निबटा कर ही आएंगे! हम करीब दस बजे ही वहां आ पहुंचे थे, सुबह का वक़्त था, रास्ता साफ़ ही मिला था, इसीलिए कोई देर नहीं हुई थी!
हम आये बलदेव के स्थान तक, और अंदर चले, अंदर बैठे, बलदेव कहीं गया हुआ था, करीब आधे घंटे में वापसी होनी थी, तो हमने इंतज़ार किया, और कुछ कर ही नहीं सकते थे उसके अलावा!
करीब पौन घंटे के बाद, बलदेव वहां लौटा! हमारी मुलाक़ात हुई, चाय आदि हम ले ही चुके थे! हाल-चाल जानने के बाद, हमने बात करनी शुरू की!
"लौट आये?" बोला वो,
"हाँ! कल आये!" कहा मैंने,
"उद्देश्य पूर्ण?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोला वो,
"हाँ, अब कुछ काम है आपसे!" कहा मैंने,
"कहिए?" बोला वो,
"मुझे एक साधिका चाहिए!" कहा मैंने,
"अच्छा, मिल जायेगी!" बोला वो,
"मिलवाइये!" कहा मैंने,
''अभी ले चलता हूँ!" बोला वो,
कुछ हिसाब-किताब सा तय हुआ! कुछ दान आदि, ये आवश्यक हुआ करता है, साधिका का महत्व कहीं से भी नकारा नहीं जा सकता, उस समय, साक्षात शक्ति-स्वरूप हो, वो आपके संग रहती है! सतत पूजन हुआ करता है उसका! बलदेव को, साधिका के पूर्णत्व के विषय में ज्ञात ही था, अतः, उसे अधिक समझाने की आवश्यकता नहीं पड़ी, अब वो जिसका प्रबंध करता वो पूर्ण ही होती, फिर भी, यदि जांच होनी थी, तो मैंने करनी थी! उसके बाद, उसको कुछ नियम-पालन करना था, और इस प्रकार, वो तटस्थ हो, मेरे संग उस द्वन्द में बैठ जाती, तटस्थ, साधिकाएं सदैव तटस्थ ही हुआ करती हैं, उनपर वार नहीं किया जा सकता, जो इस नियम का पालन नहीं करे तो तब आप भी किसी नियम को भंग कर सकते हैं!
कुछ ही देर में, वो वैन आ गयी, और हम उसमे बैठ गए, वैन वाले को समझाया गया और उसने समझ कर, हामी भरी, चल पड़े हम बलदेव की बताई हुई जगह के लिए! करीब चालीस मिनट हम चलते रहे, एकांत सी जगह थी वो! दूर दूर तक खेत-खलिहान से थे वहां, बीच बीच में इक्का-दुक्का आश्रम, डेरे आदि दीख पड़ जाया करते थे, रास्ते अच्छे थे, भले ही संकरे थे लेकिन थे तो ठीक ही, कोई दिक्कत नहीं हो रही थी उन पर, और फिर हमारी गाड़ी भी जैसे अभ्यस्त थी उन रास्तों की, ड्राइवर वैसे ही कुशल था चलाने में! बम बम भोले का गाना बजे जा रहा था और हम वही सुनते हुए आगे बढ़े जा रहे थे, तभी एक जगह गाड़ी को रुकने के लिए कहा बलदेव ने, गाड़ी रुकी, उसने अपना फ़ोन निकाला, और एक नंबर मिलाया, बात की किसी से, फ़ोन काटा और फिर से गाड़ी आगे बढ़ चली, गाड़ी एक जगह से दायें हुई! और हम चल पड़े, खुला सा रास्ता था ये! पेड़ ही पेड़ लगे थे, मुझे तो कोई उपवन सा लगा रहा था, कोई आबादी दीख ही नहीं रही थी, न ही कोई मानव-निर्मित निर्माण ही!
"ये क्या है?'' पूछा मैंने,
"ये सरंक्षित स्थल है!" बोला वो,
"नदी किनारे का?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"यहां डेरे?" पूछा मैंने,
"नहीं, यहां नहीं!" बोला वो,
''फिर?" कहा मैंने,
"ये छोटा रास्ता है!" बोला वो,
"ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
"यहां तो कोई निर्माण सम्भव ही नहीं!" बोला वो,
"हाँ, हरित-प्रदेश सा लगता है!" कहा मैंने,.
"हाँ जी!" बोला वो,
"आगे आये, तो एक और सड़क मिली, यहां निर्माण दिख रहा था!
"बस दो किलोमीटर और!" बोला वो,
"बड़ी दूर!" कहा मैंने,
:घूम कर आना पड़ता है दरअसल!" बोला वो,
''अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"पुल होता तो दस किलोमीटर भी नहीं!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बजरंगी अखाड़ा!" बोले शर्मा जी!
"हाँ जी!" बोला बलदेव!
"यहां तो यहीं हैं?" बोले वो,
''अधिकाँश!" कहा उन्होंने,
"जगदीश?" बोला बलदेव,
"हाँ?" बोला चालक,
"आगे से ले जाना!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
आगे चली गाडी, एक तिराहा सा आया, और हम उसमे चल दिए!
''यहाँ से आगे!" बोला वो,
"कमल के पास?" बोला चालक,
"उस से आगे!" बोला वो,
''अच्छा, समझा!" बोला वो,
"पुराना जानकार है आपका ये जगदीश!" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी!" बोला वो,
"तभी तो जानता है!" कहा उन्होंने,
"ये ही जाता है अक्सर!" बोला वो,
''वो, सामने, वहीँ!" बोला बलदेव!
''अच्छा, चिंतपूर्णी के पास! उधर?" बोला वो,
''हाँ! वहीँ लगा देना!" बोला बलदेव!


   
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श्रीशः उपदंडक
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गाड़ी रुकी, और हम माँ चिंतपूर्णी मंदिर के साथ में जा कर, खड़े हो गए! खुली खुली जगह थी ये! बड़े बड़े शीशम और पीपल के पेड़ लगे थे, आश्रमों के मंदिर दीख रहे थे, सजी हुई दीवारें और ध्वजाएँ! पीले रंग से लीपे हुए थे सभी! कोई तीर्थ-स्थान सा लगता था ये! जैसे कोई विशेष तीर्थ-स्थल हो और यहां यात्रीगण, विश्राम करने के लिए आसरा लेते हों! चौड़ी चौड़ी सड़कें! और शुद्ध सा माहौल! कोई कोई स्थान, अत्यंत ही मनमोहक हुआ करता है, जहा मन अपने आप ही प्रफुल्लित हो उठता है, ये ऐसी ही जगह थी!
''आइये!" बोला बलदेव!
'हाँ, चलिए!" कहा मैंने,
"इधर से!" बोला बलदेव,
"अच्छा!" कहा मैंने,
उसने चालक को कुछ समझाया और फिर चल पड़ा हमारे साथ!
"ये एक जानकार हैं हमारे!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"बेहद भले आदमी हैं!" बोला वो,
''अच्छा जी!" कहा मैंने,
"यहीं आये हैं हम!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"रास्ते में, इन्ही से बात हुई थी हमारी!" बोला वो,
''अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"आइये, वो देखिये, श्री चंडी लिखा है न? वही है!" बोला वो,
"हाँ, अच्छा!" कहा मैंने,
और तब हम, उस स्थान के पास आये, दरवाज़ा बड़ा था, किसी से बात हुई, दरवाज़ा खुला और हम अंदर आये! बहुत ही प्यारी जगह थी! जैसे मध्य-युगीन भारत में आ गए हों हम! झोंपड़ियां बनी थीं! मवेशी बंधे थे! पानी की हौदियां थीं वहां! नांद थीं! कुछ महिलाएं, काम कर रही थीं वहां! दूर आगे कुछ, पक्का सा निर्माण था! अशोक के पेड़ लगे थे, बड़े ही प्यारे! एक दूसरे का आलिंगन करते हुए!
"बहुत ही सुंदर जगह है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला बलदेव!
"शानदार पेड़ लगाये गए हैं!" कहा मैंने,
''वो पीली केलियों की कतार तो देखिये!" बोले शर्मा जी!
''वाह!" कहा मैंने,
''और वो देखिये!" बोला बलदेव!
एक बहुत विशाल बरगद का पेड़! नीचे नीले रंग को बिखेरती हुईं केतकियां! स्वर्ग जैसा माहौल! जी करे, बस वहीँ के हो कर रह जाएँ!
''आइये!" बोला वो,
''चलिए!" कहा मैंने,
तब हम एक पक्की सी जगह आ गए! यहां अभी निर्माण कार्य चल ही रहा था, शायद कक्ष बन रहे थे कुछ नए! बल्लियां पड़ी थीं वहां!
"सामने ही!" बोला वो!
"चलो!" कहा मैंने,
एक बड़े से पेड़ के नीचे से गुजरते हुए, हम एक अहाते में आ गए! वहां एक आदमी मिला, उस से बात हुई बलदेव की, वो आदमी खुद ही चल पड़ा हमारे साथ, उन सज्जन से मिलवाने के लिए! ले आया कक्ष तक! यहां पूजन-स्थल था! इस्तेमाल हुए, हुए फूल आदि पड़े थे, उनको महिलायें इकट्ठा कर रही थीं! आगे चले थोड़ा तो आदमी एक कक्ष में अंदर गया, वापिस आया और बुला लिया हमें! हमने जूते खोले और अंदर चले! अंदर, एक प्रौढ़ सा व्यक्ति बैठा था, हमने नमस्कार की! बलदेव से बड़े मिलनसार हो कर बात की उसने! पानी मंगवाया गया, और फिर बलदेव ने समय न गंवाते हुए, काम की बात कह दी, उसने सुना और तब बाहर गए स्वयं ही, किसी को बुलाया, एक महिला आई, उसे से बात की, बलदेव को देखा, और फिर बलदेव ने मुझे इशारा किया कि मैं उस महिला के साथ जाऊं!
मैं आया बाहर, जूते पहने और चल पड़ा उस महिला के साथ, वो महिला आगे आगे चलती रही, और मैं पीछे पीछे, आगे जाकर, एक कक्ष में मुझे बिठा दिया गया, और महिला ने मुझसे बात की फिर,
"मैं लाती हूँ बुलाकर!" बोली वो,
"जी!" कहा मैंने,
''आप बैठिये!" बोली वो,
"बैठा हूँ!" बोला मैं,
वो चली गयी बाहर!
मैंने आसपास देखा, वो कमरा किसी स्त्री का ही रहा होगा, स्त्री के परिधान ही पड़े थे वहां, कुछ श्रृंगार आदि की वस्तुएं ही थीं, कोने में, एक गद्दा पड़ा था, और कक्ष में दो मूढ़े थे, जिनमे से एक पर मैं बैठा था! करीब पांच-सात मिनट के बाद, वो महिला एक लड़की को लेकर आई, लड़की दरम्याने कद की, सांवली सी थी, आयु में अठारह या उन्नीस की, मेरे हिसाब से वो कमज़ोर थी, मैंने देखते ही मन ही मन, मना कर दिया था उसे, वो महिला उसे छोड़, चली गयी, वो वहीँ खड़ी रही!
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"कविता!" बोली वो,
"कविता! क्या उम्र है?" पूछा मैंने,
"इक्कीस" बोली वो,
"कविता, कोई और नहीं है यहां, तुम्हारे अलावा?" पूछा मैंने,
"है" बोली वो,
"तुम जाओ, और भेजो किसी और को!" कहा मैंने,
मेरा उत्तर जान, वो मेरा आशय समझ गयी थी, मैंने मना कर दिया था उसको! वो  गयी तो वही महिला फिर आ गयी,
"नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
और फिर लौट गयी!
इस बार, दस मिनट के बाद आई वो, एक और लड़की को लेकर! छोड़ गयी उसे उधर, उसमे और कविता में कोई विशेष अंतर नहीं था! ये बस, थोड़ी सी मांसल थी, और कुछ नहीं!
"क्या नाम है?" पूछा मैंने,
"विद्या" बोली वो,
"किसी क्रिया में भाग लिया है?" पूछा मैंने,
"दो में" बोली वो,
"किस में?" पूछा मैंने,
अब उसने जो बताया, वो मेरे किसी काम का न था!
"कोई और नही है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"ठीक, जाओ आप!" कहा मैंने,
मैं उठ खड़ा हुआ, आया बाहर, तो वो महिला आ गयी!
"क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"पूजन नहीं?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा" बोली वो,
और ले चली मुझे वापिस, छोड़ा उधर,  कक्ष में अंदर आया, बैठ गया!
"हुआ?'' पूछा बलदेव ने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोला वो,
"चंचल के पास चले जाओ!" बोले वो सज्जन!
'हाँ, वहीँ जाएंगे!" बोला वो,
"वहाँ हो जाएगा काम!" बोले वो सज्जन!
"हाँ, आओ जी!" बोला बलदेव!
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
अब नमस्ते हुई, और हम लौट पड़े वापिस!
"क्या हुआ?" पूछा बलदेव ने!
"कोई भी 'ज्ञ' नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा, समझा!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''चंचल के पास चल रहे हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वहां आते हैं बड़े बड़े!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,


   
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