अब मुझे रक्षण करना था! सबसे पहले तो उस रिपुना का, मेरा और शर्मा जी का तो वो, खैर, क्या बिगाड़ता! हाँ, रिपुना की सबसे कमज़ोर कड़ी थी और उसका रक्षण ही मेरे लिए सर्वोपरि था उस समय तो! ये रक्षण मारन का था, कोई प्रेत-प्रश्न नहीं था, रक्षण हेतु दो वीरों का संधान और ध्यान किया जाता है, एक तो चाकर-वीर(श्री हनुमान जी) का और एक कालिया वीर का! अब चूंकि ये प्रेत का मामला नहीं था, अतः चाकर-वीर की आवश्यकता नहीं था, इसके लिए कालिया वीर को ही ध्याया जाना था! कालिया वीर श्री भैरव नाथ जी के वीरों में से एक वीर हैं! उनके महावीरों में से एक के वीर! अचूक फलदाता हैं! मारण को भंग करने में, क्षण ही लगाते हैं! समय लगता है तो बस इनको ध्याने में! तो मैंने उनका ही ध्यान किया! मंत्र पढ़े और ध्याता चला गया! कुल पच्चीस मिनट में ये सब पूरा हुआ, अब समय था भोग का, उस मुर्गे के भोग का! अब उसको निकाला बाहहर झोले से, पांवों से पकड़ा उसे, मंत्र पढ़े उसकी मुक्ति हेतु, अपराध क्षम्य हो, ऐसा अनुनय किया जाता है, सो मैंने किया! और फिर उसकी कलगी पकड़ कर, एक ही बार में खंजर से उसका सर अलग कर दिया, रक्त को उस पानी वाले पात्र में इकट्ठा कर लिया, सर को, अपने माथे से छुआ कर, सामने नदी में फेंक दिया! जब रक्त बहना शांत हो गया तब, उसको साफ़ कर लिया, कलेजी बाहर निकाल ली, अंतड़ियां नदी में फेंक दीं, और फिर से उस कपड़े पर आ बिठा! अब रक्षण-मंत्र पढ़े और भोग अर्पित किया! इसमें कुल बीस मिनट लगे! अब उठ कर मैंने स्थान को नमन किया, और क्रिया पूर्ण हुई थी सफलतापूर्वक!
उस मुर्गे को लिया और तब सामान समेटा! आया शर्मा जी तक,
"ये पकड़ो, रखो आप, मैं आया अभी!" कहा मैंने,
"लाइए" बोले वो,
दिया सामान उन्हें और चल पड़ा मैं नदी की तरफ, हतः-मुंह साफ़ किये, केशों में पानी लगाया और फिर आ गया वापिस, अब तक शर्मा जी ने सारा सामान बाँध दिया था!
"चलें?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"इसका क्या करें?" बोले वो,
"दे दो किसी को!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
वापसी आते हुए, वही पाँचों मिल गए! उनसे बात हुई और दे दिया मुर्गा उन्हें! उन्होंने तो हंस-खुश हो, रख लिया उसे! नमस्कार हुई और हम चल पड़े वापिस!
"अब कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"अस्पताल चलते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
रास्ते से कुछ फल ले लिए थे, अस्पताल पहुंचे, तो रिपुना की रंगत में बेहद फ़र्क़ आ गया था, तमल कट चुका था और अब जान पड़ने लगी थी उसमे!
मित्रगण! उसने हम पर विश्वास किया था, ये क्या कम था? कोई स्त्री ऐसे ही किसी पर-पुरुष पर विश्वास नहीं करती, न कर सकती, वो जानती है, पुरुष की वृति, नज़र और उद्देश्य को! ये उसका जन्मजात गुण है! जिस से पुरुष वंचित हैं!
हम पहुंचे वहां पर तो सीमा उठ कर बाहर चली गयी थी!
'अब कैसी हो?" पूछा मैंने, फल रखते हुए,
"अब ठीक हूँ!" बोली वो,
"डॉक्टर्स क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"दो दिन और, और फिर छुट्टी!" बोली वो,
"वाह!" कहा मैंने,
"अब कमज़ोरी भी नहीं है!" बोली वो,
"अब नहीं होगी!" कहा मैंने,
"वैसे क्या हुआ था?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं बताओगे?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मुझे कुछ तो मानते हो न?' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो बताइये?" बोली वो,
अब, बता दिया उसे! वो नहीं घबराई!
"मुझे तो पता था!" बोली वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"दीदी ने कहा था!" बोली वो,
"कि ये ऐसा करेगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''अब जाने दो! अब कुछ नहीं कर पायेगा!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ, अब दो दिन बाद, चलो वापिस, अपने काम पर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
''आराम करना, दो हफ्ते!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
उसके बाद और भी बातें हुईं, और हम वापिस हो गए फिर!
दो दिन बीत गए! कृपा जी भी आ गए थे, अपने साथ एक महिला को लाये थे, जो अब निरंतर उसकी देखभाल करती!
और फिर, दो दिन बाद, छुट्टी मिल गयी उसको, ले आये हम उसको उसके ठहरने की जगह पर! सारा इंतज़ाम करवा दिया गया था!
उसी शाम...
"कल निकल जाएँ हम?" पूछा मैंने,
'वापिस?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और रुको ना?" बोली वो,
"जाना तो फिर भी होगा!" कहा मैंने,
"मैं पूरी ठीक हो जाऊं!" कहा उसने,
"चलो, दो तीन दिन और!" कहा मैंने,
खुश हो गयी! देखते ही बनती थी ख़ुशी!
"अच्छा सुनो?'' कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कल मैं जाऊँगा कहीं!" बोला मैं,
"कहाँ?'' पूछा उसने,
"कुछ काम है!" कहा मैंने,
"किस से?" पूछा उसने,
"अरे है कोई!" कहा मैंने,
''और वापसी कब?' बोली वो,
"यही बता रहा था!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"कि शायद कल न लौट पाऊँ!" बोला मैं,
"क्यों?" तपाक से पूछा,
"काफी दिनों के बाद मिलूंगा!" कहा मैंने,
"अब यही कौन वो?" पूछा उसने,
"अरे है भाई!" कहा मैंने,
"जल्दी नहीं आ सकते?" पूछा उसने,
"कोशिश करूंगा!" कहा मैंने,
"पक्का?" बोली वो,
"नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
"करना!" बोली वो!
"अच्छा!" कहा मैंने,
मुझे अगले दिन जाना था किसी से मिलने, एक बुज़ुर्ग बाबा हैं, बाबा हरदेव, उन्ही से मिलने जाना था, कोई छह महीने पहले उनसे मुलाक़ात हुई थी, उनके बाएं हिस्से में, बदन के, लकवा सा मार गया था, बेहद परेशान थे, उन्ही की खैर-ख्वाही जाननी थी, और उधर ही पास में, शोभना का आवास भी था, शोभना से मिले हुए भी एक अरसा हो चला था, हालांकि फ़ोन पर बातें हो जाती थीं! शोभना उस समय, एक विद्यालय चला रही थी, साथ में ही महिला कल्याण केंद्र में अहम भूमिका भी निभा रही थी! तो उस शाम के बाद, रिपुना को भोजन करवाया, दाल और खिचड़ी दी गयी, कमज़ोरी तो थी ही उसे, कुछ दिन ऐसे ही सावधानी से रहना था उसे, और इस तरह, हम भी करीब नौ बजे, वापिस हो लिए थे वहां से!
"अच्छा!" बोले शर्मा जी,
"हैं? क्या अच्छा?" पूछा मैंने,
"यूँ कहो न कि शोभना से मिलना है!" बोले वो,
"हाँ, मिलना तो है!" कहा मैंने,
"हुम्म्म!" बोले वो,
शर्मा जी अक्सर, मुझे शोभना का नाम ले ले, चिढ़ाते ही रहते थे, कभी कैबिनेट-मिनिस्टर कहते थे उसे, और कभी कुछ और कभी कुछ!
"अब इसमें हुम्म्म की क्या ज़रूरत?" पूछा मैंने,
"हुम्म्म! इसका मतलब, कल की रात वापसी न होगी!" बोले वो,
''ऐसा नहीं है!" कहा मैंने,
"अरे भाई जी! जानते हैं हम! बुकलाओ मत!" बोले वो,
मेरे शब्द, मुझ पर ही इस्तेमाल कर रहे थे!
''अच्छा, देख लेना!" बोले वो,
"नहीं यार, रुकने का समय नहीं है, आना ही होगा!" कहा मैंने,
"देख लेते हैं! मैं तो चादर ले ही जाऊँगा!" बोले वो, हँसते हुए!
"ले जाना, मना थोड़े ही किया है?" पूछा मैंने,
"हुम्म्म!" बोले फिर से!
"अब भोजन कर लो यार, पीछे ही पड़ गए आप तो!" कहा मैंने,
"भोजन तो हो ही जाएगा! फ़ोन तो कर लो? मिलाऊँ?" पूछा उन्होंने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ओ! चौंकाओगे इसका मतलब!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"जैसी आपकी मर्ज़ी!" बोले वो,
और कुछ ऐसी ही बातें चलती रहीं, भोजन कर लिया, हाथ-मुंह धो लिए, कल के लिए कपड़े भी निकाल लिए, और करीब साढ़े ग्यारह बजे, जा सोये! कार्यक्रम यही बना था कि सुबह ही निकल जाएँ तो अच्छा रहेगा! पहले बाबा हरदेव के पास, और फिर कुछ समय शोभना के पास!
हुई सुबह, हुए निवृत, पी चाय, और निकल पड़े! पंडित जी को बोल दिया था कि शायद रात को न लौट सकें, चाबी दे ही दी थी उन्हें! और निकल पड़े हम!
"अरे?" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
''ऐसे लम्बे लम्बे डिग?" बोले वो,
मुझे आई हंसी! बोलने को तो बोल सकता था, लेकिन बोला नहीं, नहीं तो हो जाते शुरू और एक एक शब्द में मीन-मेख निकालते रहते!
"जल्दी चलो यार!" कहा मैंने,
"तो दौड़ क्यों रहे हो?" बोले वो,
"कहाँ दौड़ रहा हूँ?" बोला मैं,
"आराम से! आराम से! अभी लग जाएंगे दो ढाई घंटे!" बोले वो,
मैं फिर से हंसा! हम आ गए थे सड़क तक, अब ली सवारी और चल बस-अड्डे, यहीं पर चाय पी और बस ले ली! निकल पड़े हम अब बाबा हरदेव के पास जाने को! दो घंटे के बाद, हम वहां जा पहुंचे!
बाबा से मुलाक़ात हुई, स्वास्थय-लाभ कर रहे थे, बड़े ही खुश हुए मिल कर! उनका पुत्र भी वहीँ मिला, उस से भी मिले! चाय-नाश्ता भी किया, और करीब डेढ़ दो घंटे के बाद, हम निकल पड़े वहां से!
"तो अब असली मंज़िल?" बोले वो, हँसते हुए!
"जी!" कहा मैंने,
"ओहो!" बोले वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोले वो,
ली जी वहां से एक सवारी, और चल पड़े, करीब पौने घंटे में हम उधर आये, अब मिलाया मैंने फ़ोन! और की बात! और जब शोभना को पता चला, कि हम आ ही चुके हैं, झट से फ़ोन काट दिया! और हम आगे बढ़ चले! पहुंचे उधर, वो नीचे ही खड़ी थी! इंतज़ार करती हुई! शोभना के साथ बीता वक़्त मैं नहीं भूल सकता! वही सब दिन और लम्हात, आँखों के सामने घूम गए! वहां पहुंचे तो शर्म अजी से नमस्कार हुई उसकी, शर्मा जी ने भी सलामती पूछी उस से, और फिर वो हमें, एक कक्ष में ले गयी, दूसरे तल पर था ये कक्ष! आराम करने के लिया अच्छा कक्ष था वो!
"आई अभी!" बोली वो,
"कहाँ चलीं?" पूछा मैंने,
"आती हूँ!" बोली वो,
और दौड़ चली बाहर!
साथ उसके एक लड़की आई, पानी लिए हुए, पानी दिया गया हमें और हमने पिया पानी! रख दिए गिलास वापिस,
"शोभना?'' कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"वाश-बेसिन कहाँ है?" पूछा मैंने,
"इधर, बायीं तरफ!" बोली वो,
"आया मैं!" कहा मैंने,
"मैं भी आया!" बोले शर्मा जी,
''आ जाओ!" बोला मैं,
अब हाथ-मुंह धो लिए हमने, धूलम-धाल चिपक ही जाती है शहरों में, इसीलिए आँखें धो ली थीं! पोंछे चेहरे -हाथ और चले वापिस कमरे में, चाय आ चुकी थी, साथ में गरम गरम समोसे और मिठाई भी! पीने लगे हम चाय!
"और सुनाओ शोभना? कैसी हो?" पूछा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" बोली वो,
"काम-धाम ठीक है?" पूछा मैंने,
"फुर्सत ही नहीं!" बोली वो,
"चलो अच्छा है!" कहा मैंने,
"पढ़ाई भी कर ही ली आगे!" बोली वो,
"बताया था तुमने, अच्छा किया!" कहा मैंने,
चाय पी ली, मिठाई और समोसे भी खा लिए,
"अरे शोभना?" बोले शर्मा जी,
"जी?" बोली वो,
''आराम करना है!" बोले वो,
"जी, आप आराम कीजिये, हम दूसरे कक्ष में जाते हैं!" बोली वो,
"मैं चला जाऊं?" पूछा उन्होंने,
"आप आराम करें!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो, और खोले जूते!
''आइये!" बोली शोभना!
आ गए दूसरे कमरे में, यहां भी ठीक वैसा ही सामान था रखा हुआ!
"ये क्या विश्राम तल है?" पूछा मैंने,
हंस पड़ी वो! और मुझे बिठा दिया एक कुर्सी पर! आप खड़ी ही रही!
"बैठो?" बोला मैं,
''एक शिकायत है!" बोली वो,
"क्या शोभना! हमेशा शिकायत!" कहा मैंने,
"हाँ, एक बड़ी वाली शिकायत!" बोली वो,
"अब वो क्या?" पूछा मैंने,
"मुझे खबर क्यों नहीं की?" बोली वो,
"जल्दबाजी में आना हुआ!" कहा मैंने,
"तो जल्दबाजी में ही बता देते?" बोली वो,
"अच्छा! हो गयी गलती!" कहा मैंने,
"कौन सी?" पूछा उसने,
"पहले बैठो तो सही!" कहा मैंने,
"अनगिनत गलतियां!" बोली वो,
"छोड़ो भी अब! ये बताओ, क्या चल रहा है?" कहा मैंने,
"ये बातें छोड़ दो अब!" बोली वो,
"जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!" कहा मैंने,
"वैसे काम था यहां कोई?" पूछा उसने,
और तब मैंने उसको बता दिया सारा माज़रा! सारी कहानी!
"अब कैसी है?" पूछा उसने,
''अब तो ठीक है!" कहा मैंने,
"कोई परेशानी तो नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं उसकी समस्या समझ सकती हूँ!" बोली वो,
"इसीलिए बताया!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"और कल्पशिखा से बातें हुईं?" पूछा मैंने,
"हाँ, होती रहती हैं!" बोली वो,
"ठीक है?" पूछा मैंने,
"हाँ, पिछले महीने आई थी मिलने!" बोली वो,
"अच्छा, मेरी तो बात ही नहीं हुई उस से, छह माह हो गए होंगे!" कहा मैंने,
हल्का सा मुस्कुरा गयी वो,
''अच्छा, खाना? बताइये?" पूछा उसने,
"कुछ भी खिला दो!" कहा मैंने,
"बताइये तो?" बोली वो,
"कुछ भी!" कहा मैंने,
''अच्छा! ठीक! आई अभी!" बोली वो,
और चली गयी बाहर!
और मैं दीवार पर लटकी उस चित्रकारी को देखने लगा जिसमे माँ सरस्वती का चित्र बना था! उनकी वीणा में, सितारे जड़े थे! माथे की बिंदिया में भी! मैं उठा, बायीं तरफ की खिड़की से बाहर झाँका, एक पुराना सा मकान था वहां, आम के पेड़ लगे थे, कोई नज़र नहीं आ रहा था, शायद जगह खाली पड़ी थी, हाँ, एक दो वाहन खड़े थे वहां, एक जीप और एक पुरानी सी कार, उसके आगे, खाली ज़मीन पड़ी थी, बंजर सी, झाड़ियाँ लगी हुई थीं वहां! और कुछ नहीं!
"क्या देख रहे हैं?" आई उसकी आवाज़!
"कुछ नहीं, वो सामने!" कहा मैंने,
"यहां अस्पताल बनेगा!" बोली वो,
"अच्छा! प्राइवेट?" पूछा मैंने,
"सरकारी!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
मैंने गौर से देखा उसे, कुछ याद आया मुझे, उसके कुछ प्रश्न जो उसने किये थे, नज़रें मिलीं तो उलझीं और मुझे सबकुछ याद हो आया!
"तुम, अभी तक ठीक वैसी ही हो शोभना!" कहा मैंने,
''अच्छा?" बोली वो,
"हाँ, वही रूप, वही वाणी, वही अंदाज़ और वही चपलता!" कहा मैंने,
"नहीं बदलना चाहिए ना?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं बदलेगा फिर!" बोली वो,
"कभी याद नहीं आती, उधर की?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"कोई आता है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"फिर ठीक है!" कहा मैंने,
"एक बात पूछूं?" बोली वो,
''आप दो पूछो!" कहा मैंने,
''एक ही बहुत है!" बोली वो,
"हाँ, पूछो!" कहा मैंने,
"मैं वहीँ हूँ?" पूछा उसने!
बड़ा ही गहरा और वजनी सवाल! मैंने सुना, और हल्का सा मुस्कुराया!
"हाँ! वहीँ हो!" कहा मैंने,
''आज भी?" बोली वो,
"कल भी रहोगी!" कहा मैंने,
अब वो मुस्कुराई!
''आओ, बैठो यहां!" कहा मैंने,
"ऐसे सवाल नहीं पूछा करते, समझे?" पूछा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"मैंने कहा न था? कि अकेला न समझना कभी अपने आप को!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"फिर ऐसे सवाल क्यों?" पूछा मैंने,
''ऐसे ही!" लरज के बोली वो!
"पानी पिला दो ज़रा!" कहा मैंने,
''अभी!" बोली वो, उठी और चली बाहर, ले आई पानी, मैंने पिया और दे दिया गिलास वापिस, गिलास मेज़ पर रख दिया गया!
"कब तक हो यहां?" पूछा उसने,
"कल तक!" कहा मैंने,
"कल तक?" पूछा उसने,
"हाँ, कल शायद निकल जाऊं वापिस, रात को!" कहा मैंने,
"घंटे कभी दिन में तब्दील न हुए!" बोली वो,
मैं हंस पड़ा! उसको देख कर ऐसे कहते हुए, हंसी निकल आई मेरी तो!
'आज तो यहीं ठहरोगे?" पूछा उसने,
"नहीं, रिपुना की तबीयत खराब है!" कहा मैंने,
"तब नहीं रोकूंगी!" बोली वो,
"तुम्हें कोई ज़रूरी काम तो नहीं दफ्तर में?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हो अगर तो निबटा लो, मैं आराम कर लूंगा!" कहा मैंने,
"नहीं, आराम नहीं करने दूंगी!" बोली वो,
''अच्छा जी! ऐसे ही सही!" कहा मैंने,
ऐसे, वैसे बातें होती रहीं! और फिर एक लड़की आई, खाना तैयार हो गया था, तो मैं चला फिर, खाना शर्मा जी के पास ही लगाया था, हमने खाना खाया और फिर वहीँ मैंने आराम किया! तब तक, शोभना चली गयी थी, नीचे, शायद दफ्तर में, खाना खिलाने के बाद!
"तो यहीं रुकना है आज!" बोले वो,
"नहीं जी!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो, चश्मा साफ़ करते करते!
"हाँ, चलेंगे हम!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"बतला दिया?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कमाल हुई गवा!" बोले वो,
"काहे दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर डालते हो आप भी!" बोला मैं,
"और क्या डालूं?" बोले वो,
''आराम करो यार आप!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो, और लेट गए फिर!
"कब तक जाग जाऊं?" बोले वो,
"मैं जगा लूंगा!" कहा मैंने,
"ठीक है जी, जय राम जी की!" बोले वो, और ले ली करवट!
मैं उठा, और दूसरे कमरे में चला गया, जूते उतारे, पंखा चलाया और लेट गया! दिमाग में अभी भी सरणू के ही शब्द गूँज रहे थे! क्या करेगा वो अब और क्या नहीं! इसी उधेड़बुन में लगा रहा मैं! करीब आधे घंटे के बाद, शोभना आ गयी! चाय ले आई थी, चाय का समय था वैसे भी!
"कहाँ खोये हो?" पूछा उसने,
''अरे कहीं नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ तो है?" बोली वो,
"हाँ, वो सरणू!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कुछ नहीं होगा!" बोली वो,
''आदमी कमीन है वो!" बोला मैं,
"जान गयी हूँ!" बोली वो,
"ऐसे बाज नहीं आएगा!" बोला मैं,
"अब छोड़ो, मुझे यक़ीन है आपके ऊपर!" बोली वो,
"चलो, देखी जायेगी!" कहा मैंने,
"अच्छा, खाना खा कर ही निकलोगे न?" पूछा उसने,
"वैसे भूख तो नहीं है!" कहा मैंने,
"तब तक क्या भरोसा?" बोली वो,
"हाँ! ये तो सही कहा!" कहा मैंने,
शरारत, नज़रों की अदावत!
"वैसे, पांच बजे तक निकल जाएँ तो ठीक है!" कहा मैंने,
"जैसी आपकी इच्छा!" बोली वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
तभी फ़ोन बजा मेरा, उठाया, ये सीमा का नंबर था, बात हुई, रिपुना बोल रही थी, उसने भी यही पूछा कि कब तक आएंगे हम उसके पास! उसको घबराहट होने लगी थी! मैंने समझाया उसे, कहा कि सात-आठ बजे तक पहुँच जाएंगे, कोई घबराने की ज़रूरत नहीं है!
''रिपुना?'' पूछा उसने,
"हाँ, घबरा रही है!" बोला मैं!
''समझा देना, कह देना, कोई ज़रूरत नहीं घबराने की!" बोली वो,
"हाँ, समझ गया हूँ आशय!" कहा मैंने!
बहुत सी बातें हुईं, कुछ अंतरंग भी और कुछ भिन्न भिन्न विषयों पर, उसके बाद मैं सो गया था, शोभना अपने किसी काम से नीचे चली गयी थी, करीब पांच बजे नींद खुली, मंदिर में घंटे से बज रहे थे ऐसा लग रहा था! मैं उठा, हाथ-मुंह धोये, जूते पहने और चला शर्मा जी के पास, वे भी जागे हुए थे, और अखबार पढ़ रहे थे!
"खुल गयी नींद?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, आपकी कब खुली?" पूछा मैंने,
"बस कोई आधा घंटा हुआ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कब निकलना है?" पूछा उन्होंने,
"बस निकलते हैं अब!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"चाय पी जाए?" पूछा मैंने,
"हाँ जी, मन हो रहा है!" बोले वो,
"अभी कहता हूँ!" कहा मैंने,
बाहर गया, कोई नज़र नहीं आया, तब नीचे चलने लगा उतर कर, नीचे आया तो वही लड़की मिली, उसी से चाय की कह दी, वो चली गयी थी फिर रसोई के लिए, और मैं ऊपर आ गया फिर शर्मा जी की पास!
"कह दिया?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
तभी बाहर आवाज़ आई, ये शोभना थी, मुझे बुलाया तो मैं गया बाहर, दूसरे कमरे में,
"खाना?" पूछा उसने,
"भूख नहीं है!" कहा मैंने,
"सच में?' पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सच बताओ?" पूछा उसने,
"यक़ीन मानो, सच में!" कहा मैंने,
"शर्मा जी से पूछ लो?' बोली वो,
"अभी पूछ लेता हूँ!" कहा मैंने,
मैं गया और पूछा उनसे, उन्होंने भी मन कर दिया, पेट वैसे ही भरा हुआ था हमारा! मैं वापिस आ गया शोभना के पास!
"क्या कह रहे हैं?" पूछा उसने,
"मना ही कर रहे हैं!" कहा मैंने,
"कुछ मंगवा दूँ? आलू-पूरी, कचौड़ी?'' पूछा उसने,
"अरे मेरी शोभना! क्यों इतनी चिंता कर रही हो! खाना होगा तो हक़ से कह दूंगा! मुझे जाना है, नहीं तो कुछ समय ज़रूर ही बिताता तुम्हारे साथ!" कहा मैंने,
"सच?" बोली वो,
"मैं तो थक गया हूँ हाँ हाँ कहते कहते!" कहा मैंने,
खिलखिला कर हंसी वो!
"अब किसी का जी बहल जाए हाँ हाँ सुनते सुनते, सुनकर, तो कोई बुराई है?" पूछा उसने,
"नहीं जी, कोई बुराई नहीं!" कहा मैंने,
"तो बोलो हाँ!" बोली वो,
"हाँ जी हाँ!" कहा मैंने,
"चाय आ गयी शायद!" बोली वो,
"तो चलो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और हम चल पड़े शर्मा जी के कमरे की तरफ, चाय आई थी, साथ में कचौड़ी भी! आज तो खा खा के पेट भर गया था!
"लो!" बोली कप देते हुए मुझे,
"हाँ!" कहा मैंने,
बातें करते हुए, चाय पी, एक कचौड़ी खायी, उरद की दाल की! सब्जी बढ़िया थी, तीखी सी!
तो जी, हम निबट लिए! अब, वक़्त-ए-रुख़सती आन पहुंचा! शर्मा जी तो बाहर निकल गए, और मैं शोभना के साथ ही रुका रहा, हमेशा की तरह से, फिर से वही अलफ़ाज़! आऊंगा! ज़्यादा दिन नहीं! और समझा भी दिया! और इसके बाद, लौट पड़े हम! संग थोड़ा दूर तक चलने को कहा उसने, तो मना कर दिया, बार बार पीछे मुड़कर देखना अच्छा नहीं लगता!! इसीलिए!
तो हम दोनों आये अब बाहर सड़क तक, सवारी पकड़ी और चले बस-अड्डे, वहां पहुंचे, भीड़-भाड़! किसी तरह से जल्दी में ही चलने वाली बस मिल गयी, जा घुसे, अब थोड़ा धुंधलका छाने लगा था, रात करीब नौ तक भी पहुँच जाते तो गनीमत होती! करीब एक घंटा बीता होगा कि तेज अंधड़ चला! और उसके बाद फिर बरसात होने लगी! अचानक से ही! लेकिन मौसम सर्द हो गया था उस से!
करीब साढ़े नौ बजे हम वहां पहुंचे, अब बरसात नहीं थी, लेकिन हवा तेज थी! अब यहां से सवारी पकड़नी थी, अपने गंतव्य के लिए!
"सामान पड़ा है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो कुछ मसालेदार ले लें?" पूछा मैंने,
"मिल जाए तो ले लेते हैं!" कहा उन्होंने,
"आओ देखते हैं!" कहा मैंने,
"वहां देखते हैं!" कहा उन्होंने,
वहां भी गए, न मिला! तब एक ऑटो वाले से पूछा, तो बोला कि यहां तो मिलेगा नहीं, दूसरी जगह जाना होगा, अब क्या करते, तय कर लिया, पहले सामान और फिर सीधा वहीँ छोड़ देता हमें वो! यही किया! और इस तरह, साढ़े दस बजे, हम आये अपनी जगह वापिस!
"मौसम ठंडा हो गया है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"खाने का क्या करना है?" पूछा उन्होंने,
"यही बहुत है!" कहा मैंने,
"चलो बढ़िया!" कहा उन्होंने,
एक लड़का आया तो खाने को मना कर दिया!
"बनाओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम हुए शुरू!
अभी कुछ ही समय बीता होगा कि मुझे कुछ आभास हुआ! जैसे किसी की देख लड़ी हो! ऐसा अकिसे सम्भव था?
"पानी देना ज़रा?'' कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
अब फर्श पर एक ज़ीक़ा काढ़ा!
"ये पकड़ो!" कहा मैंने,
"लाओ!" बोले वो,
मैंने तब कुछ पढ़ा! और पता चला कि कोई देख या पकड़ नहीं पहुंची थी!
"देख पकड़ी क्या?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ, लेकिन है नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"वैसे अब मुझे कुछ खटका कग्ने लगा है!" बोला मैं,
"वो क्या?" पूछा उन्होंने!
"है कुछ!" कहा मैंने,
"समझ गया हूँ!" बोले वो,
"चलो देखा जाएगा!" कहा मैंने,
''और क्या!" बोले वो,
और इसके बाद, हम अपने काम में जुटे रहे!
सोने से पहले, फ़ोन आया शोभना का, उसे बता दिया कि हम रात साढ़े नौ ही पहुँच गए थे, मौसम खराब था इसीलिए ज़रा देर हुई फ़ोन करने में! उसके बाद फिर रिपुना का हाल जानने के लिए फ़ोन किया, सीमा ने उठाया था, बताया उसने कि उसकी तबीयत ठीक थी और अब उसकी आँख लग गयी, मैंने उसकी उठाना ज़रूरी और उचित न समझा, सुबह ही मिल लेते हम!
रात हुई, और हम सो गए थे! सुबह हुई, नींद ज़रा जल्दी ही खुली हमारी! कोई पांच का वक़्त रहा होगा, सुबह उठे तो तेज हवा चला रही थी, शायद रात को बरसात भी हुई थी!
स्नान-ध्यान से निबटे, छह बज गए, चाय मंगवा ली थी, हल्की सी रिमझिम फिर से पड़ने लगी थी! कुल मिलाकर, मौसम बेहद खुशगवार हो चला था! चाय आदि लेने के बाद, फिर से लेट गया मैं, शर्मा जी भी आ लेटे!
"बाहर तो गज़ब की बारिश है!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"बादल भी घने और काले हैं!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"दिन भर का कार्यक्रम है इनका तो!" बोले वो,
"लगता तो यही है!" बोला मैं,
"आज तो यहीं रहो फिर!" बोले वो,
"क्या करें अब!" बोला मैं,
ग्यारह बजे....
बारिश ने सांस ली कुछ, मौसम भी खुला, थोड़ा आकाश नीला दिखा, लगा कि शायद अब राहत मिलेगी, कुछ तो राहत मिली, अब तक, दो बार रिपुना के फ़ोन आ चुके थे, बात हो चुकी थी उस से, उसको बता दिया था कि हम रात को ही आ गए थे, मौसम ठीक नहीं था, इसीलिए सीधा वहां न आ सके!
खैर, अब मौसम ठीक था, तो हम निकल लिए थे उस से मिलने, वो जगह दूर नहीं थी, पास में ही थी, पैदल चलकर, आराम से जाया जा सकता था! तो जी, पैदल ही चले हम और जा पहुंचे उसके पास!
आज तो तरोताज़ा दिख रही थी! खूबसूरत सी! केश खुले थे उसके! हरे रंग का सूट, खूब फब रहा था उस पर! आँखों में मोटा मोटा कजरा अलग ही रौशन हो रहा था, नाक में पड़ा छल्ला बेहद ही प्यारा लग रहा था! हमें देखा तो जान में जान आ गयी उसके! और सही भी था, उसका उस समय और था भी कौन! हाँ, सीमा, वो महिला तो उसके साथ साये के मानिंद साथ लगी थी! मुझे सीमा बहुत ही अच्छी महिला लगी! परायापन नहीं था उसमे! अपनत्व से भरी थी! रिपुना को अपनी सगी बेटी के समान मान कर, जैसे उसकी सेवा में लगी थी! जी में जगह बना ली थी सीमा ने!
"कैसी ही रिपुना?'' पूछा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
''अच्छी बात है!" कहा मैंने,
"आप कैसे हैं?" पूछा उसने,
"तुम ठीक, तो हम ठीक!" कहा मैंने,
हंसा दिया मैंने उसे!
"नाश्ता कर लिया?" पूछा मैंने,
"हाँ, कब का!" बोली वो!
''और सीमा, आप कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" बोली वो,
"आपका बहुत बहुत शुक्रिया!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं! बेटी ही तो है मेरी!" बोली वो,
"हाँ, बेटी ही है!" कहा मैंने,
"रिपुना?" कहा मैंने,
"जी?" बोली वो,
"अब ख़याल रखना अपना!" बोला मैं,
"हाँ!" कहा उसने,
"आज तो नहीं, कल शायद हम लौट जाएँ वापिस!" कहा मैंने,
"अभी रुकिए ना?" बोली वो,
"अब चलने दो!" कहा मैंने,
"मैं ठीक नहीं हूँ!" बोली वो,
"अब ठीक हो!" कहा मैंने!
"ठीक है, जैसी आपकी मर्ज़ी!" बोली खुन्नस में!
"समझा करो!" कहा मैंने,
"समझ गयी!" बोली वो,
"अब चलूँगा मैं!" कहा मैंने,
"कब आएंगे?'' पूछा उसने,
"साँझ को!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
फिर से सीमा को कुछ समझाया और हम लौट पड़े! बाहर ए तो मौसम ने फिर से तुनकमिजाजी दिखा दी थी! अब रिमझिम होने लगी थी!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ये बारिश?" कहा मैंने,
"हम तो जहां जाते हैं, पीछे ही पड़ जाती है!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
हम आखिर में पहुंचे अपनी जगह! आराम से, बिस्तर पर चढ़ गए, शर्मा जी उठे और कुर्सी पर जा बैठे, तभी कोई पांच मिनट के बाद, फ़ोन बज उठा उनका, उन्होंने उठाया, स्क्रीन को देखा लेकिन चालू नहीं किया!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"ये कहाँ का नंबर है?" पूछा उन्होंने,
"कहीं का भी हो, बात करो!" कहा मैंने,
और अब जिस से बात हुई, उसका नाम था नेतराज! उसको कहाँ से नंबर मिला था, पता नहीं! किसने दिया था, पता नहीं! अब मैंने बात की उस से!
"हाँ?" कहा मैंने,
"कुछ ज़रूरी बात करनी है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
''आमने सामने, मिलकर!" बोला वो,
"यहीं बता?" पूछा मैंने,
"फ़ोन पर नहीं होगी बात" बोला वो,
"ठीक है, तू आएगा या मैं आऊं?" पूछा मैंने,
"मैं आ जाता हूँ?" बोला वो,
''आ जा! यहां आ जा!" कहा मैंने,
दे दिया उसको मैंने पता, जहाना हम ठहरे थे!
"काम क्या है?'' पूछा मैंने,
"मिलकर ही बताऊंगा!" बोला वो,
''आ जा, आराम से!" कहा मैंने,
"आज आ जाऊं?" बोला वो,
"हाँ, बारिश रुक जाए तो आ जा!" कहा मैंने,
"फ़ोन करूंगा पहले!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" बोला मैं,
और काट दिया फ़ोन!
"नेतराज?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हो गयी खाई?" बोले वो,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"क्या जो मैं समझ रहा हूँ, वही समझ रहे हो आप?" बोले वो,
"हाँ, ये तो मुझे शुरू से पता था!" कहा मैंने,
"अच्छा! आने दो फिर इसे, देखते हैं क्या सौगात लाता है!" बोले वो!
मुझे कहीं न कहीं ये आभास तो था कि ऐसा कुछ न कुछ तो होगा ही, या तो मध्यस्थता होगी, कोई मार्ग निकल जाएगा, कुछ समाधान हाथ लगेगा, या फिर अंत में मात्र द्वन्द ही बचता है! अब नेतराज किसलिए आ रहा था, ये तो वही जाने, हाँ उसके बोलने का लहजा अब कुछ शांत सा था, सरणू ने उसे ही भेजा था बात करने के लिए! अब बस देखना ये था कि वो क्या संदेसा लेकर आ रहा था!
उस रोज बारिश ने थाह न ली, रुकी ही नहीं, नेतराज ने कल आने को कह दिया था, मुझे भी स्वीकार था, बारिश कभी तेज हो जाती और कभी कुछ पलों के लिए विश्राम ले लेती! लेकिन उस बारिश ने, सड़कों को जैसे छिन्न-भिन्न कर डाला था, खिड़की से बाहर देखने पर तो ऐसा लगता था जैसे कि भरे चौमासे का दिन हो वो!
"आज नहीं थमे ये!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, कल पर ही बात चली जाए!" कहा मैंने,
"लगता तो यही है!" बोला मैं,
"और जो कल भी थम जाए तो शुक्र ही मानो!" बोले वो,
"हाँ जी!" कहा मैंने,
बिजली गरजी! और मेरा फ़ोन घर्राया मैंने उठाया फ़ोन, चार्जिंग-पोर्ट से बाहर निकाला और देखा उसे, ये शोभना का फ़ोन था, चलो अच्छा हुआ था, उस कमरे की उमस से तो उसकी बातों की लरजता ही बेहद अच्छी थी! उस से कम से कम आधा घंटा बातें हुईं! बारिश वहां भी जम कर हो रही थी! फ़ोन कटा और रख दिया मैंने, कुछ ही देर में, रिपुना का फ़ोन बजा, हाल-चाल पूछे गए! तबीयत अब ठीक थी उसकी! ये सबसे बड़ी खुशी की बात थी हमारे लिए!
तो साहब, वो दिन तो बारिश ने छीन लिया हमसे, न कहीं आने के और न कहीं जाने के! कमरे में ही क़ैद हो कर रह गए थे! कभी बालकनी में जा खड़े होते, कभी सामने छज्जे पर! बारिश में भीगते-भागते लोग, ठेले वाले, फलवाले! ज़िंदगी कहाँ लगाम लगाती है!
तो वो दिन और वो रात, चढ़ गए भेंट बारिश की! देर रात तक बारिश की चीत्कार और बादलों की हुंकार गूंजती रही! आखिर में नींद आई और चैन से सोये हम फिर!
अगली सुबह!
कुछ आसमान साफ़ हुआ था! बारिश तो नहीं थी! ऐसा ही रहता तो बढ़िया ही रहता! करीब दस बजे, नेतराज का फ़ोन आया, उसने कहा कि वो ग्यारह बजे तक आ जाएगा हमारे पास, आज सुबह ही वो यहां अपने किसी जानकार के पास आ पहुंचा था! मैंने भी उसे आने को कह दिया था! देखें, क्या तज़वीज़ पेश-ए-नज़र करता है!
और फिर बजे ग्यारह, साढ़े ग्यारह, आ गया नेतराज, साथ उसके, एक और आदमी था, शक्ल से ही लम्पट सा दीख पड़ता था वो आदमी! आये वो दोनों तो नमस्कार हुई, और बिठाया मैंने उन्हें, बाक़ायदा पानी, चाय की पूछी! मना ही कर दी उन्होंने!
"हाँ नेतराज, सुना?" बोला मैं,
"बताता हूँ!" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"सबसे पहले तो ये, कि उस लड़की की बहन की है तबीयत बहुत खराब!" बोला वो,
"तो मर जाने दे, ऐसी औरत का मरना ही बेहतर!" कहा मैंने,
उसे आश्चर्य हुआ मेरा उत्तर सुनकर, साफ़ और सपाट सा उत्तर!
"ऐसा नहीं कहते!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बड़ी बहन है उसकी!" बोला वो,
"जब तमल किया था, तब नहीं थी बड़ी बहन?" पूछा मैंने,
अब झांके बगलें वो! उस का साथ, शक्ल देखे उसकी!
"बोल?" बोला मैं,
"मिलवा लाओ यार एक बार!" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"उसकी बहन से!" बोला वो,
"ना! हरगिज़ ना!" कहा मैंने,
"मर मरा जायेगी!" बोला वो,
"कल मरती हो, आज मरे!" कहा मैंने,
"उस लड़की से तो पूछ लो?'' बोला वो,
"पूछ लिया!" कहा मैंने,
'ऐसे कैसे बनेगी बात?" बोला वो,
"कौन बना रहा है बात?" पूछा मैंने,
"कोई तो हल निकले?" बोला वो,
"एक बात तो बता?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"तू आया किसकी तरफ से है?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोला वो,
"बहन की तरफ से या उस घोंघू की तरफ से?" पूछा मैंने,
"सरणू की तरफ से!" बोला वो,
''तो बहन को भूल, उसकी बात कर!" कहा मैंने,
"उसने ही तो कहलवाया ये?'' बोला वो,
"उसे भूल जा यार!" कहा मैंने,
"फिर कैसे बनेगी बात?" बोला वो,
"तेरे हिसाब से कैसे?' पूछा मैंने,
"क्या सरणू छोड़ेगा उस लड़की को?" बोला वो,
"क्या वो रोक लेगा?" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"तो जा, रोक ले, कह दे उसे!" कहा मैंने,
"बहुत बुरा हो जाएगा!" बोला वो,
"हो जाने दे!" कहा मैंने,
"अरे नहीं!" बोला वो,
"मान जा, लौट जा अब!" कहा मैंने,
"क्या कहूँ?'' बोला वो,
"कि तुझे भगा दिया!" कहा मैंने,
"ना!" बोला वो,
"जो बोलने आया है, साफ़ साफ़ बोल!" कहा मैंने,
"मैं तो बीच-बचाव के लिए आया हूँ!" बोला वो,
"हो जाएगा बीच-बचाव!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"कह दे उस से, लड़की को भूल जा!" कहा मैंने,
खिसियानी हंसी हंसा वो!
"बोल दे?" कहा मैंने,
"समझ ही नहीं रहे हो?" बोला वो,
"समझा ही नहीं रहा तू!" कहा मैंने,
'सीधी सी बात!" बोला वो,
"बता?" कहा मैंने,
"लड़की को वापिस भेज दो!" बोला वो,
"सुन?" बोला एमी,
"हाँ?" कहा उसने,
"अब उठ जा! अभी!" कहा मैंने,
"सुनो तो सही?" बोला वो,
"उठ जा, अभी!" कहा मैंने,
और हाथों से, उसकी टोपी और गिरा दी नीचे मैंने! उसने उठायी!
"जाऊं?" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
सर हिलाया उसने! और.....
"अब जा नेतराज!" कहा मैंने,
"ये तो कोई बात न हुई?'' बोला वो,
"देख, होगी भी नहीं!" कहा मैंने,
"मेरा तो प्रयास था कि कोई बीच का रास्ता निकले?'' बोला वो, टोपी पहनते हुए,
"बीच का?" पूछा मैंने,
"हाँ?" कहा उसने,
"सुन नेतराज, दरअसल तुझे मालूम ही नहीं कि वो सरणू है क्या? और शायद मैं भी नहीं जान पाता, लेकिन ये लड़की, ये रिपुना, सोच उसकी उम्र ही क्या है? आधी उम्र की है इस सरणू से, और सुन, उसने करना क्या है इस लड़की के साथ, ये तू भी जानता है और मैं भी, रिपुना ये सब पहले से जानती है, और ये सब, गलत भी है, मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि उस लड़की ने मुझ पर किया है भरोसा, तो मैं उसका भरोसा नहीं टूटने दूंगा, अब समझा तू?" कहा मैंने साफ़ साफ़!
"मैं सब समझ रहा हूँ, लेकिन एक बात तो बताइये, सरणू को जानते हैं न आप? जीने नहीं देगा इस लड़की को, तब क्या करोगे? कब तक साथ रहोगे उसके?" बोला नेतराज,
"हाँ, अच्छा सवाल है, इसीलिए उसने कोशिश नहीं छोड़ी है अभी तक!" कहा मैंने,
"बताओ अब?" बोला वो,
"ऐसा ही हुआ, तो उसको मैं किसी सुरक्षित जगह रख दूंगा!" कहा मैंने,
"भला कब तक?" पूछा उसने,
"जब तक सरणू जीता है!" कहा मैंने,
"मज़ाक नहीं!" बोला वो,
"वैसे एक बात तो है नेतराज!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"तुझे सही पट्टी पढ़ाई है उसने!" कहा मैंने,
"मेरी उनके साथ बात हुई थी!" बोला वो,
"लाजमी है!" कहा मैंने,
"बस, और क्या?" पूछा उसने,
"एक बात तो बता?" पूछा मैंने,
"क्या? पूछो?'' बोला वो,
"रिपुना की बड़ी बहन है कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहीं, सरणू के संग!" बोला वो,
"अब मैं समझ सकता हूँ ये प्रपंच! क्यों शर्मा जी?" मैंने उन्हें देखते हुए कहा,
"भाड़ में जाने दो साले इस सरणू मरणू को! लड़की को ले चलो अगर ऐसी बात है तो!" बोले वो, गरज कर!
"सुना?" बोला मैं,
"हाँ, सुना" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं!" कहा उसने,
"समझ गया?" पूछा मैंने,
"हाँ! सब!" बोला वो,
"क्या समझा?'' पूछा मैंने,
"कि ज़ौजा न टाले टले अब!" बोला वो,
मैं हंसा! उसकी बातों पर हंसा!
"अब आया तो सही लाइन पर!" कहा मैंने,
"क्या लाइन!!" बोला वो,
"यही, जो तू बता नहीं रहा था!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं है!" बोला वो,
"अच्छा सुन, बैठ जा आराम से, चाय पियेगा?" पूछा मैंने,
"हाँ, पी लूंगा!" कहा उसने,
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी, बोलूं लड़के को?" बोले वो,
"हाँ, मेहरबानी!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं! ये नेतू वही करेगा जो कहा जाएगा!" बोले वो,
"हैं भाई नेतू?" कहा मैंने,
''अरे...कुछ है बस!" बोला वो,
"पता है!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"तू सरणू के भाई का पटाक-साला है न?" पूछा मैंने,
"हैं? कैसे पता?'' पूछा उसने,
"अरे भाई! कुछ अंदरुनी-दीमक तो हम भी रखते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, यही बात है!" कहा उसने,
"वैसे ये सरणू, श्रेष्ठ से घटिया आदमी है!" कहा मैंने,
"कैसे?' पूछा उसने,
"उसमे ऐसा घटियापन नहीं था!" कहा मैंने,
"है तो इसमें भी नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"बस, नाक की लड़ाई है, समझो!" बोला वो,
"कैसी लड़ाई यार!" कहा मैंने,
"शेर में मुंह से निवाला खेंच लाये, अब शेर तिलमिलायेगा नहीं तो क्या तालियां मारेगा?" बोला वो!
"वो? और शेर!" कहा मैंने,
"और नहीं तो क्या?' बोला वो,
"अबे वो तो सियार भी नहीं!" कहा मैंने,
"अभी जानते नहीं हो उसे!" बोला वो,
"श्रेष्ठ से बेहतर है?" पूछा मैंने,
"कहीं ज़्यादा!" बोला वो,
"अच्छा! इसीलिए तू *टे सहलाता है उसके!" अब बोले शर्मा जी!
मैं जोर से हंस पड़ा!
"ऐसा नहीं है!" बोला वो,
"फिर?" पूछा उन्होंने,
तभी आ गयी चाय! दे दी उनको भी!
"ये साहब कौन हैं?" पूछा मैंने,
"ये मेरे चाचा के लड़के हैं!" बोला वो,
"अच्छा! वहीँ रहते हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं, इनकी दुकान है अपनी!" बोला वो,
"ये नहीं गए कोठारिया में?" पूछा मैंने,
"गए थे, फेल रहे!" बोला वो,
"हैं जी?" मैंने अब पूछा दूसरे से!
"हाँ जी!" अपनी मूंछें सहलाते हुए हार क़ुबूली उस पट्ठे ने!
"तो दुकान खोल ली!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"काय की दुकान?" पूछा मैंने,
"पूजन-सामग्री की!" बोला नेतराज!
''चलो, अच्छा किया!" कहा मैंने,
''सुनो?" बोला नेतराज,
"सुना?" कहा मैंने,
"मान जाओ यार!" बोला वो,
"अरे नहीं नेतू!" कहा मैंने,
"अच्छा, मेरे कहने से एक बार उसकी बहन से तो मिलवा दो?" बोला वो,
"शर्मा जी?" पूछा मैंने,
''और जो लड़की न माने तो?" पूछा शर्मा जी ने,
"तब तो कोई बात नहीं!" बोला वो,
"पक्का?'' पूछा मैंने,
"कोशिश करूंगा!" बोला वो,
''चल, ये मानी!" कहा मैंने,
चाय खत्म हुई, वे उठे फिर,
''अच्छा नेतराज, मैं बात करके, तुझे कॉल करता हूँ फिर!" कहा मैंने,
"हाँ कर देना" बोला वो,
"ये तेरा ही नंबर है न?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
''अच्छा, चलते हैं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और फिर वे दोनों, चले गए वहां से! बारिश होने लगी थी थोड़ी थोड़ी, लेकिन इतनी भी नहीं थी कि कहीं आया या जाया न सके!
"सरणू काम ले रहा है इस बार दिमाग से!" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब भावुक हो कर, उसकी बड़ी बहन, इस रिपुना को जकड़ेगी!" बोले वो,
"सुनो शर्मा जी, आखिर में वो उसकी बड़ी बहन है, मैं ये नहीं कह रहा कि रिपुना वही करे, जो उसकी बड़ी बहन चाहती है, वो बालिग़ है, उसकी इच्छा, जो चाहे करे, लेकिन कोई दाग़ हम पर न आये, ये तोहमद न लगे कि हमने कोई ज़बरदस्ती की, है न?'' कहा मैंने,
"हाँ, बिलकुल ठीक!" बोला उन्होंने,
"आज बात करता हूँ रिपुना से!" कहा मैंने,
"ये ही ठीक है!" बोले वो,
"हाँ, कम से कम इस स्थिति से पर्दा उठ जाए!" कहा मैंने,
"हाँ, कुछ तो हल निकले?'' बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वैसे एक बात तो है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये साला भिन्डी का ** सरणू, चेप है बहुत! चिपक ही गया है!" बोले वो,
"चेप नहीं, उसको एक दम्भ है!" कहा मैंने,
"ये साले सारे दम्भी इसी श्रेष्ठ के खानदान में जन्म लिए हैं?'' बोले वो,
"पता नहीं ये तो!" कहा मैंने, हँसते हुए!
"ये तासीर-ए-तुखम है, और क्या!" बोले वो,
"राम जाने जी!" कहा मैंने,
उसके बाद आराम किया हमने, कुछ थोड़ा बहुत खाया भी, अब दिमाग उलझ गया था, सबसे बड़ा सवाल, क्या किया जाए अब? अगर द्वन्द की स्थिति आई तो? लड़ा जाए? या फिर, छोड़ दिया जाए? छोड़ा गया, तो रिपुना का क्या होगा? कुचल दी जायेगी वो तो? झंझावत सा उठ गया दिमाग में! चलो, आने वाला समय ही निर्णय करेगा इसका कि क्या किया जाए!
संध्या हुई, रिपुना को फ़ोन किया मैंने, उस से कुछ ज़रूरी बात करनी थी, ऐसा बताया उसको, और हम दोनों ही निकल पड़े उसके पास जाने के लिए! वहाँ पहुंचे, तो छत तक आई हुई, बिगुल-बेलिया के फूलों में जैसे छिपी हुई थी रिपुना! छत पर ही खड़ी थी, साफ़ था, इंतज़ार था उसको हमारा! हमें जैसे ही देखा, फ़ौरन नीचे उतरने के लिए चल पड़ी!
नीचे आई, खुश! कली सी खिली हुई! चटख सुर्ख़ सी कली! जैसे, इस दुनिया की बावरी बयार में, अनजान और आफशुदा सी कोई कली! जिसने अभी अभी पहली बार, बहार-ए-चमन का दीदार किया हो! ऐसे खुश! ऐसे तन्हा सी लरजती हुई! सौइयों काले, सफेद से ख़याल, दिमाग के पर्दे पर, बिजली के मानिंद एक सिरे से दूसरे सिरे तक कौंध गए!
नहीं, वैसा हश्र नहीं होने दूंगा! नहीं! कर लिया फैंसला! नहीं, नहीं होने दूंगा!
"कैसी हो रिपुना?" पूछा मैंने,
"बिलकुल ठीक!" बोली वो,
"दवा ली?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"खाना-पीना ठीक?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"बहुत बढ़िया रिपुना!" कहा मैंने,
"यहां आइये?" बोली वो,
"क्या है वहां?" पूछा मैंने,
"आइये तो सही?" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
वो एक बढ़िया सी जगह थी, फूलों से लदी हुई, लोहे के जाल पर, हरी-भरी बेल चढ़ी हुई थी! सफेद फूल खिले थे उस पर, गुच्छों में! और उस जाल के नीचे, एक झूला पड़ा था स्टील का! वो जा बैठी उस पर,
''आइये! बैठिये!" बोली वो,
"बड़ी ही खूबसूरत जगह है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"रिपुना?'' कहा मैंने,
"कुछ बात करनी है!" कहा मैंने,
"कहिये?'' बोली वो,
और तब मैंने उसे, नेतराज से हुई सारी बातें बता दीं, वो गंभीर हो गयी, जैसे, तेज बयार थम गयी हो और उस कली का लरजना भी रुक गया हो!
"क्या कहती हो?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं मिलना?" बोली वो,
"अच्छा? वो क्यों?" पूछा मैंने,
"वो विवश करेंगी" बोली वो,
"क्यों करेंगी?" पूछा मैंने,
''साथ ले जाने को?" बोली वो,
"तो मत जाना?" कहा मैंने,
''आप साथ रहोगे?" पूछा तपाक से उसने!
ओहो! उस वक़्त उसकी आँखों में, मैं क्या लिखूं? क्या बताऊँ? एक अलग सी चमक देखी, पल के सौवें हिस्से में, जिस हिस्से में, हाँ की स्वीकृति थी! वो मंद पड़ गयी थी, न ज़िद ही कर सकती थी, न ज़बरदस्ती! वो कोहरा सा, बस, हटने का जैसे इंतज़ार कर रहा था!
मैं मुस्कुराया, धीमे से, मंद मंद!
"हाँ! रहूंगा साथ तुम्हारे रिपुना!" कहा मैंने,
इतनी खुश! इतनी खुश कि नज़रे हट लीं मुझ से! जानता था, आँखों के हमराही, चल पड़े हैं साथ देने उनका! हमराही, आँखों के हमराही, यानि कि आंसू!
"ए लड़की!" बोला मैं,
न उठाया चेहरा!
"ए? रिपुना?" कहा मैंने,
न उठाया चेहरा, न ही उठायीं आँखें!
"जी क्यों भारी करती हो?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"लो, ये लो!" कहा मैंने,
दिया रुमाल उसको! आँखें पोंछीं तो कजरा छप गया रुमाल पर! ये विश्वास का चिन्ह था! अनमोल और पाक!
"इधर देखो?" बोला मैं,
अब देखा उसने!
"जी क्यों भारी करती हो? जैसा तुम चाहोगी, वैसा ही होगा!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली धीरे से,
"ऐसे नहीं, हंस के दिखाओ ज़रा!!" कहा मैंने,
और तब हंसी वो!
"मिल लो एक बार! घबराना नहीं!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोली वो,
"हाँ, सही रहेगा!" कहा मैंने,
"आओ!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"आओ तो? सवाल बहुत करते हो आप?" बोली वो,
"अच्छा! चलो!" कहा मैंने,
और ले चली मुझे अपने संग, उस जगह के लिए जहां वो ठहरी थी!
हम ऊपर आ गए थे, एक कमरे में, मैं अंदर जा बैठा था, रिपुना सतह ही बैठ गयी थी मेरे,
"पानी?" पूछा उसने,
"हाँ, कहने ही वाला था मैं!" बोला मैं,
"अभी लायी!" बोली वो,
और चली गयी बाहर, जब आई, तो हाथ में बोतल थी पानी की, एक गिलास भी, बोतल से पानी डाला गिलास में, और दिया मुझे, मैंने पिया पानी, दो गिलास, किया वापिस गिलास, और उसने, उसी गिलास में पानी पी लिया, कहने को तो बहुत कुछ था, समझा जाए तो, और न कहने को कुछ नहीं, बस, एक पल की ही बात, दूसरे पल, उड़ा दो दिमाग से!
"कब चलना है?" पूछा उसने,
"कल?" कहा मैंने,
"कल?" बोली वो,
"हाँ? कल?" बोला मैं,
"ठीक" कहा उसने,
"कोई बात?" पूछा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोली वो,
"तो कल ठीक!" कहा मैंने,
"जब आप संग हो तो कोई बात है ही नहीं!" बोली वो!
"इतना विश्वास?" पूछा मैंने,
"नहीं क्या?'' बोली वो,
"बस, इसीलिए यहां हूँ रिपुना मैं!" कहा मैंने,
"पता है!" बोली वो,
"अब कल बात हो जाए, कोई रास्ता निकले तो मैं भी लौटूं फिर!" कहा मैंने,
"और.......!!" बोली वो,
"क्या और?'' पूछा मैंने,
"लौटोगे कब?" पूछा उसने!
शब्द-जाल!
छलावा शब्दों का!
"लौटूंगा, लौटने के बाद! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"रोकोगी नहीं लौटने से पहले?'' पूछा मैंने,
"रुक जाओगे?" पूछा उसने,
"कहतीं तुम, तो सोच सकता था, लौटने से पहले!" कहा मैंने,
"लौट आओगे?'' पूछा उसने,
"कह नहीं सकता!" बोला मैं,
"लौट नहीं सकते न?" पूछा उसने,
"अगर कहोगी और रोकोगी तो!" कहा मैंने,
और फिर ज़ोर से हंसी वो!
जैसे तेज बयार फिर से चली हो!
जैसे उस कली की ख़ुमारी टूटी हो और ज़िंदा हो चली हो!
"रिपुना?" बोला मैं,
"हूँ?" होंठ बंद किये हुए बोली वो! ठुड्डी को, ज़रा आगे करते हुए!
"क्या जाता है!" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"बताओ न?" कहा मैंने,
"नहीं समझ आया?" बोली वो,
"कुछ जाता है क्या?" पूछा मैंने,
"किसमे, जी??" बोली वो,
''ऐसे हँसते, खिलखिलाते में!" कहा मैंने,
अब जैसे ही कहा मैंने, खिलखिला कर हंस पड़े! इस बार तो कंधे भी उचक गए थे उसके! मैं भी मंद मंद मुस्कुराने लग गया था!
"अच्छा! अब चलूँगा!" बोला मैं,
"ना!" बोली वो,
"ना?" पूछा मैंने,
"हाँ, ना!" बोली वो,
"ए? रिपुना?" कहा मैंने,
"हूँ?' बोली वो,
"क्या ये वो ही लड़की है?' पूछा मैंने,
"कौन सी?" पूछा उसने,
''वो, जो नदी से गले मिलने जा रही थी?" बोला मैं,
फिर से हंस पड़ी वो!
"बदल रही हो!" कहा मैंने,
"बदल रहे हो!" बोली वो,
शब्द-जाल!
वही फिर से!
"ना! मेरी मज़ाल कहाँ!" कहा मैंने,
"मैं तो यही कहूँगी!" बोली वो,
"न मैं बदल रहा हूँ, न ही बदल रहा हूँ!" कहा मैंने,
"ओ! सच में?'' पूछा उसने,
"हाँ, सच में, दोनों ही बार!" कहा मैंने,
"सच?" पूछा उसने,
"क्या हो गया तुम्हें अचानक?" पूछा मैंने,
"कुछ भी तो नहीं!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"डर!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"हाँ, डर!" बोली वो,
और आ गयी पास मेरे!
आँखों के दीदे गोल गोल घूम, अवलोकन करने लगे आसपास!
"कैसा डर?' पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोली वो,
"डर को निकाल दो दिल से!" कहा मैंने,
"ऊँहूँ?" बोली वो,
"हूँ!" कहा मैंने,
"उन्ह?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सच?" पूछा उसने,
"सच में, कच्ची बुद्धि है तुम्हारी अभी रिपुना!" कहा मैंने,
"क्या करूँ मैं फिर?'' पूछा उसने,
'अभी, फिलहाल में, जैसा मैं कहूँ!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने,
"इतना तेज न भागो!" कहा मैंने,
"क्यों? पकड़ नहीं सकते?'' पूछा उसने,
"अब चलना ही बेहतर है!" कहा मैंने,
और मैं उठ खड़ा हुआ!
"बस?" बोली वो,
"क्या बस?" पूछा मैंने,
"इतना ही?" पूछा उसने,
"रिपुना?" कहा मैंने,
"बोलिए!!" बोली वो,
"सुनो!" कहा मैंने,
"सुनाइए!" बोली वो,
"मज़ाक नहीं!" कहा मैंने,
''अच्छा, श्ह्ह्ह!" बोली ऊँगली रख कर अपने मुंह पर!
कच्ची, अनगढ़ मिट्टी!
अब मैं हंसा!
क्या करूँ इस लड़की का!
"अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"क्या अच्छा?" बोली वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"कुछ तो?'' बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?' बोली वो,
"पानी पिलाइये!" कहा मैंने,
"अभी लीजिये!" बोली वो, और चली दौड़ती हुई सी बाहर कमरे से!
और मैं, मुस्कुराते हुए, अपने माथे को सहलाने लगा! खैर, इस समय, उसको हिम्मत बँधाना ज़रूरी भी था!
पानी ले आई वो, हालांकि मुझे प्यास न थी, लेकिन फिर भी, पानी पी ही लिया! ताकि कुछ तो विराम मिले!
"अब सुनो?" बोला मैं,
"जी?" बोली वो,
"तैयार रहिएगा जी, कल के लिए!" कहा मैंने,
"आप रहि..येगा!" बोली वो, हंस कर!
"चलो, खाना खा लेना, अब चलता हूँ!" कहा मैंने,
"एक बात...." बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो मोबाइल..." बोली वो,
"हाँ ठीक!" कह कर, निकला मैं वहां से!
"मैं आऊं?" पूछा उसने,
"ना, यही रहो!" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?'' बोली वो,
"हाँ, बोलो!" कहा मैंने,
"वो आपके माथे पर, कजरा लग गया है!" बोली वो,
"अच्छा, अभी!" कहा मैंने,
मैंने साफ़ किया और वो मुस्कुराती रही!
"कल करूँगा फ़ोन!" कहा मैंने,
"हूँ!" बोली वो,
और इस तरह, हम आ गए बाहर, हुए वापिस, पहुंचे!
अगला दिन, कोई ग्यारह बजे....
नेतराज का फ़ोन आया, बात हुई, उसने वहीँ बुलाया था, वैसे तो मुझे ऐतराज़ ही हुआ, लेकिन जब जाना कि उसकी बहन की तबीयत कुछ ज़्यादा ही नासाज़ है, तो मान लिया! मैं करीब साढ़े ग्यारह बजे पहुंचा रिपुना के पास, वो तैयार थी, थोड़ी सी बातचीत के बाद, हम तैयार हुए! और चल पड़े, हाँ, मोबाइल रिचार्ज करा ही दिया था उसका!
हम, एक बजे पहुंचे उस डेरे! यूँ मानिए कि रिपुना, साथ ही चिपकी रही मुझ से! और जब हम उस बैठक में आये, तो सट कर ही बैठ गयी मुझ से! अपनी बैली से, मेरे जूते को छूती रही, चाहे, मैंने कितना भी दूर किया!
और तब आई एक महिला!
"रिपुना?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो, बुलाया है!" बोली वो,
"किसने?" पूछा मैंने,
"बड़ी बहन जी ने" बोली वो,
"यहाँ भेज दो!" कहा मैंने,
"यहां?'' बोली वो,
"क्या सुना? यहां!" कहा मैंने,
'अच्छा?" बोली वो,
और लौट चली!
"जाना है क्या?" पूछा मैंने,
"ना!" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
पांच मिनट!
दस और फिर उसकी बड़ी बहन आ गयी! ओहो! आंसू! आंसू ही आंसू! कहाँ है, कैसी है? बहन को छोड़ दिया, भूल गयी? क्या इसलिए और उस लिए! ये और वो!
"दीदी?'' बोली रिपुना!
"हाँ बिटिया?" बोली वो,
"किसलिए बुलाया?" पूछा रिपुना ने,
"मैं मर जाउंगी, मेरी गुड्डी, मैं मर जाउंगी!" बोली वो,
"तो?" पूछा रिपुना ने,
"आ जा! मेरे पास आ जा!" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"तुझे दया नहीं आती?" बोली वो,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
इसके बाद तो हज़ार सवाल! और रिपुना, सारे सवाल ऐसे दे गयी जवाब में, जैसे कोई अधिवक्ता! कमला था, मैं तो खुस हैरान था!
और फिर...
"ये, ये हरामजादा! इसने भड़काया न तुझे?'; अब टूटा सब्र उसका,
"दीदी? चुप रहो? इन्हें न बोलना कुछ भी!" बोली गुस्से से रिपुना!
"क्यों न बोलूं?" बोली वो,
"क्योंकि इन्होने कुछ नहीं किया? समझीं?" बोली वो,
"तेरे मुंह में ज़ुबान डाल दी इसने, मरेगा, नरक में भी जगह न मिलेगी!" बोली वो,
इस से पहले कि रिपुना कुछ बोलती, मैंने, चुप किया उसे, बिठा लिया नीचे अपने साथ!
"ओ, बद्तमीज़ औरत!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"हाँ, बद्तमीज़! जिस यार के साथ तू है, उसके साथ ही रह! भूल जा की ये तेरी बहन है, अब अगर, एक शब्द भी तेरे मुंह से निकला, तो क़सम भवानी की, तेरा वो हाल करूंगा कि कुत्ता भी न सूंघेगा!" कहा मैंने गुस्से से!
बहुत देर से सहन किया जा रहा था मैं!
"क्या करेगा इसका? रखैल बनाएगा?" चीख कर बोली वो,
"कमीं औरत!" कहा मैंने,
और उठ खड़ा हुआ!
"तू बीमार है? तुझ पर दया कि, अब भाड़ में जा तू! चलो, चलो रिपुना!" कहा मैंने,
"रुक जा! रुक जा मेरी बेटी!" रो कर बोली वो!
"नहीं रुकेगी ये! आओ रिपुना!" कहा मैंने,
हम उठे और चले बाहर! पीछे से, बुक्का फाड़ रोये ही रोये वो!
"हे?" आई एक आवाज़!
मैंने बाएं देखा!
सुनहरे रंग के कुर्ते में आ खड़ा हुआ था वो, वो, खिलाड़ी, सरणू! उसको देख, फ़ौरन ही, मेरा हाथ पकड़ लिया रिपुना ने!
"काट दो सर इसका, हाय! हाय मेरी बेटी!" चिल्लाई वो ये बोलते हुए!
"आ सरणू!" कहा मैंने,
"तू जा!" बोला उसकी बड़ी बहन से वो!
आज्ञाकारी लुगाई की तरह, चुप से चली वो वहां से!
"हाँ! क्या बात है?" बोला वो,
"जा रहे हैं हम!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोला वो,
"तेरी रखैल नहीं मान रही!" कहा मैंने,
वो हंसा! जम कर! ठहाका मारते हुए!
"रुक जा!" बोला वो,
"बोल?" कहा मैंने,
"तू आदमी ज़ोरदार है!" बोला वो!
"अभी ज़ोर देखा कहना है?" कहा मैंने,
"वाह! मेरी जगह! मेरे आदमी! और तेरे बोल!" बोला वो!
अब मैं हंसा! ज़ोर से! रिपुना को कंधे से पकड़ते हुए!
"कितना मूर्ख है तू!" बोला मैं!
"अच्छा?'' बोला वो!
"हाँ! अरे हरामज़ादे! तूने मुझे जाना ही नहीं! जान जाता तो इतना तन के न खड़ा होता!" बोला मैं!
"ओये! ज़ुबान को संभाल!!!" काँप उठा वो क्रोध से! ये कहते हुए!
वो हांफने लगा था! कांपने लगा था! दम्भ का मारा था! दम्भ उफान पर चढ़ा था! ज्वार-भाटे के एतरह, सागर हिलोर मार रहा था! उसकी आँखों में खून उतरा हुआ था! बस चलता तो शायद मुझे क़त्ल ही कर देता!
"मैं जा रहा हूँ! जो तुझ से बन पड़े, कर लेना!" कहा मैंने,
"कुत्ते!! कमीने!! हाय लगेगी तुझे! हाय! सुनता है? हाय?" आते हुए बोली उसकी बड़ी बहन!
उसे मैं क्या कहता! बद्तमीज़ औरत! क्या कहता उसे! वो तो जैसे रखैल थी उस सरणू की! एक ऐसी रखैल, जो अपने खसम के लिए, कुछ भी दांव पर लगा देने के लिए आमादा थी!
"तूने अब अगर एक शब्द भी बोला न, रे खल्ली, तो तू ही जानेगी! हाय? अरे हाय तो तुम सभी को इस लड़की की लगेगी! खाक हो जाओगे सारे! कुछ न बचेगा! और ये जो तेरा खसम है न? ये, ये कुत्ते का बीज? ये भुगतेगा श्रेष्ठ की तरह! श्रेष्ठ तो फिर भी मान-सम्मान रखता था, वो शत्रु था, लेकिन एक क़ायदे वाला शत्रु, और ये? ये तो बहुत ही नीच, गया-गुजरा और ओछा है! सुन रे? जो बस कि हूँ तेरे, कर लेना, आज के बाद, न मैं मिलूंगा, और न तेरी कोई बात ही सुनूंगा! अब अगर, आज के बाद, इस लड़की को रत्ती भर भी आंच पहुंची तो आग लगा दूंगा तुझमे और तेरी इस भड़वाली रांड में! सुन ले, समझ ले, जान ले!" कहा मैंने, गुस्से से, मुझे अब बहुत गुस्सा चढ़ा था!
"हेामज़ादे! कुत्ते! तू समझायेगा मुझे? बस! बहुत हो गया बर्दाश्त! बस! अब श्रेष्ठ! देखना तू! कैसे श्रेष्ठ की आत्मा अब प्रसन्न होगी! देखना तू! और ये, ये लड़की, इसको दग्गो न बना दूँ तो, देखना! तू तो मरा, इसको दग्गो बनाऊंगा! हा! हा! हा!" बोला वो, गुस्से से, उसके आसपास अब उसके गुर्गे खड़े होने लगे थे! रिपुना भय के मारे, मुझे आ लिपटी थी, मैंने उसे सके कंधे से पकड़, अपने आसरे में समेटा हुआ था, शर्मा जी, पास में ही खड़े, एक एक पर नज़रें टिकाये थे!
"सुन ओ सरणू! सुन! बस बहुत हुआ तेरा खेल! दरअसल, तेरे जैसा तो इस दो पांवों पर खड़ा भी नहीं होना चाहिए! कह! खुल कर कह! देखता हूँ तेरी औक़ात है कितनी! बोल, कर जी की अपनी! और हाँ? हाँ ओ भड़वाली? इसने तेरे सामने तेरी बहन को दग्गो कहा! कहा न, कुतिया! रंडो! हरामज़ादी! लानत है तुझ पर! जा घुस जा इसकी ** में! जा! तेरा भी वो हाल होगा, कि सारी ज़िंदगी मौत मांगेगी तू! सारी ज़िंदगी!" बोला वो,!
"हो!! सुन फिर! सुन! मैं सरणू, तुझे, चुनौती देता हूँ! चुनौती! आ जा मैदान में! आ! देखता हूँ कैसा दूध पिया है तूने, तू मान रखेगा दूध का उस जाया का, या हराम करेगा!" बोला वो!
ओहो! सच में! उस समय मेरे हाथों में यदि हथियार रहा होता, तो सर ही काट देता उसका! टुकड़े कर देता उसके, उसी जगह! फिर चाहे जो होता, सो होता!
"नेतू? सुन ले! ले आ इसका पर्चा! जो ये चाहे, जैसा चाहे, मुझे मंज़ूर है!" कहा मैंने,
नेतू आगे आये, सरणू के पास तक!
"रिपुना? आ? आ चलें यहां इस गंदी जगह से, छीः! थू! ऐसी जगह पर!" कहा मैंने,
रिपुना को उसके कंधे से पकड़, शर्मा जी को उनके हाथों से पकड़, मैं चलता बना, चलता रहा बाहर जान एके लिए!
"याद रखेगा! याद रखेगा! हराम के जने! याद रखेगा!" बोला वो, पीछे से!
"सूअर की औलाद! याद कौन रखेगा, ये सब जान जाएंगे! मातम मनेगा! मातम इसी स्थान पर! याद रखना! याद!" मैंने ही गुस्से में कहा!
"आओ न?'' बोली रिपुना,
वो डरी हुई थी, बेचारी ने, शायद ऐसा माहौल कभी न देखा था! वो तो मैं साथ था, नहीं तो उसके होशो-हवास फुर्र हो जाते! और वो सरणू, किसी कच्ची कली की तरह से रौंद डालता उसे!
"चलो अब? हो गया न फैंसला?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, हाँ!" कहा मैंने,
"आओ निकलो यहां से?" बोले वो,
मैं बार बार पीछे देखता था, और रिपुना बार बार मुझे आगे के लिए खींचती थी!
"चलो, चलो!" बोले जा रही थी!
"हाँ रिपुना, चल रहा हूँ!" कहा मैंने,
हम हो लिए वापिस, उसके गुर्गे, पास पास में आ, गाली-गलौज कर रहे थे, रिपुना बीच में ले रखी थी हमने, न जाने क्या बदतमीज़ी कर जाएँ, कुछ न पता था!
आये बाहर तक, और ले ली सवारी, अब होने लगा मैं शांत, लेकिन उस सरणू के अलफ़ाज़, जोंक बन, मेरे कलेजे से चिपके हुए थे, खून चूस रहे थे मेरा! अपमान किया था उसने मेरा! मुझे अब द्वन्द में, इसका ऐसा हाल करना था, कि उस डेरे से कोई भी ऐसा साहस करने का दुःसाहस कभी कोई न करे! सबक ऐसा दूंगा इन्हें, ऐसा सबक कि रूह भी काँप उठेगी सोच सोच के!
हम आ गए वापिस,
रिपुना की जगह, उसका कमरा,
"आराम करो रिपुना!" कहा मैंने,
"मत जाओ, कहीं मत जाओ!" बोली वो,
"सुना नहीं रिपुना? आराम करो?" मैंने गुस्से से कहा,
"क्या बात है?" बोले शर्मा जी,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"रिपुना, बेटा, आराम करो, आये हम!" बोले वो,
और कंधे पर हाथ रखते हुए मेरा, वो ले चले बाहर!
"क्या है ये?'' पूछा उन्होंने,
"मुझे गुस्सा आया है!" कहा मैंने,
"जानता हूँ, लेकिन इस लड़की के बारे में सोचो?" बोले वो,
मैं चुप्प!
"कम से कम ऐसा नहीं बोलो!" बोले वो,
"हम्म!" कहा मैंने,
"समझाओ उसे!" बोले वो,
''हाँ" कहा मैंने,
और लौटा कमरे में, रिपुना, दीवार से सर लगाये, ऊपर देख रही थी! मैं बैठ गया! उसके पास, बाजू पकड़ी उसकी, उसने देखा मुझे, आँखों में आंसू लिए हुए थी वो!
"रिपुना?" बोला मैं,
"हम्म?" बोली वो,
"वो, गुस्से में बोल गया ऐसे!" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं" बोली वो,
"तुम्हें बुरा लगा?' पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो आंसू पोंछो?" कहा मैंने,
उसने अपनी चुनरी से आंसू पोंछ लिए!
"पानी पियोगी?" पूछा मैंने,
"ना" बोली वो,
"इतना गुस्सा?" पूछा मैंने,
"ना" बोली वो,
"तो पियो?'' कहा मैंने,
"अच्छा" बोली वो,
तब मैंने पानी की बोतल उठा ली, गिलास में डाला पानी, दिया उसे,
"ये तो होना ही था!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली वो,
गिलास दे दिया मुझे, मैंने रख दिया वापिस,
"लेकिन तुम्हारी...बहन?" पूछा मैंने,
"मत कहो बहन?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कहाँ की बहन?" बोली वो,
"हूँ" बोली वो,
"छोड़ो, चलो!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"तुम आराम करो अब!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"मैं मिलता हूँ बाद में" कहा मैंने,
"ठीक है" बोली वो,
मैंने तकिया ठीक किया उसका, और उसको लेटने को कहा,
"अभी नहीं" बोली वो,
"अच्छा ठीक!" कहा मैंने,
उठा मैं, और चला आया बाहर, शर्मा जी के पास!
शर्मा जी से कुछ बातें हुईं और उसके बाद हम फिर रिपुना को बता, वापिस हो गए अपनी जगह को! मन में अभी तक गुस्सा भरा था बहुत! सरणू के एक एक शब्द को जैसे मैं काँटा समझे जा रहा था! ऐसा निहायती बद्तमीज़ और घटिया इंसान मैंने पहले कभी नहीं देखा था! हैरत तो इस बात की थी कि उस से अधि उम्र की थी वो रिपुना, और उसे क्या सूझी थी उसको 'घरा' बनाने की! और अब तो, उसको दग्गो बना देने तक की धमकी दे डाली थी उसने! क़ायदे से देखा जाए तो रिपुना उसकी बेटी के बराबर ही थी! कुछ न कुछ तो देखा ही होगा उसने रिपुना में, अब क्या देखा था, वो ही जाने! मेरे लिए तो वो एक असहाय सी लड़की ही थी, जिसने मदद की गुहार लगाई थी, और अगर आप समर्थ हैं, समर्थ होते हुए भी, मदद नहीं करते हैं तो सारे गुनाह के भागी आप ही होते हैं! बस, मेरे सामने तो यही फ़र्ज़ आ खड़ा हुआ था, मुझे बस प्रयास करना था कि ये लड़की, किसी भी तरह इस ज़ालिम इंसान की नज़रों से महफूज़ रहे! अब इसके लिए, जो बन पाये, मुझे करना ही था! चाहे कुछ भी! लेकिन शत्रु की थाह पाना भी नीति ही हुआ करती है, अतः, अब मुझे इस सरणू के बारे में, उसकी सक्षमता के बारे में और दमखम के बारे में मालूमात तो ज़रूर ही करनी थी! और इसके लिए मुझे बलदेव से अच्छा और विश्वसनीय व्यक्ति उस समय नहीं जंचा! मैंने शर्मा जी से इस विषय पर बात की!
"क्यों न बलदेव से कुछ पूछा जाए?" कहा मैंने,
"मालूमात के लिए?" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"हाँ, लोकल है, मदद कर सकता है!" बोले वो,
"तो कल चलते हैं?" कहा मैंने,
"चल लीजिये!" बोले वो,
"कम से कम, कुछ तो मालूम पड़ेगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो ठीक है!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
वो शाम-राय-मशविरा करते हुए ही बिता दी, रिपुना से मिले, उसको समझाया-बुझाया, उसको न घबराने की सलाह दी, और फिर हम वापिस हुए!
अगला दिन...
हम सुबह करीब, नौ बजे निकल लिए थे, बलदेव से बात हो चुकी थी, और वो वहीँ था उस समय, उसको कह दिया था हमने कि हम आ रहे हैं मिलने, कुछ बेहद ही ज़रूरी काम है, उसने हामी भर ली थी और पूरी मदद करने का आश्वासन भी दे दिया था!
हम पहुंच गए वहां!
बलदेव से मुलाक़ात हुई! चाय-पानी हुआ! और फिर मैंने उसको ये मामला खुल कर बताया! उसने गौर से सारी बात सुनी! थोड़ा गंभीर सा लगा मेरी बातें सुनकर! लेकिन सुनता ही रहा! कुछ बातों को उसने दो दो बार सुना!
"मैं समझ गया!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये वही है न? जगदेश्वर का पुत्र?" पूछा उसने,
"ये तो पता नहीं!" कहा मैंने,
"वो जो स्थान है, उधर?" बोला वो, उस जगह का नाम बताते हुए,
"हाँ वही वही!" कहा मैंने,
"हाँ, ये जगदेश्वर का ही पुत्र है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"अपने बाप का खूब नाम निकाला है इसने!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"वो भला आदमी था, नाम था उसका, उसके दो बेटे थे, एक सोमेश्वर और एक ये शरण, सोमेश्वर एक सड़क-हादसे में मारा गया, ये करीब दस बरस पहले की बात होगी, उसके बाद, जगदेश्वर की भी मौत हो गयी, ये शरण उस समय, बंगाल में था, वहां से आया तो सबकुछ बदल के रख दिया इसने! एक नंबर का लम्पट और घमंडी इंसान है!" बोला वो,
"हाँ ये तो सही कहा!" कहा मैंने,
"अब उसने चुनौती दी है?" पूछा उसने,
"एक तरह से!" कहा मैंने,
"समझता हूँ!" बोला वो,
"अभी रुकिए!" बोला वो,
"रोमी? रोमी?' आवाज़ दी उसने,
एक महिला आई उधर,
"खादू है क्या?" पूछा उसने,
"देखना पड़ेगा!" बोली वो,
"जा, देख कर ला" बोला वो,
"अभी!" बोली वो, और चली गयी,
"ये खादू उसके डेरे पर था पहले!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"दो साल पहले ही आया!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
तभी वहां एक पैंतालीस-पचास साला का एक दरम्याने शरीर वाला आदमी आया, आते ही नमस्कार की, उसको बिठाया बलदेव ने वहीँ!
"खादू, कब आया?'' पूछा बलदेव ने,
"दो दिन हुए" बोला वो,
"सब ठीक?" पूछा उसने,
"हाँ" बोला वो,
'अच्छा एक बात बता?" बोला वो,
"जी, पूछो?" बोला खादू,
"तू सरणू के डेरे पर था?'' पूछा उसने,
"हाँ?" बोला वो,
"कब?" पूछा गया,
"दो साल हुए?" बोला वो,
"जानता है सरणू को?" पूछा उसने,
"हाँ?" बोला वो,
"कैसा आदमी है?" पूछा उस से,
"ठीक ही है" बोला वो,
"अरे वैसे पूछा?" पूछा बलदेव ने,
"कैसे जी?" बोला खादू,
"जाजारी में?" पूछा उसने,
"वो नहीं पता" बोला वो,
"नहीं पता?'' बोला बलदेव,
"नाही!" बोला वो,
"किसी को जानता है वहां?" पूछा बलदेव ने,
"हाँ!" बोला वो,
"किस को?" पूछा बलदेव ने,
"एक औरत है" बोला वो,
"क्या नाम है??" पूछा,
"आरती" बोला वो,
"वहीँ रहती है?' पूछा गया,
"हाँ" बोला वो,
"मिलता है तू उस से?" पूछा उसने,
"कभी कभी" बोला वो,
"मिलेगा अब?" पूछा उस से,
वो समझा नहीं कुछ भी! झेंप रह गया!
"अरे, अब कब मिलेगा?" पूछा गया,
"पता नहीं जी" बोला वो,
"एक काम करेगा?" पूछा गया,
"क्या?' बोला वो,
"उसे, आरती को, यहां ले आएगा?'' पूछा गया,
अब कुछ सोचने लगा वो!
"क्या सोच रहा है?" पूछा बलदेव ने,
"कुछ नहीं" बोला खादू,
"कुछ तो?'' पूछा गया,
"नहीं जी!" बोला वो,
"मैं जानता हूँ!" कहा मैंने,
खादू ने देखा मेरी तरफ!
"कभी कभार मिलता है न खादू, आरती से?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला हाँ में सर हिलाते हुए!
"महीने में एक दो बार?" पूछा मैंने,
"दो दो महीने में एक बार!" बोला वो,
"तो कुछ लाता, ले जाता होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला बलदेव!
"शर्मा जी!" कहा मैंने,
"बड़ी चिंता करी यार खादू तूने!" बोले वो,
और जेब से, एक 'बड़ा' सा नोट देने लगे उसे!
"ये ले!" बोले शर्मा जी,
"अरे नहीं साहब! मैं दिए देता हूँ!" बोला बलदेव!
"आपने दिया, हमने दिया एक ही बात है!" बोले शर्मा जी!
"ले?' बोले शर्मा जी,
अब खादू, न ले!
"ले ले!" बोला बलदेव!
तब खादू ने, नोट लिए, मोड़ा और खोंस लिया अपनी जेब में!
"समझो भाई! आरती से मिलने जाएगा, खाली हाथ थोड़े ही जाएगा!" कहा मैंने,
"पहली न बताई?" बोला बलदेव,
''अब कैसे बोलता!" कहा मैंने,
"रे खादू!" बोला बलदेव!
"और सुन खादू! और भी खर्चा मिल जाएगा! चिंता न करियो!" बोले शर्मा जी,
"हाँ खादू!" कहा मैंने,
तब उठा वो खादू, माथे से लगाया हाथ, और नमस्कार की, चल पड़ा वापिस!
''अरे सुन?" बोला बलदेव,
सुना उसने, लौटा तभी!
"कब जाएगा?" पूछा बलदेव ने,
"आज ही!" बोला हँसते हुए!
"खादू!" बोला बलदेव!
"जाने दो आज ही! मामला गरम है आज तो!" कहा मैंने,
चला गया खादू फिर!
"ईमानदार आदमी है ये!" बोला बलदेव,
"कहाँ का है?' पूछा मैंने,
"जिला गोंडा का!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"सामान लाता ले जाता है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, काट रहा है अपना समय!" बोला वो,
"आस-औलाद न है कोई?" पूछा मैंने,
"ना, एक औरत थी, ब्याह हुआ था, शादी के नौ बरस तक कोई आस-औलाद न हुई, औरत बीमार पड़ी, और चली फिर ये दुनिया छोड़!" बोला वो,
"ओह, कोई भाई-बंधु?" पूछा मैंने,
"ज़मीन थी थोड़ी बहुत, भाइयों ने छीन-छान ली!" बोला वो,
''अरे रे!" कहा मैंने,
"क्या करता, आ गया इधर, कभी कहीं और कभी कहीं, पिता जी यहां ले आये, तभी से यहीं है!" बोला वो,
"अच्छा किया!" कहा मैंने,
तभी एक आदमी आया उधर, हाथ में एक पीतल का डोल लिए हुए, कुछ सकोरे थे बड़े बड़े उसके हाथ में!
"आ जा!" बोला बलदेव!
आ गया वो आदमी, रख दिया सामान उसने!
"क्या ले आये भाई?" पूछा शर्मा जी ने,
"मठ्ठा लाया हूँ, नमकीन!" बोला वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"अभी कढ़वाया है न?" पूछा बलदेव ने,
"ताज़ा!" बोला वो,
"डाल फिर!" बोला बलदेव!
मठ्ठा डाला गया, दिया गया हमें! हमने लिया!
"भाई वाह!" कहा शर्मा जी ने,
"लाजवाब!" कहा मैंने,
"चार-पांच ढोर रखे हैं, चल जाता है काम!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया जी!" बोले शर्मा जी!
"और क्या साहब!" बोला वो,
"डाल, और डाल?" बोला बलदेव!
तो साहब, हमने तीन तीन सकोरे पिए मट्ठे के! उसमे जो मक्खन के दाने आते हैं, उसका स्वाद तो बस पीने वाला ही जाने! भला और कौन सा स्वाद टिकता है उसके सामने! लाजवाब!
"भाई मजा आ गया!" बोले शर्मा जी!
"हरि?" बोला बलदेव,
"हाँ जी?" बोला हरि!
''और ले आ!" बोला बलदेव!
''अभी लाया!" बोला वो, और डोल ले, चल पड़ा वापिस!
'अरे बस!" कहा मैंने,
"ले लो! पता भी न चलेगा!" बोला वो,
"पेट भर गया!" कहा मैंने,
"अभी?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भोजन?" पूछा उसने,
"अब भला जगह ही कहाँ?" पूछा शर्मा जी ने, पेट पर हाथ फेरते हुए!
"थोड़ा बहुत?'' बोला वो,
"क़तई भी नहीं!" बोले शर्मा जी!
तभी हरि आ गया, ले आया डोल भर कर! डाला फिर से, हींग-ज़ीरे की सुगंध ने फिर से पेट में चीर डाल दी! दो दो गिलास और डकोस गए हम!
''अब बस!" कहा मैंने,
और ली एक बड़ी सी डकार!
फिर शर्मा जी ने भी!
"हरि, ले जा अब!" बोला बलदेव!
"जी!" बोला वो, और उठा सामान, ले गया वापिस!
"अच्छा सुनिए!" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"जगह तो चाहिए ही होगी?" पूछा उसने,
"हाँ, सो तो है!" कहा मैंने,
"मिल जायेगी!" बोला वो,
'अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, है प्रबंध!" बोला वो,
"ये तो अच्छा है!" कहा मैंने,
"है जानकार!" बोला वो,
"ये बढ़िया हुआ!" कहा मैंने,
"सामान-सट्टा सब मिलेगा!" कहा उसने,
''अच्छा एक बात और?" कहा मैंने,
''वो क्या?" पूछा उसने,
''यदि स्त्री-घाड़ चाहिए हो तो?" पूछा मैंने,
"मिल जाएगा!" बोला वो,
''अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, चिंता न करो!" बोला वो,
"भाई ये तो ज़बरदस्त है!" बोले शर्मा जी!
"आप पिता जी के जानकार हैं!" बोला वो,
"हाँ, भले इंसान थे वो!" कहा मैंने,
"तो आप यूँ जानिए की वही हैं यहां!" बोला वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
"अरे कोई बात नहीं!" बोला वो,
"अब चलते हैं!" कहा मैंने,
"भोजन कर जाते, समय भी हो लिया!" बोला वो,
"बाद में कर लेंगे!" कहा मैंने,
"जैसी इच्छा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
हम उठे, और चलने लगे वापिस!
"चिंता नहीं है कोई, ठीक?" बोला वो,
"आप हैं तो कैसी चिंता!" कहा मैंने,
"हाँ, सारा काम हो जाएगा!" बोला वो!
तो हम वहां से आ गए वापिस अपनी जगह! कुछ देर आराम किया और फिर रिपुना के पास चले गए! उस से बातें हुईं, उसने भी पूछा कुछ इसी विषय में, उसको भी उत्तर दिए! उस रात भोजन वहीँ किया और करीब साढ़े दस बजे हम लौट आये वापिस, अपनी जगह! कुछ देर तक बातें करते रहे, और फिर चाय पी, उसके बाद, फिर सोने की तैयारी कर ली! आज के दिन तो आया नहीं था नेतराज, न ही उसका कोई फ़ोन या खबर आदि, अब कल देखते की क्या होता है! इसी उधेड़बुन में लग, सो गए हम!
अगला दिन, कोई ग्यारह बजे....
नेतराज का फ़ोन आया, मैंने ही बात की उस से, उसने ऐसा कुछ भी ज़ाहिर नहीं किया कि स्थिति गंभीर है कुछ!
"हाँ नेतराज?" कहा मैंने,
"क्या हो रहा है?'' पूछा उसने,
"इंतज़ार!" कहा मैंने,
"इंतज़ार? किसका?'' पूछा उसने,
"तेरा ही!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"कब आएगा?" पूछा मैंने,
"जल्दी ही!" बोला वो,
"तेरा आका कहाँ है?'' पूछा मैंने, हँसते हुए,
"आका! यहीं है!" बोला वो,
"क्या कर रहा है?'' पूछा मैंने,
"खोजबीन!" बोला वो,
"करने दे!" कहा मैंने,
''कर ही रहा है!" बोला वो,
"कुछ कह रहा था?' पूछा मैंने,
"ना! कोई चिंता नहीं उसे!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, कभी हारा नहीं वो!" बोला वो,
"अब तक बस!" कहा मैंने,
"वो तो आप जानो या सरणू जाने!" बोला वो,
"हाँ, तू भी जान जाएगा!" कहा मैंने,
"एक बात कहूँ?'' बोला वो,
"बोल?" पूछा मैंने,
"खेत जोता? जोत तो लिए होगा अभी तक?" पूछा उसने,
अब गुस्सा तो इतना आया कि इस नेतराज को झापड़ बजाये ही चला जाऊं! जब तक कि खून न फफकता फिरे अपने मुंह से!
"क्यों?" पूछा उसने,
"बोल तू?" बोला मैं,
"आपस की बात है, तो क्यों फसल का इंतज़ार करते हो? भेज-भाज दो, मामला ख़त्म!" बोला वो,
"सुन नेतराज?" कहा मैंने,
"सुन रहा हूँ!" बोला वो,
"ये सारी बातें, तेरे इस डेरे की होंगी! मेरा पक्ष तू नहीं समझ सकता!" कहा मैंने,
"यार? लड़ने को आते हो तुम तो!" बोला वो,
"लड़ने की बात नहीं है!" कहा मैंने,
''और क्या? एक बात बताओ, बोटी खाओ, हड्डी क्यों लटकाते हो गले में?" बोला वो,
"अब इस बारे में बातें न कर!" कहा मैंने,
''अच्छा छोड़ो यार! चलो फिर, आऊंगा तो फ़ोन करूँगा!" बोला वो,
"हाँ ठीक है!" कहा मैंने,
''अरे सुनो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"कोई गुंजाइश हो तो....." बोला वो,
"नहीं, कोई गुंजाइश नहीं है!" कहा मैंने,
"कैसी भी?" पूछा उसने,
"हाँ, कैसी भी!" बताया मैंने,
"ऐसी ज़िद का क्या फायदा?" बोला वो,
"अब कुछ तो होगा?" कहा मैंने,
"तो, वो ही तो कहा?" बोला वो,
"तू नहीं समझ सकता यार!" कहा मैंने,
''अच्छा, चलो, करूंगा बात बाद में!" बोला वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
और कट गया फ़ोन!
"बड़े ही कमीन आदमी हैं साले!" कहा मैंने,
"सो तो है ही!" बोले वो,
अब मैंने बता दिया उन्हें सारी बात के बारे में!
"ये हरामजादा नेतराज, कम से कम पैंतालीस का तो होगा?' पूछा उन्होंने,
"इस से कम क्या?'' कहा मैंने,
''और देख लो, ढंग!" बोले वो,
"इन्होने तो ही सारा मज़ाक उड़वाया हुआ है!" कहा मैंने,
"इनको तो बेंतम-बांत ही चाहिए!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब कब करेगा बात वो?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"पहले अपने मालिक के ** चूमेगा, फिर बताएगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो, आने दो!" बोले वो,
"हाँ, आने दो!" कहा मैंने,
"कहीं का कार्यक्रम है आज?" पूछा उन्होंने,
"अभी तक तो नहीं!" कहा मैंने,
"चलो फिर मंदिर हो आया जाए?" बोले वो,
"वो घाट वाले?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"रिपुना से भी पूछ लें?" बोले वो,
"अरे हाँ, मन बहल जाएगा उसका भी!" बोला मैं,
"हाँ, चलो फिर!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम पहुंचे वहां! रिपुना से बात की, वो तैयार हो गयी! और फिर हम, निकल पड़े मंदिर जाने के लिए! कुछ खा-पी भी आते!
वहां पहुंचे!
"रिपुना?'' बोला मैं,
"हाँ?" कहा उसने,
"गुमसुम सी क्यों हो?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"कल से देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"नहीं तो" बोली वो,
"चहक नही रही हो!" कहा मैंने,
"ऐसा नहीं है!" बोली वो,
"चिंता है?" पूछा मैंने,
"कैसी?" पूछा उसने,
"अपनी?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मैंने नहीं सोचा था कि यहां तक बात पहुँच जायेगी" बोली वो,
"मुझे तो पता था!" कहा मैंने,
"मुझ से गलती हुई न?" बोली वो,
"नहीं, लेकिन ये बोलकर हुई!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"चुप करो!" कहा मैंने,
"चुप रहने से बात दब जायेगी?" बोली वो,
"कैसी बात?'' पूछा मैंने,
"आप जानते हो!" बोली वो,
"प्रसाद!" शर्मा जी प्रसाद ले आये थे,
"हाँ, लाओ!" कहा मैंने,
"चलो आगे अब!" बोले वो,
"रिपुना, ये लो!" कहा मैंने,
दिया उसको प्रसाद का दोना!
"बाद में बात करते हैं!" कहा मैंने,
अब कुछ न बोली वो!
"बड़ी भीड़ है?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, है तो!" कहा मैंने,
"होती है है आजकल!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो आगे रिपुना!" कहा मैंने,
सर पर चुनरी ठीक कर, आगे बढ़ी रिपुना!
आखिर में, हमारा भी नंबर आ गया! हमने भी मंदिर में दर्शन किये और प्रसाद अर्पित किया! यहां कान्हा जी की बड़ी ही सुंदर सी मूर्ति लगी है! लेकिन कान्हा जी से अपना कुछ मतभेद रहता है! हमारा छत्तीस का आंकड़ा है! इसीलिए मूर्ति तो देखी, लेकिन नज़रें नहीं मिलायीं! नहीं तो वापिस जाना ही मुश्किल पड़ जाता! तब श्री हलधर जी से गुहार लगानी पड़ती तब जाकर कहीं ये मामला सुलटता! ऐसा एक दो बार नहीं, पता नहीं कितनी बार हुआ है! एक बार के बताता हूँ, बातें चल रही थीं, नयी महिंद्रा की जीप थी, थार, तो उसी से ग्वालियर जान एक था कार्यक्रम, किसी उपलक्ष्य में जाना था, शर्मा जी तो जानते हैं, तब ये बात छिड़ गयी! बात छिड़ी जी ये छाता के आसपास! और जैसे ही ये बात छिड़ी! समझो आया तूफ़ान! यूँ लगा लो मथुरा पकड़ना मुश्किल हो गया! टायर फटा! खड़ी गाड़ी का! भीड़ लग गयी, जाम मिला, कभी कोई राजनेता गुजरे और कभी राज्यपाल! गाड़ियों का तांता लग गया! और मथुरा पहुँचने में हमें, छह घंटे लग गए! तब जैसे ही मथुरा पहुंचे, नई गाड़ी के इंजन में आई दिक्कत! ये बड़ी हैरत की बात थी! वो ठीक करवाई! मथुरा में ही ढाई घंटा लग गया! तब जाकर, हाथ-पाँव जोड़े जी बांके-बिहारी के! मांगी माफ़ी! वो भी क़ुबूल न हुई! कभी कुछ और कभी कुछ! एक मन करे कि वापिस ही चला जाया जाए! एक मन करे, कि आगे बढ़ा जाए! और गाड़ी? गाड़ी तो जैसे हिलने का नाम ही न ले मथुरा से!
तब साहब, हम पहुंचे श्री हलधर जी के पास, एक शिक़ायत दर्ज़ करवाने उनके छोटे भाई के खिलाफ! यहां अक्सर सुनवाई हो जाती है, उस दिन, उस क्षण भी हो गयी! और तब जाकर साहब, हमने मथुरा छोड़ा! वो भी एक शर्त पर, कि वापसी आते हुए, पेड़ों का प्रसाद चढ़ाना होगा! भर ली जी हामी! बचा लिया जी श्री हलधर महाराज ने, श्री दाऊ जी ने! वो न हों तो समझो पाषाण ही बना दें ये कान्हा जी तो! एक नहीं चलने देते! मथुरा में मैंने आज तक एक भी काम नहीं किया! डर सा लगता है अंदर ही अंदर! कही कोई सोटा ही न बाज पड़ै चाँद पे! वापसी में, प्रसाद चढ़ाया! दाऊ जी के लिए पताका लाया था मैं ग्वालियर से, वो चढ़ा दी! तो जी, ये मथुरा वाला रास्ता, बड़ा ही खतरनाक है कम से कम मेरे लिए तो! कोई कहे न कि चलो मथुरा, लौट आएंगे साँझ तक, तो मेरी हंसी छूट जाती है! कौन सी साँझ? आज की या कल की!
तो यहां भी, नज़र न मिलायी उनसे! पता नहीं कब क्या कर दें! बस जी हाथ जोड़े और खिसक लिया मैं तो वहां से! बाकी लोगों ने प्रसाद चढ़ाया और लिया भी! मुझे दिया तो मैंने माथे से ग्यारह बार छुआ उसे, अजी छुआ क्या, ग्यारह बार क्षमा मांगी कि, हे बंसरी वारे, कोई भूल-चूक हो गयी हो, तो क्षमा कीजो! यहाँ का मामला, यहीं रहन दीजो! यहीं सुलट लीजो!
और तब हम वापिस हुए वहां से! वहीँ उसी मंदिर के रास्ते में, आलू-पूरी भी खा लीं! बढ़िया बनती हैं इस क्षेत्र में! दही के साथ तो मजा दोगुना हो गया! एक कड़ा जलेबी भी खायी! और फिर वापिस हो लिए हम!
हमने, रिपुना को उसकी जगह छोड़ा और वापिस हुए अपनी जगह! उस दिन बलदेव का भी फ़ोन नहीं आया था, इसीलिए वो साँझ और रात, वहीँ काट दी!
अगला दिन, दोपहर से कुछ पहले का समय.....
बलदेव का फ़ोन आया मेरे पास, बलदेव ने बताया कि आरती को ले आया है खादू और साथ में एक और आदमी भी आया है, वो आरती का रिश्तेदार है कोई, हम चाहें तो आ जाएँ और मुलाक़ात कर लें! खबर अच्छी थी! आरती कुछ न कुछ तो बता ही सकती थी! और जो आदमी उसके साथ आया था, वो भी कुछ न कुछ मदद कर ही सकता था!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?'' बोले वो,
"आओ चलें!" कहा मैंने,
"चलो जी!" बोले वो,
"रिपुना को फ़ोन मिलाइये ज़रा?" कहा मैंने,
"अभी लो!" बोले वो,
फ़ोन मिलाया, और दिया मुझे उठा फ़ोन, रिपुना ही थी उस तरफ!
"रिपुना?" बोला मैं,
"जी?" बोली वो,
"कैसी हो?" पूछा मैंने,
"ठीक, आप?" पूछा उसने,
"ठीक हूँ, सुनो?" कहा मैंने,
"बताइये?" बोली वो,
"मैं जा रहा हूँ ज़रा, वहीँ, बलदेव के पास!" कहा मैंने,
"अच्छा, वापसी?" पूछा उसने,
"शाम तक!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"कुछ मंगाना तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"दवा आदि कुछ?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो,
"तो वापिस आने पर मिलता हूँ!" कहा मैंने,
"अच्छा, ख़याल रखना!" बोली वो,
"हाँ, तुम भी, कोई बात हो, तो फ़ोन कर देना!" कहा मैंने,
"जी अच्छा!" बोली वो,
फ़ोन काट दिया फिर, इत्तिला कर दी गयी थी उसे!
''आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
और हम नीचे उतर आये कमरा बंद करके!
"लो पंडित जी!" बोले वो, चाबी देते हुए,
"कहीं जा रहे हो क्या?" पूछा पंडित जी ने,
"हाँ, शाम तक आ जाएंगे!" बताया उन्होंने,
''अच्छा!" बोले वो,
''आओ!" कहा मैंने,
हम चल पड़े बाहर फिर, आये सड़क तक, ली सवारी और चल पड़े! बस-अड्डे पहुंचे,
"बड़ी भीड़ है!" बोले वो,
"दिन का वक़्त है न!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"सभी को जल्दी रहती है!" बोला मैं,
"हाँ, दिन अँधेरे से पहले ही पहुंच जाएँ, कोशिश करते हैं लोग!" बोले वो,
"हाँ, यही बात है!" कहा मैंने,
हमने भी बड देखी, और चढ़ गए एक बस में! मिल गयी जगह टिकने की, बैठ गए!
