वर्ष २०१३ पूर्वांचल...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०१३ पूर्वांचल के एक स्थान की घटना!

85 Posts
1 Users
0 Likes
1,350 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

 मेरे सामने की बात है ये! उस मुर्दे का सीना और पेट, फट पड़े थे! सीने के अंग, हृदय, तिल्ली आदि सब उछल कर बाहर आ गए थे, सभी का रंग, काला सा पड़ चुका था! पेट से आंतें फट कर बाहर आ गयी थीं! ऊपर लगे उस छोटे से पौधे पर, वो आंतें झूलने लगी  थीं! वो मुर्दा जैसे, बीच में से टूट गया था, जैसे उसको मरोड़ दिया गया था! उसका सर, उसके कंधों के नीचे जा लगा था, उसकी टांगें हा में उछल कर, अलग अलग जा पड़ी थीं! आफ्टर-तफरी का माहौल बन चुका था वहां! उसके आसपास रखा भोग और दूसरी सामग्री, सब छितर चुकी थी! अलख में मांस के लोथड़े जा पड़े थे, भयंकर दुर्गन्ध छोड़ता हुआ वो मांस, जले जा रहा था! अलख सब भक्षण किये जा रही थी! जैसे ही अंगार उछले थे, मैं, रिपुना का हाथ पकड़, पीछे जा पलटा था! रिपुना के कमर से कुछ अंगार जा चिपके थे, मैंने झट से साफ़ किये वो, उसके केशों में अंगार के टुकड़े, जलते हुए लकड़ी के कोयले जा घुसे थे, केशों के जलने की गंध फैलने लगी थी, मैंने आनन-फानन में, वो सब निकाल दिए थे! रिपुना दर्द के मारे कराह उठी थी! मैंने जल्दी से उठाया उसे, और दौड़ पड़ा था पास में ही रखे जल के पास, जल्दी से पानी निकाला एक हौद से, और जल्दी से ही उसके केशों और कमर पर डाला! फिर हाथ लगा कर देखा, कुछ जलने के छोटे छोटे से निशान, चिंता की बात नहीं थी, दवा लगाने से, वो दो-चार दिन में ठीक हो जाने थे!
"रिपुना?'' पूछा मैं,
रिपुना, सर हिला कर, अपने सर से पानी झाड़ रही थी, उसके केश बहुत लम्बे हैं, नीचे पिंडलियों तक, केश बहुत ही सुंदर हैं उसके, स्वयं उसकी ही तरह! ये तो भला हुआ था, की उसने सूती वस्त्र पहन रखे थे, कहीं न पहने होते तो और चोटें और घाव पहुँच सकते थे उसे, वो मेरे साथ, दायें बैठी थी, जब वो अंगार उठे थे, तब मैंने अपनी भुजा में उसको कसने की सोची थी, वो इतने में पलट गयी थी, कुछ अंगार मुझ से भी जा चिपके थे, लेकिन मैं, फौरन ही साफ़ कर लिए थे!
''आओ रिपुना!" कहा मैंने,
उसका हाथ पकड़ा, और उसको ले चला संग अपने, अपने कक्ष तक पहुंचा, शर्मा जी को आवाज़ दी, वे आये बाहर, मामला समझने की कोशिश की और तब मैंने उनसे कुछ वस्त्र मांग लिए थे, अपने भी और रिपुना के भी, वस्त्र लिए और दिए रिपुना को,
"जाओ, स्नान करके आओ!" कहा मैंने,
उसने वस्त्र लिए और चली गयी स्नान करने, मैं भी तब, स्नान करने चला गया था! उस समय रात के डेढ़ बजे होंगे! मौसम में गर्मी थी बहुत उन दिनों, दिन तो तप ही रहे थे, रातों ने भी होड़ लगा रखी थी दिनों से! बैठे, उठते भी पसीना चूने लगता था!
उए स्थान था बहुलि का एक ब्रह्म-श्मशान! ये कहाँ है, इसके मैं अज्ञात ही रखूंगा! आज्ञा नहीं दी है इस स्थान का उल्लेख करने की! इसीलिए, अज्ञात ही लिख रहा हूँ! यहां एक शव-क्रिया का विधान रखा गया था, इसीलिए मैं भी यहां बाबा शलभ द्वारा आमंत्रित किया गया था, मुझे एक दूसरे स्थान पर, जहां मैं ठहरा था, रिपुना मिल गयी थी! रिपुना से मेरी जान-पहचान अधिक पुरानी नहीं थी, यही कोई चार या पांच माह पुरानी! वो, पूर्वांचल की रहने वाली थी, उसको देख कोई नहीं कह सकता था कि वो एक साधिका भी है! शव-क्रिया में, मैं ही लाया था उसको संग! लेकिन यहां तो कोई चूक हो गयी थी, जिसके कारण वो शव, क्षत-विक्षत हो गया था, अब उसका, सम्मानपूर्वक दाह-संस्कार ही होना था! और किसी क्रिया के लायक तो बचा ही नहीं था वो! मैंने स्नान जल्दी कर लिया था, इसीलिए अपने कमरे में आ गया था, कमरे में आया तो पीनी पिया और बैठ गया!
"क्रिया समाप्त?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं? तो फिर?" पूछा उन्होंने,
"कोई चूक हो गयी!" कहा मैंने,
"ओह....अच्छा!" कहा उन्होंने,
"हाँ, छोड़ना पड़ा फिर!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
"हाँ, इसीलिए लौट आया मैं!" कहा मैंने,
"और क्या, अब होता भी क्या?" पूछा उन्होंने,
तभी अंदर, रिपुना भी आ गयी, अपने बाल संवारे उसने, और अपने पलंग पर बैठ गयी!
"रिपुना? भूख तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोली वो,
"तो चलो, सोते हैं अब!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
मैंने तब बत्ती बंद की, और लेट गया अपने बिस्तर पर, सवा दो का वक़्त था, नींद आ जाती तो आराम तो हो जाता! तो नींद भी आ गयी, और हम सभी सो गए!
अगली सुबह, मैं बाबा शलभ के पास गया, रात जो हुआ था, उसके बारे में कुछ बातें हुईं, क्या चूक हुई थी, समझ में आ गया था, लेकिन कोई भी शव-क्रिया, छह माह से पहले नहीं हो सकती थी, अतः उनसे आज्ञा ली और मैं फिर अपने कमरे में आया!
"रिपुना? चलो, शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
''आओ चलते हैं अब!" कहा मैंने,
''चलो!" बोले वो,
और कुछ ही देर में, हम निकल लिए थे वहां से, बाहर आये, सवारी पकड़ी, और जहां हम ठहरे हुए थे, वहां आ गए! यहां आकर, चाय-नाश्ता किया, रिपुना को उसके कमरे में छोड़ा और हम अपने कमरे में आ गए! मैं तो जाते ही पसर गया था, थोड़ी ही देर में नींद ने आ घेरा! शर्मा जी भी, सो गए थे!
आँख, करीब दस बजे खुली, तब एक एक और चाय पी, चाय पीते पीते ही, रिपुना का आना हुआ उधर, वो बैठी, और फिर आगे का कार्यक्रम पूछा उनसे!
"अब यहां से कहाँ?" पूछा उसने,
"हम तो वापिस ही जाएंगे अब!" कहा मैंने,
''दिल्ली?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो,
"और तुम?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, दीदी के साथ ही जाउंगी!" बोली वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"कब निकलोगे?' पूछा उसने,
"शायद, कल!" कहा मैंने,
'''अच्छा!" बोली वो,
"हाँ!" बोला मैं,
"और पहुंचोगे कब?" पूछा उसने,
"चौबीस घंटे तो लग जाएंगे कम से कम!" कहा मैंने,
"बहुत दूर है!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और कब मिलना होगा फिर?" पूछा उसने,
"जब भी आया उधर तो!" कहा मैंने,
"कब आओगे?" पूछा उसने,
"अभी तो गया ही नहीं!" बोला मैं,
हंस पड़ी वो! मुस्कुराने लगी!
"तुम पता नहीं कहाँ जाने वाले हो दीदी के संग!" कहा मैंने,
"हाँ, पता नहीं!" बोली वो,
"चलो, फ़ोन पर बनी रहना!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"आओ, चलो ज़रा!" कहा मैंने,
उसने नहीं पूछा कि कहाँ, उठ चली मेरे साथ चलने को! मैं बाहर आ गया था कमरे से, दायें-बाएं देखा, और चला फिर बाएं!
"कहाँ?" पूछा उसने,
"आओ तो सही!" कहा मैंने,
"कोई काम है?" पूछा उसने,
"हाँ!" बोला मैं,
"किस से?" पूछा उसने,
"सवाल मत करो!" कहा मैंने,
''अच्छा, नहीं करती!" बोली वो,
मैं मुस्कुरा पड़ा! वो आसपास देखे जा रही थी, कोई था ही नहीं वहां, बस केले के लगे, बड़े बड़े से पेड़!
"ये जगह देखी है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"आओ!" कहा मैंने, अपना हाथ आगे बढ़ा कर, दिया उसने हाथ अपना, मैंने पकड़ा और चल पड़ा आगे, उसको जैसे, खींचते हुए!


   
Quote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

तो मैं उसे, एक ऊँची सी जगह ले आया था, बहुत ही सुंदर जगह थी वो! दरअसल वो एक नदी का किनारा था, खादर का क्षेत्र था उस नदी का! रेत था वहां, और रेतीली झाड़ियाँ! कुछ जंगली फूल भी खिले थे, कुछ कंटीलियाँ भी ज़मीन पर रेंग रही थीं! कंटिलियाँ मायने, ज़मीन पर चलने वाले पौधे! जैसे कि गोखरू आदि!
"ओह! कितनी सुंदर जगह है!" बोली वो,
"हाँ, बेहद सुंदर!" बोला मैं,
"ये कौन सी नदी है? बहुत बड़ी और चौड़ी है? कहीं गंगा जी तो नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं, गंगा जी नहीं है ये! ये सोन नदी है!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
"एक शहर बसा है इसके नाम पर! अंग्रेजों ने रखा था वो नाम, आज तक वही है!" कहा मैंने,
"कौन सा नाम?" बोली वो, चेहरे पर आये अपने बालों को हटाते हुए!
"देहरी-ऑन-सोन!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोली वो,
"हाँ! बहुत सुंदर जगह है वो भी!" कहा मैंने,
"हाँ होगी, ये नदी सच में ही बहुत सुंदर है!" बोली वो,
"हाँ, इसीलिए लाया था तुम्हें यहां!" कहा मैंने,
"सच में? बस, इसीलिए?" शरारत भरे लहजे में बोली वो!
"हाँ, इसी लिए बस!" कहा मैंने,
"मैंने तो सोचा था........!" हंस पड़ी वो फिर!
"गलत सोचा था!" कहा मैंने,
"क्या गलत?" पूछा उसने,
"ये सवाल पूछना!" कहा मैंने,
"बहुत तेज हो!" बोली वो,
"नहीं तो?" कहा मैंने,
"हो, मान जाओ!" बोली वो,
"चलो मान लिया!" कहा मैंने, और बात खत्म की!
"सुनो?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"कहीं बैठें?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोला मैं,
मैंने आसपास देखा, कुछ पेड़ लगे थे वहां, वहीँ बैठा जा सकता था,
''वो जगह ठीक है?" पूछा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोली वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े, उन पेड़ों के लिए! वहां पहुंचे, रेत थी वहां पर, सीपियाँ छोटी छोटी! उसने अपना दुपट्टा बिछा दिया, और हम बैठ गए फिर उस पर!
हवा बहुत अच्छी चल रही थी, उसके लम्बे बाल, तंग कर रहे थे उसे, बार बार उसके चेहरे पर आ जाते थे!
"बाँध क्यों नहीं लेतीं इन्हें?' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
और बाँध लिए बाल उसने, इतने लम्बे बाल, वैसे भी किसी स्त्री पर, अच्छे ही लगा करते हैं, मुझे भी अच्छे ही लगे! काले, घने लम्बे बाल!
"तो तुम कल निकलोगी?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोली वो,
"क्यों नहीं पता?" पूछा मैंने,
"ये तो दीदी ही जाने!" बोली वो,
"हाँ, ये भी है!" कहा मैंने,
"आप तो कल ही निकलोगे?" पूछा उसने,
"हाँ, कल ही!" कहा मैंने,
''एक बात बताओ?" बोली वो,
"पूछो?" कहा मैंने,
"कभी दीदी से आपकी बात हुई है?" पूछा मैंने,
"बहुत ही कम!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"कोई काम ही नहीं पड़ा!" कहा मैंने,
"और सरणू से?" पूछा उसने,
''सरणू?" मैंने चौंक के पूछा! मैं, उठ, बैठ गया था ठीक से!
"हाँ, सरणू!" बोली वो,
"तुम कैसे जानती हो सरणू को?" पूछा मैंने,
"बताओ तो?" पूछा उसने,
"पहले तुम बताओ?' कहा मैंने,
''आप बताओ पहले, सवाल मेरा था पहला!" बोली वो,
"हाँ, जानता हूँ उसे!" कहा मैंने,
"कैसे?'' पूछा उसने,
"काशी से!" कहा मैंने,
"अच्छा, हम्म्म!" बोली वो,
"तुम कैसे जानती हो उस सूअर की औलाद को?" पूछा मैंने,
मैंने गाली दी, तो वो चौंकी!
"कैसे जानती हो?" पूछा मैंने,
"काशी से!" बोली वो,
"कैसे आयीं सम्पर्क में उसके?" पूछा मैंने,
"दीदी द्वारा!" बोली वो,
"और दीदी कैसे आयीं?" पूछा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोली वो,
"सरणू, तुम्हारे साथ...बाज आया?" पूछा मैंने,
"हाँ, आना पड़ा उसे!" बोली वो,
"दीदी को बताया?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"छोड़ो!" बोली वो,
"नहीं, बताओ?" पूछा मैंने,
''छोड़ो न?" बोली वो,
"नहीं रिपुना!" कहा मैंने, मुझे अब गुस्सा आने लगा था!
"सरणू, आने वाला है!" बोली वो,
"आने वाला है? कहाँ?' पूछा मैंने,
"यहीं!" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"दीदी के पास!" बोली वो,
"वो किसलिए?" पूछा मैंने,
"उसके साथ ही तो जाना है!" बोली वो,
"अच्छा! अब समझा!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो!
"तुम नहीं जाना चाहतीं! है न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"मुझे यही लगा!" कहा मैंने,
"हम्म" बोली वो,
"इसीलिए मुझे ये बताया!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
"तो मना कर दो दीदी से?" कहा मैंने,
"मान जाएंगी?" बोली वो,
"हम्म! समझ गया!" बोला मैं,
"अब?" बोली वो,
"सोचने दो!" कहा मैंने,
"सोच लो!" बोली वो, और उठी वहां से, बढ़ी नदी की तरफ! मैं देखता रहा उसको! अजीब बात थी, कैसा टेढ़ा-मेढ़ा घुमा कर, उसने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था! लेकिन, मैं क्या करता? मेरा क्या किरदार था इसमें? आ बैल, मुझे मार!
उसने जाते हुए, मुझे देखा, मैंने भी देखा! वो मुस्कुराई और बाल खोल लिए उसने! अलमस्त सी घटा की तरह, उसके केश फ़ैल गए! उसने अपने हाथों को उठा लिया ऊपर! उसके ऊपर जैसे हवा, हवा न हो कर, कोई मनमोहक स्पर्शक हो, ऐसा लग रहा था! मैं उठा, वो चला उसकी तरफ! उसके पास गया! उसके केश टकराये मेरे चेहरे से! उसने आँखें बंद कर रखी थीं!
"रिपुना?'' बोला मैं,
उसने ना खोली आँखें अपनी!
"रिपुना!" कहा मैंने,
ना! कोई असर नहीं! जैसे मेरे शब्द, पहुंच ही नहीं रहे थे उस तक! जैसे, हवा, बीच में से ही उड़ा ले जाती थी उन्हें झपट कर!
"रिपुना?" बोला मैं,
और तब आँखें खोलीं उसने!
"रिपुना!" कहा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मुझे यहीं रहने दो!" बोली वो,
"वो किसलिए?" पूछा मैंने,
''सवाल न पूछो!" बोली वो,
"क्यों भला?'' पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोली वो, और आगे बढ़ गयी! नदी की तरफ! मैं मुस्कुराया! शायद, वो परिदृश्य उसे, बहुत ही मनमोहक सा लगा था! जैसे अनियंत्रित सी हो गयी थी वो! मैं भी, चल पड़ा उसके पीछे पीछे, नदी की तरफ!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैं आ गया था उसके पास! हवा बहुत तेज थी! पानी से टकरा कर आती हवा, ठंडक से भरी हुई, टकरा जाती थी बदन से! कपड़े फ़ड़फ़ड़ा जाते थे! मैं आया उस तक, वो, दूर नदी में देख रही थी! नदी में, जहां धूप, उस जल से अठखेलियां किये जा रही थी!
"कहाँ खो गयीं रिपुना?' पूछा मैंने!
"कहीं नहीं!" बोली वो!
"इतना गंभीर कैसे हो गयीं तुम?" पूछा मैंने,
"आपको क्या?'' बोली वो,
"क्यों नहीं?" पूछा मैंने,
"आप तो जा रहे हैं न?'' बोली वो,
"हाँ, जा तो रहा हूँ, लेकिन वो कल, मैं तो आज और अभी की बात कर रहा हूँ!" कहा मैंने,
उसने, गंभीर भाव से देखा मुझे, जड़ जैसा भाव, निःस्पंद भाव! ऐसे भाव, अक्सर, बेहद वजनदार हुए करते हैं, ठीक ऐसा ही भाव, नज़रों से, मुझे पूरा तोल लिया था उसने जैसे!
"वो जल है न?" उसने सामने बहते जल की तरफ इशारा करते हुए पूछा,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये ठहरता नहीं है न?" पूछा उसने,
"हाँ! यही प्रकृति है इसकी!" कहा मैंने,
"और अगर ठहर जाए तो?" पूछा उसने,
"तो दूषित हो जाता है!" कहा मैंने,
उसने, फिर से, उस, चित-भाव से, देखा मुझे पुनः!
मैं आगे बढ़ा, उसकी भुजा पकड़ी, उसने कोई प्रतिक्रिया न की, बस, सामने ही देखती रही वो!
"आओ, वापिस चलें!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"समय हो चला है!" कहा मैंने,
"समय तो हम बनाते हैं न?'' पूछा उसने,
"हाँ! सच है!" कहा मैंने,
"आओ, बैठते हैं!" बोली वो,
और मैंने हाथ छोड़ा उसका, चला उस पेड़ की तरफ! और हम बैठ गए! वो कुछ बोल नहीं रही थी, चुपचाप ही बैठी थी, ऐसा, मैंने उसकी आदत में, क़तई न देखा था! अजीब सा ही लगा मुझे!
"क्या बात है रिपुना?'' पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"तो चुप क्यों हो?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो,
"वापिस चलें?" पूछा मैंने,
"क्यों? परेशान हो गए?" पूछा उसने,
"नहीं तो!" कहा मैंने,
"तो बैठो फिर?" बोली वो,
"बैठा हूँ!" कहा मैंने,
उसकी निगाहें फिर से नदी की तरफ चली गयीं! अंगड़ाई ली उसने! और बदन ढीला सा छोड़ दिया अपना!
"सुनो?" कहा मैंने,
"हूँ?" बोली वो, बिना मुझे देखते हुए!
''सरणू संग नहीं जाना?" पूछा मैंने,
अब देखा मुझे उसने!
"हाँ, नहीं जाना!" बोली वो,
"कुछ बात?" पूछा मैंने,
"हम्म!" बोली वो,
"क्या भला?' पूछा मैंने,
"हलिया बनाएगा मुझे!" बोली वो,
"क्या???" पूछा मैंने चौक कर!
"सही सुना!" बोली वो,
"तो मना कर दो?" कहा मैंने,
"नहीं कर सकती!" बोला मैं,
"नहीं कर सकती!" बोली वो,
"क्यों??'' पूछा मैंने,
"दीदी नहीं मानेगीं!" बोली वो,
"वो किसलिए?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" कहा उसने,
मित्रगण! सांप जाता दीख रहा था, अलग ही, न मेरा उस से कोई लेना, न उसका मुझ से कोई लेना! वो अपनी राह और मैं अपनी राह! लेकिन, अब लगा रहा था कि उसने खूब तंग कर, अपने गले में डालने वाला था मैं!
"तुम चाहती हो कि मैं मना करूँ दीदी को?" पूछा मैंने,
"कर सकते हो?" पूछा उसने,
"कोशिश कर सकता हूँ!" बोला मैं,
"रहने दो!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोशिश नहीं करनी!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"तुम नहीं जाओगी!" कहा मैंने,
और इस तरह, डाल लिया सांप गले में!
"सच?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" पूछा उसने,
"मना!" बोला मैं,
"दीदी को?" पूछा उसने,
"नहीं, सरणू को!" कहा मैंने,
"न माना तो?" बोली वो,
"मुझ पर छोड़ दो!" कहा मैंने,
अब मुस्कुराई खुल कर! वैसे भी, एक पुरुष से, एक स्त्री सबसे पहले, अपनी सुरक्षा का अभाव पूर्ण किया करती है! पुरुष इस से रिक्त हैं! इसीलिए मुस्कुराई थी वो, खुल कर, दिल से!
"सरणू, श्रेष्ठ का ही संबंधी है!" कहा मैंने,
"हाँ, पता है!" बोली वो,
"इसीलिए मेरा और उसका आंकड़ा उल्टा है!" कहा मैंने,
"जानती हूँ!" बोली वो,
"खैर!" कहा मैंने,
"आओ ज़रा!" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
''आओ तो सही?" बोली वो,
"चलो!" कहा मैंने,
चल पड़े हम नदी की तरफ! किनारे पर पहुंचे! गीली रेत पर, नंगे पाँव चलने लगी वो! उसे अच्छा लगा रहा था ऐसा करना!
"आओ?" बोली वो,
"अरे नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उसने,
"रेत चिपक जायेगी!" कहा मैंने,
''तो धो लेना!" बोली वो,
"खुजली करती है फिर!" कहा मैंने,
"नहीं तो!" बोली वो,
"तुम घूमो!" कहा मैंने,
और मैं वही बैठ गया, एक जगह, सूखे रेत पर! वो आगे तक चली गयी!
"रिपुना? और आगे नहीं!" कहा मैंने,
नहीं सुना उसने, आगे बढ़ती रही! तब मैं उठा, उठना पड़ा! चला उसकी तरफ!
"रिपुना?" बोला मैं,
सब देखा उसने मुझे!
"आओ? वापिस लौटो?" कहा मैंने,
"आती हूँ!" बोली वो, और, और आगे चल पड़ी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वो आगे, और आगे बढ़े जा रही थी, न जाने मेरे मन में कुछ आशंका सी उभरी, मैंने झट से अपने जूते और जुराब उतार फेंके और दौड़ लिया उसकी तरफ! उसने देखा मुझे, गंभीर हो कर और चलने लगी नदी की तरफ! उसके अब पाँव डूब चले थे पानी में! मैं तेजी से दौड़ा! पानी का बहाव बहुत तेज था उस वक़्त! छोटे छोटे से भंवर बन रहे थे! मैंने दौड़ कर, उसकी बाजु पकड़ ली!
"क्या है ये? हैं? सुनाई नहीं दिया था?" पूछा मैंने,
शांत सी खड़ी थी वो, मुझे देखते हुए, देख रही थी!
"रिपुना? क्या है ये? दिमाग चल गया है क्या तुम्हारा?'' पूछा मैंने, हिलाते हुए उसको!
"मैं नहीं जाउंगी!" बोली वो, धीरे से, बिलकुल धीरे से,
"नहीं जाओगी तुम, कह दिया न?" कहा मैंने,
"मैं नहीं जाउंगी!" बोली फिर से,
अब मुझे कुछ और ही बात लगी, कुछ ऐसी बात, जो वो मुझे बता नहीं रही थी, कोई ऐसी बात, जो उसको साल रही थी अंदर ही अंदर!
अगले ही पल, मुझ से लिपट गयी वो, उसके वसख में ज़ोरदार स्पंदन से हुए, मैं समझ गया था, रुलाई फूट पड़ी ही उसकी!
"क्या बात है रिपुना? बताओ मुझे? नहीं जाओगी तुम वहाँ, कह दिया न मैंने?" कहा मैंने, उसके सर पर हाथ फेरते हुए!
"मुझे मत भेजना! मत भेजना!" बोली वो,
"नहीं भेज रहा! लेकिन मुझे बताओ, क्या बात है?" पूछा मैंने,
मैं उसका हाथ पकड़, ले आया बाहर वहां से, किनारे की तरफ, गीली रेत हटती गयी और सूखी रेत पर पाँव पड़े! ले आया उसको वापिस, जूते-जुराब दूसरे हाथ से पकड़ कर, ले आया था, आया और बिठाया उसे वहां!
अब उसने जो बताया तो मुझे बेहद बुरा लगा, और इस रिपुना पर तरस आने लगा, दरअसल, उसकी बड़ी बहन का चरित्र ही ठीक नहीं था, सरणू और उसकी दीदी एक प्रकार से एक दूसरे के पूरक थे, सरणू साधना आदि के नाम पर, इस रिपुना को भी दूषित करना चाहता था, एक प्रयास उसने दो बार किया था, और इसी कारण से रिपुना नहीं जाना चाहती थी! अब रिपुना की मदद करना, बेहद ज़रूरी था, नहीं तो, उसको क्या क्या बर्दाश्त करना होता, ये तो सोचा भी नहीं जा सकता था! सरणू, वैसे तो प्रबल साधक ही था, उसकी पैठ अच्छे अच्छे साधकों में थी!
"रिपुना?' पूछा मैंने,
"हाँ?' बोली वो,
"इस से तो निश्चिन्त हो जाओ कि अब तुम वहां जाओगी! कोई नहीं, नहीं भेज सकता तुम्हें वहाँ! लेकिन तुम्हारी दीदी, उन्हें तुम्हें ही सम्भालना होगा!" कहा मैंने,
''वो मैं कह दूँगी!" बोली वो,
"तब तो कोई चिंता नहीं!" कहा मैंने,
"सुनो?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
मुस्कुराई वो!
"धन्यवाद कहूँ?" पूछा उसने,
"अभी नहीं!" कहा मैंने भी, मुस्कुराते हुए!
"ठीक है!" बोली वो,
"आओ, चलें वापिस!" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" कहा उसने,
और हम दोनों, अब चल पड़े वापिस! बातें करते करते, आ गए थे वापिस! वो अपने कक्ष की ओर चली गयी और मैं अपने कक्ष की ओर! अंदर आया तो शर्मा जी, कुर्सी पर बैठे थे, चाय पी रहे थे! मैं भी बैठा, और फिर, सबकुछ बता दिया उन्हें! सबसे पहले तो उन्हें उसकी दीदी पर गुस्सा आया और फिर उस सरणू पर! भारी-भारी, बड़ी बड़ी गालियों के फूल चढ़ा दिए एक ही सांस में उन दोनों को उन्होंने!
"कब आ रहा है ये सरणू?" पूछा उन्होंने,
"शायद कल!" कहा मैंने,
"ठीक है, ज़रा इसके हाल-चाल पूछ लें!" बोले वो,
"हाँ, पूछने ही पड़ेंगे!" कहा मैंने,
"पूछते हैं!" बोले वो,
उस शाम, मैंने रिपुना को कुछ समझाया, कि अगर बात आगे बढ़ी, तो उसे क्या कहना है, क्या चुनना है! बाकी मैंने जानी! रिपुना को सब समझा दिया था! उस शाम, और भी कई बातें बतायीं उसने मुझे उस सरणू के बारे में! सरणू, वाक़ई में ही एक कमीना इंसान था! एक ऐसा इंसान, जो अपने स्वार्थ के लिए, किसी मासूम को भी न बख्शे! मैंने रिपुना को बता दिया था, कि वो बस, अपनी ज़िद पर ही डटी रहे, रही उसकी दीदी, अगर ज़रूरत पड़ी, तो उनसे भी बात कर लेते!
अगला दिन....
करीब, ग्यारह बजे, सरणू आ गया था! संग उसके, दो साधिकाएं और दो और साथी थे! सजा-धजा आया था! जैसे कोई व्यवसायी हो! उसके वहां कई जानकार थे, उनसे ही मिलता-जुलता रहा था वो! करीब दो बजे, मेरे पास रिपुना आई! घबराई हुई थी बहुत! मैं समझ गया था, कि सरणू उसको ही लेने आया था!
"यहीं बैठो!" कहा मैंने,
उसको बिठा लिया वहीँ पलंग पर!
"मत घबराओ!" कहा मैंने,
"पानी लोगी?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं..." धीरे से बोली!
"डरो मत रिपुना! अब मैं बात करूंगा! तुम चिंता नहीं करो!" कहा मैंने,
करीब दस मिनट के बाद, रिपुना को बुलाने के लिए, एक औरत आई! सीधे ही, उसको देख, कमरे में घुस आई! मुझे गुस्सा आ गया!
"हे? बाहर चल?" कहा मैंने, चुटकी बजाते हुए!
बड़ा अजीब सा मुंह बनाया उसने उसी वक़्त!
"सुना नहीं? बाहर चल, अभी?'' कहा मैंने,
वो चली बाहर, खड़ी हो गयी दहलीज पर!
"रिपुना? दीदी बुला रही हैं!" बोली वो,
"जा, कह दे, मेरे पास बैठी है!" कहा मैंने,
"किसके पास?" बोली वो,
"मेरे पास!" कहा मैंने,
"कोई नाम तो होगा?" बोली वो,
"बोल दे, दिल्ली वाले के पास है, अब जा, मुंह न चला!" कहा मैंने,
पाँव पटकते हुए, चली गयी वो!
"ये कौन है?" पूछा मैंने,
"है, दीदी के संग ही रहती है!" बोली वो,
"बड़ी ही बेहूदगी से पेश आई ये तो?" कहा मैंने,
"बद्तमीज़ है!" बोली वो,
"वो तो दिख ही गया!" कहा मैंने,
"आ रहा है कोई!" बोले शर्मा जी,
"आने दो!" कहा मैंने,
तभी दो आदमी आये उधर! अंदर झाँकने लगे!
"क्या है?? क्या बात है?" पूछा मैंने, बाहर जाते हुए!
"उसको भेज!" बोला वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"उस लड़की को!" बोला इशारा करते हुए,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"हट न तू?" बोला वो,
"ओ! खलीफा! ढंग से बात कर रहा हूँ, ढंग से पेश आ! समझा? और पीछे हट? हट?" कहा मैंने, हाथ के इशारे से पीछे जाने को!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अच्छा?" चीखा वो!
"हट ले! अभी हट ले! समझा?" बोला मैं,
"क्या कर लेगा तू? हैं?" बोला वो, सीना तान के!
"दो साले के एक खींच के थोबड़े पर! *** का जंवाई कहीं का, साला!" आये शर्मा जी गुस्से में, चीखते हुए!
वो थोड़ा सा भयभीत हुआ! पीछे हुआ ज़रा सा! उसका साथी, चुपचाप देखे जा रहा था, सबकुछ होते हुए!
'तू नहीं जानता मैं कौन हूँ?" बोला वो,
"प्रधानमंत्री है या मुख्य-मंत्री? हैं रे?" बोले शर्मा जी!
"लड़की को भेज?" बोला वो,
"क्यों? बेटी है तेरी?" पूछा मैंने,
"बकवास बंद कर, वरना?" बोला वो,
"अरे? वरना? क्या वरना बहन के **! तेरी माँ का *** **!" बोले शर्मा जी, और चले अंदर, निकाला बैग में से खंजर मेरा! खोल लिया और मुझे दे दिया! मैंने ही ले लिया था उनके हाथ से दरअसल! खंजर देख कर, वे दोनों हुए सुट्ट! उन्होंने ऐसा सोचा भी नहीं था कि बात यहां तक आ जायेगी!
"अब निकल ले ओ ** * **! समझा? भाग यहां से कुत्ते के **!!" चीखा मैं,
"ये ज़ुबान निकल जायेगी बाहर, खींच ली जायेगी बाहर!" बोला हाथ नचा के अपना!
"आबय ओ? नहीं मानेगा? ज़ुबान तो बाद में निकलेगी, तेरा गुर्दा-तिल्ली अभी निकल आएगा, अब जा, जा यहां से, अगर एक पल और ठहरा, तो बचने वाला नहीं तू! ओये कुत्ते? जा ले जा इसे यहां से, अभी, ऐसी वक़्त!" बोला मैं, उस दूसरे आदमी से!
नथुने फुलाते हुए, दोनों ही खिसक लिए वहाँ से!रिपुना को हुई घबराहट! मैंने दिया पानी उसे!
"घबराओ मत! ये ऐसे ही बाज आते हैं! और भाषा नहीं आती इन्हें समझ!" कहा मैंने,
बेचारी का, डर के मारे बुरा हाल था, पता नहीं, क्या हो अब! इसी सोच में डूबे जा रही थी! हवाइयां उड़ने लगी थीं चेहरे पर!
मैंने हिम्मत बंधाई उसकी! शर्मा जी बाहर ही खड़े रहे, तमाशा बना तो कुछ और तमाशबीन भी ताँका-झांकी करने लगे, कुछ बाहर आ खड़े हो गए!
"कोई लट्ठ या डंडा है क्या?" पूछा मैंने,
"यहां तो कोई नहीं है!" बोले वो,
"चलो, कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
''आ रहे हैं, बड़ी बहन आ रही है अब कि!" बोले वो,
''आने दो!" कहा मैंने,
और थोड़ी ही देर में, उसकी बड़ी बहन आ गयी उधर, साथ में वही दो आदमी भी थे, बाहर ही खड़े रहे वे तीनों ही! अंदर झाँकने लगे थे!
"रिपुना? बाहर आ?" बोली उसकी बड़ी बहन!
रिपुना ने सर फेर लिया अपना!
"रिपुना? मैं कहती हूँ बाहर आ वहां से?' चीख कर बोली वो,
कोई जवाब नहीं दिया उसने! चुप ही बैठी रही अंदर! मैं सबकुछ देखता रहा! शर्मा जी भी दरवाज़े पर खड़े हुए, सब देखते रहे!
"रिपुना? देख, मुझ से बुरा कोई नहीं होगा?" बोली वो चीख कर!
कोई जवाब नहीं दिया रिपुना ने, देखा भी नहीं! जैसा समझाया था, ठीक वैसा ही कर रही थी वो!
"रिपुना?" फिर से चीखी वो!
"सुना नहीं? नहीं आ रही वो, अब कान मत खाओ, और लौट जाओ!" बोला मैं उस से!
उसने मुझे ज़हरीली निगाह से देखा! दांत पीस लिए!
"तुम कौन होते हो मेरे और इसके बीच में बोलने वाले? हुंह?'' बोली वो,
"अब जो होता हूँ, वो ये जानती है! तुमने तो खूब सेंक लिए उसके **, उस कमीने के, ये नहीं करेगी ऐसा, अब जाओ!" कहा मैंने,
"चुप करो?" बोली वो,
''अरे जाओ! जाओ?" कहा मैंने,
"रिपुना?" फिर से बोली वो,
"क्या रिपुना रिपुना? देखा नहीं? नहीं आ रही वो? चलो जाओ अब?" कहा मैंने,
"क्यों मरना चाहता है? क्या ठान रखी है?" बोला वही, जो पहले आया था!
"ओ! ****** के चपरासी! तू तो निकल ले यहां से, नहीं तो तेरी ** ** ** की क़सम, काट ले रख दूंगा यहीं!" कहा मैंने,
"जीभ को अंदर ही रख!" बोला वो,
"और तूने अब अगर बाहर निकाली, तो मुंह से तो अंदर जायेगी नहीं दुबारा!" कहा मैंने,
"रिपुना?" बोली फिर से वो!
"क्यों रिपुना का राग अलापे जा रही है? चल, बढ़ आगे!" बोले शर्मा जी!
"बंद कर दो दरवाज़ा शर्मा जी, ये ऐसे नहीं जाएंगे!" कहा मैंने,
और तब, एक ही झटके में, दरवाज़ा बंद कर दिया शर्मा जी ने!
''आ जाओ!" कहा मैंने,
बाहर क़दमों की आवाज़ हुई! वे लौट गए थे सभी वापिस!
"रिपुना?" बोला मैं,
"हूँ!" घबरा के बोली वो,
"हो गया काम!" कहा मैंने,
"वो..." बोली वो और रुकी!
''सरणू?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोली वो,
''अब आने वाला है बुलावा!" कहा मैंने,
"बुलावा?" पूछा उसने,
"हाँ, दो-चार इकट्ठे होंगे अब, बात की जायेगी!" कहा मैंने,
"फिर?" पूछा उसने,
"तुम्हारी राजी पर अड़ेंगे हम!" कहा मैंने,
"हूँ" बोली वो,
"तो बस!" कहा मैंने,
"और दीदी?" बोली वो,
"अरे कहाँ की दीदी?" बोले शर्मा जी,
चौंक के देखा रिपुना ने उन्हें!
"कहाँ की दीदी? देखा नहीं?" बोले वो,
"पैरवी कर रही है तुम्हारी बहन तो!" कहा मैंने,
"वो तो करेगी ही!" बोले शर्मा जी,
"तो कहाँ की बहन?" पूछा मैंने,
"यही तो कहा मैंने!" बोले वो,
उठे वो, और लेने चले पानी!
"पानी लोगे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
पानी दिया मुझे, पिया मैंने,
और दरवाज़े पर हुई दस्तक!
"मैं देखता हूँ!" कहा मैंने,
और चला दरवाज़े की तरफ! खोला, तो दो आदमी खड़े थे!
"हाँ?" कहा मैंने,
"वो, बुला रहे हैं आपको!" बोला एक,
"कौन?" पूछा मैंने,
"जोत नाथ जी!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"बैठक में" बोला व,
"चलो, आता हूँ!" कहा मैंने,
वो लौट गए, और मैं चला रिपुना के पास!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"रिपुना, आओ?" कहा मैंने,
वो पहले से ही घबराई हुई थी, अब तो जान ही निकलने लगी थी उसकी!
"उठो, अब जो होना था, हो लिया! अब मत डरो रिपुना! तुम्हारा डर ही तो उनकी हिम्मत है! हम हैं न साथ में तुम्हारे, फिर? अब न डरो! आओ! सामान्य सी बन कर! कोई कुछ नहीं कहेगा, किसी की हिम्मत नहीं है!" कहा मैंने,
अब जितनी हिम्मत बंधा सकता था, बंधा रहा था!
''आओ?" कहा मैंने,
उसके हाथ पकड़ कर, उठा लिया मैंने उसे,
''चलो!" कहा मैंने,
"सुनो, ज़्यादा से ज़्यादा क्या होगा? यहां से जाने का आदेश ही तो मिलेगा?चले जाएंगे! उसमे क्या! यहां बहुत हैं, उसकी चिंता न करो तुम! बस, अपने आप में मज़बूत रहो, बाकी मैंने जानी! हाथ कोई लगा नहीं सकता! हाथ लगाने के जिसने भी सोची, समझो हुआ बलवा फिर!" कहा मैंने,
"फिर तो समझ लो, मरो, या मारो!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, ऐसा ही समझ लो!" कहा मैंने,
"सुनो रिपुना! बेटा, जितना दबाए, उतना दबाया जाएगा! अब समझ लो तुम!" बोले शर्मा जी!
"हाँ! चलो अब, आओ!" कहा मैंने,
वो खड़ी हुई, और अब, थोड़ी सी हिम्मत दिखी उसमे!
''चलें?" पूछा मैंने,
उसने, सर हिलाकर, हाँ कहा!
"आओ फिर!" कहा मैंने,
दरवाज़ा खोला मैंने, तमाशबीनों की जैसे लॉटरी खुली! सभी देखने लगे, मुंह बंद किये अपने! पीठ पीछे ही मुंह खुलते उनके!
"बैठक का रास्ता कौन सा है?" पूछा मैंने,
"वहाँ से" बोली वो,
'आओ फिर!" कहा मैनें,
इस तरह, हम जा पहुंचे वहां, करीब बीस लोग बैठे थे उधर, लेकिन वो सरणू न था उनमें! सोच रहा था कि ऊँट तो बैठना ही उसकी करवट है! ये नहीं पता था उसे, कि ऊँट बैठने ही वाला नहीं था अब!
हम वहां पहुंचे, तो रिपुना की दीदी नथुने फुला, हमें ही देख रही थी, घूर घूर के! वो दोनों भी और वो औरत भी! हम बैठ गए एक जगह!
"लड़की को क्या बहलाया-फुसलाया है?" बोला एक प्रौढ़ सा व्यक्ति!
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
''तो भेजा क्यों नहीं?" पूछा उसने,
''वो नहीं जाना चाहती!" कहा मैंने,
"तुमने मना किया होगा?" बोला वो,
"क्यों? मैं क्यों करूंगा?" पूछा मैंने,
"तुम्हारे साथ न बैठी थी वो?" पूछा उसने,
"हाँ, तो? गुनाह है क्या?" पूछा मैंने,
"ये इनकी बहन है?" बोला वो,
''तो? क्या करूँ मैं?" कहा मैंने,
"इस से कहो, कि वापिस जाए?" बोला वो,
"मैं क्यों कहूँ? तुम ही पूछ लो!" कहा मैंने,
"रिपुना?" बोली उसकी बहन!
रिपुना ने देखा भी नहीं उसे!
"रिपुना? क्या बात है?" पूछा उसने,
न बोली कुछ भी!
''ए लड़की?" बोला वो,
"लड़की नहीं, बेटी बोलो!" कहा मैंने,
झेंप गया तभी के तभी वो!
"ये, जायेगी किसी के साथ आज ही!" बोली उसकी बहन!
"ये कहीं नहीं जायेगी!" कहा मैंने,
'तुम कौन होते हो?" पूछा उसने,
"अब होता हूँ!" कहा मैंने,
"कौन भला?'' पूछा उसने,
"ये बता देगी!" कहा मैंने,
"रिपुना, चल, आ यहां?" बोली उसकी बहन,
"रिपुना, बता दो इन सभी को, और लौटो कमरे में, ये लो चाबी!" कहा मैंने,
वो हुई खड़ी! चाबी ली,
"मैं कहीं नहीं जाउंगी!" बोली वो, और लौट पड़ी!
उसकी बहन, रिपुना, रिपुना चिल्लाती रह गयी! रिपुना ने, एक न सुनी!
"सुन लिया?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला एक,
"क्या?" पूछा मैंने,
''जब उसकी राजी नहीं, तो कोई क्या करे?" बोला वो,
''समझदार हो!" कहा मैंने,
"ये सब इसका ही किया-धरा है!" बोली उसकी बहन!
"तमीज़ से पेश आओ! नहीं तो तेरे से लम्बी और गंदी ज़ुबान है मेरी!" बोला मैं,
सन्न सी रह गयी वो, मेरा जवाब सुन कर!
''तो ले जा उसे यहां से, अभी!" बोली वो गुस्से में,
"ले जाऊँगा, अभी ले जाऊँगा!" कहा मैंने,
हम उठ लिए थे, और वापिस होने को ही थे, कि रोका किसी ने हमें! मैंने पीछे मुड़कर देखा, तो ये भी एक प्रौढ़ सा व्यक्ति ही था!
'सुनो, वो लड़की, सरणू के साथ जायेगी!" बोला वो,
"नहीं जायेगी!" कहा मैंने,
"तुम्हारे कहने से?'' बोला वो,
"हाँ, ऐसा ही सही!" कहा मैंने,
'तुम जानते हो उसे?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कौन है वो?" पूछा उसने,
"उसे बुलाओ, वो जानता है मुझे!" कहा मैंने,
"जानता होगा!" बोला वो,
"ऐसा है, मैं अब रहा हूँ जा! मेरे समय तो खराब करो मत! जो बोलना है, साफ़ साफ़ बोलो!" कहा मैंने,
'वो लड़की नहीं जायेगी!" बोला वो,
"कौन रोकेगा?" पूछा मैंने,
"सरणू!" बोला वो,
"बुला ले उसे भी!" कहा मैंने,
"आ रहे हैं वो!" बोला वो,
'आने दे फिर उसे!" कहा मैंने,
और तब, सरणू आया उधर! अपने साथियों के साथ! नमस्ते ही नमस्ते! सभी उसके आगे-पीछे! मुझे देखा उसने, मुस्कुराया!
"बैठ जाओ!" बोला वो,
"मैं जा रहा हूँ अब! लड़की को लेकर!" कहा मैंने,
"बैठो तो सही!" बोला वो,
"ना!" कहा मैंने,
और मैं पलटा कर, चलने लगा वापिस!
''सुन?" बोला वो,
"सुना?" बोला मैं पलट कर!
"लड़की तो कहीं जायेगी नहीं अब!" बोला वो,
"तू रोक ले?" कहा मैंने,
''रुक गयी!" कहा उसने,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
मैं हंसा! और देखा उसे!
"याद आ गया मुझे वो! वो!" कहा मैंने,
"कौन वो?" पूछा उसने,
मैं फिर से हंसने लगा! सभी मेरे आत्मविश्वास को देखकर, या तो पागल हो गए थे या फिर मंत्रमुग्ध से!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैं अब रोष में आने लगा था, मुझे ये वयवहार ही अजीब सा, कटुतापूर्ण और असहनीय लगने लगा था! हैरत की बात थी कि वहां ऐसा कोई भी नहीं था जो रिपुना की व्यथा सुने या जाने! उनके लिए तो वो बस साध्य को साधने में सहायक एक माध्यम ही थी! लेकिन ऐसा तो कदापि नहीं था! उसका भी हृदय था, भाव थे और सम्मान था! उसे कोई नहीं देख रहा था, बस यही लगा रहा था कि मैं ही सबसे बड़ा रोड़ा होऊं उनके इस रास्ते का!
"कौन वो?" पूछा उसने,
त्यौरियां चढ़ा ली थीं उसने! उसके मन में वो का प्रश्न जैसे कोई भाला बन, भोंक दिया गया था! ऊपर से मेरा मुस्कुराना, वो और भारी पड़ रहा था उस पर!
"ये हैं न? ये बता देंगे!" कहा मैंने,
"कौन लोग?" वो बोला, खड़ा हो गया था!
"ये लोग! शायद जानते हों!" कहा मैंने,
उसने सरसरी निगाह से सभी को देखा, लेकिन, शायद कोई नहीं जानता था, मैं भी चुप ही रहा, वो खुद ही जान जाता तो अच्छा ही रहता! यही सोचा था मैंने!
"तू क्यों नही बताता?'' पूछा उसने,
"जान लेगा!" कहा मैंने,
और शर्मा जी के कंधा पकड़, मैं लौटने लगा वापिस!
"रुक?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने रुकते हुए,
"वो लड़की, वापिस भेज?" बोला वो,
"उसने मना किया न?" कहा मैंने,
"तू होता कौन है ऐसा कहने वाला?'' बोला वो,
"मैंने कहाँ बोला? उस लड़की ने बोला?' बोला मैं,
"अजय?" बोला वो, एक साथी से,
आया वो आगे, देखने लगा सरणू को,
"हाँ जी?" बोला वो,
"जा, और खींच के ला उसे!" बोला वो,
"ऐ? रुक, रुक वहीँ?" बोला मैं,
आगे आया कुछ,
"अगर हाथ भी लगाया तो अंजाम तू ही जाने!" कहा मैंने उस अजय से!
सच कहता हूँ, वो घबरा गया था! लौटा पीछे!
"जा? मैं देखता हूँ कौन रोकता है?" चीखा सरणू!
"सरणू! क्यों बेकार में बात बढ़ाता है?" बोला मैं,
"मैं? या तूने बात बढ़ाई है?'' चीखा वो,
"हाँ, तू आया बीच में?" बोली बड़ी बहन उस रिपुना की!
"सुन सरणू!" बोला मैं,
"बोल?" बोला वो,
"लड़की ने मना कर दिया, और नियम यही है!" कहा मैंने,
"तूने बनाये हैं नियम?'' पूछा उसने,
"ना! पालन कर रहा हूँ!" बोला मैं,
"हट जा! हट जा बस अब तू!" बोला वो,
"क्यों झगड़ा चाहता है?" बोला मैं,
"जो तेरे बसकी हो, कर ले!" बोला वो,
"शर्मा जी?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"कॉल करो पुलिस को!" बोला मैं,
"अभी लो!" बोले वो,
अब थोड़ा सकपकाये सभी!
मुंह ताकने लगे एक दूसरे का!
"रुको!" कहा मैंने,
शर्मा जी ने नाटक किया कि जैसे फ़ोन काटा हो!
"जा रहा हूँ!" कहा मैंने,
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"चलो!" बोले वो,
और हम दोनों, निकल पड़े वहां से!
अब न आई एक भी आवाज़! अपना सा मुंह लेके रह गया सरणू! सरणू का नाम है असली शरण नाथ, माना हुआ साधक था वो! एक कुशल साधक! लेकिन दम्भी! दम्भ से भरा हुआ! हाँ, एक गुण उसमे विशेष था, वो जो ठान लेता, कर ही गुजरता था!
खैर,
हम अब निकले वहां से, आये अपने कमरे में, यहां ठहरना अब उचित नहीं था, बहुत से सिरफिरे होते हैं जो लाठी-डंडा ले आते हैं, मार-पिटाई हो जाती है! अच्छा था कि यहां से सकुशल निकला जाए! कमरे में आये हम तो रिपुना तैयार ही खड़ी थी!
"सामान?" पूछा मैंने,
"ये रहा!" बोली वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"जल्दी करो!" बोले शर्मा जी,
हमन ेउठाया सामान वहां से, और गायब हुए ऐसे, जैसे गधे के सर से सींग! आये बाहर! जाना कहाँ था, ये सोचना था, लेकिन पहले वहां से निकलना था, तो आ गए बस-अड्डे! रुके और चाय-नाश्ता किया!
"कहाँ चलना है?" पूछा शर्मा जी ने,
"कृपा के पास चलें?" बोला मैं,
"वो यहीं है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, करीब बीस किलोमीटर!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
"आओ!" कहा मैंने,
और हम तीनों, एक जानकार कृपा के पास चलने के लिए, हुए तैयार! कृपा का कोई डेरा तो नहीं है, लेकिन ज़मीन बहुत है, दो धर्मशालाएं भी हों उनकी! एक उसी शहर में और एक इलाहबाद में! वो मिल जाते तो कम बन जाता! कम से कम कुछ वक़्त अवश्य ही मिलता कुछ सोचने का, और फिर, इलाहबाद में, रिपुना के ठहरने आदि का भी बंदोबस्त हो जाता!
"फ़ोन नहीं है?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं!" बोला मैं,
"न मिला तो?" पूछा उन्होंने,
"कोई तो मिलेगा?" कहा मैंने,
"हाँ, मिलेगा तो पक्का!" बोले वो,
सवारी ले ली, और चल पड़े फिर!
करीब एक घंटे में पहुंचे वहां! बाहर धर्मशाला का नाम लिखा था, अंदर जाने  के लिए, एक बड़ा सा दरवाज़ा था, शहर के बीचोंबीच तो नहीं है, लेकिन नदी अधिक दूर नहीं यहां से! यात्री आते ही रहते हैं! हम भी अंदर चले! पहुंचे बारामदे में! साइकस के बड़े बड़े पौधे लगे थे! सामान रखा! आसपास देखा, कोई नहीं था, एक बड़ी सी मेज़ थी, और चार कुर्सियां! पेपरवेट रखा था, कुछ कागज़ और अखबार! दीवार पर, फूल बिखेरती हुई एक स्त्री की तस्वीर लगी थी!
"बैठो!" कहा मैंने,
वे बैठ गए!
अब मेज़ पर रखा पेपरवेट बजाया मैंने! तो एक अधेड़ सा आदमी, अंदर चला आया, खाड़ी का कुरता पहने, सर पर जवाहरी टोपी पहने! नीचे धोती पहने!
"कृपा जी हैं क्या?'' पूछा मैंने,
"आप?" पूछा उसने,
"बुलाइये उन्हें?" कहा मैंने,
"क्या कहूँ?" बोला वो,
"कहिये शर्मा जी आये हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ से?" पूछा उसने,
"बोलना, दिल्ली से!" कहा मैंने,
"अच्छा जी, पीछे हैं, आप बैठिये, मैं बुलाता हूँ!" बोला वो,
और चल पड़ा बाहर, बुलाने के लिए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"पीछे बना रखा होगा?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, शायद" कहा मैंने,
"पहले तो शायद तालाब था?'' बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"आया न याद?" बोले वो,
"हाँ, दो साल तो हो गए?" पूछा मैंने,
"हाँ, इतना तो!" बोले वो,
तभी बाहर खखारने की आवाज़ आई! शायद आ गए थे वो, लिवा लाया गया था उन्हें! आ गए अंदर! जैसे ही अंदर आये, चेहरे पर भाव ही बदल गए! मुस्कुरा पड़े! आये तो हाथ मिलाया, मुझ से भी और शर्मा जी से भी!
"आओ!" बोले वो,
और ले चले हमें बाहर, अपने साथ ही! रिपुना को भी संग ले लिया था मैंने!
"तालाब खत्म हो गया क्या?" पूछा मैंने,
"ना! वो वहां है! देखो!" बोले वो,
"अच्छा! अब तो चहारदीवारी सी करवा दी!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, पानी भर आता था चौमासे में!" बोले वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"मच्छी-वच्छी पाले हैं?'' पूछा मैंने,
"हाँ, सिंगाड़े भी लगाये हैं!" बोले वो,
''अरे वाह जी!" कहा मैंने,
"बेटा देखता रहता है!" बोले वो,
"बढ़िया तो है!" कहा मैंने,
"मच्छी कौन सी है?'' पूछा शर्मा जी ने,
"चार क़िस्म हैं!" बोले वो,
"ये बढ़िया किया!" बोले शर्मा जी,
''आओ!" बोले कृपा जी,
अब हम अंदर चले, अंदर एक बरामदा सा था, यहीं जा बैठे!
"रवि?" बोले वो,
आया एक लड़का तभी, नमस्ते की उसने,
"पानी ले आ बेटा!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोला लड़का और चला अंदर वापिस!
"कब आये?" पूछा उन्होंने,
"आये हुए तो चार दिन हुए! यहां आना पड़ा!" कहा मैंने,
और तब मैंने रिपुना की सारी बातें बता दीं उन्हें! उन्होंने गौर से सुनी सारी बातें!
"कोई बात नहीं! बच्ची ही है हमारी!" बोले कृपा जी,
"हाँ, वहां तो ज़िंदगी खराब है!" कहा मैंने,
"रिपुना, चिंता नहीं करना बेटा!" बोले कृपा जी!
रिपुना, हंस के रह गयी!
"भोजन?'' बोले वो,
"हाँ, भूख तो लगी है!" कहा मैंने,
''तो आप आराम कीजिये, मैं करवाता हूँ प्रबंध!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
वे उठे, और चले अंदर, तभी वो लड़का आ गया, बड़ी देर लगाई उसने पानी लाने में, दरअसल, ठंडा पानी लाया था, शायद बर्फ का इंतज़ाम कर!
तो भोजन भी हो गया, और आराम भी कर लिया, रिपुना को एक अलग ही कक्ष दे दिया गया था, पहली मंजिल पर! एक महिला और आ गयी थी, उसकी मदद करने को, वो नौकरी करती थी उसी धर्मशाला में, सीमा नाम था उस महिला का, सभ्रांत महिला थी वो, रिपुना से, बेटी की तरह ही बातें करती थी!
तो हम दो दिन वहीँ ठहरे, अभी तक न कोई खोज थी, न कोई खबर, न ही कोई आया था! मुझे यही लगा कि अब कुछ नहीं होगा, रिपुना का स्थायी प्रबंध यहीं करवा देते हैं अथवा इलाहबाद में ही, कुछ कार्य भी कर लेगी और संग ही संग, धर्मशाला का भी कार्य संभाल लेगी! इसी विषय में, कृपा जी से भी बातें हो गयी थीं!
तो हम, इलाहबाद चले आये थे!
इलाहबाद में, सारा प्रबंध हो गया था, यहीं से रिपुना और हम, अब अलग होने वाले थे, मैंने उसको हिम्मत बंधवाई थी, सीमा भी उसके साथ ही रहने वाली थी कुछ दिन, और इस तरह वो मिलजुल जाती दूसरी सहकर्मियों में, इस से उसका जीवन-यापन भी होता, और उसकी इच्छा रहती तो उसका विवाह भी सम्पन्न करा दिया जाता!
रिपुना और कृपा जी से विदा ली हमने, पांच दिन हो गए थे! और हम तब वापिस हुए दिल्ली के लिए, दिल्ली पहुंचे, तभी एक जगह जाना पड़ा, वहाँ गए, दो दिन वहां लग गए! तीसरे दिन वापिस हुई हमारी!
उस शाम शर्मा जी मेरे साथ ही थे, मित्रगण! कोई भी डेरा सामान्य लोगों के लिए नहीं होता, या तो कोई जानकार हो, किसी अन्य डेरे का, या फिर आप स्वयं ही उस से संबंध रखते हों! ये कोई देखने-दिखाने की वस्तु नहीं! तांत्रिक-अभिचार, भूत-बाधा, प्रेत-बाधा, पूजन, क्रियाएँ आदि सम्पन्न करने हेतु होते हैं! बस, इस से अधिक और कोई आवश्यकता भी नहीं इनकी, हाँ, कुछ कक्ष होते हैं, मेहमान आदि के लिए, जहां दूर से आने वाले साधक विश्राम किया करते हैं, आने जाने के समय!
अब तक तीन हफ्ते गुजर गए थे, कोई समस्या नहीं आई थी रिपुना को, पहले रिपुना से, दो दिन में एक बार फिर चार दिन में एक बार, फिर हफ्ते में एक बार बात हो जाया करती थी! जब सबकुछ सही ही था, तो कोई चिंता की आवश्यकता भी नहीं थी!
वो दिन सोमवार, अपराह्न का समय था, मैं और शर्म अजी, एक जानकार, सोमदत्त साहब के साथ उनके घर पर थे, कि तभी मेरे पास एक फ़ोन आया, ये फ़ोन सीमा ने किया था, मैंने पहचान लिया था, उसके अनुसार, रिपुना को पक्षाघात सा हुआ था, ऐसा लग रहा था, वो न बोल ही पा रही थी, न बायीं आँख ही बंद कर पा रही थी, इलाज के लिए अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया था! मैंने जल्दबाजी में ही वहां आने को कह दिया था, कृपा जी से बात हुई, वे इलाहबाद जा पहुंचे थे, चिकित्सकों के अनुसार ये पक्षाघात ही था! मैं तो सन्न ही रह गया! उसे तो सकुशल छोड़ के आये थे हम!
हम वहां से वापिस आये, और तब मैंने शर्मा जी से फौरन ही साथ चलने को कहा, हम तैयार हुए और अगले दिन, चल पड़े इलाहबाद के लिए!
"अचानक से?" बोले वो,
"मुझे कुछ और ही मामला लगता है!" कहा मैंने,
"शक मुझे भी है!" बोले वो,
"जाकर पता चले!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"बड़ा ही हरामी है साला ये कुकर्मी तो?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उसको ऐसी समस्या होगी, लगता तो नहीं?" बोले वो,
"यही तो बात है!" कहा मैंने,
"बीमार भी नहीं थी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
इस प्रकार, हम अगले दिन, जा पहुंचे इलाहबाद, सीधा अस्पताल पहुंचे, कृपा जी वहीँ मिले, सीमा भी, चिंतित और परेशान! उनसे मुलाक़ात हुई!
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"कल रात से बेहोश है!" बोले वो,
"बेहोश?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"डॉक्टर्स क्या कहते हैं?" पूछा मैंने,
"सदमा बता रहे हैं!" बोले वो,
"सदमा?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"देखने देंगे?" पूछा मैंने,
"ना!" बोले वो,
"तो कब?" पूछा मैंने,
"पांच बजे के बाद ही" बोले वो,
"अभी तो बहुत समय है फिर?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"ऐसा अचानक से कैसे हुआ?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं जी, मुझे तो खबर मिली, मैं तभी दौड़ा आया!" बोले वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

किसी तरह से समय काटना पड़ा, कभी अस्पताल से बाहर, और कभी अस्पताल के मैदान में, पेड़ लगे थे वहीँ जा बैठते थे, चाय कितनी पीं, कोई गिनती नहीं! मुझे चिंता थी तो उस रिपुना की, कि न जाने क्या बाधा लड़ गयी है उस से, प्राकृतिक है या फिर कोई आपदा जिसे किसी शत्रु ने भेजा है! मन में सैंकड़ों तरह के विचार कूदे जा रहे थे! और तब बजे पांच, हम फौरन ही चले अस्पताल के अंदर! उसके कमरे में गए, जैसे ही कमरे में मैं घुसा तभी मुझे दूध के जलने जैसी गंध आई! अब कुछ पता चलने लगा था! मैं आगे गया, रिपुना भी अभी बेहोश ही थी, उसका पूरा बदन ज़र्द पड़ गया था, जैसे कोई उसके बदन की जैव-शक्ति का चूषण कर रहा हो कहीं दूर बैठा! मैंने उसके हाथ देखे, उसके बाएं हाथ की कनिष्ठा सीधी थी, बाकी मुट्ठी बंधी हुई थी! नाख़ून ज़र्द थे, बदन ठंडा था, साँसें गहरी थीं और होश तो था ही नहीं! अब स्पष्ट था, इसे शिकार बनाया गया था! किसी ने तमल-मारण किया था! जिसने किया था, जिस की ओर इशारा था वो बस एक ही था! वो था शरण नाथ उर्फ़ सरणू! वो ऐसा निःकृष्ट कार्य भी करेगा, ऐसा नही सोचा था मैंने! यदि जल्दी में ही कुछ न किया गया तो निःसंदेह ये इस बिस्तर से उठने से रही, इसकी मृत देह ही उठेगी यहां से! मारण में चौदह प्रकार हैं, तमल तीसरे क्रम में आता है, तमल में जैव-शक्ति का शनैः शनैः ह्रास होता जाता है और अंत में मात्र अस्थियां ही शेष रहा करती हैं! तमल मारण, पूर्वांचल एवं सीमांचल में अक्सर ही प्रयुक्त होता रहा है!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?'' बोले वो,
"इसके कुछ केश काट लो!" कहा मैंने,
"जी" बोले वो,
उठे, नर्स के पास गए, और कैंची ले ली उस से, कैंची से, सर के कुछ बाल काट लिए, रख लिए रुमाल में संभाल कर! कुछ देर हम बैठे रहे डॉक्टर ने जाँच की, कुछ लिखा और समझाया नर्स को कुछ, और उसके बाद, हम वापिस हुए, सीमा वहीँ रह गयी थी, अब सबसे पहले उसका ये तमल मारण काटना बेहद ज़रूरी था! इसके लिए कुछ सामान की आवश्यकता थी, तो बाज़ार गए और सामान ले लिया, उसके बाद नदी किनारे चले गए! मुझे कुछ समय लगा उधर, इस क्रिया को काटने में कुछ समय लगता है, मेरे हिसाब से इसको कटने में अड़तालीस घंटे लगने थे, लेकिन ये मस्य और अधिक भी बढ़ सकता था, ये तमल के पकने के ऊपर निर्धारित था, मारण यदि पकड़ में आ जाये तो वहीँ रुक भी जाया करता है, काटने में अवश्य ही समय लग जाता है! मुझे कुल एक घंटा लगा, और मैंने ये काम कर दिया, अब उसको होश आता सबसे पहले, और फिर कुछ बताती वो कि क्या महसूस हुआ था उसे, क्या ये प्राकृतिक रूप से था या फिर ये उसके खिलाफ कोई रची हुई साजिश थी!
हम दो दिन से रुके थे वहां, अस्पताल जाते, उस को देखते, डॉक्टर से बात करते और फिर रात के समय वापिस आ जाते, अभी तक, कोई सुधार नहीं हुआ था उसकी हालत में, स्थिति बेहद ही नाज़ुक बनी हुई थी, कब क्या हो जाए, कुछ कहना सम्भव भी नहीं था!
चौथी रात, करीब रात को ढाई बजे, उसको होश आ गया! आँखें खोल दी उसने, लेकिन कुछ बोल ही न पायी, ये खबर मुझे सुबह सुबह ही लगी थी, अतः, ठीक नौ बजे हम अस्पताल के लिए रवाना हो गए थे,
करीब दस बजे उस से मिलने का समय हुआ, हम उस से मिलने पहुंचे, उसको कुछ पता नहीं था कि हम कौन हैं, कहाँ से आये हैं, इसी स्थिति को डॉक्टर्स सदमे की स्थिति कह रहे थे! और देखा जाए, तो ये हमारे लिए किसी सदमे से कम नहीं था, एक तरह से तमल मारण कट तो गया था लेकिन अपना प्रभाव छोड़ गया था, जिसके कारण उसे अब होश तो था, लेकिन विक्षिप्तता के लक्षण स्पष्ट दीख रहे थे! यही स्थिति बनी रहती तो निःसंदेह उसका जीवन अब शून्य समान ही रहने वाला था! वो बेचारी, एक ऐसे जाल में फंस चली थी, जिसे काटो तो और उलझता ही चला जाए इर्द-गिर्द! मुझे बेहद दुःख हो रहा था उसकी वो स्थिति देख कर! जी कर रहा था कि तमल मारण करने वाले के मुंह में ही आग भर दूँ, ज़िंदा ही जला दूँ उसे! टुकड़े कर दूँ उसके!
इस तरह पूरा हफ्ता बीत गया, उसके होश नहीं हुए क़ाबिज़, वो जागती थी, सो जाती थी, न तो पहचानती ही थी, न बात ही करती थी, मुझे दुःख होता बहुत, इस लिए तो नहीं लाया गया था उसे यहां? इस बेचारी का क्या क़ुसूर? अपनी अस्मत बचाने की इतनी बड़ी सजा? मन खिन्न हो उठा! क्रोध के मारे आँखों में खून उतर आया! जी तो किया, अभी जाया जाए और गोलियों से भून दिया जाए उस मारणकर्ता को! कोई जगह बाकी न बचे जहां गोलियां अपना निशान न छोड़ें!
उस शाम, मैं, शर्मा जी, कृपा जी और एक और व्यक्ति, रूपचंद बैठे हुए थे एक छत पर, ये जगह रूप चंद की थी, कोयले का व्यवसाय है उनका, बात का मुद्दा यही रिपुना ही थी!
"अब क्या किया जाए?" पूछा शर्मा जी ने,
"करते हैं!" कहा मैंने,
"भला क्या?" पूछा उन्होंने,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"बताइये?" बोले वो,
"कल सुबह चलो मेरे साथ!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"जगताप के यहां!" बोला मैं,
''अच्छा, फिर?" बोले वो,
"वहीँ से पता चलेगा कि करना क्या है!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
अगला दिन,
जगताप के यहां पहुंचे हम! मालूमात की, पता चला, जगताप तो है नहीं वहां, वो अमृतसर गया है किसी काम से, और अभी पंद्रह दिन और लग जाएंगे उसे वापिस आने में! यहां निराशा हुई, जगताप ही वो शख्स था जो इस मस्य हमारी मदद कर सकता था! उसके राजनैतिक संबंध हैं और कई हलकों में अच्छी पैठ भी है!
"फ़ोन पर बात हो जायेगी?" पोछा शर्मा जी ने,
"जी, कोशिश करता हूँ!" बोला एक आदमी, जो उस कारखाने में काम करता था, कारखाना धागे आदि बनाता था साड़ियों के लिए, काम अच्छा था, बढ़िया ही चलता था बारहों मासी!
आखिर जगताप से बात हुई! जगताप ने, एक आदमी से मिलने को कहा, रविंदर नाम था उसका, जगताप के मामा जी का लड़का था वो, उसका नंबर भी दे दिया, अब बस उस रविंदर से मिलना था! उस से मिलकर, ही, आगे क़दम बढ़ाते हम!
'आओ!" कहा मैंने,
और हम तभी निकल पड़े उस से मिलने के लिए,
"कहाँ रहता है ये?" पूछा उन्होंने,
"पास में ही है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"फ़ोन कर लो पहले!" बोले वो,
''हाँ, पूछ लेता हूँ!" कहा मैंने,
रविंदर से बात हुई, वो कारखाने पर ही था, उस दिन छुट्टी थी, वो अपने एक साथी के साथ था उधर, उसने पहचान लिया था और बुला लिया था हमें!
"हाँ?" बोले वो,
"वहीँ है!" कहा मैंने,
"फिर ठीक है!" बोले वो,
सवारी पकड़ी, और चल पड़े! जा पहुंचे! हुई मुलाक़ात रविंदर से! व्यवहार से तो बेहद ही बढ़िया लगा था वो! उस से बातें हो गयीं और उसने हामी भर दी! और हम वापिस हुए फिर! अब कल मिलना था उस से!
"ये अच्छा हुआ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
दरअसल, मुझे कुछ ऐसे लोग चाहिए थे, तो मार-धाड़ से न घबराएं, मौक़ा पड़े तो कर दें हिसाब बराबर! हालांकि, हिंसा मुझे पसंद नहीं! जो काम आराम से हो जाए वो सबसे अच्छा, अगर नौबत आ ही जाए तो फिर छोडो नहीं! जहां सत्यानाश वहाँ अठ्यानाश! फिर तो बिना तोड़े रहो नहीं! मुक़द्दमा दर्ज़ होगा, तो दोनों ही पक्षों पर होगा! इसीलिए, जो बन सके, कर लो! मारो तो ऐसा मारो कि याद रखे फिर! वैसे कोशिश हमेशा यही कीजिये कि आराम और प्यार से ही कोई रास्ता निकल आये! हिंसा पशुओं का काम है, और पशु नहीं हैं हम! लेकिन जब कोई माने ही न, अपनी अपनी ही चलाये और जान पर बन आये, तो सब वाजिब है फिर!
"वापिस?" बोले वो,
"हाँ, अब कल चलेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक है!" कहा उन्होंने,
रास्ते से ही कुछ सामान लिया हमने और चल पड़े वापिस, अब सीधा ही जाना था रिपुना के पास, उस अस्पताल के लिए, देखने कि क्या हाल हैं उसके, कोई सुधार हुआ या नहीं अभी तक!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अगला दिन, हम तैयार हुए, उसके बाद फिर हम रिपुना को द्केहने गए, उसकी स्थिति अब बिगड़ तो नहीं रही थी लेकिन कोई सुधार भी नहीं दिखा रहा था, वो बस शून्य में ही घूरे जाती थी, अपने आप से ही अनजान हो, ऐसे! उसको देख देख ऐसा गुस्सा उबाल खाता कि सामने वो मारण करने वाला होता तो टुकड़े ही कर देता मै उसके! नहीं छोड़ता उसको! इसी हाल में पहुंचा देता! इसीलिए हम रविंदर से मिले भी थे, हम करीब पंद्रह लोग जाने वाले थे उस सरणू के डेरे के लिए, अगर बात बिगड़ती तो देखी जाती! उनका डेरा था तो कोई बात नहीं, हम भी कुछ न कुछ फसाद तो मचा ही आते वहां! बाकी बाद में देखा जाता!
"कृपा जी, आप यहीं रहें, हम आते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
''सीमा जी, इसका ख़याल रखना!" कहा मैंने,
"कहने की आवश्यकता ही नहीं!" बोली वो,
"धन्यवाद!" कहा मैंने,
चले कमरे से बाहर हम दोनों फिर,
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
आये बाहर हम, ली सवारी और जा पहुंचे रविंदर के पास हम, आदमी इकट्ठा हो गए थे उधर, कम से कम बीस थे, तीन गाड़ियां थीं! वैसे तो पहले मुझे और शर्मा जी को ही जाना था वहां, अगर बात हो जाती आराम से, तो बढ़िया रहता, नहीं तो तैयार तो थे ही हम!
"चलें?" बोला रविंदर,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ फिर!" बोले वो,
और हम, तब हुए गाड़ी में सवार और चल पड़े! वहां से करीब बीस किलोमीटर दूर पड़ता था वो डेरा, जहाँ सरणू मिलता हमें! ये जगह खुली खुली थी, यहां और भी डेरे थे, मंदिर आदि सब थे! इन्हीं डेरों में से था एक डेरा सरणू के चाचा का, सरणू के चाचा तो हे नहीं अब, अब वो ही संचालन करता था उसका! हालांकि मै उसके डेरे में कभी नहीं गया था, और आज पहली मर्तबा ही जा रहा था!
हम वहां पहुंचे, सजाया हुआ था वो डेरा! झंडे लगे थे दीवारों पर, गेट पर पर्दे लगाये गए थे! कोई तैयारी चल रही थी उसमे, ऐसा ही लगता था!
हम दरवाज़े तक गए, एक आदमी खड़ा था, उस से बात हुई, मैंने ही बात की, उसने कुछ पूछा तो मैंने जवाब दिए, दरवाज़ा खुल गया, गाड़ियों को एक तरफ ही, बाहर खड़ा करवा दिया था, वो लोग भी बाहर ही थे, मेरा फ़ोन पहुँचता तो वे धड़धड़ाते हुए अंदर आ जाते! जो लोग हमारे साथ आये थे, वो कुछ ज़रायमपेशा से लोग थे, शक्ल-ओ-सूरत से ही ऐसे लगते थे! और उस वक़्त ऐसे ही लोगों की ज़रूरत थी हमें!
"इधर" बोला वो आदमी,
''अच्छा" कहा मैंने,
हम उसके पीछे पीछे चल पड़े थे!
"इधर ठहरो आप, बैठो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
वो एक छोटी सी बैठक थी, गायत्री मंत्र लिखा था उसके द्वार पर, बड़ा बड़ा!
"बुलाने गया है?' पूछा शर्मा जी ने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"आने दो फिर!" बोले वो,
करीब पांच मिनट के बाद, एक आदमी आया, मज़बूत से बदन का! न कोई नमस्ते न कोई सौहार्दपूर्ण भाव!
"क्या काम है?" पूछा उसने,
"सरणू से ही काम है" कहा मैंने,
"काम क्या है?' पूछा उसने,
"कहा न, उसी से काम है?' कहा मैंने,
"क्या कहूँ उन से?' बोला वो,
"बोलो रिपुना के बारे में बात करनी है!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया! और लौटा पीछे!
"समझ गया साला!" बोले शर्मा जी,
"हाँ, और हम भी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
तब दो लोग आये, उनमे से एक अजय था, वही अजय जो उस डेरे में मिला था हमें, देखते ही नथुने फुला लिए अपने उसने!
"क्या काम है?" पूछा उसने,
"सरणू से काम है!" कहा मैंने,
"लड़की मरी या नहीं?" पूछा उसने,
अब हम हुए खड़े! मिल गया जो हम ढूंढ रहे थे!
"कौन मारेगा?" पूछा मैंने,
"हम ही मारेंगे?' बोला वो,
"हिम्मत है?" पूछा मैंने,
"तेरे में बड़ी हिम्मत है, वाक़ई!" बोला वो,
"तुझ में हिम्मत है मारने की उसे?" पूछा मैंने,
"मर ही जायेगी, दो एक दिन की बात है!" बोला वो,
"सरणू बच जाएगा फिर?" पूछा मैंने,
"ओये??" चिल्लाया वो!
"ज़ुबान को लग़ाम दे ओये छाड़ू!" कहा मैंने,
"तेरी माँ के **!" बोला वो,
"अरे ओ? बहन के ***! बुला उस माँ के ** को?" बोला मै,
अब हुआ मामला गरम! पकड़ा तूल! अब क्या हो, कुछ नहीं कहा जा सकता था!
"सीधे तरीके से बात कर ओ **!" बोला अजय!
"अबे जा? बुला उसे?" कहा मैंने,
"निकल? निकल यहां से?" बोला वो,
"नहीं बुला रहा?'' पूछा मैंने,
"न बुलाऊँ तो?" बोला वो,
"तब हट! हम बुला लेते हैं!" बोले शर्मा जी, धक्का देते हुए उसको! वो गिरते गिरते बचा! संभाल लिया उसको उसके साथियों ने!
"सुन?"" बोला मै,
चुप रहा खड़ा वो!
"जा, बुला ले, बात खत्म!" कहा मैंने,
मैंने निबटाया मामला उस समय तो!
"हरषु, जा खबर कर!" बोला अजय,
"अच्छा" बोला वो,
और लौट पड़ा!
तभी मेरा फ़ोन बजा! बाहर से फ़ोन था, पूछा कि ठीक हैं हम क्या? मैंने कहा कि ठीक हैं, तैयार रहें, कुछ भी हुआ तो इंतज़ार न करें! आ जाएँ अंदर!
अब अजय समझ ही गया कि हम भी तैयार से ही आये हैं! उसने उसको, जो ले कर आया था हमें, कुछ कहा और भेज दिया वापिस!
तभी दो और आये, एक बाबा से था उसमे, उसे पहचान गया मै! उसका नाम नेतराज था, वो काशी में रहा करता था, आदमी ठीक ही था! आया तो मुस्कुराया!
"आदेश!" बोला वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"कैसे हो?" पूछा उसने,
''अच्छा हूँ, तुम यहां कैसे?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही, कल आया!" बोला वो,
"सरणू कहाँ है?" पूछा मैंने,
"आ रहे होंगे!" बोला वो,
"कुछ पता है तुम्हें?" पूछा मैंने,
''अभी पता चला!" बोला वो,
''अच्छा किया इन्होने?" पूछा मैंने,
"मुझे नहीं पता!" बोला वो!
यही उम्मीद भी थी मुझे उस से! साले, ढपलू! चाटुकार कुत्ते! ये भी इन्हीं में से एक था!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"नेतराज?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"इसको समझाओ?" कहा मैंने,
"मैंने जो सुना, उसमे तो गलती तुम्हारी ही है!" बोला वो,
जी में तो आया हाथ से ऐसी थाप दूँ कि इस घटिया आदमी की नाक अंदर ही घुसी रह जाए! ऐसा ज़ाहिल इंसान था वो!
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, और नहीं तो क्या?" बोला वो,
"और इसने जो किया वो अच्छा है?" बोला मै,
"अब कोई कुछ तो करेगा?" बोला वो,
"वाह रे नेतू! तू रहा वो ही का वो ही!" कहा मैंने,
"अरे सुनो!" बोला वो,
"बोल?" कहा मैंने,
"उस लड़की को पेश कर दो, मामला खत्म!" बोला वो,
''अच्छा? अब तो क़तई नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों बात बढ़ाते हो यार?" बोला वो,
"बढ़ाने दो और बढ़ने दो!" कहा मैंने,
'सरणू को नहीं जानते हो अभी!" बोला वो,
अब मै हंसा! ज़ोर से हंसी निकल आई मेरी!
"मै नहीं जानता?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"अबे नेतू! तेरा ये सरणू, ये सरणू नहीं जानता मुझे!" बोला मै,
"जानता है!" बोला वो,
"अच्छा, कुछ याद है?'' पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"श्रेष्ठ याद है?" पूछा मैंने,
अब हुआ चेहरा लाल! बदले भाव! हुआ थोड़ा पीछे!
"तो क्या?" बोलते बोलते रुका वो!
"हाँ, अब बता? जानता है या नहीं?'' पूछा मैंने,
अब सूंघा सांप उसे! घूरे ही जाए!
''जा, बुला कर ले आ!" कहा मैंने उसके कंधे पर हाथ फेरते हुए!
वो लौट पड़ा! तभी के तभी! जो वहां खड़े थे, मूढ़ बुद्धि, कुछ न समझ सके!
'शर्मा जी, आओ, बाहर चलें!" कहा मैंने,
"बिलकुल बाहर?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, इस बैठक से बाहर!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और हम दोनों बाहर आ गए उधर! सामने लोग बाग़ आते, हमें देखते और चले जाते अपने रास्ते!
"आएगा वो?" पूछा शर्मा जी ने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"बुलाएगा हमें!" कहा मैंने,
"अच्छा!" कहा उन्होंने,
''और अब तो ज़रूर बुलाएगा!" कहा मैंने,
"यही कहने वाला था मै भी!" बोले वो,
''वो देखो!" कहा मैंने,
नेतराज आ रहा था, साथ में चार और आदमियों को लेकर!
"आ गया बुलावा!" कहा मैंने,
"हाँ, कोई डर थोड़े ही मारा है?" बोले वो!
"डर? और इन शठों से!" कहा मैंने,
"वही तो!" बोले वो,
आ गया नेतराज!
''आ जाओ!" बोला वो,
''चल!" बोले शर्मा जी,
और हम चल पड़े उनके साथ! जगह तो बढ़िया सजाई थी उसने! हरी-भरी जगह! पत्थरों से सजा था वो डेरा! पैसा लगाया था उसने जैसे कोई रिसोर्ट बनाया हो!
''यहां से!" बोला वो,
"हाँ, चल!" बोले शर्मा जी,
हम चलते रहे, और आ गए एक बड़े से कक्ष के सामने!
"उतार लो जूते!" बोला नेतराज!
"हाँ!" कहा मैंने,
उतार लिए अपने जूते हमने! रख दिए एक तरफ!
"आओ, अंदर आओ अब!" बोला वो,
"चल!" कहा मैंने,
अंदर आये तो धूपबत्ती जल रही थी! फूलों की पंखुड़ियाँ फैली हुई थीं हर जगह! मंदिर जैसा माहौल था! सामने एक शिव-लिंग स्थापित किया हुआ था!
"इधर!" बोला वो,
एक चौखट थी, दरवाज़ा नहीं था उसमे, वहीँ जाने को कहा था नेतराज ने!
"चल भाई!" बोले शर्मा जी!
और हम अंदर आये! नीचे, गद्दा बिछा था एक! नीले रंग का! गोल तकिया! फुट-मैट पड़ा था सामने! और साथ में, दरियां बिछी थीं! और उस गद्दे पर, बैठा था वो शठ सरणू! माथा पीले चंदन से लिपा हुआ! बीच में काजल से एक टीका किये हुए! नाक तक, चंदन मला था उसने!
"बैठ!" बोला वो,
हम बैठ गए, नीचे उस दरी पर!
"हूँ? किसलिए आना हुआ?' बोला वो,
"जानता है तू!" कहा मैंने,
"हाँ! लड़की मरने पर है, है न?" बोला वो, हँसते हुए!
"ना! मरेगी तो वो नहीं! मरने नहीं दूंगा उसे!" कहा मैंने,
''अच्छा?" बोला वो, मुझे चिढ़ाते हुए!
"हाँ!" कहा मैंने,
"तमल है, पता है?" बोला वो,
"पता है, और था बोल अब!" कहा मैंने,
''अच्छा? काट दिया?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
कुटिल सी हंसी हंसा वो!
"ऐसे तमल कट जाता तो बनता ही नहीं!" बोला वो,
''ऐसे तमल फल जाता तो हर दूसरा आदमी चिता में होता!" कहा मैंने,
उसे हैरानी हुई मेरी बातों से!
"नेत!" बोला वो,
"हाँ?" बोला नेतराज!
"कुछ भी कहो, दम है इसमें!" बोला वो,
"दम? दम तो देखा ही था किसी ने! तूने नहीं देखा?" पूछा मैंने,
"क्या नहीं देखा?" पूछा उसने,
"अरे! फट पड़ेगा! छत फाड़ता हुआ ऊपर चला जाएगा! क्यों? क्यों नेतराज?" पूछा मैंने, अब एक कुटिल मुस्कान के साथ!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

उसने दो बार इधर-उधर देखा! जैसे कोई चूक हुई हो उसे से, कुछ बोलने में, या जैसे कहना कुछ और चाहता हो और कह कुछ और गया हो!
"क्या कहा इसने?'' पूछा नेतराज से उसने,
वो कुछ न बोला! जानता था की अब बम फटने ही वाला है! तभी मेरा फ़ोन घर्रा उठा! ये बाहर से थी कॉल, बात हुई, सब सही है, बता दिया था मैंने! सरणू भी समझ ही गया था कि किसकी कॉल आई थी! इंतज़ाम करके ही आये थे हम सभी!
"क्या कहने आया है?" पूछा उसने,
"यही कि उस लड़की को छोड़ दे!" कहा मैंने,
"छोड़?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"छोड़ेगी तो वो अब, अपनी देह!" बोला वो,
"ऐसा तो हो ही नहीं सकता!" कहा मैंने,
"और जो हो जाए?" बोला वो,
"करके देख ले!" कहा मैंने,
"तू रोकेगा?" पूछा उसने,
"क्यों नहीं?" बोला मै,
"तो तू भी जाएगा!" बोला वो,
"सुन, सुन ज़रा!" कहा मैंने,
"बोल?" बोला वो,
"देख, लड़की ने मना किया, और नियम के हिसाब से ये गलत है!" कहा मैंने,
"नियम?" बोला वो,
"हाँ, नियम!" कहा मैंने,
"भाड़ में गए ऐसे नियम!" बोला वो,
"तेरे भी दिन आ ही गए सरणू!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भला किस जैसे?" बोला वो,
"श्रेष्ठ जैसे!" कहा मैंने,
"श्रे......?" बोलते बोलते रुका वो!
"अब समझा?' बोला मै,
अब चुप हुआ वो! नेतराज को देखा, नेतराज ने आँखें मूंदी!
"तो तू था वो?" बोला गर्रा के वो!
"हाँ, मै ही था!" बोला मैंने,
उसने उसी क्षण मेरा गिरेबान पकड़ लिया! मैंने उसका हाथ पकड़ा, शर्मा जी ने भी! नेतराज छुड़ाने लगा हाथ उसका! गाली-गलौज होने लगी!
"बलवा हो जाएगा सरणू!" कहा मैंने,
वो चुप! और छोड़ दिया मेरा गिरेबान उसने!
"अब समझ जा!" कहा मैंने,
"उठा? जो करना हो कर लियो, निकल यहां से?' बोला वो, हाथ पटकते हुए!
"उम्मीद है, समझ गया होगा, मै इधर ठहरा हूँ, बता देना!" कहा मैंने, और बता दिया पता उसे, जहां मै ठहरा था!
"उठो शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ चलो!" बोले वो,
"सोच लेना, कहीं श्रेष्ठ की तरह ही अंजाम न हो तेरा भी!" कहा मैंने लौटते हुए!
"जो तेरे बस में हो कर लेना!" बोला वो,
"कर ही लूंगा!" कहा मैंने,
"निकल?" बोला वो,
"सोच लेना!" कहा मैंने मुस्कुराते हुए!
आशय समझाना था, समझा दिया था, कि मै बीच में हूँ, उस लड़की को असहाय न समझे वो! आये हम बाहर, पहने जूते और चल पड़े बाहर के लिए! आये बाहर, रविंदर ने कुशलक्षेम पूछी, और हम चल पड़े वापिस! उसने हमें हमारी जगह छोड़ा, यहां से अस्पताल अधिक दूर नही था, हम पहले जहां ठहरे थे, वहां गए स्नान किया और फिर अस्पताल के लिए निकल पड़े! अस्पताल में सीमा मिली, सीमा ने बताया कि कोई सुधार नहीं है, आज सुबह से, हमारे जाने के बाद से, फिर से होश खो बैठी थी वो!
"क्या किया जाए?" पूछा शर्मा जी ने,
"ये तमल काटा जाना चाहिए!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"आज चलते हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"अवधूत के पास!" बोला मै,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्रिया?" बोले वो,
''अब आवश्यक है!" कहा मैंने,
''जानता हूँ!" बोले वो,
"अब दोगुना वार करेगा वो!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
''आओ फिर!" कहा मैंने,
वहीँ?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"चलो फिर!" बोले वो,
अब सीमा को समझा दिया, बता दिया कि कब तक लौटना होगा हमारा, कोई भी बात हो, तो कॉल कर दे, भगवान ने चाहा तो सुबह तक, ठीक हो जायेगी ये रिपुना!
"आओ!" कहा मैंने,
'चलिए!" बोले वो,
और हम निकल पड़े अवधूत के पास जाने को!
"ज़िंदा भी होगा?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"पहले से ही अस्सी बरस का था!" बोले वो,
"होगा फिर!" कहा मैंने,
''आदमी ज़िंदादिल है!" बोले वो,
"हाँ, पचास का सा ही लगता है!" कहा मैंने,
"चराई बढ़िया है उसकी!" बोले वो,
"छह बेटे हैं उसके!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तो मौज ही लेता है!" कहा मैंने,
"तभी तो चराई कहा!" बोले वो,
मै हंस पड़ा! वो भी!
सवारी पकड़ी, और चल पड़े एक जगह के लिए!
"सबकुछ बदल गया यहां तो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तेज भागती जा रही है दुनिया!" बोले वो,
"सही कहा!" कहा मैंने,
"ये पुल भी नया ही बना है?" बोले वो,
"हाँ, आना भी तो नहीं हुआ यहां हमारा?" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

जा पहुंचे अवधूत के ठिकाने पर! पता चला, साल भर बीता उनको पूरा हुए हुए! बीमार तो नहीं हुए थे, सोये और फिर सुबह उठे ही नहीं! अब भला ऐसी मृत्यु कौन न चाहेगा! खैर, उनके बेटे बलदेव से मुलाक़ात हुई, शरीफ और अच्छा है ये बलदेव! उसने बिठाया सम्मानपूर्वक, चाय भी पिलाई! और हमारी बात भी सुनी! उसने एक स्थान देने को भी हामी भर ली, सामग्री आदि भी वहीँ मिल जानी थी! बस हमें यहां, अब रात को आना था, क्रिया करते और काट हो जाती पूरी! उस समय तीन बजे थे, और आना हमें यहां नौ बजे था! तो बलदेव से विदा ली, अब नौ बजे आना था यहां! निकल आये हम वहां से!
"चलो, ये काम तो हुआ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब काट हो जायेगी?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, पक्की काट!" कहा मैंने,
"अब ठीक है!" बोले वो,
और हम आ गए अब सीधा अपनी जगह ही! अब किया आराम, कुछ तैयारी करनी थी, सामान आदि की, वो कर ही ली थी!
जब सो कर उठे तो बजे थे सात, तैयारी की, और कोई आठ बजे हम निकल पड़े वहां के लिए, पौने घंटे में वहाँ पहुंचे, बलदेव से बात हुई, बलदेव ने एक आदमी को साथ किया मेरे और मैं उस स्थान पर पहुंचा, यहां पर कीकर के वृक्ष लगे थे, देसी कीकर के, यही चाहिए था, मैंने करीब एक घंटे तक, कुछ क्रियाएँ कीं, और इस तरह, वो तमल काट दिया, अब हद से हद दो हफ्ते और कम आज कम छह दिनों में रिपुना सामान्य हो जानी थी, तमल काटने के बाद दान का विधान है, तो मैं कुछ रकम दे आया था बलदेव को, दान हेतु, स्थान के लिए ही दान पर्याप्त रहता है, उसी के लिए ही दे आया था! बलदेव से विदा ली, हालांकि बलदेव ने रुकने को कहा, बातें करने को कहा, लेकिन मैंने उसे अपनी विवशता बताई और तब वो समझा, और इस तरह करीब साढ़े दस बजे, हम वापिस हो लिए थे, वापिस आया तो स्नान किया, रात को ही सवारी पकड़ी, और अस्पताल के लिए रवाना हो गए, सीमा से मुलाक़ात हुई, सीमा के साथ उसकी लड़की भी आई थी, शायद भोजन के लिए, कृपा जी वापिस लौट गए थे, उनसे बस फ़ोन पर ही बात हुई थी, एक हफ्ते के बाद वे वापिस आने वाले थे!
"आज कैसी है?" पूछा मैंने,
"सुधार नहीं है" बोली सीमा,
"कल से पता चल जाएगा!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोली वो,
"ये धागा रख लो, उसके गले में पहना देना" कहा मैंने उसको धागा देते हुए!
इस धागे से उसकी रक्षा हो जाती!
हम करीब एक घंटा वहां ठहरे, वहीँ कैंटीन में ही कुछ खा लिया था, समय काफी हो चला था, अब वापिस लौटना था, और सुबह के वक़्त आना था!
"आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
''चलिए!" बोले वो,
बीड़ी-बाड़ी खरीदी उन्होंने, और हम सवारी पकड़, चल पड़े वापिस,. अपनी जगह आये औ फिर आराम किया, नींद आ गयी जल्दी ही, थक गए थे आज!
सुबह उठे, फारिग हुए, हलक-फुल्का खाया पिया और सीधा अस्पताल के लिए निकल पड़े! एक खुशखबरी मिली! रात को, होश आ गया था रिपुना को! और सुबह के वक़्त, उसको चाय भी दी गयी थी, उसने हमारे बारे में पूछा था! सीमा ने वो धागा उसके गले में बाँध दिया था!
मुझे सच में बेहद ख़ुशी हुई सुनकर! तमल का भंजन हो गया था! अब तमल लौट नहीं सकता था! अब जो करना था, उसका पुख्ता इंतज़ाम मुझे कर ही देना था!
दस बजे मिलायी का समय शुरू हुआ, और हम, मिलने चले रिपुना से! जैसे ही हमें देखा, रुलाई छूट पड़ी उसकी! लिपटने को दौड़ पड़ी, उसको बिठाया गया! और समझाया भी गया!
''अब न घबराओ!" कहा मैंने,
उसका रोना रुका! कुछ माहौल हल्का हुआ!
"बात कर सकती हो?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"बताओ, क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"मुझे हल्का सा चक्कर आया था, मैं बैठ गयी थी, बुखार सा लगा, छाती में जलन सी उठी थी, उसके बाद मुझे दिखना ही बंद होता चला गया, फिर मुझे नहीं पता की क्या हुआ उसके बाद, कौन यहां लाया, मैं कब आई यहां, कुछ नहीं पता!" बोली वो,
"चलो छोड़ो अब!" कहा मैंने,
''अब ठीक हो न?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ" बोली वो,
''अब कुछ नहीं होगा!" बोले वो,
"हाँ, कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"ठीक" बोली वो,
"अब परीक्षण होगा, उसके बाद छुट्टी!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी वो!
"अब हम चलते हैं, शाम को आएंगे!" बोला मैं,
"जी" बोली वो,
"कुछ खाना हो तो बताओ?" पूछा मैंने,
"नहीं, यहां ही मिल रहा है!" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"ख़याल रखना!" बोले शर्मा जी, सीमा से,
"जी!" बोली वो,
''आओ शर्मा जी!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
"कोई बात हो सीमा, तो फ़ोन कर देना!" कहा मैंने,
"जी!" बोली वो,
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम उठ कर बाहर आ गए!
"चलो, हो गयी ठीक!" बोले वो,
"हाँ, लेकिन अब इंतज़ाम करना होगा!" बोला मैं,
"सुरक्षा का?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"उसके लिए क्या करना होगा?" पूछा उन्होंने,
"एक पूजन है!" कहा मैंने,
'अच्छा! कब?" पूछा उन्होंने,
"आज ही करेंगे!" कहा मैंने,
''वहीँ?" पूछा उन्होंने,
"ना, नदी किनारे!" कहा मैंने,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ, संध्या समय यहां आएंगे, तब सीधे ही चल पड़ेंगे, ठीक?" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोले वो,
अब ली सवारी और हुए वापिस, अंदर आये, भोजन की पूछी, धर्मशाला वाले पंडित जी ने, और हमने हाँ कही, भोजन भिजवा दिया था उन्होंने, भोजन किया और फिर सामग्री की तैयारी की!
''शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"लोहे का दीपक, वो थाल...!" बोलने ही नहीं दिया मुझे उन्होंने उसके बाद!
''सूत, ज़रइरा, तेल, छाजनी, यही लेनी है न?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, और एक छुरी भी!" कहा मैंने,
"खंजर रख लूँ?" बोले वो,
"हाँ, रख लो!" कहा मैंने,
"और पाठा(देसी मुर्गा)?" पूछा उन्होंने,
"वो तो रास्ते ही लेना होगा?" कहा मैंने,
"इधर है तो सही दुकान एक!" बोले वो,
"देसी काकड़ रखता है?" पूछा मैंने,
"पता करना पड़ेगा!" बोले वो,
"चलो फिर!" कहा मैंने,
"मैं पूछ कर आता हूँ, न हुआ तो इंतज़ाम करने को कह दूंगा!" कहा उन्होंने,
"हाँ, ये ठीक है!" कहा मैंने,
"आया मैं फिर!" बोले वो,
और चले गए बाहर! मैंने सामान निकालना शुरू कर दिया था! कुछ ही देर में आ गए वापिस शर्मा जी, आये और बैठे,
"हुई बात?" पूछा मैंने,
"हाँ, मिल जाएगा!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"यहां तो बड़ा ही मुश्किल है इस ढूंढना!" बोले वो,
"तभी तो डेरों में काकड़ पाले जाते हैं जी!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"चलो, अच्छा हुआ!" बोला मैं,
"छह बजे बोला है उसको!" बोले वो,
"बस ठीक है!" कहा मैंने,
"झोला रख लूँ न?" बोले वो,
"हाँ, ज़रूर रखना पड़ेगा!" बोला मैं,
"हाँ, कहीं रास्ते में ही उड़ जाए!" बोले हँसते हुए!
"हाँ, और देसी तो वैसे ही पट्ठा होता है! लड़-भिड़ जाएगा!" बोला मैं,
"हाँ, खूंखार हो जाता है!" बोले वो,
"हाँ, कहीं सड़क पर ही बांग देता रहवे!!" बोला मैं,
"हा हा हा हा!" हँसे वो!
"कौन पकड़ेगा उसको!" बोला मैं,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई!
"कौन?" पूछा मैंने,
"चाय है जी!" बोला कोई,
''अच्छा!" बोला मैं,
''अरे हाँ, मैं बोल कर आया था!" बोले वो,
''अच्छा! ले लो!" कहा मैंने,
"आता हूँ भाई!" बोले शर्मा जी,
वे गए, और ले आये चाय! साथ में, लम्बे वाले दो पापे!
"यहां के पापे ही ज़बरदस्त हैं!" कहा मैंने,
"हाँ! पेट ही भर दे एक ही!" बोले वो,
"मुलायम भी होते हैं!" कहा मैंने,
"हम जैसे बूढ़े भी खा लें, इसलिए!" बोले वो,
"कहाँ बूढ़े हो यार तुम!" बोला मैं,
"हैं तो हैं ही!" बोले वो,
''चलो छोड़ो, वो सामान रख लिया है मैंने!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
तो जी, चाय पी, आराम किया, छह बजे, पाठा भी ले लिया, डाल लिया झोले में, दरम्याने आकार का था, शांत सा! आराम से आ गया झोले में! हिसाब किया और चल पड़े फिर! ली सवारी, और चले नदी की तरफ, घाट पर तो जा नहीं सकते थे, उसके आसपास ही कहीं बात बने तो बने! आ गए हम नदी किनारे, भीड़म-भाड़ थी अभी तो वहां! संध्या-समय की आरती का समय था, इसीलिए!
"इंतज़ार करना होगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"आओ फिर, उधर चलें!" बोले वो,
''चलो!" कहा मैंने,
अब नदी किनारे चलते रहे हम! कुछ अग्घड़ से मिले, सब के सब नौटंकीबाज! उनको पार करते हुए, आगे जा पहुंचे,. यहां नहीं था शोर-शराबा, लेकिन दिन ढलने में अभी समय था! इसी समय का इंतज़ार था हमें, एक तो लोगों की नज़रों से बच जाते, और कोई ध्यान भी नहीं देता!
"आगे चलें?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
"उन पेड़ों के पास!" बोले वो,
''चलो!" कहा मैंने,
झोले में रखा पाठा फड़फड़ाया! दी एक हल्की सी बांग!
'अबे क्या हुआ?" बोले वो,
"इसके सुगंध आ गयी!" कहा मैंने,
"कैसी सुगंध?" बोले वो,
"खुले स्थान की!" कहा मैंने,
"इसका भी कल्याण हो जाएगा आज!" बोले वो,
"हाँ, ये तो वैसे ही अब मादाओं के लिए बेकार है, कोई लाभ नहीं इसका, रोग और पकड़ लेगा, फिर दूसरों को भी मारेगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"उधर देखो!" कहा मैंने,
"लगे हुए हैं काम पर!" बोले वो,
कुछ सधुक्कड़ी से लोग, गिलास टकरा रहे थे, दिन भर की कमाई, मदिरा में लुटाई! मजे ले रहे थे! थैलियों में भरी थी मदिरा! जल था ही नदी का! चौकड़ी मार, हंसी-ठट्ठा चल रहा था उनका!
"इनके पास से न निकलना!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"उलझ पड़ेंगे!" कहा मैंने,
"इनकी माँ का ****!" बोले वो,
और मैं हंस पड़ा! गाली ही ऐसी दी थी कि सुनने वाला हंस हंस के ही नीचे बैठ जाए!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"अरा? क्या कर रहे हो?" बोले शर्मा जी उनसे, करीब जा कर!
सकपका गए वे पाँचों! ये कौन है? किसलिए पूछा? क्या वजह है! घबरा गए थे वे पाँचों के पाँचों!
"क्या कर रहे हो रे?" फिर से बोले वो,
"कुछ नहीं बाबू जी!" बोला एक!
"हूँ! माल-टाल!" बोले वो,
"बस जी!" बोला वही,
''करो करो!" बोले वो,
''आ जाओ जी!" बोला वही,
"करो यार करो!" बोले वो,
"आ जाओ, बहुत माल है!" बोला दूसरा,
"ना! तुम करो!" बोले वो,
"टहल रहे हो?" पूछा अब तीसरे ने!
"अरे न यार! कुछ काम करने आये हैं!" बोले शर्मा जी,
"कैसा काम जी?" पूछा एक ने,
"पूजा है एक!" बोले वो,
"अच्छा! अच्छा, आगे चले जाओ, वहां जगह है ठीक!" बोला वो,
"अच्छा, है जगह?" पूछा उन्होंने,
"बहुतेरी!" बोला वो,
"अच्छा, आये फिर हम!" बोले शर्मा जी,
"चलो!" कहा मैंने,
''आओ जी!" बोले वो,
"चलो, देखें जगह!" कहा मैंने,
हम अब आगे चलते गए, यहां कुछ बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, कोई भी पेड़ ऐसा नहीं था, जिस पर टहिले या कुछ न कुछ सामान न लटका होगा! कुछ मन्नत का था, कुछ मारण का, कुछ संतान प्राप्ति का, कुछ स्त्री-सुलभता का, कुछ और कुछ किसी और का!
"ये तो श्मशान सा बना दिया!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''आगे ही चलो!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
हम और आगे चले, हर तरफ ऐसा ही माहौल था! कहीं कोई ऐसी जगह नहीं, जहां आराम से बैठा जा सके!
"यही ठीक है!" कहा मैंने,
''हाँ!" कहा मैंने,
"मैं जगह साफ़ करता हूँ, आप सामान निकाल लो!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोले वो,
मैं वहां पड़ा, वो नदी से बह कर आया हुआ कचरा बीनने लगा, फेंका एक तरफ इकट्ठा करके, मालाएं ही मालाएं! दीपक, पोटलियाँ, सब गंदगी के रूप में इकट्ठा हुई पड़ी थीं वहां! बड़ी मुश्किल से जगह साफ़ की मैंने! सामान से निकाला, एक काले रंग का कपड़ा, और फिर उसको कंधे पर रख, चला उस ज़मीन की तरफ! एक छोटा सा गड्ढा खोदा हाथों से,
''शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"यहां इस गड्ढे में, दीया रख कर, प्रज्ज्वलित कर दो!" कहा मैंने,
''अभी लाया!" बोले वो,
लाये तेल भरा दीया, बाती रगड़ कर बनाई, दीये में बितायी, और फिर रख दिया दीया उस गड्ढे में! गड्ढे में इसलिए रखा था, कि हवा चलने से कहीं बुझ ही न जाए! गड्ढे में था तो हवा ऊपर से गुजर जाती और वो जलता ही रहता! अब बिछाया कपड़ा मैंने, और पढ़े दो मन्त्र! ली गुरु आज्ञा, गुरु-नमन किया, अघोर-वंदन किया, गुरु-वंदन किया और फिर अपने सभी गुरुओं का नाम मन में जपा! आशीर्वाद रखें, कामना की, चहुँदिश नमन किया, आकाश-नमन, भूमि-नमन! दिक्पाल-नमन और फिर श्री महाऔघड़ का नाद किया!
फिर बैठ गया जूते खोल कर, हाथ-मुंह धो कर, उस कपड़े पर! हाथ जोड़े, और पढ़ने लगा मंत्र! खोले नेत्र अपने! प्रेत-साधन किया, वहां, प्रेत थे, सो, स्थान-बंधन किया! स्थान-बंधन न किया जाए तो ये प्रेत तंग किया करते हैं बहुत! कोई कोई तो उग्र होता है, मार-पिटाई तक कर देता है! हवा में ही उठाकर, फेंक देगा नदी में! इसीलिए स्थान-बंधन आवश्यक है!
"ऑंधिया आये, लंगड़ा जाए! काली कड़ाही में गिरे जो वचन से फिरे!!" गूँज उठा मेरा मंत्र!
"रांड का खसम, हो जाए भसम, जोगन आई, लायी लुगाई! हर्र! महामसानी! हो जा चौकस, चौबंद!" बोला चीख कर मैं!
ये मंत्र अजीब से लग सकते हैं! ये महाप्रबल-शाबर हैं! मसान और महामसानी का वंदन है ये! इसी से स्थान-बंधन होता है! इनके चौबंद होते हुए, कोई महाप्रेत भी नहीं फटक सकेगा उस स्थान पर! ऐसा जा फिंकेगा, परली पार नदी के, कि जहां गिरेगा, वहीँ धंस जाएगा!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले वो,
"जल ले आओ!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोले वो,
लिया कटोरा, और भर लिया नदी से पानी!
"ये लीजिये!" कहा उन्होंने,
"रख दो सामने!" कहा मैंने,
उन्होंने रख दिया मेरे सामने!
"ज़रइरा ले आओ!" बोला मैं,
"अभी लाया!" बोले वो,
लाये और दिया मुझे! मैंने रख लिया, डाल दिया जल में!
"पाठा ले आओ!" कहा मैंने,
''अभी!" बोले वो,
''और खंजर भी!" कहा मैंने,
''हाँ!" बोले वो,
दोनों चीज़ें ले आये, दे दीं मुझे, मैंने पाते वाला झोला, घुटने के नीचे रख लिया! और खंजर पर मन्त्र पढ़ा!
"मदिरा लाओ?" कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
दे दी, जेब से निकाल कर!
मैंने छिड़क दी उधर, उस खंजर पर भी, और पाठे पर भी!
"अब आप बैठ जाओ पीछे!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और लौट पड़े, पीछे जा बैठे! और मैं, अपने काम में आगे बढ़ चला!


   
ReplyQuote
Page 1 / 6
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top