"मैं अबोध हूं हे देव!" बोली वो, मन ही मन,
अबोध! निर्बोध नहीं यस्था!
आये फिर से स्वर! चंद्रदेव, जैसे, समझा ही रहे थे यस्था को!
"निर्बोध?" कहा उसने,
हां! निर्बोध!
फिर से कर्ण-प्रिय से स्वर!
"मुझे ज्ञात नहीं!" बोली मन ही मन, प्रश्न सीधे, चंद्रदेव से ही किया!
सब ज्ञात तो है!
स्वर, इस बार, कुछ धीमे से!
यस्था?
प्रश्न उनका!
"हां देव?" बोली वो,
ये दैहिक तो नहीं!
स्वर में, कुछ तीखापन सा अवश्य परन्तु, मागर्दर्शन भरा!
"नहीं देव!" बोली वो, मन ही मन, जी से ही बतियाये!
प्रसंगमय भी नहीं!
फिर से, उसी भाव के स्वर!
"कदापि नहीं!" बोली इस बार सर, धीमे से हिलाते हुए!
प्रेम में ध्येय क्या होता है?
स्वर गूंज उठे!
यस्था?
वैसे ही स्वर!
"जी, देव?" बोली वो,
प्रेम!
इस बार गुप्त-भाव के स्वर! कुछ भारी से!
यस्था, चुप्प!
बताओ यस्था!
प्रश्न में एक अजीब सी जल्दबाजी थी इस बार!
"प्रेम?" बुदबुदायी वो,
हां! प्रेम!
आया फिर से तेज सा स्वर!
उत्तर नहीं?
कठोर से शब्द!
क्यों यस्था?
इस बार कुछ राहत भरे से स्वर!
उत्तर नहीं जब होता मनुष्य के पास, उसे ही तो दुविधा कहते हैं! तुम दुविधा में हो! और, जब तक ये दुविधा, समूल नष्ट न होगी, कुछ सम्भव नहीं यस्था! इसीलिए, कह रहा हूं! दुविधा को त्यागो!
ये थे स्वर! ये! जिनमे, स्वीकारोक्ति विशेष रूप से थी!
"कैसे देव?" भोली-भाली यस्था का आस्था भरा एक लघु-प्रश्न!
चित्त किसका?
"मेरा!" बोली वो,
मन किसका?
"मेरा देव!" बोली वो,
और दुविधा?
"मेरी ही देव!" बोली वो,
हटे कैसे?
"नहीं ज्ञात!" बोली वो,
और इस बार, कुछ हंसी के से स्वर! जी में, एक अलग सी आवाज़! अनजाने सी, अनजाने सी और कुछ अजीब सी!
यस्था?
चंद्रदेव के मधुर स्वर!
"हां देव?" बोली वो,
"सरल है?" पूछा जैसे चंद्रदेव ने!
"नहीं देव!" बोली वो,
"तब?" बोले वो,
"नहीं ज्ञात?" बताया उसने,
"आधा मार्ग चली हो!" बोले वो,
"हां देव!" कहा उसने!
"लौट सकती हो!" बोले वो,
"कहां?" पूछा उसने,
"जहां से चली थीं?" उत्तर में प्रश्न!
"कहां से?" पूछा उसने,
"मार्ग, तुम्हारे हृदय से आरम्भ हुआ था यस्था!" बोले वो,
"हां देव!" बोली वो,
"अबोध हो, सिद्ध हुआ!" कहा उन्होंने,
"मैं देव?" पूछा उसने,
"निर्बोध भी!" बोले वो, खूब चमक के साथ जैसे, सम्मुख ही आ उतरे हों उसके!
"देव?" बोली वो,
''हां यस्था?" पूछा उन्होंने!
और..
"यस्था! पुत्री!" बोले चंद्रदेव!
"जी देव?" बोली वो भी, उत्तर दिया!
"जब मन में उथल-पुथल मची हो, तब कोई निर्णय नहीं लिया जाता!" बोले वो,
"उथल-पुथल?" बोली वो, अन्तःकरण में ही!
"हां, तुम, सबोध में भी नहीं और सुबोध भी नहीं कहा जा सकता इसे!" बोले वो,
"हे देव! ऐसी अवस्थाएं, अवस्था, मैं तो अनभिज्ञ ही हूं!" बोली वो,
"हो या नहीं, कोई अंतर नहीं, अंतर है तो इस भाव का यस्था!" बोले वो,
"तब क्या उचित है?'' पूछा उसने,
"ध्येय क्या है?'' पूछा उन्होंने,
"ध्येय?" बोली वो,
"करुणामय हृदय है!" बोले वो,
"देव!" बोली वो,
"करुणा ने रूप परिवर्तित किया है!" बोले वो,
"देव?" बोली वो,
"सम्भलो यस्था!" बोले वो,
"कैसे देव?" बोली वो,
"ज्वार जिस गति से उफान खाता है, उस गति से लौटता नहीं!" बोले वो,
"क्या अंतर है देव?" बोली वो,
"लौटने में, कुछ शेष रह जाता है!" बोले वो,
"शेष?" बोली वो,
"सब जानती हो!" बोले वो,
"नहीं देव!" बोली वो,
"सुबोध हो, तो स्वयं से प्रश्न करना!" बोले वो,
"सुबोध क्या?" पूछा उसने,
"क्या भला और क्या बुरा?'' बोले वो,
"मैं बुद्धिहीन हूं देव!" बोली वो,
"भावहीन होना आवश्यक था!" बोले चंद्रदेव!
अपना सर नीचे झुका लिया उसने, अब कैसे दृष्टि मिलाये वो! साहस किया, कुछ धृष्टता भी तो फिर से चंद्र को देखा! चंद्र धूमिल से हो चले थे, काली सी बदली, ढक चली थी उन्हें! क्या ओर और क्या छोर, कुछ पता नहीं था!
रात्रि अवश्य ही शांत थी, हृदय नहीं! मन में कुछ चलता था तेज, बहुत तेज, जैसे, सबकुछ, आसपास का धूमिल हो जाता, परन्तु, जब मन शांत होता, गतिहीन होता, तब कुछ नज़र आता! पिता जी, माता जी, वो स्थान, नदी और वो स्वयं!
"यस्था?" मां की आवाज़,
"हां मां?" बोली वो,
"क्या हुआ?'' पूछा बैठते हुए,
"कुछ नहीं?" बोली वो,
"कुछ तो?" पूछा उन्होंने,
"नींद नहीं आ रही!" बोली वो,
"क्या बात है?" पूछा मां ने,
"पता नहीं मां?" बोली वो,
"क्या हुआ है आजकल तुझे?" बोली मां,
"क्या मां?" बोली वो,
"तेरी नींद?" बोलीं वो,
"पता नहीं?" कहा उसने,
"कोई चिंता है?" बोलीं मां,
"नहीं मां" बोली वो,
"कोई आशंका?'' पूछा मां ने,
"नहीं तो?" बताया उसने,
"कोई दुःस्वप्न?" पूछा मां ने,
"नहीं तो?'' बोली वो,
"कोई शारीरिक व्याधि?" पूछा मां ने,
"नहीं मां!" बोली वो,
"तब नींद क्यों नहीं?" पूछा मां ने,
"नहीं पता मां!" बोली वो,
तभी खिड़की से, चंद्रदेव की रौशनी अंदर आ गयी! उसकी नज़र, झट से चंद्रदेव पर चली गयी! वे मुस्कुरा रहे थे! मंद मंद! उन्हें सब भान था! क्या सच और क्या मिथ्या! नींद क्यों नहीं और कारण क्या! नहीं मिला सकी नज़र! और सर झुका लिया उसने, मां ने माथे पर हाथ रखा और चौंक गयीं!
"ज्वर है तुझे तो?" बोली मां,
"ज्वर?" बोली वो,
"हां?" कहा मां ने,
और खड़ी हो गयीं!
"यहां से हट? उधर चल?" बोली मां,
"यहां ठीक हूं!" बोली वो,
"नहीं?" बोली मां,
और पीछे की तरफ बिठा दिया उसे!
"बैठ, आयी अभी!" बोली मां,
मां चली गयीं. एक पात्र में जल और एक छोटे से पात्र में, औषधि ले आयीं, बैठीं फिर नीचे!
"ले!" बोलीं देते हुए,
"इसकी क्या आवश्यकता?'' बोली वो,
"चुपचाप ले?" बोली मां,
मुस्कुरायी यस्था! कैसी भोली मां है! कैसी भोली!
दवा दे दी मां ने उसे! और लिटा भी दिया! अब मां के हाथों में वो कला दी है रचनाकार ने, कैसी भी बेचैनी हो, अलक़त हो, परेशानी हो, मां के आंचल में सुकून मिलता ही मिलता है! मां ने लिटा कर उसके माथे को दबाया, और सुला ही दिया अपनी फूल सी बिटिया को! पर हे ईश्वर! तूने क्या सोच रखी है इस यस्था के बारे में? क्या? सोचूं तो जी मिचलाए, न सोचूं तो रहा न जाए!
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और अम्मा, हल्का सा खांस कर, चुप हो गयीं! उठ गयी, अब धुंधलका छा गया था और उनको लेने भी उसका बड़ा लड़का आ गया था! मेरी उनसे भी नमस्कार हुई, बेहद ही सरल से स्वाभाव का व्यक्ति था वो!
"अच्छा अम्मा!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"कल मैं आऊं या फिर आप?" पूछा मैंने,
"मैं ले आऊंगा!" बोला बेटा उनका!
"ये तो और बढ़िया!" बोला मैं,
"कल कब अम्मा?" पूछा मैंने,
''दोपहर में!" बोला वो,
"ठीक है अम्मा!" कहा मैंने,
और अम्मा चली गयीं! रह गया मैं अकेला! अकेला ही, हां, यहीं कहूंगा! मैं कुछ देर वहीँ टहलता रहा, मेरा फ़ोन बजा, बातें हुईं और मैंने कुछ दो या चार दिन और रुकने को कह दिया वहां!
तब महंत जी भी आ गए!
"आओ! बोले वो,
"क्या ले आये?" पूछा मैंने,
"हलवा!" बोले वो,
"अरे वाह!" कहा मैंने,
"आ, बैठो!" बोले और एक कटोरी मुझे दे दी! मैंने ली और थोड़ा सा हलवा खाया, बढ़िया बना था, मोटी सूजी का था, गुड़ की सी मिठास थी उसमे!
"अम्मा चली गयीं?" पूछा उन्होंने,
"हां, अभी!" कहा मैंने,
''अच्छा, अब कल?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कोई सिरा हाथ आया?" बोले वो,
"आना क्या है?" पूछा मैंने,
"क्यों यस्था प्रेम में पड़ी?" बोले वो,
"प्रेम ही क्यों माना जाए उसे?" कहा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोले वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"उसने विवाह किया था!" बोले वो,
"किसने?'' पूछा मैंने,
"किसने?" बोले वो अचरज से,
"हां, किसने किया था?" पूछा मैंने,
"उन दोनों ने?" बोले वो,
"अकेले तो हो भी नहीं सकता!" कहा मैंने,
"मैं नहीं समझा?" बोले वो,
"मेरा अर्थ ये है कि विवाह किसने किया?'' पूछा मैंने,
"अब भी नहीं समझा आशय आपका!" बोले वो,
"क्या यस्था ने, उस हंदल से किया?'' पूछा मैंने,
"या?" बोले वो,
"या फिर, हंदल ने?" पूछा मैंने,
"या?" बोले वो,
"या फिर दोनों ने ही एक दूसरे से!" कहा मैंने,
"अब कहूं?" बोले वो,
"हां?" कहा मैंने,
"दोनों ने ही!" बोले वो,
"दोनों कि स्वीकारोक्ति थी?" कहा मैंने,
"रही हो होगी?" बोले वो,
"काश रही हो!" कहा मैंने,
"काश?" बोले वो,
"हां, काश!" कहा मैंने,
"ये काश किसलिए?" पूछा उन्होंने,
"क्या हंदल ऐसा सोच सकता था?" पूछा मैंने,
"कदापि नहीं!" बोले वो,
"तब भी, विवाह हुआ? हुआ न??" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अब इसका क्या अर्थ है?" पूछा मैंने,
"जूनून तो नहीं?" बोले वो,
"जूनून तो कमज़ोर लोगों का शब्द है, कमी ढकने का अपनी!" कहा मैंने,
"तो कैसे परिभषित करें इसे?" बोले वो,
"वैचारिक-अतिक्रमण!" कहा मैंने,
"सटीक!" बोले वो,
"जब, हल एवं कारण, दोनों हो अंध-मुद्रा को प्राप्त हो जाएं तब ऐसा होता है!" कहा मैंने,
"यही बात कोई नहीं समझता!" बोले वो,
"इस संसार में न जाने क्यों, मनुष्य अब, सभी शब्दों का, अपने आप ही अर्थ निकाल लेता है!" कहा मैंने,
"उदाहरण?" बोले वो,
"उदाहरण?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"कर्तव्य एवं दायित्व!" कहा मैंने,
"वाह!" बोले वो,
"दोनों के ही अर्थ पृथक हैं!" कहा मैंने,
"निःसंदेह पृथक हैं!" बोले वो,
"अब आप समझ ही गए होंगे!" कहा मैंने,
"हां, समझ गया!" बोले वो,
"यस्था के विषय में क्या मानें?" कहा मैंने,
"इसे हम जुनून तो न कहेंगे?" बोले वो,
"कदापि नहीं!" कहा मैंने,
"क्या किसी की रिक्तता से प्रेम?" बोले वो,
"शाब्दिक रूप यही कहता हैं अर्थ में क़तई नहीं!" कहा मैंने,
"तब ये विचार क्या?'' बोले वो,
"ये विचार शाब्दिक तो है नहीं!" कहा मैंने,
"सो तो है!" बोले वो,
"ये एक ऐसी भाषा है, जिसे शब्द नहीं जानते!" कहा मैंने,
"वस्तुतः पारिभाषण भी सम्भव नहीं!" बोले वो,
"सही कहा!" कहा मैंने,
"परन्तु देह का क्या?" बोले वो,
"देह से तात्पर्य?" पूछा मैंने,
"उसकी अपाहिज देह का?" बोले वो,
"क्या समीप गए हो आप!" कहा मैंने,
"सच में?" बोले वो,
"हाना, उत्तर यहीं तो है!" कहा मैंने,
"भला क्या?'' बोले वो,
"जब औषधि विफल होती है तब क्या शेष बचता है?" कहा मैंने,
"दुआ! प्रार्थना!" बोले वो,
"निःसंदेह!" कहा मैंने,
"और प्रार्थना किसकी?" पूछा मैंने,
"परोक्ष या अपरोक्ष?" बोले वो,
"दोनों ही?" कहा मैंने,
"यहां यस्था के पावन हृदय की!" बोले वो,
"बहुत बढ़िया!" कहा मैंने,
"अर्थात यस्था को ऐसा विश्वास था?" बोले वो,
"और कोई विकल्प भी तो नहीं?" कहा मैंने,
"अर्थात वो प्रार्थना करे और प्रार्थना स्वीकार हो, हंदल, पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाए?" बोले वो,
"यही मेरा भी विषय है, विचार है!" कहा मैंने,
"स्थिति भी यही कहती है!" बोले वो,
"स्थिति से ही परिस्थिति का निर्माण हुआ!" कहा मैंने,
"सूक्ष्म आंकलन!" बोले वो,
''अभी क़यास बस!" कहा मैंने,
''वो भी सटीक है!" बोले वो,
"वे साधू क्यों आये?" पूछा मैंने,
"पूजा हेतु!" बोले वो,
"पूजा?" कहा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"जी बताया गया?" कहा मैंने,
"सम्भवतः!" बोले वो,
"कारण और भी होगा!" कहा मैंने,
"सो क्या?" बोले वो,
"आया कौन था?" बोला मैं,
"याद नहीं?" बोले वो,
''हंदल कहा था?" पूछा मैंने,
"नहीं रहा होगा!" बोले वो,
"कोई संतान?" पूछा मैंने,
"ज्ञात नहीं!" बोले वो,
"यदि हो?" पूछा मैंने,
"कैसे पता?'' बोले वो,
"कलश!" कहा मैंने,
"कलश?" बोले वो, ज़रा हैरानी से,
"हां! कलश!" कहा मैंने,
"कलश और उन साधूओं में कोई जोड़?" बोले वो,
''सम्भव भी हे और नहीं भी!" कहा मैंने,
"यदि सम्भव हो?" बोले वो,
"तभी भी उलझन!" कहा मैंने,
"और जो न हो?" बोले फिर से,
"तो भी उलझन!" कहा मैंने,
"आपके अनुसार वे साधू लो कलश लेने आये थे?" बोले वो,
"यही!" कहा मैंने,
''ऐसा कैसे सम्भव?" बोले वो,
"और औचित्य क्या रहा होगा?" कहा मैंने,
"हां, ये भी है!" बोले वो,
"और कलश लेने आया होगा वो, जो इस प्रेम-गाथा से भिज्ञ रहा होगा!" कहा मैंने,
"तो भी?" बोले वो,
"हां, सही! तो भी?" कहा मैंने,
"मतलब?" बोले वो,
"मतलब यही कि कोई विशिष्ट ही!" कहा मैंने,
"मैंने देखे थे वे!" बोले वो,
"कोई था विशेष?" पूछा मैंने,
"इतना समय नहीं था!" बोले वो,
"कुछ खुदाई हुई थी?'' बोला मैं,
"खुदाई?" बोले वो,
"रुको!" कहा मैंने,
वे चुप हो गए तभी!
"उन्हें खुदाई की क्या ज़रूरत?" बोला मैं,
"क्यों?" बोले वो,
"कलश का वारिस ही जो आया हो?" कहा मैंने,
"क्या कह रहे हैं आप?" बोले वो,
"सम्भव नहीं क्या?" पूछा मैंने,
"सम्भव तो है परन्तु?" बोले वो,
"क्या परन्तु?" कहा मैंने,
"ये सिर्फ कयास भर ही है!" बोले वो,
"हां, यहीं अटक जाते हैं हम!" कहा मैंने,
"तब?" बोले वो,
"कुछ तो है महंत जी!" कहा मैंने,
"हां है! वो स्थल!" बोले वो,
"कुछ ऐसा जो छिपा है!" कहा मैंने,
"क्या मगर?" बोले वो,
''समय बहुत हुआ!" कहा मैंने,
"शायद, यही समय हो?" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"यदि है, तो मार्ग भी खुलेगा!" बोले वो,
"मुझे भी उम्मीद है!" कहा मैंने,
वो रात भी गुणा-भाग, गठ-जोड़ करने में निकल गयी! हाथ कुछ न आया! लगता था कि अब लगा हाथ कुछ और दूसरे ही पल, हथेली साफ़! पसीना भी नहीं!
दोपहर का वक़्त....
अम्मा आ गयी थीं! हाल, कुशल-क्षेम पूछी और फिर से मैंने बात आगे बढ़ायी, इस बार कुछ ज़रूरी सवाल पूछे!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हां?" बोलीं वो,
"उनका विवाह हुआ!" कहा मैंने,
"हां!" बोलीं वो,
"विवाह हुआ तो संतान भी हुई होगी?" कहा मैंने,
"ये तो पता नहीं!" बोलीं वो,
टूट गया पहाड़! कुचल गया मैं! सांस भी न ली गयी!
"किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई?" पूछा मैंने,
"हुई!" बोलीं वो,
"ऋषि पौष?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोलीं वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"हंदल को!" बोलीं वो,
"हंदल को?" मैं तो अजीब सी स्थिति में आ गया!
"हां!" बोलीं वो,
"उसे भला क्या आपत्ति?" पूछा मैंने,
"वो देह से अपाहिज था, मस्तिष्क से नहीं!" बोलीं वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"उसे सब मालूम था!" बोलीं वो,
"क्या मालूम?" पूछा मैंने,
"ऊंच नीच!" बोलीं वो,
"इसका क्या अर्थ?" पूछा मैंने,
"वो प्रेम ही क्या जो अपने लिए हो?" बोलीं वो,
"सत्य!" कहा मैंने,
''वो प्रेम तो है नहीं?" बोलीं वो,
"निःसंदेह नहीं!" कहा मैंने,
"हंदल प्रेम करता था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोलीं वो,
"क्या?" पूछा मैंने, और झट से खड़ा हो गया!
"हां, नहीं!" बोलीं वो,
"तब विवाह?" पूछा मैंने,
"यस्था की इच्छा!" बोलीं वो,
"यस्था की इच्छा?" कहा मैंने, मैं, बड़ा ही विस्मय में था!
"हां!" कहा उन्होंने,
मैंने एक बात पर गौर किया, अम्मा ने जब ये बोला था, तब वो शांत से भाव में थीं, अन्यथा, यस्था और हंदल का उल्लेख आते ही, उन पर कुछ न कुछ भाव उतरते थे! इसका मतलब, अभी और गहराई नापनी आवश्यक थी!
"अम्मा जी?" कहा मैंने,
"हां?" बोलीं वो,
"अब मात्र यस्था की इच्छा के तो कुछ सम्भव नहीं?" कहा मैंने, कुछ सफाई सी देते हुए,
"मान सकते हैं ऐसा!" बोलीं वो,
"परन्तु फिर भी हुआ?" कहा मैंने,
"होना ही था!" बोलीं वो,
"क्या होना था?" पूछा मैंने,
"उनका विवाह!" बोलीं वो,
"ये कैसे, होना ही था?" कहा मैंने,
"इसे इच्छा ही कहिये उस ऋषि-पुत्री की!" बोलीं वो,
"मेरे लिए तो मामला उलझता जा रहा है!" कहा मैंने,
"कुछ उलझन है!" बोलीं वो,
"कुछ नहीं अम्मा, बहुत!" कहा मैंने,
"सबसे ज़्यादा उलझन किसकी?" बोलीं वो,
"इस गाथा में?" पूछा मैंने,
"हां?" बोलीं वो,
"यस्था की, देखी जाए तो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोलीं वो,
"हंदल?" कहा मैंने,
"हां!" बोलीं वो,
"क्या उलझन?" पूछा मैंने,
"बहुत बड़ी उलझन!" बोलीं वो,
"समझा नहीं?" कहा मैंने,
"सबसे पहले तो यस्था की व्यस्था कि कैसे, किसे, उसे ये बात बताये?" बोलीं वो,
"हां, ये तो सबसे अहम है!" कहा मैंने,
"यस्था की हालत ऐसी थी, किस जैसे चौमासे में, भूमि का कोई टुकड़ा जल का स्वाद ही न ले पा रहा हो! सूखा ही पड़ा हो!" बोलीं वो,
"सच कहा!" कहा मैंने,
"फिर कुछ हुआ, ऐसा ही..!" बोलीं वो,
"क्या अम्मा? क्या ऐसा ही?" पूछा मैंने बेचैन होते हुए!
और अम्मा ने अब गीत गुनगुनाया! मैंने एक एक शब्द मोती की भांति चुना, ध्यान से सुना! और अब उसका अनुवाद!
......................................
प्रातःकाल का समय है! जनमानस, चैन की नींद ले, अब जागने ही वाला है! इस स्थान में, बने एक कोने में, मंदिर में, धूपबाती आरम्भ हो गयी है! तुलसी मैय्या भी जाग चुकी हैं! और मेरे सामने से, कुछ कीट, अपने अपने घरौंदों में जाने के लिए तैयार हैं! मैं स्नान कर, ध्यान में लगी हूं, परन्तु मेरे ध्यान में जो दो शिखाएं हैं, वो रह रह कर, मेरा ध्यान खींचती हैं! इसका निदान आवश्यक ही है! मन में प्रीत है, और प्रीत का कोई कारण नहीं, कोई पर्याय नहीं, कोई ध्येय नहीं और न ही कोई उद्देश्य! उद्देश्य! मैं क्यों मुखर नहीं हो पाती? क्या कारण है? कोई भय है? कोई शंका? कोई आशंका? क्या कारण है?
शंखनाद! अभी अभी शंखनाद हुआ है! गुग्गल और धूमावटी की सुगंध फ़ैल गयी है! मंदिर की ओर जाने वाले लोग, चल पड़े हैं! मैं भी उठ खड़ी हुई हूं और अब...............सामने ही....
"यस्था?" आयी आवाज़ मां की,
"हां मां?'' बोली वो,
"आ?" बोलीं वो,
"आयी!" बोली वो,
और उन विचारों को, उस झोंपड़ी के मध्य गड़े हुए, शहतीर से निकले ठूंठ पर, टांग कर, बाहर आ गयी यस्था! अपने मां के पास, हाथ जोड़, प्रणाम किया उन्हें! मां ने सर पर हाथ फेरा और ले चलीं मंदिर की तरफ!
प्रातःकाल का समय और प्रातः के पक्षी! उनका कलरव! जैसे स्वर्ग यहां उतर आया हो भूमि पर! कैसी उमंग सी भरी होती है प्रत्येक वनस्पति में! क्या वृक्ष और क्या उसके नीचे पलते छोटे-छोटे से पादप और पादिपायें! क्या घास और क्या फूस! प्रातः की ओंस, जीवनदायनी होती है! वो शीतलता, कोई भी कृत्रिमता से रच ही नहीं सकता! वो संघटक जो प्रकृति मिलाती है, उसको मात्र प्रकृति ही रच सकती है! अन्य कोई नहीं! भूमि भी, कैसे मचल सी उठती है! कैसे लज्जाशील हो जाती है, चूंकि उसका घूंघट हटाने, स्वयं सृष्टिदेव सूर्य अवतरित हो जाते हैं पूर्वी क्षितिज पर! लालिमा, जो रात भर उनके संग, रनिवास पर रही, उस तिमिर में, अब सम्मुख आते ही, कैसे लज्जा के मारे फ़ैल सी जाती है उनके इर्द-गिर्द! कि न जाने कब उनकी दृष्टि उस लालिमा से जा भिड़े जो समस्त रात्रि सूर्य के तेज का तेजास्वादन करती रही! अब उजाले में, लज्जा का आवरण ओढ़ बैठी! ये है प्रकृति और प्रकृति की अनुपम भेंट इस संसार को! जल, कैसा निर्मल सा हो उठता है, उसकी बहती कल-कल जो संगीत छेड़ती है, गांधर्वियां उसके वशीभूत हो, नृत्य करने लग जाती हैं! यही तो है ब्रहमपुंज-वेला!
तो शंखनाद हो रहा था, घंटिकाएं बज रही थीं! पूजन मध्य तक पहुंचा नहीं था अभी तक! वे दोनों वहां जा पहुंची, एकाकार के से पुष्प उठाये और आराध्य को श्रद्धापूर्वक अर्पित कर दिए!
"यस्था?" बोली मां,
"हां?" कहा उसने,
"क्या बात है?" बोली मां,
"क्या मां?" बोली वो,
लेकिन नज़रें न मिलायीं!
"तू कहां है आजकल?" पूछा मां ने,
"अर्थात?" बोली वो,
"अपने आप में नहीं लगती?" बोलीं वो,
"क्या मां?" पूछा उसने,
"किसी द्वन्द में लगती है?" बोलीं वो,
"नहीं तो?" बताया उसने,
"झूठ?'' बोलीं मां,
"क्यों बोलूंगी मां?" बोली वो,
"मुझ से छिपाएगी?" बोलीं वो,
"नहीं तो?'' बोली वो,
"तो खोयी सी क्यों रहती है?" बोलीं मां,
"आपको लगता है ऐसा?" बोली वो,
"हां!" कहा मां ने,
"ये सत्य नहीं!" बोली वो,
"तो सत्य क्या है?'' पूछा मां ने,
"लो!" आया एक सहायक और प्रसाद दिया सभी को, उन्हें भी! और बात, आयी-गयी सी हो गयी!
"सुन?" बोली मां,
"हां?" कहा उसने,
"तू तैय्यार हो!" बोलीं मां,
"क्यों मां?" पूछा उसने,
"आज मत्थो देवी के जाना है!" बोली मां,
"ठीक है मां!" बोली वो,
और लौट पड़ी! मन तो अनमना सा ही था उसका, क्या करेगी वो वहां? सब हैं तो सही? और फिर, कोई कुछ करने भी तो नहीं देता!
एक शीतल झोंका आया हवा का! गला उघड़ गया उसका! जैसे वायु ने स्पर्श किया हो उसे! उसने संभाला अपना वस्त्र और चल पड़ी अपने कक्ष की तरफ! पीछे देखा, और फिर से आगे! बढ़ती चली गयी अपने कक्ष की तरफ वो यस्था!
उस सुबह, मौसम साफ़ था! सूरज यौवन में थे और धूप में चंचलता थी, हालांकि, दिन की अभी शुरुआत ही हुई थी! नदी में, चमकती धूप कहीं लाल, कहीं पीली और कहीं कहीं कंचन-वर्ण की थी! दो नैय्यायें चल जा रही थीं! पहली नैय्या में, मात्र स्त्रियां, तीन खिवैय्ये थे और दूसरी में, चार खिवैय्ये, और कुल पुरुष एवं किशोर थे, इसी दूसरी नैय्या में, सबसे आखिर में, सर पर पीले रंग का गमछा बांधे हंडल बैठा था, हाथों में एक बड़ा सा चप्पू! जब नाव खेता था, तब सभी पेशियां नाच उठतीं! पौरुष-यष्ठि से परिपूर्ण सी देह लगती थी, जब तक, कोई कमर से नीचे का भाग न देख ले! हंदल मुस्कुराते हुए, जल की लहरों से उलझता हुआ नैय्या खे रहा था, उसे जैसे इस संसार से कुछ लेना देना ही नहीं था! न उस से, जो मारे लज्जा के, पीछे भी न देख पा रही थी! वो यस्था! जिसकी देह का रोम रोम पुलकित सा हो, प्रत्येक रोयें को बाहर भेज रहा था!
कसक क्या होती है मित्रगण? जानते हैं? कसक, मलाल नहीं होती! न मन का मसोस के रह जाना ही!
वो नाव, जो, नियम और क्रम से, पीछे ही रहनी थी, काश कि आगे हो जाए! पल भर ही सही, पल भी बहुत है! क्यों नहीं ये जल ही ठेल देता उसे आगे! क्यों नहीं वायु का वेग ही बढ़ाता है उसे आगे, बस कुछ पलों के लिए! बस कुछ ही पल!
ये होती है कसक!
न पीछे ही देख पाए, न उस पुरुष-रौला में एक आवाज़ ही सुन पाए! बहाने सौ बनाये, चले एक भी नहीं! और इसी को कहते हैं विवशता! नहीं तो पीछे मुड़कर, देखने में भले ही क्या देर!
नाव अभी मंझधार में थी! जब चप्पू चीरता जल को, तो जल जैसे अपने सामर्थ्य पर हुंकार भर उठता! जहां था, जैसा था, वहीँ होता, वैसा ही रहता! यही है संसार! और हम हैं चप्पू! नाव है जीवन! चप्पू चले, तो जीवन चले! चप्पू थमे तो हम भी थमे! जल जहां था, वहीँ है, कल भी वहीँ होगा! जहां आज है!
नाव में बैठी स्त्रियां किसी लोकगीत का कुछ पंक्तियां गाये जा रही थीं! उनके अनुसार, नदी के तीर पर, प्रेयसी, अपने प्रेमी की प्रतीक्षा में है, सुबह से दोपहर हुई और दोपहर से शाम! एक एक लहर को वो पहचान गयी थी, कि कौन सी गयी और कौन सी आयी दोबार पलट कर! नहीं आया तो वो प्रेमी, जिसने वचन दिया था आज के मिलन का! अब तो रेत का कण कण, एक एक वृक्ष, एक एक वायु का झोंका उसे समझाने में लगा था! कि सुन पगली! ये डोर तो ऐसी है, कि बंधे तो पर्वत खिंचा चला आये, और न खींचे तो प्राण भी चले जाएं!
प्राणों का उल्लेख आते ही, उसके होंठों पर मुस्कुराहट आ गयी! अब तो प्राण ही जाएं और इस दुविधा से उसको उबारें! वो तो हारी!
"तुम देखते क्यों नहीं?" सर आगे किये हुए ही, उसने स्वयं से, उस हंदल के लिए एक प्रश्न भेजा!
प्रश्न सम्भवतः, गहरा ही उतर गया नदी में! लौटा ही नहीं!
जल की सतह पर अक्स ढूंढें वो! कहां से मिले अक्स! हां, हृदय में है अक्स! इतना सोच, शरमा ही गयी वो!
"यस्था?" मां की आवाज़,
"हां मां?" बोली वो,
''वो सामान तो उठा?" बोलीं मां,
वो नाव में उठी, थोड़ा सा संतुलन डगमगाया, एक स्त्री ने थामा और उसकी नज़र, जा पड़ी उस हंदल पर!
"देख?" बोली मां,
हंदल, अब चूंकि किनारा आने ही वाला था, चप्पू को अपनी जांघों पर रख, बालकों की तरह से जल में हाथ हिलाये जा रहा था! मुस्कुरा गयी! कुछ पल और.....
"बैठ जा?'' बोलीं मां,
"हां मां!" बोली वो,
और सामान की गठरी पकड़, फिर से बैठ गयी वहीं पर! नाव का तला, रेत से टकराया, चर्र-चर्र की आवाज़ हुई! फौरन ही तीनों खिवैय्ये कूद पड़े बाहर, रस्सियां खींचीं और नाव भी सरक आयी! आ गया किनारा! और वे, एक एक कर उतरने लगीं!
गजब की लेखनी
गुरुजी 🙏कृपया आगे....