"हां, दिखाइए!" कहा मैंने,
यस्था! यहां उसे यस्था ही कहते हैं, जबकि उसका मूलरूप कभी रहा होगा, ईष्टा! बहुत समय गुजर गया और अब नाम भी कुछ इसी प्रकार से बोली में इस्तेमाल होने लगा है! नाम भले ही बदल जाए, व्यक्ति-विशेष वही रहता है! ये यस्था या यष्ठा, कौन थी, नहीं जान सका था मैं बस कुछ आधी सी, कच्ची-पक्की सी कहानीनुमा किवदंती से अधिक कुछ नहीं लगा था मुझे तो! ये भारत है, आस्था के देश, यहां, जगह जगह ऐसे स्थल बिखरे पड़े हैं! हो सकता है ये भी कोई ऐसा ही स्थल रहा हो!
"इधर से आओ!" बोले महंत!
"हां!" कहा मैंने,
"उधर ज़रा पत्थर आदि हैं!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"और वैसे भी कौन आता है यहां!" बोले वो,
"यही मैं पूछने भी वाला था!" कहा मैंने,
"ये जगह एक तो निर्जन है, कोई आसपास नहीं!" बोले वो,
"हां, देख रहा हूं!" कहा मैंने,
"फिर, कोई सुविधा नहीं!" बोले वो,
"ऐसे तो एक दिन नाम ही मिट जाएगा?'' कहा मैंने,
"क्या करें!" बोले वो,
"कुछ तो?'' कहा मैंने,
"दो-चार लोग हैं जो जानते हैं बस!" बोले वो,
"समझ गया हूं!" कहा मैंने,
"यहां!" बोले वो,
"नीचे?" कहा मैंने,
"हां, बस पास में ही!" बोले वो,
"चलिए!" कहा मैंने,
और हम नीचे की तरफ चल पड़े! वे एक जगह रुक गए! मैं ही रुक गया!
"यहां?" पूछा मैंने,
''हां!" बोले वो,
"यहां तो जंगल है?" कहा मैंने,
"जंगल में ही है!" बोले वो,
"दूर?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तो दिखाइए?" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
और हम रास्ता बना कर, एक जगह अंदर की तरफ चल पड़े! जंगल न घना था और न ही छितराया हुआ! कहीं सूखा सा और कहीं कहीं नमी थी!
"ये पलाश है?'' पूछा मैंने,
एक पेड़ को देखते हुए!
''नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जंगली है!" बोले वो,
"लगता तो पलाश है!" कहा मैंने,
"वैसा ही है, लेकिन पत्ता कच्चा है इसका!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"रुको!" बोले वो,
"क्या हुआ?'' मैंने आसपास देखते हुए कहा,
"उधर देखो!" बोले वो,
मैंने उधर देखा, आश्चर्य सा हुआ!
"ये क्या है? मानसरोवर?'' पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"केलिका?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"केला तो है नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कटक्षी!" बोले वो,
"कटक्षी?'' बोला मैं हैरत से!
"कभी देखी नहीं होगी?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"दूर का पौधा है!" बोले वो,
"दूर का?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"कहां का?" पूछा मैंने,
"पूरब के जंगलों का!" बोले वो,
"सिक्किम आदि?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"उस से भी आगे का!" बोले वो,
"यहां कैसे?'' पूछा मैंने,
"ये तो मैं भी नहीं जानता, सुच पूछो तो!" बोले वो,
"मैंने तो देखा ही पहली बार!" कहा मैंने,
''परन्तु सुना अवश्य ही होगा!" बोले वो,
"नहीं जी! सुना भी नहीं!" कहा मैंने,
"किसी और नाम से!" बोले वो,
"और नाम से?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"क्या नाम?" पूछा मैंने,
"कटिज!" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"ये तो सुना ही होगा?" बोले वो,
''वही कुटिज?" कहा मैंने,
"हां, वही!" बोले वो,
"आज पहली बार ही देखा!" कहा मैंने,
"इसका प्रयोग जानते हैं न?" बोले वो,
"हां! मां कमला को इसके फूल अथवा कोई बीज से होते हैं वो चढ़ते हैं!" कहा मैंने,
"हां! बीज ही!" बोले वो,
''अच्छा, अब समझ आया'!" कहा मैंने,
"पूनम की रात को ये फूल खिलते हैं, ऐसी सुगंध होती है कि जैसे आकाश से बरसात हो रही हो फूलों की!" बोले वो,
''सच में?" कहा मैंने,
"हां, सच में!" बोले वो,
"आओ!" बोले वो,
"चलिए!" बोला मैं,
मित्रगण! अब जिस जगह हम आये, पता नहीं क्यों ऐसा लगता था कि ये भूमि-खंड यहां का नहीं है! ये या तो जैसे किसी देवी-स्थान का उपवन था या फिर किसी राजा का उपवन! बहुत ही सुंदर! एक बात और, यहां मैंने नीले रंग के ततैये देखे! ऐसे तो मैंने कहीं नहीं देखे थे! हां, सुना था कि ऐसे भी होते हैं! जैसे नीले से रंग की ड्रैगन-फ्लाई हुआ करती है!
"बड़ी ही शीतल सी जगह है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"कोई सोता आदि है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं, कहते हैं यहां कभी कोई एक बड़ा कुआं हुआ करता था!" बोले वो,
"पथरीला सा?" कहा मैंने,
''हां!" बोले वो,
"शायद पत्थरों की ही शीतलता है ये!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
"यही होगा!" कहा मैंने,
"रुको!" बोले वो,
"ये क्या है?" पूछा मैंने,
"क्या लगता है?" बोले वो,
"ये कोई समुद्री सी काई है?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
''फिर?'' पूछा मैंने,
"कण्ठव!" बोले वो,
"ये क्या होता है?" पूछा मैंने,
"ये देखिये!" बोले वो,
और उस काई का सा एक धागा निकाला!
"ये देखो!" बोले वो,
"ये तो सूत सा है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"और कोई काम इसका?" पूछा मैंने,
"माला बनाने के काम आता है!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"वो पठार सा है न?" बोले वो,
"हां?" कहा मैंने,
"वही जगह है!" बोले वो,
''चलो!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
"ये धतूरा है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"और ये चिरचिटा!" कहा मैंने,
''वही है!" बोले वो,
"ज्ञान है मुझे!" कहा मैंने,
"दिखा रहा है!" बोले वो,
हम पठार की संकरी सी जगह से निकल कर चल रहे थे! वो स्थान बड़ा ही साफ़-सुथरा सा था, स्पष्ट था, आम आदमी की पहुंच नहीं थी अभी यहां!
"वो देखो!" बोले वो,
''वे पेड़?" कहा मैंने,
"हां, आओ!" बोले वो,
"हां, चलो!" कहा मैंने,
हम उन पेड़ों की तरफ चल दिए, और आ गए! ये एक समतल सी भूमि थी! यहां वहां कुछ जंगली से फूल उगे थे, एक जगह वैजयंती के छोटे छोटे से पौधे दिखाई दिए दिए! अवश्य ही यहां पर कोई न कोई तो रहा ही होगा! हालांकि, कोई खंडहर या कोई अवशेष नहीं था इस विषय में गवाही देने को लेकिन पहली नज़र में कुछ ऐसा ही लगता था!
"वो देखिये!" बोले वो,
मैंने वहीँ देखा, एक टीला सा था, चौकोर सा, मिट्टी का बना हुआ, उसके ऊपर घास, पौधे उगे थे, कोई देखे तो कह नहीं सकता था कि ये भी कुछ महत्व रखता है!
"तो ये है वो जगह?" कहा मैंने,
"हां! यहीं है वो कलश!" बोले वो,
"भस्म का कलश?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"यस्था का?" पूछा मैंने,
"निःसंदेह!" बोले वो,
"इतनी सटीकता से कह सकते हो?" पूछा मैंने,
"बिलकुल!" बोले वो,
"कितना समय हुआ होगा?" पूछा मैंने,
"गौर करें तो ठीक ठीक का पता नहीं, हां फिर भी दो सौ साल मान ही लीजिये!" बोले वो,
"दो सौ साल?" पूछा मैंने, मुझे अचरज हुआ!
"हां!" बोले वो,
"आप यहां कब से हैं?" पूछा मैंने,
"महंत हुए तो बीसियों हुए!" बोले वो,
"आसपास देखा मैंने, ये क्या निषाद लोग हैं?" पूछा मैंने,
''हां!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"ये इस प्रकार एक कतार सी चली आयी है, तभी से वास करते आ रहे हैं!" बोले वो,
"आ रहे होंगे!" बोला मैं,
"हंदल भी एक निषाद ही था!" बोले वो,
"हंदल?" पूछा मैंने,
"हां, हंदल निषाद!" बोले वो,
"हंदल के मायने क्या हुए?" पूछा मैंने,
"जैसे, देह से लाचार!" बोले वो,
"तो क्या हंदल देह से लाचार था?" पूछा मैंने,
"हां! यही कहते हैं!" बोले वो,
"कौन कहते हैं?" पूछा मैंने,
"जो जानते हैं!" बोले वो,
"आपको किसने बताई?" पूछा मैंने,
"एक साधू ने!" बोले वो,
"यहीं?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"आप और क्या क्या जानते हैं?" पूछा मैंने,
"जो बता रहा हूं!" बोले वो,
"और ये, यस्था?" पूछा मैंने,
"यस्था!" बोले वो,
"हां, यही!" कहा मैंने,
"यस्था एक ऋषि की पुत्री थी!" बोले वो,
अब मैं चौंका! मेरे बदन में कांटे से उग आये! मैं जिस स्थान पर खड़ा था, वो एक पवित्र स्थान था! मुझे लगा मेरे जूते ही मेरे सर पर बाज रहे हैं! जैसे अनजाने में ही गलती हो गयी!
"आना ज़रा?" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" बोले वो,
"पुष्प हैं उधर!" कहा मैंने,
"हां, बहुत हैं!" बोले वो,
"चढ़ा दें!" कहा मैंने,
"अवश्य ही चढ़ाइये!" बोले वो,
मैंने अपनी बोतल से पानी निकाल, हाथ धोये, चेहरा धोया और पांच पुष्प तोड़ लिए, अनजाने में ही कोई भूल हुई हो तो क्षमा-याचना कर ली!
"महंत साहब?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"और अधिक कैसे जानकारी मिलेगी?" पूछा मैंने,
"और अधिक?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"मिलवा दूंगा!" बोले वो,
"कौन है?" पूछा मैंने,
''है एक स्त्री!" बोले वो,
"उन्हें ज्ञात है?" पूछा मैंने,
"मुझ से अधिक ही!" बोले वो,
"मिलवाइए!" कहा मैंने,
"हां, मिलवा दूंगा!" बोले वो,
अब मैंने फिर से उस स्थल को देखा! यही एक कलश है, कलश में, भस्म है यस्था की, ये यस्था का स्थान है, लेकिन अब जो जिज्ञासा की लौ मद्धम थी, भड़कने लगी थी! और अधिक जानने की ललक अब उठने लगी थी! कोई ऐसा अध्याय, जो अभी तक छिपा था, अतीत के आंचल में!
"उस समय निषाद यहीं रहा करते होंगे?" पूछा मैंने,
"बहुत समय हुआ!" बोले वो,
"हां! सही बात है!" कहा मैंने,
"तब नदी भी यहीं से गुजरती थी!" बोले वो,
"अक्सर ऐसा ही होता रहा है!" कहा मैंने,
"हां, कोई भी आश्रम, स्थान, अधिकांश, नदी किनारे ही होते थे!" बोले वो,
"क्यों? ये समझ आता भी है!" कहा मैंने,
"हां, तब यहां मल्लाह आदि निषाद आदि लोग रहते थे!" बोले वो,
"अवश्य ही रहते होंगे!" कहा मैंने,
"आइये, उधर बैठते हैं!" बोले वो,
"हां, चलिए!" कहा मैंने,
हम एक साफ़ सी जगह आ बैठे, प्रकृति ने जैसे अपनी कूची यहां, कुछ पलों के लिए रोक ली थी! ये भू-भाग, वनस्पति आदि सब के सब ऐसे ही प्रतीत होते थे!
"एक बात बताइये?'' कहा मैंने,
"पूछिए?'' बोले वो,
"ये जो स्थान है, यस्था का, तब अवश्य ही ऋषि के स्थान में रहा होगा?" कहा मैंने,
"कह सकते हैं!" बोले वो,
"अर्थात, मैं कहूं और ये जानूं, मानूं कि हम, उसी स्थान में ही कहीं बैठे हैं तो कोई गलत न होगा कहना?" बोला मैं!
"नहीं, कुछ गलत नहीं!" बोले वो,
"परन्तु ये यस्था इतने अंधेरे में क्यों है?" पूछा मैंने,
"ये नहीं जानता मैं!" बोले वो,
"मेरे कहने का अर्थ ये है, कि कोई अन्य निशानी क्यों नहीं यहां?" पूछा मैंने,
"होगी भी तो ज़मीन के नीचे या फिर बह गयी होंगी बाढ़ में!" बोले वो,
"हां, ये सम्भव है!" कहा मैंने,
"अब एक प्रश्न और! यूं ही मन में चला आया!" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"एक ऋषि पुत्री, एक अलग ही सम्मान, आदर और स्थान, और एक निषाद, देखा जाए तो कुछ नहीं, एक सेवक ही मानो, उस समय के हिसाब से, लेकिन आपने बताया कि हंदल तो देह से भी लाचार था?" कहा मैंने,
"हां, उसके कमर के नीचे के हिस्से में प्राण नहीं था, निष्प्राण था!" बोला वो,
"एक तरह की फालिज?" कहा मैंने,
"हां, यही!" बोले वो,
"तब तो वो सेवकाई से भी गया? क्या करता होगा वो बेचारा, असहाय?" पूछा मैंने,
"हां, देखा जाए तो!" बोले वो, मुस्कुराते हुए!
"कोई बात है क्या?" पूछा मैंने,
"कैसी?" पूछा उन्होंने,
"आप उस असहाय के ज़िक्र पर, मुस्कुराये!" कहा मैंने,
"आप अपना प्रश्न पूछो, इसका उत्तर बाद में दूंगा!" बोले वो,
"हां, तो मेरा प्रश्न था कि कहां तो वो ऋषि पुत्री यस्था और कहां एक निषाद, असहाय, इनके नाम करीब करीब कैसे?" पूछा मैंने,
"बहुत अच्छा प्रश्न किया है!" बोले वो,
"उत्तर भी अच्छा हो, उम्मीद करता हूं!" कहा मैंने,
"कहां वो ऋषि पुत्री यस्था!" बोले वो,
''हां!" कहा मैंने,
"और कहां वो असहाय निषाद, हंदल!" बोले वो,
"जी, बिलकुल!" कहा मैंने,
"नाम करीब करीब क्यों? यही प्रश्न है न?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तो उत्तर है, इस ऋषि पुत्री ने, स्वेच्छा से इसी, असहाय, हंदल से, विवाह किया था!" बोले वो,
मैंने जो ये सुनी! मैं उठ के खड़ा हो गया! मुझे तो जैसे यस्था का वो चेहरा ही दीख गया! जैसे उस स्थान ने, हुंकार सी भर, गवाही दे दी! जैसे वो स्थान, साक्षी बन बैठा!
"बैठो!" बोले वो,
मैं बैठ गया! पसीने से कानों पर आ, ठहाके से मारने लगे! उड़ते हुए बर्रों की आवाज़ें, किसी इंजन जैसी लगने लगीं!
"क्या कह रहे हैं आप?" बोला मैं,
"सच कह रहा हूं!" बोले वो,
"वो क्यों करेगी ऐसा?" पूछा मैंने,
"उसकी इच्छा!" बोले वो,
"पिता?" पूछा मैंने,
"क्यों मना करते?" बोले वो,
"लोग?" कहा मैंने,
"हमारे जैसे न होंगे!" बोले वो,
"और स्वयं हंदल?" पूछा मैंने,
"नहीं पता!" बोले वो,
"उसके लोग?" पूछा मैंने,
"क्या पता!" बोले वो,
"उसका समाज?" पूछा मैंने,
"नहीं जानता!" कहा उन्होंने,
"उसकी असहायता?" पूछा मैंने,
"हां! हां!" बोले वो,
"क्या हां?" पूछा मैंने,
"वो यही असहायता तो थी!" बोले वो,
मैंने झटका खाया! और तब समझ में आया!
"अर्थात, उस हंदल की असहायता?" बोला मैं,
"हां, इसी कारण से ऐसा हुआ!" बोले वो,
"नहीं नहीं!" कहा मैंने गर्दन हिलाते हुए!
"क्या नहीं?" बोले वो,
"मात्र असहायता?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"नहीं महंत जी!" कहा मैंने,
"आपकी राय से फिर क्या?" बोले वो,
"मात्र असहायता ही हो तो कोई भी स्त्री ऐसा कर सकती थी? नहीं क्या?" बोला मैं,
"कोई भी?" बोले वो,
''क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"क्या मतलब?" बोले वो,
"यही कि, ऋषिवर किसी स्त्री से ब्याह करवा देते उसका और वो, उसी प्रकार से सेवा तो करती ही?" कहा मैंने,
"बात में वजन तो है!" बोले वो,
''और फिर, ऋषिवर?" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"कुछ न कुछ कारण तो रहा होगा!" कहा मैंने,
''अब लगता है!" बोले वो,
"ऋषि-पुत्री सुंदर होगी, निश्चित है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
''और हंदल, एक आधा मनुष्य!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"पता नहीं, संतान-जनक था भी या नहीं?" कहा मैंने,
"ये तो नहीं पता!" बोले वो,
"इस से आगे का इतिहास क्या कहता है?" पूछा मैंने,
"जो बताया आपको!" बोले वो,
"मेरा मतलब, विवाह-पश्चात!" कहा मैंने,
"ये नहीं पता!" बोले वो,
''तो क्या वो स्त्री जानती है?" पूछा मैंने,
"वो एक गीत में गुनगुनाती है!" बोले वो,
"तब अवश्य ही जानती होंगी!" कहा मैंने,
''हां, हो सकता है!" बोले वो,
''मुझे शीघ्र ही मिलवाइए!" कहा मैंने,
"आज ही बुलवा देता हूं!" बोले वो,
"क्या आयु है?'' पूछा मैंने,
''करीब सत्तर या पचहत्तर?" बोले वो,
"तब हम ही चलें?" बोला मैं,
"मिलने?'' बोले वो,
"हां!" बोला मैं,
तभी एक तोते की आवाज़ आयी! इस जगह पर तो उसने चिल्ला चिल्ला कर, सर आसमान पर उठा लिया!
"कोई घोंसला होगा!" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''तो धमका क्यों रहा है?" बोले वो,
"हटा रहा है!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"अपनी प्रेयसी के कारण!" कहा मैंने,
"अरे! आ गयी वो!" बोले वो,
"चलो अब!" कहा मैंने,
"हां जी!" बोले वो,
तभी और भी तोते आ गए वहां! सभी चिल्लाते हुए! ऐसा शोर मचा रहे थे कि हाथी भी जाग कर भाग जाए!
"ये तो प्रेम-स्थली है!" बोले वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
और हम उठे वहां से, वे असहज तो थे ही सभी तोते!
"प्रेम-स्थली!" कहा मैंने,
"देखो न?" बोले वो,
"हां, अब आया समझ!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"प्रेम!" कहा मैंने,
वे झट से समझ गए!
"उस हंदल से?'' बोले वो,
"क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"हां, सम्भव है!" बोले वो,
''अब वो स्त्री मिल जाए!" कहा मैंने,
"समझ गया हूं!" बोले वो,
"यहां कुछ न कुछ रहस्य है!" कहा मैंने,
"कैसा रहस्य?" बोले वो,
''उनका क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"क्या पता?" बोले वो,
"यही तो जानना है!" कहा मैंने,
रात को नींद अब आने नहीं थी, सो आयी नहीं! टुकड़ों में नींद बटोरी! मस्तिष्क में, यस्था और वो हंदल ही घूमते रहे! वे ऋषि कौन थे? ये हंदल कौन था? यस्था की माता जी कौन? ये स्थान आखिर था क्या? कहीं इस स्थान का उल्लेख मिलता है या मिल सकता है? या फिर ये एक किवदंती ही है? यदि ये मात्र किवदंती ही है तो भी उसका दो सौ सालों तक बने रहना, अपने आप में आश्चर्य से तो कम नहीं! हालांकि, पूर्वांचल ऐसी ही किवदंतियों से भरा पड़ा है, किस पर विश्वास किया जाए और किस पर नहीं, इसी में सबसे बड़ी ज़द्दोज़हद है! कई बार उदाहरण मिलते हैं तो मार्ग दूसरा होता है, मार्ग मिलता है तो पात्र वही नहीं रहते! फिलहाल तो इस गाथा ने ही मन में उत्कंठा के सर्प को जगा दिया था, वो कुंडली मारे तो बैठा ही था, परन्तु चपलता के साथ!
दोपहर की बात है, मुझे बुलाया गया, मैं गया, तो सामने एक वृद्धा बैठी थी, उसके चेहरे ने साफ़ बता दिया था कि कितनी अनगिनत लहरें उसने अपने जीवन में देखी होंगी! कितनी बाढ़ें और कितने ही सूखे! वो समय भी जब मछलियों की बहुतायत रहती होगी, और वो समय भी जब फल भी सूख जाते होंगे, मछलियों की तो बिसात ही क्या! उसके घंरे सांवले चेहरे पर गालों की अब हड्डियां साफ़ नज़र आ ही थीं, खाल लटक गयी थी और जैसे मांस हड्डी को छोड़ ही चुका था! हां उन हड्डियों को छिपाए हुए चमड़े ने, अभी तक दो गोल सी बिंदियां, जिनमे अब झुर्रियां बैठ चुकी थीं, नुमाया कर रखा था! बाल पक चुके थे, भौहों में सफेद से बाल नज़र आ रहे थे, नाक के नथुने में, तीन फूल की पत्तियों वाली नथ पड़ी थी! कान कट गए थे और अब धागे से ही चांदी के छल्ले बांध रखे थे! सूती सी, लाल से रंग की धोती में, जो शायद धूप के कारण रंग जमा चुका था, उसी का रंग था! गले में दो तीन ताबीज़ से बांध रखे थे जो अब उसी के साथ साथ बुढ़ापे की तरफ बढ़ चले थे! उस औरत ने गला साफ़ किया, कांपते बाएं हाथ से, पानी पिया अंजुल बना कर!
"नमस्ते!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
और अपने सीधे हाथ से मुझे बैठने को कहा! मैं बैठ गया!
"माफ़ करना अम्मा, आपको तक़लीफ़ दी!" कहा मैंने,
ऐसे शब्द शायद उसने कभी सुने नहीं थे या फिर आदी नहीं थी, सो मुस्कुरा पड़ी, लाल से दांत दिखाई पड़े, अम्मा के दांत अभी तक साथ निभा रहे थे! हमारे तो शायद, पता नहीं कोई कहां जुदा और कोई कहां जुदा हो जाए उस उम्र तक!
तो तब, महंत जी ने बात छेड़ी और उस औरत ने तीन चार बार सर हिलाया हां में अपना!
"ऋषि थे!" बोली वो,
"क्या नाम था? याद है?" पूछा मैंने,
वो चुप हुई, बूढ़े होंठों पर, बूढ़ी उंगलियां टकरायीं और बूढ़े दिमाग की बूढ़ी अलमारी में कुछ जवानी की यादें ताज़ा कीं!
"पोस!" बोली वो,
"पोस?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
मैं समझ गया उसका मतलब, ये एक महीने का नाम था, पौष!
"पौष?" कहा मैंने,
''हां!" बोली वो,
"और यस्था उनकी बेटी?" कहा मैंने,
"ईशटा, हां!" बोली वो,
"यहीं स्थान था उनका?" पूछा मैंने,
"थान?" बोली वो और महंत को देखा!
"जगह!" बोले वो,
"हां, एही!" बोली वो,
"उनके बारे में आपको किसने बताया?" पूछा मैंने,
"मां ने!" बोली वो,
समझा! ये मां से बेटी, और फिर उसकी बेटी, ऐसे चलती आयी थी गाथा! चलो, ये किवदंती ही सही, अभी तक तो एक अमूल्य धरोहर ही थी!
"तो कलश?" पूछा मैंने,
"हंदल लाया!" बोली वो,
"यस्था का कलश?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
अब एक बात साफ़ हुई, जब यस्था की मृत्यु हुई, तब वो कलश भस्म का, हंदल लाया था यहां!
"और यहां गाड़ दिया?" पूछा मैंने,
"हां, पेड़ लगाए!" बोली वो,
और दो पंक्तियां गायीं उसने, उसमे जिस पेड़ का उल्लेख आया वो पेड़ पीपल का था! पीपरक!
"एक पेड़?" पूछा मैंने,
"पांच!" बोली वो,
"पांच!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"हंदल की उम्र क्या होगी?" पूछा मैंने,
"ब्याह तक?" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"जवान था!" बोली वो,
"अच्छा! और यस्था भी?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"ऐसी कोई और जगह भी है?" पूछा मैंने,
उसने हाथ हिला कर मना कर दिया!
ऐसी और कोई जगह नहीं थी, बस यही! हंदल एक निषाद था, इसीलिए इस अंचल में ये गाथा मौजूद रही, समझा भी जा सकता है! बातों ही बातों में उसने कुछ गुनगुनाया और जो मुझे समझ आया उसका अनुवाद यहां कर रहा हूं!
.....................................
ये मध्यान्ह का समय है, पिछली रात अच्छी बरसात हुई थी! बरसात के कारण, पेड़ पौधों में जैसे नयी जान पड़ गयी है! इस झोंपड़ी से कुछ ही दूर लगी वो केतकी, जो कल तक मुरझा गयी थी, आज तन कर खड़ी है! ये अलग बात है, कि कोई कीट, तितली, बर्रा या भंवरा, उसके समीप से तो गुजर जाता है, उस पर बैठता नहीं! उसने मधु तो उगलना शुरू कर दिया है, पर, कीटों को ये मधु उसके कांटों से चाटना, अच्छा नहीं लगता! इसीलिए वो अच्छा रूप धारण किये हुए भी, पकवान सजाये हुए भी, अपने गुणों से दूर नहीं है! अर्थात, व्यक्ति जैसा बाहर होता है, ठीक वैसा अंदर भी होना चाहिए! केतकी में ये लक्षण नहीं हैं! अब वो रोये तो सुने कौन, हंसे तो समीप कौन जाए, बुलाये तो जाए कौन!
अंदर फुस और कच्ची रुई से बने गद्दे पर मैं लेटी हुई हूं! बरसात की नमि के कारण बांस कुछ फूल से गए हैं, उनमे अभी भी नमी बची है, अतः, बाहर देखना, उनके बीच से, सम्भव नहीं लगता! बस कानों का ही सहारा है! कहीं दरार ज़्यादा भी है तो नमी फंसी है, वो कांच सी चमक रही है, आज सूरज भी तो निकला है, कोई कोई हवा के संग टूटी सी बून्द, चमक मार जाती है और नेत्र बंद करने पड़ जाते हैं! बाहर एक पेड़ लगा है केले का! अजीब सा लग रहा है, जहां सूरज की किरणें पड़ रही हैं वहां स्वर्ण सा चमक रहा है, और जहां नहीं, वो हिस्सा, दर्प के मारे सर्प सा बिलबिला रहा है!
बाहर एक ओखली है, ओखली में अम्मा, धान कूट रही हैं! बीच बीच में कोई गीत भी गुनगुना जाती हैं! सामने उस द्वार के, कुछ लकड़ियां आयी हैं, बैलगाड़ी वाला खुद ही उतार रहा है उन्हें! उसने आवाज़ तो दी थी, लेकिन कोई आया नहीं! सो, खुद ही जुट गया था!
गांव से दो स्त्रियां घड़े लेकर आ गयी हैं वो सीधे ही अम्मा की तरफ बढ़ चली हैं, उनमे दूध है और दही भी! ये तो नित्य का ही नियम है, हां, आज दिवस का आरम्भ कुछ देर से हुआ है, सुबह और कुछ देर तक, आकाश में जल से भरे बादल बने थे! और अभी अभी, अम्मा ने पुकार लिया है! मैं बाहर जा रही हूं!
...........................................
"बेहतरीन!" कहा मैंने,
"है न?" बोले वो,
"सही!" कहा मैंने,
"खींच दिया न खाका?" बोले वो,
"कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
तभी एक कन्या चाय ले आयी, हमने अपने अपने गिलास उठा लिए, एक गिलास मैंने अम्मा को दे दिया, अम्मा ने, अपनी धोती में उसको संभाल कर पकड़ लिया!
"अम्मा?" कहा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"ये कितना लम्बा गीत है?" पूछा मैंने,
"बहुत!" बोली वो,
"कब सुनाओगी?" बोला मैं,
"जब चाहो!" बोली वो,
''आप बताओ?" कहा मैंने,
अम्मा ने चुस्की ली, सीटी सी बजी!
"दोपहर में कभी भी!" बोली वो,
"ठीक है!" बोला मैं,
"अच्छा लगा?'' पूछा अम्मा ने,
"बहुत ही!" कहा मैंने,
''अब कोई नहीं सुनता!" बोली वो,
"मैं सुनूंगा!" कहा मैंने,
"अच्छी बात कही!" अम्मा ने कहा,
"तो कल आ जाऊं?" बोला मैं,
''आ जाओ!" बोली वो,
"कहां?" बोला मैं,
"यहीं?" बोली वो,
"मैं तो अभी यहीं हूं!" कहा मैंने,
"तब क्या फिकर!" बोली वो,
"कोई नहीं!" कहा मैंने,
"सारा याद है?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"अच्छी याददाश्त है!" कहा मैंने,
अम्मा नहीं समझी!
"बताओ इन्हें?" कहा मैंने,
महंत साहब ने बता दी!
"याद है, और आ जाएगा याद!" बोली वो,
"गाते गाते!" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"सही कहा अम्मा ने!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
''अब कौन सुनता है!" कहा मैंने,
"सही बात है!" बोले वो,
अम्मा कुछ याद करने में लग गयी थी! मैं अम्मा को देख रहा था, जवानी के बीते दिन याद हो चले थे शायद!
और फिर.............!!
फिर कुछ पंक्तियां मुख से निकलीं! और आंखें बंद कर, तनिक सा सर हिलाते हुए, कुछ शब्द निकले! मैंने उन पर तपाक से ध्यान दिया! इन पंक्तियों में, एक नदी रिहन्द का उल्लेख हुआ! मैं सुनता रहा! और फिर उसका अनुवाद अपने मन में किया, आपके लिए लिख रहा हूं!
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ये एक खिलती सी सुबह है, आकाश पर, पूर्वी क्षितिज, यहां कटोरा कहा गया था, अभी लालिमा गाढ़ी हो चली है! आसपास के पेड़ों पर बगुले भी जो बैठे थे, अब उड़ चले हैं! वे भी अब अपने दैनिक-दिनचर्या के जैसे ही दास से लगते हैं! दो श्वान आपस में लड़ रहे थे, काले वाला कुछ भारी सा पड़ रहा है लाल वाले पर! अचानक ही लाल वाले ने, उस काले वाले का एक कान पकड़ लिया और काले वाला ज़ोर से चिल्लाने लगा! डर कर लाल वाले ने उसे छोड़ दिया! काले वाला भागा तो लाल वाले ने अपनी वीरता में और रंग भरने के लिए उसके पीछे दौड़ लगा दी है!
मेरे स्थान पर, जो दीया रात भर जला था, मुझ से बतियाया था, अब मंगल हो चुका है! रात भर उसने, नृत्य दिखाया था, उस लौ को बड़ा ही अभिमान था कि वो चाहे तो अपने ताप से जल सुखा दे! इस समस्त संसार को राख बना दे! हुआ तो कुछ नहीं, स्वयं ही राख हो गयी!
बाहर से बुहारी की आवाज़ आ रही है, अम्मा के संग दो और स्त्रियां हैं जो बुहार रही हैं! पास में बैठे कबूतर जैसे उनके आदी हैं, बिन कुछ कहे-सुने तो हटते भी नहीं! एक स्त्री, एक झोंपड़ी से लिपटी हुई बेल से, तोरई तोड़ रही है! वो कुछ गुनगुनाती है और टोकरे में तोड़ के रख लेती है!
वायु का वेग थोड़ा तेज था, वायु मेरी झोंपड़ी के द्वार से आगे चली, मुझ से टकराई तो मेरे पांव की एड़ी शीतल सी प्रतीत हुई! वायु में शीतलता थी, अनुमान था कि मध्यान्ह समय सम्भवतः वर्षा हो!
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इतना कह वो शांत सी हो गयी, बची हुई ठंडी चाय अब दो घूंटों में ख़तम कर दी! वो खड़ी हुई, नमस्कार की और चल पड़ी वापिस!
"कितनी दूर है गांव इनका?" पूछा मैंने,
"अधिक नहीं!" बोले वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"आधा किलोमीटर!" बोले वो,
"पास ही है!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"कल ले चलता हूं!" बोले वो,
''अच्छा रहेगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोले वो,
और मैं भी वहां से उठ आया, अपने कक्ष में चला आया, और बैठ गया, मेरे मन में उस यस्था की किवदंती गूंज रही थी! एक एक शब्द ऐसा था कि जैसे मैं वहीँ खड़ा हुआ उसके कहे या मन में आते से शब्द कलमबद्ध करता जा रहा होऊं! जी में आये बार बार, कि एक बार फिर से यस्था के स्थान पर हो आऊं!
बड़ी बेसब्री से समय कटा, वो रात भी! बस कल की ही लग्गी लगी थी, कब सुबह हो और कब दोपहर आये, कब मुलाक़ात हो और कब और जान पाऊं!
दोपहर में ही, भोजन करने के बाद, महंत जी चले आये मेरे पास ही!
"नमस्कार!" बोले वो,
"नमस्कार!" कहा मैंने,
"चलें?'' बोले वो,
"बिलकुल जी!" कहा मैंने,
"भोजन?" पूछा उन्होंने,
"कर लिया!" कहा मैंने,
"मैं भी निबट लिया!" बोले वो,
"चलें फिर?" कहा मैंने,
"हां, आओ!" बोले वो,
हम बाहर चले तो उनके जानकार मिलते गए, समय लगता गया और यहां मेरी बेसब्री सी बढ़ती चली गयी!
"उधर क्या है?' पूछा मैंने,
"मंदिर है!" बोले वो,
"पुराना कोई?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"नया ही बनाया?" पूछा मैंने,
"अब तो बहुत हैं!" बोले वो,
"सही बात है!" कहा मैंने,
हम सीधे ही चलते रहे, एक जगह से दूसरी जगह जा मुड़े और तब गांव दिखाई देने लगा!
"यही है?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"दूर नहीं?" कहा मैंने,
"नदी किनारे ही है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
पास ही एक मंदिर मिला, मंदिर के बाहर कुछ लोग खड़े थे, उनकी नमस्कार हुई महंत जी से, कुछ पूछा-पाछा और फिर हम चल पड़े! बड़ी ही खुली सी जगह थी वहां की, ऐसी खुली जगह अब शायद ही कहीं इन देहातों के अलावा दिखाई पड़े! शहरों में मकान तो क्या, आदमी से आदमी सटा पड़ा है! यहां दिखाई देता है, असल मनुष्य का असल जीवन! ये लोग मेहनती है, मेहनतकश, रोज कमाओ और रोज खाओ! न जोड़े की चिंता न चुराए जाने की! चूंकि ये निषादों का गांव था, मछली वाले आने जाने लगे थे, यहां से मछलियां पकड़ी जाती हैं, ठेकेदार मोल लगाते हैं और खरीद लेते हैं, कुछ बची हुई हाट-बाज़ार में बिक जाया करती हैं!
तो हम आ गये उस अम्मा के घर, अम्मा के घर पर कोई नहीं था, एक छोटी सी लड़की थी, बर्तन मांज रही थी, अम्मा उठ कर ही चली आयीं! साथ में हमारे दो और आदमी भी अंदर चले आये, खाटें बिछाई गयीं और फिर खेस भी, फिर बैठ गए हम! अम्मा से नमस्कार हो ही चुकी थी!
कुछ इधर-उधर की बातें और फिर सीधे ही मैं उस गाथा पर आ गया!
"हंदल किस गांव का था?" पूछा मैंने,
"अब नहीं रहा!" बोली वो,
"बाढ़?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"तो ये नए गांव हैं?" पूछा मैंने,
"पुराने भी हैं!" बोली वो,
"तो हंदल का गांव अब नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"हंदल के परिवार का पेशा क्या था? मछली?'' पूछा मैंने,
"मछली भी और नैय्या बनाना भी!" बोली वो,
"और इन दोनों कामों में हंदल का क्या महत्व था?" पूछा मैंने,
"उसकी देह आधी थी" बोली वो,
''हां, बताया मुझे!" कहा मैंने,
"बिन सहारे के हिले नहीं, चले नहीं, हाथों से ही चला करता था!" बोली वो,
"घसीटता हुआ?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"लेकिन हंदल हाथ का कुशल कारीगर था!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वो कीलें ठोंकता, लकड़ी घिसता! काट भी देता!" बोली वो,
"हाथों में जान आ गयी थी, ये तो प्रकृति का ही एक नियम है, पांव कमज़ोर तो हाथ मज़बूत!" कहा मैंने,
"बिलकुल यही!" बोली अम्मा,
"तो हंदल का उस आश्रम से क्या लेना देना?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं!" बोली वो,
"कुछ नहीं? तो फिर?'' पूछा मैंने,
"वो तो अपने पिता के साथ किनारे पर बनी एक कार्यशाला में ही रहा करता था, वहीँ काम करता और घर लौट आता!" बोली वो,
"तब यस्था?" पूछा मैंने,
"कैसे मिली?" बोली वो,
"हां!" कहा मैंने,
"बताती हूं!" बोली वो,
"हां, बताइये!" कहा मैंने,
"ये जो नदी है न?" बोली वो,
"ये?" बोला मैं,
"हां, रिहन्द!" बोली वो,
"हां?" कहा मैंने,
"पहले बहुत चौड़ी थी, सागर के से किनारे थे इसके!" बोली वो,
"सोन सी?" बोला मैं,
"सोन तो बहुत बड़ी नदी है!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"रिहन्द के पास, कई गांव बसे थे!" बोली वो,
"अवश्य ही बसे होंगे!" बोला मैं,
"इसी नदी के बीच में, एक टापू था, मथैया का टापू!" बोली वो,
"टापू?" कहा मैंने,
"हां, बड़ा था!" बोली वो,
"अच्छा, आपने देखा?" पूछा मैंने,
"जन्म से पहले की बात है!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस टापू पर, एक मंदिर था!" बोली वो,
"मंदिर?'' कहा मैंने,
"हां! देवी माथो या माथी का!" बोली वो,
"अच्छा, मंदिर!" कहा मैंने,
"उस मंदिर की देखभाल भी ऋषि पौष ही किया करते थे!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"नैय्या वाले आते, ले जाते, लिवा लाते!" बोली वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"एक रात बरसात हुई!" बोली वो,
"तेज, आपका मतलब?" कहा मैंने,
"हां, बहुत तेज!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"उस मंदिर में, जो गौ-शाला थी, उसमे कुछ मवेशी फंस गए थे!" बोली वो,
''उस टापू पर मवेशी?" पूछा मैंने,
"हां?" बोली वो,
"इसका मतलब टापू काफी बड़ा था?" कहा मैंने,
"हां, काफी बड़ा!" बोली वो,
"उस रात जो बड़ी नैय्या वहां गयी, उसमे हंदल के पिता, भाई और स्वयं हंदल भी गया था!" बोली वो,
"मतलब, मदद करने?" कहा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"वो बेचारा क्या मदद करता?" पूछा मैंने,
"नाव खेता था, बिन थके!" बोली वो,
"अब समझा!" कहा मैंने,
"तो मवेशी बचा लिए गए!" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हां, और वे सभी आश्रम में बांध दिए गए!" कहा उसने,
"ये हंदल का पहली बार आना हुआ था उस आश्रम में?" पूछा मैंने,
"हां!" बोली वो,
"और पहली बार ही शायद वे मिले हों?" बोला मैं,
"नहीं, उस रात नहीं!" कहा उसने,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"हंदल नहीं जानता था कि यस्था कौन है, उसे तो यही मालूम था कि आश्रम में, मवेशी छोड़ने हैं!" बोली वो,
"अच्छा! मतलब उस रात हंदल ने यस्था को नहीं देखा?" कहा मैंने,
"नहीं! लेकिन....यस्था ने देखा था!" बोली वो,
"ओह! अच्छा!" कहा मैंने,
और अम्मा ने फिर कुछ गुनगुनाना शुरू किया, एक बार, दो बार! शायद अम्मा को ये पंक्तियां, विशेष रूप से पसंद थीं!
अब उसका अनुवाद.............
कितनी अंधेरी रात है! इतनी अंधेरी कि जलते दीये भी बंद हो गए हैं, अंदर, ओसारे से भीतर ही, एक गोल से मिट्टी के बर्तन में, अलाव जला है! उसी के पसकाश का एकमात्र सहारा है इस समय तो! बाहर से, मवेशियों के रम्भाने की आवाज़ें आयी हैं! शायद, माथो मां के यहां से वे निकाल लिए गए हैं! मैं अपनी झोंपड़ी के बाहर तक आयी हूं, बाहर कुछ लोगों की आवाज़ें आ रही हैं, इनमे से एक तो पिता जी की है, एक, उनके सहयोगी की और कुछ अनजान सी हैं मेरे लिए! दीख कुछ नहीं रहा है, कभी कभी झाईं सी दीखती है तो लगता है, पेड़ों से प्रेत लिपटे हैं! या कुछ पेड़, नीचे गिर पड़े हैं! फिर कुछ आवाज़ें साफ़ हुईं हैं! अब सुन सकती हूं!
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"सुन?" बोले पिता जी,
"जी?" बोला कोई,
"ये रख ले?" बोले वो,
"नहीं, क्षमा!" बोला है कोई,
"तू नहीं मानेगा!" बोले पिता जी,
"क्षमा!" बोला है कोई,
आवाज़ से लगता है, कोई प्रौढ़ है! लेकिन इस समय कौन हो सकता है? कहीं..खिवैय्ये तो नहीं?
"अरे? ये भी गया था?" बोले पिता जी!
"जी!" बोला कोई,
पिता जी चुप हैं, तभी बिजली कड़की और कुछ दिखा! वे दो आदमी हैं, सर पर कपड़ा बांधे हुए, ऊपर का तन उनका नग्न है, और नीचे कोई बैठा दिखा है, लेकिन वो नीचे क्यों बैठा है? इस बारिश में?
"सेणु? इनको घड़े में दूध दे दे! देख, बेचारा ये, ये भी अपनी जान पर खेलकर, गया था वहां! ला! ले आ!" बोले वो,
सेणु कब आया है, पता नहीं दूध दे दिया गया है शायद! मैं नज़रे गोल कर, देखने के प्रयास में हूं, नहीं, कोई नहीं दिखा! बारिश ने उत्पात मचाया हुआ है, पता नहीं कौन थे वे लोग? रात्रि, ठहर ही जाते?
"पुत्री?" आयी है आवाज़, ये अम्मा हैं!
"हां?" बोली वो,
"अंधेरे में ही है?" बोली हैं अम्मा,
"हां अम्मा!" बोली हूं मैं!
"रुक जा! वहीं रह!" बोली हैं अम्मा!
तो मां ने एक बड़ा सा दीया उसकी झोंपड़ी में लगा दिया था! और खुद भी वहीँ बैठ गयी थी! बाहर अभी भी ज़ोरदार फुहार वाली बरसात हो रही थी, लगता था जैसे आज तो बादल ही फट पड़े हैं और सबकुछ बहाने पर आमादा हैं! उनका स्थान एक ऊंचे से टीले पर था, जल से कोई समस्या तो नहीं थी उन्हें!
"कौन आया था अम्मा?" पूछा उसने,
"मवेशी लाये थे!" बोली वो,
"माथो से?" पूछा उसने,
"हां!" बोली मां,
"इतनी रात गए?" पूछा उसने,
"पता नहीं रात में क्या हो, नदी में उफान हो अधिक, तो निकाल लाये थे!" बोली मां,
"हां तब तो ठीक किया!" बोली यस्था!
"जाने रेणू मां क्या चाहें!" बोली मां,
"सब ठीक ही चाहेंगी!" बोली वो,
''नींद नहीं आ रही?" पूछा मां ने,
"शोर बहुत है!" बोली वो,
"ये तो है यस्था!" बोली मां,
"पिता जी ने दूध दिया उन्हें!" बोली वो,
"हां, एक बेचारा अपंग है!" बोली मां,
"अपंग?" बोली वो,
"हां!" कहा उन्होंने,
"कैसे अपंग मां?" बोली वो,
"कमर से नीचे का हिस्सा सुन्न है उसका!" बोली मां,
"ओह...क्या पिता जी के पास कोई उपाय नहीं?" बोली वो,
"आजमाए, परन्तु जन्म की व्याधि है!" बोली मां,
"ठीक नहीं हो सकती?" पूछा उसने,
"मां रेणू के हाथ सब!" बोली मां,
"तभी वो नीचे बैठा था? है न?" बोली वो,
"तूने देखा?" बोली मां,
"हां, आते हुए!" बोली वो,
"हां, वही है, हंदल!" बोली मां,
"हंदल!" बोली वो,
"हां, अपंग है, असहाय!" बोली मां,
"तब भी गया वो उनके साथ?" पूछा उसने,
"हां, कोई होगा नहीं ना?" बोली मां,
"अच्छा मां...." बोली यस्था!
उस कोमल हृदया यस्था के मन में, हंदल के प्रति क्या उपजा उस समय, ज्ञात नहीं, क्या उसकी असहायता ने उसके मर्म को छीला? या फिर, उसके जनम की ही व्याधि ने? सब खड़े थे और वो बेचारा बैठा था, भीगता हुआ..गया था फिर भी, अपनी जान लगा कर ही दांव पर!
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मैं तो उसी समय में खो गया था, सबकुछ मेरे सामने घटित हो रहा था! वो बारिश की झमझम, उसकी फुहारें, वो कड़कती बिजली, वो कंपकंपाती दीये की लौ, तेज वायु प्रवाह, वो झोंपड़ी और उन मवेशियों की रम्भाने की आवाज़ें! कभी कभार उस अलाव की रौशनी भी दिख ही जाती मेरे कल्पना-लोक में!
तभी मेरे कानों में किसी मवेशी के गले में बंधी घंटी की आवाज़ आयी और मेरा कल्पना-लोक अस्त हो गया! अम्मा का बड़ा पुत्र आ गया था, मवेशी को चराने गया था शायद! उसने नमस्कार की और हाथ धोने चला गया!
"ठीक है अम्मा!" कहा मैंने,
"बैठो?" बोली वो,
"कल आता हूं!" बोला मैं,
"मैं आउंगी, सांझ को!" बोली वो,
"ये तो और अच्छी बात होगी!" कहा मैंने,
"आउंगी!" बोली वो,
"अच्छा अम्मा, इंतज़ार रहेगा!" कहा मैंने,
और नमस्कार कर, हम निकल लिए वहां से!
"कैसी गाथा है?'' बोले वो,
"यदि सच है तो कोई उत्तर नहीं मेरे पास!" कहा मैंने,
"सच ही है!" बोले वो,
"अभी जानना ज़रूरी है!" कहा मैंने,
"आपको यस्था का स्थल दिखाया?" बोले वो,
"मानता हूं पर...." कहा मैंने,
"क्या पर?'' बोले वो,
"आपने किवदंती कहा था पहले!" कहा मैंने,
"यही आज भी कहता हूं!" बोले वो,
"किवदंती और सच?" पूछा मैंने,
"एक किवदंती, जो सच है!" बोले वो,
मैं रुक गया ये सुन कर!
"आओ, कुछ दिखाता हूं!" बोले वो, मेरी बाजू पकड़ते हुए!
"क्या दिखा रहे हैं?" पूछा मैंने,
''आइये तो?" बोले वो,
"हां, चलिए!" कहा मैंने,
हम बातें करते हुए, टहलते हुए आगे की तरफ चलने लगे, यानि कि वापसी के लिए! लोगबाग मिलते जाते, प्रणाम होती जाती, फिर नदी की एक धारा दिखाई थी, यहां हरे-भरे से पहाड़ थे, अनुपम छटा थी! उसके किनारे बने छोटे छोटे से मंदिर, अपना अपना जैसे महत्व बता रहे थे!
"वो देख रहे हैं?" बोले वो,
"वो?" कहा मैंने,
"हां?" बोले वो,
"मैदान सा?" कहा मैंने,
"हां वही!" बोले वो,
"हां, देख रहा हूं!" कहा मैंने,
''एक बात पर गौर किया?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
''दोनों तरफ कुछ मंदिर हैं, और वो देखिये, पहाड़ पर भी मंदिर है!" बोले वो,
"हां, हैं!" कहा मैंने,
"उस मैदान पर एक भी नहीं!" बोले वो,
मैंने गौर से दो बार देखा उधर, एक बार महंत जी को भी, वे मुस्कुरा रहे थे, मैदान को देखते हुए!
"हां, नहीं है!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"पता नहीं?" बोला मैं,
"कोई तो कारण होगा?" बोले वो,
"होगा तो अवश्य ही!" कहा मैंने,
"बरसात में ये डूब जाएगा!" बोले वो,
"ओह! समझ गया!" कहा मैंने,
"और उधर देखो?" बोले वो,
"कहां?" पूछा मैंने,
"उधर, बीच में!" बोले वो,
"हां कुछ बची सी भूमि है!" कहा मैंने,
"कहते हैं यहीं वो मंदिर था!" बोले वो,
"माथो देवी का?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"मतलब, ये ही वो भूमि है?" पूछा मैंने,
"हां, अधिकांश लोग यही मानते हैं!" बोले वो,
"कैसे पता?" पूछा मैंने,
"कई लोगों को, कुछ ऐसी वस्तुएं मिली थीं!" बोले वो,
"कैसी?" पूछा मैंने,
"कुछ पत्थर, कुछ बनावट!" बोले वो,
"सच में?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"कभी पानी नहीं सूखता यहां का?" पूछा मैंने,
"बहुत कम!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"उस तरफ बांध बन रहे हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"खुदाई होती है तो कुछ न कुछ मिल जाता है!" बोले वो,
"कुछ मिला?" कहा मैंने,
"हां, कुछ बर्तन, कुछ सिक्के भी थे उनमें!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"इसका मतलब ये जगह बहुत ही पुरानी है!" कहा मैंने,
"हां, कह सकते हैं कि यहां आदिकाल से ही मनुष्य बसता आ रहा है! अभी कहते हैं कि जंगलों में ऐसी कई जगह हैं, गुफाएं आदि जहां कुछ भित्तिचित्र एवं अस्थियां भी मिल सकती हैं!" बोले वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"रिहन्द नदी ही रेणू या रेणुका नदी है!" बोले वो,
"हां, जानता हूं!" कहा मैंने,
"यहां मनीषी, ऋषि-मुनि आदि के भी वृत्तांत मिलते रहे हैं!" बोले वो,
"मिलते ही होंगे!" कहा मैंने,
"आओ!" बोले वो,
मैं उस भूमि को देखता जा रहा था, अब कुछ घास सी लगी थी, कुछ कछार सा भी जमा हुआ था उधर!
"इस तरह के अन्य टापू भी थे!" बोले वो,
"होंगे!" कहा मैंने,
''एक समय में, यहां प्राचीन समय में, देवता भी अवतरित हुए हैं!" बोले वो,
''मानता हूं!" कहा मैंने,
और उधर..........
"रेणुका कौन थीं? जानते हो?" पूछा उन्होंने,
"हां!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा उन्होंने,
"मुनि जमदग्नि भार्या!" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"भगवान शिव के आशीर्वाद से उन्होंने इस नदी का रूप धारण किया!" बोले वो,
"हां, पढ़ा है मैंने!" कहा मैंने,
"यहां बहुत कुछ छिपा है!" बोले वो,
"हां, छिपा ही होगा!" कहा मैंने,
"दूर-दराज में, पहाड़ों में, न जाने क्या क्या हो!" बोले वो,
"सच कहा आपने!" बोला मैं,
"यहीं जंगलों में एक नगरी भी है!" बोले वो,
"नगरी?" पूछा मैंने,
"हां!" कहा उन्होंने,
"कैसी नगरी?" पूछा मैंने,
"कबंध का नाम सुना है?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कबंध अकेला ही मारा गया था!" बोले वो,
"हां, और उसी ने, वो ही सबसे पहला था जिसने, उचित मार्ग सुझाया था श्री राम को!" कहा मैंने,
"कबंध के लोग, कहते हैं आज भी इसी क्षेत्र में, कहीं वास करते हैं! शायद भूमि के नीचे और आकाशगमन ही उनका मार्ग है!" बोले वो,
"हो सकता है!" कहा मैंने,
"वे समक्ष होते हुए भी, दृष्टि में नहीं आएंगे!" बोले वो,
"सच बात है!" कहा मैंने,
"ऐसा हो हो शायद?" बोले वो,
''हां!" कहा मैंने,
"परन्तु, मनुष्य पतित है, था और रहेगा! उसी ने जब जब प्रकृति का दोहन आरम्भ किया, उसका सर्वनाश हो गया!" बोले वो,
"कई उदाहरण हैं!" कहा मैंने,
"हां, पढ़ता रहता हूं!" बोले वो,
"सिंधु-घाटी सभ्यता इसका उदाहरण है! अन्य प्राचीन संस्कृतियां भी अचानक ही लोप हो गयीं! कुछ का नामोनिशान मिला और कुछ का आज भी नहीं, हमारे भारत में भी ऐसा ही हो!" कहा मैंने,
"हां, होगा!" बोले वो,
"ये सब शोध के विषय हैं!" कहा मैंने,
"सो तो हैं ही!" बोले वो,
"उसके लिए चाहियें साधन, धन और हमारे लिए वही नून-तेल-लकड़ी का शाश्वत सिद्धांत!" कहा मैंने,
"यही तो बात है!" बोले वो,
"क्या करें!" कहा मैंने,
"आइये!" बोले वो,
और हम बातें करते हुए चले वापिस! आने ही वाले थे की मेरे जी में कुछ आया तभी!
"अभी समय है?" पूछा मैंने,
"हां? कहिये?'' बोले वो,
"उधर चलें?" कहा मैंने,
"यस्था-स्थल?" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"हां, क्यों नहीं!" बोले वो,
"मुझे ध्यान से देखना है!" कहा मैंने,
"अवश्य देखिये!" बोले वो,
"पता नहीं फिर कब आना हो!" कहा मैंने,
"हां जी! समय की बात है!" बोले वो,
"मुनि पौष का कोई नाम जानता है यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"हो भी तो कहां, पता नहीं!" बोले वो,
"उस समय तो ये स्थान, पावन होगा!" बोला मैं,
"होगा ही!" बोले वो,
मैंने पीछे मुड़ कर देखा, अंदाजा लगाया कुछ!
"क्या हुआ?" बोले वो, भांप कर!
"वो नदी सच में ही बहुत चौड़ी रही होगी!" कहा मैंने,
"बिलकुल रही होगी!" बोले वो,
"यहां से ही देखो!" कहा मैंने,
"हां, कम से कम किलोमीटर तो!" बोले वो,
''हां!" बोला मैं,
"आइये!" बोले वो,
"ये दूसरा कोई रास्ता है?" पूछा मैंने,
"हां, उस दिन से अलग!" बोले वो,
हम उस मार्ग से आगे बढ़ते हुए, चल दिए, ऊंचा-नीचे सा रास्ता था, पहाड़ था, अब खैर इतना दुष्कर तो नहीं है, आसानी से पहुंच में है, आगे बढ़ते चले गए! यहां का माहौल बड़ा ही अच्छा है, खुशगवार है! सारी हरारत निकल जाती है!
"आप घूमिये, मैं ज़रा बैठ जाऊं!" बोले वो,
"ठीक!" बोला मैं,
अब यहां एक और बात थी कल से ही मैं सोचे जा रहा था, कटक्षी यहां कैसे आयी? न तो मां कमला का कोई स्थान ही यहां, न कोई मंदिर ही, न कोई पीठ ही, तब ये कटक्षी यहां कैसे?
मैं आगे पढ़ा, उस कटक्षी के एक पत्ते का टुकड़ा तोड़ा, सूंघा तो इलायची और सौंफ की सी मिश्रित सुगंध आयी! निःसंदेह ये पौधा यहां का नहीं था, इसे कोई लेकर आया था, सम्भवतः, आश्रम में ही कोई!
अपने आसपास देखा, एक एक पत्थर को, पत्थरों में भी एक मूक सी बोली होती है, जो समझ जाए तो फिर ये ऐसा बोलते हैं ऐसा बोलते हैं कि दिमाग ही चाट जाएं! यहां के पत्थरों में एक विशेष बात थी, जो दीखती थी, वो ये की सभी का आकार समान रूप का था! प्राकृतिक रूप से ऐसा सम्भव नहीं होता! सिर्फ गुफाओं के कैलसाइट्स के अलावा! यहां कोई गुफा तो होने से रही, हां पत्थर ही थे! मैंने सबसे पहले गिनना शुरू किया तो वे निकले कोल चौबीस! एक जैसे ही थे, हां, कुछ एक आद गिर ज़रूर पड़े थे, उनके बीच में जो दरारें थीं उनमे वनस्पति उपज आयी थी! मैं आगे गया!
और तब एक पत्थर पर नज़रें ठहर गयीं! मैं झट से आगे बढ़ा, उस पत्थर को देखा, कुछ कछार सी जमी थी, कुछ पेड़ों की मृत जड़ें भी! मैंने आसपास देखा, एक त्रिकोणीय पत्थर दिखा, उठा और उसे औजार की तरह से इस्तेमाल किया, कछार हटाई और वो जड़ें भी, पसीने छूट गए! अंदर उसके साफ़ सा सफेद, भूरा सा पत्थर दिखाई दिया, थोड़ा और हटाया तो कुछ अजीब सा दिखा! कुछ निशान से थे, जैसे छैनी के रहे हों, पक्का कुछ नहीं कहा जा सकता था, स्टोन-बीटल कीट भी ऐसा करता है! थोड़ा और साफ़ किया, तब कुछ छोटे से कीड़े निकल भागे, कीड़े काले रंग के पंख वाले थे, अंदर ही कहीं रह रहे थे, उनके हटने का इंतज़ार किया वे हटे तो एक गोल सा छेद दिखा! कीड़े वहीँ से निकले थे, अर्थात अंदर कहीं जगह थी, कीड़े थे भी बहुत सारे, कुछ उड़ गए थे, कुछ वहीँ जमे थे और कुछ दाएं-बाएं भाग लिए थे!
"क्या हुआ?" उठा आये थे महंत जी,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"ये सारे पत्थर ऐसे ही हैं!" बोले वो,
"ऐसे ही छेद वाले?" कहा मैंने,
"छेद?" बोले वो,
"देखो?" कहा मैंने,
वे बैठे और देखा, फिर मुझे देखा!
"अरे हां!" बोले वो,
"ये छेद प्राकृतिक नहीं!" कहा मैंने,
"हां, चौकोर है!" बोले वो,
"हां, लग तो रहा है!" कहा मैंने,
"इसमें है क्या?" पूछा उन्होंने,
"क्या पता?" पूछा मैंने,
"कीड़े हैं?" बोले वो,
"होंगे!" कहा मैंने,
"कहीं सर्प ही न हो!" बोले वो,
"यहां?'' पूछा मैंने,
"हां?" बोले वो,
''नहीं होगा!" कहा मैंने,
"एक मिनट!" बोले वो,
और आसपास देखा, एक डंडी ढूंढ रहे थे वो!
"वो लाना?" बोले वो,
"लाया!" बोला मैं,
ले आया, उन्हें दे दी!
"देखें ज़रा!" बोले वो, डंडी से पत्ते हटाते हुए!
और डंडी उस छेद में सरका दी, कमाल था! डंडी पूरी की पूरी डेढ़ फ़ीट, अंदर ही चली गयी!
"गहरा है ये तो!" बोले वो,
"हां!" कहा मैंने,
"कल देखते हैं!" बोले हाथ झाड़ते हुए!
"ठीक!" बोला मैं,
"क्या लगता है?" बोले वो,
"पता नहीं क्या हो?" कहा मैंने,
"कुछ तो है!" बोले वो,
"पता चले!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"एक और खोज!" बोले वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"वापिस चलें?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम वापिस हो लिए फिर!
हम वापिस चले आये, आते ही हाथ-मुंह धोये और बैठ गए! उन्होंने चाय के लिए कह दी थी, चाय मिल जाती तो बहुत अच्छा रहता!
"आपने तो नया रास्ता ही खोज दिया!" बोले वो,
"कोशिश करते हैं!" कहा मैंने,
"पता नहीं क्या है उधर!" बोले वो,
"कुछ नहीं कहा जा सकता!" कहा मैंने,
"कल दो आदमी ले चलता हूं!" बोले वो,
"ठीक रहेगा!" कहा मैंने,
तभी कमरे में एक महिला आयी, आते ही प्रणाम किया!
"हां सरोज?" बोले वो,
"जी?" बोली वो,
"उधर गठरी है, ले ले!" बोले वो,
"अच्छा जी!" बोली वो,
अपने कपड़े ठीक किये, पता नहीं मैं शहरी कैसा आदमी हूं, क्या नज़र भरूं और कैसे देखूं! इसीलिए उसने अपने कपड़े कस लिए थे, मैंने भी नज़रें फेर लीं! उसने गठरी उठायी और तेज क़दमों से बाहर चली गयी!
"क्या है गठरी में?'' पूछा मैंने,
"बीज हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"खेतों में बुवाई कर लेते हैं ये!" बोले वो,
"बढ़िया है!" कहा मैंने,
"शाक-सब्जी आ जाती है और क्या!" बोले कंधा खुजाते हुए अपना!
तभी एक लड़का आया, चाय ले आया था, मैंने अपना कप पकड़ा और दूसरा उसने, उन्हें दे दिया!
"आपको ये स्थल कैसे पता चला था?" पूछा मैंने,
"पता तो था ही?" बोले वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"बचपन से ही!" बोले वो,
"पिता जी बातें करते होंगे?'' बोला मैं,
"हां, आसपास भी कुछ लोग!" बोले वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"याद आया!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने, एक चुस्की खींचते हुए!
"कोई दस-बारह का रहा होऊंगा मैं तब!" बोले वो,
और चाय की चुस्की ली!
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कुछ साधू आये थे!" बोले वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वे और पिता जी गए थे उस जगह, मैं भी गया था, दो चार और भी थे, तब तो समझ ही नहीं आया था कुछ भी!" बोले वो,
"क्या किया था उन्होंने?" पूछा मैंने,
"वे वहीँ ठहरे थे!" बोले वो,
"उसी स्थल पर?'' मैं चौंका ये पूछते हुए!
"हां!" बोले वो,
"कोई पूजा?'' पूछा मैंने,
''याद नहीं अब!" बोले वो,
"कितने थे?" पूछा मैंने,
"करीब आठ?" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हां!" बोले वो,
"उन्हें वो जगह पता थी?" पूछा मैंने,
"पता ही होगी!" बोले वो,
"लेकिन कैसे?" पूछा मैंने,
"क्या पता? बताई हो किसी ने?" बोले वो,
"तो यस्था के बारे में कुछ बाहरी लोग भी जानते थे?" पूछा मैंने,
"शायद!" बोले वो,
"कितने दिन ठहरे?" पूछा मैंने,
"महीना सा ही?" बोले वो,
"पिता जी मिलते थे?'' बोला मैं,
"रोज ही!" बोले वो,
''अच्छा?" कहा मैंने,
"हां, रात को पूजा होती थी!" बोले वो,
"रात को?" मैंने फिर से चौंका!
''हां!" बोले वो,
"साधू कैसे थे?" पूछा मैंने,
"वैष्णव ही थे!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और मैंने चाय का प्याला ख़तम कर, वहीँ, नीचे रख दिया, पटरे पर!