कांपते ही उनका शरीर मेरे हाथ से फिसलता चला गया!
वे नीचे बैठते चले गए!
मेरे होश उड़े!
मैंने फौरन नब्ज़ देखी उनकी!
चल रही थी,
हताक्षि-नाड़ी की जांच की,
चलने लगी थी,
अर्थात, वे मूर्छित हुए थे!
हताक्षि-नाड़ी तभी चलती है,
सामान्य तौर पर नहीं!
अगर उन्हें कुछ हो जाता, अहित होता,
तो इस स्थान को तो मैं मटियामेट करता ही,
उस धीमणा का वो हाल करता, कि अपने जन्म को कोस्टा रहता,
अनंत तक!
वो राज-कन्या आई आगे,
और मेरे सामने बैठ गयी,
मुझे देखा, मुस्कुराई वो,
हाथ किये आगे,
एक डिबिया थी हाथ में, सोने की,
उसे खोला उसने,
तो उसमे, केसरी रंग का सिन्दूर था!
वो सिन्दूर था केसरी रंग का! लेकिन किसलिए? उस डिबिया में एक सिलाई भी थी, सोने की, इस से सिन्दूर भरा जाता है मांग में, लेकिन वो मेरे पास क्यों आई थी? बड़ी ही अजीब बात थी! मैंने ऐसा कुछ न देखा था पहले! बहुत सी शक्तियां अवश्य देखी थीं, उनका प्रभाव भी देखा था, लेकिन ऐसा तो कभी सोचा भी नहीं था! वो खड़ी हुई! मुझे देखा, और डिबिया आगे बढ़ायी!
"कौन हो तुम?" पूछा मैंने,
मुस्कुराई वो,
"कौन हो? बताओ?" बोला मैं,
"मैं?" बोली वो,
बड़ी ही सुरीली आवाज़ थी!
"हाँ?" कहा मैंने,
"सुहंगा!" बोली वो,
अब जैसे ही मैंने नाम सुना,
मैं चौंका!
नाम सुना था मैंने,
पढ़ा भी था, लेकिन ध्यान नहीं दिया था!
सुहंगा काम-कन्या होती है!
बंजार-विद्या में इसका ख़ास स्थान है!
इसको सम्मोहिनी की अधिष्ठाता कहा जाता है!
ये पुरुष का वरण करती है!
सिंदूर भरवाती है मांग में,
और तदोपरांत, संसर्ग के लिए बाध्य कर देती है!
मेरी कनपटी पे छलका पसीना!
शर्मा जी इसके प्रभाव को झेल न सके थे,
इसी कारण से मूर्छित हो गए थे!
"लीजिये?" बोली वो,
अब जब तक मैं उसकी मांग नहीं भर देता, उस से मुझे कोई खतरा नहीं था!
परन्तु, यदि संसर्ग कर लिया,
तो समझो मैं उसका दास हुआ,
इस संसार से एकदम अलग,
बस इसके ऊपर ही निर्भर!
खतरा पल पल बढ़ता जा रहा था!
"लीजिये?" बोली वो,
"नहीं!" बोला मैंने,
वो मुस्कुराई,
मेरे कान के नीचे ऊँगली रखी अपनी!
मेरी देह सनसना गयी!
काम-प्रवाह ज़ोर मार उठा!
जैसे झरने से फूटने लगे मुझमे!
धीमणा ने क्या खूब चाल चली थी!
वो मेरा अंत ही चाहेगा!
ये मैं जानता था!
मैं हटा ज़रा, उसकी ऊँगली हटी,
तो उसने मेरी गर्दन की खाल पकड़ ली,
आगे आई, महक, उठी,
मेरी आँखें भारी हुईं तभी!
और अगले ही पल,
मुझे भर लिए अपनी बाजुओं में,
पत्थर जी जकड़न थी वो!
जैसे, मुझे अपने में समाते जा रही हो!
उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा था!
मैंने गुरु-नमन किया,
अष्टभेदन का जाप किया मन ही मन!
और उसको हटाने लगा,
वो न हटे!
मैंने ज़ोर लगाया,
नहीं हटी!
तब मैंने जिमीक्षा का संधान किया!
जैसे ही किया, वो हट गयी!
आँखों का रंग सुरमयी से रक्तिम हो गया उसका!
पलकें बंद कीं उसने!
और देह का रंग गुलाबी हो गया!
"लो?" बोली वो,
मैंने ली डिबिया,
और फेंक मारी सामने,
उसने देखा उधर!
डिबिया लोप हुई!
और अगले ही क्षण, मेरे सर पर वो सिंदूर टपकने लगा!
मेरा संधान पूरा हुआ!
मैंने थूक इकट्ठा किए मुंह में!
और जैसे ही मेरे सामने आई,
मैंने थूक फेंक दिया उस पर!
भक्क से आग लगी उसमे!
और लोप हुई!
वो हुई जैसे ही लोप,
मैं नीचे बैठा,
शर्मा जी को जगाया,
वे जागे, और सब समझ गए!
ढूंढने लगे उसे!
"चली गयी!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
कपड़े झाड़े मैंने उनके,
"क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, आँखें बंद हो गयी थीं!" बोले वो,
"ये ऊर्जा-क्षय थी!" कहा मैंने,
और उन्होंने मेरा सिंदूर साफ़ कर दिया,
मेरे पूरे कपड़े, सिन्दुरिया हो गए थे!
काली कमीज़ थी,
अब सिंदूर के दाग पड़े थे!
और तभी प्रकट हुआ धीमणा!
ठीक सामने!
"सुहंगा भी गयी धीमणा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"मान जा!" कहा मैंने,
"नहीं! नहीं!" बोला वो,
और झट से लोप हुआ!
मैं वहीँ देखता रहा,
और अचानक ही,
एक स्त्री प्रकट हुई!
काले रंग के कपड़े पहने थे उसने,
चोली, और जंघा पर ही थे वस्त्र,
भीमकाय सी स्त्री थी!
वो उतरी भूमि पर,
जब चलती थी, तो पूरा जिस्म हिलता था उसका,
जैसे कोई महिला-पहलवान हो!
मुझसे लड़ती,
तो भारी ही पड़ती मुझ पर,
उठा-पटक कर देती वो शर्तिया ही!
ऐसी भीमकाय औरत,
मैंने न देखी थी कभी पहले!
वो आई, और रुकी ठीक हमारे सामने,
अपना एक चुटीला पकड़ा हाथ में,
और देखने लगी हम दोनों को!
भयानक सी नज़र थी उसकी!
लगता था जैसे कि अभी झपट्टा मार देगी मुझ पर!
मैंने फिर से जिमीक्षा विद्या का संचरण किया,
झुका और मिट्टी उठा ली,
वो आती तो फेंक देता उस पर,
"कौन है तू?" पूछा उसने,
"धीमणा से पूछ ले!" कहा मैंने,
"मुझे बता?" बोली वो,
"उसी से पूछ!" कहा मैंने,
"अभुण्ड! है न!" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या चाहता है?" पूछा उसने,
"धीमणा से पूछ!" कहा मैंने,
"इधर आ!" बोली वो,
और हिलते हिलते, चली वापिस,
मैं रुका रहा वहीँ!
उसने पलट के देखा,
"आ जा?" बोली वो,
मैं नहीं चला!
वो फिर से लौटी,
जाँघों की पेशियाँ खुल जाती थीं उसकी!
मेरी जांघ के बराबर तो उसकी,
पिंडलियाँ थीं,
सात फ़ीट की रही होगी वो!
भुजाएं ऐसी लम्बी और मज़बूत,
कि आज के किसी मर्द को पकड़ ले,
तो मिमियाया न जाए उस से!
"आ तो सही?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं?" बोली वो,
"हाँ, नहीं!" कहा मैंने,
"डर लगता है?" बोली नस कर!
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो आ फिर!" बोली वो,
और चली फिर आगे!
चलती गयी!
चलती ही गयी!
फिर पीछे देखा!
और फिर लौटी!
"आ तो सही?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अरे? मैं क्या खा जाऊॅंगी तुझे?" बोली वो,
"खा भी नहीं सकती!" कहा मैंने,
"सुन, कोई नुकसान नहीं होगा! आ!" बोली वो!
"नहीं!" बोला मैं,
"वाह! तू काम का है! आ जा!" बोली वो,
मैं फिर नहीं गया!
अब वो आई हमारे पास!
"ये रोक लेगा मुझे?" बोली वो,
उस घेरे की रेखा को पाँव के अंगूठे से छूते हुए!
"कोशिश कर!" कहा मैंने,
वो हंसी, होंठ बंद कर,
और उस घेरे में आ गयी!
"ले! आ गयी मैं!" बोली वो!
वो सच में ही आ गयी थी!
मैं तो हैरत में पड़ गया!
"आ! आ मेरे साथ!" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
वो फिर हंसी!
अपन एक चुटीला, पकड़ा और मेरी तरफ हाथ कर, हिलाया उसने!
वो अंदर आ खड़ी हुई थी! हंस रही थी! लेकिन एक बात कहूँगा, चेहरे पर कहीं भी, शत्रुता के लक्षण नहीं थे! उसके भाव सम थे, विश्वास करने को मन करता था! वो अंदर ही खड़ी थी! अपना वो चुटीला, बार बार हिलाती!
फिर पीछे घूमी वो,
दो चुटीले आपस में बंधे थे!
"सुन, ज़रा खोल दे इन्हें?" बोली वो,
अब क्या करूँ?
खोल दूँ?
या रहने दूँ?
वो फिर पलटी!
मेरे गाल को छुआ!
"इतना क्यों डर रहा है? खोल?" बोली वो,
मैं जस का तस!
"अरे खोल न?" बोली वो,
हिम्मत न जाने कहाँ से आ गयी मुझमे!
मैं आगे बढ़ा, और हाथ ऊपर किया,
खोल दिए चुटीले उसके!
खुले, तो केश भूमि से जा लगे!
अब वो घूमी,
मुस्कुराई,
मुस्कुराती थी तो सुंदर लगती थी वो,
मोटी मोटी आँखें!
काले सुर्ख बाल!
चौड़े कंधे!
और स्तन, ऐसे बड़े, कि मेरी छाती और उसका एक स्तन!
सच में, वो कपड़ा ही कम से कम दो मीटर का होगा,
जिसमे वो बंधे थे!
मानवों में दैत्य कहिये उसे, तो सटीक होगा!
हाथ ऐसे बड़े, कि एक झापड़ मार दे, तो जबड़ा टूट जाए!
उसने अब अपने केश बांधे,
और एक बड़ा सा जूड़ा बना लिया!
"अब ठीक है न?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हाँ! ऐसे बोला कर!" मेरे सर पर हाथ मारते हुए कहा उसने!
उसने तो हाथ मार, यहां मेरा भेजा हिल गया!
मेरे सारे तन्त्राभूषण, जैसे भेद डाले थे उसने!
इसीलिए छू लेती थी मुझे!
"आ, मेरे साथ आ!" बोली वो,
और पकड़ लिया मेरा हाथ!
खींच लिया मुझे!
शर्मा जी ने पकड़ा मुझे,
उन्हें भी खींच लिया उसने!
ऐसी पहलवान थी वो!
"आप वहीँ रहो, घेरे में! समझा करो! मेरे होते न आपको कुछ होगा, न मेरे इस मज्जू को!" बोली वो,
शर्मा जी ने नहीं छोड़ा हाथ मेरा!
उसने मुझे छोड़ा, और शर्मा जी के पास गयी!
"आप मेरे पता जैसे हो! वचन दिया, कुछ न होगा, ज़रा भी हुआ, तो ये सर आपका!" बोली वो,
बड़ी अजीब बात थी!
शर्मा जी रुक गए!
मैंने हाँ कही थी!
"आ! संग आ मेरे!" बोली वो,
और ले चली संग अपने!
"नाम क्या है तुंम्हारा?" पूछा मैंने,
"रदनी!" बोली वो,
"तुम्हें धीमणा ने भेजा?" पूछा मैंने,
"ना! मैं आई तेरे लिए! तूने हराया उस सुहंगा को! इसलिए!" बोली वो,
और ले आई एक जगह!
ये एक छोटा सा चबूतरा था!
"मज्जू?" बोली वो,
"ये मज्जू क्या होता है?" पूछा मैंने,
"मज्जू नहीं जानता?" बोली वो,
मेरी एक जटा पकड़ते हुए!
"नहीं!" कहा मैंने,
"मरद, पक्का मरद!" बोली वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"तूने सुहंगा को फेंका, मैं आई!" बोली वो,
"तुम धीमणा के संग हो?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"अब तो तेरी हो गयी! रख ले मुझे!" बोली वो,
मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए!
मैंने कंधे से उठाया उसका वो भारी हाथ,
अब तो बैठी भी वो पीड़ा सी लगे, साथ,
दिमाग में बज गया घंटा!
विचारों का पड़ा घोर टंटा!
"मैं समझा नहीं?" कहा मैंने,
"अब तेरी हूँ! संग रख ले, तंग न करूंगी!" बोली वो,
"कैसे रख लूँ?" बोला मैंने, पूछा,
"जैसे मर्जी!" बोली वो,
अब गड़बड़ होने की सीटी बजी!
"रदनी! नहीं रख सकता!" बोली वो,
"तो टांग देना?" बोली वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"तेरे कीकर पर, उस वाले!" बोली वो,
"क्या कह रही हो?" बोला मैं,
"सुन, रदनी न आई किसी के हाथ!" बोली वो,
इतराते हुए!
मैं तो बालक सा ही लग रहा था उसके सामने,
उसकी एक जांघ ही मेरे पेट बराबर थी,
हथिनी और सियार का क्या मेल?
"अब न जाउंगी मैं!" बोली वो,
"मैं नहीं ले जाऊँगा!" कहा मैंने,
"मैं तो जाउंगी!" बोली वो!
"नहीं!" कहा मैंने,
अनुभव क्र. ९३ भाग ९
"नहीं!" बोला मैं,
"देख, कह दिया न?" बोली वो,
मुझे ही धमका रही थी वो पहलवानन!
कैसे बला पड़ी गले को!
"रदनी?" मैंने कहा,
दरअसल उल्लू साधा!
"बोल न?" बोली वो,
"ये धीमणा क्यों नहीं आ रहा?" पूछा मैंने,
"मेरे होते न आये!" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बहन हूँ छोटी उसकी!" बोली,
बहन?
अब तो जैसे मैं गोंद में चिपका!
धीमणा की बहन!
ऐसी भीमकाय?
अजी भीमकाय तो छोडो,
हथिनी कहो!
ऐसी कि डर लग जाये देख कर!
और वो,
मेरे साथ ऐसे बात करती थी,
जैसे न जाने कब से जानती हो मुझे!
"वो मारना चाहता है मुझे!" कहा मैंने,
"अरे मज्जू! छोड़ अब!" बोली वो,
बड़ा अच्छा जवाब दिया था उसने मुझे!
सबकुछ समझा दिया था!
"सुन? भूलना नहीं!" बोली वो,
और खड़ी हुई,
मुझे खड़ा किया,
भींच लिया मुझे,
सांस रुक गयी मेरी तो!
कहीं पसली ही न टूट जाए एक आद!
छूटा उस से,
"अब जाती हूँ मज्जू!" बोली वो,
मुझे, मेरे माथे पर चूम लिया,
पकड़ने चले थे मछली,
हाथ आ गयी व्हेल!
अब कर लो अपनी फजीहत!
कैसी बेबाक थी वो!
दुनिया मैं, आज की दुनिया में,
उसके लायक तो कोई मर्द न था,
सीढ़ी लगाकर ही चढ़ता!
ऐसी थी नहीं, है वो, आज भी है!
उसको कोई देख ले, तो भोजन गले से न उतरे!
प्राण ही निकल जाएँ उसके तो!
पता नहीं कैसा ढांचा लायी थी निकलवा के, विशेष तौर पर!
खैर जी,
मैं उठा,
और जैसे ही उठा,
तेज वायु चली!
प्रचंड वायु!
मैं भागा वहाँ से!
और जैसे ही भागा,
अटक कर गिरा नीचे,
दांत लगा एक पत्थर से,
उसकी किरिच टूट गयी!
आज तक टूटी है!
हवा ऐसी, कि उड़ा ले जाए सबकुछ!
मैं जैसे ही उठता,
फिर से गिर जाता!
रगड़ रगड़ के चला आगे!
और पहुंचा घेरे के अंदर!
यहां कोई वायु नहीं!
आकाश में बदली ने,
ऐसा भयंकर और खौफनाक रूप ले लिया था कि,
अपने आप ही इंसान ठंड खा बैठे!
मैंने कपड़े झाड़े,
और पानी पिया,
भम्म की आवाज़ हुई,
और हुआ एक ज़बरदस्त अट्ठहास!
मैंने लिया बैग,
निकाली अस्थि एक,
वो अट्ठहास, हुआ प्रबल!
और तब,
ठीक सामने,
प्रकट हुआ कोई!
कोई महाभट्ट जैसा!
भीमकाय!
बलधामा!
वो गंजा था,
लगता तो वेताल सा था!
वो उड़ा, और ठीक हमारे सामने!
समझा!
फणा! ये फणा था!
बंजार शक्ति!
ये, अत्यंत क्रूर होता है!
कौनव वेताल सिद्ध होता है इसे!
ये मानव-मस्तिष्क का भक्षण करता है!
बेहद शक्तिशाली होता है!
मुझे अलख याद आई!
अलख होती,
तो इसको पकड़, ले चलता संग!
लेकिन अब स्थिति, भिन्न थी!
फणा ने हुंकार भरी! ऐसे दहाड़ कि कान फट जाएँ! फणा बेहद जुझारू होता है! ताक़त के
मुक़ाबले में तो अव्वल ही रहता है! अहिराक्ष समान ही बल होता है इसमें! लेकिन अहिराक्ष आसुरी शक्ति है, बलधामा है और लड़ने में कोई सानी नहीं उसका! हाँ, ये फणा, बिना अलख के प्रकट होता है, ये खासियत है इसमें! उसने अब चक्कर काटे हमारे! गुर्राए और दहाड़े! पास आये, लेकिन घेरा ने भेद पाये! गुस्सा करे! हवा में उठे! मैंने तब वारुणी विद्या का संधान किया! वारुणी अचूक विद्या है, ये मुझे बाबा शाल्व नाथ से मिली थी, मात्र चौबीस मिनट में ही सिद्ध हो जाती है, एक बलिकर्म द्वारा पूजित है! फिर ये सिद्ध हो जाती है, प्रेत, महाप्रेत, डाकिनी, शाकिनी, यून्ड आदि तक को धराशायी करने में समर्थ है! फणा, चीख रहा था! अचानक से, पत्थरों की बरसात कर दी उसने! घेरे से टकरा, सब नष्ट हो गए! फिर अंगार! राख, धूल! फिर लोथड़े, अस्थियां आदि सब! लेकिन कुछ न हुआ! उस घेरे को भेद न सका वो! वो क्रोध के मारे फड़क रहा था! तब मैंने उठाई मिट्टी, विद्या से संचरित की, और फेंक दी घेरे से बाहर! भक्क से आग लगी और फणा काला धुँआ हो, लोप हो गया!
"धीमणा?" कहा मैंने!
वो हुआ प्रकट!
इस बार हाथ में एक बड़ा सा त्रिशूल लिए!
त्रिशूल चमक रहा था उसका! जैसे कि नया हो!
उतरा ज़मीन पर!
लहराया उसने त्रिशूल!
"मन जा धीमणा!" कहा मैंने,
वो हंसा! ठहाके मारता रहा!
न मानना था उसे, और न माना!
उसने भूमि में गाड़ा त्रिशूल!
और बैठ गया! पढ़ा कोई मंत्र उसने!
और चिंगारियां सी छूटीं वहां!
पीली पीली! जैसे छोटी फुलझड़ियाँ जली हों!
और वो लोप हुआ तब ही!
अब ये भी कोई नयी ही विद्या थी!
ये भी मेरे लिए नया है था!
प्रकाश तो देखा था मैंने,
लेकिन ऐसी फुलझड़ियाँ, इस रंग की,
पहली बार ही देख रहा था मैं!
भन्न की तेज और ज़ोरदार आवाज़ हुई!
कानों के पर्दे ही फट जाते, ऐसी तेज आवाज़!
और वे इकट्ठे हो गए थे सारे प्रकाश के वो पिंड!
तेज वायु बहने लगी!
मिट्टी उड़ने लगी!
हमें बैठना पड़ा तब!
और कोई रास्ता नहीं था हमारे पास!
चेहरे दूसरी तरफ घुमा लिए थे!
हवा ऐसी तेज थी,
कि सांस लेना मुश्किल हुए जा रहा था!
रुमाल लगाया मुंह पर,
और सामने, कोई स्त्री जैसी खड़ी थी!
करीब साठ फ़ीट दूर!
हवा हुई शांत तब, और अब मुंह झाड़ा हमने!
मिट्टी पोंछी आँखों से,
नथुनों से,
सामने एक स्त्री खड़ी थी,
नाटी कद की, कोई चार फ़ीट ही कद होगा उसका,
लेकिन थी, स्थूल, रंग में सांवली थी,
हाथ में एक सींग पकड़ा था हिरण का,
पीले वस्त्र पहन रखे थे उसने,
गले में हाथी-दांत की सी मालाएं धारण किये हुए थी वो!
ये कौन थी?
पता नहीं!
मैंने तो पहली बार ही देखा था उसको!
क्या करने में समर्थ थी, पता नहीं!
मैंने आत्म-रक्षा के लिए,
रक्षिणी-कण्ड पढ़ लिया था!
शरीर फूंक लिया था उस से,
अपना भी, और शर्मा जी का भी!
सहसा वो लोप हुई!
अब खेल शुरू हो गया था उसका!
मैं हो गया था मुस्तैद!
ये जो कोई भी थी,
थी तो कोई विशेष ही!
तभी हमारे पीछे से आवाज़ आई एक, तर्रद-तर्रद की सी!
हमने झटके से पीछे देखा!
पीछे की भूमि उठ रही थी ऊपर!
उसको उठाया जा रहा था!
वो कम से कम डेढ़ फ़ीट उठ चुकी थी!
आवाज़ वहीँ से आ रही थी!
यदि ऐसे ही भूमि उठती,
तो हमें घेरा छोड़ना पड़ जाता!
क्या चाल चली थी अबकी बार इस बंजारे ने!
हम पीछे हटे वहाँ से,
भूमि फ़टे जा रही थी!
अब तो हटना ही था!
मैंने शर्मा जी का हाथ पकड़ा,
और चले हम घेरे से बाहर!
घेरे की ज़मीन फ़टी!
और हम भागे वहाँ से!
सीधा उस चबूतरे के पास!
उस सीध में जो आये जा रहा था,
भूमि में धसके जा रहा था!
क्या पौधे और क्या पत्थर!
हमें और पीछे हटना पड़ा!
फिर एक जगह जाकर,
वो थम गयी!
एक बड़ी सी रेखा बन गयी थी,
जैसे उस जगह को आधा आधा बाँट दिया गया हो!
ये करामात मैंने यहीं देखी थी!
सहसा ही ताप बढ़ा, और जैसे कोई गुजरा हमारे पास से!
मैंने हाथ थाम रखा था शर्मा जी का
भक्क से चारों तरफ आग लग गयी!
मैंने वो मिट्टी जो हाथ में थी,
फौरन से फेंकी उधर!
